श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य

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Sri Aurobindo

All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

The Complete Works of Sri Aurobindo (CWSA) Writings in Bengali and Sanskrit Vol. 9 715 pages 2017 Edition
Bengali
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All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य 528 pages 1999 Edition
Hindi Translation
Translator:   Hriday  PDF    LINK

 आर्य आदर्श और गुणत्रय

 

  ''कारागृह और स्वाधीनता'' शीर्षक लेख में कई निरपराध कैदियों के मानसिक भाव का वर्णन कर मैंने यही प्रतिपादित करने चेष्टा की है कि आर्य-शिक्षा के प्रभाव से जेल में भी भारतवासियों की आंतरिक स्वाधीनता-रूपी बहुमूल्य पैतृक संपत्ति नष्ट नहीं होती बल्कि घोर अपराधियों में भी हजारों वर्षो से संचित .वह आर्य-चरित्रगत देव-भाव भग्नावशिष्ट रूप में वर्तमान रहता है । आर्य-शिक्षा का मूल मंत्र है सात्त्विक  भाव । जो सात्त्विक है वह विशुद्ध है । साधारणतया मनुष्यमात्र ही है अपवित्र । रजोगुण का प्राबल्य होने से, तमोगुण के घोर अंधकार के छा जाने से यह अशुद्धि परिपुष्ट और वर्धित होती है । मन का मालिन्य है दो प्रकार का--जड़ता या अप्रवृत्तिजनित मालिन्य; यह तमोगुण से उत्पन्न होता है । दूसरा, उत्तेजना या कुप्रवृत्तिजनित मालिन्य; यह रजोगुण से उत्पन्न होता है । तमोगुण के लक्षण हैं अज्ञान-मोह, बुद्धि की स्थूलता, चिंतन की असंलग्नता, आलस्य, अतिनिद्रा, कर्म में आलस्यजनित विरक्ति, निराशा, विषाद् भय, एक शब्द में निश्च्चेष्टता  के पोषक सभी भाव । जड़ता और अप्रवृत्ति अज्ञान के फल हैं, उत्तेजना तथा कुप्रवृत्ति भ्रांत ज्ञान से उत्पन्न होते हैं । परंतु तमोमालिन्य को हटाना हो तो वह रजोगुण के उद्रेक द्वारा ही हो सकता है । रजोगुण ही प्रवृत्ति का कारण है और प्रवृत्ति ही है निवृत्ति की पहली सीढ़ी । जो जड़ है वह निवृत्त नहीं, कारण जड़भाव ज्ञानशून्य  है और ज्ञान ही है निवृत्ति का मार्ग । कामनाशून्य हो जो कर्म में प्रवृत्त होता है, वही निवृत्त है-कर्मत्याग  का नाम निवृत्ति नहीं । इसीलिये भारत की घोर तामसिक अवस्था को देख स्वामी विवेकानन्द कहा करते थे, ''रजोगुण चाहिये, देश में कर्मवीर चाहिये । प्रवृत्ति का प्रचंड स्रोत बह जाने दो । परवाह नहीं यदि उससे पाप भी आ घुसे, वह तामसिक निश्चेष्टता को अपेक्षा हजारगुना अच्छा होगा । ''

 

     वास्तव में हम घोर तम में निमग्न हैं, फिर भी सत्त्वगुण  की दुहाई  देते हुए महासात्त्विक का स्वांग भर हम अपनी बड़ाई करते फिरते हैं । बहुतों का यह मत है की सात्त्विक होने के कारण ही हम राजसिक जातियों द्वारा पराजित हुए, सात्त्विक होने के कारण ही हम इस प्रकार अवनत और अध:पतित हैं । ऐसी युक्तियां दे ईसाईधर्म से हिन्दूधर्म की श्रेष्ठता प्रमाणित करने की चेष्टा करते हैं । ईसाई-जाति प्रत्यक्ष फलवादी है, इस जाति के लोग धर्म का ऐहिक फल दिखा धर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करने की चेष्टा करते हैं; इनका कहना है कि ईसाई-जाति ही जगत् में प्रबल है, अतएव ईसाईधर्म ही है श्रेष्ठ  धर्म । और हममें से कितनों का कहना है कि यह भ्रम है; ऐहिक फल को देखकर धर्म की श्रेष्ठता का निर्णय नहीं किया जा सकता, पारलौकिक फल को देखना चाहिये; हिन्दूजाति अधिक धार्मिक है इसीलिये वह असुर प्रकृति बलवान् पाश्चात्य जाति के अधीन हुई । परंतु इस युक्ति में आर्यज्ञान-विरोघी घोर भ्रम निहित है । सत्त्वगुण  कभी भी अवनति का कारण नहीं हो सकता; यहांतक

 

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कि सत्त्वप्रधान जाति दासत्व को श्रृंखला  में बंधकर नहीं रह सकती । ब्रह्यतेज ही है सत्त्वगुण का मुख्य फल, क्षात्रतेज है ब्रह्मतेज की भित्ति । आघात पाने पर शांत ब्रह्मतेज से क्षात्रतेज का स्फुलिंग निर्गत होता है, चारों दिशाएं धधक उठती हैं । जहां क्षात्रतेज नहीं वहां ब्रह्मतेज टिक नहीं सकता । देश में यदि एक भी सच्चा ब्राह्मण हो तो वह सौ क्षत्रियों की सृष्टि कर सकता है । देश की अवनति का कारण सत्त्वगुण का आतिशय्य नहीं, बल्कि रजोगुण का अभाव है, तमोगुण का प्राधान्य है । रजोगुण के अभाव से हमारा अंतर्निहित सत्त्व म्लान हो तम में विलीन हो गया । आलस्य, मोह, अज्ञान, अप्रवृत्ति, निराशा, विषाद् निश्चेष्टता के साथ-साथ देश की दुर्दशा और अवनति भी बढ़ने लगी । यह मेघ पहले हलका और विरल था, फिर कालक्रम में वह इतना अधिक घना हो उठा, अज्ञान और अंधकार में डूब हम इतने निश्चेष्ट और महत्त्वाकांक्षा- रहित हो गये कि भगवत्प्रेरित  महापुरुषों के उदय होने पर भी वह अंधकार पूर्णत: तिरोहित नहीं हुआ । तब सूर्य भगवान् ने रजोगुणजनित प्रवृत्ति द्वारा देश की रक्षा करने का संकल्प किया ।

 

   जाग्रत् रज:शक्ति के प्रचण्ड रूप से कार्यशील होने पर तम पलायनोधत हो तो जाता है परंतु दूसरी ओर से स्वेच्छाचार, कुप्रवृत्ति और उद्दाम उच्छृंखलता प्रभृति आसुरी भावों के घुस आने की आशंका बनी रहती है । रज:शक्ति यदि अपनी-अपनी प्रेरणा से उम्मत्तता की विशाल प्रवृत्ति के उदरपूरण को ही लक्ष्य बना कार्य करे तो इस आशंका के लिये यथेष्ट कारण है । उच्छृंखलता भाव से स्वपथगामी होने पर रजोगुण अधिक काल तक नहीं टिक सकता । उसमें क्लांति आ जाती है, तमस् आ जाता है, प्रचण्ड तूफान के बाद आकाश निर्मल और परिष्कृत न हो मेघाच्छन्न और वायुस्पन्दनरहित हो जाता है । राष्ट्रविप्लव के बाद फ़्रांस की यही दशा हुई । उस राष्ट्रविप्लव में रजोगुण का प्रचण्ड प्रादुर्भाव हुआ था, विप्लव के अंत में तामसिकता का अल्पाधिक पुनरुत्थान , पुन: राष्ट्रविप्लव, पुन: क्लांति, शक्तिहीनता, नैतिक अवनति-यही है गत सौ वर्षों के फ़्रांस का इतिहास । जितनी बार साम्य-मैत्री-स्वाधीनतारूपी आदर्शजनित सात्त्विक प्रेरणा फ़्रांस के प्राणों में जगी, उतनी ही बार क्रमश: रजोगुण प्रबल हो, सत्त्वसेवा-विमुख आसुरी भाव में परिणत हो स्वप्रवृत्ति की पूर्ति के लिये सचेष्ट हुआ । फलत:, तमोगुण के पुन: आविर्भाव से फ़्रांस अपनी पूर्वसंचित महाशक्ति को खो म्रियमाण विषम अवस्था में, हरिश्चंद्र की न्याई, न स्वर्ग में न मर्त्य में, स्थित है । ऐसे परिणाम से बचने का एकमात्र उपाय है प्रबल रज:शक्ति को सत्त्व की सेवा में  नियुक्त करना । यदि सात्त्विक भाव जाग्रत् हो रज:शक्ति का  परिचालन करे तो तमोगुण के पुन: प्रादुर्भाव होने का भय नहीं रह जाता और उद्दाम शक्ति भी श्रुंखलित और नियंत्रित हो उच्च आदर्श के वश हो देश और जगत् का हित साधन करती है । सत्त्व की वृद्धि का साधन है धर्मभाव-स्वार्थ को डुबा परार्थ समस्त शक्ति अर्पण कर देना--भगवान् को आत्मसमर्पण कर समस्त जीवन को एक महान् और पवित्र यज्ञ में परिणत कर देना ।

 

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गीता में कहा है कि सत्त्व और रज: दोनों मिलकर ही तम का नाश करते हैं; अकेला सत्त्व कभी तम को पराजित नहीं कर सकता । इसीलिये भगवान् ने सम्प्रति धर्म का पुनरुत्थान  कर, तथा हमारे अंतर्निहित सत्त्व को जगा, रज:शक्ति को सारे देश में फैला दिया है । राममोहन राय प्रभृति धर्मोपदेशक महात्माओं ने सत्व को पुनरुद्दीपित  कर नवयुग प्रवर्तित किया । उन्नीसवीं शताब्दी में घर्मजगत् में जितनी जागृति हुई है उतनी राजनीति और समाज में नहीं हुई । कारण क्षेत्र प्रस्तुत नहीं था, अतएव प्रचुर परिमाण में बीज बोने पर भी अंकुर दिखायी नहीं दिया । इसमें भी भारतवर्ष पर भगवान् की दया और प्रसन्नता ही दिखायी देती है । कारण राजसिक भाव से उत्पन्न जो जागरण होता है वह कभी स्थायी या पूर्ण कल्याणप्रद नहीं हो सकता । इससे पहले राष्ट्र के अंतर में थोड़ा-बहुत ब्रह्मतेज का उद्दीपन होना आवश्यक है । इसीलिये इतने दिनों तक रज:शक्ति की धारा रुकी रही । १९०५ ई०  में रज:शक्ति का जो विकास हुआ वह है सात्त्विक भाव से पूर्ण । अत: इसमें जो उद्दाम भाव दिखायी पड़ा है उससे भी आशंका का कोई विशेष कारण नहीं, क्योंकि यह रज:-सत्त्व का खेल है; इस खेल में जो कुछ उद्दाम या उच्छृंखल भाव है, वह शीघ्र ही नियमित और  श्रुंखलित हो जायेगा |  किसी बाह्य शक्ति द्वारा नहीं, बल्कि भीतर जो ब्रह्यतेज, जो सात्त्विक  भाव जागरित हुआ है उसी में यह वशीभूत और नियमित होगा । धर्मभाव के प्रचार से हम उस भ्रह्यतेज और सात्त्विक भाव का पोषण-भर कर सकते हैं ।

 

     ऊपर कहा जा चुका है कि परार्थ में समस्त शक्ति लगा देना सत्त्वोद्रेक का एक उपाय है । हमारे राजनितिक जागरण में इस भाव का यथेष्ट प्रमाण पाया जाता है । परंतु इस भाव की रक्षा करना कठिन है । यह व्यक्ति के लिये जितनी कठिन है, राष्ट्र के लिये उससे भी अधिक कठिन है । परार्थ में स्वार्थ अलक्षित रूप से घुस आता है, और यदि हमारी बुद्धि शुद्ध न हो तो हम ऐसे भ्रम में पड़ सकते हैं कि परार्थ की दुहाई दे और स्वार्थ को आश्रय बना, हम परहित, देशहित और मनुष्यजाति के हित को डुबा दें और फिर भी अपने भ्रम को समझ न सकें । भगवत्सेवा सत्त्वोद्रेक का दूसरा उपाय है । परंतु इस मार्ग में भी परिणाम विपरीत हो सकता है । भगवत्सान्निध्यरूपी आनंद मिलने पर हममें सात्त्विक निश्चेष्टता जनम सकती है, उस आनंद का स्वाद लेते-लेते हम दु:खकातर देश के प्रति और मानवजाति की सेवा के प्रति उदासीन हो सकते हैं । यही है सात्त्विक भाव का बंधन । जिस प्रकार राजसिक अहंकार होता है उसी प्रकार सात्त्विक अहंकार भी । जैसे पाप मनुष्य को बंधन में डालता है वैसे ही पुण्य भी । सभी वासनाओं से शून्य हो, अहंकार त्याग भगवान् को आत्मसमर्पण किये बिना पूर्ण स्वाधीनता नहीं मिलती । इन दोनों अनिष्टों को त्यागने के लिये सबसे पहले आवश्यकता है विशुद्ध बुद्धि की । देहात्मिका बुद्धि का वर्जन कर मानसिक स्वाधीनता का अर्जन करना ही है बुद्धिशोधन की पूर्ववर्ती अवस्था । मन के स्वाधीन होने पर वह जीव के अधीन हो जाता है और फिर मन को जीतकर और बुद्धि के आश्रय में जा

 

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मनुष्य स्वार्थ के पंजे से बहुत-कुछ छुटकारा पा जाता है । इस पर भी स्वार्थ हमें संपूर्णतः नहीं छोड़ता । अंतिम स्वार्थ है मुमुक्षुत्व, परदु:ख भूल अपने ही आनंद में विभोर रहने की इच्छा । इसे भी त्यागना होगा । समस्त भूतों में नारायण की उपलब्धि कर उन्हीं सर्वभूतस्थ नारायण की सेवा ही है इसकी दवा । यही है सत्त्वगुण की पराकाष्ठा । इससे भी उच्चतर अवस्था है और वह है सत्त्वगुण का भी अतिक्रमण कर गुणातीत हो पूर्णत: भगवान् का आश्रय ग्रहण करना । गुणातीत अवस्था गीता में ऐसे वर्णित है :

नान्यं गुणेभ्य: कर्तारं यदा द्रष्टाऽनुपश्यति |

गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मदभावं सोऽधीगच्छति ||

गुणानेनतीत्य त्रीन्देही दहेसमुदभवान् |

जन्ममृत्युजरादु:खैर्विमुक्तोऽमृतमश्रुते ||

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्ड़व | 

न द्धेष्टि सम्प्रवृत्तानी  न निवृत्तानि काङ्क्षति ||

उदासीनवदासीनो गुणैयों न विचाल्यते |

गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेंङते  || 

समदु:खसुख: स्वस्थ: समलोष्ठाश्मकाञ्चन:  |  

तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुति: ||

मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयो:

|

सर्वारम्भपरित्वागी गुणातीत: स उच्यते ||

मां च  योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते |

स गुणान्समतीत्यैतान् ब्रह्यभूयाय  कल्पते ||

   ''जब जीव साक्षी हो गुणत्रय को, अर्थात् भगवान् की त्रैगुण्यमयी शक्ति को ही एकमात्र कर्ता के रूप में देखता है तथा इस गुणत्रय के भी परे शक्ति के प्रेरक ईश्वर को जान पाता है तब वह भागवत साधर्म्य लाभ करता है । तब देहस्थ जीव स्थूल और सूक्ष्म दोनों देहों से संभूत गुणत्रय का अतिक्रमण कर जन्म-मृत्यु-जरा-दु:ख से विमुक्त हो अमरत्व का भोग करता है । सत्त्वजनित ज्ञान, रजोजनित प्रवृत्ति या तमोजनित निद्रा, निश्चेष्टता और भ्रमरूपी मोह के होने पर वह क्षुब्ध नहीं होता, गुणत्रय के आगमन और निर्गमन में समान भाव रखकर उदासीन की भांति वह स्थिर रहता है, गुणग्राम उसे विचलित नहीं कर पाता, इसे गुणों की स्वधर्मजात वृत्ति मान, वह दृढ़ रहता है । जिसके लिये सुख और दुःख समान हैं, प्रिय और अप्रिय समान हैं, निंदा और स्तुति समान हैं, सोना और मिट्टी दोनों ही पत्थर के समान हैं, जो धीर-स्थिर, अपने ही अंदर अटल है, जिसके लिये मान और अपमान दोनों एक ही बात हैं, जिसे

 

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मित्रपक्ष और शत्रुपक्ष दोनों ही समान भाव से प्रिय हैं, जो स्वयं प्रेरित हो किसी कार्य का आरंभ नहीं करता, सारे कर्म भगवान् को अर्पण कर उन्हीं की प्रेरणा से करता है, उसे ही कहते हैं गुणातीत । जो निर्दोष भक्तियोग द्वारा मेरी सेवा करता है वही इन तीनों गुणों को अतिक्रमण कर ब्रह्यप्राप्ति के उपयुक्त होता है ।''

 

    यह गुणातीत अवस्था सबके लिये साध्य न होने पर भी इसकी पूर्ववर्ती अवस्था सत्त्वगुणप्रधान पुरुष के लिये असंभव नहीं । सात्त्विक अहंकार का त्याग कर जगत् के सभी कार्यो में भगवान् की त्रैगुण्यमयी शक्ति की लीला को देखना है इसका सबसे पहला उपक्रम । यह बात समझ सात्त्विक कर्ता कर्वृत्वाभिमान त्याग, भगवान् को संपूर्ण आत्मसमर्पित हो कर्म करता है ।

 

    गुणत्रय और गुणातीत्य क संबंध में मैंने जो कुछ कहा, वह है गीता की मूल बात । परंतु यह शिक्षा साधारणतया अंभीकृत नहीं हुई, अभीतक जिसे हम आर्यशिक्षा के नाम से संबोधित करते आये हैं, वह प्रायः सात्त्विक गुण का अनुशीलन है । रजोगुण का आदर तो इस देश में क्षत्रियजाति के लोप होने के साथ-ही-साथ लुप्त हो गया । यधपि राष्ट्रीय जीवन में रज:शक्ति का भी अत्यंत प्रयोजन है । इसीलिये आजकल गीता की ओर लोगों का मन आकृष्ट हो रहा है । गीता की शिक्षा ने पुरातन आर्य-शिक्षा को आधार बनाकर भी उसका अतिक्रमण किया । गीतोक्त धर्म रजोगुण से भय नहीं खाता, उसमें रज:शक्ति को सत्त्व की सेवा में नियुक्त करने का पथ निर्देशित है, प्रवृत्तिमार्ग में मुक्ति का उपाय प्रदर्शित है । इस धर्म का अनुशीलन करने के लिये राष्ट्र का मन किस प्रकार तैयार हो रहा है इस बात को पहले-पहल मैंने जेल में ही हृदयङम किया । अभीतक स्रोत निर्मल नहीं हुआ है, अभी भी वह कलुषित और पंकिल है, किंतु इस स्रोत का अतिरिक्त वेग जब कुछ प्रशमित होगा तब उसके अंदर छिपी विशुद्ध शक्ति का निर्दोष कार्य होगा ।

 

     जो मेरे साथ कैद थे और एक ही अभियोग में अभियुक्त थे, उनमें से बहुत-से निर्दोष समझकर छोड़ दिये गये हैं, बाकी लोगों को यह कहकर सजा दी गयी है कि वे षड्यंत्र में लिप्त थे । मानवसमाज में हत्या से बढ़कर और कोई अपराध नहीं हो सकता । राष्ट्रीय स्वार्थ से प्रेरित हो जो हत्या करता है, उसका व्यक्तिगत चरित्र चाहे कलुषित  न भी हो, किंतु सामाजिक हिसाब से, अपराध का गुरुत्व कम नहीं हो जाता । यह भी स्वीकार करना होगा कि अंतरात्मा पर हत्या की छाया पड़ने से मन पर मानों रक्त का दाग बैठ जाता है, उसमें क्रूरता का संचार होता है । क्रूरता बर्बरोचित गुण है, मनुष्य उन्नति के क्रमविकास में जिन गुणों से धीरे-धीरे दूर हो रहा है, उनमें क्रूरता प्रधान है । इसका यदि पूर्ण रूप से त्याग कर दिया जाये तो मानवजाति की उन्नति के मार्ग में से एक विघ्नकारी कंटक समूल नष्ट हो जायेगा । अभियुक्तों का दोष मान लेने पर यही समझना होगा कि यह रज:शक्ति की क्षणिक उद्दाम उच्छृंखलता-भर है । उनमें

एक ऐसी सात्त्विकता शक्ति निहित है की क्षणिक उच्छृंखलता द्वारा देश का स्थायी 

 

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अमंगल होने की कोई भी आशंका नहीं ।

 

   अंतर की जिस स्वाधीनता की वात मैं ऊपर कह आया हूं वह स्वाधीनता मेरे साथियों का स्वभावसिद्ध गुण है । जिन दिनों हम सब एक संग एक बड़े-से दालान में रखे गये थे, उन दिनों मैंने उनके आचरण और मनोभाव को विशेष मनोयोगपूर्वक लक्ष्य किया । केवल दो व्यक्तियों को छोड़ अन्य किसी के भी मुंह या जबान पर भय की छाया तक देखने को नहीं मिली । प्रायः सभी तरुण और वयस्क थे, बहुत-से अल्पवयस्क बालक थे; जिस अपराध में वे पकड़े गये थे वह प्रमाणित होने पर उसका दण्ड इतना भीषण है कि कल्पनामात्र से दृढ़मति पुरुष भी विचलित हो जाये । इसके अतिरिक्त, इस मुकदमे से रिहाई पाने की आशा भी ये नहीं रखते थे । विशेषत:, मजिस्ट्रेट  की अदालत में गवाहों और लिखित गवाहियों का जैसा विस्तृत आयोजन होने लगा उसे देखकर कानून से अनभिज्ञ व्यक्ति के मन में भी सहज ही यह धारणा उपजने लगी कि निर्दोष के लिये भी इस फंदे से निकलने का उपाय नहीं । फिर भी उनके चेहरे पर भय या विषाद के बदले थी केवल प्रफुल्लता, सरल हास्य; अपनी विपत्ति को भूल मुंह में थी धर्म और देश की ही बात । हमारे वार्ड में, हरेक बंदी के पास दो-चार किताबें होने के कारण एक छोटी-सी लाइब्रेरी बन गयी थी । इस लायब्रेरी की अधिकांश किताबें थीं धर्मसंबंधी--गीता, उपनिषद् विवेकानन्द पुस्तकावली, रामकृष्य-कथामृत और जीवनचरित्र, पुराण, स्तोत्रमाला, ब्रह्यसंगीत इत्यादि । अन्य पुस्तकों में थीं बंकिम-ग्रंथावली, स्वदेशी गानसंबंधी बहुत-सी छोटी-छोटी पुस्तिकाएं, यूरोपीय दर्शन, इतिहास और साहित्य की थोड़ी-बहुत पुस्तकें । प्रातःकाल कोई साधना करने बैठता, कोई पुस्तकें पढ़ता तो कोई धीरे-धीरे बातें करता । प्रातःकाल की इस शांतिमय नीरवता में कभी-कभी हंसी की लहरें भी उठतीं । जब कभी कचहरी का दिन नहीं होता तब कुछ लोग सोते, कुछ खेलते--जब जो खेल सामने आ जाते, किसी खास खेल के लिये किसी में कोई आग्रह नहीं । किसी दिन एक वृत्त में बैठ कोई शांत खेल होता तो किसी दिन दौड़-धूप या कूद-फांद; कुछ दिन   फुटबॉल ही चला, यह फुटबॉल निःसंदेह किसी अपूर्व उपकरण का बना होता था । कुछ दिन आंख- मिचौनी चली । कभी-कभी अलग-अलग दल बनाकर एक ओर जुजुत्सु की शिक्षा होती तो दूसरी ओर ऊंची कूद और लंबी कूद तथा एक ओर ड्राफ्ट या चौपड़ । दो-चार गंभीर प्रौढ़ व्यक्तियों को छोड़ प्रायः सभी बालकों के अनुरोध से इन खेलों में शरीक होते । मैंने देखा कि इनमें जो बड़े-बूढ़े थे, उनका स्वभाव भी बालकों-जैसा ही था । शाम को गाने की मजलिस जुटती । गानविधा  में निपुण उल्लास, शचींद्र और हेमदास के चारों ओर बैठ हम सभी गाना सुनते । स्वदेशी या धर्म के गानों के अतिरिक्त और किसी भी तरह का गाना नहीं होता था । किसी-किसी दिन केवल आमोद करने की इच्छा से उल्लासकर हंसी के गाने, अभिनय, दूरागतशब्दानुकरण (ventriloquism), नकल उतारने या गंजेरियों की गप द्वारा शाम का समय बिताता । उल्लासकर के जैसा

 

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अदभुत, क्षमताशाली और अपूर्व चरित्र मैंने फिर कमी नहीं देखा । सुना अवश्य था कि बीच-बीच में ऐसे लोग जन्म लेते है जिनकी अन्तरात्मा पर माया का प्रभाव इतना शिथिल होता है कि सामान्य देह-धर्म को छोड़ उन्हें और किसी तरह का बन्धन नहीं बांधता । ''लिप्यते  न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा'' । इस उक्ति का यथार्थ और असली मर्म इस बार उल्लासकर के आचरण में प्रत्यक्ष देखा । साधारण मनुष्य की तरह कर्म करते हैं, हंसते हैं, बात करते हैं, खेलते हैं, गलती करते हैं, उचित-अनुचित करते हैं लेकिन फिर भी वही निर्मल देवभाव । शरीर पर कितना ही कीचड़  क्यों न गिर जाय पर वह शरीर से चिपका नहीं रहता । हमारे राग-द्वेष, सुख-दुःख, भय, स्वार्थ, हिंसा उनके लिये नहीं रचे गये । उनमें है सिर्फ प्रेम, आनन्द हास्य, परोपकार, परसेवा, फूलों की नैसर्गिक स्वच्छता और प्रफुल्लता । उल्लासकर इसी विशिष्ट प्रकृति का बना है । मैंने उसमें कभी भी जरा-सा भी क्रोध, दुःख, दैन्य, विकार और विषाद नहीं देखा । किसी से भी आसक्ति नहीं । उनसे जो भी कुछ भी मांगता वे उसे दे देते, मानों अपने लिये कुछ है ही नहीं । वै किसी तरह की भावना से बद्ध नहीं थे । अभी-अभी वे सबके मनोरंजन के लिये हंसी-मजाक कर रहे थे, दूसरे ही क्षण देखा कि सब कुछ भूल ध्यानमग्न हो गये हैं । किसी ने ध्यान भंग कर दिया तो भी उन्हें अंतर नहीं पड़ता था । हंसते-हंसते उसकी उद्दंडता सह लेते । उनके लिये सभी कुछ लीलामय था, जैसी दुनिया वैसे ही जेल, जैसी निवृत्ति वैसी ही प्रवृत्ति । कोई भेद नहीं, कोई विकार नहीं । इतनी हदतक स्वाधीन सात्त्विक भाव दूसरों में न भी हो पर कुछ हदतक तो था ही । मुकदमे में कोई भी जी नहीं लगाता था, सभी धर्म या आनंद में दिन बिताते । यह निश्चिंत भाव कठिन कुकर्मी हृदय के लिये असंभव है; इनके अंदर काठिन्य, क्रूरता, कुकर्मिता , कुटिलता, लेशमात्र भी नहीं  थी । क्या हंसी, क्या बातचीत, क्या खेल-कूद, इनका सब कुछ था आनंदमय, पापहीन और प्रेममय ।

 

   इस मानसिक स्वाधीनता का फल शीघ्र ही  विकसित होने लगा  । इस प्रकार के क्षेत्र में ही धर्म-बीज बोने से सर्वांगसुंदर फल संभव है । ईसामसीह ने कुछ बालकों को दिखाते हुए अपने शिष्यों से कहा था, ''जो इन बालकों की तरह हैं वे ही ब्रह्मलोक को प्राप्त होते हैं ।''   ज्ञान और आनंद हैं सत्त्वगुण के लक्षण । जो दु:ख को दुःख नहीं समझते जो सभी अवस्थाओं में आनन्दित और प्रफुल्लित रहते हैं, वे ही हैं योग के अधिकारी । जेल में राजसिक भाव को प्रश्रय नहीं मिलता, निर्जन कारावास में प्रवृत्ति का परिपोषक कुछ भी नहीं होता । ऐसी अवस्था में असुर-मन चिर-अभ्यस्त रज:-शक्ति की खुराक के अभाव में आहत व्याघ्र की नाई स्वयं अपना ही नाश करने लगता है । पाश्चात्य कविगण जिसे eating one's own heart (तीव्र संताप से जी को जलाना) कहते हैं, ठीक वही अवस्था होती है । भारतवासी का मन इस प्रकार की निर्जनता में, इस बाह्य कष्ट  की अवस्था में भी चिरन्तन आकर्षण से आकृष्ट हो भगवान् की ओर दौड़ पड़ता है । हमारी भी यही अवस्था हुई । न मालूम  कहां से एक स्रोत आ

 

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सभी को बहा ले गया । जिसने कभी भगवान् का नाम नहीं लिया था वह भी साधना करना सीख गया । उस परम दयालु की दया का अनुभव कर आनंदमग्न हो उठा । अनेक दिनों के अभ्यास से योगियों की जो अवस्था होती है, वह इन बालकों की दो-चार महीने की साधना से ही हो गयी । रामकृष्ण परमहंस ने एक बार कहा था, ''अभी तुम लोग क्या देखते हो--यह तो कुछ भी नहीं देश में एक ऐसा स्रोत बहेगां जिसके प्रभाव से अल्पवयस्क बालक भी तीन दिन साधना करके सिद्धि पायेंगे ।''  इन बालकों को देखकर उनकी भविष्यवाणी की सफलता में जरा भी संदेह नहीं रह जाता । ये मानों उसी प्रत्याशित धर्मप्रवाह के मूर्तिमान पूर्व-परिचय हो । इस सात्त्विक भाव की तरंग कठघरे तक पहुंच, चार-पांच को छोड़ बाकी सबके हृदय को महानन्द से परिप्लावित कर देती थी । जिसने एक बार भी इसका आस्वादन किया है वह इसे कभी भूल नहीं सकता न कभी किसी दूसरे आनंद को इस आनंद के समान ही स्वीकार कर सकता है । यही सात्त्विक भाव है देश की उन्नति की आशा । भ्रातृभाव, आत्मज्ञान और भगवत्-प्रेम जिस तरह सहज ही भारतवासी के मन पर अधिकार कर कार्य में प्रकट होते हैं उसी सहज भाव से और किसी भी राष्ट्र में उनका प्रकट होना संभव नहीं । इसके लिये चाहिये तमोवर्जन रजोदमन, सत्त्वप्रकाश । भगवान् की गूढ़ अभिसंधि से इसी की तैयारी हो रही है भारतवर्ष में ।

 

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