All writings in Bengali and Sanskrit including brief works written for the newspaper 'Dharma' and 'Karakahini' - reminiscences of detention in Alipore Jail.
All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)
अतीत की समस्या
इधर प्रायः सौ वर्षों से शिक्षित संप्रदाय पर पाश्चात्य भाव के पूर्ण आधित्य के कारण भारतवासी आर्यज्ञान और आर्यभाव से वंचित हो शक्तिहीन, पराश्रय-प्रवण और अनुकरणप्रिय हो रहे थे । अब यह तामसिक भाव तिरोहित हो रहा है । एक बार मीमांसा करनी आवश्यक है कि आखिर इसका प्रादुर्भाव हुआ ही क्यों था । अठारहवीं शताब्दी में तामसिक अज्ञान और घोर राजसिक प्रवृत्ति ने भारतवासियों को ग्रस लिया था, देश में हजारों स्वार्थपर, कर्तव्यविमुख, देशद्रोही, शक्तिमान् असुरप्रकृति मनुष्यों ने जन्म ले पराधीनता के अनुकूल अवस्था को तैयार किया था । उसी समय भगवान् की गूढ़ अभिसंधि को सफल करने के लिये सुदूर-द्धीपांतरवासी अंग्रेज वणिकों का भारत में आविर्भाव हुआ । पापभारार्त भारतवर्ष अनायास ही विदेशियों के हाथ आ गया । इस अदभुत काण्ड का विचार मन में उठते ही आज भी संसार आश्चर्यान्वित हो जाता है । इस बात की कोई भी संतोषजनक मीमांसा न कर सकने से सभी लोग अंग्रेज-जाति के गुणों की अशेष प्रशंसा करते हैं । अंग्रेज-जाति के अनेक गुण हैं; अगर वे गुण न होते तो वह आज पृथ्वी की श्रेष्ठ दिग्विजयी जाति न हो पाती । किंतु जो यह कहते हैं कि इस अदभुत घटना का एकमात्र कारण भारतवासियों की निकृष्टता और अंग्रेजों की श्रेष्ठता है, भारतवासियों का पाप और अंग्रेजों का पुण्य है, उन्होंने स्वयं पूर्णत: भ्रांत न होने पर भी लोगों के मन में कुछ एक भ्रांत धारणाएं बिठा दी हैं । अतएव इस विषय का सूक्ष्म अनुसंधान कर इसकी सही-सही मीमांसा करने की चेष्टा की जानी चाहिये । अतीत का सूक्ष्म अनुसंधान किये बिना भविष्य की गति का निर्णय करना दु:साध्य है |
अंग्रेजों की भारत-विजय है जगत् के इतिहास में एक अतुलनीय घटना । यह बृहत् देश यदि किसी असभ्य, दुर्बल या निर्बोध और अक्षम जाति का वासस्थान होता तो फिर ऐसी बात नहीं कही जाती । किंतु भारतवर्ष राजपूत, मराठा, सिख, पठान, मुगल आदि का निवास-स्थान है; तीक्ष्ण-बुद्धि बंगाली, चिंतनशील मद्रासी, राजनीतिज्ञ महाराष्ट्रीय ब्राम्हण भारतजननी की संतान हैं । अंग्रेजों की विजय के समय नाना फड़नवीस-जैसे विचक्षण राजनीतिविद, माधोजी सिंधिया-जैसे युद्धविशारद सेनापति, हैदर अली और रणजीत सिंह-जैसे तेजस्वी और प्रतिभाशाली राज्यनिर्माता प्रांत-प्रांत में जनमे थे । अठारहवीं शताब्दी में भारतवासी तेज में, शौर्य में, बुद्धि में किसी भी जाति से कम नहीं थे । अठारहवीं शताब्दी का भारत था सरस्वती का मंदिर, लक्ष्मी का भंडार, शक्ति का क्रीड़ाङण । फिर भी जिस देश को प्रबल और वर्धनशील मुसलमानों ने सैंकड़ों वर्षो के प्रयास से बड़े कष्ट से जीता था और जहां वे कभी भी निर्विघ्न शासन नहीं कर सके, उसी देश ने पचास वर्ष में ही अनायास मुट्ठी-भर अंग्रेज बनियों का आधिपत्य स्वीकार कर लिया । सौ वर्षों में ही उनके एकछत्र साम्राज्य की छाया में
निश्चेष्ट हो सो गया ! कोई कह सकता है की एकता अभाव है इस परिणाम का
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कारण । स्वीकार करते हैं कि एकता का अभाव हमारी दुर्गति का एक प्रधान कारण है, पर भारतवर्ष में कभी भी एकता नहीं रही । महाभारत के समय में भी एकता नहीं थी, चंद्रगुप्त और अशोक के समय में भी नहीं, मुसलमानों की भारत-विजय के समय भी नहीं, अठारहवीं शताब्दी में भी नहीं । एकता का अभाव इस अदभुत घटना का एकमात्र कारण नहीं हो सकता । यदि कहा जाये कि अंग्रेजों का पुण्य इसका कारण है तो हम पूछते हैं कि जो उस समय का इतिहास जानते हैं वे क्या यह कहने का साहस करेंगे कि उस समय के अंग्रेज वणिक तत्कालीन भारतवासियों की अपेक्षा गुण और पुण्य में श्रेष्ठ थे ? जिन प्रमुख अंग्रेज वणिक और दस्यु क्लाइव और वारेन हेस्टिंग्स ने भारतभूमि को जीता और लूटा, जगत् में अतुलनीय साहस, उधमशीलता और स्वार्थपरता तथा अतुलनीय दुर्गुणों का भी दृष्टांत दिखाया उन्हीं निष्ठुर, स्वार्थपर, अर्थलोलुप, शक्तिमान् असुरों के पुण्य की बात सुन हंसी रोकना कठिन हो जाता है । साहस, उधमशीलता, स्वार्थपरता असुर का गुण है, असुर का पुण्य है, यह पुण्य क्लाइव आदि अंग्रेजों में था । किंतु उनका पाप भारतवासियों के पाप से तनिक भी न्यून नहीं था । अतएव अंग्रेजों के पुण्य से यह अघटन नहीं घटा ।
अंग्रेज भी असुर थे, भारतवासी भी असुर थे, उस समय देवताओं और असुरों में युद्ध नहीं हुआ था, असुरों-असुरों में युद्ध हुआ था । तब भला पाश्चात्य असुरों में ऐसा कौन-सा महान् गुण था जिसके प्रभाव से उनका तेज, शौर्य और बुद्धि सफल हुई और भारतीय असुरों में ऐसा कौन-सा सांघातिक दोष था जिसके प्रभाव से उनका तेज, शौर्य और बुद्धि विफल हुई ? पहला उत्तर यह है कि भारतवासी अन्य सभी गुणों में अंग्रेजों के समान होने पर भी राष्ट्रीय भावरहित थे, अंग्रेजों में यह गुण पूर्णत: विकसित था; परंतु इसका अर्थ कोई यह न लगा बैठे कि अंग्रेज स्वदेशप्रेमी थे, स्वदेशप्रेम की प्रेरणा से भारत में विराट् साम्राज्य स्थापित करने में समर्थ हुए थे । स्वदेशप्रेम और राष्ट्रीय भाव दो स्वतंत्र वृत्तियां हैं । स्वदेशप्रेमी स्वदेश के सेवाभाव में उन्मत्त रहते हैं, सर्वत्र स्वदेश को देखते हैं, स्वदेश को इष्टदेवता मान अपने सभी कर्म यज्ञरूप में समर्पण कर देश के हित के लिये कर्म करते हैं, देश के स्वार्थ में अपने स्वार्थ को डुबो देते हैं । अठारहवीं शताब्दी के अंग्रेजी में यह भाव नहीं था; यह भाव किसी जड़वादी पाश्चात्य राष्ट्र के प्राणों में स्थायी नहीं रह सकता । अंग्रेज स्वदेशहित के लिये भारत नहीं आये थे, न स्वदेशहित के लिये उन्होंने भारत को जीता था, वे आये थे वाणिज्य के लिये, अपने-अपने आर्थिक लाभ के लिये; स्वदेशहित की दृष्टि से उन्होंने भारत को न जीता था और न लूटा था, जीता था बहुत-कुछ अपनी स्वार्थसिद्धि के लिये । परंतु स्वदेशप्रेमी न होने पर भी वे राष्ट्रीय-भावापन्न थे । उनमें यह अभिमान था कि हमारा देश श्रेष्ठ है, हमारे राष्ट्र के आचार, विचार, धर्म, चरित्र, नीति, बल. विक्रम, बुद्धि, मत और कर्म उत्कृष्ट हैं, अतुल्य हैं तथा अन्य जाति के लिये दुर्लभ हैं । उनमें यह विश्वास था की हमारे देश के हित में हमारा हित है, हमारे देश के गौरव में हमारा गौरव और
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हमारे देशभाइयों की उन्नति; में हमारी उन्नति; केवल अपना स्वार्थसाधन न कर साथ-साथ अपने देश का स्वार्थ सिद्ध करना, देश के मान, गौरव, और उन्नति के लिये युद्ध करना प्रत्येक देशवासी का कर्तव्य है, आवश्यक होने पर उस युद्ध में निर्भय हो प्राण विसर्जन करना वीर का धर्म है,--यही कर्तव्यबुद्धि है जातीय भाव का प्रधान लक्षण । जातीय भाव राजसिक भाव है और स्वदेशप्रेम सात्त्विक । जो अपने 'अहं' को देश के अहं में विलीन कर देते हैं वे हैं आदर्श स्वदेशप्रेमी; जो अपने 'अहं' को संपूर्णतः सुरक्षित रखते हुए उसके द्धारा देश के 'अहं' को वर्धित करते हैं वे हैं राष्ट्रीयभावापन्न । उस समय के भारतवासी राष्ट्रीय भाव से शून्य थे । अवश्य ही हमारे कहने का अर्थ यह नहीं कि वे कभी अपने राष्ट्र का हित नहीं देखते थे; परंतु राष्ट्र के और अपने हित के बीच जरा भी विरोध उठने पर वे प्रायः ही राष्ट्र के हित का त्याग कर अपना हित साधित करते थे । एकता के अभाव की अपेक्षा राष्ट्रीयता का यह अभाव है, हमारे राय में, घातक दोष । पूर्ण राष्ट्रीय भाव देशभर में फैल जाने पर नाना भेदों से भरे इस देश में भी एकता का आना संभव है; केवल 'एकता चाहिये, एकता चाहिये' कहने से ही एकता नहीं आ जाती; यही है अंग्रेजों की भारत-विजय का प्रधान कारण । असुर-असुर में संघर्ष होने पर राष्ट्रीयभावापन्न, एकताप्राप्त असुरों ने राष्ट्रीयभावशून्य, एकताशून्य, समानगुणविशिष्ट असुरों को पराजित किया । विधाता का यही नियम है, जो दक्ष और शक्तिमान् हैं वे ही कुश्ती में विजयी होते हैं, जो क्षिप्रगति और सहिष्णु हैं वे ही दौड़ में सबसे पहले गंतव्य स्थान पर पहुंचते हैं । सच्चरित्र या पुण्यवान् होने से ही कोई दौड़ या कुश्ती में विजयी नहीं होता, उपयुक्त शक्ति का होना आवश्यक है । उसी तरह राष्ट्रीय भाव के विकास से दुर्वृत्त और आसुरिक राष्ट्र भी साम्राज्य स्थापित करने में समर्थ होता है, राष्ट्रीय भाव का अभाव होने पर सच्चरित्र और गुणसंपन्न राष्ट्र भी पराधीन हो अंत में चरित्र और गुण खो अधोगति को प्राप्त होता है ।
राजनीति की दृष्टि से यही है भारत-विजय की श्रेष्ठ मीमांसा,--किंतु इसमें एक और भी गंभीर सत्य निहित है । मैं कह चुका हूं कि तामसिक अज्ञान और राजसिक प्रवृत्ति उस समय भारत में बहुत प्रबल हो उठी थी । यही अवस्था है पतन की अग्रगामी अवस्था । रजोगुण की सेवा से राजसिक शक्ति का विकास होता है; किंतु अमिश्र रजोगुण शीघ्र ही तमोमुखी हो जाता है । उद्धत, श्रृंखलाविहीन राजसिक चेष्टा अति शीघ्र अवसन्न और श्रांत हो अप्रवृत्ति, शक्तिहीनता, विषाद और निश्चेष्टता में परिणत हो जाती है । सत्त्वमुखी होने पर ही रज:शक्ति स्थायी होती है । सात्त्विक भाव यदि न भी हो तो सात्त्विक आदर्श का होना आवश्यक है; उस आदर्श द्धारा रज:शक्ति श्रुंखलित होती और स्थायी बल प्राप्त करती है । स्वाधीनता और सुश्रुंखलता अंग्रेजों के ये दो महान् सात्त्विक आदर्श उनमें सदा से थे, उन्हीं के बल से अंग्रेज जगत् में प्रधान और चिरविजयी हैं । उन्नीसवीं शताब्दी में उस राष्ट्र में परोपकार की कामना भी जागृत हुई
थी, उसके बल से इंग्लैंड राष्ट्रीय महत्त्व की चरमावस्था पर पहुंच गया था | इसके
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अतिरिक्त यूरोप की जिस ज्ञानपिपासा की प्रबल प्रेरणा से पाश्चात्य देशों ने सैंकड़ों वैज्ञानिक आविष्कार किये हैं, कणमात्र ज्ञान प्राप्त करने के लिये सैंकड़ों लोग प्राणतक देने के लिये सम्मत होते हैं, वह बलीयसी सात्त्विक ज्ञानतृष्णा अंग्रेजजाति में विकसित थी । इसी सात्त्विक शक्ति से अंग्रेज बलवान् थे, इसी सात्त्विक शक्ति के क्षीण होने से अंग्रेजों का प्राधान्य, तेज और विक्रम क्षीण हो रहा है और बढ़ रहा है भय, विषाद और आत्मशक्ति पर अविश्वास । सात्त्विक लक्ष्य से भ्रष्ट हो उनकी रज:शक्ति तमोमुखी हो रही है । दूसरी ओर भारतवासी महान् सात्त्विक थे; उसी सात्त्विक बल से ज्ञान, शौर्य, तेज और बल में वे अतुलनीय हो रहे थे और एकताविहीन होने पर भी हजारों वर्षों से विदेशी आक्रमणों का प्रतिरोध और दमन करने में समर्थ थे । अंततः उनमें रज:शक्ति की वृद्धि और सत्त्व का ह्रास होने लगा । मुसलमानों के आगमन के समय ज्ञान का विस्तार संकुचित होना आरंभ हो गया था, उस समय रज:प्रधान राजपूत-जाति भारत के सिंहासन पर आसीन थी; उत्तर भारत में युद्ध-विग्रह, गृह-कलह का प्राधान्य था, बंगदेश में बौद्धधर्म की अवनति होने से तामसिक भाव प्रबल हो रहा था । अध्यात्मज्ञान ने दक्षिण में आकर आश्रय लिया था; उसी सत्त्वबल से दक्षिण भारत बहुत दिनों तक अपनी स्वाधीनता की रक्षा करने में समर्थ हुआ था । धीरे-धीरे ज्ञानपिपासा और ज्ञान की उन्नति बंद हो चली, उसके स्थान पर पांडित्य का सम्मान और गौरव बढ़ गया, आध्यात्मिक ज्ञान, योगशक्ति के विकास और आंतरिक उपलब्धि के स्थान पर तामसिक पूजा और सकाम राजसिक व्रतोधापन का बाहुल्य होने लगा, वर्णाश्रमघर्म लुप्त होने पर लोग बाह्य आचार और क्रिया को अधिक मूल्यवान् समझने लगे । इसी तरह राष्ट्रधर्म का लोप हो जाने से ग्रीस, रोम, मिस्र, असीरिया आदि की मृत्यु हुई; किंतु सनातनधर्मावलम्बी आर्यजाति के अंदर उसी सनातन मूलस्रोत से बीच-बीच में संजीवनी सुधाधारा निर्गत हो जाति की प्राणरक्षा करती थी । शंकर, रामानुज, चैतन्य, नानक, रामदास, तुकाराम ने उसी अमृत का सिंचन कर मरणाहत भारत में प्राण का संचार किया था । फिर भी रज: और तम: के स्रोत में इतना बल था कि उसके बहाव में पड़ उत्तम भी अधम बन गया; साधारण लोग शंकरप्रदत्त ज्ञान द्धारा तामसिक भाव का समर्थन करने लगे, चैतन्य का प्रेमधर्म घोर तामसिक निश्चेष्टता का आश्रयस्थल बन गया, रामदास की शिक्षा पाये हुए महाराष्ट्रियों ने महाराष्ट्र-धर्म को भूल, स्वार्थसाधन और गृहकलह में अपनी शक्ति का अपव्यय कर, शिवाजी तथा बाजीराव द्धारा प्रतिष्ठित साम्राज्य को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला । अठारहवीं शताब्दी में इस स्रोत का पूर्ण वेग दिखायी दिया था । समाज और धर्म उस समय कुछ विधानदाताओं की क्षुद्र सीमा में आबद्ध था, बाहरी आचार और क्रिया का आडम्बर धर्म के नाम से अभिहित था, आर्यज्ञान लुप्तप्राय हो गया था और आर्यचरित्र नष्टप्राय । सनातन धर्म समाज का परित्याग कर संन्यासी की अरण्यकुटी और भक्त के हृदय में जा छिपा था । भारत उस समय घोर
तम के अंधकार से आच्छन्न था |
राजसिक प्रवृत्ति बाहरी धर्म के परदे की आड़
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से स्वार्थ, पाप, देश का अमंगल, दूसरों का अनिष्ट पूर्ण वेग के साथ साधित कर रही थी । देश में शक्ति का अभाव नहीं था, परंतु आर्यधर्म का, सत्त्व का लोप हो जाने से वह शक्ति आत्मरक्षा करने में असमर्थ हो आत्मविनाश को प्राप्त हुई । अंत में अंग्रेजों की आसुरिक शक्ति से पराजित हो भारत की आसुरिक शक्ति श्रुंखलित और मुमूर्षु हो गयी । भारत पूर्ण तमोभाव की गोद में सो गया । अप्रकाश, अप्रवृत्ति, अज्ञान, अकर्मण्यता, आत्मविश्वास का अभाव, आत्मसम्मान का विसर्जन, दासत्वप्रियता, परधर्मसेवा, परानुकरण, पराश्रय ग्रहण कर आत्मोन्नति की चेष्टा, विषाद, आत्मनिंदा, क्षुद्राशयता, आलस्य इत्यादि सभी हैं तमोभाव-सूचक गुण । उन्नीसवीं शताब्दी के भारत में इन सब गुणों में से भला किस गुण का अभाव था ? उस शताब्दी के सभी प्रयास इन गुणों के प्राबल्य के कारण तम:शक्ति के चिह्न से सर्वत्र चिह्नित हैं ।
भगवान् ने जब भारत को जगाया तब उस जागरण के प्रथम आवेग से राष्ट्रीय भाव के उद्दीपन की ज्वालामयी शक्ति राष्ट्र की शिरा-शिरा में द्रुततर वेग से प्रवाहित होने लगी । उसके साथ-साथ स्वदेशप्रेम के उन्मत्तकारी आवेग ने युवकों को अभिभूत कर दिया । हम पाश्चात्य जाति नहीं, हम एशियावासी हैं, हम भारतवासी हैं, हम आर्य हैं । हमने राष्ट्रीय भाव प्राप्त किया है, किंतु उसमें स्वदेशप्रेम का संचार हुए बिना, हमारा राष्ट्रीय भाव प्रस्फुटित नहीं होगा । उस स्वदेशप्रेम का आधार है मातृपूजा । जिस दिन बंकिमचंद्र का 'वन्दे मातरम्' गान बाह्येन्दिय को अतिक्रम कर हमारे प्राणों में गूंज उठा उसी दिन हमारे हृदय में स्वदेशप्रेम जागा, मातृमूर्ति प्रतिष्ठित हो गयी । स्वदेश है माता, स्वदेश है भगवान् यही वेदांत-शिक्षान्तर्गत महती शिक्षा है राष्ट्रीय अभ्युत्थान का बीज । जैसे जीव भगवान् का अंश है, उसकी शक्ति भगवान् की शक्ति का अंश है, वैसे ही यह सात कोटि बंगवासियों का, तीस कोटि भारतवासियों का समुदाय है सर्वव्यापी वासुदेव का अंश, इन तीस कोटि मनुष्यों को आश्रयदायिनी, शक्तिस्वरूपिणि, बहुभूजान्विता, बहुबलधारिणी भारतजननी भगवान् की एक शक्ति है, माता, देवी, जगज्जननी काली की देहविशेष हैं । इसी मातृप्रेम, मातृमूर्ति को राष्ट्र के मन और प्राण में जागरित और प्रतिष्ठित करने के लिये इन कुछ वर्षों की उत्तेजना, परिश्रम, कोलाहल, अपमान, लांछना और निर्यातन का विधान भगवदिच्छा के अनुसार हुआ था । वह कार्य पूरा हो गया है । और इसके बाद ?
इसके बाद होगा आर्यजाति की सनातन शक्ति का पुनरुद्धार । पहला, आर्यचरित्र और आर्यशिक्षा, दूसरा, योग-शक्ति का पुनर्विकास, तीसरा, आर्योचित ज्ञानपिपासा और कर्म-शक्ति द्धा
रा
जो महत् कार्य संपन्न करना है वह केवल उत्तेजना
रा संपादित नहीं हो सकता,
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उसके लिये चाहिये शक्ति । तुम्हारे पूर्वपुरुषों की शिक्षा से जो शक्ति प्राप्त होती है वही शक्ति है अघटनघटनपटीयसी । वह शक्ति तुम्हारे शरीर में अवतरित होने के लिये उधत हो रही है । मां ही हैं वह शक्ति । उन्हें आत्मसमर्पण करने का उपाय सीख लो । मां तुम लोगों को यंत्र बना इतनी शीघ्र, इतने बल के साथ कार्य संपन्न करेंगी कि जगत् स्तंभित हो उठेगा । उस शक्ति के अभाव में तुम्हारे सारे प्रयास विफल हो जायेंगे । मातृमूर्ति तुम्हारे हृदय में प्रतिष्ठित है, तुमने मातृपूजा और मातृसेवा करना सीख लिया है, अब अंतर्निहित माता को आत्मसमर्पण करो । कार्यसिद्धि का दूसरा कोई पथ नहीं ।
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