श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

The Complete Works of Sri Aurobindo (CWSA) Writings in Bengali and Sanskrit Vol. 9 715 pages 2017 Edition
Bengali
 PDF   
Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य 528 pages 1999 Edition
Hindi Translation
Translator:   Hriday  PDF    LINK

अहंकार

 

   हमारी भाषा में 'अहंकार' शब्द का अर्थ इतना विकृत हो गया है कि आर्यधर्म के प्रधान-प्रधान तत्त्व समझाने में कभी-कमी बड़ी गड़बड़ी हो जाती है । गर्व राजसिक अहंकार का एक विशेष परिणाम है केवल, किंतु साधारणतया 'अहंकार' शब्द का यही अर्थ समझा जाता है । अहंकार-त्याग की बात कहते ही गर्व के त्याग या राजसिक अहंकार के वर्जन की बात मन में उठती है । वास्तव में समस्त अहं-ज्ञान ही है अहंकार । अहं-बुद्धि मानव की विज्ञानमयी आत्मा में सृष्ट होती है और प्रकृति के अंतर्गत तीन गुणों की क्रिया से उसकी तीन प्रकार की वृत्तियां विकसित होती हैं : सात्त्विक अहंकार, राजसिक अहंकार और तामसिक अहंकार । सात्त्विक अहंकार है ज्ञानप्रघान और सुखप्रधान । मुझे ज्ञान मिल रहा है, मुझे आनंद मिल रहा है, ये सब भाव हैं सात्विक अहंकार की क्रिया । साधक का अहं, भक्त का अहं, ज्ञानी का अहं, निष्कर्म-कर्मी का अहं सत्त्वप्रधान, ज्ञानप्रधान, सुखप्रधान है । राजसिक अहंकार है कर्मप्रधान । मैं कर्म कर रहा हूं, मैं जीत रहा हूं, पराजित हो रहा हूं, चेष्टा कर रहा हूं, मेरी ही कार्य-सिद्धि हो रही है, मेरी ही असिद्धि हो रही है, मैं बलवान हू, मैं सिद्ध हूं, में सुखी हूं, मैं दुःखी हूं--ये सब भाव हैं रज:प्रधान, कर्मप्रघान और प्रवृत्तिजनक । तामसिक अहंकार है अज्ञता और निश्चेष्टता  से पूर्ण । मैं अधम हूं, मे निरुपाय हूं, मैं आलसी, अक्षम, हीन हूं, मेरे लिये कोई आशा नहीं, मैं प्रकृति में लीन हो रहा हूं, लीन होना ही है मेरी गति-ये सब भाव हैं तम:प्रधान, अप्रवृत्ति और अप्रकाशजनक । जो तामसिक अहंकार से ग्रसित हैं, उन्हें गर्व नहीं होता, पर उनमें अहंकार पूर्ण मात्रा में होता है, किंतु वह अहंकार है अधोगति, विनाश और शून्य ब्रह्य की ओर ले जानेवाला । जैसे गर्व का अहंकार होता है, वैसे ही नम्रता का भी, जैसे बल का वैसे ही दुर्बलता का भी । जो तामसिक भाव के कारण गर्वहीन हैं, वे अधम और दुर्बल होते हैं, भय और निराशावश दूसरों के पैरों में लोटते हैं । तामसिक नम्रता, तामसिक क्षमा, तामसिक सहिष्णुता का न कोई मूल्य है न कोई सुफल । जो सर्वत्र नारायण के दर्शन करते हुए सबके सामने नम्र रहते हैं, सहिष्णु और क्षमावान् होते हैं, उन्हें ही मिलता है पुण्य । जो ये सब अहंकृत वृत्तियां त्याग त्रैगुण्यमयी माया को अतिक्रम कर जाते हैं उनमें न गर्व होता है न नम्रता, भगवान् की जगन्मयी शक्ति उनके मन-प्राण-रूप आधार में जो भाव देती हैं उसे ही ले वे संतुष्ट और अनासक्त रहते हैं, अटल शांति और आनंद में मग्न । तामसिक अहंकार है सर्वथा वर्जनीय । राजसिक अहंकार को जगा, सत्त्वप्रसूत ज्ञान की सहायता से उसे निर्मूल करना ही है उन्नति का प्रथम सोपान । राजसिक अहंकार के हाथ से मुक्ति पाने का उपाय है ज्ञान, श्रद्धा और भक्ति का विकास । सत्त्वप्रधान व्यक्ति यह नहीं कहते कि मैं सुखी हूं; वे कहते हैं : मेरे प्राणों में सुख का

प्रसार हो रहा है; वे यह नहीं कहते की में ज्ञानी हूं; वे कहते है, मुझमे ज्ञान का संचार

 

७४


हो रहा है । वे जानते हैं कि वह सुख और ज्ञान उनका नहीं, जगन्माता का है । फिर भी सब प्रकार के अनुभव के साथ जब आनन्दोपभोग  के लिये आसक्ति रहती है तब उसी ज्ञानी या भक्त का भाव अहंकारमय हो जाता है । जब यह कहा जाता है कि 'मेरा कुछ हो रहा है', तब अहंबुद्धि का त्याग नहीं हुआ । गुणातीत व्यक्ति ही है संपूर्ण अहंकार-विजयी । वे जानते हैं कि जीव साक्षी और भोक्ता है, पुरुषोत्तम अनुमन्ता और प्रकृति कर्त्री, इसके अंदर 'मैं' नहीं, सभी है एकमेवाद्वितीयम्  ब्रह्य की विधा-अविधा-मयी शक्ति की लीला । अहंज्ञान है जीव-अधिष्ठित प्रकृति में मायाप्रसूत एक भावमात्र । इस अहंज्ञानरहित भाव की अंतिम अवस्था है सच्चिदानंद में लय हो जाना । किंतु जो गुणातीत होकर भी पुरुषोत्तम की इच्छा से लीला में रहते हैं, वे पुरुषोत्तम और जीव के स्वतंत्र अस्तित्व की रक्षा करते हुए अपने को प्रकृति-विशिष्ट भगवदंश समझ लीलाकार्य सम्पन्न  करते हैं । इस भाव को अहंकार नहीं कहा जा सकता । यह भाव परमेश्वर में भी है, उनमें अज्ञान या लिप्तता नहीं, किंतु उनकी आनंदमयी अवस्था आत्मस्थ न हो जगन्मुखी होती है । जिनमें यह भाव होता है वही हैं जीवनमुक्त । लयरूप मुक्ति देहपात होने पर प्राप्त की जा सकती है । जीवन्मुक्त की अवस्था देह में रहते हुए ही अनुभूत होती है ।

 


७५








Let us co-create the website.

Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.

Image Description
Connect for updates