श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य

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Sri Aurobindo

All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

The Complete Works of Sri Aurobindo (CWSA) Writings in Bengali and Sanskrit Vol. 9 715 pages 2017 Edition
Bengali
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All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य 528 pages 1999 Edition
Hindi Translation
Translator:   Hriday  PDF    LINK

भारतीय चित्रविद्या

 

     आज पाश्चात्य और प्राच्य सभी राष्ट्र यह स्वीकार करने के लिये बाध्य हुए हैं कि हमारी यह भारतजननी थी ज्ञान का, धर्म का, साहित्य का, शिल्प का अक्षय भंडार । किंतु पहले यूरोप की यह धारणा थी कि जितनी ऊंची कोटि का हमारा साहित्य और शिल्प था उतनी ही उत्कृष्ट भारतीय चित्रविधा नहीं थी, वरन् वह थी जघन्य, सौन्दर्यहीन । हम भी पाश्चात्य ज्ञान से ज्ञानी बन, अपनी आंखों पर यूरोपीय चश्मा चढ़ा, भारतीय चित्र और स्थापत्य को देखते ही नाक सिकोड़ लेते थे और इस तरह अपनी मार्जित बुद्धि और दोषरहित रुचि का परिचय देते थे । हमारे धनियों के घर ग्रीक प्रतिमाओं और अंग्रेजी चित्रों के cast या निर्जीव अनुकरण से भर गये, साधारण लोगों के घरों की दिवालें जघन्य तैलचित्रों से सुसज्जित होने लगीं । जिस भारतीय जाति की रुचि और शिल्प चातुरी जगत् में अनुपम थी, वर्ग और रूप को ग्रहण करने में जिस भारतीय जाति की रूचि स्वभावत: ही निर्दोष थी, उसी जाति की आंखें अंधी हो गयीं, बुद्धि भाव ग्रहण करने में असमर्थ हो गयी, रुचि इटली के कुली-मजदूरों की रुचि से भी हीन हो गयी । राजा रविवर्मा भारत के श्रेष्ठ चित्रकार के रूप में विख्यात हो गये । सम्प्रति कुछ रसज्ञ व्यक्तियों के प्रयास से भारतवासियों की आंखें खुल रही हैं, उन्होंने अपनी क्षमता, अपना ऐश्वर्य समझना आरंभ कर दिया है । श्रीयुत अवनीन्दनाथ ठाकुर को असाधारण प्रतिभा की प्रेरणा से अनुप्राणित हो कुछ युवक लुप्त भारतीय चित्रकला का पुनरुद्धार कर रहे हैं, उनकी प्रतिभा के गुण से बंगाल में  (साथ ही भारत में भी) नवीन युग के लक्षण दिखायी दे रहे हैं । इसके बाद, आशा है, भारत अंग्रेजों की आंखों से न देख अपनी आंखों से देखेगा, पाश्चात्य का अनुकरण छोड़ अपनी प्रांजल बुद्धि पर निर्भर रह फिर से चित्रित रूप और वर्ण द्धारा अपना सनातन भाव व्यक्त करेगा ।

     भारतीय चित्रविधा के प्रति पाश्चात्य लोगों की अरुचि के दो कारण हैं । वे कहते हैं कि भारतीय चित्रकार प्रकृति (nature) का अनुकरण करने में अक्षम हैं, ठीक मनुष्य की तरह मनुष्य, घोड़े की तरह घोड़ा, पेड़ की तरह पेड़ न अंकित कर विकृत मूर्ति बनाते हैं, उनमें perspective (परिप्रेक्षण-दृश्य देखने की शक्ति) नहीं है, उनके चित्र सपाट और अस्वाभाविक लगते हैं । उनकी दूसरी आपत्ति यह है कि इन चित्रों में सुन्दर भावों और सुन्दर रूपों का नितांत अभाव होता है । यह अंतिम आपत्ति यूरोपियों के मुंह से अब नहीं सुनी जाती । हमारी पुरानी बुद्ध मूर्ति का अतुलनीय शांतभाव, हमारी पुरानी दुर्गामूर्ति में अपार्थिव शक्ति का प्राकटय देख यूरोपियन मुग्ध और स्तंभित हो जाते हैं । जो विलायत में श्रेष्ठ समालोचक के रूप में विख्यात हैं उन्होंने स्वीकार किया है कि भारतीय चित्रकार भले ही यूरोप का perspective (परिप्रेक्षण)

न जानें पर भारत के perspective (

परिप्रेक्षण

) का जो नियम है वह बहुत सुन्दर,

 

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पूर्ण और संगत है । यह सच है कि भारतीय चित्रकार तथा अन्यान्य शिल्पी ठीक बाह्य जगत् का अनुकरण नहीं करते; यह उनके सामर्थ्य का अभाव नहीं बल्कि उनकी चित्रकारी का उद्देश्य ही होता है बाह्य दृश्य और आकृति का अतिक्रमण कर अत:स्थ भाव और सत्य को प्रकट करना । बाह्य आकृति इस आंतरिक सत्य का आवरण है, छद्मवेश है--इस छद्मवेश के सौंदर्य में मग्न हो हम उसे ग्रहण नहीं कर पाते जो इनके अंदर छिपा है । अतएव भारतीय चित्रकारों ने जान-बूझकर बाह्य  आकृति को बदल उसे आंतरिक सत्य को प्रकट करने के उपयुक्त बनाया । वे कितने सुंदर ढंग से प्रत्येक अंग तथा चारों ओर के दृश्य, आसन, वेश द्धारा मानसिक भाव या घटना के अंतर्गत सत्य को प्रकट करते हैं--यह देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है । यही है भारतीय चित्र का प्रधान गुण, चरम उत्कर्ष ।

    पश्चिम बाहर के मिथ्या अनुभव में ही मग्न है, वह छाया का भक्त है; पूर्व भीतर के सत्य का अनुसंधान करता है, हम 'नित्य' के भक्त हैं । पश्चिम शरीर का उपासक है, हम आत्मा के उपासक हैं । पश्चिम नाम-रूप में अनुरक्त रहता है, हम नित्यवस्तु  पाये बिना किसी भी तरह संतुष्ट नहीं होते । यह प्रभेद जिस तरह धर्म, दर्शन और साहित्य में पाया जाता है उसी तरह चित्रविधा और स्थापत्यविधा में भी सर्वत्र दिखायी देता है ।

 

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