श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य

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Sri Aurobindo

All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

The Complete Works of Sri Aurobindo (CWSA) Writings in Bengali and Sanskrit Vol. 9 715 pages 2017 Edition
Bengali
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All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य 528 pages 1999 Edition
Hindi Translation
Translator:   Hriday  PDF    LINK

देश और राष्ट्रीयता

 

    देश ही है राष्ट्रीयता की प्रतिष्ठा-भूमि, राष्ट्र नहीं, धर्म नहीं, और कुछ भी नहीं, एकमात्र देश । राष्ट्रीयता के और सब उपकरण गौण हैं पर हैं उपयोगी, देश ही है मुख्य और आवश्यक । बहुत-सी परस्पर-विरोधी जातियां एक देश में निवास करती हैं, उनमें कभी भी सदभाव, एकता, मैत्री नहीं थी, परंतु इसमें भय की क्या बात ? जब एक देश, एक मां है तब एक दिन एकता आकर ही रहेगी, अनेक जातियों के मिलने से एक बलवान् अजेय राष्ट्र उत्पन्न होगा ही । धर्ममत एक नहीं है, संप्रदाय-संप्रदाय में चिर-विरोध है, मेल नहीं, मेल की आशा भी नहीं है, फिर भी भय की कोई बात नहीं, एक दिन स्वदेश-मूर्तिधारिणी मां के प्रबल आकर्षण से छल, बल, साम, दण्ड और दान से मेल होकर ही रहेगा, सांप्रदायिक विभिन्नता भ्रातृभाव में, मातृप्रेम में डूब जायेगी । एक देश में विभिन्न भाषाएं हैं, भाई-भाई की बात समझने में असमर्थ है, हम एक दूसरे के भाव में प्रवेश नहीं कर पाते, हृदय में हृदय के आबद्ध होने के पथ में अभेध प्राचीर खड़ी हुई है, बड़े कष्ट से उसे पार करना होता है, फिर भी डरने की कोई बात नहीं; एक देश, एक जीवन, एक विचार की धारा सबके मन में प्रवाहित है, प्रयोजन की प्रेरणा से साधारण भाषा की सृष्टि होगी ही, या तो वर्तमान किसी भाषा का आधिपत्य स्वीकृत होगा या एक नयी भाषा की सृष्टि  होगी, मां के मंदिर में सब उसी भाषा का व्यवहार करेंगे । इन सब बाधाओं से कार्य हमेशा के लिये नहीं रुका करता, मां का प्रयोजन, मां का आकर्षण, मां के प्राणों की कामना विफल नहीं होती, वह सभी बाधाओं और सभी विरोधों को अतिक्रम करती है, विनष्ट करती है, विजयी होती है । एक मां के गर्भ से जन्म हुआ है, एक मां की गोद में निवास करते हैं, एक मां के पंचभूत में मिल जाते हैं, आंतरिक सहस्र विवाद होने पर भी मां की पुकार पर हम एक हो जायेंगे । यही है प्राकृतिक नियम, सभी देशों के इतिहास की शिक्षा, देश ही है राष्ट्रीयता की प्रतिष्ठा-भूमि; वह संबंध अव्यर्थ है, स्वदेश रहने पर राष्ट्रीयता का आना अवश्यंभावी है । एक देश में दो जातियां चिरकाल नहीं रह सकतीं, मिलन होगा ही । दूसरी ओर यदि एक देश न हो, जाति, धर्म, भाषा एक हो भी तो उससे कोई लाभ नहीं, एक दिन एक स्वतंत्र जाति की सृष्टि होकर ही रहेगी । अलग-अलग देशों को युक्त कर एक बृहत् साम्राज्य बनाया जा सकता है, पर एक बृहत् राष्ट्र नहीं बनाया जा सकता । साम्राज्य-ध्वंस  हो जाने पर फिर से स्वतंत्र राष्ट्र उत्पन्न होता है, कई बार वह अंतर्निहित स्वाभाविक स्वतंत्रता ही साम्राज्य-नाश का कारण बनती है ।

   परंतु यह फल अवश्यंभावी होने पर भी मनुष्य के प्रयास से, मनुष्य की बुद्धि से या बुद्धि के अभाव से वह अवश्यंभावी प्राकृतिक क्रिया देर या सवेर फलवती होती है । हमारे देश में कभी भी एकता नहीं रही किंतु चिरकाल एकता की ओर एक झुकाव था,

प्रवाह था, हमारे इतिहास में भारत के विभिन्न अंगो

ने एक-दुसरे को आकृष्ट किया |  

 

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इस प्राकृतिक प्रयास की कुछ प्रधान बाधाएं थीं; पहली बाधा थी प्रादेशिक विभिन्नता, दूसरी थी हिन्दू-मुसलमान का विरोध और तीसरी थी मातृदर्शन का अभाव । देश का बृहत् आकार, यातायात में कठिनाई और विलंब, भाषा की विभिन्नता हैं प्रादेशिक विभिन्नता के प्रधान सहायक । शेषोक्त बाधा के अतिरिक्त अन्य सभी बाधाएं आधुनिक वैज्ञानिक सुविधाओं से निस्तेज पड़ गयी हैं । हिन्दू-मुसलमान का विरोध होने पर भी अकबर भारत को एक करने में समर्थ हुए थे, यदि औरंगजेब निकृष्ट बुद्धि के वश न होता तो काल के माहात्म्य से, अभ्यास से, विदेशी आक्रमण के भय से, इंग्लैंड के कैथोलिक और प्रोटेस्टेण्टों की तरह भारत में भी हिन्दू और मुसलमान सदा के लिये एक हो जाते । औरंगजेब की बुद्धि के दोष से और कुछ आधुनिक कूटबुद्धि अंग्रेज राजनीतिज्ञों के उकसाने से वह विरोध प्रज्ज्वलित हो अब बुझना ही नहीं चाहता । परंतु प्रधान बाधा है मातृदर्शन का अभाव । हमारे प्रायः सभी राजनीतिज्ञ मां के संपूर्णस्वरूप का दर्शन करने में असमर्थ थे । रणजीत सिंह या गुरु गोविन्द ने भारतमाता को न देख पंचनद-माता को देखा था । शिवाजी और बाजीराव ने भारत-माता को न देख हिन्दुओं की माता को देखा था । अन्यान्य महाराष्ट्रीय राजनीतिज्ञों ने महाराष्ट्र-माता को देखा था । हमने भी बंग-भंग के समय बंग-माता का दर्शन किया था, वह दर्शन अखंड दर्शन था, अतएव बंगदेश की भावी एकता और उन्नति अवश्यंभावी है, किंतु भारतमाता की अखंड मूर्ति अभी भी प्रकट नहीं हुई है । कांग्रेस में हम नाना स्तव-स्तोत्र द्धारा जिस भारतमाता की पूजा करते थे वह कल्पित थी, अंग्रेजों की सहचरी और प्रिय दासी,  म्लेच्छवेशभूषासज्जित  दानवी माया थी, वह हमारी मां नहीं थी, उसके पीछे निविड़ अस्पष्ट आलोक में छिपी हमारी सच्ची मां मन-प्राण को आकर्षित करती थी । जिस दिन हम अखंडस्वरूप मातृमूर्ति के दर्शन करेंगे, उसके रूप-लावण्य से मुग्ध हो उसके कार्य में जीवन उत्सर्ग करने के लिये उन्मत्त हो उठेंगे, उस दिन वह बाधा तिरोहित हो जायेगी, भारत की एकता, स्वाधीनता और उन्नति सहजसाध्य हो जायेगी । तब भाषा-भेद से कोई बाधा उपस्थित नहीं होगी, सभी अपनी-अपनी मातृभाषा की रक्षा करते हुए साधारण भाषा के रूप में हिन्दीभाषा को ग्रहण कर उस बाधा को दूर करेंगे ।*  हम हिन्दू-मुसलमान के भेद की वास्तविक मीमांसा कर सकेंगे । मातृदर्शन के अभाव में उस बाधा को दूर करने की बलवती इच्छा न होने से ही कोई उपाय नहीं सूझता, विरोध तीव्र होता जा रहा है । किंतु अखण्ड स्वरूप चाहिये, यदि हम केवल हिन्दू की माता, हिन्दू राष्ट्रीयता की नींव के रूप में मातृदर्शन की आकांक्षा का पोषण करें तो फिर उसी पुराने भ्रम में पतित हो राष्ट्रीयता के पूर्ण विकास से वंचित रह जायेंगे ।

 

     * बाद में श्री अरविन्द ने साधारण भाषा के रूप में हिंदी के स्थान पर संस्कृतभाषा कहा था |


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