CWM (Hin) Set of 17 volumes
पथपर 341 pages 1979 Edition
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ABOUT

The Mother confides to a disciple her experiences on the path of a 'yoga of the body'.

पथपर

The Mother symbol
The Mother

During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'

Collected Works of The Mother (CWM) Notes on the Way Vol. 11 333 pages 2002 Edition
English Translation
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The Mother symbol
The Mother

During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' पथपर 341 pages 1979 Edition
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पथपर

 

प्रथम संस्करण १९७९

हिन्दी अनुवाद © श्रीअरविंद आश्रम ट्रस्ट १९७९

सर्वाधिकार सुरक्षित

 

 

मूल्य ३५.००

 

 

खंड ११

 

श्रीअरविंद आश्रम ट्रस्टकी ओरसे

श्रीअरविंद सोसाइटी, पांडिचेरी द्वारा प्रकाशित

श्रीअरविंद आश्रम प्रेस, पांडिचेरी द्वारा भारतमें मुद्रित

 

वितरक : 

 शब्द : श्रीअरविंद बुक्स डिस्ट्रिब्यूशन एजेंसी, पांडिचेरी-६०५००२

 

प्रकाशकीय वक्तव्य

 

 पिछले दस वर्षोमें माताजी एक शिष्यके साथ अपनी कुछ अनुभूतियोंके बारेमें बातचीत किया करती थीं । यह बातचीत फ्रेंचमें हुई थी और उस शिष्यने ध्वन्याकित कर ली थी । उस शिष्यने उसके कुछ अंश 'बुलेटिन' ( शिक्षण पत्रिका) में छापनेके लिये संपादित किये थे । इन्हें माताजीने देखा और स्वीकृति दी थी; बुलेटिनमें यह लेखमाला ''पथपर टिप्पणियां'' और ''प्रासंगिक'' शीर्षक सें छपी थीं । यह सामग्री 'श्रीमातृवाणी'के ग्यारहवें खण्डमें छप रही है ।

 

  जब 'बुलेटिन'में इस लेखमालाका प्रकाशन शुरु: हुआ था तो उसके साथ एक टिप्पणी मी छपी थी : ''हम इस शीर्षक-तले माताजीके साथ हुई बातचीतके कुछ अंश दे रहे हैं । ये मनन या अनुभूतियां, ये अवलोकन अभी हालके ही हैं । ये रूपांतरके मार्गके सीमा-चिह्न हैं । ये केवल इसलिये नहीं चुने गये है कि ये जो काम हो रहा है उसपर प्रकाश डालते हैं - और वह काम है शरीरका योग, जिसकी सभी प्रक्रियाएं प्रतिष्ठित करनी हैं - बल्कि साथ ही, इनसे जो प्रयल करना है उसके बारेमें संकेत भी मिल सकता है । ''

 

  माताजीकी कृतियोंका अनुवाद करना एक असंभव काम है । जो लोग मूल नहीं पढ़ सकते उनके लिये यह अनुवाद श्रीअरविद अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा केंद्रके हिंदी विभागने तैयार किया है ।

 

७ अक्तूबर, १९६४

 

   साधारण दृष्टिसे नहीं, उच्चतर दृष्टिसे, वस्तुओंने स्पष्ट रूपसे ज्यादा अच्छा मोड ले लिया है । लेकिन भौतिक परिणाम फिर भी मौजूद है - सभी कठिनाइयां मानों बहू. गयी हैं । केवल चेतनाकी शक्ति बढ़ गयी है - अधिक स्पष्ट, अधिक यथार्थ हो गयी है; सद्भावनावालोंपर उसकी क्रिया भी बढ़ गयी है; वे काफी बड़ी प्रगति करते हैं । लेकिन भौतिक कठिनाइयां मानों बढ़ गयी हैं, यानी यह... यह देखनेके लिये कि हम कसौटीपर खरे उतरते है कि नहीं ।

 

   बात ऐसी है ।

 

   अभी बहुत समय नहीं हुआ ( कल ही से तो), कोई चीज वातावरणमें स्पष्ट हो गयी है । लेकिन रास्ता अभी लंबा है - लंबा, लंबा । मुझे लगता है कि बहुत लंबा है । हमें टिकना चाहिये - टिकना, सबसे बढ़कर यही लगता है कि हमारे अंदर सहनशक्ति होनी चाहिये । ये दो चीज़ें एकदम अनिवार्य है : सहन-शक्ति और एक ऐसी श्रद्धा जिसे कोई चीज न डिगा सके, संपूर्ण प्रतीत होनेवाला निषेध भी नहीं, चाहे तुम्हें बहुत सहना पड़े, चाहे तुम ( मेरा मतलब है शारीरिक दृष्टिसे दयनीय दशामें क्यों न हो), चाहे तुम थक जाओ, फिर भी टीके रहो, चिपके रहो और टीके रहो -- सहनशक्ति होनी चाहिये । बस, यही बात' है । डटे रहो । बस, यही बात है ।

 

   लेकिन मैंने जो कुछ सुना है, जो लोग रेडियो, सुनते हैं, अखबार पढ़ते हैं ( वे सब चीज जो मैं नहीं किया करती), उससे लगता है कि सारा संसार एक ऐसी क्रियामेंसे गुजर रहा है... जो इस समय बहुत विक्षुब्ध करती है । ऐसा लगता है कि ''पागल लगनेवालों'' की संख्या बहुत बढ़ती जा रही है । उदाहरणके लिये, ऐसा लगता है कि अमरीकामें, सभी जवान लोगोंके मस्तिष्कमें एक चकरानेवाली अजीब-सी लहर आयी है जो समझ- दार लोगोंको परेशान करनेवाली है, लेकिन निश्चय ही वह इस बातकी सूचक है कि कोई असाधारण शक्ति काममें लगी है । इससे सब आदतें और सभी नियम टूट रहे हैं - यह अच्छा है । अभीके लिये यह कुछ ''अजीब'' जरूर है, लेकिन है जरूरी ।

 

 क्या इस समय सच्ची वृत्ति यह नहीं है कि व्यक्ति जितना हो सके उतना पारदर्शक बननेकी कोशिश करे?

 


पारदर्शक और नयी शक्तिके प्रति ग्रहणशील ।

 

मैं यह प्रश्न इसलिये करता हूं क्योंकि ऐसा लगता है कि यह पारदर्शकता है तो पारदर्शक पर कुछ-कुछ ''कुछ नहीं'' जैसी है, एक ऐसे कुछ नहीं'' की तरह जो भरा हुआ है, लेकिन फिर भी है कुछ नहीं -- पता नहीं । पता नहीं, यह एक प्रकारका उत्कृष्ट ''तमस'' न हो या...

 

सबसे बढ़कर विश्वस्त होना । 'जड-द्रव्य'में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि भौतिक चेतना ( यानी, 'जड-द्रव्य'में स्थित मन) कठिनाइयोंके-कठिनाइयों, रुकावटों, पीड़ाओं, संघर्षके दबावसे बनी है । कहा जा सकता है कि उन्हीं चीजोंने उसे ''रूप दिया है'' और उसपर लगभग निराशाकी, पराजयवादकी छाप लगा दी है और निश्चय ही यह सबसे बड़ी रुकावट है।

 

  मैं अपने काममें इसीके बारेमें सचेतन हूं । सबसे अधिक भौतिक चेतना, सबसे अधिक भौतिक मन हमेशा मार खाकर काम करनेका, प्रयास करनेका, आगे बढ़नेका अभ्यस्त है; अन्यथा वह तमस् में बना रहता है । और फिर, यह जहांतक कल्पना कर सकता है, यह हमेशा कठिनाइयोंकी ही कल्पना करता है -- हमेशा रुकावट या हमेशा विरोधकी कल्पना करता है, -- और इससे गति भयंकर रूपसे धीमी पंडू जाती है । उसे यह विश्वास दिलानेके लिये कि इन सब कठिनाइयोंकी पीछे भागवत बुरा है, इन सब असफलताओंके पीछे भागवत विजय है, धुन सभी दुखों, कष्टों और परस्पर विरोधोंके पीछे भागवत आनन्द है, उसे बहुत ठोस, गोचर और बार-बार दोहरायी जानेवाली अनुभूतियोंके जरूरत होती है । सभी प्रयासोमें यह एक ऐसा प्रयास है जिसे बार-बार दोहरानेकी जरूरत होती है, जिसे हमेशा रोकनेकी, अलग करनेकी जरूरत होती है, निराशा- वादको, संदेहको, पूर्ण रूपसे पराजयवादीकी कल्पनाको रोकने, अलग करने या बदलनेकी जरूरत. होती है ।

 

  मैं केवल भौतिक चेतनाकी बात कर रही हूं ।

 

   स्वभावत., जब कोई चीज ऊपरसे आती है जो एक... धमाकेके साथ यूं आती है ( चपटा करनेका इंगित करते हुए), तब सब कुछ चुप हो जाता है, सब कुछ बन्द हो जाता है और प्रतीक्षा करता है । लेकिन... में भली-भांति समझ सकती हूं कि 'सत्य', 'सत्य-चेतना' अपने-आपको अधिक निरंतर रूपमें क्यों प्रकट नहीं करती, क्योंकि उसकी 'शक्ति'में और 'भौतिक

 


  द्रव्य' की शक्ति'में इतना अधिक अंतर है कि 'भौतिक द्रव्य' की शक्ति लग- मग रद्दसी हो जाती है -- लेकिन इसका अर्थ 'रूपांतर' नहीं, कुचल देना होगा । प्राचीन कालमें यही किया जाता था - एक ऐसी 'शक्ति' के भार तले, जिसका कोई विरोध नहीं कर सकता, जिसके साथ कोई संघर्ष नहीं कर सकता, सारी भौतिक चेतनाको कुचल दिया जाता था । तब लोगोंको लगता था : ''लो, हो गया, काम बन गया ।'' लेकिन इससे काम न बनता था, बिलकुल नहीं ! क्योंकि, बाकीकी भौतिक चेतना बिना बदले, जैसी- की-वैसी, नीचे बनी रहती थी ।

 

  अब उसे बदलनेका पूरा-पूरा अवसर दिया जा रहा है; और हां, तो इसके लिये उसे खुलकर खेलने देना होगा, उसपर ऐसी 'शक्ति' का हस्तक्षेप न लादना होगा जो उसे कुचल डाले । में इस बातको भली-भांति समझती हूं । लेकिन इस चेतनामें मूढ़ताकी जिद होती है । उदाहरणके लिये, पीडाके समय कितनी बार, जब तीव्र पीड़ा असह्य-सी होती हुई प्रतीत होती है तो (कोषाणुओंमें) 'पुकार' की एक छोटी-सी आंतरिक गति होती है - कोषाणु मानों संकट-संदेश भेजते हैं -- सब कुछ बन्द हो जाता है, पीड़ा गायब हों जाती है और अकसर उसका स्थान आनन्दमय कल्याणकी भावना (अब अधिकाधिक रूपमें) लेती जाती है । लेकिन यह मूढ़ भौतिक चेतना अपनी पहली प्रतिक्रिया करती है : ''देखे, यह चीज कितनी देरतक टिकती है ! और स्वभावत अपनी इस गतिसे सब कुछ नष्ट कर देती है - सब कुछ फिरसे शुरू करना पड़ता है।

 

  मेल ख्याल है कि परिणामके स्थायी होनेके लिये -- ऐसे चमत्कारिक परिणामके लिये नहीं जो आता है, आंखें चौंधिया देता है और चला जाता है -- यह जरूरी है कि वह सचमुच रूपांतरकार परिणाम हो । इसके लिये व्यक्तिमें बहुत, बहुत धीरज होना चाहिये - यहां हमें पक ऐसी चेतनासे पाला पड़ता है जो बहुत धीमी, बहुत भारी, बहुत आग्रही है, जो तेजीसे आगे नहीं बढ़ सकती, जो अपने पासकी हर चीजके साथ चिपकी जाती है; उसे जो कुछ सत्य लगता है, चाहे वह एक बहुत ही छोटा सत्य क्यों न हों, वह उसके साथ चिपक जाती है और आगे नहीं बढ़ना चाहती । इसे ठीक करनेके लिये ब्यक्तिमें बहुत, बहुत धीरज होना चाहिये - बहुत धीरज चाहिये ।

 

 सबसे बड़ी बात है टिके रहना -- डटना, डटे रहना ।

 

 श्रीअरविन्दने यह बात स्तुत बार कही है, अलग-अलग तरीकोंसे कही है : ''सहन करते चलो और विजय तुम्हारी होगी ।... सहते चलो -- सहते चलो, तुम पराजित कर सकोगे ।''

 


  सबसे अधिक सहनशीलकी ही विजय होती है ।

 

  और इस समूहके लिये मुझे यही सीख मालूम होती है (माताजी अपने शरीरकी ओर संकेत करती हैं) -- मुझे लगता है कि ये शरीर कुछ समूह ही हैं और जबतक उनके पीछे किसी-न-किसी कारण उन्हें इकट्ठा रखनेका संकल्प-बल रहता है तबतक साथ रहते है । इन दिनों, कल या परसों, इस प्रकारकी एक अनुभूति हुई : एक प्रकारकी पूरी तरहसे विकेंद्रित चेतना (मैं हमेशा भौतिक चेतनाकी बात करती हूं, उच्चतर चेतनाकी बिलकुल नहीं), एक ऐसी विकेंद्रित चेतना जो यहां, वहां, उधर, इस शरीरमें, उस शरीरमें (उसमें जिसे लोग ''यह व्यक्ति'' या ''वह व्यक्ति'' कहते हैं, लेकिन इस धारणाका बहुत अस्तित्व नहीं है), तब कोषाणुओंकी ओर वैश्व चेतनाका मानों हस्तक्षेप-सा-हुआ । मानों उसने इन कोषाणुओंसे पूछा कि वे इस मेलको क्यों बनाये रखना चाहते हैं या यूं' कहें, इस समूह या राशिको क्यों बनाये रखना चाहते हैं ! उन्हें समझाया या अनुभव कराया गया कि वर्षोंकी संख्या बढ़नेके साथ तकलीफें कैसे बढ़ेगी, टूट-फूट, बाहरी कठिनाइयां, और अंतमें रगड़के कारण, उपयोगके कारण सारी घिसाई और विकृति - यह उन्हें एकदम उपेक्षणीय लगता था । उत्तर इस अर्थमें काफी मजेदार था कि ऐसा लगता था कि है उच्चतर 'शक्ति' के साथ संपर्ककी क्षमताको बनाये रखनेके सिवा और किसी चीजको महत्व नहीं देते । यह एक अभीप्साके जैसी चीज थी (स्वभावत:, शब्दोंके रूपमें न आयी थी), जिसे अंग्रेजीमें ''यर्निग'' या ''लौगिग'' कहते हैं, यानी भागवत शक्ति, 'सामजस्यकी शक्ति', 'सत्यकी शक्ति", 'प्रेमकी शक्ति' के साथ संपर्कके लिये ललक या लालसा थी । और इसी कारण वे वर्तमान मेलको पसंद करते है ।

 

  यह एक बिलकुल अलग दृष्टिकोण है ।

 

  मैं इसे मनके शब्दोंके द्वारा समझा रही हूं, क्योंकि और कोई उपाय ही नहीं है, लेकिन यह कोई और चीज न होकर संवेदनके क्षेत्रकी चीज थी । और यह बिलकुल स्पष्ट थीं -- यह बहुत स्पष्ट और बहुत अविच्छिन्न थी, इसमें कोई उतारचढ़ाव न थे । हां, तो ऐसे समय इस वैश्व चेतनाका हस्तक्षेप हुआ और उसने कहा : ''यह रही रुकावटें ।'' ये रुकावटें स्पष्ट रूपसे दिखाती दी (मनकी निराशाका यह प्रकार -- एक ऐसे मनकी जिसने अभी रूप ग्रहण नहीं किया है, जो पैदा होनेको है और अपने-आपको कोषाणुओंमें व्यवस्थित करनेको है), लेकिन स्वयं कोषाणुओंने इसकी जरा भी परवाह न की; यह चीज उन्हें एक बीमारीके रूपमें दिखायी दी (यह शब्द विकार है, लेकिन उन्हें ऐसा लगा कि मानों कोई दुर्घटना या अनिवार्य रोग था या कोई ऐसी चीज थी जो उनके सहज विकासका अंश न थी और

 


उनपर लाद दी गयी थी) । और फिर, उस क्षणसे, एक प्रकारकी घटिया शक्तिने जन्म लिया जो इन चीजोंपर (भौतिक मनपर) क्रिया कर सके; उसने वह द्रव्यात्मक शक्ति दी जो अपने-आपको इससे मुक्त कर सके और देंसे त्याग सके ! और इसके बाद वह मोड आया जिसकी मैंने अभी बात की है, समग्र परिस्थितियोंमें' मोड, मानों सचमुच कोई निर्णायक चीज हुई है । एक विश्वासपूर्ण आनंद था. ''आहा ! हम इस दुःस्वप्नसे मुक्त हैं ।''

 

    और साथ-ही-साथ, एक छुटकारा -- एक भौतिक छुटकारा, मानों हवामें सांस लेना ज्यादा आसान हों गया है... हां, कुछ-कुछ ऐसा मानों हम सीपमें -- दम घोटनेवाली सीपमें बंद हों -- और... बहरहाल, उसमें एक छिद्र बन गया हो । और तुम सांस लेने लोग । मुझे नहीं मालूम कि यह इससे कुछ अधिक था या नहीं । यह ऐसा है मानो कहीं दरार पंड गयी, एक छेद बन गया और अब सांस ली जा सकती है ।

 

  और यह सर्वथा भौतिक, कोषाणुगत कार्य था ।

 

  लेकिन जैसे ही तुम इस क्षेत्रमें, कोषाणुओंके क्षेत्रमें, उनके संघटनमें उतरते हो तो ऐसा लगता है कि वे कम भारी हो गये है । 'भौतिक द्रव्य'- का इस प्रकारका भारीपन गायब होने लगता है - वह फिरसे द्रव, स्पंदन-शील होने लगता है । इससे यह प्रमाणित होता है कि भारीपन, मोटापन, तमस, निश्चलता पीछेसे जोड़ी हुई चीजों हैं, तात्विक और अनिवार्य गुण नहि हैं... । हम जिसे अनुभव करते, जिसके बारेमें सोचते है वह मिथ्या 'भौतिक द्रव्य' है, स्वयं 'भौतिक द्रव्य' नहीं । यह स्पष्ट हो गया ।

 

 ( मौन)

 

   आदमी अच्छे-सें-अच्छा यही कर सकता है कि कोई पक्ष न ले, पहलेसे सोचे हुए विचार या सिद्धांत न अपनाये -- ओह ! ये नैतिक सिद्धांत, आचारणके बंधे नियम, आदमीको क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये और नैतिक दृष्टिसे पूर्व-कल्पित विचार, प्रगति और नैतिक और मानसिक रूढ़ियोंके अनुसार पूर्वकल्पित विचार... इनसे बुरी कोई और बाधा नहीं हो सकती । ऐसे लोग हैं, मैं ऐसे लोगोंको जानती हूं जिन्हेंने इन मानसिक रचनाओंमेंसे एकपर विजय पानेके लिये दशाब्दिया नष्ट की हैं । ... अगर कोई इस तरह रह सके, खुला -- सरलतामें सचमुच खुला रह सके, है न, एक ऐसी सरलतामें जो जानती है कि वह अज्ञानी है -- इस तरह ( ऊपरकी ओर, आत्म-समर्पणका संकेत करते हुए), जो कुछ आये उसे लेनेके लिये तैयार रहे, तो कुछ हों सकता है ।

 


 और स्वभावतः, प्रगतिकी प्यास, ज्ञानकी प्यास, अपने-आपको रूपांतरित करनेकी प्यास और इन सबसे बढ़कर दिव्य 'प्रेम' और 'सत्य' की प्यास - अगर तुम इस प्यासको रख सको तो गति तेज होगी । सचमुच प्यास हो, एक आवश्यकता हो, आवश्यकता ।

 

   बाकी सबका कोई महत्व नहीं है । सचमुच आवश्यकता बस इसीकी है । किसी ऐसी चीजके साथ चिपके रहना जिसे तुम समझते हों कि तुम जानते हों, किसी ऐसी चीजके साथ चिपके रहना जिसे तुम अनुभव करते हो, किसी ऐसी चीजके साथ चिपके रहना जिसे तुम प्यार करते हो, अपनी आदतोके साथ चिपके रहना, तथाकथित आवश्यकताओंके साथ चिपके रहना, इस संसारके साथ, जैसा कि वह है, चिपके रहना  यही चीजों हैं जो तुम्हें बांधती है । तुम्हें एकके बाद एक इन सब चीजोंको खोलना होगा । सब गांठोंको खोलना होगा । यह बात हजारों बार कही जा चुकी है, फिर भी लोग वही चीज किये जाते है.. - । ऐसे लोग भी जो बोलनेमें बहुत होशियार हैं और दूसरोंको इस बातका उपदेश देते है, वे भी रहते हैं - वे अपने देखनेके ढंगसे, अपने अनुभव करनेके ढंगसे, अपनी प्रगतिके अभ्याससे चिपके रहते हैं । उन्हें लगता है कि उनके लिये वही एकमात्र रास्ता है ।

 

   बस, और बंधन नहीं - स्वाधीन, स्वाधीन । हर समय केवल एक चीजको छोड़कर सब कुछ बदलनेके लिये तैयार : वह चीज है अभीप्सा, यह प्यास ।

 

  मैं भली-भांति समझती हू, ऐसे लोग हैं जो ''भगवान्'' के विचारकों पसंद नहीं करते, क्योंकि यह तुरंत यूरोपीय या पाश्चात्य धारणाओंके साथ घुलामिला जाता है (जो अपने-आपमें भयंकर हैं), और इससे उनके जीवनमें कुछ उलझनें आती हैं - लेकिन तुम्हें उसकी जरूरत नहीं है । तुम्हें उस ''कुछ चीज'' की जरूरत है, तुम्हें 'प्रकाश' की जरूरत है, तुम्हें 'प्रेम' की जरूरत है, तुम्हें 'सत्य' की जरूरत है, तुम्हें चरम 'पूर्णता' की जरूरत है - और बस इतना ही । और सूत्र -- सूत्र जितने कम हों उतना अच्छा । लेकिन वह चीज, वह आवश्यकता, जिसे वह 'वस्तु-विशेष' ही पूरा कर सकतीं है - उसके सिवा और कुछ नहीं, कोई अधकचरा उपाय नहीं, केवल वही । और फिर, तुम चल पड़ा!... तुम्हारा मार्ग तुम्हारा मार्ग होगा, उसका कोई महत्व नहीं है -- वह कोई भी क्यों न हो, कोई भी, आधुनिक अमरीकी युवाओंकी उच्छृंखलताका मार्ग भी हो सकता है, इसका कोई महत्व नहीं ।

 

  जैसा श्रीअरविन्दने कहा है : ''अगर तुम भगवानका प्रेम नहीं पा सकते तो ठीक है उनसे युद्ध करनेके लिये तैयार हो जाओ । अगर वे तुम्हें प्रेमिका आलिंगन न दें तो कुश्तीमें पहलवानका आलिंगन ही सही''' (.. क्यों- कि निश्चित रूपसे वे ही जीतेंगे) ।

 

१२ जनवरी, १९६५

 

   ... सारी बात है डटे रहना और डटे रहनेके लिये मैंने बस एक ही उपाय पाया है, वह है 'शांत-स्थिरता', आंतरिक शांत-स्थिरता -- एक ऐसी शांत-स्थिरता जिसका मतलब है..... कैसे कहा जया? जैसे-जैसे संघर्ष अधिक भौतिक होता जाय, वैसे-वैसे अधिक पूर्ण होना ।

 

  कुछ समयसे (विशेषकर पहली जनवरीसे), विरोधी शक्तियोंकी ओरसे एक प्रकारकी बमबारी हों रहीं है - एक प्रकोप है, समझे? अतः हमें ऐसे डटे रहना चाहिये (माताजी मूर्तिवत् स्थिर हो जाती हैं), बस, यही । और जब तुम्हें भौतिक रूपसे बहुत जोरका धक्का लगे तो तुम्हें अपने शरीरसे बहुत अधिक मांग न करनी चाहिये, उसे बहुत-सी शांति, बहुत-सा आराम देना चाहिये ।

 

मुश्किल यह है कि मैं अपने शरीरकी अवस्थामें बहुत फंसा रहता हू, मेरी बहुत-सी चेतना उसीमें चली जाती है -- उदाहरणके लिये, भौतिक मन मेरे ऊपर पूरी तरह आक्रमण करता है ।

 

हां, मैं भली-भांति जानती हू । लेकिन यह तो हमेशाकी कठिनाई है, हर एकाकी यह कठिनाई है । इसीलिये भूतकालमें तुमसे कहा जाता था : ''तुम निकल जाओ! इसे यहीं कीचड़में अकेला तड़पड़ाने दो - तुम निकल जाओ ।'' लेकिन हमें यह करनेका अधिकार नहीं है । यह हमारे कार्यके विपरीत है । तुम जानते हो, अपने शरीरके बारेमें पूरी स्वाधीनता प्राप्त की जा सकती है, यहांतक कि तुम्हें कुछ मी अनुभव न हो, जरा मी नहीं । लेकिन मुझे अब यह भी अधिकार नहीं है कि अपने-आपको बाहर निकाल सूक, जरा सोचो तो । जब मैं काफी अस्वस्थ होती हू या जब चीजों काफी कठिन होती हैं या तब जब में जरा चुपचाप रह पाती हू, यानी, रातको, उस समय

 

 ''विचार और सूत्र'

 

मैं अपने-आपसे कहूं : ''काश! मैं अपने आनंदमें जा सक्''-- तो इसकी भी अनुमति नहीं है । मैं इससे बंधी हू (माताजी अपने शरीरको छूती है) यहां, इसमें उपलब्धि करनी है ।

 

  यह इसीके लिये है ।

 

  कभी-कमी किसी कार्य विशेषके लिये (कभी-कभी यह बिजलीकी कौधकी तरह आती है, कभी केवल कुछ मिनटोंके लिये,) वह महान् 'शक्ति' जो पहले यहां थी, जिसका हमेशा अनुभव किया जा सकता था, तेजीसे आती है, अपना काम करती है और चली जाती है । लेकिन इस शरीरपर कभी नहीं । वह इस शरीरके लिये कभी कुछ नहीं करती -- ऊपरसे आनेवाला हस्तक्षेप परिवर्तन नहीं लायगा, वह... अंदरसे आयगा ।

 

   यही चीज तुम्हारे अंदर हो रही है और उन सबमें हो रही है जो काम कर रहे हैं, यही कठिनाई है । इसीलिये में तुमसे कहती हू : ''इसकी पर- वाह मत करो, अगर तुम अपने शरीरके साथ व्यस्त रहते हो तो चिंताकी कोई बात नहीं है : उससे लाभ उठानेकी कोशिश करो -- उस व्यस्ततासे लाभ उठानेकी कोशिश करो -- इसमें 'शांति, 'शांति' लाओं ।'' मैं तुम्हें मानों हमेशा शांतिके कोयेमें लपेटे रहती हू । और फिर, अगर तुम इस स्पन्दित होनेवाले मनमें जो हमेशा हिलता रहता है, जो सचमुच बंदरकी तरह विचलित होता रहता है, अगर तुम उसके ऊपर... इस 'शंति'को प्रतिष्ठित कर सको -- जो सीधी भौतिक स्पदनोंपर कार्य करती है -- एक ऐसी 'शांति' जिसमें हर चीज विश्राम करती है ।

 

  यह मत सोचो -- भौतिक मनको रूपांतरित करनेके प्रयासके बारेमें. उसे चुप करने या उखाड़ फेंकनेके बारेमें मत सोचो; यह सब फिर भी क्रिया- शीलता है । बस, चुपचाप उसे चलते रहने दो, लेकिन... 'शांति' रखो, 'शंति'को अनुभव करो, 'शांति' ही जियो, 'शंति'को जानो-'शांति', 'शांति' ।

 

  यही एकमात्र चीज है ।

 

२४ मार्च, १९६५

 

'स' ने एक बुरा स्वप्न देखा है : वह एक ऐसे मकानपर जा पहुंची जिसपर निगरानी रखनी चाहिये थी, लेकिन किसीने निगरानी रखी नहीं; शत्रु अंदर घुस गये । 'स' उस घरमें

 


घुस गयी । उसने एक कमरा देखा जिसमें श्रीअर्रावंद थे । श्रीअर्रावंदके पांवमें घाव था; ३ कराह रहे थे । उन्हें उन विरोधियोंने घायल कर दिया था जिन्हें मकानमें प्रवेश करने दिया गया था । श्रीअर्रावदको घायल देखकर वह दौडी, आपको ढूंढनेके लिये दौडी ।

 

यह शायद ११ फरवरीकी घटनाका प्रतीक मात्र है ।'

 

  पैरका मतलब है कोई भौतिक चीज ।

 

  मेरा ख्याल है कि यह यही है कि जो हुआ है उसका यह प्रतीक मात्र है ।

 

    यह कोई ऐसी चीज तो नहीं है जौ होनेवाली है?

 

पूर्वसूचक? नहीं ।

 

  पैरसे मतलब है कुछ लोगोंके द्वारा, आश्रमके द्वारा या मेरे द्वारा होनेवाला उनका भौतिक कार्य ।

 

 मुझे नहीं लगता कि यह गंभीर है । यह जो हो चुका है उसीका चित्र है और जो कहीं अंकित है ।

 

 (मौन)

 

   यह एक अजीब-सा परिणाम है । कुछ समयसे, लेकिन ज्यादा-सें-ज्यादा यथार्थ रूपमें, जब में कोई चीज सुनती हू या मुझे कोई चीज सुनायी जाती है या में संगीत सुनती हूं या कोई मुझे कोई घटना सुनाता है तो मैं उसे तुरंत अनुभव करती हू, उस क्रियाका आरंभ, वह जिस स्तरपर हों रही है या उसकी प्रेरणाका मूल स्रोत अपने-आप किसी-न-किसी केंद्रमें स्पदनोंके द्वारा मालूम हो जाता है. । और फिर, स्पंदनके गुणके अनुसार यह रचनात्मक या नकारात्मक चीज होती है और जब वह, निश्चित समय- पर, चाहे कितना भी कम क्यों न हो, किसी 'सत्य'के क्षेत्रको छूती है तो.. कैसे कहा जाय? आनंदके स्पंदनकी एक चिनगारी-सी प्रतीत होती है । विचार एकदम नीरव होता है, अचल, शून्य -- बस शून्य होता है (माता- जी संपूर्ण समर्पणकी मुद्रामें अपने हाथ ऊपरकी ओर । खोलती हैं) । परंतु

 

  ११ फरवरीको कुछ लोगोंने आश्रमपर आक्रमण किया था । कुछ मकान लूटे और जलाये थे।

 


यह बोध अधिकाधिक यथार्थ होता जा रहा है । और इससे में जानती हू --में' जानती हू कि प्रेरणा कहांसे आती -छै-, क्रिया कहां स्थित है और वस्तुका स्तर क्या है ।

 

  यह एक यथार्थता है! ओह! व्योरेमें अत्यंत सूक्ष्म । पहली बार मैंने इसे स्पष्ट रूपमें ''भागवत मुहूत''का संगीत सुनते हुए अनुभव किया था, वह पहली बार था और उस समय मुझे मालूम न था कि यह एक सुसंगठित वस्तु, एक प्रकारकी व्यवस्थित अनुभूति थी । लेकिन अब, इतने महीनोंके बाद, नियमित हो गया है और मेरे लिये बिलकुल निश्चित संकेत है, यह किसी सक्रिय विचार, किसी सक्रिय संकल्पके अनुरूप नहीं हूं -- बस, मैं स्पंदनोंको अंकित करनेके लिये बहुत अधिक सूक्ष्म यंत्र हू । मुझे हंस तरह पता लगता है कि चीजों कहांसे आती हैं । कोई विचार नहीं होता । स्वप्नका स्पंदन मेरे पास इसी तरह आया था (माताजी नीचेकी ओर, पैरों- तले संकेत करती हैं), वह अवचेतनाके क्षेत्रका था । इसीलिये में जान गयी कि यह अंकित करनेकी बात थी ।

 

  उस दिन जब 'ज' मुझे अपना लेखा सुना रहा था तो यह उदासीन था (माताजी अस्पृष्ट-सा मध्य ऊंचाईकी ओर संकेत करती है), सब समय उदासीन, फिर अचानक 'आनद'की एक चिनगारी आयी; इसीने मुझे उस- का मूल्य बतलाया । और अभी, जब तुम 'क्ष' का यह लेख पढ़ रहे थे तो प्रकाशकी एक छोटी-सी किरण थीं (कंठकी ऊचाईतक संकेत करते हुए), तब मुझे पता चला । एक सुखद प्रकाशकी किरण --'आनंद'का नहीं, परंतु एक सुखद प्रकाश । इसीलिये मैंने जाना कि उसमें कुछ है ।

 

   इसमें अनेक स्तर है, लगभग अनगिनत गुण हैं, है न?

 

  वस्तुओंकी स्थितिको जाननेके लिये मुझे यह उपाय दिया गया है ।

 

   और यह विचारसे बिलकुल बाहर, एकदम बाहरकी चीज है । और बादमें, उदाहरण. के लिये, जब तुमने मुझसे स्वप्नके बारेमें पूछा तो मैंने कहा और एक प्रकारकी निश्चितिके साथ कहा. ''न्यायत, चुकी स्पंदन यहां है (नीचेकी ओर संकेत) यह स्मृति होनी चाहिये ।'' क्योंकि... बोध पूरी तरह निवैयक्तिक है ।

 

  यह अद्भुत रूपसे नाजुक यंत्र है और इसकी ग्रहणशीलताका क्षेत्र (क्रम- का संकेत) लगभग अनंत है ।

 

  अब मेरा लोगोंको जाननेका तरीका भी ऐसा ही है । लेकिन एक लंबे अरसेसे, उदाहरणको लिये, जब में किसीका फोटो देखती हू तो बह विचाग्मेसे होकर बिलकुल नहीं गुजरता, यह निगमन या अंतर्भाव नहीं होता -- वह किसी भागमें स्पंदन पैदा करता है । और तब मजेदार बातें भी होती है ।
 

१०


उस दिन मुझे किसीका फोटो दिया गया, उत्तर देनेवाला स्पंदन जिस स्थान- को छूता है उससे मैं' ठीक अनुभव कर लेती हू । मुझे मालूम हुआ कि इस आदमीके विचारोंसे काम करनेकी आदत है और इसमें पढ़ानेवालेका आत्म- विश्वास है । मैं जाननेके लिये पूछती हू : ''यह आदमी क्या करता है? '' मुझसे कहा जाता है कि यह व्यापारी है । तब मैंने कहा. ''लेकिन यह व्यापारके लिये नहीं बना, यह व्यापारकी बात बिलकुल नहीं समझता ।'' -तनि मिनटके बाद मुझसे कहा गया. ''ओ, क्षमा कीजिये, यह प्रोफेसर है ! '' (माताजी हंसती है) तो बात ऐसी है ।

 

  निरंतर, निरंतर ऐसा होता है ।

 

  और संसारका मूल्यांकन, संसारके स्पंदन ।

 

  इसीलिये मैंने तुमसे अभी अपना हाथ देनेके लिये कहा था - क्यों? केवल स्पंदन लेनेके लिये । मुझे ऐसा लगा जिसे अंगरेजीमें एक प्रकारकी ''डलनेस'' या उदासी कहते हैं । मैंने अपने-आपसे कहा : ''इसकी तबीयत ठीक नहीं है ।''

 

  और इसमें कोई सोच-विचार नहीं, कुछ भी नहीं, सिर्फ ऐसे (माताजी ऊपरकी ओर आत्म-समर्पणकी मुद्रामें रहती है) ।

 

  हा, तो फिर वह क्या चीज है जो ठीक नहीं है? ( माताजी हंसती है) हा, यह एक प्रकारकी ''उदासी या मंदता'' है ।

 

    हां, मैं 'जडू-द्रथ्य' में बहुत ज्यादा धंसा हुआ हू ।

 

हा, यही है ।

 

   और यह मजेदार नहीं है ।

 

नहीं, लेकिन तुम उसमेंसे बाहर नहीं निकल सकते?

 

   में परेशान हू और मेरा शरीर भी मेरी सहायता नहीं करता ।

 

आह! नहीं, शरीर कभी सहायता नहीं करता, अब मुझे इसका विश्वास है । तुम किसी हदतक अपने शरीरकी सहायता कर सकते हो (बहुत नहीं, फिर मी किसी हदतक), तुम शरीरकी सहायता कर सकते हों । लेकिन शरीर तुम्हारी सहायता नहीं करता । उसके स्पंदन हमेशा धरतीपर होते है ।

 

११


    हां, यह भारी है ।

 

बिना अपवादके । बिना अपवादके यह नीचे ले जाता है, और सबसे बढ़कर यह : यह ऐसा है जो तुम्हें उदास, मंद बनाता है - वह र्स्पदित नहीं होता ।

 

     यह भारी है ।

 

लेकिन मैं जिस साधनाका अनुसरण कर रही हू उसमें कुछ रास्ता दिखाने- वाले सूत्र हैं जिनका तुम अनुसरण कर रहे हों । मेरे पास श्रीअरविन्दके कुछ वाक्य है.. । अन्य साधनाओंके लिये मुझे आदत थी. उन्हेंने जो कुछ कहा वह स्पष्ट था, उसने रास्ता दिखाया, ढ्ढनेकी जरूरत नहीं पड़ी; लेकिन यहां उन्होंने ऐसा नहीं किया । उन्होंने केवल समय-समयपर कुछ कहा या टिप्पणियां की हैं और मेरे लिये ये टिप्पणियां उपयोगी है ( और रात मी है जब मैं उनसे मिलती हूं., लेकिन मैं उसपर बहुत अधिक निर्भर नहीं रहना चाहती क्योंकि... तुम इस संपर्कके लिये बहुत व्यग्र हों उठते हों और इससे सब. कुछ बिगड़ जाता है) । कुछ टिप्पणियां हैं जिन्हें मैंने संजो रखा है और वे हां, वे मार्ग-दर्शक सूत्र है, उदाहरणके लिये., ' 'सहन करो.. सहन करो । ''

 

  मान लो, तुम्हें कहीपर दर्द है । सहजवृत्ति ( शरीरकी सहजवृत्ति, कोषाणुओंकी सहजवृत्ति), यही है कि इससे दूर हटो, इसे त्यागो - यह सबसे बुरी चीज है और यह हमेशा बढ़ाती है । इसलिये. पहली चीज जो अपने शरीरको सिखानी चाहिये वह है : स्थिर-शांत रहना -- कोई प्रति- क्रिया न हों । और सबसे बढ़कर, कोई बेचैनी न हो । अस्वीकृतिकी कोई गतितक न हो-संपूर्ण निश्चलता । यह शारीरिक समता हैं ।

 

   संपूर्ण निश्चलता ।

 

  संपूर्ण निश्चलताके बाद आती है आंतरिक अभीप्सा (मैं. हमेशा कोषाणुओंकी अभीप्साकी बात करती हू -- जिसके लिये कोई शब्द नहीं है उसके लिये मैं शब्दोंका प्रयोग करती हू क्योंकि इन्हें छोड़कर अपनी बात करनेका कोई उपाय मी तो नहीं है), समर्पईण, यानी, भागवत इच्छा या भागवत संकल्पको, ( जिसे तुम नहीं जानते), उसे सहज रूपमें और पूर्णतः स्वीकार करना । क्या सर्व संकल्प चाहता है कि चीजों इस दिशामें चालें या उस दिशामें जायें, यानी, कुछ तत्त्वोंके विघटनकी ओर जायें या फिर...?

 

  और इसमें भी फिर अनंत छटाएं है । दो ऊंचाइयोंके बीचके एक मार्गकी

 

१२


बात है (यह न मूलों, मैं कोषाणुगत उपलब्धियोंकी बात कर रही हू), मेरा मतलब यह है कि तुम्हारे अंदर एक आंतरिक स्थिरता है, गतिकी स्थिरता, जीवनकी स्थिरता । यह तो जानी हुई बात है कि एक गतिसे उच्चतर गतिकी ओर जाते हुए प्राय. हमेशा ही अवतरण होता है और तब चढाई आती है -- यह संक्रमण है । तब तुम्हें जो धक्का लगता है वह तुम्हें नीचेकी ओर धकेल देता है ताकि तुम फिर ऊपर उठ सको? या फिर तुम्हें नीचेकी ओर धक्का देता है ताकि तुम पुरानी गतियोंको छोड़ दो? सत्ताके कोषाणुगत मार्ग है जिन्हें गायब हों जाना चाहिये ताकि अन्य मार्गों- को स्थान मिल सकें? फिर दूसरे उपाय ऐसे है जो ऊपरकी ओर, उच्चतर सामंजस्य और संगठनके साय ऊपर उठनेकी प्रवृत्ति रखते है । यह दूसरी बात है । तुम्हें पहलेसे यह सोचे-विचारे बिना कि क्या होना चाहिये प्रतीक्षा करनी चाहिये और देखना चाहिये । सबसे बढ़कर क्या यही इच्छा नहीं है -- यह इच्छा कि हम आरामसे रहें, यह इच्छा कि हम शांतिसे रहें, यह सब बंद होना चाहिये, एकदम गायब होना चाहिये । तुम्हारे अंदर बिलकुल कोई प्रतिक्रिया न होनी चाहिये, इस तरह (बहेलिया खौले हुए ऊपरकी ओर निश्चल निवेदनका संकेत) । ओर जब व्यक्ति ऐसा हों, यहां व्यक्ति- का अर्थ. है कोषाणु, तो कुछ समय बाद गतिकी श्रेणीका बोध होता है । तुम्हें केवल उसका अनुसरण करना होता है यह जाननेके लिये कि यह ऐसी चीज है जिसे गायब हो जाना चाहिये और जिसके स्थानपर किसी और चीजको आना चाहिये (जो अभी अज्ञात है), या यह कोई ऐसी चीज है जिसका रूपांतर किया जाना हैं ।

 

   और इसी तरह । सारे समय ऐसा ही होता है ।

 

    यह सब तुम्हें यह बतलानेके लिये है कि विचार एकदम निश्चल है । हर चीज प्रत्यक्ष रूपमें प्रकट होती है ' यह स्पंदनका सवाल है । केवल इसी तरीकेसे जाना जा सकता है कि क्या किया जाना चाहिये । अगर चीज मनमेंसे गुजरे, विशेषकर भौतिक विचारणासे जो बिलकुल, एकदम मृत है, तो तुम कुछ नहीं जान सकते । जबतक वह त्रियाशील रहे तबतक तुमसे वह करवाया जाता है जो नहीं करना चाहिये, विशेष रूपसे बुरी प्रति- क्रियाएं करवायी जाती हैं -- ऐसी प्रतिक्रियाएं जो अव्यवस्था और अंधकार- की शक्तियोंका विरोध करनेकी जगह उनकी सहायता करती है । मैं चिंता- की बात नहीं कर रही क्योंकि बहुत लंबे समयसे मेरे शरीरमें कोई चिंता नहीं है -- लंबे अरसेसे, कई वर्षोमे -- चिंता करना जहरका प्याला पीनेके समान है ।

 

  इसीको भौतिक योग कहा जाता है ।

 

इस सबपर विजय पानी हैं । और यह करनेका एकमात्र उपाय है : हर क्षण सभी कोषाणु (ऊपरकी ओर निश्चल समर्पणकी मुद्रामें) आराधना और अभीप्सामें रहें -- आराधना और अभीप्सा, आराधना... बस और कुछ नहीं । तब; कृउछ समय बाद हर्ष भी आयगा और अंतमें आयगा आनंद- मग्न विश्वास । जब यह विश्वास जम जायगा तो सब कुछ ठीक होगा । लेकिन... यह कहना बहुत आसान है, इसे करना बहुत आंतरिक कठिन है । लेकिन अभी तो मुझे विश्वास है कि यही एकमात्र उपाय है, और कोई उपाय नहीं ।

 

१३

२१ अगस्त, १९६५

 

   १५ अगस्तसे रूपांतरके लिये तैयारीका पूरा-पूरा काम चल रहा है । इसे क्या नाम दिया जाय?..... शक्तिका हस्तांतरण ।

 

  सभी कोषाणु, सारी भौतिक चेतना आंतरिक व्यक्तिगत चेतना -- बहुधा चैत्य या मानसिक चेतना -- की आज्ञा मानते हैं, (लेकिन मन, वह तो बहुत समयसे नीरव है) । लेकिन अब, यह भौतिक मन मी अपने-आपको दूसरेकी तरह या यूं कहें, दूसरोंकी तरह, स्मारिके अन्य सब स्तरोंपर मनकी तरह व्यवस्थित करनेमें लगा है ।

 

  यह मानों एक प्रकारसे निर्देशक संकल्पका स्थानांतरण है । यहां, यह एक भौतिक, द्रव्यात्मक आश्चर्यके जैसा है । नये पथ-प्रदर्शनके साथ तादात्म्यकी जरूरत है -- यह जरा कठिन है । इसे समझाना भी मुश्किल है. अब यह वही चीज नहीं है जो तुमसे काम करवाती है । यहां ''काम करने' का मतलब सब कुछ है, हिलना-डुलना, चलना -- सब कुछ । अब- यह वही केंद्र नहीं है । और फिर, अगर तुम आदतके मारे पुराने केंद्रसे चिपके रहना चाहो, तो! इससे एक बड़ी अव्यवस्था पैदा हों जाती है । तुम्हें बहुत ज्यादा सावधानी रखनी चाहिये कि आदत, पुरानी आदत अपने- आपको प्रकट या अभिव्यक्त न कर पाय ।

 

  यह कहना मुश्किल है । यह बहुत ज्यादा क्रिया मात्र है ।

 

 यहां, विचार अपने-आपको मस्तिष्कमें अनुकूल बनानेमें कठिनाई अनुभव करता है ।

 

 क्योंकि पिछले दो दिन (यानी, लगातार दो दिनतक), सारे समय एक

 

१४


अभीप्सा रही. ''जब यह नया जगत् यहां भौतिक रूप लेगा तो कैसा होगा? यह नया जगत् कैसा होगा? '' इसने मुझे इतना ज्यादा ''अंदर'' भेज दिया कि मैं... में दूर नहीं थी, लेकिन मेरे और वर्तमान जगत् के बीच धंधका कंबल-सा था । वह आज भी था ।

 

 ( मौन)

 

   उदाहरणके लिये, आज सवेरे, कुछ समयके लिये (मुझे पता नहीं कितनी देरके लिये, लेकिन बहुत कम समय नहीं : हों सकता है पाव घंटा या आधा घटा हो, मुझेनही मालूम), कई बार शरीरके कोषाणुओंको, यानी, शरीरके रूपकों यह अनुभूति हुई कि साथ रहना या विलीन हो जाना एक वृत्ति-विशेषपर निर्भर है -- 'किसी वृत्ति या संकल्पपर, किसी ऐसी चीजपर जो वृत्ति और संकल्प, दोनोंपर निर्भर है । और फिर, बोधके साथ (कभी- कभी एक ही समय दो चीजोंके साथ, जिनमें एक है स्मृति और दूसरी ऐसी चीज जिसे जिया गया है), एक ऐसी चीजके बोधके साथ विलीन होनेका कोई काराग नहीं जो पुराने तरीकेसे स्मृतिके रूपमें, और नये तरीकेसे स्पप्टत: अपने ही चुनावके बिना, तुम्हें हिलाती-डुलाती, क्रिया करवाती, ज्ञान देती है -- उसका कोई अर्थ नहीं, यह एक निरर्थक चीज है, उसके साथ विलीन क्यों हुआ जाय?

 

  और यदि उस समय जब कोई फिरसे गिर पड़े... । यह ठीक वही नहीं है : जब पुरानी चेतना फिरसे ऊपरी तलपर आती है, उस समय व्यक्ति बहुत सावधान न हों तो स्वभावत: मूर्च्छा आ जाती है ।

 

 ओह! बहुत समयतक, पांचसे पौने छतक, सारे समय ऐसे ही था ।

 

 और ''उसी समय'' यह जीवनकी अवास्तविकताका और एक अवास्तविकताका, जिसे हम शाश्वत कह सकते है संवेदन होता हैं : मृत्युके संवेदन- का अस्तित्व ही नहीं रहता, उसका अर्थ कुछ नहीं होता । यह एक चुनावमात्र होता है । और विस्थापन, उसका तो कोई अर्थ ही नहीं होता, उसके होनेका कोई कारण नहीं, वह एक भ्रांति है ।

 

  और फिट देखने, अनुभव करने, बोध प्राप्त करनेके सभी पुराने तरीके पीछे कंबल -- धुंधके कंबल -- की तरह रहते है । जो संपर्कको अस्पष्ट और अयथार्थ बना देते है ।

 

  अब जब कि मैंने फिरसे साधारण चेतनाको पा लिया है, मैं उस चीज- को व्यक्त कर सकती हू, अन्यथा उसे व्यक्त करना कठिन था । और वैषम्य या विरोध एक पीड़ा, यातना है । दोनों शिकायत करते हैं : एक-

 

१५


को लगता है कि वह मूर्छित हों जाता है और नयेकी शिकायत होती है कि उसे चुपचाप नहीं रहने दिया जाता । जब तुम किसी एक या दूसरेमें हों तो ठीक रहता है, लेकिन जब दोनों साथ हों तो स्थिति बहुत सुखद नहीं होती । एक अनिश्चितताका भाव रहता है; तुम्हें भली-भांति पता नहीं होता कि तुम हो कहां? तुम्हें ठीक पता नहीं होता कि तुम यहां हों या तुम वहां हों ।

 

  लेकिन पहल करनेवाली इस शक्तिका परिवर्तन, या यूं कहें, शक्तिका यह स्थानान्तरण जिसने मेरे ऊपर एक अनोखी अनुभूतिका असर डाला, ऐसा पहले कमी नहीं हुआ था । दुर्भाग्यवश, यह बहुत समय नहीं रहा । लेकिन यह अनुभूति शरीरमें एक प्रकारकी निश्चिति छोड़ गयी है - वह भविष्यके बारेमें कम अनिश्चित है । यह अनुभूति मानों यह कहनेके लिये आयी थी कि ''चीज ऐसी होगी । ''

 

   अगर वह बनी रहे तो इसका अर्थ है अमरता ।

 

   आप उस भौतिक मनकी व्याख्या कैसे करती है जो शक्तिके स्थानान्तरणका विषय था'?

 

वह भौतिक मन नहीं है । भौतिक मन तो बहुत जमाने पहले बदल चुका है । यह तो द्रव्यात्मक मन था --- नहीं; द्रव्यात्मक मन भी नहीं; द्रव्यका मन है । यह मनका वह तत्व है जो स्वयं 'द्रव्यका, कोषाणुओंका हैं? । इसे पक समय ''रूप या आकारकी आत्मा'' कहा जाता था । कहा जाता था कि जबतक आकारकी आत्मा बनी रहे तबतक ममिया शरीर सुरक्षित रहता है । ' यही वह मन है, पूरी तरहसे द्रव्यात्मक मन । दूसरा, भौतिक मन तो बहुत पहले ही व्यवस्थित हों चुका था ।

 

 १९५१ में एक बातचीतके दौरान माताजीने ममीकी कब्रोंका अपमान करनेके बारेमें कहा था : ''भौतिक आकारमें, एक 'आकारकी आत्मा' होती है, और यह आत्मा कुछ समयके लिये तब मी कमी रहती है जब लोग कह देते है कि व्यक्ति मर गया । जबतक आकारकी आत्मा बनी रहती है, शरीर नष्ट नहीं होता । प्राचीन मिश्रमें लोगोंको यह ज्ञान था । वे जानते थे कि अगर शरीरको अमुक तरहसे तैयार किया जाय तो आकारकी आत्मा नहीं जायेगी और शरीर नष्ट न होगा । ''

 

   (श्रीमातुवाणी; खंड ४; प्रश्न और उत्तर १९५०-५१; १० मार्च, १९५१; पुर २०१-२०२)

 

१६


   तब फिर भौतिक मन और द्रव्यात्मक मनमें फर्क क्या है?

 

 भौतिक मन उस भौतिक व्यक्तित्वका मन है जो शरीरसे बनता है । यह शरीरके साथ विकसित होता है, पर यह द्रव्यका मन नहीं है, यह भौतिक सत्ताका मन है । उदाहरणके लिये, भौतिक मन ही चरित्र -- शारीरिक चरित्र, भौतिक चरित्र -- को बनाता है और यह बहुत हदतक पूर्वजोंके अनुरूप होता है. और शिक्षाके द्वारा गाढ़ा जाता है । यह सब ' 'भौतिक मन' ' कहलाता है । हां, यह पूर्वजानुरूपताका, शिक्षाका, शरीरके गठनका परिणाम होता है; यही भौतिक चरित्रको गूढ़ता है । उदाहरणके लिये, कुछ लोग धीर होते है, कुछ लोग मजबूत होते है, कुछ शरीरसे, मन और प्राणके कारण नहिं, शुद्ध रूपसे शरीरसे ही मजबूत होते है, वह एक चरित्र होता है । यह भौतिक मन है । यह पूर्ण योगका एक भाग है : तुम्हें इस भौतिक मनकी तपस्या करनी होती है । मैंने साठ वर्षसे भी पहले यह की थी ।

 

उदाहरणके लिये, जो मन सहज रूपसे पराजयवादी होता है, जिसमें सब प्रकारके भय, आशंकाएं रहती है, जो हमेशा बुरी बातोंको ही देखता है, हमेशा उन्हीं बातोंको दोहराता रहता है वह भौतिक मन है या द्रव्यात्मक मन?

 

वह भौतिक मनका सबसे अभिक अचेतन भाग है और यही, भौतिक मन और इस द्रव्यात्मक तत्वके बीचकी कड़ी है । लेकिन यह पहलेसे ही व्यवस्थित मन है, समझे? यह मनकों छ्नेवाला, सबसे अधिक द्रव्यात्मक मांग है... इसे मन कैसे कहा जा सकता है? तुम इसे शारीरिक मन भी नहिं कह सकते -- यह कोषाणुओंका मन है, यह कोषाणुगत मन है ।

 

   यह कोषाणुगत मन पशुओंमें भी होता है और इसका जरा-सा आरंभ (परंतु, बहुत ही जरा-सा, मानों एक प्रतिज्ञाके रूपमें) वनस्पतियोंमें मी है -- वे मानसिक क्रियाका उत्तर देते है । वे उत्तर अवश्य देते है । जैसे ही जीवन प्रकट होता है, उसके साथ ही मनकी मानसिक गतिकी प्रतिज्ञा भी आती है । पशुओंमें यह स्पष्ट है । जब कि भौतिक मनका सच्चा अस्तित्व मनुष्यमें ही शुरू होता है । यह वही चीज है जो बिलकुल छोटे बच्चेमें भी होती है, उसमें भौतिक मन पहलेसे ही होता है । यानी, दो बच्चे एक ही-से नहीं होते, उनकी प्रतिक्रियाएं एक-सी नहि होती । उस समय भी उनमें भेद होता है । सबसे बढ़कर यही चीज है जो तुम्हें

 

१७


अपने शरीरके विशेष रूपके साथ दी गयी है । यह पूर्वजोंसे मिलती है और शिक्षाद्वारा विकसित होती है ।

 

  नहीं, जैसे ही तुम पूर्णयोगको अपनाओ वैसे ही तुम्हें भौतिक मनपर क्रिया करनी पड़ती है, जब कि द्रव्यात्मक मन, कोषाणुगत मन, मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूं, एकदम नयी चीज है -- यह एकदम नयी चीज है ।

 

  मन एक असमन्वित तत्व जैसा था जो हमेशा क्रियाशील रहता था परंतु व्यवस्थित या संगठित न था (माताजी सतत विह्वलताकी मुद्रा करती है) । अब वह अपने-आपको संगठित कर रहा है । यह महत्त्वपूर्ण बात है, क्योंकि श्रीअरविंदने कहा था कि इसे संगठित करना असंभव है, उसे जडूसे ही उखाड़. देना होगा । मेरा भी यही ख्याल था । लेकिन जब कोषाणुओंपर रूपांतरकी निरंतर क्रिया हों तो यह द्रव्यगत मन संगठित होने लगता है, यह अद्भुत है -- वह व्यवस्थित होने लगता है । और जैसे-जैसे वह व्यवस्थित होने लगता है वह चुप रहना सीखता है -- और यह बहुत असाधारण बात है! वह चुप रहना सीखता है, अपने-आप नीरव रहकर, बिना कोई अड़चन डाले परम शाक्तिको काम करने देता है !

 

   सबसे बड़ी कठिनाई स्नायुओंमें है । क्योंकि वे सामान्य चेतनाके सचेतन संकल्पकी इतनी अभ्यस्त है कि जब यह बंद हो जाता है और जो बिलकुल ऊपर है उससे क्रियाकी मांग होती है तो वे पागल-सी हों जाती है । उस दिन मुझे यह अनुभूति हुई थी जो एक घंटेसे अधिक रही, वह कठिन थीं, परंतु उसने मुझे बहुत, बहुत-सी चीजों सिखायीं । और इस सबको ''शक्ति- का स्थानन्तरण'' कहा जा सकता है । पहलेकी शक्ति अपने-आपको खिंच लेती है और तब शरीर अपने-आपको नयी शक्तिके अनुकूल बना पाये, उससे पहलेका समय नाजुक होता है ।चुकी सभी कोषाणु निरंतर अभीप्साकी अवस्थामें होते है, इसलिये चीज अपेक्षाकृत जल्दी होती है, फिर भी. मिनट लंबे होते है ।

 

   लेकिन कोषाणुओंमें एक प्रकारकी अधिकाधिक निश्चिति है कि जो कुछ होता है वह इस रूपांतर और निर्देशक शक्तिके स्थानल्तरणकी दृष्टिसे ही होता है । जब यह द्रव्यगत रूपमें (केवल भौतिक रूपमें नहीं द्रव्यगत दृष्टिसे भी) पीड़ादायक होता है, तब भी कोषाणुओंमें वह निश्चिति बनी रहती हैं । तब वे प्रतिरोध करते है, वे अवसादके बिना पीड़ा सहते है, उनपर किसी तरहका असर नहीं होता । उन्हें यह निश्चिति होती है कि यह रूपांतरकी तैयारीके लिये है, कि यह रूपांतरकी प्रक्रिया और निर्देशक शक्ति- के स्थानान्तरणके लिये हैं । जैसा कि मैंने कहा, स्नायुओंमें पीड़ा सबसे

 

अधिक तीव्र होती है और यह स्वाभाविक है, वे ही सबसे अधिक संवेदन- शील कोषाणु है, उनमें ही सबसे अधिक संवेदनशीलता है । लेकिन उनमें काफी अधिक, बहुत सहज, स्वाभाविक -- बिना किसी प्रयासके -- सामंजस्यपूर्ण भौतिक स्पदनोंके प्रति सबल ग्रहणशीलता होती है (जो कि बहुत ही विरल है, किंतु कई व्यक्तियोंमें पायी जाती है), और यह भौतिक स्पंदन -- जिसे भौतिक शक्ति कह सकते हैं, सामंजस्यपूर्ण- भौतिक स्पंदन (यह सहज सामंजस्य बिना किसी मानसिक स्पंदनके होता है, जैसे उदाहरणके लिये, फुलके स्पंदन । ऐसे भौतिक स्पंदन होते हैं जो अपने अंदर सामंजस्यपूर्ण शक्तिका वहन करते है), स्नायुएं बहुत अधिक संवेदनशील और इस स्पंदनके प्रति ग्रहणशील होती है । यह स्पंदन उन्हें तुरंत ठीक कर देता है ।

 

  यह बहुत मजेदार है । इससे बहुत कुछ पता चलता है, बहुत-सी चीजोंका पता चलता है । एक दिन आयगा जब इस सबकी व्याख्या की जायगी और सब कुछ अपने स्थानपर रख दिया जायगा । लेकिन अभी यह प्रकट करनेका समय नछई हुआ, लेकिन यह है बहुत मजेदार ।

 

  सचमुच मुझे लगता है कि यह संगठित हों रहा है, काम संगठित होना शुरू हो गया हूं ।

 

   स्वभावतः, हमें मानसिक संगठनके हस्तक्षेपसे बड़ी सावधानीके साथ बचना चाहिये । इसीलिये मैं बहुत अधिक समझानेकी कोशिश नहीं करती । तब मन आ जाता है और यह चीज यही नहीं रह जाती ।

 

१८

२७ नवम्बर, १९६५

 

माताजीने नवंबर दर्शन १९६ ख अवसरपर

जो संदेश दिया था । उसके बारेमें :

 

''निश्चय ही ज्योतिको जबरदस्ती उतारना, उसे खींच लेना एक भूल हैं । अतिमानसपर धावा नहीं बोला जा सकता । जब समय हो जायगा तो बह अपने-आप प्रकट हो जायगा । लेकिन पहले बहुत कुछ करना है और उसे धीरजके साथ, बिना जल्द बाजीके करना चाहिये ।'' (श्रीअरविन्द)
 

१९


  यह समझदार लोगोंके लिये अच्छा है । वे कहेंगे : ''वे यहां चमत्कारोंका आश्वासन नहीं दे रहे ।''

 

   क्यों? क्या ऐसे बहुत-से लोग हैं जिनमें नीचे खींचनेकी वृत्ति है ?

 

लोग जल्दीमें होते हैं । वे तुरंत परिणाम देखना चाहते है ।

  

  और वे यह मानते है- कि वे अतिमनको खींच रहे है - वे किसी छोटी- सी प्राणिक सत्ताको नीचे खींच लाते हैं जो उनके साथ खिलवाड़ करती है और: अंतमे उनसे कोई भरा तमाशा करवाती है । बहुधा यही होता है सौमेंसे निन्यानवे बार ।

 

   एक छोटा-सा व्यक्तित्व, कोई प्राणिक सत्ता जो शक बड़ी भूमिका अदा करती है और बहुत दिखावा करती है, ज्योतिका अभिनय करती है; और बेचारा खीचनेवाला चौंधिया जाता है । वह कहता है ''यह लो, यह रहा अतिमान,'' और वह जालमें जा फंसता है ।

 

   जब तुम्हें सच्चे प्रकाशका किसी-न-किसी तरह संपर्क और दर्शन मिल गया हों और तुम्हें उसका स्पर्श मिल गया हो तभी तुम प्राणसे उसका भेद जान सकते हों । तब तुम्हें लगता है कि यह तो कृत्रिम प्रकाश, मंचपर प्रकाशके खेल जैसा है । अन्यथा, दूसरे लोग चौंधिया जाते है -- वह चौव्यइयानेवाला और ''अद्भुत'' होता है और लोग धोखेमे आ जाते हैं । जब तुम सत्यका दर्शन कर चुके हों, उसके साथ नाता जोड़ चुके हो, केवल तभी तुम मुस्करा सकते हों ।

 

   यह नीम-हकीमी है । लेकिन नीम-हकीमीको पहचाननेके लिये तुम्हें सत्यको जानना चाहिये ।

 

   आधारमें, हर एक चीजके लिये एक ही बात है । प्राण एक बहुत श्रेष्ठ मैचके जैसा है जिसपर बहुत आकर्षक, चौधियानेवाले, भ्रामक अभिनय होते रहते है । जब तुम 'सच्ची चीज 'को जानते हो तभी तुम बिना तर्क- वितर्क किये, तुरंत सहज रूपमें जान जाते हो और कहते हों : ''नहीं, मैं नहि चाहता । ''

 

  और हर चीजके लिये ऐसा ही है । और मानव जीवनमें जहां इसने बहुत महत्व पा लिया है वह है प्रेम । प्राणिक आवेग, प्राणिक आकर्षणने प्रायः सब जगह सच्ची भावनाकी जगह लें ली है । सच्ची भावना शांत होती है जब कि यह दूसरी चीज बुदबुदन भर देती है । तुम्हें लगता है मानों कोई ''जीवित' ' वस्तु है । यह बहुत भ्रामक है । और तुम यह

 

२०


नहीं जानते, तुम उसे अनुभव नहीं करते । तुम उसे तबतक भली-भांति स्पष्ट रूपसे अनुभव नहीं कर सकते जबतक कि तुम 'सच्ची वस्तु' को नहीं जानते । अगर तुमने चैत्य और भागवत ऐक्यके द्वारा सच्चे प्रेमका अनुभव किया है तो यह दूसरी चीज खोखली, पतली, खाली दीखती है -- एक आभासमात्र और वह मी उपहासास्पद, शायद उपहासास्पदकी अपेक्षा अधिक दुःखद ।

 

  व्यक्ति उसके बारेमें जो कुछ कहे, उसकी जैसे चाहे व्यारध्या करे वह बेकार है । क्योंकि वह स्त्री या पुरुष जो इसमें फंसा है तुरंत कहता है : ''ओह ' यह दूसरोंकी तरह नहीं है ।'' -- तुम्हें जो कुछ हों रहा है वह कभी वैसा नहीं होता जो दूसरोंको होता है (!) तुम्हें सच्ची अनुभूति होनी चाहिये, तब सारा प्राण एक मुखौटा-सा लगता है, जो आकर्षक नहीं है ।

 

   और जब तुम खींचना शुरू करते हों तो ओह! सौमें निन्यानवे बारसे भी ज्यादा... लाखोंमें एक ऐसा पाया जाता है जो 'सच्ची चीज'को खींचता है -- यह सिद्ध करता है कि वह तैयार था, अन्यथा, हमेशा ही तुम प्राणकों खींचते हो, आभासको, स्वयं 'वस्तु' को नहीं, 'वस्तु 'के नाटकीय प्रदर्शनको खिचते हो ।

 

   खींचना हमेशा एक अहंकारपूर्ण गति होती है । यह अभीप्साका एक विकार है । सच्ची अभीप्सा देना है, आत्म-निवेदन है जब कि खींचना अपने लिये चाहना है । चाहे तुम्हें विचारोमें ज्यादा विशाल महत्वाकांक्षा क्यों न हो -- धरती, विश्व -- इससे कोई फर्क नहीं पड़ता -- ये मानसिक क्रियाएं है।

 

 (लंबा मौन)

 

 दर्शनके दिन तुम्हें कोई विशेष अनुभूति नहीं हुई?

 

     नहीं ।

 

सवेरेसे शामतक श्रीअरविद यहां मौजूद थे ।

 

   हां, और एक घंटेसे ज्यादाके लिये उन्होंने मुझे उस जीवनमें रखा जो मानवजाति और मानवजातिके विभिन्न स्तरोंकी नयी या अतिमानसिक सृष्टिका जीवित और ठोस दृश्य था । वह अद्भुत रूपसे स्पष्ट, जीवित और ठोस था... वह सारी मानवजाति थी जो अब पूरी तरह पाशविक

 

२१


नहीं है, जिसने मानसिक विकाससे लाभ उठाया है और अपने जीवनमें एक तरहका सामंजस्य पैदा किया है -- एक ऐसा सामंजस्य जो प्राणिक, कलात्मक और साहित्यिक है -- और उसमें रहनेवालोंका बहुत बड़ा भाग उससे संतुष्ट है । उन्होंने एक प्रकारका सामंजस्य पा लिया है और उसके अंदर बे ऐ सा जीवन जीते हैं जैसे सभ्य परिस्थिति तयोमें हुआ करता है, यानी, ऐसा जीवन जो कुछ-कुछ संस्कृत होता है, जिसमें परिकृत रुचियां और परिष्कृत आदतें होती हैं; उस सारे जीवनमें ए क विशेष सौंदर्य होता है जिसमें वे आरामसे रहते है । जबतक कोई अनर्थ न हों जाय वे प्रसन्न और संतुष्ट रहते है, जीवनसे संतुष्ट रहते है. । ऐसी लोग आकर्षित हों सकते है ( क्योंकि उनमें रुचि है और वे बौद्धिक दृष्टिसे विकसित है), वे नयी शक्तियोंसे, नयी चीजोंसे भविष्यकी ओर आकर्षित हो सकते हैं; उदाहरणके लिये, वे मानसिक रूपसे, बौद्धिक रूपसे श्रीक्यविंदके शिष्य बन सकते हैं । लेकिन उन्हें भौतिक दृष्टिसे बदलनेकी जरा भी जरूरत नहीं मालूम होती और अगर वे बाधित किये जायें तो पहले यह अपक्व और न्यायके विपरीत होगा और बिलकुल व्यर्थमें उनके जीवनमें अव्यवस्था और गड़बड़ी पैदा करेगा ।

 

   यह बिलकुल स्पष्ट है ।

 

  और फिर कुछ ऐसे थे -- बहुत ही विरले व्यक्ति -- जो रूपांतरकी तैयारी करनेके लिये, नयी शक्तिको खींचने लिये, जड-द्रव्यको अनुकूल बना लेने और अभिक्तिके साधन खोजनेके लिये आवश्यक प्रयास करनेके लिये तैयार थे । ये लोग श्रीअरविदके योगके लिये तैयार है । ये संख्यामें बहुत ही 'कम है । ऐसे लोग भी है जो यज्ञकी भावनासे भरे हैं । वे कठोर, कष्टप्रद जीवनके लिये भी तैयार है, यदि वह भावी रूपांतरकी तरफ लें जाय या उसमें सहायता दे । लेकिन उन्हें कभी, किसी प्रकार, दूसरोंको प्रभावित करनेकी कोशिश नहीं करनी चाहिये -- उन्हें अपने प्रयासमें भाग लेनेके लिये मजबूर न करना चाहिये; यह बिलकुल अनुचित होगा -- केवल अनुचित ही नहीं, बल्कि एकदम भद्दा भी । क्योंकि उससे वैश्य लय और गति या कम-से-कम पार्थिव गतिमें परिवर्तन आ जायगा और यह सहायता करनेकी जगह संघर्ष और अंतमें अव्यवस्था पैदा करेगा ।

 

   लेकिन वह इतना जीवंत था, इतना वास्तविक था कि मेरी सारी वृत्ति ( कैसे कहा जाय? एक निष्क्रिय वृत्ति जो सक्रिय संकल्पका परिणाम नहीं है), काममें मेरी स्थिति ही बदल गयी । और यह एक शांति लायी है -- एक शांति, स्थिरता और विश्वास जो बिलकुल निर्णायक हैं, एक निर्णायक

 

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परिवर्तन आया है । और जो कुछ पहलेकी स्थितिमें दुराग्रह, भद्दापन, निश्चेतना -- सब प्रकारकी शोचनीय वस्तुए मालूम होती थीं -- वह सब गायब हो गया है । यह मानों एक महान् वैश्य लयका दृश्य था जिसमें हूर चीज अपना स्थान लेती है और हर चीज बिलकुल ठीक है । और रूपांतरके लिये प्रयास एक छोटी-सी संख्यातक सीमित रहकर ज्यादा मूल्यवान् और उपलव्धिके लिये अधिक सशक्त बन जाता है । यह ऐसा है मानों उन लोगोंके लिये चुनाव हों गया है जो नयी सृष्टिके पुरोगामी होंगे । और ''प्रसार'', ''तैयारी'' और ''जड़-द्रव्य'' के मंथनकी बातें बचकानी हैं । यह मनुप्यकी बेचैनी है ।

 

   वह एक सौंदर्यका दृश्य था, बड़ा भव्य, शांत और मुस्कराता हुआ, ओह!.. वह भरा हुआ था, सचमुच भागवत प्रेमसे भरा हुआ था । और वह भागवत प्रेम नहीं जो ''क्षमा करता है'' -- नहीं, यह वैसा बिल- कुल नहीं था, बिलकुल नहीं! हर चीज अपने स्थानपर, अपनी आंतरिक लयको यथासंभव अधिक-सें-अधिक उपलब्ध करती हुई ।

 

  यह बहुत ही सुन्दर उपहार था ।

 

   हां, तो लोग इन चीजोंको अंशत: जानते है । बौद्धिक दृष्टिसे, इस तरह, विचारके रूपमें जानते हैं । लेकिन इससे कुछ काम नहीं बनता । अपने दैनिक व्यवहारमें तुम और ही तरह, ज्यादा सच्ची समझके साथ जीते हो । और वहां, ऐसा लगता है मानों तुम वस्तुओंको उनकी उच्चतर स्थितिमें छू रहे हों -- उन्हें देख रहे हो, उन्हें छू रहे हों ।

 

   यह पौधों और पौधोंके सौंदर्यके सहज अंतर्दर्शनके बाद आया (यह बहुत अद्भुत चीज है), फिर आये बड़े सामंजस्यपूर्ण जीवनवाले पशु (जब तक मनुष्योंका हस्तक्षेप न हों), और यह सब कुछ अपने ठीक स्थानपर था । तब सच्ची मानवजाति मानवके रूपमें आयी, यानी, मानसिक संतुलन जितबे सौंदर्य, सामंजस्य, सौम्यता, लालित्य, जीवनमें सकोसौंदर्यमें जिनके रसको -- रच सकता था उसे लिये हुए आयी । स्वभावत: जो कुछ भद्दा, नीच और गँवारू है उसे दबा दिया गया था । वह एक सुन्दर मानवजाति थी, मानवजाति अपनी उच्चतम स्थितिमें थी लेकिन सुन्दर थी । और मानव- स्थितेसे पूर्णत संतुष्ट थी क्योंकि वह सामंजस्यके साथ रहती थीं । यह शायद हंस बातकी पूर्वसूचना थीं कि नयी सृष्टिके प्रभावके तले प्रायः सारी मानवजाति केसी हो जायगी । मुझे ऐसा लगा कि अतिमानसिक चेतना मानवजातिको कैसा बना सकती है । शायद इसमें मानवजातिने पशुजातिका क्या किया उसके साथ तुलना मी थी (यह स्वभावतः, बहुत ज्यादा मिला-जुला प्रभाव है पर चीजों ज्यादा पूर्ण बनायी गयी हैं, ज्यादा अच्छी की गयी है और ज्यादा अच्छी तरह

 

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उपयोगमें लायी गयी है) । मनके प्रभावके तले पशु योनि कृउछ और ही बन गयी है, वह स्वभावत: है तो कुछ मिश्रित-सी चीज क्योंकि मन अपूर्ण था; इसी तरह भली-भांति सन्तुलित लोगोंके बीच सामंजस्यपूर्ण मानवता थी । ऐसा लगता था कि अतिमानसिक प्रभावके अधीन मानवजाति क्या हो सकती है ।

 

   लेकिन यह अभी बहुत दूर है; तुम्हें इसकी तुरन्त आशा न करनी चाहिये -- यह बहुत दूर है ।

 

  स्पष्टत:, अभी यह एक संक्रमण काल है जो काफी लंबे समयतक रह सकता है और है भी कष्टदायक । कभी-कभी इस कष्टदायक प्रयास ( बहुधा कष्टदायक) की क्षतिपूर्ति, हमें जिस लक्ष्यतक पहुंचना है उसके स्पष्ट दर्शन, उस लक्ष्यके स्पष्ट दर्शनसे जिसे हम जरूर प्राप्त करेंगे. एक आश्वासनसे, हा, निश्चितिसे होती है । लेकिन वह कुछ ऐसी चीज होगी जिसमें सब भ्रांति, विकृति, मानव जीवकी सारी कुरूपताको निकाल. बाहर करनेकी शक्ति होगी । और तब वह एक ऐसी मानवजाति होगी जो बहुत प्रसन्न, मानव होनेसे बहुत संपुट होगी जिसे मनुष्यसे अलग कुछ और बननेकी जरूरत न मालूम होगी लेकिन उसमें मानव सौंदर्य. और मानव सामंजस्य होगा ।

 

   यह बड़ा मोहक था, मानों में उसमें जी रही थी । विरोध गायब हो गायें थे । यह ऐसा था मानो मैं पूर्णतामें जी रही थी । वह अति- मानसिक चेतनाद्वारा कल्पित मानवता थी जो यथासंभव पूर्ण थी । और वह बहुत अच्छी थी ।

 

   और यह बहुत बड़ा विश्राम लाती है । तनाव, संघर्ष आदि सब गायब हों जाते है, और अधीरता भी । यह सब पूरी तरह गायब हो गये ।

 

   यानी, आप कामको सब जगह फैलानेकी जगह केंद्रित करती है ।

 

 नहिं, वह भौतिक दृष्टिसे फैल सकता है क्योंकि व्यक्ति आवश्यक रूपसे एक जगह इकट्ठे नहीं होते । लेकिन वे संख्यामें थोड़े-से ही होते है । मानवजातिको नवीन सृष्टिके लिये ''तैयार करने'' की बड़ी आवश्यकता- का यह विचार, यह अधीरता गायब हों गयी ।

 

    पहले कुछ लोगोंमें यह चीज सिद्ध होनी चाहिये ।

 

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बिलकुल ठीक ।

 

   में देख रही थीं, मैंने इसे बिलकुल ठोस रूपमें देखा । उन लोगोंके अतिरिक्त जो रूपांतर और अतिमानसिक सिद्धिकी तैयारी करनेके योग्य हैं और जिनकी संख्या निश्चय ही बहुत सीमित है, जन साधारणके बची अधिकाधिक पक श्रेष्ठतर मानवजातिका विकास होना चाहिये. जिसकी भविष्यकी या निमित होती हुई अतिमानस सत्ताके प्रति वही वृत्तिहौ जैसी, उदाहरणके लिये, पशुओंकी मनुष्यके प्रति है । जो लोग रूपांतरके लिये काम कर रहे हैं और जो उसके लिये तैयार हैं, उनके अतिरिक्त एक उच्च- तर मध्यस्थ मानवजाति होनी चाहिये जिसने अपने अंदर या जीवनमें, 'जीवन' के साथ सामंजस्य पा लिया है -- यह मानव सामंजस्य -- जिसे किसी ''ऐसी वस्तु'' के लिये जो इतनी ऊंची है कि वह उसे पानेकी कोशिश भी नहीं करती, उसके लिये पूजा, भक्ति, निष्ठा-भरे भाव होता है । वह उसकी पूजा. करता है, उसके प्रभाव और रक्षणकी जरूरत महसूस करता है -- उसके प्रभावके अधीन रहनेकी जरूरत और उसके रक्षणमें रहनेका आनंद । यह बहुत स्पष्ट थो पटकी यह यातना नहीं, जो चीज तुमसे बच निकलती है उसे चाहनेका पीड़ा नहीं क्योंकि -- क्योंकि उसे पाना तुम्हारी नियतिमें नहीं है । उसके लिये जो समस्त प्रयास चाहिये वह तुम्हारे जीवनके लिये अभी तैयार नहीं है । और उसीके कारण अव्यवस्था और कष्ट पैदा होते है ।

 

  उदाहरणके लिये, ठोस चीजोंमेसे एक ऐसी है जो इस समस्याको भली- भाति सामने लाती है. मानवजातिमें सेक्सका आवेग है जो बिलकुल स्वाभाविक, सहज और में यह भी कह सकती हू कि उचित है । यह आवेग अपने-आप स्वभाविक और सहज रूपमें पाशविकताके साथ--साथ गायब हो जायगा ( और भी बहुत-सी चीजों गायब हो जायगी, उदाहरणके लिये, खाने- की जरूरत और हम अमी जिस तरह सोते है उस तरह सोनेकी जरूरत), लेकिन उच्चतर मानवजातिमें. आनंद तो बहुत कड़ा शब्द है, हम कह सकते है कि जो प्रसन्नता या हर्षका स्रोत बनकर चलती चली आ रही है वह सेक्सकी क्रिया तब बिलकुल न रहेगी जब प्रकृतिके कार्यमें इस तरीके- सें सृजन करने. की जरूरत न रहेगी । अतः, जीवनके हर्षका साथ संबंध बनानेकी क्षमता एक कदम ऊपर उठ जायगी या कोई अन्य दिशा ले लेगी । लेकिन प्राचीन आध्यात्मिक अभीप्सुओंने सिद्धांतके रूपमें -- सेक्सके निषेध- की -- जो कोशिश की थी वह एक वाहियात-सी बात है । यह उन्हीं लोगोंके लिये हो सकता है जो उस स्तरके परे जा चुके है और जिनमें पाशविकता नहीं बची । इसे बिना प्रयास और बिना संघर्षके स्वाभाविक

 

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रूपसे झड़ जाना चाहिये । उसे संघर्ष और दद्वका केंद्र बनाना हास्यास्पद है । जब चेतना मानवी नहीं रहती तो यह अपने-आप झड़ जाती है । यह भी एक ऐसा संक्रमण है जो कुछ कष्टकर हों सकता है, क्योंकि संक्रमणकी सत्ताएं हमेशा अस्थिर संतुलनमें रहती हैं, लेकिन भीतर एक प्रकारकी ज्वाला होती है, एक आवश्यकता होती है जो 'इसे कष्टकर नहीं बनाती - यह कष्टकर प्रयास नहीं रहता, एक ऐसी चीज होती है जिसे आदमी मुस्कानके साथ कर सकता है । लेकिन जो लोग इस संक्रमणके लिये तैयार नहीं है उन- पर इसे लादनेकी कोशिश करना वाहियात है ।

 

   यह सामान्य बुद्धिकी बात है । वे मनुष्य है, वे मनुष्य न होनेका ढोंग नहीं करते ।

 

  जब सहज रूपमें आवेग तुम्हारे लिये असंभव हों जाय, जब तुम यह अनुभव करो कि यह एक कष्टकर चीज है, तुम्हारी गहरी आवश्यकताओंके विपरीत है, तब यह आसान हो जाता है; और तब तुम बाहरसे इन बंधनोंको काट सकते हो और यह खतम. हों जाता है ।

 

  यह सबसे अधिक विश्वासजनक उदाहरणोंमेंसे एक है ।

 

  भोजनके बारेमें भी यहीं बात है । यही बात होगी । जब पाशविकता झड़ जायेगी तो भोजनकी नितनित आवश्यकता भी झड़ जायेगी । और शायद एक संक्रमण होगा जब व्यक्तिको क्रमश: कम-से-कम भौतिक भोजन- की आवश्यकता होगी । उदाहरणके लिये, जब तुम फूल सस्ते हो तो उनसे पोषण मिलता है । मैंने यह देखा है, तुम ज्यादा सूक्ष्म रीतिसे अपना पोषण कर लेते हो ।

 

  लेकिन अभी शरीर तैयार नहीं है । शरीर तैयार नहीं है, वह क्षीण होने लगता है, यानी, वह अपने-आपको खाने लगता है । यह प्रमाणित करता है कि अभी समय नहीं आया यह केवल परीक्षण है -- एक ऐसा परीक्षण जो तुम्हें कुछ सिखाता है । यह सिखाता है कि अनुरूप 'भौतिक द्रव्य' का पाशविक निषेध या पार्थक्य नहीं (तुम अपने-आपको पृथक नहीं कर सकते, यह असंभव है), परंतु एक उच्चतर या गहनता स्तरपर सायुज्य होना चाहिये ।

 

 ( मौन)

 

   जो बुद्धिके उच्चतर स्तरोंपर पहुंच चुके है, लेकिन जिन्हेंने मानसिक क्षमताओंपर अधिकार नहीं पाया है उनमें एक निर्दोष आवश्यकता यह होती है कि हर एक व्यक्ति उन्हींकी तरह सोचे और उसी तरह समझे जैसे वे

 

समझते है और जब वे देखते है कि अन्य लोग नहीं देख पाते, नहीं समझ पाते, तो उनकी प्रतिक्रिया होती है, उन्हें धक्का लगता है और वे कहते है : ''कैसे हैं! '' लेकिन वे मूर्ख नहीं हैं, वे भिन्न हैं, वे दूसरे क्षेत्रमें हैं । तुम जानवरके पास जाकर यह नहीं कहते. ''तुम मूर्ख हों'', तुम कहते हों ''यह जानवर है ।', उसी भांति तुम कहते हों. ''यह आदमी है ।'' यह आदमी है, हां, कुछ ऐसे लोग है जो अब मनुष्य नहीं रहे और अभी देवता भी नहीं बने है । वे एक ऐसी स्थितिमें... कुछ अजीब, भद्दी-सी स्थितिमें हैं ।

 

    लेकिन यह बड़ी आरामदेह, बड़ी मधुर, बड़ी अद्भुत अंतर्दृष्टि थीं -- हर चीज अपने प्रकारको बिलकुल स्वाभाविक 'रूपमें प्रकट कर रही थी । और यह स्पष्ट है कि अंतर्दृष्टिके विस्तार और उसकी समग्रताके साथ जो एक चीज आती है वह करुणा है जो समझ सकती है--वह दया नहीं है जो श्रेष्ठको अपनेसे हीनके लिये होती है : वह सच्ची दिव्य करुणा जिसको इस बातकी संपूर्ण समझ है कि हर चीज वही है जो होनी चाहिये ।

 

 

२६

२२ जनवरी, १९६६

 

 आज सवेरे, दो घंटेके लिये, में एक प्रकारकी आनंदमय अवस्थामें रही जिसमें चेतना ऐसी स्पष्ट थी कि जीवनके सभी रूप, सभी जगतोमें, सभी क्षणोंमें चुनावकी अभिव्यक्ति थे -- वहां व्यक्ति अपना जीवन चुनता है ।

 

   इसे शव्दोंमें कहना बहुत कठिन है... । आदमी समझता तै कि वह एक प्रकारकी बाध्यतामें जीता है, और वह मानता है कि वह इस बाध्यताके सुपुर्द है, लेकिन वह बाध्यता बिलकुल गायब हो गयी थी । अब केवल सहज-स्वाभाविक बोध था कि धरतीपर जीवन, अन्य पृथ्वियोंपर जीवन और पृथ्वीपर हर प्रकारका जीवन और दूसरे जगतोंपर हर प्रकारका जीवन सिर्फ एक चुनावका सवाल है : तुमने ऐ सा होनेका चुनाव किया है और तुमने निरंतर ऐसा होनेका या वैसा होना एका चुनाव कर लिया है । तुमने चून लिया है कि चीजों इस तरहसे हों या उस तरहसे हों । तुमने यह मान्यता मी चुनी है कि तुम नियतिके, आवश्यकताके, एक बाधित करनेवाले विधानके सुपुर्द हों - सब कुछ चुनावका प्रश्न है । और एक हल्केपनका, स्वाधीनताका भाव थ और हर चीजके लिये मुस्कान थी ।

 


साथ ही, यह तुम्हें बहुत अधिक शक्ति प्रदान करती है । बाध्यता, आवश्यकताकी भावना -- और उनसे भी बढ़कर भाग्यकी भावना -- पूरी तरह गायब हो गयी थी । समस्त रोग, सभी घटनाएं, सभी नाटक, ये सब चीजों गायब हों गयी थीं । भौतिक जीवनकी यह ठोस और इतनी पाशविकता : बिलकुल चली गयी थीं ।

 

  आज सवेरे मैं डेढ़. घंटेसे ज्यादा इस अवस्थामें रही । फिर, मुझे वापिस आना पड़ा... एक ऐसी अवस्थामें लौटना पड़ा जो मुझे कृत्रिम प्रतीत होती है लेकिन वह औरोंके कारण, और लोगों तथा वस्तुओंके सार्थ संसर्गके कारण और उन अनगिनत चीजके कारण जिन्हें करना जरूरी है । फिर भी, पृष्ठभूमिमें अनुभूति बनी रहती है । जीवनकी सभी जटिलताओंके लिये, एक विनोद-भरी मुस्कान रहती है -- व्यक्ति अब जिस अवस्थामें है यह उसके अपने चुनावका तथ्य है, व्यक्तिके लिये चुनावकी स्वाधीनता है, लेकिन लोग इसे भूल गये हैं । यही बात इतनी मजेदार है ।

 

  मैंने एक ही समयमें समस्त मानव ज्ञानकी झांकी पायी ( क्योंकि, मानव उपलब्धिकी उन अवस्थाओंमें सभी मानव ज्ञान उस नयी अवस्थाके सामने एक चित्रावलकि रूपमें आते हैं और हर एकको अपने-अपने स्थानपर रखा जाता है -- हमेशा, हमेशा ही जब कोई अनुभूति आती है तो वह मानों सिंहावलोकनके रूपमें आती है) । मैंने सभी सद्धांतों, सभी मान्यताओं, सभी दर्शनोंको देखा और देखा कि वे अपने-आपको नयी अवस्थाके साथ कैसे संलग्न करते है । वह मजे दार था ।

 

  और इसके लिये आरामकी जरूरत नहीं होती । ये अनुभूतियोंके इतनी ठोस, इतनी सहज और इतनी वास्तविक होती हैं ( वे किसी प्रयास तो क्या, संकल्पका परिणाम भी नहीं होती) कि उनके लिये आरामकी जरूरत नहीं होती ।

 

  लेकिन जिन लोगोंमें मानसिक या दार्शनिक तैयारि नहीं थी और उन्होंने किसी-न-किसी कारण इस अनुभूतिको पा लिया ( संत या ऐसे सब लोग जो आध्यात्मिक जीवन बिताते थे), उन्हें जीवनकी अवास्तविकताकी, जीवनके भ्रमकी बहुत तीव्र अनुभूति हुई । लेकिन यह बहुत संकीर्ण दृष्टि है । यह ऐसा नहीं है - यह ऐसा नहीं है । हर चीज एक चुनाव है! हर चीज, हर एक चीज चुनाव है! भगवान्का चुनाव, लेकिन हमारे अंदरके भगवान्का : वहांके ( ऊपरकी ओर संकेत) भगवान्का नहीं : यहीके । और हम नहीं जानते, यह हमारे अपने हृदयोंमें है । और जब हम जानते हैं तो चुनाव कर सकते है -- हम अपनी पसंद चून सकते हैं, यह अद्भुत है ।

 

  और इस प्रकार सत्ताकी नियति, बंधन और कठोरता, सब गायब हों

 

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चूंकि हैं । सब गायब । वह पारदर्शक नीला था, पारदर्शक गुलाबी था, बिलकुल ज्योतिर्मय, पारदर्शक और हल्का ।

 

मैं भली-भांति समझ सकती हू कि यह कोई निरपेक्ष चीज नहीं हैं; यह सत्ताकी एक विधि-भर थी, लेकिन थी बहुत ही मोहक विधि... । सामान्यत:, जिन लोगोंमें पर्याप्त बौद्धिक तैयारी नहीं होती उन्हें जब इस प्रकारकी अनुभूति हो जाती है तो वे मान बैठते हैं कि उन्होंने ' 'एकमात्र '' मध्य पा लिया है । और उसपर वे सिद्धांत गढ़ने लगते है । लेकिन मैंने भली-भांति देखा है कि यह वह नहीं है : यह सत्ताका तरीका है, यद्यपि यह सत्ताका बहुत अच्छा तरीका है यहां जो है उससे कहीं अधिक श्रेष्ठ । उसे यहां पाया जा सकता है : मैं पा चुकी हू । मैंने उसे बहुत ठोस रूपमें अनुभव किया था । यहां हमेशा कृउछ-न-कुछ ऐसा होता है जो ठीक नहीं है, यहां-वहां, इसमें या उसमें कुछ गलती होती है और फिर ऐसी परिस्थितियां होती है जो ठीक नहीं होती । हमेशा कठिनाइयां होती हैं -- यह सब... रंग बदल लेता है । वह हल्का, हल्का -- हल्का और नमनीय हो जाता है । सब कठोरता और बड़ापन गायब हो जाते हैं ।

 

और यह भाव भी, कि अगर तुम ऐसे होनेका चुनाव करो तो ऐसे बने सकते हो । और यह सच है । गलत आदतें ही, स्पष्टतः, धरतीपर करोड़ों आदतें ऐसी हैं जो तुम्हें रोकती है; लेकिन यह कोई कारण नहीं है कि यह अवस्था स्थायी न हो पाये । क्योंकि इससे सब कुछ बदल जाता है! सब कुछ बदल जाता है!... यह स्पष्ट है कि अगर ल्यक्ति उस अवस्थाका स्वामी बन जायें तो वह अपने चारों ओरकी सभी परिस्थितियोंको बदल सकता है ।

 

  इन दिनों ( काफी लंबे समयसे), शरीरके साथ यहीं कठिनाई थी । यह शरीर, जैसा कि साधारणत: होता है, सीमित और अपने ही शंखमें बंद नहीं है, जो सहज रूपसे ' 'ग्रहण करने'' की अनुभूतिके बिना भी ग्रहण करता रहता है, जिसमें उसके चारों तरफकी सभी चीजोंके स्पंदन आते रहते हैं; और तब, मानसिक या नैतिक दृष्टिकोणसे, उसे चारों ओरसे घेरे रहनेवाली सभी चीजों बंद और न समझनेवाली हों तो चीज जरा मुश्किल हो चली है, यानी, वे ऐसे तत्व होते है जो आते है और उनका रूपांतर करना जरूरी होता है । यह एक प्रकारकी पूर्णता है -- एक ऐसी पूर्णता जो बहुविध और बहुत अस्थायी है -- यह तुम्हारी चेतना और क्रिया- के क्षेत्रका प्रतिनिधित्व करती है, सामंजस्यको, कम-से-कम सामंजस्यको फिरसे स्थापित करनेके लिये तुम्हें इसपर क्रिया करनी होगी; और जब

 

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साधारण विचारके अनुसार तुम्हारे इर्द-गिर्द. कोई चीज ''गलत'' हो जाती है तो काम जरा ज्यादा कठिन हों जाता है । वह एक ही साथ मोटा., निरंतर और दुराग्रही होता है । मुझे याद है, अनुभूतिसे ठीक पहले शरीरमें 'सामंजस्य' के लिये, 'प्रकाश' के लिये, एक प्रकारकी सुखद शांतिके लिये अभीप्सा थी । शरीर सबसे बढ़कर सामंजस्यके लिये अभीप्सा कर रहा था । शायद यह उन सब चीजोंके कारण होगा जो पीसती और खुरचती है । संभवत: यह अनुभूति अभीप्साके उत्तरमें थी ।

 

 मैंने यह देखा है कि इस शरीरके जीवनमें कोई भी अनुभूति मुझ दूसरी बार नहीं हुई --- मुझे उसी प्रकारकी अनुभूतियां हों सकती है, ज्यादा ऊंचे स्तरपर, ज्यादा विशाल क्षेत्रमें हो सकती हैं, लेकिन वह-की- वही दोबारा नहीं होती । और मैं किसी अनुभूतिको रख नहीं छोड़ती, मैं सारे समय, सारे समय (आगेकी ओर संकेत), सारे समय आगे बढ़ती रहती हूं । हां, चेतनाके रूपांतरका काम इतना तेज है, शनाप तेज होना चाहिये कि बैठकर किसी अनुभूतिके मजा लेनेका, किसी अनुभ्तिका विस्तारपूर्वक निरूपण करनेका या कुछ समयके लिये संतोष करनेका समय न रहे । यह संभव है । यह जोरसे, बड़े जोरसे आता है । यानी, वह सब कुछ बदल डालता है और फिर कोई नयी चीज आती है । कोषाणुओंके रूपांतरके बारेमें. भी यही बात है : सब प्रकारकी छोटी-मोटी गड़बड़ी आती हैं, पर वे स्पष्ट रूपसे चेतनाके लिये रूपांतरकी गड़बड़ें होती है । तब व्यक्ति एक बिंदुपर व्यस्त हों जाता है, फिरसे व्यवस्था स्थापित करना चाहता है; और साथ ही कोई ऐसी चीज होती है जो निरंतर जानती है कि यह गड़बड़ इसीलिये आयी है कि सामान्य यंत्रवत् त्रि,या-कलापकी जगह परम प्रभुके सीधे 'प्रभाव' और 'मार्ग-दर्शन' में सचेतन कार्यके लिये मार्ग खुल जाय । स्वयं शरीर यह जानता है (वह जानता तो है, पर यहां दर्द हो, वह.।- दर्द हों, इसमें या उसमें गड़बड़ी हो जाय - इस सबमें कोई मजा नहीं आता, लेकिन वह जानता है) । और जब्र यह बिंदु किसी हदतक रूपांतर- के पास जा पहुंचता है तो व्यक्ति अगले बिंदुपर चला जाता है, फिर अगलेपर चला जाता है, फिर अगलेपर; और होता कुछ भी नहीं, कोई भी काम निश्चित रूपसे नहीं होता जबतक कि... तबतक नहीं होता, जबतक सब कुछ तैयार न हों जाय । और तब फिर उसी कामको जरा ऊंचे स्तरपर या विशाल क्षेत्रमें, अधिक तीव्रताके साथ या ज्यादा विस्तारमें करना पड़ता है । यह ब्यक्तिपर निर्भरहौ । यह सब तबतक चलता रहता है जबतक ''समग्र'' एक रूपमें, समानान्तर नहीं हों जाता । जैसा कि मैं देखती हू, यह भरसक तेजीसे आगे बढ़ रहा है, लेकिन

 

इसमें बहुत समय लगता है । सारा प्रश्न अम्यासको बदलनेका है । हजारों सालोंके समस्त यांत्रिक अम्यासको सीधे परम 'चेतना' के पथप्रदर्शनमें सचेतन क्रियामें बदलना होगा ।

 

   यहां यह कहनेकी इच्छा होती है कि यह काम बहुत ज्यादा समय लेता है और बहुत कठिन है, क्योंकि यह शरीर लोगोंसे घिरा हुआ है और इसे दुनियामें काम करना पड़ता है, लेकिन अगर यह इन परिस्थितियोंमें न होता तो बहुत, बहुत-सी चीजों भुला दी जाती । बहुत-सी चीजें न की जाती । बहुत प्रकारके ऐसे स्पंदन है जिनका इस समुच्चयके साथ (माताजीके कोषाणुओंके समुच्चयके साथ) कोई संबंध नहीं और अगर मेरा लोगोंके साथ- संपर्क न होता तो इन स्पंदनोंको कभी रूपांतरकारि 'शक्ति'- का स्पर्श भी न मिलता ।

 

   यह बहुत स्पष्ट है -- बहुत ही स्पष्ट है - कि जब व्यक्ति सचाईसे चाहता है तो वह अच्छे-सें-अच्छी अवस्थाओंमें और कार्यके लिये' अधिक-से- अधिक संभावनाओंमें स्थान पाता है ।

 

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१८ मई, १९६६

 

   क्या तुमने इन स्वापक औषधियोंके बारेमें सुना है? '... तुमने कुछ चित्र देखे हैं?... मैंने चित्र देखे हैं । लनेग बिना किसी सुरक्षाके निम्नतम प्राणमें फेंक दिये जाते हैं और अपनी प्रकृतिके अनुसार उसे भयानक या अद्भुत पाते है । उदाहरणके लिये, कोई गद्दी या कुरसीपोश अचानक अद्भुत रूपसे सुन्दर बन जाता है । यह दो-तीन घंटोंतक रहता है । वे सारे समय स्वभावतः, होशमें नहीं रहते । खेदकी बात तो यह है कि लोग इसे ''आध्यात्मिक अनुभूति'' कहते हैं और ऐसा कोई नहीं जो उनसे कह सके कि इसका आध्यात्मिक अनुभूतिसे कोई संबंध नहीं ।

 

    कुछ समय पहले मेरे पास किसीकी चिट्ठी आयी थी । उसने लिखा था : ''मैंने ये स्वापक औषधियां ली थीं और उससे बड़े भयंकर अंतर्दर्शन हुए, कमरेकी दीवारें हज़ारों अशुभ और निराशाजनक चेहरोंसे सजीव ले उठी और राततक तंग करती रहीं ।'' तो यह हाल है !

 

 माताजी एरल० एस० डी० की बात कर रही थीं ।

 

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     लेकिन आखिर, इसने मुझे एक और प्रमाण दिया... । मैंने ''लाइन'' पत्रिकामें कुछ चित्र देखे । देखकर ऐसा लगता था मानों तुम पागलखानेमें आ गये हो । ये अवचेतनामें अंकित बिंब होते हैं -- विचारोंके बिंब, संवेदनोंके बिंब, भावनाओंके बिंब जो अवचेतनामें अंकित रहते हैं -- वे यथार्थ हो उठते हैं, जो ऊपरी तलपर आकर यथार्थ बन जाते हैं । इस भांति वे अंदर जो हैं उसका ठीक-ठीक चित्रण करते हैं ।

 

  उदाहरणके लिये, अगर तुम्हारे अंदर यह विचार या यह भाव हों कि अमुक व्यक्ति दुष्ट या हास्यास्पद है या तुम्हें नहीं चाहता, संक्षेपमें कहे तो इसी प्रकारकी चीजें साधारणत: स्वप्नमें सिर उठाती है । लेकिन यहां तुम सोये हुए नहीं होते, फिर भी, स्वप्न आते है! वे तुम्हारे सोचे हुए रवेलको खेलनेके लिये आ जाते हैं । तुमने उनके बारेमें जो सोचा है वह तुम्हारे ऊपर उन्हींकी रूपमें आकर गिरता है । यह एक सूचक है : जो लोग, प्रसन्न, सौम्य, सुन्दर बिंब देखते है उसका मतलब यह होता है कि उनके अंदर प्राणकी दृष्टिसे सब कुछ ठीक चल रहा है, लेकिन जो भयानक या अशुभ चीजें या इसी प्रकारकी और चीजें देखते है उनके लिये इसका मतलव होता है कि उनका प्राण सुखद नहीं है ।

 

   हां, लेकिन क्या कोई तटस्थ प्राण नहीं होता जहां इन अंतर्दर्शनोंका हमारी अपनी अवचेतनाके साथ कोई संबंध नहीं होता?

 

हां, है तो, पर उसके गुण ऐसे ही नहीं होते ।

 

 ऐसे ही गुण नहीं होते?

 

व्यक्ति उसे तबतक नहीं जान सकता जबतक कि वह प्राणमें पूरी तरह सचेतन रूपसे न जाय -- अपने प्राणके बारेमें सचेतन हो और प्राणिक जगत् के बारेमें भी उसी तरह सचेतन हों जैसे भौतिक जगत् के बारेमें सचेतन होता है । व्यक्ति वहां सचेतन रूपसे जाता है । यह स्वप्न नहीं होता, उसकी प्रकृति स्वप्नकी नहीं होती; यह एक क्रियाकी तरह है, पक अनुभूतिकी तरह है और यह बिलकुल भिन्न है ।

 

   लेकिन ऐसे प्राणिक जगत् भी तो है जहां व्यक्तिको यंत्रणा दी जाती है, भयानक, उत्पीड़क लोक भी तो होते हैं न?

 

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९०%आत्मनिष्ठ ।

 

   १०%आत्मनिष्ठ । एक वर्षसे अधिकतक मैं नियमित रूपसे हर रात एक निश्चित समयपर, एक ही तरहसे कोई विशेष काम करनेके लिये प्राणमें प्रवेश किया करती थी । यह मेरी अपनी इच्छाका परिणाम नहीं था । यह करना मेरे लिये नियत था । यह एक ऐसा काम था जिसे मुझे करना ही था । उदाहरणके लिये, प्राणके इस प्रवेशका वर्णन प्रायः किया गया है, एक रास्ता है जहां सत्ताएं खड़ी की गयी हैं ताकि वे तुम्हें अंदर घुसनेसे रोकों (गुह्यविद्याकी पुस्तकोंमे इनके बारेमें बहुत कुछ कहा गया है) । हां तो, मैं (सरसरे अनुभवसे नहीं), बार-बार अनुभवसे जानती हु कि यह विरोध या दुर्भावना नब्बे प्रतिशत मनोबैज्ञानिक है । यानी, अगर तुम पहलेसे इसके बारेमें न सोचों, या उससे न डरो, तुम्हारे अंदर कोई ऐसी चीज न हो जो अज्ञातसे डरती है, आशंका और भयकी गतियां न हों तो यह चित्रपर छायाकी नियराई या किसी बिंबके प्रक्षेपणके जैसा होता है । इसमें कोई ठोस वास्तविकता नहीं होती ।

 

   यह सच है कि किसी भटके हुए व्यक्तिको बचानेके लिये मुझे दो-एक बार सच्चे प्राणिक युद्ध करने पड़े थे । और दो बार मुझे चोटें लगी थी और अगले दिन जब मैं जागी तो एक निशान भी था (माताजी दाहिनी आंख दिखाती हैं) । हां, तो इन दो घटनाओंमें, मेरे अंदर ही कोई चीज थी; डर नहीं; क्योंकि मैं कभी नहीं डरी, मैंने पहलेसे इसकी प्रत्याशा की थी । यह विचार कि ''ऐसा हो सकता है'', यह तथ्य कि मैं उसकी आशा कर रही थी, यही कारण था कि मुझे आघात लगा । मुझे यह निश्चित रूपसे मालूम था । अगर मैं अपनी आंतरिक निश्चितिकी ''सामान्य स्थिति'' में होती तो यह मुझे छू भी न पाती, यह हरगिज न कर पाती । मुझे यह आशंका थी क्योंकि मैं एक गुह्यवादी महिलाको जानती थी, उसने मुझे बतलाया था कि एक प्राणिक युद्धमें उसकी एक आरव जाती रही थी और इस तरह (हंसते हुए) मेरे अंदर यह विचार आया कि चुकी उसके साथ ऐसा हों चुका है, इसलिये ऐसा हो सकता है । लेकिन जब मैं स्वयं अपनी स्थितिमें होती हू -- मैं ठीक यह भी नहीं कह सकती, यह ''व्यक्तिगत' ' नहीं है, यह सत्ताकी एक अवस्था है -- जब व्यक्ति सच्ची स्थितिमें होता है, जब वह सचेतन सत्ताकी सच्ची चेतनामें होता है तो यह चीज उसे C भी नहीं ''सकती'' ।

 

  यह ऐसा अनुभव है जैसे तुम शत्रुसे मीलों और उसपर प्रहार करना चाहो और तुम्हारी चोटें उसे छूतक न पायें, तुम जो कुछ भी करो उसका

 

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कोई असर न हों - यह हमेशा आत्मनिष्ठ होता है । मेरे पास इसके पूरे प्रमाण हैं, पूरे प्रमाण है ।

 

     लेकिन वस्तुनिष्ठ बात क्या है?

 

जगत् हैं, सत्ताएं हैं, शक्तियां हैं, उनका अपना अस्तित्व है, लेकिन मैं जो कह रही हु उसका मतलब यह है कि मनुष्यकी चेतनाके साथ उनका संबंध, वे ओ रूप लें, इस मानव, चेतनापर निर्भर है ।

 

   देवोंके साथ मी यही बात है, मेरे बालक, एक ही बात है । अधिमानसकी ये सब सत्ताएं_, ये सभी देवता, उनके साथ संबंध, इन संबंधोके रूप मानव चेतनापर निर्भर होते हैं । हो सकता है... यह कहा गया है : ''मनुष्य देवोंके लिये पशु हैं ।', लेकिन तभी जब मनुष्य उनका पशु होना ''स्वीकार करे'' । मानव प्रकृतिके सारतत्वमें सभी वस्तुओंपर प्रभुता होती है, यह तब सहज और स्वाभाविक होती है जब कुछ विचार और तथा- कथित शान उसे झुठला न दें ।

 

  हम कह सकते है कि मनुष्य अपनी प्रकृतिकी सत्ताकी सभी अवस्थाओंका सर्वशक्तिमान स्वामी है, लेकिन वह यह होना भूल गया है ।

 

  सर्वशक्तिमान होना उसकी स्वाभाविक स्थिति है-- लेकिन वह सर्व- शक्तिमान होना मुल गया है ।

 

   इस विस्मृतिकी अवस्थामें हर चीज ठोस बन जाती है, हां, इस अर्थमें कि वह आंखपर एक निशान छोड़ सकती है । वह अपने-आपको इस रूपमें अनूदित कर सकता है -- लेकिन यह इसलिये क्योंकि... ढ़यक्तिने ऐसा होने दिया है ।

 

   देवताओंके साथ भी यही बात है । वे तुम्हारे जीवनपर शासन कर सकते है और तुम्हें बहुत कष्ट दे सकते है (वे तुम्हारी बहुत सहायता भी कर सकते हैं), लेकिन ''तुम्हारे संबंधमें'', मानव सत्ताके संबंघमें उनकी शक्ति वही है जो तुम उन्हें देते हो ।

 

   यह ऐसी चीज है जिसे मैंने धीरे-धीरे बरसोमें सीखा है, लेकिन अब मैं इसके बारेमें निश्चित हू ।

 

  स्वभावत: विकास-चक्रके लिये यह जरूरी था कि मनुष्य अपनी सर्वशक्तिमत्ताको भूल जाय, क्योंकि इसके कारण वह गर्व और मिथ्याभिमानसे फूल उठा था और इस तरह पूर्णतया विकृत हों गया था । यह जरूरी था कि उसे यह अनुभव कराया जाय कि बहुत-सी चीजें उससे ज्यादा बल- वान्, उसे ज्यादा शक्तिशाली है । लेकिन यह तत्वत: सत्य नहीं है । यह विकास-क्रमकी एक आवश्यकता है । बस ।

 

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    मनुष्य अपनी संभाव्यतामें देवता है । उसने अपने-आपको वास्तविक देव मान लिया । उसे यह सीखनेकी जरूरत थी कि वह धरतीपर रेंगते हुए एक बेचारे कीडेसे बढ़कर कुछ नहीं है । इसलिये जीवन उसे घिसता, घिसता गया, घिसता गया, हर प्रकारसे घिसता गया जबतक कि वह.. समझा तो नहीं, पर कम-से-कम इस बातको उसने थोड़ा अनुभव तो कर किया । लेकिन जैसे ही वह ठीक वृत्ति अपनाता है, वह जान लेता है कि वह संभाव्यतामे देवता है । केवल उसे देवता बनना है, यानी, जो कुछ दैव नहीं है उसपर विजय पानी है ।

 

  देवोंके साथ यह संबंध बड़ा ही मजेदार है... । जबतक मनुष्य इन दैवी सत्ताओंके आगे उनकी शक्ति, सौंदर्य, प्रवीणता, उपलब्धि आदिके लिये अहंभावके साथ चौंधियाया हुआ खड़ा रहता है तबतक वह उनका दास रहता' है । लेकिन जब वह इन्हें परम पुरुषकी भिन्न प्रकारकी सत्ताएं -- इससे बढ़कर कुछ नहीं--मान लेता है और अपने-आपको भी परम पुरुषकी एक और प्रकारकी सत्ता मानता है और यह जान लेता हैं कि मुझे भी वही बनना है तो संबंध बदल जाते है । उसके बाद वह देवोंके दास नहीं रहता -- वह उनका दास नहीं है ।

 

     तब तो केवल परम पुरुष ही वस्तुनिष्ठ है ।

 

बिलकुल ठीक, तुमने ठीक बात कही है, वत्स । ठीक ऐसा ही है ।

 

   अगर वस्तुनिष्ठताका अर्थ किया जाय ''वास्तविक स्वतंत्र अस्तित्व'' ओह! सत्य, स्वयंभू -- तो परम पुरुषके सिवाय कुछ भी नहीं हैं ।

 

   फिर भी इस पूर्ण वस्तुनिष्ठताके बारेमें कोई चीज परेशान करनेवाली है ।

 

ओह ! क्यों ?

 

हमें आश्चर्य होता है कि आखिर वास्तविक है क्या? हमें किसके साथ सचमुच पाला पड़ता है? क्या सब कुछ कल्पना- का ताना-कना नहीं है? यह जरा परेशान करनेवाली बातें हैं ?

 

 

लेकिन जब परम पुरुषके एक और एकमात्र अस्तित्वका निश्चयात्मक अनु-

 

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भव हो और यह मालूम हों जाय कि सब कुछ अपने सा थ ही खेलनेवाले परम पुरुष ही है तो यह अनुभूति परेशान करनेवाली, अप्रिय या कष्टकर न रहकर, इसके विपरीत, एक प्रकारकी संपूर्ण सुरक्षा बन जाती है ।

 

   एकमात्र सद्वस्तु हैं परम पुरुष और यह सब वही हैं जो अपने साथ खेल रहे हैं । मैं तो इससे उल्टी दृष्टिकी अपेक्षा इसे बहुत आrधक सांत्वना देनेवाली बात मानती हू ।

 

  और फिर, यही एकमात्र निश्चिति है कि यह सब एक दिन अद्भुत वस्तु बन जायगा अन्यथा...

 

  और यह भी उस स्थितिपर निर्भर है जिसे तुम स्वीकार करते हों । शायद शुरूमें, अच्छी तरह खेलनेके लिये यह जरूरी है कि खेलके साथ, खेलके रूपमें, स्वयंभू और स्वतंत्र वस्तुके रूपमें, पूर्ण तादात्म्य आवश्यक है । लेकिन एक ऐसा क्षण होता है जब मनुष्य ठीक उस वैराग्यतक जा पहुंचता है और अस्तित्वके मिथ्यात्वके लिये ऐसी घृणा-सी हों जाती है कि उसे प्रभुको अपने अंदर, अपने लिये आंतरिक लीलाके रूपमें न देखे तो वह असह्य हो उठता है । और तब तुम उस निरपेक्ष और संपूर्ण स्वाधीनताका अनुभव करते हो जो अधिक-से-अधिक अद्भुत संभावनाओंको यथार्थ बनाती है, और: जौ सभी कल्पनीय उदात्ता चीजोंको प्राप्त कर सकती है ।

 

 (माताजी ध्यानमें चली जाती हैं)

 

   तुम देखोगे कि एक ऐसा समय होता है जब यदि तुम यह वृत्ति न अपनाओ कि प्रभु ही सब कुछ है तब अपने-आपको या जीवनको सह पाना असंभव हो जाता है । देखो, हमारे इन प्रभुमें कितनी चीजें है, वे इन सबके साथ खेलते है -- वे खेलते है, अपनी स्थिति बदल-बदलकर खेलते हैं । इसलिये, जब तुम यह समग्रता देखते हों, यूह सब, तुम्हारे अंदर असीम आश्चर्यके भाव आता है, तुम्हें लगता है कि तुम्हारी अभीप्साके अद्भुत लक्ष्य बिलकुल संभव हैं, बल्कि उनके भी आगे जाया जा सकता है । तब तुम्हें सांत्वना मिलती है अन्यथा अस्तित्व... सांत्वनासे परे शोकाकुल रहता हैं । लेकिन इस भांति वह मोहक हो जाता है । मैं किसी दिन तुम्हें इसके बारेमें बताऊंगी ।

 

  जब तुम्हें जीवनकी अवास्तविकताका अनुभव होता है -- एक ऐसी वास्तविकता या सद्वस्तु तुलनामें अवास्तविक जो निश्चय ही परे, उपर होनेके साथ-ही-साथ जीवनके ''भीतर'' भी है, तो उस क्षण... हाल!

 

आखिर यह तो सत्य है -- आखिर यह तो सत्य है और सत्य होनेका अधिकारी है । यह समस्त संभव भव्यताओं, समस्त संभव आश्चर्य, समस्त संभव आनंद, हां, समस्त संभव सौंदर्य, फिर मी यह, अन्यथा...

 

   मैं यहां आ पहुंची हू ।

 

   और फिर, मुझे लगता है मानों मेरा एक पांव यहां है, एक पांव वहां है -- और यह बहुत सुखद स्थिति नहीं है, क्योंकि... क्योंकि, तब यह इच्छा होती है कि बस एक तत् के सिवाय और कुछ न हों ।

 

  स्थितिकी वर्तमान अवस्था भूतकालीन है जिसे अब न रहना चाहिये । जब कि दूसरी, हाश ! आखिर! आखिर! इसीके लिये तो यह संसार बना है ।

 

  और हर चीज वैसी ही ठोस और वैसी ही वास्तविक बनी रहती है, सब कुछ धुआं नहीं हों जाता! वह उतनी ही ठोस और उतनी ही वास्तविक बनी रहती है... क्योंकि... वह दिव्य बन जाती है, क्योंकि,... क्योंकि वह भगवान् ही ''है''; वह लीलामय भगवान् है ।

 

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२८ सितंबर, १९६६

 

   दुःख क्यों है? दुःखका उपाय क्या है?

 

बहुत समयसे, अभी हाल ही में, यानी, कई दिनोंसे एक बहुत तीक्ष्ण, बहुत तीव्र और बहुत स्पष्ट बोध आता रहा है कि शक्तिकी क्रिया ही बाह्य रूपमें तथाकथित ''दुःख-कष्ट'' के रूपमें अनूदित होती है, क्योंकि यही एकमात्र स्पंदन है. जो जड-द्रव्यको उसके तमस्मेंसे बाहर खींच सकता है ।

 

   परम शांति और परम स्थिरता ही विकृत और विरूपित होकर निश्चेष्टता, जड़ता और ''तमस'' बन जाती है और ठीक इसी कारण कि यह सच्ची शांति और स्थिरताका ही विरूपण था इसे बदलनेकी जरूरत न थी । इस ''तमस'' भैंसे निकल आनेके लिये जाग्रतिके या यूं कहें, पुनर्जागरणके कुछ स्पदनोंके जरूरत थी । उसके लिये सीधा ''तमस'' ऐसे शांतिमें आना संभव न था इसलिये किसी ऐसी चीजकी जरूरत थीं जो ''तमस'' को झकझोर दें, और इसी चीजने बाहरी तौरपर कष्ट और पीडाका रूप लिया ।

 


  मैं यहां शारीरिक कष्टकी बात कह रही हू क्योंकि और सब कष्ट - प्राणिक, मानसिक और संवेगात्मक कष्ट -- मनकी गलत क्रियाके कारण होते हैं, और इन्हें... एक साथ मिथ्यात्वमें गिना जा सकता है । बस । लेकिन शारीरिक कष्टसे मुझे ऐसा लगता है मानों किसी बच्चेको यंत्रणा दी जा रही हों, क्योंकि यहां, भौतिक द्रव्यमें, मिथ्यात्व अज्ञान बन गया है, यदी, इसमें कोई दुर्भावना नहीं है -- भौतिक द्रव्यमें कोई दुर्भावना नहीं है । सब कुछ जड़ता और अज्ञान है : सत्य'के बारेमें पूरा-पूरा अज्ञान, मूल स्रोतके बारेमें अज्ञान, संभावनाके बारेमें अज्ञान, यहांतक  इस विषयमें भी अज्ञान कि शारीरिक पीड़ा न पानेके लिये क्या करना चाहिये । यह अज्ञान कोषाणुओंमें हर जगह है और केवल अनुभूति - वह अनुभूति जो प्राथमिक चेतनामें दुःख-कष्टके रूपमें अनूदित होती है - ही उसे जगा सकती है, जानने और उपचार करनेकी आवश्यकताको सामने ला सकती है और अपने-आपको रूपांतर करनेके लिये अभीप्सा पैदा कर सकती है ।

 

   यह एक निश्चिति बन गयी है क्योंकि सभी कोषाणुओंमें अभीप्सा उत्पन्न हों गयी है और वह ज्यादा-सें-ज्यादा तीव्र होती जा रही है और उसे प्रतिरोधपर आश्चर्य होता है । लेकिन देखा गया है कि जब कभी क्रियामें कोई भूल हों जाती है ( अर्थात्', सुगम्य, सहज, स्वाभाविक होनेकी जगह क्रिया कष्टसाध्य प्रयास बन जाती है, किसी ऐसी चीजके विरुद्ध संघर्ष बन जाती है जो दुर्भावनाका रूप ले लेती, परत सचमुच एक ?ऐसी चुप्पी होती है जो समझ नहीं पाती), उस समय अभीप्सा और पुकारकी तीब्रता दसगुनी बढ़ जाती है और वह निरंतर चलती रहती है । लेकिन उस तीव्रताकी अवस्थामें रहना कठिन है; सामान्यत: हर चीज, मैं तंद्रा तो नहीं कह सकती, हां, शिथिलतामें जा गिरती है । तुम चीजोंको आसान मान बैठते हो, केवल जब आंतरिक अव्यवस्था कष्टदायक हों उठाती है तब तीव्रता बढ़ती और निरंतर हों जाती है । घंटों, घंटोंतक, बिना किसी ढीलके पुकार और अभीप्सा, भगवान्के साथ एक होनेका, भगवान् बन जानेका संकल्प अपने उच्चतम रूपमें बना रहता है । क्यों? क्योंकि वह वह चीज थी जिसे बाह्य :पसे शारीरिक गड़बड़ी या पीड़ा कहते है ! अन्यथा, जब कोई पीड़ा नहीं रहती तो समय-समयपर आदमी ऊंचा उठता है, फिर उसके बाद ढीलमें जा गिरता है, फिर एक बार ऊपर उठता है और फिरसे... इसका अंत नहीं आता । यह हमेशा चलता रहता है । अगर हम चाहते हैं कि चीजें तेजीसे चालें ( हमारे जीवनकी लयके साथ- साथ, अपेक्षया तेजीसे चालें), तो चाबुककी मार जरूरी है । मुझे इसके

 

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बारेमें विश्वास है क्योंकि जैसे ही तुम अपनी आंतरिक सत्तामें होते हो तुम इसे (अपने प्रति) तिरस्कारकी दृष्टिसे देखते हो ।

 

   लेकिन फिर, अचानक भागवत प्रेमकी सच्ची करुणा आती है और व्यक्ति इन सब चीजोंको देखता है जो इतनी भयंकर, इतनी असामान्य, इतनी बेतुकी दिखती है, यह महान् पीड़ा जो सभी सत्ताओंपर, सभी वस्तुओंपर छायी हुई है... तब इस भौतिक सत्तामें शमनके लिये, उपचार- के लिये, इस चीजको हटानेके लिये अभीप्सा पैदा होती है । प्रेमके मूल रूपमें कृउछ ऐसी चीज है जो अनवरत रूपसे भागवत कृपाके हस्तक्षेप, शक्ति, मधुरता, प्रशमनके स्पंदनके जैसी चीज बनकर फैली है । लेकिन प्रदीप्त चेतना उसे अमुक बिंदुओंकी ओर भेज सकती या उनपर केंद्रित कर सकती है । और, मैंने देखा कि यहां, हां, यही मनुष्य अपने विचारक सच्चा उपयोग कर सकता है विचारकों जहां कही जरूरत हो एक स्थानसे दूसरे स्थानतक लें जानेके लिये एक प्रकारकी प्रणालीका काम दे सकता है । यह शक्ति, मधुरताका यह स्पंदन सारे जगत्पर अचल रूपमें छाया हुआ है, वह ग्रहण किये जानेके लिये दबाव डालता है । लेकिन यह निर्वैयक्तिक क्रिया है । विचार -- प्रदीप्त विचार, समर्पित विचार, केवल एक यंत्रक रूपमें विचार जो चीजोंका आरंभ करनेकी और कोशिश नहीं करता, जो एक उच्चतर चेतनाद्वारा परिचालित होनेसे ही संतुष्ट है, -- विचार एक माध्यमके रूपमें काम करता है और इस निवैयक्तिक शक्तिके साथ संपर्क स्थापित करने, नाता जोड़ने और जहां कहीं जरूरत हों वहां निश्चित बिदुओपर क्रिया करने योग्य बनाता है।

 

    यह निरपेक्ष रूपसे कहा जा सकता है कि हर अशुभ- हमेशा. अपना उप- चार अपने साथ लिये रहता है । हम कह सकते है कि किसी मी पीडाका उपचार पीडाके साथ-ही-साथ रहता है । इसलिये जैसा सामान्यत: समझा जाता है, अशुभको ''बेकार'' और ''मूर्खतापूर्ण'' माननेकी जगह तुम उस प्रगति और विकासको देखो )जेसने इस पीडाको जरूरी बना दिया, जो इस कड़ाका कारण है और उसके अस्तित्वका हेतु है । वांछित परिणामपर पहुंचो और साथ ही पीड़ा गायब हो जायगी -- यह उनके लिये है जो अपने-आपको खोल सकते हैं और ग्रहण कर सकते है । तीन चीजें है_ प्रगतिके साधनके रूपमें पीड़ा, प्रगति और पडिका उपशमन, ये तीनों सहवर्ती और युगपत हैं, अर्थात् एक-दूसरेके बाद नहीं आती, एक ही समयमें, एक साथ रहती हैं ।

 

  जब रूपांतर करनेवाली क्रिया पीड़ा उत्पन्न करती है, उस समय यदि जिसे पीड़ा हो रही है उसमें आवश्यक अभीप्सा, उद्घाटन हो तो उसके

 

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साथ-ही-साथ उपचार भी आ जाता है और प्रभाव पूरा-पूरा, संपूर्ण. होता है : रूपांतर, उसे प्राप्त करनेके लिये आवश्यक क्रिया होती है और साथ ही प्रतिरोधद्वारा पैदा किये गये मिथ्या संवेदनका उपचार हो जाता हैं । पडिका स्थान एक ऐसी चीज लेती है... जो धरतीपर अज्ञात है पर वह हर्ष, कल्याण, विश्वास, सुरक्षासे मिलती-जुलती है । यह परम शांतिमें अति संवेदन है और स्पष्ट है कि यही एक चीज है जो चिरस्थायी हों सकती है । यह विश्लेषण बहुत ही अपूर्ण रूपसे उस चीजको प्रकट करता है जिसे हम आनन्दका ''सारांश'' कह सकते है ।

 

   मेरा ख्याल है कि यह एक ऐसी चीज है जिसे युग-युगान्तरसे, आशिक रूपमें उड़ता हुआ-सा अनुभव किया जा चुका है, लेकिन उसने अभी हालमें ही धरतीपर केंद्रित होना, लगभग ठोस रूप लेना शुरू किया है । लेकिन हम यह नहीं कह सकते कि भौतिक पदार्थमें, उसके कोषाणु-रूपमें भय या चिन्ता होती है, लेकिन उसमें नये स्पन्दनोंके प्रति एक प्रकारकी आशंका होती है और स्वभावत: यह आशंका कोषाणुओंसे उनकी ग्रहणशीलता हर लेती है और व्याकुलताका रूप लें लेती है (यह पीड़ा नहीं व्याकुलता होती है) । लेकिन अगर इस आशंकाको व्यर्थ कर देनेके लिये, शांत करनेके लिये अभीप्सा हों और संपूर्ण समर्पणके लिये संकल्प हो, संपूर्ण समर्पणकी क्रियासे इस प्रकारकी आशंका लुप्त हो जाती है और परम कल्याण बन जाती है।

 

   यह सब चेतनाके व्यापारके बहुत ही सूक्ष्म अध्ययन है ओर मनके हस्तक्षपसे मुक्त है । अपने-आपको शब्दोंके द्वारा व्यक्त करनेकी आवश्यकता मानसिक हस्तक्षेपको ले आती है, लेकिन अनुभूतिमें वह नहीं रहता । और यह बहुत मजेदार है क्योंकि शुद्ध अनुभ्तिमें सत्यका, सद्वस्तुका सारांश होता है जो मनके हस्तक्षेपके साथ-ही-साथ लुप्त हों जाता है । सच्ची सद्वस्तुका एक स्वाद होता है जो इसी कारण समस्त अभिव्यक्तिसे बच निकलता है । यह वही फकइ है जो किसी व्यक्ति और उसके चित्रमें, एक तथ्य और सुनायी गयी कहानीमे होता है । बात ऐसी है, लेकिन है इससे बहुत ज्यादा' सूक्ष्म ।

 

   और अब, हम उसी बातपर वापिस आते है, जब व्यक्ति इस चेतनाके बारेमें सचेतन होता है -- इस शक्ति, तात्विक सद्-वस्तुके रूपमें इस भाग- वत करुणाके बारेमें सचेतन होता है -- और यह देखता है कि वह सचेतन व्यक्तिके द्वारा कैसे कार्य करती है तो उसे समस्याकी चाबी मिल जाती है ।
 

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३० सितंबर, १९६६

 

श्रीअर्रावदको एक अप्रकाशित पत्र पढ़कर

 

''... यद्यपि संत पालको विलक्षण गुहा अनुभूतियां हुई थीं और निश्चय ही उन्हें गहरा आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त था (मेरा ख्याल है विस्तृत नहीं, गहरा), मैं यह प्रतिज्ञा नहीं करुंगा कि वे अतिमानसीकृत शरीर (अतिमानसीकृत भौतिक शरीर) की बात कह रहे हैं । शायद अतिमानसिक शरीर, या किसी अपने ही लोक और अपने ही द्रव्यके ज्योतिर्मय शरीरकी बात है जिसे उन्होंने अपने-आपको लपेटे हुए पाया जो इस भौतिक आवेष्टन या मर्त्य शरीरको रद करता था । अन्य बहुत-सी पंक्तियोंकी तरह इन पंक्तियों (कर्ग़ेरथियन्स ५३, ५४) के भी कई अर्थ हो सकते है और इनमें बिलकुल अतिभौतिक अनुभूतिका वर्णन हो सकता है । शरीरके रूपांतरकी बात विभिन्न परंपराओंमें आयी है, लेकिन मुझे कभी इस बातका पूरा विश्वास नहीं हुआ कि उसका मतलब इसी भौतिक द्रव्यके परिवर्तनसे हैं । इन प्रदेशोंमें एक योगी था जो किसी समय इसकी शिक्षा देता था, पर वह आशा करता था कि जब परिवर्तन पूर्ण हो जायगा तो बह प्रकाशमें लुप्त हो जायगा । वैष्णव एक दिव्य शरीरकी बात करते है जो पूर्ण सिद्धि प्राप्त होनेपर इस शरीर- का स्थान ले लेगा । लेकिन यह दिव्य भौतिक शरीर होगा या अति-भौतिक शरीर? लेकिन साथ ही यह माननेमें कोई बाधा नहीं है कि ये सब विचार, अंतर्भास, अनुभूतियां यदि सीधा-सीधा भौतिक रूपांतरका निर्देशन नहीं करते तो उसकी ओर संकेत तो करते ही है ।',

 

२४.१२.१९३०

 

अजीब बात है, धुन दिनों मेरे ध्यानोंका विषय भी यही था (जान-बूझकर नहीं, ऊपरसे आरोपित किया गया था), क्योंकि वनस्पतिसे पशु और पशुसे मनुष्य (विशेषकर पशुसे मनुष्य), तककी सारी यात्रामें, रूपमें तात्विक परिवर्तन बहुत ही कम है । सच्चा रूपांतर चेतनाके किसी और ही माध्यमके हस्तक्षेपसे होगा । पशु जीवन और मानव जीवनके सभी भेद

 

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मनके हस्तक्षेपसे आते हैं, परंतु द्रव्य तत्वतः वह-का-वही है और रचना और विधानके उन्हीं नियमोंका अनुसरण करता है । उदाहरणके लिये, गायके गर्भाशयमें बनते हुए बछड़े और मांके गर्भाशयमें रूप लेते हुए बालकमें बहुत फर्क नहीं होता । जो फर्क है वह मनके हस्तक्षेपके कारण होता है । लेकिन अगर हम भौतिक सत्ताको देखे, अर्थात्, ऐसी सत्ताको जो उसी तरह दिखायी देती हों जैसे यह भौतिक शरीर दिखायी देता है, जिसकी घनता इसीके समान हों, उदाहरणके लिये, एक ऐसे शरीरको देखे जिसमें रक्त संचारकी आवश्यकता न हों, जिसमे हड्डियों न हों (विशेष रूपसे यह दो : अस्थिपंजर और रक्त-संचार), तो शरीरकी कल्पना करना बहुत मुश्किल है । और जबतक स्थिति ऐसी है, यह कल्पना की जा सकती है कि रक्त-संचारके बारेमें, हदयकी क्रियाके बारेमें -- यह कल्पना की जा सकतीं है -- हम यह मान सकते हैं कि उनके स्थानपर आत्माकी शक्ति आ जाय, भोजनसे भिन्न अन्य उपायोंसे बल और ऊर्जाका नवीकरण किया जाय, इसकी कल्पना की जा सकती है । त्वेकिन फिर शरीरकी कठोरता, उसका ठोसपन -- यह अस्थिपंजरके सिवा कैसे संभव है?... यह पशुसे मानवतककै रूपांतरकी तुलनामें अनन्तगुना बड़ा रूपांतर होगा । यह मानवसे एक ऐसी सत्ताकी ओर यात्रा होगी जो अव उसे तरह क्रिया नहीं करेगी, जो उसी तरहसे निर्मित नहीं होगी, जो किसी ''ऐसी चीज' का मर्त्य रूप और घनत्व होगी जिसे हम नहीं जानते... । हुमने अभीतक जितनी चीजें भौतिक रूपसे देखी हैं यह उनमेंसे किसीके साथ मिलती- जुलती न होगी; अगर वैज्ञानिकोंने कोई ऐसी चीज पाली है, तो उसके बारेमें मैं नहीं जानती ।

 

   हम यह कल्पना कर सकते है कि प्रकाश या नयी शक्ति कोषाणुओंको एक प्रकारका सहज जीवन और सहज-शक्ति प्रदान करे ।

 

हां, यही तो मैंने कहा, खाद्य गायब हो सकता है, दरसकी कल्पना की जा सकती है ।

 

लेकिन सारा शरीर इस शक्तिसे अनुप्राणित हों सकता हैं, उदाहरणके लिये, शरीर सुगम्य रह सकता है । अस्थिपंजरको बनाये रखते हुए भी सुगम्य रह सकता है, बालककी सुनम्यता रख सकता है ।

 

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इसी कारणसे तने बालक खड़ा नहीं रह सकता! वह प्रयास नहीं कर सकता । तो उदाहरणके लिये, अस्थिपंजरका स्थान कौन-सी चीज लेगी?

 

   वही तत्त्व हो सकते है, पर ज्यादा नमनीय, ऐसे तत्व जिनकी दृढ़ता उनके कडेपनसे नहीं, प्रकाशकी शक्तिसे आयेगी, है न?

 

हा, यह संभव है... । बस, मेरे कहनेका मतलब यह है कि शायद यह चीज बहुत बड़ी संख्यामें नयी जातिके प्राणियोंके द्वारा की जायगी । उदाहरणके लिये, मनुष्यसे इस सत्तातक पहुंचनेके लिये बहुत सारे मध्यवर्ती जीवि होंगे । मुझे यह लंबी कूद बहुत बड़ी लगती है, समझे?

 

  मैं' भली-भांति ऐसी सत्ताकी कल्पना कर सकती हू जो आध्यात्मिक शक्ति, अपनी आन तरिक सत्ताकी शक्तिद्वारा अपने-आपको नया करनेके लिये आवश्यक शक्तियोंका आत्मसात् कर सके और हमेशा युवा रहे । यह कल्पना भली-भांति की जा सकती है, आवश्यकता हों तो रूप बदलने लायक नमनीयता भी आ सकती हैं; लेकिन इस रचना-पद्धतिका तुरन्त लोप --दूसरेमें तुरंत बदल जाना... लगता है इसमें' कई कदमोंकी जरूरत होगी... ।

 

स्पष्ट है कि जबतक कोई विशेष घटना न हों (जिसे हम ''चमत्कार'' कहनेके लिये बाधित है, क्योंकि हम यह नहीं समझते कि यह कैसे हुई), तबतक हमारे जैसा शरीर एक ऐसे शरीरमें कैसे बदल सकता है जो बिना किसी भौतिक सहारेके पूरी तरह उच्चतर शक्तिसे निर्मित और परिचालित हों ' यह (माताजी अपनी त्वचाको उंगलियोंसे पकड़ती हैं), यह उस दूसरी चीजमें कैसे बदल सकती है?.. यह असंभव प्रतीत होता है ।

 

        यह चमत्कार लगता है परंतु..

 

हां, अपने सारे अनुभवोमें भोजनकी आवश्यकता न रहनेकी संभवनाको समझ सकती न, इस सारी प्रक्रियाका गायब ते जाना (उदाहरणके लिये, आत्मसात् करनेके तरीकेका बदलना संभव है), परंतु ढांचेको कैसे बदला जाय?

 

      लेकिन यह मुझे असंभव नहीं लगता ।

 

यह तुम्हें असंभव नस्ली लगता?

 

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रहीं, शायद यह कल्पना हो, पर मैं भली-भांति यह कल्पना कर सकता हू कि कोई आध्यात्मिक शक्ति शरीरमें प्रवेश करे और एक प्रकारकी ज्योतिर्मय ऋर्ति पैदा करे और अचानक सब कुछ फूलकी तरह खिल उठे । यह शरीर स्वयं अपनी ओर खुलकर कांतिमय, नमनीय और ज्योतिर्मय बन जाय ।

 

 लोचदार, नमनीय, हां, इसकी कल्पना की जा सकती है । यह नमनीय बन सकता है, यानी, रूप अबके जैसा सुदृढ़ नहीं होगा, हंस सबकी कल्पना की जा सकती है, परंतु

 

लेकिन मैं इसे एक प्रकारके ज्योतिर्मय प्रस्फुटनके रूपमें भली- भांति देख सकता हूं : प्रकाशमें यह शक्ति अवश्य होगी और वह बर्तमान ढांचेको किसी प्रकार नष्ट नहीं करता ।

 

 लेकिन दिखायी देगा? हम. उसे छू सकेंगे?

 

हां, मात्र उद्घाटन है । जो बंद था वह फुलकी भांति खिलता है । बस इतना ही, लेकिन फिर भी फुलकी संरचना हमेशा वही है; मात्र वह पूरी तरह खुल गया है और ज्योतिर्मय है, है न?

 

(माताजी अपना सिर हिलाती है और कुछ देर चुप रहती है) मुझे अनुभव नहीं है, मैं रहीं जानती ।

 

     मुझे पूरा विश्वास है (मुझे ऐसे अनुभव हों चुके है जिन्हेंने इस बातको प्रमाणित किया है) कि इस शरीरके जीवन -- वह जीवन जो इसे हिलाता- डुलाता और बदलता है -- के स्थानपर एक शक्ति आ सकती है, यानी, एक प्रकारकी अमरता पैदा कोई जा सकती है और जीर्णता भी गायब हो सकती है । ये दो चीजें संभव है. जीवनी शक्ति आ सकती है और जीर्ण-शीर्णता जा सकती है । और यह आ सकती है मनोवैज्ञानिक ढंगसे, भागवत आवेशके प्रति पूर्ण आज्ञाकारितासे । इससे व्यक्ति इस योग्य बनता है कि हर क्षण जो कुछ करना चाहिये उसे करनेकी शक्ति मिलती रहे -- यह सब, यह सब, यह निश्चिति है, यह कोई आशा नहीं है, यह कल्पना नहीं है, यह निश्चिति है । हां, पहने शिक्षित करना होगा, धीरे-धीरे रूपांतरित करना होगा, अपनी आदतें बदलनी होगी । यह

 

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संभव है, यह सब संभव है । लेकिन अस्थि-पजरकी आवश्यकताको बदलनेमें ही कितना समय लग जायगा (पहले हम इसी समस्याको लें)? मुझे न्ठगता है कि यह मामला अभी बहुत दूर है । यानी, बहुत-सी बीचकी अवस्थाओंकी जरूरत होगी । श्रीअरविंदने कहा हुए कि जीवनको अनिश्चित रूपमें लंवाया जा सकता है । हां, यह हो सकता है । लेकिन अभीतक हम किसी ऐसी चीजसे नहीं बने हैं जो विलयन और विलयनकी आवश्यकतासे पूरी तरह बच निकले । हड्डियों, बहुत टिकाऊ है । अगर अनुकूल परिस्थितियां हों तो वे हजार वर्ष मी रह सकतीं है । यह तो मानी हुई बात है लेकिन इसका अर्थ ''सिद्धान्त''में अमरता नहीं है । तुम मेरा मतलब समझे?

 

   नहीं, आपको लगता है कि यह कोई अ-भौतिक द्रव्य होना चाहिये?

 

मुझे नहीं मालूम यह अ-भौतिक है या नहीं, लेकिन यह ऐसा भौतिक है जिसे मैं नहीं जानती! और: यह ऐसा द्रव्य नहीं है जिसे हम अब जानते है । कम-से-कम यह रचना तो नहीं, जिसे हम अभीतक जानते है ।

  

मैं ठीक नहीं कह सकता लेकिन यह होना चाहिये कोई भौतिक शरीर (जैसा कि श्रीअर्रावंदने कहा है), मुझे लगता है (पर शायद यह दिवा स्वप्न हो) कि, उदाहरणके लिये, यह कमलकी कलीकी तरह हो । हमारा वर्तमान शरीर कमलकी कलीकी तरह है, बहुत छोटा, बंद और कठोर लेकिन कली खिलती है, खिलकर फूल बन जाती है ।

 

 हां, वत्स, लेकिन यह

 

    यह प्रकाश इन तत्वोंको लेकर क्या नहीं कर सकता? ये वही चीजें है, वही तत्व लेकिन बदले हुए रूपमें ।

 

लेकिन वनस्पति अमर नहीं होती ।

 

   नहीं, यह तो केवल तुलना थी ।

 

 बिल्कुल ठीक!

 

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   यही तो प्रश्न है । सतत परिवर्तन, मैं कल्पना करती हू, मैं ऐसे फूल- की मी कल्पना कर सकती हू जो कभी न मुरझाये; लेकिन अमरताका यह तत्व... यानी, सार रूपमें एक ऐसा जीवन जो अपने-आपको नया करते रहनेकी आवश्यकतासे मुक्त हों. वह शाश्वत शक्ति हों सकती है जो अपने-आपको सीधे सतत रूपमें प्रकट करती रहती है, पर साथ ही उसे यह, भौतिक शरीर भी होना चाहिये ( माताजी उंगलियोंसे त्वचाको छूती हैं) ।

 

    मैं उत्तरोत्तर परिवर्तनकी बात भली-भांति समझ सकती हू और इस पदार्थका कुछ ऐसा रूप बन सकता है जो अपने-आपको अंदरसे बाहरकी ओर सतत नूतन करता रहे और यही अमरता होगी, लेकिन मुझे सुगता है कि अभी जो है, हम जैसे हैं, और जीवनके इस दूसरे रूपके बीच बहुत- सी अवस्थाए होनी चाहिये । हां तो, ये कोषाणु, जिन्हें इतनी चेतना और इतना अनुभव प्राप्त है, उदाहरणके लिये, अगर तुम उनसे पूछ : ''क्या कोई ऐसी चीज है जो तुम नहीं कर सकते?'' वे पूरी सचाईके साथ उत्तर देंगे. ''नहीं, जो कुछ प्रभु चाहे, उसे मैं कर सकती हू । '' उनकी चेतनाकी यह अवस्था है । परंतु बाह्य रूपमें चीज उलटी है । व्यक्तिगत अनुभव यह है : मैं जो कुछ भगवान की उपस्थितिमें करती हू, बिना प्रयासके, बिना कठिनाईके, बिना थकानके, बिना किसी क्षतिके कर लेती मंच? ( माताजी एक विशाल सामंजस्यपूर्ण लय बनाती हैं) । लेकिन अभी यह बाहरके सनी प्रभावोंके प्रति खुला हुआ है और शरीरको ऐसी चीजें करनी पड़ती हैं जो सीधी परम पुरुषकी प्रेरणाकी अभिव्यक्ति नहीं हैं और गिरागाम स्वरूप थकान, रगड़.. । अतः, एक ऐसे जगत् में जो घिरती नहीं है, लटका हुआ अतिमानसिक शरीर । यह वह नहीं है!

 

     नहीं ।

 

किसी ऐसी चीजकी जरूरत है जो छूतका प्रतिरोध कर सकें । मनुष्य पशुकी छूतका प्रतिरोध नहीं कर सकता वह उसके हमेशा संपर्क रहता है । इसलिये वह प्रतिरोध नहीं कर सकता । तो, यह सत्ता कैसे प्रति- रोध करेगी?... ऐसा लगता है कि लंबे समयतक -- काफी लंबे समय- तक -- वह छूतके नियमोंके अधीन रहेगी ।

 

    मैं नहीं जानता, लेकिन यह मुझे असंभव नहीं लगता ।

नहीं?

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   मुझे लगता है कि ज्योतिकी शक्ति हो तो उसे कौन छू सकता है?

 

लेकिन सारी धुनिया गायब हो जायगी! ऐसी बात है, है न?

 

   जब तत् आये, जब प्रभु हों तो हजारमें एक भी ऐसा नहीं है जो डर न जायगा । और वह भी बुद्धिमें नहीं, विचारमें नहीं, ऐसे : इस द्रव्यमें । तव यह स्वीकार करते हुए, यह मानते हुए कि बात ऐसी है, कि सत्ता परम शक्ति, परम प्रकाशता घन रूप और अभिव्यक्ति, एक सूत्र है -- तब क्या होगा?

 

     हां तो, यही तो सारी समस्या है ।

 

हां

 

   मैं स्वयं रूपांतरकी कोई कठिनाई नहीं देखता, मुझे लगता है है कि यह संसारकी कठिनाई है ।

 

अगर हर चीज साथ-ही-साथ रूपांतरित की जा सकती तो वह ठीक होता, लेकिन प्रत्यक्ष रूपमें ऐसा नहीं है । और अगर एक सत्ता अकेली ही रूपांतरित हो जाय तो

 

  हां, शायद वह असह्य हो ।

 

 हां ।

 

   मुझे लगता है (यह एक प्रकारका संवेदन-सा है), कि मध्यवर्ती अवस्थाए होनी चाहिये।

 

   और जब तुम देखते हों कि मनुष्यको अपना अस्तित्व बनाये रखनेके लिये सारी प्रकृतिके विरुद्ध लड़ना पड़ा, तो तुम्हें लगता है कि वे सत्ताएं जो उन्हें समझ सकेंगे, उनकी सहायता करेगी, उनके साथ उनका संबंध भक्ति, आसक्ति और सेवाका होगा, जैसा पशुओंका मनुष्योंके साथ है । लेकिन जिन्हें उनके साथ प्रेम न होगा... वे भयानक सत्ताएं होगी । मुझे याद है, एक बार मुझे इन नयी सत्ताओंके खतरनाक स्थितिका अंतर्दर्शन हुआ था और मैंने कहा था (यह १९५६ के अतिमानसिक अवतरणसे पहलेकी बात है), मैंने कहा था ''अतिमानस पहले-पहल अपने शक्ति-

 

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रूपमें प्रकट होगा, क्योंकि सत्ताओंके सुरक्षाकी दृष्टिसे यह अनिवार्य होगा 1 '' और वास्तवमें पहले शक्तिका ही अवतरण हुआ -- शक्ति और प्रकाश । ऐसा प्रकाश जो ज्ञान और शक्ति देता है ।

 

   यह एक ऐसी चीज है जिसे मैं अधिकाधिक अनुभव कर रही हू : मध्य- वर्ती अवधियोंकी आवश्यकता.. यह बिलकुल स्पष्ट है कि कोई चीज होने- की प्रक्रियामें है । लेकिन यह ''ऐसी चीज'' नहीं है जिसे देखा जा चुका हो, जिसका पूर्वदर्शन हो चुका हो और जो परिणति होगी. यह शायद परिणति नहीं, आनेवाली अवस्थाओंमेंसे एक होगी ।

 

   श्रीअरविंदने भी कहा है कि सबसे पहले जीवनको अपने संकल्पके अनु- सार लंबा करनेकी शक्ति आयेगी (बात इससे बहुत अधिक सूक्ष्म और अद्भुत है), लेकिन यह, यह चेतनाकी एक स्थिति है जो प्रतिष्ठित की जा रही है : यह परम प्रभुके साथ एक प्रकारका संबंध, एक नित्य स्थिर संपर्क है । यह घिसाई और क्षतिके भावका उन्मूलन करके उसकी जगह असाधारण लचीलेपन और असाधारण सुनम्यताको लाता है । लेकिन सहज अमरताकी स्थिति संभव नहीं है -- कम-से-कम अभी तो समित्र नहीं है । इस ढांचेको इससे भिन्न किसी चीजमें बदलना होगा और जैसे चीजें हों रही हैं किसी और चीजमें बदलते बहुत समय लगेगा । हों सकता है कि भ्तकालकी अपेक्षा अब ज्यादा तेजीसे हों । अगर हम यह मान भी लें कि गति बहुत तेज हों रही है, तो भी (हमारी समयकी वर्तमान धारणाके अनुसार), उसमें समय लगेगा । और इसके अतिरिक्त, ध्यान देने योग्य बात यह है कि यदि व्यक्ति चेतनाकी उस अवस्थामें रहना चाहे जहां अपव्ययका अस्तित्व नहीं है, उसे अपने समयके भावको बदलना होगा : तब तुम्हें ऐसी अवस्थामें जाना होगा जहां समयकी वही वास्तविकता नहीं रह जाती । यह एक और चीज है । यह बहुत विशेष है, यह एक असंख्य वर्तमान है । यह पहलेसे सोचनेकी आदत, या जो होनेवाला है उसका पूर्वदर्शन, यह भी मार्गका रोड़ा है; यह मत्ताके पुराने ढंगके साथ चिपका रहता है ।

 

   इतनी सारी, इतनी सारी आदतें बदलनी है ।

 

  संपूर्ण सिद्धि तभी होगी जब व्यक्ति सहज रूपमें दिव्य हो सकें । ओह! सहज रूपसे दिव्य होना, यह देखनेके लिये मुडनातक नहीं कि हम दिव्य हो गये हैं या नहीं, उस अवस्थाको पार कर लेना जिसमें व्यक्ति दिव्य बनना चाहता है ।

 

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प्रासंगिक (११ जनवरी, १९६७)

 

किसी शिष्यने यह शिकायत की कि कुछ

लोग माताजीका समय प्रायः व्यर्थके प्रश्नोंमें

नष्ट करते है और ज्यादा जरूरी दीखनेवाले

कामोंके लिये कम ही समय बचता है ।

 

  यह ऐसा ही होना चाहिये, क्योंकि यह ऐसा है ।

 

  शायद यह एक पाठ है (यह एक सूचना है), लेकिन इसका कुछ उद्देश्य है ।

 

  मुझे जो पाठ समझना चाहिये उसे मैं' समझनेकी कोशिश कर रही हू । मैं धीरज रखना सीख रही हू, ओह! कितना धीरज... हमेशा हां विद्रोह, अपमान आदि होते रहते है । ये मेरे लिये एकदम शून्यके समान है, ओर कमी-कभी ये बहुत मजेदार भी होते हैं । जब मैं स्वयं अपनी स्थितिमें, करुणाकी सच्ची स्थितिमें होती हू तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । यह ऊपरी सतहपर एक लहरी भी नहीं पैदा करता, कुछ भी नहीं ।

 

   कल मुझसे यह पूछा गया था, मुझसे पूछा गया था कि अपमान, अपमानित अनुभव करना, स्वमानका साधनामें कोई स्थान है । सचमुच इसके तनय कोई स्थान नहीं हेय, यह तो जानी हुई बात है! लेकिन मैंने इस गतिको देखा है, वह बहुत स्पष्ट थीं, मैंने देखा कि अहंकारके बिना, जब अहंकार न हों तब सत्ताके अंदर यह लहर नहीं रह सकती । मैं भूतकालमें काफी पीछे गयी, एक ऐसे समयमें जब मुझे यह चीज लगती थी (इसे बहुत वर्ष बीत गये), लेकिन अब यह किसी परायी चीजके रूपमें भी नहीं है अब यह असंभव है । मेरी सारी सत्ता, यहांतक कि शरीर भी यह नहीं समझ पाता कि यह चीज क्या है (यह अजीब बात है); यह वैसी दूरी चीज है जब भौतिक रूपमें कोई धक्का लगता है (माताजी अपनी कोहनीपर एक खेचर दिखाती हैं), उदाहरणके लिये, इस तरह, इससे अब ऐसा नेही लगता जैसा चोटसे लगता है, अब यह उस तरह नहीं लगता । बद्रुधा कुछ भी नहीं होता, यह दिखायी दिये बिना ही समग्रमें जा मिलता है, लेकिन जव कुछ लगता भी है तो वह केवल एक संस्कार होता है - अपने-आपको अनुभव करनेवाली किसी सहायताका, एक ऐसे पाठका जिसे सीखना है, एक बहुत अधिक कोमल, एक घनिष्ठ संस्कार । लेकिन वह ऐसा नहीं होता जैसा कि मानसिक रीतिसे होता है जिसमें हमेशा एक

 


खिंचाव-सा होता है; यह वैसी चीज नहीं होती । यह कुछ सीखनेके लिये अपने-आपको देनेवाली सत्ताके आत्म-निवेदनकी तरह होता है । मैं सभी कोषाणुओंकी बात कर रही हू । यह बहुत मजेदार होता है । स्पष्टतः, अगर तुम इसे मानसिक रूप दो तो तुम्हें यह कहना होगा कि यह सभी वस्तुओंमें भागवत सत्ताकी चेतना या प्रतीति है और इसकी पद्धति -- संपर्ककी पद्धति -- उस स्थितिपर निर्भर हैं जिसमें तुम हों ।

 

  हां, यह शरीरकी अनुभूति है ।

 

   और व्यक्तियोंमें, जब कमी धक्का लगे, या चोट लगे या कुछ ऐसा हों तो अहंकारका, अपने-आपको प्रकट करते हुए अहंकारका स्पष्ट दर्शाना होता है -- वे कहते है. ''यह दूसरा व्यक्ति है ।'' मेम यह न कहूंगी ''ओह! वह गुस्सेमें है,'' या ''यह व्यक्ति... '' नहिं, उसका अहंकार है; नहीं, उसका अहंकार मी नहीं, स्वयं अहंकार, अहंकार तत्व -- अहंकार तत्व जो अभीतक हस्तक्षेप करता है । यह बहुत मजेदार है क्योंकि अहंकार मेरे लिये एक प्रकारकी निर्वैयक्तिक सत्ता बन गया है, जब कि औरोंके लिये वह उनके व्यक्तित्वकी तीव्र अनुभूति होता है! उसकी जगह यह सत्ताकी एक प्रणाली है (तुम उसे पार्थिव या मानव कह सकते हो) जो यहां, वहां, उधर न्यूनाधिक मात्रामें हर एकको व्यक्तित्वकी भ्रांति देती है । यह बहुत मजेदार है ।

 

   हां, लेकिन मुश्किल यह है कि दूसरे लोग अपना पाठ नहीं सीखते, तब...

 

ओह! अगर वे पाठ सीख लेते तो सब कुछ जल्दीसे बदल जाता ।

 

   तो परिणाम यह है कि आपपर हमला होता है, आपको निगाल जाता है ।

 

असंभव !

 

  आपका सारा समय ले लिया जाता है, आपका सारा.

 

वे मुझे निगल नहीं सकते! (हंसते हुए) में बहुत बड़ी हू!

 

   फिर भी भौतिक दृष्टिसे आप अभिभूत हो जाती है ।

 

मैंने देखा है कि अगर मैं प्रतिरोध करुँ तो चीज बिगड़ जाती है । अगर मेरे अंदर तरलताका भाव हों तो टक्करें नहीं लगती । यह वही बात है जो इस खरोंचके बारेमें है (माताजी अपनी कोहनी दिखाती है) । अगर तुम कड़े हों जाओ और चीजें प्रतिरोध करें तो तुम्हें चोट लगती है । यह ऐसी ही बात है जैसे लोग गिरना जानते हैं चें गिरते हैं, और उनका कुछ भी नहीं टूटता; जब कि जो लोग गिरना नहीं जानते, वे जरा-सा गिरते ही कुछ तोड़फोड़ लेते हैं । यहां वही बात है । तुम्हें सीखना पड़ता है कि कैसे... पूर्ण ऐक्य । ठीक करना, सीधा करना, फिर भी यह प्रतिरोध है । तो तुम जिसे आक्रमण कहते हों वह जारी रहे तो क्या होगा? बात मजेदार होगी, देखे! (माताजी हंसती है), चुकी दूसरे लोग उसी स्थितिमें नहीं है, इसलिये वे शायद तंग आ जायंगे, परंतु मैं असहाय हू! (माताजी हंसती है) ।

 

  व्यक्तिको हमेशा हंसना चाहिये, हमेशा । प्रभु हंसते है और हंसते रहते है । उनका हास्य इतना अच्छा है, इतना अच्छा है, प्रेमसे इतना परिपूर्ण है । यह एक ऐसा हास्य है जो तुम्हें असाधारण मधुरताके साथ अपनी भुजाओंमें भर लेता है!

 

मनुष्योंने उसे भी विकृत कर दिया है -- उन्होंने हर चीज विकृत कर दी है । (माताजी हंसती है) ।

 

५०

२१ जनवरी, १९६७

 

  एक ऐसी बात हुई है जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती ।

 

  शरीरको अपनी क्रियाएं स्वाभाविक रूपमें, यंत्र वत् करते रहनेकी आदत थी । यानी, उसके लिये उसके महत्व या उपयोगिताका कोई सवाल न था । उदाहरणके लिये, उसके लिये वस्नुओंका मानसिक या प्राणिक अभिप्राय न था । उसके लिये यह प्रश्न न था कि क्या ''महत्त्वपूर्ण'' है और क्या नहीं, क्या ''रुचिकर'' है और क्या नहीं । इसका अस्तित्व न था । और फिर, अब जब कि ये कोषाणु सचेतन हों रहे है, वे मानों पीछे हटते हे  (माताजी पीछे हटनेकी क्रिया करती हैं). वे अपने-आपको देखते हैं, वे अपने-आपको कार्य करते हुए देखना शुरू कर रहे है और प्रश्न-पर-प्रश्न कर रहे है कि यह सब किसलिये, यह सब? और तब, एक अभीप्सा ''कैसे, सत्य रूपमें

 


यह कैसे होना चाहिये? हमारा कार्य, हमारी उपयोगिता, हमारा आधार क्या है? हां, हमारा आधार और हमारे जीवनका ''मानदण्ड'' क्या है? उनकी बातको फिरसे मानसिक भाषामें यूं कहा जा सकता है : ''दिव्य होनेपर यह कैसा होगा? उसमें क्या फर्क होगा? होनेकी दिठय पद्धति क्या है? '' और वहां जो बोलता है वह इस प्रकारका समस्त भौतिक आधार है जो हज़ारों छोटी-छोटी चीजोंसे मिलकर बना है, जो अपने-आपमें बिलकुल उदासीन-सी है, समग्रको, पूर्णताको छोड़कर उनके रहनेका कोई कारण नहीं । वे किसी अन्य क्रियामें सहायक भले हों, पर ऐसा लगता है कि अपने-आपमें उनका कोई अर्थ नहीं । और फिर, फिरसे वही चीज. एक प्रकारकी ग्रहणशीलता, एक मौन उद्घाटन जो वस्तुको प्रवेश करने देता है, एक प्रकाशमय, सामंजस्यपूर्ण होनेवाली सत्ताका एक बहुत सूक्ष्म दर्शन ।

 

  सताकी इस प्रकारकी कोई व्याख्या नहीं की जा सकतीं, लेकिन इस खोजमें बहुरंगे प्रकाशका सतत प्रत्यक्ष दर्शन (अंतर्दर्शनके रूपमें) होता है जिसमें सब रंग-- हां, सब रंग होते है, लेकिन परतोंमें नहीं, बल्कि (बिन्दु लगानेकी मुद्रा) ऐसा मानों बिन्दुओंके द्वारा सारे रंगोंका समूह हो । दो वर्ष हुए (शायद कुछ ज्यादा ही, मुझे याद नहीं), जब मुझे कुछ तांत्रिक मिले थे । मेरा उनके साथ संपर्क था और मैंने यह प्रकाश देखना शुरू किया । मैंने सोचा कि यह ''तांत्रिक प्रकाश'' है, भौतिक जगत् को देखनेका तांत्रिक तरीका है । लेकिन अब मैं उसे हमेशा ही देखती नष्ट और यह हर चीजके साथ जुड़ा रहता है । ऐसा लगता है कि शायद इसे ''भौतिक द्रव्यका सच्चा प्रत्यक्ष दर्शन'' कहा जा सकता है । सभी संभव रंग आपसमें मिले बिना एक-दूसरेके साथ जुड़े रहते है (उसी तरह बिन्दु बनानेकी मुद्रा), और प्रकाशमय बिन्दुओंके रूपमें आपसमें जुड़े रहते हे । सभी चीजें उसीसे बनी होती है । और यहीं, होनेकी सच्ची विधि मालूम होती हैं - मुझे अभीतक पूरा निश्चय नहीं है, लेकिन, बहरहाल, यह बहुत अधिक सचेतन होनेका एक तरीका है ।

 

  और मैं इसे हमेशा, खुली आंखोसे, बंद आखोसे हमेशा देखती हू । और इससे (शरीरके लिये) एक अजीब-सा प्रत्यक्ष दर्शन होता है । एक ही साथ सूक्ष्मता, भेद्यता, अगर यह कहा जा सकें तो, रूपका म्हचीलापन, निश्चित रूपसे उन्मूत्नन नहीं, रूपोंके ठोसपनमें कमी (ठोसरानका उन्मूलन, रूपका उन्मूलन नहीं) : रूपोंका लचीलापन । और स्वयं शरीर, जव पहली बार उसने किसी-न-किसी अंतमें यह अनुभव किया तो उसे लगा ... वह मानों चकरा-सा गया, उसे ऐसा लगा मानों कोई चीज बचकर

 

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निकली जा रही है । लेकिन अगर आदमी शांत रहे और चुपचाप प्रतीक्षा करे तो उसके स्थानपर एक प्रकारकी नमनीयता, तरलता आ जाती है । यह कोषाणुओंके लिये एक नयी जीवन-पद्धति मालूम होती है ।

 

   शायद यह भौतिक दृष्टिसे वह चीज हो जो भौतिक अहंकारका स्थान लेगी, यानी, ऐसा लगता है कि रूपकी कठोरता इस नये संभवनके तरीके- के लिये जगह करती जा रही है । लेकिन हम जानते हैं कि पहला संपर्क हमेशा बहुत ''आश्चर्यजनक'' होता है, लेकिन धीरे-धीरे शरीर अभ्यस्त हो जाता है । एक विधिसे दूसरेमें जानेका संक्रमणकाल जरा कठिन होता हुए । वह बहुत धीरे-धीरे क्रमश: किया जाता है, फिर भी, एक क्षण होता है (संक्रमणका क्षण), कुछ सकें जो... जो, कम-से-कम यही कह सकते हैं कि ''अप्रत्याशित'' होते हैं ।

 

   इस प्रकार: सभी आदतें मिटा दी जाती है और सभी क्रियाओंके बारेमें भी यही बात है : रक्त-संचारके लिये, पाचनके लिये, श्वासोचवासके लिये -- सभीके लिये यहीं बात है । और संक्रमणके समय एक दूसरेका स्थान अचानक नहीं लें लेता, लेकिन दोनोंके बीच एक तरल अवस्था होती है और वह कठिन है । केवल एक दृढ़ श्रद्धा जो पूर्णतया अडिग, प्रकाशमान, नित्य, निर्विकार हों -- परम प्रभुकी वास्तविक सत्तामें, परम प्रभुकी ''एक- मात्र'' वास्तविक सत्तामें श्रद्धा ही सबको इस योग्य बनाती है कि वे वह- के-वही दिखते हुए चलते चले जायं ।

 

   ये सभी सामान्य गतिविधियोंकी बड़ी लहरोंकी तरह हैं, सत्ताकी सामान्य विधियां और: सामान्य आदतें, इन्हें पीछे धकेल दिया जाता है और वे वापिस आकर लील जाना चाहती और फिरसे बकोली जाती है । मैंने देखा है कि पिछके वर्षोमे शरीर और समस्त शारीरिक चेतना, सुरक्षाके लिये, फिरसे पुराने मार्गपर जा गिरे । यह सुरक्षाके त्रिदेव, बच निकलनेके लिये था । लेकिन अब वह आगेसे ऐसा न करनेके लिये, स्वीकार करनेके लिये गजी है । इसके विपरीत, वह कहता है : ''अच्छा, अगर विघटन होना है तो विघटन ही सही । '' जो कुछ भी हों उसे स्वीकार होगा ।

 

  मनमें, जब यह चीज भौतिक मनमें होती है (यह बरसों पहलेकी बात है, मैंने तब भी इसे देखा था), यही चीज लोगोंको यह डर दिखाती है कि वह पागल हुए जाते है । इससे वह डर जाते है ( और डरके मारे चीजें होती भी है), और तब, वे झपटकर उससे बचनेके लिये साधारण बुद्धिमें लौट आते है । उसीके तुल्य है -- भौतिक शरीरमें जो होता  यह वही नहीं, उसीके तुल्य है. तुम्हें लगता है कि सामान्य स्थिरता गायब हों रही है । हां, लंबे अरसेतक -- लंबे अरसेतक -- यह स्वाभाविक पीछे

 

हटनेका भाव रहता था, फिर तुम बिलकुल सामान्य हों जाते हों और फिरसे शुरू करते हों । और, अब वे बिलकुल नेही चाहते ''जो भी हो, देख लेंगे'' -- महान् साहसिक कार्य ।

 

यह सब कैसा होगा? -- यह कैसे होगा? कैसे... हां, कोषाणु कहते हैं : ''हमें क्या होना चाहिये? हम कैसे होगे? ''

 

   यह मजेदार है ।

 

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४ मार्च, १९६७

 

   रूपांतरकी यह समस्या, मैं ज्यादा-ज्यादा स्पष्ट रीतिसे देख रही हू कि इसके लिये तीन उपाय है, आगे बढ़नेके तीन रास्ते है और पूर्ण होनेके लिये तीनोंको मिलाना चाहिये।

 

   एक, स्वभावत:, सबसे महत्त्वपूर्ण मार्ग है जिसे हम ' 'आध्यात्मिक' ' कह सकते हैं । वह है 'चेतना' के साथ संपर्क -- प्रेम-चेतना-शक्ति, हा, यही, यही हैं तीन रूप : परम प्रेम-चेतना-शक्ति, और संपर्क, तादात्म्य. सारी चीजका अर्थ हुआ सभी भौतिक कोषाणुओंको उस ( तत्) के ग्रहण करने योग्य, उसे अभिव्यक्त करने योग्य -- वह बन जाने योग्य ' 'बनाना '' ।

 

   सभी साधनोमें यह सबसे ज्यादा सशक्त और सबसे ज्यादा अनिवार्य है ।

 

   एक गुह्य मार्ग है जो सभी मध्यवर्ती लोकोंका हस्तक्षेप लाता है । इसमें सभी शक्तियों और सभी व्यक्तित्वों और सभी मध्यवर्ती क्षेत्रोंका विस्तृत ज्ञान होता है और वह ( मार्ग) इन सबका उपयोग करता है । वहां व्यक्ति अधीमानसके देवोंके उपयोग करता है । यह दूसरा मार्ग है । शिव, कृष्ण, श्रीमांके समस्त रूप इस दूसरे मार्गके अंश है ।

 

   और फिर उच्चतर बुद्धिका मार्ग है । यह वैज्ञानिक भावसे परेके भावका प्रक्षेपण है । यह समस्याको नीचेसे पकड़ता है । इसका भी महत्व है । विस्तृत व्यवहारकी दृसतीटसे यह मार्ग मोटे अनुमानोंको कम कर देता है और ज्यादा प्रत्यक्ष तथा ज्यादा यथार्थ क्रिया लाता है ।

 

    अगर तीनोंको मिलाया जा सकें तो स्पष्ट है कि चीज ज्यादा तेज चलेगी । पहलेके बिना, कुछ भी संभव नहीं है, बल्कि पहलेके बिना वाकी दोनों अवास्तविक रहते है : वे कहीं नहीं पहुंचाते । तुम अनिश्चित कालतक घूमते रहते हों । लेकिन अगर तुम पहलेको दूसरे दोसे लैस कर दो तो

 

मेरा ख्याल है कि क्रिया बहुत अधिक यथार्थ, अधिक सीधी और अधिक तेज हों जाती है।

 

   इन दिनोके ''अध्ययन'' का यही निष्कर्ष है ।

 

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प्रासंगिक (७ मार्च, १९६७)

 

मृत्युके प्रसंगमें

 

  मेरे पास बड़े विद्यार्थियोंसे (छोटे बच्चोंसे नहीं, बडोंसे) ''मृत्यु'' के बारेमें कुच प्रश्न आये है, मृत्युकी अवस्थाए, इस समय इतनी दुर्घटनाएं क्यों हो रही है आदि । मैं दो व्यक्तियोंको उत्तर दे चुकी हूं । स्वभावत: उत्तर मानसिक स्तरके था, लेकिन उसमें परे जानेका प्रयास था ।

 

   इस प्रकारके मानसिक तर्कके लिये, हां, यह जरूरत होती है कि चीजों- का तर्कके अनुसार एकसे दूसरेकी ओर निगमन हों; इसलिये ऐसे प्रश्न किये जाते है... जो असंभव होते है । '

 

क्या अंतरात्मा मृत्युका समय और तरीका नहीं चुनती? जब मानव जातिपर बडी-बडी विपदाएं आती हैं, बंबारी, बाढ़, भूकंप आदि तो क्या सब-की-सब सत्ताएं एक ही समय मृत्यु चुनती हैं?

 

  मनुप्योंकी बहुत बड़ी संख्यकि सामूहिक नियति होती है । उनके बारे- में कोई प्रश्न नहीं उठता ।

 

  जिसमें व्यक्तित्व-प्राप्त चैत्य पुरुष है वह, यदि उसकी अंतरात्मा शह चाहे, सामूहिक विनाशमेसे भी बच सकता है ।

 

  मृत्युके बाद अंतरात्मा अपने मन और प्राण और भौतिक सत्तासे जुदा हो जाती है । तब वह अपने अस्तित्वके बारेमें सचेतन कैसे रहती है?

 

 अंतरात्मा परम प्रभुकी एक चिनगारी है; मुझे नहीं लगता कि प्रभुको अपने अस्तित्वके बारेमें सचेतन होनेके लिये. शरीरकी जरूरत है ।

 

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  यह कोई बहुत नयी चीज नहीं है, परंतु यह चेतनाका विस्तार है, और अभी हालमें ये सब प्रश्न वातावरणमें आये और सबसे पहले ऐसा लगा कि मनुष्य मृत्युके बारेमें कुछ नहीं जानता -- यह नहीं जानता कि यह क्या है, वह यह नहीं जानता कि क्या होता है, उसने बहुतेरा धारणाएं बना रखी है, परंतु कुछ मी निश्चित नहीं है । इसे इसी तरह आगे बढ़ाते हुए, इस तरह आग्रह करते हुए मैं इस निष्कर्षपर आयी हू कि वास्तवमें मृत्यु जैसी कोई चीज है ही नहीं ।

 

   केवल एक आभास है, एक सीमित दृष्टिपर आधारित आभास, लेकिन चेतनाके स्पंदनमें कोई मौलिक फर्क नहीं पड़ता । यह एक प्रकारकी चिंताके उत्तरमें आया (कोषाणुओंमें सचमुच मृत्यु क्या है यह न जाननेके कारण एक चिंता-सी होती है--उस प्रकार चिंता), और: उत्तर: बहुत स्पष्ट और दृढ़तापूर्ण था, क्योंकि सिर्फ चेतना ही जान सकती है क्योंकि. स्थितिके अंतरको जो महत्व दिया गया है वह ऊपरी महत्व है जो स्वय तथ्यके बारेमें अज्ञानपर आधारित है । जो व्यक्ति संचारणका साधन बनाये रख सकें वह कह सकता है कि मेरे लिये इसमें कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता । लेकिन दूसरी बात ऐसी है जिसपर अभी काम चल रहा है, ऐसे स्थान है जो बिलकुल यथार्थ नहीं हैं, अनुभूतिके कुछ ब्योरे है जो नहीं मिल रहे । इसलिये ऐसा लगता है कि जबतक ज्ञान अधिक पर्ण न हो जाय तबतक ठहरना ज्यादा अच्छा होगा । क्योंकि कल्पना-मिले अनुमानसे, कुछ कहने- की जगह समग्र अनुभूतिके साथ संपूर्ण तथ्य कहना ज्यादा अच्छा होगा । इसलिये इसे आगेके लिये स्थगित रखें।

 

   लेकिन आप कहती हैं कि कोई भेद नहीं.... जब व्यक्ति दूसरी तरफ होता है तो क्या वह भौतिक जगत् का बोध पा सकता है?

 

हां, हां, यह होता है ।

 

  उन सत्ताओंके बोध, उन...

 

हां, यह ऐसा ही है ।

 

  केवल बोध होनेकी जगह.. तुम एक म्रातिमूलक स्थितिसे, एक ऐसे बोधसे जो आभासोंका बोध है बाहर निकल आते हो, लेकिन तुम्हें एक बोध होता है; यानी, कुछ ऐसे क्षण थे जब मुझे बोध हुआ था, मैं अंतर

 

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देख सकती थी; लेकिन यह अनुभूति समग्र नहीं थी (इस अर्थमें समग्र नहीं थी कि बाह्य परिस्थितियों उसमें बाधा देती थीं) । इसलिये ज्यादा अच्छा यह है कि उसके बारेमें बोलनेसे पहले कुछ प्रतीक्षा की जाय ।

 

   लेकिन बोध तो है ।

 

  बिलकुल एक ही नहीं, लेकिन कमी-कभी अपने-आपमें अधिक समर्थ; लेकिन इसे सचमुच दूसरी ओरसे नहीं देखा गया था । मालूम नहीं इसे कैसे कहा जाय । मुझे एक उदाहरण मिला -- उदाहरण नहीं बल्कि जीती- जागती चीज, पूर्णबोध -- यह एक ऐसे आदमीके बारेमें है जो बरसों मेरे साथ रहा था, वह शरीरके बाहर जानेके बाद ( एकदम भौतिक रूपमें शरीरसे बाहर जानेके बाद) भी पूर्णतया सचेतन संपर्कमें रहा, वह विलीन हुए बिना, एक और जीवित व्यक्तिके साथ बहुत निकटके संपर्कमें था । हंस मेलमें वह स्वयं अपनी ही चेतनाका जीवन जीता रहा । और यह सब -- मैं नाम या तथ्य नहीं दें सकती, यह सब इतना ठोस था जितना हों सकता है । और यह जारी है ।

 

  यह सब देखा जा चुका है -- मैंने इसे बहुत पहले देखा था, लेकिन आज सवेरे ही यह नयी चेतनाके एक उदाहरणके रूपमें फिरसे आया । यह ( ' 'मेल'') अपने प्रभाव में असाधारण रूपसे ठोस था : दूसरेकी चेतनाकी क्षमताओं और गतियोंमें सचेतन रूपसे परिवर्तन ला सकता था, यह पूरी तरह सचेतन जीवन था । यह वही चेतना थी जो उस समय सचेतन थी जब शरीर बिलकुल न था और उसका अस्तित्व केवल रातको अंतर्दर्शनमें दिखायी देता था ।

और मी हैं ।

 

   यह बहुत निकट और घनिष्ठ है इसलिये मैं उसकी गतिविधिको पूरे विस्तारसे देख सकी ।

 

  लेकिन यह नयी दृष्टिके साथ ही स्पष्ट, यथार्थ और प्रत्यक्ष था । क्योंकि कैसे कहूं?... मैं जानती थी -- मैं इसे पहले जानती थी, मैं जानती थी -- केकिनी मैंने इसे फिरसे नयी चेतनाके साथ देखा; देखनेके नये तरीके- सें देखा, और तब पूरी तरह समझमें आ गया, पूरा-पूरा बोध हो गया, बिलकुल ठोस, जिसमें वे तत्व भी थे जो पूरी तरह गायब थे -- पहले बोधमें जो मानसिक और प्राणिक ज्ञान था । ये तत्व पूरा विश्वास कराने- वाले थे । यह कोषाणुओंकी चेतनाका ज्ञान था ।

 

   लेकिन यह सब तमी मजेदार होगा जब सभी तथ्य हों (जो नहीं दिये जा सकते) । अब मैं एक अधिक पूर्ण, अधिक ''निर्वैयक्तिक'' अनुभूति चाहती हू जिसे, यूँ कह लें, जिसे तटयोंद्वारा निर्देशित नहीं किया जाता,

 

जिसे प्रक्रियाकी समग्रताका अंतर्दर्शन हों । वह आयेगी ।

५७

प्रासंगिक (२४ मई, १९६७)

 

कल किसीने मुझसे पूछा

 

   ''आखिर भगवान् क्या है.? ''

 

मैंने उत्तर दिया ।

 

  मैंने उससे कहा कि मैं उसकी सहायता करनेके लिए एक उतर दे रही हूं, लेकिन ऐसे सैकड़ों उत्तर हो सकते हैं जिनमें हर एक दूसरेके जितना अच्छा होगा ।

 

    ''भगवान जिया जा सकता है,

 

  और मैंने यह जोड़ दिया : लेकिन, चिक तुमने प्रश्न किया है इसलिये मैं उत्तर देती हू :

 

  ''भगवान् पूर्णताकी चरम अवस्था है,

  जो कुछ है उसका नित्य स्रोत हैं;

  नित्यतामें सारे समय वही होते हुए

  जिनके बारेमें हम क्रमश: सचेतन होते है ।''

 

   एक बार मुझसे किसीने कहा कि भगवान् उसके लिये सर्वदा अचिंत्य हैं । तो मैंने उसे उत्तर दिया : ''नहीं! इस तरह तुम्हें कोई मदद नहीं मिलती । तुम्हें केवल यही सोचना चाहिये कि भगवान् सब कुछ है (अपनी चरम सीमापर) । वह सब जो हम अपनी उच्चतम और अधिक-से-अधिक प्रदीप्त अभीप्सामें बनना चाहते है, हम जो कुछ बनना चाहते है वह भग- वान् है ।'' वह खुश हो गया । उसने कहा : ''ओह! इस तरह यह आसान हो गया! ''

 

  लेकिन जब तुम देखते हों -- अपने मानसिक क्रिया-कलापसे बाहर निकलते हो और तुम्हें जो अनुभूति हुई है उसे देखते हों -- और अपने- आपसे कहते हो : इसे कैसे कहा जाय? कैसे समझाया जाय? तब जो

 


चीज सबसे नजदीक, सबसे सुलभ है वह यह है : हम जो ' 'चीज' ' बननेके लिये अभीप्सा करते है उसमें हम सहज और स्वाभाविक रूपसे वह सब मिला देते है जो हम चाहते हैं कि हों, वह सब जिसे हम सबसे अद्भुत मानते हैं, वह सब जो तीव्र अभीप्साका विषय है ( और अज्ञानपूर्ण), वह सब कुछ । और इस सबके सत्य हम ' 'इस चीज' ' के निकट जाते हैं और .... । तत्वतः संपर्क विचारद्वारा नहीं होता; संपर्क होता है सत्ताकी किसी समान चीजके द्वारा, जो अभीप्साकी तीव्रतासे जाग उठाती है । और तब, जैसे ही यह संपर्क -- यह संयोजन -- प्राप्त हो जाता है, चाहे वह एक सेकेंडके लिये ही क्यों न हो, व्याख्या करनेकी कोई जरूरत नहीं रहती : यह ऐसी चीज है जो निरपेक्ष रूपसे अपने-आपको आरोपित करती है और यह हर प्रकारकी व्याख्याके बाहर और परे है ।

 

   लेकिन वहां पहुंचनेके लिये, हर एक व्यक्ति वही चीज डालता है जो सबसे सहज रूपसे उसका निर्देशन करती हो ।

 

   और जब तुम्हें यह अनुभूति होती है, उस संयोजनके, उस संकलनके समय, चेतनाके लिये यह स्पष्ट होता है कि समान ही समानको जान सकता है और परिणामस्वरूप यह इसका प्रमाण है कि तत् बहा है ( माता- जी हदयकी केंद्रकी ओर संकेत करती हैं) । यह इस बातका प्रमाण है कि तत् यहां है । और अभीप्साकी तीव्रताके द्वारा वह जाग्रत् होता है । जब मुझे प्रश्न मिला तो यह ठीक ऐसा था मानों यह व्यक्ति मुझसे कह रहा हों. ' 'हां, हां, यह सब बहुत अच्छा है, लेकिन आरिवर भगवान् हैं क्या! '' तब मैंने उसकी चिट्ठी पढ़ी एक नीरवता आ गयी, पूर्ण नीरवता, और मानों एक निगाह, एक ही निगाह जो सब कुछ घेर लेती हों और जो देखना चाहती हों. । मैं इस तरह देखती चली गयी जबतक कि शब्द नहीं आये, तब मैंने लिखा. ' 'यह लो एक उत्तर; सैकड़ों उत्तर हो सकते है, सभी समान रूपसे अच्छे । ''

 

   और साय ही जब इस ''चीज' 'पर नजर डाली जिसकी परिभाषा करनी थई तो सब जगह विशाल नीरवता और तीव्र अभीप्सा थी ( लौ उठनेकी मुद्रा), और इस अभीप्साने जितने रूप लिये वे सब थे । यह बहुत मजेदार था.... । हम जो बनना चाहते है उस अज्ञात अद्भुतके प्रति पृथ्वीकी अभीप्साकी कहानी

 

   और हर एक--हर एक व्यक्ति जिसकी नियतिमें यह संयोजन करना लिखा है -- अपनी सरलतामें विश्वास करता है कि उसने जिस पुलका अनुसरण किया है वही एकमात्र पुल है । परिणाम : धर्म, दर्शन, सिद्धांत, मत-युद्ध ।

 

    संपूर्ण रूपसे देखा जाय तो यह बहुत मजेदार: है, बहुत मोहक है, एक
 

५९


ऐसी 'मुस्कान' के साथ जो देखती है... ओह! यह 'मुस्कान'... जो देखती है । यह 'मुस्कान' ऐसी है मानों कह रही हो. ''तुम जटिलता पैदा कर रहे हो! और यह कितना सरल होगा! ''

 

  इसे साहित्यिक रूपसे अभिव्यक्त करना हो तो हम कह सकते है : ''इतनी सरल चीजके लिये इतनी जटिलताएं : अपने-आप बनना ।',

 

 ( मौन)

 

  और तुम, तुम क्या सोचते हो कि भगवान् क्या है?

 

   मुझे नहीं मालूम, यह ऐसा प्रश्न है जो मैंने अपने-आपसे कभी नहीं पूछा ।

 

 मैंने भी नहीं! मैंने कमी अपने-आपसे यह प्रश्न नहीं किया क्योंकि जसे ही जाननेकी जरूरत होती थी, वैसे ही सहज भावसे उत्तर मिल जाता था । और उत्तर मी कैसा? शब्दोमें नहीं, जिनपर बहस की जाती है. एक उत्तर... कुछ-कुछ स्वप्नके जैसा । यह एक ऐसी चीज है जो अब हमेशा रहती है ।

 

  स्वभावत:, लोग कठिनाइयां पैदा करते हैं ( मुझे लगता है कि ये लोगों- को बहुत अच्छी लगती हैं क्योंकि...), क्योंकि हर चीजके लिये, छोटी- से-छोटी चीजके लिये कठिनाइयोंका एक जगत् रहता है । इसलिये आदमी अपना समय यह कहते हुए गुजारना है : ' 'अचंचल रहो, अचंचल, अचंचल -- शांत रहो । '' और स्वयं शरीर कठिनाइयोंके बीच रहता है ( ऐसा लगता है कि उसे भी ये पसंद हैं!), लेकिन अचानक कोषाणु सहज रूपसे 'ओ' का गान करने लगते हैं.. और जब इन सब कोषाणुओंमें बच्चे का आनन्द होता है, वे कहते हैं ( माताजी, आश्चर्यभरी आवाजमें) : ' 'हां, हां, हम यह मी कर सकते हैं? हमें यह करनेका अधिकार है! '' यह बड़ा मर्मस्पर्शी होता है ।

 

  और इसका प्रभाव तुरंत होता है : महान् शांतिमय 'स्पंदन', सर्वशक्तिमान 'स्पंदन' ।

 

  जहांतक मेरा सवाल है, अगर मैं सारे समय आसपासके स मी संकल्पोंके सतत दबावमें न हों ती तो कहती : ' 'तुम यह क्यों जानना चाहते हों कि भगवान् क्या है? इससे तुम्हें मतलब? तुम्हें केवल वह बन जाना चाहिये । '' लेकिन द मजाक नहीं समझते ।

 

६०


   --मैं जानना चाहता हू कि भगवान् क्या हैं ।

   -नहीं, यह बिलकुल बेकार है ।

   -- आह!

 

   वे क्षुब्ध होकर पूछते हैं : ''आह! क्या यह जानना मजेदार न होगा? '' --तुम्हें जाननेकी कोई जरूरत नहीं : तुम्हें बन जाना चाहिये ।

 

  उनके लिये, मेरा मतलब है, अधिकतर बुद्धिजीवियोंके लिये यह कल्पना करना असंभव है कि तुम किसी चीजको जाने बिना वह बन या कर सकते हों । अगर कोई मजाक पसंद करता है तो यह भी कह सकता है : ''केवल तभी, जब तुम नहीं जानते, तुम अधिक-सें-अधिक भगवान् होते हो ।''

 

 (माताजी ध्यानमें चली जाती हैं)

 

   जो लोग व्याख्याएं चाहते है उनके लिये ''भगवान् क्या है? ''... का उत्तर देनेका एक और तरीका है... एक मुस्कराती हुई और ज्योतिर्मयी विशालता ।

 

  वह है, नहीं है क्या? वह हैं ।

  कुछ दिनोके बाद :

 

   हमने उस दिन भगवान्के बारेमें जो कहा था उसमें मुझे कुछ और जोड़ना है । किसीने मुझसे पूछा है :

 

    ''और भगवान् क्या है?.... ''

 

यह श्रीअरविदके उद्धरणके बारेमें है । वे कहते हैं

 

''प्रेम हमें विभाजनकी पीडासे पूर्ण ऐक्यके आनंदकी ओर ले जाता है, लेकिन एकताकी क्रियाके आनंदको खोये बिना । यह अंतरात्माकी सबसे बड़ी खोज है और सृष्टिका जीवन उसके लिये एक लंबी तैयारी है । अतः प्रेमके द्वारा भगवान्के निकट जानेका अर्थ है अपने-आपको बडी-सेबडी संभाव्य आध्यात्मिक उपलब्धिके लिये तैयार करना ।''

 

(योग-समन्वय)

 

इसमें अंतिम वाक्यके प्रसंगमें मुझसे पूछा गया है : ''भगवान् क्या है? '' इसलिये मैंने कहा (मैंने ''भगवान्'' शब्द ले लिया) :

 

   ''यह वह नाम है जो मनुष्यने उस सबको दिया है जो उससे बढ़-चढ़कर

 

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है और उसपर शासन करता है, उस सबको जिसे वह जान तो नहीं सकता पर उसके सामने झुक जाता है ।''

 

  इसमें ''उस सबको जो उससे बढ-चढूकर है'' कहनेकी जगह ''उसको जो उससे बढ-चढूकर है'' कह सकते हैं, क्योंकि बौद्धिक दृष्टिकोणसे ''उस सब'' विवादास्पद है । यानी, ''कोई एक चीज'' है -- कोई ऐसी चीज जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती, जिसे समझाया नहीं जा सकता -- और यह कुछ चीज ऐसी है कि मनुष्यने हमेशा अनुभव किया है कि वह उसपर शासन करती है । वह सभी संभव समझदारीसे परे है और वही उसपर शासन करती है । और फिर, धर्मोंने उसे एक नाम दिया है; मनुष्यने उसे ''भगवान्'' कहा है; अंग्रेज उसे ''गॉड'' कहते है; किसी और भाषामें उसका और नाम है, लेकिन अंततः यह वही है ।

 

  मैं जानबूझकर कोई व्याख्या नहीं देती क्योंकि मेरे सारे जीवनकी यही अनुभूति है कि यह एक शब्द है और ऐसा शब्द जिसके पीछे लोगोंने बहुत-सी अवांछनीय चीजें रख दी हैं... । उदाहरणके लिये, यह विचार कि भगवान् वह है जो एकमेव ही रहना चाहते है, जैसा कि लोग कहते हैं : ''भगवान् एकमेवाद्वितीयम्'' है । लेकिन वे अनुभव करते है और अनातोल फ्रांसकी तरह कहते हैं, शायद यह ''देवदूतोंका विद्रोह'' में है. ''यह भगवान् जो एकमात्र और अकेले ही सब कुछ होना चाहते हैं ।', यह ऐसी चीज है जिसने मुझे बचपनमें, यदि ऐसा कहा जा सकें, एकदम नास्तिक बना दिया था; मैं ऐसी सताको स्वीकार न करती थी, वह कोई क्यों न हो, जो अपने-आप एकमेव और सर्वशक्तिमान होनेकी घोषणा करती हों । यदि वह एकमेव और सर्वशक्तिमान्  हो भी तो (हंसते हुए) उसे इस बात- की घोषणा करनेका अधिकार नहीं है! मेरे मनमें ऐसी बात थी । मैं इस विषयपर पूरे घटे-भरतक भाषण दे सकती हू कि हर धर्मने उसका किस तरह सामना किया है ।

 

   बहरहाल, मैंने ऐसी व्याख्या की जो मुझे सबसे अधिक वस्तुनिष्ठ मालूम हुई । उस दिन ''भगवान् क्या है? '' के उतरकी तरह मैंने 'वस्तु' का संस्कार देनेकी कोशिश की, यहां मैं उस शब्दके प्रयोगके विरुद्ध लड़ना चाहती थी जो मेरी दृष्टिमें खोखला, किंतु भयंकर रूपसे खोखला है ।

 

  मुझे 'सावित्री' का एक प्रसंग याद आता है जिसमें यह सारी बात अद्भुत ढंगसे एक पंक्तिमें कही गयी है । वहां कहा है 'अनाम' ने भगवान्को जन्म लेते देखा

 

  ''अशरीर, अनाम जिसने भगवान्को जन्म लेते देखा... वह मर्त्य मन और अंतरात्मासे एक अमर शरीर और दिव्य नाम प्राप्त करना चाहता है।''

 

६२

२४ जून, १९६७

 

 कहनेके लिये बहुत-सी चीजें हैं, लेकिन... अन्ततक पहुंचना ज्यादा अच्छा है । यह एक वक्राकार है । अंततक पहुंचना ज्यादा अच्छा है । अभीसे बोलना जल्दबाजी होगी ।

 

   (कुछ देर मौन) शरीरकी गतियां, लगभग पूर्ण रूमसे, अम्यासगत गतियां द५ाएती है । उनके पीछे, भौतिक मनकी चेतना होती है (जिसे मैं कोषाणु- गत मन कहती हू), जो अपने-आप भागवत उपस्थितिके बारेमें हमेशा सचेतन रहता है और उसे आग्रह होता है कि उस उपस्थितिके सिवाय ओर किसीको स्वीकार न करे । इस प्रकार परिवर्तनके लिये, गतिविधिके मृल्स्रोतको बदलनेके लिये पूरा-पूरा काम हों रहा है । मेरे कहनेका आशय यह है कि महज यंत्रवत् आदत गतिकी प्रेरक न हों बल्कि दिव्य सत्ता और चेतना सहज प्रेरक हों । (माताजी शरीरमें दिव्य चेतनाको प्रविष्ट करानेकी मुद्रा करती है) ।

 

   लेकिन इसे समझाना बिलकुल, एकदम असंभव है, यानी, जैसे ही तुम इसे व्यक्त करना शुरू करो कि वह मानसिक चीज बन जाती है, अपने- अत नहीं रूह पाती । इसीलिये इसे व्यक्त करना बहुत कठिन है । मैं उसके बारेमें नहीं बोल सकती ।

 

  फिर भी, अभी बहुत दिन नहीं हुए, मैंने शायद तुम्हें अत्यधिक भौतिक चेतनामें नाटकके लिये .रुचि और आदतके बारेमें अपना अवलोकन बताया था । वह आरंभर्नबंदु था । जैसे ही वह आदत सचेतन हुई कि मानों वह विजातीय बन गयी, सत्य चेतनाके लिये विजातीय और तबसे स्थानान्तरणका कार्य शुरू हो गया ।

 

  यह बहुत नाजुक और कठिन काम है ।

 

  इसका अर्थ है हज़ारों वर्ष पुरानी आदतसे लड़ना । भौतिक चेतनाकी यांत्रिकता बहुत नाटकीय है, लगभग विनाशकारी, कभी-कमी नाटकीय, कभी ऐसे काल्पनिक निष्कर्षके साथ नाटकीय जो नाटकको मिटा देता है । लेकिन व्यक्त करते ही यह सारा-का-सारा बहुत अधिक ठोस बन जाता है । उसके बारेमें न बोलना ही अच्छा है ।

जैसे ही उसे कहा जाय वह कृत्रिम बन जाता है ।

 

   यह लगभग ऐसा है जैसे एक आदत हटानेके लिये उसकी जगह और एक आदतको बिठानेका प्रयास किया जाय (!) क्या चेतनाकी यह अवस्था, होनेका यह तरीका, अस्तित्वका यह मार्ग, प्रतिक्रिया करने या अभिव्यक्त करनेका यह

 


तरीका भागवत अभिव्यक्तिकी ओर संकेत करता या अभिमुख होता है? क्या यह भागवत अभिव्यक्तिकी ओर प्रवृत्तिका समर्थन करता है?.. विचार मौन, अचल है, कल्पना काम नहीं करती (यह सब स्वेच्छापूर्वक), और गति भागवत उपस्थितिके प्रभावके अधीन जितना हों सके सच्ची और सहज बननेकी कोशिश कर रही है ।... शब्द हर चीजको बिगाड़ देते !

 

  समय-समयपर - समय-समयपर अचानक. ठोस अनुभूति, बिजलीकी चमककी तरह, भागवत उपस्थितिकी अनुभूति, तादात्म्य । परंतु यह कुछ सेकंडोंके लिये रहता है और फिर पहलेकी तरह शुरु: होता है ।

 

   इसे व्यक्त नहीं किया जा सकता ।

 

माताजी श्रीअरविदके दो उद्धरणोंका अनुवाद

लेती है जिन्हें वे अगले बुलेटिनमें छपाना

चाहती है ।

 

 ''यह साधनाका एक महान् रहस्य है -- सब कुछ अपने मनके प्रयाससे करनेकी जगह ऊपर या पीछे स्थित शक्तिके द्वारा काम करवानेकी तरकीब जानना ।',

 

ठीक यही है !

 

''शरीरका महत्व स्पष्ट है । मनुष्य पशुसे ऊपर उठा है क्योंकि उसने एक ऐसा शरीर विकसित किया है, या एक ऐसा शरीर और मस्तिष्क पाया है जो प्रगतिशील मानसिक प्रकाशको ग्रहण करने और उसकी सेवा करने योग्य है । इसी तरह, एक ऐसा शरीर विकसित करके या कम-से-कम भौतिक यंत्रकी क्षमताको और भी उच्चतर प्रकाशको ग्रहण करने और उसको सेवाके योग्य बनाकर बह अपनेसे ऊंचा उठेगा और केवल विचारों और अपनी आंतरिक सत्तामें ही नहीं, जीवनमें पूर्णतया दिव्य मानवको चरितार्थ कर सकेगा । अन्यथा या तो जीवनकी प्रतिज्ञा रद्द हो जाती है, उसका अर्थ व्यर्थ हो जाता है, पार्थिव सत्ता अपने-आपको खोकर ही सच्चिदानन्दको पा सकती है, अपने अंदरसे मन, प्राण और शरीरको छोड़कर शुद्ध अनंतमें जाकर ही उसे पा सकती है; या फिर, मनुष्य भागवत यंत्र नहीं है । सचेतन

 

६४


रूपसे प्रगतिशील शक्ति जो उसे समस्त पार्थिव सत्ताओंमें विशेष स्थान देती है, उसकी भी कोई नियत सीमा है । जैसे मनुष्यने उन्हें हटाकर अगली शक्तिने स्थान लिया है, उसी तरह किसी औरको उसका स्थान लेना और उसके उत्तराधिकारको संभालना होगा ।''

 

में समझती हू! मैं सारे समय इसमें व्यस्त थी ।

 

 ( मौन)

 

लेकिन श्रीअरविदका निष्कर्ष है कि यह (शरीर) नहीं बदल सकता । कोई नयी ही सत्ता होगी ।

 

   नहीं, बे कहते है 'अगर' यह न बदल सके तो कोई नयी सत्ता होगी ।

 

नहीं, मेरा मतलब यहां, इस उद्धरणमें नहीं; मेरा मतलब है बादकी लिखा हुई चीजोंमें ।

 

    ?...

 

 इसके अतिरिक्त, बात तो एक ही है, क्योंकि... । क्या शरीर बदल सकता है?. -. फिर भी यह बहुत कठिन मालूम होता हे । यह असंभव नहीं है । यह असंभव नहीं है, लेकिन... यह इतना अधिक परिश्रम है और जीवन इतना संक्षिप्त है; और फिर भी, कुछ चीज बदलनी है, हां, घिस जानेकी यह आदत तुक भयंकर चीज है ।

 

    हां, परंतु 'नयी सत्ता' कहांसे आयेगी? क्या आकाशसे टपकेगी!

 

नहीं, हरगिज नहीं, यही तो बात है! हम जितना अधिक देखते है... वह इस तरह नहीं आयेगी (माताजी हंसती हैं) । स्पष्ट है कि वह भी उसी तरह आयेगी जैसे पशुसे मनुष्य आया । लेकिन पशु और मनुष्यके बीचकी अवस्थाएं नहीं मिलतीं । हम उनके बारेमें सोचते हैं, कल्पना करते हैं, हमने कुछ चीजें फिरसे ढूंढ ली हैं, लेकिन सच पूछो तो हम वहांपर उपस्थित

 

६५


न थे! हम नहीं जानते कि यह कैसे हुआ । लेकिन इसका महत्व नहीं है ।... कुछ लोगोंके अनुसार, हम बालकके निर्माणमें सचेतन रूपसे रूपांतरकार कार्य अपने अंदर शुरू कर सकते हैं । यह संभव है, मैं ना नहीं करती । यह संभव है । और तब, उसे अधिक रूपांतरित सता तैयार करनी होगी और इस तरह चलता चलेगा । इस तरह कई अवस्थाए  होगी जो उसी तरह गायब हो जायंगी जैसे वानर और मनुष्यके बीचकी अवस्थाएं गायब हो गयी?

 

 हां, मानव-पूर्णताकी प्रक्रियाकी यही तो संपूर्ण कहानी हैं ।

 

तुम जो चाहे नाम दे लो । पर एक नयी सत्ता... जहांतक हमारा संबंध है, हम यह कल्पना करते हैं कि जैसा तुम कहते हों, एक नयी पूर्वनिर्मित सत्ता तैयार मालकी तरह उतर आयेगी... यह शुद्ध रूपसे अतिरंजन हैं !

 

   श्रीअर्रावंद भी ठीक यही कहते हैं, उसे बनाना होगा ।

 

यह तो दो, तीन, चार या दस-बीस, मुझे नहीं मालूम कितनी मध्यवर्ती सत्ताओंके बाद नयी विधि आयगी, वह निर्माणकी अतिमानसिक विधि होगी ।.. लेकिन क्या बच्चे पैदा करना जरूरी होगा? जिन लोगोंके अन्त आ जायगा उनका स्थान लेनेके लिये बच्चोंकी जरूरत समाप्त न हों जायगी, क्योंकि तब लोग अनिश्चित कालतक बने रहेंगे? वै नयी जरूरतोंको पूरा करनेके लिये अपने-आपको काफी रूपांतरित कर लेंगे ।

 

  सुदीर्घ भविष्यमें इस सबकी भली-भांति कल्पना की जा सकती है ।

 

हो, सुदूर '

 

 लेकिन आप ठीक इसीलिये हैं ताकि दूरीको छोटा कर दें ।

 

नहीं, श्रीअरविंदने उसे निकट भविष्यमें नहीं देखा ।

 

  हां, पर यह आपको ही करना होगा । चाहे सुदूर भविष्य

 

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  हो या निकट भविष्य, करना आपको ही होगा । इसी जीवन और इसी शरीरमें ।

 

लेकिन मैं..

 

   में उसे करनेकी कोशिश कर रही हू -- किसी मनमाने संकल्पसे नहीं, इस प्रकारकी कोई चीज नहीं है । केवल 'कोई चीज', या 'कोई सत्ता' या 'चेतना', या कोई और चीज ऐसी है (मैं उसके बारेमें बात नहीं करना चाहती), जो इसका (माताजीका शरीर) उपयोग कर रही है और इसमें- सें कुछ बनाना चाहती है । इसका मतलब यह हुआ कि एक ही समयमें मैं कर भी रही हू और साक्षी भी हू । और 'मैं', मुझे नहीं मालूम कि वह कहां है : वह यहां, अंदर नहीं है, वहां ऊपर नहीं है, वह..! मुझे मालूम नहीं कि वह कहा है, यह भाषाकी आवश्यकताके। लिये है । ''कोई चीज'' है जो कार्य कर रही है और साक्षी भी है और साथ-ही-साथ वह क्रिया भी है जो की जाती है : तीनों ।

 

   क्योंकि स्वयं शरीर अब सचमुच यथासंभव सहयोग देता है -- यथा- संभव - सद्भावना और सहनशीलताकी बढ़ती शक्तिके साथ सहयोग और सचमुच अपनी ओर लौटना बिलकुल कम होता जाता है (वह उप- स्थित तो है लेकिन केवल एक ऐसी चीजके रूपमें जो कभी-कभी छूती- भर है और कुछ सेकेंडोंके लिये भी नहीं रहती) । वह, यानी, अपनी ओर मुड़ना, पूर्ण रूपसे एक ऐसा वातावरण है जो वीभत्स, घिनौना और विनाश- कारी है । वह ऐसा हीं है, उसका अनुभव मी इसी तरह किया जाता है । और वह अधिकाधिक असंभव होता जा रहा है, मैं उसे देखती हू । वह दृश्य है... लेकिन फिर भी बुरी आदतोंका हजार वर्ष पुराना भार है जिसे निराशावाद कहा जा सकता है । वह क्षति, विपत्ति आदि सब प्रकार- की चीजोंकी आशा करता है और इसे शुद्ध करना, पवित्र करना और वातावरणमेंसे निकाल फेंकना सबसे कठिन है । यह इतना अंदर धंसा दुग्ध है कि सहज बन गया है । अनिवार्य पतन या क्षतिकी भावना ही बहुत बड़ी, सबसे बड़ी रुकावट है ।

 

स्वभावतः, मानसिक दृष्टिकोणसे सारा पार्थिव वातावरण ऐसा ही है, लेकिन मनमें इसका महत्व बहुत कम है । प्रकाशकी एक किरण आ जाय तो यह साफ हों जाता है । लेकिन यहां, अंदर (शरीर दिखाते हुए), यहां यह आदत -- यह विनाशकारी आदत -- बहुत भयंकर है । इसका प्रतिकार करना बहुत अधिक कठिन है । और यह अनिवार्य है कि यह गायब हों जाय ताकि दूसरी चीज अपने-आपको उसके स्थानपर प्रतिष्ठित कर लें ।

 

तो यह हर क्षण, हर मिनट, सदा चलती रहनेवालि, सदा चलती रहने- वाली लड़ाई है ।

 

  और तब तुम्हें पता लगता है कि सत्ताको अलग नहीं कर दिया गया है, शरीर, अलग नहीं है । यह न्यूनाधिक रूपमें एक भीड़ है जिसमें सन्निकटताके स्तर हैं । इनमें सबसे निकट वे सब हैं जो यहां है, और समस्या वही है--वही समस्या । क्योंकि इस शरीरकी चेतनामें जो कुछ प्राप्ति हुई है वह दूसरोंकी चेतनामें जरा भी प्राप्त नहीं हुई है । इस कारण श्रम-भार बढ़ जाता

 

  हम कह सकते हैं कि मानसिक और प्राणिक संक्रमणकी समस्या हल हो गयी है, पर भौतिक संक्रमणकी समस्या बाकी है ।

 

   और इस भौतिक चेतनामें भौतिक मन है जिसने इस अद्भुत रीतिसे यहां प्रत्युत्तर दिया है, (श्रीमामें) लेकिन इसके अंदर वह शक्ति नहीं है जो सहज रूपमें बाहरसे आनेवाले संक्रमणका सामना कर सकें । यह संक्रमण सदा, सर्वदा, हर क्षण होता रहता है।

 

 (लंबा मौन)

 

   जब अचानक संपर्क सचेतन हो जाता है और तादात्म्यका भाव आता है, जैसा मैंने कहा, यह कुछ सेकेंडोंके लिये ही होता है, लेकिन जब वह आता है.. - तो यह शरीरके कोषाणुओंका स्तवगान होता है जो कहते है. ''हां, ठीक है, ठीक है, यह बात सच्ची है, हां, यह सत्य है ।''...

 

  यह शायद दिनमें सौ बार आता है, पर टिकता नहीं ।

 

६७

 प्रासंगिक (२६ अगस्त, १९६७)

 

 किसी शिष्यदुरा पूछे गये एक प्रश्नके बारेमें ।

 

 ''माताजी, कहा गया है कि हमेशा शुभ और सत्यकी विजय होती है, लेकिन जीवनमें प्रायः उलटा ही दिखायी देता है । दुष्ट ही विजयी होते हैं और ऐसा लगता है कि किसी तरह पीडासे उनकी रक्षा होती रहती है ।',

 


( माताजी हंसती है, फिर मौन रहती हैं) । लोग प्रायः दो विचारोंमें गड़बड़ कर देते हैं ।

 

  वैश्व और आध्यात्मिक दृष्टिसे निश्चय ही, लोग जिसे ''शुभ'' समझते है वह नहीं, बल्कि जो 'सत्य' है, 'सत्य' ही विजयी होगा -- यह निश्चित है । यानी, अनंतमें भगवान् विजयी होंगे । यही कहा जाता है । जिन लोगोंने आध्यात्मिक जीवन यापन किया है उन्होंने यही कहा है -- यह एक निरपेक्ष तथ्य है । मनुष्य इसका भाव ग्रहण करते हुए कहते है : ''मैं अच्छा बच्चा हूं, मैं जिसे सत्य समझता हूं उसके अनुसार जीता हूं, इसलिये सारी सृष्टिको मेरे लिये भला होना चाहिये ।', (माताजी हंसती हैं) सबसे पहले, व्यक्तिका अपना मूल्यांकन हमेशा संदेहास्पद होता है । और फिर, जगत् जैसा अब है उसमें सब कुछ मिला-जुला है, यहां 'सत्य' का 'विधान' अपने-आपको खुले तौरपर मनुष्यकी आधी ऊंची चेतना- के आगे अभिव्यक्त नहीं करता -- वह उसे समझ भी न पायेगी । मेरे कहनेका आशय यह है कि, यदि ज्यादा ठीक-ठीक रूपमें कहा जाय तो परम दृष्टि अपने-आपको निरन्तर चरितार्थ करती जा रही है, लेकिन मिश्रित भौतिक जगत् में उसकी उपलब्धि अज्ञान-भरी मानव दृष्टिको शुभकी विजय नहीं मालूम होती, यानी, उसकी विजय नहीं मालूम होती जिसे मनुष्य शुभ और सत्य कहते हैं । लेकिन (मजाकमें कहें तो), यह भगवान्का दोष नहीं है, मनुष्योंका दोष है! यानी, प्रभु जानते है कि वे क्या कर रहे है और मनुष्य नहीं समझते ।

 

 शायद सत्यके जगत् में सब कुछ वैसा ही होगा जैसा अब है, केवल बह अन्य प्रकारसे दिखायी देगा ।

 

दोनों । एक फर्क होगा । जगत् में वर्तमान अज्ञान और अंधकार भागवत 'क्रिया' को विकृत रूप दे देते हैं; और स्वभावतः, यह लुप्त होनेकी ओर प्रवृत्त है; लेकिन यह भी सत्य है कि देखनेका एक तरीका है जो... कहा जा सकता है कि, प्रतीतिको एक और ही अर्थ दे देता है - दोनों इस तरह हैं ( आपसमें मिले होनेकी मुद्रा) ।

 

 ( मौन)

 

  हम हमेशा इसी बातपर लौट आते हैं कि मनुष्यका मूल्यांकन गलत होता है -- गलत, क्योंकि उसकी वस्तुओंको देखनेके दृष्टि गलत होती है,

 


अधूरे होती है -- और अनिवार्य रूपसे इस मूल्यांकनके परिणाम गलत होते है ।

 

   संसार हमेशा बदलता रहता है, हमेशा, एक निमिष मात्रके लिये मी वह अपने जैसा नहीं रहता और सामान्य सामंजस्य अपने-आपको अधिकाधिक पूर्ण रूपमें प्रकट करता है; इसलिये कोई भी चीज जैसी- की वैसी नेही बनी रह सकती । और विपरीत आभासोंके होते हुए समग्र हमेशा प्रगति करता रहता है : सामंजस्य अधिकाधिक सामंजस्यपूर्ण होता जा रहा है, और 'अभिव्यक्ति'में सत्य अधिकाधिक सत्य होता जा रहा है । लेकिन उसे देखनेके लिये तुम्हें समग्रको देखना चाहिये, जब कि मनुष्य केवल... मानव क्षेत्र मी नहीं, केवल अपना निजी क्षेत्र, बिलकुल छोटा, बिलकुल छोटा, बहुत ही छोटा भाग देखता हैं -- उसे भी वह समझ नहीं सकता ।

 

   यह एक दोहरी चीज है जो अपने-आपको पारस्परिक क्रियाके द्वारा पूर्ण करती जा रही है (वही मिलानेकी मुद्रा) : जैसे-जैसे 'अभिव्यक्ति' अपने बारेमें अधिक सचेतन हों जाती है, उसकी अभिव्यंजना अपने-आपको अधिक पूर्ण करती है, और वह अधिक सत्य होती जाती है । ये दोनों गतियां साथ-साथ चलती हैं ।

 

 ( मौन)

 

   उस दिन जब 'ज्ञानकी चेतना' थी, तो जो चीजें बहुत स्पष्ट रूपमें देखी गयी थीं उनमेंसे एक यह थी : जब दिव्य अभिव्यक्ति 'निश्चेतना'में- सें पर्याप्त रूपसे निकल आयेगी ताकि संघर्षकी आवश्यकता, जो 'निश्चेतना'- की उपस्थितिके कारण है, अधिकाधिक अर्थ हों जायगी, वह बिलकुल स्वाभाविक रूपसे गायब हो जायगी, तब प्रगति प्रयास और संघर्षकी, द्वारा होनेकी जगह सामंजस्यके साथ होनी शुरू होगी । मानव चेतना इसीको धरतीपर दिव्य सृष्टिके रूपमें देखती है -- यह भी केवल एक कदम होगा । लेकिन अभीके पगके लिये यह एक प्रकारकी सामंजस्य'पूर्ण उप- लब्धि है जो निरंतर वैश्व प्रगति, (जो अविरत है) को संघर्ष और पीड़ा द्वारा होनेवाली प्रगतिके स्थानपर, आनन्द और सामंजस्यद्वारा प्रगतिको जायेगी... लेकिन जो दिखायी दिया वह यह था कि यह अपर्याप्त, अधूरी और असंपूर्ण चीज बहुत लंबे समयतक चलेगी -- यदि समयके बारेमें हमारी धारणा यही बनी रहे, इसके बारेमें मैं' नहीं जानती । लेकिन सभी परिवर्तनोंमें समय उपलक्षित होता है, है न; यह जरूरी नहिं है कि वह समयके

 

इसी रूपमें प्रस्तुत हो जैसा किए हम समझते हैं, लेकिन उसमें अनुक्रम तो रहता ही है ।

 

   हमारे सामने सारे समय, ये सब तथाकथित समस्याएं -- मनके प्रश्न- पर-प्रश्न और समस्याएं आते रहते है ( 'अविधा'की सभी समस्याएं, है न?) -- केंचुएकी समस्याएं । जैसे ही तुम वहां ऊपर उठ जाओ, इन ममस्याओंका अस्तित्व ही नहीं रहता, और न परस्पर विरोध ही रहता है । विरोध हमेशा दृष्टिकी अपर्याप्ततासे आते हैं, किसी वस्तुको एक ही समय सब दृष्टिकोणोंसे देख सकनेकी अक्षमतासे आते है ।

 

   बहरहाल, अपने प्रश्नपर वापस आनेके लिये, मेरा ख्याल है कि कमी किसी ज्ञानीने यह नहीं कहा होगा : तुम अच्छे बनो और बाह्य रूपमें सब कुछ ठीक हो जायगा -- क्योंकि यह मूर्खता है । अव्यवस्थाके जगत् में, मिथ्यात्वके जगत् में इस प्रकारकी आशा करना बुद्धिसंगत नहीं है । लेकिन अगर तुम काफी सच्चे हो और अपनी सत्ताके तरीकोंमें संपूर्ण और समग्र हों, तो परिस्थितियों चाहे जैसी हो, तुम्हें आंतरिक आनन्द और पूर्ण संतोष मिल सकता है और उसे छूनेकी न किसी व्यक्तिमें और न किसी चीजमें शक्ति है ।

 

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३० अगस्त, १९६७

 

 पिछली कई रातोंसे मैं प्रायः सारी रात, कई-कई घंटे एक ऐसे स्थानपर बिताती हूं जो निश्चय ही सूक्ष्म भौतिकमें होगा और जहां द्रव्यात्मक जीवनका पुनर्गठन होता है । वह विशाल -- बहुत विशाल -- है और वहां अनगिनत भीड़ है । नहीं, यह भीड़ नहीं अनगिनत व्यक्तित्व है । यानी, मुझे उनमेंसे हर एकसे काम पड़ा । ऐसा लगता था मानों एक साय लिखनेकी मौजें और दस्तावेज थे पर चारों ओर दीवारें न थी! यह  विचित्र-सी जगह थी, बड़ी विचित्र जगह थी ।

 

  मैंने अपने -आपसे कई बार पूछा कि क्या यह भौतिक चीजोंकी स्मुरति है_ जो मुझे इस लोकको इस रूपमें दिखा रही थी, या सचमुच वह दुनिया थी ह ऐसी! कमी-कभी, उस समय कोई शंका न थी, क्योंकि उसके अपने विशिष्ट लक्षण थे, लेकिन अन्य समय शंका होती थी और मैन अपने-आपसे पूछती कि यह मेरी सक्रिय स्मृति तो नहीं! उस समय बहुत सचेतन

 


होती हूं और हर चीज बहुत स्वाभाविक और वास्तवमें स्थायी होती है : मैं उन्हीं चीजोंको उन्हीं स्थानोंपर देखती हू । कभी-कभी जरा-सा हेरफेर होता है, लेकिन ऐसा जो किसी क्रियाके कारण जरूरी हो । कहनेका मतलब यह कि यह एक सुसंगत जगत् है, अव्यवस्थित कल्पना नहीं । लेकिन ये रूप किस हदतक स्वाभाविक रूपोंकी छाया हैं, किस हदतक वे रोसे हैं या हम उन्हें ऐसा देखते है? मुझे अभी इसके बारेमें पूरा विश्वास नहीं है । जब मैं अधिमानस जगत् में जाकर देवोंको। देखा करती थी तब भी मेरे सामने यही समस्या थी; मुझे हमेशा एक प्रकारका संकोच-सा होता था कि क्या यह सत्य ज्ञान था कि वे सचमुच ऐसे है या हम अपनी भौतिक आदतों- के कारण उन्हें ऐसा देखते हैं... । वहां, कुछ समयके बाद, मैं निष्कर्षपर आ गयी, पर यहां, भौतिक रूपसे...

 

  यह एक अजीब-सी बात है । कही दरवाजे खिड़कियां नहीं है, न फर्श है, न छत । हर चीज मानों अपने-आपमें स्थित है । वहां गुरुत्वाकर्षणका नियम नहीं चलता, यानी, वहां धरतीका चुंबकीय आकर्षण नहीं है, फिर भी, लिखने लोग तो ऐसा लगता है (हंसते हुए) कि वहां कलम है, किसी चीजपर लीखों तो ऐसा लगता है कि कागज है; और जहां दस्तावेज हैं वे ''डौकेट'' में मालूम होते है.... । ऐसा लगता है कि द्रव्य तो एक नहीं है पर देखनेमें एक जैसा है । और वह यह रूप है, और मैं अभीतक अपने-आपसे पूछती हू' : क्या सामान्य मस्तिष्ककी क्रिया उन चीजोंको यह रूप दे देती है या वे सचमुच ऐसी हैं?

 

    वहां मैं प्रायः सभीसे मिलती हू । मैंने तुमसे कहा था, तुम वहां बहुत नियमित रूपसे होते हो और हम काम करते है । तुम्हें याद नहीं रहता । दूसरे कुछ लोग हैं जिन्हें याद रहता है, लेकिन उनकी स्मृति (माताजी उंगली मरोड़कर दिखाती है) लकीरसे जरा खिसकी हुई है, यानी, ठीक वैसी नहीं है जैसा मैंने देखा था । जब वे मुझे उसके बारेमें बताते है तो मुझे लगता है कि उनके मस्तिष्कके प्रतिलेखनने उसे यह रूप दे दिया है... । वहां एक ही चीजको अगर दस बार देखा जाय तो भी वह जैसी-की-तैसी दिखती है, कुछ थोड़े-बहुत तर्कसंगत भेद मलें हों और ये भेद, उदाहरणके लिये, अपव्ययके कारण हों सकते हैं, इससे वहां भौतिक जगत् की वस्तुनिष्ठ वास्तविकता मालूम होती है । अगर तुम ध्यानसे अध्ययन करो तो भौतिक जगत् में मी कोई दो व्यक्ति किसी चीजको ठीक एक ही रूपमें नहीं देखते । वहां मी ऐसा ही होता है, शायद जरा ज्यादा बलाघातके साथ ।... इसकी व्याख्या तब बहुत ज्यादा सीधी-सरल हों जाती है जब तुम उस चेतनामें प्रवेश करो जहां स्वयं द्रव्यात्मक सद्वस्तु ही एक भ्रम, एक भ्रांति बन जाती

 

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है, वह यथार्थ नहीं होती. आंतरिक सद्स्तु ही अधिक सत्य होती है । तब, उस दशामें बात बहुत सरल है । शायद हमारा मन हीं आश्चर्य करता है ।

 

  उदाहरणके लिये लिखनेकी बात लें लो । मैंने विस्तारमें तो नहीं देखा पर ऐसा लगता है कि वहां लिखते समय बहुत ज्यादा आसानीसे लिखा जाता है । पता नहीं इसे कैसे समझाया जाय । वहां लिखनेमें बहुत कम समय लगता है, चीजें कागजपर लिखी जाती हैं, पर क्या वह सचमुच कागज होता है? वह कागज जैसा दिखता है, लेकिन चीजें बहुत ज्यादा सीधी लिखा जाती हैं.. । शायद कुछ सादृश्य है, उदाहरणके लिये, जब तुम कलम या पेंसिलका उपयोग करते हो, वह कलम या पेंसिल न होकर उसके जैसी कोई चीज होती है, जो... कैसे कहा जाय? उस चीजका आदि प्रारूप या उसका तत्व होता है । यानी, अगर हम उस कालमें होते जब लोग परका, कलम या होल्डरका उपयोग करते थे और उसे किसी द्रवमें डुबा-डुबाकर लिखते थे तो शायद मैं वैसा ही देखती! ... वस्तुके सारतत्व या मूल तत्त्वको स्मृति एक सादृश्यमें अनूदित कर देती है ।

 

    लेकिन यह एक क्रिया है । मैं समय तभी जानती हू जब वहांसे लौटती हुन । मैंने एक आदत बना ली है कि जब भी द्रव्यगत चेतनामें वापस आती हूं तो समय देखती हूं (बिस्तरपर मेरे पास घड़ी रहती है और मैं उसीको देखती हू), और इस तरह मैं कह सकती हूं : इसमें एक घंटा लगा, वह दो घंटे चला, लेकिन वहां समयका भाव एकदम नहीं होता, समयका वही भाव नहीं होता -- वहां क्रियाकी विषयवस्तुका महत्व होता है । और उन घंटोंमें बहुत-सी, बहुत-सी चीजें की जाती हैं, हां, बहुत-सी । तो मैं वहां तुमसे नियमित रूपमें मिलती हू, और भी बहुतोंसे । मैं एक ही समय अनेक स्थानोंपर होती हूं ! और जब कोई व्यक्ति मुझसे कहता है ''मैंने पिछली रात आपको देखा था । आपने यह किया और वह किया'', और तब कहीं उस ओर ऊपर, मैं कहती हू. ''हां, यह सच है ।', उसमें जरा, जरा-सा (माताजी ऐंठनेकी मुद्रा करती हैं) भेद है, लेकिन सारतत्व ठीक वही है ।

 

  और मैंने देखा है कि ये चीजें जौ भौतिकके बिलकुल पास हैं अचानक जाग पडूने, या विशेष रूपसे जागते हीं कोई गति करने या करवट बदलने- पर एकदम गायब हों जाती है । बादमें अगर मैं बहुत चुपचाप रहीं और अपने अंदर प्रवेश करुँ तो धीरे-धीरे इस अवस्थाके साथ संपर्क बन सकता है । इसलिये मुझे इस बातसे आश्चर्य नहीं होता कि अधिकतर लोग याद

 

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नहीं रख पाते । प्राण और मनकी अनुभूतियां ज्यादा आसानीसे याद रहती है, लेकिन यह जो भौतिकके एकदम नजदीक हों... ।

 

  और उसका कुछ ऐसा लक्षण होता है कि अगर कोई जागनेपर उसकी चेतनाको बनाये रख सके तो वह पागल लगेगा । अभी दौ दिन पहले ही मुझे इसकी अनुभूति हुई है और उसने मुझे बहुत कुछ सिखाया है -- मैंने उसे देखा, अध्ययन किया और जबतक समझ न गयी तबतक अध्ययन किया । यह तीसरे पहरके आरामके समयकी बात है । (मैं तीसरे पहर सोया नहीं करती, लेकिन इस तरह आंतरिक चेतनामें चली जाती हू), मैंने पहलेसे ही ठीक कर लिया था कि मैं इतने बजे जाग जांगली, यानी, उठ बेढंगी । जब समय हुआ तो मैं अपने कार्यकी गहराईमें थी और चेतनाकी वह अवस्था जारी रही यद्यपि मेरी आंखें खुली हुई थी । और, चेतनाकी उस अवस्थामें... मैं नहीं कह सकती कि ''मैं'' थी क्योंकि यह वही ''मैं'' न थी । उस समय मैं बहुत सारे व्यक्ति होती हूं, न्ठेकिन उस क्षणकी ''मैं'' को एक सोनेकी कलाईकी घड़ी ( कत्ठाईकी ओर संकेत) लिये रहनेकी आदत थीं (यहां, भौतिक रूपमें नहीं, वहां ऊपर), वह खड़ी पहनना भूल गयी और उसे ढूढ़ रही थी ''आह । मैं घड़ी पहनना भूल गयी । घडीका क्या हुआ? मैं क्यों भूल? '' और जब मैं जागी (मैं घड़ी नहीं पहने थी), और अपने-आपमें लौट आयी तो दोनों चेतनाएं युगपत बिच- मान थीं और मैंने जोरसे कहा ''मेरी घड़ी कहां है? मैं घड़ी पहनना भूल गयी ।'' और जब मैं यह कह चुकी (हंसी) तब मुझे होश आया ' इसने मुझे सोचनेके लिये प्रेरित किया । मैंने भली-भांति अध्ययन किया, गौरमें देखा, नजदीकसे देखा कि उस समय दो चेतनाएं पूरी तरह पूरी-पूरी युगपत थीं (माताजी एक हाथ टूसरेपर जोड़ देती हैं)!

 

यह बहुत मजेदार है । ओह! उस अनुभूतिके कारण बहुत सारी समस्याएं हल हों गयीं । उदाहरणके लिये, उन बद्रुत-से लोगोंकी समस्या जिन्हें पागक मान लिया जाता है, लेकिन वे इस सूक्ष्म चेतनामें होते हैं (उसी तरह एक हाथ दूसरेपर रखते हुए), जो अमुक क्षण उनपर अधिकार त्रिया रहती है और इसके कारण वे ऐसी चीजें कहते है जिनका यह कोई अर्थ नहीं होता, परंतु वहां बिलकुल स्पष्ट होते हैं और यह चेतना इस तरह होती है (जुड़े हुए हाथों-हो एक-दूसरेके अंदर धूल-मिल जानेकी मुद्रा) । इससे बहुत-से तथाकथित पागलोकी समस्या समझमें आ जाती है । ऐसे उदाहरण भी है जो देखनेमें कपट मालूम होते है । वे भी इसी तरहके होते है, क्योंकि इस क्षेत्रमें चेतना स्पष्ट देखती है और यह क्षेत्र इतना नजदीक है कि चीजोंको वह-के-वही नाम दिये जा सकते बैर ।

 

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ऐसा लगता है कि उनका रूप एक ही या एक जैसा है । लेकिन यह ठीक वही नहीं होता जिसे हम यहां ''गोचर वास्तविकता'' कहते है । बाहरी रूपमें, द्रव्यात्मक दृरि:टसे चीजें ठीक वही नहीं होती । और इस तरह तथाकथित कपटके उदाहरण होते हैं जिनमें सचमुच चेतनाकी दो लड़े एक-दूसरीके साथ इतनी अधिक मिली रहती है, इतनी अधिक मिली रहती है कि उनमें सक्रिय भेद करना मुश्किल हों जाता इत्र! ओह! इससे पूरा एक क्षेत्र स्पाःट हो गया । केवल स्पष्ट ही नहीं हुआ, उसके उपचार या रूपांतरकी चाबी मी हाथ लग गयी । भीतरी मनोविज्ञानकी दृष्टिसे इसने चीजोंकी बहुत बड़ी हदतक, बहुत बड़ी हदतक व्याख्या कर दी । --'सेस सच्चे मानसिक पागलपन ओर वास्तविक कपटके उदाहरणोंकी संख्या बसुंग्त कम हों जाती है, यानी, ऐसे उदाहरण बहुत कम रह जाते है जहां आदमी जानकर, सचेतन रूपसे ऐसी बात कहता है जो स्त्री बतासे विपरीत है -- ये उदाहरण इतने अधिक नहीं हो सकते जितने माने जाते है । बहुत-से लोग  ही बातें कह देते है ( उतरानेकी मुद्रा) जो श्क्तायथार्थ होनी है, लेकिन जिन्हें वे शुद्ध रूपसे द्रव्यात्मक जगत् से भिन्न जगत् में देखते है, चीजें का 'ही मिलीजुली होती है और उनमें इतना विवेक नहीं होता कि वे मिश्रणका पता चला सकें ।. श्रीअरविद कहा करते थे कि वास्तविना दुत्यभविना, वास्तविक विरोध मोर वास्तविक मिथ्यात्वके) उदाहरण बहुत विग्क होते हैं । यानी, ''वास्तविक'' अपने निरपेक्ष अर्थमें, जो अपने- आपमें सचेतन, जान-बूझकर -- जान-बूझकर, निरपेक्ष, सचेतन -- ऐसे उदाहरण विरल होते है; और उन्हेको विरोधी शक्तियां कहते हैं । बाकी नट। तो एक प्रन्हारसे चेतनाकी म्गंति है, ऐसी चेतना जौ दखल देती मैं; (माताजी दात्र हत्थी उंगलियों बा हाथकी उंगलियोंमें डालकर आगे पीली करती), और चिक उनमें यथार्थ विवेक नहीं होता और चेतनामें भेद नहीं करुँ सकते, इसलिये इसी तरह अंदर जाते, बाहर आते रहते है (फिर वही गति) ।

 

 (मौन)

 

 परिणामस्वरूप समस्याकी विशालता दिखायी दी, जिस मार्गका अनुमरण करना है ओर जौ रूपांतर लाना है वह दिखायी दिया... । अगर तुम शुद्ध रूपसे मनोवैज्ञानिक दृंप्टिकोणसे देवरों तो चीज अपेक्षया सत्तर ओर द्रुत हो जाती है, लेकिन जब तुम यहां पहुँचते हो (माताजी अपने शरीरको छूती है), बाहरी रूपमें आते हों जिसे द्रव्य कहा जाता है,

 

ओह ! यह तो एक जगत् है । प्रत्येक पाठ-- यह पढाये गये पाठोंकी तरह है, बहुत मजेदार है! पाठोंके साथ निष्कर्ष और व्याख्याएं है; तुम एक बहुत छोटी, एकदम छोटी-सी खोज करनेमें एक दिन, दो दिन लगा देते हों । और तब तुम देखते हो कि शारीरिक चेतनामें, कामके इन दिनों या घंटोंके बाद प्रकाश है, वह बदल गयी है -- वह बदल गयी है, प्रतिक्रिया पहले जैसी नहीं रही, लेकिन (माताजी संकेतसे दिखाती है कि बहुत बड़ा काम बचा हुआ है) ।

 

  और 'उपस्थिति', दिव्य उपस्थिति अधिकाधिक घनिष्ठ होती जाती है, ज्यादा-ज्यादा ठोस होती जाती है । उस समय यह (माताजी ऊपरकी ओर फूल उठानेकी क्रियाका संकेत करती हैं), यह इतना ठोस होता है कि बस पूर्ण मालूम होता है और फिर (ढकनेका संकेत), चेतनाकी एक और अवस्था आ जाती है और फिर सब कुछ फिरसे शुरू करना होता है । यह मजेदार है ।

 

  यह तुम्हें बहुत कुछ सिखाता है... बडी-बडी शब्द, बडी-बडी वृत्तिया, बड़ी अनुमतिया, ये सब बहुत अच्छी चीजें है, वहां, ऊपर, लेकिन यहां... कोई दर्शनीय चीज नहीं है -- सब कुछ बहुत मर्यादित, बहुत शांत, अपने- आपको भुलाये हुए, बहुत ही विनम्र । और यही प्रगतिकी शर्त है, रूपांतर- की शर्त है ।

 

   लो वत्स,

 

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१५ नवंबर, १९६७

 

   ऐसा लगता है कि यदि कोई चमत्कारके जैसी बात न हुई, ऐसी चीज जिसे लोग चमत्कार मानते है, तब तो इसमें सदियां लग जायगी ।

 

लेकिन क्या तुमने कभी यह आशा की थीं कि इसमें समय न लगेगा?

 

    हां, स्पष्ट रूपमें ।

 

परंतु मैंने कमी नहीं माना -- मैंने कभी नहीं माना कि यह चीज जल्दी

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आयगी । सबसे पहले तो स्वयं अपने शरीरपर परीक्षण करना है जैसे मैं कर रही हू । भौतिक द्रव्य अभी जैसा है, शरीर जैसा है और फिर .. दिव्य सत्ताके बारेमें तुम जो सोच सकते हो -- यानी, दिव्य, जो हर क्षण अर्ध-चेतन द्रव्यके अंधकारके साथ बंधी नहीं रहती... इन दोनोंमें क्या भेद है? इसमें कितना समय लगेगा? पत्थरको वनस्पतिमें, वनस्पति- को पशुमें और पतुकी... बदलनेमें कितना अधिक समय लगा है? हमें पता नहीं । लेकिन चीजें जिस तरह गति करती हैं... अब लोग गणना करनेमें इतने होशियार हों गये हैं, उनका क्या ख्याल है कि धरती कब बनी थी? कितने लाख, लाखों वर्ष पहले? और यह सब वहांतक पहुंच पानेके लिये, जहां हम आज है ।

 

   स्वभावतः, ज्यादा बढ़नेपर गति मी तेज हों जाती है, यह मानी हुई बात है, लेकिन जल्दी. जल्दी?

 

   अगर ''प्राकृतिक'' प्रक्रिया चली तब तो अनन्त काल लग जायगा ।

 

नहीं, ' 'प्राकृतिक' ' होनेका सवाल नहीं है । प्रकृतिने चीजोंको इस तरह व्यवस्थित किया है कि वे चेतनाको उत्तरोत्तर प्रकट कर सकें, यानी, सारा काम यहीं तो रहा है कि निश्चेतनाको इस भांति तैयार किया जाय कि वह सचेत बन जाय । स्वभावत., अब, कम-से-कम चेतना एक बड़ी मात्रामें है । अब काम ज्यादा तेजीसे चल रहा है, यानी, अधिकांश कार्य पूरा हो चुका है, फिर भी जैसा कि मैंने कहा, जब हम देखते हैं कि वह किस दर्जेतक निश्चेतनाके साथ बंधा है, एक अर्ध, अस्पष्ट चेतनासे बंधा है और मनुष्य नहीं जानते, फिर मी, ' 'नियति' ', ' 'भाग्य' ' को अनुभव करते और उसे ' 'प्रकृति' ' का नाम दे देते हैं जो अभिभूत करती और शासन करती है । हां, तो अंतिम परिवर्तन होनेके लिये इस सबको पूरी तरह सचेतन होना होगा और वह भी केवल मानसिक तरीकेसे नहीं -- उतना काफी नहीं है -- भागवत तरीकेसे! कितना कुछ करना बाकी है ।

 

   यह चीज मैं इस बेचारे छोटे-से शरीर और उसे घेरे हुए सभी चीजों, और इस द्रव्यमें रोज देखती हूं ( चारों ओर भिड़ दिखानेका संकेत), आह!... बस दुःख-दर्द, बीमारी, अव्यवस्थाके सिवा कुछ भी नहीं । ओह! -- इसमें और भगवान्में कोई समानता नहीं है । एक निश्चेतन राशि है ।

 

   तो क्या तुम्हारा मतलब है : तबतक नहीं जबतक कोई चीज ऊपरसे आकर इसे जबरदस्ती बदल नहीं देती?

 

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       जी, हां ।

 

 लेकिन श्रीअरविद कहते हैं मैंने अभी दो दिन पहले ही पूढा है, मुझे पता नहीं उन्होंने कहां लिखा है, यह तो एक उद्धरण था) कि अगर भागवत चेतना, भागवत शक्ति, भागवत प्रेम, भागवत सत्य अपने-आपको धरतीपर बहुत तेजीसे प्रकट करे तो धरती लुप्त हों जायगी! वह उसे सह न सकेगी... ।

 

  में अनुवाद कर रही हू, उनका भाव यही था ।

 

   लेकिन शायद उच्चतम दिव्य मात्रा नहीं, थोड़ी-सी दिव्य मात्रा ।

 

(माताजी हंसती है) । छोटी मात्रा! वह तो हमेशा ही रहती है! छोटी मात्रा तो हमेशा रहती है । एक काफी जोरदार मात्रा भी रहती है, और अगर उसे देखा जाय, तो आश्चर्य होता है, लेकिन ठीक इसीके कारा, हम देखते हैं... । हम चीजोंको वैसा देखते हैं जैसी वे हैं ।

 

   तुम देखते हो न, ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब यह न दिखायी देता हो कि एक मात्रा, पूरी मात्रा नहीं, जरा-सी माना, उसकी एक उन्हीं-सी बूँद तुम्हें क्षण-भरमें स्वस्थ कर सकती है -- वह ''कर सकती'' है, इतना ही नहीं कि वह ''कर सकती'' है, वह स्वस्थ कर देती है । तुम सारे समय उस स्थितिमें रहते हो, संतुलित रहते हो और जरा-सी असफलताका अर्थ होता है अव्यवस्था, उस सबका अंत । और उसकी जरा-सी और प्रकाश और प्रगति आ जाते है । दौ सिरे हैं । दोनों सिरे पास-पास हूं ।

 

    यह एक ऐसा अवलोकन है जिसे तुम दिनमें कई, कई बार करते हो । एप्तिकन स्वभावत., इस यंत्रको अवलोकन करने, समझाने, वर्णन करनेके लिये कहा जाता है तो यह अद्भुत चीजें कहता, लेकिन... मेरा ख्याल हैं -- मुझे मालूम नहीं, लेकिन ऐसा न्दगता है कि पहली बार यंत्रसे ''समाचार लाने'', ''अंतरप्रकाश लाने'', संकेत देनेका काम लेनेकी जगह यह यंत्र उपलव्धिका प्रयास करनेके लिये.. कार्य, अंधकारमय दु कार्य करनेके लिये बनाया गया हैं । और पीर, वह अवलोकन तो करता है, पर अवलोकनके आनंदमें पागल नहीं हो जाता । वह हूर क्षण यह देखनेके लिये बाधित होता है कि उसके होते हुए अभी कितना काम करना बाकी है... और फिर, अपने-आरा तो वह तभी खुश हों सकता है जब काम पूरा हों जाय -- परंतु ''काम पूरा होने'' का मतलब क्या है?...कुछ ऐसी चीज जो स्थापित हो गयी हो । यह दिव्य उपस्थिति, यह

 

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दिव्य चेतना, यह दिव्य सत्य क्षण-भरकी चमककी तरह प्रकट होते है और फिर... । हर चीज अपनी सामान्य दुलकी चालसे चलती रहती है -- परिवर्तन तो होता है, पर अदृश्य परिवर्तन । हां, तो उसके लिये (शरीर- के लिये यह एकदम ठीक है और मेरा ख्याल है कि यही चीज उसके अंदर: साहस बनाये रखती है, और उसे एक प्रकारकी मुस्कराती हुई शांति प्रदान करती है और यह उस सबके बावजूद जो परिणामकी दृष्टिसे इतना कम संतोषप्रद हैं; त्नेकिन इससे उसे संतोष नहीं हों सकता । वह तो तमी संतुष्ट होगा जब.. बात पूरी हो जायगी, यानी, जब वह चीज जो अमी अंत:प्रकाशके हप -- दीप्तिमान किंतु क्षणिक है वह -- एक तथ्यके रूपमें स्थापित हो जायगी; जब सचमुच दिव्य शरीर होंगे, दिव्य सत्ताएं जगत् के साथ दिव्य विधिसे व्यवहार करेगी, तब और केवल तभी वह कहेगा : हां, यह रहा; उससे पहले नहीं । मुझे नहीं लगता कि यह तुरंत किया जा सकता है ।

 

   चुकी मैं भली-भांति देख सकती हू, भली-भांति देखती हू कि क्या काम हो रहा है, मैं तुमसे कह चुकी हू ऐसी चीजें हैं, हां, हैं, जिन्हें मैसुनाने और समझाने बैठ ओर भविप्यवाणी करुँ तो एक-एकमेंसे पूरी शिक्षा निकल सकती है । केवल एक अनुभूतिमेंसे पूरी शिक्षा निकल सकती है -- और मुझे ऐसी अनुभूतियां दिनमें कई-कई बार होती रहती हैं । लेकिन में निश्चित कैसे जानती हूं, उससे कुन्गगृ नहीं बनता.

 

ओर यह अधीरता नहीं है, न संतोषका अभाव है, ऐसी कोई बात नहीं है । यह एक. 'शतित' है, एक 'संकल्प' है जो कदम-कदम करके आगे बढ़ता जाता है, वह- कहानी सुनानेके लिये रुक नहीं सकता, जो हों चूका हे उससे संतुष्ट नहिं रह सकता ।

 

 ( मौन)

 

   क्या समस्त पृथ्वीपर कोई ऐसी सत्ता है जो सचमुच दिव्य हों, अर्थात्, जिसपर निश्चेतनाके किसी नियमका शासन नहीं चलता?.. मुझे लगता है कि यह मालूम हों जाता । अगर ऐसी कोई सत्ता है और में उसे नहीं जानती तो मुझे कहना पड़ेगा कि ऐसी बातके हों सकनेके लिये यह जरूरी है कि मेरे अंदर कहीपर बहुत बड़ा कपट है ।

 

   सच्ची बात तो यह है कि मैं अपने-आपसे यह प्रश्न नहीं पूछती ।

 

   सब मिलाकर, हर एक जानता है कि जिस किसीने नये जगत् के रहस्यों- द्घाटनका या नये जीवनकी उपलहइ०ध.न्हा दावा किया है उसमें, हर एकमें,

 

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अमुक प्रतिशत निश्चेतना जरूर रहती है जो मेरी निश्चेतनासे बहुत अधिक है । तब... लेकिन यह सब तो सार्वजनिक रूपसे मालूम है : क्या कही- पर कोई ऐसा व्यक्ति है, पर लोग उसे नहीं जानते?... मुझे आश्चर्य होगा यदि उसका कोई ऐसा संवाद न हों । मुझे नहीं मालूम ।

 

   हां, बहुत-से लोग हैं, बहुत-से, ईसामसीहों, कल्कियो और अतिमानवोंकी बाढ़-सी है । हां! ऐसे बहुत-से हैं । साधारणत., किसी तरह संपर्क रहता है, किसी तरह उनके अस्तित्वका पता चल जाता है । हां, उन सबमें जिनके साथ मैं दृश्य या अदृश्य रूपसे संपर्कमें आयी हू, एक मी ऐसा नहीं है... कैसे कहूं, एक भी ऐसा नहीं है जिसमें इस तारीरसे कम निश्चेतना हो -- लेकिन मैं जानती हू कि अभी बहुत है, उफ़ !

 

 मैं नहीं देखता कि किस प्रक्यिसे इस तमस, इस निश्चेतनासे बाहर निकला जाय ।

 

प्रक्रिया, कौन-सी प्रक्रिया? रूपांतरकी ।

 

   जी, कहा गया है कि चेतनाको जागकर उस सबको जगाना चाहिये ।

 

लेकिन, वह यह) कर रही है ।

 

    जी हां, वह कर रही है पर...

 

वह करना बंद नहीं करती!

 

  उत्तर यह है : अचानक एक प्रत्यक्ष दर्शन होता है (ये सब बहुत सूक्ष्म, बहुत सूक्ष्म चीजें है, लेकिन यथार्थ रूपमें चेतनाके लिये बिलकुल मूर्तित चीजें है), एक प्रकारकी अव्यवस्थाकी अनुभूति होती है मानों अव्यवस्थाकी एक धारा हो, तब शारीरिक रचनाका द्रव्य पहले अनुभव करना शुरू करता है, फिर प्रभाव देखकर सारी चीज ही अव्यवस्थित हो जाती है । यह अव्यवस्था कोषाणुओंकी उस संसक्तिको रोकती है जो व्यक्तिगत शरीर बनानेके लिये जरूरी है । तब यह पता लग जाता है (विघटनका संकेत), अब यह खतम होनेवाला है । तब कोषाणु अभीप्सा करते हैं और फिर शरीरकी केंद्रीय चेतना जैसी कोई चीज उसके लिये जितना संभव है ''समर्पण'' के साथ तीव्र अभीप्सा करती है : ''प्रभ, तुम्हारी इच्छा, तुम्हारी इच्छा, तुम्हारी इच्छा,'' और तब एक प्रकारका -- कोई जोरका धमाका

 

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नहीं, कोई चकाचौंध पैदा करनेवाली चमक नहीं, बल्कि एक प्रकारकी... हां, उसे लगता है कि अव्यवस्थाकी यह धारा सघन होती जा रही है । तब कुछ च्जि रुक जाती है : पहले शांति, तब प्रकाश, तब दिव्य सामंजस्य -- और अव्यवस्था गायब हो जाती है । और, जब अव्यवस्था गायब हो जाय तो, ''कोषाणुओं'' को तुरंत ऐसा लगता है कि वे शाश्वत तत्व जी रहे हैं, शाश्वतताके लिये जी रहे है ।

 

  और इसी प्रकार ठोस सद्वस्तुकी पूरी तीव्रताके साथ वह चीज रोज नहीं, दिनमें कई-कई बार होती है । कभी-कमी यह बहुत सशक्त होती है, यानी, बड़ी राशिकी तरह । कभी केवल एक चीज ही छूती है; फिर शरीरकी चेतनामें वह अपने-आपको इस तरह, एक प्रकारके कृतज्ञता-ज्ञापनके रूपमें अनूदित कर लेती है यह निश्चेतनामेंसे एक और वास्तविक प्रगति । हां, ये गूजती हुई घटनाएं नहीं होती, मानव पड़ोसी इनके बारेमें कुछ नहीं जानता; वह शायद बाहरी क्रियाकलापमें एक प्रकारका विराम, एक प्रकार- की घनता देखता है । लेकिन बस इतना ही । इसलिये इस मामलेपर बातचीत नहीं होती, इसके बारेमें किताबें नहीं लिखा जा सकती, इसके बारेमें प्रचार नहीं होता.. । तो ऐसा है यह काम ।

 

  सभी मानसिक अभीप्साएं, सभी इससे संतुष्ट नहीं होती ।

  यह बहुत ही अस्पष्ट कार्य है ।

 

 (माताजी लंबे ध्यानमें चली जाती है)

 

   अभी दो-एक दिन हुए है, मुझे मालूम नहीं । ऐसा था मानों धरतीके दिव्य बननेके प्रयासका एक संपूर्ण दर्शन था और ऐसा लगता था मानों कोई कह रहा हों (वह 'कोई' नहीं है, वह साक्षी चेतना है, वह चेतना जो अवलोकन करती है, लेकिन वह अपने-आपको शब्दोमें रूपायित कर लेती है । प्रायः, अधिकतर वह अपने-आपको अंगरेजीमें रूपायित करती है और मुझे ऐसा लगता है कि यह श्रीअरविद है, श्रीअरविदकी सक्रिय चेतना है, लेकिन कभी-कभी यह केवल मेरी चेतनामें शब्दोंमें अनूदित होता है) । तो उस 'किसी' ने कहा. ''हां, घोषणाओंका, अन्तःप्रकाशोंका समय चला गया -- अब क्रियाकी ओर.. ।''

 

   वास्तवमें घोषणाएं, अंत प्रकाश, भविष्यवाणियां बहुत मोहक होती हैं । इससे ''मूर्त वस्तु'' की अनुभूति होती है; अब सब कुछ अस्पष्ट है, ऐसा लगता है कि यह बहुत अस्पष्ट है, अदृश्य है (यह लंबे, लंबे समयके बाद दृश्य होगी), समझमें नहीं आती ।

यह एक ऐसे क्षेत्रकी चीज है जो अभीतक समझाये जानेके त्रिये, शब्दोमें प्रकट होनेके लिये तैयार नहीं है ।

 

  और वास्तवमें किसी हदतक सचमुच नयी है, अबोधगम्य है । मैं जो बात कह रही हू यह मेरी बातको पढ़ानेवालेका किसी अनुभवके माथ मेल नहीं खाती ।

 

  और मैं भली-भांति देखती हू, मैं अच्छी तरह देख सकती हू, इस तरहके ( उलटा करनेका संकेत) कितने थोड़े-से कामकी जरूरत होगी जो इसे पैगम्बरी अन्त: प्रकाश बना देगा । थोड़ा-सा काम, मनमें जरा-सी उलटी क्रिया - यह अनुवर्ती मनके बिलकुल बाहर है और फिर इसके बारेमें जो कहा जायगा... ( माताजी सिर झुकाती है) । ठीक इसीलिये कि यह मन नहीं है, चीज लगभग अबोधगम्य है और सारी चीज ( ओह! वह दृश्य है), सारी चीजके पहुंचके अंदर आनेके लिये मनमें जरा-सें उत्कट रखी जरूरत होगी ( :ई मुद्रा) और वह पैगंबरी बन जायगी । और वह.. वलय संभव नहीं है । वह अपना सत्य खो बैठेगी ।

 

   तो यह बात है, वह रास्तेमें है ।

 

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प्रासंगिक (२२ नवंबर, १९६७)

 

 कुछ प्रगति हुई है ।

 

  दूसरी दिसंबरको शारीरिक शिक्षाके प्रदर्शनके अंतमें सब बच्चे एक साथ मिलकर प्रार्थना करनेवाले है और मैंने उनके लिये प्रार्थना लिखित है । मैं तुम्हें अभी बतानेवाली नष्ट । लेकिन मैंने उसके बारेमें सोचा न था, मुझसे प्रार्थना मांगी गयी और मैंने लिख दी ।

 

  शायद उन्होंने बुलेटिन पढ़ा होगा इसलिये उन्होंने एक प्रार्थना मांगी -- एक ऐसी प्रार्थना जो सचमुच शरीरकी हो । मैंने उत्तर दिया.

 

 शरीरके कोषाणुओंकी प्रार्थना

 

अब जब भागवत कृपाके प्रभावसे

हम धीरे-धीरे निश्चेतनामेंसे निकल रहे है

और एक सचेतन जीवन के प्रति जाग रहे हैं

 


हमारे अंदरसे अधिक प्रकाश और अधिक चेतनाके लिये प्रबल प्रार्थना उठती है :

 

''हे विश्वके परम. प्रभ

हम तुझसे याचना करते हैं, हमें वह

बल और सुन्दरता, सामंजस्यमय पूर्णता दें,

जो धरतीपर तेरा दिव्य यंत्र बननेके लिये जरूरी है ।''

 

यह एक घोषणा-सी है ।

 

  वै प्रदर्शनके बाद इसे बोलनेवाले हैं; कहते है कि वे शारीरिक प्रशिक्षण- का पूरा इतिहास दिखायेंगे और अंतमें कहेंगे : हम अन्ततक नहीं पहुंचे है । क्रम अभी किसी चीजके आरंभमें है और यह हमारी प्रार्थना है ।

 

  मैं बहुत खुश हुई ।

 

    आपने कहा कुछ प्रगति हुई है?

 

प्रगति! बहुत बड़ी प्रगति! उन्होंने कमी सोचातक न था, कभी नहीं; उन्होंने इस शरीरमें रूपांतर प्राप्त करनेके बारेमें कभी न सोचा था : वे संसारके सबसे अच्छे व्यायामी बननेकी सोचते थे, और ऐसी ही किसी  पेटी मूर्खतामरी बातें ।

 

शरीर, उन्होंने शरीरके लिये प्रार्थना मांगी है । वे अब यह समझने तगना गये है कि अब शरीरको अपने-आपको किसी और चीजमें रूपांतरित करना शुरु: कर देना चाहिये । इससे पहले वे सभों देशोंमें शारीरिक प्रशिक्षणके सारे इतिहाससे भरे रहते थे, इसमें लगे रहते थे कि किस देशमें यह सबसे अधिक उन्नत है, और शरीर, जैसा वह है, का उपयोग कैसे किया जाय... आदि । हां, यह औलिम्पिक्सका आदर्श था । अब वे उनसके परे कूदे है : वह भूतकाल था । अब वे रूपांतर चाहते -है- ।

 

   लोग अपने मन और प्राणमें दिव्य बनना चाहते थे । यह तो आध्यात्मिकताकी पुरानी कहानी है जिसकी सदियोंसे जुगाली होती आयी है । नहि, अब शरीरकी बात है । शरीर इसमें भाग लेना चाहता है । यह पूर्ण रूपसे प्रगति है ।

 

हां, परंतु मनमें आदमी देख सकता है कि अभीप्सा अपने- आपको कैसे पुष्ट करती है, कैसे अपने-आपको जीती है । आदमी हदयमें भी भली-भांति देख सकता है कि अभीप्सा कैसे

 

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    रहती है । लेकिन शरीरमें? शरीरमें अभीप्साको कैसे जगाया जाय?

 

लेकिन यह पहलेसे हीं पूर्णतया जाग्रत् है, मेरे अंदर महीनोंसे है! उन्होंने इसे अनुभव किया होगा और वे अनुभव करते है ।

 

    यह कैसे किया गया है? -- यह किया जा रहा है ।

 

        लेकिन अपने अंदर कैसे?..

 

नहीं, नहीं, नहीं, अगर यह किसी एक शरीरमें भी किया जा सका है तो सब शरीरोंमें किया जा सकता है ।

 

      लेकिन मैं पूछता हूं कैसे?... हां, कैसे?

 

यह तो मैं महीनोंसे समझानेकी कोशिश कर रही हू । सबसे पहले कोषाणुओंमें चेतना जगायी जाय ।.?.

 

       जी, हां !

 

हां, अवश्य, लेकिन यह एक बार हो जाय तो हों जाता है. चेतना अधिकाधिक जागती है । कोषाणु ज्यादा सचेतन रूपमें जीते है, सचेतन रूपसे अभीप्सा करते है । हे भगवान्, मैं महीनोंसे यह बात समझानेकी कोशिश में लगी हू । मैं महीनोंसे यह समझानेकी कोशिश कर रही हू । और यही बात है जिससे मैं इतनी खुश हू कि उन्होंने कम-से-कम इसकी संभवनाको तो समझ लिया ।

 

   वही चेतना जिसे प्राण और मनपर एकाधिकार है, उसीने शरीरपर एकाधिकार पा लिया है. शरीरके कोषाणुओंमें चेतना काम कर रही है । शरीरके कोषाणु सचेतन चीज बन रहे है, पूर्णतया सचेतन ।

 

एक ऐसी चेतना जो स्वतंत्र है, जो मानसिक या प्राणिक चेतनापर जरा भी निर्भर नहीं है. वह है शारीरिक चेतना ।

 

 ( मौन)

 

 और यह भौतिक मन जिसके बारेमें श्रीअर्रावदने कहा था कि वह एक

 

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असंभावना है, कि वह एक ऐसी चीज है जो हमेशा गोल-गोल घूमती रहती है और हमेशा गोल-गोल घूमती ही रहेगी -- ठीक चेतनाविहीन यंत्रकी तरह, वह मन भी परिवर्तित हो गया है, वह नीरव हों गया है और उस नीरवतामें उसने दिव्य चेतनासे अंतःप्रेरणा पायी है । उसने प्रार्थना करना शुरू कर दिया है : प्रार्थनाएं वही हैं जो पहले मनमें थी ।

 

    मैं भली-भांति समझ सकता हू कि आपके अंदर क्या हो सकता है, पर..

 

चुकी यह एक शरीरमें हो रहा है इसलिये यह सभी शरीरोंमें हों सकता है! मैं दूसरोंसे भिन्न पदार्थसे नहीं बनी हू । फर्क सिर्फ. चेतनामें है, बस इतना ही । यह ठीक उसी चीजसे बना है, उन्हीं चीजोंसे बना है । मैं वही चीजें खाती हू । यह उसी तरहसे बना था, एकदम उसी तरह ।

 

   मेरा शरीर भी उतना ही मूढ़, उतना ही अंधकारमय, उतना ही निश्चेतन, उतना ही हठी था जितना संसारका कोई और शरीर ।

 

   और यह आरंभ तब हुआ जब डाक्टरोंने कह दिया कि मैं बहुत अधिक बीमार थीं । यह आरंभ था । क्योंकि सारा शरीर अपनी आदतों और शक्तियोंसे खाली कर दिया गया और तब धीरे, धीरे, धीरे कोषाणु एक नयी ग्रहणशीलताके प्रति जाते और उन्होंने अपने-आपको प्रत्यक्ष रूपमें भागवत प्रभावकी ओर खोला ।

 

  अन्यथा कोई आशा न होती और यह द्रव्य जिसने आरंभ किया... कंकरमें भी एक संगठन आ चुकता है -- वह निश्चय ही कंकरसे भी गया- बीता था. निश्चेतन, जड़, निरपेक्ष, वह थोडा-थोडा करके, जरा-जरा करके जाग उठा । वह देखता है, हां, वह देखता है, देखनेके लिये उसे बस अपनी आंखें खोलनी होती है । हां, यही चीज होती है : पशुसे मनुष्य बननेके लिये उसे और किसी चीजकी जरूरत नहीं हुई, केवल चेतनाका प्रवेश, मानसिक चेतनाका निषेचन । और अब उस चेतनाका जागरण तालीमें, एकदम तलीमें, इस तरह । मनने अपने-आपको हटा लिया, प्राण- ने भी हटा लिया । सब हट गये; जब यह कहा गया कि मैं बीमार हू तो मन हट गया था, प्राण हट गया था । जानबूझकर शरीरको अपने- आपपर छोड़ दिया गया । हां, यही बात है, चुकी मन और प्राण उसे छोड़ गये थे, इसलिये गंभीर रोग का आभास होता था । लेकिन तब अपने-आपपर छोडे गये शरीरमें थोडा-थोडा करके कोषाणुओंने चेतनाके

 

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प्रति जागना शुरू किया (उठती हुई अभीप्साका संकेत), जब वह चेतना जिसे प्राणने शरीरमें प्रविष्ट किया था (मनसे प्राणमें और प्राणसे शरीरमें), जब ये दोनों चेतनाएं चली गयीं तो धीरे-धीरे चेतनाने उठना शुरू किया । उसका आरंभ हुआ प्रेमके विस्फोटसे जो उच्चतम शिखरपर है, अंतिम -चरम ऊंचाईपर है और तब जरा-जरा करके, जरा-सा शरीरमें उतरा । और तब यह भौतिक मन, यानी, ऐसी चीज जो एकदमसे बिलकुल ही मूढ़ थी मन जो गोल-गोल घूमता था, जो एक ही चीजको बार-बार, एक हीं चीज- को सैकड़ों बार दोहराता था, वह जरा-जरा करके प्रकाशित हो उठा, सचेतन हुआ, संगठित हुआ और फिर, नीरवतामें डूब गया और तब नीरवतामें, अभीप्साने अपने-आपको प्रार्थनाका रूप दिया ।

 

 ( मौन)

 

  यह सभी प्राचीन आध्यात्मिक स्थापनाओंका खण्डन है : ''अगर तुम- पूरी तरह दिव्य जीवनसे सचेतन होकर रहना चाहते हों तो शरीर त्याग दो -- शरीर इसका अनुसरण नहीं कर सकता । '' ठीक, पर श्रीअरविंदने आकर कहा. ''शरीर, इतना ही नहीं कि वह अनुसरण कर सकता है, बल्कि वह भगवानकि अभिव्यक्तिका आधार बन सकता है ।''

 

  अमी कार्य- करना बाकी है ।

 

  लेकिन अब एक निश्चिति है । परिणाम अभी दूर -- बहुत दूर है । अंदर जौ कुछ हो रहा है (आध्यात्मिक गहराइयोंके अंदर नहीं, शरीरके अंदर), उसे बाह्यतम स्तरपर, अपनी परतकी अनुभूतिमें व्यक्त करने.के लिये बहुत कुछ करना बाकी है । जो अंदर है उसे बाहर प्रकट करनेके योग्य बनानेके लिये.. । यह अंतमें आयेगी, और यह इसी तरह अच्छा है क्योंकि अगर वह समयसे पहले आ जाय तो कामकी अवहेलना जशुगी; आदमी इतना संतुष्ट हों जायगा कि काम पूरा करना हीं भिन्न जायगा । सब कुछ अंदर करना चाहिये । वह अच्छी तरह किया जाना चाहिये,  तरहसे बदल जाना चाहिये, तब बाह्य अपने-आप बोलेगा ।

 

  लेकिन यह सारा एक ही द्रव्य है सब जगह एक जैसा और वह हर जगह निश्चेतन था; और फिर विचित्र बात यह है कि चीजें अपने-आर होने लगती है (संसार भरमें फैल हुए बिन्दु दिखाते हुए), एकदम अप्रत्याशित रूपमें, इधर-उधर, उन लोगोंमें जो कुछ भी नहीं जानते ।

 

 ( मौन)

 

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   दयात्मक कोषाणुओंको चेतनाको ग्रहण करने और उसे अभिव्यक्त करने- की क्षमता प्राप्त करनी चाहिये, और फिर जो चीज आमूल रूपांतरको संभव विनति है वह यह है -- हम कह सकते है कि शाश्वत और अनिश्चित आरोहणके स्थानपर एक नया प्रकार दिखायी देता है -- ओ र -ल-ह है अग्रसे अवतरण । इससे पहलेका अवतरण मानसिक अवतरण था औ-र-' टब सें श्रीअरविंदने अतिमानस अवतरण कहा है । ऐसा लगता है कि परम दिव्य चेतनाका अवतरण हों रहा है । वह किसी ऐसी चीजमें धूल- मिल रही है जो उसे ग्रहण करने और अभिव्यक्त करनेमें समर्थ हो । और तव जब वह अच्छी तरह पीस जाय ( पता नहीं, इसमें' कितना समय लगेगा) । तब इसमेंसे एक नया रूप जन्म लेगा जिसे श्रीअरविद अतिमानसिक गल्प कहते है -- जौ... पत नहीं, मुझे वही मालूम ये सत्ताएं क्या कहलायेगी ।

 

  ये अपने -आपको कैसे अभिव्यक्त करेगी, वे अपनी बात कैसे समझायेंगी ... और यह सब.? मनुष्यमें यह चीज बहुत धीरे-धीरे विकसित हुई थई  । केवल मनने बहुत अधिक परिश्रम किया था और अंतमें चीजों- को तेजीसे चत्ताया है ।

 

  वहांतक कैसे पहुंचा जाय?... अभिव्यक्तिमें निश्चय ही अवस्थाए होगी, शायद हवा नमूना आये और कहेगा : यह ऐसा है ( माताजी सामने देखती है) । आदमी उसे देखता है ।

 

  जब शुसे मानवका विकास हुआ तो अभिलेखनका कोई साधन न थासारी प्रत्रियाको लिख रखनेकी व्यवस्था न थी -- अब स्थिति बिलकुल भिन्न खै । अव चीज ज्यादा मजेदार होगी ।

 

 ( मौन)

 

 लेकिन वर्तमान अवस्थामें अधिकतर लोग--मानवजातिके बुद्धिवाद वर्गकी. बद्रुत वर्दी संख्या--अपने-आपमें लगे रहनेसे और अपनी प्रगतिके टुकडोसे बृहत स्तुत है ( माताजी एक छोटा-सा चक्र बनाती है) । उसके अंदर ओर किसी चीजके लिये कोई, कोई इच्छा भी नहीं है ।

 

    इसका मतलब है कि अतिमानव सत्ताका आगमन... अलक्षित और अमन खो रह सकता है । कुछ कहा नहीं जा सकता क्योंकि इसका कोई सादृश्य नहीं मैल, स्पष्ट है कि अगर कोई बंदर, बड़े बदरोमेसै कोई बंदर पहले मनुतयसे मिलता तो उसे बस यही लगता कि यह कोई अजीब-सा प्राणी है.. । परंतु अब चीज और ही है, क्योंकि मनुष्य सोचता ओर तर्क करता है ।

 

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   लेकिन जो कुछ मनुष्यसे श्रेष्ठतर है.. । मनुष्यने यह सोचनेकी आदत डाल ही है कि बे सत्ताएं, दिव्य सत्ताएं हैं... यानी, उनके शरीर नहीं है, वे प्रकाशमें प्रकट होती हैं । संक्षेपमें कहे तो उनकी कल्पना की गयी है -- लेकिन यह सब ऐसा है नहीं ।

 

(लंबा मौन)

तो?

तुम्हें विश्वास नहीं हुआ?

तुम कोशिश क्यों नहीं करते?

 

अवश्य! इसीलिये तो मैंने आपसे पूछा था । मैं किसी बात- पर अविश्वास नहीं कर रहा । मैंने आपसे प्रश्न किया । मैंने पूछा था कि यह कैसे किया जाय? मुझे नहीं मालूम यह कैसे किया जाता है... । उदाहरणके लिये, सवेरेके समय, में दाढ़ी बनाता हू, सवेरेके समय आदमी प्रायः मूढ़ और थका-सा होता है, मन काम करनेसे झंकार करता है, प्राण भी काम करनेसे....

 

हां, यह अच्छा मौका है ।

 

निश्चय ही, यही तो मैं करता हू । मैं कहता हू : नहीं, मैं नहीं देखता । मैं नहीं जानता कि उसे कैसे चलाया जाय -- वह हिलता भी नहीं । जबतक कि मैं अपना मन या प्राण या हृदय न लगाऊं तबतक यह नहीं हिलता ।

 

उफ !

 

   में संदेह नहीं कर रहा । मेरा कहना है कि मेरा शरीर गधा है, बहुत संभव है, मुझे संदेह नहीं है ।

 

यह गधा नहीं है, बेचारा! (माताजी हंसती है)

 

   संदेह तो मेरे अंदर नहीं है, पर कैसेका प्रश्न तो है ही । में नहीं जानता ।

 

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मेरे लिये यह प्रश्न कभी उठा हीं नहीं, क्योंकि.. संगीत बजाते समय या चित्र बनाते समय हम भली-भांति देख सकते हैं कि चेतना कोषाणुओंमें प्रवेश करती है और ये कोषाणु सचेतन हों जाते हैं । उदाहरणके लिये, यह अनुभव लो. बक्समें कुछ चीजें है । हाथसे कहा जाता है. ( बिना गिने, यूं ही) '' बारह निकालो' ' । हाथ बारह निकालकर तुम्हें दे देता है । मुझे यह अनुभव बहुत पहले हुआ था; इक्कीस वर्षकी अवस्थामें मुझे ऐसे अनुभव होने लगे थे, इसलिये मैं जानती हू, मैं जानती थी कि चेतना कैसे काम करती है । हां, पियानो या चित्रकारी असंभव है यदि चेतना हाथमें प्रवेश न करे और हाथ, मस्तिष्कसे स्वतंत्र रूपमें सचेतन न हो । मस्तिष्क कही और व्यस्त रह सकता है । उसका कोई महत्व नहिं । इसके अतिरिक्त, यही बात उन लोगोंमें होती है जो नींदमें चलते है.. उनके शरीरमें एक चेतना होती है जो मन और प्राणसे बिलकुल अलग-थलग, शरीरको हिलाती-डुलाती और उससे चीजें करवाती है ।

 

मेरा मतलब यह है कि जब मैं हजामत बनानेके लिये आईनेके सामने होता हू उस समय अगर मैं अपने अंदर कोई मंत्र या हदयसे उठती हुई कोई अभीप्सा न रखें तो एक जड़ कुंदा हजामत करता रहता है, और उसके साथ होता है घूमता हुआ भौतिक मन । लेकिन, अगर मैं कोई मंत्र या मानसिक संकल्प...

 

लेकिन नहीं! अंतमें तो शरीर ही मंत्र बोलता है! और वह भी सहज रूपसे, इतने सहज रूपसे कि अगर तुम अचानक और चीजोंके बारेमें सोचने भी लोग तो भी शरीर मंत्र बोलता रहता है । तुम्हें ऐसा अनुभव नहीं है !

 

         नहीं ।

 

और शरीर ही अभीप्सा करता है, शरीर ही मंत्र बोलता है, शरीर ही प्रकाश चाहता है, शरीर ही चेतना चाहता है -- तुम, तुम भले और चीजों- के बारेमें सोचते रहे : पीटर या पलकें बारेमें या किसी पुस्तकके बारेमें, उसका कोई महत्व नहीं ।

 

   अब मैं बहुत अच्छी तरह समझती हू, बहुत अच्छी तरह, शुरूमें मैं नहीं समझती थी । मैं यह मानती थी कि मुझे इसलिये बीमार किया गया है

 

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ताकि मैं वह जीवन समाप्त कर दु जो मैं नीचे रहते हुए जी रही थीं ।' मैं नीचेके जीवनकी अपेक्षा अधिक व्यस्त जीवन बिताती हू इसलिये... मैंने अपने-आपसे पूछा क्यों? क्या यह संक्रमणकाल था? लेकिन अब मेम समझती हू : अलग होकर, मैं मूर्छित हों जाती थी । इसीलिये डाक्टरने फैसला कर दिया कि मैं बीमार थी, कि मैं मूर्छित हुए बिना एक कदम भी नहीं चल सकती । मैं यहांसे वहांतक चलना चाहती थी, रास्तेमें ही पट! मैं मूर्छित हों गयी; मुझे पकड़कर रखना पड़ता था ताकि शरीर कही गिर न पड़े । पर जहांतक मेरा सवाल दरें, मैंने क्षणभरके लिये भी अपनी चेतना नहीं गंवायी, मैं मूर्छित हुई, पर थी सचेतन । मैं अपने शरीरको देख रही थीं, मैं जानती थी कि मैं मूर्छित हों गयी हू । मैंने चेतना नहीं गंवायी और शरीरने मा चेतना नहीं गंवायी, मैं अब समझ सकती हू : शरीर अकहत्ता था, प्राण और मनसे उसका संबंध कट गया था । वह अपने ही बूतेपर छोड़ दिया गया था; वह केवल शरीर था : उसने जो कुछ जाना था, उसने जो भी अनुभूतियां प्राप्त की थी, सत्ताकी सब अवस्थाओंमें, प्राण और मनमें जो भी प्रभुत्व था वह सब जा चुका था । और यह बेचारा शरीर अकेला छोड़ दिया गया था । तब स्वभावत., थोडा-थोडा करके वह फिरसे रचा गया । फिरसे रचना की गयी, एक सचेतन, पूरी तरह सचेतन सत्ता बनायी गयी ।

 

   हां, मैं समझती हू, समझती हू । यह सचमुच औरोंसे कट गया था । यह मैं जानती हू -- मैंने देखा है -- यह कट गया था, सत्ताकी अवस्थाओंको भेज दिया गया था ''चली जाओ, अब तुम्हारी जरूरत नहीं है ।'' और तब एक नये जीवनके निर्माणकी जरूरत आ पड़ी । अब पहलेकी तरह उच्चतम, सर्वोच्चकी ओर, निराकारकी ओर उत्तरोत्तर जागरणदूरा सभी अवस्थाओंमेंसे गुजरनेकी जरूरत नहीं रही (पुराने योगियोंकी तरह एक-एक पग चढ़नेकी मुद्रा), अब उस- की त्कदम जरूरत नहीं रही । अब होना चाहिये.. (मुद्रा : ऊपर उठती हुई अभीप्सा फूलकी तरह खिलती है) । अंदर कोई चीज खिली थीं, किसी चीजका विकास हुआ था और इसलिये यह मूढ़ मन अपने- आपको व्यवस्थित कर सका, अपनी अभीप्सामें नीरव रह सका; और फिर ... फिर एक सीधा 'संपर्क', बिना किसी मध्यवर्तीके -- सीधा संपर्क और अब वह सारे समय रहता है । सारे समय, सारे समय - सीधा संपर्क ।

 

   इस बीमारीके बाद माताजी ऊपरकी मंजिलमें ही रहा करती थीं ।

 

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ओर यह शरीरके साथ, सब प्रकारकी चीजोंके द्वारा, सत्ताकी सब स्थितियोंमेंसे होकर नहीं, सीधा ।

 

   लेकिन, एक बार यह हो जाय ( श्रीअरविंदने कहा था), एक बार एक अकेला शरीर इसे कर लें तो उसमें यह क्षमता होती है कि वह इसे दूसरों- को भी दे सकें; और अब मैं तुमसे कहती हू (मैं सारी बात और पूरे विस्तारसे नहीं कह रही, संभवत: नहीं), लेकिन यहां-वहां (धरतीपर विभिन्न बिंदु दिखाते हुए बिखेरते मुद्रा) अचानक लोगोंकी एक या दूसरी अनुभूति प्राप्त होती है । ऐसे लोग है ( अधिकतर), ऐसे है जो डरते है, तब स्वभावत: यह चीज चली जाती है -- इसका कारण यह है कि वे अंदरसे काफी तैयार नहीं थे; अगर हर रोजका, एक-एक मिनटका वही तुच्छ-सा कार्यक्रम न हों तो वे डर जाते है; और एक बार डर जायं तो खतम । इसका मतलब होगा कि उस चीजको वापिस लानेके लिये फिर बरसोंकी तैयारीकी जरूरत होगी । लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो नहीं डरते, अचानक एक अनुभूति - ''आहा!... '' अचानक एकदम नयी चीज, एकदम अप्रत्याशित, जिसके बारेमें उन्होंने कभी सोचातक न था ।

 

    यह चीज संक्रामक है, मैं जानती हू, यही एकमात्र आशा है । अन्यथा यदि हर एकको फिर-फिर उसी अनुभूतिमेंसे गुजरना पड़े... । हां, अब मैं नब्बेकी हू -- नव्बेकी अवस्थामें लोग थक जाते है । वे जीवनसे ऊब जाते है । यह सब करनेके लिये तुम्हें बालककी तरह तरोताजा होना चाहिये ।

 

     इसमें बहुत समय लगता है । मैं भली-भांति देख सकती हू कि इसमें बहुत समय लग गया है ।

 

   और फिर अभी यह पूरा नहीं हुआ है, किया जा रहा है, लेकिन अभी हुआ नहीं है, अभी हम उससे दूर, काफी दूर है ।.. सचेतन कोषाणु कितने प्रतिशत है? पता नहीं ।

 

   और समय-समयपर वै दूसरोंको डांटना शुरू करते है । यह बहुत मजेदार है! वे डाटते है, उन्हें पकडू लेते है और फिर अपने ढंगसे उनसे मूर्खता-भरी बातें कहते है । जो चाहते हैं ( माताजी एक छोटा-सा चक्र बनाती है), जो पुरानी आदतोंको जारी रखना चाहते हैं, पाचन अमुक प्रकारसे होना चाहिये, रक्त-संचार अमुक प्रकारसे होना चाहिये और श्वासोवास अमुक प्रकारसे... । सभी क्रियाएं प्रकृतिकी पद्धतिसे करनी चाहिये, और जब ऐसा नहीं होता तो वे चिंतित हों उठते है । तब, जो जानते हैं वे उन्हें पकडू लेते हैं और भगवान्के नामसे उनपर अच्छी बौछार करते तैश । यह बहुत मजेदार है ।

 

कोई चीज शब्दोमें अनूदित की जाती है (वह बिना शब्दोंके होती है, पर कुछ चीज शब्दोमें अनूदित की जाती है), और तब कोषाणुओंमें वार्तालाप होता है (माताजी हंसती है) : ''क्या मूर्ख हों तुम! तुम क्यों डरते हो? क्या तुम नहीं देख पाते कि स्वयं भगवान् तुम्हें रूपांतरित करनेके लिये यह कर रहे हैं?'' और तब वह दूसरा. आह.. वह चुप हुए जाता है, अपने-आपको खोलता है और आशा लगाता है और तब... पीड़ा चली जाती है, अव्यवस्था चली जाती है और सब कुछ ठीक हों जाता है ।

 

    यह अद्भुत है!

 

   लेकिन अगर दुर्भाग्यवश मन आ जाता है, सहायता करना या मूल्यांकन करना शुरू करता है तो सारी चीज ठप्प हो जाती है, पुरानी आदतोंमें जा गिरती है ।

 

 (लंबा मौन)

 

    वास्तवमें प्राणिक, मानसिक आदि अहंकारको फट... निकाल दिया गया ।

 

    यह आमूल क्रिया थीं ।

 

     तो अब, एक प्रकारका लोच है, नमनीयता है और वह सब सीख रहा है -- समग्रके साथ बहुत कुछ संपर्क रखते हुए ( क्षैतिज मुद्रा), अपना सारा संबल, अपना सारा संकल्प और यह सब इस तरह ( परम प्रभुकी ओर ऊर्ध्वस्थ मुद्रा), बिलकुल इस तरह, असाधारण नमनीयताके साथ खोजना सीख रहा हे ।

 

    और तब दिव्य उपस्थितिका वैभव !

 

९१

२९ नवंबर, १९६७ (प्रासंगिक)

 

    २४ नवंबरके दर्शनके बारेमें ।

 

    मेरे पास दर्शनके दिन लिये गये कुछ नये फोटो आये है । ये टेलेस्कोप कैमरासे लिये गये हैं । इन्हें बड़ा नहीं किया गया, जैसे लिये गायें थे वैसे हीं हैं ( माताजी शिष्यको कुछ फोटो दिखाती है) ।

 

    पता नहीं, हर दर्शनपर मुझे लगता है कि मैं एक अलग हीं व्यक्ति हूं

 


और जब मैं अपने-आपको इस तरह वस्तुनिष्ठ तरीकेसे देखती हू तो हर बार एक नये व्यक्तिको पाती हू । कमी एक बूढ़ा चीनी, कमी श्रीप्ररविंदका एक स्थानान्तरित रूप, एक छिपे हुए श्रीअरविद और फिर कमी कोर्स ऐसा व्यक्ति जिसे मैं भली-भांति जानती हू, पर वह यह नहीं है : एक बार मैं ऐसी थी । यह चीज मेरे साथ कई बार हों चुकी है ।

 

       लेकिन वहां भी, मुझे ऐसा लगता है कि कोई... आप सामान्यत: जो होती हैं उससे बिलकुल भिन्न व्यक्ति हैं ।

 

ऐसा है न?

 

      और मुझे लगता है कि कोई ऐसी चीज है जिसे मैं जानता हूं ।

 

 हां मुझे भी ठीक ऐसा ही लगता है । मैं उसे देखती हूं : और कहती हूं : मैं इस व्यक्तिको भली-भांति जानती हूं-- लेकिन उसका इस शरीरके साथ कोई संबंध नहीं है ।

 

       जी हां, ऐसी चीज जिसे मैं जानता हूं ।

 

वास्तवमें, तुम भली-भांति जानते हों, लेकिन वह यह नहीं है (माताजी अपने शरीरकी ओर इशारा करती हैं); वह यहां नहीं है, लेकिन है सुपरिचित!

 

    मालूम नहीं क्यों, यह मुझे एक चित्रकारकी याद कराता है ।

 

 तुम ठीक नहीं जानते, यह पुरुष है या स्त्री? तुम्हें ठीक नहीं मालूम ।

 

    मैंने अपने-आपसे पूछा कि यह कोई ऐसी सत्ता तो नहीं जो धरतीके भौतिक जगत् से भिन्न कहीं रहती हों? क्योंकि यह... मैं जानती हू, परंतु शारीरिक संवेदनकी घनिष्ठताके द्वारा नहीं; हां, यह कोई ऐसा व्यक्ति है जिसे मैं भली-भांति जानती हू, जिसे मैंने प्रायः देखा है ।

 

     मुझे लगता है कि कोई ऐसा व्यक्ति है जिसे मैं पहले भी देख चुका हू ।

 


हां, लेकिन मुझे पता नहीं कि तुमने इसे इसी जगत् में देखा है । (एक और शिष्यकी ओर मूतते हुए) तुम नहीं जानते इस व्यक्तिको?

 

           यह वही माताजी नहीं है!

 

       हां... शायद यह एक- चित्र है, शायद तुम ठीक हों । लेकिन कौन- सा? मैं नहीं जानती ।

 

      कोई ऐसा व्यक्ति जो मेरे लिये बहुत परिचित है, लेकिन.. । अगर मुझसे कहा जाय कि यह कोई ऐतिहासिक व्यक्ति है तो मुझे आश्चर्य न होगा ।

 

       यह बहुत अजीब है । यह ज्यादा-ज्यादा ऐसा ही होता है । जैसे-जैसे शरीर आंतरिक लयको पकड़ता जाता है, यह चीज बढ़ती जाती है ।

 

       यह भौतिक नहीं हों सकता ।

      यह क्या है? एक दिन हमें पता लगेगा...

 

                 यह बहुत परिचित है ।

 

 हां, पर मुझे लगता है कि कोई ऐसा व्यक्ति है जिसे मैं बहुत घनिष्ठताके साथ जानती हू, जिसके साथ मैं शायद रह मी चुकी हू, पर यह मैं नहीं, समझे समझे? यानी, शरीर कहता है. ''यह मैं नहीं हू ।'' अंदर बिलकुल भिन्न हैं : यहां मैं-तुम है ही नहीं । इस सबका अस्तित्व ही नहीं है; लेकिन शरीर, इसमें अभी यह सब है । वह कहता है. ''यह मैं नहीं हू । यह कोई ऐसा व्यक्ति है जिसे मैं भली-भाति जानता हू, अच्छी तरह जानता हू, लेकिन यह मैं नहीं हूं ।',

 

          छज्जेपर ऐसा क्यों होता है ?

 

दो बातें हो सकती है । शायद मूल चेतनाने किसी पिछले जन्ममें अपने- आपको दोहरा कर लिया था (यह कई बार हो चुका है), और एक ही समय दो अलग-अलग शरीरोंमें प्रकट हुई है; और इस तरह स्वाभाविक हीं एक घनिष्ठता आ गयी, संभवत: जीवनमें अंतर्मिश्रण मी हो गया -- यह एक भौतिक घटना हों सकती है । लेकिन यह भी हो सकता है कि

 

     माताजी छज्जेपर खड़ी होकर दर्शन दिया करती थी ।

 


कोई कहीपर एक स्थायी रूपमें रहता है और उस जगत् में हमारा उस के स ( थ लगभग स्थायी संपर्क है ( अधिमानस, अति मा नस य को ई और जगह), और इस का संवेदन अंदर है : '' हां, मैं जानती हू । इन दोनोंमें कोई एक बात हो सकती है । अभीतक मुझे नहीं मालूम कि कौन-सी ।"

 

    ( कुछ देर मौन रहकर) यह ठीक-ठीक आकारकी जगह चेहरेका भाव, एक प्रकारका स्पंदन, एक वात  ण है । हां, कोई कहींपर स्थायी हमसेनि वास करता होगा जिस के स थ हमारा संपर्क हैं ।

 

    और इस सें यह बात भी स मझमें आती है कि हमें यह पता नहीं लगता कि वह रत्र है य पुरुष शायद यह अलैगिक जगत् की सत्ता है जहां न पुरुष होता है न स्त्री ।

 

 ( मौन)

 

       स्वयं शरीरको संवेदनसे कुछ अधिक.. एक प्रकारका ज्ञान -- बल्कि शानसे भी बढ़कर, यह एक तथ्य है. ऐसी बहुतेरा, बहुत-सी सत्ताएं हैं, शक्तियां है, व्यक्तित्व है जो अपने-आपको इसके द्वारा अभिव्यक्त करते हैं । कभी-कमी तो एक ही समयपर कई-कई । हम जानते है कि यह एक बहुत ही सामान्य-सी अनुभूति है, उदाहरणके लिये, श्रीअरविद होते है । वे बोलते और देखते हैं । उनका देखनेका अपना तरीका है और अपने- आपको व्यक्त करनेका अपना ही तरीका है । यह बहुधा होता है । और फिर, बहुत बार दुर्गा या महाकाली या.. बहुत बार । प्राय. कोई सत्ता बहुत ऊंचाईसे, बहुत स्थायी -- बहुत स्थायी -- अपने-आपको प्रकट करती है और फिर कमी-कमी संतानें एक प्रकारका निरपेक्ष आ जाता है । कभी-कमी उसके निकटस्थ लोककी सत्ताएं अपनी अनुभूति करवाती है, वे अपने-आपको व्यक्त करती है, लेकिन वह चीज नियंत्रणमें रहती है ।

 

     शरीरको इसका अभ्यास है ।

 

     और अजीब बात तो यह है कि इस बार २४ नवंबरको जब मैं छज्जे- पर गयी, तो कोई.. (और यह समय-समयपर हुआ करता है और अब ज्यादा-ज्यादा होता है) कोई मानों शाश्वतके लोकसे देखता है, बहुत ही हितैषिताके साथ, उसमें (मुझे मालूम नहीं कैसे कहा जाय, हितैषिताके जैसी कोई चीज), लेकिन पूर्ण शांत-स्थिरताके साथ जो लगभग उदासीनता जैसी है और दोनों मिलकर ऐसे देख रही हैं (माताजी बहुत नीचे लहरेंसी बनती हैं), मानों उसे बहुत दूरसे, बहुत ऊंचाईसे देखा जा रहा है, बहुत... कैसे कहूं? एक बिलकुल ही आंतरिक दृष्टिसे देखा जा रहा

 

है । जब मैं छज्जेपर बाहर आयी तो मेरा शरीर इसका अनुभव कर रहा था । शरीर कह रहा था ' 'मुझे अभीप्सा करनी चाहिये, अभीप्सा होनी चाहिये, ताकि शक्ति इन सब लोगोंपर उतर सके । '' और वह यूं था ' ( ऊपरकी ओर तेजीसे उठता हुआ संकेत) । ओह! बहुत ही हितैषी, पर एक प्रकारकी उदासीनताके साथ -- शाश्वतताकी उदासीनता, मुझे नहीं मालूम कि इसे कैसे कहा जाय । और इस सारेको शरीर इस 'तरह अनु- भव करता है मानों कोई उसका उपयोग कर रहा है ।

 

   इसीलिये मुझे इन चित्रोंमें रस है, इनसे चीज वस्तुनिष्ठ हो जाती है । हमें पता लगेगा ।

 

३० दिसंबर, १९६७ (प्रासंगिक)

 

         यह एक मजेदार अनुभव है : कैसे वही क्रियाएं, वही कार्य, वही अवलोकन, दूर और नजदीकके वातावरणके साथ वही संबंध मनमें बुद्धिके दुरा और चेतनामें अनुभूतिके दुरा आते है । शरीर अब बुद्धिके मानसिक शासनके स्थानपर चेतनाके आध्यात्मिक शासनको लाना सखि रहा है । (यह यूं तो कुछ नहीं दिखता, शायद तुम्हारा ध्यान भी न जाय) इससे बहुत बड़ा फर्क पड़ता है, यहांतक कि इससे शरीरकी संभावनाएं सोगुनी हों जाती हैं... । जब शरीर नियमोंके आधीन होता है, वे चाहे विस्तृत हों, और चाहे वे व्यापक क्यों न हों, वह इन नियमोंका दास रहता है और उसकी संभावनाएं इन नियमोंमें सीमित रहती है । त्वेकिन जब उसपर 'आत्मा' और 'चेतना' का राज होता है तो उसमें अतुलनीय संभावना और नम्यता आ जाती है और यही चीज उसे दीर्घायुष्य करनेकी, जीवन- की अवधि बढ़ानेकी क्षमता देगी : इसका अर्थ है मनके बौद्धिक प्रशासनकी जगह 'आत्मा' के, 'चेतना' के प्रशासनको, 'चेतना'को बिठाना । बाहरसे इसमें कोई विशेष फर्क नहीं दिखायी देता, लेकिन... मेरा अनुभव है (क्योंकि अब मेरा शरीर बुद्धिका या मानसका कहा नहीं मानता -- एकदम नहीं -- उसकी समझमें नहीं आता 'कि यह कैसे हों सकता है), वह अधिकाधिक और ज्यादा-सें-ज्यादा अच्छे रूपमें दिव्य चेतनाके पथ-प्रदर्शन, उसकी प्रेरणाका अनुसरण करता है । और तब वह देखता है, प्रायः हर क्षण देखता है कि इससे कितना बड़ा फर्क पड़ा है.. । उदाहरणके
 


लिये समय अपना मूल्य, निश्चित मूल्य खो बैठा है, ठीक वही चीज कम समयमें या अधिक समयमें की जा सकती है । आवश्यकताएं मी अपना अधिकार खो बेटी है । व्यक्ति अपने-आपको इस या उसके अनुकूल बना सकता है । हम कह सकते हैं कि समस्त विधान, प्रकृतिके समस्त विधान अपना एकाधिकार (वों चुके हैं । अब चीज पहले जैसी नहीं है । इतना काफी है कि वह हमेशा, हमेशा लचीला, जाग्रत् और... (अगर उसका अस्तित्व है) दिव्य चेतनाके प्रभावके प्रति संवेदनशील हों -- सर्वशक्तिमान चेतनाके प्रति -- ताकि असामान्य नमनीयताके साथ सबमेंसे गुजर सके ।

 

    यह खोज अधिकाधिक की जा रही है ।

     यह अद्भुत है, है न, अद्भुत खोज है ।

 

    यह सभी अनिवार्यताओंपर उत्तरोत्तर विजय है । इस प्रकार स्वभावत: प्रकृतिके सभी विधान, सभी मानव विधान, सभी आदतें, सभी नियम, सदी लचीले होना शुरू करते हैं और अंतमें गायब हो जाते हैं । फिर मी, व्यक्ति एक ऐसी लय रख सकता है जो क्रियाको सरल बना दे -- वह लचीलेपनके विरुद्ध नहीं होती । कार्यान्वयनमें, अनुकूलनमें जो लचीलापन आता है वह सब कुछ बदल देता है । स्वस्थ वृत्तकी दृष्टिसे, स्वास्थ्यकी दृष्टिसे, संगठनकी दृंष्टिसे, औरोंके साथ संबंधकी दृष्टिसे इन सबकी आक्रमणशीलता चली गयी  (स्वस्थ चित्त होना ही काफी है, चित्त संतुलित और शांत होनेसे ही इन सबकी आक्रमणशीलता चली जाती है), बल्कि साथ ही निरंकुशता, अनिवार्यताका शासन, आदि सब-के-सब चले गये हैं ।

 

   तो हम देखते है : जैसे-जैसे प्रक्रिया अधिकाधिक पूर्ण होती जाती है -- पूर्णका मतलब है समग्र, समूचा, जिसमें कुछ मी पीछे छूट न जाय -- यह निश्चित और अनिवार्य रूपसे मृत्युपर विजय होती है । इसका यह मतलब नहीं है कि कोषाणुओंका विलयन, जो मृत्युका प्रतीक होता है, नहीं रहता । लेकिन वह तभी रहेगा जब वह जरूरी हों, एक निरपेक्ष नियमके रूपमें नहीं, जब जरूरी हों तो एक प्रक्रियाके रूपमें ।

 

    और सबसे बढ़कर यह : 'मन' जिन चीजोंको कठोर, निरंकृउश और लगभग अपराजेय रूपमें लाया है... वे सब गायब हो जायगी । और यह सब सिर्फ परम शक्तिको परम चेतनाके सुपुर्द कर देनेसे हो जायगा ।

 

    शायद जब प्राचीन द्रष्टा प्रकृतिकी शक्ति पुरुषके अर्पण करनेकी, उसे प्रकृतिसे पुरुषमें स्थानान्तरित करनेकी बात कहते थे तो शायद यही मतलब होता था । शायद वे इसी बातको यूं  कहते थे ।

 

९७

१३ मार्च, १९६८

 

१९५३ की एक पुरानी वार्ताके बारेमें जिसमें

माताजीसे किसी शिष्यने पूछा था कि ''क्या

भगवान् अपने-आपको हमसे अलग खींच सकते

हैं'', माताजीने उत्तर दिया था.

 

 ''यह असंभव है, क्योंकि अगर भगवान् अपने-आपको किसी चीजसे अलग कर लें तो वह तुरंत समाप्त हो जायेगी, क्योंकि उसका अस्तित्व ही न रहेगा । ज्यादा स्पष्ट कहे तो : भगवान् ही एकमात्र सत्ता हैं ।''

 

(मई २७, १ ९९५३)

 

 अब में' यह जवाब देती : यह तो ऐसा है जैसे तुम मुझसे पूछो कि क्या भगवान् अपने-आपको अपनेसे खींच सकते है! (माताजी हंसती है) मुश्किल तो यही है जब हम ''भगवान्''की बात करते है तो लोग ''देव'' समझ लेते है... । केवल 'वही' है : केवल 'उसी' का अस्तित्व है । वह क्या है? बस, 'उसी 'का अस्तित्व है!

 

 ( मौन)

 

    आज सवेरे ही की बात है, मै' अवलोकन कर रही थी, मै देख रही थी और मानों भगवान्से कह रहीं थी : ''तुम अपना ही निषेध करनेमें क्यों मजा लेते हो? '' है न, तर्कसंगत तृप्तिके लिये हम कहते है : वह सब जो अंधकारमय है, वह सब जो कुरूप है, वह सब जो जीवित नहीं है, वह सब जो सामंजस्यपूर्ण नहीं है, वह भगवान् नहीं है -- लेकिन यह संभव ही कैसे है?.. यह केवल क्रियाके लिये एक मनोवृत्ति है । तब अपने-आपको क्रियाकी वृत्तिमें रखकर मैंने पूछा : ''तो इस तरहका होनेमें ही क्यों मजा लेते हो? '' (माताजी हंसती है) ।

 

     यह कोषाणुओंका बहुत ठोस अनुभव था और इस भावनाके साथ (भावना नहीं, भावना या संवेदन नहीं), एक प्रकारका प्रत्यक्ष दर्शन था कि तुम ठीक, उस महान् रहस्यकी ठीक सीमापर हो.. और अचानक कोषाणुओंके एक समूह-विशेषने या शारीरिक क्रिया-विशेषसे संवद्ध कोष

 

९८


णुओंने अपने-आपको आडे डालनेकी ठानी । क्यों? इसका क्या अर्थ है? और उत्तर था... यह ऐसा था मानों वह सब सीमा तोड़नेमें सहायता दे रहा था ।

 

        लेकिन क्यों? कैसे?...

 

   तुम मनसे हर चीजकी व्याख्या कर सकते हों, लेकिन उसका कोई अर्थ नहीं होता : शरीरके लिये, द्रव्यात्मक चेतनाके लिये वह एक अमूर्त चीज होती है । जब द्रव्यात्मक चेतना किसी चीजको पकडू लेती है तो वह चीजको मनसे जाननेकी अपेक्षा सैकड़ों गुना ज्यादा अच्छी तरह जानती है । और जब वह जानती है तो उसमें शक्ति होती है : जाननेसे शक्ति आती है । और वह धीरे-धीरे, धीरे-धीरे अपना विस्तार करती है । और अज्ञानमय चेतनाके लिये : धीरे-धीरे, कष्टके साथ । लेकिन सत्य चेतनाके लिये बात ऐसी नहीं होती; पीड़ा और हर्ष., यह सब, चीजोंको देखने... चीजोंको देखने, उन्हें अनुभव करने. का एक बड़ा बेतुका तरीका है ।

 

      एक अधिकाधिक मूर्त्त प्रत्यक्ष दर्शन है कि ऐसी कोई चीज नहीं है जिसमें सत्ताका आनन्द न हो क्योंकि यही सत्ताका तरीका है : सत्ताके आनन्दके बिना सत्ता नहीं होती । लेकिन मनुष्य मानसिक रूपसे जिसे सत्ताका आनन्द समझते है यह वह नहीं है । यह ऐसी चीज है... जिसे कहना कठिन है । और पीड़ा और हर्षका यह अनुभव, प्रायः शुभ और अशुभका अनुभव, यह सब, कार्यकी आवश्यकताएं है जिनसे निश्चेतना- की समष्टिमें काम हों सके । क्योंकि सत्य चेतना एक बिलकुल ही भिन्न, एकदम भिन्न वस्तु है । इन कोषाणुओंकी चेतना अब ठोस अनुभवके द्वारा यही सीख रही है और ये सब मूल्यांकन कि क्या अच्छा है और क्या बुरा, कष्ट क्या है और आनन्द क्या, ये सब हुए जैसे मालूम होते हैं । लेकिन अभीतक 'वस्तु' -- 'सत्य', 'मूर्त ठोस वस्तु' पकडूमें नहीं आयी । वह रास्तेमें है, ऐसा लगता है कि वह रास्तेमें है लेकिन अभीतक आयी नहीं । अगर वह होती तो... व्यक्ति सर्वशक्तिमान प्रभु बन जाता । और यह संभव है कि वह तमी प्राप्त हों सकती है जब समस्त संसार या उसका काफी वहां भाग रूपांतरके लिये तैयार हों ।

 

     यह एक अनुमान है, तुम इसे आंतरिक प्रेरणा कह सकते हो, लेकिन यह अभीतक उच्चतर क्षेत्रकी चीज है ।

 

    समय-समयपर मानों सर्वशक्तिमत्ताका ठीक स्पर्श-सा होता हैं : व्यक्ति ठीक बिन्दुपर होता है, आह! (माताजी वस्तुको पकड़नेकी मुद्रा करती है)... लेकिन वह निकल जाती है ।

 

     व्यक्तिको यह प्राप्त हो जानेपर संसार बदलने योग्य हों जायगा ।

 

जब मैं व्यक्ति कहती हू तो मेरा मतलब किसी व्यक्ति विशेषसे नहीं होता... यह शायद 'पुरुष' का पर्याय हैं, लेकिन... उसके बारेमें भी मुझे विश्वास नहीं है कि यह हमसे परेकी किसी चीजपर हमारी चेतनाका कोई प्रक्षेपण तो नहीं है ।

 

     श्रीअरविद हमेशा कहा करते थे कि अगर हम काफी दूर निकल जायं निर्गुणके परे, अगर हम और भी आगे जायं तो कोई ऐसी चीज जायंगे जिसे हम 'पुरुष' कह सकते है, परन्तु वह उस पुरुषके साथ जरा मी मेल नहीं खाती जिसकी हम कल्पना कर सकते है ।

 

   तो फिर केवल एक ही तत् है, और उस तत् में हीं शक्ति है, लेकिन जब हम कहते है. ''केवल तत् है,'' (हंसते हुए) तो हम उसे किसी और चीजमें बीठा देते है...! शब्द, भाषाएं किसी ऐसी चीजको व्यक्त करनेमें असमर्थ है जो चेतनाके परे है । जैसे ही तुम सूत्र बनाते हों वह नीचे उतर आती है ।

 

९९

१६ मार्च, १९६८

 

       सारे समय तुम्हें ऐसा लगता है -- सारे समय -- कि तुम किसी महान् शोधके मार्गपर हों और तब तुम शोध करते हों और तुम्हें पता लगता है कि यह तो हमेशा ही थी... तुम बस उसे किसी और तरीकेसे देख रहे हों ।

 

    आज सवेरे एक अनुभूति हुई । ऐसा लगा मानो कोई असामान्य अन्त:- प्रकाश था ।... परंतु यह ऐसी चीज थी जो हमेशा ज्ञात रही है । अब तुम उसे मानसिक रूप देते हों; मानसिक रूप देते ही वह हो जाती है, लेकिन वह वही चीज नहीं रहती जो पहले थी । हम कह सकते हैं कि यह सृष्टि ''संतुलनकी सृष्टि''' है, और यह केवल एक मानसिक भूरा

 

    'यहां हम माताजीकी एक पहलेकी टिप्पणीको याद कर सकते है:

 

      ''परंपराओंके अनुसार सृष्टि पैदा होती है और फिर उसका लय हो जाता है, और फिर एक नयी सृष्टि होती है । हमारी सस्ती सातवीं है और सातवीं होनेके कारण यह प्रलयमें न लौटेगी, बल्कि सदा आगे बढ्ती रहेगी, कमी पीछे न हटेगी ।''

 

        ( श्रीमातृवाणी,  खण्ड ४, प्रश्न और उत्तर १९५०-५१ पृ० ३३६)
 


हे जो एक चीजको चुनना और दूसरीको त्यागना चाहती है । सभी चीजोंको एक साथ रहना चाहिये जिसे तुम शुभ कहते हो और जिसे तुम अशुभ कहते हों, जिसे तुम उचित कहते हो और जिसे अनुचित कहते हों, जो तुम्हें मनोहर लगता है और जो तुम्हें अप्रिय लगता है उस सबको एक साथ होना चाहिये । और आज सवेरे 'पार्थक्य' की शोध थीं । वह 'पार्थक्य' जिसका नाना प्रकारसे अलग-अलग तरह वर्णन किया गया है, कभी कहानीकी तरह, कभी शुद्ध निरपेक्ष रूपमें, कमी दार्शनिक रूपमें और कमी. ये सब केवल व्याख्याएं है । लेकिन कुछ चीज है जो संभवत: केवल 'वस्तुनिष्ठ' बनाना है (माताजी अव्यक्तमेसे सृष्टिको बाहर निकालनेकी मुद्रा करती है), लेकिन यह भी समझानेका एक तरीका है । यह तथाकथित 'पार्थक्य', आखिर सचमुच है क्या? पता नहीं, या शायद जानता है, मै नहीं जानती । यह ठीक वही है जिसने (हम इसे रंगकी भाषामें कहे तो) काले और सफेद, दिन और रातकी रचना की (यह तो पहले ही मिश्रित वस्तु है, लेकिन काला-सफेद, भी तो मिश्रित हैं) । साधारण ब्रुती हैं दो ध्रुव कय वस्तु, शुभ वस्तु अ अ वस्तु, अशुभ वृत्त है और प्रियवस्तु । लेकिन जैसे ही तुम 'आदि स्रोत'की ओर मुड़नेकी कोशिश करते हो, दोनों आपसमें मिलने लग जाते है । हम जिस प्रख्यात विजयको पाने- की कोशिश कर रहे है वह पूर्ण सन्तुलनमें है जहां कोई विभाजन संभव  नहीं रहता, जहां एक दूसरेको प्रभावित नहीं करता, जहां दो मिलकर गोकि हीं बनते बे । और यह है वह प्रख्यात पूर्णता जिसे हम फिरसे पानेकी कोशिश करते है ।

 

एकको स्वीकारना और दूसरेको त्यागना बचकानी बात है । यह अज्ञान है । और सनी मानसिक अनुवाद, जैसे यह मानना कि एक ''अशुभ'' हैं जो सर्वदा अशुभ रहेगा -- जिससे नरकका विचार आया; और ऐसा 'शुभ' जो सदा-सर्वदा शुभ रहेगा... ये सब-की-सब बचकानी बातें है ।

 

 ( मौन)

 

 हो सकता है (हो सकता है, क्योंकि जैसे हीं तुम रूप देने लगते हो, तुम चीजको मानसिक बना देते हो और जैसे ही मानसिक बनाते हो, वह वट जाती है, न्यून और सीमित हों जाती है और सत्यकी शक्ति खो बैठती है, और अनंतमें...) इस विश्वमें, जैसा कि यह बना हुआ है, पूर्णता... (माताजी कासी देरतक अन्तर्लीन रहती है) शब्द काम नहीं देते । यूं कहा (ना सकता है, है तो शुष्क और निर्जीव. समग्रकी एकताकी चेतना

 

१०१


व्यक्तिमें अनुभव होती, जीवनमें लायी जाती और सिद्ध की जाती है । लेकिन यह सब कृउछ नहीं है, ये शब्द-ही-शब्द है और कुछ नहीं. । ऐसा लगता है कि विश्व इसीलिये बनाया गया था कि वह समग्रकी इस सजीव ( केवल दृश्य ही नहीं बल्कि जी हुई), चेतनाकी इस पहेलीको हर भागमें, समग्रकी रचना करनेवाले प्रत्येक तत्वमें उपलब्ध किया जा सकें ।

 

     जब इन तत्वोंके निर्माणकी बात आती है, यह 'पृथक्ता'से शुरू हुआ और 'पृथक्ता'ने ही उन चीजोंको जन्म दिया जिन्हें हम शुभ और अशुभ कहते है; लेकिन संवेदनकी दृष्टिसे -- सबसे अधिक द्रव्यात्मक भागमें संवेदन -- हम कह सकते है कि यह पीड़ा और 'आनन्द' है । तो अब समस्त पार्थक्यको बंद करके प्रत्येक भागमें समग्र चेतनाको प्राप्त करनेकी ओर गति है ( जो मानसिक दृष्टिसे वाहियात बात है, लेकिन यह है ऐसा ही) ।

 

     मेरी रुचिके लिये, यह बहुत ज्यादा दार्शनिक है, यह काली ठोस नहीं है, लेकिन आज सवेरेकी अनुभूति ठोस थी, वह शरीरके अत्यंत ठोस संवेदनोंसे आयी थी -- ( आभासमें) इस नित्य द्वैतसे, एक विरोध ( केवल विरोध नहीं, तुक्के द्वारा स्वसा रेंक निषेधसे). हम कष्ट और 'आनन्द'को प्रतीकके रूपमें ले सकते है । लेकिन सच्ची अवस्था तो वह है जिसे अभी तो शब्दोंमें उतारना असंभव मालूम होता है, लेकिन जिसे जिया और अनुभव किया जाता है, वह एक ऐसी समग्रता है जिसके अंदर सब कुछ आ जाता है, लेकिन छ्क-दूसरेसे संघर्षरत तत्वोंको अपने अंदर समानेकी जगह उसमें सबका समन्वय, सबका सन्तुलन है । और जब सृष्टिमें सन्तुलन चरितार्थ हो जायेगा तो यह सुष्टि.. ( अगर शब्द कहे जायं तो फिर वह चीज नहीं रहती) हम कह सकते है : बिना रोकके प्रगति करती रह सकेगी । ऐसा नहीं है ।

 

        इन दिनों वर्तमान अपूर्ण चेतनामें एक स्थिति बार-बार देखी गयी ( लेकिन वह सब समग्रके द्वारा विधि पुरःसर रूपमें इस तरह संगठित जो हमारी कल्पनासे अनन्तगुना अधिक श्रेष्ठ है), ऐसी स्थिति जो सन्तुलनके भंग होनेसे यानी, रूपके विलीन होनेसे आती है, जिसे साधारणत: '' मृत्यु' ' कहते हैं -- इस स्थितिकी अनंतिम सीमातकका प्रदर्शन और साथ-ही-साथ वह स्थिति ( प्रत्यक्ष दर्शन नहीं : स्थिति) जो सन्तुलन-भगको रोकती और बिना भंग हु ए लगातार प्रगतिको जारी रखती है । और यह शारीरिक चेतना में एक युगपत अनुभव देती है -- विलीन होनेकी यातनाका चरम अनुभव ( यद्यपि यह ठीक वह चीज नहीं है, फिर मी), और ऐक्यका चरम आनन्द -- दोनों एक साथ, युगरात् ।

 

      अगर साधारण शब्दोंमें कहा जाय. रूपकी चरम भंगुरता -- भंगुरतासे भी बढ़कर -- और रूपकी नित्यता ।

 

१०२


     और यह केवल ऐक्य नहीं, संयोजन (धूल-मिल जाना), दोनोंका एक हो जाना है, और यहीं सत्य है ।

 

     जब इसे मानसिक रूप दिया जाय तो यह हर एकके लिये स्पष्ट हों जाता है -- परंतु अपनी तात्विक विशेषताको खो बैठता है जिसे मानसिक रूप नहीं दिया जा सकता ।

 

 क्या दोनों स्थितियोंकी चेतनाको युगपत होना चाहिये?

 

... विभक्त नहीं । दोनों स्थितियोंका ऐक्य ही सच्ची चेतनाको बनाता है, दोनोंका एउक्य -- ''ऐक्य'' मै फिर मी विभाजन रहता है -- दोनोंका तादात्म्य ही सच्ची चेतना बनाता है और तब व्यक्तिको ऐसी अनुभूति होती है कि यह चेतना ही परम शक्ति है । शक्ति विरोधों और निषेधोंके द्वारा सीमि त रहती है, है न : सबसे अधिक शक्तिशाली शक्ति वह है जो सबसे अधिकपर शासन करती है या छायी रहती है; लेकिन यह पूरी तरह अपूर्णता है । फिर भी एक सर्वशक्तिमान् शक्ति है जो इन दोनोंके संयोगसे बनाती है । वह निरपेक्ष शक्ति है । और अगर वह भौतिक रूरामें उपलब्ध हों सके. तो संभवत: वह समस्याका अंत होगा ।

 

    वास्तवमें, आज सवेरे कुछ घंटोंके लिये जब मैं उस अवस्थामें रही तो ऐसा लगता था कि हर चीजपर अधिकार हो गया है, हर चीज समझ ली गयी है,-- यहां ''समझना'' उस बोध या परिज्ञानके अर्थमें है जो निरपेक्ष शक्ति है । लेकिन स्वभावतः, यह नहीं कहा जा सकता ।

 

    शायद लोगोंको इसका अनुभव या अनुभवका स्पर्श मिला होगा जिसे उन्होंने इन शब्दोंमें रखा कि यह जगत् संतुलनका जगत् है; यानी, यह ऐसी युगपत्ता है जिसमें समस्त विरोधोंका विभाजन नहीं है । जैसे ही जरा-सी भिन्नता आती है -- भिन्नता मी नहीं, जरा-सा अंतर आता है -- कि विभाजनका आरंभ हो जाता है । और जो कुछ वह स्थिति नहीं है वह शाश्वत नहीं हो सकता; वही स्थिति है जो... न केवल शाश्वतताको समाये रहती है, बल्कि (या क्या?) उसे प्रकट भी करती है ।

 

     बहुत प्रकारके दर्शनोंने इसे समझानेकी कोशिश की है, फिर भी वह हवामें है, वह मानसिक है, अनुमानपर आधारित है । लेकिन वह जिया जाता है -- ''जिया जाता है'', यहां जीनेका मतलब है ''वही होना'' ।

 

    क्या यह उस मानसिक प्रत्यक्ष दर्शनका भौतिक रूप है जिसमें

 

      अशुभका बोध परम शुभके बोधमें अशुभके अंदर भी उसीके बोधमें गायब हो जाता है?

 

हां, यह वही है । यह कहा जा सकता है कि केवल मानसिक विचार रहनेकी जगह यह तथ्यकी ठोस उपलब्धि है ।

 

१०३

प्रासंगिक (२२ अगस्त, १९६८)

 

माताजीकी लिखी हुई एक टिप्पणीके बारेमें

जिसमें उन्होंने उस अग्नि-परीक्षाका जिक्र किया

था जो उनके जीवनके लिये संकटकारी थी ।

 

       डाक्टरने सलाह दी है कि अपने-आपको मत थकाओ । कौन-सी चीज थकाती है? केवल वही जो व्यर्थ हों ।

 

   सच्चे निष्कपट लोगोंसे मिलना, जिन्हें इससे लाभ होता हो, कभी थकानेवाला नहीं होता ।

 

   लेकिन जो सद्धांतों और व्यवहारोंकी नाप-तौल करनेके लिये आते हे जो अपनी बुद्धिके कारण समझते हैं कि वे बहुत श्रेष्ठ हैं ओर सत्य-असत्यमें विवेक करनेमें समर्थ हैं, जो यह मानते है कि वे यह फैसला कर सकते है कि अमुक शिक्षा सत्य है या मिथ्या, कि अमुक व्यवहार परम सद्वस्तुके साथ मेल खाता है या नहीं, वे वास्तवमें थकानेवाले होते है और कम-से- कम इतना तो कहना ही होगा कि उनसे मिलना बेकार होता है ।

 

    उच्चतर बुद्धिकी इन सत्ताओंके अपनी मरज़ी मुताबिक अपने रास्तेपर दौड़ लगाने दो, यह रास्ता हज़ारों वर्षतक चलेगा । सद्भावनावाले सरल लोगोंकी, जो भागवत कृपापर विश्वास करते है, चुपचाप अपने प्रकाशके मार्गपर चलने दो ।

 

१०४

२८ अगस्त, १९६८

 

       वत्स, मजेदार बात थीं । मैंने यह सब टिप्पणियां रखी है । हम इन्हें देखेंगे । यह अभी समाप्त नहीं हुआ है, यह समाप्त नहीं हुआ है । और पता नहीं कब समाप्त होगा ।

 

 कोई समाचार है?

 

जी नहीं, माताजी । मैंने १५ अगस्तसे पहले, ११ अगस्तके आस-पास रातको कुछ देखा था । मैंने सफेद झागकी एक विशाल- काय, बहुत बढ़ी, लहर देखी, वह मकानसे भी बड़ी, बस विलक्षण; एक बहुत बड़ी, पूरी तरह काली नौका इस लहरद्वारा चलायी जा रही थी । लहर उसे धकेल रही थी । बह चट्टानोंपर लुढ़कती-सी लगती थी, पर उनके नीचे कुचली नहीं गयी । एक और भी नौका थी, बहुत छोटी, हल्के भूरे रंगकी । मुझे लगा कि वह बहुत ज्यादा तेज गतिसे जा रही थी । और झागकी यह विलक्षण लहर!

 

वहां बहुत-सी चीजें हों रहीं है.. । जानते हों, चेकोस्लोवाकियामें क्या हों रहा है?

 

    गतिशील है ।

     एक काली तौक !

 

      जी हां, एक बहुत बड़ी नौका और मजेदार बात तो यह है कि ऐसा लगता था कि वह काली चट्टानोंपर लुढ़क रही थी, परंतु कुचली नहीं गयी ।

 

    मुझे विश्वास है कि गति शुरू हो गयी है. । वह ठोस, दृश्य, संगठित उपलब्धि बननेमें कितना समय लेगी ' मालूम नहीं ।

 

     कुछ शुरू हुआ है... । ऐसा लगता है कि यह जातिका नया प्रवाह है, नयी सृष्टि या किसी सृष्टिका प्रवाह ।

 

     धरतीपर पुनर्व्यवस्था और एक नयी सृष्टि ।

 

    मेरे लिये चीजें बहुत तीव्र हों उठी । मेरे लिये एक शब्द बोलना भी असंभव हों गया, एक शब्द मी. जैसे ही मैंने बोलना शुरू किया

 


कि खांसी शुरू हो जाती थी, खांसी, खांसी । तब मैंने देखा कि यह निश्चय किया गया है कि मै न बोलूं । मै उसी तरह बनी रही और मैंने चक्रको चलने दिया । बादमें मै' समझ गयी । हम छोरपर नहीं है, बल्कि... (कैसे कहूं?) हम दूसरी ओर हैं ।

 

   एक समय था जब चीजें इतनी तीव्र थीं कि... साधारणत: मै धीरज नहीं खोती, परंतु चीज एक ऐसी स्थितितक पहुंच गयी जहां हर चीज, हर एक चीज मानों मिटायी जा रही थी । न सिर्फ यह कि मै बोल नहीं सकती थी, बल्कि सिर भी ऐसी स्थितिमें था जैसे मेरे सारे जीवनमें नहीं हुआ । सचमुच बहुत पीड़ा थी । मैं बिलकुल न देख पाती थी, मै बिल- कुल न सुन पाती थी । तब एक दिन (मै अपनी अनुभूतियां वादमें सुनाऊंगी), एक दिन चीजें सचमुच... सब जगह पीड़ा, कष्ट, शरीरने कहा, उसने सचमुच एकदम सहजभावसे और बहुत शक्तिके साथ कहा. ''मैं जिंदा रहनेके लिये तैयार हू, और अगर मै विलीन भी हों जाऊं तो भी मेरे लिये समान है, लेकिन अभी मै जिस अवस्थामें हू वह असंभव है । यह जारी नहीं रह सकती, जीवन हों या मरण, पर यह नहीं ।'' उस क्षणसे, वह कुछ अच्छा होने लगा । उसके बाद धीरे-धीरे, चीजें व्यवस्थित होने लगीं, अपने स्थानपर रखी जाने लगीं ।

 

    मैंने कुछ नोट लिख लिये । उनका कोई विशेष मूल्य नहीं है । मेरा ख्याल है शायद वे उपयोगी हों । (माताजी अपने पास रखी हुई मेजपर कागजोंके लिये नजर दौड़ाती हैं ।) फिर भी, मैं नहीं देखती, मै नहीं देखती, मैं केवल जानती हू ।

 

 ( २२ अगस्तका पहला नोट)

 

''कई घंटोंके लिये प्राकृतिक दृश्य अद्भुत था, उसमें पूर्ण सामंजस्य था ।

 

और बहुत समयतक विशाल मंदिरोंके आंतरिक दृश्य, जीवित- जाग्रत् देवोंके साथ दिखायी दिये । हर चीजका अपना कारण था, एक यथार्थ लक्ष्य था -- चेतनाके स्तरोंको अभिव्यक्त करना परंतु मानसिक रूप दिये बिना ।

सतत अंतर्दर्शन ।

प्राकृतिक दृश्य ।

इमारतें ।

नगर ।

 

२०६


समस्त विशाल और विभित्रतापूर्ण दृश्य सारे दृष्टि-क्षेत्रको ढके हुए था और शारीरिक चेतनाकी स्थितियोंको दिखा रहा था । बहुत-सी, बहुत-सी इमारतें, बनते हुए बडी-बडी नगर... ''

 

 हा, जगत् का निर्माण हो रहा है, भावी जगत् का निर्माण हों रहा है । मै कुछ भी नहीं सुन रही थी, मै कुछ भी नहीं देख रही था, मै कुछ भी नहीं बोल रही थी मै' सारे समय वहां, अंदर निवास कर रही थी, सारे समय, सारे समय, रात-दिन । और फिर, जैसे ही मैं लिखने लायक हुई मैंने लिखा

 

        ''सभी पद्धतियोंकी इमारतें, सबसे बढ़कर नयी, वर्णनातीत । ये देखे हुए चित्र नहीं है, ऐसे स्थान हैं जहां मै हू ।',

 

 हां, यही बात है । मै समझाती हू क्या हुआ । यहां एक और टिप्पणी है जो आरंभ है

 

     ''प्राण और मनको धूमनेके लिये भेज दिया गया है ताकि भौतिक सचमुच अपने ही बलबूतेपर रहे ।',

 

 पूरी तरह अपने ऊपर,' अपने ऊपर । और तब मैंने जाना कि प्राण और मन हमें किस हदतक दिखलाते, सुनवाते और बुलवाते है । वह... मै देख सकती थीं, इस अर्थमें कि मैं हिल सकती थी, लेकिन वह बिलकुल धुंधला था । मै पहलेसे भी कम सुन पाती थी, यानी, बहुत कम -- कम -- बस, बहुत हीं कम, कभी-कभी पहलेकी तरह, कभी जरा-सी आवाज, बहुत दूर, जो दूसरे नहीं सुन पाते थे मैं सुन लेती थी; और जब वे बोलते थे तो मै न सुन पाती थी. ''तुम क्या कह रहे हों? '' मुझे नहीं मालूम । और यह दिन-रात, लगातार चलता रहा ।

 

कुछ दिनोंके बाद माताजीने इसमें यह जोड़ दिया

 

   ''प्राण और मन छोड़ गये है, परंतु चैत्यने बिलकुल नहीं छोड़ा । मध्यस्थ छोड़ गये हैं । उदाहरणके लिये, लोगोंके साथ संबंध (उन लोगों- के साथ संबंध जो यहां मौजूद है और उनके साथ भी जो यहां नहीं हैं), उनके साथ जैसा-का-वैसा बना है, बिलकुल वैसा ही, बल्कि पहलेसे भी ज्यादा निरंतर । ''

 

१०७


एक रात (तुम्हें यह बतानेके लिये कि सब कुछ अस्तव्यस्त था), लेकिन एक रात, मुझे कुछ तकलीफ थी; कुछ हो गया था और मेरे बहुत सख्त दर्द हो रहा था और सोना असंभव था; मै उसी अवस्थामें एकाग्र रही और रात पूरी हो गयी, मुझे लगा कि रात कुछ मिनटोंमें पूरी हो गयी । अन्य समय, दूसरे दिनोंपर, दूसरे क्षणोंमें मै एकाग्र रही ओर बीच-बीचमें समय पूछ लेती थी; एक बार मुझे लगा कि मै घंटों इस तरह रह चुकी हू । मैंने पूछा : कितने बजे है? सिर्फ पांच मिनट हुए थे... । तो हर चीज, मैं उल्टी-पुल्टी तो नहीं कह सकती, हर चीज भिन्न प्रकारकी थी, बहुत भिन्न ।

 

    २३ तारीखको... का जन्मदिन था । मैंने उसे बुलाया और वह बैठा हुआ था । अचानक! हां, अचानक सिर सक्रिय हों उठा -- ' 'सिर' ' नहीं और न ही ' 'विचार' ' ( माताजी अपने अंदरसे गुजरनेवाली धाराओं और लहरों- का संकेत करती हैं) मालूम नहीं इसे कैसे समझाया जाय; वह विचार नहीं था, वह एक प्रकारके अंतर्दशन, प्रत्यक्ष. दर्शन थे और तब मैंने उससे कुछ प्रश्न पूछे जिन्हें उसने लिख लिया । ( माताजी एक टंकित प्रति देती हैं) उसने केवल मेरे प्रश्न लिखे थे अपने उत्तर नहीं ।

 

      माताजीने कहा...

     २३ अगस्त, ११६८ तीसरे पहर

    ''क्या ३ जानते हैं कि द्रव्य कैसे बना?...

 

 मुझे पता नहीं, भौतिकने संभवत: 'क' वातावरणके संपर्कसे ये प्रश्न किये थे (वह वैज्ञानिक है), शरीरमें यह जाननेके लिये रस पैदा हुआ कि यह सब कैसे पैदा हुआ । और... वहां था, मैं जानती थी कि वह उत्तर दे सकता है इसलिये मैंने प्रश्न किये ।

 

 ''क्या वे जानते है कि द्रव्य कैसे पैदा हुआ?

यह कहना कि यह धन ऊर्जा है, केवल प्रश्नको टालना है ।

सच्चा प्रश्न है : परम प्रभुने अपने-आपको, द्रव्यके रूपमें कैसे

प्रकट किया?

 

 तुम देखते हों, ये विषय जो इतने महत्त्वपूर्ण, इतने विस्तृत, इतने उदात्ता, इतने... माने जाते हैं । मैं उनके बारेमें एकदम बचकाने लहजेमें, बिलकुल साधारण शब्दोंमें बोलती हू । (माताजी हंसती है)

 

   ''क्या वे जानते हैं कि 'धरती' कबसे  है?

 

१०८


    जब तुम लाखों वर्षोंकी बात करते हो तो क्या तुम जानते हो कि इसका मतलब क्या है?...

 

उनके पास घड़ियां नहीं थीं, यह तो तुम्हें मालूम होना चाहिये! शरीरने बच्चेकी सरलताके साथ पूछा : तुम लाखों-करोड़ों वर्षोकी बात करते हो, तुमने उसे किस तरह नापा?

 

''क्या उन्हें विश्वास है कि हम जिसे एक वर्ष कहते हैं उसका हमेशा यही अर्थ था?... उन दिनों मेरे अंदर कालके सामान्य विचारकी अवास्तविकताकी चेतना थी । कभी एक मिनट अनंत मालूम होता था और कभी घटे-पर-घटे बीत जाते; सारा दिन निकल जाता था और कुछ लगता ही नहीं था ।

 

       क्या बे कहते हैं कि एक आदि था?

 

      (यहां 'क' माताजीको वह सिद्धांत बतलाते हैं जिसके अनुसार विश्व क्रमश: विस्तार और संकोचके कालोंमेसे गुजरता है । ऐसा लगता है कि माताजी इससे खुश हुइ ।)

 

हां, बे  ''प्रलय'' है ।

 

''हां, तो ये प्रश्न शरीर कर रहा है । मन कबका जा चुका है । परंतु शरीर, शरीरके कोषाणु, यूं कहें, प्राण और मनमेंसे गुजरे बिना सीधे सत्य सत्ताके साथ संपर्क जोड़ना चाहते हैं । यही हो रहा है ।

 

         इस कालमें मुझे दो-तीन बार ज्ञान प्राप्त हुआ था...

 

 ओह मैंने (ऐसे क्षण देखे हैं, दो-तीन बार, बिलकुल ही अद्भुत और क्षण - उन्हें भाषामें लाना असंभव है, असंभव है ।

 

      ''लेकिन जैसे ही तुम इस प्रकारकी अनुभूतिसे अवगत हो जाते हो....

 

 तुम्हें अनुभूति होती है और फिर तुम्हें पता लगता है कि तुम्हें अनुभूति हुई; और जैसे ही तुम्हें उसके होनेका पता लगता है कि वह धुंधली हो जाती है । कुछ चीज धुंधला जाती है ।

 

१०९


     हां, आगामी जातिमें मानसिक वस्तुनिष्ठताका सारा तथ्य ही गायब हो जायगा ।

 

 हां, ऐसा लगता तो है ।

 

( 'क' की टिप्पणीमें आगे) : ''जैसे ही तुम्हें इस तरहकी अनुभूतिके बारेमें मालूम होता है, जैसे ही वह स्मृतिमें अंकित होती है उसी समय वह पूर्णतया मिथ्या हो जाती है ।

 

वैज्ञानिकोंके साथ मूलतः यही होता है । जैसे ही उन्हें जरा- सा ज्ञान प्राप्त होता है, उन्हें उसे सजाना संवारना पड़ता है ताकि उसे मानव चेतनाकी पहुंचमें ला सकें, मनके लिये बोध- गम्य बना सकें ।

 

         (जरा ठहरकर माताजी एक और प्रश्न करती है :) क्या ३ जानते हैं कि मनुष्यका अस्तित्व कबसे है?

 

          मनुष्यको विकसित होनेमें जितना समय लगा, अतिमानवको प्रकट होनेमें उससे कम समय लगेगा । लेकिन यह कोई तात्कालिक चीज नहीं है...

 

 वत्स, उस दिन, २३ तारीखको, मैं अभी... मै अभी लुगदीके जैसी ही थी! मैंने अपने-आपसे कहा. इस लुगदी जैसी स्थितिमेंसे  निकलकर उपयोगी व्यक्ति, ऐसा जो है और कार्य करता है, बनानेमें बहुत समय लगेगा । उससे भी मैंने यही कहा ।

 

        लेकिन उस टिप्पणीके अंतमें आप कहती है :

        ''हम जो कुछ कर सकते थे, कर चुके होंगे ।''

 

 हां, यह मैंने उसे सांत्वना देनेके लिये कहा था!

 

      तो, उसी रात, क्या हुआ देखो (माताजी अपने हाथसे लिखा हुआ एक कागज पकड़ाती है) :

 

रात, २६ और २७

 

        ''शरीरमें सब जगह, एक साथ अतिमानसिक शक्तिका सशक्त और लंबे समयतक प्रवेश... ''

 

शरीरके अंदर प्रवेश । हां, धाराका शरीरमें प्रवेश । यह कई अवसरों-


११०


पर हों चुका था, पर उस रात ( यानी परसों रात), यह अचानक हुआ मानों बस एक अतिमानसिक वातावरण ही हो, उसके सिवाय कुछ नहीं । और मेरा शरीर उसमें था । वह अंदर प्रवेश करनेके लिये एक ही समयपर सब जगह, सव जगह, सब जगह दबाव डाल रहा था -- सब जगह । तो यह कोई प्रवेश करने-वाली धारा नहीं थी : यह तो वातावरण था जो हर जगहसे उंडेला जा रहा था । यह कम-से- कम तीन-बार घंटेतक चलता रहा । केवल एक ही मागथा जिसमें उसने मुश्किलसे प्रवेश किया था, यहांसे यहांतक ( गले और सिरके ऊपरी भागके बीच) वहां भूरा-सा और निस्तेज दिखा रहा था, मानो धारा वहापर कम प्रवेश कर रत्न थी.. । लेकिन उसके सिवा, बाकी सब, सब . वह प्रवेश करता गया, करता गया, करता गया...! मैंने ऐसी चीज कभी नहीं देखी थी, कमी नहीं! यह घटों रही -- घंटों, पूरी तरह सचेतन रूपमें ।

 

    तो जिस समय बहु चीज आयी और जितने समय रही, उस सारे समय मै सचेतन रहीं ''ओह! इसके लिये था, इसके लिये था; यह था, तो यह था जो 'तुम' मुझसे चाहते थे । हे प्रभो, इसके लिये, इसके लिये तुम यह चाहते थे । '' उस समय मुझे ऐसा लगता था कि कुछ होनेको है ।

 

     मैं उस रात इस चीजके लौटनेकी आशा कर रही थी, पर कुछ हुआ नहीं ।

 

    वह पहली बार था । घंटोंके लिये । उसके सिवा और कुछ भी न था । और यह (शरीर), यह सोखनेवाले स्पंजकी तरह था ।

 

      केवल सिर, यह अभीतक भूरा, निस्तेज है -- भूरा और निस्तेज । फिर मी, पिछले  कुछ महीनोमें शरीरको जो कुछ हुआ है. उस सबका स्पष्ट अंतर्दर्शन था, और... लगभग एक आशा थी । प्रायः एक आशा थी, मानों कोई मुझसे कह रहा था कि कुछ हो सकता है । बस इतना ही ।

 

     और यह मानों शरीरने जो कहा उसका उत्तर था ( शायद दो-तीन दिन पहले), वही, जो मैंने शुरूमें तुमसे कहा था : कि यह शरीर पूरी तरहसे विघटित हों जानेके लिये तैयार था ( यह पूर्ण समर्पण था), और बह जीते रहनेके लिये भी पूरी तरह तैयार था, चाहे परिस्थितियां कैसी मी क्यों न हों -- परंतु उस अवस्थामें नहीं, उस अपघटनकी अवस्थामें नहीं । तो उसका दो दिनतक कोई उत्तर न मिला और उसके बाद आया यह 'प्रवेश', यानी, दूसरे ही दिनसे मुझे कुछ अच्छा लगने लगा, मैंने... मैं खड़ी भी न रह सकती थी! मेरे अन्दर संतुलनका भाव न था । किसीको मुझे

 

१११


 पकड़ना पड़ता था! मैंने संतुलन भाव खो दिया, मैं एक कदम न रख सकती थी । इसपर मैंने विरोध किया था और अगले दिन सवेरेसे ही, वह वापिस आने लगा ।

 

     तब आयी २३ अगस्त । मैं 'क'से मिली । मैंने देखा कि जब वह उपस्थित था तब शरीरको काफी रस था; यह मन या प्राण न था वे जा चुके थे । मालूम नहीं, तुम मेरे मतलबको पकडू पा रहे हों या नहीं ।

 

           जी हां, यह विलक्षण है ।

 

 बिना मनका, बिना प्राणका शरीर । जब 'क' आया तो यही अवस्था थी । केवल ये प्रत्यक्ष दर्शन थे (नगर, इमारतें, मन्दिर), वह अन्तरात्माकी अवस्थाओंमें जीता था : औरोंकी आन्तरात्मिक अवस्थाए भी थीं । धरती- की आन्तरज्मिक अवस्थाएं, आन्तरात्मिक अवस्था.. । ये आन्तरात्मिक अवस्थाएं बिंबोंमें अनूदित होती थी । यह मजेदार था । मै. यह नहीं कह सकती कि यह मजेदार न था । यह मजेदार था; पर भौतिक जीवनके साथ कोई संपर्क न था, बहुत ही कम था : मै. मुश्किलसे कुछ खा पाती थी, मै चल नहीं पाती थी.. लेकिन यह कुछ ऐसी चीज थीं जिसके साथ अपने-आपको व्यस्त रखना जरूरी था ।

 

      और तब 'क' के संपर्कसे. शरीरने इन सब बातोंमें रस लेना शुरू किया, सहज रूपसे प्रश्न करने शुरू किये, उसे पता न था कि क्यों । वह पूछता जाता था, पूछता जाता था. ''हां, तो व्यक्ति डस तरह बना है... ।'' तब उसे मजा आने लगा ।

 

     इसमें कुछ समय लगेगा ।

 

    परसों जब यह 'प्रवेश' आया तो मैंने अपने-आपसे कहा ''आह! '' मैंने आशा की थी कि चक्र तेज चलेगा और शरीर जल्दी ही निकल आयेगी, पर आजकी रात, कुछ भी नहीं हुआ । इसीलिये मै कहती हूं कि इसमें कुछ और समय लगेगा ।

 

      लेकिन अजीब बात है, आपकी २६-२७ की टिप्पणीमें यह भी लिखा है :

 

      ''मानों सारा शरीर उन शक्तियोंमें नहा गया जो जरा-सी रगड़के साथ हर जगह एक ही समयमें प्रवेश कर रही थीं.. .'' और फिर आप कहती है :

 

११२


     ''सिरसे नीचे गरदनतकका हिस्सा सबसे कम ग्रहणशील था ।'' यह अजीब बात है कि सबसे कम ग्रहणशील था ।

 

नहीं, यह सबसे ज्यादा मानसिक भावापत्र हिस्सा है । मन रुकावट डालता ??

 

    यह अजीब बात है कि आपके लिये जब कभी महान् क्षण, या यूं कहूं, बड़े प्रहार आये हैं तो हर बार, मन और प्राण बह गए । पहली बार भी, १९६२ में ।

 

 हा, हर बार ।

 

         मै जानती हू, यह ऐसा है मन और प्राण यंत्र. रहे है... 'द्रव्य' को पीसनेके लिये -- पीसने, पीसने और हर तरह पीसनेके लिये, प्राण अपने सवेदनोंद्वारा, मन अपने विचारोद्वारा -- पीसनेके लिये, पीसनेके लिये रहे है । लेकिन मुझे लगता है कि ये बस गुजरनेवात्ठे हैं । इनका स्थान चेतना- की अन्य अवस्थाएं ले लेंगी।

 

        देखो, यह वैश्व विकासकी एक अवस्था है, और वे... ये ऐसे यंत्रोंकी तरह झड़ जायेंगे जो अब उपयोगी नहीं रहे ।

 

    ओर फिर, मुझे इस बातका ठोस अनुभव हुआ कि यह द्रव्य क्या है जो प्राण और मनके द्वारा पिसा जाता है, लेकिन प्राणके बिना और मनके बिना... । यह एक अलग ही चीज होती है ।

 

     लेकिन ''आन्तरात्मिक स्थितियोंका यह प्रत्यक्ष दर्शन'', उसमें... अद्भुत चीजें थी! कोई, कोई मानसिक कल्पना इतनी आश्चर्यजनक नहीं हो सकती -- नहीं, कोई भी नहीं । मै ऐसे क्षणोंमेंसे गुजरी... तुम जो कुछ अनुभव कर सकते हो, मनुष्य के रूपमें देख सकते हों, वह सब उसकी तुलनामै कुछ नहीं । ऐसे क्षण थे.. एकदम अद्भुत क्षण । लेकिन विचारके विना, बिना विचारके ।

 

अभी और कई टिप्पणियां हैं जो मैंने आपको नहीं सुनायी । आप कहती हैं :

 

   ''अधिकतर मनुष्योंमें चेतना संवेदनसे शुरू होती है । शरीरके लिये सभी संवेदन मानों कम कर दिये गये थे, बल्कि दबा दिये गये थे : दृष्टि और श्रवण मानों परदेके पीछे थे । लेकिन सामंजस्य या असामंजस्यका प्रत्यक्ष दर्शन बिलकुल स्पष्ट था । उनका


११३


      अनुवाद बिंबोंमें होता था: "बिचार नहीं, 'लगना' भी नहीं ।''

 

 मैंने तुमसे कहा था, मैंने देखा है... वह ''देखा'' नहीं है जैसे चित्र देखा जाता है : अपने अंदर, एक विशेष स्थानपर होगा । मैंने कमी कोई चीज इतनी सुन्दर नहीं देखी या अनुभव की । उसका अनुभव मी नहीं किया गया, वह... पता नहीं कैसे समझाया जाय । वे क्षण एकदम अद्भुत थे, अद्भुत, अनोखे । और यह सोचा नहीं गया था, मै वर्णन भी नहीं कर सकती थी -- कैसे वर्णन करूं? तुम वर्णन तमी कर सकते हो जब सोचना शुरू करो ।

 

          एक और टिप्पणी है :

 

           ''शरीरकी चेतनाकी स्थिति और उसकी क्रियाका गुण उस व्यक्ति या उन व्यक्तियोंपर निर्भर है जिनके साथ वह......

 

ओहो! यह, यह बहुत मजेदार था । वह बहुत मजेदार था क्योंकि मैंने देखा कि वह ऐसा था (फिल्म खोलनेकी-सी मुद्रा), वह बदल रहा था । कोई मेरे नजदीक आ रहा था : उसमें परिवर्तन आ गया । किसीको कुछ हों गया. उसके अंदर परिवर्तन ग गया । ख और ग मेरे नजदीक थे । वत्स, एक दिन. मालूम नहीं, उन्हें क्या हो गया : वे अतिमानव थे; एक दिन जब शायद देखनेमें लगता था कि मैं खतरेमें हू, मुझे नहीं मालूम; एक दिन, पूरे दिन, बिंब (''बिंब'' नहीं. वे जगहें जहां मै 'मी), वह ऐसे अद्भुत रूपमें सुंदर, सामंजस्यपूर्ण.. .वह अकथनीय, अवर्णनीय था । और उनकी चेतनाका जरा-सा भी परिवर्तन, ओह, वहां सब कुछ बदलने लग जाता! वह एक प्रकारका बहुमूर्तिदर्शी (कलाइडस्कोप) था जो दिन- रात चलता रहता था । अगर कोई उसे लिख सकता... । वह अनोखा था । वह अनोखा था । और शरीर उसके अंदर था, लगभग छिद्रित -- छिद्रित जिसमें कोई प्रतिरोध न था, मानों वह चीज उसके अंदरसे छन रही हों । मैंने अधिक-सें-अधिक अद्भुत समय देखा... मेरा ख्याल है धरतीपर कोई भी जितना अधिक-सें-अधिक अद्भुत समय देख सकता हैं ।

 

      और वह इतना सार्थक और इतना द्योतक था । इतना अर्थपूर्ण । एक रात, दो घंटोंके लिये, ये मंदिर जिनके बारेमें मैं कह रही हू (भौतिक नहीं), इतने विशाल, इतने भव्य थे... और, वत्स, मूर्तियां नहीं, जीवित- जाग्रत् देव! और मुझे मालूम है वह क्या है । और फिर 'अनन्तता'की चेतनाकी स्थिति, आह!.. मानों परिस्थितियोंके ऊपर, बहुत ऊपर ।

 

 वहां अनोखी चीजें थीं, परन्तु कहा कैसे जाय?... असंभव, असंभव, कोई चेतना उसे लिख सकनेके लिये पर्याप्त नहीं ।

 

     टिप्पणीमें आगे लिखा है :

 

    ''उसकी (शरीरकी) चेतनाकी पीठ और उसका क्षेत्र और साथ ही उसके कार्य-कलापके गुण वहांपर उपस्थित लोगोंके अनु- सार बदलते है । यह सब प्रकारकी बौद्धिक क्रियाओंसे होता हुआ अत्यधिक द्रव्यात्मकसे लेकर सबसे अधिक आध्यात्मिक स्तरतक पहुंचनेवाला सोपान है ।

 

          परंतु भागवत उपस्थितिका प्रत्यक्ष वर्शन सदा बना रहता है और चेतनाकी सभी स्थितियोंके साथ जुड़ा रहता है -- वे चाहे जो भी हों.......

 

 आहा! मुझे पता लगा कि हर जगह, सारे समय, सारे समय कोषाणु अपना मंत्र जप रहे थे, सारे समय, सारे समय ।

 

      ''और मंत्र सहज रूपसे एक प्रकारकी ''तरल'' शांतिमें अपनेआप जपा जा रहा है ।''

 

 इस कारण यह नहीं कहा जा सकता कि वह पीड़ा थीं, यह नहीं कहा जा सकता कि वह बीमार था, यह संभव नहीं है, संभव नहीं है ।

 

११४

२५ सितंबर, १९६८

 

    मुझे कुछ पुराने कागज मिले  हैं, मुझे नहीं मालूम ये क्या हैं । एक तुम्हारा लिफाफा भी है ।

 

     यह ''सूत्रों' के बारेमें प्रश्न है :

 

     ''जब मै न्यायसंगत कोपकी बात सुनता हू तो मुझे मनुष्यकी आत्म-वंचनाकी क्षमतापर आश्चर्य होता है ।''

 

          (श्रीअरविंद, 'विचार और सूत्र', सं.५९)

 


यह अद्भुत है!

 

एक प्रश्न था : ''आदमी हमेशा अपने-आपको ''नेकनीयतीसे'' धोखा देता है : हमेशा औरोंके भलेके लिये या मानवजातिके हितके लिये, या आपकी सेवाके लिये काम करता है, यह तो निश्चित बात है ही । तो फिर वह अपने-आपको धोखा देने लगता है और इसे सचमुच कैसे जाना जाय? '' '

 

 यह आश्चर्यजनक रूपसे सत्य है ।

 

     अभी कल हीं, इसे पड़े बिना ही मुझे इस विषयपर एक लंबा अन्तर्दर्शन हुआ । यह आश्चर्यजनक है । पर वह एक ऐसे भिन्न स्तरपर था...

 

    हां, जब तुम मनके उच्चतर भागको अपने कामोका निर्णायक बनाते हो तो तुम ''अपने-आपको नेकनीयतीसे धोखा'' दें सकते हा । यानी, मन सत्यको देखनेमें असमर्थ है और वह अपनी क्षमताके अनुसार ही निर्णय करता है और वह क्षमता सीमित है -- केवल सीमित ही नहीं, सत्य'के बारेमें असचेतन हैं; तो मनके लिये यह नेकनीयती हुई, यह जितना कर सकता है अच्छे-सें-अच्छा करता है । यही बात है ।

 

      स्वभावतः, जो अपने चैत्य पुरुषके बारेमें पूरी तरह सचेतन हैं उनके लिये अपने-आपको धोखा देना संभव नहीं है क्योंकि, अगर बे अपनी समस्या चैत्यके आगे रखें तो वहांसे भगवान्का उत्तर पा सकते है । लेकिन उनके लिये भी जिनका अपने चैत्य पुरुषके साथ संबंध है उत्तरका स्वरूप वैसा नहीं होता जैसा मनके उत्तरका होता है । मनका उत्तर यथार्थ, सुनिश्चित, निरपेक्ष और अधिकार जमानेवाला होता है यह अधिकार जमानेकी अपेक्षा मनोवृत्ति अधिक होती है एक ऐसी चीज जिसकी मनमें विभिन्न व्याख्याएं हो सकती है ।

 

    मै अपनी कलकी अनुभूतिपर वापिस आती हू । उसे देखकर मै. इस निश्चयपर पहुंची कि जो आदमी अपनी चेतनाके अनुसार गाना अच्छे-से- अच्छा करता है उसे बुरा-मला कहना असंभव है, क्योंकि वह आपनी चेतना- के परे कैसे जा सकता है '... यह ऐसी भूल है जो अधिकतर लोग करते है. वे दूसरेको अपनी चेतनासे जांचते है, लेकिन दूसरेमें उनकी चेतना नहीं  होती इसलिये वे निर्णय नहीं कर सकते (मै, स्वभावत, सद्भानना-

 

   १ यह प्रश्न और माताजीका उत्तर, दोनों, 'श्रीमातृवाणी', खंड १०, '' 'विचार और सूत्र' के प्रसंग'' में पाये जा सकते है । (पृ० ८१)

 

११६


 वाले लोगोंकी वात कर रही हू) । एक अधिक समग्र या उच्चतर चेतना- के अनुसार मुल दूसरे व्यक्तिकी है, लेकिन व्यक्ति अपने-आप जिसे वह करने लायक मानता है उसे करनेका भरसक प्रयास करता है ।

 

    इसका मतलब यह हुआ कि जो सचाईके साथ अपनी सीमित चेतनाके अनुसार काम करता है. उसे दोष देना बिलकुल असंभव है । और अगर हम इस बातपर आयें तो भागवत चेतनाको छोड़कर संसारमें हर एककी एक सीमित चेतना है । केवल भागवत चेतना ही सीमित नहीं है । लेकिन अनिवार्यत: प्रत्येक अभिव्यक्ति सीमित है, जबतक कि वह अपने-आपसे बाहर निकलकर परम चेतनाके साथ एक न हो जाय, तब वहां... । किन परिस्थितियोंमें यह किया जा सकता है?

 

         यह परम प्रभुके साथ तादात्म्यका सवाल है, वे ही परम एक है -- एक हीं जो सर्व है ।

 

 ( मौन)

 

      मानव विचारका एक पूरा पक्ष यह मानता है कि परम चेतनाके साथ तादात्म्य तभी आ सकता है जब व्यक्तिगत रचनाको रू कर दिया जाय, क्ष-किन श्रीअर्रावंद यहीं तो कहते है कि सृष्टिको रद्द किये बिना भी यह संभव है । उन लोगोंकी यह धारणा थी कि सृष्टिका उन्मूलन होना ही चाहिये, क्योंकि उन्होंने मानव स्तरके साथ ही सृष्टिका अंत कर दिया --यह मनुष्यके लिये असंभव है, पर अतिमानव सत्ताके लिये संभव है । और यही चीज अतिमानव सत्ताको अनिवार्य रूपसे तत्वतः भिन्न कर देगी वह अपना सीमित रूप रहते बिना अपनी चेतनाको परम चेतनाके साथ एक कर सकेगी ।

 

        परंतु मनुष्यके लिये यह असंभव है । मै यह जानती हू ।

 

        जैसा कि मैंने कहा है, तुम्हें प्राप्त होती है, तुम्हें अनुभूति प्राप्त होती हो, लेकिन जैसे ही नुमा उसे प्रकट करना चाहते हो वह चली जाती है, वह फिरसे.. (बंद हों जानेकी मुद्रा) । यानी, हम जिस द्रव्यसे बने हैं वह परम चेतनाको विकृत किये बिना अभिव्यक्त करनेके लिये काफी शुद्ध और रूपांतरित (कोई भी, कोई मी शब्द लो) नहीं है ।

 

 ( मौन)

 

 (माताजी एक अनुभूतिमें प्रवेश करती है)


११७


   'द्रव्य' मै कुछ अपारदर्शिता है, वस्तुमें कुछ ऐसी चीज है जो उसे 'चेतना' को प्रकट नहीं करने देती और वही अपारदर्शिता (पता नहीं इसे कैसे कहा जाय), अपारदर्शिता उसे अस्तित्वका भान देती है ।

 

    यह पिछले कुछ दिनोंकी अनुभूतियोंका एक अंश है । मै. पता नहीं, कई सप्ताहोंतक एक प्रकारकी तरलता -- पारदर्शक तरलता - में रही और जब इस पारदर्शक तरलताके स्थानपर, जिसे मै ''अदर्शिता'' कहती दूं, वह आती है, तो साय ही शरीरकी सत्ताका एक प्रकारका ठोसपन भी आ जाता है ।

 

    तो, बिना किसी मध्यवर्तीके चैत्य पुरुषका द्रव्यके साथ संपर्क एक प्रकार- का संवेदन देता है... क्या यह ''संवेदन'' है? मुझे नहीं मालूम, यह संवेदन नहीं है, यह प्रत्यक्ष दर्शन नहीं है; यह एक प्रकारका ''अनुभूत अंतर्दर्शन'' है (और यह अंतर्दर्शन बहुत यथार्थ, बहुत ही यथार्थ होता है) । यह 'परम स्पंदन' की अधिक प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति रूप उच्चतर स्पंदनके साथ स्पंदनोंके संबंधके मूल्यांकनका एक प्रकारसे ''अनुभूत अंतर्दर्शन'' है  (मै इसके बारेमें बस यहीं कह सकती हूं) ।

 

       इसे व्यक्त करना बहुत कठिन है, परंतु शरीर एक ऐसे अनुभवसे गुजर रहा हैं जैसा पहले कमी नहीं हुआ, वह मानों एक अयथार्थतामेंमे यथार्थतामै गुजर रहा है; एक प्रकारकी तरलतासे.. यह कोई ठोस चीज नदी है, एक तरल चीजसे -- तरल और अयथार्थसे -- यथार्थ चीजकी ओर । सभी बदलती हुई घटनाएं (चाहे कितनी ही छोटी क्यों न हों) नये प्रत्यक्ष दर्शनके लिये अवसर होती हैं । पहले, सब कुछ तरल और अयथार्थ था; अब यह अधिक यथार्थ होने लगा है -- अधिक यथार्थ, अधिक यथातथ्य । लेकिन वह अपनी कुछ तरलता खो बैठता है ।

 

     इसे व्यक्त करना बहुत कठिन है ।

 

    मैंने इसके बारेमें कभी सोचा ही नहीं था । यह अजीब है, यह इच्छित नहीं है । मुझे अभी-अभी अनुभूति हुई है । इसलिये अभीतक बहुत स्पष्ट नहीं है ।

वास्तवमें, मन यथार्थता देता है और जब वह नहीं होता तो यथार्थता- की कमी रहती है । सृष्टिमें उसकी भूमिका है यथार्थता देना, समझाना और साथ-हीं-साय सीमित करना ।

 

     साधारण मन पूछ सकता है कि ऐसी अयथार्थतासे क्या लाभ?

 

 कोई लाभ नहीं!

 

यह पूरी तरह निश्चित है कि जब अतिमानस अभिव्यक्त होगा तो वह उस मानसिक यथार्थताके स्थानपर (कैसे कहा जाय?) जो घटाती है -- -गुम यथार्थताको जो सीमित करती है और इसलिये चीजोंको अंशत: मिथ्या बनाती है -- उसके स्थानपर दृष्टिकी स्पष्टता, एक और प्रकारकी दृष्टि आयेगी जो घटाती न हों । अब उसीका निर्माण हों रहा है ।

 

     वास्तवमें, यह कहा जा सकता है (ठीक ऐसा नहीं है) मन यथार्थता देनेके किये सीमित करता और अलग करता है; और स्पष्ट है कि एक ऐसी यथार्थता है जो अधिक यथार्थ दृष्टिसे आती है जिसमें न विभाजन होता है, न पार्थक्य । वही अतिमानस दृष्टिकी यथार्थता होगी । यथार्थता सभी वस्तुओके आपसी संबंधके साथ, उन्हें अलग किये बिना, आयेगी ।

 

   लेकिन यह एक एक चीज है जो तैयार हो रही है । यह तुक मिनटके लिये  दीप्तिकी तरह आती है और फिर पुराने ढर्रेपर वापिस चली जाती है ।

 

    प्राणके बारेमें भी यही कहा जा सकता है । प्राण एक तीव्रता देता है । ऐसा लगता है कि कोई और चीज तीव्रता नहीं दे सकती; हां, यही नम्रता 'अतिमानस' में है, परंतु है बिना विभाजनके । यह एक ऐसी तीव्रता है जो अलग नहीं करती ।

 

    मुझे ये दो अनुभूतियां हुई थी, पर बहुत ही क्षणिक । ये वह चीजें हैं जो अभी-अभी की जा रही है ।

 

११८

 २३ नवंबर, १९६८

 

 मुझे एक मजेदार अनुभूति हुई.. कल नहीं, परसों रातको । किसीने मुझसे कहा, मैं नाम नहीं बताऊंगी : ' 'मैं पूरी तरह भौतिक चेतनामें धंस गया हू. अब ध्यान नहीं होता, और भगवान् दूर, ऊपरकी चीज बन गये चैन '' उसी समय जब वह बोल रहा था सारा कमरा भागवत उप- स्थितिसे भर गया । मैंने उससे कहा : ''वहां, ऊपर नहीं, यहां, ठीक यही । '' और उस क्षण, सब कुछ, सारा वातावरण.. मानों हवोतक भैं उपस्थितिमें बदल गयी ( माताजी अपने हाथ, चेहरा, शरीर छूती है) । हां, हर चीजको छुआ गया, हर चीज छुई गयी, भर गयी, लेकिन ... जौ चीज विशेष रूपसे वहां थी वह थी चौधियानेवाली ज्योति, एक
 


ऐसी 'शांति' (महाकायका संकेत), 'शक्ति' और फिर 'मधुरता'. कुछ... ऐसा लगता था कि वह चट्टानको भी पिघला देनेमें समर्थ है ।

 

      और वह गयी नहीं, वह ठहरी रही ।

     वह इस तरह आयी और ठहर गयी ।

 

    सारी रात ऐसा रहा -- हर चीज । अब- भी दोनों यहां है यांत्रिक रूपमें सामान्य चेतना, लेकिन.. मैं क्षण-भरके लिये चुप या एकाग्र हों जाऊं तो वह उपस्थित ते जायगी । और यह शरीरकी अनुभूति थी, समझे, शरीरकी भौतिक, द्रव्यात्मक अनुभूति : हर चीज, हर चीज, हर चीज भरी है, भरी, केवल वही है, और हम तो... हर चीज मानों संकुचित हों गयी है, कुछ इस तरहकी सुखी हुई खाल-सी, लगता यह है कि चीजें कठोर बन गयी है (पूरी तरह नहीं. बस ऊपर-ही-ऊपर), मुरझा गयी है, इसीलिये हम अनुभव नहीं कर पाते । इसीलिये हम 'उन्हें' अनु- भव नहीं कर पाते । अन्यथा सब कुछ वही है, सब कुछ, वही, उनके सिवाय कुछ है ही नहीं । 'उन्हें' अंदर लिगे बिना तुम सांसतक नहीं ले सकते, तुम गति करते हो, तुम 'उन्हीं' के अंदर गति करते हो; तुम सब, सब, सारा विश्व 'उनके' अंदर हैं -- लेकिन द्रव्यात्मक रूपमें, भौतिक रूपमें, भौतिक रूपमें ।

 

     अब मैं इस ''सूखने'' के उपचारकी तलाशमें हू ।

    मुझे लगता है कि वह कोई कल्पनातीत चीज है, समझे?

 

   और जब मै सुनती 'हू तो 'वे' मुझे बातें भी बताते है; मैंने 'उनसे' पूछा. ''तो लोग हमेशा वहां, ऊपर क्यों जाते है? '' तो बहुत ही असाधारण और विलक्षण हास्यके? साथ उत्तर मिला ''क्योंकि लोग चाहते है कि मै उनकी चेतनासे बहुत दूर रहूं ।'' इस प्रकारकी बातें, लेकिन यथार्थ विधिमें सूत्रबद्ध नहीं. केवल संस्कार । बहुत बार -- बहुत बार -- मैंने सुना : ''जो हर जगह है- उसे ढूंढनेके लिये वे इतनी दूर क्यों जाते हैं?.. (निश्चय ही, ऐसे मत है जो कहते हैं वह तुम्हारे अंदर है).. ''

 

    मैंने उस व्यक्तिसे नहीं कहा । इसका पहला कारण तो यह है कि उस समय, अबकी तरह, यह अनुभूति लगातार नहीं थी ।

 

    ओर दूसरा कारण विशेष रूपसे यह था ''कोई नया मत नहीं, कोई-- धर्म-सिद्धांत नहीं, कोई निश्चित शिक्षा नहिं । हमें इस बातसे बचना चाहिये -- किसी मी कीमतपर बचना चाहिये कि यह चीज कोई नया धर्म न बन जाय । क्योंकि जैसे ही उसे किसी शानदार, प्रभावशाली और शक्तिशाली तरीकेसे सूत्रबद्ध किया जायगा कि बस अंत हो जायगा । तुम्हें ऐसा लगता है कि वह हर जगह है, हर जगह, हर जगह, हर जगह,

 

१२०


उसके बिना कुछ है ही नहीं । हम उसे नहीं जानते, क्योंकि हम... सिकुड़े हुए है; पता नहीं कैसे कहना चाहिये... सूखे हुए हैं । हमने अलग किये जानेके लिये बड़े प्रयत्न किये हैं और (हंसते हुए) - सफलता पायी हैं! सफलता पायी है, परंतु सफलता पायी है केवल अपनी चेतनामें, तथ्य- में नहीं । तथ्यमें वह है, वह है, केवल वही है । हम जो कुछ जानते है, जो कुछ देखते है, जो कुछ छूते हैं, सबमें मानों हम उसीमें नहाते, उसीपर उतराते हैं; परंतु वह भेद्य है; -- वह भेद्य है, बिलकुल भेद्य : वह गुजर जाता है । पार्थक्यका भाव यहांसे आता है ( माताजी मनकी ओर इशारा करते हुए अपना माथा छूती हैं) ।

 

     शायद यह अनुभूति इसलिये आयी, क्योंकि लगातार कई दिनोंतक पृथक्ताके क्यों और कैसे नहीं, बल्कि पृथक्ताके तथ्यको जाननेके लिये बहुत एकाग्रता हों रही थी । हर चीज इतनी मूढ़ता-भरी, इतनी भद्दी लग रही थी...! मेरे ऊपर मानों बहुत-सी समितियां टूट पड़ी थीं, सब प्रकारकी स्मृतियां (सब प्रकारकी पुस्तकों, चित्रों, फिल्मोंकी, जीवनकी, लोगोंकी, चीजोंकी स्मृतियां), इस शरीरकी स्मृतियां, वे सब स्मृतियां जो ''भगवान्- विरोधी'' कही जा सकती हैं, जिनमें शरीरका किसी अशुभ या विकर्षी वस्तुका -- जैसे भागवत उपस्थितिको अस्वीकार करनेका - संवेदन प्राप्त हुआ था । यह आरंभ इस तरहसे हुआ; दो दिनतक मेरी ऐसी हालत रही, यहांतक कि शरीर निराशामें डूब गया और तब यह अनुभूति आयी और फिर वह टस-से-मस न हुई । वह हिलीतक नहीं । वह अचानक आयी, और बस खतम, अपने स्थानसे न हिली । तो अनुभूतियां आती हैं और वापिस चली जाती है : पर यह नहीं हिलती । अभी इस समय भी वह है । और शरीर तरल बननेकी कोशिश करता है ( माताजी अपने- आपको फैलानेकी मुद्रा करती हैं), पिघल जानेकी कोशिश करता है; वह कोशिश करता है, वह समझता है कि वह क्या है । वह कोशिश करता है -- पर सफल नहीं होता, स्पष्ट ही है! ( माताजी अपने हाथों- को देखती हैं) लेकिन उसकी चेतना जानती है ।

 

    अनुभूतिके प्रभाव भी होते है : लोगोंने अचानक आराम अनुभव किया, दो-एक बिलकुल अच्छे हों गये और जब शरीरमें कुछ गड़बड़ होती है तो उसे मांग करनेकी जरूरत नहीं होती : वह स्वभावत: ठीक हों जाती है ।

 

      और इसने शरीरमें कुछ न करनेकी और अपनी अनुभूतिपर पूरी तरह एकाग्र रहनेकी आवश्यकता भी नहीं जगायी : नहीं, कोई कामना न थी, बिल- कुल कुछ भी नहीं । बस, इस दीप्तिमान विशालतामें -- जो अंदर है -- उतराते रहना! यह केवल बाहर ही नहीं है; वह अंदर है । वह अंदर
 

१२१


 है । वह (अपने हाथोंको छूती है) वह अलग प्रतीत होता है, सचमुच ऐसा लगता है कि यह... पता नहीं कैसे कहा जाय, परंतु यह केवल विकृत चेतनामें वास्तविक है -- मानव चेतनामें नहीं : कुछ हों गया है; 'चेतना' को कुछ हो गया है (माताजी सिर हिलाती हैं), मैं नहीं समझ पाती ।

 

 ( मौन)

 

     हर एक धर्मकी नींवमें जो सिद्धांत और समाधान और कहानियां पड़ी हैं वे मुझे तो... मनोरंजन मालूम होती हैं । और तब आदमी अपने- आपसे पूछता है, और पूछता है. -. मैं तुम्हें एक बात बतलाऊं : क्या यह नहीं हों सकता कि यह एक प्रहसन है जो भगवान् अपने-आपसे खेल रहे हैं ।

 

    कहना कठिन है । ऐसे दिन थे जब मैं सृष्टिकी सारी विभीषिकाओंमें जीती थी; हां, विशेष रूपसे भौतिक पीड़ामें ( और उनकी विभीषिकाओंकी चेतनामें), और फिर यह अनुभूति आयी और सभी विमीषिकाएं गायब हों गयीं ।

 

    और ये केवल नैतिक चीजें नहीं थीं, बल्कि विशेष रूपसे भौतिक पीड़ाएं, हां, विशेष रूपसे भौतिक पीड़ाएं थी । मैंने ऐसी भौतिक पीड़ा देखी है जो बनी रहती है; जो कभी बंद नहीं होती, जो दिन-रात होती रहती है; और अचानक, चेतनाकी इस अवस्थामें होनेकी जगह तुम ऐकांतिक दिव्य उपस्थितिमें होते हो -- पीड़ा गायब! और यह भौतिक, बिलकुल भौतिक पीड़ा थी जिसका कारण भी भौतिक था । डाक्टर कहेंगे : ' 'यह, यह, यह, इस कारण है या उस कारण है, '' बिलकुल द्रव्यात्मक, भौतिक कारण. वह इस तरह चली जाती है... चेतना बदलती है और वह वापिस आ जाती है ।

 

अगर व्यक्ति काफी लंबे समयतक सत्य चेतनामें रह सके तो रूप-रंग, यानी, जिसे हम भौतिक ' 'तथ्य' ' कहते हैं, स्वयं वही गायब हो जाता है; केवल पीड़ा ही नहीं जाती.. मुझे ऐसा लगता है मानों मैंने छू लिया है ( सौभाग्यवश, मन इन बातोंको कभी नहीं समझ सकता), मानों मैंने केंद्रीय अनुभूतिको छू  लिया है ।

 

      यह तो केवल छोटा-सा आरंभ है ।

 

     अगर भौतिकका रूपांतर हो जाय तो ऐसा लगेगा मानों परम रहस्यका स्पर्श पा लिया... । अनुभूतिके अनुसार ( व्योरेकी जरा-सी अनुभूति)

 

१२२


 यह ऐसी होनी चाहिये । और फिर, शुरूमें यह चेतना एक ही शरीरमें प्रकट होगी या सभी, सभीको रूपांतरित होना होगा?... चेतनाकी एक घटना ।

 

      लेकिन वह इतना ठोस था, हां, यह वही है!

 

 ( मौन)

 

      दूसरी चेतना अभीतक है... अभीतक, आज सवेरे मैं बहुत-से लोगोंसे मिली; जैसे-जैसे एक-एक आता था मैं उसे देखती थी ( देखनेवाला कोई 'मै' न था, उसके लिये मै उसे देख रही थी), आंखें स्थिर थीं । फिर प्रत्यक्ष दर्शन और अंतर्दर्शन ( लेकिन ऐसा अंतर्दर्शन नहीं जैसा लोग समझते हैं. यह पूरी तरह चेतनाका एक दृश्य था), 'उपस्थिति' की चेतना; वह 'उपस्थिति' जो मानों कहे छिलकेमें भी पैठ जाती है । वह पैठती है, पैठती है । वह हर जगह है; और जब मैं देखती हू, जब आंखें स्थिर होती हैं तो यह एक तरहसे ( इस उपस्थितिकी) घनता बन जाती है... । लेकिन यह निश्चय ही एक अस्थायी और मध्यवर्ती स्थिति है, क्योंकि दूसरी चेतना ( वह चेतना जो पहले थी, जो चीजोंको देखती और उनके साथ व्यवहार करती है, जो सामान्यतः, उनके साथ व्यस्त रहती है, जिसे केवल उसी चीजका प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त होता है जो व्यक्तिके अंदर हो रहा है, जो वह सोच रहा है -- वह जो सोच रहा है वह नहीं, वह जो अनुभव कर रहा है, वह जैसा है उसको) वह भी है । स्पष्टत: संपर्क रखनेके लिये उसकी भी जरूरत है, लेकिन...

 

     वात स्पष्ट है, अभी यह एक परीक्षण है, कोई स्थापित तथ्य नहीं । ''स्थापित तथ्य'' सें मेरा मतलब हैं इस प्रकारसे स्थापित चेतना कि उसके सिवा किसीका अस्तित्व ही न हों, केवल वही उपस्थित हों -- अभीतक ऐसा नहीं है ।

 

 (लंबा मौन)

 

       और तुम? तुम्हारे पास कहनेके लिये क्या है?

 

      मैंने वातावरणमें एक परिवर्तनका अनुभव किया ।


ओ !

 

१२३


    जी हां, पांच-छः दिन हुए मुझे ऐसा लगा मानों कोई चीज दुर्दमनीय हो ।...

 

 (माताजी हंसती है)

 

दुर्दमनीय । पिछली रात कुछ अजीब-सी बात थी । एक बार मैंने आपको देखा । आप जमीनपर चित लेटी हुई थीं । मैं आपके पास आया ओर आपसे पूछा : ''क्या आपको सिरहाना नहीं चाहिये? '' आपने कहा : ''नहीं, कुछ नहीं,'' और आप जमीनपर चित लेटी रहीं.... । इसका क्या अर्थ है?

 

 (माताजी बहुत देरतक चुप रहती है और उत्तर नहीं देती)

 

 लेकिन अतिमानसके ''नीचे आनद'की यह धारणा और 'चेतना'का प्रवेश, ये हमारे ''अनुवाद'' हैं... । अनुभूति एक शाश्वत तथ्यकी अनुभूतिके रूप- मै आयी : ऐसी चीज बिलकुल न थी जो आ रही हों । निश्चय ही यह सब चेतनाकी स्थितियोंका परिणाम होगा । मुझे नहीं मालूम इसके परे कुछ है या नहीं, लेकिन बहरहाल, इसका तो मुझे स्पष्ट अनुभव हुआ । चेतनाकी गतियां हैं । क्यों, कैसे?.. मैं नहीं जानती । हां, अगर दूसरी ओरसे देखा जाय तो यह तथ्य कि पार्थिव क्षेत्रकी कोई चीज सचेतन हो गयी है, इससे ऐसा लगता है मानों कुछ ''हुआ है''.. । पता नहीं मैं अपनी बात समझा पा रही हू या नहीं.. । मेरा मतलब यह है कि यह शरीर पूरी तरह शेष धरतीके जैसा हीं है, लेकिन किसी कारणसे ऐसा हुआ है कि यह दूसरी तरहसे सचेतन हों गया है; तो, इसे साधारण पार्थिव चेतनाकी भाषामें अनूदित करते हुए ''आगमन'', ''अवतरण'', ''आरंभ'' कहा जाता है ।... लेकिन क्या यह आरंभ है? कौन-सी चीज है जिसका ''आगमन'' हुआ है?... समझ रहे हों? परम प्रभुके सिवाय कुछ मी तो नहीं है (मैं भाषाकी सुविवाके लिये ''परम प्रभु'' कह रही हूं अन्यथा...), केवल परम प्रभु ही हैं, और कुछ है ही नहीं, और किसी चीजका अस्तित्व नहीं है । सभी चीजें सचेतन रूपसे उनके अंदर होती है और हम सब... इस 'अनन्तता'में बालूके कण जैसे है; केवल हम परम प्रभु है जिसके अंदर परम प्रभुकी चेतनाके बारेमें सचेतन होनेकी क्षमता है । यह ठीक यही है ।

 

 ( मौन)

 

     इस अनुभूतिसे पहले जब मैं समस्त पीडाकी, भौतिक जीवनकी विभीषिकाओंकी चेतनामें थी तो एक निश्चित समयपर एक चीज आयी (उसने ''कहा'' तो नहीं पर हम इन शब्दोंका उपयोग करनेके लिये बाधित हैं, पर यह सब मानसिक रूप दिये बिना हुआ) । यह एक संस्कार था (अगर मैं उसका अनुवाद करुँ तो कहूंगी) : ''तुम्हें पागल होनेका भय नहीं है? '' समझे? (यह केवल अनुवाद है) । और तब शरीरने सहज रूपसे उत्तर दिया ''हम सब पागल हैं और जितने पागल हैं उससे अधिक पागल नहीं हों सकते ।'' और चीज तुरन्त शान्त हो गयी ।

 

 (लंबा मौन)

 

    चेतना यहां स्थित है (वक्षकी ओर इशारा करते हुए), वह (मन और ऊपरकी ओर संकेत), वह प्रकाश है, प्रकाश... (विशालका संकेत) । लेकिन इस शरीरमें, वह यहां है, चेतना (फिरसे वक्षकी ओर संकेत) । मेरा मतलब है चेतना... कि हम परम प्रभुमें हैं ।

 

   मैं जानती हू कि वहां जो चेतना है उसे मालूम है कि बोलनेका यह ढंग बिलकुल बचकाना है । परंतु उसे यह बचकाना तरीका उस तरीकेकी अपेक्षा ज्यादा पसंद है जो बिलकुल यथार्थ होनेकी कोशिश करता है और होता है मानसिक ।

 

१२४

२७ नवंबर, १९६८

 

 वह जारी है... शरीरको लगता है कि वह समझना शुरू कर रहा है । स्वभावत: उसके लिये कोई विचार नहीं - बिलकुल कोई विचार नहीं है, परंतु चेतनाकी अवस्थाएं हैं । चेतनाकी ऐसी अवस्थाएं जो एक-दूसरेको पूर्ण करती हैं, एक-दूसरेका स्थान लेती है... यहांतक कि वह तो पूछता है कि कोई विचारके द्वारा कैसे जान सकता है; उसके लिये जाननेका, बोध प्राप्त करनेका एकमात्र तरीका है चेतना । और यह सामान्य दृष्टि- बिन्दुसे अधिकाधिक स्पष्ट होता जा रहा है और वह उसे अपने ऊपर भी लागू करता है, यानी, एक कार्य किया जाता है ताकि शरीरके सभी भाग सचेतन हों जायं, केवल उनमेंसे गुजरनेवाली शक्तियोंके बारेमें
 


 ही नहीं, बल्कि उसकी आन्तरिक क्रियाओंके बारेमें भी सचेतन हों । वह अधिकाधिक यथार्थ होता जा रहा है ।

 

    हां, सबसे बढ़कर यह : उसके लिये हर चीज चेतनाका तथ्य है और जब वह कुछ करना चाहता है तो वह प्रायः यह नहीं जान पाता कि कुछ करनेको मानसिक रूपसे कैसे जाना जाता है; उसे करनेकी विधिके बारेमें सचेतन होना चाहिये; और केवल अपने लिये हीं नहीं, अपने चारों ओरके लोगोंके लिये भी । यह एक इतना स्पष्ट तथ्य होता जा रहा है... फिर किसी औरसे कुछ समझना; उदाहरणके लिये, कोई चीज करनेका तरीका सीखना, उसके लिये तो, चीज करनेसे, उसमें चेतनाको लगानेसे ही सीखी जा सकती है । यह बात कि किसी औरको समझाना चाहिये, कोई और समझाने योग्य है... यह उसे खोखली, खोखली - रीति मालूम होती है ।

 

   और वह अधिकाधिक ऐसा होता जा रहा है ।

 

 ( मौन)

 

     माताजी, आपने मेरे अंतर्दर्शनके बारेमें कुछ नहीं बतलाया जिसमें मैंने आपको जमीनपर सीधा लेटे हुए देखा था ।

 

 (माताजी हंसती हैं) मेरा ख्याल है कि यह पूर्ण समर्पणका प्रतीक हैं । मैं पीठके बल लेटी थी न? ऐसा ही था न?

 

     जी, पीठके बल जमीनपर ।

 

 यह संपूर्ण समर्पणमें संपूर्ण ग्रहणशीलताकी मनोवृत्ति है । यह शरीरकी वृत्तिकी मूर्त्त अभिव्यक्ति होनी चाहिये ।

 

   क्योंकि सचमुच, मुझे पता नहीं कि कोई ''टुकड़े'', कोई अवयव ऐसे हैं जिनमें अभीतक वह चीज हो जिसे स्वाधीनताका भाव कहते है । वास्तवमें शरीरने अपना समर्पण कर दिया है, यानी, अब उसमें अपनी इच्छा नहीं रही - उसमें कोई कामना नहीं है, अपनी इच्छा नहीं है । वह मानो सारे समय ''सुनता रहता है''' -- सारे समय, मानों 'आदेश' पकड़नेके लिये (कान लगाये रहता है) ।

 

   वह अभी सीखना शुरू कर रह। है कि उस स्थान या क्रियाको कैसे पकड़ा जाय जो... मैं ''रूपांतरित'' तो नहीं कह सकती, क्योंकि यह एक बड़ा शब्द है, जो बाकीके साथ सामंजस्यमें नहीं है और अव्यवस्था पैदा

 

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 कर रहा हों । यह प्रति क्षणका प्रत्यक्ष दर्शन होता जा रहा है । जब कमी कोई ऐसी चीज होती है जो असाधारण मालूम होती है तो यह समझ होती है, यह चेतना होती है कि यह क्यों हुआ और यह कहां पहुचाएगी; किस तरह दीखनेवाली अव्यवस्था अधिक पूर्णताकी ओर ले जायगी । हां, ऐसा है । यह बिलकुल आरंभ है । लेकिन यह आरंभ हों चुका है । इसने कुछ-कुछ सचेतन होना शुरू कर दिया है और केवल अपने लिये ही नहीं, औरोंके लिये भी । उसने देखना शुरू कर दिया है कि चेतना (दिव्य चेतना) दूसरोंके अंदर किस तरह काम करती है; और कभी-कभी वास्तवमें विभाजनका बोध नहीं रहता (शब्द अनुभूतिके बहुत बाद आते है), विभित्रताका बोध रहता है : चीज बहुत मजेदार हों जाती है... विभिन्नता जो -- जिसे अलगावकी ''अर्गला'' कहा जा सकता है - सत्य चेतनामें पूर्णत: सामंजस्य-भरी होगी, एक ऐसी समग्रताका निर्माण करेगी जो अपने-आपमें मूर्त्त पूर्णता होगी (माताजी एक गोल चीजका संकेत करती हैं) । कही अड़चन है -- क्या हो गया है?... हां, क्या हों गया है?...

 

यह जानना बाकी है कि किसी कारण यह जरूरी था या यह अकस्मात् हों गया - लेकिन अकस्मात् कैसे हो सकता है!... क्योंकि इस क्षण (कोई विचार नहीं है, इसलिये जरा अस्पष्ट है), अभी ऐसा लगता है ... हम सीधे-सादे तौरपर कह सकते है : चेतनाकी आश्चर्यजनक प्राप्ति हुई है । उसे प्राप्त किया गया था, इसके दाम चुकाये गये थे, समस्त पीड़ा और अव्यवस्थाकी बड़ी कीमतपर... कल या आज (अब मुझे ठीक याद नहीं है), शायद कल एक समय समस्या बहुत ही तीव्र हो गयी और तब माना भागवत चेतनाने मुझसे कहा : ''इस सारी पीडामें यह मैं हू जो दुख भोग रही हू (भागवत चेतना, है न), मै कष्ट सह रही हू, लेकिन तुमसे अलग तरीकेसे ।', पता नहीं कैसे कहा जाय, यह ऐसा था । ऐसा लगा मानों भागवत चेतना उस चीजका अनुभव कर रही थी जो जो हमारे लिये दुःख-दर्द है । उसका अस्तित्व था, भागवत चेतनाके लिये उसका अस्तित्व था -- लेकिन हमारे तरीकेसे कुछ अलग । और फिर यह समझानेका प्रयास था कि चेतना. क्या है, एक ही समयमें हर चीजकी युगपत चेतना है । अपना भाव प्रकट करनेके लिये हम कह सकते हैं कि सब कुछ एक साथ था । दुःख-दर्द, अत्यधिक तीव्र अव्यवस्था और सामंजस्य, संपूर्णतम आनंद दोनों एक साथ, साथ-ही-साथ अनुभव होते हैं । स्वभावत: इससे दुख-दर्दकी प्रकृति ही बदल जाती है ।

 

    लेकिन वह पूरी तरह सचेतन है कि यह सब बकवास जैसी है, जो चीज है उसका अनुवाद नहीं है ।

 

  और यह प्रत्यक्ष दर्शन मी है कि इन अनुभूतियोंके द्वारा धीरे-धीरे हर एक समुच्चय (जो हमारे लिये शरीर है) अपने-आपको अभ्यस्त करता जा रहा है ताकि वह सत्य चेतनाको सह सकनेकी योग्यता प्राप्त कर लें । इसके लिये अनुकूलनकी गतिकी जरूरत होती हैं ।

 

      लेकिन श्रीअरविन्दने शायद 'विचार और झांकियां''मे लिखा है कि दुःख-दर्द आनंदकी तैयारी है ।

 

 हां, मुझे कहना चाहिये कि श्रीअर्रावंदकी बहुत-सी चीजें हैं जिन्हें अब मै समझना शुरू कर रही हू । और एक अलग ही ढंगसे ।

 

 ( मौन)

 

        यह अनुभव होना कि अब हम किसी चीजको छूने-छूनेको है और फिर . वह बच निकलती है । कोई चीज रह गयी है ।

 

       अभी बहुत दूर, दूर जाना है ।


१२७

प्रासंगिक (२१ दिसंबर, १९६८)

 

किसीने एक प्रश्न पूछा है । मै उसका अनुवाद करता हू : ''पिछले अगस्त और सितंबरकी अपनी अनुभूतियां बतलाते हुए माताजी ''मन और प्राणके निष्कासन''की बात करती है; शरीरके द्रुत और सार्थक रूपांतरके लिये उन्हें अलग करनेकी जरूरत क्यों है? क्या अतिमानसिक चेतना उनपर भी काम नहीं करती ?''

 

   ''पीडा जो कल्पनातीत आनन्द-स्पर्शक लिये घोर परिश्रम करती है ।', 'विचार और सूत्र' में वे कहते हैं.

 

   सूत्र ९३ -- ''दुःख-दर्द हमारी दिव्य जननीका स्पर्श है जो हमें यह सिखाती हैं कि किस तरह सहन किया जाता और आनंदमें वर्द्धित हुआ जाता है । उस माताकी शिक्षाके तीन स्तर हैं -- सबसे पहले सहनशीलता, फिर अंतरात्माकी समता और अंतमें परमानंद ।',

 

१२८


निश्चित रूपसे करती है, वह बहुत पहले काम कर चुकी है । चूंकि शरीर प्राण और विशेषकर मनकी आज्ञा माननेके लिये अभ्यस्त है, ( अभ्यस्त था) अतः उसकी आदत बदलनेके लिये, वह उच्चतर चेतनाकी आज्ञा मान सकें, काम तेजीसे चले इसलिये यह किया गया था । लोगोंमें वह मन और प्राणके द्वारा काम करती है । मैंने कहा है कि वह ज्यादा निश्चित भी है ( परीश्रणके रूपमें यह खतरनाक है), लेकिन शरीर गतिको काफी तेज कर देता है । क्योंकि सामान्यत. आदमीको इन दोके द्वारा शरीरपर काम करना पड़ता है, जब कि इस तरीकेसे जब वह दो न थे तो उच्चतर चेतना सीधा काम कर सकती थीं । बस यही ।

 

    इस पद्धतिके लिये सलाह नहीं दी जाती! जब कभी अवसर आता है, मैं यह दोहरा देती हू । लोगोंको यह कल्पना न करनी चाहिये कि वे इसका परीक्षण कर देखेंगे ( वे ऐसा कर भी न सकेंगे, इसका कुछ मूल्य नहीं), इसकी सलाह नहीं दी जाती । तुम्हें अपना समय लेना चाहिये । केवत्ठ बढ़ते हुए वर्षोकी कारण... ताकि यह तेजीसे हों सकें ।

 

 ( मौन)

 

 यह अजीब बात हैं कि शरीरकी स्वाभाविक वृत्तिके मानों प्रदर्शन-सें हों रहे हैं (मेरा ख्याल है कि सभी शरीरोंके लिये एक ही बात नहीं है : यह ड्सपर निर्भर है कि शरीर कैसे बना है, यानी, मां, बाप, पूर्ववृत्त आदि), अपने-आपपर छोडे हुए शरीरका प्रदर्शन । उदाहरणके लिये, इस शरीरमें एक प्रकारकी कल्पना है (वह कुछ अजीब-सी चीज है), एक नाटकीय कल्पना, सारे समय उसे यही लगता है कि वह संकटोंके बीच जी रहा है; और फिर उसमें अब भी जो श्रद्धा है उसके द्वारा संकट सिद्धिमें रूपांतरित हो जाता है -- ऐसी ही बेतुकी बातें । तो कुछ समयके लिये, उसे इस कल्पनाके साथ छोड़ दिया जाता है (पिछले दिनों यही हुआ), और जब वह इस मूढ़ता-भरी क्रियासे बिलकुल थक जाता है, तो पूरी तीव्रताके साथ प्रार्थना करना शुरू करता है ताकि यह चीज बंद हो जाय । तुरंत, हप्प! वह ठीक ऐसे हीं करता है (मुद्रा), वह सीधा चक्कर लगाता है और ध्यानमें चला जाता है -- कही दूर नहीं : बिलकुल ही पास -- उस अद्भुत 'सत्ता'के ध्यानमें जो हर जगह है ।

 

    यह इस तरह और ऐसा है (माताजी तेजीसे अपनी दो उंगलियां घुमाती है), इसमें समय नहीं लगता, इसमें कोई तैयारी-वैयारी नहीं होती! हप्प! गप! इस तरह (वही मुद्रा), मानों शरीरकी मूढ़ता दिखानेके लिये

 

१२९


 हो । यह बिलकुल ही मूर्खता-भरी चीज है, स्वयं अपने ऊपर छोडे हुए शरीरकी मूर्खताका प्रदर्शन है और फिर, यह अद्भुत 'चेतना' आती है जिसमें सब कुछ गायब हो जाता है.. । मानों कोई ऐसी चीज हो जिसमें कोई संगति नहीं, कोई वास्तविकता नहीं, और जो गायब हो जाती है । और इसके प्रमाणस्वरूप कि यह केवल कल्पना नहीं, बल्कि तनय है शक्तिके प्रमाणस्वरूप ताकि यह सब. जीवनका एक व्यर्थ स्वप्न (जो इस शरीरकी चेतनाके लिये भयंकर बन गया है) 'अद्भुत' वस्तुमें बदल सकता है, इस तरह, केवल चेतनाके पलटने-भरसे ।

 

    यह अनुभूति अपने पूरे व्यौरेके साथ सभी क्षेत्रोंमें तथ्य प्रदर्शनके रूपमें दोहरायी जाती है । और यह रूपांतरकी ''लंबी प्रक्रिया'' नहीं है । यह ऐसी बात है जैसे कोई चीज अचानक पलट दी गयी हो ( माताजी दो उंगलियोंको उलटती है), और तब वह कुरूपता, मिथ्यात्व, पीड़ा आदि देखनेकी जगह अचानक आनन्दमें निवास करता है । सब चीजें वह-की- वही हैं, चेतनाके अतिरिक्त कुछ भी नहीं बदला ।

 

     तब यह प्रश्न रहता है (शायद वह सामने हीं पड़ा है और संभवत: आ रहा है) कि इस अनुभूतिको द्रव्यात्मक रूपमें कैसे बदला जाय?.. स्वयं शरीरके लिये, यह बिलकुल स्पष्ट है. लगभग घटे-भर या दो-तीन घंटोंमें उसने बहुत पीड़ा सही, और वह बहुत हीं दुःखी था (नैतिक पीड़ा नेही : बिलकुल भौतिक पीड़ा) और तब एकदम अचानक पप्प! -- सब कुछ गायब... देखनेमें शरीर जैसा-का-वैसा बना रहता है (माताजी अपने हाथ देखती हैं), परंतु आंतरिक अव्यवस्थाकी जगह, जो उसे दुःखी करती है, सब कुछ ठीक-ठीक चलता है, यह एक महान् शांति है, महान् स्थिरता है और सब कुछ भली-भांति चल रहा है । लेकिन यह, यह तो एक शरीर- के लिये है -- इसकी औरोंपर क्या क्रिया होती है?... वह अन्य सचेतन सत्ताओंमें संभावना देखने लगती है । नैतिक दृष्टिबिंदुसे (यानी, मनोवृत्तियों, स्वभाव और प्रतिक्रियाके बारेमें) यह बिलकुल दृष्टिगोचर होता है; भौतिक दृष्टि-बिन्दुसे भी कभी-कभी अचानक एकदम कोई चीज गायब सज़े जाती है ( जब श्रीअरविंदने एक दर्दको हटा दिया था तब हमने इसका अनुभव किया था माताजी दिखाती हैं जैसे कोई सूक्ष्म हाथ आया और दर्दको ले गया कहते हीं. -. बस, वह चला गया, गायब हों गया, इस तरह), लेकिन यह नित्य सामान्य वस्तु नहीं है । यह केवल यह दिखानेके लिये है कि ऐसा हों सकता है, इस तथ्यसे कि दों-एक: उदाहरणोंमेंसे ऐसा हो चुका है - यह दिखाता है कि ऐसा हों सकता है । इस तरह यह कहा जा सकता है शरीरको ऐसा लगता है कि वह किसी

 

१३०


चीजमें कैद है -- हां, कैद -- मानों एक बक्सेमें कैद है, लेकिन वह उसके आर-पार देख रहा है; वह देखता है और (एक सीमित तरीकेसे) किसी ऐसी चीजमेंसे होकर काम कर सकता है जो अभीतक बनी है और जिसे गायब हों जाना चाहिये । यह ''कुछ चीज'' ही कैदी होनेका भाव देती है । उसे कैसे गायब हो जाना चाहिये? यह मुझे अभीतक नहीं मालूम ।

 

     हमें एक शरीरकी चेतना और सब शरीरोंकी चेतनाका संबंध जानना चाहिये । और: यह कि किस हदतक निर्भरता है और किस हदतक स्वाधीनता; यानी, शरीर 'किस हदतक अपनी चेतनामें  और परिणामस्वरूप, आवश्यक रूपसे अपने बाह्य रूपमें) रूपांतरित किया जा सकता है... बिना, बिना सबके रूपांतरके -- किस हदतक? और एक शरीरके रूपांतरके लिये सबका कितना रूपांतर जरूरी है । यह अभी जानना बाकी है ।

 

 ( मौन)

 

अगर सब कुछ कहा जाय तो घंटों लग जायंगे ।

 

         लेकिन आपने जिस ''बक्से'' की बात की थी वह वैश्व बक्सा...

 

हां

 

मुझे प्रायः ऐसा लगता है कि ये सब तथाकथित मानव विधान या ''प्राकृतिक विधान'' केवल सामूहिक रूपमें दृढ़ की गयी विशाल रुग्ण कल्पनाएं हैं -- और यही वह बक्सा है ।

 

 हां, ठीक ऐसा ही, ठीक ऐसा ही ।

 

           तो फिर कैसे

 

 हां, व्यक्तिगत प्रकाश उसपर किस हदतक क्रिया कर सकता है?... यह एक समस्या है... मुझे पता नहीं ।

 

 ( मौन)

 

         धरतीपर जो सामूहिक प्रगति हुई है उसका यह बहुत अच्छा स्पष्ट दर्शन


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है; (अनुभूतियोंका हमारो क्षेत्र धरती है) लेकिन भूतकी ओर देखते हुए लगता है कि सबके बदलनेमें बहुत अधिक समय लगेगा... फिर भी यह लगभग प्रतिज्ञा थी कि... अचानक परिवर्तन होने वाला है (जो हमारी चेतनामें ''अवतरण'' का रूप लेता है, एक ऐसी क्रिया जो बस ''होती है'': कोई ऐसी चीज जो अभीतक काम नहीं कर रही थी और जिसने अब काम करना शुरू कर दिया है - हमारी चेतनामें उसे इसी तरह कहा जाता है) ।

 

     देखेंगे ।

 

    स्वयं शरीरके लिये एक बढ्ती हुई अनुभूति होती है, यानी, भंगुरताके साथ-साथ अधिकाधिक यथार्थ (अति भंगुरता : एक छोटी-सी गति भी उसके वर्तमान अस्तित्वको समाप्त कर सकती है), और सप्ता ही - साथ ही, युगपत रूपसे शाश्वतताका भाव! यह भाव कि उसका अस्तित्व शाश्वत है, दोनों एक ही समय।

 

यह सचमुच संक्रमणकाल है ।

 

 ( मौन)

 

     दो-एक बार जब.. जिसे हम जाननेके लिये व्यथा कह सकते है, बहुत तीव्र थी, जब उसे भागवत उपस्थितिका पूरा-पूरा संवेद था, हर जगह, अंदर, बाहर, हर जगह उपस्थितिका संवेद (माताजी अपना मुख और हाथ छूती है), तो उसने वर्तमान अव्यवस्थाके बारेमें पूछा, कैसे? (उसने 'क्यों' नहीं पूछा, उसमें इस तरहका कुतूहल न था) जब यह चीज बहुत तीव्र, बहुत तीव्र थी तो दो-एक बार उसे लगा कि एक बार यह मालूम हों जाय तो बस -- अमरता । तब वह बढ्ती है, रहस्यको पकडू लेनेके किये बढ्ती है, उसे लगता है कि बस अब रहस्य मिलने ही वाला है और फिर ... और तब अभीप्सामें प्रकारका शमन शांति, शांति, शांति... हां, दो-एक बार ऐसा लगा कि बस अब वह समझमें आने हीं वाला है ( ''समझमें आने'' का मतलब हुआ जीवनमें उतरना; यह विचारसे ''नम- झन'' नहीं है. जीना है), और फिर... (बच निकलनेकी मुद्रा) और एक 'शाति'का अवतरण होता है ।

 

      लेकिन यह भाव बना रहता है कि यह कल होगा । लेकिन कल, कौन- सा कल? हमारी गणनाके अनुसार नहीं ।

 

     देखेंगे ।

 

   लेकिन सब पहलुओंको लिये हुए असंख्य अनुभूतियां है । घंटोंकी जस्त- रत है और फिर भी लगता है कि शब्द चीजको मिथ्या बना रहे हैं । अब

 

वह इतनी सरल नहीं, अब वह इतनी सुन्दर नहीं रही, उतनी स्पष्ट नहीं रही । वह जटिल होती जा रही है ।

 

   शरीरको एकदम अद्भुत क्षण मिलते है; और घंटोंकी यंत्रणा मिलती है और अचानक पक अद्भुत क्षण । लेकिन वह क्षण समझाया नहीं जा सकता... । अगर हम समयके अनुपातमें वृद्धिकी स्थितिका मूल्य आंकें तो... अद्भुत क्षण कुछ ही मिनट रहता है और तब, यदि हम घंटों रहती है, पीडाके घंटे भी होते है । और तब, यदि हम इस अनुपातसे  मूल्यांकन करें, तो भी हम बहुत, बहुत, बहुत अधिक दूर..

 

    लेकिन किया क्या जाय? चलना तो है हीं, बस ।

 

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प्रासंगिक (१ जनवरी, १९६९)

 

 अतिमानव चेतनाका अवतरण :

 

     वह रातको धीरे-धीरे आया और आज सवेरे जागनेपर 'प्रभात' था, वातावरण इतना हल्का था । शरीरको लगा सचमुच नया है । एक स्वर्णिम प्रकाश, पारदर्शक और ''सद्भावनापूर्ण'' निश्चितिके अर्थमें--सामंजस्यपूर्ण निश्चिति ।  । मानो स्वर्णिम . यह सचमुच, .. सद्भावपूर्ण, वह नया था ।

 

      यह बात थी

 

      जब में लोगोंसे "शुभ नव वर्ष कहती हू तम उप वह बांटती हू । -भार आज सवेरे मैंने अपना समय सहज रूपसे ''शुभ नव वर्ष, शुभ नव वर्ष'' कहते-कहते बिताया.. तो...

 

प्रासंगिक (४ जनवरी, १९६९)

 

     पहली तारीखको सवेरे सचमुच आश्चर्यजनक बात हुई... । केवल मैंने ही उसे अनुभव नहीं किया, औरोंने भी अनुभव किया है । वह ठीक आधी रातके बाद था, लेकिन मैंने दो बजे अनुभव किया और औरोंने

 


सवेरेके चार बजे । वह.. - पिछली बार मैंने तुमसे उसके बारेमें बस दो शब्द कहे थे, लेकिन आश्चर्यके बात यह है कि मैं जिसकी आशा कर रही थी उसके साथ इसका जरा मी मेल न था ( मैं किसी चीजकी आशा न कर रही थी), मैंने जिन दूसरी चीजोंको अनुभव किया था उनके सा थ मैल न था । यह बहुत ज्यादा द्रव्यात्मक वस्तु थी, यानी, बहुत बाहरी -- बहुत बाहरी -- और वह स्वर्ण ज्योतिसे दीप्तिमान थी । वह बहुत बल- शाली, बहुत शक्तिशाली थी; लेकिन उसका स्वभाव स्मितपूर्ण हितैषिता- का था, शांत हर्ष और तुक प्रकारसे हर्ष और ज्योतिकी ओर एक प्रकारका उद्घाटन । वह ' 'शुभ नव वर्ष' ' की तरह शुभ कामना थी । उसने मुझे अचंभेमें डाल दि३म । वह कम-से-कम तनि घंटे रही । मैंने उसे अनुभव किया । उसके बाद मैं उसके साथ व्यस्त न रही । मुझे पता नहीं क्या हुआ! लेकिन मैंने तुमसे उसके बारेमें दो शब्द कहे थे । और भी दो-तीन लोगोंसे उसके बारेमें बात की : उन सखने उसे अनुभव किया था, मतलब यह कि वह बहुत द्रव्यात्मक थी । उन सबने उसे यूं अनुभव किया : एक प्रकारका हर्ष, लेकिन मैत्रीपूर्ण हर्ष, शक्तिशाली, और... बहुत, बहुत कोमल, बहुत स्मितपूर्ण, बहुत हितैषितापूर्ण.. । मुझे पता नहीं वह क्या है, मुझे पता नहीं कि वह क्या है, लेकिन वह एक प्रकारकी हित  पिता है, इसलिये कोई ऐसी चीज है जो मनुष्यके बहुत नजदीक है । और वह इतनी ठोस थी, इतनी ठोस!! वह इतनी ठोस थी मानों उसमें स्वाद था । उसके बाद मैंने अपने-आपको उसमें व्यस्त नहीं रखा, बस, दो-तीन लोगोंके साथ उसके बारेमें बात की : उन सबने उसे अनुभव किया था । मुझे पता नहीं कि वह मिश्रित थी या वह वापिस तो नहीं गयी । ऐसा नहीं लगा कि वह चीज वापिस जानेके लिये आयी थी ।

 

    मै साधारणत : जिन चीजोंको अनुभव करती हू, यह उनसे कही अधिक बाह्य थीं, कहीं अधिक बाह्य थी... बहुत कम मानसिक, यानी, उसमें ' 'वादे' 'की कोई भावना न थी, या... नहीं । वह बल्कि. मुझे ऐ सा लगा कि कोई बहुत बड़ा व्यक्तित्व है -- बहुत ही बड़ा, यानी, ऐसा जिसके लिये समस्त धरती छोटी-सी है, धरती इतनी छोटी ( माताजी हथेली पर गेंद रखती है), गेंद जैसी -- एक विशालकाय व्यक्तित्व, बहुत, बहुत सद्भावनापूर्ण, जो आता छोटी .. ( माताजी ' हथेलीपरसे गेंदको बहुत धीमे-से उठाती हुई प्रतीत होती हैं) । उससे सगुण भगवानकि छाप पड़ती थी ( और फिर भी... पता नहीं), सहायताके लिये जो आता है, इतना बलवान्, इतना बलवान् और साथ-ही-साथ इतना कोमल, सबको अपने आलिगनमें भरता हुआ ।

 

१३४


     और वह बहुत बाह्य था. शरीरने उसे सब जगह अनुभव किया, सब जगह ( माताजी अपने चेहरेको, हाथोंको छूती है), सब जगह ।

 

      वह क्या बन गया? मुझे नहीं मालूम ।

 

   सालका प्रारंभ था । ऐसा था मानों कोई देवाकार ( यानी, कोई) 'शुभ नव वर्ष'' की कामना करने आया था और उसमें वर्षको शुभ बनाने- की शक्ति थी । वह ऐसा था ।

 

       परंतु वह था क्या?..

 

       इतना ठोस...

 

     मुझे पता नहीं ।

 

   वह.. क्या वह व्यक्तित्व था (क्योंकि उसका कोई रूप न था, मैंने कोई रूस नहीं देखा, केवल वही था जिसे वह लेकर आया था !माताजी वातावरणको अनुभव करती है संवेदन, भाव. ये दो, संवेदन और भाव), मैंने अपने-आपसे पूछा : क्या यह अतिमानसिक व्यवितत्व नहीं है?... जो आगे चलकर अपने-आपको द्रव्यात्मक शरीरोंमें अभिव्यक्त करेगा ।

 

   शरीर, यह शरीर उस क्षणसे अनुभव कर रहा है (वह चीज हर जगह बहुत गहराईमें पैठ गयी है), शरीर बहुत ज्यादा प्रसन्न है, कम धन है, प्रसन्न स्मितमय व्यापकतामें अधिक सजीव अनुभव करता है । उदाहरण- के लिये, वह ज्यादा आसानीसे बोल रहा है । इसमें एक स्वर - सद्भावनाका एक सतत स्वर है । एक मुस्कान, हां, दया-भरी मुस्कान और यह सब बड़ी शक्तिके साथ... मुझे पता नहीं !

 

     तुमने कुछ अनुभव नहीं किया?

 

          उस दिन मुझे संतोष अनुभव हो रहा था ।

 

ओहो! यह वही है, हां, यह वही है ।

 

       क्या यह अतिमानसिक व्यक्तित्व है?... जो उन सबमें अवतरित होगा जिनके पास अतिमानसिक शरीर होगा..

 

    वह दीप्तिमान, मुस्कराती हुई शक्तिके द्वारा सद्भावनापूर्ण थी । यानी, मनुष्यके अंदर सद्भावना एक दुर्बल चीज होती है, इस अर्थमें कि वह युद्ध- को पसंद नहीं करती, लड़ना नहीं चाहती, लेकिन यह दूसरा इस प्रकार- का न था! एक ऐसी सद्भावना जो बाधित करती है । (माताजी दोनों हाथेंकी मुट्ठियां कुरसीके हाथोंपर उतारती हैं ।)

 

    मुझे इसमें रस आया है क्योंकि यह बिलकुल नया है । और इतना ठोस! इसकी तरह ठोस (माताजी अपनी कुरसीके हत्थेको छूती है), वैसा

 

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ठोस जिसे भौतिक चेतना साधारणत: ''और लोग'' सोचती है । यानी, वह किसी आंतरिक सत्तामें, चैत्य सत्तामेंसे नहीं, सीधा शरीरपर आया था ।

 

    वह है क्या?. हा, शायद वह है.. जबसे वह आया है. तबसे शरीर को एक निश्चितिकी अनुभूति है, एक ऐसी निश्चिति मानों अब उसे जाननेकी चिंता या अनिश्चिति नहीं है । शरीर अपने-आपसे पूछा करता था. ''वह क्या होगा? वह 'अतिमानस' कैसा होगा? भौतिक रूपमें, भौतिक रूपमें वह कैसा होगा? '' अब वह इन बातोंके बारेमें नहिं सोचता । वह संतुष्ट है ।

 

      क्या बह कोई ऐसी चीज है जो उन शरीरोंमें व्याप्त हो जायगी जो तैयार हैं?

 

 हां, मेरा ख्याल है, हां । मुझे लगता है कि यह वह रूप है जो उन शरीरोंमें... जो अतिमानसके शरीर होंगे, प्रवेश करेगा -- अपने-आपको प्रकट करेगा -- प्रवेश करेगा और प्रकट करेगा ।

 

    या शायद.. शायद अतिमानव, मुझे नहीं मालूम, दोनोंके बीच मध्यस्थ । शायद अतिमानव. वह बहुत ज्यादा मानवीय था परंतु, मुझे कहना चाहिये, दिव्य अनुपातोंमें मानव, है न ।

 

     एक ऐसा मानव जिसमें दुर्बलता और परछाइयां न थीं. वह सारा प्रकाश था -- समस्त प्रकाश और स्मित.. साथ ही मधुरता ।

 

     हां, शायद अतिमानव ।

 

 ( मौन)

 

पता नहीं क्यों, पिछले कुछ क्षणोंसे मै बराबर अपने-आपसे कह रहा हू : जो लोग यह न जानते होंगे कि चीजें सचमुच कैसे हुई हैं, वे कहेंगे, जब अतिमानसिक शक्ति धरतीके वातावरण मै और उनके अन्दर प्रविष्ट हो जायगी तो बे कहेंगे: ''हां, इस सब कामका श्रेय हमें है ।',

 

(माताजी हंसती है) हां, संभवत: ।

 

     यह हम, हमारी उत्कृष्ट मानवताका पुष्प है ।

 

 हा, निश्चय हा । हमेशा ऐसा होता है ।

 

    इसलिये मै कहती हू -- मैं कहती हू, आखिर हम सब, हममेंसे हर एक- को अंतमें सब कठिनाड्योंका सामना करना होगा, लेकिन यह भागवत कृपा है । क्योंकि अपनी ओरसे हम, हम जानते होंगे कि यह कैसे हो रहा है -- और हम नेस्तनाबूद नहीं हों जायंगे, है न? हमें मालूम होगा कि चीज किस तरह की गयी थी ।

 

१३६

प्रासंगिक (८ जनबरी, १९६९)

 

    क्या मैंने तुम्हें बतलाया कि मैंने इस चेतनाको जान लिया पैर?

 

         जब आप पिछली बार बोली थीं तो आपने जान लिया था ।

 

 हा, लेकिन मैंने कहा था ''अतिमानसिक चेतना'' ।

 

        और बादमें आपने जोड़ा था ''शायद अतिमानव'' ।

 

 हा, ऐसा ही है । यह अतिमानव चेतनाका अवतरण है । मुझे बादमें विश्वास रुले गया ।

 

    पहली जनवरीको आधी रातके बादकी बात है । मै सवेरे दो बजे जाग गयी । मै हँसी चेतनासे घिरी हुई थी जो बहुत ठोस और नयी थी, इस अर्थमें कि मैंने उसे पहले कभी नहीं अनुभव किया था । और वह दो-तीन घंटे ठोस रूपमें बनी रही और फिर फैल गयी, ऐसे लोगोंकी खोजमें गयी जो उसे ग्रहण कर सकते हों... । मैंने जाना कि यह अतिमानव- की चेतना थो, यानी, मनुष्य और अतिमानसिक सत्ताकी मध्यवर्ती सत्ता ।

 

      उसने शरीरको एक प्रकारका आश्वासन और विश्वास दिया है । उस अनुभूतिने शरीरको स्थिर बना दिया है और अगर यह सच्ची वर्ति रख सकें तो उसे सारी सहायता प्राप्त होगी ।

 

१३७

प्रासंगिक (१८ जनवरी, १९६९)

 

 अतिमानव चेतनाके अवतरणके बारेमें ।

 

     उस दिन जब 'क' आया.. जैसे ही उसने प्रवेश किया ( वहां खड़ा था वह), तो यह वातावरण यहीसे वहांतक ( माताजी अपने सामने एक चक्र-सा बनाती है) आया और मुझे एक दीवारकी तरह घेर लिया । वह मोटा था, प्रकाशपूर्ण था और फिर शक्तिशाली था! मुझे वह दिखायी दे रहा था, वह बहुत अधिक द्रव्यात्मक था मानों इतनी मोटी ( लगभग चालीस सेण्टीमीटरका संकेत) किलेकी दीवार हों । जबतक वह यहां रहा तबतक यह बनी रहीं ।

 

    और वह बहुत सचेतन रूपमें क्रियाशील थीं ।

 

   वह मानों शक्तिका प्रक्षेपण था । अब वह सामान्य वस्तु बन गयी है ।

 

    उसके अंदर एक चेतना है -- एक बहुत ही मूल्यवान वस्तु -- जो शरीरको पाठ बढ़ाती है, उसे 'सिखाती है कि उसे क्या करना चाहिये, यानी, उसे कैसी वृत्ति अपनानी चाहिये, उसमें कैसी प्रतिक्रिया होनी चाहिये.. । मै तुमसे बहुत बार कह चुकी हू कि जब कोई निर्देश देनेवाला न हो तो रूपांतरकी प्रक्रियाका पता लगाना बहुत कठिन है; तो यह मानों उसका उत्तर था वह शरीरसे यह कहने आया. ' 'यह वृत्ति अपनाओ, यह करो, वह इस तरह करो,'' और अब शरीर संतुष्ट है, वह पूगई तरह आश्वस्त है । अब वह कोई भूल नहीं कर सकता ।

 

     यह बहुत मजेदार है ।

 

      वह ' 'पथ प्रदर्शक' 'की तरह आया -- वह व्यावहारिक था, बिलकुल व्यावहारिक : ' 'वह चीज, उसे त्यागना चाहिये; उसे स्वीकार चाहिये; उसको व्यापक बना दो; वह... '' सभी आंतरिक गतियां । और यह भी बहुत द्रव्यात्मक बन जाता है, इस अर्थमें कि वह कुछ स्पन्दनोंके बारेमें कहता है ' 'तुम्हें इसे प्रोत्साहन देना चाहिये,' ' कुछ औरोंके लिये. ''इसे सारणीबद्ध करना चाहिये,'' और फिर कुछके लिये : ' 'उसे निकाल बाहर करना चाहिये... '' इस तरहके छोटे-छोटे निर्देश ।

 

 ( मौन)

 

 किसी पुराने प्रश्नोत्तर में (जब मैं क्रीडांगणमें बोला करती थी), मैंने

 


कहा था. ''निश्चय ही अतिमानव पहले शक्तिकी सत्ता होगा ताकि वह अपनी रक्षा कर सकें ।''' हां, वही बात है । वही अनुभूति है यह : यह अनुभूति बनकर वापिस आयी है और चिक यह अनुभूति बनकर लौट है इसलिये मुझे याद हो आयी कि मैंने ऐसा कहा था ।

 

     जी हां, आपने कहा था कि पहले ''शक्ति' आएगी ।

 

 हां, पहले 'शक्ति' ।

 

   क्योंकि उन सत्ताओंकी रक्षा करनी होगी ।

 

 हां, ठीक यही । हां, पहले मुझे इस शरीरके लिये ही अनुभव हुआ: वह किलेकी दीवारके' रूपमें आया । वह चीज जबरदस्त थी! वह जबरदस्त शक्ति थी! दखिनेवाले कार्यकी तुलनामें अनुपातसे बाहर ।

 

      यह बहुत मजेदार है ।

 

     और फिर इसीलिये, अब जब मै इस अनुभूतिको देखती हू तो परिणाम अधिक यथार्थ और ठोस दिखायी देता है, क्योंकि मन और प्राण नहीं हैं,

 

       ''इन तर्कोसे ऐसा प्रतीत होता है कि (अतिमानसिक अभिव्यक्तिका) सबसे सुनिश्चित और स्पष्ट पहलू और वह एक जो - संभवत: -- सबसे पहले प्रकाशमें आयगा, वह 'आनन्द' और 'सत्य' की अपेक्षा 'शक्ति 'का पहलू अधिक होगा । क्योंकि नापी जातिके पृथ्वीपर स्थापित हो सखने और जीवित रह सकनेके लिये यह जरूरी होगा कि पृथ्वीके अन्य तत्त्वोंसे उसकी रक्षा की जाय; और शक्ति ही सुरक्षा है (कृत्रिम, बाह्य. और झूठी शक्ति नहीं, बल्कि सच्चा बल, जयशाली 'संकल्प') । तो यह मानना असंभव नहीं है कि अतिमानसिक क्रिया सामंजस्य, ज्योति, आनन्द और सौंदर्यकी क्रिया होनेसे भी पहले शक्तिकी क्रिया होनी चाहिये ताकि वह सुरक्षा कर सके, स्वभावत: एक क्रियाको सचमुच प्रभावकारी हो सकनेके किए 'ज्ञान', 'सत्य', 'प्रेम' और 'सामंजस्य' पर आधारित होना चाहिये; परंतु ये चीजें भी तमी अभिव्यक्त हों सकेंगी -- प्रत्यक्ष रूपमें, थोड़ीथोड़ी करके अभिव्यक्त होगी -- जब, यूं कहा जा सकता है कि आधार सर्व- समर्थ 'संकल्प' एवं 'शक्ति' की क्रियाद्वारा तैयार हों चुकेगा ।''

 

 

  (श्रीमातृवाणी, खण्ड १; प्रश्न और उत्तर १९५७-५८; १८ दिसंबर; पृ. २२८)


१३९


 क्योंकि उसका स्थान 'तत्' ले लेता ह । और जाननेके इस सारे शांत आश्वासनके बाद, जो साथ-ही-साथ आता है, बात मजेदार हों जाती है ।

 

( मौन)

 

 तुम्हें कुछ कहना है?

 

 

 

     मै अपने-आपसे पूछ रहा था कि यह चेतना व्यक्तिगत रूपमें कैसे काम करेगी? उदाहरणके लिये, आपके सिवाय किसीमें ।

 

उसी तरह । केवल वे लोग जो अपने-आपको वस्तुनिष्ठ रूपमें देखनेके अभ्यस्त नहीं हैं वे कम देखते है, बस । वहां मानों वह रूईमेंसे गुज़रती है, वह हमेशा ऐसा करती है, अन्यथा तरीका वही है ।

 

         मेरा मतलब यह है : यह ठीक मनपर उतनी क्रिया नहीं करेगी जितनी शरीरपर?

 

 मैं आशा करती हू कि वह ठीक तरहसे विचार करवायेगी ।

 

       वास्तवमें यह पथ-प्रदर्शक है ।

 

हां, यह पथ-प्रदर्शक है ।

 

     तो, यह चेतना है ।

 

      मेरे लिए भागवत चेतना अपने-आपको विशेष क्रिया-कलापतक सीमित रखती है, खास अवस्थाओंतक, परंतु वह सदा भागवत चेतना ही होती है; जैसे मानव चेतनामें वह अपने-आपको लगभग शून्यतक सीमित रखती है, इसी तरह सत्ताकी कुछ स्थितियोंमें, कुछ क्रियाओंमें वह अपने-आपको संभूति की कुछ विधियोंतक सीमित रखती है ताकि अपनी क्रियाको पूरा कर सकें; और मैंने उसके लिये बहुत मांग की है : ' 'मै हर क्षण पथ- प्रदर्शन पाती रहूं, '' क्योंकि इससे बहुत समय बचता है, है न ' बजाय इसके कि अध्ययन करना पड़े, अवलोकन करना पड़े.. । तो अब मै देखती हू कि ऐसा ही हुआ ।

 

 ( मौन)

 

जिन लोगोंने पहली तारीखको स्पर्श पाया था उनमें स्पष्ट परिवर्तन है : विशेष रूपसे... । वास्तवमें उनके सोचनेके ढंगमें एक यथार्थता, एक निश्चितिका प्रवेश हुआ है।

 

          (चलनेसे पहले शिष्य प्रणाम करता है)

 

(माताजी हृदय-क्षेत्रको देखती है) वहां था । यह अजीब है, मानों मुझे यह काम सौंपा गया है कि जो मेरे नजदीक आयें उनका इसके साथ संपर्क करा दु ।


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१५ फरवरी, १९६९

 

       मैं पहले ही कह चुकी हूं कि यह (अतिमानवका) वातावरण और चेतना परामर्शदाताके रूपमें बहुत सक्रिय है । यह जारी है । पिछले दिनों, एक दिन बड़े सवेरे वह... शरीर कभी, कभी इतना प्रसन्न नहीं हुआ; संपूर्ण भागवत उपस्थिति थी, अबाध स्वाधीनता थी, और एक निश्चिति जिसका कोई महत्व न था. ये कोषाणु, अन्य कोषाणु (इस ओर, उस ओर, यानी, सभी शरीरोंको दिखाते हुए) सब जगह जीवन था, सब जगह चेतना थी । ?? सद्वस्तु । यह बिना प्रयासके आयी और फिर चली गयी, क्योंकि ... मैं बहुत व्यस्त थी । और वह इच्छा करनेसे नहीं आ जाती -- जो चीज इच्छा करनेपर आ जाती है उसे ''नकल'' कहा जा सकता है उसमें रंग-रूप तो होता है, पर वास्तविक 'वस्तु' नहीं होती । 'वास्तविक परंतु' जो हमारी अभीप्सा, हमारी इच्छा, हमारे प्रयास... सें एकदम स्वतंत्र है । और यह वस्तु सर्वशक्तिमान मालूम होती हो इस अर्थमें कि तब शरीरकी कोई कठिनाई नहीं रहती । उस समय सब कुछ गायब हो जाता है । परंतु अभीप्सा, एकाग्रता, प्रयास... इससे कुछ नहीं बनता । वह दिव्य संज्ञा है, यह दिव्य संज्ञाकी प्राप्ति है । इन कुछ घंटोंमें (तीन या चार) मै पूरी तरह समझ गयी कि शरीरमें दिव्य चेतना होना किसे कहते है । और तब इस शरीर, यहां यह शरीर, वहां वह शरीर (माताजी अपने इस ओर, उस ओर, चारों ओर इशारा करती है), इससे कुछ नहीं आता-जाता वह एक शरीरसे दूसरेमें बिलकुल स्वाधीन रूपमें, निर्बाध रूपसे जाती-आती रही । वह हर शरीरकी सीमाओं और संभावनाओंको जानती थी- अद्भुत । मुझे इस तरहकी अनुभूति पहले कभी नहीं, कभी

 

१४१


नहीं हुई । एकदम अद्भुत । वह चली गयी, क्योंकि मैं इतनी व्यस्त थी ... । और वह केवल इस कारण नहीं चली गयी कि वह केवल यह दिखाने आयी थी कि वह कैसी है, - यह बात नहीं है; बल्कि इसलिये कि जीवन और जीवन-व्यवस्था तुम्हें हड़प लेते हैं।

 

     मैं जानती हू वह वहां है (पीछेकी ओर इशारा), मै जानती हू, प?' .. । मै जानती हू वह रूपांतर है । और स्पष्ट रूपमें व्यक्ति, कोई अस्पष्ट चीज नहीं, स्पष्ट रूपमें, वह अपने-आपको इस व्यक्तिमें, उस ब्यक्तिमें (इस ओर, उस ओर इशारा) 1 पूरी तरह, स्पष्ट रूपमें प्रकट कर सकता है । एक 'मुस्कान' के साथ ।

 

      और तब स्वयं कोषाणुओंने रूपांतरित होनेके लिये अपने प्रयासके बारेमें बतलाया । ' और वहां 'स्थिर शांति' थी... कैसे समझाया जाय? शरीरने अपनी अभीप्सा और अपने-आपको तैयार करनेकी इच्छाके बारेमें कहा । शरीरने उसकी मांग नहीं की, वह होनेके लिये प्रयास किया जो उसे होना चाहिये । हमेशा इस प्रश्नके साथ ( शरीर प्रश्न नहीं करता, उसके चारों तरफका वातावरण... परिवेश जगत्, मानों जगत् प्रश्न करता है) कि वह चलता रहेगा या विलीन हों जायगा?. वह अपने-आप इस तरह है (आत्म-समर्पणकी मुद्रा, हथेलियां खुली हुई), वह कहता है. ''प्रभो, जैसी तेरी इच्छा ।'' परन्तु शरीर जानता है कि निश्चय किया (ना चुका खै, लेकिन वह शरीरको बदलनेकी बात नहीं है । वह स्वीकार करता है । वह अधीर नहीं है, वह स्वीकार करता है । वह कहता है. ''यह बिलकुल ठीक है । जैसी तेरी इच्छा ।'' लेकिन 'वह' जो जानता है और 'वह' जो उत्तर नहीं देता... ऐसी चीज है जिसे समझाया नहीं, अभिव्यक्त किया जा सकता है... वह... हां, मेरा ख्याल है कि एकमात्र शब्द जो उस संवेदन- का वर्णन कर सकता है, वह है, एक निरपेक्ष -- एक चरम । पक परम । यह वही है । संवेदन. निरपेक्षकी उपस्थितिमें सत्ता । चरम. चरम शान, चरम संकल्प और चरम शवित । हा, तो कोई चीज इसका प्रतिरोध नहीं कर सकती । और फिर, यह एक ऐसा चरम है जो (तुम्हें इस तरहका संवेदन होता है, ठोस), जो करुणासे भरपूर है! लेकिन उसके सामने जिसे हम दया या करुणा मानते है, वह पू... ह! कुछ भी नहीं है । यह निरपेक्ष शक्तिके साथ 'करुणा' है.. । और यह 'प्रज्ञा' नहीं है, यह 'जानना' नहीं है, यह... इसका हमारी पद्धतिसे कोई संबंध नहीं है और फिर, 'वह' हर जगह है, हर जगह है 'वह' । और यह शरीरकी अनुभूति है । शरीर अपने- आपको 'उसे' पूरी तरह निवेदित कर देता है, पूरी तरह निवेदित करता है । वह कुछ नहीं मांगता -- बिलकुल कुछ नहीं । केवल एक अभीप्सा

 

१४२


(खुली हुई हथेलियां ऊपरकी ओर, वही पहलेकी मुद्रा) । मैं 'वही' हो जाऊं जो 'वह' चाहे -- 'उसकी' की सेवा करूं, इतना ही नहीं, वही हो जाऊं ।

 

    मगर यह अवस्था, जो कई घंटे रही, ऐसी सुखमय थी जिसका मैंने अपने १२ वर्षके पार्थिव जीवनमें कभी अनुभव न किया था : स्वतंत्रता, निरपेक्ष शक्ति, कोई सीमा नहीं (यहां, वहां सब जगह इशारा), कोई सीमा नहीं, कुछ भी असंभव नहीं, कुछ भी नहीं । वह... अन्य सब शरीर, यही स्वयं था । कोई भेद न था । वह केवल चेतनाका खेल था जो चलता जा रहा था (विशाल 'लय' का संकेत) ।

 

    और बन ।

 

(लंबा मौन)

 

   इसके अलावा, काम बहुत ज्यादा ''श्रमसाध्य'' होता जा रहा है । लेकिन मै अनुभव करती हू (यानी, शरीर भली-भांति अनुभव करता है) कि यह प्रशिक्षणका भाग है ।

 

    ऐसा ही लगता है : शरीरको डटे रहना चाहिये अन्यथा, दुर्भाग्यवश, यह किसी और समयके लिये रहेगा ।

 

   सभी मानवीय बहाने बचकाने लगते है ।

 

    यह बड़ी अजीब बात है । मनुष्यके सभी गुण और सभी त्रुटियां बचकानी - मुर्खता -भरी लगती है । यह अजीब बात है । यह कोई विचार नहीं हैं । यह ठोस संवेदन है । यह निर्जीव द्रव्यकी तरह है । सभी सामान्य वस्तुएं जीवनहीन द्रव्य हैं, सच्चे जीवनसे वंचित । कृत्रिम और मिथ्या । यह अजीब है ।

 

     यह इतना अधिक औरोंमें नहीं है, यह बात नहीं है : यह एक आंतरिक प्रशिक्षण है । और यह सत्य 'चेतना', यह सत्य 'वृत्ति' एक ऐसी चीज है जो अ... त्यं... त बलवान है, इतनी मुस्कराती हुई शांतिमें शक्तिशाली है! इतनी मुस्कराती हुई कि व्यक्ति गुस्सा नहीं कर सकता, यह एकदम असंभव है... इतनी मुस्कराती हुई, इतनी मुस्कराती हुई... और देखती हुई ।

 

(मौन)

 

      इस नयी चेतनाकी खास विशिष्टता है : कोई अधकचरा काम नहीं, कोई ''लगभग'' नहीं । यह उसकी विशेषता है । यह विचार : ''हां, हम इसे करेंगे और थोडा-थोडा करके हम.. .'' - नहीं, नहीं, ऐसा

नहीं : या तो ''हां'' या ''नहीं'' । या तो तुम कर सकते हो या नहीं ।

 

 ( मौन)

 

      सचमुच यह मानों भागवत कृपा है. समय न खोना... समय न खोना । या तो उसे किया जाय या..

 

     लेकिन यह दुर्जेय 'शक्ति', सबसे बढ़कर यही है : और वह करुणासे भरी है! भद्रतासे भरी है!.. नहीं, कोई शब्द नहीं है, हमारे पास ऐसे शब्द नहीं हैं जो उसका वर्णन कर सकें । कुछ... और कुछ नहीं, नहीं, सिर्फ एकाग्र रहना और... वह आनन्दपूर्ण है । कुछ नहीं, केवल अपने ध्यानको उस दिशामें मोड़ना, तुरन्त, वही आनन्द है । और मै समझती हू (इसने मुझे अमुक चीजें समझा दी है), पैसे लोगोंके बारेमें कहा ६ जाता था जो अत्यधिक उत्पीड़नके बीच आनन्दका अनुभव करते थे -- यह वैसा है, एक आनन्द ।

 

   यह लो, यही है (माताजी 'भागवत कृपा' नामक फूल देती है) ।

 

१४३

प्रासंगिक (२२ फरवरी, १९६९)

 

 २१ फरवरीके संदेशके बारेमें

 

     ''केवल अक्षर शांति ही सत्ताकी नित्यताको संभव बना सकती है । ''

 

        मुझे याद है कि मैंने यह तब लिखा था जब यह अनुभूति हुई कि 'निश्चेतना'की निश्चलता, सृष्टिका आदि (हम इसे ''प्रक्षेपण'' भी नहीं कह सकते, लेकिन) एक प्रकारसे 'नित्यता', 'अमरता 'का निर्जीव या निश्चेतन प्रतीक है -- यह ''निश्चलता'' नहीं है । शब्दोंका मूल्य कुछ नहीं, यह निश्चलता और स्थिरताके बीच है । मैंने यहां ''शांति'' लिखा है, लेकिन ''शांति'' एक अपर्याप्त शब्द है । यह वह नहीं है । यह शांतिसे अनन्त- गुना बढ़कर है । वह ''कुछ'' है (''नित्य'' शब्दका अर्थ भी सीमित है । सभी शब्द असंभव हैं), कुछ चीज सीध चीजोंकी और अभिव्यक्तिकी 'आदि' स्रोत है । अभिव्यक्तिके 'आदि' के साथ फिरसे मिलनेके विकासका

 

आरंभ है (माताजी दो-एक गोलाकार बनाती हैं जो एकको दूसरेसे जोड़ता है) । मुझे लगता है कि ''खेलके मैदान'' में यह अन्तर्दर्शन हुआ था, मानों निश्चेतन निश्चलता - 'निश्चेतन' की निश्चलता, 'निश्चेतन'की जड़ निश्चलता -- विकासके आरंभ-बिन्दु थे और उसका अनुवाद था. कैसे कहा जाय? (यह भी एक और प्रकारकी निश्चलता है! लेकिन ऐसी निश्चलता. जिसमें नमी गतियां आ जाती है) 'मूत्र स्रोत'की निश्चलता, यह स्थायित्व, और यह मारा विकास 'उसी' को फिरसे पानेके लिये है, उसके साथ ही सारा मार्ग भी था (वक्रगतिकी वही मुद्रा) । वह बहुत स्पष्ट अन्तर्दर्शन था । मुझे याद पड़ता है कि मैंने यह लिखा था । जब मैंने इसे पढ़ा तो वह अनुभूति वापस आ गयी । हां, हम हमेशा ''पतन'' की बात करते हैं -- लेकिन यह वह नहीं है !यह वह बिलकुल नहीं है । अगर कोई पतन हुआ तो उस समय जब प्राणने स्वतंत्र होनेका संकल्प किया : यह आरंभमें नहीं था । यह बिलकुल मार्गपर था... । प्राचीन परंपराके अनुसार 'चेतना' 'निश्चेतना' बन गयी क्योंकि वह 'स्रोत' से कट गयी - यह मुझे ओसार लगता है जैसे बच्चोंसे कही गयी कहानियां ।

 

    अजीब बात हैं । नीरवता और अन्तर्दर्शनमें यह बहुत स्पष्ट होता है, बहुत ज्योतिर्मय और बोधगम्य; लेकिन जैसे ही तुम उसे सुनाना चाहो वह मूर्खता बन जाता है ।

 

      लेकिन सृस्ट्टिटमें जैसी कि वह अब भी है, यह सच है ''शांति'' शब्द शायद निकटतम है (यद्यपि यह बहु नहीं है, यह बिलकुल छोटा और संकुचित है, पर वह नहीं है), जैसे हो कोई चीज बिगड़ जाती है या अव्यवस्थित हों जाती है, वैसे ही यह (यह शांति) उपचारके  रूपमें अंदर आ जाती है ।

 

(मौन)

 

     उफ़! शब्दोंका मूल्य कुछ भी नहीं होता, पता नहीं कैसे काम चलाया जाय । मुझे नहीं मालूम कि यह इस कारण है कि मेरे पास काफी शब्द नहीं है या सचमुच. सारी मानसिक अभिव्यक्ति कृत्रिम मालूम होती है । वह निर्जीव झिल्ली-सी मालूम होती है । यह अजीब है । और भाषा पूरी तरह उसी क्षेत्रकी चीज है । जब मै तुम्हें इस अनुभूतिके बारेमें बताना चाहती हू... कुछ लोगोंके साथ मेरा संबंध बहुत, व्यवहुत अच्छी तरह जुड़ जाता है, बहुत आसानीसे, नीरवतामें संबंध जड़ता है और मैं उन्हें शब्दोमें जितनी बातें बता पाती उससे कहीं अधिक बता देती हू; यह अधिक लचीला, अधिक यथार्थ और अधिक गहरा होता है. । लेकिन शब्द,
 

१४५


वाक्य, लिखित बातें मेरे ऊपर ऐसा प्रभाव डालती है मानों दो आयाम- वाला चित्र हों, एक साधारण-सा चित्र; और लोगोंके साथ मेरा जो संपर्क उस समय बनता है जब मैं बातें नहीं करती, तो वह गहराई ले आता है, वह ज्यादा सच्ची चीज होती है (वह बिल्कुल सत्य नहीं होता, उससे बहुत दूर होता है, फिर मी अधिक सत्य होता है), उसमें गहराई होती है ।

 

 ( मौन)

 

    इसीलिये अनुभूतियोंका सुनाना कठिन है, ३ अलग किए गए अनुभव नहीं हैं, और वे एकके बाद एक आनेवाले पृथक अनुभव नहीं होते । यह रूपांतरकी एक गोल व्यापक गति होती है (गोलाईकी मुद्रा), ओर उममें बहुत तीव्रता होती है ।

 

    जीवनकी सामान्य क्रियामें : ''सब ठीक-ठाक''की भावना होती है जो लोगोंमें अपने-आपको अपने स्वास्थ्यके रूपमें प्रकट करती है, और फिर, संतुलनका अभाव, व्यवस्थाका अभाव; और यह विरोध, ये सब बिलकुल कृत्रिम प्रतीत होते हैं : यह एक लगातार गति है जो एक प्रकारके स्पन्दनमें दूसरे प्रकारके स्पन्दनमें बदन जाती है, जिसका मूल स्रोत (कैसे कहा जाय? अधिक ''गहरा'' नहीं, ''अधिक ऊंचा'' भी नहीं, ''अधिक सत्य'' भी नहीं होता, वह केवल एक पक्ष दिखाता है, यह वह नहीं है) आखिर किसी रूपमें ''श्रेष्ठ'' -- शब्द मूर्खतापूर्ण होते है, एकदम मूर्खतापूर्ण । यह ऐसा है, सारे समय ऐसा रहता है (लगातार गति) । और तुम एक या दूसरे स्थलकी ओर खिंचते हों; यह केकठ हमारी चेतनाका खेल है । लेकिन जो चेतना समग्रको देख सकती है उसके लिये यह लगातार गति है और व्यापक. की दिशामें । हां, यह वही है, ताकि यह जड़ 'निश्चय- तना' चरम चेतना बन जाय.. । पता नाहीं मुझे धुंधली-सी याद है कि इसकी शोधकी जा चुकी है (यहां धरतीपर, धरतीपर ही, इसी धरतीपर) कि गतिकी अमुक तीव्रता (जिसे हम ''तेजी'' कहते है) गतिशृन्यताका संस्कार पैदा करती है । मुझे धुंधली-सी याद है. कि मुझे यह बताया गया था । लेकिन यह किसी चीजके अनुरूप है । इस संदेशमें मैं जिसे ''शांति'' कहती हू, जो शांति मालूम होनी है वह गतिकी पराकाष्ठा है, परंतु व्यापक -- सामंजस्यपूर्ण, व्यापक ।

 

   जैसे ही तुम बोलते हो, वह व्यंग्य चित्र-सा दीखने लगता है ।

 

 (लंबा मौन)


१४६


मै मौनके साथ ही समाप्त करूंगी!

 

             मैं आशा करता हूं कि ऐसा न होगा ।

 

 (माताजी हंसती हैं) लेकिन यह सब इतना तुच्छ है ।

 

             बादमें, हम रंगोंमें बातचीत करेंगे ।

 

ओह! वह सुंदर होगा

 

    चीज यहांतक पहुंचती है कि जब मुझसे कोई बात कही जाती है, उदाहरणके लिये, जब मेरी कही हुई कोई बात मेरे आगे दोहराती जाती है, तो मैं उसे नहीं समझ. पाती!. मैं पूरा प्रयत्न करती हू, लेकिन चेतना अपनी समस्त तीव्रताके साथ अपने-आपको अभिव्यक्त करना चाहती है, और जब उसे दोहराया जाता है तो उसमें वह तीव्रता नहीं होती, उसमें कोई अर्थ नहीं रहता ।

 

जब आज यह संदेश मुझे पढ़कर सुनाया गया तो अनुभूति वापिस आ गयी, इसलिये मै जानती हू कि वह कैसा था । और ''शांति'' शब्दमें कितना कुछ था!.. अब वह नहीं रहा ।

 

     मैंने किस शब्दका प्रयोग किया था?

 

          जी हां, शांति ।

 

 अक्षर?

 

        जी : ''केवल अक्षर शांति..... ''

 

हां, तब अनुभूति यह हुई कि यह अक्षर शांति (जो न ''शांति'' थी और न ''अक्षर''! बल्कि ''कुछ'' थी), यही 'कुछ' निश्चेतन जड़तामें था । और यह इतनी ठोस रवि!... सृष्टिका सारा चक्र था वहां ताकि यह और 'वह' एक प्रतीत हों (लेकिन वह एक है -- वह एक है) । कहा जा सकता है (लेकिन ये फिर वाक्य बन जाते है, ये वाक्य हैं). अपने तादात्म्यसे सचेतन हो जायं । लेकिन यह एक वाक्य ही है ।

 

 (लंबा मौन)

 

अनुभूति इतनी तीव्रताके साथ ठोस है कि जैसे ही मै बोलना शुरू करती हू कि वह उतर आती है । वहां (ऊपरकी ओर इशारा) चेतना स्पष्ट है और फिर..

 

१४७

१७ मई, १९६९

 

         क्या यह संभव है कि मृत्युके बाद व्यक्तित्वका लोप हो जाय?

 

व्यक्तित्वके बारेमें ये धारणाएं... मेरे लिये वे बहुत ज्यादा बदल गयी है, बहुत ज्यादा । आज ही सारे सवेरे... लेकिन एक लंबे अरसेसे, लगभग एक महीनोंसे चीज कुछ और रही है ।

 

     जब लोग व्यक्तित्वकी बात करते हैं तो मानों हमेशा. कम-से-कम पृष्ठ-भूमिमें, कुछ अन्ठगाव, यानी, स्वतंत्र रूपसे रहनेवाला कोई चीज, जिसकी अपनी नियति है; लेकिन अब, जैसा कि इस शरीरमें स्थित चेतना जानती है यह ''किसी चीज' के लगभग स्पन्दनके जैसा है जिमकी अभीके लिये अलग क्रिया है, परंतु गहराईमें, मूल तत्वमें सदा एक ! मानो कोई चीज इस तरह प्रक्षिप्त हों रही हो (विस्तारका संकेत), अभीके लिये एक रूपमै है (संकुचित होनेकी मुद्रा), और फिर.. अपनी इच्छाके अनुसार खपको रद कर सकती है । इसे समझाना बहुत कठिन है, लेकिन स्थायी विभाजनकी भावना बिलकुल गायब हो गयी है, एकदम गायब हों गयी है । यह विश्व (स्पन्दनकी मुद्रा) परम चेतनाका बाह्य रूप लेना है; समग्र अन्तर्दर्शनमें लिये हमारी अक्षमता ही हमें स्थिरताका संवेदन देती है वह है नहीं, वह स्पन्दनकी तरह है या. । तथ्य यह है कि यह रूपोंका खेल है - सत्ता केवल एक है । केवल एक ही सत्ता है, केवल एक, एक 'चेतना', एक 'सत्ता' । अलगाव वास्तवमें.. .मुझे नहीं मालूम क्या हुआ था । उसीने सारी शरारत की है -- सारा दुःख, सारा दैन्य. । यह शरीर अभी, कुछ दिनके लिये अनुभूतियोंके एक क्रममेंसे गुजरा है (वर्णन करनेके लिये वह बहुत लंबा है), यह चेतनाकी उन सभी अवस्थाओंमेंसे गुजरा है जिनमेंसे गुजरा जा सकता है । इस भावसे लेकर कि यह द्रव्य (माताजी अपनी त्वचाको उंगलियोंमें लेती है) ही एकमात्र सत्य है, जड़ द्रव्यको एकमात्र सद्वस्तु माननेके परिणामस्वरूप समस्त दुख-

 

१४८


दैन्य, हां, वह सब ( वही मुद्रा) और वहांसे लेकर मोक्षतक, सभी अवस्थाओंमेंसे गुजरा है । घंटे-पर-घंटे परिश्रम होता था ।

 

   लेकिन इससे भी पहले कोषाणुओंकी चेतनाने एकताको -- सत्य तत्व- गत एकताको -- अनुभव कर लिया था । अगर इस प्रकारकी भ्रांति गायब हो जाय तो वह समग्र ऐक्य बन सकता है । वास्तवमें, जिस म्रांतिने दैन्यको जन्म दिया है, वह इतनी तीव्रताके साथ जीवनमें आयी कि उसके साथ समस्त विमीषिकाएं और घृणित, भयावनी चीजें आयी जिनकी वह मानव चेतना और धरतीके जीवनमें रचना करती है.. । ऐसी चीजें थी... भयंकर । और तुरंत बाद -- उसके एकदम बाद --मोंअ ।

 

    लेकिन अभी जो जीना बाकी है, यानी, जो अनुभूति अभी चरितार्थ करनी है.. सृष्टिका, द्रव्यका अगला कदम -- सत्य चेतनाकी ओर लौटने'- का अगला कदम । वह हे

 

      यह निश्चित मालूम होता है कि आरंभके जैसी कुछ चीज, परीक्षणके लिये अनुभूति शुरू होनेवाली है ( माताजी अपने शरीरको छूती हैं) ।

 

    यह श्रद्धाकी तीव्रताका प्रश्न है और यह श्रद्धा जिसे जीती है उसे सहन करनेकी शक्तिका प्रश्न है । सब कृउछ आवश्यक अनुभूतियोंमेंसे गुजर सकनेकी क्षमताका प्रश्न है ।

 

    बहरहाल, सभी पुरानी धारणाएं, चीजोंको समझनेके पुराने तरीके, ये सब चले गये, हमेशाके लिये चले गये, बिलकुल जा चुके हैं ।

 

     और यह आवश्यक रूपसे, लोटनेका मार्ग है, इसमेंसे गुजरना जरूरी था, अभी ओर गुजरना है -- लेकिन उसी चीजमेंसे नहीं -- अभी और आगे बढ़ते जाना है, यहांतक कि. यहांतक कि वह 'सत्य' जीनेके योग्य हा जाय । पता नहीं, लगता तो है कि वह जितनी तेजीसे बढ़ा जा सकता है बढ़ रहा है; वास्तवमें, भागवत चेतना काममें लगी है और जितना संभव है उतनी तेजीसे हमें आगे बढ़ा रही है । अब इधर-उधर देर लगाने या ऊंघनेका समय नहीं है ।

 

 (लंबा मौन)

 

लेकिन व्यक्तित्वसे मेरा मतलब अहंकार नहीं है । मेरा मतलब है, कोई ऐसी चीज जो समस्त जीवनोंमें एक रहती है, एक ही चीज जो सभी जीवनोंमें प्रगति करती है, अपने विकास- का अनुसरण करती है ।
 

१४९


वही तो परम पुरुष है ।

 

           जी हां, लेकिन कुछ चीज है जो..

 

 वह है परम पुरुष जो अपने बारेमें सचेतन है

 

          जी, हां ।

 

 ...आशिक रूपमें ।

 

            हां, यही है । कोई चीज है...

 

 अपने बारेमें आशिक रूपसे सचेतन परम पुरुष ।

 

      जो विकासके एक मार्गका अनुसरण करता हे ।

 

 हां, यही पद्धति है ।

 

      विकासके लिये इस पद्धतिका उपयोग होता है ।

 

 जी हां, मै उसीको व्यक्तित्व कह रहा हू ।

 

 यह तो मालूम है । यही पद्धति है, यही सृष्टिकी पद्धति रही है । चुकी यह सृष्टिकी पद्धति थी इसीलिये लोगोंने इसे भ्रमवश..

 

           अलगाव ।

 

 अलगाव, अहंकार ।

 

 यह त स्पष्ट ह ह यह "कुछ चज" जा बन रहन -पृ:) । वह बना रहता है । वह गायब नहीं हो सकता ।

 

 ( मीन)

 

 मुझे पता नहीं क्या होनेवाला है!

 

शरीरको अपनी चिंता बिलकुल नहीं हैं । वह ऐसे है (माताजी हाय

 

पसारती हैं), सारे समय : ''जो तेरी इच्छा हों, प्रभो, जो तेरी इच्छा हों .. '' और मुस्कान तथा पूर्ण आनंदके साथ -- इस तरह, इस तरह (माताजी दुनियाके इस पार या उस पार, किसी भी ओरका संकेत करती है)... आश्चर्यकी बात है, उसे एक ऐसी चेतना दी गयी है जिसका समयसे कोई संबंध नहीं है । समझे तुम? इसमें ''जब यह नहीं था या जब वह नहीं रहेगा '' का भाव नहीं रहा -- यह ऐसा नहीं है, यह पूरी तरह गतिशील चीज है । लेकिन सचमुच यह बहुत मजेदार है । और सब, सभी प्रतिक्रियाएं, वेदन, संवेदन, सब बिलकुल बदल गये हैं । रंगक्यामें भी बदल गये है । यह एक भिन्न वस्तु है ।

 

    वे अवस्थाएं जिनमें मनुष्य अपनी उच्चतम चेतनामें हों सकता है, वे जो एक करती है, जो अपने-आप उस परम चेतनाके साथ एक थी, जो सबकी चेतनाको अधिकारमें रखती हैं, -- वही अवस्था शरीरकी स्वाभाविक अवस्था हो गयी है । प्रयासहीन, सहज इससे भिन्न हा ही नहीं सकती । तो क्या होनेवाला है वह कैसे अनूदित होगा? मैं नहीं जानती ।

 

       यह सभी आदतोंके विपरीत है ।

 

     यह क्या चेतना जानती है कि उसे भौतिक रूपसे क्या करना है? ... मुझे पता नहीं । लेकिन शरीर इसकी चिंता नहीं करता । वह क्षण-क्षण वही करता है जो उसे  करना है, कोई प्रश्न नहीं करता । कोई झंझट नहीं करता । कोई योजना नहीं, कुछ नहीं, कुछ नहीं ।

 

      तो बात ऐसी है ।

      देखे, मजेदार है ।


१५०

२४ मई, १९६९

 

 यह कठिन है... यह कोई मजाक नहीं है । हर चीज, हर चीज, अव्यवस्थित होती जा रही है, हर चीज अव्यवस्थित होती जा रही है । लेकिन हम भली-भांति देख सकते हैं कि यह अव्यवस्था एक उच्चतर व्यवस्थाकी ओर गति कर रही है, यानी, एक विस्तार, एक मुक्ति -- यह सच है... । लेकिन कुछ भी, कुछ भी सामान्य ढंगसे नहीं हों रहा ।

 

 ( मौन)
 


     शरीर चेतनाकी एक ऐसी अवस्थामें पहुंच गया है जिसमें वह जानता है कि मृत्यु एक परिवर्तन ला सकती है, लेकिन -- यह तिरोभाव, ( चेतना का तिरोभाव) नहीं है । तो जन-साधारणकी बहुत बड़ी संख्याका यह विचार मृत्यु-विश्राम... ( माताजी मुंहपर हाथ रख लेती है, मानो यह बहुत बड़ी बेवकूफी हों), यह सांत्वना भी नहीं । अधिकतर लोगोंके लिये तो यह विश्रामका उलटा है । और वहां भी एक अधिक तेज, और तीव्र रूपमें ' 'केवल एक, बस अकेली, एक ही आशा है. हे प्रभो, तू बस, तू हों जाना । केवल तू ही है, यह विभाजन, यह विभेद गायब हीं जाय । यह भयानक है! वह गायब हों जाय ताकि जैसा तू चाहता है वैसा वह बने । पूरी सक्रियतामें स्वयं तू या फिर, तू ही पूर्ण विश्राममें, उसका कोई महत्व नहीं है; इस ओर हों या उस ओर, उसका कोई महत्व नहीं है, बिलकुल कोई महत्व नहीं है । महत्वपूर्ण बस यही है कि यह स्वयं तू है । ''

 

     यह पूर्ण निश्चिति है ( माताजी दोनों मुट्ठियां बंद कर लेती है) कि बाहर निकलनेका बस एक ही दरवाजा है, केवल एक -- बस एक ही -- कोई दूसरा नहीं, इसमें कोई चुनाव नहीं है, कई संभावनाएं नहीं हू, वसु केवल एक.. परम 'द्वार' चमत्कारोंका 'चमत्कार' । बाकी सब. - बाकी, सब वह संभव नहीं है ।

 

     और वह सब, इसका ( माताजी अपने शरीरकी ओर इशारा करती है) अनुभव है, यह मानसिक नहीं है । यह बिलकुल, बिलकुल भौतिक है । मै देख रही हू, क्योंकि लोगोंकी चेतना मेरे आगे खुली हुई है ( कोई भेद नहीं है, वह बिलकुल खुली हुई है) । अतः मै देख रही हू. अधिकतर लोगोंमें, अधिकतरमें, जब चीजें सचमुच बहुत कादुटदायक हो जाती हैं तो यह विचार आता है ''ओह! ( हमेशा ऐसा हीं विचार आता है) ओह, एक दिम यह सब समाप्त हो जायगा '' -- क्या बेवकूफी है!

 

 ( मौन)

 

     लेकिन क्यों? क्यों.. समय-समयपर शरीरको चिता होती है क्यों ' क्यों, क्यों, यह सब क्यों?.. जब वह दुःखके साथ, लोगोंके साथ, कठिनाइयों-और दीनताओंके साथ संपर्कमें होता हैं तो क्यों? क्यों?.. क्या?

 

   चुकी यह सृष्टि अद्भुत बन सकती हैं, परम चेतनाके साथ एक हो सकती है तो फिर इस सबकी जरूरत ही क्या थी? (माताजी एक चक्र बनाती है जो घूमकर अपने आरंभ-बिन्दुपर आ जाता है) ।


५२


समय-समयपर उसे यह होता है ।

 

स्पष्ट है कि यह निरर्थक है, क्योंकि इससे कोई काम नहीं बनता -- यह ऐसा है, यह ऐसा है । समस्त 'क्यों' उसे ऐसा होनेसे रोक न सकेंगे । हमें बस इतना ही करना है कि ऐसे उपाय ढूंढ निकालें जिनसे वह ऐसा न रहे । बस यही ।

 

 ( मौन)

 

   मै हमेशा बुद्ध और उन सबके बारेमें सोचती हू : सब प्रभुमें विलीन हो जायंगे और तब कुछ भी न बचेगा । (माताजी अपना सिर दोनों हाथोंमें लें लेती हैं ।)

 

   इसलिये अपने सिद्धांतको कुछ-कुछ सत्य जैसा दिखलानेके लिये वे कहते हैं (हंसते हुए) कि यह ''भ्रांति '' है । वे अपने सिद्धांतका बेतुकापन नहीं देखते, मानों परम प्रभु भी भूल कर सकते हैं... और उन्हें बस पछ- ताना और उसे वापिस लेना है ।

 

      इन लोगोंके बारेमें, ये सभी लोग जितने ज्यादा विश्वस्त होते हैं उतना ही अधिक यह लगता है कि उन्होंने अपनी आंखोंपर अंधेरी लगा ली हैं !

 

 ( मौन)

 

             लेकिन, वास्तवमें आपका शरीर समस्त पृथ्वीका प्रतीक है ।

 

लगता तो ऐसा ही है ।

 

        इसलिये, हर चीज आपके पास शुद्ध होनेके लिये आती है ।

 

लेकिन इससे मुझे सांत्वना नहीं मिलती ।

 

     जी हां, लेकिन मुझे लगता है कि अगर कोई चीज, चाहे कुछ भी हो, एक बार आपको छू ले तो वह जगत् में जैसी-की- वैसी वापिस नहीं जा सकती ।

 

 लगता तो ऐसा ही है, हमेशा असाधारण चीजें होती रहती है । सारे

 

१५३


 समय, सारे समय, हर मिनट, मैं ऐसी चीजोंके बारेमें सुनती हू जो सचमुच असाधारण हैं ।

 

    लेकिन इससे इस शरीरको कोई सांत्वना नहीं मिलती... । उसमें उस तरहका आत्म-सम्मान नहीं है ।

 

     जी, लेकिन उससे कुछ काम तो बनता ही है ।

 

 आह! हां ।

 

     वह शुद्ध करता है -- उसे सारे संसारको शुद्ध करना चाहिये ।

 

उसे उसकी शुद्धिकी कोई चिंता नहीं है... । पता नहीं कैसे समझाया जाय... वह रात-दिन, बिना व्यवधानके : ''जैसी तेरी इच्छा, हे प्रभो, जैसी तेरी इच्छा,... '' हां, ''जैसी तेरी इच्छा,'' ''जैसा तू चाहे'' नहीं, क्योंकि यह केवल ऐसा नहीं है (अंदरकी ओर संकेत), वह ऐसा भी है (बाहरकी ओर, ''फैला हुआ'' का संकेत), ''जैसी तेरी इच्छा, जो तू चाहे,'' और बस । यह अवस्था निरंतर रहती है ।

 

 ( मौन)

 

      बहरहाल (यह बहुत स्पष्ट है), जो चेतना उसके परिश्रममें सहायता करनेमें लगी है, उसने अच्छी तरह समझा दिया है कि चले जाना कोई समाधान नहीं है । अगर उसमें पहले यह जाननेकी उत्सुकता भी थी कि क्या होगा तो वह उत्सुकता जा चुकी है और फिर बने रहनेकी इच्छा, वह भी बहुत पहले जा चुकी है; जब वह बहुत... जरा दम घोटनेवाली स्थिति हों तो चले जानेकी इच्छाकी संभावना भी इस विचारके साथ चली गयी कि इससे कोई परिवर्तन न आयेगा । अत: उसके लिये बस एक ही चीज बच रही है, अपनी स्वीकृतिको और पूर्ण बनाये । बस, इतना ही ।

 

१५४

२८ मई, १९६९

 

     बस, एक हीं समाधान है : शरीरका परम पुरुषके साथ सीधा संबंध । यही एक चीज है ।

 

       बस यही ।

 

    लेकिन शरीरके कोषाणु.. (पता नहीं यह इस शरीरकी ही विशेष बात है, मै यह नहीं मान सकती कि यह शरीर इतना अपवादिक है) उन्हें पूरा पक्का विश्वास है, वे प्रयास करते हैं, वे प्रयास करते हैं, सारे समय, सारे समय, सारे समय प्रयास करते है, हर दैन्यके आनेपर, हर कठिनाईमें, हर... । बस, एक ही समाधान है -- एक ही चीज है : ''तू, केवल तू, तेरे ही प्रति - केवल तेरा ही अस्तित्व है ।', इसीका अनुवाद लोगोंकी चेतनामें, बौद्ध लोगों तथा दूसरोंकी चेतनामें इस तरह हुआ है कि जगत् भ्रांति है, परंतु यह आधा अनुवाद है ।

 

    सच्चा समाधान तो यह है : ''तेरा ही अस्तित्व है, बस, तू ही.. .'' बाकी सब, बाकी सब दैन्य, दैन्य, दुःख... अंधकार ।

 

   शायद, शायद वह.. .स्पष्ट है कि श्रीअरविदकी दृष्टिसे अतिमन इस सब दैन्यसे अलग है ।

 

      बस, केवल 'वही' है । अन्यथा कठिन है ।

 

    शायद अब अधकचरे उपायोंसे काम न चलेगा... । पता नहीं, शायद उनके निश्चित आधारपर हटनेका समय आ गया है ।

 

    जहांतक इस शरीरका प्रश्न है वह डटा हुआ है । लेकिन मेरा ख्याल था कि... इसके लिये व्यक्तिको बहुत, बहुत सहनशील, बहुत ज्यादा सहनशील होना चाहिये । इसीलिये मैंने औरोंको यह करनेके लिये प्रेरणा नहीं दी । लेकिन इस सारेका मतलब यह मालूम होता है कि अब समय आ गया है । मुझे पता नहीं ।

 

३१ मई, १९६९

 

    परसों रात मै तीन घंटेसे अधिक श्रीअरविदके साथ रही । और मै उन्हें वह सब बता रही थी जो ओरोवीलके लिये आनेवाला है । बड़ी मजेदार चीज थी । खेल-कूद थे, कला थी, वहां पकानेका काम भी था! परंतु वह सब बहुत प्रतीकात्मक था । मै मानों एक बहुत बड़े भूदृश्य- के आगे, मानों एक मेजपर उन्हें यह सब समझा रही थी, मै उन्हें यह बतला रही थी कि शारीरिक व्यायाम और खेल-कूदकी व्यवस्था किस सिद्धांतपर की जायगी । वह बिलकुल स्पष्ट था, बिलकुल यथार्थ था । मै मानों एक प्रदर्शन कर रही थीं । मै उन्हें एक छोटे पैमानेपर, जो होनेवाला है उसका छोटा-सा प्रतिरूप दिखा रही थी । मै चीजोंको और मनुष्योंको इधरसे उधर कर रही थी (शतरंजके मुहरोंको इधर-उधर करनेकी मुद्रा) । वह बहुत मजेदार था और उन्हें भी मजा आ रहा था. वे संगठनके सामान्य सिद्धांत बतला रहे थे (पता नहीं, इसे कैसे समझाया जाय) । वहां कला थी, और बहुत सुन्दर थी । काफी अच्छी थी । भवन-निर्माणके किस सिद्धांतपर, मकानोको किस तरह मनोहर और सुन्दर बनाया जाय । और फिर रसोईघर मी था, यह ऐसा रोचक था । हर एक अपना अन्वेषण लेकर आया है... । यह तीन घंटेसे ज्यादातक चलता रहा -- रातके तीन घंटे, यह बहुत विशाल था! बहुत मजेदार ।

 

     फिर भी, धरतीकी परिस्थितियां इस सबसे बहुत दूर मालूम होती है.......

 

(कुछ हिचकिचाहटके बाद) नहीं.. - वह यही तो था, वह धरतीके लिये ''पराया'' नहीं लगा । वह सामंजस्य था । चीजोंके पीछे एक सचेतन सामंजस्य. शारीरिक व्यायामों और खेल-कूदके पीछे एक सचेतन सामंजस्य, साज-सज्जा और कलाके पीछे एक सचेतन सामंजस्य; भोजनके पीछे एक सचेतन सामंजस्य

 

     मेरा मतलब है कि यह सब इस समय धरतीपर जो कुछ है उससे एकदम उलटा है।

 

नहिं...

 

१५६


   नहीं?

 

 मै आज 'क' से मिली थी.. मैं उससे कह रही थीं कि कला, खेल-कूद, भोजन आदि सब चीजोंके लिये पूरी व्यवस्था और संगठन सूक्ष्म जगत् में तैयार है -- नीचे आने बार शरीर धारण करनेके लिये तैयार है - मैंने उससे कहा ''बस, जरूरत है मुट्ठी-भर मिट्टीकी (अंजलि-सी बनाते हुए), एक मुट्ठी-भर मिट्टीकी जरूरत है जहां पौधा उग सके. । हमें मुट्ठी- भर मिट्टी खोजनी चाहिये ताकि यह पनप सकें... ।''

 

 ( मौन)

 

मालूम नहीं यह ठीक बोध है या नहीं, पर कई महीनोंसे मुझे ऐसा लगता है कि इससे पहले धरती कभी इतने अंधकारमें नहीं रही । मुझे लगता है कि यह दुर्जेय अंधकार है ।

 

 हां, हां, दोनों चीजें हैं । यह सच है ! संभ्रांति - यह संभ्रांति ही है, -- अंधकारमय संभ्रांति, हां । अंधकारमय अस्तव्यस्तता, लेकिन यह तो श्रीअरविद हमेशा कहते आये हैं : ज्योतिके उदयसे पहले संभ्रांति हमेशा ही और मी ज्यादा घनी और अंधकारमय हो जाती है । यह ऐसा ही है । यह अंधकारमय संभ्रांति प्रतीत होती है । और चीनी लोग...

 

माताजी, क्या आप जानती हैं कि आजकल पश्चिममें माओत्से-तुगकी पुस्तकें सबसे ज्यादा प्रभाव डाल रही हैं । (केवल प्रभाव ही नहीं, बल्कि युवा पीढ़ी उन्हें पड़ती और निगलती है ।)

 

क्या कहता है वह आदमी?

 

      वह कहता है : ''शक्ति बंदूककी नलीसे उपजती है ।',

 

 (माताजी चुप रहती हैं)

 

पश्चिममें आज यही पढ़ा जाता है । और पिछली बार जिस पुस्तकका सबसे ज्यादा शोर रहा, उसका नाम है ''अभागा'' दा ऐसा ही कुछ । यह हिंसाका खुला समर्थन है : हिंसा दूरा

 

१५७


     शक्ति हथियानी चाहिये । ऐसी चीजें ही पश्चिममें सफलता पा रही है, इन्हें चीजोंको सब विद्यार्थी लीलते हैं । '

 

ओह!   हिंसाका समर्थन

 

           हिंसाका मिशन ।

 

 यह हैं प्राण अपनी पूर्णतामें ।

 

                  जि  !

 

 ओह मैंने जो अंतर्दर्शन देखे हैं इससे उनकी बात समझमें आती है । मै सोचती थी... मैं अपने शरीरको दोष दे रही थी, मैं कह रही थी : यह बेचारा शरीर, इसमें दुर्भाग्यपूर्ण पुराण-पंथीपन भरा है : हमेशा भयंकर, भयंकर कल्पनाएं - और वे कल्पनाएं न थी, वह जो कुछ हो रहा है उस- के बारेमें सचेतन था... ओह!...

 

   तुमने अभी जो कहा वह बहुत मजेदार है, क्योंकि कल ही (इन दिनों, पिछले तीन दिनमें), वस्तुओंकी भयंकरताके प्रत्यक्ष दर्शनके सामने यह शरीर, यह शरीर रोया है... (यह शरीर भावुकतासे एकदम उलटा है, कभी, कमी भावुक नहीं रहा) । स्वभावतः, भौतिक रूपसे उसे रोनेकी आदत कभी न थी, लेकिन... इसने रोकर आंतरिक तीव्रताके माथ कहा : ''ओह! यह जगत् किसलिये है? '' इस प्रकार वह इतना... इतना अधिक भयंकर, दुःखी, दयनीय था... इतना दयनीय था और... इतना भयंकर...

 

   यह फ्रांट्ज फानोनकी पुस्तक ''रेचेड आफ द अर्थ'' की बात है जिसकी मुख्य बात यह है : ''केवल हिंसा ही फलदायक है । हिंसा लोगोंको एक साथ बांधती है; प्रत्येक व्यक्ति एक बड़ी शृंखलाकी एक कड़ी, एक वीर हिंसात्मक संगठनका अंग है जो ऊपर उमड़ आया है ।', इस पुस्तककी भूमिका जां पाल सार्त्रने लिखी है जो और भी ज्यादा स्पष्ट शब्दोंमें कहता है : ''अदम्य हिंसा... मनुष्यका अपने-आपको नये सिरेस बनाना है ।'' ''क्रोधोन्मत'' होकर ही ''अभागे धरतीवासी मनुष्य बन सकते हैं ।'' ''किसी यूरोपीयको गोलीसे उड़ा देनेका अर्थ है एक पंथ दो काज... । उसके बाद बच रहते है एक तो मृत मनुष्य और एक स्वतंत्र मनुष्य ।''

 

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 ओह!... लेकिन तुरंत ही उसे 'उत्तर' मिल गया -- वह शब्दोंमें उत्तर न था, वह केवल... मानों एक विशालता 'प्रकाश' में खुल रही थी । उसके बाद कहनेके लिये कुछ नहीं बचा ।

 

    लेकिन 'वह' विशालता यह कैसे बन सकती है?... पता नहीं । प्रश्न : 'वह' यह कैसे बन गया? वह मेरे पास इस रूपमें आया : '' 'वह', वह 'अद्भुत', यह घिनौनी, डरावनी भीमाकार वस्तु कैसे बन गया? ''

 

   लेकिन मै इसे फिरसे 'उस' में बदलनेकी प्रक्रिया नहीं जानती... । प्रक्रिया है... अधित्याग (कैसे कहा जाय?), आत्म-दान (वह नहीं) । लेकिन उसे हर चीज, हर चीज, ऐसी वीभत्स लगती थी : एक पूरा दिन, बहुत बहुत, बहुत कठिन रहा । लेकिन अजीब बात है, मैं उस समय जानती थी कि सिद्धार्थ बुद्धको जो अनुभूति हुई थी, यहां ठीक उसीको दोहराया जा रहा था और उन्हेंने इसी अनुभूतिमें कहा था : बाहर निकलनेका बस एक ही मार्ग है. और वह है निर्वाण । इसके साथ-ही-साथ मै सच्ची चेतनाकी स्थितिमें थी : एक उनका समाधान था और दूसरा सत्य समाधान । वह सचमुच मजेदार था । बौद्ध समाधान किस प्रकार एक पग मात्र था - बस एक पग । उसके परे (दूसरी पंक्तिमें नहीं, उसीके परे) सत्य समाधान है । यह एक निर्णायक अनुभूति थी ।

 

 (लंबा मौन)

 

    लेकिन आखिर यह सृष्टि है क्या?... हां, अलगाव, फिर दुष्टता, कुरता -- हम कह सकते है कि नुकसान पहुंचानेकी प्यास - और फिर दुःख, दुःख पहुंचानेकी खुशी, और फिर रोग, विघटन और मृत्यु - विनाश । यह सब एक ही चीजके भाग है । आरिवर हो क्या गया है?... मुझे जौ अनुभूति हुई थी वह इन सब चीजोंकी -- अवास्तविकताकी थी, मानों तुम एक अवास्तविक मिथ्यात्वमें प्रवेश कर गायें हों और जैसे ही तुम उस- भैंसे बाहर आते हो सब कृउछ गायब हो जाता है - उसका अस्तित्व नहीं रहता, वह होता ही नहीं । यह बड़ा भयंकर है! जो हमारे लिये इतना वास्तविक, इतना ठोस, इतना भयावह है, उस सबका कोई अस्तित्व ही नहीं । वह है.. तुमने 'मिथ्यात्व' में प्रवेश किया है । क्यों? कैसे? क्या?

 

    लेकिन इस शरीरने अपने सारे जीवनमें, कभी, कमी एक बार भी ऐसे पूर्ण, ऐसे गहरे दर्दका अनुभव नहीं किया जैसा उस दिन... ओह!... कुछ चीज हों... (माताजी अपना गला दबाती है) । और तब उसके

 

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अंतमें 'आनंद' । फिर गायब! मानों वह पोंछ दिया गया ''अभी नहीं, अभी नहीं, अभीतक समय नहीं हुआ ।'' मानों वह सब, वह सब जो इतना भयंकर है उसका अस्तित्व ही नहीं ।

 

     अंतमें, संभवत: - संभवत: - वह धरती ही थी (मुझे यह ठीक नहीं मालूम), ऐसा लगता तो है नहीं, क्योंकि चंद्रमा तो बहुत ठोस रूपसे विध्वस्त है । फिर भी एक बहुत प्रबल और बहुत यथार्थ भावना है कि यह बिलकुल सीमित चीज है, और वह इस तरह है । यानी, 'मिथ्यात्व'में है और अवास्तविक है । हम सब 'मिथ्यात्व' और 'अवास्तविकता' में हैं, इसीलिये चीजें ऐसी हैं । और जो बात मजेदार थी वह यह कि निर्वाणमें बच निकलना कोई समाधान न था, केवल एक उपचार और वह भी आशिक (पता नहीं, कैसे समझाया जाय), एक आशिक उपचार था, हम कह सकते हैं क्षणिक ।

 

    और तब, यह तो क्षणिक दौरा था । बादमें आता है लंबा मार्ग : हमें उत्तरोत्तर रूपांतरके काममें लगे रहना चाहिये । लगे रहना चाहिये, और तब अगले ही क्षण, वह जिसे श्रीअरविद अतिमानसिक सत्ता कहने हैं । मानों यह एकसे दूसरेमें देशातरण है।

 

    लेकिन यह सब कैसे बदलेगा? मुझे नहीं मालूम ।

 

जी हां, अभी उस दिन मुझे एक ठोस प्रत्यक्ष दर्शन हुआ था, कि सारी धरती एक काले चोगेके नीचे है - यह वही था जिसे आप 'मिथ्यात्व' और कहती हैं । वह एक ऐसी चीज थी जो समस्त पृथ्वीको ढके हुए थी ।

 

हां, हां !

 

      मैंने उसे बहुत ठोस रूपमें अनुभव किया; एक काला चोगा ।

 

हां, यह वही है ।

 

      वस, उसे सारे जगत् से खींचकर अलग कर देना चाहिये ।

 

 (कुछ देर मौनके बाद) मैं उसे कह नहीं सकती (उसे व्यक्त नहीं किया जा सकता) । वह कुछ ऐसी चीज है जिसमें संत्रास, भय, पीड़ा -- और करुणा है । ओह! इतनी तीव्र.. इस शरीरने कभी, कभी ऐसा अनुभव

 

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नहीं किया । कभी नहीं । इसके सिवा उसने शरीरको ऐसी अवस्थामें डाल दिया, जो कुछ घंटोंके लिये बहुत... बहुत ही नाजुक हालतमें थी । और उसके बाद ऐसा हुआ मानों हर चीज -- प्रत्येक चीज -- एक 'स्मित' और चमकती 'रोशनी'के साथ आयी, ऐसा लगा (अगर बच्चोंकी भाषामें कहें तो) मानों प्रभु कह रहे हों : ''देखो, मैं हर जगह हू, देखो : मै हर चीजमें हू ।'' वह अविश्वसनीय था -- अविश्वसनीय... दोनोंके बीच कोई संचारण न था ।

 

     हां, तो उसी समय शरीर कह रहा था : ''यह कैसी बात है? क्या इसी प्रकार चल... ते... रह... ना पड़ेगा? हमें इसी तरह चलना पड़ेगा? संसार, मनुष्य, समस्त सृष्टिको इस तरह चलते रहना पड़ेगा? '' ... वह ऐसा लगत।. था... । मैं एकदम समझ गयी : हां, लोगोंने इसी- को अपनी भाषामें ''सनातन नरक'' कहा है । यह वही है । कोई ऐसा व्यक्ति रहा होगा जिसे यह प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त हुआ था ।

 

       और वे नमी उपाय - जिन्हें कृत्रिम कहा जा सकता है, जिनमें निर्वाण भी आ जाता है - बाहर निकलनेके सभी उपाय व्यर्थ है । उस मूर्खसे लेकर जो जीवनको समाप्त करनेके लिये आत्म-हत्या करता है, यह सभी मूर्खताओंमें सबसे बड़ी मूर्खता है, क्योंकि यह मामलेको बहुत अधिक बिगाड़ देती है, वहांसे लेकर निर्वाणतक (जिसके बारेमें कल्पना यह है कि हम जीवनसे बाहर चले जाते हैं), ये सब-के-सब उपाय व्यर्थ है । वे सब अलग- अलग स्तरके हैं, पर है सारे-के-सारे बिलकुल व्यर्थ । और फिर उसके बाद, उस समय जब तुम्हें सचमुच एक अनंत नरककी अनुभूति होती है, अचानक एकदम... (केवल चेतनाकी एक स्थिति, उसके सिवा कुछ नहीं), अचानक ?? ऐसी चेतनाकी स्थिति... जिसमें सब कुछ प्रकाश, भव्यता, सौंदर्य, प्रसन्नता, उन्मत्तता है... और हर चीज अनिर्वचनीय । तो यह ऐसा है : ''तुम यह रहे,'' और फिर फट! वह प्रकट होता है और झट गायब! और तब वह 'चेतना' जो देखती है, जो अपने-आपपर दबाव डालती है और कहती है : ''अब अगला कदम ।'' तो यह वही है । शरीरमें इन सब बातोंकी उपस्थिति थी... । सारे जीवनमें इसने कभी, कमी इतना दर्द नहीं सहा, और अब भी

 

    क्या यह, क्या यह उत्तोलक है?... पता नहीं । परंतु मुक्ति भौतिक है -- वह मानसिक बिलकुल नहीं है, शारीरिक है । मेरा मतलब यह है कि यह पलायन नहीं है, यह यहां है । इसकी प्रतीति बहुत जोरसे होती हैं !

 

   लेकिन शरीरके लिये कुछ बहुत ही कठिन घंटे बीते । और हमेशा,


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 हमेशा. वही । वह कहता है. ''अच्छा, बहुत अच्छा ।'' वह विघटनके लिये बिलकुल तैयार है या.. लेकिन उसका तो प्रश्न ही न था । वह प्रश्न न था... प्रश्न था 'उपचार' जाननेका.. और वह कैसा है? - हमारे साधनोंके द्वारा उसे व्यक्त करना असंभव है ।

 

   लेकिन इस कारण वह परदेके पीछे या छिपा हुआ, ऐसा-वैसा कुछ नहीं है वह उपस्थित है । क्यों? समग्रमें ऐसी कौन-सी चीज है जो तुम्हारे अंदरसे उस उपस्थितिको जीनेकी शक्ति हर लेती है ' पता नहीं । वह है, वह मौजूद है । बाकी सब, जिसमें मृत्यु तथा अन्य सब चीजें आ गयीं, सचमुच मिथ्यात्व बन जाता हो यानी, कोई ऐसी चीज जिसका अस्तित्व नहीं है ।

 

          जी हां, यह एक चोगा है जिसे उतार देना है ।

 

अगर इतना ही होता तब तो कुछ न होता!

 

     जी नहीं, मेरा मतलब है कि यह सब, यह भ्रांति एक चोगेकी तरह है जिसे धरतीपरसे उतार देना है ।

 

 हां, यह वही है । हां, यह वही है! परंतु क्या केवल धरती है? मुझे पता नहीं । लोग यह देखनेके लिये ऊपर जायंगे?

 

     मैं जो कुछ जानती हू, मुझे जो लगता है वह यह है कि यह चीज यहां घन रूपमें है. । यहां घनता है, यहां काम है । हों सकता है कि यह ... समस्त सौर मंडल, लेकिन मुझे पता नहीं 1

 

 ( मौन)

 

 लेकिन इसमेंसे कोई अकेला नहीं निकल सकता ।

 

जी हां... माताजी, उस दिन आपने कुछ कहा था । आपने कहा था : ''अब अपना ठीक स्थान निर्धारित करनेका समय आ गया है ।', आपने कहा था : ''जहांतक इस शरीरका सवाल है उसने अपना स्थान ले लिया है,'' लेकिन अभीतक आप औरोंसे यही करनेके लिये कहनेकी हिम्मत नहीं कर रही थीं । आपने कहा : ''अब अपना स्थान लेनेका समय आ गया है ।''

 

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हां, मुझे लगता है ।

 

           लेकिन ''अपना स्थान लेने'' से आपका क्या मतलब है?

 

 यह कि शरीर अभी जिस चेतनामें है, यह सब चीज अवास्तविक है ।

 

      अगर शरीरसे पूछा जाय तो वह कहेगा : ''मुझे मालूम नहीं कि मैं जीवित हू, मुझे मालूम नहीं कि मैं मृत हू ।'' क्योंकि सचमुच ऐसा ही ही है । कुछ क्षणोंके लिये उसे बिलकुल लगता है कि वह मृत है; अन्य क्षणोंपर उसे लगता है कि वह जीवित हैं । बात ऐसी है । वह अनुभव करता है कि बात ऐकांतिक रूपसे इसपर निर्भर है कि.. .कि हम 'सत्य' देखते खै या नहीं ।

 

 ( मौन)

 

 वह किसपर निर्भर है?

 

(मौन)

 

     वह, जैसा कि लोग कहते हैं, लिखते या अनुभव करते है, मैंने देखा है कि मानवजातिका एक बहुत बड़ा हिस्सा इस प्रत्यक्ष दर्शनसे बहुत ज्यादा घबराता है कि यह 'मिथ्यात्व' है और सब उसीकी ओर ले जाता है । मैं ऐसे लोगोंको जानती हू (उन्होंने मुझे लिखा था), जिन्हें अभी हालमें बहुत ज्यादा डर लगा क्योंकि उन्हें अचानक शक्तिने पकडू लिया, कोई ऐसी चीज थी जिसने उन्हें छूना शुरू किया. जीवनकी अवास्तविकताका बोध था वह । इससे पता लगता है कि जो रास्ता अभीतक तय करना है वह कितना बड़ा है । इसका मतलब है कि जल्दी समाधान पानेकी सभी आशाएं बचकानी है । जबतक कि... चीजें कोई और ही मोड न ले लें ।

 

     अगर वह उसी गतिसे चलता रहे जिस गतिसे अभीतक चलता आया है तो.... इसमें शताब्दियां और शताब्दियां और शताब्दियां लगेंगी... । तब अतिमानव केवल पड़ता होगा और उसके बाद बहुत-सी दूसरी चीजें होगी

 

    मैं जब कभी इस विषयमें सोचता हूं, मुझे हमेशा यही लगता है कि एकमात्र समाधान यह है कि आपका शरीर ज्योतिर्मय

 

     हो, जिसे सब देख सकें । सब लोग आ-आकर उसे देखें-- आकर देखें कि भगवान् कैसे है!

 

(माताजी हंसती हैं) यह वास्तवमें बहुत सुविधाजनक होगा!

 

      यह उनकी सभी धारणाओंको उलट-पुलट कर देगा.

 

 हां, निश्चय ही! यह इतना सुविधाजनक होगा । क्या ऐसा होगा?. उसके बारेमें मैं तुम्हारे साथ पूरी तरह सहमत हू । और मुझे बहुत खुशी होगी, वह चाहे कोई भी हो, इसकी परवाह नहीं कि कौन, मुझे इसकी तनिक भी इच्छा नहीं है कि वह मैं ही होऊं!

 

         आओ और भगवान्को देखो, वे कैसे है!

 

हां, कैसे हैं ' (माताजी बहुत देरतक टकटकी लगाये देखती रहती है ।)

 

१६३

४ जून, १९६९

 

      पिछली बार तुम्हारे चले जानेके बाद मै इस विषयमें काफी कुछ देखती रही, सारे दिन. इस अद्भुत समाधानकी बातमें ( ज्योतिर्मय शरीरकी बातमें) कुछ अर्थ है । जब तुमने यह बात कही तो अचानक किसी चीज- ने मूर्त्त रूप ले लिया । ' लेकिन उसमें कोई वैयक्तिक भाव न था.. । शरीरके अंदर वह ( ज्योतिर्मय शरीर) बननेकी कोई,  कोई महत्वाकांक्षा, कामना या अभीप्सा नहीं है । केवल ' 'इसके' ' हों सकनेकी संभावनाके कारण एक आनंद था । अगर यह किया जाय, तो कौन, कहां और कैसेका कोई मूल्य नहीं : अगर यह किया जाय तो । मैंने उसे बड़े ध्यानसे देखा; निमिष मात्रके लिये भी उसमें यह विचार न आया. ' वास्तवमें माताजी बहुत देरतक ''टकटकी लगाये देखती रहीं' ' । उस समयका भाव ऐसा था जिसे देखनेपर हीं माना जा सकता है । शिष्यको ऐसा लगा मानों ज्योतिर्मय शक्तिका प्रपात धरतीपर झर रहा हों ।

 

वह यही शरीर होना चाहिये । ( माताजी अपनी त्वचाको उंगलियोंसे पकड़ती है) समझे? बस, इतना ही था. बस यह हो जाय, यह अवतार, यह अभिव्यक्ति - वह इस व्यक्तिको ले या उसको, एक जगहको लें या दूसरीको, नहीं, इस प्रकारकी कोई बात ही न थी. चीज अपने-आपमें एक अद्भुत समाधान थी । बस, इतना ही ।

 

तो चेतनाने अवलोकन करना शुरू किया : अगर इस शरीरमें कोई भी ऐसी चीज नहीं है जो वह बननेकी ' 'अभीप्सा'' करती हो. इससे प्रमाणित होगा कि यह उसका काम नहीं है । तब वह अद्भुत 'मुस्कान' आयी (पता नहीं कैसे अभिव्यक्त किया जाय), वह वहां थी, वह गुजरी और उसने कहा.. ( उसका बिलकुल बचकाने रूपमें अनुवाद किया जा सकता है) : ''यह तुम्हारा धंधा नहीं है! '' बस । यहीं अंत हो गया । उसके बाद मै उसमें व्यस्त न रही । ''तुम्हारा धंधा नहीं है'' का मतलब यह कि इससे तुम्हारा कोई मतलब नहीं कि वह यह है या वह, या फिर वह, इससे तुम्हें सरोकार नहीं । बस इतना ही ।

 

   लेकिन अब जो उसका अपना धंधा बन गया है -- इतने, इतने अधिक तीव्र रूपमें कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता -- वह है ''तू, तू, तू, तू ।.. .'' कोई शब्द उसका अनुवाद नहीं कर सकता : एक शब्दमें कहे तो भगवान् । वही सब कुछ है, वही सबके लिये है -- खानेके लिये : भगवान्; सोनेके लिये : भगवान्; कष्ट खेलनेके लिये. भगवान्.. और इसी तरह (माताजी दोनों हाथ ऊपरकी ओर उठाती हैं) । एक प्रकारकी स्थिरता और निश्चलताके साथ ।

 

 १६ अगस्त, १९६९

 

     क्या सब कुछ बुहार देना, सब खाली कर देना एक भूल है ?

 

नहीं, नहीं, नहीं ।

 

    मैंने बहुधा अपने-आपसे पूछा है कि क्या मै अपने आगे बढ़नेके तरीकेमें भूल कर रहा हू । मेरा तरीका है सब सहज रूपसे
 


     बुहार देना, उसे पूरी तरह खाली करके, एकदम नीरव और अचंचल रहते हुए ऊपरकी ओर अभिमुख होना ।

 

 हां, यह सबसे अच्छा उपाय है, इससे अच्छा नहीं हो सकता ।

 

      मैं हर क्षण यही करती रहती हू ।

 

 और अगर यह न किया जाता!.. सभी ओरसे यूं आता है (लहरोंके; थपेड़ोंकी मुद्रा) ।

 

           (थोडी देर बाद संसारकी स्थितिके बारेमें)

 

 अंततः, मुझे पूरा विश्वास हो गया है कि यह अस्तव्यस्तता हमें यह सिखाती है कि दिन-पर-दिन हमारा जीवन कैसा होना चाहिये, यानी, क्या हो सकता है, क्या होनेवाला है इन बातोंमें न फंसे, अपने-आपको प्रतिदिन उसीमें लगाये रहें जो हमें करना है । सभी सोच-विचार, पूर्व योजनाएं और संयोजन और इस तरहकी चीजें अव्यवस्थाके लिये बहुत अनुकूल है ।

 

     लगभग एक-एक मिनट इस तरह जीना (ऊपरकी ओर संकेत) केवल उसी चीजकी ओर ध्यान देना जो उस क्षण की जानी है और 'सर्व-चैतन्य'- को निर्णय करने देना.. हम अधिक-से-अधिक विस्तृत दृष्टिके साथ भी चीजोंको नहीं जान सकते; हम चीजोंको बहुत ही आशिक रूपमें - बहुत ही आशिक रूपमें देख सकते है । इसलिये हमारा ध्यान इस ओर, उस ओर खिंचता है, और उनके अतिरिक्त और बहुत-सी चीजें रहती है । भयानक और हानिकर चीजोंको बहुत महत्व देकर तुम उनकी शक्ति बढ़ाते हो ।

 

                (माताजी ध्यानमें चली जाती है)

 

      जब इस प्रकारकी ध्यव्यवस्था और अस्तव्यस्तता के अंतर्दर्शन तुमपर टूट पड़े तो तुम्हें एक ही चीज करनी चाहिये, उस चेतनामें प्रवेश कर जाओ जहां तुम केवल एक हीं 'सत्ता', एक 'चेतना', एक 'शक्ति'को देखते हों -- केवल एक ही 'इकाई' है--और यह सब उसी 'इकाई' में हो रहा है । और हमारे सभी नगण्य अंतर्दर्शन, हमारे नगण्य शान, हमारे नगण्य मूल्यांकन ओर हमारे नगण्य... ये सब कुछ नहीं हैं, सबकी 'अधिष्ठात्री चेतना' की तुलनामें ये बहुत ही छोटे, अणुके समान है । इसलिये अगर तुम्हारे अंदर इन विभिन्न सत्ताओंके अस्तित्वके कारणका जरा भी भान है तो तुम देखोगे कि यह

 

१६६


अभीप्साको संभव बनानेके लिये, अभीप्साकी सत्ताको बनाये रखनेके लिये है, आत्म-निवेदन और आत्म-दानकी गतिको, विश्वास और श्रद्धाको संभव बनानेके लिये है । यही वह कारण है जिसके लिये व्यक्तित्व बनाये गये थे; और जैसे-जैसे तुम पूरी सच्चाईके साथ, पूरी तीव्रताके साथ वह बनते हों.. बस यही वह सब है जिसकी आवश्यकता है ।

 

   यही एक चीज है जिसकी जरूरत है, यही एकमात्र चीज है, यही एक- मात्र चीज है जो टिकती है, बाकी सब... माया-जाल, मृग-मरीचिका है ।

 

      हर हालतमें यही एकमात्र उचित बात है : जब तुम कोई चीज करना चाहते हो, जब तुम कोई चीज नहीं कर सकते, जब तुम गति करते हो, जब शरीर गति करनेमें अशक्त हों जाता है. हर हालतमें, हर हालतमें, केवल यही -- यही केवल. 'परम चेतना'के साथ सचेतन संपर्कमें आऊं, उसके साथ एक हों जाओ और... प्रतीक्षा करो । लो बस ।

 

      तब तुम्हें हर क्षण, यह ठीक-ठीक आदेश मिलता जाता है कि क्या करना चाहिये - करना या न करना, क्रिया करनी या पत्थरकी तरह निश्चल बन जाना । यह सब । और यह भी कि जीवित रहा जाय या नहीं । यही एकमात्र समाधान है । अधिकाधिक, अधिकाधिक, यह निश्चित है कि यही एकमात्र समाधान है । बाकी सब लड़कपन है ।

 

    और सनी क्रिया-कलापका, सभी संभावनाओंका स्वाभाविक रीतिसे उप- योग किया जा सकता है -- इससे समस्त मनमाना व्यक्तिगत चुनाव अलग हो जाता है । बस यही बात है । यहांपर सभी संभावनाएं हैं, सब, सब, सब कुछ है । सभी प्रत्यक्ष दर्शन और समस्त ज्ञान है -- केवल व्यक्तिगत मनमानेपनको अलग कर दिया गया है । और यह व्यक्तिगत मनमानापन इतना बचकाना है, इतना बचकाना है... एक मूर्खता -- अज्ञान-भरी मूर्खता ।

 

    और मै अनुभव करती हू, इस तरह अनुभव करती हू (माताजी हवा- को अनुभव करती है), वह उद्वेग, ओह, वातावरणमें यह भंवर!

 

     बेचारी मानवजाति ।

 

 (लंबा मौन)

 

       यह सब संसारको अपनी चेतनामें प्रभुकी ओर लौटना सिखानेके लिये हैं... क्यों? इसी हेतुसे सृष्टि बनी थी?...

 

 ( मौन)

 

१६७


लेकिन मेरे सामने एक व्यवहारिक समस्या है : मै' जय कभी ऊपरसे अपने-आपको जोड़नेके लिये यह रिक्तता तैयार करता हू... तो मुझे लगता है कि मुझे कभी ठीक उत्तर नहीं मिला; वहां ऐसी महाकाय शक्ति है, इतनी ठोस और फिर...

 

और तुम्हें कभी उत्तर नहीं मिला?

 

     हमेशा वही होता है, यह 'शक्ति' जो यहां है, जो अविचलित...

 

 अच्छा  !

 

   उदाहरणके लिये, कल ध्यानके समय वही चीज थी -- हमेशा वही चीज होती है -- यह विशालकाय शक्तिशाली 'चीज' जो वहां है लेकिन वह ''कुछ नहीं कहना चाहती'' ।

 

क्या' तुम्हें का अनुभव नहीं होता... पता नहीं कैसे समझाया जाय, क्योंकि वह म नह ह, न... पता नह कद कहा जाय; कुछ ऐसी चीज है जो... उसे कहनेके लिये शब्द नहीं है, पर वह तुम्हें पूरी तरह संतुष्ट कर देती है ।

 

            आरामका अनुभव होता है ।

 

 आह !

 

      जी हां, आरामका अनुभव तो होता है, यह निश्चित है ।

 

अहा! तब तो ठीक है, यह वही है, बाकी सब, बाकी सब कुछ व्यथा है ।

 

       जी, लेकिन सच्चा, ठीक आवेग कैसे पाया जाय?

 

 बह उस स्थितिके नीचे होता है ।

 

        उसके नीचे ?

 

१६८


 वह नीचे होता है ।

 

    वह स्थिति... मैं अनुभवसे जानती हू कि यह वह स्थिति है जिसमें आदमी दुनियाको बदल सकता है । आदमी एक प्रकारका यंत्र बन जाता है - ऐसा यंत्र जो यह नहीं जानता कि वह यंत्र है -- लेकिन जो काम करता है (यंत्रमेंसे शक्तियोंके प्रवाहकी मुद्रा), शक्तियोंको प्रक्षिप्त करनेका काम करता है (यंत्रको केंद्र बनाकर सभी दिशाओंके विकीरित होनेकी मुद्रा) । मस्तिष्क बहुत अधिक, बहुत अधिक छोटा है, है न, -- जब वह बहुत बड़ा हो, तब मी वह समझनेमें समर्थ होनेके लिये बहुत छोटा है । इसीलिये मस्तिष्कमें रिक्त स्थान होते हैं, और यह चीज होती है ।

 

   और तब तुम देखते हो कि तुम जिस छोटेसे जीवनके प्रतिनिधि हो उसकी आवश्यकताओंके बारेमें यह यंत्रवत् होता जाता है, तुम हर क्षण बिना... बिना हिसाब किये, बिना सोचे-समझे, बिना निश्चय किये, इस सबके बिना, न जाने कैसे, अपने-आप जो करना चाहिये वही करते जाते हों । यह ऐसा है (वही यंत्रमेंसे प्रकट होनेका संकेत) ।

 

   मुझे इसका निजी अनुभव मिला था कि अगर शरीरमें कोई गड़बड़ है (कोई दर्द, कोई तकलीफ या कोई ऐसी चीज जो ठीक तरह काम नहीं कर रही), तो इस स्थितिमेंसे गुजरनेके बाद वह तुम्हें छोड़ जाती है -- वह चली जाती है, गायब हो जाती है । बहुत तीव्र पीड़ाएं थीं, न जाने कैसे, पूरी तरह गायब हो गयीं । कैसे! हां, इस तरह चली गयीं ।

 

   और फिर लोगोंके साथ और जीवनकी वस्तुओंके साथ संपर्कमें बच्चे जैसी सरलता । कहनेका मतलब... तुम विशेष रूपसे... सोचे-समझे बिना चीजें किये जाते हों ।

 

   हां, तो बात ऐसी हैं । मैं हमेशा उस स्थितिमें रहनेकी कोशिश करती हू जिसका तुम वर्णन कर रहे हो, इस तरह, जो कुछ होता है, और हमेशा - हमेशा, बिना अपवादके - अगर कुछ करना है, तो उसे इस तरह करवाया जाता है ।

 

     मैं और कुछ नहीं कह सकती । चीज ऐसी है ।

 

मैंने देखा है कि अलग-अलग समय और अलग-अलग लोगोंके साथ मुझसे अलग-अलग तरहसे काम करवाया जाता है, और अनुभूति भी बहुत अलग होती है - वह सब एक ही चीज है, एक ही तरीका है (बिना किसी गतिके ऊपरकी ओर संकेत) ।

 

     केवल तुम्हें उस स्थितिमें जा पहुंचना चाहिये जहां स्वभावत: कोई पसन्द नहीं है, कोई कामना नहीं है, कोई विकर्षण और आकर्षण नहीं है, कुछ भी नहीं - वह सब स्वाभाविक रूपसे जा चुका है ।

 

  और सबसे बढ़कर, विशेष रूपसे सर्वोपरि है कि कोई भय न हों । सब बातोंमें यह सबसे ज्यादा जरूरी है ।

१६९

१ अक्तूबर, १९६९

 

 २६ अगस्त, १९५३ की 'प्रेम'-संबंधी वार्त्ताके बारेमें

 

    माताजी, यह 'प्रेम' की शक्ति जो आती है - बह कभी-कभी आती है, हम अनुभव करते हैं, सचमुच प्रेम करते हैं --, उसे हमेशा क्यों नहीं रख पाते?

 

 तुम्हें उसे रख सकना चाहिये!

 

    मेरा भी यहीं ख्याल है कि रख सकना चाहिये, परंतु यह हो नहीं पाता ।

 

 मेरे बच्चे... वह हमेशा, हमेशा यहां रहता है । शरीर चाहे कुछ क्यों न कर रहा हो -- लोगोंसे मिल रहा हो, स्वयं अपने साथ व्यस्त हो या सो रहा हो -- वह हमेशा, हमेशा, हमेशा रहता है, सचेतन और गुंजायमान । मैं कहती हू : ''यह संभव है '' : यह एक तथ्य है । सिर्फ जरूरत इस बातकी है... । जो बात साधारणतया इसे रोकती है, वह यह है, कि अधिकतर लोगोंमें भौतिक चेतना बहुत धुंधली होती है; वह केवल अत्यन्त भौतिक आवश्यकताओं, कामनाओं, एकदम भौतिक प्रतिक्रियाओंसे बनी होती है, लेकिन जरूरत इस बातकी है कि कोषाणुओंमें भगवान्के लिये प्रेम जगाया जाय । एक बार वे भगवान्से प्रेम करने लगे' तो यह हमेशा, सारे समय, ऐसा रहता है, वह नहीं बदलता - वह फिर नहीं बदलता । वह किसी मानसिक या प्राणिक गतिसे बहुत अधिक स्थिर रहता है : वह ऐसा रहता है (माताजी दोनों मुट्ठियां कस लेती हैं), वह हिलता भी नहीं । कोषाणु हमेशा इस स्थितिमें रहते हैं, इस अवस्थामें, भगवान्के साथ प्रेममें । शरीरके साथ यह बहुत विलक्षण बात है कि वह एक बार कोई बात सीख लें तो उसे भूलता नहीं कोषाणु एक बार इसे सीख लें,

 

यह आत्म-निवेदन, भगवान्के प्रति समर्पण, इस आत्म-समर्पणकी आवश्यकता- को सीख लें तो उसे हमेशाके लिये सीख लेते हैं; वह चीज फिर नहीं डगमगाती । वह स्थायी रहती है, चौबीस घंटोंमें पूरे चौबीस घंटे । वह कभी रुकती नहीं, दिन-पर-दिन, विना रुके चलती जाती है और कोई परिवर्तन नहीं आता । अगर कुछ गड़बड़ भी हो जाय (दर्द या ऐसा ही कुछ और), तो पहली गति, हा, पहली गति यही होती है, सहज रूपसे आत्म-समर्पणकी, अपने-आपको दे देनेकी, उच्चतर चेतना हस्तक्षेप नहीं करती, यह सहज होती है, यह कोषाणुओंके अंदर बसी चेतना होती है । प्राण और मन अस्थिर होते है, इस भांति (टेडा-मेडा संकेत) । विशेष रूपसे, विशेष रूपसे प्राण सब प्रकारकी चीजोंमें रस लेता है ।

 

    स्वभावत: दोनों अन्योन्याश्रित है : अहंकारका लोप होना चाहिये -- अहंकारके राज्यका अन्त होना चाहिये । लेकिन साधारणत: लोग समझते है कि भौतिक अहंकारको विलुप्त करना संभव नहीं है; न सिर्फ यह कि यह संभव है, यह किया जा चुका है और शरीर चल-फिर रहा है, उसका चलना-फिरना जारी है । वह गया नहीं है (एक बार कुछ कठिन समय आया था... बस, जरा-सा) ।

 

    अब कोषाणुओंको आश्चर्य हो रहा है कि आराधनाकी गतिके बिना कैसे जिया जा सकता है । वे हर जगह, हर जगह ऐसे हैं (तीव्र अभीप्सा- की मुद्रा) । यह बहुत मजेदार है ।

 

   वे सब पुरानी कठिनाइयां जो आन्तरिक विकासमें सामने आती हैं, प्राण और मनके साथ व्यवहार करते हुए जिनसे पाला पड़ता है, पुरानी चीजोंका फिरसे उठ खड़ा होना आदि, वे सब (इस शरीरसे) जा चुकी हैं । यह वैसा नहीं है ।

 

१८ अक्रूर, १९६९

 

    पूर्ण सिद्धिके लिये समस्त सत्ताको प्रकाशित होना चाहिये; लेकिन सिद्धिके आरंभके लिये शायद उस शरीरका काम ज्यादा आसान है जिसके पास विकसित मन नहीं है... । मेरा ख्याल है कि हम लोगोंके लिये जो मनकी अधिक-सें-अधिक संभावनातक पहुंच चुके हैं, हम अधिकतमके द्वारा ही परे गये हैं; जब मनने अपनी अधिकतम प्राप्ति कर ली तभी उसने पदत्याग

 


किया; पूर्ण सिद्धिके लिये यह बिलकुल ठीक है, परंतु साधारणत: शरीरको मनकी आज्ञा माननेकी बहुत आदत होती है, वह रूपांतरित होनेके लिये काफी नमनीय नहीं होता । और इसीलिये मेरे मनको घूमनेके लिये भेज दिया गया है... लेकिन यह एक ऐसी पद्धति है जिसका अनुसरण करनेकी सलाह... औरोंको नहीं दी जा सकती । इससे दसमेंसे नौ मर जायेंगे ।

 

        मन?

 

 अगर मन चला जाय ।

 

       आपका ख्याल है कि मैं मर जाऊंगा?

 

 मन और प्राण ।

 

         जी हां, प्राणकी बात मै समझ सकता हूं, पर यदि आप मेरा मन हटा दें?...

 

 नहीं, वत्स, मैं इनकार करती हूं ! (माताजी हंसती हैं) नहीं, उसे... उसे उतर जाना चाहिये।

 

   दिव्य शक्तिके तेजीसे गुजरने और शरीरतक पहुंचनेके लिये बहुत निष्क्रियता चाहिये । मैं देखती हू कि हर बार जब शरीरके किसी-न-किसी अंगपर क्रिया करनेके लिये दबाव पड़ता है तो चीज बिलकुल निष्क्रिय होने लगती है जो... ''जड़ताकी पूर्णता'' है । समझे? यह उस चीजकी पूर्णता है जिसकी प्रतिनिधि है जड़ता - कोई ऐसी चीज जिसकी अपनी कोई क्रिया नहीं होती । जिन लोगोंका मन बहुत विकसित होता है उनके लिये यह सबसे कठिन चीज है, बहुत कठिन । क्योंकि समस्त शरीर जीवन-भर मनके प्रति इस तरह ग्रहणशील रहनेका अभ्यस्त रहा है । यही उसे निष्क्रिय और आज्ञाकारी बनाता है और इसी चीजको हटाना है ।

 

कैसे समझाया जाय?... मनके द्वारा विकासका मतलब है सारी सत्ताकी, यहांतक कि अत्यन्त स्थल द्रव्यात्मककी भी, सामान्य और निरंतर जाग्रति, एक ऐसी जाग्रति जिसका परिणाम ऐसा भी होता है जो निद्राके एकदम विपरीत है । और परम शक्तिको ग्रहण करनेके लिये तुम्हारे अंदर इससे उल्टी चीज होनी चाहिये जो निश्चलताके समान हों -- निद्राकी निश्चलता तो हो पर हो पूरी तरहसे सचेतन, पूरी तरह सचेतन । शरीर फर्क अनु-

 

१७२


भव करता है । वह यहांतक फर्क अनुभव करता है कि... उदाहरणके लिये, मै शामको लेटती हू और ऐसी ही बनी रहती हू, घंटों ऐसी ही लेटी रहती हू और अगर कुछ समय बाद मैं साधारण नींदमें चली जाऊं तो मेरा शरीर तीव्र व्यथाके साथ जाग पड़ता है! और फिर, वह अपने- आपको उसी स्थितिमें रख देता है । मैं समय-समयपर इस व्यथाका अनुभव करती हू, लेकिन सत्य वृत्तिमें लौटते ही यह तुरन्त चली जाती है, और यह है निश्चलताकी स्थिति, निश्चलता लेकिन पूर्णतया सचेतन । ''निश्चलता'' पता नहीं कैसे कहा जाय... परन्तु यह ''निश्चलतामें जड़ता''- के एकदम विपरीत है ।

 

    और इससे अब मेरी समझमें आ रहा है कि सुष्टि जड़तामें क्यों शुरू हुई । तो उस अवस्थाको चेतनाकी सनी अवस्थाओंमेंसे गुजरकर फिरसे खोजना था (माताजी एक बड़ी-सी वक्र रेखा बनाती है) । और इसीने हमें यह दिया है... (हंसी) । यह अच्छा बखेड़ा है! लेकिन जो जान- बूझकर किया जाता है वह बखेड़ा नहीं होता ।

 

       लेकिन जो कठिनाई मेरे आगे बहुत बार आती है वह है अभीप्सामें भी सक्यिताकी आवश्यकता ।

 

 हां, हां ।

 

      मुझे लगता है कि मुझे सक्रिय रूपसे अभीप्सा करना बंद नहीं करना चाहिये । बहुधा मैं यह सब एक ओर छोड़कर, हीले- डुले बिना रह सकता हू, परंतु...

 

हां फिर अभीप्सा आ जाती है ।

 

        मुझे अभीप्साकी क्रियाकी आवश्यकता मालूम होती है ।

 

हां, जड़ताके विरुद्ध प्रतिक्रिया करनेके लिये, क्योंकि अभीतक जड़ता हमारी परंपरामें है।

 

लेकिन ऐसी स्थितिमें क्या करना चाहिये? उसे चपटा हो जाने दिया जाय या... आग्रहपूर्वक इस सक्यि अभीप्सामें आगे चला जाय, जो सचमुच बहुत तीव्र है?

 

१७३


कहना मुश्किल हैं, मुझे विश्वास है कि हर एक्का अपना मार्ग है । लेकिन इस शरीरके लिये तो सक्रिय अभीप्साका ही मार्ग है ।

 

         सक्यि अभीप्सा करना? तब वह निश्चलता तो न रही ।

 

 उसने चीज पा ली है, उसने उपाय समझ लिये हैं कि यह कैसे किया जाय ।

 

         दोनों एक साथ ? दोनोंका ऐक्य?

 

 हां, दोनों एक साथ हैं । उसे यही पानेमें सफलता मिली है : पूर्ण निश्चलता और तीव्र अभीप्सा । जब निश्चलता अभीप्साके बिना होती है तब भयंकर वेदना होती है जो तुरन्त उसे जगा देती है । हां, तो यह है तीव्र अभीप्सा । और यह बिलकुल निश्चल होती है, अंदरसे निश्चल, मानों सभी कोषाणु निश्चल हों गये हों... यह होना चाहिये । हम त्रिमें तीव्र अभीप्सा कहते हैं उसे अतिमानसिक स्पन्दन होना चाहिये । उसे दिव्य स्पन्दन, सत्य दिव्य स्पन्दन होना चाहिये । मैंने अपने-आपसे बहुत बार यह कहा है।

 

      लेकिन अगर शरीर क्षणभरके लिए भी जड़तामें - अभीप्सा बिना निश्चलतामें -- जा गिरे तो उसे एक ऐसी वेदना द्वारा जगा दिया जाता है मानों वह मरने ही वाला हों! समझे? यहांतक है । उसके लिये निश्चलताका अर्थ है... हां, उसे लगता है कि उच्चतम स्पन्दन, सत्य 'चेतना'का स्पन्दन इतना तीव्र होता है कि... वह निश्चलताकी जड़ताके समान होता है - एक ऐसी तीव्रता होती है जो (हमारे लिये) अगोचर है । यह तीव्रता इतनी अधिक होती है कि हमारे लिये वह जड़ताके समान है ।

 

       यही चीज स्थापित होती जा रही है ।

 

    इसने मुझे समझा दिया है (क्योंकि अब शरीर समझता है), इसने मुझे सृष्टिकी प्रक्रिया समझा दी है... । कहा जा सकता है कि चीज पूर्णताकी एक स्थितिसे शुरू हुई, लेकिन वह निश्चेतन थी, और इसे निश्चेतन पूर्णताकी इस स्थितिसे निकलकर सचेतन पूर्णताकी ओर जाना है और दोनोंके बीच अपूर्णता है । शब्द मुर्खता-भरे है, पर तुम समझते हो ।

 

 ( मौन)

 

    देखो, ऐसा लगता है कि हम समझनेकी देहलीपर हैं । और यह कोई


१७


मानसिक समझ नहीं है, नहीं, नहीं, बिलकुल नहीं (वह तो रह चुकी है, लेकिन वह कुछ नहीं है, कुछ नहीं, शून्य) । यह एक ऐसी समझ है जिसे तुम जीते हो । और इसे मन नहीं पा सकता, नहीं पा सकता । और ऐसा लगता है कि केवल शरीर, ऐसा शरीर जो ग्रहणशील, खुला हुआ और कम-से-कम आशिक रूपसे रूपांतरित है वही समझ पानेमें समर्थ है । जिसे हम सृष्टि कहते है, उस सृष्टिको समझनेके लिये दो चीजें : क्यों और कैसे । यह विचारद्वारा संयोजित या अनुभव की हुई चीज नहीं है : यह एक जी हुई वस्तु है । और जाननेका यही एकमात्र तरीका है... यह एक चेतना है ।

 

    लेकिन देखो, जब यह समझ आती है -वह आती है और तब वह इस तरह हो जाती है (प्रकाशमान स्फीतिकी मुद्रा), वह इस तरह आती है और तब वह क्षीण हों जाती है, फिर आती है और फिर क्षीण हो जाती है; किन्तु जब वह आती है तो इतनी स्पष्ट होती है, इतनी सरल होती है कि आदमी अपने-आपसे पूछता है : ''मैं इसे पहले क्यों नहीं जान सका! ''

 

    और भी अधिक समयकी जरूरत है... । कितने समयकी, मुझे नहीं मालूम । लेकिन समयकी धारणा भी तो एकदम मनमानी है ।

 

   हम सदा अपनी अनुभूतियोंको चेतनाकी पुरानी अवस्थामें अनूदित करना चाहते है और यही उसकी दुर्गति है! हम समझते है कि यह जरूरी है, यह अनिवार्य है - और यह व्यामोहमें डालनेवाली बात है । इसमें बहुत ज्यादा देर लग जाती है ।

 

 ( मौन)

 

    हर चीज, हर चीज, मनुष्योंने जो कुछ कहा है वह सब, उन्होंने जो कुछ लिखा है, उन्होंने. जो कुछ सिखाया है, यह सब कहनेका केवल एक तरीका है । यह केवल अपनी बात समझानेकी कोशिश है, लेकिन यह है असंभव । और फिर यह सोचो (हंसते हुए), जो चीजें इतनी सापेक्ष हैं उनके लिए मनुष्यने कितना झगड़ा किया है ।

 

 (लंबा मौन)

 

    जैसे-जैसे दिन गुजरते हैं और जो घटनाएं घटती हैं उन्हें देखते हुए शरीरकी अनुभूति इस तरह दिखती है... । किसी तरह, कुछ क्षणोंके

 

१७५


लिये वह 'अमरता' की चेतनामें होता है और फिर, प्रभावके कारण (फिर समय-समयपर पुरानी आदतोंके कारण), वह मर्त्यकी चेतनामें जा गिरता है और यह सचमुच... क्योंकि अब उसके लिये फिरसे मर्त्यकी चेतनामें जा गिरना एक भयंकर यंत्रणा है; और वह तभी गायब होती है जब उसमेंसे निकलकर सत्य चेतनामें प्रवेश करती है । और मै समझ सकती हू कि क्यों ऐसे लोग, ऐसे योगी हुए हैं जिन्होंने जगत् को मिथ्या कहा हैं क्योंकि 'अमरता' की चेतनाके लिये मर्त्यकी चेतना पक अवास्तविक विसंगति है । यह ऐसा है (माताजी दोनों चेतनाओंके अंदर आने और बाहर जाने- का संकेत करते हुए दोनों हाथोंकी उंगलियोंको पिरोती और निकालती हैं) । तो एक क्षण ऐसा होता है और अगले क्षण वैसा । और वह दूसरी अवस्था, 'अमरता' की अवस्था निर्विकार रूपसे शांत, प्रशांत... चकराने- वाली तेज लहरों, इतनी तेज कि वे गतिशून्य मालूम होती हैं । इस तरह, जबर्दस्त क्रिया है, लेकिन कोई चीज गति करती नहीं दिखती । और जैसे ही वह दूसरी अवस्था वापिस आती है, सभी साधारण धारणाएं भी वापिस आ जाती हैं, यानी... सचमुच, इस समय वह जिस अवस्थामें है, वह मिथ्यात्वका कष्ट और पीड़ा देती है । अभीतक ऐसा ही है (आने और जानेकी वही मुद्रा)... उसमेंसे बाहर निकल आनेकी एक, एकमात्र विधि है केवल समर्पण । वह शब्दोंद्वारा, भावोंद्वारा, किसी चीजके द्वारा व्यक्त नहीं किया जाता । वह ऐसे स्पंदनकी अवस्था है जिसमें भागवत स्पन्दन- को छोड्कर और किसी चीजका मूल्य नहीं होता । तब, केवल तभी, चीजें अपनी व्यवस्थामें वापिस आती है ।

 

       लेकिन यह सब, उसके बारेमें बोलते ही...

 

  फिर मी देखो, यह सतत होता है : यह चीज रातको आती है, यह सवेरे आती है । और फिर अन्य समय जब... (विशाल, संयुक्तकी मुद्रा और स्थितिके साथ) फिर और समस्याएं नहीं रहती, कठिनाइयां नहीं रहती, कुछ भी नहीं ।

 

 ( मौन)

 

 एक पृष्ठभूमि है (विशेष रूपसे वह है), निश्चेतन निरोधकी पृष्ठभूमि जो हर चीजके पीछे है, हर चीजके, हर चीजके पीछे है, वह अभीतक हर जगह है -- ऐसा है न? - तुम खाते हुए, सांस लेते हुए इस निषेधको अपने अंदर लेते हों... । इस सारेका रूपांतर करना अभीतक एक विराट् कार्य है । लेकिन जब, यदि यूं  कहे कि, हम ' 'दूसरी तरफ' "

 

होते हैं (यहां ''तरफ'' नहीं होती), बल्कि उस दूसरी स्थितिमें होते हैं तो यह इतना सरल, इतना स्वाभाविक लगता है कि हम अपने-आपसे पूछते हैं, यह ऐसा क्यों नहीं है, यह इतना कठिन क्यों लगता है; और फिर, जैसे ही तुम दूसरा तरफ होते हो कि (माताजी दोनों हाथोंसे सिर पकडू लेती हैं).... निःसंदेह मिश्रण अभीतक बना हुआ है ।

 

    वास्तवमें, सामान्य अवस्था, पुरानी स्थिति सचेतन रूपसे (यानी, यह एक सचेतन प्रत्यक्ष दर्शन है), मृत्यु और दुःखकी स्थिति है । और उधर दूसरी स्थितिमें, मृत्यु और दुःख बिलकुल... अवास्तविक चीजें मालूम होती हैं ।

 

    यह लो (माताजी ''रूपांतर'' प्रतीकवाला फूल देती हैं) ।

 

   अधीर न हो!

 

   विश्वासपूर्ण धीरज ।

 

    सच्ची बात तो यह है कि हर एकके लिये, हर चीज जितनी अच्छी हो सकती है, है । सारे समय पुरानी गतियां अधीर होती रहती हैं ।... यानी, जब हम सर्वको देखते हैं तो पता चलता है कि अधीरताको जड़ताके विरुद्ध प्रतिक्रियाके रूपमें पैदा किया गया है - लेकिन अब समाप्त हो गया है, वह समय चला गया ।

 

१७६

१९ नवंबर, १९६९

 

   आज सवेरे आठ बजे मैं बहुत-सी बातें कह सकती थी... क्योंकि एक ऐसा दिन आया जब जो कुछ हुआ था उसके परिणामस्वरूप बहुत-सी समस्याएं उठ खड़ी हुई । फिर आज सवेरे (रातके अंतमें), मुझे अनुभूति हुई जो स्पष्टीकरण थी । और मैं दो घंटेतक सृष्टिके 'क्यों' और 'कैसे'के प्रत्यक्ष दर्शन (विचार नहीं : प्रत्यक्ष दर्शन )में रही । वह इतना प्रकाशमय था, इतना स्पष्ट था, इतना अकाटय था । वह अवस्था कम-से-कम चार- पांच घंटेतक रही और फिर वह निथरा गयी; धीरे-धीरे अनुभूतिकी तीव्रता और स्पष्टता कम होती गयी.... । मैं उसी समय बहुत-से लोगोंसे मिली थी, फिर.... लेकिन अब समझाना कठिन है । लेकिन हर चीज इतनी स्वच्छ हो गयी थी, सभी परस्पर-विरोधी सिद्धांत, हर चीज तलीमें थी (माताजी ऊपरसे देखती हैं), और सभी व्याख्याएं, श्रीअरविंदने जो बातें

 


कही थीं वे सब और कुछ बातें जो 'क' ने कही थीं वे सब अनुभूतिके परिणामस्वरूप दिखायी दी : हर चीज अपने स्थानपर और बिलकुल स्पष्ट । उस समय मैं उसे कह सकती थी, लेकिन अब जरा कठिन होगा ।

 

    ऐसा नहीं है क्या? हमने जो कुछ पढ़ा है, सभी सद्धांतों और व्यारयाओंके बावजूद (कैसे कह?), ''व्याख्या'' सें कुछ छूट गया था, उसे ''समझाना'' मुश्किल था (यह समझाना या व्याख्या करना नहीं है : वह तो बिलकुल नगण्य है) । उदाहरणके लिये, दुख-दर्द और दुःख-दर्द पहुंचानेकी इच्छा, 'अभिव्यक्ति' की यह दिशा । हां, इससे पहले प्रेम और घृणा- के मौलिक तादात्म्यका अंतर्दर्शन हों चुका है, क्योंकि चीज एकदम छोरोंपर थी, लेकिन बाकीके लिये कठिन था । आज यह प्रकाशमान रूपसे सरल है - हां, वही है, इतना स्पष्ट! (माताजी अपना लिखा हुआ एक पुरज़ा देखती हैं) । शब्द कुछ नहीं है । और फिर, मैंने अनगढ़ी पेंसिलसे यूं ही घसीटा लगाया था... । पता नहीं तुम शब्द देख सकते हों या नहीं । मेरे लिये वे किसी यथार्थ चीजके प्रतीक थे; अब वे शब्दोंके अति- रिक्त कुछ नहीं हैं । (शिष्य पड़ता है) :

 

         स्थिरता और परिवर्तन

         जड़ता और रूपांतर

 

हां, प्रभुमें वे निश्चय ही अभिन्न तत्व हैं । और विशेष चीज थी इस अभित्रताकी सरलता । और अब वे शब्दोंसे बढ़कर कुछ नहीं ।

 

स्थिरता और परिवर्तन

जड़ता और रूपांतर

नित्यता और प्रगति

 

 ऐक्य =... (शिष्य पढ़ नहीं पाता)

 

यह लिखनेवाली मैं न थी, यानी, साधारण चेतना न थी और पेंसिल पता नहीं मैंने क्या लिखा है ।

 

 (माताजी पढ्नेकी कोशिश करती हैं लेकिन व्यर्थ)

 

वह सृष्टिका अंतर्दर्शन था -- अंतर्दर्शन, समझ, कैसे, क्यों, किस ओर, वहां सब कुछ था, सब कुछ एक साथ और स्पष्ट, स्पष्ट, स्पष्ट... मैं

 

१७८


कहती हूं, मैं प्रकाशमान और चौधियानेवाले स्वर्णिम प्रभामंडलमें थी ।

 

    हां, तो .वहांपर धरती सृष्टिके प्रतीकरूप, केंद्रमें थी, और पत्थरकी जड़ता- का तादात्म्य था जो सबसे अधिक जड है और... (माताजी फिर पढ्नेकी कोशिश करती हैं) ।

 

पता नहीं वह आयेगी या नहीं ।

 

 (माताजी लंबी एकाग्रतामें चली जाती हैं)

 

   हम कह सकते हैं (समझानेकी सरलताकी दृष्टिसे मैं ''परम प्रभु'' और ''सृष्टि'' कहूंगी), परम प्रभुमें एक ऐसा ऐक्य है जिसमें सभी संभावनाएं बिना किसी भेद-भावके मिल जाती हैं; हम कह सकते हैं कि सृष्टिमें इस ऐक्य का निर्माण करनेवाली सभी चीजोंका परस्पर विरोधियोंको विभाजित करके प्रक्षेपण है, यानी, उन्हें अलग करके प्रक्षेपण है (इसीको पकड़कर किसीने कहा है कि सृष्टि अलगाव है), उदाहरणके लिये, दिन और रात, काला और सफेद, शुभ और अशुभ आदि (यह सब, लेकिन यह हमारी व्याख्या है) । यह समग्र, सब मिलकर पूर्ण एकता है, निर्विकार और... अविच्छेद्य । सृष्टिका मतलब है इन सब चीजोंका, जो ऐक्यमें ''समाविष्ट'' हैं, अलग होना -- हम इसे चेतनाका विभाजन कह सकते हैं - चेतनाके विभाजनका आरंभ होता है ऐक्यके अपने बारेमें सचेतन होनेमें, ताकि वह अपने ऐक्यमें विविधताके बारेमें सचेतन हो सकें । और तब यह मार्ग अपने खंडोंके कारण हमारे लिये देश और कालमें अनूदित होता है । हमारे लिये, जैसे हम हैं, यह संभव है कि इस 'चेतना' का हर बिंदु अपने बारेमें सचेतन हो और साथ ही अपने मूलगत 'ऐक्य' के बारेमें सचेतन हो । और यह काम किया जा रहा है, यानी, इस चेतनाका छोटे-से-छोटा तत्व 'चेतना' की इस स्थितिको रखते हुए, समग्र मौलिक चेतनाको खोजनेकी प्रक्रियामें है - इसका परिणाम है मूलगत चेतना जो अपने 'ऐक्य'के बारेमें, और समस्त लीलाके बारेमें, इस 'ऐक्य'के अनंत तत्वोंके बारेमें सचेतन है । हमारे लिये यह चीज कालके भावमें अनूदित होती है : 'निश्चेतन' सें चेतनाकी वर्तमान स्थितितककी गति । और 'निश्चेतना' प्रथम 'ऐक्य' का प्रक्षेपण है (अगर उसे ऐसा कहा जा सके, ये सभी शब्द बिलकुल निरर्थक हैं), वह उस तात्विक ऐक्यका प्रक्षेपण है जो केवल अपने ऐक्यके बारेमें सचेतन है -- हां, वही 'निश्चेतना' है । और यह 'निश्चेतना' उन सत्ताओंमें अधिकाधिक सचेतन होती जाती है जो अपने अत्यल्प, आणविक अस्तित्वके बारेमें सचेतन होनेके साथ-ही-साथ, जिसे हम प्रगति, विकास या

 

१७९


रूपांतर कहते हैं उसके द्वारा मूलगत 'ऐक्य' के बारेमें सचेतन हो जाते हैं । और यह बात, जिस तरह दिखायी दी, सारी चीजकी व्याख्या कर देती ह ।

 

    शब्द कुछ भी नहीं हैं ।

 

   वहां हर चीजको, हर चीजको, हर एक चीजको, स्थूलतमसे लेकर सूक्ष्म- तम चीजतकको अपना स्थान मिल जाता है - स्पष्ट, स्पष्ट, स्पष्ट, अंत- दशन ।

 

   और अशुभ, जिसे हम ''अशुभ'' कहते हैं उसका समग्रमें एक अनिवार्य स्थान है । जिस क्षण हम 'उस' के बारेमें आवश्यक रूपसे सचेतन हो जायं उस क्षणसे यह 'अशुभ' नहीं लगेगा । अशुभ एक आणविक तत्व है जो अपनी आणविक चेतनाको देख रहा है; लेकिन चूंकि चेतना तत्वतः, एक ही है इसलिये वह फिरसे ऐक्य-चेतनाको पा लेती है -- दोनों एक साथ । उसीको, हां, उसीको उपकध करना चाहिये । उस क्षण मुझे इसी अद्भुत चीजका अंतर्दर्शन हुआ था ।.. और आरंभमें (क्या कोई ''आरंभ'' मी है?) जो केंद्रीय उपलब्धिसे अधिक-से-अधिक दूर है, जिसे हम बाह्यांचल कह सकते हैं वह वस्तुओंकी अनंत विविधता, संवेदनोंकी विविधता, भावनाओंकी, सबकी - चेतनाकी विविधता बन जाती है । इस अलगावकी क्रियाने ही जगत्का निर्माण किया है और सतत निर्माण करती रहती है, साथ-हीं-साथ यह हर चीजको समयमें बनाती जाती है : दुख-काटुट, सुख, सब कुछ, सब कुछ जो भी निर्मित होता है वह इसीके द्वारा... जिस ''छितराव'' कहा जा सकता है परंतु यह असंगत है, यह छितराव नहीं है -- स्वयं हम देशकी भावनामें रहते हैं इसलिये छितराव और एकाग्रताकी बात करते हैं, लेकिन यह ऐसी कोई चीज नहीं है ।

 

    लेकिन मै समझ सकती हू कि 'क' यह क्यों कहा करते थे कि हम 'संतुलन' कालमें रह रहे हैं; मतलब यह हुआ कि चेतनाके इन अनगिनत बिन्दुओंके, इन परस्पर विरोधियोंके संतुलनसे ही केंद्रीय 'चेतना' फिरसे पायी जा सकती है । और जौ कुछ कहा गया है वह मूढ़ता है -- यह कहते हुए मै साथ-ही-साथ यह भी देख सकती हू कि यह किस हदतक मूढ़ता है । लेकिन अन्यथा करनेका कोई मार्ग ही नहीं है । यह कुछ ऐसी चीज है... कोई ऐसी ठोस चीज, इतनी सत्य, हां, इतनी पू-री.. त-र-ह-से... बह ।

 

   जबतक मैं वह चीज जी रही थी वह... लेकिन शायद तब .मैं यह न कह पाती । वह (माताजी पुरजेकी ओर इशारा करती हैं), मैं कागज लेकर लिख लेनेके लिये बाधित हुई । लेकिन इस तरह कि अब मुझे

 

१८०


नहीं मालूम मैंने क्या लिखा है... । पहली चीज जो लिखी गयी वह यह थी :

 

        स्थिरता और परिवर्तन

 

  यह मौलिक 'स्थिरता' का विचार था (क्या यह कहा जा सकता है?) जो 'अणियक्ति' में जडताद्रारा और वृद्धिका विचार परिवर्तनद्रारा अनूदित हुआ है । तब आये :

 

      जड़ता और रूपांतर

 

  लेकिन वह चला गया, भाव चला गया - शब्दोंमें एक भाव था ।

 

     नित्यता और प्रगति

 

 ये परस्पर विरोधी थे (ये तीनों चीजें) ।

 

  उसके बाद जगह छूटी हुई थी (माताजी त्रिविध विरोधोंके नीचे लकीर खींचती हैं), और फिर एक बार 'दबाव', और तब मैंने लिखा :

 

      ऐक्य =... (तीन अक्षर जो पढ़ नहीं जाते)

 

और वह अनुभूति की बहुत अधिक सच्ची अभिव्यक्ति थी, लेकिन यह अपाठच है - मेरा ख्याल है कि यह जान-बूझकर अपाठय रखी गयी है । इसे पढ़ सकनेके लिये तुम्हें अनुभूति होनी चाहिये । (शिष्य पढ्नेकी कोशिश करता है) :

 

         मुझे लगता है कि यहां एक शब्द ''आराम'' है ।

 

 हां, यह हो सकता है । आराम और

 

        (माताजी एकाग्रतामें चली जाती हैं)

 

 यह शब्द ''शक्ति'' नहीं है?

 

       जी हां, ''शक्ति और आराम'' मिलकर ।

 

 हां, यही है ।

     ये शब्द मैंने नहीं चुने थे, अतः वह कोई विशेष शक्ति रही होगी -

 

१८१


जब मैं ''मैं'' कहती हू तो उसका मतलब होता है वह चेतना जो यहां है (सिरके ऊपर इशारा); यह वह चेतना नहीं है । यह कोई ऐसी चीज थी जो दबाव डाल रही थी जिसने मुझे लिखनेके लिये बाधित किया ।

 

(माताजी नकल करती है)

 

स्थिरता और परिवर्तन

जड़ता और रूपांतर

नित्यता और प्रगति

 

 ऐक्य = शक्ति और आराम मिलकर ।

 

     इसका भाव यह है कि दोनों मिलकर चेतनाकी वह अवस्था लें आते हैं जो अपने-आपको व्यक्त करना चाहती थी ।

 

   यह विश्वके परिमाणमें था -- व्यक्तिके परिमाणमें नहीं ।

 

   मैंने दोनोंके बीच एक लकीर लगा दी जिसका मतलब है कि दोनों एक साथ नहीं आये ।

 

लेकिन आप बहुधा इस अतिमानसिक अभिव्यक्तिके बारेमें बोलते समय कह चुकी हैं कि वह एक विस्मयकारक गति थी, और साथ ही यह भी कि वह मानों एकदम निश्चल थी । आपने यह बहुत बार कहा है ।

 

 लेकिन तुम जानते हो कि बहुत बार मुझे याद नहीं रहता कि मैंने क्या कहा था ।

 

         आप कहती हैं : स्पंदन इतना तेज होता है कि वह अगोचर होता है, वह मानों जमकर स्थिर हो जाता है ।

 

 हां, लेकिन यह एक 'महिमा थी' थी जिसमें मैंने आज सवेरे घटोतक निवास किया ।

 

     और तब, सब, सब, सब धारणाएं, सभी, अत्यधिक बौद्धिक धारणाएं भी सभी, मानों... मानों बचकानी बन गयीं । वह इतना स्पष्ट था कि उसकी जो प्रतीति थी : उसके बारेमें बोलनेकी कोई जरूरत नहीं ।

 

१८२


       सभी मानव प्रतिक्रियाएं, अधिक-से-अधिक ऊंची, अधिक-से-अधिक शुद्ध और अधिक-सें-अधिक उदात्ता प्रतिक्रियाएं भी इतनी बचकानी लगती थीं... श्रीअरविदका लिखा हुआ एक वाक्य सारे समय मुझे याद आ रहा था । एक दिन, पता नहीं कहां, उन्होंने कुछ लिखा था, एक लंबा-सा वाक्य था जिसमै यह आता है : ''और जव मुझे ईर्ष्या होती है तो मैं जान लेता हू कि वह बूढ़ा अभीतक मौजूद है ।', अब शायद तीस वर्षसे ऊपर हो गये जब मैंने यह वाक्य पढ़ा था -- हां, लगभग तीस वर्ष, - और मुझे याद है जब मैंने ''ईर्ष्या'' शब्द पढ़ा तो मैंने अपने-आपसे कहा : ''श्रीअरविद कैसे ईर्ष्या कर सकते हैं! '' तो अब तीस वर्ष बाद मेरी समझमें आया कि ''ईर्ष्या'' सें उनका क्या मतलब था । यह वह चीज बिलकुल नहीं है जिसे लोग ''ईर्ष्या'' कहते हैं । वह एकदम चेतनाकी और ही अवस्था थी । मैंने उसे स्पष्ट देखा । और आज सवेरे मुझे यह फिरसे याद आया : जब मै ईर्ष्या करता हू तो मैं जान लेता हू कि वह बूढ़ा आदमी अभीतक मौजूद है । उनके लिये ''ईर्ष्या'' करनेका वह अर्थ नहीं है जिसे हम ''ईर्ष्या'' करना कहते हैं ।... वह यह अति सूक्ष्म कण है जिसे हम व्यक्तित्व कहते हैं, चेतनाका यह अत्यंत लघु कण जो अपने-आपको केंद्रमें रखता है, जो प्रत्यक्ष दर्शनका केंद्र है जो परिणामतः चीजोंको इस तरह आते देखता है (अपनी ओर संकेत) या इस तरह जाते देखता है (बाहरकी ओर संकेत), जो कुछ उसकी ओर नहीं आता वह उसे एक ऐसी चीजका बोध देता है जिसे श्रीअरविद ''ईर्ष्या'' कहते है : यह बोध कि चीजें केंद्रकी ओर आनेकी जगह छितरा रही हैं । इसीको श्रीअरविद ईर्ष्या करना कहते हैं । तो जब वे कहते है. ''जब मै ईर्ष्याका अनुभव करता हू (उनके कहनेका मतलब यही था), तो मैं जान लेता हू कि बूढ़ा आदमी अभीतक मौजूद है,'' यानी, यह चेतनाका यह अणुवत् कण अभीतक अपने केंद्रमें है. यह क्रियाका केंद्र है, बोधका केंद्र है, संवेदनका केंद्र है...

 

 ( मौन)

 

 हां, मै देख सकती थी - जब मै अपना सारा भौतिक काम करती हू - तब मैं देख सकती थी कि सारा काम चेतनामें जरा भी परिवर्तन किये बिना किया जा सकता है । उसने मेरी चेतनामें परिवर्तन नहीं किया; जिस चीजने मेरी चेतनापर परदा डाला वह चीज थी लोगोंसे मिलना-जुलना; तब मैंने यहां रहकर वह करना शुरू किया जो मैं रोज करती रही हू - अर्थात्, लोगोंपर दिव्य चेतना प्रक्षिप्त करना । लेकिन

 

१८३


 वह सीमाओंपर वापिस आ गयी... (इसे कैसे बुलाया जा सकता है?) यानी, अंदर रहनेकी जगह जब तुमने मुझसे पूछा तो मैं इसे देखने लगीं । लेकिन वह भावना वहां न रही -- वहां केवल वही था, है न! केवल वही था और हर चीज, हर चीज बदल गयी -- रूप-रंग, भाव आदि बदल गये थे...

 

     यह अतिमानसिक चेतना होनी चाहिये : मेरा ख्याल है कि यह अतिमानसिक तना ही है ।

 

 लेकिन हम भली-भांति कल्पना कर सकते हैं कि एक काफी विस्तृत और द्रुत चेतनाके लिये, जो केवल मार्गके जरा-से भाग- को ही नहीं, एक ही समयमें समस्त मार्गको देख सकता है...

 

हां, हां ।

 

        समग्र एक गतिशील पूर्णता है ।

 

हां

 

'अशुभ' है अपनी दृष्टिको एक छोटे-से कोणपर सीमित रखना; तब हम कह सकते हैं : ''यह अशुभ है,'' लेकिन अगर हम समस्त पथको देखें... । समग्र चेतनामें देखें तो स्पष्ट है कि अशुभ कुछ है ही नहीं ।

 

कोई विपर्याय नहीं है, कोई विरोधी तत्व नहीं है - कोई विरोध भी नहीं है, मै कहती हू : कोई विपर्याय नहीं है । एक वही 'ऐक्य' है । उस 'ऐक्य' मै जीना है । उसे शब्दों और विचारोंमें अनूदित नहीं किया जा सकता । मैं कहती हू, वह... निस्सीम विस्तार है, प्रकाश.. बिना गति- का प्रकाश है और साथ-ही-साथ आराम... एक ऐसा आराम जिसे इस रूपमें नहीं पहचाना जाता । अब मुझे विश्वास हैं कि यह वही है, वही अतिमानसिक चेतना ।

 

    और आवश्यक रूपसे, आवश्यक रूपसे उसे धीरे-धीरे रूप-रंग बदलने होंगे ।

 

 (लंबा मौन)

 

    ऐसे कोई शब्द नहीं है जो भागवत महिमा समझा सकें । सारी चीज

 

१८४


किस तरह मिली हुई है ताकि सब कुछ यथासंभव तेजीसे चल सके । और व्यक्ति उस हदतक दुःखी है जिस हदतक वे उसके बारेमें सचेतन नहीं होते और उन्हें जो हों रहा है उसके बारेमें गलत स्थिति लेते हैं ।

 

      लेकिन यह सोचना कठिन है कि हर क्षण... पूर्णता होनी चाहिये ।

 

 हां, ऐसा ही ।

 

     हर क्षण पूर्णता है ।

 

    हर क्षण, कोई और चीज नहीं है । जब मैं वहां थी तो वहां कोई और चीज न थी । और फिर भी मैंने तुमसे कहा है, यह वह समय था जब मैं शारीरिक रूपसे बहुत व्यस्त थी -- सारा काम हो रहा था, किसी चीजमें कोई बाधा न थीं । इसके विपरीत, मेरा ख्याल है कि मैं सामान्यकी अपेक्षा बहुत ज्यादा अच्छी तरह काम करती थीं.. । पता नहीं, कैसे समझाया जाय । यह ऐसा नहीं था मानों कोई चीज ''जोड़ी'' गयी हो. यह बिलकुल स्वाभाविक था ।

 

    उस चेतनामें जीवन जैसा है, वैसा जिया जा सकता है -- और तब वह काफी अच्छी तरह जिया जाता है!.. कुछ भी बदलनेकी जरूरत नहीं है । जो कुछ बदलना है वह अपने-आप स्वाभाविक तौरसे बदल जाता है ।

 

      मै एक उदाहरण देती हूं । कुछ दिनोके लिये मुझे. - - के साथ कुछ कठिनाई हुई । मै उसका नाम नहीं बताऊंगी । उसकी कुछ गतियोंको ठीक करने- के लिये उसपर दबाव डालना पड़ा । आज वह उसके बारेमें साधारण- से ज्यादा भिन्न तरहसे सचेतन था, और अंतमें उसने कहा कि वह परिवतनके मार्गपर है (और यह बात ठीक है), और यह सब बिना एक शब्द- के ही नहीं, दबाव डालनेके लिये चेतनाकी किसी गतिके बिना हुआ । तो यह बात है । यह प्रमाण है... । सब कुछ यंत्रवत् होता है, किसी हस्तक्षेपकी आवश्यकताके बिना 'सत्य' की स्थापना-सा : केवल सत्य चेतनामें निवास करना, बस इतना ही, यही काफी है ।

 

    तो बस, यही बात है ।

 

   लेकिन तब, सब बातोंके बावजूद, शरीरने सारे समय अपनी आवश्यकताओंकी जरा-सी चेतना रखी थी (यद्यपि वह अपने साथ व्यस्त न था;

 

१८५


मै हमेशा कहती थी : वह अपने साथ व्यस्त नहीं है उसे रस नहीं है), लेकिन यही वह बात है जिसके लिये श्रीअरविद कहते थे ''मुझे लगता है कि मैं अब भी वही बूढ़ा आदमी हूं । '' मैं आज इस बातको समझ पायी, क्योंकि आज वह न था । हां, तो इस प्रकार अभीतक जो बिलकुल ठीक नहीं है उसका बहुत शांत-स्थिर बोध - इधर दर्द, उधर कठिनाई - बहुत शांत, बहुत उदासीन, (कोई महत्व पाये बिना) उसका बोध होता है । और अब यह मी गया! एकदम साफ!... मै आशा करती हू कि वह लौटेगा नहीं । वह वास्तवमें.. मै समझती हू, यह रूपांतर: है । व्यक्ति स्वर्णिम विस्तारमें सचेतन है -- यह अद्भुत है -- ज्योतिर्मय, स्वर्णिम, शांत, शाश्वत और सर्वशक्तिमान ।

 

      और यह आया कैसे?.. वास्तवमें उसे व्यक्त करनेके लिये कोई शब्द नहीं है, भागवत कृपाके इस चमत्कार... भागवत कृपा, भागवत कृपा एक ऐसी चीज है जो अपनी स्पष्ट दृष्टिवाली सहृदयताके साथ सारी समझके परे है । स्वभावत: शरीरको अनुभव था । कुछ बात हुई थी जो मै तुम्हें न बताऊंगी और उसकी सच्ची प्रतिक्रिया हुई । वह पुरानी प्रतिक्रिया न हुई, उसमें सत्य प्रतिक्रिया हुई -- वह मुस्काया, वह परम प्रभुकी 'मुस्कान' सें मुस्काया । वह पूरे डेढ़ दिन रही । इस कठिनाईने शरीरको अंतिम प्रगतिके योग्य बनाया, उस दिव्य चेतनामें रहने योग्य बनाया; अगर सब कुछ सामंजस्यपूर्ण होता तो वही चीजें बरसोंतक चल सकती थीं । वह अद्भुत था, अद्भुत!

 

   और मनुष्य कितने मूढ़ हैं! जब भागवत कृपा उनके पास आती है तो वे उसे ''ओह! कैसी विभीषिका है! '' कहते हुए धकेल देते हैं ! ' मैं इसे बहुत जमानेसे जानती हू, पर मेरी अनुभूति चौधियानेवाली है ।

 

      जी हां, हर चीज पूर्ण रूपसे, अद्भुत रूपसे, हर क्षण वही है जो उसे होना चाहिये ।

 

 ठीक ऐसा ही है ।

 

       लेकिन हमारी दृष्टि मेल नहीं खाती ।

 

 हां, यह हमारी पृथक चेतना है ।

 

१८६


     सब कुछ विद्युत गतिसे उस चेतनाकी ओर लाया गया है जो बिन्दुकी चेतना होनेके साथ-साथ समग्रकी चेतना होगी ।

 

 (लंबा मौन)

 

     (माताजी अपने नोटकी नकल कर चुकती हैं) लो, मैं इसपर आजकी तारखि लिखती हू ।

 

         आज १९ नवंबर है ।

 

 १९ नवंबर, १९६९ अतिमानसिक चेतना ।

 

 ( मौन)

 

    अतिमानसिक चेतनाका पहला अवतरण २१ तारीखको हुआ था और यह ११ तारीख है ।... यहां १ लक्ष्य करने लायक है.... । इतनी सारी चीजें हैं जिन्हें हम नहीं जानते!

 

 ( मौन)

 

      मुझे आशिक रूपमें पहले ही यह अनुभूति हो चुकी थी कि अगर हम आंतरिक सामंजस्यकी इस अवस्थामें हों और एकाग्रताका कोई भी अंश शरीरकी ओर मुंडा न हों तो शरीर बिलकुल अच्छी तरह काम करता है । यह... स्वकेंद्रित होना ही सब कुछ बिगाड़ देता है । और मैंने यह बहुत बार देखा है, बहुत बार... । वास्तवमें, आदमी अपने-आपको बीमार कर लेता है । यह चेतनाकी संकीर्णता है, उसका विभाजन है । अगर तुम उसे क्रिया करने दो -. । हर जगह एक दिव्य चेतना है, एक दिव्य कृपा है जो सब कुछ करती है ताकि सब ठीक चल सकें । लेकिन इस मूर्खताके कारण ही सब कुछ बिगड़' जाता है - अजीब है यह! अर्ह- केंद्रित मूढ़ताको ही श्रीअरविद ''वह बढ़ा आदमी'' कहते हैं ।

 

     यह सचमुच मजेदार है ।


१८७

१० दिसंबर, १९६९

 

    प्रगति दानवाकार पग ले रही है -- वह मकानको जरा हिला तो देती है, पर बढ़ रही है दानवाकार कदमोंसे । और 'क' जैसे कुछ लोगोंके लिये यह बहुत सचेतन है । बहुत समय पहले उसके घुटनेमें कुछ चोट लग गयी थी और यह पैर दूसरे पैरसे ज्यादा कमजोर है । उसके खुल जानेकी संभावना थी । उसने देखा कि जब वह उचित वृत्तिमें रहती थी तो कुछ न होता था, ऐसा लगता था कि तकलीफ बिलकुल चली गयी । जैसे ही वह सामान्य चेतनामें जा गिरती कि बीमारी वापिस आ जाती थी... । उसे ऐसे अनगिनत अनुभव हुए । मुझे यह बात बहुत रोचक लगी । और बातें भी ।

 

     और यह सचमुच रोचक है । यह सचमुच रोचक है क्योंकि इसमें बिलकुल स्वच्छ और प्रत्यक्ष स्पष्टता है, क्योंकि यह पूरी तरहसे चेतनाकी एक अवस्था है । जब तुम्हारे अंदर चेतना हो, ( यानी, चेतना अधिकाधिक सत्य होती जाय -- कोई अवरुद्ध चीज नहीं, बल्कि आरोहण करती हुई चेतना), जब तुम उसके अंदर हो तो हर चीज बिलकुल ठीक होती है, लेकिन जैसे ही तुम पुरानी प्रगतिशुन्य धीरे-धीरे लगभग अदृश्य प्रगति करनेवाली चेतनामें जा गिरते हों वैसे ही अव्यवस्था लौट आती हैं । और यह मानों बहुत हीं स्पष्ट और प्रत्यक्ष रूपमें दिया गया पाठ है ।

 

       यह सचमुच रोचक है ।

 

       और शरीर सीखता चला जाता है । वह तेजीसे सीखता है ।

 

( मौन)

 

        निश्चय ही जब मनुष्य औरोमें पूर्णता पानेके लिये प्रतीक्षा करना छोड़कर स्वभावत: अपने-आपको पूर्ण करनेकी ओर मुडेगा तो यह एक वहां कदम होगा... । यह उलटाव सच्ची प्रगतिका सच्चा आधार है । पहन्ना मानव सहजवृति है. यह परिस्थितियोंका दोष है, व्यक्तियोंको दोष है, दोष... । वह ऐसा है, यह वैसा है. और यह बात अनंतकाल चलती रहती है । पहला कदम, सबसे पहला कदम है यह कहना : अगर मैं वैसा होऊं जैसा मुझे होना चाहिये या यह शरीर ऐसा हो जैसा होना चाहिये, तो इसके लिये सब कुछ ठीक हो जायेगा । अगर प्रगति करनेके लिये तुम दूसरोंके प्रगति करनेकी प्रतीक्षा करोगे तो तुम्हें अनिश्चित

 

कालतक प्रतीक्षा करनी होगी । यह पहली बात है जिसे सब जगह फैला देना चाहिये । कभी दूसरोंको या परिस्थितियोंको दोष न दो, क्योंकि परिस्थितियों चाहे जैसी क्यों न हों, चाहे बुरी-सें-बुरी दीखनेवाली परिस्थितियां हों, अगर तुम सत्य वृत्ति रखे, अगर तुम्हारे अंदर सत्य चेतना हों तो तुम्हारी आंतरिक प्रगतिके लिये उनका कोई महत्व न होगा, कोई महत्व न होगा - मैं यह कहती हू और इसमें मृत्युको भी गिन लेती हू ।

वास्तवमें यह सीखनेके लिये पहला पाठ मालूम होता है ।

 

 ( मौन)

 

    श्रीअर्रावदने लिखा है (मै भावानुवाद करती हू) कि पापकी धारणा प्रगतिको तेज करने.के लिये लायी गयी थीं और तुरंत (हंसते हुए) मनुष्य- ने और सबके अंदर पाप देखा - लेकिन स्वयं अपने अंदर कभी नहीं । श्रीअरविंदका वाक्य बड़ा मनोहर है, लेकिन मुझे याद नहीं ।

 

१३ दिसंबर, १९६९

 

   मेरे पास श्रीअरविदके 'सूत्र' प्रायः रोज ही आते रहते है । इन्हें मै बिलकुल भूल चुकी थी... । वे बहुत मजेदार बातें हैं... । कुछसे मुझे ऐसा लगता है कि वे उस अतिमानसिक चेतनाकी एक प्रकारकी प्रति- लिपि है (हम उन्हें बौद्धिक कह सकते हैं, लेकिन वे है नहीं, यह मानस भावप्राप्त उच्चतर: मन है, यानी, वहां विचारकी पहुंच है) जिसकी अनुभूति मुझे हुई थी, जिसमें शुभ और अशुभका भेद और ऐसी सब चीजें बचकानी लगती है । श्रीअरविद 'मूत्रों'में इन बातोंको इस तरह व्यक्त करते है कि

 

 ६८- पाप-भावनाका होना आवश्यक था ताकि मनुष्य अपनी निजी अपूर्णताओंसे उकता जाय । यह अहंकारका संशोधन करनेके लिये भगवान्का उपाय था । परंतु मनुष्यका अहंकार स्वयं अपने पापोंके प्रति तो बहुत ही धीमे रूपमें और दूसरोंके पापोंके प्रति बहुत तीव्र रूपमें जाग्रत् रहकर भगवान्के इस उपायका सामना करता है ।

 


बुद्धिगम्य हो जायं । केवल... जो लोग समझते है ३ अच्छी तरह नहीं समझते! क्योंकि वे पुरानी रीतिसे समझते है ।

 

    क्या तुम्हें वे सूत्र याद हैं? एक है जहां वे कहते हैं ''अगर मै राम नहीं बन सकता तो रावण बनना चाहूंगा.. '' और वे कारण समझाते हैं । यह उसी सूत्रावलीमें है ।'

 

 ( मौन)

 

 

यहां एक व्यावहारिक समस्या है : यह तो स्पष्ट है कि हम कुछ गतियोंको दूर करना चाहेंगे क्योंकि हमें लगता है कि वें दोष- पूर्ण हैं, लेकिन हमें पता नहीं चलता कि यह करें कैसे । क्या यह ऊपरसे है? जब-जब ऐसी गति सिर उठाये उसपर प्रकाश' डाला जाय और फिर --

 

यह गतिके प्रकारपर निर्भर है; इसपर निर्भर है कि वह सत्ताके किस भाग मै है और किस जातिकी है ।

 

   मुझे विश्वास है कि हर कठिनाई एक विशेष समस्या है । तुम कोई सामान्य नियम नहीं बना सकते ।

 

  २२१ - मनुष्य शत्रुओंकी बात करते हैं, पर कहां है वे? मै तो केवल विश्वके विशाल अखाड़ेमें किसी पक या दूसरे पथकै पहलवानोंको हीं देखता हू ।

 

    २२२ - संत और देवदूत ही दिव्य सत्ताएं नहीं हैं; दैत्य और असुरके लिये भी प्रशंसाके शब्द कहो ।

 

    २२३- पुराने. ग्रंथोंमें असुरोंको ज्येष्ठ देवता कहा जाता है । और वे अब भी वही है; कोई मी देवता पूरी तरहसे दिव्य नहीं होता जबतक कि उसमें एक असुर न छिपा हुआ हों ।

 

 २२४ - यदि मैं राम नहीं हो सकता तो मै रावण होऊंगा; क्योंकि वह विष्णुका अंधकारमय पक्ष है ।


१९०


   उदाहरणके लिये, उस दिन आपने कहा था कि जनम एक ''रेचन'' है...

 

 (माताजी हंसती है)

 

   आपको याद है : जिन लोगोंने हर चीज दबा दी है ३ देखते है कि वही चीजें बच्चोंमें प्रकट हो रही हैं ।'

 

हां, हां!

 

  और आपने कहा था कि इससे पता चलता है कि क्या नहीं करना चाहिये ।

 

हां !

 

   तो अब मैं यह जानना चाहूंगा कि दमनके बिना उपचारका

 

 १"लोगोंका एक बहुत बड़ा मांग जो बिना चाहे, बस ''यूं'' ही बालक पैदा कर लेते है, और जो शिक्षित होते हैं, यानी, जिनके दिमागोंमें कुछ विचार ठुसे गये होते हैं, यानी, अमुक दोष हैं जो नहीं होने चाहिये और अमुक गुण है जो होने चाहिये -- ये सब बातें जो उनकी सत्तामें धंसा दी गयी थीं, सभी भ्रष्ट सहजवृत्तियां ऊपर उठ आती है । मैंने अवलोकन किया, देखा और बहुत, बहुत पहले कहीं पढ़ा है (शायद वह रेनांमें था), उसने लिखा था कि हमें अच्छे और बहुत आदरणीय मांबापपर विश्वास न करना चाहिये (हंसते हुए), क्योंकि जनम एक ''रेचन'' हे! और उसने यह भी कहा था कि बुरे लोगोंके बच्चोंको सावधानीसे देखो, वे प्रायः प्रतिक्रिया होते है! और अपनी अनुभूतिके बाद, जो मैंने देखा है उसके बाद मैंने अपने-आपसे कहा. यह आदमी बिलकुल ठीक कहता था! यह लोगोंके लिये अपने-आपको रेचन देनेका एक तरीका है । वे जो चीजें नहीं चाहते उन्हें इस तरह बाहर निकाल देते है ।.. और यह बहुत मजेदार है । इसमें हमें इस बातकी चाबी मिलती है कि हमें क्या करना चाहिये । यह दिखाकर कि क्या नहीं करना चाहिये, यह बात तुम्हें इसकी चाबी देती है कि क्या करना चाहिये । ''

 

१९१


  क्या तरीका है? क्योंकि यथार्थतः प्रकाश डाला जाता है, लेकिन इससे गलत गति नीचे चली जाती है ।

 

हां, यह सामान्य नियम है । इससे उलटी चीज करनी चाहिये : उसे भूमि- गत करनेकी जगह निवेदित कर देना चाहिये । उस चीजको, उस गति- को प्रकाशके सामने प्रक्षिप्त करना चाहिये.. । साधारणत: वह छटपटाती और इनकार करती है । लेकिन (हंसते हुए) यही एकमात्र उपाय है । इसीलिये यह चेतना इतनी मूल्य वान् है.. । हां, जो चीज दमनको लाती है वह है भले-बुरेकी धारणा, जो बुरा समझा जाता है उसके लिये उस तरहका तिरस्कार या लज्जा, और तब तुम करते हो (पीछे हटनेकी मुद्रा), तुम उसे देखना नहीं चाहते, तुम वहां रहना नहीं चाहते । होना यह चाहिये... पहली चीज - सबसे पहली चीज जो हमें जाननी चाहिये वह है चेतनाकी दुर्बलता जो विभाजन करती है । एक और 'चेतना' है, ( अब मुझे इसका विश्वास है) एक ऐसी चेतना है जिसमें यह भेद नहीं है, जिसमें, जिसे हम 'अशुभ' कहते हैं, वह भी उतना हीं जरूरी है जितना वह जिसे हम 'शुभ' कहते है । अगर हम अपने संवेदनको प्रक्षिप्त कर सकें -- अपनी क्रियाको या अपने बोधकों - उस प्रकाशमें प्रक्षिप्त कर सकें तो उससे उपचार मिल जायगा ।' उसे नष्ट करने लायक चीज समझकर उसका दमन करने या त्याग करनेकी जगह (उसे नष्ट नहीं किया जा सकता!), उसे प्रकाशमें प्रक्षिप्त करना चाहिये । इसके कारण मुझे कई दिनोंतक एक बड़ी मजेदार अनुभूति होती रही : अमुक चीजोंको (जिन्हें तुम स्वीकार नहीं करते और जो सत्तामें असंतुलन पैदा करती हैं), उन्हें अपनेसे दूर फेंकनेकी कोशिश

 

 इस वार्ताके प्रकाशित होनेके समय माताजीने यह टिप्पणी जोड़ दी ''इस 'चेतना' मै जहां दो विपरीत चीजें, दो विरोधी बातें एक साथ जोड़ दी जाती हैं, दोनोंकी प्रकृति बदल जाती है । वे वही नहीं बनी रहती जो वे थीं । वे केवल जोड़ी नहीं जाती कि जैसी-की-तैसी बनी रहे : उनकी प्रकृति बदल जाती है । और यह बहुत महत्त्वपूर्ण है । उनकी प्रकृति, उनकी क्रिया, उनके स्पंदन जुड़नेके साथ ही एकदम बदल जाते है । विभेद उन्हें वह बनाता है जो वे हैं । विभेदको अलग कर दो और उन- की प्रकृति बदल जायगी । तब 'शुभ' और 'अशुभ' नहीं बना रहता, कुछ ओर ही होता है, कोई चीज पूर्ण और समग्र ।''

 

१९२


करनेकी जगह, उन्हें स्वीकार कर लो, अपने अंशके रूपमें स्वीकार कर लो... (माताजी अपने हाथ फैलाती है) और उन्हें निवेदित कर दो । वे निवेदित होना नहीं चाहती, लेकिन उन्हें बाधित करनेका एक तरीका है । उन्हें बाधित करनेका एक तरीका है : हम जिस अनुपातमें अपने अंदरसे अस्वीकृतिकी भावनाको कम कर सकेंगे उसी अनुपातमें उनका प्रतिरोध घटता जायगा । अगर हम इस अस्वीकृतिके मावकि जगह उच्च- नर: समझको ला सकें तो सफलता मिलती है । यह बहुत ज्यादा आसान है ।

 

    मेरा ख्याल है कि यही है । वे सब गतियां, सभी, जो तुम्हें नीचेकी ओर घसीटती है उन सबका उच्चतर समझके साथ संपर्क करवाना चाहिये । स्पष्ट है कि यह मनके परे है । जैसा मैंने अभी कहा श्रीअरविंदके मूत्र बुद्धिगम्य अभिव्यंजना है, फिर भी वे कम तो कर ही देते हैं; वे कम कर देते हैं । उनमें शब्द-रहित प्रज्ञाकी चकाचौंध नहो है -- वहीं, केवल वही चीजें व्यवस्थित की जा सकतीं है ।

 

  स्वयं अपने-आपको समझनेसे भी चीज घट जाती हैं । कुछ न कहना चाहिये । (हंसते हुए) यह ऐसा है जैसे रंगकी एक ऐसी परत लगाना जो विकृत कर दें ।

 

 (माताजी अचानक पाससे एक कापी उठाती है और जो पत्र उन्होने बातके आरंभमें पढ़ा था उसका उत्तर लिखती है ।)

 

   यह इस तरह आया । यह इसी तरह होता है : एकदम अचानक! और तब वह ठहरा रहता है, जबतक मैं लिखन लू तबतक जाना नहीं चाहता । यह बहुत मनोरंजक है ।

 

   यह मनोरंजक है क्योंकि यह मेल नहीं खाता ।.. (मैं अब यह मी नहीं कह सकती कि मै जो सोच रही हू उसके साथ मेनहीं खाता, क्यों- कि अब मैं सोचती ही नहीं) मेरी अनुभूतिके साथ मेल नहीं खाता, दूसरेको जिस चीजकी जरूरत है उसके साथ मेल खाता है । दूसरेके लिये उत्तर लिखवा दिया जाता है । शब्द, मुहावरे, वाक्य-रचना, प्रतिपादन उस व्यक्तिके साथ बदल जाते बेर. जिसे लिखा जा रहा हो । और (माताजीकी) जो चेतना वहां है (उमरकी ओर संकेत), इसके साथ कोई संबंध नहीं रखती । वह प्राप्त करती है और फिर यह चीज नीचे आती है और इस तरह करती जाती है (हथौड़ी चलानेका संकेत), जबतक मैं लिख न लू! जबतक लिख न लिया जाय तबतक यह वापिस नहीं जाना चाहती । यह बहुत मनोरंजक
 

१९३


है... । इस भांति वह अपने-आपको थकाये बिना कठिन परिश्रम कर सकतीं है । (माताजी हंसती है)

 

     मै बहुत चाहूंगा कि मुझे एक बीज मिल जाय ।

 

यह लो (माताजी हंसते हुए अपने हाथ देती है) ।

 

क्योंकि मानसिक नीरवतामें भी -- मुझे हमेशा मानसिक नीरवतामें लिखनेकी आदत ' -- लेकिन चीजके बावजूद इस नीरवतामें भी मै सावधान प्रतिक्रिये आकर अपने-आपको न कर दें ।

 

हां, हां ।

 

    मुझे इसका भय है ।

 

हां, पुरानी चीजें उठ आती हैं ।

 

       लेकिन क्या तुम्हें यह नहीं लगता कि वे उत्पर्ता आती है ?

 

   मुझे लगता है कि 'शक्ति' वहां हैं और बह नीचे उतरती है ? 

 

 हां, तो फिर?

 

   लेकिन फिर, जब मै लिखता तो अपने-आपसे कहना हू... ।

 

 ओह! यह प्रायः होता है । 

 

    मैं अपने-आपसे कहता हूं : शायद मुझे यह न कहना चाहिये था ।

 

 लेकिन यह तो मनका दखल देना हुआ ।
 

 १९४


पता नहीं ।

 

 यह मेरे साथ भी होता है । कभी. कभी, मैं लिखकर भेज देती हू और बादमें मुझे याद आता है कि मैंने क्या लिखा था और मै अपने-आपसे कहती हू : घत्! मुझे यह न कहना चाहिये था!... और मै पता लगा लेती हू' कि वह ठीक था -- मेरी प्रतिक्रिया मानसिक थी ।

 

मेरे साथ यह बहुत बार हुआ है । उदाहरणके लिये, उस दिन मुझे '' को लिखना था । बह बहुत बार अवांछनीय बातें लिखता है, लेकिन मै कुछ नहीं कहता; लेकिन उस दिन मैंने उसे एक कहा पत्र लिखा और उससे पूछा कि इस सबका मतलब क्या है? बादमें मैंने अपने-आपसे कहा : नहीं, मुझे टस-से-मस न होना चाहिये, और मैंने पत्र नहीं भेजा... । क्या करना चाहिये, मुझे पता नहीं ।

 

यह, वत्स... (मौन)

 

   यह कठिन है ।

 

 हां... लेकिन जब तुम ऊपरकी ओर मुड़ते हों या जब तुम अभीप्सा करते हो या जब तुम परम चेतनाकी ओर इस तरह खुलते हों, तो वह मूर्त्त मे जाती है ।

 

 जी हां, वह ठोस होती है ।

 

 वह मूर्त्त होती है? व्यक्तिको... समझे, एक ही रास्ता है, अहंको जाना चाहिये । वस, यही है । यही है । केवल जब ''मैं'' के स्थानपर कुछ भी न रहे : वह इस तरह बिलकुल चपटा हो जाय (किसी बहुत बड़ी, बराबर, बिना शिकनकी चीजका संकेत), जिसमें एक प्रकारका... यह शब्दोंके द्वारा अभिव्यक्त नहीं होता, एक बहुत ही स्थायी संवेदनके माय : ''जैसी तेरी इच्छा, जैसी तेरी इच्छा । '' (शब्द बहुत तुच्छ बन जाते हैं) वास्तवमें यह ठोस संवेदन होना कि इस (शरीर) का अस्तित्व ही नहीं है, इसका केवल उपयोग किया जा रहा है -- केवल 'वह' है । 'वही' यह करता है (दबावका संकेत) । उसका यह संवेदन यह सचेतन 'विस्तार'

 

१९५


(माताजी बाहें फैलाती हैं).. अंतमें तुम निश्चय ही उसे देखते हों (''देखते हों'', यह प्रतीकोंवाला अंतर्दर्शन नहीं है, यह एक दृष्टि है... । पता नहीं किस तरहकी! परंतु वह बहुत ठोस है, बिम्बोंवाले अंतर्दर्शनसे कहीं अधिक ठोस है), इस बृहत् 'शक्ति' का अंतर्दर्शन, यह बृहत् 'स्पंदन' जो दबाव डालता है, दबाव डालता है, दबाव डालता है, दबाव डालता है .. और यह जगत् जो उसके नीचे कुलमुलाता है (!) और चीज खुल जाती है और जब वह खुल जाती है तो वह प्रवेश करता और फैलता है । यह सचमुच मजेदार है ।

 

    यही एकमात्र समाधान है । काई और नहीं । बाकी सब... अभीप्सा, कल्पनाएं, प्रत्याशाए... । यह अभीतक अति-मानव है, अतिमानस नहीं । यह एक उच्चतर मानव जाति है जो सारी मानवताको ऊपर खींचनेकी कोशिश करती है, लेकिन वह... इसका कोई फायदा नहीं, इसका कोई फायदा नहीं !

 

    चित्र बहुत स्पष्ट है । यह समस्त मानवजाति ऊपर चढ़नेकी लिये चिपटी रहती है, जो इस तरह पकड़े रहनेकी कोशिश करती है, पर वह अपने- आपको देना नहीं चाहती --- वह लेना चाहती है! इससे काम न चलेगा । उसे अपने-आपसे हाथ धोने होंगे । तभी वह वस्तु आकर अपना स्थान लें सकेगी ।

 

  सारा रहस्य इसीमें है ।

 

  उदाहरणके लिये, मानवजातिका यह सारा पक्ष जो चीजोंको जोरसे हथियाना चाहता है और उन्हें ऊपरसे खींचता है (माथेतककी ऊंचाईका संकेत)... यह मजेदार है; यह नहीं कहा जा सकता कि यह मजेदार है, परंतु यह वह नहीं है! वह नहीं है, यह कहनेकी जरूरत नहीं कि मानवताके अंदर कोई चीज समझ सके उससे पहले ये सब संभावनाएं समाप्त करनी होगी.. केवल वही है (माताजी आत्म-विलोपनकी मुद्रामें हाथ फैलाती है), अपने-आपको दंडवत लिटाकर, जबतक कि स्वयं वह गायब न हों जाय ।

 

   वास्तवमें, यह -- गायब होना सीखना - सबसे कठिन चीज है ।

 

 ( मौन)

 

   अच्छा ठीक है, वत्स (हंसते हुए), हम जा पहुंचेंगे ।

 

१९६

२७ दिसंबर, १९६९

 

लगता तो ऐसा है कि सब कुछ भौतिक द्रव्यमें डूबा हुआ है... । समस्याओं और व्यावहारिक कार्र्योमें इस तरह डूब रहनेकी प्रतीतिके बावजूद क्या कोई योग या कोई और चीज हो रही है -- जब कि ऐसा लगता है कि हम बाहरी तौरपर इतने तल्लीन हैं कि ऐसा कोई बोध नहीं होता कि हम कुछ कर रहे है?

 

   ओह लेकिन अब सारी सत्ता ( शरीरने इसे भली-भांति समझ लिया है), सारी सत्ता जानती हू हर च, हर च, जहांतक ह स तुम जल्दी-से-जल्दी आगे बढ़नेके लिये आती है । बाधाएं, विरोध, गलतफहमियां, व्यर्थ चिंताएं, हर चीज, हर चीज, हर एक चीज तुम्हें आगे बढ़नेके लिये आती है; वह कमी एक बिंदुको, कमी. दूसरेको, कभी किसी औरको छूती है ताकि तुम जितनी तेजीसे हों सके, उतनी तेजीसे आगे बढ़ सको । अगर तुम इस भौतिक द्रव्यके साथ संबद्ध न हो तो यह कैसे बदलेगा?

 

 और यह बहुत स्पष्ट है, यह बिलकुल प्रत्यक्ष है कि सभी आपत्तियां, सभी विरोध एक ऊपरितलीय मनसे आते है जो चीजोंका केवल बाहरी रूप ही देखता है । यथार्थमें यह तुम्हारी चेतनाको इसके बारेमें सावधान करनेके लिये है ताकि वह ऐसी चीजोंसे धोखेमे न आ जाय और साफ देख सकें कि यह स्व बिलकुल बाहरी है और सतही है और इसके पीछे जो कुछ किया जा रहा है वह... रूपांतरकी दिशामें यथासंभव तेजीसे बढ़े रहा हैं ।

 

 (लंबा मौन)

 

   अपने उच्चतर स्तरपर बुद्धि आसानीसे समझ लेती है कि वह कुछ नहीं जानती और. वह बड़ी आसानीसे उस वृत्तिमें आ जाती है जिसकी प्रगतिके लिये जरूरत है । लेकिन वे लोग भी जिनमें यह बुद्धि है, वे भी जब भौतिक चीजोंका सवाल होता है तो महजवृत्तिसे यही मानते है कि वहां सब कुछ निश्चित अनुभवके आधारपर जाना, समझा गया है और यही तुम असुरक्षित हो जाते हों । शरीरको ठीक यही बात सिखायीं जा रही है -- चीजों- को देखने और समझनेकी वर्तमान पद्धति जो अच्छे-बुरे, शुभ-अशुभ, प्रकाशमय, धुधले. सब प्रकारकी विपरीतताओंपर आधारित है; वह

 


बेकार है; सारा निर्णय, जीवनकी सारी कल्पना उस (भौतिक जीवन) पर आधारित है और तुम्हें इस बोधकी मूर्खता सिखानेके लिये है । मै उसे देखती हू । काम बहुत तनावपूर्ण और बहुत आग्रही हों गया है मानो तेज चलनेके लिये आदेश है ।

 

    व्यावहारिक भाग भी जो यह सोचता था कि उसने यह सीख .लिया है कि कैसे जिया जाय, और यह कैसे जाना जाय कि क्या करना है और कैसे करना है, उसे भी यह समझना होगा कि वह सच्चा ज्ञान न था और न बाह्य चीजोंका उपयोग करनेकी सच्ची विधि थी ।

 

 ( मौन)

 

 कुछ मनोरंजक चीजें भी है... । यह 'चेतना' जो सारे समय कार्यरत रहती है वह मानों शरीरको 'चिढ़ाती' है; वह हमेशा कहती रहती है. ''देखो, तुम्हें संवेदन होता है, अच्छा तो इसका आधार क्या है? तुम्हारा ख्याल है कि तुम इसे जानते हो, क्या तुम वास्तवमें जानते हों कि इसके पीछे क्या है? '' जीवनकी सभी छोटी-मोटी चीजोंके लिये, हर क्षण- की चीजोंके लिये यही होता है । और तब शरीर ऐसा हो जाता है (माताजी बडी-बडी आंखें आश्चर्यसे खोलती है), और अपने-आपसे कहता है : यह सच है, मैं कुछ नहीं जानता । उसका उत्तर हमेशा 1रुक ही होता है : ''मैं यह दावा नहीं करता कि मैं जानता हू, भगवानकि जो इच्छा हों वही करें ।', ऐसी बात है । और फिर, यह चीज है (अगर उसे स्थायी रूपसे पकड़ा जा सकें तो अच्छा हों) : (चीजको सरलतम ढंगसे कहें तो) प्रभुके कार्यमें अहस्तक्षेप ।

 

 ( मौन)

 

 यह तथ्यके द्वारा दिखाया गया है, हर क्षणकी अनुमति यह दिखाती है कि जब कोई-- चीज इस तरहकी उपार्जित बुरी, उपार्जित समझ या जी हुई अनुभूतिके द्वारा की जाती है तो वह किस हदतक... 'मिथ्या' (या बहरहाल भ्रामक) होता है । और उसके पीछे कोई और चीज होती है जो उसका और (उसी तरह हर चीजका) उपयोग करती है, लेकिन वह इस ज्ञानसे बंधी नहीं रहती, न उसपर आश्रित होती है और न ही उसपर आश्रित होती है जिसे हम ''जीवनका अनुभव'' कहते है, और न ऐसी दरी किसी और चीजपर आश्रित होती है । उसकी दृष्टि बहुत अधिक प्रत्यक्ष,

 

१९८


बहुत गहरी और अधिक ''दूरतक'' जानेवाली होती है, यानी, वह बहुत अधिक दूरतक, बहुत अधिक विस्तारमें और बहुत आगेतक देख सकती है । कोई बाहरी अनुभूति यह चीज नहीं दे सकती... । यह एक विनम्र वृद्धि है जिसमें कोई विस्फोट नहीं होता, कोई ''दिखावा'' नहीं होता : यह एक छोटी-सी, हर मिनटकी -- हर मिनट, हर सेकंडकी बात है, सब कुछ । मानों सारे समग कोई चीज तुम्हें जीवनका, देखने और करनेका साधारण मार्ग दिखाती है और फिर... सच्चा मार्ग । इस तरहसे दोनों । सभी चीजोंके लिये ।

 

   यह इस हदतक कि अमुक स्पदनोंके प्रति तुम्हारी वृत्ति पूर्ण विश्राम ला सकती है या तुम्हें पूरी तरह बीमार कर सकती है! जब कि स्पंदन एक ही होगा । ।ऐसी चीजें, चकरानेवाली चीजें होती हैं । और हर क्षण ऐसा होता है -- हर क्षण, हर चीजके लिये ।

 

हां, तो यहां चेतना वृत्तिका एक विशेष मोड लेती है और सब कुछ आनंद और सामंजस्य हों जाता है; चीज वही बनी रहती है और फिर ( माताजी सिरको जरा बाईं ओर झुकाती है), चेतनाकी वृत्तिमें जरा-सा हरे-फेर, और चीज लगभग असह्य हों उठती है! सारे समय, सारे समय इस तरहकी अनुभूतियां... । बस, यह दिखानेके लिये कि केवल एक ही चीज है जिसका महत्व है, वह है चेतनाकी वृत्ति : व्यक्तिगत सत्ताकी पुरानी वृत्ति ( माताजी अपनी ओर खींचनेकी संकेत करती हैं), या यह ( विस्तारक'' संकेत) । संभवत. यह (हमारी समझमें आनेवाले शब्दोंमें कहें तो) अहंकी उपस्थिति ओर अहंका लोप होना चाहिये । यही है ।

 

  और फिर, जैसा मैंने कहा, जीवनकी सभी क्रियाओंके लिये, बिलकुल महामूल्य बातोंके लिये यह दिखाया जाता है कि अगर अहंकी उपस्थितिको रहने दिया जाय (यह निश्चय ही तुम्हें समझानेके लिये है कि यह है क्या), तो यह सचमुच असंतुलनकी ओर ले जा सकता है । एकमात्र उपाय है अहंका गायब होना -- साथ-ही-साथ समस्त बीमारीका लोप । क्योंकि हरम जिन चीजोंको बिलकुल नगण्य समझते हैं, बिलकुल... । और यह बात हर चीज, हरेक हरेक, चीजके लिये है, सब समय, सारे समय, रात-दिन । ओर फिर यह उन सब नासमझियो ओर गलतफहमियोंके कारण और भी पेचीदा हों जाती हैं जो ऐसे आती हैं ( माताजी ऐसा संकेत करती है मानों एक भरी गाड़ी उनपर उल्टायी जा रही है), मानों वह सब एक साथ खोल दिया गया है और चीजें निकल पड़ी है । वह सब एक साथ अरराकर गिर पड़ती है... ताकि अनुभूति सभी क्षेत्रोंमें पूर्ण हो ।

 

    यह ऐसा है मानों हर मिनट मृत्युकी उपस्थिति और अमरताकी उप-

 

स्थितिका क्रियात्मक प्रदर्शन दिया जा रहा हों ( माताजी अपना हाथ दाईं ओर, फिर बाईं ओर झुकाती हैं), इस तरह छोटी-से-छोटी चीजों मे -- सभी चीजोंमें, छोटी-सें-छोटी और बडी-सें-बडी चीजोंमें, हमेशा; और तुम हमेशा देखते हो.. कि तुम यहां हों या वहां (वही एक ओर या फिर दूसरी ओर झुकनेका संकेत), हर सेकेंड तुम्हें मृत्यु और अमरतामें चुनाव करनेके लिये कहा जाता है ।

 

    और मैं देखती हूं कि इसके लिये शरीरको गंभीर ओर श्रमसाध्य तैयारीमेंसे गुजरना होगा ताकि... चिंता या प्रतिक्षेपके स्पंदनके बिना... अनुभूतिके संघातको सह सकें । उसे अपनी निरंतर शांति ओर सतत मुस्कानको बनाये रखनेके योग्य होना चाहिये ।

 

 (लंबा मौन)

 

     बहुत-सी चीजें है... असंभवनीय चीजें ।

 

मानों हर चीजमें हमें विरोधोंकी उपस्थिति जीनेकी जरूरत है ताकि हम यह पता लगा सकें... यह पता लगा सकें कि जब विरोध आपसमें मिलते हैं, भाग निकलनेकी जगह जुड़ते है तो क्या होता है । उससे एक परिणाम आता हैं, और वह भी व्यावहारिक जीवनमें ।

 

१९९

३१ जनवरी, १९७०

 

मैं ठीक तरह नहीं जानता कि क्या वृत्ति अपनाऊं । मुझे जो समस्या तंग कद रही है उसे एक साधारण प्रश्नके रूपमें रख रहा हूं, क्या सब कुछ निर्दिष्ट है?

 

तुम जानते हो मेरे वत्स, अधिकाधिक और निरपेक्ष भावसे, मैं देखती खैर -- मैं देखती हू -- हाँ, मै देखती हू, मैं अनुभव करती हू. हर चीज निर्णीत है ।

 

 हर चीज निर्णीत है ।

 


और हर चीजके अस्तित्वका कारण है जो हमारी पकडूमें नहीं आता, क्योंकि हमारी दृष्टि काफी विस्तृत नहीं है ।

 

  और तुम समझते हो न, जीवन, सत्ता, वास्तवमें सारे संसारका कोई अर्थ न होता अगर बात ऐसी न होती ।

 

     जी हां ।

 

 यह... यह एक प्रकारका निरपेक्ष विश्वास है । मैं उसे देखती हू । हां, यह एक ऐसी चीज है जिसे मैं देख रही हूं ।

 

   कैसे कहा जाय?... अब मै इस विश्वासका मूल्य चुका रही द्रूं! शरीरको सत्ता हस्तांतरित करते हुए (जिसे मैं हस्तांतरित करना कहती हू) कठिन क्षणोंसे, वास्तवमें कठिन क्षणोंसे पाला पड़ता है । इस तरह साधारण दृष्टिसे यह निरर्थक होगा । क्योंकि हम जिसे ''परिवर्तन'' कह सकते हैं उसके साथ कठिनाइयां बढ्ती हुई प्रतीत होती हैं, लेकिन... सच्ची दृष्टिके लिये जब हम सच्ची दृष्टिके अंतरमें हों तो मिथ्यात्वकी जूठन ही समस्त रोगोंकी जड़ है (जो अभीतक मिली-जुली चीज है) । और एकदम भौतिक दृष्टिसे भी ऐसा हीं है (नैतिक दृष्टिसे इसे बहुत पहले ही जीत लिया गया था : कामनाओंके गायब होनेसे सभी तकलीफें गायब हों जाती हैं; उनका स्थान लें लेती है एक सतत और बिल्कुल सच्ची मुस्कान - यत्न-साध्य या बनावटी नहीं - सहज-स्वाभाविक मुस्कान), मेरा मतलब है भौतिक रूपसे, शारीरिक रूपसे : रोग, कष्ट और अन्य सब । यह वही चीज है । हां... तुम कम तैयार हो । जडू-तत्व बदलनेमें ज्यादा धीमा है, अतः ज्यादा प्रतिरोध आता है ।

 

   और एकमात्र समाधान, हर क्षण, हर हालतमें एकमात्र समाधान है (आत्म-निवेदनकी मुद्रा) : ''जो तेरी इच्छा,'' यानी, पसंद और कामनाका लोप । कष्ट न झेलनेको भी पसंद न करना ।

 

लेकिन यह समझना कठिन है कि यह 'चेतना'... यह आसानी- से समझमें आ जाता है कि बृहत् और शाश्वतमें वह सबपर शासन करती है, लेकिन क्या बह व्योरेकी छोटी-छोटी बातोंमें भी शासन करती है...

 

 अत्यंत सूक्ष्ममें ।

 

२०१


  अत्यंत सूक्ष्ममें..

 

 ठीक यही चीज मैं देख रही थी । मै समझ सकती हू कि क्यों । आज सवेरे यह समस्या थी : व्यक्तिगत चेतना, जब बहुत ज्यादा विस्तृत हो तब भी यह अनुभव नहीं कर पाती, यानी, ठोस रूपमें नहीं समझ पाती कि एक ही समयमें समग्रके बारेमें सचेतन होना संभव है । क्योंकि वह उस प्रकारकी नहीं है । उसे यह समझनेमें कठिनाई होती है कि समग्रकी चेतना एक ही समयमें, एक साथ, समग्र और छोटे-सें-छोटे व्योरेके बारेमें सचेतन होती है । वह

 

     जी, हां, यह कठिन है... पर है आश्वासनदायक ।

 

हां, यह तुम्हें शांत कर देता है, शांत कर देता है, शांत... मैंने उस दिन तुमसे कहा था कि शरीरको मरे बिना मृत्युका अनुभव हों चुका है और इस अनुभवने शरीरको यह कहने योग्य बनाया : ''अच्छा है, यह बहुत अच्छा है,'' स्वीकार करना, बिना (कैसे कहा जाय?)... बिना प्रयासके -- लगे रहना । और तब वह चला गया । शरीरके विघटनके साथ ही लुप्त हों जानेकी पुरानी भ्रांति तो बहुत समयसे नहीं है । और अब स्वयं शरीरको विश्वास है कि अगर: वह छितर भी जाय तो इससे उसकी चेतनाका क्षेत्र विस्तृत हो जायगा... । पता नहीं कैसे समझाया जाय, क्योंकि चेतनाके लिये निजी या व्यक्तिगतका भाव और निजीकी आवश्यकता गायब हो गयी है ।

 

    और मैं भली-भांति देखती हू कि शरीर इस बातसे बहुत अच्छी तरह- से अवगत है कि उसे केवल प्रतिरोधके कारण, -- 'सत्य' के प्रति अपने प्रतिरोधके कारण - कष्ट सहन करना पड़ता है । जहां कही पूर्ण लगाव है वहीं कष्ट तुरंत गायब हो जाता है. ।

 

(मौन)

 

   लेकिन देशों और प्रदेशोंके लिये भी यही बात है : वही अधिकारका हस्तान्तरण । व्यक्तिगत अधिकारके स्थानपर दिव्य अधिकार आनेवाला है- और अधिकारका यह बदलना ही उस अकथनीय अव्यवस्थाका कारण है जिसमें मनुष्य रह रहे है -- अपने प्रतिरोधके कारण ।

 

 (लंबा मौन)

 

सत्ताका कोई भाग (वह कोई-सा भाग क्यों न हो) संक्रमणके जितने निकट पहुंचता है, यानी, वह इस संक्रमणके लिये जितना अधिक तैयार होता है, उसकी अतिसंवेदनशीलता भी उतनी ही बढ्ती है । अतः, जब व्यक्ति समस्याओंके स्तरके पार हो जाता है और वैश्व दृष्टिसे देख सकता है तो उसकी व्यक्तिगत अति संवेदनशीलताके लिये समस्याएं भी बहुत ही तीव्र रूपसे संवेदनशील हो उठती हैं । मैंने इसे पहले मी देखा था; अब यह शरीरके लिये फिरसे हो रहा है । उसमें एक अतिसंवेदन- शीलता बढ़ रही है... हां, भयंकर रूपसे । जो लोग यह नहीं जानते कि ऐसा क्यों है वे सचमुच भयभीत हो उठते है... रोगकी संभावना... और... । समस्याओंके लिये भी यही बात है । केवल जो लोग जानते है और समझ गये है उनके लिये यह अंतिम प्रगति करनेका, इसका (माताजी दोनों हाथ ऊपरकी ओर उठा देती है) अवसर है ।

 

    सार यह कि अभीतक जिस चीजको अपने पृथक अस्तित्वकी भ्रांति है उसे लुप्त हो जाना चाहिये । उसे अपने-आपसे कहना चाहिये : इसके साथ मेरा कोई संबंध नहीं, मेरा अस्तित्व नहीं है । यही अच्छे-सें-अच्छी वृत्ति है जिसे व्यक्ति अपना सकता है । तब... उसे महान् 'वैश्व लय'में उठा लिया जाता है ।

 

 

२०२

१४ मार्च, १९७०

 

 माताजीके पड़े हुए अंतिम सूत्रोंके बारेमें

 

   '' ३८३ - हमारी असाध्य बर्बरताके कारण आधुनिक मनुष्यजातिके लिये मशीनें आवश्यक हैं । यदि हमें अपने- आपको चकरानेवाली आरामदेह वस्तुओं और साजो-सामानके ढेरमें ढककर रखना है तो हमें कला और उसकी प्रणालियोंको छोड़ना पड़ेगा; कारण, सरलता एवं स्वतंत्रताको छोड़नेका अर्थ है सुन्दरताको छोड़ना । हमारे पूर्वजोंका वैभव बड़ा समृद्ध और आडम्बरयुक्त भी था, किंतु कभी बोझ नहीं बना ।

 

 ३८४ - मै यूरोपीय जीवनकी बर्बर सुख-सुविधाओं तथा

 


बोझिल आडम्बरको सम्यताका नाम नहीं दे सकता । जो लोग अपनी आत्मामें स्वतंत्र और अपनी जीवन-व्यवस्थामें अभिजात ढंगसे लयबद्ध नहीं हैं, वे सभ्य नहीं हैं ।

 

   ३८५ - आधुनिक समयमें और यूरोपीय प्रभाव-तले कला जीवनकी एक ग्रंथि या एक अनावश्यक दासी बन गयी है, जब कि इसे होना चाहिये था मुख्य कार्यकर्ता या एक अनिवार्य व्यवस्थापक ।

 

जबतक मन जीवनपर इस अभिमानपूर्ण निश्चयताके साथ शासन करता रहेगा कि वह सब कुछ जानता है, तबतक भगवान्का राज्य कैसे स्थापित हो सकता है?

  

 (१२-३-७०)

 

   ३८६ - रोग अनावश्यक रूपसे लंबा हो जाता है और प्रायः ही मृत्युका कारण बन जाता है, जब कि ऐसा होना आवश्यक नहीं है, और यह इस कारण होता है कि रोगीका मन अपने शरीरकी व्याधिको प्रश्रय देता है, और उसीपर लगा रहता है ।

 

पूर्णतया सत्य है यह!

 

   ३८७ -- चिकित्सा-विज्ञान मनुष्यजातिके लिये वरदानसे अधिक अभिशाप रहा है । इसने महामारियोंके वेगको नष्ट अवश्य कर दिया है, तथा एक अद्भुत प्रकारकी शल्यचिकित्साको जन्म दिया है, किंतु साथ ही इसने मनुष्यके प्राकृतिक स्वास्थ्यको दुर्बल बना दिया है तथा विभिन्न प्रकारके रोगोंकी बाढ़-सी ला दी है; इसने मन और शरीरमें भय और निर्भरताकी भावनाको बद्धमूल कर दिया है; इसने हमारे स्वास्थ्यको, प्राकृतिक स्वस्थताको आधार न मानकर धातु और वनस्पति जगत् के निस्तेज और निस्वाद प्रभावका सहारा लेना सिखाया है ।

 

    ३८८ -- चिकित्सक रोगपर किसी औषधिका निशाना लगाता है; कभी वह लग जाता है तो कभी चूक जाता है । चुकने- का कोई हिसाब नहीं रखा जाता, पर लगनेका लेखा-जोखा

 

२०४


 रखा जाता है, उसपर विचार किया जाता है और फिर उसे विज्ञानका सुसंगत रूप दे दिया जाता है ।

 

बड़ा अद्भुत है यह । अद्भुत!

 

  ३८९ - हम बर्बरतापर हंसते हैं क्योंकि वह ओझाओंमें विश्वास करती है । किंतु डाक्टरोंपर विश्वास करनेवाली सभ्य जातियां कौन-सी कम अंधविश्वासी है? प्रायः बर्बर देखता है कि जब कोई विशेष मंत्र बार-बार उच्चारा जाता है तो उस- का रोग दूर हों जाता है, वह विश्वास कर लेता है । सभ्य रोगी देखता है जब वह किसी विशेष नुस्खेकी दवाई लेता है तो वह प्रायः उस रोगसे मुक्त हो जाता है, वह विश्वास कर लेता है । इनमें भेद कहां हुआ?

 

इसका यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि दवाईकी रोग-मुक्तिकी शक्ति रोगीके ओक्श्वाससे आती है ।

 

  यदि मनुष्योंको भगवत्कृपामें पूर्ण विश्वास होता तो वे शायद बहुत-सी व्याधियोंसे बच जाते ।

 

(१३-३-७०)

 

(श्रीमातृवाणी, खंड १०; पृ ३३७-४०)

 

तुमने, अंतिम सूत्र देखे?

 

जी, बीमारियों और डाक्टरोंके बारेमें...... लेकिन एक और सूत्र है जिसमें एक छोटा-सा वाक्य आता है जो मुझे अद्भुत लगता है । वे कहते हैं : ''आधुनिक मानवजातिके लिये मशीनें आवश्यक हैं -- उसकी असाध्य बर्बरताके कारण...... ''

 

 (माताजी सिर हिलाती हैं और बहुत देरतक चुप रहती हैं) आज मुझे समाचार मिला है कि '' गुजर गयी । उसका एक बड़ा ऑपरेशन हुआ था, वह ठीक हो गयी, घर लौट आयी । उसने मुझे लिखा : ''मै दिन- पर-दिन अच्छी होती जा रहीं हूं.. .'' और फिर चल बसी । मुझे यह समाचार आज ही मिला है । ऐसा होता है ।

 

   '' के साथ भी ऐसा ही हुआ था... । वही बात, बीमारी लौट

 

२०५


आयी । इसमें ऐसी प्रतीति... यह एक प्रयास है, हां, उस चीजके विरुद्ध प्रयास है जिसे श्रीअरविद बर्बरता कहते हैं (माताजी सारे पार्थिव वातावरण- को लेनेका-सा संकेत करती हैं) । ऐसा लगता है... पता नहीं यह मानसिक रचनामेंसे बाहर निकल आनेमें अक्षमता है या इनकार । और: इस 'चेतना' की क्रिया (कैसे कहा जाय?)... यह दिखानेके लिये कि सारी मानसिक रचना किस हदतक मिथ्या है, लगभग निर्दय हों जाती है -- हर चीज, हर चीज, वे प्रतिक्रियाएं भी जो सहज प्रतीत होती हैं, ये सब अत्यंत जटिल मानसिक रचनाका परिणाम है ।

 

    हां, वह निर्दय है ।

 

   तुम उसमें पैदा हुए हों, अतः उसके अनुसार अनुभव करना, उसके अनु- सार प्रतिक्रिया करना, सब कुछ उसीके अनुसार व्यवस्थित करना बिलकुल स्वाभाविक लगता है । यहांतक कि तुम 'सत्य'से कतरा जाते हो ।

 

   अपने शरीरकी व्यवस्थामें भी यही बात है ।

 

   अतः ऐसा लगता है कि भागवत क्रिया अपने-आपको असाधारण शचितके साथ आरोपित करती है और वह निर्दय लगती है (हमें लगती है), (माताजी 'द्रव्य' पर घूंसा मारती हैं), ताकि पाठ सीखा जा सकें ।

 

 (लंबा मौन)

 

   मैंने उस समयकी याद की जब श्रीअरविद यहां थे.. । आंतरिक सत्ता एक ऐसी चेतनामें प्रवेश बार गयी थी जो एकदम भिन्न उच्चतर चेतनाके अनुसार अनुभव करती और देखती थी; और फिर, ठीक जब श्रीअरविद बीमार पड़े और वे सब चीजें हुई, सबसे पहले वह दुर्घटना ( उनकी जांघ टूट गयी).... तब शरीर, शरीर सारे समय कहता था ''ये स्वप्न हैं, ये स्वप्न हैं, यह हमारे लिए नहीं है; हमारे लिये शरीर ऐसा है' ' ( धरतीके नीचे दिखानेका संकेत).. वह भयंकर था!...और वह सब चला गया, वह बिलकुल चला गया । द्रुतने वर्षोंके बाद, इतने वर्षोंके प्रयासके बाद वह चला गया और स्वयं शरीर भागवत उप- स्थितिका अनुभव करता था और उसे ऐ सा लगता था कि... सबको मजबूरन बदलना पड़ेगा । और तब, कुछ दिन पहले वह रचना जो चली गयी थी ( जो समस्त मानवजातिकी पार्थिव रचना है, यानी, जिन लोगोंमें अंतर्दर्शन, बोध या उच्चतर सत्य'के लिये केवल अभीप्सा है, जब वे 'तथ्य' पर लौटकर आते है, इस भयंकर रूपसे पीडाजनक  वस्तु, समस्त परि- स्थितियोंके सतत निषेध, के सामने खड़े होते है), इस शरीरकी वह रचना

 

२०६


पूरी तरह मुक्त हो गयी है और वापिस आ गयी है । वह वापिस आ गयी है, परंतु... जब वह आयी, जब उसने देखा तो उसने ऐसे देखा जैसे कोई 'मिथ्यात्व' को देखता है । और मैं समझ गयी कि वह कितना बदल गया था क्योंकि जब उसने वह देखा तो उसे लगा... उसने उसे एक स्मितके साथ देखा और उसका संस्कार, आह! वह एक पुरानी रचना थी जिसमें अब कोई सत्य न था । और यह एक असाधारण अनुभूति थी : कि उसका समय खतम हों चुका है -- उसका समय खतम हों चुका है । और मै जानती हू कि 'चेतना' का यह 'दबाव' एक ऐसा दबाव है ताकि चीजें जैसी कि वे थीं--इतनी दीनहीन, इतनी छोटी, ऐसी धुंधली और... साथ ही बाहरी रूससे ऐसी अनिवार्य--यह सब पीछे चला गया रेख ( माताजी कंधे- के ऊपरसे इशारा करती है), यह एक भूतकालकी तरह है जो गुजर चुका । तो मैंने वास्तवमें देखा -- मैंने देखा, मैं समझ गयी -- कि 'चेतना' का काम ( जो दयाहीन होता है, वह इस बातकी परवाह नहीं करता कि वह कठिन है या नहीं, संभवत. वह बाहरी तौरपर दीखनेवाले विध्वंसकी मी परवाह नहीं करता), वह चाहता है कि सामान्य अवस्था इतनी भारी, इतनी धुंधली, इतनी भद्दी -- और इतनी निम्न कोटिकी -- चीज न होनी चाहिये, कि ऊषा आनी चाहिये... कुछ ऐसी चीज जो क्षितिजपर फूट पड़ी हों एक नयी चेतना -- एक सत्यतर, अधिक प्रकाशमान वस्तु ।

 

     यहां श्रीअरविद बीमारीके बारेमें जो कहते है, ' यह ठीक वही बात है और उसकी सभी रचनाएं और अम्यासकी शक्ति, वह सब कुछ जो रोगमें ''अनिवार्य'', ''अपरिवर्तनीय'' प्रतीत होता है, वह सब, यह ऐसा है मानों यह दिखानेके लिये अनुभूतियोंको कई गुना कर दिया जाता है कि... ताकि मनुष्य यह सीख सके कि यह बस वृत्तिका प्रश्न है, हां - वृत्तिका -- परे जानेका, उस मानसिक काराके परे जानेका जिसमें मानवताने अपने-आपको बंद कर लिया है और... वहां ऊपर श्वास लेनेका प्रश्न है ।

 

   और यह शरीरकी अनुभूति है । पहले, जिन्हें आंतरिक अनुभूति होती थी वे कहा करते थे ''हां, वहां, ऊपर ऐसा है, लेकिन यहां.. ।'' अब ''लेकिन यहां'' शीघ्र ही ऐसा न रहेगा । यह विजय प्राप्त की जा रही है, यह महान् परिवर्तन है. भौतिक जीवनके ऊपर मानसिक जगत्का नहीं, उच्चतर चेतनाका शासन होना चाहिये । यह अधिकारका हस्तांतरण है... । यह मुश्किल है, यह कठिन है । यह कष्टदायक है । स्वभावत: इसमें टूट-फूट होती है, लेकिन.. हम सचमुच देख सकते हैं -- हम इसे देख सकते है । और वह वास्तविक परिवर्तन है । यही नयी 'चेतना'को

 

२०७


अपने-आपको प्रकट करने योग्य बनायेगा । शरीर सीख रहा है, अपना पाठ सीख रहा है - सभी शरीर, सभी शरीर ।

 

 ( मौन)

 

    यह मनद्वारा किया गया पुराना विभाजन है : वहां, ऊपर वह बिलकुल ठीक है, तुम सब तरहकी अनुभूतियां पा सकते हो और वहां हर चीज प्रकाशमय और अद्भुत है, यहां कुछ भी नहीं करना । और यह भावना कि जब व्यक्ति पैदा होता है तो उस जगत् में पैदा होता है जहां कुछ नहीं करना है । और फिर, इससे यह स्पष्ट हों जाता है कि जिन लोगोंने पूर्व दृष्टिसे यह संभावना नहीं देखी कि चीजें और तरहसे भी हो सकतीं हैं वे यह कहते हैं : ''ज्यादा अच्छा है बाहर निकल आना और... ।', यह सब इतना स्पष्ट हो गया है । लेकिन यह परिवर्तन, यह तथ्य कि अब यह अनिवार्य नहीं है, यही महान् 'विजय' है : अब यह अनिवार्य नहीं है । ऐसा लगता है - ऐसा लगता है, यह दिखायी देता है - और स्वयं शरीरने इसका अनुभव किया है कि शीघ्र ही यहां भी सत्यतर हो सकता है ।

 

   संसारमें सचमुच कुछ परिवर्तन हुआ है ।

 

 ( मौन)

 

  स्वभावत: इसे वास्तविक रूपमें स्थापित होनेमें कुछ समय लगेगा । अभी युद्ध है । सब ओरसे, सभी स्तरोंपर चीजोंका आक्रमण हो रहा है जो बाहरसे आकर कहती है : कुछ भी नहीं बदला गया है -- लेकिन यह सत्य नहीं है, यह सत्य नहीं है, शरीर जानता है कि यह सत्य नहीं है । और अब वह जानता है, वह जानता है कि किस दिशामें ।

 

   और श्रीअरविंदने इन सूत्रोंमें जो लिखा है, जिसे मैं अभी देख रहीं हू, वह इतना भविष्यसूचक है! वह 'सत्य' वस्तुका अंतर्दर्शन था, इतना भविष्यसूचक ।

 

 ( मौन)

 

     अब मैं देखती हू कि उनके प्रयाण और उनके कार्य... सूक्ष्म-भौतिकमे इतने विस्तृत ओर इतने सतत कार्यमें उनके प्रयाणने कितनी सहायता की

 

२०८


है! उसने वस्तुओंको तैयार करनेमें (माताजी द्रव्यको गूधनेकी मुद्रा करती हैं) कितनी सहायता की है, भौतिक संरचनाको बदलनेमें कितनी सहायता की है ।

 

औरोंको जितनी भी अनुभूतियां हुई, जिनका उद्देश्य था उच्चतर लोकोंके साथ संपर्क स्थापित करना, वे सब यहां नीचे, इस भौतिकको जैसा-का- तैसा छोड़ गये ।... कैसे कहा जाय? मेरे जीवनके आरंभसे श्रीअरविदके प्रयाणतक, मै इस चेतनामें थी कि व्यक्ति ऊपर जा सकता है, व्यक्ति जान सकता है, व्यक्ति सब प्रकारकी अनुभूतियां पा सकता है (और वास्तवमें हुई भी), लेकिन जब वह इस शरीरमें लौटता है... तो पुराने, वि-क-ट मानसिक विधान ही चीजोंपर शासन करते है । तब ये सारे वर्ष तैयारीके वर्ष थे -- तैयारी -- तैयारी और मुक्ति और इन दिनों वह... आह! शरीर द्वारा भौतिक मान्यता कि वह बदल गया है ।

 

    जैसे कहा जाता है, अभी उसे परखना है, उसे पूरे व्योरेमें उपलब्ध करना है, लेकिन परिवर्तन हो गया है - परिवर्तन हो गया है ।

 

    मतलब यह कि मनद्वारा प्रतिपादित और उसके द्वारा निश्चित स्थूल अवस्थाएं (माताजी दोनों मुट्ठियां बांध लेती हैं) इतनी अनिवार्य प्रतीत होती थीं कि जिन्हें उच्चतर लोगोंका जीवित अनुभव था उन्होंने समझा कि अगर कोई सत्यमें निवास करना चाहता है तो उसे जगत् से भागना होगा, इस स्थूल जगत् को छोडे देना होगा । (इतने सारे मत-मतातरों और धर्मोंका यही कारण है) लेकिन अब बात ऐसी नहीं है । भौतिक उच्चतर 'प्रकाश', दिव्य सत्य, सत्य 'चेतना' को ग्रहण करने और अभिव्यक्त करनेके योग्य है ।

 

    यह आसान नहीं है, इसमें सहन-शक्ति और संकल्पकी जरूरत है, लेकिन एक दिन आयेगा जब यह बिलकुल स्वाभाविक हो जायगा । अभी-अभी दरवाजा खुला है -- बस, इतना ही, अब चलते चलना है ।

 

 ( मौन)

 

 स्वभावत: जो प्रतिष्ठित है वह चिपका रहता है और भयंकर संघर्ष करता है । समस्त कठिनाईका यही कारण है (पार्थिव वातावरणकी ओर इशारा) - वह बाजी हार चुका है । वह बाजी हार चुका है ।

 

 ( मौन)

 

२०९


   इस 'चेतना' को विजय पानेमें... साल-भरसे कुछ आर लगा ।' और फिर भी, स्वभावत:, यह उन लोगोंके सिवाय, जिनमें आंतरिक दृष्टि है, किसीको नहीं दिखायी देती... ।

 

    लेकिन, लेकिन जीत हो चुकी है ।

 

 (लंबा मौन)

 

 यही काम है जो श्रीअरविंदने मुझे सौंपा था । अब मै समझती हू । लेकिन ऐसा लगा कि सनी ओरसे -- सभी ओरसे -- ये शक्तियां, मन- की ये शक्तियां विरोधमें उठ खड़ी हुई -- तीव्र विरोधमें । वे अपने पुराने विधान आरोपित करना चाहती थी ''लेकिन हमेशा ऐसा ही रहा है! ''... लेकिन वह समाप्त हो गया । अब हमेशा ऐसा ही नहीं रहेगा ।

 

 ( मौन)

 

 .पिछले कुछ दिनोमें इस शरीरमें यही युद्ध चल रहा था... । सचमुच वह बहुत मजेदार था. । बाहरसे, बाहरसे कुछ ऐसा प्रयास हो रहा था कि शरीरको ऐसी ठानुभूतियोंके अधीन किया जाय कि वह स्वीकार करने के लिये बाधित हों जाय : ' 'जो हमेंशासे है वह हीं हमेशा रहेगा; तुम कोशिश कर लो, लेकिन यह है एक भ्रांति । '' इसलिये कुछ हुआ, शरीर- मे कुछ अव्यवस्था हुई, शरीरने अपनी वृत्तिद्वारा उत्तर दिया : हस प्रकार- की शांति ( निश्चलताकी मुद्रा) और उसकी वृत्ति ( हाथ खुले हुए). ' 'जैसा तू चाहे, प्रभु, जैसा तू चाहे' '.. सब कुछ- एक कौधकी तरह गायब हो जाता है । और यह बहुत बार हुआ, दिनमें कम-से-कम बारह बार । तब -- तब शरीर अनुभव करने लगता है : वह रहा!. उसे आनंद, एक अद्भुत वस्तुमें रहनेका आनंद प्राप्त हुआ.. । अब और वैसा नहीं है जैसा था, अब और वैसा नहीं रहा जैसा था -- अब और उस तरहका नहीं रहा जैसा था ।

 

   अभी लड़ते जाना है । तुम्हारे अंदर धीरज, साहस, संकल्प, विश्वास होने चाहिये -- अब ' 'उस तरह' ' का नहीं है, पुरानी चीज डटी रहना चाहती है - वीभत्स! वीभत्स । लेकिन.. अब ऐसा नहीं है, ऐसा बिलकुल नहीं है ।

 

     १अतिमानवकी चेतना १ जनवरी, १९६

 

२१०


तो, लो ।

 

 (मौन)

 

  

 और यह भी : कहांतक, शरीर कहांतक, कितनी दूरतक जा सकेगा? वहां भी वह... पूरी तरह शांत और प्रसन्न है : जैसा तू चाहता है वैसा खै।

 

 (लंबा मौन)

 

 वाकी सब पुराना लगता है, इतना पुराना मानों... मृत भूतकालकी कोई चीज हो -- जो फिरसे जिंदा होना चाहती है, पर हो नहीं पाती ।

 

   और सब, सब, सभी परिस्थितियां यथासंभव अनर्थकारी हों सकती है -- चिंताएं, जटिलताएं और कठिनाइयां, सब, सब जंगली जानवरोंकी तरह हिंस्र रूपमें उठ खड़ी होती हैं, लेकिन... यह समाप्त । शरीर जानता है कि यह समाप्त हो गया है । शायद इसमें शताब्दिया लग जायं, पर यह समाप्त हों गया है । इनके सुत होनेमें शायद शताब्दिया लग जायं-, पर अब यह समाप्त हो गया है ।

 

  सिद्धि जो बिलकुल ठोस और निरपेक्ष है जिसे पहले जड-द्रव्य'में बाहर निकलकर ही प्राप्त किया जा सकता था (माताजी एक उंगली नीची करती हैं) : यह निश्चित रूपसे, निश्चय ही, यहां भी प्राप्त की जा सकेगी ।

 

 (लंबा मौन)

 

  'चेतना' को आये चौदहबां महीना है -- चौदह, यानी, दो बार सात ।

 

 ( मौन)

 

 ओर आज चौदहवीं तारीख है?

 

      जी, चौदहवीं ।

 

 यह मजेदार है ।

 

(मौन)

 

 जबसे उन्होंने शरीर छोड़ा है तबसे कितना काम किया है...! ओह!... सारे समय, सारे समय ।

 

 ( मौन)

 

   ऐसा लगता है... यह शरीरके अंदर एक चमत्कार लगता है । इस रचनाका विलोप सचमुच चमत्कार है ।

 

   और हर चीज साफ होती जा रही है ।

 

    देखेंगे ।

 

 (लंबा मौन)

 

 यह अपेक्षया तेज था ।

 

  (मौन)

 

   इसका मतलब यह हुआ कि अब हर मानव चेतनाके लिये, जिसमें जरा-सा विश्वास है, मनके इस सम्मोहनमेंसे निकल आना संभव है ।

 

 हां, हां, ठीक ऐसा ही, ठीक ऐसा ही, ठीक ऐसा ही ।

 

२११

 

२० मई, १९७०

 

 क्या हम जरा भी आपकी अनुभूतिके पीछे चल रहे हैं? हमें इस गतिमें जरा अधिक उतरनेंके लिये क्या करना चाहिये?

 

कुछ लोगोंको अनुभूतियां होने लगी हैं; कुछको अनुभूतियां तो हों रही है पर उन्हें मालूम नहीं! (माताजी हंसती है) उसका कुछ प्रभाव है ।

 

   हमेशाकी तरह सबसे बड़ी कठिनाई है मन, क्योंकि वह अपने ही तरीकेसे

 

समझना चाहता है... । यही कठिनाई है... । कुछ लोग है जिनमें यह चीज न होती तो वे बहुत ज्यादा तेजीसे बढ़ते । उन्हें लगता है कि अगर उन्होंने मनके द्वारा नहीं समझा तो समझा ही नहीं ।

 

२७ जून, १९७०

 

   बहुत दिनोंसे आपने कुछ नहीं कहा...

 

 ( मौन)

 

कुछ व्यक्त करनेके लिये थोड़ा-बहुत मानसीकरण जरूरी है और वह बहुत कठिन है, क्योंकि शरीर सब प्रकारकी अनुभूतियां करनेमें लगा है और सीख रहा है, लेकिन जैसे ही वह व्यक्त करनेकी कोशिश करता है, वह कहता है : '' नहीं, यह सच नहीं है, यह ऐसा नहीं है.... '' ( माताजी छोटे, संकरे चतुष्कोण बनाती हैं) यह जीवनसे ज्यामितिके आकार बनानेकी तरह है । यह इसकी राय है ।

 

   दूसरी तरह भी यह अकथनीय है क्योंकि यह बहुल है, जटिल है, और अगर तुम उसे समझानेके लिये सामने न रखो तो... उसे कहा मी नहीं जा सकता । और जैसे ही तुम उसे समझानेके लिये व्यक्त करते हो तो वह सत्य नहीं रहता ।

 

   इन दिनों चेतनाकी यह अनुभूति रही है कि, अगर तुम दिव्य आनन्दमें हो जहां चीजें जैसी-की-वैसी बनी रहती है, तो बस जरा-सा सरकाव या स्थानान्तरण ( कैसे कहा जाय?), वृत्तिमें जरा-सा फेर, जिसे व्यक्त भी नहीं किया जा सकता, एक यंत्रणा-सा बन जाता है! और यह एक सतत घटना है । ऐसे क्षण होते हैं जब शरीर यातनासे चिल्लाता है और... जरा-सा, बिलकुल जरा-सा परिवर्तन जिसे व्यक्ततक नहीं किया जा सकता और चीज आनन्द बन जाती है -- वह और ही चीज हों जाती है... यह एक असाधारण चीज हो जाती है, सब जगह भगवान्-ही-भगवान् । इस तरह शरीर सारे समय एकसे दूसरेकी ओर गति करता रहता है, यह एक प्रकारकी जिमनास्टिक्स है, दो अवस्थाओंके बीच चेतनाका संघर्ष।
 


  और कभी-कभी, कुछ सेकंडोंके लिये, यह पीड़ा अत्यंत तीव्र हो उठती है और शरीर कहता है : ''बस, बहुत हों चुका, बहुत हो चुका' ', और फटसे... ( माताजी उलटावकी मुद्रा करती है) । तब, कहना असंभव है । जो कुछ कहा जाता है वह सत्य नहीं रहता ।

 

   और मानो कष्ट सहन करनेवाले सभी स्पंदनोंको सामान्य मानव चेतना- की राशि बनाये रखती है -- हां, ऐसा ही है । और दूसरेको एक ऐसी चीज सहारा देती है जो... हस्तक्षेप करती नहीं प्रतीत होती 1 वह अपने-आपको व्यक्त करनेके लिये यत्नशील मानव समूहकी तुलनामें ( निश्चलकी मुद्रा).. अतः, यह सब कहना असंभव है ।

 

   और हमेशा, हमेशा या तो यह 'निश्चल शांति' -- यह सर्वश्रेष्ठ 'शांति', जो उस शांतिसे बढ-चढूकर है जिसे हम अनुभव कर सकते है -- और साथ ही तुम यह जानते हों ( यहां ' 'अनुभव करते हो' ' नहीं कहा जा सकता, तुम जानते हों) कि रूपांतरकी गति इतनी अधिक तेज है कि उसे भौतिक रूपमें नहीं देखा जा सकता । और दोनों संयुक्त हैं और यह शरीर एक दशामेंसे दूसरीमें जाता है और कभी-कभी कभी-कमी दोनों लगभग एक साथ ( माताजी सिर हिलाती हैं, यानी, समझा सकना असंभव है) ।

 

   और तब यह सामान्य वस्तुओंको, यानी, जीवनके बोधका - जैसा कि वह है -- भगवानकि दृष्टिसे नहीं, बल्कि भागवत दृष्टिकी तुलनामें -- एक व्यापक पागलपनका रूप दे देती है और सचमुच जिसे लोग पागल कहते है और जिसे तर्क-बुद्धिसंगत कहते हैं, उन दोनोंमें कोई फर्क नर्मी रहता... हां -.. मनुष्य जो भेद करते है वह हास्यास्पद है । उनसे यह कहनेकी इच्छा होती है. लेकिन तुम सभी एक-से हों, सिर्फ मात्राका फर्क है '

 

हां...

 

और यह सब युगपत बोधोंका जगत् है । इसलिये सचमुच कुछ कहना असंभव है ।

 

  यहां ( माताजी अपना सिर छूती है), यहां कुछ भी न०गुइ है, वहांसे होकर कुछ भी नहीं आता-जाता । वहां कुछ नहीं है । यह कोई ऐसी चीज... ऐसी चीज है जिसका कोई यथार्थ रूप नहीं है, पर जिसे एक ही साथ अनगिनत अनुभूतियां होती हैं, लेकिन व्यक्त करनेकी क्षमता जैसी- की-वैसी बनी है, यानी, अक्षम है ।

 

 ( मौन)

 

 उदाहरणके लिये, जो कुछ हो रहा है उसका लिये एक हीं समयमें

 

उसकी व्याख्या ( ''व्याख्या' ' ठीक शब्द नहीं है, परंतु...) सामान्य मानव चेतनाकी व्याख्या ( ' 'सामान्य' ' सें मेरा मतलब घिसी-पिटीसे नहीं, मानव चेतनासे है), फिर वह व्याख्या है जो श्रीअरविद प्रकाशित मनके द्वारा देते हैं और... दिव्य बोध । एक ही चीजके लिये, एक साथ तीनों -- इन्हें कैसे, कैसे कहा जाय?

 

   और हमेशा, सारे समय यही होता है और तब यह ( माताजी अपने शरीरकी ओर इशारा करील हैं), यह अपने-आपको व्यक्त करनेकी अवस्था- मे नहीं है, यह अभिव्यक्त करनेका समय नहीं है ।

 

   यहांतक कि जब मैं लिखती हू तब मी ऐसा होता है । अतः, मैं अपने मूढतापूर्ण सूत्रोंमें जितना भरा जा सकें भरनेकी कोशिश करती हू -- और मैं इतना अधिक भर देती हू! इतना अधिक! जो शब्दोके द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता -- अतः, जब कोई मेरी लिखी चीजको मेरे आगे पढ़ता है तो यह कहनेको जी करता है तुम मेरे साथ मजाक कर रहे हों, तुमने इसमेंसे सब कृरलतो निकाल दिया है !...

 

 

२१४

१ जुलाई, १९७०

 

 मुझे एक अनुभूति हुई जो मेरे लिये मजेदार थी, क्योंकि वह पहली बार थी । कल या परसोंकी बात है, मुझे याद नहीं, '' ठीक मेरे सामने थीं । मैंने उसके चैत्य पुरुषको देखा, वह उसपर छाया हुआ था (लगभग २० सेटीमीटरका संकेत), इतना ऊंचा । यह पहली बार था । उसका भौतिक शरीर छोटा था और चैत्य पुरुष इतना अधिक बड़ा । वह एक अलैगिक सत्ता न स्त्री, न पुरुष । तब मैंने अपने-आपसे कहा (संभवत: हमेशा ऐसा ही होता है, पता नहीं, लेकिन यहां मैंने स्पष्ट देखा), मैंने अपने-आपसे कहा. यह है चैत्य पुरुष । यही अपने-आपको मूर्त रूप देकर अतिमानव सत्ता बन जायगा!

 

मैंने उसे देखा, वह ऐसा था । उसमें विशेषताएं थीं लेकिन बहुत ज्यादा उभरी हुई नहीं । स्पष्टतः, वह एक ऐसी सत्ता थी जो न स्त्री थी, न पुरुष, उसमें दोनोंकी सम्मिलित विशेषताएं थी । वह व्यक्तिसे बड़ा था और हूर तरहसे उससे इतना बढ़-चढ़कर था (शरीरसे लगभग २० सेंटीमीटर अधिक होनेका संकेत) । वह वहां थी और यह इस तरह था

 


(संकेत) और उसका रंग ऐसा था.... यह रंग... जो अगर पूरी तरह भौतिक रूप ले लें तो ओरोवीलका रंग बन जायगा ।' वह जरा हल्का था मानों परदेके पीछे हो, वह बिलकुल ठीक-ठीक न था, पर था वैसा ही रंग । सिरपर बाल थे पर... कृउछ भिन्न । शायद मैं अगली बार ज्यादा अच्छी तरह देखुगी । लेकिन उसमें मुझे बहुत मजा आया क्योंकि वह ऐसा था मानों वह सत्ता मुझसे कह रही हों. ''आप यह देखनेमें लगी हैं कि अतिमानव सत्ता कैसी होगी - यह रही! यह रहीं वह ।'' और वह मौजूद थी । वह उस व्यक्तिका चैत्य पुरुष था ।

 

  तो, हम समझना शुरू करते हैं । हम समझते है : चैत्य पुरुष अपने- आपको भौतिक रूप देता है.. और यह क्रम-विकासको सातत्य प्रदान करता है । यह सृष्टि ऐसी प्रतीति देती है कि कुछ भी मनमाना नहीं है । इसके पीछे एक भागवत तर्क है । वह हमारे मानव तर्कके जैसा नहीं है । वह हमारे तर्कसे बहुत ज्यादा श्रेष्ठ है -- लेकिन और भी तर्क है -- और वह, उसे पूरा संतोष हो गया जब मैंने यह देखा ।

 

यह वास्तवमें मजेदार है । मुझे बहुत मजा आया । वह मौजूद था शांत, स्थिर और उसने मुझसे कहा : ''आप देखना चाहती थी? यह रहा, यह वही है! ''

 

  और तब मैं समझी कि मन और प्राणकों शरीरके बाहर क्यों भेज दिया गया था, केवल चैत्य पुरुष बचा था शरीरमें - स्वभावतः, वही सारे समय, सभी गतिविधियोंपर शासन कर रहा था, इसलिये कोई नयी बात न थी, लेकिन अब कोई कठिनाइयां नहीं बची : सभी उलझनें मन और प्राणसे आती थीं, वे अपनी राय और प्रवृत्ति लादती थीं । अब वह सब चला गया । और मैं समझ गयी : ओहो! यह है! चैत्य पुरुषको ही अति- मानसिक सत्ता बनना है ।

 

   लेकिन मैंने कमी यह जाननेकी कोशिश नहीं की कि वह देखनेमें कैसा होगा । ' और जब मैंने '' को देखा तो मै समझ गयी । मै उसे देखती हू, अब भी देख रही हू । मैंने वह स्मृति बनाये' रखी है । ऐसा था मानों सिरके बाल लाल हों (लेकिन वह ऐसा था नहीं) । और उसके चेहरेका भाव! इतना सुन्दर, इतना मधुर व्यंग्यात्मक... आह! असा- धारण असाधारण ।

 

  और समझते हो, मेरी आंखें खुली हुई थीं । यह लगभग भौतिक, द्रव्यत्मक अंतर्दर्शन था ।

 

 'नारंगी ।

 

 तो समझमें आता है । अचानक, एक साथ सभी प्रश्न गायब हो गये । यह बहुत स्पष्ट हो गया है, बहुत सरल ।

 

 ( मौन)

 

   और बस, केवल चैत्य पुरुष ही बचा रहता है । तो अगर वह अपने-अपिको भौतिक स्व दे लें, तो इसका अर्थ होगा मृत्युका विलोपन : जो चीज 'सत्य' के अनुकूल नहीं होती उसके सिवा किसीका 'विलोपन' नहीं होता.. और वह चल बसती है... जो कुछ अपने-आपको चैत्यके अनुरूप रूपांतरित करने और उसका अभिन्न भाग बननेके योग्य न हों, वह गायब हों जाता है । यह सचमुच मजेदार है ।

 

२१६

५ अगस्त, १९७०

 

   यह 'चेतना' जो एक वर्षसे ऊपर, अबसे डेढ़ वर्ष पहले आयी थी, ऐसा लगता है कि वह सच्चाईके लिये निश्चित रूपसे बहुत, बहुत श्रम कर रही है । वह ''ढोंग'' को प्रश्रय नहीं देती, वह यह नहीं चाहती कि तुम कुछ होनेका ढोंग करो, पर वास्तवमें न हों । वह चाहता है कि चीज सच्ची चीज हो । '

 

    जी हां, चीजें ऊपर उठ आती है ।

 

यह शरीरके लिये बढ़िया परामर्शदाता है । वह उसे हमेशा पाठ सिखाता रहता है... । मुझे पता नहीं कि सब शरीर ऐसे हैं या नहीं, लेकिन यह शरीर तो एक छोटे बच्चोंकी स्थाई अनुभव करता है और वह विद्यालय जाना चाहता है, वह चाहता है कि उसे बतलाया जाय कि वह कहां भूल कर रहा है । वह सब कुछ सीखना चाहता है । और वह हमेशा सीखता रहता है । लेकिन जो कुछ बाहरसे आता है... । यह बहुत मजेदार है,

 

 यहांपर माताजीने (कम-से-कम इस बार) चेतनाके लिये पुल्लिगका उपयोग किया है ।


२१७


वह 'चेतना', (वह 'चेतना' जो वहां है) (माताजी ऊपरकी ओर इशारा करती है) किसीसे प्रभावित नहीं होती. वह साक्षी है, वह देखती है, पर ग्रहण नहीं करती; शरीर स्पंदनोंको ग्रहण करता है : जब कुछ लोग आकर मेरे सामने बैठते हैं तो अचानक दर्द होता है, चीजें ठीक नहीं चलती । लेकिन अव शरीर जानता है (स्वभावत:, वह जानता है कि उसे पीड़ा हों रही है), लेकिन वह औरोंको दोष नहीं देता, वह अपने-आपको दोष देतामैक; वह इन्हें उन बिंदुओंका सूचक मानता है जो अभीतक एकमात्र भगवान्के प्रभावतले नहीं आये है । और इस दृष्टिसे चीज बहुत मजेदार है... । वह जानता है कि उसमें और उस व्यक्तिकी चेतनामें कितना अंतर है जो उसका उपयोग कर रहा है । लेकिन इससे उसे कष्ट नहीं होता, वह पूर्ण नम्रता और विनयसे भरा है । उसे आश्चर्य नहीं होता, उसे चिंता नहीं होती, उसका सचमुच यही मतलब होता है : ''तेरी इच्छा पूरी हों, यह मेरा काम नहीं है, मैं निर्णय करनेमें असमर्थ हू और मैं कोशिश नहीं करता -- तेरी इच्छा पूरी हों । '' तो शरीर ऐसा है (निष्क्रिय और परित्यक्तकी मुद्रा), और जब वह गायब हों जाता है, जब वह पूरी तरह, पूरी तरह समर्पित हो जाता है, अपने-आपमें उसका कोई अस्तित्व ही नहीं रहता तो उसमेंसे गुजरनेवाली 'शक्ति' कमी-कभी. दुर्जेय होती है । कमी-कमी यह देरहा जा सकता है, साक्षी चेतना यह देख सकती है कि सचमुच संभावनाओंकी कोई हद नहीं होनी चाहिये । लेकिन यह अभीतक वह नहीं है, यह अभी उससे दूर है... यह, जो हो सकता है उसका उदाहरण है । लेकिन.. वह सहज-स्वाभाविक बने उससे पहले...

 

(लंबा मौन)

 

तुम्हें कृउछ कहना है?

 

पता नहीं ठीक है या नहीं, लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि आप- की उपस्थितिमें कुछ वर्ष पहले हमारे साथ जो होता था और अब जो है उसमें फर्क है । उदाहरणके लिये, पहले, मुझे प्रायः ऐसा लगता था कि आप सक्रिय रूपसे हमारे साथ हैं या सक्यि रूपसे हमारे साथ व्यस्त है; पता नहीं यह ठीक है दा नहीं, अब मुझे ऐसा लगता है कि अब यह किसी शक्तिपर छोड़ दिया गया है... कोई निर्वैयक्तिक शक्ति नहीं, लेकिन...

 

 ओह! यह सच है कि मैंने अधिकतर कार्य इस 'चेतना' के ऊपर छोड़ दिया

 

२१८


है। यह सच है । मै चेतनाको सक्रिय रूपमें काम करने देती हू क्योंकि . मैने देखा कि वह सचमुच जानती है । अन्यथा तुम्हारे सामीप्यका भाव अव ज्यादा मजबूत, बहुत ज्यादा मजबूत है । मुझे ऐसा लगता है मानों मै. तुम्हारे अंदर घूम रही हू । पहले ऐसा न था । लेकिन शायद पहले मेरी चेतना तुम्हारी चेतनापर दबाव डाला करती थी । शायद अब वह ऐसा नहीं करती क्योंकि... अब ऐसा है मानों मैं अंदरसे वही कर रही हू ।

 

 ..... जी हां, जब हम आपके साथ होते हैं, आपके पास होते है तो यह स्पष्ट होता है । आदमी इसे अनुभव कर सकता है और तब ऐसा लगता है कि आप अंदर है ।

 

हां, ऐसा है !

 

जी, ठीक ऐसा ही है, लेकिन जब व्यक्ति भौतिक रूपसे आपसे टर रहे तो उसे लगता है कि वह किसी निर्वैयक्तिकके अंदर है । मुझे पता नहीं कि यह ठीक है या नहीं ।

 

शायद वह निर्गुण बन गयी हो । मुझे ऐसा लगता है कि इस शरीरकी चेतनामें भी व्यन्क्तिगत कम-से-कम है । कमी-कभी मेरे अंदर यह भाव भी नहीं रहता कि मेरे शरीरकी कुछ सीमाएं है । पता नहीं किसे कहा 'जाय... । हां, ऐसा ही है, यह ऐसा है माना वह तरल बन गया हो । ओर लब कोई मी व्यक्तिगत क्रिया नहीं होनी चाहिये । परंतु यथार्थतः, अंदर (पता नहीं -?ऐसे समझाया जाय) वह ऐसा नहीं है, मानों कोई ऐसा व्यक्ति है जो इतना बड़ा हो गया हों कि औरोंको भी अपने अंदर लें ले । ऐसा नदवी है वह बहु एक शक्ति है, एक चेतना है जो सबपर फैली हुई है । मुझे किसी सीमाका अनुग्रह नहीं होता । मुझे लगता है कि भौतिक रूपसे मी यह कोई फैत्ठी हुई चीज है. । इसीके कारण अगर कोई बहुत सक्रिय आलोचक भावसे अवलोकन और निर्णय करनेके लिये आये तो मानों वह अंदर घुस जाता है, समझे, और इससे अंदर गड़बड़ हो जाती है ।

 

मुझे नहीं लगता कि क्रिया किसी वैयक्तिक क्रियाका भाव देती है -- लेने बहुत समयसे ऐसा है (कम-से-कम वर्षके आरंभमें तो है ही) । जब लोग मुझे यह लिखते है कि उन्होंने यह अनुभव किया है कि मैंने उनके लिये यह किया और वह किया तो मैं अचरजमें पंड जाती हू । अगर वे

 

२१९


कहते '' 'शक्ति' ने ऐसा किया'' या '' 'चेतना' ने वैसा किया,'' तो मुझे वह अधिक स्वाभाविक लगता ।

 

जो बोलता है, जो अवलोकन करता है, वह चेतनाका एक केंद्र है जो वहां स्थित है, (ऊपरकी ओर इशारा), लेकिन स्वभावतः, स्थानीय नहीं बन गया है : मुख तथा इंद्रियोंके द्वारा संचारण करनेके लिये यह वहां है (पहले जैसा इशारा), लेकिन उसका स्वभाव व्यक्तिके जैसा नहीं होता.. । हां, जब मुझसे यह प्रश्न पूछा जाता है. ''आप उसे कैसे देखती है? '' तो मुझे प्रश्न समझनेमें कुछ देर लगती है । मुझे नहीं लगता कि देखनेवाला एक व्यक्ति है ।

 

  कुछ अनुभूतियोंसे मुझे ऐसा ख्याल आता है कि भौतिक सत्ताके लिये व्यक्तिगत सीमाओंका होना जरूरी नहीं है; यह ऐसी चीज है जिसे सीखना तो पड़ता' है, परंतु वह आवश्यक नहीं है । हमेशा यह अनुभव किया गया था कि पृथक व्यक्तित्वोंको बनानेके लिये सीमित शरीर आवश्यक है -- यह आवश्यक नहीं है । तुम उसके बिना भौतिक रूपमें रह सकते हो, शरीर उसके बिना जी सकता है... । सहज रूपसे, यानी, अगर शरीरको पुरानी आदतों और जीवन-विधिके साथ छोड़ दिया जाय तो यह कठिन है । इससे एक आंतरिक संगठन पैदा होता है जो बहुत ज्यादा अव्यवस्था जैसा लगता है -- यह कठिन है । हर चीजके लिये, हर चीजके लिये सारे समय समस्याएं आती रहती है । शरीरकी एक भी क्रिया ऐसी नहीं है जिसे व्यक्तिगत सीमाओंके अभावमें समस्याओंका सामना नहीं करना पड़ता । यह प्रक्रिया वही पुरानी प्रक्रिया नहीं रही । यह वह नहीं है जो पहले था, लेकिन अभी जैसा है यह आदत नहीं बनी है, सहज अभ्यास नहीं बना है । मतलब यह कि अभी यह स्वाभाविक नहो बना है । इसके लिये चेतनाको हूर समय निगरानी रखनी पड़ती है - हर चीजके लिये., भोजन निगलनेतकके लिये, समझते हों? और इससे जीवन जरा कठिन हो जाता है -- हां, और विशेष रूपसे जब मैं लोगोंसे मिलती हू । मै एक बड़ी संख्यामें लोगोंसे रोज मिलती हां (हर रोज चालीस, पचास), और हर एक कुछ ऐसी चीज लाता है जिसके लिये उस 'चेतना' को जो इन सब बातोंको देखती है, उसे अपने-आपको बाहरसे आनेवाली चीजोंके अनुकूल बनाना पड़ता है.. । और मै देखती ? बहुत-से लोग बीमार हो जाते है (या सोचते है कि वे बीमार हो या बीमार-से लगते हैं या सचमुच बीमार होते हैं), लेकिन यह उनकी सत्ताके तरीकेसे, जो उसका पुराना तरीका है; शरीरमें ठोस रूप लें लेता है । इस नयी भौतिक चेतनामें उससे बचा जा सकता है । लेकिन ओह! इसका

 

अर्थ है बहुत सारी कठिनाई! व्यक्तिको सचेतन एकाग्रताके द्वारा एक ऐसी अवस्था बनाये रखनी चाहिये जो पुरानी प्रकृतिके अनुसार स्वाभाविक नहीं है, लेकिन जो स्पष्ट रूपसे नयी जीवन-पद्धति है । लेकिन उस तरीकेसे बीमारियोंसे बचा जा सकता है । लेकिन यह प्रायः एक भगीरथ प्रयास है ।

 

   यह कठिन है ।

 

   तुम समझते हों, समस्त असंभावनाएं, सभी ''यह नहीं हों सकता, वह नहीं किया जा सकता... '' ये सब बुहार फेंके गये हैं; ये तात्विक रूपमें बुहार दिये गये है और यह चीज अब एक तव्य, ठोस तथ्य बननेकी कोशिश- मे लगी है ।

 

यह बहुत हालकी चीज है, इस वर्षके आरंभके बादकी । और फिर, वे सव पुरानी आदतें -- कह सकते हैं नब्बे वर्षोकी आदतें । लेकिन शरीर जानता है, वह जानता है कि यह केवल आदत ही है ।

 

२२०

११ जनवरी, १९७१

 

माताजी लगभग डेढ़ महीनेतक लंबी शारी-

रिक यातनामें रहीं । उसके बाद स्मृतिके

आधारपर यह नोट लिखा गया था :

 

   भौतिक दृष्टिमें बहुत अधिक लगातार एकाग्रताकी जरूरत है । भौतिक दृष्टि स्थिर बनानेमें सहायता करती है । वह सातत्य देती है । श्रवणके बारेमें भी यही बात है । तो जब वे दोनों न हों, व्यक्ति प्रत्यक्ष रूपमें चीजके बारेमें सचेतन हों जाता है और इससे सत्य ज्ञान आता है । अति- मानस निश्चय ही इस तरीकेसे काम करेगा ।

 

   भौतिक  दृष्टि और श्रुतिको पृष्ठभुतिमें फेंक दिया गया है ताकि चेतनाकी वृद्धिके लिये, चेतनाद्वारा तादात्म्यके लिये स्थान बने ।

 

  कहने और जाननेका साधन है चेतनाका वस्तु या व्यक्तिके साथ तादात्म्य । सामान्य पृथक्ताका भाव होनेकी जगह सतत ऐक्यका भाव है । बहुत मजे- दार अनुभूतियां है । ऐसे लोग हैं जो मुझे बुलाते और मेरे बारेमें सोचते है और यह बात मेरी चेतनाके क्षेत्रमें आ जाती है । कुछ समयके बाद

 

   मुझे बताया जाता है : ''अमुक व्यक्ति आया है,'' या. ''अमुक व्यक्तिको कुछ हो गया है,'' और मैं कहती हू : ''मुझे मालूम है ।'' जिस समय घटना घटी थी उस समय मुझे कुछ नहीं बताया गया था, लेकिन मै उससे बारेमें. सचेतन थी मानों वह मेरी सत्ताके !क अंगमें हुई हों ।

 

१६ जनवरी, १९७१

 

 बहुत लंबे अरसेसे मेरा एक पांव मर-सा गया था ( अब उसमें फिरसे जान आ रही है), लकवा-सा था । एक पांवमें । अतः, स्वभावतः, सब कृउछ कठिन हो गया... । लेकिन जो बात विलक्षण थीं, मैं तुम्हें तुरंत बता सकती हू : वहां (सिरके ऊपर इशारा) पर स्थित चेतना अधिकाधिक प्रबल, अधिकाधिक स्पष्ट होती गयी, वह स्थिर घी । मै काम करती रहीं । केवल भारतके लिये नहीं, जगत् के लिये सतत संबंधमें रहकर क्रियाशील रूपसे कार्य करती रही ( ''परामर्श'' मे, समझे?)

 

   रूपांतरके बारेमें तो मै नहीं जानती... । मैंने ''चेतना स्थानान्तरण'' के बारेमें जो समझाया था वह विधिपूर्वक, विधिपूर्वक, लगातार, लगातार किया जा रहा है, परंतु फिर - पर दीखनेवाली क्षति - और हर हालतमें कुछ समयके लिये क्षमताओंके हासके साय । लेकिन दर्शन और श्रबणके बारेमें यह एक अजीब बात है : समय-समयपर वे स्पष्ट होते है, इतने स्पष्ट जितने हों सकते है और समय-समयपर एकदम अवगुंठित । और: उसका एक और ही बहुत, बहुत स्पष्ट स्रोत है -- प्रभावका अन्य स्रोत । मुझे लगता है कि मै ठीक-ठीक, स्पष्ट देख पाऊं इसमें कई महीने लग जायेंगे । बहरहाल, सामान्य चेतना ( सिरके ऊपर इशारा) जिसे वैश्व चेतना कह सकते है ( बहरहाल, पार्थिव चेतना), एक मिनटके लिये मी -- एक मिनट- के लिये भी नहीं हिली है । वह सारे समय बनी रही ।

 

     जी हां, माताजी, मैंने देखा है ।

 

 तुम इसके बारेमें क्या सोचते हों?

 


    मेरा ख्याल है कि संभवतः अब ऐसा होगा, अब एक नयी कार्य- पद्धति आ रही है ।

 

यह एक नयी कार्य-पद्धति है । मजेदार है ।

 

 क्या सत्ताओं और घटनाओंके बारेमें आपका बोध बदला है? क्या आपका देखनेका तरीका बदला है?

 

हां, बिलकुल -- बिलकुल । बहुत अजीब है... । इधर निचले भागमें इस सारे समयका उपयोग भौतिक सत्ताकी चेतनाको विकसित करनेमें हुआ है । और यह भौतिक सत्ता (माताजी अपने शरीरको छूती है), ऐसा लगता है कि इसे किसी और चेतनाके लिये तैयार किया गया है, क्योंकि ऐसी चीजें है... । इसकी प्रतिक्रियाएं बिलकुल भिन्न है, इसकी वृत्ति भिन्न है । मै पूर्ण उदासीनताकी अवधिमेंसे होकर निकली हू जब जगत्का मतलब कुछ न था... उसका अर्थ कुछ न था । और धीरे-धीरे मानों उसमेंसे एक नया बोध निकला । वह अभी मार्गमें ही है ।

 

  लेकिन यह निर्दोष (!) लकवा न था । कम-से-कम तीन सप्ताहके लिये - कम-से-कम - तीन सप्ताहतक निरंतर पीड़ा, रात-दिन, चौबीसमेंसे चौबीस घंटे, बिना उतार-चढावके : ऐसा लगता था मानों मुझे चीरकर टुकड़े-टुकड़े किया जा रहा है... । तो किसीसे मिलने-जुलनेका सवाल ही न था । अब यह खतम हों गया है । अब पीड़ा पूरी तरह सद्य है और शरीरने थोड़ा-बहुत सामान्य काम शुरु: कर दिया है ।

 

   लेकिन मै तुमसे कहना चाहती थी कि मेरी चेतना सारे समय तुम्हारे साथ सक्रिय रही । तुमने अनुभव किया इसे?

 

    मैंने 'शक्ति'का बहुत जोरसे अनुभव किया ।

 

 हां, ठीक यही है ।

 

     जी, बिलकुल तत्काल, बिलकुल तुरंत ।

 

 तो यह ठीक है ।

 

    मैंने विशेष रूपसे ख्याल किया कि अगर वह टांगमें उतर आयी

 

२२३


  है तो इसका मतलब है कि वह अब पूरी तरह भौतिक द्रव्यमें है ।

 

   हां, हां, मैंने भी इसी अर्थमें लिया है । केवल टांग ही नहीं, पैरके एक- दम निचले हिस्सेमें (माताजी अपने पांवको छूती है)... लेकिन मैंने देखा कि किस तरह विमीषिकाएं, मुसीबतें, दुर्भाग्य या कठिनाइयां, यह सब तुम्हारी सहायता करनेके लिये ठीक समयपर आती हैं - ठीक जब तुम्हें सहायताकी जरूरत होती है... । वास्तवमें, भौतिक प्रकृतिमें जो कुछ अभीतक पुराने जगत्का, उसकी आदतका और होने तथा उसके काम करनेके तरीकेका था, वह सब जिसे ''संभाला'' न जा सकता था उसे बीमारीके सिवा किसी और तरीकेसे न निपटाया जा सकता था ।

 

    मैं नहीं कह सकती कि यह मजेदार न था ।

 

लेकिन अपनी ओरसे मैंने भौतिक रूपमें भी हर एकके साथ संपर्क रखा -- मुझे पता नहीं वे सचेतन रहे या नहीं, परंतु मैंने हर एकके साथ संपर्क रखा । यह लोगोंकी ग्रहणशीलतापर निर्भर है । मुझे नहीं लगता कि किसी प्रकारकी कोई दरार या ऐसी कोई और चीज थी -- बिलकुल नहीं, बिलकुल नहीं । उस समय भी, जब मै बाह्य रूपसे इस तरह कष्ट भोग रही थी और लोग समझते थे कि मैं अपनी पीडामें पूरी तरह तल्लीन होऊंगी, उस समय भी मै उसीमें लगी हुई न थी । मुझे नहीं माऋण कैसे समझाऊं... । मैं भली-भांति देखती थी कि बेचारे शरीरकी हालत अच्छी नहीं है, लेकिन मैं उसमें तल्लीन न थी, सारे समय उस... सत्य- का संवेदन था जिसे समझना और अभियुक्त करना है ।

 

   और यह नोट (कैसे कहा जाय?), यह किसी चीजका परिणाम था और बड़े यथार्थ रूपमें किसी चीजका आरंभ भी । पता नहीं यह समझमें आने लायक है या नहीं

 

   यह अच्छी तरह समझमें आता है ।

 

तुम्हें यह बोधगम्य लगता है?

 

जी, आपने कहा है कि संभवत: दर्शन और श्रवणकी क्रियाओंको दबा दिया गया था, ताकि आप इंद्रियोंके माध्यमके बिना ही वस्तुओंके बारेमें प्रत्यक्ष रूपसे सचेतन हो सकें ।

 

 हां, लेकिन यह नोट, अब भूतकालकी चीज बन चुका है, क्योंकि मैंने फिर-

 

२२४


सें देखना शुरू कर दिया है, लेकिन एक और तरहसे । मैंने फिरसे देखना और सुनना शुरू कर दिया है ।

 

   यहां, आखिर आप आवश्यकताके अनुसार देखती और सुनती है ।

 

हां, हां, ओह! यह बहुत स्पष्ट है । बहुत स्पष्ट है । मुझे जो सुननेकी जरूरत है वह सुनती हू, चाहे वह कितनी भी धीमी आवाज क्यों न हो, लेकिन बातचीतकी सभी आवाजें, ये सब चीजें जो इतना शोर मचाती हैं, मै उन्हें बिलकुल नहीं सुनती!... कुछ बदल गया है । लेकिन वह पुराना -- पुराना है, यानी, पुरानी आदतें बनी हैं । लेकिन सौभाग्यवश, मैं आदतोंवाली नहीं थी... । हां, (हंसते हुए) कह सकते हैं : कोई बहुत वही चीज परिवर्तनके मार्गपर है! इसलिये वह नमनीय नहीं है, यह आसान काम न होगा । लेकिन परिवर्तन है, परिवर्तन स्पष्ट है । मैं बहुत अधिक बदल गयी हू, जहां स्वभावका संबंध है, जहां समझका संबंध है, जहां देखनेकी क्षमताका संबंध है -- बहुत, बहुत अधिक... पूरी तरहसे नया समूहीकरण हुआ है ।

 

  मेरी समझमें नहीं आ रहा था कि इस नोटका बोधगम्य रूपमें कैसे उपयोग करूं ।

 

    लेकिन, माताजी, यह पूरी तरह बोधगम्य है ।

 

ठीक है । यह सिर्फ इसलिये है कि लोगोंको यूं ही अचानक निराश जाय । बादमें वे इतनी दूर पंडू जाते है कि कुछ भी नहीं

 

 ( मौन)

 

   निश्चय ही नयी चेतनाका सिद्धांत यह है कि चीजें ठीक उस समय की जाती हैं जब उनकी जरूरत हो, और बस ।

 

हां, हां !

 

   कोई योजना नहीं, कोई पूर्वदृष्टि नहीं ।

 

२२५


हां, हां, ठीक ऐसा हीं ।

 

  (मौन)

 

 संसार भयंकर स्थितिमें है ।

 

   लेकिन मैंने पहले कभी ऐसा अनुभव नहीं किया कि चीज होने- होनेको है ।

 

 हां, हां, ठीक ऐसा ही । हां ।

 

     मुझे ऐसा लगता है कि अब वह बिलकुल नजदीक है ।

 

 हां, हां, बिलकुल नजदीक ।

 

 (मौन)

 

   एक पूरी अवधि ऐसी थी कि मुझसे मिलना असंभव था, क्योंकि मै लगातार कष्ट सह रही थी, ऐसी अवस्थामें आदमी बेकार होता है -- वह कष्ट लगातार था, लगातार । कहा जा सकता है कि बहू सारे समय चीख थी । उसमें बहुत समय लगा, उसमें कई सप्ताह लगे । मैंने हिसाब नहीं लगाया । तब धीरे-धीरे वह ऐसी शांतिके साहा बारी-बारी- सें आने लगा जब टांगको कुछ न लगता था । अभी पिछले दो-तीन दिन- सें ही ऐसा लगता है कि वह ठीक तरह व्यवस्थित हों गयी है -. । हां, यह ऐसा... यह सारे जगत् की सारी समस्या थी -- एक ऐसे जगत् को जो एक पीड़ा, दुःखके सिवाय कुछ नहीं है और एक बड़ा-सा प्रश्न चिह: क्यों?

 

    जितने शामकोंका उपयोग किया जाता है, मैंने उन सबका प्र-योग किया पीड़ाको आनंदमें बदला, अनुभव करनेकी क्षमताको हटाया, अपने-आपको किसी और चीजमें व्यस्त रखा.. । मैंने सब प्रकारकी ''तरकीबें'' कर लीं -- लेकिन [!क भी सफल न हुई! भौतिक जगत्में, जैसा कि वह खै, कोई ऐसी चीज है जो.. (कैसे कहा जाय ?) अभीतक भागवत 'स्पंदनों'- के प्रति खुली नहीं है । और यही वह कुछ चीज है जो सभी, सभी, सनी अशुभ चीजें करती है. । भागवत चेतनाको अनुभव नहीं होता । और

 

२२६


तब, अनगिनत काल्पनिक चीजें मौजूद रहती है ( लेकिन संवेदनके लिये बहुत वास्तविक), और उस चीज, एकमात्र सच्ची चीजका अनुभव नहीं किया जा सकता... । लेकिन अब ज्यादा अच्छा है । ज्यादा अच्छा है ।

 

   यह सचमुच मजेदार है । मुझे लगता है कि व्यापक रूपमें कुछ किया गया होगा -- यह केवल एक शरीर या एक व्यक्तिकी तकलीफ नहीं थी : मुझे लगता है कि जिस रूपमें ग्रहण करना चाहिये उस रूपमें ग्रहण करनेके न्द्रिये, उचित ढंगसे 'द्रव्य' को तैयार करनेके लिये कुछ किया गया है -- मानों वह अभीतक गलत तरीकेसे ग्रहण कर रहा था और अब ठीक तरह- से ग्रहण करना सीख गया है ।

 

   वह चीज आयेगी । शायद, मुझे पता नहीं उसके स्पष्ट होनेमें कितने मन या वर्ष लगेंगे ।

 

    (चलते समय, शिष्य माताजीका लिखा हुआ एक पुरजा पढ़ता है)

 

मुझे अब याद नहीं यह क्या है ।

 

 यह एक संदेश है जो आपने 'आकाशवाणी' को दिया था ।

 ''हम 'प्रकाश' और 'सत्य'के

 संदेशवाहक होना चाहते हैं ।

 सामंजस्यका भविष्य अपने-आपको प्रस्तुत कर रहा है

 ताकि संसारके सामने उसकी घोषणा की जाय ।',

 

हां, यह ठीक है, यह लोगोंको साहस देता है ।

 

  जी हां, माताजी । जहांतक मेरा सवाल है, पता नहीं, मुझे बहुत जोरसे लग रहा है कि वह बहुत नजदीक है ।

 

हां

 

  मुझे यही लगता है ।

 

हां । तुम्हारी बात ठीक है । तुम ठीक कहते हों । रहीं बात मेरी, इसे न देख सकनेके लिये बिलकुल अंधा होना चाहिये । चीज इस स्थितितक आ चुकी ह ।

 

२२७

३ मार्च, १९७१

  

   मुझे लगता है कि आपकी दृष्टि बहुत बदल गयी है ।

 

       (माताजी स्वीकृतिमें सिर हिलाती हैं)

 

   साल-भरसे ऊपर हो गया, वह ज्यादा-ज्यादा श्रीअरविन्दके लग रही है ।

 

अच्छा!...(सस्मित) संभव है!

 

   पहले आपकी दृष्टि ''हीरेके जैसी'' थी -- वह...... आप थीं, शक्तिशाली रूपसे आप । अब, वह अनंतके होती जा रही है ।

 

 ओ ! मेरे देखनेका तरीका भी वही नहीं है ।

 

  जी, यही बात है । मैं यह पूछना चाहता था कि जब लोगोंको इस तरह देखती है तो उनमें क्या देखती है?

 

 मेरा ख्याल है कि मैं... ज्यादा ठीक रूपसे कहूं तो उनकी अवस्था देखती हू । वह अवस्था देखती हू जिसमें वे है । विशेषकर कुछ हैं जो बंद मालूम होते हैं, जहांतक मेरा संबंध है, वे देखते हीं नहीं, जो पूरी तरह अपनी बाह्य चेतनामें रहते हैं; और फिर, ऐसे लोग है जो खुरने हुए हैं -- ऐसे... कुछ बच्चे, यह अद्भुत है -- जो मानों बिलकुल खुले हुए हैं (सूर्यकी ओर खिलते हुए फुलकी मुद्रा), जो आत्मसात् करनेके न्ठिये तैयार होते हैं । मैं विशेष रूपसे लोगोंकी ग्रहणशीलता देखती हू, वे जिस अवस्थामें, है उसे देखती हू. जो लोग अभीप्साके साथ आते है, जो कुतूहलके साथ आते हैं, जो.. एक प्रकारसे बाध्य होकर आते है, और फिर, जो प्रकाशके लिये प्यासे है -- ऐसे अधिक नहीं होते, लेकिन पैसे बच्चे कई हैं । आज मैंने देखा था जो मनोहर: था!... ओ, अद्भुत!

 

    मै केवल यही देखती हू । मै यह नहीं देखती कि वे क्या सोच रहे

 


है, क्या कहते हैं (यह सब मुझे ऊपरी और उबाऊ लगता है), मै यही देखती हू कि वे ग्रहणशीलताकी किस अवस्थामें हैं । मै विशेष रूपसे बस यही देखती हूं ।

 

 (मौन)

 

   मुझे लगता है कि हमें बच्चेमें ही ऐसे लोग मिलेंगे जो नयी जातिका आरंभ कर सकते हैं । पुरुषोंपर तो.. पपड़ी चढ़ गयी है ।

 

  मै' सदा ऐसे लोगोंके विरुद्ध संघर्षमें लगी रहती हू जो यहां आरामसे रहनेके लिये आये हैं ताकि ''जो मरज़ी कर सकें''.. तो... मै उनसे कहती हू. ''संसार काफी बन्दा है, तुम बाहर जा सकते हों'' -- वहां न अंतरात्मा होती है, न अभीप्सा, कुछ भी नहीं ।

 

  तुम मेरी भावना जानते हों? वे सब बूढ़े है । सिर्फ मैं ही युवा हू । हां, यह वही है, वह लौ, वह इच्छा... वह जिसे वे ''उत्साह'' कहते है -- छोटी-मोटी व्यक्तिगत तुष्टियोंसे संतुष्ट रहें.. जो तुम्हें कहीं नहीं पहुंचाती और इसीमें लगे रहें कि क्या खायंगे, ओह!...

 

  मुझे लगता है कि अब एक प्रकारका ''प्रदर्शन'' है (जानते हो प्रदर्शन क्या होता है?), उन सब चीजोंका प्रदर्शन जो नहीं होनी चाहिये ।

 

   जी हां ।

 

लेकिन ज्वाला, अभीप्साकी ज्वाला (माताजी सिर हिलाती हैं), ऐसे बहुत नहीं है जो इसे लेकर आते हों ।

 

  शर्त बम यही है कि वे जिसे ''आराम'' कहते है उस तरह आरामसे रह सके -- और कुछ ऐसी मूर्खताएं कर सकें जिन्हें वे संसारमें नहीं कर सकते!.. दुसरी ओर, ऐसा लगता है कि आगमनको जल्दी लानेके लिये. -- उसे जल्दी लाया जा सकता है अगर हम... अगर हम विजेता हों!

 

 सच्ची आध्यात्मिकता बहुत सरल होती है ।

 

( ६-३- ११७१)

 

२२९

१ मई, १९७१

 

    सचमुच ऐसा लगता है कि संसार खलबलीमें है ।

 

 हां, ठीक है ।

 

    और व्यक्ति भी ।

 

 (मौन)

 

  सवेरेसे ऐसा ही रहा है -- हड़तालें, झगड़े, अव्यवस्थाएं... । और कुछ ऐसा भाव है कि जिन्हेंने अव्यवस्था पैदा की है उन्हींकी सहायतने. व्यवस्था फिरसे लायी जाय । यही चीज करनी है । सामान्य सद्भावना और समस्त नैतिक और सामाजिक नियमोंकी जगह -- ये सब ढह चुके है -- तुम्हें ऊपर उठना चाहिये, भागवत इच्छा, ओर भागवत 'सामंजस्य' होने चाहिये । हम यही तो चाहते है । और फिर, जिन लोगोंने चीजों और सामान्य सामाजिक रुढियोंके सामान्य विधानके विरुद्ध विद्रोह किया है उन्हें सिद्ध करना होगा कि वे उच्चतर चेतना और सत्यतर सत्यके माप संपर्कमें है ।

 

   यह करनेका समय है... ( ऊपरकी ओर छलांगका संकेत) ।

 

  और व्यवस्था करनेवाली शक्तिकी दृष्टिसे, यह एक शक्ति है... अत्यधिक शक्तिशाली । यह अद्भुत है । और अगर यह शक्ति उच्चतर व्यवस्था, सत्यतर चेतनाकी सेवामें रखी जा सकें... तो कुछ किया जा सकता है ।

 

  व्यक्तिको ऊपर... ऊपरकी ओर छलांग मारनी होगी ।

 

वे सब लोग जो नयी व्यवस्था लाना चाहते है वे पीछेकी ओर, पुराने विचारोंकी ओर खिंचते हैं -- और इसीलिये कभी सफल नाहीं होते । यह सब खतम हो चुका है, हमेशाके लिये खतम हो चुका है । हम ऊपरकी ओर जायंगे । केवल वही काम कर सकते हैं जो उतरकी ओर, उठे

 

 ( लंबा मौन)

 

 तुम्हारे पास कुछ नहीं है? कुछ नहीं पूछना?

 

    मुझे ठीक पता नहीं कि मै किस दिशामें जा रहा हू ।

 

 देशा बस एक ही है -- भगवान्की ओर । और जैसा कि तुम जानते हो वह उतनी ही अंदर है जितनी बाहर, उतनी ही ऊपर है जितनी नीचे । वह सब जगह है । इस जगत् में, जैसा कि वह है, भगवानको पाना और उनके साथ चिपके रहना चाहिये -- केवल उन्हींके साथ, कोई और रास्ता नहीं है । 

 

२२ मई, १९७१

 

   अगर भगवान् हमारे लिये विजय चाहें, तो वह बहुत ही प्रबल हो सकती है । बहुत प्र - ब - ल विजयकी संभावना है, हवामें नहीं, यहां । सारी बात है यह जाननेकी कि उस विजयका समय आ गया है या नहीं ।

 

 ( लंबा मौन)

 

   मै कहती हूं , हर जगह... एक असाधारण विजयकी संभावना है । क्या उसका समय आ गया है? मुझे नहीं मालूम. । जहांतक मेरा प्रश्न है मै अपने-आपको ऐसा बना लेती हूं ( लघुताका संकेत), भौतिक रूपमें बहुत ही छोटा और मै छोड़ देती हूं... ( भगवानकि ओर खुली भुजाओंकी मुद्रा) ।

 

  हा. तो भागवत संकल्प नीचे आ रहा है, और फिर, ये सब रचनाएं हैं जो बे आ जाती है और उसके कार्यान्वयनमें देर लगाती हैं -- मैं चाहूंगा, मै चाहूंगी कि मेरा वातावरण.. स्वच्छ, एकदम स्वच्छ ट्रांसमीटर ( प्रेषक) हो । मैं यह भी नहीं जानना चाहती कि वह क्या है, क्योंकि वह भी साधारण मानवताको ले आता है... स्वच्छ, स्वच्छ प्रेषक. उसे इस तरह आने दो ( अवतरणकी मुद्रा), अपनी पूर्ण पवित्रतामें पवित्र -- चाहे वह विकट ही क्यों न हों ।

 

  वास्तवमें, हम नहीं जानते कि ' 'यह ऐसा क्यों है' ' और ' 'वह वैसा क्यों है,'' और हमारी दृष्टि... भले उसमें सारी धरती भी समा जाय, बहुत हंडी छोटी, छोटी - और ऐकांतिक है : हम यह चाहते हैं, हम वह नहीं चाहते.. । सबसे पहले, सबसे पहला काम है यंत्र तैयार करना... । हमें

 

 


'स्वच्छ' होना चाहिये, स्वच्छ जिसमेंसे चीजें बिना किसी विकारके, बिना किसी बाधाके निकल सकें ।

 

   वास्तवमें, मैं अपना समय इसीमें लगा रही हू : ऐसा होनेकी कोशिश कर रही हू ।

 

   लेकिन आप जिस विजयकी संभावनाका अनुभव कर रही है क्या वह हालकी चीज है?

 

हां

 

   यह हालकी है, क्योंकि बाहरी तौरपर स्पष्ट है कि परिस्थितियां ऐसी अच्छी नहीं है -- बाहरी तौरपर ।

 

ओह! जानते हों... सभी परिस्थितियोंने मानों एक विभीषिकाके लिये कर लिया था ।

 

  जी !

 

कुछ ही दिन पहले मानों विभीषिका सिरपर ही थी । और तब, उस समय, मेरी सारी सत्ता, मानों... (कैसे कहा जाय?) हां, वह, हम कह सकते हैं, सच्ची 'विजय' के लिये अभीप्सा थी : ऐसी विजय नहीं जिसे यह चाहता है या वह चाहता है... बल्कि सच्ची 'विजय' । ऐसा लगता है कि यही चीज सब कठिनाइयां ले आयी (ऐकांतिक संकल्प) । और तब अचानक मानों एक प्रकाश प्रकट हुआ : 'विजय' की संभावना । वह अब भी है... । यह चमत्कारिक नहीं है, दिव्य हस्तक्षेप है... 'परम प्रज्ञा' का हस्तक्षेप -- क्या वह ठोस रूप लेगा? देखें । वह आती हुई मालूम होती है । वह इस तरह आती हुई मालूम होती है -- संभावनाके रूपमें (खास ऊंचाईपर दोनों हथेलियां नीचेकी ओर) ।

 

  नहीं, यह हालकी चीज है, बिलकुल हालकी । मै नहीं कह सकती क्यों- कि यह अचानक नहीं आयी । लेकिन यह दिनोंका प्रश्न है ।

 

   जी हां, कुछ समयतक मैं बहुत निराशाका अनुभव करता रहा ।

 

 यह एक बुरी वृत्ति है ।

 

 मेरे अंदर पहले बह वृत्ति नहीं थी, फिर भी ऐसा लगता था' कि एक निराशाजनक वातावरण अंदर आ रहा है ।

 

जो कुछ भगवान्को नहीं चाहता वह जान-बूझकर ऐसा वातावरण तैयार करता है ताकि उन लोगोंका उत्साह भंग करे जो भगवान्को चाहते हैं । तुम्हें जरा भी... जरा भी ध्यान न देना चाहिये । यह शैतानका रास्ता रैन । निराशावाद शैतानका अस्त्र है और वह अपनी स्थितिको भांप लेता' है... (हिलानेका संकेत) । हां, तो मैं जिस संभावनाको देख रही हू, अगर वह सिद्ध हों जाय तो यह वास्तवमें विरोधी शक्तियोंपर एक निर्णायक विजय होगी - स्वभावतः, वह भरसक अपना बचाव करता है... । वह हमेशा शैतान होता है, जैसे ही तुम निराशावादकी पूछ देखो, समझ लो कि शैतान है । यह उसका महान् अस्त्र है ।

 

२३२

९ जून, १९७१

 

   विरोधी शक्तियोंकी रेलपेल है । पागल रेलपेल । लेकिन 'उत्तर' आने लगा है -- यह एक जरा-सा आरंभ है । हर एकके अंदर मानों एक तूफान था -- वह पूरी तरह गया नहीं है । वह सब, जिसके बारेमें यह माना जाता था कि इसे जीत लिया गया है और धकेल दिया गया है, वह बड़ी तेजीसे वापिस आता है - और सबसे अधिक अप्रत्याशित लोगों- मे -, और सब प्रकारके रूपोंमें और सबसे बढ़कर स्वभावमें, ओह! संदेह, विद्रोह और ऐसी सब चीजें...

 

 ( मौन)

 

   मुझसे समस्त भारतके लिये एक संदेश मांगा गया था । मैंने यह दिया है (माताजी शिष्यको कागज देती हैं) :

 

 परम प्रभो, 'शाश्वत सत्य'

 हम केवल 'तेरी' ही आज्ञाका पालन करें

 और तेरे 'सत्य' के अनुसार जियें ।

 


   'मिथ्यात्व' की भयंकर रेलपेल है । ऐसा लगता है मानो हर आदमी, हर जगह झूठ बोल रहा है, एकदम अप्रत्याशित ओग .मी -- हर जगह, हर जगह, हर जगह । और मेरे लिये यह जीवित वस्तु थी ( माताजी देखनेकी मुद्रा करती हैं) । ओह! भयंकर । तुम कल्पना नहीं कर सकते ... जरा दाईं ओरको मरोड़, जरा बाईं ओरको मरोड़, जरा-सा बरतन... कोई चीज, कोई भी चीज, कुछ भी सीधा नहीं है । तव शरीर अपने- आपसे पूछता हैं : ''तुम्हारा मिथ्यात्व कहां है? '' उसने अपने-आपको देखा और उसने पुरानी कहानी देखी. ''जब कमी कोई जरूरी बात हों, केवल तमी प्रभुको बूलाना चाहिये! ( माताजी हंसती हैं) तुम सारे समय प्रभु- के साथ रहनेकी आशा नहीं कर सकते! '' तब उसे एक अच्छी-सी थपकी मिली!.. वह आक्रमणशील न थी, उसमें विनयका भाव था -- उसे एक अच्छा -भ-पत लगा ।

 

   वह अप्रिय वस्तुओंका भयंकर क्रोधोन्माद था -- अप्रियसे बढ़कर; सचमुच, सचमुच दुष्ट, अशुभ और विनाशकारी । वह क्रोधोन्माद था जबतक कि समझ नहीं आ गयी । तहां सारे शरीरमें यह प्रतीति आयी, सभा कोषाणुओंमें, सब जगह, सारे समय -- बात यहांतक पहुंच गयी कि मै खाते समय निगलतक न सकती थी--, यह तबतक रहा जबतक हर चीज- मे, हर एक चीजमें यह समझ नहीं आ गयी. मेरा अस्तित्व केवल भगवानके द्वारा है, मै भगवानके द्वारा रहे बिना जी ही नहीं सकतीं. और मैं भगवान् हुए बिना स्व भी नहीं बन सकती । इसके बाद चीजें ठीक होने लगी । अब शरीरने समझ लिया खै ।

 

 (लंबा मौन)

 

 तुम्हें कुछ नहीं पूछना? कुछ नहीं कहना?

 

      मुझे लगता है कि नियति खराब है ।

 

नहीं, यह सच नहीं है । यह 'मिथ्यातब' का भाग है, यह वही ''मिथ्यात्व' है । कोई बुरी निर्यात नहीं है, यह एक झांसा इस ! यह वास्तविक 'मिथ्यात्व' है... । यह बिलकुल सच नहीं है, बिलकुल नहीं, बिलकुल नहीं ।

 

   तो लो, यह बात तुम्हें एक उदाहरण दिखाती है बस ए_सा ही है -- सब जगह ऐसा ही है (माताजी मानों चंगुलमें पकड़नेकी मुद्रा करती है) । मुझे तो ऐसा लगता है कि मैं ऐसे राक्षस देखती हू जौ डायनकी तरह

 

२३४


पंजे फैलाये सबको पकड़नेकी कोशिश करते है! ओह! तुम्हें देखना चाहिये और फिर हंसना चाहिये -- एक असभ्य बच्चेकी तरह जीभ दिखानी चाहिये ।

 

(लंबा मौन)

 

    बहरहाल, हमपर अच्छी तरह हमला हो रहा है !

 

ओह!... मै कहती हू, बड़ी भीड़ थी लेकिन कोई बात नहीं... तुम्हें ऊपर उठना चाहिये, और फिर... (ऊपर देखनेकी मुद्रा) ।

 

  मैंने तुमसे जो कहा 'सत्य' है, वही एकमात्र उपचार है ।

 

केवल भगवानके लिये ही जीना,

केवल भगवानदुरा  ही जीना,

केवल भगवान्की सेवाके लिये ही जीना,

केवल... भगवान् बनकर ही जीना ।

 

  तो यह रहा ।

 

  यहां ''तुम'' नहीं है, ''प्रतीक्षा करनी चाहिये'' नहीं है, ''वह अपने समय- पर आयेगा'' नहीं है... ये सब चीजें, जो बहुत तर्कबुद्धि संगत हैं, अब अस्तित्व नहीं रखती -- यह 'वह' है (माताजी मुट्ठी नीचे करती है) - एक तलवारकी धारकी तरह । बस 'यही' है । हर चीज और सभी चीजोंके बावजूद 'वही' : भगवान् - केवल भगवान् । समस्त दुर्भाव और विद्रोहका यह सब कड़ा... और वह सब (माताजी तर्जनी उठाकर सीधी रखती है) बुहारकर फेंक दिया जाना चाहिये । और जो यह कहता है कि वह मर जायगा या 'उस' के द्वारा मार दिया जायगा वह है अत्कार -- 'महाशय अहंकार' जो चाहते हैं कि उन्हें सच्ची सत्ता मान लिया जाय ।

 

  लेकिन शरीरने सीख लिया है कि अहंके बिना भी वह जो है वह है, वह जो कुछ है यह भगवानकि 'इच्छा' सें है अहंसे नहीं -- हम भागवत 'इच्छा' से हैं कारण जीते है, अहंके कारण नहीं । अहं साधन था - सदियोतक साधन रहा --, अब वह बेकार है, उसका समय बीत गया । अब... (माताजी मुट्ठी नीचे लाती है) चेतना भगवान् है, शक्ति, वह भगवान् है; क्रिया, वह भगवान् है; व्यक्तित्व, वह मी भगवान् है ।

 

   और शरीरने अच्छी तरह समझ लिया है, अनुभव कर लिया है; ''उपलब्ध'' कर लिया है, ''समझ'' लिया है कि अलग व्यक्ति होनेका भाव एकदम बेकार चैत, एकदम बेकार । उसके जीवनके लिये यह जरा भी

 

अनिवार्य नहीं है, यह बिलकुल व्यर्थ है । वह एक और ही शक्तिके द्वारा, एक और संकल्पदुरा जीता है, जो व्यक्तिगत नहीं है : वह है भागवत संकल्प । और उसे जो होना चाहिये, वह उसी दिन बनेगा जब वह अनुभव करेगा कि उसमें और भगवान्में कोई फर्क नहीं है । बस यही ।

 

   बाकी सब मिथ्यात्व है, -- मिथ्यात्व, मिथ्यात्व और मिथ्यात्व, जिसे गायब हो जाना चाहिये । केवल एक ही सद्वस्तु है, केवल एक ही जीवन है, केवल एक ही चेतना है (माताजी मुट्ठी नीचे लाती हैं) : वह है भगवान् ।

 

 

२३५

१७ जुलाई, १९७१

 

  मैंने समझ लिया है कि अगर परम चेतनामें एक क्षणके लिये मी वह चेतना हो जो मनुष्योंमें है तो जगत् स्कूल हों जायगा... । हमारी सहज प्रतिक्रिया, वस्तुओंके बारेमें हमारी सहज प्रतिक्रिया यह होती है कि हमें जो बुरा लगता है, जो मिथ्या है उसे नष्ट कर दिया जाय । सहज प्रति- क्रिया है रूपांतरित करना नहीं : नष्ट करना - समझते हो, दोनोंके बीच बहुत बड़ी खाई है ।

 

   जी !

 

यह बिलकुल सहज है, खतम कर देनेका -- मिथ्यात्वको खतम कर देनेका भाव बिलकुल सहज है । लेकिन अगर परम प्रभुके अंदर क्षणभरके लिये भी इस प्रकारकी गति हो तो कही दुनियाका पता न चलेगा!... और मेरा रथ्या है कि यह बात शरीर समझ गया है । मेरा ख्याल है कि वह समझ गया है - यह असाधारण था... । हम क्या हैं! मनुष्य क्या हैं! वे मानते है, हे, भगवान् (माताजी जोरसे सांस लेती है), वे मानते हैं... ओह!... अगर उनमें जरा भी समझ होती या अगर वे पूर्णताके लिये जरा भी प्रयास करते, ओह! (वही संकेत) वे मानते है, वे मानते हैं कि वे असाधारण है! (माताजी दोनों हाथोंमें सिर पकड़कर हंसती हैं) ।

 

  श्रीअरविंदने कहींपर कहा है कि जब तुम भागवत चेतनाके संपर्कमें होते

 


हो तो तुम्हें अचानक यह पता लगता है कि... यह संसार अपनी मूर्खतामें किस हदतक हास्यास्पद है । मनुष्योंकी मूर्खता... । लेकिन पशुओंमेंमेरा पशुओंके साथ संपर्क रहा है - पशुओंमें भी यह चीज शुरू हो गयी है । मिथ्याभिमान, मिथ्याभिमान, मिथ्याभिमान, मिथ्याभिमान...

 

 ( मौन)

 

   जानते हों, धोखेबाजी और धोखेबाजीके प्रयासको सब जगह सद्भावना माना जाता है । और जो धोखा नहीं देना चाहते, परंतु अपने-आपको ही धोखा देते है, वे अपवादस्वरूप सत्ताएं हैं ।

 

  ये खोजों नहीं हैं, ऐसी चीजें हैं जिन्हें मैंने देखा है; लेकिन वे कभीकदास, अपवादिक रूपमें इसके लिये या उसके लिये दिखायी देती हैं -- लेकिन मुझे सारे संसारका, समस्त पृथ्वीका, सारी मानवजातिके प्रयासका, सभी मनुष्योंका, सब चीजोंका अंतर्दर्शन प्राप्त था... । हम एक धोखेमें रहते है... यह भयानक है!... और फिर आदमी जितना औरोंको धोखा देना चाहता है, उससे बढ़कर अपने-आपको धोखा देता है।

 

 (मौन)

 

 कहनेका मतलब यह? कि हम किसी चीजको भी वह जैसी है वैसी नहीं देख पाते ।

 

 (लंबा मौन)

 

  केवल एक सुरक्षा है : भगवान्से चिपटे रहो, इस तरह (दोनों मुट्ठियां बांधनेका संकेत) ।

 

  चिपके रहना, लेकिन उससे नहीं जिसे तुम भगवान् सोचते हो, उससे मी नहीं जिसे तुम भगवान् अनुभव करते हो... यथासंभव अधिक-सें-अधिक सच्ची, निष्कपट अभीप्सा । और उससे चिपके रहो ।

 

 (मौन)

 

   जानते हो, एक बात मैं तुम्हें पहले ही बता चुकी हू, शरीर - शरीर- की चेतना -- पहलेसे ही जान लेता है कि क्या होनेवाला है । वह पहलेसे

 

जानता है कि लोग उससे क्या कहनेवाले है । लेकिन वह यह नहीं जानता ... (कैसे कहा जाय?) वह ठीक उस रूपमें नहीं जानता जिसमें भौतिक रूपमें चीज होनेवाली है । वह... सदा... यह जानती है कि चीज किस भावसे की जाती है... । यह बड़ी अजीब बात है । मै विना हीले-डुले, केवल भगवानकि होकर रहनेकी कोशिशमें लगी हू और चीजें होती जाती है - वे इस प्रकार होती है (ऐसा संकेत मानों सामनेके परदेपर) : चीजें, पदार्थ, घटनाएं आती हैं, लोग बोलते है । शुरूमें मैं मानती थी कि यह मेरी भौतिक चेतना ही थी जो अपने-आपको चुप न रख सकती थी । फिर मैंने जाना कि यह बाहरसे आकर भौतिक स्तरपर भौतिक रूप ले रही है । अब अगर मैं इन चीजोंको मानसिक भाव दु तो मै भविष्यमें होनेवाली चीजोंको देख सकूंगी, कह सकेगी कि क्या होनेवाला है... ! केवल, साधारण मनुष्यमें; मन इन बातोंका उपयोग भविष्यवाणियां करनेके लिये करता है -- लेकिन, सौभाग्यवश, मन है ही नहीं, वह शांत है, वह अनुपस्थित है । सिर्फ जब मुझे बातें बतलायी जाती हैं या मेरे आगे कही जाती हैं, तो इस शरीरको कोई आश्चर्य नहीं होता, ऐसा लगता है कि वह जानता है । अजीब बात है. । एक प्रकारका सर्बीकरण !

 

२३७

२१ जुलाई, १९७१

 

 शरीर अधिकाधिक सचेतन होना शुरू कर रहा है., त्वेकिन एक मजेदार तरीकेसे सचेतन ।

 

     उदाहरणके लिये?

 

 इसके लिये मानसिक रूप देना होगा, मैं नहीं दे सकती ।

 

 (मौन)

 

   मैं यह जानना शुरू कर रही हूं कि क्या होनेवाला है, लोग मुझे क्या कहनेवाले हैं, इसी तरह और सब... कैसे समझाया जाय?.. यह तो ऐसा है मानों परिस्थितियां, लोग और: शब्द बन गयी हू...

 


   शरीर अधिकाधिक सचेतन है, पर मानसिक ढंगसे नहीं, हरगिज नहीं -- बल्कि... जैसे चीजें जीती है । पता नहीं कैसे समझाया जाय । कहना कठिन है... । उसे अनुभव करना होता है (लेकिन, वास्तवमें, मुझे नहीं मालूम इसे कैसे समझाऊं), अभिव्यक्तिमें मानव चेतना भागवत क्रियाको किस तरह विकृत कर देती है (सीधे प्रवाहका संकेत)... । गठन ही दरिद्री है । हम छोटा वार देते है, विकृत करते है, हर चीजका महत्व घटा देते है । हर चीजका -- हम चीजोंको जानते हैं, - दिव्य शान मौजूद है, हमारे: चारों ओर है, हमारे अंदर है -- लेकिन हमने अपने- आपको इतना जटिल बना लिया है कि हम उसे विकृत कर डालते है । हर एक ऐसा ही 'है... । अतः, भगवाने अंदरसे हमारे अंतरमें जो कुछ संगठित किया है उस सबका बहुत यथार्थ संवेदन होता है, पर उसके ऊपरी तलपर आते-आते वह विकृत हो जाता है । इस तरह कहनेसे यह बात निरर्थक-सी लगती है, पर जो कहना चाहिये उसके निकट यही है । एक ... इतनी सरल और इतनी अद्भुत बातको कहनेका हमारा मूर्खतापूर्ण तरीका है यह...! हम इतने भ्रष्ट हों गायें है कि हमेशा उसी चीजको चुनते हैं जो विकृत रुले ।

 

   पता नहीं, स्वयं मेरे शब्द ही चीजोंको विकृत न करते हों, मगर वह ... वह चीज इतनी सरल, इतनी प्रकाशमय, इतनी शुद्ध - इतनी निरपेक्ष है । और फिर, हम उसका वह हाल कर देते हैं जो हमें दिखायी देता है : एक पेचीदा, लगभग समझमें न आनेवाला जीवन बना देते है ।

 

 ( मौन)

 

   अव देखो, मै हू, इतनी सारी परिस्थितियां हैं, जटिलताएं हैं, लोग हैं ... सब कुछ, सब, इतनी उलझन है; और मानों सबके पीछे... केवल एक 'शक्ति' नहीं, चिच्छक्ति चैत -- वह एक 'चेतना' है -- वह... वह मुस्कान जैसी है -- एक मुस्कान... ऐसी मुस्कान जो सब कुछ जानती है । हां, यह वही है । और जब मै चुप रहती हू (खुले हाथोंका संकेत), तो ओ'सा लगता है मानों और कुछ भी नहीं है, सब कुछ अद्भुत है । और जैसे वही लोग मेरे साथ बातें करने लगते है या जैसे ही मैं किसीसे मिलती हू कि वस, सब उलझनें आ जाती हैं - और वे हर चीजका गुड़-गोबर कर देती है ।

 

   मुझे विश्वास हैं कि वह इस जीवनसे उस 'जीवन' का रास्ता है... । जब आदमी पूरी तरह उस ओर वला जायगा तो इन्हें।! समस्त ऊहापोह
 

बंद हो जायगी, 'समझाने' की इच्छा बंद हो जायेगी । निगमन, परिणाम निकालना, व्यवस्थित करना - सबका अंत आ जायगा... । अगर हो सकें तो... । 'होओ -- होओ, केवल होओ, होओ किंतु हमारे लिये ... (मैंने यह देखा है) अगर हम नहीं बोलते, अगर हम नहीं सोचते, अगर हम निर्णय नहीं करते तो हमें लगता है कि हम जीवनके बाहर हैं ... और फिर हमेशा वही नीरवता नहीं होती । यह अनुच्चारित शब्द- का मौन नहीं, यह वह नहीं है. मनन-चितनका मौन है.. । यह क्रियाशील है । क्रियाशील मनन-चितनका मौन । यह वही हैं ।

 

   निश्चय ही जीवनका नया तौर-तरीका तैयार हों रहा है । इसलिये दूसरेको उसे स्थान देना पड़ेगा ।

 

   हम कह सकते है : कुछ नहीं जानता -- कहीं भी, कोई भी नहीं जानता -- लेकिन ऐसे लोग हैं जो अभीप्सा करते हैं (कैसे कहा जाय?), जिनमें संकल्प है, कर्षण है, अभीप्सा है, उन्हें जाननेकी आवश्यकता है - वे जानना और होना चाहते हैं, - और फिर ऐसे लोग हैं जो इन चीजोंकी परवाह नहीं करते... जो बस जीते हैं, अपने छोटे या बड़े जीवनको - वह चाहे किसी राज्यके प्रमुखका जीवन हों या किसी भंगीका, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता -- निमाये जाते हैं । वह एक हीं चीज है, एक हीं स्पंदन है ।

२३९

२८ अगस्त, १९७१

 

 तो, कोई नयी बात?

 

      जी, कुछ नहीं, या हमेशा बह-की-वही ।

 

 वह क्या?

 

      मैं प्रतीक्षामें हूं ।

 

 ओहो! तुम प्रतीक्षामें हों - मैं भी (हंसी) ।

 

 ( मौन)

 


   ऐसा लगा मानों संसारके देखनेके सभी तरीके, एकके बाद एक : अत्यंत घृणित और अत्यंत अद्भुत तरीके - इस तरहसे, इस तरहसे, इस तरहसे ... (माताजी हाथको केलेडेस्कोप या बहुमूर्तिदर्शीकी तरह घुमाती हैं), और मानों सब-के-सब यह कहनेके लिये आये : यह लो, इस तरह देखा जा सकता है, इस तरह देखा जा सकता है, इस तरह... और 'सत्य'... 'सत्य' -- क्या है? 'सत्य' क्या है?... ये सब (फिर बहुमूर्तिदर्शीकी मुद्रा) और ''कुछ'' और जिसे मनुष्य नहीं जानता ।

 

   सबसे पहले, मुझे विश्वास है कि चीजोंको देखनेकी यह आवश्यकता, उनके बारेमें सोचनेकी आवश्यकता शुद्ध रूपसे मानवीय है और संक्रमणके साधन हैं । यह एक संक्रमणकाल है जो हमें भले लंबा, लंबा लगता है, परंतु वास्तवमें बहुत छोटा है ।

 

   हमारी चेतना मी 'चेतना' का -- एकमात्र 'चेतना', सत्य चेतनाका अनुकूलन है, वह और ही चीज है ।

 

   तो मेरे शरीरके लिये परिणाम यही है... (मैं जहांतक उसे शब्दोंमें रख सकती हू) : भगवान्से चिपके रहना । समझनेकी कोशिश न करना, जाननेकी कोशिश न करना -- सिर्फ होनेकी कोशिश करना... और चिपके रहना । और मै इसी तरह अपना समय बिताती हू ।

 

   ''प्रयास'' नहीं : इस तरह एक मिनट (जरा पीछे हटनेका संकेत), इस तरह काफी है, समयका कोई अर्थ ही नहीं रहता । बड़ी अजीब बात है, मैं जीवनकी सभी छोटी-मोटी गतियोंको साथ परीक्षण करती हू । हां, तो जब मै इस तरह चिपक जाती हू, जब मैं सोचना बंद कर देती हू, चेतना यूं होती है ( अंदर जानेका संकेत), तो सभी तत्काल प्रतीत होता है । समय नहीं होता । जव मै बाह्य चेतनामें होती हू (मै जिसे बाह्य कहती हू वह वह चेतना है जो सृष्टिको देखती है), उसमें जितना ध्यान दिया जाता है उसके अनुसार कम या अधिक समय लगता है । तब सब कुछ, सब कुछ प्रकट होता है... कोई भी चीज (कैसे कहा जाय?) सद्वस्तुके अर्थमें निरपेक्ष प्रतीत नहीं होती -- सद्वस्तु, जिसमें ठोस वास्तविकता हो --, शरीरकी अप्रिय चीजोंको छोड्कर कोई चीज ऐसी नहीं लगती; तब यह पता लगता है कि यह एक अपूर्णता है । अपूर्णता ही इसे इंद्रियोंके लिये गोचर बनाती है, अन्यथा यह ऐसा है (वही, अंदर जानेकी, भगवान्से चिपके रहनेकी मुद्रा) । और ''इस तरह'' आश्चर्यजनक 'शक्ति' होती है, यानी... उदाहरणके लिये, लोगोंके लिये एक बीमारी गायब हो जाती है (और वास्तव- मे, बाहरी रूपमें मेरे कुछ भी किये बिना, मेरे उससे कुछ बोले बिना, मैंने कुछ नहीं, कुछ भी नहीं किया - बीमारी ठीक हो गयी), एक दूसरे

 

२४१


उदाहरणमें जहां व्यक्ति जाना चाहता है... यह अंत है । वह दूसरी ओरको झुका हुआ है और इस तरह एक ही साथ बहुत परिचित और... एकदम अपरिचित होता है ।

 

   मुझे याद है जब एक बार पिछले जन्मोंकी स्मृति, रातकी क्रियाओंकी स्मृति इतनी ठोस थी कि यह तथाकथित अदृश्य जगत् इतना ठोस था - अब... अब यह सब स्वप्नवत् है - सब कुछ - सब कुछ सद्स्तुको ढकनेवाले स्वप्नकी तरह है... सद्वस्तु... इंद्रियोंके लिये अज्ञात फिर भी गोचर । ऐसा लगता है कि मैं अनर्गल बोल रही हू ।

 

   जी नहीं, जी नहीं ।

 

क्योंकि इस चीजको व्यक्त नहीं किया जा सकता ।

 

  उस दिन तुमने मुझसे पूछा था ( प्रश्न अभीतक लटक रहा है), तुमने पूछा था : जब मैं इस तरह चुपचाप और स्थिर होती द्रूं तो उस समय क्या चीज होती है?... यह केवल एक प्रयास है ( मै यह नहीं कह सकतीं कि यह अभीप्सा है, यह मी नहीं कह सकती कि यह प्रयास  -- यह वह चीज है जिसे अंगरेजीमें ' 'अर्ज' ' ( ललक) कहते हैं), सत्य जैसा कि वह है उसे न तो जाननेकी कोशिश करना, न समझनेकी कोशिश करना, यह सब विषयांतर है : होना -- होना -- होना. और तब... ( माताजीकी मधुरतापूर्ण मुस्कान) ।

 

( मौन)

 

   तो यह एकदम अजीब बात है : एक ही समय - एक ही समय --, एक-दूसरेके अंदर नहीं, एक-दूसरेके सान नहीं, बल्कि एक, और दूसरा, एक ही समय ( माताजी अपने दाहिने हाथकी उंगलियां बाएंकी उंगलियोंमें पिरोती हैं) : अद्भुत और भयंकर. । जीवन जैसा है, जैसा हम अपनी साधारण चेतनामें अनुभव करते हैं, जैसा वह लोगोंके लिये है, वह कुछ ऐसी चीज प्रतीत होता है.. ऐसी भयानक चीज कि तुम पूछोगे कि कोई उसमें एक मिनटके लिये मी कैसे जी सन्हता हुए; और दूसरा, साथ-ही- साथ. अद्भुत । 'प्रकाश' की, 'चेतना' की, 'शक्ति' की अद्भुत चीज -- साथ-ही-साथ, अद्भुत । ओह! ' शक्ति'! 'शक्ति'.. और यह किसी व्यक्तिकी शक्ति नहीं है ( माताजी अपने हाथकी त्वचाको पकड़ती है), यह कुछ ऐसी चीज... कुछ ऐसी चीज है जो सब कुछ है... । और उसे अभि- व्यक्त नहीं किया जा सकता ।

 

   तो बिलकुल स्वभावतः, सबसे ज्यादा मजेदार बात है 'उस' को पाना । बिलकुल स्वभावतः, जब मेरे पास करनेको कुछ नहीं होता.. (भीतर प्रवेश करके प्रभुसे चिपके रहनेकी मुद्रा) ।

 

(लंबा मौन)

 

   केवल 'तू' -

 

   और यह बिलकुल स्पष्ट है कि सृष्टिका 'वही' लक्ष्य है, वह अद्भुत आनंद... 'तुझे' अनुभव करनेका आनंद ।

 

 (माताजी मुस्कानके साय. खतम करती हैं)

 

२४२

१ सितंबर, १९७१

 

 जहांतक शरीरका सवाल है उसे सिखाया जा रहा है केवल भगवानके द्वारा जीवित रहना, भगवान्पर जीवित रहना, हर चीजके लिये -- हर चीज, हर चीज, बिना अपवादके हर एक चीज । केवल तभी जब चेतना यथासंभव अधिक-सें-अधिक दिठय चेतनाके साथ जूड़ी हो तभी अस्तित्वका भाव आता है । अब उसमें एक असाधारण तीव्रता है । जब भौतिक परिवर्तित हो जायगा तो वह एक ठोस चीज होगी । समझे? जो हिलतीडुलती नहीं, और पूर्ण है । और इतनी ठोस.. । भगवान्में होने, केवल उन्हींकी द्वारा और उन्हींमें ज़ीने और फिर (स्वमावत:, सामान्य नहीं, मानव चेतनामें जीना) -- इन दोनोंमें इतना फर्क है कि एक दूसरीके आगे मृत्यु लगती है, यहांतक कि.. कहनेका मतलब, भौतिक सिद्धि ही सचमुच ठोस सिद्धि है ।

 

   ऊर्जाका संकेंद्रण शुरू हो गया हैं- ओह! अभीतक वह नहीं है, अभी उससे बहुत दूर है_, लेकिन. - जो होनेवाला है उसके बोधका आरंभ है । वह, हां. वह सचमुच अद्भुत है! वह शक्तिसे इतना भरा है! चेतना- मे शक्ति और वास्तविकतासे इतना भरा हुआ कि और कोई, कोई चीज इतना धारणा नहीं कर सकती -- इसके आगे प्राण, मन, सब कुछ अस्पष्ट और अनिश्चित प्रतीत होते है । वह ठोस है (माताजी अपने हाथ सख़्तीसे पकड़ती हैं) । और यह इतना मजबूत है!

 


   अब भी समस्याएं हैं जिन्हें सुलझाना है, लेकिन शब्दों और विचारोंसे नहीं । और चीजें ठीक यही दिखानेके लिये आ रही है -- केवल व्यक्ति- गत चीजें नहीं, चारों ओरकी चीजें : लोग, परिस्थितियां और सब कुछ, शरीरको सिखानेके, सत्य चेतना प्राप्त करना सिखानेके लिये आ रहीं है । वह, वह... अद्भुत है ।

 

    (माताजी अपने अंदर चली जाती हैं)

 

  ऐसा मालूम होता है कि ऐसा भौतिक शरीर वनानेकी समस्या है जो उस 'शक्ति' को धारण कर सके जो अपने-आपको अभिव्यक्त करना चाहती है -- सभी साधारण शारीरिक चेतनाएं उस विशाल 'शक्ति' को धारण करनेके लिये बहुत पतली और कमजोर है जिसे अपने-आपको प्रकट करना चाहिये । इसलिये शरीर अपने-आपको प्रशिक्षित करनेकी प्रक्रियामें है । और वह... जानते हो, मानों उसने अचानक एक अद्भुत, एक अद्भुत क्षितिज देखा है, विस्मयकारी रूपसे अद्भुत; और फिर, उसे अपनी धारणाशक्तिके अनुसार आगे बढ़नेके लिये छोड़ दिया गया है । अनुकूलनकी पद्धति- की जरूरत है । संक्रमण. पूर्ण संक्रमण ।

 

   क्या वह पर्याप्त रूपसे नमनीय होगा? पता नहीं ।

 

  यह नमनीयताका प्रश्न है । जो 'शक्ति' अपने-आपको अभिव्यक्त करना चाहती है (ऊपरसे माताजीके द्वारा गुजरते हुए प्रवाहका संकेत), उसे बिना बाधा दिये धारण करना और संचारित करना ।

 

  रूप-रंग केवल भावी निष्कर्ष है । अत.... रूप-रंग बदलनेके लिये आखिरी चीजें होंगी।

 

 (माताजी ध्यानमें चली जाती हैं)

 

  यह अनिश्चित कालतक चल सकता है... । कोई चीज छुए जाने को है ऐसी प्रतीति और.. (निकल भागनेकी मुद्रा) ।

 

  तुम्हें क्या लगा?

 

''ने मुझे एक बार यह समझाया कि मै जब आपके पास होता हू तो क्या अनुभव करता हू... । उसने कहा : ''जब कोई आपके पास होता है तो ऐसा लगता है मानों शरीरसे प्रर्थना करवायी जा रहो है ।', जी, तो बात यही है । मुझे ऐसा लगता है कि

 

२४४


   कोई शक्ति शरीरके सभी भागोंको लेकर... पता नहीं, उन्हें अभीप्सासे लबालब भर देती है ।

 

 हां, लेकिन यही तो मेरा शरीर अनुभव करता है ।

 

जी हां, वह शरीरसे प्रार्थना करवाती है, शरीरको एक ऐसी 'शक्ति' से भर देती है जो... पता नहीं, जो चमकते हुए सोनेके जैसी है और हर चीजको ऊपर उठा देती है ।

 

 हां, ऐसा हर समय रहता है ।

 

 ( मौन)

 

  मुझे लगता है... कि वह (अपने शरीरपर आड़ा-तिरछा संकेत) सारे समय इस तरह प्रवाहित होती है ।

 

    शायद यह वह है, भौतिक द्रव्यमें भागवत प्रेम?

 

 (माताजी खूब हंसती हैं)

 

यह एक साथ ऐसा चमकदार और तीव्र होता है -- चमकदार और इतना सशक्त... । वह इतना सशक्त होता है कि हम मुश्किलसे ही उसे ''प्रेम'' का नाम दे सकते हैं, क्योंकि हम प्रेम शब्दसे जो कुछ समझते हैं यह उसके साथ कहीं भी मेल नहीं खाता।

 

हा, मै मी नहीं!... मैं ऐसी हू (माथेकी और इशारा) : कुछ नहीं, कुछ नहीं, कुछ भी नहीं, खाली, खाली, खाली... । वह (ऊपरकी ओर और विस्तारमें इशारा), वह रहा... हां, यह एक सुनहरा बृहत् है ।

 

  जी

 ( मौन)

 

   मुझे एक अजीब-सी प्रतीति होती है कि यह एक प्रकारके... मानो परतें या पेडोंकी छाल, कछुएके खप़डे पिघल रहे हैं और स्वयं शरीर ऐसा नहीं है (माताजी ऐसा संकेत करती हैं मानों शरीर सूर्यकी ओर उफन रहा हो) । जो चीज मनुष्यको द्रव्य मालूम होती है वह... मानों वह कोई पथरायी हुई चीज है और उसे झड़ जाना चाहिये, क्योंकि वह ग्रहण नहीं करती । और इस शरीरमें, यहां (माताजी अपने हाथकी त्वचाको छूती हैं), यह कोशिश करता है... कोशिश करता है... (फिरसे खुलनेकी मुद्रा) । ओह! यह अजीब है, यह अजीब संवेदन है ।

 

     अगर इसे काफी समयतक बनाये रखा जा सकें जिससे चीज पिघल जाय, तो यह सच्चा आरंभ होगा ।

 

 

२४५

२९ सितंबर, १९७१

 

 विजय-दशमी

 

  आज वह स्पष्ट, बहुत स्पष्ट था, एक जोरका 'दबाव' था यह कहनेके लिये : 'विजय' सामंजस्य है; 'विजय' भगवान् है; और शरीरके लिये 'विजय' अच्छा स्वास्थ्य है । हर एक, हर एक बीमारी, सभी रोग मिथ्यात्व हैं । वह अनुभूति आज सवेरे आयी । वह बहुत स्पष्ट थी । वह विश्वासोत्पादक थी । तो यह ठीक है ।

 

  बात ऐसी है मानों 'दबाव' के कारण सारा 'मिथ्यात्व' निकल आया हैं । परिस्थितियोंमें, चीजोंमें और लोगोंमें -- एकदम अप्रत्याशित चीजें आ रही हैं । यह सचमुच... कोई कल्पना इसकी बराबरी नहीं कर सकती । यह अविश्वसनीय है ।

 

   लेकिन यह एक अच्छी निशानी है, ?

 

हां, हां, जरूर... । यह तो ऐसा है मानों अंदर जहर था, है न? जा दबानेसे बाहर निकल आया है और अब जानेको है -- वह बाहर नीकल रहा है!...

 

   बादमें, इसके बारेमें बात की जा सकेगी । यह सचमुच मजेदार

 

है, सचमुच । हां, यह एक अच्छा चिह्न है, यह बहुत अच्छा चिह्न है ।

 

   जी, इसका मतलब यह हुआ कि वे सब शक्तियां जो हज़ारों बर्षोंसे नीचे छिपी...

 

हां

 

   ... वे अपना सहारा खो बैठी है

 

हां, ऐसी ही बात है । ऐसी ही ।

 

   देखेंगे । अभी इस विषयमें बात नहीं की जा सकती । बादमें । अविश्वसनीय, वत्स!

 

   लेकिन एक 'शक्ति'! 'शक्ति'! ओह! (माताजी आंखें बंद कर लेती और मुस्कराती हैं) ।

 

१६ अफतूबर , १९७१

 

    भौतिक पीडापर कैसे अधिकार किया जाय?

 

 मैं अभी ठीक यही अनुभूतियां प्राप्त कर रही हूं।

 

  शरीर ऐसी अवस्थामें है जिसमें वह देखता है कि सब कुछ केवल इस- पर निर्भर है कि वह भगवानके साथ किस तरह जुड़ा हुआ है - यानी, ग्रहणशील समर्पणपर निर्भर है । अभी पिछले दिनों भी यह अनुभव हुआ है । ठीक वही चीज जो -- असुविधासे बढ़कर - एक पीड़ा और प्रायः असह्य रोगका कारण होती है, वही भगवान्से प्रति शरीरकी ग्रहणशीलतामें जरा-सा परिवर्तन होते ही एकदम गायब हो जाती है -- इतना ही नहीं, आनंदमय अवस्थाकी ओर जा सकती है । मुझे इसका अनुभव कई बार हुआ है । मेरे लिये यह केवल उस सचाईका प्रश्न है जो तीव्र होने लगी है -- चेतनामें यह बात कि हर चीज भगवान्की क्रिया है और उनकी क्रिया, परिस्थितियां मिले तो, अधिक-सें-अधिक संभव तेज उपलब्धिके ओर जाती है ।

 


    मैं कह सकती हू. शरीरके कोषाणुओंको केवल भगवान्में ही आश्रय ढूंढना सीखना चाहिये -- उस क्षणतक जबतक वे यह अनुभव न कर सकें कि वे भगवान्की हीं अभिव्यक्ति है ।

 

   वास्तवमें, यही वर्तमानकी अनुभूति है । वस्तुओंके प्रभावको बदलनेकी अनुभूति मुझे है; लेकिन उसे मानसिक रूप नहीं दिया गया है, अतः मै उसे शब्दोंमें नहीं कह सकती । लेकिन सचमुच कोषाणुओंने अनुभव करना शुरू कर दिया है. सबसे पहले यह कि वे पूरी तरह भगवान्से शासित है (इसका अनुवाद होता -- है : जो तू चाहे, जो तू चाहे..), यह स्थिति, और फिर एक प्रकारकी ग्रहणशीलता जो (कैसे कहा जाय?) निष्क्रिय -- निश्चल नहीं -- है । यह... संभवत., हम कह सकते हैं, एक निष्क्रिय ग्रहण- शीलता है (माताजी मुस्कानके साथ अपने हाथ खोलती हैं), लेकिन पता नहीं कैसे समझाया जाय ।

 

   सभी शब्द मिथ्या हैं, लेकिन हम कह सकते है - केवल 'तू' ही है -- हां, कोषाणुओंको लगता है : केवल 'तू' ही है । हां, ऐसा ही है । लेकिन यह सब ऐसा है मानों चीज कठोर बन गयी - शब्द अनुभूतिको कठोर बना देते हैं । एक प्रकारकी नमनीयता या लचीलापन है (विश्वासपूर्ण, बहुत विश्वासपूर्ण लचीलापन) जो 'तेरी' इच्छा, जो 'तेरी' इच्छा..

 

 ( मौन)

 

   यह अमुक प्रकारकी वृत्तिमें (लेकिन इसे समझाना या इसकी व्याख्या करना कठिन है), अमुक प्रकारकी वृत्तिमें सब कुछ भगवान् बन जाता है । और तब विस्मयकारी बात तो यह है कि जब तुम्हें हर चीजके दिव्य होने- की अनुभूति हों तो सभी विपरीत चीजें (यह चीजोंपर निर्भर है). तेजीसे या धीरे-धीरे, तुरंत या जरा-जरा करके, बिलकुल स्वाभाविक रूपमें गायब हो जाती है ।

 

  यह वास्तवमें अद्भुत है । यानी, इस बातसे सचेतन होना कि सब कुछ भगवान् है, सब कुछको भगवान् बना देनेका सबसे अच्छा तरीका है - यह समस्त विरोधोंको समाप्त कर देता है ।


२४९

३० अक्तूबर, १९७१

 

   मुझे ऐसा लगता है कि मुझे जगत् के 'क्यों'का पता है ।

 

  प्रश्न था चेतनाकी ऐसी स्थिति प्राप्त करनेका जिसमें एक साथ व्यक्ति- गत चेतना -- व्यक्तिगत चेतना जो स्वभावत: हमें प्राप्त है -- तथा समग्रकी चेतना, चेतना (कैसे कहा जाय?). -. जिसे हम सार्वभौम चेतना कह सकते हैं, दोनों एक साथ हों । लेकिन दोनों चेतनाएं किसी चीजमें जा मिलती है... हमें उसे खोजना है ।

 

  एक ऐसी चेतना जो एक हीं समयमें व्यक्तिगत और समग्र हो । और यह समस्त श्रम दोनों चेतनाओंको एक चेतनामें मिलानेके लिये है जो एक ही साथ दोनों हों । और यही अगली सिद्धि है ।

 

 ( मौन)

 

   हमें ऐसा लगता है कि इसमें समय लगता है (हमारे लिये यह समय- मे अनूदित होता है), मानों, यह किया जा रहा है, मानों, ''कुछ किया जा रहा है'' मानों, ''कुछ करनेके लिये है ।'' परंतु हम इस भ्रममें हैं, क्योंकि हम अभीतक.. अभीतक उस पार नहीं गये हैं ।

 

   लेकिन वैयक्तिक चेतना मिथ्यात्व बिलकुल नहीं है, उसे समग्रकी चेतना- के साथ इस तरह जुतना चाहिये कि उससे एक और चेतना बन जाय जो हमें प्राप्त नहीं है, जो अभीतक हमारे पास नहीं है । यह नहीं कि यह दूसरी चेतनाको रद्द कर दें, समझे? उनमें एक समायोजन होना चाहिये, एक नया पक्ष होना चाहिये, पता नहीं.. जिसमें दोनों एक साथ अभिव्यक्त हों ।

 

  उदाहरणके लिये, इस समय सृष्टिकी उस शक्तिके बारेमें एक अनुभवों- की पूरी शृंखला है जो व्यक्तिगत चेतनामें छिपी रहती बैठ, यानी, यह है चीजोंको जाननेकी. शक्ति -- जाननेकी या जिसे हम संकल्प करनेकी शक्ति कहते है -- यह उनके रूप लेनेसे पहले व्यक्तिगत चेतनामें रहती है । हम कहते हैं ''हम यह चाहते है'', पर यह एक मध्यवर्ती चेतना है । यह ऐसी चेतना है जो एक ऐसी चीजकी ओर जाती है जो एक साथ, जो होना चाहिये उसका अंतर्दर्शन, और उसे चरितार्थ करनेकी शक्ति है ।

यह अगला कदम है । फिर...

 

तो हमारे लिये, यानी, व्यक्तिगत चेतनाके लिये वह चीज समयमें अनूदित होती है, पता नहीं कैसे कहा जाय... के लिये आवश्यक समय... ।

 

  मुझे ऐसा लगता है : तुम यह नहीं हो, तुम अभी वह भी नहीं हों, तुम्हें वह बननेके लिये इसे न छोड़ना चाहिये -- दोनोंको एक होकर कुछ नयी चीज बनना चाहिये ।

 

  और इससे सब कुछ स्पष्ट हो जाता है -- सब कुछ, सब कुछ, सब कुछ । और इससे कोई चीज रद्द नहीं होती ।

 

  हम जिस किसी चीजकी कल्पना कर सकते हैं उससे यह सैकड़ों गुना अधिक अद्भुत है ।

 

  प्रश्न यह है कि क्या (शरीर) अनुसरण कर सकेगा... । अनुसरण करनेके लिये उसे केवल सहन करना ही नहीं, बल्कि एक नया रूप, एक नया जीवन प्राप्त करना होगा । वह, मुझे नहीं मालूम । बहरहाल, इसका बहुत महत्व नहीं है -- चेतना स्वच्छ है और चेतना इसके (शरीरकी ओर इशारा) अधीन नहीं है । अगर इसका उपयोग किया जा सके तो बहुत अच्छा, अन्यथा... । अभी जानने लायक और भी चीजें है ।

 

  हां, खोजनेके लिये और मी चीजें हैं । पुराना ढर्रा खतम हों गया, खतम ।

 

  जिस चीजकी खोज करनी है वह जड़ पदार्थकी नमनीयता है - कि पदार्थ हमेशा प्रगति कर सके । तो यह रहा ।

 

  इसमें कितना समय लगेगा? मुझे पता नहीं । कितने अनुभवोंकी जरूरत है? मुझे पता नहीं, पर अब रास्ता साफ है ।

 

रास्ता साफ है ।

१७ नवंबर, १९७१

 

 बड़ी अजीब बात है, चीजोंकी सारी दृष्टि बदल गयी है... । और मूली जा चुकी है।

 

 इतनी पूरी तरह बदल चुकी है...

 

   लेकिन दृष्टिके इस परिवर्तनमें किस चीजका फर्क है?
 


(काफी देरतक मुस्कराते हुए मौन) यह ऐसा है मानों वस्तुओंके बारेमें चेतना अब उसी स्थानपर नहीं है - पता नहीं कैसे कहा जाय, अतः वे बिलकुल भिन्न प्रतीत होती हैं ।

 

 (मौन)

 

   पता नहीं, कैसे समझाया जाय?... सामान्य मानव चेतनामें, जब उसमें अधिक-से-अधिक विस्तृत विचार होते हैं तब भी, वह चेतना केंद्रमें होती है और चीजें इस तरह होती हैं ( मकड़ीके जालकी तरह सभी ओरसे केंद्र- की ओर अभिमुख) । चीजोंका अस्तित्व होता है ( हम जो कुछ कहें वह उसे संकीर्ण कर देता है), वे एक केंद्रके साथ संबंध रखते? हुए अस्तित्व रखती हैं जब कि... ( माताजी बहुत-से बिखरे हुए केंद्रोंकी ओर संकेत करती हैं) । मेरा ख्याल है कि इसे अच्छी-से-अच्छी तरह यों अभिव्यक्त किया जा सकता है : सामान्य मानव चेतनामें ( मकड़ीके जालका वही संकेत) मनुष्य एक बिंदुपर रहता है ओर सभी चीजें चेतनाके इस बिंदुके साथ संबद्ध रहती हैं । अब, बिंदुका अस्तित्व नहीं रहा, अतः वस्तुएं अपने-आप- मे अस्तित्व रखती हैं ।

 

  कहनेके लिये यह सबसे अधिक यथार्थ चीज है । यह वह नहीं है, पर... तो, मेरी चेतना वस्तुओंमें' है -- वह कोई ''ऐसी वस्तु'' नहीं है जो ग्रहण करती हो, यह उससे बहुत अच्छी है, पर मैं नहीं जानती उसे कैसे कहा जाय ।

 

   यह उससे ज्यादा अच्छी है, क्योंकि यह केवल ''वस्तुओं' ' मे ही नहीं है, वह उस ''कुछ चीज' ' मे भी है जो वस्तुओंमें है जो... उन्हें गति देती है ।

 

   मैं उसे शब्दोंमें कह सकती हूं । मै कह सकती हूं : वह अब अन्य सत्ताओंके बीच एक सत्ता नहीं है, वह.. ., मैं कह सकती हूं : ' 'वह सगी चीजोंमें भगवान् है । '' लेकिन मुझे वैसा नहीं अनुभव होता... ''जो चीजोंको गति देता है या जो चीजोंमें सचेतन है । ''

 

  स्पष्ट है कि यह चेतनाका प्रश्न है, लेकिन उस चेतनाका नहीं जो साधारण मनुष्योंमें है । चेतनाका गुण बदल गया है ।


२५१

१८ दिसंबर, १९७१

 

  मैंने श्रीअरविंदके लिखी हुई कुछ चीज सुनी है जिसमें वे कहते है कि अतिमानसके धरतीपर अभिव्यक्त होनेके लिये भौतिक मनकों उसे ग्रहण करना और अभिव्यक्त करना होगा -- और अब केवल भौतिक मन, यानी, शरीरका मन ही मेरे अंदर बच गया है । और तब, कारण स्पष्ट हों जाता है कि इसीलिये केवल यही भाग रह गया है । वह बहुत तेजीके साथ और बड़े मजेदार तरीकेसे परिवर्तित हों रहा है । यह भौतिक मन अतिमनके प्रभावके अधीन विकसित हो रहा है । श्रीअरविंदने ठीक यही बात लिखी है कि अतिमनके स्थायी रूपमें धरतीपर प्रकट होनेके लिये यह अनिवार्य है।

 

  तो यह भली-भांति चल रहा है... लेकिन यह सरल नहीं है (माताजी हंसती हैं) ।

 

जी हां, यही समस्या है जिसे मैंने अपने आगे रखा था, क्योंकि मैंने एक बात देखी है कि यह रूपांतर तबतक संभव नहीं है जबतक चेतनाकी स्थितिमें कोई आमूल परिवर्तन न हो या दृष्टिका परिवर्तन न हो... ।

 

हां ।

 

   जबतक कि मनुष्य वस्तुओं और सत्ताओंको किसी और तरहसे न देखे ।

 

हां, हां !

 

   लेकिन तब मै अपने-आपसे पूछता हूं कि यह कैसे संभव है?

 

यह इस तरह संभव है ।

 

   लेकिन यह कोई बहुत ही मौलिक चीज होनी चाहिये ।

 

लेकिन, वत्स, यह मौलिक हैं । यह कल्पना मत करो कि यह... मैं

 


सचमुच कह सकती हूं कि मैं एक और ही व्यक्ति बन गयी हूं । केवल यह (माताजी शरीरके बाहरी रूपको छूती हैं) वही रह गया है जो पहले था... । यह किस हदतक बदल सकेगा? श्रीअरविंदने कहा है कि अगर भौतिक मन रूपांतरित हों जाय तो स्वभावत: शरीरका रूपांतर हो जायगा । देखें ।

 

   लेकिन क्या आप मुझे इस मौलिक परिवर्तनकी चाबी या उत्तोलक दे सकती हैं?

 

आह! मुझे नहीं मालूम, क्योंकि मेरे लिये, हर चीज बस, मुझसे लें ली गयी है - मन पूरी तरह जा चुका है । अगर तुम बाहरी रूपमें देखो तो मै मूढ़ बन गयी थी, मै कुछ भी न जानती थी । और यह भौतिक मन थोडा-थोडा करके उत्तरोत्तर अंतःप्रकाशोंके द्वारा विकसित हुआ । अपने बारेमें मै नहीं जानती, मेरे लिये काम कर दिया गया है -- मैंने कुछ भी नहीं किया । यह बिलकुल मौलिक रूपमें कर दिया गया ।

 

   यह किया जा सका क्योंकि मै अपने चैत्य पुरुषके बारेमें (उस चैत्यके बारेमें जिसे समस्त जीवनोंमें रूपायित किया गया है) बहुत सचेतन थी । मै बहुत सचेतन थी और वह बना रहा; यह बना रहा और उसने बिना किसी बाहरी अंतरके मुझे लोगोंके साथ व्यवहार करने दिया । यह इस चैत्य उपस्थितिके कारण हुआ । इसीलिये बाहरी तौरपर इतना कम परि- वर्तन हुआ है । इसलिये मै उतना ही कह सकती हू जितना मैं जानती हू और मै' कहती हू : चैत्य पुरुषको समस्त सत्ताके ऊपर शासन करते हुए रहना चाहिये - समस्त शारीरिक सत्ता -- और जीवनका पथ-प्रदर्शन करना चाहिये; तब मनोमय पुरुषको अपने-आपको रूपांतरित करनेका अवसर मिलेगा । मेरा अपना मन तो बस यहांसे भेज दिया गया है ।

 

   हां तो, अब शारीरिक मनका रूपांतर अनिवार्य हों गया क्योंकि मेरे अंदर वही था, उससे अधिक कुछ नहीं, समझे?... बहुत कम लोग इस स्थितिको स्वीकार करेंगे । (हंसते हुए) मेरे लिये तो यह मेरी राय पूछे बिना ही कर दिया गया! कार्य बहुत आसान था ।

 

  ठीक यही चीज हुई है ।

 

     मैं कोई मूलभूत परिवर्तन चाहता हूं... ।

 

 (माताजी हंसती हैं) क्या तुम वह स्वीकार करोगे जो मेरे साथ हुआ है, यानी, व्यक्ति अपने-आपको पूरी तरहसे जड़-मति अनुभव करे?

 

२५३


   मैं तैयार हूं ।

 

क्या वह तुम्हें निराश न कर देगा?

 

   जी नहीं, नहीं-- बिलकुल नहीं ।

 

हां, तो यह एक ऐसी चीज है जो अपने-आपको स्थायी रूपसे प्रतिष्ठित कर लेती है : वह है व्यक्तिकी शून्यता -- उसकी पूरी-पूरी शून्यता, अक्षमता । तब तुम... आरामसे रहते हो, तुम बिलकुल स्वाभाविक रूपसे बच्चे जैसे हो जाते हो; तुम भगवान्से कहते हों : ''मेरे लिये सब कुछ कर दो'' ( मुझे और कुछ नहीं करना, मैं और कुछ नहीं कर सकता!)? तब सब कुछ तुरंत ठीक हो जाता है -- तुरंत ।

 

  हां, शरीरने अपने-आपको पूरी तरह दे दिया है, उसने भगवान्से यहां- तक कहा. ''मैं आपसे प्रार्थना करता हू कि यदि मुझे मरना हों तो मै विघटनके लिये संकल्प करूं,'' ताकि यदि शरीरका मरना जरूरी हो तो वहांपर भी मैं प्रतिरोध न करूं -- बल्कि विघटनके लिये संकल्प करूं । उसकी यही वृत्ति है, यह इसी तरह था ( खुले हाथोंकी मुद्रा) । और उसकी जगह एक प्रकारका... (मैं उसे शब्दोमें अनूदित कर सकती हूं, पर वे शब्द न थे) : ''अगर तुम रोग और पीड़ा स्वीकार करो तो रूपांतर विघटनसे अधिक अच्छा है । '' इसलिये जब रोग आता है तो वह स्वीकार कर लेता है ।

 

  यह वह नहीं है, मैं जो कहती हूं... । यह सचमुच वह नहीं है, लेकिन इसे समझाना कठिन है । वास्तवमें, यह एक नयी वृत्ति और नया संवेदन है । मैं कह नहीं पाती ।

 

  और स्पष्टत: यह हर एकके लिये अलग होगा... । मेरे लिये बहुत ही उग्र था - मेरे लिये कोई चुनाव न था, समझे : यह ऐसा ही था, ऐसा ही था यह । लो, बस ।

 

  लेकिन वास्तवमें यह जरूरी है... जिस चीजने इसे सरल बना दिया वह यह है कि चैत्य चेतना पूरी तरह आगे थी और वही जीवनपर शासन करती थीं । इसलिये वह बिना अस्तव्यस्त हुए चुपचाप चलता रहा ।

 

   देखने और सुननेके बारेमें मुझे पता लगा कि यह भौतिक हास न था, वह केवल इतना था : अगर लोग बोलते समय स्पष्टताके साथ सोच रहे हों तो मै उनकी बात समझ लेती हूं । मैं केवल वही देखती हूं जो... आंतरिक जीवनको अभिव्यक्त करे, अन्यथा... वह धुंधला-सा या परदेके

 

१५४


पीछे-सा दिखता है, और यह बात नहीं है कि आंखें नहीं देखती, यह ''कुछ और चीज'' है, यह कोई और ही चीज है - सब कुछ नया है ।

 

 (मौन)

 

   यह सच है कि शरीरमें बहुत सद्भावना होनी चाहिये - मेरे शरीरमें सद्भावना है । और यह मानसिक सद्भावना नहीं है, यह सचमुच शारीरिक सद्भावना है । वह स्वीकार कर लेता है, वह सब प्रकारकी असुविधाएं स्वीकार कर लेता है... । लेकिन महत्त्वपूर्ण चीज है वृत्ति, परिणाम नहीं (मुझे विश्वास है कि ये असुविधाएं अनिवार्य नहीं हैं), महत्व है वृत्तिका । हां, वह ऐसी होनी चाहिये (खुले हाथोंकी मुद्रा) । वास्तवमें मैंने देखा है कि अधिकतर उदाहरणोंमें भगवानके प्रति समर्पणमें भगवानके प्रति विश्वास जरूरी तौरपर नहीं आता - तुम भगवानके प्रति समर्पण करते हों, तुम कहते हो : ''तुम भले मुझे कष्ट दो, मैं अपने-आप- को समर्पित करता हू । '' लेकिन यह विश्वासका एकदम अभाव है! हां, वास्तवमें यह बड़ी मजेदार बात है, समर्पणमें ही विश्वास नहीं आ जाता; विश्वास कुछ और हीं चीज है । वह एक प्रकारका... ज्ञान है -- एक ''अटल'' ज्ञान जिसे कोई चीज नहीं हिला सकती -- कि जो चीज... भागवत चेतनामें पूर्ण 'शांति' है उसे स्वयं हम कठिनाई, पीड़ा और दैन्यमें बदल देते हैं । हम यह छोटा-सा रूपांतर ले आते है ।

 

    और असाधारण उदाहरण आये है... । उन्हें समझानेके लिये घंटों लग जायंगे ।

 

    वास्तवमें, चेतनाका परिवर्तन होना चाहिये - यहांतक कि कोषाणुओं- की चेतना भी, समझे?... यह है आमूल परिवर्तन ।

 

  उसे अभिव्यक्त करनेके लिये हमारे पास शब्द नहीं हैं क्योंकि धरतीपर उसका अस्तित्व नहीं है । वह छिपा हुआ तो है, पर प्रकट नहीं । सभी शब्द... दूर रह जाते हैं, वह बिलकुल वही नहीं है ।

 

 (मौन)

 

   तुम चाहो तो कह सकते हों कि हर मिनट ऐसा लगता है कि हम जी मी सकते हैं और मर मी सकते है (जरा इधर-उधर झुकनेका संकेत), या फिर अमर जीवन हों सकता है । हर क्षण ऐसा ही होता है और (दोनों तरफोंमें) इतना कम फर्क है कि उसे देख पाना मुश्किल है । यह

 

नहीं कहा जा सकता : यह करो तो इस तरफ हो जाओगे या वह करो तो उस तरफ हों जाओगे -- यह संभव नहीं है । होनेका यह कुछ ऐसा तरीका है जो लगभग वर्णनातीत है ।

 

२५५

२२ दिसंबर, १९७१

 

   श्रीअरविदका एक पत्र मुझे पढ़कर सुनाया गया है जिसमें वे कहते है कि अतिमनके यहां प्रतिष्ठित होनेके लिये (उन्होंने देखा था कि अतिमन उनके अंदर आया और फिर वापिस चला गया, वह फिरसे आया और फिर वापिस चला गया -- वह स्थायी न था), और उन्होंने कहा कि उसके यहां स्थायी रूपसे प्रतिष्ठित होनेके लिये उसे भौतिक मनमें प्रविष्ट होना और वहीं बस जाना चाहिये । ' मेरे अंदर महीनोंसे यही कार्य हो रहा है : मनको खींच लिया गया है और भौतिक मनने उसका स्थान लिया है और मैंने अभी कुछ समय पहले देखा है कि यह... ( मै तुमसे कह

 

   १इस बातचीतके प्रकाशनके ममय माताजीने १५ जनवरी, १९७२ को यह और जोड़ दिया :

 

   यह अनुभूति अधिकाधिक स्थायी होती जा रही है -- एक बार यह और दूसरी बार वह । यह बहुत तीव्र हों गयी है और साथ ही यह ज्ञान (माताजी तर्जनी दिखाती है) : ''यह 'विजय' प्राप्त करनेका समय है । '' यह चैत्यसे और उसके द्वारा और ऊपरसे आता है... ''डटे रहो, 'विजय' प्राप्त करनेका यही समय है ।''

 

  १हमें ठीक पता नहीं कि माताजी किस पत्रकी बात कह रही है, शायद वह इस प्रकारका कोई पत्र होगा :

 

  ''शरीरका एक धुंधला मन भी है, स्वयं कोषाणुओं, कणिकाओं और अणुओंका मन । जर्मन जड़वादी हेगलने कही परमाणुकी इच्छाकी बात कही है और आधुनिक विज्ञान विद्युदणुओंकी अनगिनत क्रियाओंका अध्ययन करते हुए इस हदतक आ चुका है कि यह कोई अलंकार नहीं है, बल्कि एक गुप्त सद्वस्तुदुरा फेंकी गयी एक छाया है । यह शरीर-मन बहुत गोचर सत्य है; वह अपने धुंधलापने, भूतकालीन क्रियाओंके साथ यांत्रिक रूपसे

 


रही थी कि वह हर एक चीजको एक और ही तरहसे देख रहा है और चीजोंके साथ उसका संबंध भिन्न है), मैंने देखा है कि यह भौतिक मन, वह मन, जो शरीरमें है, ज्यादा विस्तृत हो गया है, वह चीजोंके बारेमें सार्वभौम दृष्टि रखता है और उसके देखनेका पूरा तरीका ही एकदम अलग है । मैंने उसे देखा, यह वही है : वहां अतिमन कार्यरत है । मैं असाधारण धडियोंमेंसे गुजर रही हूं ।

 

  अब जो हो रहा है उसमें केवल वस्तुएं प्रतिरोध करती हैं -- ऐसा लगता है (मै तुम्हें पहले बतला चुकी हू), मानों हर क्षण (और यह चीज क्षण ज्यादा-ज्यादा जोर पकडू रही है), हर क्षण : क्या तुम्हें जीवन चाहिये, क्या तुम्हें मरण चाहिये; क्या तुम्हें जीवन चाहिये, क्या तुम्हें मरण चाहिये... और ऐसा ही होता है । और तब जीवन, यानी, परम प्रभुके साथ ऐक्य और चेतना, एक एकदम नयी चेतना आती है । और इस तरफ या उस तरफ (माताजी इस तरफ, उस तरफ झुकती हैं), लेकिन कल या परसों, पता नहीं, अचानक शरीरने कहा : कहां! यह खतम -- मुझे जीवन चाहिये, मुझे और कुछ नहीं चाहिये । और तबसे चीजें ज्यादा अच्छी होती जा रहीं है ।

 

  जो हो रहा है उसका उल्लेख करनेके लिये पोथियोंकी जरूरत होगी... । यह असाधारण रूपसे मजेदार और एकदम नया है । एकदम नया ।

 

 (माताजी अपने अंदर चली जाती हैं)

 

   भौतिक मृत्युके कारण अवचेतना पराजयवादी है । हां, अवचेतनाको लगता है कि चाहे कैसी मी प्रगति क्यों न कर ली हो, चाहे कैसा भी प्रयास क्यों न हो, सबका अंत हमेशा यही होगा, क्योंकि आजतक हमेशा, इसी तरह अंत होता आया है । तो अब जो काम किया जा रहा है वह है अवचेतनामें श्रद्धाको, रूपांतरकी निश्चितिको प्रविष्ट कराना । और यह क्षण-क्षणका संघर्ष है ।

 

 चिपके रहने, सरल विस्मृति और नृतनको अस्वीकार करनेके कारण अति- मनकी 'शक्ति' के प्रवेश और शरीरके क्रिया-कलापके रूपांतरमें मुख्य बाधकोंमेंसे एक है । इसके विपरीत एक बार यह सफल रूपसे बदल जाय तो वह 'भौतिक प्रकृति' मे अतिमानसिक 'ज्योति' के स्थायीकरणके लिये सबसे अधिक मूल्यवान् यंत्रोंमेंसे एक होगा ।''

 

(श्रीअरविदके पत्र, भाग १)

 

२५७

२५ दिसंबर, १९७१

 

 आज 'ज्योति' पर्व है - बड़ा दिन, 'ज्योति' के लोटनेका पर्व है.. । यह ईसाइयतसे बहुत पुराना है!

 

 और अगले शनिवारको पहली जनवरी है ।

 

     मैं आशा करता हूं १९७२ ज्यादा अच्छा रहेगा!

 

 (माताजी सिर हिलाती हैं) मुझे अधिकाधिक विश्वास होता जा रहा है कि हम चीजोंको इस तरह लेते है और उनके प्रति इस तरह प्रतिक्रिया करते हैं जिससे कठिनाइयां पैदा होती है -- मुझे इसके बारेमें अधिकाधिक विश्वास होता जा रहा है । क्योंकि मुझे भौतिक और दैहिक रूपसे ऐसे अनुभव हैं जो रुचिकर नहीं हैं, और फिर, हर चीज इस हिसाबसे बदलती है कि हम उसकी ओर ध्यान देते हैं या नहीं, इस प्रकारकी वृत्तिके अनुसार (अपनी ही ओर मुंडे हुए होनेकी मुद्रा), जिसमें व्यक्ति बस अपने-आपको ही जीवित देखता है या (विस्तारकी मुद्रा) सभी चीजोंमें, सभी गतियोंमें, जीवनमें एक ऐसी वृत्ति अपनाता है जिसमें केवल भगवानको महत्व दिया जाता है; अगर सारे समय यह रह सकें तो कोई कठिनाई नहीं होती - चीजें वही रहती हैं । यह अनुभूति है. चीज अपने-आपमें एक खास प्रकारकी है, लेकिन उसके बारेमें हमारी प्रतिक्रिया भिन्न होत्री है । अनुभूति इस बातको अधिकाधिक प्रमाणित करती है । तीन श्रेणियां है. चीजोंके बारेमें हमारी वृत्ति, चीजें अपने-आपमें (यही दो चीजें हमेशा कठिनाइयां लाती हैं), और एक तीसरी श्रेणी है जिसमें हर चीज, हर एक चीजका अस्तित्व भगवानके साथ संबंधमें है, भगवान्की चेतनामें है -- सब कुछ अद्भुत रूपसे चलता है! सरलतासे! और मैं द्रव्यात्मक वस्तुओंकी बात कर रही हू, द्रव्यात्मक ओतिक जीवनकी बात (नैतिक दृष्टिसे तो बहुत जमातेसे यह बात मालूम थी कि चीज ऐसी है), लेकिन दैहिक चीजें, यानी, शरीरकी छोटी-मोटी असुविधाएं, उसकी प्रतिक्रियाएं, कड़ाका होना या न होना, परिस्थितियोंका बिगड़ जाना, निगल न पाना, ऐसी नगण्य चीजें जिनकी ओर यौवनमें, शरीरके स्वस्थ और मजबूत होते समय कोई ध्यान नहीं दिया जाता, सभीके लिये यही बात है, कोई ध्यान नहीं देता; लेकिन जब तुम अपने शरीरकी ही चेतनामें रहो, इसीके बारेमें सचेतन रहो कि उसे क्या होता है, वह उसे किस तरह लेता है, क्या
 


परिणाम आता है, आदि -- ऊफ ! क्या दुर्दशा होती है! अगर तुम दूसरों- की चेतनामें रहो, वे क्या चाहते है, उनके लिये किस चीजकी जरूरत है और उनका तुम्हारे साथ कैसा संबंध है - तो यह दुर्दशा है! लेकिन अगर तुम भागवत सत्तामें रहो, अगर भगवान् सब कुछ करते, सब देखते हैं, सब कुछ हैं... तो 'शांति' -- तब 'शांति' रहती है - समयकी अवधि नहीं रहती, हर चीज सरल होती है और... ऐसा भी नहीं कि तुम्हें आनंदका अनुभव होता है श तुम्हें कोई अनुभव होता है... । ऐसी बात नहीं है । वहां साक्षात् भगवान् हमें और यही एकमात्र समाधान है । और संसार उसीकी ओर बढ़ रहा है. भगवान्की चेतनाकी ओर -- उन्हीं भगवान्की ओर जो करते हैं, भगवान् जो हैं, वही भगवान् जो... । तब वह-की-वही परिस्थितियां (मै अलग-अलग परिस्थितियों की बात नहीं कह रही), वह-की-वही परिस्थितियां (यह मेरा इन दिनोंका अनुभव है, बहुत ठोस!) परसों मै काफी अस्वस्थ थी और कल परिस्थितियां वही थीं, मेरा शरीर उसी अवस्थामें था, सब कुछ वही था... और सब कुछ शांत था ।

 

  उसके बारेमें मै बिलकुल निश्चित हू ।

 

  इससे सब कुछ स्पष्ट हो जाता है । इससे सब कुछ स्पष्ट हो जाता है, हर चीज, हर एक चीज ।

 

  संसार वही है - उसे एकदम विपरीत तरीकेसे देखा और अनुभव किया जाता है । सब कुछ चेतनाकी एक घटना है - हर चीज । केवल यह चेतना नहीं, न यह, न वह, यह वह नहीं है । यह है हमारा सचेतन होनेका मानवीय तरीका या सचेतन होनेका भागवत तरीका । तो बात यूं है । सारी बात यही है और मुझे पूरा विश्वास है ।

 

 ( मौन)

 

   अंततः, संसार वही है जो उसे हर क्षण होना चाहिये ।

 

हां !

 

   हम उसे गलत तरीकेसे देखते हैं, गलत तरीकेसे अनुभव करते हैं, गलत तरीकेसे ग्रहण करते है ।

 

जैसे मृत्यु, है न? यह एक संक्रमणकालकी घटना है और हमें लगता है कि यह हमेशा सें चली आ रही है ( हमारे लिये यह हमेशा ऐसी ही रही)

 

२५९


है, क्योंकि हमारी चेतना ऐसी है) (माताजी हवामें एक छोटा-सा चतुष्कोण बनाती हैं), लेकिन जब तुम्हारे अंदर यह भागवत चेतना हो तो, ओह ! ... चीजें मानों तात्कालिक हों जाती हैं, समझे । मै इसे समझा नहीं सकती । एक गति है, एक प्रगति है, फिर वह चीज है जो हमारे लिये समयका रूप लेती है, उसका अस्तित्व है, वह कुछ है... वह चेतनाके अंदर कुछ है... । कहना कठिन है... । यह एक चित्र और उसके प्रक्षेपणकी नाई है । यह कुछ-कुछ ऐसा है । सभी चीजें हैं और हम मानों उन्हें परदेपर प्रक्षिप्त होते हुए. देखते है । वे एकके बाद एक आती है । यह कुछ-कुछ ऐसा है ।

 

   जी हां, श्रीअर्रावदने कहा है कि अतिमानस-चेतनामें भूत, भविष्य और वर्तमान एक साथ रहते हैं मानों चेतनाके एक नकोपर हों ।'

 

हां, ऐसा है, ऐसा है । परंतु मेरे लिये यह एक अनुभूति है । यह कोई ऐसी बात नहीं है जिसे मैं ''सोचती हूं'' (मैं सोचती ही नहीं), यह एक अनुभूति है और इसे समझाना मुश्किल है ।

 

   और यह चीज हमारे ऊपर जो प्रभाव पैदा करती है, वह जो संवेदन लाती है वह ऐकांतिक रूपसे हमारी चेतनाकी वृत्ति और स्वयं अपने अंदर होनेकी चेतना या हर चीजमें होनेकी चेतनापर निर्भर है (हर चीजमें होना अहंकारमय रूपसे अपने अंदर होनेसे ज्यादा अच्छा है, लेकिन उसके लाभ हैं, उसकी असुविधाएं है और यह परम सत्य नहीं है)  परम सत्य है... भगवान् ही समग्रता है -- देशमें समग्रता और कालमें समग्रता । और यह एक ऐसी चेतना है जिसे शरीर पा सकता है, क्योंकि यह शरीर

 

  ''... जब कि तर्क-बुद्धि कालके एक क्षणसे दूसरे क्षणकी ओर बढ्ती है, खोती और प्राप्त करती और फिरसे खोती और फिर प्राप्त करती है, वहां विज्ञान कालको एक ही दृष्टि और शाश्वत शक्तिमें अधिगत कर लेता है; और भूत, वर्तमान और भविष्यको उनके अविभाज्य संबंधोंद्दुरा ज्ञानके एक ही अविच्छित्र मानचित्रमें एक-दूसरेको पास-पास रखकर जोड़ देता है । विज्ञान समग्र सतासे आरंभ करता है, जो पहले ही उसके अधिकारमें है; वह भागों, समुहों और व्गेरोंको केवल समग्रके संबंधमें और एक ही साक्षात्कारमें एक साथ देखता है ।.. ''

 

('योग-समन्वय')

 

पा चुका है (क्षणिक रूपमें, कुछ क्षणोंके लिये), और जबतक उसके पास वह हों, सब चीजें इतनी... । वह आनंद नहीं है, वह सुख नहीं है, वह प्रसन्नता नहीं है, वह ऐसी कोई चीज नहीं है... एक प्रकारकी आनंदपूर्ण शांति ... और ज्योतिर्मय. और सर्जनात्मक! वह भव्य है, बस, वह आती है, चली जाती है, आती है, चली जाती है... । और जब तुम उसमेंसे बाहर निकलो तो तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम किसी भयंकर, वीभत्स छिद्रमें जा गिरे हों -- हां, छिद्रमें, हमारी साधारण चेतना (मेरा मतलब है, साधारण मानव चेतना) एक भयंकर छिद्र है । लेकिन तुम यह भी जानते हो कि यह क्षणिक रूपसे ऐसी क्यों है, यानी, एकमेंसे दूसरेमें प्रवेश करनेके लिये यह आवश्यक है - जो कुछ होता है वह सृष्टिके लक्ष्यके पूर्ण उन्मीलनके लिये आवश्यक है । हम कह सकते है : सृष्टिका लक्ष्य यह है कि सृष्ट 'सप्टा' की भांति सचेतन हो जाय । यह एक वाक्य है, लेकिन है उसी दिशामें । इस सृष्टिका लक्ष्य है 'अनंत' की, 'शाश्वत' की यह चेतना जो 'सर्वशक्तिमान्' है -- 'अनंत', 'शाश्वत', 'सर्वशक्तिमान्' (जिसे हमारे धम ईश्वर: कहते हैं : हमारे लिये, जीवनके संबंधमें यही भगवान् है) - 'अनंत', 'शाश्वत', 'सर्वशक्तिमान्'... कालातीत; हर एक व्यक्तिगत कण यह चेतना लिये है । हर पृथक कण इस एकमेव चेतनाको लिये है ।

 

  विभाजन ही ने सृष्टिकी रचना की है और विभाजनमें ही 'अनंत' अपने आपको अभिव्यक्त करता है ।

 

  हमारी भाषा... (या हमारी चेतना) अपर्याप्त है । बादमें मै कह सकूंगी ।

 

  कुछ चीज हो रही है -- यह लो (माताजी हंसती है) ।

 

  बड़ा दिन शुभ हो, वत्स - ज्योति पर्व ।

 

२६०

१ फरवरी, १९७२

 

 २१ फरवरीका संदेश :

 

 ''पूर्ण सचाई प्राप्त करनेके लिये चैत्य केंद्रके चारों ओर समस्त सत्ताका पूर्ण एकीकरण एक आवश्यक शर्त है ।''

 

-श्रीमां


  मैंने देखा है कि लोग कपटी केवल इसलिये होते हैं क्योंकि सत्ताका एक भाग एक बात कहता है और दूसरा भाग दूसरी बात । यही चीज है जिससे कपट बनता है ।

 

  लेकिन चेतनाकी ऐसी स्थिति प्राप्त करना बहुत कठिन है जो स्थायी हो : हमेशा सारे समय उसी चेतनाका शासन रख सकना कठिन है ।

 

लेकिन, वत्स, यह तभीतक ठीक है जबतक तुम एक न हों जाओ । मेरे लिये तो ह... मे... शा यही बात रही है (माताजी एक सीधी लकीरकी मुद्रा करती हैं), बरसोंसे, बरसोंसे यही । यह वहांसे आती है, यह चैत्य चेतना है और यह 'निरंतर' है ।

 

  अभी हालमें, कुछ क्षणोंके लिये मुझे अनेकीकृत चेतनाका अनुभव हुआ, लेकिन बरसोंसे - बरसोंसे, कम-से-कम ३० वर्षसे ऐसा नहीं हुआ ।' चैत्य पुरुष प्रत्यक्ष स्वामी बन गया और उसने सारी सत्तापर शासन करना शुरु कर दिया और बात खतम -- खतम, और तबसे ऐसा ही है (वही सीधी लकीरकी मुद्रा) । यह वास्तवमें एक निश्चित चिह्न है, हमेशा वैसा ही, हमेशा एक ही । और यह हमेशा एक ही चीज रहती है : जो 'तेरी' इच्छा, जो 'तेरी' इच्छा और यह ''तू'' कोई ऐसी चीज नहीं है जो कही किसी सुदूर क्षेत्रमें बैठा है, जिसे हम नहीं जानते. 'वह' हर जगह है, 'वह' हर चीजमें है, 'वह' सदा-सर्वदा उपस्थित है, 'वह' सत्ताके अंदर है -- ओर तुम इस तरह 'उसके' साथ चिपके रहते हो । यही एकमात्र समाधान है ।

 

   यह मेरी हालकी खोज है । यह इस बातकी खोज है कि लोग कपटी क्यों हैं (तब भी जब वे सच्चे, निष्कपट होना चाहते है) - क्योंकि कमी एक भाग, कभी दूसरा भाग और कभी तीसरा भाग ऐसा होता है; उस समय वह भाग अपनी मांगोंमें बिलकुल सच्चा होता है, लेकिन वह दूसरोंके साथ सामंजस्यमें नहीं होता ।

 

 जी हां, इसका मतलब यह हुआ कि चैत्य चेतना भौतक चेतनामें प्रवेश करती है ।

 

हां

 

 वास्तवमें, पैंसठ वर्षसे ।

 

२६२


  क्योंकि केवल वहीं चीजें स्थायी हैं ।

 

हां...

 

  चैत्य चेतनाको सामान्य भौतिक चेतनामें प्रवेश करना चाहिये ।

 

हां!

 

 वही चीज मुश्किल है ।

 

लेकिन, वत्स, जैसा कि मैंने कहा, मेरे साथ यह बात कम-से-कम तीस वर्ष पहले हुई थी ।

 

  चैत्य चेतना सत्तापर हमेशा शासन करती थी और पथ-प्रदर्शन करती थी । और सभी संस्कार, सब कुछ उसके आगे इस तरह रखे जाते थे ( ''सच लाइट''के सामने रखनेकी मुद्रा), ताकि वह ठीक निर्देश दे सकें । और भौतिक भी हमेशा ऐसा ही रहता है, वह मानों सारे समय भगवान्के आदेश सुनता रहता था । लेकिन यह चीज निरंतर बनी रहती थी, निरंतर - मेरे यहां आनेसे भी पहले -- मै यहां इसी अवस्थामें आयी थी - यह बहुत पहलेकी बात है । और यह चीज झिलमिलायीतक नहीं । अभी हालमें मुझे (अनेकीकृत चेतनाकी) अनुभूति हुई । एक रात कुछ घंटोंके लिये, दो-तीन घंटोंके लिये -- हां, वह भयंकर चीज थी, वह नारकीय प्रतीत होती थी । यह मुझे औरोंकी स्थिति बतानेके लिये, समझाने- के लिये थी कि जब चैत्य पुरुष नहीं होता... ।

 

   शरीर -- शरीर ऐसा है । हमेशा सुनता रहता है, हमेशा सुनता रहता है (ऊपरकी ओर या भीतरकी ओर संकेत) -- सुनता रहता है । लेकिन बात शब्दोंमें नहीं व्यक्त की जाती (भगवान्का आदेश), अपने- आपको दृढ़ निश्चयके साथ लागू करते हुए, संकल्पकी तरह प्रकट करता है ( अविचल अवतरणकी मुद्रा) ।

 

 क्या इसे ज्यादा यथार्थ बनानेके लिये कुछ और कहनेकी जरूरत है?

 

     आपने कहा है : ''समस्त सत्ताका पूर्ण एकीकरण ।',

 

 इसका मतलब है भौतिक सत्ताका भी ।

 

२६३

२६ फरवरी, १९७२

 

२१ फरवरीके संदेशके बारेमें

 

   ''केवल तभी जब 'अतिमन' शरीर-मनमें अभिव्यक्त हो, तभी उसकी उपस्थिति स्थायी हो सकतीं है ।',

 

-श्रीमां

 

यह श्रीअरविदका कथन है -- उन्होंने ऐसे कर दिया है, मानों मेरा कथन हो । यह श्रीअरविंदने लिखा था । मैंने सिर्फ इतना कहा : ''श्रीअरविद- ने ''स्थायी रूपसे'' शब्दका प्रयोग किया था ।''

 

   लेकिन, माताजी, यह आपकी अनुभूति है, अतः...

(माताजी हंसती है)

 

 ( मौन)

 

   लेकिन ज्यादा बुद्धिमत्ता यही है कि इसके हों जानेपर ही इसके बारेमें बोला जाय! जब इसकी प्रतिष्ठा हो जाय तो. अभीके लिये (एक ओरसे दूसरी ओर संकेत) ।

 

  भौतिक मनका नियंत्रण.. .पता नहीं किस छोरसे पकड़ा जाय । मुझे यह बहुत कठिन लगता है ।

 

बहुत कठिन, यह बहुत कठिन है ।

 

  तुम्हें अपनी इच्छाके अनुसार नीरवता प्राप्त करनेसे शुरु: करना चाहिये, किसी भी क्षण नीरवता प्राप्त करना । मुझे लगता है कि यही आरंभ-विंदु है ।

 

हां, लेकिन इच्छानुसार नीरवता प्राप्त करना कठिन नहीं हैं, एक सेकंडके लिये एकाग्र होनेसे ही यह नीरव हो जाता है और जबतक एकाग्रता रहे वह पूरी तरह नीरव रहता है, लेकिन एकाग्रतामें ढील आते ही खतम... ।

 

(माताजी हंसती हैं)


   ... वह गति करता है, इस ओर हिलता है, उस ओर हिलता है ।

 

लव मन इधर-उधर दौड़नेकी आदत खो चुका है । उसे यह आदत खोनी चाहिये ।

 

    यह कैसे किया जाय?

 

पता नहीं, क्योंकि मेरे लिये यह सहज था । केवल जब कोई मेरे साथ बोलता है या कोई चीज मुझे वहांसे हिलानेके लिये आती है... । अन्यथा अपने-आपमें, बिलकुल स्वाभाविक रूपसे वह ऐसा रहता है (ऊपरकी ओर उठे हुए और निश्चलकी मुद्रा)... शायद यही तरीका है (वही मुद्रा) : इस भाति भगवान्का मनन ।

 

 (स्मितपूर्ण मौन)

 

   यही है स्वाभाविक स्थिति, यही ( वही मुद्रा) । काफी आश्चर्यकी बात है कि यह... शरीरके अंदर संवेदनद्वारा अनूदित भी होती है, शरीर- मे ऐसा संवेदन होता है मानों यह पूरी तरह लिपटा हुआ हों, मानों कोई बच्चा कपड़ेमें लिपटा हों । सचमुच इस तरह, मानों भगवान्में लिपटा हों ( मुद्रा) ।

 

( मौन)

 

  दो-तीन दिन हुए, मुझे ठीक याद नहीं, एक बहुत बड़ी कठिनाई थी । और तुरंत मुझे ऐ सा लगा कि मैं लिपटी हुई हू... ( मुद्रा), मानों मैं एक बालककी नाई हूं जो भगवान्की भुजाओंमें है । तुम समझ रहे हों, यह ऐ सा ही था । यह ऐसा ही था मानों एक बालक भगवान्की भुजाओंमें हों । और फिर.. एक क्षणके बाद ( लेकिन यह लंबा क्षण था), जब यह इस तरह एकमात्र भगवान्की उपस्थितिमें था तो सारी पीड़ा गायब हो गयी । इसने पीडाके जानेकी मांगतक नहीं की, लेकिन वह चली गयी । उसने कुछ समय तो लिया, पर चली गयी ।

 

  मुझे पूरी तरह, पूरी तरहसे यही लग रहा था कि मै एक बालककी नाई भगवान्की भुजाओंमें लिपटी हू ( मुद्रा) । यह असाधारण है ।

 

 ( मौन)

 

२६५


   हां, तो कुछ समयके लिये ऐसा है : ''जो 'तेरी' इच्छा, जो 'तेरी' इच्छा .... '', और फिर यह भी चुप... (माताजी समर्पण-भावसे ऊपरकी ओर भुजाएं उठाती हैं) ।

 

 (मौन)

 

    एकाग्रताका प्रकार बदलना चाहिये ।

 

हां !

 

 क्योंकि जब व्यक्ति भौतिक मनके अनुशासनका अनुसरण करता है और जब वह उससे दाएं-बाएं निकल जाता है तो वह हमेशा मानसिक एकाग्रता शुरू कर देता है और मानसिक तीरपर नीरवताको फिरसे स्थापित करता है । इस भांति, हर बार वह मनके द्वारा अनुशासन लाता है...

 

ओ !

 

   ... लेकिन मन, जैसे हीं उसे जरा ढीला छोड़ा जाय... किसी चीजका अवतरण होना चाहिये, किसी चीजको अधिकार करना चाहिये ।

 

वास्तवमें, यह बच्चेकी असमर्थताकी भावना है, समझे? लेकिन यह कोई ''सोची हुई'' या ''इच्छित'' वस्तु नहीं है, यह बिलकुल सहज होली -देर । और फिर वहांसे तुम एक ऐसी स्थितिमें चले जाते हों... (माताजी हाथ पसारती हैं और चेहरेपर आनंदमय स्मित) ।

 

  जबतक यह भावना रहे कि कोई इच्छा करता है, कोई कुछ करता है, या इस तरहकी बातें, यह बेकार है... (वही मुद्रा, हाथ फैले हुए और आनंदमय स्मित) ।

 

 (माताजी ध्यानमें चली जाती है)

 

      प्रभु हमारी देखभाल करते है?

 

(हंसते हुए) मेरा ख्याल है कि हां !

 

       (माताजी शिष्यका हाथ पकड़ लेती हैं)

 

 तुम 'उन्हें' अनुभव नहीं करते?

 

  जी हां, माताजी ।

 

 आहा !..

 

२६६

८ मार्च, १९७२

 

 एक ''दुर्घटना'' के बारेमें

 

  यह ऐसा है । यह एक अनिवार्य आज्ञा है : सीधे चलो, अन्यथा सब कुछ बिगड़ जायगा ।

 

  चीज भयंकर होती जा रही है, भयंकर । यह एक 'दबाव' की तरह है -- वांछित प्रगतिको लानेके लिये भयंकर 'दबाव' । मै अपने शरीरके लिये अपने अंदर अनुभव करती हू । लेकिन मेरा शरीर डरता नहीं हैं, वह कहता है ( माताजी अपने हाथ खोलती हैं) : ''बहुत अच्छा, अगर मुझे समाप्त होना है तो यह समाप्ति है । '' हर क्षण ऐसा ही होता है. सच्ची चीज ( माताजी मुट्ठी नीची करती हैं), या फिर अंत ।

 

   ऐसा लगता हैं कि इसी चीजका अवतरण हुआ है -- जानते हो, मैंने कहा था कि कोई चीज नीचे उतरती है (वहांपर लिखा है यह), और एक दिन हम जानेंगे, बहुत जल्दी ही हम जानेंगे कि यह क्या है । ' तुमने पढ़ा है न?

 

   ''२१ फरवरीको सारे दिन मुझे बड़े जोरसे लगता रहा कि यह हर एक्का जन्मदिन है और मै हर एकको शुभ जन्मदिन कहनेके लिये. प्रेरित हों रही थी । ''यह बहुत प्रबल अनुभूति थी कि संसारमें कोई नयी चीज अभिव्यक्त होनेका है और जे।'-जो तैयार और ग्रहणशील है वे उसे मूर्त्त कर सकेंगे । ''निःसंदेह, कुछ दोनोंमें पता लग जायगा कि यह क्या चीज है ।''

 

--श्रीमां


  जी हां, यह २१ फरवरीको था ।

 

लेकिन यह वह है, एक प्रकारका.. । अधकचरा नहीं, समझौता नहीं, लगभग नहीं, नहीं... यह नहीं : वह तो यह है (माताजी मुट्ठी नीचे लाती हैं)।

 

  और यह इस शरीरके लिये., हर क्षण एक अनिवार्य आदेश है : यह जीवन है या मृत्यु है! यह मोटा-मोटा उपगमन नहीं है जो अनादि कलसे चला आ रहा है । शताब्दियोंतक न बिलकुल बुरा था, न बिलकुल अच्छा -- अब ऐसा नहीं है ।

 

   शरीर जानता है कि अतिमानसिक शरीरकी रचनाका यही तरीका है. उसे पूरी तरह भगवान्के प्रभावमें होना चाहिये -- कोई समझौता नहीं, ''लगभग'' नहीं, ''हो जायगा'' आदि नहीं यह ऐसा है (माताजी मुट्ठी बांधती हैं), जबर्दस्त 'संकल्प'

 

      लेकिन... तेजीसे चलनेके लिये यहीं एकमात्र रास्ता है ।

 

  (लंबा मौन)

 

लेकिन जय आदमी रूपांतरकी व्यावहारिक आवश्यकताको समझने लगता है -- जब चीज सचमुच समझमें आने लगती है और जब वह कुछ करनेकी कोशिश करता है तो वह देखता है कि जब भौतिक तत्वपर चोट पड़ती है तो बह स्मरण करता है : दो-एक दिन अभीप्सा करता है, वह खोजता है; और फिर ढीला पड जाता है ।

 

हा, हा ।

 

   मानों तनावके लिये अक्षमता होती है ।

 

 यह अक्षमता नहीं है ।

 

     तब यह क्या है?

 

 दुर्भावना । अहंकार -- जिसे हम अहंकार कहते है --, 'द्रव्य' का अहं- कार कहते हैं...

 

२६८


    'हास्य' का अहंकार'

 

 ...जो आत्म-निवेदन नहीं करना चाहता ।

 

   यह मैं जानती हू । मै सारे समय अपने शरीरको यहां, वहां, इधर, उधर पकड़ती रहती हू.. । वह अपनी अतिसामान्य आवारगीमें रहना चाहता है ।

 

      यह एक प्रकारसे अभीप्सा और तनावकी शिथिलता है ।

 

 हां, यही है ।

 

    तब क्या करना चाहिये? उसे हर बार पकड़ना चाहिये? या क्या करना चाहिये?

 

हां, लेकिन जबतक यह सचमुच भगवान्से न जुड़ा हों तबतक कमी स्थिर नहीं हो सकता । अगर तुम ऐसे हों ( दोनों मुट्ठियां इस तरह मिली हुई मानों रस्सीके ऊपर हों), तो जब बहुत नाजुक समय आता है तो वह ठीक दिशामें चला जाता है । हां, वह उचित दिशामें चला जाता है । मानों सारे समय तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम जीवन और मृत्युके बीच मंडरा रहे हों और जिस क्षण तुम उचित वृत्ति अपनाते हो -- जब संबद्ध भाग उचित वृत्ति अपनाता है -- सब कुछ ठीक हो जाता है । सब कुछ स्वाभाविक रूपसे और सरलताके साथ ठीक हो जाता है । यह अद्भुत है । लेकिन यह एक भयंकर चीज है क्योंकि उसे सतत संकट रहता है । हां, शायद मै नहीं जानती, दिनमें शायद सौ बार यह भाव होता है. जीवन ( मेरा मतलब है, कोषाणुओंके लिये) या विघटन । और अगर वे अपनी आदतके अनुसार सिकुड़ते नहीं, तो सब कुछ ठीक चलता है । लेकिन वे भी सीख रहे हैं.. ( माताजी आत्म-निवेदनकी मुद्रामें हाथ फैलाती हैं) । तब सब कुछ ठीक रहता है ।

 

   ऐसा लगता है मानो शरीरको एक प्रकारकी अनिवार्यताके द्वारा नित्यता सिखायी जा रही है । यह सचमुच मजेदार है । और तब ( सामान्य दृष्टिबिंदुसे) मैं बाह्य परिस्थितियोंको भयंकर होते हुए देखती हू ।

 

 (माताजी चिंतनमें चली जाती हैं)

 

 तुम्हें कुछ कहना है?

 

   जी नहीं, यह वही कठिनाई है जो मुझे हो रही थी ।

 

हां !

 

वह मुझे बहुत कठिन लग रही है । आदमी आपने-आपको पानेके लिये एक बार, दो बार, दस बार कोशिश करता है, फिर भी लगता है कि करने लायक काम यह नहीं है, वह कोई और ही चीज है । और वह... अगर सचमुच कोई उच्चतर 'चेतना' न हो जो हमारे लिये इसे कर दे तो हमारे द्वारा कुछ भी न हो पायेगा ।

 

हां, ठीक है । लेकिन ऐसी भी अनुभूतियां है - सैकड़ों अनुभूतियां हैं -- जिस क्षण तुम उचित वृत्ति अपनाते हो, चीज पूरी हो जाती है ।

 

  यह तो हम ही उसके पूरा होनेमें बाधा देते हैं... । मानों हमारा बज ही उस 'शक्ति' को काम करनेसे रोकता हैं, कुछ ऐसी ही चीज है । होना चाहिये... ( माताजी हाथ फैलाती हैं) ।

 

 ( मौन)

 

   मुझे लगता है, मुझे लगता है कि अवचेतनाको विश्वास हो गया है कि यदि वह अपना संयम न रखे तो सब कुछ बिगड़ जायगा । मुझे ऐसा लगता है । यही, यही चीज है जो कहती हैं : जागते रहो, सावधान... (माताजी हाथ फैलाती हैं) !

 

२६९

२४ मार्च, १९७२

 

 आज सवेरे पहली बार मैंने अपने-आपको, अपने शरीरको देखा -- मुझे पता नहीं कि वह अतिमानसिक शरीर था या... (कैसे कहूं?) संक्रमणकालका शरीर । लेकिन मेरा शरीर एकदम नया था, इस अर्थमें कि वह अलैंगिक था, यानी, न स्त्री था, न पुरुष ।

 

  वहं बहुत गोरा था । लेकिन शायद यह इसलिये कि मेरी त्वचा गोरी है, पता नहीं ।

 

  वह बहुत तन्वंग था (छहरेपनका संकेत) - वह सुन्दर था । सचमुच सामंजस्यपूर्ण रूप ।

 

  तो यह पहली बार था । मै बिलकुल न जानती थी । मुझे कोई अंदाजा न था कि वह कैसा होगा, बिलकुल नहीं । और मैंने देखा -- मैं ऐसी हूं । मै ऐसी हो गयी थी ।

 

२५ मार्च, १९७२

 

   उस दिन आपने अपने' शरीरके अंतर्दर्शनके बात कही थी, यह संक्रमणकालीन शरीर...

 

हां, वह ऐसा ऐसा था । वह मैं स्वयं थी । मैंने अपने-आपको दर्पणमें नहीं देखा था : मैंने अपने-आपको यूं देखा था (माताजी सिर झुकाकर अपने शरीरपर नजर डालती है), मै.. मैं ऐसी थी ।

 

  यह पहली बार था । मेरा ख्याल है कि यह सवेरे चार बजेकी बात है । यह बिलकुल स्वाभाविक था- -- मैंने दर्पणमें नहीं देखा, मै बिलकुल स्वाभाविक थी । मुझे केवल वही याद है जो मैंने देखा था (सीनेसे कमरतकका इशारा) । मेरे ऊपर सिर्फ एक परदा-सा था । इसलिये मैंने केवल.. धड़, सीनेसे कमरतक, बिलकुल भिन्न था : न स्त्री, न पुरुष ।

 

   और वह सुन्दर था । उसका आकार बहुत, बहुत, छरहरा और बहुत कोमल था -- बहुत छरहरा, परंतु दुबला नहीं । और त्वचा बहुत सफेद थी; त्वचा मेरी त्वचा जैसी ही थी । सारा आकार बड़ा सुन्दर था, पर था अलैंगिक -- यह न कहा जा सकता था कि स्त्री है या पुरुष । सेक्स गायब हो गया था और यहां मी (माताजी छातीकी ओर इशारा करती हैं), यह सब न था । पता नहीं कैसे कहा जाय । वह केवल एक सादृश्य था, लेकिन कोई आकार न था (माताजी सीनेको छृती हैं), इतना भी नहीं जितना पुरुषोंमें होता है । बहुत गोरी त्वचा, सब कुछ ए_कदम समतल, मानों कोई पेट न था ! आमाशय -- आमाशय न था । सब कुछ बहुत तनु था । हा, तो मैंने उसपर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया, क्योंकि मैं स्वयं वैसी

 


थी और मुझे वह बहुत स्वाभाविक लगा । यह पहली बार था और था भी रातके समय, परसों । कल रात मैंने कुछ नहीं देखा - अभीतक वही पहली बार और अंतिम बार था जो मैंने यह देखा ।

 

   लेकिन यह सूक्ष्म-भौतिक शरीरमें था?

 

यह सूक्ष्म-भौतिक शरीरमें ही रहा होगा ।

 

   लेकिन बह भौतिकमें कैसे प्रवेश करेगा?

 

यह बात मुझे नहीं मालूम... मुझे नहीं मालूम, नहीं मालूम मुझे ।

 

  साथ हीं, यह भी स्पष्ट था कि इस समयकी तरह पाचन और निष्कासन- की कोई जटिल विधि नहीं होनी चाहिये । ऐसा नहीं था ।

 

  लेकिन कैसे?... स्पष्ट है कि भौजन अब भी बिलकुल भित्र है और: अधिकाधिक भिन्न होता जा रहा है (उदाहरणके लिये, ग्लूकोज, ऐसी चीजें जिनके लिये जटिल पाचनकी जरूरत नहीं रहती) । लेकिन स्वयं शरीर किस तरह बदलेगा? पता नहीं, मुझे पता नहीं ।

 

  मैंने यह देखनेके लिये उसपर निगाह नहीं डाली कि वह कैसा है, क्यों- कि वह बिलकुल स्वाभाविक था, इसलिये मैं विस्तृत वर्णन नहीं दे सकती । बस, वह न तो पुरुषका शरीर था, न स्त्रीका -- यह स्पष्ट है और उसकी रूप-रेखा, उसका आकार ठीक वैसा था जैसा बहुत-बहुत युवा ब्यक्तिका हो । मानव आकारके साथ-साथ कुछ-कुछ सादृश्य था (माताजी हवामें रेखाएं बनाती हैं), उसमें कंधा था, एक आकृति थी । मानों मानव शरीरका सादृश्य । मैं उसे देखती हू, लेकिन... मैंने उसे ऐसे देखा जैसे कोई अपने-आपको देखता है । मैंने एक प्रकारका परदा-सा डाल रखा था, यूं, अपने-आपको ढकनेके लिये ।

 

   वह सत्ताका एक प्रकार था (मेरे लिये आश्चर्यजनक न था), वह सत्ता- का एक स्वाभाविक रूप था ।

 

सूक्ष्म-भौतिकमें वह ऐसा ही होगा ।

 

   जी नहीं, जो चीज रहस्यमय मालूम होती है वह है एकसे दूसरेमें संक्रमण ।

 

 हां, कैसे?

 

२७२


लेकिन यह वही रहस्य है जैसे बंदरमेंसे मनुष्यमें प्रवेश ।

  

जी नहीं । यह उससे बहुत ज्यादा बड़ा है, माताजी । यह बहुत ज्यादा बड़ा है, क्योंकि आखिर बंदर और मनुष्यके बीच बहुत अधिक फर्क नहीं है ।

 

लेकिन यहां देखनेमें बहुत अधिक फर्क न था ( माताजी हवामें रेखाचित्र बनाती है) : कंधे थे, भुजाएं थीं, शरीर था, ऐसा कद था, पैरोंके जैसे अंग भी थे. । सब कुछ वही था, केवल वह...

 

  जी, मेरे कहनेका मतलब यह है कि बंदर और मनुष्यकी शारी- रिक क्रियाएं एक-सी होती हैं ।

 

 हां, एक-सी होती है ।

 

 जी हां, वे सांस लेते, खाना हजम करते आदि... जब कि यहां....

 

नहीं, उसमें .श्वासोवास रहा होगा - इसके विपरीत, उसके कंधे बहुत ज्यादा चौड़े थे (मुद्रा) । यह महत्त्वपूर्ण है । हां, छाती न स्त्री जैसी थी, न पुरुष जैसी, एक सादृश्य था । और फिर यह सब -- पेट, आमाशय आदि, बस रेखाएं-सी थीं, बहुत छरहरा और बहुत सामंजस्यपूर्ण रूप । लेकिन उसका वह उपयोग न था जो हमारे शरीरका होता है ।

 

  दो चीजें बहुत-बहुत भिन्न थीं : पहली - प्रजनन, जिसकी वहां कोई संभावना न थी, और दूसरी -- भोजन । लेकिन यह बिलकुल स्पष्ट है कि अब जो भोजन है वह बंदरका या आदिम मानवका भोजन न था । यह बद्रुत ज्यादा भिन्न है । अब प्रश्न है कोई ऐसे भोजन ढूढ़ निकालनेका जिसके लिये जटिल पाचन-क्रियाकी जरूरत न हो... । यहां मुझे लगता है कि भोजन पूर्णत: द्रव न होना चाहिये, लेकिन ठोस भी नहीं । और फिर, मुखका प्रश्न है -- पता नहीं । और तब दांत? स्पष्टत: तब चबानेकी जरूरत न होगी, इसलिये दांतोंका कोई... । लेकिन उनकी जगह कुछ होना चाहिये... । यह मैं बिलकुल नष्टकी जानती, बिलकुल, बिलकुल नहीं जानती कि चेहरा कैसा था, लेकिन वह वर्तमान चेहरेसे बहुत भिन्न नहीं प्रतीत होता था ।

 

२७३


 स्पष्टतः जिस चीजमें बहुत अधिक फर्क पड़ेगा वह है श्वास, उसका महत्व बहुत बढ़ गया था । यह सत्ता बहुत हदतक उसपर आश्रित थी ।

 

     जी हां, शायद वह सीधी ऊर्जाओंको आत्मसात् करती होगी ।

 

हां, शायद मध्यवर्ती सत्ताएं होंगी जो बहुत अधिक समयतक न चलेगी, जैसे बन्दर और मनुष्यके बीचकी सत्ताएं थीं ।

 

   लेकिन मुझे पता नहीं, ऐसा कृउछ होना चाहिये जो अभीतक नहीं हुआ है ।

 

       जी हां ।

 

 ( मौन)

 

    कभी-कभी मुझे लगता है कि सिद्धिका समय नजदीक ही छै ।

 

 हा, लेकिन कैसे?

 

      जी हां, कैसे? पता नहीं ।

 

क्या यह (माताजी अपने शरीरकी ओर इशारा करती है), क्या यह बदलने- वाला है? इसे बदलना चाहिये या फिर इसे अपने-आपको नष्ट करने और फिरसे बनानेकी पुरानी पद्धतिका अनुसरण करना होगा... । पता नहीं... । निश्चय ही, जीवनको बहुत लंबा किया जा सकता है, इसके उदाहरण हैं, लेकिन... । पता नहीं ।

पता नहीं ।

 

   बहुत बार मुझे ऐसा लगा है मानों रूपांतरकी जगह वह दूसरा श२रि ही मूर्त्त रूप लेगा ।

 

आह!... लेकिन कैसे?

 

   बह भी, संक्रमण, कुछ पता नहीं । लेकिन इसके वह बननेकी जगह वह इसकी जगह लेगा ।

 

हां, लेकिन कैसे?

 

   जी हां, कैसे, मुझे पता नहीं ।

 

(कुछ देर मौन रहनेके बाद) हां, मैं परसों रात जो व्यक्ति थी, स्पष्टत: अगर वह अपने-आपको मूर्त रूप दे... । लेकिन कैसे?

 

(माताजी चिन्तन करती हैं)

 

   आदमी कुछ नस्ली जानता!

 

   आश्चर्य है कि आदमी कैसे कुछ भी नहीं जानता ।...

 

(मौन)

 

माताजी, 'द ट्रांस्फर्मेशन' ('रूपांतर') नामक कवितामें श्रीअरविन्द इस तरह शुरू करते हैं : ''मेरा श्वास सूक्ष्म लयबद्ध सरितामें बहता है; बह मेरे अंगोंको एक दिव्य शक्तिसे भर देता है....''

 

श्वास, हा, यह महत्त्वपूर्ण है ।

 

२७४

२ अप्रैल, १९७२

 

माताजीकी कुछ शिष्योंसे बातचीत हुई

थी, उस बातचीतके कुछ अंश :

 

  मानवजातिने शताव्दियों और सहस्राब्दियोंतक इस क्षणकी प्रतीक्षा की है । वह आ गया है । पर वह है कठिन ।

 

  मैं तुमसे यह नहीं कहती कि हम यहां, धरतीपर आराम करने या मौज करनेके लिये हैं, अभी उसका समय नहीं है । हम यहां.. नयी सृष्टिका मार्ग तैयार करनेके लिये हैं ।

 

  शरीरमें कुछ कठिनाई है इसलिये, खेद है, मैं सक्रिय नहीं हो सकती । इसका कारण यह नहीं है कि मै बूटी हू -- मैं बूढी नहीं हू । मै तुममेंसे

 


अधिकतर लोगोंसे ज्यादा जवान हू । अगर मै यहां निष्क्रिय हू तो इसका कारण यह है कि शरीरने अपने-आपको निश्चित रूपसे रूपांतरकी तैयारीके लिये दे दिया है । लेकिन चेतना स्पष्ट है और हम यहां कामके लिये हैं - आराम और मौज पीछे आयेंगे । चलो, हम अपना काम करें ।

 

  मैंने तुम्हें यही कहनेके लिये बुलाया है । तुम जो ले सकते हा लो, जो कर सकते हो करो । मेरी सहायता तुम्हारे साथ रहेगी । सभी सच्चे प्रयासोंको अधिक-सें-अधिक सहायता दी जायगी ।

 

   यह वीर बननेकी घड़ी है ।

 

  वीरता वह नहीं है जो लोग कहते है । यह पूरी तरह एक होनेमें है - और जो पूरी सचाईसे वीर होनेका निश्चय करेंगे, उन्हें भगवान्की सहायता हमेशा मिलेगी । बस ।

 

   तुम इस समय यहां, यानी, धरतीपर इसलिये हों क्योंकि एक समय तुमने यह चुनाव किया था -- अब तुम्हें उसकी याद नट्टी है, पर मै जानती हू - इसी कारण तुम यहां हो । हां, तुम्हें इस कार्यकी ऊचाईतक उठना चाहिये, तुम्हें प्रयास करना चाहिये, तुम्हें सभी कमजोरियों और सीमाओंको जीतना चाहिये. और सबसे बढ़कर तुम्हें अपने अहंकारसे कहना चाहिये. ''तुम्हारा समय बीत गया ।'' हम एक ऐसी जाति चाहते है जिसमें अहंकार न हो, जिसमें अहंकारकी जगह भागवत चेतना हो । हम यहीं चाहते है पुख भागवत चेतना जो जातिको विकसित होने और अतिमानस सत्ताको जन्म लेने दे।

 

   अगर तुम यह समझते हों कि मै यहां इसलिये हू क्योंकि मै बद्ध हू तो यह सच नहीं है । मै बद्ध नहीं हू । मैं यहां इसलिये हूं क्योंकि मेरा शरीर रूपांतरके पहले प्रयासके लिये अर्पित है । श्रीअरविन्दने मुझसे यह कहा था । हां, तो मै उसे कर रही हू । मैं नहीं चाहती कि कोई और मेरे लिये यह करे... क्योंकि यह बहुत, बहुत सुखकर नहीं है । लेकिन मैं परिणामोंके लिये खुशीसे कर रही हू । इससे हर एक त्याग उठा सकेगा । मैं केवल एक चीज मांगती हू. अहंकी बात न सुनो ।

 

  अगर तुम्हारे हृदयोंसे एक सच्ची ''हां'' निकलती है तो तुम मुझे पूरी तरह संतुष्ट करोगे । मुझे शब्दोंकी जरूरत नहीं है, मै चाहती हूं तुम्हारे हृदयोंकी सच्ची निष्ठा और लगाव । बस, इतना ही ।
 

 २७६

१२ अप्रैल, १९७२

 

माताजी शिष्यको एक छपा हुआ कार्ड देती हैं

जिसपर उनके चित्रके साथ यह संदेश छपा है

 

     ''अंततः भागवत इच्छाके विरुद्ध कोई मानव इच्छा सफल नहीं हो सकती ।

 

     ''आओ, हम अपने-आपको जान-बूझकर, ऐकांतिक रूपसे भगवान्की ओर रखें । अंतमें विजय निश्चित है ।',

 

--श्रीमां

 

आश्चर्यकी बात है कि मानव स्वभाव इसका किस तरह विरोध करता है । साधारण मानव स्वभाव ऐसा है कि अपनी इच्छासे प्राप्त पराजय दूसरी तरहसे प्राप्त विजयकी अपेक्षा ज्यादा पसंद करता है । मुझे ऐसी चीजोंका पता लग रहा है... अविश्वसनीय -- अविश्वसनीय ।

 

   मानव मतदाता गहराई अविश्वसनीय है, अविश्वसनीय ।

 

   ऐसा लगता है कि वह 'शक्ति' जिसके बारेमें मैंने कहा था' इस तरह जा रही है (अविचलित अवतरणकी मुद्रा), गहरी, और गहरी अवचेतनाकी ओर चलती चली जा रही है ।

 

   अवचेतनामें ऐसी चीजें है... अविश्वसनीय -- अविश्वसनीय । मै यही देखनेमें रातो-पर-राते बीता रही हू और 'शक्ति' नीचे, नीचे अनिवार्य रूपसे चलती चली जा रही है ।

 

  और तब मानव अवचेतना चिल्ला पड़ती है : ''नहीं, नहीं, अभी नहीं, अभी नहीं -- इतनी जल्दी नहीं! '' और इसके विरुद्ध संघर्ष करना पड़ता है । यह व्यापक अवचेतना है ।

 

  और स्वभावत: प्रतिरोध विभीषिकाओंको लाता है, पर तब आदमी कहता है : ''लो देखो, तुम्हारी क्रिया कितनी लाभदायक है! वह विमीषिकाएं त्यागी है ।'' अविश्वसनीय, अविश्वसनीय मूढ़ता ।

 

  तुम्हें... भगवान्से चिपके, चिपके रहना चाहिये । और देखो, इसके अपने- आपमें समुचित कारण हैं! यह कहती है : ''देखो तो, तुम्हें देखो, ? यह

 

  २१ फरवरीका अवतरण (''वांछित प्रगतिको प्राप्त करनेके लिये जबर्दस्त दबाव'')

 

 


तुम्हें कहां लिये जा रही है, देख लो... ।'' आह! यह... केवल प्रतिरोध ही नहीं : विकृति है ।

 

    जी, हां ।

 

यह एक विकृति है ।

 

    जी, जी हां, माताजी, मैं स्पष्ट रूपसे देख रहा हूं, मै बहुत स्पष्ट रूपसे देख रहा हू कि यह सचमुच एक विकृति है ।

 

 यह एक विकृति है ।

 

    लेकिन ऐसा लगता है कि कोई ऐसी चीज है जो किसीका हुक्षुम नहीं मानती ।

 

नहीं, बस, करना -.. अगर हो सकें तो सुनो हीं मत, यह ज्यादा अच्छा है, लेकिन अगर तुम सुनते हों तो तुम्हें सारे समय बस, यही उत्तर देना है : ''मैं परवाह नहीं करता, मुझे परवाह नहीं है ।', ''तुम मूढ़ बन जाओगे'' -- ''मुझे परवाह नहीं ।'' ''तुम अपना सारा काम चौपट कर लगे'' - ''मुझे परवाह नहीं''... इस प्रकारकी सभी विकृत युक्तियोंके लिये तुम्हारा उत्तर होगा : ''मुझे परवाह नहीं ।''

 

  अगर तुम्हें यह अनुभूति प्राप्त हो कि भगवान् ही सब कुछ कर रहे हैं तो तुम एक अटल श्रद्धाके साथ कह सकते हों : ''तुम्हारी सारी दलीलोंका कोई मूल्य नहीं; भगवान्के साथ होनेका आनंद, भगवान्के बारेमें सचेतन होना सबसे बढ-चढूकर है -- सृष्टिसे बढ़कर है, जीवनसे बढ़कर है, सुरवसे बढ़कर है, सफलतासे बढ़कर है, सबसे बढ़कर है -- (माताजी एक उंगली उठाती हैं) 'वह'

 

   तो यह लो । यही ठीक है । और बस, समाप्त ।

 

ऐसा लगता है मानों 'वह' प्रकृतिकी बुरी-से-बुरी चीजोंको... प्रकाशमें, इस 'शक्ति'के साथ संपर्कसे धकेल रहे हैं ताकि वे समाप्त हों जायं ।

 

   और वह उसके साथ चिपका प्रतीत होता है जो हमारे अंदर सद्भावना- पूर्ण था ।

 

  एक ऐसा क्षण आता है जब सब कुछ बिलकुल अद्भुत होता है, लेकिन तुम्हें ऐसे घटोंमेंसे गुजरना पड़ता है जो सुखकर नहीं होते ।

 

२७८


   जी हां । हां, ऐसे अवसर आते हैं जब आदमी अपने-आपसे पूछता है कि क्या सब कुछ बुहारकर फेंक तो नहीं दिया जायगा ।

 

(माताजी हंसती हैं) यह वाहियात है! वाहियात । प्रतिरोधकों पूरी तरह गुहरकर फेंका जायगा ।

 

   लेकिन...

 

     (माताजी अपने अंदर चली जति है)

 

   मुझे अधिकाधिक ऐसा लग रहा है कि बस एक ही उपाय है... (हंसी) । इसका एक मजेदार चित्र बनता है : मनके ऊपर बैठ जाओ । मनके ऊपर बैठ जाओ : ''चुप रहो । '' यही एक उपाय है ।

 

  तुम मनपर बैठ जाओ (माताजी एक टकोर देती है) : ''चुप रहो ।''

 

 ( मौन)

 

   अवचेतनामें पिछले प्रलयोंकी स्मृति है और यही स्मृति हमेशा यह भाव दिया करती है कि सब कुछ लुप्त हों जायगा, सब कुछ नष्ट हों जायगा ।

 

  लेकिन अगर सच्चे प्रकाशमें देखो तो केवल एक अभिव्यक्ति लुप्त होगी और उससे ज्यादा सुन्दर अभिव्यक्ति आयेगी । मुझसे ''ने कह।- था कि यह सातवीं और अंतिम अभिव्यक्ति है... । श्रीअरविन्द (मैंने ''की बात श्रीअरविन्दके बतलायी), श्रीअरविन्द इससे सहमत थे क्योंकि उन्होंने कहा : यही अतिमनकी ओर पदांतर देखेगी । लेकिन उसके लिये, अतिमनके लिये मनकों नीरव होना होगा! इससे मुझे हमेशा ऐसा लगता है (हंसते हुए), मानों एक बच्चा मनके सिरपर बैठा खेल रहा है (मुद्रा मानों कोई बच्चा बैठा पांव हिला रहा है), मनके सिरपर!... अगर मै अब भी चित्र आक सकती तो यह एक मजेदार चीज होती । मन -- यह मोटा-ताजा पार्थिव मन (माताजी गाल फुलाती हैं), जो अपने-आपको इतना महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य समझता है, उसके सिरपर बैठकर बच्चा खेल रहा है! सचमुच बहुत मजेदार है । आह, वत्स, हममें श्रद्धा नहीं है, जैसे ही श्रद्धा हो ।... हम कहते हैं : हम दिव्य जीवन चाहते है -- फिर भी हम उससे डरते है । लेकिन जैसे उसी डर चला जाय और हम सच्चे हों... सब कुछ सचमुच बदल जाता है । हम कहते है : हमें यह जीवन अब और नहीं चाहिये और (हंसते हुए) कोई चीज है जो उससे चिपकी रहती है!

 

यह ऐसी बेतुकी बात है ।

 

  हम अपने पुराने विचारोंसे चिपके रहते हैं, अपनी पुरानी... इस पुरानी दुनियासे चिपके रहते है जिसे गायब हो जाना चाहिये - और हम डरते हैं ।

 

   और दिव्य बालक मनके सिरपर बैठा खेलता हुआ.. । काश! मै यह चित्र बना पाती । यह अद्भुत है ।

 

  हम ऐसे मूढ़ हैं कि यहांतक कह बैठते हैं (माताजी खीजी हुई प्रतिष्ठाके लहजेमें) : ''यह भगवान्की भूल है, उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिये ।'' यह हास्यास्पद है, वत्स ।

 

 ( मौन)

 

  मेरी दृष्टिमें सबसे अच्छा उपाय (यानी, सबसे सरल) यह है : पूरी सचाई और निष्कपटताके साथ ''जो 'तुम्हारी' इच्छा । जो 'तुम्हारी' इच्छा ।'' और तब -- तब समझ आती है । तब तुम समझते हों । लेकिन तुम मानसिक रूपमें नहीं समझते, वह यहां नहीं है (माताजी अपना सिर छूती हैं) । जैसी 'तेरी' इच्छा ।

 

२७९

६ मई, १९७२

 

 (माताजी ''अंदर'' देखती हैं)

 

     क्या आप कुछ देख रहो हैं?

 

 (मौन)

 

 मेरा ख्याल है कि मै तुम्हें पहले हीं बता चुकी हू कि एक सुनहरी 'शक्ति' नीचे दबाव डाल रही हैं (दबानेकी मुद्रा), उसमें कोई भौतिक घनता तो नहीं है, फिर भी वह बहुत अधिक भारी मालूम होती है..

 

  जी हां ।

 


.... और वह 'भौतिक द्रव्य'पर दबाव डाल रही है ताकि वह अंदरसे भगवान्की ओर मुंडे -- बाहरकी ओर मोक्ष नहीं (ऊपरकी ओर इशारा), आंतरिक रूपसे भगवान्की ओर मुड़ना । इसलिये परिणाम यही दिखायी देता है कि मानों विमीषिकाएं अनिवार्य हैं । और अनिवार्य विभीषिकाओंके इस बोधके साथ स्थितिके कुछ समाधान भी हैं । ऐसी घटनाएं हो जाती हैं जो अपने-आपमें बिलकुल चमत्कारिक हैं । ऐसा लगता है कि दोनों छोर ज्यादा-से-ज्यादा पराकाष्ठापर पहुंच रहे है, मानों जो अच्छा है ज्यादा अच्छा, और जो बुरा है वह ज्यादा बुरा होता जा रहा है । बात ऐसी ही है । उस जबरदस्त 'शक्ति'के होनेसे जो जगत्पर दबाव डाल रही है - मुझे ऐसा ही लगा ।

 

  जी हां, यह बोधगम्य है ।

 

हां, यह इस तरह अनुभव होती है (माताजी हवामें उंगलियां चलाती हैं), और तब, बहुत-सी चीजें, जो सामान्यत: उदासीनताके साथ होती रहती है, वे तीव्र हो जाती हैं; परिस्थितियां, भेद तीव्र हो जाते हैं; दुर्मावनाएं वती हों जाती है; और साथ ही असाधारण चमत्कार -- असाधारण! आदमी बचा लिये जाते है, मरते-मरते आदमी बचा लिये जाते है, जटिल चीजें अचानक सुलझ जाती है ।

 

   और व्यक्तियोंके बारेमें भी यही बात है ।

 

  जो जानते हैं कि कैसे मुड़ा जाय... (कैसे कहा जाय ?) जो सचाईके साथ भगवानको बुलाते हैं, जो यह अनुभव करते हैं कि यही एकमात्र निस्तार है, उसमेंसे निकालनेका एक ही रास्ता है, जो सचाईके साथ अपने- आपको देते है, तो.. ( सहसा फटनेका संकेत) कुछ ही मिनटोंमें चीज अद्भुत हो जाती है । छोटी-से-छोटी चीजोंके लिये -- कोई भी चीज छोटी या बड़ी, महत्त्वपूर्ण या महत्वहीन नहीं है - सबके लिये यही बात है ।

 

  मूल्य बदलते है ।

 

  ऐसा लगता है मानों संसारका दृश्य बदलता है ।

 

 ( मौन)

 

   ऐसा लगता है मानों अतिमनके अवतरणसे संसारमें जो परिवर्तन आयेगा, यह उसका कुछ अनुमान देनेके लिये है । सचमुच जो चीजें उदासीन थी वे निरपेक्ष हो जाती हैं : जरा-सी भूल अपने परिणामोंमें सुस्पष्ट हो जाती

 

२८१


है और जरा-सी सचाई, जरा-सी सच्ची अभीप्सा अपने परिणामोंमें चमत्कारिक हो जाती है । लोगोंमें मूल्य बढ़ गये है और भौतिक दृष्टिसे भी बहुत छोटा दोष, छोटे-सें-छोटा दोष भी बड़े परिणाम लाता है ओर अभीप्सामें जरा-सी सचाई भी आश्चर्यजनक परिणाम लाती है । मूल्य बहुत तीव्र हों गये हैं, यथार्थ बन गये है ।

 

माताजी, आपने दोष और भूलकी बात की है -- पता नहीं यह बुद्धि-भ्रंश है या नहीं, लेकिन मुझे अधिकाधिक यह लग रहा है कि दोष, भ्रांति आदि सब असत्य है । चीजें ऐसी नहीं है । यह एक उपाय है... कैसे कहूं? अभीप्साके क्षेत्रको विस्तृत करनेका उपाय है ।

 

हां, हां, बिलकुल ठीक ।

 

   समग्रका बोध त यही है कि हर चयन हर चीजके लिये जगत् की चेतनाके आरोहणको दृष्टिमें रखकर संकल्प किया गया है । चेतना दिव्य होनेकी तैयारी कर रही है और यह बिलकुल सत्य है कि हम जिन चीजों- को दोष मानते है वे सब मिलकर सामान्य मानव अवधारणाके भाग है पूरी तरहसे, पूरी तरहसे ।

 

  एकमात्र दोष -- अगर कोई दोष है -- वह है दूसरी चीजके लिये इच्छा न करना । लेकिन जैसे ही कोई उस दूसरी चीज- की चाह....

 

 लेकिन यह दोष नहीं, मूढ़ता है!

 

  लो, यह बहुत सरल है । सारी सृष्टिको भगवानके सिवा और किसी- की चाह न होनी चाहिये, भगवानको अभिव्यक्त करनेके सिवा कोई चाह न होनी चाहिये, वह जो कुछ भी करता है, यहांतक कि उसकी तथा- कथित भूलेंतक सारी सृष्टिके लिये भगवानको अभिव्यक्त करना अनिवार्य बनानेके साधन है -- लेकिन यह ''भगवान्' ' नहीं जिसकी मनुष्य कल्पना करता है, जिसे ''ऐसा होना चाहिये और वैसा नहीं'', जिसके लिये बहुत-से प्रतिबंध है. वह आश्चर्यजनक शक्ति और ज्योतिकी समग्रता हैं । वह सचमुच जगत् में 'शक्ति' है, एक नयी और आश्चर्यजनक 'शक्ति' जो जगत् में आयी है और जिसे अपने-आपको अभिव्यक्त करना चाहिये और ( अगर यह कहा जा सकें तो) इस दिव्य 'सर्वशक्ति' को ''अभिव्यक्ति योग्य'' बनाना चाहिये ।

 

२८२


  मै इस निष्कर्षपर आयी हू । मैंने देखा है, मैंने अवलोकन किया है ओर मैंने यह जाना है कि जिसे हम किसी अधिक अच्छे शब्दके अभावमें ' 'अतिमन'' कहते हैं, वह अतिमन सृष्टिको उच्चतर 'शक्ति' के प्रति अधिक संवेदनशील बना देता है । हम उसे ''भगवान्'' कहते हैं क्योंकि हम... (हम जो है उसकी तुलनामें वह दिव्य है, लेकिन...) । वह कुछ ऐसी चीज- है (अवतरण और दबावकी मुद्रा), जिसे जड-तत्वको शक्तिके प्रति अधिक संवेदनशील और अधिक... ''प्रभावनीय' ' बना देना चाहिये । फंसे कहा जाय?. अन्दर तो हमारे लिये जो कुछ अदृश्य या अगोचर हैं- वह अवास्तविक है (मैं साधारण रूपसे मनुष्योंकी बात कह रही हू), हम कहते है हिं कुछ चीजें ' 'ठोस' ' हु और कुछ नहीं हैं; फिर भी यह 'बल', यह 'शक्ति', जो भौतिक नहीं है, धरतीपर पार्थिव भौतिक वस्तुओंकी अपेक्षा अधिक ठोस रूपमें शक्तिशाली है; हां, बात ऐसी ही है ।

 

   अतिमानव सत्ताओंके लिये यही सुरक्षा और बचावका साधन है, यह एक ऐसी चीज हलगी जो देखनेमें भौतिक नहीं है, लेकिन जिसमें भौतिक द्रव्यपर, भौतिक चीजोंकी आक्षा अधिक सामर्थ्य है । यह, यह बात दिन- पर-दिन, बल्कि घंटे-घंटे अधिकाधिक सत्य होती जा रही है । ऐसा लगता है कि यह 'शक्ति', जब उसे उससे निर्देशन मिलता है जिसे हम ''भगवान्'' कहते है, तो यह सचमुच -- समश रहे हो, भौतिक द्रव्यको परिचालित करनेमें समर्थ होती है । वह भौतिक संयोग पैदा कर सकती है, वह एक- दम भौतिक दुर्घटनासे बचा सकती है, वह एकदम भौतिक चीजके परिणामोको मिटा सकती है --- यह 'भौतिक द्रव्य'से अधिक... शक्तिशाली है । यह एकदम नयी और अबोधगम्य है, उमौर इसलिये यह मनुष्योंकी साधारण चेतनामें एक आतंक पैदा कर देती है । हां, यह वही है । ऐसा न्दगता है । यह अब वह नहीं है जौ पहले था । और सचमुच कुछ नयी चीज है -- अब य-है वह नहीं रहा जो पहले था ।

 

     हमारी सारी सामान्य बुद्धि, हमारी सारी तर्कणा, हमारी सारी व्यावहारिक बुद्धि, सब जमीनपर पटक दी गयी है! बस खतम! -- अब उस- मे कोई वला नहीं है । कोई वास्तविकता नहीं है । जो है उसके अनुरूप नहीं रहीं । सचमुच यह एक नया जगत् है ।

 

 ( मान)

 

 यही चीज अपने-आपको शरीरके अंदर 'नयी शक्ति' के अनुरूप बनानेमें कठिनाई अनुभव करती है और कठिनाई, अव्यवस्था और रोग पैदा करती

 

२८३


है । लेकिन अचानक ऐसा लगता है कि अगर हम पूरी तरह ग्रहणशील हों तो अत्यधिक बलशाली हों जायंगे । मुझे यही लग रहा है । मुझे अधिकाधिक यह लग रहा है कि अगर समस्त चेतना (पूर्णत: भौतिक चेतना -- अधिकतम भौतिक चेतना) इस नयी 'शक्ति' के प्रति ग्रहणशील हो तो हम दु - र्जे - य बन जायंगे ।

 

     (माताजी आंखें बंद कर लेती हैं)

 

   लेकिन एक आवश्यक शर्त है : अहंका राज्य समाप्त होना चाहिये । अभी अहं हीं रुकावट है, अहंके स्थानपर वह दिव्य चेतना आनी चाहिये जिसे स्वयं श्रीअरविंदने ''अतिमन'' कहा है; हम उसे अतिमानस कह सकते हैं ताकि कोई गलतफहमी न हों, क्योंकि जब हम ''भगवान्'' की बात करते हैं तो लोग झट ''देव'' समझ लेते हैं और सब कुछ बिगड़ जाता है । यह ऐसा नहीं है । नहीं, यह वह नहीं है (माताजी धीरे-धीरे बंद मुट्ठियां नीचे लाती हैं) । यह अतिमानसिक लोकका अवतरण है जो शुद्ध कल्पना नहीं है (ऊपरकी ओर इशारा), यह पूरी तरह भौतिक 'शक्ति' है, लेकिन इसे भौतिक साधनोंकी (मुस्कराते हुए) जरूरत नहीं ।

 

   एक ऐसा लोक जो जगत् में शरीर धारण करना चाहता है ।

 

 ( मौन)

 

   बहुत बार ऐसे क्षण आये है जब मेरे शरीरने एक नये प्रकारकी नयी बेचैनी और चिंताका अनुभव किया; यह मानों कोई ऐसी चीज थी जो आवाज तो न थी, पर जो मेरी चेतनामें इन शब्दोंमें अनूदित हुई : ''तुम डरती क्यों हों? यह नयी चेतना है ।'' यह कई बार आयी और तब मै समझ गयी ।

 

 ( मौन)

 

 समझ रहे हो, जो चीज मनुष्यकी सामान्य बुद्धिमें कहती है : ''यह असंभव है, यह कमी नहीं हुआ,'' इस चीजका अंत हों गया । वह समाप्त हों गयी, वह मूर्खतापूर्ण है । वह मूढ़ता बन गयी है । कहा जा सकता है : यह संभव है, क्योंकि यह कमी नहीं हुआ । नया जगत् है, नयी चेतना है और नयी 'शक्ति' है, यह संभव है और यह अधिकाधिक

 

२८४


अभिव्यक्त हो रही है और होती रहेगी, क्योंकि यह नया जगत् है, क्योंकि यह कभी नहीं हुआ ।

 

   यह होगा क्योंकि यह पहले कभी नहीं हुआ ।

 

 ( मौन)

 

   यह सुन्दर है. यह होगा, क्योंकि यह कमी नहीं हुआ -- क्योंकि पहले कभी नहीं हुआ ।

 

        (माताजी लंबे मौनमें चली जाती हैं)

 

   यह भौतिक द्रव्य नहीं है, पर 'द्रव्य' से अधिक ठोस है!

 

   जी हो, यह लगभग कुचलता हुआ है ।

 

 कुचलता हुआ ? हां, ऐसा ही है... हां, ऐसा ही!...

 

  जो कुछ ग्रहणशील नहीं है वह सब कुचलनेका अनुभव करता है, लेकिन जो ग्रहणशील है वह इसके विपरीत एक... एक प्रबल विस्तारका अनुभव करता है ।

 

   जी हां, यह बहुत अजीब है, यह दोनों है !

 

 एक ही समयमें दोनों ।

 

   जी हां, कुछ फूलता हुआ-सा लगता है, मानों सारी चीजमें विस्फोट होनेवाला है, साथ ही कुछ चीज है जो कुचल दी जाती

 

 हां, जो चीज कुचली जाती है वह, वह चीज है जो प्रतिरोध करती है, जो ग्रहणशील नहीं है । वह केवल अपने-आपको खोल दे तो वह चीज मानों... दुर्जेय वस्तु बन जाती है.. । यह असाधारण है । हमारी शताब्दियोंकी आदत है  , है न, जो प्रतिरोध करती है और ऐसा संस्कार देती है; लेकिन जो कुछ बाहर खुल जाता है... ऐसा लगता है मानों आदमी बड़ा, वडा, बड़ा होता रहा है.. । यह बहुत भव्य है । हां, यह... ।


२८५

३० अगस्त, १९७२

 

   मैं स्पष्ट देखती हू, 'विचार नहीं, चेतना निर्देशन कर रही रौ_ । तो अगर चेतना भगवान्के प्रति चुपचाप खुली हों तो सब कुछ ठीक है । सारे समय चेतनामें ऐसी चीजें होती रहती हैं मानों वह सब सारी दुनियासे आ रहा है ( सब ओरसे आक्रमणकी मुद्रा). वह सब जो भागवत क्रियाका निषेध या प्रतिवाद करता है -- ऐसी चीजें सारे समय इस तरह आती रहती हैं ( वही मुद्रा) । अत: यदि मैं अचंचल रहना जान्उ ( आत्म-निवे- दनकी मुद्रा, हाथ ऊपरकी ओर खुले हुए), एक प्रकारके ( मुस्कराते हुए) असत्के भावमें - एक प्रकार... पता नहीं कि वह पारदर्शकता मुझे नहीं मालूम कि उसे पारदर्शकता कहा जाय या निश्चलता, बहरहाल, वह चेतनामें कोई ऐसी चीज है जो इस प्रकार हैद्र ( वही हाथ खत्ते हुए, आत्म- निवेदनकी मुद्रा) । जब चेतना इस प्रकार हो तो सब ठीक जश्नता है, लेकिन जैसे ही वह गति करना शुद्ध करे, यानी, व्यक्ति किसी शी रूपमें अपना दिखावा करे तो चीज घिनौनी हों जाती है । पर यह बहुत मजबूत संवेदन है ।

 

  जानते हो, भौतिक शरीरकी हज़ारों अनुभूतियां है जो कहती हैं : ' 'उफ! यह आनंदमय अवस्था असंभव हैद्र! '' -- यह मूढ़ता साझे)- चीजमें देर लगा देती है । यह ऐसा है मानों कोशुना शरीरके कोषाणु जिन्हें लड़ने, दुःख झेलनेकी आदत है, ये उन चीजोंको स्वीय। रनेगें अस्थि पैर जो ओ'सो हों ( वही हाथ खुले हुए, आत्म-निवेदनकी मुद्रा ) । लेकिन जव वह ऐसा हो तो... अद्भुत होता हे ।

 

  सिर्फ, यह अनुभूति निकती नहो । यह सारे साम्य नहीं बने रहती --- सारे समय, सारे समय चीजें होती रहती है ( बैसब आक्रम-'गहकी वही मुद्रा) । लेकिन अब मैं अच्छी तरह देखती हू, बहुत साg:ट -- बहुत स्पष्ट रूपसे देखती हू चेतना विचारका स्थान ले रही है  

 

  और... ( कैसे कहा जाय ') भेद. विचार एक ऐसी चीअ है जौ यूं करती है ( तेजीसे घूमनेकी मुद्रा), बह  गति करती तै, गति करती है...,चेतना एक ऐसी चीज है जो यूं करती है ( हाथ खुले, ऊपरकी ओर आत्म- समर्पणकी मुद्रा) । मै समझा नहीं सकती ।

 

   (माताजी आंखें बंद कर लेती हैं, -हाय खुले हुए है )

 

 तुम्हें कुछ कहना या पूछना है?

 


मै अपने-आपसे पूछ रहा था कि मैं इस गतिको तेज करनेके लिये क्या कर सकता हू । व्यावहारिक जीवनमें हमपर बहुत-सी चीजोंका आक्रमण होता रहता है, है न... । गतिको तेज करनेके लिये क्या किया जा सकता है?

 

 अगर आदमी चिंता या घबराहटके बिना रह सकें तो इससे बहुत फर्क पड़ेगा ।

 

    जी !

 

बहुत बड़ा फक ।

 

तुम समझे? मेरा शरीर शुरू कर रहा है -- बस, यह जानना शुरू ही कर रहा है कि भगवान्की ओरका अर्थ है जीवन... ( माताजी विशालताकी मुद्र बाहें फैलाती हैं) यानी, उन्नतिशील और प्रकाशमय जीवन; लेकिन पिछले अनुभवोंका संग्रह कहता है. ' 'नहीं! यह संभव नहीं है! '' -- तो यह रहा । यह मूढ़ ' 'संभव नहीं' ' देर लगाता और चीजोंको विगाड़ता है ।

 

   यह इस तथ्यपर निर्भर है कि जैसे ही शरीर सच्ची वृत्तिको त्याग देता है तो वह कष्टकर हो जाता है, हर चीज दुःख देती है, हर चीज कष्ट सह रही है - लगता है कि हर जगह मौत और विघटन है । और तब, यही चीज 'भौतिक द्रव्य' की 'मूढ़ताको मजबूत बनाती है ।

 

  तो सच बात यह है कि मैं किसी ठीक-ठीक प्रश्नका उत्तर देनेके सिवा कुछ न कहना पसंद करूंगी ।

 

   अपने लिये मै अपने-आपसे पूछता हू कि मैं किस बातपर अपने- आपको लगाऊं?

 

(कुछ मौनके वाद) क्या तुम्हारा ख्याल है कि तुम विचारके पार जा चुके हो?

 

(जी हां, बिलकुल । एकमात्र चीज जो मेरे अंदर बची हुई है, वह है यांत्रिक विचार-गति, अन्यथा.... । मैं कह सकता हू कि मैं अपने विचारका कभी उपयोग नहीं करता । मुझे हमेशा लगता है ऊपरसे खींच रहा हू । उदाहरणके लिये, मीमांसक मन मेरे लिये असंभव है ।

 

२८७


हां, यह ठीक है । तुम ठीक रास्तेपर हो ।

 

  जी हां । लेकिन व्यावहारिक रूपसे संघर्षका भाव रहता है... मानों कुछ-कुछ डूबनेका-सा भाव ।

 

जहांतक मेरा सवाल है, बे सब चीजें, जिनपर मै क्रियाके लिये आश्रित थी, वे सब मानों जान-बूझकर तोड़फोड़ दी गयी हैं ताकि मैं (छोटी-सें-छोटी नगण्य चीजोंके लिये भी) यही कहूं : जैसी 'तेरी' इच्छा । यह मेरे लिये  ... यह मेरे लिये एकमात्र शरण है ।

 

  साधारण देखनेवालेकी दृष्टिमें, जो यह नहीं जानता, बेवकूफ बनना ही स्वीकार करना पड़ता है ।

 

     लेकिन ऐसे लोग भी कम नहीं हैं जो प्रकाश भी देखते हैं, है न?

 

संभव है । (हंसते हुए) यह उनके लिये हितकर है!

 

( मौन)

 

  बहुधा, बहुधा, मै प्रभुसे पूछती हू : अब जब मै न तो स्पष्ट बोल सकती हू, न स्पष्ट देख सकती हू, तो सहायता कैसे कर सकूंगी? यह एक ऐसी अवस्था है.. । शरीरको हासका अनुभव नहीं होता! उसे विश्वास है कि कल ही अगर प्रभु चाहें कि वह क्रिया-कलाप शुरू कर दे तो वह शुरू कर सकेगा । 'बल' है (माताजी अपनी भुजाओंको, मांसपेशियोंको छूती है), कमी-कभी प्रबल सामर्थ्य!... क्यों?... ऐसी अवस्थाके न्ठिये संकल्प हुआ है... मुझे शांत रहने दिया जाय!

 

लेकिन आप जानती हैं कि यह जरूर इच्छित स्थिति है, क्योंकि स्वयं मुझे लगता है, अपने छोटे-से भावसे मैं जितना अनुभव कर सकता हूं, मुझे लगता है कि अपनी निश्चलतामें आप एक दुर्जेय शक्ति, उत्पादक-केंद्र हैं ।

 

   हां, यह मुझे मालूम है । यह मैं जानती हू, बहुत अधिक । हां, एक  'शक्ति'...

 

२८८

२५ अक्तूबर, १९७२

 

शिष्य माताजीको एक फूल देता है

और माताजी उसे लौटा देती हैं ।

 

     यह ''अवचेतनामें सत्यकी शक्ति'' है ।

 

         (कुछ क्षणके लिये मौन)

 

अवचेतनामें सब प्रकारके विरोध इकट्ठे है ।

 

    जी !

 

और वह इस तरह उठते है (जोरोंसे ऊपर उठनेकी मुद्रा), सारे समय, सारे समय । और तब... तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम एकदमसे मूQ, निश्चेतन, दुर्भावनावाले हो । और यह सब.. (फिर वही नीचेसे ऊपर उठनेकी मुद्रा) ।

 

  और चेतना वहां है (सिरके चारों ओर इशारा), शांत, असाधारण रूपसे शांत... (माताजी हाथ फैलाती हैं) - ''हे प्रभु, तेरी इच्छा पूरी हों ।'' और तब, वह, वह नीचेसे ऊपर उठनेवाली चीजपर दबाव डालता है ।

 

  ऐसा लगता है मानों मेरी चेतनामें संसार-भरका युद्ध लड़ा जा रहा है । बात इस हदतक आ गयी है कि भूल जानेका, भगवानको क्षण-भरके किये भूल जानेका अर्थ है विभीषिका ।

 

   और तुम्हारा क्या हाल है?

 

     ओह, ऐसा लगता है कि अवचेतनाकी सफाईका कहीं अंत ही नहीं ।

 

हां, यह केवल एक ब्यक्तिकी बात नहीं है : यह धरतीकी अवचेतना है । हमका कहीं अंत नहीं । और फिर भी व्यक्तिको...

 

  तो, उसे रोकनेका मतलब होगा काम बंद कर देना । उसे जारी रखनेका मतलब है उसमें समय लगेगा... । पता नहीं. - । इसका कहीं अंत नहीं ।

 

 


  सप्टा है, हां, स्पष्ट है इसे बंद करनेका अर्थ होगा काम बंद कर देना । ऐसा है मानों वहां, चेतनामें (माताजी अपने सिरके चारों ओर इशारा करती हैं) संयोजन और क्रियाका केंद्र है ।

 

  इस तरह, मेरे पास बस एक ही उपाय है, शांत रहना, शांत, शांत (माताजी ऊपरकी ओर हाथ फैलाती हैं)... यह अनुभव करना कि व्यक्तित्व कुछ नहीं है, कुछ नहीं है, कुछ नहीं है -- वह गुजरने देता है, वह दिव्य किरणोंको गुजरने देता है । यही एक मात्र समाधान है । स्वयं भगवान्को.. युद्ध करना चाहिये ।

 

 ( मौन)

 

   पिछली बार, आपने कहा था कि मनुष्योंका सचेतन रूपसे भगवान्की ओर मुड़नेमें सैकड़ों, शायद हज़ारों साल लग जायेंगे । लेकिन...

 

 शायद नहीं ।

 

    ... ऐसा लगता है कि इस बार कोई निर्णायक चीज आकर रहेगी ।

 

हां... । जानते हो, मुझे लगता है कि व्यक्ति ध्यानको एकाग्र करनेके लिये प्रतिमाकी तरह है । लोगोंको किसी चीजकी जरूरत है - उन्हें हमेशा अपने आयामकी किसी चीजकी जरूरत रही है, ताकि वें उसपर अपना ध्यान केंद्रित कर सकें । तो यह शरीर अपनी ओरसे यथासंभव पूरी कोशिश करता है कि वह 'भागवत शक्ति' के मार्गमें रुकावट न बने । वह शक्ति उसमेंसे गुज़रती है, उसकी रुकावटोंको रद्द करती है और साथ ही... ऐसा बनाती है कि मानों वह एक प्रतिमा हों जिसकी लोगोंको अपना ध्यान केंद्रित करनेके लिये जरूरत है ।

 

२९०

४ नवंबर, १९७२

 

समस्त अवचेतना.. (नीचेसे उभरनेकी मुद्रा) ।

 

 ( मौन)

 

   यह संवेदन नहीं है, यह ज्ञान नहीं है, यह एक प्रकारका... (माताजी हाथोंसे हवाको टटोलती है)... इसे विश्वास नहीं कहा जा सकता : यह एक निश्चिति है -- बोधमें निश्चिति -- कि एक 'आनंद' है जो.. जो हमारे लिये तैयार है, और अवचेतनामें परस्पर विरोधोंका एक पूरा जगत् दवा हुआ है जो इस तरह ऊपर उभरता है फिर हमें उसका अनुभव न हों । फिर.. कहा जा सकता है कि यह एक रणक्षेत्र है, परंतु पूर्णत: शांत । इसका वर्णन करना असंभव है ।

 

वर्णन असंभव है ।

 

  तो अगर मैं हिलूं-डुलूं नहीं और इस 'चेतना' में प्रवेश कर जाऊं तो समय बहुत अधिक तेजीसे और... एक प्रकारकी उज्ज्वल शांतिमें बीत जाता है । और जब कोई छोटी-सी चीज भी मुझे बाहर खींचती है तो लगता है कि मुझे नरकमें घसीटा जा रहा है । ऐसा है यह ।

 

  बेचैनी इतनी अधिक होती है कि यह लगता है कि इस तरह तुम एक मिनट या कुछ मिनट मी नहीं जी सकते । और फिर.. और फिर तुम भगवानको बुलाते हो... । तब तुम्हें लगता है कि तुम भगवान्की भुजाओंमें हो ।

 

   तब सब ठीक होता है ।

८ नवंबर, १९७२

 

 मुझ क्षण-भरके लिये -- कुछ ही सेकंडोंके लिये -- अतिमानस-चेतना प्राप्त हुई थी । वत्स, वह अद्भुत चीज थी ! मै समझ गयी हूं कि अगर अभी हम उसका स्वाद ' जाय त हम उसके बिना रहना पसंद न करेंगे । और हम... (गूधनेकी मुद्रा), अभी मेहनतके साथ बदलनेके

 


पथपर हैं । और परिवर्तन, बदलनेकी प्रक्रिया, ऐसा लगता है कि... । उसे एक प्रकारकी उदासीनतासे पाया जा सकता है (पता नहीं, इसे कैसे कहा जाय) । परंतु यह अधिक टिकता नहीं । और साधारणत: यह श्रमसाध्य है । लेकिन वह चेतना, वह ऐसी अद्भुत है, समझे!

 

   और यह बहुत मजेदार है, मानों पूर्ण शांतिमें अधिकतम क्रियाशीलता हो । लेकिन वह चीज रही कुछ सेकंड ही ।

 

 (मौन)

 

 और तुम?

 

  और यह समग्र चेतना है?

 

वह असाधारण है । वह मानों परस्पर-विरोधोंका सामंजस्य है । एक समग्र, विस्मयकारी क्रियाशीलता और पूर्ण शांति ।

 

  लेकिन यह सब शब्द हैं ।

 

 (मौन)

 

    यह भौतिक चेतना है?

 

यह क्रिया भौतिक क्रिया है -- लेकिन उसी तरहसे नहीं, क्यों, है न?

 

 (मौन)

 

   उसके साथ ज्यादा आसानीसे कैसे संपर्क किया जा सकता है? वहांतक कैसे पहुंचा या वहां रहा जा सकता है?

 

 मुझे नहीं मालूम, क्योंकि, मेरे लिये तो, समग्र चेतना, जिसमें शरीरकी चेतना मी आ गयी ( निवेदनकी मुद्रा), सदा... उसकी ओर मुंडी रहती है जिसे वह भगवान् समझती है ।

 

   और वह भी बिना ''कोशिश'' के, समझे?

 

    जी हां, जी हां ।

 

२९२

२० दिसंबर, १९७२

 

 तुम्हें कुछ नहो पूछना?

 

मैंने अपने-आपसे श्रीअरविन्दके बारेमें एक प्रश्न पूछा । मैं यह जानना चाहता था कि जब श्रीअरविन्दने शरीर त्यागा तो बे रूपांतरके किस पहुंच चुके थे? उदाहरणके लिये, बे उस सरमद जो काम कर रहे थे उसमें, और आप अब जो काम कर रही हैं उसमें, क्या फर्क है?

 

उन्होने अपने शरीरमें अतिमानस-शक्तिकी बहुत-सी राशि इकट्ठी कर ली थी और जैसे ही उन्होंने शरीर छोड़ा.. । वे अपने बिस्तरपर लेटे हुए थे, मैं उनके पास खड़ी थी, एक बहुत ही मूर्त्त और ठोस रूपमें - इतने ठोस संवेदनके साथ कि ऐसा लगता था कि शायद वह दिखलायी दे -- वह सारी अतिमानसिक शक्ति जो उनके शरीरमें थी मेरे शरीरमें आ गयी । मुझे उसके मार्गकी रगड़का अनुभव हुआ । वह असाधारण चीज थी -- असाधारण । वह एक असाधारण अनुभूति थी । लंबे समयतक, लंबे समयतक यूं (माताजीके शरीरमें 'शक्ति'के प्रवेशकी मुद्रा) । मैं उनके बिस्तरके पास खड़ी थी और यह होता रहा ।

 

यह लगभग संवेदन था -- यह एक भौतिक संवेदन था ।

 

बस, बहुत देरतक ।

 

 मै यही जानती हू ।

 

लेकिन मै जो बात समझना चाहता हू वह यह है कि तब आंतरिक काम किसबिंदुतक पहुंचा था, उदाहरणके लिये, अवचेतना- की सफाई और यह सब कहांतक हुए थे? उस समय उन्होंने जितना काम किया था और अब आप जहांतक पहुंची हैं, इन दोनोंमें क्या फर्क है ? मेरा मतलब है : क्या अवचेतना अब कम अवचेतन है या...?

 

हां, हां, निश्चय ही । निश्चय ही ।

 

   लेकिन यह देखनेकी मानसिक पद्धति है - अब मेरे अंदर यह नहीं रही ।

 

   जी, माताजी ।

 

 (मौन)

 

   शायद इस 'शक्ति'की, इस 'ऊर्जा'की सामान्य या सामूहिक तीव्रतामें फर्क होगा, है न?

 

क्रियाकी शक्ति'में फर्क है । स्वयं उनमें, स्वयं उनमें जब वे सशरीर रो तबकी अपेक्षा अधिक क्रिया, अधिक क्रिया-शक्ति है । और फिर, इसीके लिये तो उन्होने शरीर छोड़ा था, क्योंकि इस तरह काम करनेके लिये यह जरूरी था ।

 

  यह बहुत ठोस है । उनकी क्रिया अब बहुत ठोस हों गयी है । सप्टा है कि यह एक ऐसी चीज है जो मानसिक नहीं है । वह और क्षेत्रका। है । लेकिन वह वायवीय भी नहीं है -- वह ठोस है । हम लगभग यहांतक कह सकते है कि वह भौतिक है ।

 

लेकिन यह जो दूसरा क्षेत्र है, मैंने बहुत बार अपने-आपसे पूछा है कि वहांतक पहुंचनेके लिये कौन-सी सच्ची गति करनी चाहिये? दो गतियां संभव हैं : अंदरकी ओर, अंतरात्माकी ओर गति ओर दूसरी, जिसमें व्यक्तित्वका निराकरण कर दिया जाता है, आदमी व्यक्तित्वके विना विस्तारमें होता है...

 

दोनों होनी चाहिये ।

 

    दोनों होनी चाहिये?

 

हां

 

 (माताजी अपने अंदर चली जाती है)

 

२९४

३० दिसंबर, १९७२

 

   हां, तो नया वर्ष आ रहा है.

 

     क्या आप नये वर्षके लिये कुछ अनुभव करती है?

 

 ( मौनके बाद) वस्तुओंने एक उग्र रूप ले लिया है । ऐसा लगता है मानों सारा वातावरण ऊपरकी ओर, वैभवकी ओर उठ रहा हो... उसके बारेमें सोचा भी नहीं जा सकता और साथ ही यह भाव भी है कि किसी भी दमण. मृत्यु हो जाय -- ''मृत्यु'' नहीं, शरीर विघटित हों सकता है । दोनों एक साथ मिलकर एक चेतना बनाते है (माताजी सिर हिलाती है) . सभी पुरानी चीजें, कमजोर बचकानी, अचेतन मालूम होती हैं -- और अंदर.. वह दुर्जेय और अद्भुत है ।

 

  तो शरीरकी, देहकी एक ही प्रार्थना है -- और हमेशा वही एक :

 

मुझे इस योग्य बनाओ कि मै तुम्हें जान सकूं ।

मुझे अपनी सेवाके योग्य बनाओ ।

मुझे 'तुम' बननेके योग्य बनाओ ।

 

तो बस, यही है ।

 

  मै अपने अंदर एक बढ्ती हुई शक्तिका अनुभव करती हूं.. लेकिन वह नयी तरहकी है... मौन और मननमें ।

 

   कुछ भी असंभव नहीं है (माताजी दोनों हाथ ऊपरकी ओर खोलती है) ।

 

(मौन)

 

 तो अगर तुम्हारे पास कोई प्रश्न नहीं है... । अगर तुम मौन चाहते हो... सचेतन नीरवता...?

 

     लेकिन पता नहीं कि मै ठीक गति कर रहा हू या नहीं?

 

 (कुछ देर मौनके बाद) लेकिन जब तुम भगवानके साथ संबंध जोड़ना चाहते हों तो कौन-सी गति करते हो?

 

  मै अपने-आपको आपके चरणोंमें रख देता हूं ।

 

 (माताजी मुस्कराती है और ध्यानमें चली जाती हैं)

७ फरवरी, १९७३

 

 मिथ्यात्वके लिये केवल एक ही समाधान है :

     हमारी चेतनामें जो कुछ भगवान्की उपस्थितिका निषेध

 करे, उससे अपने-आपको मुक्त करना ।

 

 ३१. १२. १९७२

 

हां, मै इसपर आग्रह करती हू; यह बहुत सत्य है - बहुत सत्य । हों सकता है इसे समझना आसान न हो, परंतु यह बहुत गभीर सत्य है ।

 

    हमारे अंदर जो कुछ मी भगवानको छिपाता है, विकृत करता और उनकी अणियक्तिको रोकता है वह वही है -- मिथ्यात्व ।

 

   यह तो बड़ा परिश्रम है !

 

मैं सारे समय यही तो करती रही हूं -- हर रोज, सारे दिन, तब भी जब मैं लोगोंसे मिलती हूं । यही एकमात्र चीज है जिसके लिये जिया जा सकता है ।

 

 १० मार्च, १९७३

 

पता नहीं, जब कभी मै इस नयी चेतनाके संपर्कमें आनेकी कोशिश करता हूं तो मुझे हमेशा ऐसा लगता हां, जैसा आप कहती हैं कि एक ज्योतिर्मय बिस्तार है ।

 

हां

 

   लेकिन मुझे लगता है कि वह हिलता-डुलता नहीं । हम वहां हैं और अनंत कालतक रह सकते हैं । लेकिन...

   

ऐसा ही है, मुझे यह) लगता है ।

 

   क्या इतना काफी है कि 'वह' हमारे अंदर भरता जाय, और कुछ करनेकी जरूरत नहीं?

 

मेरा ख्याल है, मेरा व्याल है कि यही एकमात्र चीज है । मैं हमेशा दोहराती रहती हूं - ''जैसा 'तुम' चाहो, जैसा 'तुम' चाहो, जैसा 'तुम' चाहो... । जैसा 'तुम' चाहो वैसा ही हो, मैं वही करूं जो 'तुम' चाहो । 'तुम' जो कुछ चाहो, मै उसके बारेमें सचेतन होऊं ।

 

  और यह भी : 'तुम्हारे' बिना मृत्यु है; 'तुम्हारे' साथ जीवन । ''मृत्यु''- से मेरा मतलब भौतिक मृत्यु नहीं है - यह हो सकता है; हों सकता है कि अब अगर मैं संपर्क खो दूं तो अंत आ जाय, पर यह असंभव है! मुझे लगता है कि यह... कि मैं वह हूं -- वर्तमान चेतनामें अभीतक चाहे जितनी भी बाधाएं हों, उन सबके साथ सबके होते हुए मैं वह हूं । और बस । और तब, जब मैं किसीको देखती हूं... (माताजी हाथ खोलती हैं मानों उस व्यक्तिको 'ज्योति' के अर्पण कर रही हैं), वह चाहे कोई क्यों न हों : इस तरह (वही मुद्रा) ।

 

 ( मौन)

 

 सारे समय (यह मजेदार है), सारे समय मुझे लगता है कि मै एक छोटी-सी बच्ची हूं जो दुबकी हुई है - अंदर दुबकी हुई है... (कैसे कहा जाय?)... सर्वग्राही दिव्य चेतनामें दुबकी हुई है ।

विषय-अनुक्रमणिका

 

अंधकार ६९, ९८, १५५, १५७

अज्ञान ३८, ६९, १०१

अतिमानव [अतिमानव सत्ता, नयी

सत्ता]

  -, ईसामसीहों, कल्कियोंकी बाढ़-

  सी ८०

क्या आकाशसे टपकेगी? ६५-६

का आगमन व अभितयक्ति ८७

की मानवसे भिन्नता : सीमित रूप-

  को खोये बिना परम चेतनाके

साथ तादात्म्य ११७, २४९

  पहले शक्तिकी सत्ता होगा १३९

   (दे० 'अतिमानस' मी)

देखनेमें कैसा होगा २१६, २७०-

   ७५ (दे० 'अतिमानस' भी)

-ओंके लिये सुरक्षा और बचावका

  साधन : 'नयी शक्ति' २८३

(दे० 'चैत्य पुरुष', 'मनुष्य', 'श्री-

  अरविंद' भी)

अतिमानव चेतना

  का अवतरण १ जनवरी, ६१ को

  १३३-४४; इसका शरीरपर

  प्रभाव १३५-४३; मनपर

  प्रभाव १४०-४१

 चली गयी क्योंकि मै बहुत व्यस्त

   थी १४१, १४२

 

सूचना :

    ऐसे पढ़ें :

कठिनाई        जानना         दूसरे     श्रीमाताजीका    शरीर

 -यां, भौतिक       से           -को                   की

भौतिक कठिनाइयां जाननेसे दूसरोंको श्रीमाताजीके शरीरकी

( २) जिन वाक्योंके केवल शुरूमें ( ') है, वह अपने-आपमें पूरा वाक्य है । उन्हें मूल शब्दके साथ मिलाकर न पढ़ें ।

( ३) कहीं-कहीं अधिक स्पष्टताके लिये लिखा है :

( दे'चेतना' अब भी), इसका मतलब है चेतना के नीचेका वह वाक्य जो अब सें शुरू होता है ।

( ४) पृष्ठसंख्याके बाद अ का मतलब है कि वह प्रसंग उस पृष्ठके अंतसे शुरू होकर, बस, अगले पृष्ठके आरंभतः ही गया है ।

( ५) जहां वाक्य-रचना मूल शब्दके साथ संगत न जान पड़े, वहां मूल शब्दके आगे कोष्ठमें जो शब्द दिया गया है उसके साथ मिलाकर पढ्नेसे वह संगत बन जायगी ।
 


'इस नयी चेतनाकी विशिष्टता

  १४३

'यह दुर्जेय 'शक्ति' करुणासे भरी

  है.. इसपर एकाग्र रहना

  आनंदपूर्ण है १४४

  की जीत २१०

  को आये चौदहवा महीना २११

अतिमानस [ अतिमन

 को जबर्दस्ती खींचना १९-२१

 का पहला प्राकटच शक्तिरूपमें 'ए७अ

 ( दे० 'अतिमानव' भी)

 भौतिक रूपमें कैसा होगा १३६

 का जाननेका तरीका २२१

 को धरतीपर प्रकट होनेके लिये

  भौतिक मनको.. २५२,२५६

 की उपस्थिति स्थायी तमी, जब

  वह शरीर-मनमें.. २६४

 के लिये मनको नीरव.. २७१

 सष्टिको उच्चतर 'शक्ति' के प्रति

   संवेदनशील.. २८,

 की क्रियाके लिये आवश्यक शर्त :

  अहंके राज्यका लोप २८४

( दे० 'धर्म', 'भागवत चेतना',

   'श्रीअरविद' मी)

अतिमानसिक अभिव्यक्ति १८२

अतिमानसिक क्रिया

  की शक्तिमें फर्क है २९४

अतिमानसिक चेतना ?[सत्य चेतना]

  अपने-आपको निरंतर रूपमें प्रकट

  क्यों नहीं करती २अ

मे शुभ-अशुभका भेद नहीं ९९,

 १८९,१९२

मे काफी लंबे समयतक रहनेसे

पीड़ा ही नहीं, रूप-रंग मी

 गायब हो जाता है १२२

की ओर लौटना, अगला कदम १४९

मे निवास, यही काफी है, जो कुछ

 बदलना है.. १८५

का पहला अवतरण २१ ता० को,

 और आज ११ नवंबर १९६९ है १८७

मे दो विरोधी चीजें जुड़ते है तो

 उनकी प्रकृति बदल जाती है

 १९२_टि०

की दृष्टि दे० 'भगवान्'

मे भृत-भविष्य-वर्तमान २६०

का यदि हमें स्वाद मिल जाय

 तो हम उसके बिना रहना

 पसंद न करेंगे २११

पूर्ण शांतिमें अधिकतम क्रिया-

शीलता है, समग्र चेतना है,

परस्पर-विरोधोंका सामंजस्य

  है २९२

के साथ संपर्क कैसे? २९२

 (दे० 'नयी चेतना', 'काम',

  'जीवन', 'समग्र' की, 'श्री-

  माताजीकी अनुभूति' भी)

अतिमानसिक तीव्रता

 और प्राणकी तीव्रता १११

अतिमानसिक पूर्णता १०१

अतिमानसिक भौतिक शरीर

 के बारेमें ४१-८

 बनानेकी समस्या २४३-४४

 की रचनाका तरीका २६८

अतिमानसिक यथार्थता

 का अब निर्माण हो रहा है ११९

 और मानसिक यथार्थता १११

अतिमानसिक व्यक्तित्व १३५

 

३००


अतिमानसिक शक्ति

   की क्रिया ही शरीरमें 'दुःख-

 कष्ट' के रूपमें अनूदित ३७

  (दे० 'रूपांतर' मी)

को धरतीपर लानेका श्रेय १३६

  (दे० 'श्रीमाताजीका शरीर',

  'नयी शक्ति' भी)

अतिमानसिक सृष्टि ।[दिव्य सृष्टि ]

  का अंतर्दर्शन २ १-७, ७०

  का प्रवाह : माताजीके कुछ तोट

  १० ५- १५

का मार्ग तैयार करनेके लिये हम

 यहां हैं २७'१-७६

अधीरता ( बेचैनी १२, ७९, १७७

  'जल्दबाजी १९-२०

  मानवजातिको तैयार करनेकी

    २३-४

अनुभूति

मे मनका हस्तक्षेप, वह व्यक्त

 करनेके साथ ही.. १९,४०,

 १००,१०१, १० ९- १०, ११७,

 १४५, १९३

को चेतनाकी पुरानी अवस्थामें

 अनूदित करना १७५

 (दे० 'श्रीमाताजीकी अनुभूति',

 'श्रीमाताजीका शरीर', 'काम',

 'जीवन', 'भगवान्', 'भय' भी)

अपमान ४९

अभीप्सा

 'प्रगतिकी, अपनेको रूपांतरित

 करनेकी, दिव्य 'सत्य' की प्यास-

 को अगर रख सको.. ६

और पुकारमें तीव्रता पीडाके द्वारा

 ३८

तीव्र= अतिमानसिक स्पंदन १७४

सच्ची, सें चिपके रहो, यही एक

   सुरक्षा है २३७

जरा-सी सच्ची, के चमत्कारिक

  परिणाम २८२

  (दे० 'खींचना', 'निश्चलता',

  'प्रकाश', 'भगवान्-', 'मनुष्य' भी)

अमरता १६,४४, ४५, ४६, ४८,

  १३२, १७६

अलगाव ३० 'विभाजन'

अवचेतना

 पराजयवादी, मृत्युके कारण २५७

 मे जो काम किया जा रहा है

   २५७

मे पिछले प्रलयोंकी स्मृति २७९

मे सत्यकी शक्ति '' : फूल २८९

मे सब प्रकारके विरोध दवे हैं, ये

 जब उभरते हैं २८९, २११

 की सफाईका कहीं अंत नहीं, उसे

 रोकनेका अर्थ है काम बंद कर

 देना २८९अ

की सफाईका उपाय २९०

एक रणक्षेत्र है, पर पूर्णत: शांत,

  इसका वर्णन असंभव २११

क्या अब कम अवचेतन है?

 २९३

(दे० 'प्रतिरोध', 'मूढ़ता', 'शांति',

 'समय' भी)

अवतरण १३२

 पहलेका, मानसिक था, यह अति-

 मानसिक है ८७

 ''आगमन'' हमारे अनुवाद हैं, परम

 प्रभुके सिवाय कुछ मी तो नहीं

है १२४


३०


२१ फरवरी, ७२ का : वांछित

 प्रगतिके लिये भयंकर दबाव

  २६७, २७७टि०

अतिमानसिक लोकका २८४

 (दे० 'अतिमानसिक चेतना', 'अति-

  मानव चेतना', 'रूपांतर' भी)

अव्यवस्था

 दीखनेवाली, अधिक पूर्णताकी ओर

  ले जायगी १२७, १५१

(दे० 'जगत्-', 'शांति', 'श्रीमाताजी-

 का शरीर' भी)

अशुभ

 का उपचार ३१

 (दे० 'दोष', 'शुभ-अशुभ' भी)

 असंभव ?[असंभावना] १४३

का अंत हों गया २२१, २८४

  (दे० 'संभव' भी)

असफलता २

 जरा-सी और उसकी जरा.-सी बूंद,

   दो सिरे हैं ७८

 असुर ज्येष्ठ देवता ११ ०टि

अहं ( अहंकार १५०

 'अपनी ओर मुड़ना ४८, ६७,

  १८७

को ही धक्का या चोट ५०

सें व्यक्तित्वकी भ्रांति ५०

भौतिक, का स्थान जो चीज

 लेगी ५३

को जाना चाहिये १७१, १९५-

  ९६,२८४

भौतिक, का विलोप संभव १७१

की उपस्थितिकी वृत्ति या अहंके

 लोपकी वृत्ति १९९

'पृथक अस्तित्व (पृथक व्यक्तित्व)

का भाव २०३, २३५

चाहता है, उसे सच्ची सत्ता मान लिया जाय २३५

साधन था, अब बेकार है २३५

-मय रूपसे अपने अंदर होनेसे हर

  चीजमें होना ज्यादा अच्छा है,

 पर यह परम सत्य नहीं २६०

सें कहो : 'तुम्हारा समय बीत गया'

 २७६

के स्थानपर दिव्य चेतना आनी

 चाहिये २७६, २८४

(दे० 'खींचना', 'भौतिक द्रव्य',

 'मूढ़ता, 'वृत्ति', 'व्यक्ति' यदि

 भी)

      

             आ

 

 

आत्म-निवेदन १३, २०१, २६९,

   २८६

आत्म-दान ३० 'मानव जाति' देना

आत्महत्या १६१

आध्यात्मिकता

  पुरानी, पर अब.. ७, २८, ८३,

   ८६, ११७, २० ७-८, २०१

 सच्ची, बहुत सरल २२१

आध्यात्मिक मार्ग ५४

आनंद १४४

 'प्रसन्नता या हर्षके साथ संबंध

  बनानेकी क्षमता एक कदम

  ऊपर उठ जायगी २५

'तुझे' अनुभव करनेका २६'

( दे० 'अतिमानव चेतना', 'निर्णय',

 'परिस्थिति', 'पीड़ा,' 'वृत्ति',

   'सत्ता' भी)

 

 ३०२


आश्रम उ पर आक्रमणकी, ११ फरवरीकी,

  घटनाका प्रतीक स्वप्न ८-९ उदाहरण

 (दे० 'रूपांतर' की दिशा भी)

आश्रमवासी

 'हम, हमारी उत्कृष्ट मानवताका

  पुष्प हैं १३६

 'हममेंसे हरेकको अंतमें सब कठि-

 नाइयोंका सामना करना होगा,

 लेकिन यह भागवत कृपा है

   १३७

 जो आरामसे रहनेके लिये..

   एक प्रकारका 'प्रदर्शन'..

   २२१

 'हम इस समय यहां, धरतीपर, क्यों

    हैं २७५, २७६

 'तुम्हें जो करना चाहिये २७६

 

       इ

 

इच्छा [कामना]

  कि आरामसे, शांतिसे रहें १३

जैसी तेरी ८०, १४२,१५१, १५४

 १९५, १९८, २०१, २१०,

 २११, २१८, २४८, २६२,

 २६६, २८०, २८८, २८९,

 २९७ (दे 'श्रीमाताजीके

 शरीर' का समर्पण मी)

पसंद, आकर्षण-विकर्षण जहां नहीं

 वह स्थिति १६

 -ओंके गायब होनेके साथ सभी

   तकलीफें गायब २०१

कष्ट न झेलनेकी २०१

ईर्ष्या १८३

  उ

उदाहरण

 'चाबुककी मार [मा] २, ३८

 'सीपमें बंद ५, २१

 'फोटोके स्पंदन पढ़ानेवालेका, ब्या-

 पारीके नहीं ११

 'शरीरसे धीर, मजबूत लोग १७

 'दो बच्चे एक-ही-से नहीं १७

 'पोषण, फूल सूंघकर २६

'एक गुह्यवादी महिलाकी आंख

  प्राणिक युद्धमें जाती रही ३३

'व्यक्ति और उसके चित्रमें, तथ्य

 और सुनायी कहानीमें जो भेद

   ४०

'योगी, जो शारीरिक रूपांतरकी

  शिक्षा देता था, पर.. ४१

'कुछ लोग गिरना जानते हैं ५१

'सब रंग, परतोंमें नहीं, बिंदुओंके

  रूपमें ५२

'मैं एक अच्छा बच्चा हू, सृष्टिको

  मेरे लिये भला होना चाहिये

  ६९,७१

'केंचुएकी समस्याएं ७१

  'कंकरमें भी संगठन ८५

'सवेरे दाढ़ी बनाना ८८, ८९

'बक्समेंसे चीजें निकालना ८९

'काला और सफेद, दिन और रात

 १०१, १७९

'बालूका कण ![ कण ] १२४,२६१

'दो आयामवाला चित्र १४६

'बच्चे जैसी सरलता १६९,२५४

' '' के घुटनेमें चोट १८८

' '' को कडा पत्र १९५

 

३०३


' '' गुजर गयी, आपरेशनके बाद

 अच्छी होकर, '' के साथ भी

 ऐसा ही हुआ २०५

' '' सामने थी, उसके चैत्य-

 पुरुषको देखा २१५

'राक्षस, डायनकी तरह पंजे फैलाये

 पकड़नेकी.. २ ३४अ

 'राज्य-प्रमुख या भंगी २४०

'पेडोंकी छाल, कछुएके खप़डे २४६

'मकड़ीका जाला २५१

'चित्र और उसका प्रक्षेपण २६०

'बच्चा कपड़ेमें लिपटा २६५,२६६

'ग्लूकोज २७२

' '' ने कहा था : यह सातवीं और

अंतिम अभिव्यक्ति है २७९

'मानों एक बच्चा मनके सिरपर

  बैठा खेल रहा है २७९,२८०

'आदमी मरते-मरते बचा लिये

 जाते हैं, जटिल चीजें अचानक

 सुलझ जाती हैं २८१

(दे० 'श्रीअरविद', 'श्रीमाताजी',

 'दमन', 'निद्रा', 'पशु', 'फूल',

 'मनुष्य', 'संगीत', 'स्वप्न',

 नामानुक्रमणिका भी)

 

     ए-ओ-औ

 

एकीकरण

 समस्त सत्ताका २६१, २६२-३

ऐक्य ५१

 समग्र, की ओर १४८-४९

 परम प्रभुका १७९

 =शक्ति और आराम मिलकर

  १८१, १८२

अतिमानसिक चेतनाका १८४

(दे 'चेतना', 'जीना', 'निश्चेतना'

  भी)

ओरोवील १५६, २१६

औषध ( दवाई

 की शक्ति विश्वासमें २०५

 

 

 

कठिनाई २९,२११

-यां, भौतिक, बढ़ गयी है १

-यां लोग पैदा करते हैं ६०

हर, एक विशेष समस्या है, तुम

 सामान्य नियम नहीं बना सकते

  १९०

विरोध आदि सब तेजीसे आगे

 बढ़नेके लिये आते हैं १९७

-यां, दुर्भाग्य, सब सहायता करने-

 के लिये ठीक समय पर आते हैं

 २२४

 -योंका कारण और इलाज २५८-

 ५९

 (दे० 'आश्रमवासी', 'चीज', 'दुःख-

 कष्ट', 'प्रतिरोध', 'भौतिक द्रव्य',

 'भौतिक मन', 'रूपांतर',

 'हस्तांतरण' भी)

कपट [ढोंग] ७४-५, ७९,२१७

 'लोग कपटी क्यों २६२

 (दे० 'धोखा देना' मी)

करुणा ( दया २७, १४२, १४४

कला १५६, १५७,२०३, २०४

काम

 सारा भौतिक, उस चेतनामें किया

 जा सकता है १८३, १८५


३०४


पहला : यंत्र तैयार करना २३१

(दे 'घोषणा', 'चेतना' अब,

 'सचाई', 'समय' भी)

काम (भौतिक रूपांतरका)

इतना तेज होना चाहिये कि अनु-

 भूतिका मजा लेनेका: समय न

 रहे ३०

कठिन है, सरल नहीं ६३, .१५१,

 १७६, २०९, २५२

बहुत करना बाकी है ७६, ७७,

 ७८-८२, ८६

जो हों रहा है उसे यदि सुनाने

 बैठूं.. ७९

को पूरा संतोषप्रद व एक तथ्यके

 रूपमें स्थापित होनेके लिये ७९,

 ८१

करनेके लिये बालककी तरह तरो-

 ताजा होना चाहिये ११

बहुत श्रमसाध्य होता जा रहा है,

 यह प्रशिक्षणका भाग है १४३

मे लगे रहना चाहिये १६०

(दे० 'प्रयास', 'अवचेतना',

  'श्रीमाताजी', 'श्रीमाताजीका

 शरीर', 'आश्रमवासी' भी)

कामना दे० 'इच्छा'

काल दे० 'श्रीमाताजी', 'देश और

काल'

क्रोध ( कोप, गुस्सा ) १४३

 न्यायसंगत ११५

 

 ख-ग-घ

 

 खींचना

ऊपरसे २० - १, ११६

 अहंकारपूर्ण गति है २१

और सच्ची अभीप्सा २१

खेल ( लीला ३६, १४६, १४८

गति

 अस्वीकृतिकी १२, १९३

अब, प्रत्येक भागमें समग्र चेतना-

 को पानेकी ओर है १०२

 की तीव्रता गति-शून्यताका संस्कार

 पैदा करती है १४६, १७६,

 २१४

त्याज्य, को दूर कैसे करें ११०-

 ९३

ग्रहणशीलता २, , ८५, १२६,

 २२८, २२९, २४६, २४७,

 २४८, २ ६७टि०, २८४, २८५

घोषणा ८३, २२७

 -एं नहीं, अब क्रियाकी ओर ८१

 

          च

 

चंद्रमा १६०

चमत्कार २०, ४३, ७६,१५२,१८६,

  २१२ २८१

चिंता १३, ४०, १९७,२००, २११,

 २८

(दे० 'श्रीमाताजीका शरीर'

 भी)

चिकित्सा-विज्ञान २०४

चित्रकारी ३० 'संगीत'

चीज

 कोई भी, जैसीकी वैसी नहीं बनी

  रह सकती ७०

को एक ही रूपमें दो व्यक्ति नहीं

 देखते ७२

 

३०५


ऐसी कोई, नहीं जिसमें सत्ताका

 आनंद न हो ९९

एक, का स्वीकार, दूसरीका त्याग

 नहीं; सबको एक साथ होना

 चाहिये १०१

- , भयानक और हानिकर, को

 महत्व देकर तुम उनकी शक्ति

 बढ़ाते हों १६६

- ओंके देखनेकी, उनके बारेमें सोचने-

 की यह आवश्यकता शुद्ध रूपसे

 मानवीय है २४१

- ओंका अस्तित्व केंद्रके संबंधसे या

 अपने-आपमें २५१

 -ओंके प्रति हमारी प्रतिक्रियासे ही

 कठिनाइयां, प्रतिक्रियाकी तीन

 श्रेणियां २५८-५९

 (दे० 'मनुष्य' भी)

चुनाव ३० 'जीवन'

चेतना

 की शक्ति बढ़ गयी है १

अब, एक बड़ी मात्रामें है, काम

 ज्यादा तेजीसे चल रहा है ७७

  (दे० 'भागवत चेतना' मी)

सच्ची, दोनों स्थितियोंकी युगपत-

 तामें है १०३; यह चेतना ही

 परम शक्ति है १०३

के पलटने-भरसे सब -- कुरूपता,

मिथ्यात्व, पीड़ा -- अद्भुत

 वस्तुमें बदल सकता है १२२,

 १३०, २५९ (दे० 'वृत्ति',

 'परिस्थिति' भी)

वक्षमें स्थित है १२५

एक ही समयमें हर चीजकी युगपत्

 १२७,२१४

निश्चेतन बन गयी १४५

की वह स्थिति जिसमें आदमी

 दुनियाको बदल सकता है, स्वयं

 यंत्र बन जाता है.. हर क्षण

 जो करना चाहिये वही करते

 हो.. शरीरकी पीड़ाएं गायब

 हो जाती हैं १६७, १६१

का हर बिंदु अपने बारेमें और साथ

 ही मुललगत 'ऐक्य' के बारेमें

 सचेतन हों १७९-८० (दे०

 'समग्र' भी)

हमारी, सत्यचेतनाका अनुकूलन है

 २४१

 जो व्यक्तिगत और समग्र दोनों

 एक साथ हो २५८९-५०

 (दे० 'अतिमानव' मी)

व्यक्तिगत, मिथ्यात्व नहीं है २४९

का परिवर्तन होना चाहिये, कोषा-

 णुओंकी चेतनाका भी २५५

और विचार : भेद २८६

(दे० 'जानना', 'मनुष्य', 'शरीर',

 'श्रीमाताजीका शरीर', 'संगीत'

भी)

चैत्यपुरुष

 से जो सचेतन हैं उनके लिये अपने-

 आपको धोखा देना संभव नहीं

 ११६

का उत्तर और मनका उत्तर

 ११६

ही अतिमानव सत्ता बन जायगा

 २१ ०६- १६, इसका अर्थ होगा

 मृत्युका विलोपन २१७

को सारी सत्तापर शासन करना

 चाहिये २५३, २६२-६३

 

३०६


(दे० 'श्रीमाताजीका शरीर',

 'श्रीमाताजी' भी)

 

      ज

जगत

की वर्तमान स्थिति सूचक कि एक

 असाधारण शक्ति काममें लगी

 हैं १

लीलामय भगवान् 'है' ३७

मे सत्यका विधान खुले तौरपर

 अभिव्यक्त नहीं -. ६१

मेंसे अज्ञान-अंधकार लुप्त होने-

 की ओर ६१

को देखनेका तरीका ६९, २४१,

 २५९

हमेशा बदलता रहता है ७०

एक प्रहसन है जो भगवान् अपने-

 आपसे खेल रहे हैं १२२

'म्गंति' है, का सिद्धांत १५३,

 १५

की अव्यवस्था हमें सिखाती है कि

 किस चेतनामें जीना १६६-६७

को योगियोंने मिथ्या क्यों कहा

१७६

मे अव्यवस्थाका कारण २०२

मे कुछ परिवर्तन हुआ है २०८

सें भागना दे० 'आध्यात्मिकता'

 पुरानी

युगपत् बोधोंका २१४ (दे०

 'चेतना' भी)

भयंकर स्थितिमें है, २२६, २३०

में अव्यवस्था जिन्हेंने पैदा की है

 उन्हींकी सहायतासे व्यवस्था

फिरसे लायी जाय २३०

लुप्त हों जाय यदि भगवान्में मनुष्य

 जैसी प्रतिक्रिया हों २३६

(दे० 'सृष्टि', 'नया जगत्', 'सत्य'

 भी)

जगत् (सूक्ष्म भौतिक)

 :वर्णन ७१-३

 के स्वप्नोंकी स्मृति ७३-४

 (दे० 'सामंजस्य' मी)

जड़ता १७२

 और रूपांतर १७८, १८१, १८२

 (दे० 'सृष्टि' मी)

जड़ द्रव्य दे० 'भौतिक द्रव्य'

जनम एक 'रेचन' है ११२

जानना [समझना]

 का तरीका : स्पंदन ९-११, १३

 'समान ही समानको जान सकता

 है ५९

सें शक्ति आती है ९९

का एकमात्र तरीका : चेतना १२६,

 १७५

चीजोंको दे० 'दृष्टि', 'निर्णय'

का साधन : तादात्म्य २२१

 (दे० 'शरीर' भी)

जीना १०३

शांतिको ८

पूर्ण 'ऐक्य' मे ५१, १६६, १८४

 सत्यको ६९, २३३

ऊर्ध्वमुरवतामें १६६

भगवान्के लिये, भगवान्के द्वारा,

 भगवान् बनकर २३५

भगवान्में और मानव चेतनामें

 २४३ २६१

(दे० 'मिथ्यात्व', 'विरोध' भी)

 

 ३०७


जीबन

 की अवास्तविकता और शाश्वतता

 चुनाव मात्र १५

के सनी रूप, एक चुनाव २७-९

की अवास्तविकताकी अनुभूति

  २८, ३६; इससे बतानेवाली ब

 हुत हैं १६३

की जटिलताके लिये विनोद-भरी

 मुस्कान २८,५१

को प्रभुकी लीलाके रूपमें देखना

 ३६-७

को लंबाया जा सकता है ४५, ४८,

 ९६, २७४

जैसा है वैसा जिया जा सकता है

 उस चेतनामें १८५

का बोध, भागवत दृष्टिकी तुलनामें

 २१४

इस ओर, और दूसरी ओरका

 २३९-४०

अद्भुत और भयंकर एक ही समय

 २४२

दिव्य, की चाह और उससे डर भी,

 इस जीवनसे विरक्ति और

 चिपक भी २७९

 (दे० 'भगवान्' की दृष्टि, 'भौतिक

 जीवन' मी)

 

      ड-त-थ

 

डटे रहना [टिकना]

 चाहिये १, , , १४३, १५५,

    २५६टि०

 का उपाय : शांत-स्थिरता ७, १२

तमस ,,३७

त्याग दे० 'गति', 'चीज', 'भगवान्'

 की उपस्थिति

थकान

 कौन-सी चीज लाती है १०४

 किन लोगोंसे मिलनेसे १०४

 

         द

 

दमन

 की गयी चीजें बच्चोंमें प्रकट १११

 का कारण १९२

दिखावा १९९, २८६

दिसंबर, २५ 'ज्योति' पर्व २५८

दुःख-कष्ट! दुःख-दर्द २, २०१

 का कारण ३७, १४८, १८५

 शारीरिक, और प्राणिक, मानसिक

 कष्ट ३८

का अनुभव भागवत चेतनाको १२७

आनंदकी तैयारी है १२८

और दुःख-दर्द पहुंचानेकी इच्छा,

 अभिव्यक्तिकी यह दिशा 'क्यों'

  १५९, १७८

(दे० 'निर्णय', 'पीड़ा', 'विभीषिका',

  'श्रीमाताजीका शरीर' मी)

दुर्घटना २६७

दुर्भावना ३३,३८, ', २३५,२६८,

 २८१ २८९

दूसरे

 -को रूपांतर के प्रयासमें भाग लेने-

  के लिये प्रभावित करना २२

 उसी तरह सोचें-समझें जैसे हम

  २६-७

को समझाना १२६

 -की चेतनामें अगर रहो २५१

 

३०८


(दे० 'दोष', 'निर्णय', 'पूर्णता' भी)

दृष्टि

हमारी ६९-७०, १६६, २०१,

  २३१ (दे 'निर्णय' भी)

और श्रवण दे 'श्रीमाताजीका

 शरीर'

देवता

और मनुष्यके संबंध ३४,३५

अधीमानसके ७२

मे असुरका अंश.. १९०टि

देश और काल १७९, १८०

 (दे० 'समय' आंतरिक भी)

दोष [भूल, गलती]

 इर्द-गिर्द और सामंजस्य-स्थापन

 २९-३०

दूसरेका ५०, ११६अ, १८८-८९

व अशुभ समग्रबोधकी दृष्टिमें

 १८०, १८४, २८२

छोटे-से, के भी बड़े परिणाम २८१-

 ८

 (दे० 'गति' त्याज्य, 'भगवान्' भी)

द्रव्य दे 'भौतिक द्रव्य'

द्रव्यात्मक मन ३० 'भौतिक मन'

 

      

 

धर्म! मत ५९, १२२

 नया, न बन जाय यह चीज, इससे

 बचना चाहिये १२०

धैर्य !r धीरज ३, १९, १७७

धोखा देना

'आत्म-वंचना ११५

अपने-आपको, ''नेकनीयती'' सें

 ११६

औरोंको, और अपने-आपको २३७

 (दे० 'कपट', 'चैत्य पुरुष' भी)

 

         न 

 

 नमनीयता ( लचीलापन ५२अ, ९६,

 ९७,२४४,२४८,२५०

 नया जगत् १५,२८३

 होगा, क्योंकि यह पहले कभी नहीं

 हुआ २८५

कुचलता हुआ.. प्रबल विस्तार

 लाता हुआ, दोनों साथ २८५

नया वर्ष

 १ जनवरी, १९६९ १३३

'शुभ. नव वर्ष १३३, १३४, १३५

१९७२ -- आशा करता हू अच्छा

  रहेगा २५८

१९७३ के बारेमें २९५

नयी कार्य-पद्धति २२३

नयी चेतना २०७

 का सिद्धांत : कोई योजना नहीं

 २२५अ

का ज्योतिर्मय विस्तार हमारे अंदर

 भरता जाय, क्या इतना काफी

 है, और कुछ करनेकी जरूरत

 नहीं? २९७

(दे०  'अतिमानसिक चेतना' भी)

नयी जाति

मेंसे सेक्सका आवेग, भोजन व

 सोनेकी आवश्यकता गायब हो

 जायंगे २५-६

मे मानसिक वस्तुनिष्ठताका सारा

 तथ्य ही गायब हो जायगा ११०,

 २३ १अ

 

 ३०९


के आगमनको जल्दी लाया जा

सकता है अगर हम.. २२९

चाहते हैं हम, जिसमें अहंकी जगह

 भागवत चेतना.. २७६

 (दे० 'बालक' भी)

नयी जीवन-पद्धति ५३, २२१, २४०

नयी व्यवस्था

 जो लाना चाहते है उनकी असफल-

 ताका कारण और सफलताकी

 शर्त २३०

नयी शक्ति

 को धारण करनेयोग्य शरीर बनाने-

 की समस्या २४३-४४

का दबाव भौतिक द्रव्यपर --

 परिणाम : दोनों छोर पस-

 काष्ठापर २८०-८२ (दे

 'भागवत चेतना' भी)

भौतिक नहीं, पर भौतिकसे अधिक

 ठोस रूपमें शक्तिशाली है

 २८३, २८५

के प्रति खुलनेका परिणाम : दर्जे-

 यता २८४, २८५

(दे० 'जगत्', 'शरीर' ऐसा, 'मग-

 वान्' प्रकृति भी)

नरक १०१, १६१

नित्यता और प्रगति १७८, १८२

 निद्रा २५

 मे चलना ८९

नियति ( भाग्य २७, २८, ७७,

 २३४

नियतिवाद

'क्या सब कुछ निर्दिष्ट है?

 २० ०अ, व्योरेकी छोटी-छोटी

 बातोंमें भी? २०१अ

नियम (नैतिक, सामाजिक) ५,२३०

 (दे० 'विधान', 'कठिनाई' भी)

निराशा

 शैतानका महान् अस्त्र २३२अ

  (दे० 'मन' भी)

निराशावाद ?[पराजयवाद] २, ,

 ६७, २५७, २७९

निर्णय [मूल्यांकन]

 स्पदनोंद्वारा ११

अपना, सदा संदेहास्पद ६९

मनुष्यका, गलत ६९अ

हमारे दे० 'दृष्टि'

अच्छा-बुरा, कष्ट-आनंदका ९९,

 १९७-९९

दूसरेके बारेमें ११ ६अ

'सर्व-चैतन्य' को करने दो १६६

निर्वाण

मे बच निकलना १५९, १६०,

 १६१

निश्चलता १२

बहुत, की जरूरत, दिव्य शक्तिकी

 शरीरपर क्रियाके लिये १७२

 पूर्ण, और तीव्र अभीप्सा, दोनों

 एक साथ १७४, १७६

' 'निश्चल शांति' और रूपांतरकी

तीव्र गतिका युगपत् बोध २१४

निश्चेतना १४६

को तैयार करनेका काम हो रहा

 है ७७-८१; ये गूजती हुई

 घटनाएं नहीं हैं ८१

ते, तमस् से, बाहर कैसे निकला

 जाय? ८०

की निश्चलता विकासका आरंभ- बिंदु १४४-४५

 

३१०


'निश्चेतन निषेधको हर सांसके

 साथ तुम अंदर लेते हो १७६

प्रथम 'ऐक्य' का प्रक्षेपण है १७९-

 ८०

(दे 'श्रीमाताजीका शरीर' मी)

नीरवता २७९

 में, माताजीका बातें बताना १४५अ

 

 में ऊपरकी ओर अभिमुखता, आगे

बढ़नेके यह उपाय क्या भूल

 है? १६५-६७

'रिक्ततामें सच्चा आवेग कैसे

 पाया जाय? १६८-६१

में लिखते हुए पुराने रूप या प्रति-

 क्रियाएं व्यक्त करना शुरू न

 करें, इसके लिये क्या करना

 चाहिये? १९४-९६

अपनी इच्छानुसार, सें शुरू करो,

 भौतिक मनके नियंत्रणके लिये

 २६४

 

          

 

पतन १४५

परिवर्तन ८,२०१

रूपमें तात्विक, वनस्पतिसे पशु

और पशुसे मनुष्यतककी यात्रा-

में बहुत ही कम ४१-२

अंतिम, होनेके लिये ७७-९

ऊपरसे जबरदस्ती? ७७अ

सबके, मे समय लगेगा, फिर भी

यह प्रतिज्ञा थी कि अचानक

परिवर्तन होनेवाला हैं १३२

 महान् : पुरानी आध्यछिमक स्था-

पनामें, भौतिक 'तथ्य' की

मान्यतामें २० ६- १२; इसे

स्थापित होनेमें समय लगेगा

२०८-९; इसमें कठिनाईका

कारण २०९, २११; इसमें

अपेक्षित गुण २१०

आमूल २५५

मूल्योंमें २८१-८२

का पथ व प्रक्रिया, अभिक २९१अ

(दे० 'रूपांतर', 'चेतना', 'जगत्',

'परिस्थिति', 'पुरानी आदत',

'पृथ्वी', 'भौतिक मन', 'भौतिक

द्रव्य', 'मिथ्यात्व', 'शरीर',

श्रीमाताजी', 'समय' मी)

परिस्थिति २२५, २३२, २६९

को बदलनेका तरीका २७-९,

  १६९,२४८

-यां चाहे जैसी हों तुम्हें आंतरिक

आनंद व संतोष मिल सकता है

७१, १८९

को दोष देना १८८-८९

वह-की-वही, पर अब आनंद, शांति

 १३०, २५८, २५९

(दे० 'दोष' इर्द-गिर्द, 'भागवत

क्रिया', 'रूपांतर' भी)

पशु

-योनि मानव प्रभावके तले २३अ

-ओंमें मनुष्योंके प्रति जैसी वृत्ति

है २५,४७

और मानवके भेद ४१अ

'गायके और मांके गर्भाशयमें रूप

लेती भौतिक सत्ता ४२

सें, बंदरसे, जैसे मनुष्य आया ६५,

२७३

 

 ३११


'बंदर और मनुष्यके बीचकी सत्ताएं

 जैसे गायब,.. ६६, २७४

सें मानवके, और अब मानवसे अति-

 मानवके विकासकी अवस्थाओं-

 में भेद ७७,८७-८

से मनुष्य बननेके लिये चेतनाके

 प्रवेशकी जरूरत हुई ८५

'बंदर अगर, पहले मनुष्यसे मिलता

 तो वह उसे अजीब-सा.. ८७

 (दे० 'मिथ्याभिमान' भी)

पागल १, ५३, ७४-५, १२५,२१४

पाप की धारणा १८९

पीड़ा [शारीरिक कष्ट]

 गायब हो जानेपर भौतिक मनकी

   प्रतिक्रिया ३

मे शरीरकी सहजवृत्ति और करणीय

 १२-३

क्यों है और उसका उपचार क्या है

 ३७-४०

का स्थान एक ऐसी चीज लेती है

 जो धरतीपर अज्ञात है ४०

और हर्ष, चीजोंको देखनेका, बस,

 तरीका है ९९

ओर आनंदका जन्म १०२

'अत्यधिक उत्पीड़नके बीच आनंद-

 का अनुभव १४४

पर कैसे अधिकार किया जाय?

 २४७

(दे० 'अतिमानसिक चेतना', 'अभी-

 पसा', 'भौतिक द्रव्य', 'रूपांतर',

 'श्रीमाताजीका शरीर' भी)

पुरानी आदत! अभ्यास, ढंग, तरीका,

 ढर्रा २९, २२१, २२४

' ', और नियम टूट रहे है १,९७,

२५०

-से चिपक ६, १४, ४८, २८०

रुकावट हैं १५, ६५, ६७, २१०,

 २८५

-को बदलना ३१, ५८४,५८८,९७

 २२०-२१, २२५ (दे० 'हस्ता-

 तरण' शक्ति भी)

रक्तसंचार, पाचन, श्वासोच्छ्वास-

 की ५३, ११

घिस जाने व क्षतिकी ६५, ६७

पुरुष ९७, १००

पूर्णता १०१

 हर क्षण १८५

 की प्रतीक्षा औरोमें करना छोड़

 जब मनुष्य अपनेको पूर्ण करने-

 की ओर.. १८८-८९

 (दे० 'सृष्टि'की मी)

पूर्णयोग और भौतिक मन १७, १८

पृथ्वी ![धरती] ५९, १५३

पर दिव्य सृष्टि ७०, १०५-७

  १५६-५७

की कोई चीज सचेतन हो गयी

 है, कुछ ''हुआ'' है १२४

पर हुई सामूहिक प्रगति और

 प्रतिज्ञा कि परिवर्तन... १३१अ

पर इतना अंधकार पहले.. १५७

मिथ्यात्वमें है, १६०

 (दे० 'भागवतशक्ति', 'श्री-

 माताजीका शरीर' भी)

प्रकाश ( ज्योति

 के आनेसे पहले अंधकार ज्यादा

 घना (श्रीअरविन्द) १५७

और 'सत्य'के हम संदेशवाहक

 होना चाहते है २२७

 

 ३१२


के प्यासे २२८

 (दे० 'प्राण' भी)

प्रकृति ४७,७७

 की शक्ति पुरुषके अर्पण.. ९७

प्रगति ७६, १७९

 प्रयास और संघर्षके दुरा नहीं,

 सामंजस्यके साथ ७०

दानवाकार पग लें रही है १८८

का सच्चा आधार १८८

वांछित, के लिये भयंकर दबाव

   २६७, २७७

(दे 'अभीप्सा', 'भौतिक चेतना',

  'रूपांतर', 'नीरवता' मे ऊपर,

  'संतुलन' मी)

प्रतिरोध

 या तरलताका भाव ५१

 त्याज्य गतिका १९३

 जड-तत्वको २०१

 ही अव्यवस्थाका कारण २०२

 मानव अवचेतनाका २७७; परि-

 णाम : विमीषिकाएं २७७

नहीं, विकृति है यह २७७-७८

का इलाज २७८

बुहार फेंका जायगा २७९

जो करती है वह कुचली जाती है

  २८५

(दे० 'विरोध', 'विभीषिका' भी)

प्रयास

 बार-बार .दोहराने योग्य २

 कष्टदायक, की क्षतिपूर्ति लक्ष्यके

  स्पष्ट दर्शनसे २४

- , सच्चे, को सहायता २७६,

  २८१

(दे 'प्रगति', 'रूपांतर' भी)

प्राण १५८

 से सच्चे प्रकाशका भेद करनेके

  लिये २०

सुखद या असुखद, का परिचय

 बिंबोंमें ३२

तटस्थ, क्या नहीं होता? ३२

 और मन अस्थिर होते हैं १७१,

 २४३

 (दे० 'अतिमानसिक तीव्रता' भी)

प्राणिक आकर्षण २०-१

प्राणिक जगत्

 उत्पीड़क है, यह ९०% आत्मनिष्ठ

  ३२-४

प्राणिक सत्ताएं

 ज्योतिका अभिनय करनेवाली

   २०

 (दे० 'भय', 'मनुष्य', 'व्यक्ति'

   भी)

प्रार्थना शरीरकी ८३, २९५

प्रेम

 प्राणिक, और सच्चा २०-१

 का मूल स्पंदन ३१

 पर श्रीअरविंदका उद्धरण ६१

 की शक्तिको हम हमेशा क्यों नहीं

  रख पाते? १७०-७१

 और घृणा १७८

 (दे० 'शरीर', 'श्रीमाताजीका

 शरीर' भी)

 

       

 

 फूल १९,२६,४५,४६

  (दे० 'अवचेतना' भ)')

फोटो १०

 

३१३


 ब

 

बंधन

 -कारक चीजें ५-६

 नहीं-स्वाधीन : सब कुछ बदलने-

 के लिये हर समय तैयार ५-६

बर्बरता २०५,२०६

बालक [बच्चे] ११

 पैदा करना क्या जरूरी होगा ६६

 -मेंसे ही ऐसे हैं जो नयी जातिका

  आरंभ कर सकते हैं २२१

 (दे० 'उदाहरण', 'दमन', 'रूपांतर'

   मी)

बुद्धि

 के कारण अपनेको श्रेष्ठ समझने-

 वाले १०४

 जो समझती है कि वह कुछ नहीं

 जानती, वह भी भौतिक चीजों-

 का सवाल आनेपर.. १९७

 'तर्कबुद्धि, और 'विज्ञान' २६० टि०

 व तर्कणामें अब बल नहीं २८३

 (दे० 'मन', 'मानवजाति', 'समझ'

  भी)

बूढ़ा आदमी १८३, १८६,१८७

 

        म्र

 

भगवान्

 का विचार पसंद नहीं तो.. तुम्हें

  जरूरत है उस 'कुछ चीज' की

  जो 'प्रकाश'..

 का प्रेम नहीं पा सकते तो उनसे

 युद्ध.. (श्रीअरविद) ६अ

 ही केवल वस्तुनिष्ठ हैं ३५

का ही अस्तित्व है केवल, और

 कुछ है ही नहीं ३५-६, ९८,

 १२०-२१, १२४, १४८, १५५

ही हैं सब कुछ, जो अपने साथ

 खेल रहे हैं ३६

जब आये- तो हजारमें एक भी ऐसा

 न होगा जो डर न जाय ४७

हंसते रहते हैं, उनका हास्य तुम्हें

 मधुरतामें भर.. ५१

क्या है ५८-६२, २६१

के साथ संपर्क अभीप्साकी तीव्रता-

 से ५९

के साथ संयोजनका वही एकमात्र

 पुल है, यह माननेका परिणाम :

 धर्म, दर्शन, सिद्धांत, मत -

 युद्ध ५९

का एकमेव और सर्वशक्तिमान्

 होनेका विचार ६२

क्या अपने-आपको हमसे अलग

 खींच सकते हैं ९८

और 'देव' ९८, २८४

तुम अपना ही निषेध करनेमें क्यों

 मजा लेते हो? ९८

को पानेके लिये सृष्टिके त्यागका

 विचार ११७ (दे० 'आध्या-

 त्मिकता' पुरानी भी)

दूर, ऊपर..! नहीं, वे ठीक यहीं

  .. ११९-२०, २६२

को हम अनुभव क्यों नहीं कर पाते

 १२०, १२१

ने कहा : लोग चाहते हैं मैं उनकी

 चेतनासे, दूर रहूं १२०

की दृष्टि और 'जीवनका अनुभव'

  पर आधारित समझ १९७-९९

 

३१४


के कार्यमें अहस्तक्षेप १९८

'दिशा बस एक ही है-भगवान्-

 की ओर २३१

को पाना और उनसे चिपके रहना

 यही सुरक्षा है २३१, २३७

वह नहीं, जिसकी मनुष्य कल्पना

 करता है, बल्कि.. २३७,२८२

सब कुछको, बना देनेका तरीका

२४८

से बच्चेकी तरह कहो : 'मेरे लिये

 सब कुछ कर दो' २५४

के प्रति समर्पणमें ही भगवान्के

 प्रति विश्वास नहीं आ जाता

 २५५

के संबंधसे हर चीजको लेनेपर

 जीवन, भौतिक जीवन भी

 सरल.. २५८-५९

ही समग्रता है २६०, २८२

हमारी देखभाल करते है? २६६अ

की ओर अपने-आपको रखें २७७

प्रकृतिकी बुरी-से-बुरी चीजोंको इस

 'शक्ति' के संपर्कमें ला रहे हैं

 ताकि वे समाप्त.. २७८

की भूल है यह, हम कह बैठते हैं

 २८०

की इच्छा न करना मूढ़ता है, दोष

 नहीं २८२

'दूसरा क्षेत्रतक पहुंचनेकी दो गतियां

 २९४

के साथ संबंध जोड़नेके लिये कौन-

 सी गति करते हों? २९५अ

की उपस्थितिका हममें जो निषेध

 करे उससे अपने-आपको मुक्त

 करना २९६

(दे 'जगत्', 'जीना', 'निर्णय',

 'मन', 'मनुष्य', 'विजय', 'वृत्ति',

 'शरीर', 'शांति', 'श्रद्धा', 'श्री-

 माताजी', 'संघर्ष', 'समाधान'

 तथा 'भागवत.. ' के अंतर्गत

 भी)

भय [डर] ४०, २०४,२७९

प्राणिक सत्ताओंसे ३ रे

पागल हो जानेका ५३, १२५

लगा, जब उन्हें अनुभूतिने छुआ

 ११, १६३

न हो, यह सबसे जरूरी है १७०

भविष्यवाणी ७९, २३८

भागवत कृपा

है यह : समय न खोना १४४

सब कुछ करती है ताकि सब

 ठीक चल सकें १८४अ, १८७

सारी समझके परे है १८६

का चमत्कार श्रीमाताजीके शरीर-

 पर १८६

को, विभीषिका समझ, मनुष्य परे

 धकेल देते हैं १८६

(दे० 'विश्वास', 'आश्रमवासी' भी)

भागवत क्या

को अज्ञान-अंधकार ?मानव चेतना

 विकृत कर देते हैं ६९, २३१

हमें निर्दय लगती है २०६-७

परिस्थितियां मिलें तो, तेज उप-

लब्धिकी ओर जाती है २४७

भागवत चेतना [परम चेतना]

को छोड़, हर एककी चेतना सीमित

 ११७

को विकृत किये बिना अभिव्यक्त

 करना इस 'द्रव्य' के लिये संभव

 

३१५


नहीं ११७

ने कहा : यह मैं हू जो दुःख

 भोग रही हू.. १२७

की क्रिया मानव चेतनामें १४०

काममें लगी है, तेजीसे हमें आगे

बढ़ा रही है १४९ (दे० 'चेतना'

 मी)

सें साधारण मानव चेतनामें आना

 यंत्रणादायक १७६, २६१

को पानेका रहस्य १९६

को मूर्त करना : तरीका १९५-९६

का यह दबाव एक ऐसा दबाव है

 ताकि चीजें.. २०६-७ (दे०

 'नयी शक्ति' भी)

में यदि रहो २५८-५१

को हम अतिमानस कह सकते हैं

  २८४

भागवत तर्क २१६

भागवत प्रेम २३, ८६,२४५

 और पीड़ा ३९,४०

भागवत महिमा १८२, १ ८४अ

भागवत शक्ति । ['शक्ति']

आती है, वह इस शरीरके लिये

 कुछ नहीं करती ८

द्वारा छूतका प्रतिरोध? ४७

को धरती सह न सकेगी, लुप्त हों

 जायगी ४७, ७८

की छोटी मात्रा तो हमेशा रहती

 है ७८

की एक बूंद तुम्हें क्षणभरमें स्वस्थ

 कर देती है ७८

को शरीरमें ग्रहण करनेकी शर्त

 १७२

(दे० 'नयी शक्ति', 'साधना' भी)

भागवत शांति, मे अति संवेदन ४०

भागवत संकल्प ?[भागवत] २३०

नीचे आ रहा है, रचनाएं उसके

 कार्यान्वयनमें देर.. २३१

के विरुद्ध मानव इच्छा सफल नहीं

 हो सकती २७७

भागवत स्पंदन १७४, १७६

भागवत हस्तक्षेप [दिव्य हस्तक्षेप]

 , , ३९, २३२

भारत ३० 'श्रीमाताजी', 'संदेश'

भूत-भविष्य-वर्तमान २६०

भूल ३० 'दोष'

भोजन २५, २६, ४२, ४३, २७२,

 २७३

भौतिक चेतना [द्रव्यात्मक चेतना]

और प्रगति २-३

का स्वरूप व स्वभाव २,,६३,

 १७०

'शारीरिक चेतना जाग गयी है, मन,

 प्राणसे अब स्वतंत्र है ८४

जब किसी चीजको पकडू लेती

 है ९९, १७०अ

मे धंस गया हू, ध्यान नहीं होता,

 भगवान् दूर.. १११

भौतिक जीवन

पर मनका नहीं, उच्चतर चेतना-

  शासन चाहिये २०७

का त्याग दे० 'आध्यात्मिकता'

 (दे० 'भगवान्' के संबंध मी)

भौतिक 'तथ्य' ?['तथ्य']

अब मिथ्यात्व बन गया २०७- १२

 (दे० 'मनुष्य' भी)

भौतिक द्रव्य ( जडुद्रव्य, द्रव्य, भौतिक

 तत्व

 

३१६


के रूपांतरमें कठिनाई २-३, ११अ

को कुचल देना या रूपांतर ३

के साथ व्यवहार भूतकालमें ३,

का भारीपन तात्विक नहीं ५

को तमस्मेंसे बाहर खींच लानेके

 लिये पीडाके संवेदनकी जरू-

 रत ३७-८

में मिथ्यात्व अज्ञान बन गया ३८

में नये स्पंदनोंके प्रति आशंकाका

 उपचार ४०

का सच्चा प्रत्यक्ष दर्शन ५२

सारा एक ही है ८६

कैसे पैदा हुआ? १०८

में अपारदर्शिता और पारदर्शक

 तरलता ११८

के साथ इतनी तल्लीनता कि

 लगता नहीं कि हम कुछ कर

 रहे हैं १९७

बदलनेमें धीमा है २०१

जैसा-का-तैसा, उच्चतर अनुभूति-

 योंसे २०१

को तैयार करनेके लिये कुछ किया

 गया है २२७

जब परिवर्तित हो जायगा तो वह

 एक ठोस चीज होगी २४३

पथरायी हुई चीज है, ग्रहण नहीं

 करती, अगर वह पिघल जाय

 .. २४६

की नमनीयताको खोजना होगा

 २५०

दो दिन अभीप्सा करता है, फिर

 ढीला पड जाता है, क्या करना

 चाहिये? २६८-६१

का अहंकार है जो आत्मनिवेदन

 नहीं करना चाहता २६८अ

(दे 'शरीर', 'सृष्टि', 'मन',

 'मूढ़ता' भी)

भौतिक मन

मार खाकर बढ़नेके अभ्यस्त २

मे कठिनाइयोंकी ही कल्पना २

को कठिनाइयोंके पीछे भागवत

 कृपामें विश्वास दिलानेके लिये

   

के आक्रमणकी कठिनाई ७-८

भी अब अपनेको व्यवस्थित करने-

 मे लगा है १४

तो बहुत पहले बदल चुका है १६

और द्रव्यात्मक मन : भेद १७-८

एक असंभावना है १८, ८४अ

परिवर्तित हो गया है ८५-६

रूपांतरित हो जाय तो शरीर

 रूपांतरित हो जायगा २५३

के नियंत्रणके लिये २६४-६५

 (दे० 'नीरवता', 'पीड़ा', 'श्री-

 अरविंद', 'श्रीमाताजीका शरीर'

 मी)

भौतिक मुक्ति ५,१६१

 को अभी व्यौरेमें उपलब्ध करना

 है २०१

भौतिक योग १३

 

         

 

मध्यवर्ती सत्ताएं ४३, ४७-८, १३७,

   २७४

मन

  में निराशाका महत्व कम ६७

  की समस्याएं और विरोध ऊपर

 

३१७


उठ जानेपर नहीं ७१

की व्याख्या शरीरके लिये अमूर्त

 चीज ९९

और प्राण 'द्रव्य' को पीसनेके लिये

 यंत्र रहे हैं ११३

सत्यको देखनेमें असमर्थ ११३

की भूमिका : यथार्थता देना ११८

विकसित, वालोंसे अविकसित मन

 वालोंके' शरीरका काम आरंभ-

 मे आसान १७ १अ, १७२

और प्राण अगर चले जायं १७२

के द्वारा विकासका मतलब १७२

का शासन रहते भगवान्का राज्य

 कैसे.. २०४

पर बैठ जाओ : 'चुप रहो' २७९

 (दे० 'अतिमानस', 'चैत्य पुरुष',

 'नयी जाति', 'प्राण', 'भौतिक

 जीवन', 'विभाजन', 'वैज्ञानिक',

 'श्रीमाताजीका शरीर', 'सधना'

 भी)

मनुष्य ![लोग]

यज्ञकी भावनासे भरे २२

जो नहीं रहे और देवता भी नहीं

 बने २७

जो सुन्दर बिंब देखते हैं और जो

 भयानक, अशुभ चीजें ३२

का प्राणिक सत्ताओं, शक्तियों व

 देवताओंके साथ संबंधका रूप

 इस मानव चेतनापर निर्भर

 ३४-५

अपनी अवस्थाओंका सर्वशक्तिमान्

 स्वामी है, पर वह यह होना भूल

 गया है ३४-५

 अपनी संभाव्यतामे देवता है, उसने

अपनेको देव मान लिया ३५

पशुकी छूतका प्रतिरोध नहीं कर

 सका ४६

को अपने अस्तित्वकी रक्षाके लिये

 सारी प्रकृतिसे लड़ना पड़ा ४७

और अतिमानस सत्ताका संबंध ४७

ने हर चीज विकृत कर दी है ५१

पशुसे ऊपर उठा अनुकूल शरीर

 विकसित करके ६४

की दिव्य मानवतामें परिणति

 शरीर विकसित करनेपर निर्भर

 ६४-५

निश्चेतनासे कितना बंधा है ७७

'हम सिकुड़े हुए, सूखे हुए हैं, हमने

 अलग किये जानेके बड़े प्रयत्न

 किये हैं १२०, १२१

'हम परम प्रभुमें हैं १२०, १२१,

 १२४ १२५

के सभी गुण और सभी त्रुटियां

 बचकानी १४३

प्रत्येक, के लिये अब भौतिक 'तथ्य'

 के सम्मोहनसे बाहर निकलना

 संभव २१२

की सहज प्रतिक्रिया : रूपांतर

 करना नहीं, नष्ट करना २३६

धोखेमें रहते हैं : चीज जैसी है

 वैसी नहीं देख पाते २३७

अभीप्सासे पूर्ण और अभीप्सासे

 रहित २४०

में चेतना केंद्रमें होती है २५१

 के सचेतन रूपसे भगवान्की ओर

 मुड़नेमें सैकड़ों साल.., नहीं,

 अब.. २९०

(दे० 'व्यक्ति', 'अतिमानव', 'उदा-

 

३१८


हरण', 'जगत्', 'पशु', 'मिथ्या-

 भिमान', तथा 'मानव. .' के

 अंतर्गत मी)

ममि १६

मशीनें २०३, २०५

मस्तिष्क १६१

मानव चेतना

 एक भयंकर छिद्र है- १७६,२६१

 (दे० 'भागवत क्रिया', 'भागवत

   चेतना' भी)

मानवजाति

 के विभिन्न स्तर : सुसंस्कृत, साम-

जस्यपूर्ण और संतुष्ट; बौद्धिक

रूपसे नये जीवनकी ओर आक-

र्षित्; रूपांतरके लिये तैयार

२१-२

नयी सृष्टिके प्रभाव-तले कैसी हो

 जायगी २३-४

उच्चतर मध्यस्थ २५

का संतुष्ट बुद्धिवादी वर्ग ८७,१०४

बेचारी, उद्वेग-ग्रस्त १६७

उच्चतर, का प्रयास १९६

देना नहीं चाहती, लेना चाहती है

  १९६

ने शताब्दियों इस क्षणकी प्रतीक्षा

 की है, वह आ गया है २७५

(दे० 'अधीरता', 'आश्रमवासी'

  भी)

मानव स्वभाव

 अपनी इच्छासे प्राप्त पराजयको

 दूसरी तरहसे प्राप्त विजयसे

 ज्यादा पसंद करता है २७७

मानसिक रचना

 -ओंसे मुक्त, खुला ५-६

सारी मिथ्या, पर वह तुम्हें स्वाभा-

  विक लगती है २०६

'मानसिक काराके परे जाने और

 वहां ऊपर श्वास लेनेका प्रश्न

 है २०७

 (दे० 'भागवत संकल्प' भी)

मार्ग ( रास्ता, द्वार

 तुम्हारा, तुम्हारा होगा ६

 लोटनेका १४९

 एकमात्र १५२, १५९, १९५,

 २३१, २६८, २८१

अब, साफ है २५०

 (दे० 'रूपांतर' भी)

मिथ्यात्व रे ८, ७५, दूं ५९, १६०,

 १६३,२०७

 मेंसे कोई अकेला नहीं निकल सकता

  १६२

सें बाहर निकलनेकी विधि १७६

की रेलपेल और उपचार २३४-

 ३६

को खतम कर देनेका भाव २३६

सारा, बाहर निकल आया २४६

की शक्ति अपना सहारा खो बैठी

 है २४७

के लिये एक ही समाधान २९६

का परिवर्तन ही ज़ीने योग्य चीज

 २९६

 (दे० 'श्रीमाताजीका शरीर',

 'समर्पण' भी)

मिथ्याभिमान

 मनुष्योंमें ३४-५, २३६-३७

 पशुओंमें भी २३७

मुक्ति ३० 'भौतिक मुक्ति'

मूढ़ २७,८५,२५३,२८९

 

 ३१९


मूढ़ता

भौतिक चेतनाकी ३

अहंकेंद्रित १८७

मानव अवचेतनाकी २७७

बन गयी 'असंभव' चीज २८४

भौतिक द्रव्यकी २८६, २८७

स्वीकार, अज्ञके सामने २८८

मूल्यांकन दे 'निर्णय'

मृत्यु? १५, १०२,२९७

के प्रसंगमें ५५-८

का क्या एक ही समय सब आत्माएं

 चुनती हैं बंबारी, बाबू, भूकंप

 आदि प्रसंगोंमें? ५५टि०

के बाद अंतरात्मा अपने अस्तित्वसे

 सचेतन कैसे रहती है?

 ५५टि०

के बारेमें मनुष्य कुछ नहीं जानता

 ५६

जैसी कोई चीज है ही नहीं

 ५६

के बाद व्यक्ति भौतिक जगत्का

 बोध पा सकता है? ५६-७

पर विजय ९७

के बारेमें साधारण विचार १५२

का विलोपन २१७

संक्रमणकालीन घटना है २५९अ

 (दे० 'अवचेतना', 'व्यक्तित्व',

'श्रीमाताजीका शरीर' मी)

मौन २४०

 

         य 

 

यत्र ८३, १६९,२३१

युद्ध ३० संघर्ष

 

            र

 

रूप या आकारकी आत्मा १६

रूपांतर ( भौतिक रूपांतर १४२,

१८०,१८६

की दृष्टिसे परिस्थितियोंमें अच्छा

 मोड १,

-पथपर दो चीजें अनिवार्य १

के प्रयासमें सच्ची वृत्ति १अ, ५-६

में बाधा डालनेवाली चीजें ५-६

की गति तेज करनेके लिये ६,

 २८७ २६८,

के लिये प्रयास छोटी-सी संरध्यातक

 सीमित.. २३

और पीड़ा ३९-४० (दे० 'श्री-

 माताजीका शरीर' भी)

सच्चा, चेतनाके हस्तक्षेपसे ४१,

 ८५

भावी, पशुसे मानवतकके रूपांतर-

 की तुलनामें ४२

के लिये मध्यवर्ती अवस्थाएं होनी

 चाहिये ४६, ४७-८, ६६

अगर अकेली ही सत्ताका.. ४७

के लिये तीनों मार्गों - आध्या-

त्मिक, गुह्य और उच्चतर

बुद्धिके - को मिलाना चाहिये

 ५४-

का कार्य बालकके निर्माणमें ६६

की समस्याकी विशालता ७५-६

की दिशामें प्रगति : बच्चोंने शरीर-

 के लिये प्रार्थना मांगी है ८२-३

आमूल, संभव, ऊपरके अवतरणसे

  ८७

अगर हो जाय तो मानों परम रहस्य-

 

३२०


का स्पर्श.. १२२

शुरूमें एक शरीरका या सभीका

 १२३ (दे० 'शरीर' भी)

की गति इतनी तेज है कि २१४

'चीज बिलकुल नजदीक है २२६

की जगह लगता है वह दूसरा शरीर

 ही मूर्त रूप लेगा २७४-७५

(दे० 'काम', 'परिवर्तन', 'सिद्धि',

 'जड़ता', 'भौतिक द्रव्य','मानव

 जाति', 'श्रीमाताजी', 'श्री-

 माताजीका शरीर', 'हस्तांतरण'

 भी)

रोग २८,२०३

लोगोंके गायब हो गये १२१,

 १३०, २४१

और स्वास्थ्य एक लगातार गति

 है १४६

और चेतनाकी वृत्ति १८८, १९९

 का लोप अहंके लोपके साथ १९९

- ओंकी जड़ २०१

का लंबा होना २०४

मिथ्यात्व है २४६

 (दे० 'श्रीअरविद' भी)

 

      ब

 

वनस्पति ?[पौधा] २३, ४५,

 (दे० 'परिवर्तन', 'समय' भी)

वाणी

  बोलनेका यह ढंग.. ७५, १२५

  (दे 'अनुभूति' भी)

विकृति

 'विकृत युक्तियोंको तुम्हारा उत्तर

  २७८

 (दे० 'भागवत क्रिया', 'भागवत

 चेतना', 'प्रतिरोध', 'मनुष्य'

 मी)

विचार ( सोचना

पूर्वकल्पित, बाधा है ५

'सभी सोच-विचार, पूर्व योजनाएं,

 पूर्वदर्शन रोड़ा हैं १३, ४८,

 १६६

की अनुकूलताकी कठिनाई नयी

 शक्तिके साथ १४, २८३

का सच्चा उपयोग ३१

 (दे० 'मन', 'चीज' मी)

विजय

सभी अनिवार्यताओंपर ९७

अतिमानसिक, पूर्ण संतुलनमें है

  १०१

महान् २०७-८

असाधारणकी संभावना है २३१;

 हां, यह हालकी चीज है २३२

सामंजस्य है, भगवान् है, स्वास्थ्य

 है २४६

प्राप्त करनेका यही समय है

  २५६टि०

अंतमें निश्चित है २७७

(दे० 'अतिमानव चेतना', 'मानव

 स्वभाव', 'मृत्यु', 'विरोधी

 शक्ति', 'शुभ', 'शरीर', 'सहन-

 शील' भी)

विजय-दशमी २४६

विद्रोह रे ३३, २३५

सामाजिक रुढियोंके विरुद्ध, एक

 शक्ति है, यदि वह उच्चतर

 चेतनाकी सेवामें.. २३०

विधान [नियम] !

 

३२१


प्रकृतिके व मानवके ९६, ९७,

   १३१, २१०

विभाजन (चेतनाका) [पार्थक्य,

 अलगाव १०३, १५०, १९२

की शोध १०१-२

का भाव मनसे १२१

का नहीं, विभित्रताका बोध, १२७

जरूरी था या अकस्मात्.. १२७

ही सृष्टि व दुःख-दैन्यका स्रोत

 १४८, १५९, १७९, १८०,

 २६१

मे ही 'अनंत? अपनेको अभिव्यक्त

 करता है २६१

(दे 'श्रीमाताजी', 'श्रीमाताजीका

 शरीर' भी)

विभीषिका

-एं प्रतिरोधके कारण २७७

-एं 'शक्ति'के दबावके कारण

  २८१

(दे० 'भागवत कृपा', 'श्रीमाताजी'

  मी)

विरोध ७५

दृष्टिकी अपर्याप्ततासे ७१

- ओकों जीनेकी जरूरत है २००

-स्वरूप शक्तियां उठ खड़ी हुई

  २१०

- को समाप्त करनेका तरीका २४८

 (दे० 'प्रतिरोध', 'अवचेतना',

 'कठिनाई', 'मन', 'शक्ति' भी)

विरोधी शक्ति

-की ओरसे बमबारी ७

-यां किन्हें कहते हैं ७५

-योंपर एक निर्णायक विजय २३३

-योंकी रेलपेल २३३

 (दे० 'मिथ्यात्व' भी)

विविधता १७९, २८०'

विश्व ३० 'सृष्टि'

विश्वास

 जब कोषाणुओंमें, जम जायगा १४

ओझाओं व डाक्टरोंपर २०५

दवाईकी जगह यदि भगवत्कृपामें

  .. २०५

(दे० 'श्रद्धा', 'भौतिक मनं,

 'समर्पण' भी)

वीर बननेकी घड़ी है यह २७६

वृत्ति (चेतनाकी) ३५

 का शरीरपर प्रभाव १५, १८७,

 १८८, १९९, २५५, २६९,

 २७०, २८६, २८७

सुरक्षा, सांत्वना व आनंद प्रदान

 करनेवाली २७-९, ३५-७,

 २४७-४८

कि प्रभु ही सब कुछ हैं ३६,

 २४८

अपनाने योग्य अच्छी-सें-अच्छी

 २०३

का प्रश्न है २०७

मे जरा-सा हेरफेर २१३, २४७-

 ४८

महत्त्वपूर्ण है, परिणाम नहीं २५५

स्वकेंद्रित या भगवान्को महत्व

 देनेकी २५८

 (दे० 'रूपांतर', 'रोग' भी)

बैज्ञानिक

- को अपने ज्ञानको मनके लिये

 बोधगम्य बनानेके लिये ११०

वैभव हमारे पूर्वजोंका २०३

वैश्व लय २३, १४३, २०३

 

१२२


व्यक्ति

 तब अच्छी-से-अच्छी अवस्थाओं,

 संभावनाओंमें होता है ३१

जब सच्ची स्थितिमें होता है तो

 प्राणिक सत्ता उसे छू भी नहीं

''सकती'' ३३

को हमेशा हंसना चाहिये ५१

से मेरा मतलब १००

यदि पूरी-पूरी शून्यता, अक्षमता

 स्वीकार करे.. २५४

 (दे० 'चेतना', 'मनुष्य' मी)

व्यक्गिव

का मृत्युके बाद क्या लोप संभव

 है? १४८-५०

किस कारण बनाये गये थे १६७

'व्यक्तिगत मनमानापन तब अलग

हो जाता है १६७

क्रिया, बोध, संवेदनका केंद्र १८३

कुछ नहीं, यह अनुभव करना २९०

(दे० 'अहं', 'शरीर' भी)

 

         श

 

शक्ति २४७

 'सर्वशक्तिमत्ता प्रदान करनेवाली

   वस्तु तभी प्राप्त हो.. ९९

 विरोधों और निषेधोंद्वारा सीमित

  रहती है १०३

सबसे अधिक शक्तिशाली, और

 सर्वशक्तिमान्, निरपेक्ष १०३

ही सुरक्षा है १३ १टित

 (दे० 'अतिमानव', 'नयी शक्ति',

  'भागवत शक्ति' भी)

शत्रु ३३

नहीं, अखाड़ेके पहलवान १९०

शरीर

को लेकर व्यस्त ७-८

सें बाहर निकल आनेका हमें अधि-

 कार नहीं, यह हमारे कार्यके

 विपरीत है ७-८

मे परिवर्तन ऊपरसे आनेवाला

 हस्तक्षेप नहीं लायगा ८

कभी सहायता नहीं करता, तुम

 शरीरकी सहायता.. ११

के रूपांतरकी बात विभिन्न पर-

 पराओंमें, लेकिन.. ४१

के बारेमें और-और संभावनाओंकी

 कल्पना की जा सकती है, पर

 अस्थिपंजरसे रहित.. ४२-८

का महत्व स्पष्ट हई जो नयी सत्ता-

 के अनुरूप हो ६४

यह, नहीं बदल सकता, कोई नयी

 सत्ता होगी (श्रीअरविद) ६५

बदलना बहुत कठिन. इतना परि-

 श्रम और जीवन संक्षिप्त. ६५

के रूपांतर व शरीरकी प्राप्तिके

 संक्रमणकी कठिनाई ६७-८

के कोषाणुओंकी प्रार्थना ८२-३

मे अभीप्सा कैसे जगायी जाय ८४

एक, की उपलब्धिकी और

 शरीरोंपर क्रिया ८४, ८५,

 ११, १३०-३१

के कोषाणुओंमें पहले चेतना

 जगायी जाय ८४

भगवान्की अभिव्यक्तिका आधार

 बन सकता है ८६, २०१

का रूपांतर अब एक निश्चिति है,

 पर अभी बहुत करना.. ८६

 

३२३


गधा नहीं है, बेचारा! ८८

के कोषाणुओंमें चेतनाके प्रवेशके

  उदाहरण ८९

ही मंत्र बोलता है ८९

से समझना ९९, १२५-२६,

 १३२, १७४-७५

मन-प्राणकी आज्ञा माननेका अम्य-

 स्त, वह रूपांतरके लिये काफी

 नमनीय नहीं १२९, १७२

के कोषाणुओंमें भगवान्के लिये

 प्रेम १७०

जब एक बार कोई बात सीख ले

 तो उसे भूलता नहीं १७०अ

का स्वकेंद्रित होना ही.. १८७

के अस्तित्वका भान न रहे १९५

की तैयारी ' २००

की आवश्यकता पृथक व्यक्तित्वों-

 के लिये; पर यह आवश्यक

 नहीं २२०

व्यक्तिगत सीमाओंसे रहित एक

 भगीरथ प्रयास है २२०-२१

ऐसा बनानेकी समस्या जो 'शक्ति'

 को धारण व संचारित कर सके

 २४४

का रूप-रंग बदलना आखिरी चीजें

 २४४

के कोषाणुओंको केवल भगवान्में

 ही आश्रय ढ्ढना चाहिये २४८

मे बहुत सद्भावना चाहिये २५५

की चेतनामें अगर रहो २५८अ

समग्रताकी चेतनाको पा सकता है

 २६०

मे कठिनाई, अव्यवस्था, रोग पैदा

 करनेवाली चीज २८३अ

इस नयी शक्तके प्रति ग्रहणशील

 हो तो वह दु-र्जे-य.. २८४

के कोषाणुओंमें लड़ने, दुःख झेलने-

 की आदत आत्मनिवेदनको

 स्वीकार करनेमें असमर्थ है

 २८६

(दे० 'रूप, 'अतिमानसिक शरीर',

 'श्रीमाताजीका शरीर', 'उदा-

 हरण', 'निश्चलता', 'पीड़ा',

 'मनुष्य', विश्वास', 'वृत्ति',

 'रूपांतर', 'शांति', तथा 'भौतिक

  .. ' के अंतर्गत भी)

शांति ?r शांत-स्थिरता १३२, १४२

 १४३

लाओ शरीरमें ७, , १२

अक्षर, ही सत्ताकी नित्यताको संभव

 बना सकती है : व्याख्या १४४-

 ४८

अव्यवस्थाके उपचार रूपमें १४५

भगवान्के साथ रहनेसे २५९

उपाय, अवचेतनाकी सफाईका

२१०

 (दे'निश्चलता' भी)

शारीरिक चरित्र १७

शारीरिक समता १२

शुभ

और सत्यकी विजय कही जाती है,

  लेकिन जीवनमें दुष्टकी विजय

  ६८-७१

शुभ और अशुभ ११, १०१, १०२,

 १०३ अ, १८९, १९२, १९७

(दे ० 'अशुभ' भी)

श्रद्धा १२९, १६७, २५७

 अडिग चाहिये १, ५३

 

३२४


की तीव्रता और सहनशक्तिका

 प्रश्न है १४९

कि भगवान्के साथ होनेका आनंद

 सबसे बढ-चढूकर है २७८

नहीं, हममें; श्रद्धा हो तो सब

 कुछ बदल जाता है २७९

 (दे० 'विश्वास' भी)

श्रीअर्रावंद १५७,१७७

सहनशीलतापर ३, १२

के पांवमें घाव : स्वप्न १

द्रव्यात्मक मनपर १८

मौजूद थे दर्शनके दिन २१

के बौद्धिक रूपसे शिष्य २२

के योगके लिये तैयार २२

जीवनको लंबानेके बारेमें ४५, ४८

ने नयी सत्ताको निकट भविष्यमें

  नहीं देखा ६६

का कथन : वास्तविक दुर्भावना,

 विरोध, मिथ्यात्व विरल ७५

भागवत शक्तिके अवतरणके बारे-

 मे ७८

भौतिक मनके बारेमें ८४अ, २५२,

 २५३, २५६-५७टि०

पुरानी आध्यात्मिकताके बारेमें

  ८६, ११७

कहते थे : निर्गुणके परे.. 'पुरुष'

 १००

का सूक्ष्म हाथ आया और दर्दको

 ले गया १३०

की दृष्टिसे अतिमन सब दैन्यसे

 अलग है १५५

का ईर्ष्यासबंधी वाक्य : वह बूढ़ा

 आदमी १८३, १८६, १८७

के सूत्रोंके बारेमें श्रीमाताजीकी

टिप्पणी १८९, १९३, २०८

के प्रयाणने कितनी सहायता की

 है! २०८ अ, २१२

का कथन : भागवत चेतनाके संपर्क-

 मे होनेपर तुम्हें संसार अपनी

 मूर्खतामें हास्यास्पद.. २३६अ

के अंदर अतिमन आया, वह स्थायी

 न था २५६

सहमत कि यही सृष्टि अतिमनकी

 और रूपांतर देखेगी २७९

की क्रिया-शक्ति, जब वे सशरीर थे,

 तबसे अब अधिक २९४

ने शरीर किस लिये छोड़ा २९४

 (दे० 'श्रीमाताजी', 'उद्धरण सूची'

 भी)

श्रीमाताजी

का वस्तुओं व लोगोंको जानना

  स्पंदनके गुणके अअनुसार ९-११

ने जब 'भागवत मुहूर्त' का संगीत

  '', 'क्ष' के लेख सुने १०

'जब मैं किसीका फोटो देखती हू

 १०अ

ने हाथ देखा : 'इसकी तबीयत

 ठीक नहीं' ११

दुरा भौतिक मनकी तपस्या १७

की सारी वृत्ति बदल गयी २२-४,

 २७

यह शरीर लोगोंसे घिरा है..

 लेकिन अगर यह इन परि-

 स्थितियोंमेंसे न होता तो बहुत-

 सी चीजें भुला दी जाती ३१

का प्राण जगत्का अनुभव ३३

का प्राणिक युद्ध और चोटें ३३

का समय लोग व्यर्थके प्रश्नोंम्रें

 

 ३२५


नष्ट.. ४९-५१

मे धीरज ४९

और स्वमानकी भावना ४९

की कोहनीपर खेंख ४९, ५१

और अहंकार ५०

'वे मुझे निगल नहीं सकते ५०

'तांत्रिकोंसे मिलनेपर मैंने यह

 प्रकाश देखा ५२

'मेरा एक परिचित मृत्युके बाद

 एक और जीवित व्यक्तिके

 निकट संपर्कमें था ५७

'भगवान् क्या है यह प्रश्न मैंने भी

 कभी अपनेसे नहीं किया ६०

'भगवान्का वह विचार जिसने मुझे

 बचपनमें नास्तिक बना दिया

 था ६२

की भौतिक चेतनामें नाटककी

 आदत व रुचि ६३

'आप इसीलिये हैं कि नयी सत्ताके

 आगमनकी दूरीको छोटा कर

 दें ६६-७

'मैं उसे करनेकी कोशिश कर रही

हूं, - किसी मनमाने संकल्प-

सें नहीं ६७-८

'मैं कई रातोंसे कई-कई घंटे

 सूक्ष्म भौतिकमें.. ७१-३

'जब मैं अधिमानसमें देवोंको देखा

 करती थो ७२

'मैंने जोरसे कहा : 'मेरी घड़ी कहां

 है? मैं घड़ी पहनना भूल गयी

 ७४

'मैं दूसरोंसे भिन्न पदार्थसे नहीं बनी

 हू ८५ १२४

'इक्कीस वर्षकी उम्रमें मैं जानती

थी कि चेतना कैसे काम करती

 है ८९

'मैं अब नब्बेकी हू, नब्बेकी अवस्था-

 मे लोग.. ११

नवंबर ६७ के दर्शनपर लिये गये

 अपने फोटुओमें विभिन्न व्यक्ति-

 त्वोंके बारेमें : कभी वे श्रीअर-

 विन्द, कभी एक ऐसा व्यक्ति

 .. ९२-६

की टिप्पणी डाक्टरोंकी सलाहपर

 कि अपने-आपको मत थकाओ

 १०४

के कुछ नोट १०६-१०, ११३-

 १५, १७८, १८१-८२

'मन-प्राण छोड़ गये है, पर सबके

 साथ संबंध वैसे ही.. १ ०७टि०

मे कालके सामान्य विचारकी

 अवास्तविकताकी चेतना १०८,

 १०९

'मैं सृष्टिकी सारी विभीषिकाओंमें,

 भौतिक पीडामें जीती थी १२२,

 १२५

'मैंने मानों केंद्रीय अनुभूतिको छू

 लिया है १२२

'उसके लिये मैं मिलने आनेवाले-

 को देख रही थी १२३

'उपस्थितिकी चेतना और पहली

 चेतना भी है १२३

'आपको जमीनपर चित लेटे देखा;

 क्या अर्थ? १२४, १२६

'श्रीअरविदकी चीजोंको मैं अब

 समझना शुरू कर रही हू

 १२८

'हम किसी चीजको छूने-छूनेको

 

३२६


हैं, वह बच निकलती है १२८,

१३२

'जब मैं लोगोंसे 'शुभ नव वर्ष'

कहती हू १३३

में भागवत चेतानाकी क्रिया २४०

 मुझे मानों यह काम सौंपा गया है

 कि जो मेरे नजदीक आयें उन-

 का अतिमानव चेतनाके साथ

 संपर्क करा दूं १४१

'मेरी कही हुई बात जब मेरे आगे

 दोहरायी जाती है १४७,२१५

मे व्यक्गिव व विभाजनकी भावना

 गायब १४८

'लोगोंकी चेतना मेरे आगे खुली

 हुई है, कष्टदायक स्थिति होने-

 पर उनमें विचार : यह समाप्त

 हो जायगा १५२

की, ओरोवीलमें आनेवाली चीजों,

 कला, खेल-कूद, भोजन आदिके

 बारेमें श्रीअरविदसे सूक्ष्म जगत्-

 मे बातचीत १५६

'अलग-अलग समय अलग-अलग

 लोगोंके साथ मुझसे अलग-अलग

 काम करवाया जाता है १६१

अतिमानसिक चेतनामें रहते अपना

 सारा भौतिक काम कर रही

 थी १८३, १८५

का काम : लोगोंपर दिव्य चेतना

 प्रक्षिप्त करना १८३

को.. के साथ कठिनाई थी १८५

के पास पत्रका उत्तर जिस रूपमें

 आता है १९३-९४

मे पत्र लिखकर भेज देनेपर प्रति-

 क्रिया दूं ९५

'मैं इस विश्वासका मूल्य चुका रही

   हू २०१

 'यही काम है जो श्रीअरविन्दने मुझे सौंपा था २१०, २७६

कि हमारी साथ उपस्थिति: कुछ पहली

और अबमें फर्क २१८-११

की चेतना अब निर्गुण बन गयी है

 २११

'लोग जब मुझे लिखते हैं कि मैंने

 उनके लिये यह किया २१९अ

'जब मुझसे पूछा जाता है : 'आप

 उसे कैसे देखती है?' २२०

'लोग जब मुझे बुलाते और मेरे

 बारेमें सोचते हैं.. २२१अ

क्या सत्ताओं और घटनाओंको

 देखनेका आपका तरीका बदला

 है? २२३, २२५

'आपकी दृष्टि बहुत बदल गयी है

 २२८

'मै लोगोंमें देखती हू : ग्रहणशीलता

 २२८-२९

से मिलने आनेवाले लोग : अभीप्सा,

 कौतूहल, बाध्यताके साथ २२८

का संघर्ष उनके विरुद्ध जो यहां

 आरामसे रहने.. २२१

'मैं ही सिर्फ युवा हू.. २२१

'मेरा वातावरण एक स्वच्छ ट्रांस-

 मिटर हो २३१-३२

'जब चुप रहती हूं तो सब कुछ अद्भुत

  ...जैसे ही लोग बातें करने

 लगते हैं.. २३९-४०, २९१

'जब 'अंदर' होती हू तो आश्चर्य-

 जनक 'शक्ति' होती है, लोगोंकी

 बीमारी गायब.. २४१

 

३२७


आपके पास होनेपर शरीरसे

 प्रार्थना.. २४४-४५

मे दृष्टिका, चेतनाके केंद्रका, परि-

 वर्तन २५०-५१

'मेरी चेतना अब अन्य सत्ताओंके

 बीच एक सत्ता नहीं, वह सभी

 चीजोंमें भगवान् है २५१

'मैं एक और ही व्यक्ति बन गयी

 हू, केवल बाहरी रूप वही है

 २५३

के लिये काम कर दिया गया, यह

 चैत्य, उपस्थितिके कारण हुआ

 २५३, २५४

की सारी सत्तापर चैत्यपुसषका

 शासन २५३, २५४; बरसों-

 सें, यहां आनेसे भी पहलेसे

 २६२-६३; अभी हालमें ही

अनेकीकृत चेतनाका अनुभव

 २६२ २६३

'मैं असाधारण धडियोंमेंसे गुजर

 रही हू २५७

'मेरा मन स्वाभाविक रूपसे भगवान्-

 के मननमें रहता है २६५

को भगवान्में लिपटे होनेका भौतिक

 संवेदन २६५

की अवचेतनामें सजगता २७०

की कुछ शिष्योंसे बातचीत २७५-

 ७६

'मैं बूढी नहीं हू, जवान हू २७५अ

'मैं यहां इसलिये नहीं हू कि मैं बद्ध

 हु २७६

 'मैं केवल एक चीज मांगती हू २७६

मे चेतना, विचारके स्थानपर २८६

के लिये एकमात्र शरण २८८

'में न देख सकती हू तो

 सहायता कैसे कर.. २८८

अपनी निश्चलतामें भी एक 'शक्ति',

 उत्पादक-केंद्र २८८

की चेतनामें संसार-भरका युद्ध

 लड़ जा रहा है २८९

की अब अवस्था : भगवान्को क्षण-

 भरके लिये भूल जानेका अर्थ

 है विभीषिका २८९

को अतिमानस-चेतनाकी प्राप्ति

 कुछ सैकडोंके लिये २१२अ

'श्रीअरविन्द रूपांतरके जिस बिंदु-

 तक पहुंचे थे और अब आप

 जो काम कर रही हैं, उसमें

 क्या फर्क है? २९३

'श्रीअरविन्दके शरीरमें एकत्रित

 अतिमानसिक शक्ति मेरे शरीरमें

 आ गयी २९३

'मैं सारे समय यही तो करती रही

 हू : मिथ्यात्वका परिवर्तन २९६

की रट : 'तुम्हारे' बिना मृत्यु है,

 'तुम्हारे' साथ जीवन २९७

'मुझे लगता है, मैं बह हू और

 तब, जब मैं किसीको देखती

 हू तो उस व्यक्तिको 'ज्योति'के

 अर्पण कर देती हू २९७

'लगता है, मैं एक छोटी-सी बच्ची

 हू, दुबकी हुई.. २९७

 (दे० 'नया वर्ष', 'नीरवता'

 भी)

श्रीमाताजीकी अनुभूति !अंतर्दर्शन

विकेंद्रित भौतिक चेतनाकी ४-५,

   २३२,२३६

मानव जातिके विभिन्न स्तरोंकी

 

३२८


अतिमानसिक सृष्टिकी, एक

वैश्व लयकी २ १-७, ७०

कि जीवनके सनी रूप चुनावकी

 अभिव्यक्ति हैं २७-९

कोई, दूसरी बार नहीं ३०

रूपके लचीलेपन और ठोसपनमें

 कमीकी, पहली बार ५२-३

कि जागनेपर अगर कोई सूक्ष्म

 भौतिककी चेतनाको बनाये

 रखे तो वह पागल लगेगा ७४

धरतीके दिव्य बननेके प्रयासका

  ७१-२; इसमें कहनेवाला 'कोई'

  श्रीअरविद हैं ८,

कि यह सृष्टि 'संतुलनकी सृष्टि'

 है १००-३

'पार्थक्यकी शोध १०१-३

प्राकृतिक दृश्यों, विशाल मंदिरों,

 इमारतों व नगरोंका १०६-७,

 ११४

कि अपनी चेतनाके अनुसार अच्छे-

 से-अच्छा करनेवालेको दोष

 देना असंभव ११६-१७

पारदर्शक तरलता और अपार-

 दर्शिताकी ११८

-योंका सुनाना कठिन : कारण १४६

अतिमानसिक चेतनाकी.. सृष्टि

 के 'क्यों', 'कैसे', 'किस ओर'

 का अंतर्दर्शन.. पुरजेपर लिखे

 कुछ सूत्र १७७-८७

त्याज्य गतिके बारेमें १९२-९३

कि चैत्यपुरुष ही अतिमानव सत्ता

 बन जायगा २१५-१६

२१ फरवरी, ७२ की : यह हरेक-

 का जन्मदिन है.. कोई नयी

चीज उतरी है २६७टि

अपने संक्रमणकालीन शरीरका:

छरहरा, अलैंगिक.. २७०-७५

(दे० 'श्रीमाताजीका शरीर' भी)

श्रीमाताजीका शरीर

के कोषाणुओंसे पूछा गया : वे इस

 मेलको क्यों बनाये रखना

 चाहते हैं ३

की साधना : श्रीअरविदकी मार्ग-

 दर्शक कुछ टिप्पणियां १२;

 विजयका उपाय १४

मे शक्तिका. हस्तांतरण दे०

 'हस्तांतरण'

का समर्पण १२-३, १२६-२७,

 १५५, १६५, २५४, २८६

 (दे० 'इच्छा' जैसी मी)

के कोषाणुओंकी अनुभूति : साथ

 रहना या विलीन हों जाना

 वृत्ति-विशेषपर निर्भर १५

मे मूर्छा १५,९०

का, चारों तरफकी चीजोंके

 स्पंदनोंके साथ सामंजस्य-स्थापन

 २९-३०, २२०-२१

अभी, बाहरके प्रभावों ?[छूत] के

 प्रति खुला है २९,४६, ६८,

 २२०

के कोषाणुओंमें रूपांतरका काम

 ३०- १, ७५-६, ११-२

के कोषाणुओंकी चेतनाकी अवस्था,

 पर बाह्य रूपमें.. ४६, २८८

की यंत्रवत् आदतोंके स्थानपर

'चेतना' ?[भागवत उपस्थिति]

 ५१-४, ६३

मे साहसिक भाव ५ ३-४, २६७

 

 ३२९


विघटनके लिये तैयार ५३, १६२,

 २५४

के कोषाणुओंमें मृत्युके बारेमें चिंता

 और उत्तर ५६

के कोषाणुओंमें 'ओ३म्' का गान

 ६०

मे हुई प्राप्ति दूसरोंको नहीं हुई,

 इससे श्रममार.. ६८

की चेतनामें बाहरसे संक्रमण हर

 क्षण ६८, २०८, २८६

के कोषाणुओंका स्तवगान ६८

मे निश्चेतनाको सचेतन बनानेका

  काम ७७-८१

'यह यंत्र 'समाचार लाने' की जगह

उपलब्धिका प्रयास करनेके लिये

  .. ७८-९

से कम निश्चेतनावाली क्या कोई

 सत्ता पृथ्वीपर है ७९-८०

मे पूर्णतया जाग्रत् अभीप्सा ८४

के कोषाणुओंमें अब, चेतना काम

 कर रही है, भौतिक मन परि-

 वर्तित.. ८४-', २५२,२५३,

 २५७

मे चेतनाके प्रवेशका आरंभ : जब

 डाक्टरोंने कहा, मैं बहुत

 बीमार हू ८५-६

को जान-बूझकर अपने-आपपर

 छोड़ दिया गया, मन-प्राण हट ग

 ये ८५, ९०, ९२, १०७,

 ११२

से मन-प्राण चले गये, इसलिये

 रोगका आभास ८५, ८९-९०

मै प्रेमका विस्फोट ८६

का 'सर्वोच्च' ![चैत्यपुरुष] के साथ

सीधा संपर्क, बिना किसी

 मध्यवर्तीके १०अ, १०९, ११८

मे अब? मनके स्थानपर चेतनाका

 शासन : फल ९६-७

मे रूपकी भंगुरता और रूपकी

 नित्यताका युगपत् बोध १०२,

 १३२

के लिये चीजें बहुत तीव्र हो उठीं,

 एक शब्द भी बोलना असंभव

 हो गया.. १०५-६

ने कहा : यह स्थिति और नहीं

 १०६, १११

के '' वैज्ञानिकसे कुछ प्रश्न १०८-

 १०

मे अतिमानसिक शक्तिका सशक्त

 प्रवेश, गलेसे सिरके बीच कम

 ११०- ११, ११३

'दर्शन और श्रवण ११३,२२१अ,

 २२२, २२४-२५, २५४अ

की चेतनाकी स्थिति, उन व्यक्तियों-

 पर निर्भर जिनके साथ वह..

 ११४

के कोषाणु मंत्र जप रहे थे ११५

तरलता और अयथार्थतासे यथार्थ-

ताकि ओर ११८

की अनुभूति : 'हर चीज भागवत

 उपस्थितिसे भरी है' ११९-२५

सें पीड़ा, कठिनाई, दर्द सब कुछ

 गायब, अद्भुत चेतनाके आते

 ही १२२,१३०, १४१, १ ५९अ,

 १६०-६१, १७६,२१०, २४७

 २६५

समझना शुरू कर रहा है १२५-

 २६, १७४-७५

 

 ३३०


सचेतन हो रहा है असामंजस्यके

 स्थान व क्रियासे १२६ अ

सचेतन हों रहा है औरोंके लिये

 भी, विमाजनका नहीं, विभि-

 त्रताका बोध १२७

को चेतनाकी प्राप्ति पीड़ा और

 अव्यवस्थाकी कीमतपर १२७

से मन-प्राणका निष्कासन जरूरी

 क्यों था? १२८-२९, १७२,

 २१६, २५२, २५३, २५६-

 ५७; इस पद्धतिकी सलाह

 नहीं दी जाती १२९, १७२

अपने-आपपर छोडे हुए, की मूढ़ता-

 का प्रदर्शन (वह संकटोंके बीच

 जी रहा है), और अद्भुत

 चेतनाका प्रभाव १२९-३०

को लगता है वह एक बक्सेमें कैद

 है १३१

ने, जब व्यथा तीव्र थीं, पूछा अव्य-

 वस्था कैसे? यह रहस्य मालूम

 हो जाय तो बस अमरता १३२

मे घंटोंकी यंत्रणा और अचानक

 एक अद्भुत क्षण १३३

का, बल्कि वातावरणका, प्रश्न कि

 वह चलता रहेगा या विलीन

 हो जायगा १४२

जानता है कि निश्चय किया जा

 चुका है.. १४२

को डटे रहना चाहिये, अन्यथा

 दुर्भाग्यवश, यह किसी और

 समयके लिये रहेगा १४३

अभी, जड-द्रव्यको सद्वस्तु माननेसे

 लेकर मोक्षतककी सभी अवस्था-

 ओंमेसे गुजरा है, पर जिसे

अभी जीना है वह है सृष्टि-

का अगला कदम १४८-४९

को अपनी चिंता बिलकुल नहीं,

उसमें समयका भाव नहीं रहा,

प्रतिक्रियाएं, वेदन, रंग-रूप

बदल गये, परम एकता...

कोई झंझट, योजना नहीं १५०-

 ५१

का मृत्युके प्रति भाव १५२

की एक ही आशा : विभाजन गायब

 हो जाय १५२

को चिता : क्यों? सृष्ट्रि ऐसी

 क्यों? १ ५२अ

समस्त पृथ्वीका प्रतीक १५३

के पास हर चीज शुद्ध होनेके लिये

 आती है १५३-५४

समझ गया कि चले जाना कोई

 समाधान नहीं है १५४

की अनुभूति : वस्तुओंकी भयंकर-

 ताकी १५८-६१; और इनके

अवास्तविक मिथ्यात्वकी १५९-

६०, १६२

वस्तुओंकी भयंकरताके प्रत्यक्ष

 दर्शनके सामने रोया है १५८

 ने कहा : यह भयंकर जगत् किस

 लिये? उत्तर : विशाल प्रकाश

 १५८-५९

का प्रश्न : 'वह अद्भुत' यह

 घिनौनी डरावनी भीमाकार

 वस्तु कैसे बन गया? १५९

ने सारे जीवनमें कभी ऐसे गहरे

 दर्दका अनुभव नहीं किया..

 अंतमें आनंद १५९अ, १६०-६१

को सनातन नरककी अनुभूति १६१

 

३३१


का अब अपना स्थान लेनेका समय

  आ गया है १६२-६३

को मालूम नहीं कि वह जीवित है

 या मृत १६३

मे ज्योतिर्मय शरीर बननेकी

 महत्वाकांक्षा नहीं १६४-६५

मे प्रेम व आराधनाकी गति १७०,

 १७१

से अहंका लोप १७१

के लिये निद्राकी निश्चलता और

 सचेतन निश्चलतामें फर्क १७३

मे पूर्ण निश्चलता और तीव्र

 अभीप्सा दोनों साथ १७४

की अनुभूति : कभी 'अमरता'की

 चेतना, कभी मर्त्यकी चेतना

 १७५-७७

रूपांतरकी ओर १८६

को सिखाया जा रहा है : वह कुछ

 नहीं जानता १९७-९९

का जीवन और मृत्युके बीच

 मंडराना १९९अ, २५५अ,

 २५७, २६१

को मरे बिना मृत्युका अनुभव २०२

को विघटनके साथ लुप्त हों जाने-

 की म्गंति बहुत समयसे नहीं,

 और अब.. २०२

के कष्टका कारण और इलाज २०२

 मे अतिसवेदनशीलता २०३

इन सब चीजोंको स्वप्न कहा करता

 था, जब श्रीअरविद बीमार

पड़े, उनकी जांघ टूटी २०६

की अनुभूति : भौतिक 'तथ्य' का

 समय खत्म हों चुका २०६-७,

  २०९

की अनुभूतियोंको व्यक्त करना

 कठिन २१३- १५ (दे० 'श्री-

 माताजीकी अनुभूति' भी)

बच्चेकी न्याई विद्यालय जाना,

 सीखना चाहता है २१७

लोगोंके स्पंदनोंको ग्रहण करता है,

 वह औरोंको दोष नहीं देता..

 नम्रतासे भरा है २१८

समर्पित, मेंसे गुजरनेवाली 'शक्ति'

 दुर्जेय होती है.. संभावनाओं-

 की सीमा नहीं होनी चाहिये,

 लेकिन अभी.. २१८

की चेतनामें भी व्यक्तिगत कम-से-

 कम, सीमाएं नहीं, मानों

 तरल.. जब कोई आलोचक

 भावसे आता है.. २१९-२१

'एक पांवमें लकवा-सा.. फिर

 मी भारत व जगत् के लिये

 क्रियाशील.. इस बीमारीसे

 सहायता.. मैंने भौतिक रूपसे

 हरेकके साथ संपर्क रखा.. सारे

 समय चीख.. यह सारे जगत् की

 समस्या थी कि दुःख क्यों?..

 मैंने सारे शामकोंका प्रयोग

 किया.. 'द्रव्य' को तैयार किया

 गया है २२२-२७

मे परिवर्तन न देख सकनेके लिये

 बिलकुल अंधा होना चाहिये

 २२७

पूछता है : 'तुम्हारा मिथ्यात्व

 कहां है? २३४

समझ गया : मेरा अस्तित्व भग-

 वान् के द्वारा है, अहंके कारण

 नहीं २३४, २३५-३६, २४३

 

 ३३२


अधिक सचेतन हो रहा है : क्या

 होनेवाला है, लोग क्या कहने-

 वाले हैं.. २३७-३८

अपना समय बिताता है : भगवान्-

 सें चिपके रहने, होनेकी कोशिश

 करनेमें २४१-४२

को सब चीजें - लोग, परिस्थितियां,

 सब कुछ - सत्यचेतना प्राप्त

 करना सिखानेके लिये आ रही

 हैं २४४?

की खुलनेकी कोशिश २४६

मे समग्र चेतना प्राप्त करनेका प्रश्न

 २४९-५०

को कहा गया : यदि तुम रोग और

 पीड़ा स्वीकार करो.. २५४

मे सद्भावना २५५

ने कहा, यह खतम - मुझे जीवन

 चाहिये २५७

समग्रताकी चेतनाको पा चुका है

 कुछ क्षणोंके लिये २६०अ

कहता है : सच्ची चीज या फिर

 अंत २६७-६८

को अनिवार्यताके द्वारा नित्यता

 सिखायी जा रही है २६९

रूपांतरके प्रयासके लिये अर्पित

 २७५-७६

के बेचैनी और चिंता अनुभव करने-

 पर आवाज : ''तुम डरती क्यों

 हों, यह नयी चेतना है'' २८४

की वह मूढ़ता जो देर लगाती है :

 'आनंदमय अवस्था असंभव'

 २८६-८७

के लिये भगवान्की ओरका अर्थ

 २८७

मे 'शक्ति' की क्रिया कि वह प्रतिमा

 हो, लोगोंके ध्यानको एकाग्र

 करनेके लिये २९०

की प्रार्थना २९५

(दे० 'शरीर', 'अतिमानव चेतना',

 'भागवत कृपा', 'वृत्ति', 'समा-

 धान' भी)

श्वासोचाछवास २७३, २७४, २७५

     स

संक्रमण १३, ३६

भौतिक, की समस्या ६८, २४४,

 २७२अ, २७४-७५

के जितना निकट, अतिसंवेदन-

 शीलता उतनी ही २०३

संक्रमणकाल १ २अ, २४, ५३, ९०,

 २४१

संगीत

या चित्रकारी असंभव, यदि चेतना

 हाथमें प्रवेश न करे ८९

संघर्ष [लड़ाई, युद्ध] ५९, १७५

 हज़ारों वर्ष पुरानी आदतसे ६३

 क्षण-क्षणका ६७अ, २५७

 का कारण ७०

 की आवश्यकता गायब हों

 जायगी

  ७०

अभी करते जाना है २०८,२१०

स्वयं भगवान्को करना चाहिये

 २९०

(दे० 'प्रगति', 'भगवान्', 'श्रीमाता-

 जी' भी)

संतुलन

पूर्ण, की ओर १०१, १८०

 

३३३


सृष्टिमें, चरितार्थ हो जानेपर

 प्रगति बिना रोकके.. १०२

( दे० 'विजय', 'समग्रता', 'सृष्टि'

 भी)

संदेश

नवंबर दर्शन, ११६५ का ११

२१ फरवरी ६९, के बारेमें १ ४४-

 ४८

आकाशवाणीको २२७

भारतके लिये २३३

२१ फरवरी, ७२ का २६१

२१ फरवरी, ७२ का २६४

का कार्ड श्रीमाताजीका २७७

संभव ?[संभावना] ३१, ३६

ओंकी कोई हद नहीं होनी चाहिये,

  लेकिन अभी.. २१८

है यह, क्योंकि यह पहले कभी नहीं

  हुआ २८४-८५

(दे० 'असंभव', 'व्यक्ति' भी)

सचाई ७१, २४७,२७१

से चाहना : फल ३१

के साथ काम करनेवालेको दोष

 देना ११६अ

के लिये श्रम, अतिमानव चेतनाका

  २१७

पूर्ण, के लिये आवश्यक शर्त २६१

'सीधे चलो, अन्यथा सब बिगड़

 जायगा २६७

जरा-सी, के अद्भुत परिणाम २८१ -

 ८२

(दे० 'प्रयास', 'समझौता' भी)

सत्ता

 का एक श्रेष्ठ तरीका २७-९

 - के आनंदके बिना सत्ता नहीं

 होती ९९

केवल एक है १४८ (३० 'भग-

 वान्' का ही भी)

सत्य

के जगत् और वर्तमान जगत् में एक

 फर्क होगा ६९

को देखनेके लिये ७०

से कतरा जाते हो २०६

के जो अनुकूल नहीं, चैत्यके जो

 अनुरूप बनने. योग्य नहीं उसी

 का विलोपन होता है २१७

तेरी ही आज्ञाका पालन करें २३३

(दे 'जीना', 'प्रकाश', 'शुभ',

 'समग्र' भी)

सत्यचेतना दे० 'अतिमानसिक चेतना'

सद्भावना १३३, १३४

वालोंपर चेतनाकी क्रिया बढ़ गयी

 हैं, कठिनाइयां भी १

मनुष्यकी १३५

शारीरिक २५५

सभ्य [सभ्यता] २०४

समग्र

प्रगति करता रहता है ७०

को देखना चाहिये सत्यको देखने-

 के लिये ७०

को उपलब्ध करना, समग्रकी रचना

 करनेवाले प्रत्येक तत्वमें १०२,

 १७९

सब मिलकर पूर्ण एकता है,

 १७९- ८० ( दे० 'चीज' एक भी)

की चेतना एक ही समय, एक साथ

 समग्र और छोटे-सें-छोटे ब्योरे-

 के बारेमें मी सचेतन २०१अ

 (दे० 'ऐक्य', 'गति', 'चेतना',

 

३३४


'दोष', भी)

समग्रता

का दर्शन, सांत्वनादायक ३६

सबका संतुलन है १०२

(दे'भगवान्', 'शरीर', 'श्री-

 माताजीका शरीर' भी)

समझ २७,१०३,१७५

उच्चतर, से सहायता त्याज्य गति-

 के साथ व्यवहारमें ११३

 (दे० 'भगवान्' की दृष्टि भी)

समझौता

 नहीं, 'लगभग' नहीं, अधकचरा

 नहीं ६, १४३अ, १५५,२६८

समय

लगेगा, नयी चीजके प्रकट होनेमें

  ४८,७६-७, ११, ११०, ११२,

 १७५, २४९-५०

की धारणा ४८, ७० अ, १३२,

 १७५

लंबे, तक चलेगी यह अपर्याप्त,

 अधूरी, अपूर्ण चीज ७०, १०४

सभी परिवर्तनोंमें उपलक्षित ७०अ

पत्थरको वनस्पतिमें, वनस्पतिको

 पशुमें, पशुको.. बदलनेमें

 कितना लगा हैं! ७७

से पहले यदि परिणाम आ जाय

 तो कामकी अवहेलना होगी,

 मनुष्य इतना संतुष्ट.. ८६

अपना मूल्य खो बैठा है ९७

अब इधर-उधर देर लगाने या

 ऊंघनेका नहीं है १४९

अब आ गया है १५५

लगेगा, मानवजातिको बदलनेमें

  १६३

लगेगा भौतिक 'तथ्य' पर विजय-

 को स्थापित होनेमें २०८

यह करनेका, ऊपरकी ओर छलांग

 लगानेका है २३०

आंतरिक चेतना और बाह्य. चेतना-

 मे २४१, २६०

लगेगा, अवचेतनाकी सफाईमें २८९

(दे० 'परिवर्तन', 'भागवत कृपा',

 'मानव जाति' ने, 'श्रीमाताजी',

 'श्रीमाताजीका शरीर', 'देश

 और काल' भी)

समर्पण

शरीरका १२, १३, ४०

ही मिथ्यात्वमेंसे बाहर निकलनेकी

 विधि १७६

(दे० 'भगवान्', 'श्रीमाताजीका

 शरीर', 'समाधान' भी)

समाधान

चले जाना नहीं है १५४

एकमात्र : भगवान्के साथ सचे-

 तन संपर्क और भगवान्की

 इच्छाके प्रति समर्पण १५५,

 १६७, १९६, २०१, २३५,

 २५९, २६२, २८०, २८१,

 २१०, २९७

बुद्धका और सत्य समाधान

 १५९-६२

जल्दी पानेकी आशाएं बचकानी

 हैं १६३

कि श्रीमाताजीका शरीर ज्योति-

 र्मय हो जाय १६३-६५

सहनशील

होनेकी जरूरत १, २-३, १२,

 १४९, १५५, २०१

  

३३५


सबसे अधिक, की ही विजय ३अ

साधना

 का रहस्य : मनके प्रयासकी जगह

 'शक्ति' द्वारा काम... ६४

(दे० 'श्रीमाताजीका शरीर' भी)

सामंजस्य

-स्थापनका एक तरीका २७-९

अधिकाधिक सामंजस्यपूर्ण ७०

कला, खेल-कूद, भोजन आदि

 सब चीजोंका, सूक्ष्म जगत् में

तैयार है नीचे आनेके लिये

 १५६-५७

का भविष्य २२७

(दे० 'अतिमानव चेतना', 'दोष',

  'विजय', 'प्रगति', 'मानव जाति',

 'श्रीमाताजीका शरीर' भी)

सिद्धांत गढ़ना २९, ५९

सिद्धि

 संपूर्ण, तभी होगी ४८, १७१

 अब यहां भी प्राप्य २११

भौतिक, ही ठोस सिद्धि है २४३

अगली २४९ (दे० 'गति' अब,

 'सृष्टि' भी)

सुरक्षा ३६, ४८, २३७, २८३

सृष्टि [विश्व]

 क्यों, कैसे, किस ओर ६१, १०२,

 १४४-४७, १४८,१५९, १६७,

 १७७-८२, २४३,२४९, २६१

यह, संतुलनकी सृष्टि है १००- १

 १०२, १०३, १८०

का, द्रव्यका, अगला कदम १४९

 (दे० 'सिद्धि' मी)

जड़तासे क्यों शुरू हुई १७३

एक बखेड़ा १७३

की प्रक्रिया : निश्चेतन पूर्णताकी

 स्थितिसे सचेतन पूर्णताकी

 ओर १७४

को समझना १७५

(दे० 'जगत्', 'दुःख-कष्ट',

 'विभाजन' भी)

सेक्स

 का आवेग मानवजातिमें २५-६

स्थिरता और परिवर्तन १७८, १८१,

 १८२

स्वप्न

 '' का बुरा ८अ

शिष्यका, झागकी विशाल लहर

 और काली नौका.. १०५

 (दे० 'जगत्' (सूक्ष्म भौतिक) भी)

स्वाधीनता

का भाव २७, ३६, १२६

चुनावकी २८

 (दे० 'बंधन' भी)

स्वापक औषधियों के बारेमें ३१-२

 

        ह

 

हस्तांतरण ![स्थानांतरण]

शक्तिका १४-६, १८-९, २०१,

 २२२

का विषय भौतिक मन नहीं, द्रव्य-

 त्मक मन १६

 मे सबसे बड़ी कठिनाई स्नायुओंमें

 १८-९

अधिकारका : देशों और प्रदेशोंके

 २०२; भौतिक जीवनके २०७

 (दे० 'श्रीमाताजीका शरीर' भी)

हिंसा का खुला समर्थन १५७अ

होना [बनना] ४८,५२, ६०, २४०, २४१, २४२, २५६

 

३३६


 नामानुकमणिका

 

अनातोल फांस ६२

अमरीकाके जवानों.. १,

चीन १५७

चेकोस्लोवाकिया १०५

 दुर्गा ९५

देवदूतोंका विद्रोह (पुस्तक) ६२

पाल (संत) ४१

बुद्ध १५३, १५९

महाकाली ९५

माओ-त्से-तुंग १५७

राम नहो, तो रावण... १९०

रेचेड आफ द अर्थ (पुस्तक)

लेखक : फ्राट्ज फानोन १५८-

ति०

रेनां (लेखक) ११२ टि०

''लाइफ'' (पत्रिका) ३२

 

 ३३७


उद्धरण सूची

  श्रीअरविदके उद्धरण

 

विचार और सूत्र

स्थल अज्ञात

एक अप्रकाशित पत्र

योगसमन्वय

सावित्री

श्रीअरविंदके पत्र, भाग १

'रूपांतर' कविता

६अ, १२८टि०, १८९टि०, १९०टी०, २०३-५

१९, ६४-५

४१

६१, २६० टि०

६२

२५६-५७ टी०

२७५

 

३३८









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