All writings in Bengali and Sanskrit including brief works written for the newspaper 'Dharma' and 'Karakahini' - reminiscences of detention in Alipore Jail.
All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)
बारीन को
पांडिचेरी
अनिश्चित तिथि
प्रिय बारीन,
तुम्हारी तीन चिट्ठियां मिलीं (आज एक और मिली) पर अबतक उत्तर देना न हो सका । आज जो लिखने बैठा हूं यह भी एक miracle (चमत्कार) ही है, क्योंकि मेरा चिट्ठी लिखना होता है once in blue moon (कभी-कभार ही); विशेषकर बंगला में लिखना जो इधर पांच-सात वषों में एक बार भी नहीं हुआ । इसे समाप्त कर यदि post (डाक) में डाल सकूं तभी यह miracle पूरा होगा ।
पहले तुम्हारे योग की बात ले । सुम मुझे ही अपने योग का भार देना चाहते हो; मैं भी लेने के लिये राजी हूं । इसका अर्थ हे जो मुझे और तुम्हें, प्रकट या गुप्त रूप में, अपनी भगवती शक्ति द्वारा चला रहे हैं उन्हें ही भार देना । पर इसका यह फल अवश्यंभावी जानना कि उन्हींका दिया जो मेरा योग-मार्ग है, जिसे मैं पूर्णयोग कहता हूं उसी मार्ग पर चलना होगा । हम जो अलीपुर जेल में करते थे, कालेपानी की सजा के समय तुमने जो किया यह ठीक वही नहीं है । जिससे मैंने आरंभ किया था, लेले ने जो दिया था, जेल में जो किया था वह सब था पथ खोजने की अवस्था, इधर-उधर घूम-फिरकर देखना; पुराने सभी खंड योगों में से इसे-उसे छूना, उठाना, हाथ में ले परखना; एक की एक तरह से पूरी अनुभूति ले दूसरे का अनुसरण करना । उसके बाद पांडिचेरी आने पर यह चंचल अवस्था खतम हो गयी । अंतर्यामी जगद्गुरु ने मुझे मेरे पथ का पूर्ण निर्देश दिया । उसका संपूर्ण theory (सिद्धांत) है कि योग शरीर के दस अंग हैं; इन दस वर्षों से अनुभूति द्वारा उन्हींका development (विकास) करा रहे हैं; अभीतक खतम नहीं हुआ, और दो वर्ष लग सकते हैं और जबतक शेष नहीं हो जाता, शायद तबतक मैं बंगाल न लौट पाऊं । पांडिचेरी ही है मेरी योगसिद्धि का निर्दिष्ट स्थल--पर हां, एक बात को छोड़कर--वह है कर्म । मेरे कार्य का केंद्र है बंगाल, पर आशा करता हूं उसकी परिधि होगा सारा भारत, सारी पृथ्वी ।
योगमार्ग क्या है, यह पीछे लिखूंगा; या अगर तुम यहां आओ तो उस विषय में बातचीत होगी । इस विषय में लिखने की अपेक्षा जबानी बात करना अधिक अच्छा है । अभी मैं इतना ही कह सकता हूं कि पूर्ण ज्ञान, पूर्ण कर्म और पूर्ण भक्ति के सामंजस्य और ऐक्य को मानसिक स्तर (level) से ऊपर उठा मन के परे विज्ञान-स्तर पर पूर्ण सिद्ध करना है इसका मूलतत्त्व । पुराने योगों का दोष यह था कि वे मन-बुद्धि को जानते थे और आत्मा को जानते थे; मन के अंदर ही आध्यात्मिक अनुभूति प्राप्त कर संतुष्ट रहते थे । किंतु मन खंड को ही आयत्त कर सकता है, अनंत, अखंड को संपूर्णत: ग्रहण नहीं कर सकता | उसे ग्रहण करने के लिये समाधि, मोक्ष, निर्वाण इत्यादि ही हैं
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मन के साधन, और कोई उपाय नहीं । उस लक्ष्यहीन मोक्ष को कोई-कोई प्राप्त कर सकते हैं, ठीक है, किंतु उससे लाभ क्या ? ब्रम्ह आत्मा, भगवान् तो हैं ही । भगवान् मनुष्य से जो चाहते हैं वह है उन्हें यहां ही मूर्तिमान करना, व्यक्ति में, समष्टि में--to realise God in life (जीवन में भगवान् को मूर्त करना) । पुरानी योगप्रणालियां अध्यात्म और जीवन में सामंजस्य या ऐक्य स्थापित नहीं कर सकीं; उन्होंने जगत् को माया या अनित्य लीला कहकर उड़ा दिया है । इसका फल हुआ जीवन-शक्ति का ह्रास, भारत की अवनति । गीता में जिसे कहा गया है उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्या कर्म चेदहम, भारत के 'इमे लोका:' सचमुच में उत्सन्न हो गये हैं । कुछ संन्यासी और बैरागी साधु सिद्ध, मुक्त हो जाएं, कुछ भक्त प्रेम से, भाव से, आनंद से अधीर हो नृत्य करें और समस्त जाति प्राणहीन, बुद्धिहीन हो घोर तमोभाव में डूब जाय, यह भला कैसी अध्यात्म-सिद्धि है ? पहले मानसिक level (स्तर) पर सभी खंड अनुभूतियों को या मन को अध्यात्म-रस से परिप्लावित, अध्यात्म आलोक से आलोकित करना होता है, उसके बाद ऊपर उठना । ऊपर अर्थात् विज्ञान-भूमि पर उठे बिना जगत् का अंतिम रहस्य जानना असंभव है, जगत् की समस्या solved (की मीमांसा) नहीं होती । वहीं आत्मा और जगत् अध्यात्म और जीवन--इस द्वंद्व की अविद्या का अंत होता है । तब जगत् माया नहीं दिखायी देता; जगत् भगवान् की सनातन लीला, आत्मा का नित्य विकास प्रतीत होता है । तब भगवान् को पूर्णत: जानना, पाना संभव होता है, गीता में जिसे कहा है--समग्रं मां ज्ञातुं प्रविष्टुम् । अन्नमय देह, प्राण, मन-बुद्धि विज्ञान और आनंद--ये हैं आत्मा की पांच भूमियां । मनुष्य जितना ही ऊपर उठता है उतना ही उसके spiritual evolution (आध्यात्मिक विकास) की चरम सिद्धि की अवस्था समीप आती जाती है । विज्ञान में पहुंच जाने पर आनंद में जीना सहज हो जाता है, अखंड, अनंत आनंद की अवस्था में दृढ़ प्रतिष्ठा होती है । केवल त्रिकालातीत परब्रम्ह में ही नहीं--देह में, जगत् में, जीवन में भी । पूर्ण सत्ता, पूर्ण चैतन्य, पूर्ण आनंद विकसित हो जीवन में मूर्त होते हैं । यह प्रयास ही है मेरे योगमार्ग का central clue (मूल बात) ।
ऐसा होना आसान नहीं । इन पन्द्रह वषों के बाद मैं अभीतक विज्ञान के तीन स्तरों में से निम्नतर स्तर में पहुंच नीचे की सभी वृत्तियों को उसमें खींच ले जाने के उधोग में लगा हूं । पर जब यह सिद्धि पूर्ण होगी तब भगवान् मेरे through (द्वारा) दूसरों को थोड़े आयास से ही विज्ञान-सिद्धि देंगे, इसमें कोई संदेह नहीं । तब होगा मेरे असली कार्य का आरंभ । मैं कर्मसिद्धि के लिये अधीर नहीं । जो होना है वह भगवान् द्वारा निर्दिष्ट समय पर होगा, उन्मत्त की न्याई दौड़ क्षुद्र अहमिका की शक्ति से कर्मक्षेत्र में कूद पड़ने की प्रवृत्ति मुझ में नहीं । यदि कर्मसिद्धि न भी हो तो भी मैं धैर्यच्युत नहीं हूंगा; यह कार्य मेरा नहीं, भगवान् का है । मैं और किसी की पुकार नहीं सुनूंगा; भगवान् जब चलायेंगे तभी चलूंगा ।
बंगाल अभी ठीक तैयार नहीं है, यह जानता हूं | जिस अध्यात्म की बाढ़ आयी है
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वह है बहुत-कुछ पुराने का नया रूप, वास्तविक रूपांतर नहीं । पर इसकी भी जरूरत थी । बंगाल सभी पुराने योगों को अपने अंदर जगा उनका संस्कार exhaust (क्षय) कर, असली सार ले जमीन उर्वर बना रहा है । पहले थी वेदांत की बारी--अद्वैतवाद् संन्यास, शंकर की माया इत्यादि । अभी जो हो रहा है वह है वैष्णव धर्म की बारी-लीला, प्रेम, भाव के आनंद में मत्त हो जाना । ये अत्यंत प्राचीन हैं, नवयुग के लिये अनुपयोगी, यह टिकने का नहीं, क्योंकि ऐसी उत्तेजना टिकने लायक नहीं । पर वैष्णव भाव का यह गुण है कि यह भगवान् के साथ जगत् का एक संबंध बनाये रखता है, इसमें जीवन का एक अर्थ है; किंतु खंडित भाव के कारण इसमें पूर्ण संबंध, पूर्ण अर्थ नहीं । तुमने जो दलबंदी का भाव देखा है वह अनिवार्य है । मन का धर्म ही है इस खंड को पूर्ण कहना, अन्य सभी खंडों को बहिष्कृत करना । जो सिद्ध पुरुष भाव को ले आते हैं वे खंडित भाव का अवलंबन करने पर भी, पूर्ण को मूर्त न कर सकने पर भी, पूर्ण भाव का कुछ-कुछ पता रखते हैं । किंतु शिष्यों को वह नहीं मिलता, मूर्त नहीं होता । गठरी बांध रहा है तो बांधे, जिस दिन भगवान् देश में पूर्ण रूप से अवतीर्ण होंगे उस दिन गठरी अपने-आप खुल जायेगी । यह सब है अपूर्णता का, कच्ची अवस्था का लक्षण; उससे मैं विचलित नहीं होता । खेले देश में अध्यात्मभाव चाहे जिस भी रूप में, चाहे जितने भी दल बनें, बाद में देखा जायेगा । यह है नवयुग का शैशव, बल्कि embroyonic (भ्रूण) अवस्था । आभास-मात्र है, आरंभ नहीं ।
इसके बाद मोतीलाल आदि की बात । मोतीलाल ने जो मुझ से पाया है वह है मेरे योग की प्रथम प्रतिष्ठा, भित्ति,-आत्मसमर्पण, समता इत्यादि, इसी का अनुशीलन करते आ रहे हैं, पूरा नहीं हुआ,--इस योग की विशेषता यही है कि थोड़ी ऊपर की सिद्धि के बिना भित्ति भी पक्की नहीं होती । मोतीलाल अब और ऊपर उठना चाहता है । उसमें पहले बहुत-से पुराने संस्कार थे, कुछ तो दूर हुए हैं पर कुछ अबतक हैं । पहले था संन्यास का संस्कार, अरविन्द-मठ स्थापित करना चाहा था|१ अब बुद्धि ने मान लिया है कि संन्यास नहीं चाहिये किंतु अभीतक उस पुरातन की छाप प्राण से एकदम पुंछ नहीं गयी है । इसी से संसार में रह त्यागी-संसारी होने के लिये कहता है । कामना के त्याग की आवश्यकता को समझा है, किंतु कामना-त्याग और आनंद-भोग के समंजस्य को पूर्णत: नहीं पकड़ पाया है । और मेरे योग को अपनाया था ठीक वैसे जैसे कि बंगाली का साधारण स्वभाव होता है--ज्ञान की दृष्टि से उतना नहीं जितना कि भक्त की दृष्टि से, कर्म की दृष्टि से । ज्ञान कुछ-कुछ प्रस्फुट हुआ है, परंतु बहुत-कुछ बाकी है, और भावुकता का कुहासा dissipated नहीं हुआ है (छंटा नहीं है), छंट नहीं गया है । पर हां, जितना घना था उतना अब नहीं है । सात्त्विकता के घेरे को पूरी मात्रा में नहीं काट सका है, अहं अभीतक है; एक शब्द में कह सकते हैं उसका
१ आज मोतीलाल की चिट्ठी मिली है । उसका कहना है, संघ की कल्पना उसकी कतई नहीं थी, कहीं कुछ गलतफहमी हुई है |
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development (विकास) चल रहा है, पूर्ण नहीं हुआ । मुझे भी कोई जल्दी नहीं, मैं उसे उसके स्वभाव के अनुसार ही development होने दे रहा हूं । एक ही सांचे में सबको ढालना नहीं चाहता, असली चीज ही सबमें एक होगी, नाना प्रकार से नाना मूर्तियों में प्रस्फुटित होगी । सब भीतर से grow (बढ़ रहे) कर रहे हैं, गढ़े का रहे हैं । मैं बाहर से गढ़ना नहीं चाहता । मोतीलाल ने मूल को पा लिया है, और सब आ जायेगा ।
तुम पूछते हो कि मोतीलाल अपनी गठरी क्यों बांध रहा है । उसका explaination (उत्तर) यह रहा । पहली बात, उसके इर्द-गिर्द ऐसे लोग इकट्ठे हुए हैं जो मुझे भी जानते हैं, उसे भी । उसे जो मुझसे मिला है, वे लोग भी पा रहे हैं । उसके बाद 'प्रवर्तक' में एक छोटा-सा निबन्ध लिखा था 'समाज के बारे में' । उसमें संघ के बारे में चर्चा की थी, मैं भेदप्रतिष्ठ समाज नहीं चाहता, आत्मप्रतिष्ठ--आत्मा के ऐक्य की मूर्ति--संघ चाहता हूं । इसी idea (विचार) को ले मोतीलाल ने देवसंघ नाम दिया है, मैंने अंग्रेजी में divine life कहा था । नलिनी ने उसका अनुवाद किया 'देवजीवन' । जो देवजीवन चाहते हैं उन्हींका संघ है देवसंघ । ऐसे संघ को मोतीलाल ने बीजरूप में चंदननगर में स्थापित कर, बाद में सारे देश में फैला देने की कोशिश आरंभ की । ऐसे प्रयास पर यदि अहमिका की छाया पड़े तो फिर संघ दल में परिणत हो जाता है । यह धारणा सहज ही की जा सकती है कि जो संघ अंत में दिखायी देगा वह यही है, मानों सब कुछ होगा एकमात्र इसी केंद्र की परिधि, जो इसके बाहर हैं वे भीतर के लोग नहीं; होने पर भी वे भ्रांत हैं, ठीक हमारा जो वर्तमान भाव है उसके साथ मेल न खाने के कारण (मानों भ्रांत हैं) । मोतीलाल की अगर यह भूल है, थोड़ी-बहुत भूल रहने की संभावना है भी, मुझे पता नहीं है कि नहीं, तो खास कुछ आता-जाता नहीं, क्योंकि वह भूल टिकेगी नहीं । उसके द्वारा और उसकी छोटी मंडली के द्वारा हमारा बहुत काम हुआ है और हो रहा है जो आजतक और कोई नहीं कर सका | निस्संदेह उसके भीतर भागवत शक्ति work (काम) कर रही है ।
शायद तुम कहोगे कि संघ की क्या आवश्यकता है ? मुक्त बनकर सर्वघट में विधमान रहूंगा; सब एकाकार होकर रहे, उस ब्रूहत् एकाकार में ही जो कुछ होना हो वह हो । यह बात ठीक है; किंतु यह है सत्य का केवल एक पहलू । हमारा कारबार केवल निराकार आत्मा के साथ ही नहीं, जीवन को भी चलाना होगा; और आकार--मूर्ति के बिना जीवन की effective (कार्यकरी) गति नहीं । अरूप जो मूर्त हुआ है, उसका यह नाम-रूप-ग्रहण माया की मनमौज नहीं, रूप का नितांत प्रयोजन है इसीलिये रूप ग्रहण किया गया है, हम जगत् के किसी भी काम को छोड़ना नहीं चाहते; राजनीति, वाणिज्य, समाज, काव्य, शिल्प, कला, साहित्य सब कुछ रहेगा; इन सबको देना होगा नवीन प्राण, नवीन आकार । राजनीति मैंने क्यों छोड़ दी ? क्योंकि हमारी राजनीति भारत की असली चीज नहीं, विलायती आमदनी है, विलायती ढंग का अनुकरण-मात्र । पर इसकी भी जरूरत थी । हमने भी विलायती ढंग की राजनीति की
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है, नहीं करते तो देश नहीं उठता; न हमें experience (अनुभव) होता, न हमारा पूर्ण development (विकास) होता । अभी भी उसकी जरूरत है, बंगाल में उतनी नहीं जितनी भारत के अन्य प्रदेशों में । किंतु अब समय आ गया है छाया का विस्तार न कर वास्तव को पकड़ने का । भारत की असली आत्मा को जगा उसीके अनुरूप करने होंगे सब कार्य । पिछले दस सालों से मौन भाव से इसी विलायती राजनीति-घट को प्रभावित करता आ रहा हूं, कुछ फल भी मिला है । अब भी, जहां जरूरत हो, वह कर सकता हूं । किंतु यदि बाहर जा उसी काम में लगूं, राजनीतिक पंड़ाओ के साथ मिलकर वही काम करूं तो एक परधर्म ओर मिथ्या राजनीतिक जीवन को पोषण देना होगा । आजकल लोग राजनीति को spiritualise (अध्यात्म का रंग चढ़ाना) करना चाहते हैं, जैसे गांधी । ठीक राह नहीं पकड़ पा रहे । गांधी क्या कर रहे हैं ? अहिंसा परमो धर्म, जैनिज़् , हड़ताल, passive resistance (निष्किय प्रतिरोध) आदि की खिचड़ी पका, उसे सत्याग्रह का नाम दे एक तरह का 1ा1र्ते1ंठा1 १०18ह०71r8Z Indian Tolstoyism (भारतीय टाल्सटोयिज़्म) देश में ला रहे हैं । उसका फल होगा-अगर कोई स्थायी फल हुआ तो-एक प्रकार का Indianised Bolshevism.(भारतीय बोलशेविज़्म) । उनके कार्य में भी मुझे कोई आपत्ति नहीं; जैसी जिनकी प्रेरणा हो वैसा ही करें । परंतु यह भी असली वस्तु नहीं; अशुद्ध आधार में spiritual(आध्यात्मिक) शक्ति ढालना कच्चे घड़े में करणोदधि का जल ढालने के समान है, चाहे तो वह कच्चा पात्र फूट जायेगा, जल बिखरकर नष्ट हो जायेगा या फिर अध्यात्म-शक्ति evaporate हो जायेगी (विला जायेगी) और रह जायेगा बस वही अशुद्ध रूप; सभी क्षेत्रों में यही होता है । Spiritual influence (आध्यात्मिक प्रेरणा) मैं दे सकता हूं, उसके प्रभाव से लोग energy (तेजी) से काम करेंगे पर वह शक्ति expended (खर्च) होगी शिवमंदिर में बंदर की मूर्ति गढ़कर स्थापित करने में । हो सकता है, प्राणप्रतिष्ठा से वह बंदर शक्तिमान् हो भक्त हनुमान बन जितने दिन वह शक्ति रहे उतने दिन, राम के बहुत से कार्य करे; परंतु हम भारत-मंदिर में हनुमान नहीं चाहते, चाहते हैं देवता, अवतार, स्वयं राम ।
सभी से मिल सकता हूं--किंतु सबको सच्चे पथ पर खींच लाने के लिये, अपने आदर्श के spirit (भाव) और रूप को अक्षुण्ण रखते हुए । अगर ऐसा नहीं हुआ तो मैं पथभ्रष्ट हो जाऊंगा, वास्तविक कार्य नहीं होगा । Individually (व्यक्तिगत रूप से) सर्वत्र कुछ होगा तो सही, किंतु संघरूप में सर्वत्र उससे सौ गुना अधिक होगा । पर अभी तक वह समय नहीं आया । अगर तुरत-फुरत रूप देने की चेष्टा करूं तो ठीक जो चाहता हूं वह नहीं होगा । संघ होगा आरंभिक निर्मित रूप; जिन्होंने आदर्श पा लिया है वे ऐक्यबद्ध हो नाना स्थानों में कार्य करेंगे; बाद में spiritual commune (आध्यात्मिक संघ) की तरह रूप दे, संघबद्ध हो सब कर्मो को आत्मा के अनुरूप, युग के अनुरूप आकृति देंगे | प्राचीन आर्यों के समाज की तरह
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कठोरतापूर्वक बंधा रूप नहीं, अचलायतन नहीं; स्वाधीन रूप, समुद्र की तरह जो फैल सकेगा, नाना रूप धर, इसे घेर, उसे प्लावित कर, सबको आत्मसात् कर लेगा; करते--करते spiritual community (देवजाति) तैयार होगी । यही है मेरा वर्तमान idea (भाव), अभी भी पूरी तरह developed (विकसित) नहीं हुआ है । अलीपुर जेल में ध्यान में जो कुछ अनुभव हुआ था वही develop (विकसित) हो रहा है । अंतत: क्या होगी, बाद में देखूंगा । फल भगवान् के हाथ में है, वह जो करायें । मोतीलाल का लोकसंग्रह एक प्रयोग-मात्र है । वह देखना चाह रहा है कि संघबद्ध होकर व्यापार, उद्योग और कृषि आदि कैसे कर सकते हैं । में शक्ति दे रहा हूं और watch कर रहा हूं (निगाह रख रहा हूं) । इसमें भविष्य के लिये कुछ माल-मसाला और सुझाव मिल सकते हैं । वर्तमान के दोषगुण और limitation (सीमाएं) देखकर judge न करो (धारणा मत बनाओ) । यह सब अभी initial (आरंभिक) और experimental (प्रयोगात्मक) अवस्था में है ।
अब तुम्हारे पत्र की कुछ-एक विशेष-विशेष बातों की चर्चा करता हूं । अपने योग के विषय में तुमने जो लिखा है उस विषय में इस पत्र में विशेष कुछ नहीं लिखना चाहता, मुलाकात होने पर उसकी चर्चा करने में सुविधा होगी । तुमने लिखा है कि मनुष्य का देह के साथ कोई संबंध नहीं । तुम्हारी दृष्टि में देह है शव समान लेकिन मन खींच रहा है संसारी बनने के लिये । वह अवस्था अभी भी है क्या ? देह को शव के रूप में देखना संन्यास के निर्वाण-पथ का लक्षण है, इस भाव के साथ घर-गृहस्थी नहीं चलती, सब वस्तुओं में आनंद चाहिये--जैसे आत्मा में वैसे शरीर में । देह चैतन्यमय है, देह भगवान् का रूप है । जगत् में जो कुछ है उसमें भगवान् को देखने से, सर्वमिदं भ्रमह--वासुदेवं सर्वमिति--यह दर्शन प्राप्त करने से विश्वानंद मिलता है । शरीर में भी उसी आनंद की मूर्त तरंगें उठती हैं; इस अवस्था में अध्यात्मभाव से पूर्ण हो गृहस्थी, विवाह सब किया जा सकता है, सभी कर्मो में प्राप्त हो सकती है भगवान् की आनंदमयी अभिव्यक्ति । बहुत दिनों से मानसिक स्तर पर भी, मन के, इंद्रियों के सभी विषयों और अनुभूतियों को आनंदमय बना रहा हूं । अब वह सब विज्ञानानंद का रूप धारण कर रहा है । यही अवस्था है सच्चिदानंद के पूर्ण दर्शन और अनुभूति की ।
देवसंध की बात कहते हुए तुमने लिखा है-''मैं देवता नहीं, बहुत ढुका, पिटा, सान चढ़ाया लोहा हूं ।'' देवसंघ का यथार्थ उद्देश्य तुम्हें लिख चुका हूं । कोई भी देवता नहीं फिर भी प्रत्येक मनुष्य के अंदर देवता हैं, उन्हींको प्रकट करना है देवजीवन का लक्ष्य । यह सभी कर सकते हैं । बड़े आधार और छोटे आधार की बात मानता हुं । तुमने अपने विषय में जो लिखा है उसे मैं accurate (ठीक) नहीं मानता । आधार चाहे जैसा भी हो, एक बार यदि भगवान् का स्पर्श मिल जाये, आत्मा यदि जाग्रत हो जाये, तो फिर 'बड़ा-छोटा' इन सबसे विशेष कुछ आता-जाता नहीं । बाधाएं अधिक हो सकती हैं, समय अधिक लग सकता है विकास में ऊंच-नीच सकती है पर ऐसा
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कुछ भी नहीं कहा जा सकता । भीतर के देवता उन सब बाधाओं, न्यूनताओं का हिसाब नहीं रखते; ठेलकर ऊपर उठ आते हैं । मुझमें भी क्या कम दोष थे ? मन की, चित्त की, प्राण की, देह की क्या कम बाधाएं थीं ? समय क्या नहीं लगा ? आए दिन, हर पल भगवान् ने क्या कम पीटा है ? देवता हुआ हुं या क्या हुआ हूं--यह नहीं जानता; पर कुछ हुआ हूं या हो रहा हूं--भगवान् जो गढ़ना चाहते हैं वही यथेष्ट है । सबके लिये ऐसा ही होता है । हमारी शक्ति नहीं, इस योग को साध्य बनानेवाली शक्ति है भगवान् की ।
अच्छा है कि तुमने 'नारायण' का भार संभाला है । 'नारायण' की शुरूआत अच्छी हुई थी । उसके बाद अपने इर्द-गिर्द छोटे-छोटे सांप्रदायिक गुट इकट्ठे कर, दलबन्दी के भाव को प्रश्रय दे वह सड़ना शुरू हो गया । नलिनी शुरू में 'नारायण' के लिये लिखता था, उसके बाद लिखने की आजादी न मिलने पर अन्यत्र जाने के लिये बाधित हुआ । खुले घर की खुली हवा चाहिये, नहीं तो जीवन-शक्ति टिके कैसे ? मुक्त आलोक, मुक्त बयार हैं प्राणशक्ति के प्रथम आहार । मेरे लिये अभी लेख देना असंभव है, बाद में दे सकता हूं । 'प्रवर्तक' भी claim (मांग) कर रहा है । दोनों की call satisfy (मांग पूरी) करना पहले-पहल कठिन हो सकता है । जब बंगाली में लिखना शुरू करूंगा तब देखा जायेगा । अभी समय की तंगी है । 'आर्य' छोड़ और कुछ लिखना अभी असंभव है, हर माह ६४ पृष्ठ मुझे ही भरने होते हैं, यह कुछ कम श्रम नहीं । उसके बाद कविता लिखने, योगसाधना के लिये भी समय चाहिये । कुछ विश्राम भी जरूरी है । ''समाज-कथा'' जो सौरीन के पास है उसका अधिकांश, लगता है, 'प्रवर्तक' में प्रकाशित हो चुका है । उसके पास जो बचा है, हो सकता है वह असंशोधित हो, उसका अंतिम संशोधन नहीं हुआ है । पहले मैं देख लूं कि उसमें क्या है, फिर निश्चय करूंगा कि 'नारायण' में प्रकाशित हो सकता है कि नहीं ।
'प्रवर्तक' का तुमने जिक्र किया है, लोग समझते नहीं, वह misty (धुंधला) है, कुहेलिकामय है, यही शिकायत बराबर सुनता आ रहा हूं । मानता हूं मोतीबाबू के लेखों में उतना स्पष्ट चिंतन नहीं होता, बहुत क्लिष्ट लिखते हैं । फिर भी प्रेरणा शक्ति, (power) है उनमें । मणि और नलिनी ही थे पहले 'प्रवर्तक' के लेखक, तब भी लोग कहते थे कि कुहेलिकामय है जब कि नलिनी का चिंतन बहुत clear cut (सीधा और स्पष्ट) है । मणि के लेख direct (मार्मिक) और ओजपूर्ण हैं । 'Arya' ('आय') के बारे में भी यही शिकायत है । लोग समझ नहीं पाते, इतना सोच-विचार कर कौन पढ़ना चाहता है भला ? इसके बावजूद 'प्रवर्तक' बंगाल में काफी काम करता रहा है, और तब लोगों को पता नहीं था कि मैं प्रवर्तक में लिखता हूं । अब यदि इसका कोई effect (असर) न होता हो तो इसका कारण यह होगा कि लोग अभी काम और उन्माद की ओर दौड़ रहे हैं | एक तरफ है भक्ति की बाढ़, दूसरी तरफ धनोपार्जन का प्रयास | किंतु बंगाल जब दस साल से निश्चेष्ट और निःस्पंद था तब प्रवर्तक ही था
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एकमात्र शक्ति का स्रोत । बंगाली चिंतन को बदलने में उसने बहुत मदद की है । मुझे नहीं लगता कि अब बस उसका काम खतम हो गया है ।
मैं जो कुछ बहुत दिनों से देख रहा हूं उसके बारे में दो-एक बातें संक्षेप में कहता हूं । मेरी यह धारणा है कि भारत की दुर्बलता का प्रधान कारण पराधीनता नहीं, दरिद्रता नहीं, अध्यात्मबोध या धर्म का अभाव नहीं, बल्कि है चिंतनशक्ति का ह्रास-ज्ञान की जन्मभूमि में अज्ञानता की व्यापकता । सर्वत्र ही देखता हूं inability या unwillingness to think (विचारने की अक्षमता या अनिच्छा) अथवा चिंतन-''फोबिया'' । मध्ययुग में चाहे जो हो, पर आजकल तो यह भाव घोर अवनति का लक्षण है । मध्ययुग था रात्रिकाल, अज्ञान की विजय का युग । आधुनिक जगत् है ज्ञान की विजय का युग । जो जितना अधिक विचार करता है, अन्वेषण करता है, परिश्रम कर विश्व के सत्य को गहराई में पैठ जान सकता है, उतनी ही उसकी शक्ति बढ़ती है । यूरोप को देखो, पाओगे दो चीजें-अनंत विशाल चिंतन का समुद्र और प्रकांड वेगवती पर सुश्रुंखल शक्ति का खेल । यही है यूरोप की समस्त शक्ति, उसी शक्ति के बल पर वह जगत् को ग्रस पा रहा है हमारे प्राचीन तपस्वियों की तरह, जिनके प्रभाव से विश्व के देवता भी भयभीत, संदिग्ध और वशीभूत थे । लोग कह देते हैं कि यूरोप ध्वंस की ओर दौड़ा जा रहा है । मैं यह नहीं मानता । यह जो विप्लव है, यह जो उलट-पुलट है, यह है नव-सृष्टि की पूर्वावस्था । फिर देखो भारत की तरफ । कुछ solitary giants (जहां-तहां प्रतिभाशाली महापुरुषों) के अतिरिक्त सर्वत्र ही सीधे-सरल मनुष्य हैं, अर्थात् average man (औसत मनुष्य), जो विचारना नहीं चाहते, विचार ही नहीं सकते, जिनमें बिंदु-मात्र भी शक्ति नहीं, है केवल क्षणिक उत्तेजना । भारत चाहता है सरल विचार, सीधी बात; यूरोप चाहता है गंभीर विचार, गंभीर बात । सामान्य कुली-मजदूर भी सोचता है, सब कुछ जानना चाहता है मोटे तौर पर जानकर हीं संतुष्ट नहीं हो जाता, गहरे पैठकर देखना चाहता है । प्रभेद यही है । यूरोप की शक्ति और चिंतन की fatal limitation (घातक सीमा) है । अध्यात्मक्षेत्र में पहुंचने पर उसकी चिंतनशक्ति अब और काम नहीं करती । वहां यूरोप देखता है सब कुछ गोरखधंधा, nebulous metaphysics (कुहेलिकामय तत्त्वशास्त्र), Yogic hallucination (योगजन्य मतिभ्रम); धुंए में आंख रगड़ते हुए कहीं कोई ठहराव नहीं पाता । पर आजकल इस limitation (सीमा) को भी surmount (अतिक्रम) करने की चेष्टा यूरोप में कुछ कम नहीं हो रही । हमें अध्यात्मबोध अपने पूर्वजों से विरासत में मिला है, और जिसमें यह बोध है उसके हाथ में है ऐसा ज्ञान, ऐसी शक्ति जिसकी एक फूंक से यूरोप की समस्त प्रकांड शक्ति तिनके के समान उड़ जा सकती है । किंतु उस शक्ति को पाने के लिये शक्ति की उपासना की जरूरत है । परंतु हम शक्ति के उपासक नहीं, सहज के उपासक हैं, सहज से शक्ति नहीं मिलती । हमारे पूर्वजों ने विशाल चिंतन-समुद्र में गोता लगा विशाल ज्ञान प्राप्त किया
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था, विशाल सभ्यता खड़ी कर दी थी । रास्ता चलते-चलते उनमें अवसाद आ जाने, क्लांत हो जाने के कारण चिंतन-मनन का वेग कम हो गया, साथ-ही-साथ शक्ति का वेग भी कम हो गया । हमारी सभ्यता हो गयी है जड़भरत-सी, धर्म हो गया है बाह्याचार की कट्टरता, अध्यात्मभाव हो गया है एक क्षीण आलोक या क्षणिक उत्तेजना की तरंग । यह अवस्था जबतक रहेगी तबतक भारत का स्थायी पुनरुत्थान है असंभव ।
बंगाल में ही इस दुर्बलता की चरम अवस्था दिखायी देती है । बंगाली में क्षिप्र बुद्धि है, भाव की capacity (क्षमता) है, intuition(अंतर्ज्ञान) है; इन्हीं गुणों के कारण वह भारत में श्रेष्ठ है । ये सभी गुण चाहियें, किंतु इतना ही यथेष्ट नहीं । इनके साथ यदि विचार की गंभीरता, धीर शक्ति, वीरोचित साहस, दीर्घ परिश्रम की क्षमता और आनंद आकर मिल जायें तो बंगाली केवल भारत का ही क्यों, जगत् का नेता बन जायेगा । किंतु बंगाली में वह चाहना कहां, सहज में ही काम निपटाना चाहता है, विचार किये बिना ही ज्ञान, परिश्रम किये बिना ही फल, सहज साधना कर सिद्धि प्राप्त कर लेना चाहता है । उसका संबल है भाव की उत्तेजना, किंतु ज्ञानशून्य भावोद्रेक ही है इस रोग का लक्षण । चैतन्य के समय से ही क्यों उसके बहुत पहले से बंगाली क्या कर रहा है ? आध्यात्मिक सत्य की सहज-स्थूल बात को पकड़ भाव-तरंग में कुछ दिन नाचता फिरता है, उसके बाद है अवसाद और तमोभाव । इधर तो देश की क्रमश: अवनति हुई है, जीवनी शक्ति का ह्रास हुआ है, फिर बंगाली के अपने देश में क्या हुआ है---खाना नहीं, पहनने के लिये कपड़ा नहीं, चारों ओर हाहाकार मचा हुआ है, धन-दौलत, वाणिज्य-व्यवसाय, जगह-जमीन, खेती-बारी तक दूसरों के हाथों में जाना आरंभ हो गया है । हमने शक्ति-साधना छोड़ दी है; शक्ति ने भी हमें छोड़ दिया है । प्रेम की साधना करते हैं, परंतु जहां ज्ञान और शक्ति नहीं वहां प्रेम भी नहीं रहता; संकीर्णता, क्षुद्रता आ जाती है; क्षुद्र संकीर्ण मन, प्राण और हृदय में प्रेम का स्थान नहीं । प्रेम भला कहां है बंगदेश में ? जितना झगड़ा, मनोमालिन्य, ईर्ष्या, घृणा, दलबंदी इस देश में है, उतना भेदक्लिष्ट भारत में और कहीं भी नहीं । आर्य-जाति के उदार वीरयुग में इतना हो-हल्ला, नाच-कूद नहीं था, जो प्रयास वे आरंभ करते वह बहु शताब्दियों तक स्थायी रहता । बंगाली का प्रयास दो दिन तक रहता है । तुम कहते हो कि जरूरत है भावोन्माद की, देश को मतवाला बना देने की । राजनीतिक क्षेत्र में यह सब मैंने किया था, स्वदेशी के समय में जो किया था सब धूलिसात् हो गया है । अध्यात्म-क्षेत्र में क्या शुभतर परिणाम होगा । मैं नहीं कहता कि कोई भी फल नहीं हुआ । हुआ है; जितनी भी movement (आंदोलन) होती है उसका कुछ-न-कुछ फल होता ही है, पर वह है अधिकांश में possibility (संभावनाओं) की वृद्धि; स्थिर भाव से actualise (वास्तविक रूप प्रदान) करने की यह ठीक रीति नहीं । इसी कारण मैं अब emotional excitement (प्राण की उत्तेजना, भावोन्माद), भाव, मन के मतवालेपन को base (आधार) बनाना नहीं चाहता । अपने योग की प्रतिष्ठा
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के लिये मैं चाहता हूं विशाल वीर-समता; उसी समता में प्रतिष्ठित आधार में सभी वृत्तियों से पूर्ण, दृढ़ अविचल शक्ति, शक्ति-समुद्र में ज्ञानसूर्य की रश्मियों का विस्तार; उस आलोकमय विस्तार में अनंत प्रेम, आनंद ऐक्य की स्थिर ecstasy (तीव्रानंद) । लाखों शिष्य मैं नहीं चाहता, तुच्छ अहंकार-रहित भगवान् के यंत्ररूप पूर्ण कर्मी यदि सौ भी मुझे मिल जाये तो यही यथेष्ट है । प्रचलित गुरुगिरी पर मेरी आस्था नहीं, मैं गुरु बनना नहीं चाहता । मेरे स्पर्श से जगकर हो, चाहे दुसरे के स्पर्श से जगकर हो, अपने भीतर से अपने सुप्त देवत्व को प्रकट कर, भागवत जीवन प्राप्त करें, बस मैं यही चाहता हूं । ऐसे लोग ही इस देश को ऊपर उठायेंगे ।
इस lecture (भाषण) को पढ़कर यह मत समझ बैठना कि मैं बंगाल के भविष्य के बारे में निराश हो गया हूं । जो यह कहते हैं कि बंगाल में ही इस बार महाज्योति का आविर्भाव होगा, मैं भी ऐसी ही आशा करता हूं । पर other side of the shield (दूसरे पहलू) को, कहां दोष-त्रुटी है, न्यूनता है यह भी देखने की चेष्टा की है । ऐसी अवस्था रही तो वह ज्योति न महाज्योति बनेगी न स्थायी ही होगी । जितने भी महापुरुषों के बारे भें तुमने लिखा है वह सब जरा खटकता है, मानों जो चाहता हूं वह इनमें नहीं पाता । दयानन्द को अदभुत-अदभुत सिद्धियों मिली हैं । आश्चर्य है, उनके निरक्षर शिष्य भी automatic writing (स्वचालित लेखन) करते हैं । अच्छी बात है । पर यह तो है psychic faculty (अतींद्रिय क्षमता) मात्र । जानना चाहता हूं कि असली वस्तु कितनी है उनमें, कहांतक है उनकी पहुंच । और एक है जिसके छूने भर से आदमी दीवाना हो उठता है । अति उत्तम, किंतु ऐसे दीवानेपन का क्या लाभ ? प्रश्न उठता है, वह क्या उस तरह का मनुष्य बन जाता है जो नवयुग का, भागवत सत्ययुग का स्तम्भ बनकर खड़ा हो सके ? देखता हूं इसके बारे में तुम्हें भी संदेह है, मुझे भी ।
साधु-संतों की भविष्यवाणी पढ़कर मुझे हंसी आयी थी, अवज्ञा या अविश्वास की हंसी नहीं,--दूर भविष्य की बात मैं नहीं जानता, रह-रहकर भगवान् जो आलोक दिखाते हैं उससे मेरा एक कदम आगे बढ़ता है, उसी आलोक से चलता हूं । पर मैं सोचता हूं,--ये लोग मुझे क्यों चाहते हैं, उस महासम्मेलन में मेरा क्या स्थान है ? शंका होती है, कहीं मुझे देखकर वे निराश न हों, मेरी कहीं fish out of the water (घर का न घाट का) जैसी अवस्था न हो जाये । मैं न तो संन्यासी हूं, न- साधु-संत ही, न मेरा कोई धर्म है न आचार । सात्त्विकता भी नहीं है मुझमें । मैं हूं घोर संसारी, विलासी, मांसभोजी, मधपायी, अश्लीलभाषी, स्वेच्छाचारी, वाममार्गी तान्त्रिक । इन महापुरुषों और अवतारों के बीच क्या मैं भी एक महापुरुष हूं, अवतार हूं ! मुझे देखकर शायद वे सोचें कि मैं कलि का अवतार हूं या आसुरी राक्षसी काली का अवतार, ईसाई लोग जिसे कहते हैं Antichrist (ईसाई मतविरोधी) ! देखता हूं, मेरे बारे में एक भ्रांत धारणा फैल गयी है, लोग यदि disappointed (निराश) हुए तो उसके लिये मैं उत्तरदायी नहीं ।
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इस असाधारण लंबी चिट्ठी का तात्पर्य यही है कि मैं भी पोटली बांध रहा हूं । परंतु मेरा विश्वास है कि यह पोटली St. Peter (सेण्ट पीटर, ईसा के प्रथम शिष्य, क्रिश्चियन स्वर्ग के द्वारपाल) की चादर के समान है, अनंत के जितने शिकार हैं उसमें किलबिल कर रहे हैं । अभी पोटली नहीं खोलुंगा, असमय खोलने से शिकार भाग सकते हैं । बंगाल भी अभी वापस नहीं जा रहा, इसलिये नहीं कि बंगदेश तैयार नहीं बल्कि इसलिये कि मैं तैयार नहीं हूं । कच्चा कच्चों के बीच जा भला क्या काम कर सकता है ?
इति-
तुम्हारा 'सेजदा'
पुनश्च: नलिनी ने लिखा है कि तुम लोग अप्रैल के अंततक नहीं आ रहे हो--मई में आओगे । उपेन ने भी आने के बारे में लिखा था, उसका क्या हुआ ? वह तुम लोगों के साथ रह रहा है या और कहीं ? मुकुन्दीलाल ने मेरे पास चिट्ठी भेजी है कि उसे सरोजिनी के पते पर भेज दूं । पर सरोजिनी कहां है मुझे मालूम नहीं, अतः तुम्हारे पास भेज रहा हूं । तुम उसे forward कर देना (यथास्थान भेज देना) ।
मोतीलाल की चिट्ठी मिली है । उससे और कुछ circumstances (परिस्थितियों) से समझा कि उसके और सौरीन के बीच misunderstanding (गलतफहमी) की छाया पड़ रही है, वह मनोमालिन्य का रूप ले सकती है । हम लोगों में ऐसा होना बिलकुल अनुचित है । मोतीलाल को इसके बारे में लिखूंगा । तुम सौरीन से कहना कि सावधान रहे ताकि इस तरह के breach (दरार) या rift (अनबन) का कोई मौका न आये । किसी ने मोतीलाल को कहा है कि सौरीन लोगों को कहता फिर रहा है, (impression दे रहा है) कि 'प्रवर्तक' के साथ अरविंद घोष का कोई संबंध नहीं है । निश्चय ही, सौरीन ने ऐसी बात नहीं कही है । 'प्रवर्तक' अपनी ही पत्रिका है, मैं स्वयं उसमें लिखूं या न लिखूं मेरे द्वारा ही भगवान् मोतीलाल को शक्ति देकर लिखवा रहे हैं, spiritual (आध्यात्मिक) हिसाब से मेरे ही लेख हैं, मोतीलाल केवल उसमें अपने रंग भरता है | हो सकता है की सौरीन ने कहा हो की 'प्रवर्तक' में प्रकाशीत लेख उनके खुद के लिखे नहीं हैं | यह भी कहने की जरुरत नहीं है | इससे लोगों पर wrong impression (उलटा असर) पड़ सकता है | 'प्रवर्तक' में कौन लिखता है, कौन नहीं लिखता इस बात को जरा गुप्त रखा है,-- प्रवर्तक को प्रवर्तक ही लिखता है, शक्ति ही लिखती है, वह किसी व्यक्ति-विशेष की सृष्टि नहीं | हकीकत भी यही है | नलिनी और मणि के 'देवजन्म' आदि लेख पुस्तकाकार में छपे हैं | लेखक का नाम नहीं दिया गया है इसी नियम के कारण | ऐसा ही रहे until further order (जबतक की कोई अगला आदेश न मिले |
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