All writings in Bengali and Sanskrit including brief works written for the newspaper 'Dharma' and 'Karakahini' - reminiscences of detention in Alipore Jail.
All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)
'धर्म' पत्रिका के सम्पादकीय
धर्म
अंक १
भाद्र ७, १३१६*
प्रादेशिक कांग्रेस का अधिवेशन
प्रादेशिक कांग्रेस का अधिवेशन होने ही वाला है । पिछले साल पाबना-अधिवेशन में बंगाल के समवेत प्रतिनिधियों ने बंबई-नीति का वर्जन कर बंगाल में एकता की रक्षा की थी । हमारा विश्वास है कि हुगली-अधिवेशन में भी उसी शुभ पथ का अनुसरण किया जायेगा । यह सुनकर खुशी हुई कि हुगली की अभ्यर्थना-समिति पाबना के सब प्रस्तावों को ध्यान में रखते हुए इस अधिवेशन के प्रस्तावों की रचना करने में सचेष्ट है । विशेष आवश्यक विषय दो ही हैं । आजकल राजनीतिक बॉयकाट (बहिष्कार) का वर्जन कर नमक-चीनी के बॉयकाट को ही बचाये रखने का विशेष आग्रह अनेक विज्ञजनों के मन में उपजा है । आशा है यह विज्ञता बंगाल के प्रतिनिधिवर्ग को प्रिय न हो सर्वसम्मति से अस्वीकृत होगी । द्धितीय आवश्यक विषय है राष्ट्रीय कांग्रेस । पाबना में इस संबंध भें जो प्रस्ताव पारित हुआ था वह प्रस्ताव ही बना रह गया, उसे कार्यान्वित करने की कोई चेष्टा नहीं हुई । इस बार सारे बंगाल का मत और आकांक्षा जिससे उपेक्षित न हो ऐसी व्यवस्था करना है प्रादेशिक कांग्रेस का प्रधान कर्तव्य ।
अशोक नंदी की परलोक यात्रा
अलीपुर बम-केस में अभियुक्त युवक अशोक नंदी क्षयरोग से देहमुक्त हो गये । क्षयरोग का एकमात्र कारण है जेल-यातना । जो इस युवक को पहचानते हैं वे जानते हैं कि अशोक नंदी का किसी भी हत्याकांड या षड्यंत्र में हाथ होना नितांत असंभव है । वे अतिशय शांत, निरीह, धार्मिक व प्रेमधर्म-परायण थे । जेल में योगपथ पर काफी प्रगति कर मृत्यु के समय योगारूढ़ अवस्था में ही भगवान् का नाम स्मरण करते-करते उन्होंने धराधाम का परित्याग किया । उनका थोड़ा-बहुत परिचय और कभी दिया जायेगा ।
* अगस्त २३, १९०९
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हेअर स्ट्रीट में सरलता
हेअर स्ट्रीट-निवासी अपने सहयोगी की सरलता देख हमें हर्ष हुआ । सहयोगी को अपनी राय देने में लुकाव-छिपाव की आदत नहीं । सत्य बात कहनी हो तो सरल बालक की तरह कह देगा; यदि झूठ कहने की आवश्यकता हुई तो झूठ-सच को न मिला बालक की तरह उदार भाव से सारा का सारा झूठ बोल उठेगा । उस दिन किचनर के सैन्य-सुधार को ले पार्लियामेंट में वाद-विवाद हुआ था । उस उपलक्ष में स्वनाम धन्य सर एडविन कॉलिन ने इस मत की घोषणा की कि इस सैन्य-संस्कार से भारत की जो राष्ट्रीय सेना सृष्ट और गठित हुई है, इससे भारत के राष्ट्रीय दल के उद्देश्य को पोषण और सहायता मिली है । अंग्रेजों ने भी इसमें हां में हां मिलायी है । सैन्यसंगठन में भेदनीति अबतक सयत्न रक्षित होती आ रही है, पलटन-पलटन में जिससे सहानुभूति व एकता न उपजे, भारत की भिन्न -भिन्न जातियों के हृदय में एकप्राणता न आ घुसे, ऐसी चेष्टा व लक्ष्य कभी भी परिवर्जित नहीं हुआ । लार्ड किचनर ने इन सभी भेदों को मिटा ब्रिटिश साम्राज्य के प्रधान-स्तंभ को उखाड़ फेंका है । यहां सहयोगी ने स्वीकारा है कि अब का स्वेच्छा-तंत्र भारत की राष्ट्रीय एकता के प्रतिकूल और विरोधी था । एकता के अभाव में भारत को उन्नति की राह नहीं मिल रही थी । अतएव जो स्वेच्छा-तंत्र अपने प्रधान पृष्ठ-पोषक के कथनानुसार देश की उन्नति के प्रतिकूल प्रमाणित हुआ है उसी स्वेच्छा-तंत्र को वैध साधनों से प्रजातंत्र में परिणत करने की चेष्टा भारतीयों के लिये दोषावह न हो स्वाभाविक एवं अनिवार्य है और जैसे भारत के लिये वैसे ही विलायत के लिये मंगलप्रद प्रमाणित की गयी है ।
विलायत-यात्रा से लाभ
हमारे परम पूजनीय देशनायक व श्रेष्ठ वक्ता श्रीयुत सुरेंद्रनाथ बन्धोपाध्याय विलायत में विशेष सम्मानित हो वापिस आये हैं । उस सम्मान-लाभ से हम भी प्रसन्न हुए । हमारे वक्ता ने अंग्रेजी में विलायत के श्रेष्ठ वाग्मियों की तरह प्रतिभा, भाषा--लालित्य और ओज दिखा विपक्षियों की प्रशंसा और सम्मान पाया है, इससे देश का गौरव बढ़ा और प्रमाणित हुई बंगालियों की बुद्धि की श्रेष्ठता । पर इतने परिश्रम का फल यदि व्यक्तिगत सम्मान में ही सीमाबद्ध रह जाये तो कहना पड़ेगा कि सुरेंद्रबाबू की विलायत-यात्रा व्यक्ति के लिये संतोषजनक होने पर भी देश के लिये विफल चेष्टा है । हम अंग्रेजों से बुद्धि-प्रशंसा और वाग्मिता का आदर पाने के लिये व्यग्र नहीं, हम चाहते हैं राष्ट्र का सारा अधिकार वसूल करना । सुरेंद्रबाबू के तीन माह के प्रवास
से और ढेर सारी वक्तृताओं
से अंग्रेज जाति इस उद्देश्य की और किंचित् भी अनुकूल
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हुई हो इसका कोई लक्षण नहीं दीखता । वे मध्यपंथी दल की राजभक्ति के बारे में थोड़ा-बहुत आश्वत-भर हो गये हैं । इसमें कोई संदेह नहीं कि इससे सुरेंद्रबाबू मध्यपंथी दल के कृतज्ञता-भाजन व धन्यवाद के योग्य बन गये । किंतु वे विलायत में देश की प्रसूत सेवा व उपकार कर लौटे हैं इस बहाने उनका जो नानाविध सम्मान हो रहा है वह है निर्मूल । सुरेंद्रनाथ बाबू पूजार्ह और सम्माननीय हैं इसलिये विदेश से लौटने पर उनकी पूजा और सम्मान करना स्वाभाविक व प्रशंसनीय है, अन्य कोई अलीक कारण दिखाने की जरूरत नहीं थी । देश-सेवा करते-करते विलायत में वे हमारे राजनीतिक अधिकार का दावा जता आये हैं । उपकार के दौरान आंदोलन के बारे में कुछ एक लोगों के व्यक्तिगत मत अल्प मात्रा में संशोधित हो भी सकते हैं । इस अल्प लाभ से हम अपने राजनीतिक उद्देश्य की ओर पग-भर भी आगे नहीं बढ़ पाये हैं ।
लंदन में राष्ट्रीय कांग्रेस
श्रीयुत सुरेंद्रनाथ यौवनकाल से उन्नीसवीं शताब्दी की निवेदन-प्रधान कातर राजनीति के अभ्यस्त हैं । जगह-जगह अंग्रेजों का ''जय-जयकार'' सुन पुन: उसी नीति में विश्वास स्थापन और निवेदन-प्रवृत्ति को पुनरुज्जीवित करने की उनकी चेष्टा है इस विदेश-यात्रा का अनिवार्य फल । अब प्रश्न उठता है, श्रीयुत सुरेंद्रबाबू जो कुछ भी करें, देशवासी, विशेषत: बंगाली उनकी इस व्यर्थ चेष्टा में सहयोग देने को तैयार हैं क्या ? किसी भी व्यक्तिगत मत द्धारा यह जाति अब और परिचालित नहीं हो सकती । उद्देश्य, प्रयोजन और युक्ति को दृष्टि में रखते हुए देश के लिये जो कल्याणकर, राजनीति क्षेत्र में जो सिद्धिदायक, शक्ति व अर्थव्यय के हिसाब से जिसका फल संतोषजनक हो, वही है हमारे लिये अनुष्ठेय | सुरेंद्रबाबू जिस ''जयजयकार'' पर गलत विश्वास कर पुराने पथ पर लौट जाने के लिये व्याकुल हो रहे हैं वह है उनकी असाधारण वाग्मिता की प्रशंसा; वह उनके राजनीतिक मत का समर्थक या राजनीतिक दावे का अनुकूलताप्रकाशक नहीं । भारत की उन्नति के लिये मुख्य विरोधियों ने भी इस ''जय-जयकार'' में उच्च कण्ठ से योग दिया है । इससे क्या यह समझा जाये कि भविष्य में वे हमारे स्वायत्त-शासन या स्वाधीनता के अनुकूल आचरण करेंगे ? यह कदापि संभव नहीं । इस वाग्मिता के प्रभाव से उनके मत और आचरण में थोड़ा भी परिवर्तन नहीं आया । यदि सुरेंद्रबाबू की वक्तृता से कोई विशेष या स्थायी फल नहीं हुआ तो क्या गोखले, मेहता, मालवीय, कृष्णस्वामी के मिलित वक्तृतास्रोत से अंग्रेजों का कठिन मन इतना द्रवित हो जाने की आशा है कि इस भूत श्राद्ध में हम अपरिमित धन बहाने के लिये बाध्य हों ? अंग्रेज जाति है कार्यपटु व विचक्षण, उसे केवल भाषण
से नहीं बहलाया जा सकता, स्वार्थ और देश का हित देख वह राजनितिक पथ
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निर्धारित करती है । पहले हम समझते थे कि उनके सामने भारत का दुःख, कर्मचारियों का अत्याचार ज्ञापर कर सकने से ब्रिटिश प्रजातंत्र की एक वात पर आकाश से स्वर्ग टपक पड़ेगा । यह भ्रांति छू-मंतर हो गयी है, फिर कोई उसी पुराने मोह को जगाने की चेष्टा न करे, चेष्टा करने पर भी देश नहीं सुनने का । अंग्रेजों को भला हम ऐसा कौन-सा बृहत् स्वार्थ दिखा सकते है जिससे वे अपना राष्ट्रीय गर्व, लाभ और प्रभुत्व छोड़ कालीजाति के राष्ट्र के हाथ विजित देश का सारा शासन-भार सौंप दे सकते हैं और कैसे उस बृहत् स्वार्थ की प्रयोजनीयता उन्हें हृदयंगम हो सकती है--यही है विवेचनीय । साम्राज्य-रक्षा से बढ़कर दूसरा कोई बृहत् स्वार्थ नहीं । साम्राज्य-रक्षा की आशा से स्वायत्त-शासन दे देना अंग्रेजी राजनीति में कोई नूतन पथ नहीं, पर इस उपाय की प्रयोजनीयता जबतक उन्हें हृदयंगम नहीं हो जाती तबतक उनसे प्रकृत उपकार की आशा असंगत है । उनके मन में इस ज्ञान को जगाने का एक ही पथ है--निष्क्रिय प्रतिरोध ।
अंक २
भाद्र १४, १३१६
राष्ट्रीय कांग्रेस
जिस दिन सूरत की राष्ट्रीय कांग्रेस में बखेड़ा उठ खड़ा हुआ था, उस दिन राष्ट्रीय दल के अधिवेशन में श्रीयुत तिलक ने कांग्रेस की राष्ट्रीयता की रक्षा कर ऐक्य--स्थापना का उपाय सुझाया था और कांग्रेस के कार्य व उद्देश्य की रक्षा के लिये कमेटी नियुक्त करने का प्रस्ताव रखा था । प्रस्ताव के अनुसार कमेटी गठित भी हुई थी, किंतु कमेटी का अधिवेशन आज तक नहीं हुआ । श्रीयुत अरविन्द घोष और बोडस इस कमेटी के संयोजक निर्वाचित हुए थे । उन्होंने परामर्श कर यही निर्णय किया कि बखेड़े के बारे में राष्ट्रीय दल का दोष-मार्जन करना और प्रादेशिक समितियों के अधिवेशन मे भविष्य के बारे में देशवासियों का अभिमत जानना है पहला कर्तव्य । उससे पहले कमेटी बुलाना व्यर्थ है । इसी गुरुतर विषय में देशवासियों के मत की उपेक्षा कर परामर्श करना किसी भी तरह उचित या युक्तिसंगत नहीं । दो प्रादेशिक समितियों के अधिवेशन से पता चल गया कि बंगाल और महाराष्ट्र के मत में ऐक्य की स्थापना ही श्रेयस्कर है और कांग्रेस की पूर्ववर्ती प्रणाली व कलकत्ते के अधिवेशन में स्वीकृत चार मुख्य प्रस्ताव सर्वथा रक्षणींय हैं । इलाहाबाद में कन्वेंशन की कमेटी ने इस मत को अग्राह्य मान ऐक्य-स्थापना के पथ को बंद कर दिया । इसके बाद ही
अलीपुर बम-केस श्रीयुत अरविन्द घोष पकड़े गये और अभियुक्त बने | महासमिति
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तिलक को राजद्रोह के अभियोग में ६ वर्ष का कारा-दंड मिला | श्रीयुत खापर्डे व श्रीयुत विपिन चंद्र पाल ने विलायत के लिये प्रस्थान किया । बंगाल के राष्ट्रीय दल के प्रधान-प्रधान नेता निर्वासित किये गये । देश-भर में प्रबल दमन-नीति की झंझा बहने लगी । राष्ट्रीय दल के नेताओं में नागपुर निवासी डॉक्टर मुंजे, कलकत्ते के श्रीयुत रसूल और मध्यस्थगण में पंजाब के लाला लाजपतराय और बंगाल के श्रीयुत मतिलाल घोष ही रह गये । डॉक्टर मुंजे आदि ने कलकत्ते आ ऐक्य-स्थापन के लिये काफी चेष्टा की, पर कुछ एक मध्यपंथियों के प्रतिवाद से उनके सब प्रस्ताव अस्वीकृत रह गये । राष्ट्रीय दल के नेताओं ने विफल मनोरथ हो नागपुर में राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन करने का संकल्प किया । वह भी सरकार की आज्ञा से स्थगित हो गया । ऐसी अनुकूल अवस्था में कन्वेंशन व कमेटी की निर्धारित नियमावली के अनुसार मद्रास में एक कन्वेंशन हुई जिसमें राष्ट्रीय कांग्रेस नाम धारण कर बॉयकाट द्धारा बंगाल के मुंह पर चूना पोत दिया गया । बंगाल के मध्यपंथी नेताओं ने भी चुपचाप इस लांछना को सहकर सहनशक्ति की पराकाष्ठा दिखायी । इस साल लाहौर में इस कृत्रिम कांग्रेस के अधिवेशन का आयोजन चल रहा है । इस आयोजन में श्रीयुत नंदी, लाला हरकिशनलाल और पंडित रामभुजदत्त चौधरी त्रिमूर्ति बन असत् से सत् की सृष्टि कर ईश्वरीय शक्ति का लक्ष्य अभिव्यक्त कर रहे हैं । पंजाब की प्रभावशाली हिन्दूसभा वहां के हिन्दू संप्रदाय को मारले की इस कृत्रिम भेद-नीति की पक्षपाती राष्ट्रीय कांग्रेस की राष्ट्रीयता को अस्वीकार के लिये आह्यान कर रही है; लाला लाजपतराय, लाला मुरलीधर, लाला द्धारकादास आदि संभ्रांत नेताओं ने इस आयोजन का प्रतिवाद किया है, मुसलमान संप्रदाय भी इस राज-अनुग्रह-लालित कोंग्रेस में योग नहीं दे रहा । अतएव इस आयोजन की सफलता की आशा का पोषण नहीं किया जा सकता । ऐसी अवस्था में ऐक्य-स्थापना का एकमात्र आशास्थल बचा है हुगली में प्रादेशिक समिति का अधिवेशन । इस अधिवेशन में यदि ऐक्य-स्थापना की प्रकृत प्रणाली निर्धारित हो सके और बंगाल के मध्यपंथी गोखले-मेहता के आधिपत्य का परित्याग कर देश के मुखापेक्षी हो अपना पथ निर्धारित करें तो राष्ट्रीय कांग्रेस के संबंध में संबंधित संतोषजनक साधना का उदभावन कर एकता का पथ निष्कंटक किया जा सकेगा । गोखले महाशय ने पूना के भाषण में जो देशद्रोहिता की है, उसके बाद उनकी बातों में आ देश का अहित करना बंगाल के नेताओं के लिये बड़ी लज्जा की बात होगी । बंबई के नेता जो बॉयकाट व वैध प्रतिरोध का दमन करने के लिये कृतनिश्चय हैं, उसके संबंध में फिर किस बुद्धिमान को संदेह रह सकता है ? सुरेंद्रबाबू ने विलायत में बॉयकाट का समर्थन किया था जान बंबई के नेतागण इतने विरक्त हुए कि विलायत से उनके लौटने पर श्रीयुत वाच्छा को छोड़ एक भी सुप्रसिद्ध मध्यपंथी सुरेंद्रबाबू की अभ्यर्थना करने नहीं गये । उन्होंने शायद बॉयकाट नीति के प्रति अपनी सहानुभूति का
अभाव प्रदर्शित करने के लिये बंगाल के ऐसे मध्यपंथी नेता को अपदस्थ किया है |
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लाहौर की सभा राष्ट्रीय सभा भी नहीं, मध्यपंथी दल की कांग्रेस भी नहीं, वह है बॉयकाट-विरोधी सरकारी कर्मचारियों के भक्तों की कांग्रेस । जो भी हो, राष्ट्रीय दल हुगली के अधिवेशन होने तक राह देखेंगे, तब फिर अपना गंतव्य पथ निर्धारित करेंगे । हम अब और परमुखापेक्षी हो निश्चेष्ट नहीं बने रहेंगे ।
हिन्दू और मुसलमान
शासन-सुधार से हिन्दुओं और मुसलमानों के स्वतंत्र अस्तित्व का अवलंबन ले विरोध को बद्धमूल करने की चेष्टा से अनिष्ठ में भी जो हित हुआ है वह है निर्जीव मुसलमान संप्रदाय में जीवन-स्पंदन । वे सरकार पर दावा करना एवं असाध्य साधन की आशा का पोषण करना सीख रहे हैं । इसी में है देश का परम मंगल । उनकी आशा व्यर्थ होगी, यह कहने की आवश्यकता नहीं । सरकार के आचरण से इस बीच यह समझ में आ गया है । वे जैसे अपर देशवासियों को क्षुद्र व मूल्यहीन अधिकार दे विरत हुए हैं, मुसलमान संप्रदाय को भी वैसे ही क्षुद्र व मूल्यहीन अधिकार दे प्रकृत शक्ति--विकास के साधन देने को सहमत नहीं होंगे । पृष्ठपोषक व सहानुभूति-प्रकाशक अंग्रेजों ने जैसे हमें आशा देकर निवेदन-नीतिप्रिय बना दिया था वैसे ही उनके भी पृष्ठपोषक व सहानुभूति-प्रकाशक आ जुटेंगे । अंत में मुसलमान भाई समझेंगे कि यह निवेदन- नीति फलप्रद नहीं, उनका प्रकृत उपकार करने की सामर्थ्य अंग्रेज पृष्ठपोषकों में नहीं । यदि हम इस शासन-प्रणाली में योग देने से इनकार कर दे तो जागरण का दिन शीघ्र आने की संभावना है । यदि इस भेदनीतिमूलक शासन-प्रणाली में योग दे मुसलमानों के साथ संघर्ष में प्रवृत्त हों तो हम जिस अनिष्ट की संभावना बता आये हैं, वह निश्चय ही फलेगा । यधपि हम किसी की भी प्रतिकूलता से नहीं डरते फिर भी विपक्षियों के उद्देश्य साधन में सहायता देना है मूर्खता-मात्र । हमने कभी भी मुसलमान भाइयों की खुशामद नहीं की, करेंगे भी नहीं, सरल मन से, एक प्राण हो उन्हें राष्ट्र-संगठन के कार्य का व्रत लेने का आहवान किया है । उस आहवान पर कान दे अपना हित और कर्तव्य निर्धारण करना उनकी बुद्धि, भाग्य व साधुता पर निर्भर है । हम न विरोध की सृष्टि करने जायेंगे और न ही विपक्षियों की विरोध-सृष्टि की चेष्टा में मदद देंगे ।
पुलिस बिल
सर एडवर्ड बेकर ने पुलिस बिल स्थगित कर दिया है । उन्होंने बुद्धिमानी का ही काम किया है । इस बिल के कानूनबद्ध होने से जो अशांति व अनर्थ होता इसका
अस्पष्ट-सा आभास थोड़े-बहुत परिणाम में संवाद-पत्रों के प्रतिवाद और भाषणों
रा
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दिया गया है । स्रोत मुड़ गया है । हम सात अगस्त के भय व विघ्न को अतिक्रम कर परीक्षा में उत्तीर्ण हुए हैं, तभी शायद भगवान् भी सुप्रसन्न हुए हैं । कुदिन का अवसान होने जा रहा है, सुदिन वापस आ रहा है । आशा है अब राष्ट्रीय शक्ति की जय ही होगी, पराजय नहीं । उस शक्ति के पुनर्विकास, लोकमत की जय और चेष्टा के मंगलमय फल के पूर्व लक्षण हमें मिल रहे हैं । बंगाल के वर्तमान छोटे लाट का मत प्रजातंत्र के पक्ष में ही है, यह जानी बात है, किंतु उनका कार्य और प्रकाशित बातें प्रजातंत्र के प्रतिकूल हुई हैं और होगी । वे तो हैं लार्ड मारले के आज्ञावाहक भृत्य, किरानीतंत्र (Bureaucracy) के प्रधान किरानी-भर, स्वतंत्र मत को कार्यान्वित करने की स्वाधीनता उन्हें प्राप्त नहीं । तथापि पुलिस बिल के स्थगित हो जाने से उनके मन पर से एक चिंता का भार हट जाना चाहिये । हमारा विश्वास है कि स्वतः प्रेरित हो यह अनिष्टकर बिल उन्होंने पेश नहीं किया, स्वतः प्रेरत हो स्थगित भी नहीं किया । बिल कोई स्वर्गराज इन्द्र का वज्रपात नहीं, वह है और भी उच्च शैल- शिखारूढ़, कभी सौम्य-मूर्ति तो कभी रौद्र मूर्ति, किसी सदाशिव का आदेश-प्रसूत महास्त्र । यदि हमारा अनुमान निर्मूल न हो तो समझना होगा कि दमन-नीति के जन्मस्थान में दमन-मुद्रा शिथिल पड़ती जा रही है । यह क्या co-operation (सहयोग) की आकांक्षा का फल है ? कोई भी इस भ्रम में न रहे कि हम सहज ही भूल जायेंगे । राजनीति प्रेम के मान-मिलन का खेल नहीं; राजनीति है बाजार, क्रय--विक्रय का स्थान । उस बाजार में co-operation का दाम है control--दमन । कम दाम में बहुमूल्य वस्तु खरीदने का जमाना अब लद गया है ।
रिसले का राष्ट्रीय सरकुलर
हम राष्ट्रीय शिक्षा-परिषद् को बता देना चाहते हैं कि ७ अगस्त को परिषद् के अधीन स्कूलों के छात्रों को बॉयकाट के उत्सव में योगदान का निषेध करने से मुफ़स्सल में अतिशय कुफल फल रहे हैं । साधारण लोगों के मन क्षुब्ध व उत्तेजित हो उठे हैं; जो राष्ट्रीय शिक्षा में सहयोग देते थे उनमें से बहुतेरे मदद देना बंद कर रहे हैं और यह मत प्रचारित हो रहा है कि राष्ट्रीय स्कूल-कॉलजों में और सरकारी स्कूल- कॉलेजों में नाम-मात्र का भेद है । सुना है, परिषद् के एक विख्यात सभ्य ने छात्रों को यह सलाह दी है कि जो देश के कार्य में हाथ बंटाना चाहते हैं वे सरकारी कॉलेजों में आश्रय लें । परिषद् का यह भी मत हो सकता है कि मुफ़स्सल के सब स्कूल बंद कर दिये जायें, जनसाधारण मदद देना बंद करे, हम बड़े-बड़े लोगों की आर्थिक सहायता से कलकत्ते में एक ही कॉलेज से निष्कृति पा जायेंगे । यदि ऐसा हुआ तो सब झंझट ही
चुक गया समझो | नहीं तो इस राष्ट्रीय रिसले सरकुलर को वापस लेना आवश्यक है |
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गुप्त चेष्टा
विश्वस्त सूत्र से पता चला है कि जैसे भी हो श्रीयुत अरविन्द घोष किसी भी जिला-समिति द्धारा हुगली अधिवेशन के प्रतिनिधि नियुक्त न हों, ऐसी चेष्टा कुछ-एक देशहितैषियों ने छिपे-छिपे की है । बड़े दुःख की वात है कि ऐसी जघन्य नीति आजकल भी हमारी राजनीति में स्थान पाती है । अरविन्द बाबू का यदि बॉयकाट ही करना हो, कीजिये । इसमें उन्हें कोई आपत्ति नहीं, वे दुःखित नहीं होंगे, देश के कार्य से पीछे भी नहीं ह्टेंगे, उन्होंने कभी भी किसी के भी मुखापेक्षी हो कार्य नहीं किया, पहले भी बहुत दिनों तक अपने पथ पर एकाकी चले थे, आगे भी यदि एकाकी चलना पड़ा, तो वे चलने से डरेंगे नहीं । पर यही मत यदि स्वीकृत हो कि हित के लिये या आप सबके उद्देश्य-साधन के लिये अरविन्द बाबू का संपर्क वर्जनीय है तो फिर खुले आम देश के सामने इसके प्रचार से कुंठित क्यों होते हैं ? इस गुप्त षड्यंत्र से आप सबका या देश का क्या भला होगा यह समझ नहीं आता । इसी बीच डायमंड हार्बर से अरविन्द बाबू प्रतिनिधि चुने गये हैं । आप सबके कन्वेंशन द्धारा निर्धारित नियमानुसार हुगली-अधिवेशन नहीं हो रहा, कोई भी सभा कोई भी प्रतिनिधि चुन सकती है । फलतः गुप्त नीति जैसी जघन्य है, वैसी ही निष्फल भी । कपट का अभाव है अंग्रेजों के राजनीतिक जीवन का एक महान् गुण जो करना होता है उसे वे साहस के साथ, सबके सामने, खुले तौर पर, आर्य भाव से करते हैं । भारत के राजनीतिक जीवन में इस महान् गुण को उतार लाना होगा । चाणक्य-नीति राजतंत्र में भले ही खप जाये, पर प्रजातंत्र में वह केवल भीरुता और स्वाधीनता-रक्षण की अयोग्यता ही लाती है ।
मारले की भेदनीति
शासन-सुधार की छाया तले जो भेदनीति वृक्ष पनपा है उसे रोपा लार्ड मारले ने और जल-सिंचन कर उसका सयत्न पोषण कर रहे हैं देशहितैषी गोखले महाशय ।
कलकत्ते के 'इंगलिश मैन' ने स्वीकार किया है कि भेदनीति ही है भारतीय सैन्य संगठन का मूल तत्त्व । अनेक अंग्रेज राजनीतिज्ञों की राय में भेदनीति ही है भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा का प्रधान साधन । लार्ड मारले की नीति भी है भेदनीति--प्रधान । उनकी पहली चेष्टा है मध्यपंथी दल के सरकारी कर्मचारियों को अपने कब्जे में ला, राष्ट्रीय दल का दलन कर, भारत का नवोत्थान विनष्ट या स्थगित करने का विफल प्रयास । सूरत अधिवेशन के समय यह विष-वृक्ष रोपा गया था । बंबई के
नेताओं ने भारतवासी के भविष्य, शक्ति या न्याय्य अधिकार के बारे में कभी भी उदार
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मत या उच्च आकांक्षा का पोषण नहीं किया । वे सहज ही संतुष्ट हो जाते थे । बंगाल के उत्थान व बॉयकाट-प्रचार के प्रभाव से उनकी आशा से कहीं ज्यादा शासन-सुधार हुआ है । वे उस नवोत्थान के फल को स्वायत्त कर बॉयकाट और वैध प्रतिरोध को विनिष्ट करने के लिये अतिशय व्यग्र हैं । सूरत अधिवेशन के पहले इस सुधार की संभावना उन्हें अविदित नहीं थी, किंतु वे जानते थे कि बॉयकाट-वर्जन और चरमपंथी दल का बहिष्कार नहीं कर पाने से यह सुस्वादु फल उनके मुख-विवर में नहीं गिरेगा । इन्हीं दो उद्देश्यों को ध्यान में रख कांग्रेस नागपुर के बजाय सूरत बुलायी गयी थी और कांग्रेस की कार्य-प्रणाली के संशोधन का प्रस्ताव रखा गया था; उद्देश्य-राष्ट्रीय दल खुद ही छोड़ने के लिये बाध्य होगा । सभापति डॉक्टर रासबिहारी घोष की वक्तृता भी इसी उद्देश्य से लिखी गयी थी । महामति तिलक, श्रीयुत अरविन्द घोष प्रवृत्ति राष्ट्रीय दल के नेता इस गुप्त अभिसंधि से अवगत हो कांग्रेस के कार्यकारी दल के कार्यो का तीव्र प्रतिवाद और बॉयकाट-नीति की रक्षा के लिये चेष्टा कर रहे थे । सूरत के तुमुल कांड में उनकी चेष्टा व्यर्थ गयी । सर फिरोजशाह मेहता ही विजयी हुए । आत्मदोष-क्षालन के समय राष्ट्रीय दल के नेताओं ने बंबई के मध्यपंथियों के विरूद्ध इस अभियोग की खुलेआम घोषणा की थी । किंतु मध्यपंथियों द्धारा चालित असंख्य पत्रिकाओं में गाली-गलौज की ऐसी रोल उठी कि सत्य की क्षीण ध्वनि उस कोलाहल में डूब गयी । हम अब सब देशवासियों से कह सकते हैं : देखिये मेहता--गोखले का कार्य-कलाप, समझिये क्या हम भ्रांत थे, हमने क्या झूठ कहा था, कि वास्तव में उनका वैसा ही कोई उद्देश्य था । इद भेदनीति ने बंबई के मध्यपंथियों को अनायास ही उद्भ्रांत कर दिया । बंगाल के नेता उस कुपथ पर नहीं चले, उन्होंने बॉयकाट की रक्षा की । स्वयं श्रीयुत भूपेंद्रनाथ वसु ७ अगस्त को सरकार की मिन्नत व भय-प्रदर्शन की प्रबल उपेक्षा कर बॉयकाट-उत्सव के सभापति बने थे । तिसपर 'बंगाली' ( 'Bengalee' ) पत्रिका ने बॉयकाट का प्रचार कर हममें आनंद और आशा का संचार किया है । यदि कभी ऐक्य की स्थापना संभव हुई, यदि मारले की भेदनीति विफल हुई, तो वह बंगालियों की ऐक्य-प्रियता और बॉयकाट की दृढ़ता से ही होगी ।
विष-वृक्ष की दूसरी शाखा
लार्ड मारले की दूसरी चेष्टा है राजनीतिक क्षेत्र में मुसलमान और हिन्दू संप्रदाय को पृथक्, करना । यही है भेदनीति का दूसरा अंग, शासन-सुधार का दूसरा विषैला फल । इसके लिये लार्ड ने गुप्त चेष्टा नहीं की, खुल्लम-खुल्ला वे भेदनीति का अवलंबन ले मुसलमान और हिन्दू में चिर शत्रुता की व्यवस्था कर रहे हैं । फिर भी व्यवस्थापक
सभा में निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या-वृद्धि से मध्यपंथी नेतागण ऐसे
मुग्ध और
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प्रलुब्ध हुए हैं कि इस अल्प लाभ की आशा में इतने भारी अनिष्ट का आलिंगन करने के लिये बढ़े चले जा रहे हैं । गोखले महाशय ने मुक्त कंठ से इस भेदनीति की प्रशंसा की है । उनके मत में लार्ड मारले हैं भारत के परित्राता । उनके मत में मुसलमानों का पृथक् प्रतिनिधि-निर्वाचन है न्याय्य और युक्तिसंगत । इससे जो मुसलमान और हिन्दू राजनीतिक जीवन की शक्ति स्वतंत्र और परस्पर विरोधी हो राष्ट्रीय कांग्रेस का मूलतत्व और भारत का भावी ऐक्य और शांति संपूर्णत: विनष्ट हो जायेगी यह सत्य गोखले महाशय जैसे लब्धप्रतिष्ठित राजनीतिज्ञ की बुद्धि से अगोचर नहीं हो सकता । तब किस निगूढ़ रहस्यमयी सूक्ष्म नीतिवश गोखले महाशय इस भेदनीति का समर्थन करने के लिये उत्साहित हुए हैं यह वे ही जाने । हमारे पूजनीय सुरेंद्रनाथ ने इस संबंध में विपरीत मत व्यक्त किया, फिर भी इस शासन-सुधार जैसे महान् अनर्थ का प्रतिवाद दृढ़ता से नहीं कर पाये । वरन् विलायत-प्रवास की प्रथम अवस्था में उन्होंने इस शासन-सुधार की अन्यथा और निराधार प्रशंसा की थी । इस सुधार में बंगालियों की लेश-मात्र भी आस्था नहीं । यदि कुछ एक बड़े लोग इस नूतन शासन-प्रणाली में योगदान करने के लोभ को नहीं छोड़ पाने के कारण देश के प्राकृत हित को भूल जाये तो इससे देश का कोई अकल्याण नहीं होने का । किंतु सुरेंद्रबाबू जैसे सर्वपूजित नेता इस विष-वृक्ष को सींचे तो इसे देश का नितांत दुर्भाग्य समझना चाहिये । जो भी इस सुधार में भाग लेंगे वे मारले की भेदनीति के सहायक होंगे, सांप्रदायिक विरोध के स्रष्टा व भारतभूमि की भावी एकता में बाधक बनेंगे । श्रीयुत सुरेंद्रनाथ इस भ्रांत नीति के अनुसरण के लिये कभी भी सहमत नहीं होंगे-यही है हमारी आशा ।
रीज़ के विषभरे उद्गार
रीज़ (Rees) 'नामक एक व्यक्ति' इस देश में सिविलियन थे । आजकल पार्लियामेंट के सदस्य हैं । उन्होंने ही एक बार भारतीय कृषकों के सुहृद होने का स्वांग भर विशेष बुद्धि का परिचय देते हुए कहा था--भारत में बाघ का शिकार करना अकर्तव्य है क्योंकि बाघ को मारने से हरिण की संख्या में वृद्धि होती है और हरिण शस्य को हानि पहुंचाते हैं ।
निर्वासन के बारे में इनके सारहीन भाषण से तंग आकर पार्लियामेंट के एक सदस्य ने परिहास करते हुए इनको ही निर्वासित करने का प्रस्ताव किया था । हाल ही में पार्लियामेंट में भारतीय बजट को आलोचना के समय इन्होंने कहा है, भारत में किसी भी तरह का आंदोलन वैध नहीं हो सकता । भारत के सारे संवाद-पत्र अंग्रेजों के प्रति
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ष से भरे हैं इन्हें कोई संदेह नहीं | इन्होंने कहा है--घोष नामक एक व्यक्ति
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ने (श्रीयुत अरविन्द घोष की ओर ही इनका निदेश है) बहुत ही कठिनाई से कारादण्ड से मुक्ति पायी है; आजकल वह युवकों से कह रहा है, जेल-यातना जितनी भयावह दीखती है असल में उतनी भयावह नहीं है; अन्तत: वे कापुरुष न बन बैठें । भारत सरकार जल्दी-से-जज्दी उसे निर्वासित करे । ऐसी उक्ति से जो नीचता स्वप्रकाशित है उसका उत्तर देने की हमारी प्रवृत्ति नहीं होती । इसके बाद उनका कहना है सुरेन्दनाथ बन्धोपाध्याय बॉयकाट की घोषणा कर रहे हैं । जिन लोगों ने निरन्तर वाणिज्यनीति का समर्थन कर पार्लियामेंट में सदस्य का पद पाया है वे क्या यह नहीं जानते कि बॉयकाट का अर्थ है--भारत में अब विलायत से जूते और शराब नहीं जा पायेंगे ? कितना भयानक ! धींगड़ा जैसे युवकगण किस तरह बिगड़ जाते हैं कहते हुए रीज़ बताते हैं--उसके पास 'सिक्खों का बलिदान' नामक एक पुस्तक है । उसकी लेखिका है एक निर्वासित की कन्या (श्रद्धेय श्रीयुत कृष्णकुमार मित्र महाशय की कन्या श्रीमती कुमुदिनी मित्र) । वह है एक राजद्रोही संवाद-पत्र ('संजीवनी') का संपादक । सुरेन्दनाथ हर बंगाली विघार्थी के हाथ में यह पुस्तक देना चाहते हैं ऐसा कह 'सिक्खों का बलिदान' की प्रशंसा की है उन्होंने । रीज़ की विधा-बुद्धि से हम अपरिचित नहीं । विलायत में भारत-विशेषज्ञों को दौड़ की परिधि क्या है यही दिखाने के लिये रीज़ का उल्लेख किया । सिक्खों के आत्मबलिदान की महिमा को समझना रीज़ जैसे लोगों की बुद्धि के परे है । भारतचन्द्र ने ठीक ही कहा है--भेड़ के सींग पर हीरा गिरने से हीरा ही टूटता है ।
अंक ३
भाद्र २१, १३१६
शासन-सुधार
शासन-सुधार मान लेने पर जो कुफल फलेगा वह पिछली बार कहा जा चुका है और देशवासी भी उससे अविदित नहीं । ऐसे में यदि कोई यह कहे कि हम इस सुधार में दोष दिखायेंगे किंतु उसमें जो कुछ सुविधाएं हैं उन्हें क्यों छोड़ दे तो हम उनकी बुद्धि और राजनीति-ज्ञान की प्रशंसा नहीं कर सकते । जो दोष वे दिखायेंगे वे सरकारी कर्मचारी की बुद्धि से अगोचर नहीं, उन्होंने अनजाने इस सुधार में दोष को ला घुसाया है, ऐसा भी नहीं । वे पहले से ही जानते थे कि इन दोषों का प्रतिवाद किया जायेगा, किंतु वे चाहते हैं कि प्रतिवाद करके भी देश के नेता इस सैन्य-सुधार का प्रत्याख्यान न करें, ऐसा हो जाये तो उनकी अभिसंधि सफल होगी । दोष-सुधार की उनकी इच्छा
नहीं, क्योंकि दोष उनकी युक्ति के अनुसार दोष नहीं, है सुधार का मुख्य गुण | इस
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सुधार से स्वाधीनता-लुब्ध देशवासियों की शक्ति नहीं बढ़ेगी । वे खुद ही हिन्दु--मुसलमान के विरोध में चिर-संघर्षरत दो शक्तियों के युद्ध में मध्यस्थ और देश के हर्ता-कर्ता बन विराजेंगे । उनकी यह नीति दोषावह नहीं, प्रशंसनीय है । वे ठहरे देशहितैषी, स्वदेश-हित, शक्ति-वृद्धि व साम्राज्य-रक्षा का उपाय खोज रहे हैं । यह नीति उदार नीति नहीं, किंतु उदार नीति यदि स्वदेश की अहितकर विवेचना करे तो अनुदार नीति का अवलंबन करना ही है देशहितैशी का योग्य पथ । देश के कल्याण के लिये निरपेक्ष रह कर हम उदार नीति का अवलंबन लेते, देश-हितैषिता के त्याग में जगत्-हितैषी होने का स्वांग भरते । अब हम भी देखें स्वदेश-हित, शक्ति-वृद्धि और जीवन-रक्षा का पथ । पहले देश बचे, जगत् के हित व उदारनीति के आचरण का यथेष्ट अवसर तो मिलता रहेगा ।
हुगली प्रादेशिक समिति
इसी बीच हुगली में प्रादेशिक समिति का अधिवेशन शुरू हो चुका है; उसका फलाफल निश्च्चिततया जान लेने के पहले समिति के आलोच्य विषय के बारे में कुछ कहना अनावश्यक है । यह वर्ष है भूत-भविष्य का संधि-स्थल । समिति के कार्य-फल पर बहुत कुछ निर्भर करता है बंगाल का भविष्य । प्रबल दमन-नीति के प्रारंभ होने से सारा देश चुप्पी साधे हुए है । बंगाल की नवोदित शक्ति व साहस युवकों के हृदय में छिप गये हैं और शुरू हुआ है भीरुओं के परामर्श से देशवासियों का स्मृति-भ्रंश और बुद्धिलोप । कहां तो दमन-नीति का वैध पर साहसपूर्ण प्रतिरोध कर उस नीति को विफल करना था, वह तो किया नहीं वरन् भय से और राजनीतिज्ञान-रहित विज्ञतावश निश्चेष्ट व नीरवता को श्रेष्ठ पथ मान प्रचारित किया, इससे दमन-नीति सफल हुई, सरकार ने समझा कि हमने एक अमोघ अस्त्र का आविष्कार किया । इस निश्चेष्टता व नीरवता से देशवासियों के मन-प्राण अवसादग्रस्त और उदासीन हुए जा रहे हैं, राष्ट्रीय शिक्षा का अंतिम परिणाम अति शोचनीय होता जा रहा है, बॉयकाट के बल के क्षीण पड़ जाने से विलायती माल का क्रय-विक्रय तेजी से बढ़ रहा हे, पिछले पांच साल की सारी चेष्टा व उघम शक्तिहीन और विफल हुए जा रहे हैं । नेता हृदय में साहस बटोर देश का प्रकृत नेतृत्व करने में अक्षम हैं, कन्वेन्शन-नीति की ममता और शासन-सुधार का मोह त्यागना नहीं चाहते, मुंह से तो हैं प्रकृत राष्ट्रीय कांग्रेस के पक्षपाती, पर कार्य में उसकी पुनःसृष्टि का कोई आयोजन नहीं करते, शासन-सुधार को ग्रहण करने से भी डरते हैं, प्रत्याख्यान करने पर भी प्राण रो उठता है । ऐसी अवस्था में जो देश के लिये अपना पूरा जीवन उत्सर्ग करने को प्रस्तुत हैं, जो भय से परिचित
नहीं, भगवान् और बंगजननी को छोड़ किसी और को न मानते हैं, न जानते हैं, वे यदि
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आगे न बढ़ें तो बंगाल का भविष्य अंधकारमय होगा । यदि हम प्रादेशिक समितियों में देश की लाज और भारत की भावी आशा की रक्षा कर सके तो पथ बहुत कुछ प्रशस्त हो सकेगा । तबतक राह देख रहा हूं । नहीं तो अपना पथ आप ही साफ कर भयार्त और दमन-नीति से विक्षुब्ध देश के प्राण बचाने होंगे ।
दैनिक पत्र का अभाव
राष्ट्रीय दल की शक्ति बहुत दिनों से अंतर्निहित पड़ी थी, पुन: वह विकसित हो रही है । किंतु उस शक्ति के विकास के लिये उपयोगी साधन के अभाव में पूर्ण कार्य-सिद्धि असंभव है । हम यथासाध्य आर्य-धर्म और धर्मसम्मत राजनीति का प्रतिपादन कर इस विकास में सहायता करने को प्रवृत्त हुए हैं, किंतु साप्ताहिक पत्रों द्धारा यह कार्य संतोषजनक नहीं होने का । विशेषत: हमारे राजनीतिक जीवन में दैनिक पत्र का अभाव एक गुरुतर अभाव है । जो दिन-व-दिन घट रहा है, उसे तुरत ही लोगों को बता उस संबंध में राष्ट्रीय दल का मत या कर्तव्य उनके सामने उपस्थित न कर पाने से हमारी चेष्टा में तीव्र तत्परता और क्षिप्रता नहीं आ सकती । उस दिन कालेज स्क्वायर में एक स्वदेशी सभा हुई थी, उसका वर्णन और भाषण का सारांश एक सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक पत्र में दिया गया था, किंतु पत्र के कर्ता उसे छापने से इंकार कर गये । उस सभा में श्रीयुत अरविन्द घोष ने अध्यक्ष पद से वक्तृता दी थी एवं बार-बार बॉयकाट का उल्लेख किया था, शायद इसीलिये कर्मचारी भीत या विरक्त हुए, यह भय या विरक्ति स्वाभाविक है, आजकल बॉयकाट शब्द का जितना कम उल्लेख ही उतना ही व्यक्तिगत मंगल संभव है । बॉयकाट प्रचार के लिये स्वतंत्र दैनिक पत्र की आवश्यकता प्रतिदिन महसूस हो रही है ।
मजलिस के सभापति मेहता
सभा होगी कि नहीं कुछ ठीक नहीं । किंतु सभापतित्व को के विषम समस्या उठ खड़ी हुई है । इस बार मद्रास कन्वेन्शन की पुनरावृत्ति लाहौर में होने की बात है । किंतु लाहौर के देश-भक्त देश-सेवा के इस बनावटी नाटक को प्रश्रय देने के लिये तैयार नहीं । देश जिन्हें मानता नहीं, देश के साथ जिनका संपर्क नहीं, ऐसे दस-पांच मूर्धन्य व्यक्ति देश के लोगों के नाम पर डिग्री डिसमिस करें, क्या कोई भी बुद्धिमान् इसका अनुमोदन कर सकता है ? खैर । अब सभापति की बात लें । इस संबंध में
'भारत मित्र' ने ठीक कहा है-दूसरी कांग्रेस के पक्षपाती लाहौर के आगामी
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में मद्रास के नवाब सैयद मुहम्मद को सभापति बनाना चाहते हैं । पर नवाब साहब इस सम्मान-ग्रहण के इच्छुक नहीं । अब पंजाब की कांग्रेस कमेटी सर फिरोजशाह मेहता को सभापति बनाना चाहती है--मेहता के सहमत न होने पर अगत्या सुरेन्दबाबू । 'भारत मित्र' कहता है=-हमारा कहना है जैसे भी हो मेहता साहब को ही सभापति बनाना उचित है । वे ही हैं खंडित कांग्रेस के जन्मदाता । अतः कांग्रेस का सभापतित्व (?) जैसा उन्हें शोभा देता है वैसा किसी और को नहीं । लोग अभी से खंडित कांग्रेस को मेहता मजलिस कहने लगे हैं ।
अंक ४
भाद्र २८, १३१६
असंभव का अनुसंधान
हुगली में प्रादेशिक कांग्रेस का जो अधिवेशन हो चुका है उसमें सभापति श्रीयुत बैकुंठनाथ सेन राष्ट्रीय दल को अधीर और असंभव आदर्श की खोज में संलग्न कहने से बाज नहीं आये । जिन्होंने अधिवेशन का कार्य-विवरण देखा है वे अवश्य ही स्वीकार करेंगे कि मध्यपंथियों ने ही अधीरता का परिचय दिया है; राष्ट्रीय दल के विरुद्ध अधीरता के अभियोग का कोई कारण नहीं । हुगली में राष्ट्रीय दल की ही संख्या अधिक थी इसमें संदेह नहीं; फिर भी विरोध-वर्जन के उद्देश्य से राष्ट्रीय दल की ओर से श्रीयुत अरविन्द घोष स्वावलंबन व निष्किय प्रतिरोध का समर्थन कर शांत हो गये थे । यह भी यदि अधीरता हो तो शायद धीरज है जड़ता का नामांतर-मात्र । असंभव आदर्श के बारे में हम इतना ही कह सकते हैं कि जो वर्तमान की संकीर्ण सीमा के बाहर कुछ भी देखना नहीं चाहते, देख भी नहीं सकते, वे भविष्य के चिंतन में मत्त भावुकों को सदैव असंभव आदर्श के संधान में लगे कहकर उनका उपहास करते हैं । जो कर्मवीर संकट के समय विशेष विचार व विवेचना कर भावी उन्नति की नींव की स्थापना में सक्षम हैं उनके भाग्य में भी ऐसा ही उपहास बदा होता है । फल के विषय में अनजान रह प्रतीक्षा करना है जड़त्व, यह बुद्धि का परिचायक नहीं । वहां स्थैर्य है मूढ़ का काम । गति ही है जीवन । भारत में मध्यपंथी संप्रदाय की अकारण भीति ही हो उठी है राष्ट्रीय उन्नति में बाधक । समग्र प्राच्य भूखंड में जो जागरण, जो उन्नति की आकांक्षा, जो आवेग आया है जापान, फारस और टर्की में उसका प्रमाण मिल गया है । भारत के बड़े लाट मिंटो ने भी माना है कि इस प्रवाह का प्रतिरोध करना मनुष्य के वश का नहीं । फिर भी मध्यपंथी इसे नहीं समझते । या समझकर भी नहीं समझते कि
सर्वत्र ही, सुधार में, जनशक्ति का आत्मा-विकास दिख रहा है | सिर्फ भारत में ही
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प्रतीक्षा का आदेश प्रतिध्वनित हो रहा है । यह आदेशदाता हैं लार्ड मारले, सारा जीवन जनशक्ति का समर्थन कर जीवन की सहायता में भारतवर्ष को चिरकाल के लिये जड़-जीवन यापन करने का आदेश दिया है उन्होंने । इस अवस्था में राष्ट्रीय दल की उन्नति-चेष्टा उपहासास्पद है या मध्यपंथियों की पर-निर्भरता और जड़ता उपहासास्पद है ?
योग्यता-विचार
भावुकतावश शायद सभापति महाशय ऐंग्लो-इंडियनों की बात पर अयथा विश्वास कर मानते हैं कि हम आज भी स्वायत्त-शासन के योग्य नहीं । स्वायत्त-शासन संबंधी प्रस्ताव की आलोचना के समय एक वक्ता ने भी यही कहा था ! हमें अनुपयुक्त कहने के सिवा ऐंग्लो-इंडियनों के पास अपने स्वेच्छाचार समर्थन का दूसरा कोई उपाय ही नहीं । ऐसी अवस्था में ऐंग्लो-इंडियनों की स्वार्थ-समर्थक युक्ति स्वाभाविक और संगत है । किंतु भारतवासियों के लिये इस युक्ति को ग्रहण करना है अस्वाभाविक और असंगत । ग्लैडस्टोन ने कहा है : स्वाघीनता-उपभोग ही मनुष्य को स्वाघीनता के उपयुक्त बनाता है । स्वायत्त-शासन-उपभोग को छोड़ स्वायत्त-शासन के उपयुक्त बनने का दूसरा उपाय नहीं । हम जानते हैं कि स्वायत्त-शासन पाने पर पहले-पहल भ्रम व प्रमाद का होना अनिवार्य है । सभी देशों में ऐसा ही हुआ है । जापान को भ्रम हुआ है । टर्की व फारस अब भी भ्रम में हैं । ऐसा मान स्वायत्त-शासन के पथ पर अग्रसर न होना उन्नति का पथ चिरकाल के लिये अवरुद्ध करना है एक ही बात । उन्नीसवीं शताब्दी की भ्रांत शिक्षावश हमने अपने-आपको सारहीन और अयोग्य मानना सीखा था । आज वह भ्रम टूट गया है । आज हमने समझ लिया है--इस राष्ट्र का जीवन-स्पंदन रुक नहीं गया है, यह राष्ट्र जीवित है । यह अनुभूति ही राष्ट्रीय उन्नति के लिये यथेष्ट है । यह अनुभूति ही हमें उन्नति के पथ पर आरूढ़ कर राजनीति-क्षेत्र में, मुक्ति-लाभ में सक्षम बनायेगी । आज जब उन्नति का आरंभ हो चुका है तब योग्यता--विचार का बहाना बना उन्नति की गति बंद कर शिथिल पड़ जाना मूढ़ का काम है । आज राष्ट्रीय जीवन में जो सभय उपस्थित है उस समय को गति के रुद्ध हो जाने पर हम उन्नति के पथ में पिछड़ जायेंगे; आगे नहीं बढ़ सकेंगे । अतः हमें अग्रसर ही होना होगा, शंका या संदेह से विचलित न हो स्थिर और धीर कदमों से कर्तव्य-पथ पर बढ़ते जाना ही है आज हमारा कर्तव्य ।
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चांचल्य-चिन्ह
हमारे कोई-कोई विज्ञ मध्यपंथी ऐसी बात भी कहते हैं कि आजकल किसी-किसी सभा में कुछ-कुछ गड़बड़ी होती है; इससे राजनीतिक अधिकार की प्राप्ति में हमारी अयोग्यता ही सिद्ध होती है । ये भी उनके अपने मौलिक शब्द नहीं; ये हैं कपटाचारी ऐंग्लो-इंडियनों के मत की प्रतिध्वनि-भर । जो ऐंग्लो-इंडियन ऐसा मत प्रकट करते हैं हम उन्हें कपटाचारी कहते हैं, कारण वे निश्चय ही जानते हैं कि विलायत की राजनीतिक सभा-समिति में जैसा हुड़दंग मचता है भारत की सभा-समिति में उसका शतांश भी घटित नहीं होता । धीर प्रकृति भारतवासी वैसे व्यवहार के लिये नितांत अनभ्यस्त हैं । हमारे देश में, सभा-समिति में हुड़दंग के ये दो ही प्रधान द्रष्टांत देखे जाते हैं--सूरत में सुरेन्दनाथ की बातों पर किसी ने कान नहीं दिया, वे वक्तृता बंद कर बैठ जाने के लिये बाध्य हुए थे, और सूरत में ही श्रीयुत बाल गंगाधर तिलक पर मध्यपंथियों के प्रहार के लिये उधत होने पर भीषण हुड़दंग मचा था । इंग्लैंड में ऐसी घटनाएं आम होती रहती है । किसी विश्वविधालय लय की सभा में प्रधानमंत्री मिस्टर बैलफोर उधम के कारण भाषण नहीं दे पाये थे, अंत में दो छात्रों ने नारी-भेष में मंच पर आ उन्हें जूतों की माला उपहार में दी । उन्होंने हंसते-हंसते उस उपहार को स्वीकार। । और एक बार छात्रदल किसी वक्ता की वक्तृता से असंतुष्ट हो मारा-मारी पर उतर आये और पुलिस पर उग्र प्रहार किया । विचार करने पर छात्रों को किसी भी तरह की कोई सजा नहीं हुई । निश्चय ही हम यह नहीं कहना चाहते कि हमारे देश के राजनीतिक आंदोलन में, सभा-समिति में ऐसे चांचल्य की शुरुआत हो । हम कहना यह चाहते हैं कि इस तरह के चांचल्य से स्वायत्त-शासन-प्राप्ति में हमारी अयोग्यता सिद्ध नहीं होती; वरन यह है जीवन का लक्षण । इससे तो यह सिद्ध होता है कि हम युग-व्यापी जड़त्व-शाप से मुक्त हो नवीन उधम के साथ, नवीन शक्ति के साथ नूतन कार्य-क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं ।
हुगली का परिणाम
हुगली में हुए प्रादेशिक कांग्रेस के अधिवेशन द्धारा राष्ट्रीय पक्ष का पथ काफी साफ हो गया .है । मध्यपंथियों का मनोभाव उनके आचरण से जाना गया, राष्ट्रीय पक्ष का प्राबल्य भी सभी के अनुभव में आया । बंगाल राष्ट्रीय भाव से परिपूर्ण हो उठा है इसमें रत्तीभर भी संदेह नहीं । अनेकों को संदेह था कि हुगली में राष्ट्रीय पक्ष की दुर्बलता और संख्या की अल्पता ही अनुभव होगी । किंतु ऐसा नहीं हुआ, वरन् वर्ष-भर के दलन और निग्रह से इस दल की ऐसी अदभुत शक्ति-वृद्धि हुई और तरुण दल हृदय में
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ऐसा गभीर राष्ट्रीय भाव व दृढ़ साहस पनपा है कि देखकर प्राण आनंदित और प्रफुल्लित हो उठे । सिर्फ कलकत्ता या पूर्व बंगाल से ही नहीं, चौबीस परगना, हुगली, हावड़ा, मेदनीपुर आदि पश्चिम बंगाल के सभी जिलों से राष्ट्रीय पक्ष के प्रतिनिधि समिति में आये थे । एक और शुभ लक्षण, शृंखला और नेताओं की आज्ञा की अनुवर्तिता, जो तेजस्वी और भावप्रवण नवीन दल के लिये सहज साध्य नहीं पर है विशेष प्रयोजनीय, हुगली में देखा गया । राष्ट्रीय पक्ष के नेता कभी भी मध्यपंथी नेताओं को तरह स्वेच्छा से कार्य चलाने के इच्छुक नहीं होंगे । दल के साथ परामर्श कर गंतव्य पथ का निर्णय करेंगे, परंतु एक बार पथ निश्चित हो जाने पर नेता पर पूर्ण विश्वास है आवश्यक । यह विश्वास यदि डिग जाये तो नया नेता मनोनीत करना श्रेयस्कर है, किलु कार्य के समय, अपनी बुद्धि न चला, प्रत्येक को एक प्राण हो नेता की मदद करना उचित है । पथ का निर्णय, स्वाधीन चिंतन और बहुमत से निर्णीत पथ पर सेना की तरह श्रुंखला और बाध्यता हैं प्रजातंत्र में कार्य-सिद्धि का प्राकृत साधन । हुगली अधिवेशन में पहले यही उपलब्धि हुई कि राष्ट्रीय पक्ष वर्ष-भर के दमन और भय-प्रदर्शन से अधिक बलान्वित और श्रुंलाबद्ध हुआ है । यही है इतने दिनों तक अंतर्निहित शक्ति का विकास ।
दूसरा फल है मध्यपंथियों के मनोभाव का कार्य में प्रकट होना । वे शासन-सुधार के प्रस्ताव को मानेंगे चाहे वह सुधार निर्दोष हो या सदोष, देश के लिये हितकर हो या अहितकर, वह 'सुधार' नाम सै अभिहित है अतः मान्य है, पहले की कांग्रेस का चिरवांछित दुर्लभ स्वप्न है अत: मान्य है; वह है लार्ड मारले की प्रसूत मानस-संतान अत: अन्य है; इसके अलावा वह है मारले-रिपन-प्रसूत स्थानीय स्वायत्त-शासन को ले आने के लिये प्रतिज्ञाबद्ध अतः मान्य है । इससे राष्ट्रीय एकता की आशा टूटे या न टूट, नेताओं का स्वप्न नहीं टूटने का । बॉयकाट को विषरहित प्रेममय स्वदेशीयता में परिणत करना भी है नेताओं की दृढ़ अभिसंधि । स्वयं सभापति महाशय ने शेक्सपीयर का प्रमाण दे बॉयकाट का बॉयकाट करने की सलाह दी है; बाद में मारले-मॉडरेटों के मिलन-मंदिर में विद्धेष-वहिन्न घुस कहीं सब भस्ममात् न कर दे । और यह भी पता लगा कि मध्यपंथी नेता वैध प्रतिरोध का परित्याग करने के लिये कृतसंकल्प हैं । वास्तविक मिलन जब हो चुका है, शासन-सुधार जब स्वीकारा जा चुका है, तब प्रतिरोध को आवश्यकता ही कहां रह गयी ? विपक्षी-विपक्षी में प्रतिरोध संभव है, प्रेमी-प्रेमी में अनुनय करना, रूठना या क्षणिक मनोमालिन्य ही शोभा देता है । इस पुरातन नीति के पुन: संस्थापन का फल हुआ-नेता कन्वेन्शन का और भी दृढ़ आलिंगन कर बैठे हैं । मद्रास में बॉयकाट का वर्जन करने से सुरेंद्रनाथ कन्वेन्शन का त्याग करेंगे कुछ-एक लोगों की यह ऐसी आशा टूट गयी । केवल एक विषय में अब भी संदेह है, राष्ट्रीय कांग्रेस का पुनः संस्थापन संभव है या असंभव ? एक तरफ प्रादेशिक समिति
के अधिवेशन में देखा गया की सभा में पूर्ण राष्ट्रीय भाव का प्रकाशक कोई प्रस्ताव
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स्वीकृत होने पर हम समिति को तोड़ खिसक जायेंगे, यही हुआ है मध्यपंथियों का दृढ़ संकल्प । ऐसा हुआ तो प्रकृत ऐक्य असंभव है । क्या है इसका तात्पर्य ? पूर्ण राजभक्ति प्रकाशक कोई भी प्रस्ताव उपस्थित होने पर राष्ट्रीय पक्ष उसे स्वीकारने के लिये बाध्य होगा, जितनी भी निष्फल प्रार्थना, प्रतिवाद और निवेदन हैं सब स्वीकारने के लिये बाध्य होगा, लेकिन पूर्ण राष्ट्रीय भाव-व्यंजक प्रस्ताव स्वीकृत नहीं हो सकता । इस शर्त पर कोई भी प्रबल व वर्धनशील दल समिति में रहना नहीं चाहेगा, विशेषत: जिस दल की संख्या में स्थायी रूप से वृद्धि हुई है । दूसरी तरफ राष्ट्रीय पक्ष के आग्रह से दो दलों की एक कमेटी बनी है । राष्ट्रीय कांग्रेस में ऐक्य-स्थापना है उसका उद्देश्य । सदस्यों में हैं चार मध्यपंथी--श्रीयुत सुरेंद्रनाथ, श्रीयुत भूपेंद्रनाथ बसु, श्रीयुत बैकुंठनाथ सेन और श्रीयुत अंबिकाचरण मजूमदार और चार राष्ट्रीय दल के--श्रीयुत अरविन्द घोष, श्रीयुत रजतनाथ राय, श्रीयुत जितेंद्रलाल वंधोपाध्याय और श्रीयुत कृतांतकुमार बसु । ये यदि एकमत हो सकें तो राष्ट्रीय महासभा का ऐक्य-संस्थापन चेष्टा द्धारा हो सकता है । चेष्टा करने पर भी ऐक्य साधित होगा ही यह नहीं कहा जा सकता; कारण यदि मेहता व गोखले असहमत हो या वर्तमान सिद्धांत और कार्य-प्रणाली को बिना आपत्ति के मान लेने को कहे तो मध्यपंथी नेताओं के लिये उनका परित्याग कर राष्ट्रीय महासभा के संस्थापन में प्रयत्नशील होना असंभव है ।
ऐसी अवस्था में एकता है असंभव, किंतु जो क्षीण आशा अब भी बची हुई है राष्ट्रीय पक्ष उसे ही पकड़े है, उसी आशा से संख्या में अधिक होने पर भी उन्होंने सभी विषयों में मध्यपंथियों के सामने स्वेच्छा से हार मान ली है । ऐसा त्याग-स्वीकार व आत्म- संयम सबल पक्ष ही दिखा सकता है । जो अपने बल को जानते हैं वे उस बल का प्रयोग करने के लिये सदा व्यग्र नहीं होते । हम सूरत अधिवेशन में धैर्यच्युत हो गये थे, बंबई के नेताओं का अन्याय, अविचार और अपमान सहकर भी अंत में धैर्य टूट जाने से उस आत्म-संयम का फल नहीं पा सके । उस दोष के प्रायश्चित-स्वरूप हुगली में हमने प्रबल होते हुए भी दुर्बल मध्यपंथी दल का सारा दावा सहकर, एकता की वह क्षीण आशा हमारे दोष से विनष्ट न हो जाये-इसी को एकमात्र लक्ष्य बना प्रादेशिक समिति को अकाल मृत्यु के हाथ से बचाया । देश के आगे हम दोषमुक्त हुए, भावी वंशधरों के अभिशाप से मुक्त हुए, यही है हमारे आत्म-संयम का यथेष्ट पुरस्कार । कांग्रेस की एकता साधित होगी या चिरकाल के लिये विनष्ट होगी, यह है भगवान् की इच्छा के अधीन, हमारी नहीं । हम मत-सिद्धांत को नहीं सहेंगे, जो कार्य-प्रणाली देश की अनुमति न ले प्रचलित की गयी है, देश के प्रतिनिधि जबतक सभा में प्रकटरूप से उसे स्वीकार नहीं कर लेते तबतक हम भी स्वीकार नहीं करेंगे । इन दो विषयों में हम कृतनिश्चय हैं, इसके अलावा हमारी तरफ से कोई भी बाधा होने की संभावना नहीं । बाधा यदि हुई तो वह अपर पक्ष से होगी ।
पर हम क्षीण आशा पर निर्भर रह निश्चेष्ट नहीं बैठे रह सकते | कब किस
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अतर्कित दुर्विपाक से बंगाल का ऐक्य छिन्न-भिन्न होगा, कोई ठीक नहीं । महाराष्ट्र, मद्रास, संयुक्तप्रांत और पंजाब के राष्ट्रीय दल हमारे मुंह की ओर ताकते बैठे हैं । बंगाल है भारत का नेता, बंगाली की दृढ़ता, साहस व कर्म-कुशलता से होगा सारे भारत का उद्धार, नहीं तो होना है असंभव । अतएव हम राष्ट्रीय दल का आह्वान करते हैं कि अब फिर से कार्य-क्षेत्र में उतरें । देश-हित प्राणों का उत्सर्ग करनेवाले साधकों को भय, आलस्य और निश्चेष्टता शोभा नहीं देती । देश-भर में राष्ट्रीय भाव प्रबलतया जाग्रत हो रहा है, पर कर्मद्धार प्रकृत आर्य संतान का परिचय न दे पाने से वह जागरण, वह प्राबल्य, वह ईश्वर का आशीर्वाद स्थायी नहीं होगा । भगवान ने कर्म के लिये, नवयुग के प्रवर्तन के लिये राष्ट्रीय दल की सृष्टि की है । इस बार केवल उत्तेजना व साहस नहीं, धैर्य, सतर्कता और सुव्यवस्था आवश्यक है । भगवान् की शक्ति बंगाल में धीरे--धीरे अवतरित हो रही है; इस बार सहज ही तिरोहित नहीं होगी । अयाचित भाव से देश-सेवा करें, परमेश्वर का आशीर्वाद हमारे साथ है । हृदय-स्थित ब्रह्म जाग उठे हैं, भय और संदेह की उपेक्षा कर धीरज से गंतव्य पथ पर अग्रसर हों ।
अंक ५
आश्विन ४, १३१६
श्रीहट्ट जिला समिति
राष्ट्रीय भावना के प्रसारण और उसकी आशातीत वृद्धि से मैं हुगली में अवगत हुआ था, किंतु श्रीहट्ट जिला समिति में इसकी पराकाष्ठा देखी गयी । पूर्व अंचल के इस सुदूर प्रांत में मध्यपंथी का नाम-निशान तक नहीं रह गया है, वहां राष्ट्रीय भावना ही है अक्षुण्ण व प्रबल । श्रीहट्टवासी भारतबंधु बेकर के राम-राज्य में वास नहीं करते, फिर भी दमन-नीति के जन्य-स्थान में समिति का आयोजन कर स्वराज्य का नाम लेने से डरे नहीं, सर्वांगीण बॉयकाट करने में साहस दिखाया, आवेदन-निवेदन-नीति को त्याग आत्म-शक्ति व वैध प्रतिरोध का अवलंबन ले तदनुयायी सारे प्रस्तावों की उन्होंने रचना की । श्रीहट्ट जिला समिति में स्वराज्य धर्मत: प्रत्यक राष्ट्र का प्राप्य है, ऐसी घोषणा की गयी है, समिति ने देशवासियों को स्वराज्य-प्राप्ति के लिये सर्वविध वैध साधनों का प्रयोग करने के लिये आह्वान किया है । इस अधिवेशन में कई नये लक्षण देखे । पहला, समिति ने राजनीति के संकीर्ण घेरे से बाहर निकल आने का साहस दिखा विलायत-यात्रा की प्रशंसनीयता का प्रचार किया है और समाज से अनुरोध किया है कि राष्ट्रीय भावापन्न विलायत-प्रत्यागत लोगों को समाज में के लिया जाये ।
इसपर विषय-निर्वाचन समिति में काफी वाद-विवाद हुआ किंतु मतामत देने के समय
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सब मिलाकर ग्यारह विलायत-यात्रा-विरोधियों को संख्या ग्यारह ही रही, अधिक नहीं बढ़ी । प्रतिनिधियों में भी इनकी संख्या बहुत थोड़ी थी । पांच सौ प्रतिनिधियों में प्रायः चालीस व्यक्ति प्रस्ताव के विरुद्ध थे । शत-शत कंठों से गगनभेदी ''वंदे मातरम्' ' की ध्वनि के साथ प्रस्ताव पारित हुआ । दूसरा, अधिवेशन के समय इस प्रस्ताव के अलावा और किसी भी प्रस्ताव-पारण के समय भाषण नहीं हुआ । प्रस्तावक, अनुमोदक और समर्थक सभी ने बिना भाषण के अपना-अपना कार्य संपादित किया । तीसरा, अधिवेशन शहर में न हो जल-प्लावित जलसुका गांव में हुआ । चौथा, सभापति के आसन पर लब्ध-प्रतिष्ठित वकील या व्याख्याता राजनीतिक वक्ता विराजमान न हो एक सुपंडित, धार्मिक, संन्यासीतुल्य , निष्ठावान, धोती-चादर परिहित, रुद्राक्षमाला-शोभित ब्राह्मण उस आसन को ग्रहण करने के लिये सर्व-सम्मति से निर्वाचित हुए थे । इन सुलक्षणों को देखते हुए भला किसके मन में आशा व आनंद का संचार नहीं होगा ? अशिक्षित जन-समूह अभी भी आंदोलन में पूर्णत: योग नहीं दे पाया है । शिक्षा के अभाव में वैसा योगदान है दु:साध्य । किंतु आंदोलन ने कतिपय अंग्रेजी भाषाविज्ञ वकील, डॉक्टर, संवाद-पत्रों के संपादक और शिक्षकों में ही आबद्ध न हो सारे शिक्षित संप्रदाय को आकृष्ट और आत्मसात् किया है । जमींदार, व्यापारी, ब्राह्मण, पंडित, शहरी, ग्रामीण कोई भी नहीं बचा । यही है आशा की बात ।
प्रजाशक्ति और हिन्दू समाज
विलायत-यात्रा को क्यों शुभ बतलाया है इसका संक्षिप्त विवरण देना उचित है, इस संबंध भें अब भी मतैक्य नहीं, अत: बहुतों की यह धारणा है कि ऐसी सामाजिक बात को न उठाना ही है श्रेयस्कर । पांच साल पहले हम भी इस आपत्ति को युक्तिसंगत मानते । अब भी यदि राष्ट्रीय कांग्रेस में यह प्रश्न आलोचित होता तो हम उसे अमान्य कर देते । स्वदेशी आंदोलन के पहले कई अंग्रेजी-शिक्षित विलायती रंग में रंगे सज्जनों को छोड़ सारा शिक्षित समाज राजनीतिक सभा के अधिवेशन में भाग नहीं लेता था । ये हिन्दू समाज-संबंधी जटिल प्रश्नों को विचारने के अधिकारी नहीं थे, उन प्रश्नों की मीमांसा करने पर हास्यास्पद होते थे । हिन्दू समाज के क्रोध व घृणा के पात्र बनते थे । जो सामाजिक समिति कांग्रेस के अधिवेशन-स्थल पर बैठती वह भी इसी तरह अनधिकार चर्चा करती । समाज ही समाज की रक्षा और समाज का सुधार कर सकता है । जो हिन्दू-धर्म मानते हैं वे ही हिन्दू समाज के पुनरुज्जीवन और धर्म- संस्थापन के व्रती हो सकते हैं ? किंतु जो इस समाज की उपेक्षा कर हिन्दू-धर्म का मखौल उड़ाते हैं उनके द्धारा सुधार का प्रश्न उठाये जाने पर उस चेष्टा को अनधिकार
चर्चा के सिवा और भला क्या कहें ? सारा हिन्दू समाज अब भी कांग्रेस में भाग नहीं
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ले रहा है, अत: कांग्रेस ऐसा कोई प्रस्ताव स्वीकारने की अधिकारिणी नहीं । पर बंगाल की अवस्था दूसरी है । निष्ठावान् हिन्दू ब्राह्मण पंडित, गैरिक वसनधारी संन्यासी तक ने राजनीतिक आंदोलन में भाग लेना आरंभ कर दिया है । किंतु अब हिन्दू समाज की रक्षा का उपाय न करने से नहीं चलेगा । पाश्चात्य शिक्षा के आक्रमण से हमारा सब कुछ चकना-चूर हो रहा है । आचार-विचार हैं आजकल पाखंड-मात्र । धर्म में जीवंत आस्था व विश्वास अबतक लुप्त न होने पर भी कम तो हो ही गया है । मुसलमानों व ईसाइयों की संख्या बढ़ रही है और हिन्दुओं की तेजी से घटती जा रही है । पहले समयोपयोगी और अब अनिष्टकारी कुछ प्रथाओं में अनुचित ममतावश राष्ट्र की उन्नति और महत्व की प्राप्ति स्थगित हो गयी है । पहले जब हिन्दू राजा थे, राजशक्ति ही ब्राह्मणों के परामर्श व सहायता से समाज की रक्षा और समयोपयोगी समाज-सुधार करती थी । वह राजशक्ति लुप्त हो गयी है; उसके शीघ्र ही पुन: संस्थापित होने की आशा भी नहीं । पर हां, प्रजाशिक्त बढ़ रही है और संस्थापित होने की चेष्टा में है । इस अवस्था में उचित है कि प्रजाशक्ति पुरातन हिन्दू राजशक्ति का स्थान ले उसी तरह समाज-रक्षा व समाज-सुधार करे; नहीं तो हिन्दू जाति विनष्ट हो जायेगी । श्रीहट्ट में एक ब्राह्मण पंडित थे इस प्रस्ताव के मुख्य समर्थक । प्रतिनिधियों में शायद विलायत से लौटे एक भी व्यक्ति नहीं थे । गांव-गांव के निर्वाचित प्रतिनिधि अधिवेशन में उपस्थित थे । ऐसे में इस तरह के प्रस्ताव का स्वीकृत होना आशा का लक्षण ही कहा जायेगा । इससे हिन्दू समाज को कोई भी चोट पहुंचने की संभावना नहीं । नि:संदेह, ऐसे प्रस्ताव की स्वीकृति अतिशय सतर्कता से होनी चाहिये । ब्राह्मणों और प्रत्येक वर्ण के मुख्य-मुख्य सामाजिक नेताओं को प्रस्ताव स्वीकार करने के लिये सहमत करा प्रस्ताव पास करना ही युक्तिसंगत है ।
विदेशयात्रा
विदेशयात्रा की आवश्यकता के बारे में अब और अनेक मत नहीं हो सकते । हमने स्वदेशी के विस्तार को राष्ट्र के जीवन-रक्षण का मुख्य साधन मान लिया है, विदेशयात्रा का निषेध होने पर वह विस्तार दु:साध्य होगा । जो शिल्प-शिक्षा के लिये विदेश की यात्रा करेंगे, पुण्यकर्म और धर्मकार्य के व्रती हो विदेश जायेंगे । समाज किस मुंह से इस कार्य को पापकर्म या समाज-च्युति के उपयुक्त कुकर्म कहेगा, किस मुंह से उत्साही युवकवृंद को इस महान् उन्नति-चेष्टा में लगा उस आज्ञापालन का कोई पुरस्कार न दे विषम सामाजिक दंड देगा । इतने सारे तेजस्वी धर्मप्राण स्वदेश-हितैषी राष्ट्रीय भावापन्न युवक यदि समाज से निकाल दीये जायें तो इससे हिन्दू समाज का कौन-सा कल्याण
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होगा-तर्क की दृटि से देखने पर विलायत-यात्रा के निषेध के पक्ष में कोई भी मुक्ति नहीं मिलती । शास्त्र की दृटि से भी विदेशयात्रा में एक भी अलंघनीय प्रतिबंधक नहीं । शास्त्र के दो-एक श्लोकों की दुहाई देने से चलने का नहीं । शास्त्र के भावार्थ और समाज की पुरातन प्रणाली की ओर भी दृटिपात करना चाहिये । अति अर्वाचीन काल तक विदेशयात्रा और समुद्रयात्रा बिना किसी आपत्ति के चलती थी, साहित्य में इसके भूरि-भूरि प्रमाण मिलते हैं । जब समाज की रक्षा और आचार की रक्षा करना कठिन हो उठता है तब ब्राह्मणों की सलाह से समुद्रयात्रा और अटक नदी के उस पार का प्रवास निषेध होता है । इसी कारण से जापान में विदेश की यात्रा बिलकुल बंद कर दी गयी थी । ऐसा विधान होता है काल-सृष्ट, समय पर नष्ट होता है, सनातन प्रथा नहीं बन सकता । जबतक राष्ट्र व समाज उससे उपकृत और रक्षित होता है तबतक समयोपयोगी विधान टिकता है । जिस दिन राष्ट्र व समाज के विकास और उन्नति में अंतराय आता है उस दिन से उसका विनाश होना अवश्यंभावी है । विदेश से लौटे भारतवासियों का अंग्रेजी अुनकरण, समाज की उपेक्षा और उद्धत बात-व्यवहार से इस कल्याणकर सुधार में विलंब हुआ है । समाज को मानने से, समाज में रहने से समाज का कल्याण होता है, समाज-विनाश की चेष्टा से नहीं ।
अंक ६
आश्विन ११,
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लालमोहन घोष
गत शनिवार वाग्मीवर लालमोहन घोष महाशय का स्वर्गवास हो गया । अपनी पिछली उम्र में उन्होंने अच्छी तरह समझा था कि जनसाधारण के बिना केवल मुट्ठी-भर अंग्रेजी-शिक्षित लोगों को ले राजनीतिक आंदोलन सफल नहीं हो सकता । प्रादेशिक समितियों में बंगला में भाषण देने की प्रथा पहले-पहल उन्होंने ही प्रवर्तित की थी ।
लालमोहन की चढ़ती उम्र में बंगालियों की परमुखापेक्षिता दूर नहीं हुई थी, इसीलिये उन्होंने विलायत-पार्लियामेंट के सदस्य बनने की चेष्टा की थी । उनकी यह चेष्टा घटना-चक्र के वश नहीं फली ।
लालमोहन थे असाधारण वाग्मी । अंग्रेजी पर था उनका असाधारण अधिकार । विलायत में बहुत-से लोग पकड़ नहीं पाते थे कि यह किसी विदेशी की वक्तृता है । इलवर्ड बिल के आंदोलन के समय बैरिस्टर ब्रांसन् ने जब टाउन हॉल में बंगालियों
को गालियां दीं
तब लालमोहन ने ढाका के नार्थब्रुक होल में जो भाषण दिया उसकी
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उग्रता की तुलना नहीं । उस वकृतता का फल हुआ-ब्रांसन् भारतवासी अटर्नी-पद से बहिष्कृत किये गये और भारतवर्ष छोड़ने के लिये बाध्य हुए ।
लालमोहन ढलती उम्र में नये भाव में नहीं रंग पाये; पूर्व संस्कारयुक्त नव भाव- दीक्षितों की निंदा भी की ।
किंतु बंगाल में 'बॉयकाट' के प्रवर्तन का प्रस्ताव है उनकी महान् कीर्ति । दिनाजपुर में उन्होंने बंग-भंग के प्रतिवादस्वरूप विदेशी-वर्जन का प्रस्ताव रखा था ।
श्रीहट्ट में बनायी गयी प्रस्तावावली
सुरमा उपत्यका समिति के अधिवेशन में बॉयकाट का प्रस्ताव अस्वीकृत हो गया और औपनिवेशिक स्वायत्त-शासन व निर्वासितों के बारे में कोई संतोषजनक प्रस्ताव नहीं रखा गया, यह देख सहयोगिनी 'संजीवनी' ने दुःख प्रकट किया है । 'बंगाली' पत्रिका में प्रकाशित प्रस्तावों का भ्रमात्मक अंग्रेजी अनुवाद देख सहयोगिनी भ्रम में पड़ गयी है । यह अनुवाद है भ्रमपूर्ण । जहां पर Self-Government शब्द का प्रयोग हुआ है वहां पर मूल में था 'स्वराज्य' शब्द स्वराज्य पर प्रत्येक सभ्य राष्ट्र का अधिकार है, समिति देशवासियों को सर्वविध वैध साधनों से स्वराज्य पाने की चेष्टा करने के लिये आह्वान कर रही है, इसी गूढ़ अर्थ में प्रस्ताव स्वीकृत हुआ था । इंग्लैंड के साथ भारत का औपनिवेशिक संबंध नहीं, इसके अलावा औपनिवेशिक स्वायत्त-शासन भारत के पूर्ण राष्ट्रीय विकास और महत्व का उपयोगी शासन-तंत्र नहीं । इसी विश्वास के बल पर समिति ने किसी विश्लेषण के स्वराज्य को ही माना है अपनी चेष्टा का लक्ष्य । बॉयकाट का प्रस्ताव भी परित्यक्त नहीं हुआ है किंतु उसे बंग-भंग के साथ न जोड़ समिति ने स्वराज्य प्राप्ति और देश की उन्नति के लिये बॉयकाट की प्रयोजनीयता को समझकर ही उसका समर्थन किया है । जिन वैध साधनों से स्वराज्य प्राप्ति की चेष्टा समिति द्धारा अनुमोदित है, बाँयकाट है उसी वैध साधनों में गण्य और प्रधान, यही है श्रीहट्टवासियों का मत । बाँयकाट की प्रयोजनीयता बंग-भंग के प्रतिकार में सीमाबद्ध होने से उसका क्षेत्र अति संकीर्ण हो जायेगा । समिति के स्वीकृत प्रस्ताव को रचना में यही मूल नियम रक्षित हुआ है कि आत्म-शक्ति से जो प्राप्य हो उस पर ही विशेष लक्ष्य रखना कर्तव्य है, सरकार से आवेदन-निवेदन वर्जनीय है, और जो-जो विषय उनके अनुग्रह पर निर्भर हैं, पर उनका उल्लेख करना आवश्यक है, उसके बारे में सरकार से प्रार्थना या प्रतिवाद का वर्जन कर केवल मत प्रकट करना यथेष्ट है । इस नियमानुसार समिति निर्वासितों से सहानुभूति दिखा विरत हो गयी है । बंग-भंग के विरुद्ध व्यर्थ में वागाडंबर न कर संक्षेप में प्रतिवाद किया गया है । सहयोगिनी के इस
कथन से की औपनिवेशिक स्वायत्त-शासन सभी पक्षों को स्वीकृत है, हम दंग रह
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गये । राष्ट्रीय पक्ष मध्यपंथियों के मन को रखने के लिये सभा-समितियों में औपनिवेशिक स्वायत्त-शासन के प्रस्ताव का प्रतिवाद भले न करें, पर वैसे स्वायत्त-शासन में उनकी तिल-भर भी आस्था नहीं और न उसे स्वराज्य नाम से अभिहित ही करना चाहते हैं । असंपूर्ण स्वराज्य अधीनता-दोष से दूषित है अत: है स्वराज्य कहलाने के अयोग्य । वैसे स्वायत्त-शासन से अंग्रेज उपनिवशवासी भी असंतुष्ट हैं, उसी असंतोष के कारण युक्त साम्राज्य (Imperial Federation) और स्वतंत्र सैन्य एवं नौ-सेना के गठन की चेष्टा चल रही है । वे अधीन हो ब्रिटिश साम्राज्य में रहना नहीं चाहते, साम्राज्य के समान-अधिकार-प्राप्त भागीदार बनने के प्रयासी हैं । जब नवजात अलब्ध-प्रतिष्ठ अख्यात शिशु-राष्ट्र मैं ऐसी महती आकांक्षा जनमी है, तब यदि हम, प्राचीन आर्यजाति, अधूरे व राष्ट्रीय महत्त्व के विकास में अनुपयोगी स्वायत्त-शासन को अपने इस महान् और ईश्वर-प्रेरित अभ्युत्थान का चरम व परम लक्ष्य कहें तो इसे हमारी हीनता और भगवान् की सहायता-प्राप्ति में अयोग्यता दिखाने के अलावा ओर क्या कहा जाये ?
राष्ट्रीय धन-भंडार
हुगली प्रादेशिक समिति के अधिवेशन में राष्ट्रीय धन-भंडार से फेडरेशन होल के निर्माण में खर्चने का प्रस्ताव निर्विवाद पारित हुआ था । मध्यपंथी देश-नायक श्रीयुत सुरेंद्रनाथ वंधोपाध्याय ने यह प्रस्ताव रखा था, राष्ट्रीय पक्ष के नेता श्रीयुत अरविन्द घोष ने इसका अनुमोदन किया था, बिना विवाद और सोत्साह यह प्रस्ताव पास हुआ था । इसके बाद सारे देश की आकांक्षा की उपेक्षा कर अन्य मत की सृष्टि करने की चेष्टा देश-हितैषियों का काम नहीं । पर 'बंगाली' पत्रिका के एक पत्र-प्रेरक ने पुराने संस्कारवश फंड देनेवालों को कुपरामर्श दिया है । उन्होंने कहा है कि हुगली में समवेत देश-नायकों और प्रतिनिधियों ने बिना विचारे क्षणिक आवेश में यह प्रस्ताव पास किया है । वस्त्र-वयन-शिल्प की सहायता के लिये धन-भंडार की स्थापना हुई है, अन्यथा खर्च होने पर फंड के ट्रस्टी देश के प्रति विश्वासघातकता के अपराधी बनेंगे । धन-भंडार की निधि फेडरेशन-हॉल निर्माण की अपेक्षा राष्ट्रीय विघालय या बंगाल टेक्निकल इंस्टीटयूट की सहायता में खर्चने से उनके मत में, देश का उपकार व राष्ट्रीय निधि का सद्व्यवहार होगा । ये ही हैं महत् कार्य । फेडरेशन-हॉल का निर्माण है अतिशय क्षुद्र व नगण्य कार्य । हॉल के अभाव में इतने दिन हमने कोई असुविधा महसूस नहीं की, और कुछ दिन हॉल न बने तो भी चलेगा । पहली बात-वस्त्र-वयन के अलावा दूसरे उद्देश्य से खर्चना यदि विश्वासघात कहा है तो लेखक महाशय ने राष्ट्रीय विघालय या टेक्निकल इंस्टीटयूट की बात क्यों उठायी है ? इससे क्या यह
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नहीं समझा जाता कि दूसरे उद्देश्य से खर्चना उनके मत में अपराध नहीं, किंतु उनके अनभिमत उद्देश्य में फंड के खर्च होने की संभावना देख वे सिर्फ बाधा देने के लिये विश्वासघातकता कह आपत्ति कर रहे हैं ? ट्रस्टी किसके प्रति अपराधी होंगे ? देश का मत तो हुगली में व्यक्त हो चूका है । देश के प्रतिनिधियों ने इस उद्देश्य को ही उपयुक्त उद्देश्य मान अपना मत प्रकट किया है । अत: इस तरह के अर्थ-व्यय से ट्रस्टी देश के प्रति अपराधी नहीं होंगे । यदि दाताओं की बात कहे तो जिज्ञासा होती है : क्या दाताओं ने, यह धन हमारा निजी धन बना रहेगा, हमारी निजी संपत्ति बनी रहेगी, ऐसा समझकर दान दिया है या यह राष्ट्रीय धन, राष्ट्रीय संपत्ति बन जायेगी, ऐसा मान कर दिया है ? यदि यह धन-भंडार राष्ट्रीय संपत्ति हो तो उसका सारा खर्च बंगाल के मतानुसार होना उचित है । सारा बंगाल जब इस उद्देश्य को मान चुका है तब दाता देश-मत के विरुद्ध मत दे बाधा क्यों देने लगे ? अत: इस प्रकार के अर्थ-व्यय से ट्रस्टी दाताओं के प्रति भी अपराधी नहीं बनेंगे । तो भी एक आपत्ति उठायी जा सकती है, शायद वे कानून के पाश में बंधे हों, किसी अन्य उद्देश्य से फंड का प्रयोग करने में असमर्थ हो, जब राष्ट्रीय धन-भंडार स्थापित हुआ तब संगृहीत धन वस्त्र-वयन इत्यादि कार्य में खर्च होगा, ऐसी घोषणा की गयी थी । अब विचारणीय यह है कि इत्यादि शब्द का अर्थ वस्त्र-वयन इत्यादि शिल्प-कार्य है या वस्त्र-वयन इत्यादि राष्ट्रीय कार्य ? यदि अंतिम अर्थ माना जाये तो कानून की बाधा भी कट जाती है । यदि ट्रस्टियों को अपनी क्षमता पर संदेह हो तो दाताओं की सभा बुला बंगाल के प्रतिनिधियों की हां में हां मिलायें, वे इस अनुमति द्धारा संदेह से छुटकारा पा सकते हैं । राष्ट्रीय विघालय या टेक्निकल इंस्टीटयूट में फंड को खर्च करने के विषय में नाना कारणों से मतभेद होने की संभावना है । अब वस्त्र-वयन-शिल्प में व्यय करने की कोई आवश्यकता नहीं । वयन-शिल्प ने काफी उन्नति कर ली है । उस क्षेत्र का अवशिष्ट कार्य व्यक्तिगत या सम्मिलित कारबार से ही संपन्न हो सकता है । फेडरेशन हॉल के निर्माण को अब और क्षुद्र या निष्प्रयोजनीय कर्म नहीं कहा जा सकता । इतने दिनों तक हॉल न बनने से सारा राष्ट्र सत्य-भंग और अकर्मण्यता के कलंक का भाजन बना है और उसके अभाव में यथेष्ट असुविधाएं भी सहनी पड़ी हैं । बंगाल के जीवन-केंद्र कलकत्ते में जो ध्वनि उठती है वही देश-भर में प्रतिध्वनित होती है, उससे ही सारा राष्ट्र उत्साहित और कर्तव्य-पालन भें बलीयान होता है, आंदोलन के आरंभ से ही यह उपलब्धि होती आ रही है । कलकत्ते की नीरवता से देश नीरव व उत्साहहीन पड़ गया है । अत: पूर्ण स्वाधीनतापूर्वक सम्मिलित होने के स्थान का अभाव कोई कम अभाव नहीं । ऐसे में पूरे बंगाल के अभीप्सित उद्देश्य में राष्ट्रीय धन -भंडार का अर्थ-व्यय करना उचित और प्रशंसनीय है ।
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अबतक हमारी यह धारणा थी कि सर फिरोजशाह मेहता चिरकाल रहे हैं बॉयकाट-विरोधी व स्वराज्य में अनास्थावान् । यह धारणा सर फिरोजशाह के आचरण और बातों से सृष्ट व पुष्ट होती आयी है । इतने दिन बाद सर फिरोजशाह के हृदय में प्रबल बॉयकाट-अनुराग-वहिन जलने लगी है और स्वराज्य के लिये अजस्त्र अकृत्रिम प्रेमधारा उनकी रग-रग में बह रही है और हमेशा बही हैं और हमेशा बही हैं सुनकर हम स्तंभित और रोमांचित हुए । यह अदभुत बात 'बंगाली' पत्रिका ने प्रकाशित की है । लाहौर में फिरोजशाह मध्यपंथी कांग्रेस के सभापति चुने गये हैं जान सारे अंग्रेजी दैनिक--'टाइम्स औफ इण्डिया', 'स्टेदसमैन', 'इंगलिशमैन', 'डेलि न्यूज'-आनंद से अधीर हो उठे हैं; यह मेहता महाशय के लिये कम गौरव की बात नहीं । 'बंगाली' को और सब सह्या है पर 'इंगलिशमैन' के आनंद में वह विपरीत ढंग से अधीर हो यह प्रतिपादित करने की चेष्टा कर रहा है कि सर फिरोजशाह बाँयकाट व स्वराज्य विरोधी नहीं हैं । सहयोगी 'बंगाली' ने कहा है, सर फिरोजशाह ने कलकत्ता-अधिवेशन में बॉयकाट के प्रस्ताव का सोत्साह व सानंद अनुमोदन किया था, दादा भाई के मुंह से स्वराज्य शब्द निकलने पर उन्होंने आनंद से प्रफुल्ल हो उसका समर्थन किया था । हम सुनकर आह्रादित तो हुए किंतु जले मन के दोष से दुष्ट संदेह को जीत नहीं पाये । याद आ रहा है मद्रास और अहमदाबाद में स्वदेशी प्रस्ताव पर मेहता महाशय का तीव्र उपहास । याद आता है कलकत्ते के अधिवेशन में स्वदेशी प्रस्ताव में 'स्वार्थ-त्याग कर भी' ये शब्द समाविष्ट कराने के लिये दो घंटे तक तिलक की उत्कट चेष्टा, मेहता का क्रोध और तिरस्कार एवं गोखले व मालवीय की मध्यस्थता; प्रस्ताव में उस वात की अवतारणा पर मेहता का रूठना और कांग्रेस में चुप रह जाना । याद आता है, सूरत में सभा-भंग होने पर मेहता का आनंद प्रकट करना । याद आता है, मेहता द्धारा पत्र में बंगाल का अपमान और मद्रास में बॉयकाट का बहिष्कार । याद आ रहा है, मेहता का मत कि औपनिवेशिक स्वराज्य है सुदूर भविष्य का स्वप्न-मात्र । नहीं, जला मन, 'बंगाली' के शुभ संवाद पर किसी भी तरह विश्वास करने को तैयार नहीं । हम नम्रता से सहयोगी को अपनी बात का थोड़ा-सा प्रमाण देने का अनुरोध करते हैं, नहीं तो ऐसी नितांत अलीक व अविश्वसनीय बात के प्रचार से मध्यपंथी दल का क्या लाभ का, यह समझ में नहीं आया ।
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यह तो जानी हुई बात थी कि मेहता महाशय लाहौर कन्वेन्शन के सभापति चुने जायेंगे । बंगाल के बाहर श्रीयुत सुरेंद्रनाथ मध्यपंथियों द्धारा मध्यपंथी नहीं माने जाते । उन्हें छोड़ने पर बंगाल को छोड़ना होगा, अगत्या वे उन्हें स्थान दे रहे हैं । उन सबकी दुर्दशा देखकर दया भी आती है, सुरेंद्रनाथ को न निगल ही सकते हैं न उगल ही सकते हैं । जिनके उदार मत से, जिनके देश के प्रति प्रगाढ़ प्रेम१ से, सुरेंद्रनाथ ने अपनी आवगमयी वक्तृता, तेजस्विता व स्वदेश-प्रेम के गुण के बल पर असाधारण गौरव पाया था, वह गौरव नष्ट होने जा रहा है, उन साहसहीन बंधुओं के कुपरामर्श से भारत-भर के पूज्य देश-नायक प्रादेशिक दल के क्षुद्र नेता में परिणत होने जा रहे हैं । इधर सर फिरोजशाह मेहता कन्वेन्शन में असंगत आधिपत्य पा इस जाली कांग्रेस के बॉयकाट-वर्जन और शासन-सुधार को स्वीकार कर राजभक्ति की मात्रा बढ़ाने व राष्ट्रीयता का ह्रास करने के लिये बद्धपरिकर हैं । इससे बंगाल के मध्यपंथी असंतुष्ट हुए हैं । उससे कन्वेन्शन राजा का क्या ? बंगाल के प्रति उनकी अवज्ञा व विद्धेष अतिशय गंभीर हैं । बंगाल के प्रतिनिधियों द्धारा कन्वेन्शन का वर्जन करने पर भी वे अपने निर्दिष्ट पथ का परित्याग नहीं करेंगे । स्वराज्य, बॉयकाट, राष्ट्रीय शिक्षा व बंग-भंग के प्रतिवाद के साथ उनके दल की कोई आंतरिक सहानुभूति नहीं, ये प्रस्ताव उठ जायें तो उनकी जान बचे । वे चाहते हैं मिण्टो-स्वदेशी, स्वार्थ-त्यागयुक्त स्वदेशी नहीं । ऐसी अवस्था में बंगाल के मध्यपंथी या तो धीरे-धीरे मेहता के श्रीचरणों में अपने-अपने राजनीतिक मतों की बलि चढ़ाने को बाध्य होंगे, या उन्हें कन्वेन्शन से हटना पड़ेगा । युक्त कांग्रेस ही है उनकी आत्म-रक्षा का एकमात्र उपाय । किंतु साहस बटोर मेहता के कहे का विरोध कर संयुक्त महासभा की स्थापना की चेष्टा करने का बल उनमें कहां ? खैर, इस सभापति-निर्वाचन से हमारा पथ और भी साफ हो गया है । मेहता-मजलिस में हमारा स्थान नहीं, युक्त कांग्रेस की आशा क्षीणतर होती जा रही है, अब हम अपनी राह देखें । वर्ष खतम होने से पहले ही राष्ट्रीय दल के लिये परामर्श सभा का स्थापन व सम्मेलन आवश्यक है ।
१'धर्म
' पत्रिका में छपाई की भूलवश यहा कुछ अश छूट गया लगता है | --स०
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अंक ७
आश्विन १८, १३१६
गीता की दुहाई
विलायत में राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन के पक्ष में गीता का आश्रय ले एक अदभुत और रहस्यमय युक्ति प्रदर्शित की जा रही है । अधिवेशन के परिपोषक वैसे अधिवेशन में प्रकृत फल की संभावना न दिखा सकने पर देशवासियों को गीतोक्त 'निष्काम' धर्म और सिद्धि व असिद्धि में समता का अवलंबन लेने के लिये कह रहे हैं । विलायत अधिवेशन है हमारा कर्तव्य कर्म, अत: उसके फलाफल की विवेचना न कर कर्तव्य कर्म का निर्णय करना चाहिये । राजनीति में धर्म की दुहाई व गीता की दुहाई दी जाती देख हम खुश हुए और 'कमयोगिन्' व 'धर्म' की चेष्टा फल रही है जान आशा बंधी । किंतु गीता की ऐसी व्याख्या से आरंभ में भूल होने की संभावना देख शंकित भी हो रहे हैं । कर्तव्य पालन के उपाय-निर्वाचन में अपरिणामदर्शिता व उद्देश्य--सिद्धि की चेष्टा में उदासीनता की शिक्षा देना गीता के समतावाद और निष्कामकर्मवाद का उद्देश्य नहीं । हमारा कर्तव्य क्या है पहले इसका निर्णय कर लेना आवश्यक है; इसके बाद धीरज से असफलता में अविचलित रह कर्तव्य करते जाना है धर्म-अनुमोदित पथ । लंदन अधिवेशन हमारा कर्तव्य कर्म है या नहीं, यह विवादास्पद है; इस प्रश्न की मीमांसा में परिणाम की चिंता त्याग नहीं सकते । कर्तव्य-निर्णय में दो स्वतंत्र विषयों की मीमांसा आवश्यक है । पहला है उद्देश्य, दूसरा उपाय । मुख्य उद्देश्य है धर्मानुमोदित होने पर-धर्म का आवश्यक अंग होने पर-परिणाम की चिंता न करना; वह है हमारा स्वधर्म, उस धर्म-पालन में निधन भी है श्रेयस्कर, तब उसका परित्याग कर परधर्म-पालन है पाप । जैसे, स्वाधीनता-प्राप्ति की चेष्टा, स्वाधिकार-लाभ की चेष्टा, देश-हित करने की चेष्टा है राष्ट्र का प्रधान धर्म, देश की प्रत्येक कर्मी संतान का स्वधर्म और उस स्वधर्म-पालन में प्राण-त्याग भी है श्रेयस्कर, लेकिन स्वधर्म त्यागकर शूद्रोचित पराधीनता एवं दासस्वभाव-सुलभ स्वार्थपरता का आश्रय लेना है महापाप । किंतु उपाय का धर्मानुमोदित होना ही यथेष्ट नहीं, उद्देश्य सिद्धि के योग्य भी होना होगा । स्वधर्म के अंगस्वरूप कर्तव्य कर्म करने के लिये धर्मानुमोदित व उपयुक्त उपाय का प्रयोग कर उत्साह सहित कर्तव्यसिद्धि की चेष्टा करने पर भी यदि सफलता न मिले तो असफलता से अविचलित रह प्राण त्यागने तक बारंबार सर्वविध उपयुक्त और धर्मानुमोदित उपायों से कर्तव्य पालन की दृढ़ चेष्टा ही है गीतोक्त समता और निकाम कर्म । नहीं तो गीता का धर्म कर्मी का धर्म, वीर का धर्म, आर्य का धर्म न हो या तो तामसिक निश्चेष्टता की परिपोषक शिक्षा होता या होता अपरिणामदर्शी मूर्खो का
धर्म | कर्मफल पर हमारा अधिकार नहीं, कर्मफल है भगवान् के हाथ, हमारा अधिकार
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तो है केवल कर्म पर । सात्विक कर्ता होते हैं अनहंवादी व फलासक्तिहीन-किंतु होते हैं दक्ष व उत्साही । वे जानते हैं कि उनकी शक्ति है भगवद्प्रदत्त और महाशक्ति द्धारा चालित, अतः वे हैं अनहंवादी; वे जानते हैं कि कल पहले से ही भगवान् द्धारा निर्दिष्ट है अतएव होते हैं फलासक्तिहीन; किंतु वे यह भी जानते हैं कि दक्षता, उपाय-निर्वाचन की पटुता, उत्साह, दृढ़ता और अदमनीय उधम हैं शक्ति के सर्वोच्च अंग, अतएव होते है दक्ष व उत्साही । सूक्ष्म विचार से गीता में निहित गभीर चिंतन व शिक्षा का प्रकृत अर्थ हृदयंगम होता है । नहीं तो, दो-एक श्लोकों के स्वतंत्र और विकृत अर्थ ग्रहण करने का आशय है भ्रमात्मक शिक्षा देना और धर्म और कर्म में अधोगति ।
लंदन अधिवेशन और संयुक्त कांग्रेस
देखा गया है कि गीतोक्त समतावाद पर लंदन अधिवेशन प्रतिष्ठित नहीं हो सकता । और एक युक्ति दी जा रही है । उससे परिणाम की चिंता परिवर्जित नहीं हुई । अधिवेशन के समर्थकों का कहना है कि अब कोई फल हो या न हो, लंदन में संयुक्त कांग्रेस की स्थापना होगी ही । लाहौर में इसकी आशा करना व्यर्थ है, लंदन में ही सारे देश की आशा व आकांक्षा फलीभूत होगी । बात है तो कानों को विशेष सुख देनेवाली । इसका कोई अनुमोदन होता तो हम भी लंदन अधिवेशन के पक्षपाती होते । हम भी जानते हैं कि लाहौर में संयुक्त कांग्रेस-स्थापना की कोई आशा नहीं, न हमने उस आशा का कभी पोषण ही किया । किंतु सारे देश की आशा व आकांक्षा को यदि देश में ही सफल करने का उपाय और आशा नहीं तो सुदूर विदेश में वह आशा व आकांक्षा सफल होगी, इस अदभुत युक्ति की यथार्थता के बारे में हम विश्वस्त न हो सके । ऐसी सफलता का भला क्या मूल्य या क्या स्थायित्व ? माना कि मेहता, गोखले और कृष्णस्वामी के वहां अनुपस्थित होने से संयुक्त कांग्रेस का समर्थक प्रस्ताव पास हो सकता है । माना कि उनके उपस्थित होने पर भी छात्रों के उत्साह से उत्साहित हो बंगाल के मध्यपंथी वैसा प्रस्ताव ग्रहण करने का साहस कर सकते हैं । किंतु उसके बाद क्या होगा ? स्वदेश वापस आ वे कौन-सी राह पकड़ेंगे ? जो स्वदेश में मेहता व गोखले के सामने स्वमत की प्रतिष्ठा की चेष्टा नहीं कर सकते, उन्होंने विदेश जा साहस व चरित्रबल तो दिखलाया लेकिन स्वदेश लौट आने पर उनका वही साहस और बल रहेगा क्या ? यदि रहे तो दूर विदेश न जा देश में ही संयुक्त कांग्रेस की स्थापना असंभव क्यों ? मेहता और गोखले लंदन कांग्रेस का प्रस्ताव कभी स्वीकार नहीं करेंगे । अधिवेशन में सारे देश के प्रतिनिधि उपस्थित नहीं थे, थोड़े-से लोगों के परामर्श से अनेकों के मत की उपेक्षा कर बंगालियों की संख्या की अधिकता
के कारण प्रस्ताव पारित हुआ; फिर कन्वेन्शन के अधिवेशन में गृहीत न होने तक हम
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सहमत नहीं होंगे, इत्यादि अनेक प्रमाण हैं । कारणों की क्या आवश्यकता ?
कन्वेन्शन
सर जॉर्ज क्लार्क की सारगर्भित उक्ति
हाल ही में सर जॉर्ज क्लार्क ने पूना में जो वक्तृता दी है उसमें असार व सारगर्भित बातों का आश्चर्यजनक मिश्रण है । पहली युक्ति है : भारत में शिल्प-वाणिज्य की दृततर उन्नति होने से देश का अशेष अनिष्ट होने को संभावना है; क्योंकि श्रमजीवियों की संख्या है बहुत कम, मिलों की संख्या बढ़ने से और भी खींच-तान होगी, किसानों के श्रमजीवी बनने से कृषि की भी अवनति होगी । कृषि की अतिशय अधिकता से शिल्प-वाणिज्य के विनाश से ब्रिटिश वाणिज्य का यथेष्ट उपकार हुआ है । क्लार्क उस अस्वाभाविक अवस्था के परिवर्तन से आशंकित हो उठे हैं । यह अंग्रेज राजनीतिज्ञों के लिये स्वाभाविक और प्रशंसनीय है । किंतु इस स्थिति से भारतवासियों की दरिद्रता और अवनति हुई है । कृषि की प्रधानता के ह्रास में, वाणिज्य के विस्तार में, श्रमजीवी की उन्नति में है देश का मंगल । सर जॉर्ज क्लार्क ने और भी कहा है कि यदि बॉयकाट का उद्देश्य बंग-भंग का प्रतिवाद करना हो तो जावा और हिंदू-प्रधान मोरिशस द्धीप के अधिवासियों द्धारा बनायी चीनी के बहिष्कार से वह उद्देश्य सिद्ध नहीं होगा, इससे ब्रिटिश जाति का होश में आना असंभव है । कार्यत: इस बात से इन्होंने देशवासियों को विदेशी वस्तु के वर्जन का परित्याग कर ब्रिटिश पण्य का बहिष्कार करने का परामर्श दिया है । यह बात है युक्तिसंगत व सारगर्भित । हम भी कहते हैं कि भारतवासी के औपनिवेशिक और सहायक अमेरिका का पण्य वर्जन न कर ब्रिटिश पण्य का वजन करने से बाँयकाट कृतकार्य होगा; अंग्रेज जाति चेतेगी और भारत के
प्रति सम्मान का भाव जगेगा, 'स्वदेशी' की भी बलबुद्धि होगी | स्वदेशी वस्तु मिलने पर
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विदेशी वस्तु नहीं खरीदेंगे, स्वदेशी वस्तु के अभाव में अमेरिका या अन्य देश के पण्य खरीदेंगे, वर्तमान अवस्था में ब्रिटिश पण्य नहीं खरीदेंगे, यही है स्वदेशी व बाँयकाट का असली पथ । क्लार्क महाशय ने यह भी कहा है कि किसी निश्चित उद्देश्य या विशेष दोष या असुविधा को निमित्त न बना अनिर्दिष्ट रूप से सरकार का तिरस्कार करने का कोई फल नहीं । बात ठीक है । हम वर्तमान अवस्था में क्या दोष या असुविधा देखते हैं, किससे संतुष्ट होंगे, वह सरकारी कर्मचारियों को जनाना चाहिये, यदि वे न सुनें तो भी तिरस्कार करना व्यर्थ है, आत्म-शक्ति और वैध प्रतिरोध हो अवलम्बनीय हैं । क्लार्क महाशय की बातों का हमने यही अर्थ समझा है । आशा है, देशवासी बंबई के लाटसाहब के दो सारगर्भित और युक्तिसंगत उपदेशों को हृदयंगम करेंगे ।
विलायत में आत्मपक्ष का समर्थन
राष्ट्रीय दल के श्रद्धेय नेता श्रीयुत विपिन चन्द्र पाल ने हाल ही में राष्ट्रीय दल के भावी पथ के निर्धारण के बारे में अपना मत प्रकट किया है । देखते हैं विलायत में आत्मपक्ष के समर्थन के विषय में विपिनबाबू के मत में थोड़ा-बहुत परिवर्तन आया है । अवस्थांतर से इस तरह मत का परिवर्तन स्वाभाविक है । विशेषत: उद्देश्य के प्रति जितना अटल रहने की आवश्यकता है, उपाय को ले उतना अटल रहना सर्वदा विज्ञता का परिचायक नहीं । उपाय के बारे में हमारे भी मत थोड़े-बहुत बदले हैं । पर विपिनबाबू की युक्ति के याथार्थ्य के बारे में मतभेद संभव है । उनका कहना है : अंग्रेज जाति देवता नहीं, वे स्तव-स्तोत्र से प्रसन्न हो हाथ में स्वराज्य ले स्वर्ग से उतर नहीं आयेंगे । सच है, फिर भी वे गुणहीन या स्वभावत: अन्याय के पक्षपाती नहीं, उनमें विवेक-बुद्धि है । दमन-नीति के दौर के कारण भारतवर्ष में राष्ट्रीय पक्ष के उधम व चेष्टा अतिशय संकटमय अवस्था में पड़ जाने से उत्तम रूप से नहीं चल रहे । विलायत में भारतागत अंग्रेजों के मिथ्या संवाद के प्रतिवाद द्रारा ब्रिटिश राष्ट्र के सामने अपना प्रकृत उद्देश्य और कार्य रख पाने से वह विवेक जग सकता है और दमन-नीति भी बंद हो सकती है । अत: विलायत में वैसे प्रचार की व्यवस्था करना आवश्यक है । हम मानते हैं कि अंग्रेज देवता भी नहीं, पशु भी नहीं, वे हैं मनुष्य, उनमें विवेक-बुद्धि है । किंतु अंग्रेज हैं पशु और गुणहीन, ऐसी बात भी किसी ने कभी नहीं कही । ऐसी गलत धारणा से राष्ट्रीय दल ने विलायत में आत्म-पक्ष के समर्थन को नहीं त्याग। । अंग्रेज मनुष्य हैं, मनुष्य निज स्वार्थवश ही अनलस युक्ति से अपने स्वार्थ को न्यायोचित और धर्मोचित कहने का अभ्यस्त है । हम विपिनबाबू से पूछते हैं, विलायत में वैसी व्यवस्था होने पर साधारण अंग्रेज किसकी बात पर विश्वास करेंगे-हमारी या अपने
जात भाइयों की ? इसीलिये वैसी चेष्टा पर हमारी आस्था नहीं | और एक बात याद
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रखने की जरूरत है । काटन प्रभृति पार्लियामेंट के सभासदों ने विलायत में निर्वासन और निर्वासितों के बारे में सच्ची और निर्मूल बातें प्राणपन से प्रचारित की हैं, इससे उदारनीतिक और रक्षणशील अनेक सभासद निर्वासन के प्रति वीतश्रद्ध हुए तो हैं किंतु वे क्या कभी निर्वासन-प्रथा उठा देंगे या वे राज कर्मचारियों को निर्वासितों को मुक्ति देने का आदेश देंगे ? विपिनबाबू आजकल अंग्रेजों का राजनीतिक जीवन निकट से देख रहे हैं, थोड़ी-बहुत अभिज्ञता भी लाभ की होगी, वे इसका उत्तर दे ।
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आश्विन २५, १३१६
विलायत के दूत
जैसे भारत में, वैसे ही विलायत में अनेक राजनीतिक संप्रदाय व विभिन्न मत अंग्रेज राष्ट्र को नाना दलों में विभक्त करते हैं और उनके संघर्ष से देश की उन्नति व अवनति संसाधित होती है । कभी-कभी किसी-किसी संप्रदाय के दूत-स्वरूप कोई ख्यातनामा संवादपत्र-लेखक या पार्लियामेंट के सभासद इस देश में आ लोकमत व देश की अवस्था से थोड़ा-बहुत अवगत हो स्वदेश लौट जाते हैं । भारत में नव-जागरण और देशव्यापी अशांति के सुफल से बहुत सारे अंग्रेजों की दृष्टि हमारी ओर आकृष्ट हुई है । नवीन, उन्नतिशील श्रमजीवी दल में ऐसी ज्ञानाकांक्षा सुस्पष्ट लक्षित होती है । करि हार्डी उनके प्रतिनिधि बन इस देश में आये थे, पुन: उसी दल के एक प्रसिद्ध नेता मि० रैमसे मैक्डोनाल्ड इसी उद्देश्य से आये हुए हैं । श्रमजीवी दल में अनेक छोटे-छोटे दल हैं, एक दल के नेता हैं मैक्डोनाल्ड, वे हैं अपेक्षाकृत माडरेट (नरमपंथी) | एक और दल के नेता हैं कीर हार्डी, वे उतने नरमपंथी नहीं । इसके अलावा चरमपंथी और सोशलिस्ट (समाजवादी) हैं । वे कीर हार्डी और मैक्डोनाल्ड जैसों को नहीं मानते । मि. मैक्डोनाल्ड की करि हार्डी की तरह वक्तृता व मत-प्रचार करने की इच्छा नहीं, वे संयत रह अपनी ज्ञान-लिप्सा को तृप्त करने के लिये कृत-संकल्प हैं । इस प्रशंसनीय प्रयास में वे सभी की सहायता लेने के लिये तैयार हैं । उन्होंने एक फ्रांसीसी पत्र के प्रतिनिधि से कहा है, ''मैं अपेक्षाकृत उच्च मतावलंबी हिंदू संप्रदाय के मुख्य नेता मि० अरविन्द घोष के वक्तव्य सुनने से ही संतुष्ट नहीं होऊंगा, मध्यपंथी दल के मि० बनर्जी और नरमपंथी मि० गोखले से भी मिलने की आशा रखता हूं । ब्रिटिश शासन-तंत्र के प्रधान-प्रधान कर्मचारी और गीरसन आदि की तरह प्रधान बैंक के संचालकों
से भी परामर्श करूंगा |" मि० मैक्डोनाल्ड ने लार्ड मारले के शासन-सुधार को उदार
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कहकर प्रशंसा की है और भारतवासी ऐसे उदार सुधार के उपयुक्त हैं भी या नहीं, यह खुद ही देखना चाहते है । दो या तीन महीने भारत में घुम-फिरकर भारतवासियों की योग्यता के बारे में मि॰ मैक्डोनाल्ड स्वयं किस तरह स्थिर मत बनाने में समर्थ होंगे हम यह समझने में अक्षम हैं । मि॰ मैक्डोनाल्ड हैं विलायत के एक प्रधान प्रजातंत्र- समर्थक । उनके मत में ब्रिटिश साम्राज्य को प्रजातंत्रवादी के आदर्श पर प्रतिष्ठित होना चाहिये । ऐसी उदार नीतिवाले के मुख से मारले के सुधार की उदारता की प्रशंसा जब सुननी पड़ी, तो देशवासी समझें कि विलायत में आंदोलन चलाने से हमारे परिश्रम और अर्थ-व्यय के उपयुक्त फल-लाभ की संभावना कितने दूर का सपना है |
राष्ट्रीय घोषणा-पत्र
हमारे राजनीतिक कर्ताओं की गभीर, सूक्ष्म और नाना पथगामी राजनीतिक बुद्धि की रहस्यमयी गति क्षुद्र- बुद्धि साधारण मनुष्य समझ नहीं आती | ७ अगस्त को कालेज स्क्वायर से जुलूस निकलने की बात पर हुल्लड़ मचा | कालेज स्क्वायर के नाम से कर्मीगण इतने भयभीत हो गये थे की उस दिन सभापति सभापति-पद त्यागने पर उतारू हो गये | लाचार पांति मैदान से जुलूस निकलने की व्यवस्था हुई | फिर भी थोड़े ही लोग वहां उपस्थित हुए, अधिकांश कालेज स्क्वायर के जुलूस में भाग लेने गये या अपने-अपने स्थान से छोटे-छोटे जुलूस निकाल सभास्थल पर पहुंचे | इससे ७ अगस्त के जुलूस की शोभा नष्ट हो गयी, विपक्षियों को उत्साह मिला और मिला बाँयकाट में दोष दिखाने का अवसर | इस बार कार्यकर्ताओं ने उस भीति को जित लिया है, ३० आश्विन के विज्ञापन में कालेज स्क्वायर से जुलूस के निकलने का उल्लेख है | किंतु उस विज्ञापन में राष्ट्रीय घोषणा-पत्र के पाठ की बात वर्जित हुई है | पिछले साल के विज्ञापन में था : "सभा में स्वदेशी महाव्रत-ग्रहण, विदेशी-बहिष्कार, बंग-भंग का प्रतिवाद और राष्ट्रीय घोषणा-पत्र का पाठ होगा |" इस बार उसमें परिवर्तन हुआ है, वहां लिखा है : "सभा में विदेशी-बहिष्कार के बाद स्वदेशी महाव्रत-ग्रहण और बंग-भंग का प्रतिवाद होगा |" कार्यकर्ता किससे डर गये हैं, "राष्ट्रीय" शब्द से, या "घोषणा" शब्द से या घोषणा-पत्र के ममार्थ से ?--कुछ समझ में नहीं आया | श्रीयुत आनन्दमोहन वसु ने फेडरेशन होल में पहले-पहल यह घोषणा-पत्र पढ़ा था, "क्योंकि सारी बंगाली जाती की सार्वजनिक आपत्ति को आग्रह कर सरकार ने बंगला के दो टुकड़े करना ही निश्चित किया है, अत: हम, बंगाली जाती, घोषणा करते हैं की इस विभाग-निति के कुफल का निवारण करने और राष्ट्रीय एकता के संरक्षण के लिये हम अपनी पूरी शक्ति लगा देंगे | ईश्वर हमारी सहायता करें |"
हम पूछते हैं, इसमें ऐसी कौन-सी राजद्रोह-सूचक बात सन्निविष्ट है जो ३० आश्विन
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के भाव-सूचक और सारे बंगाल के प्रतिज्ञा-प्रकाशक घोषणा-पत्र का सहसा वर्जन करना पड़ा ? या मारले और मिण्टो को मनस्तुष्टि के लिये किस तरह नवोत्थित राष्ट्रीय भाव को खर्व करना आवश्यक हुआ ? हम बंग-भंग के कुफल का निवारण करेंगे, राष्ट्रीय एकता का संरक्षण करेंगे, इस पवित्र कर्तव्य कर्म में सारी शक्ति लगायेंगे, इतना-सा भी कहने का यदि साहस न जुटा पा रहे तो ७ अगस्त और ३० आश्विन के अनुष्ठान बंद करो । इतना-सा तेज और साहस यदि न हो तो राष्ट्रीय जागरण व उन्नति की चेष्टा विफल समझो, उसका बाह्य वृथा आडंबर करना है मिथ्याचार-मात्र । जनता की सलाह से यह परिवर्तन नहीं किया गया, जनता राष्ट्रीय घोषणा का बॉयकाट करने से सहमत नहीं होगी । हम सबसे कहते हैं, यदि यह भूल संशोधित नहीं की गयी तो ३० आश्विन को सहस्र कंठों से घोषणा-पाठ का आदेश दो, तब भी यदि नेता सहमत न हुए तो दायित्व उनका होगा ।
गुरु गोविन्द सिंह
श्रीयुत वसंतकुमार बन्धोपाध्याय-प्रणीत गुरु गोविन्द सिंह की जीवनी हाल में ही हमारे हाथ आयी है । इस पुस्तक में गुरु गोविन्द सिंह की राजनीतिक चेष्टा और चरित्र का सरल और सहज भाषा में अति सुंदर ढंग से वर्णन किया गया है, किंतु सिक्खों के दसवें गुरु सिर्फ योद्धा और राजनीतिविद् ही नहीं थे, वे धार्मिक महापुरुष और भगवदादिष्ट धर्मोपदेष्टा भी थे । नानक के सात्त्विक वेदांत-शिक्षाबहुल धर्म को उन्होंने एक नूतन आकार दिया था; अतएव उनका धर्ममत और उससे बना सिक्ख धर्म और सिक्ख-समाज के परिवर्तन का वर्णन यदि विशद रूप से किया जाता तो यह सुंदर जीवनी असंपूर्णता के दोष से दूषित न होती । लेखक ने संक्षेप में सिक्ख जाति का पूर्व वृतांत लिख गोविन्द सिंह के चरित्र व आगमन के ऐतिहासिक बीज और कारण को समझने में सुविधा कर दी है । उसी तरह परवर्ती वृत्तांत भी लिखते तो दसवें गुरु के असाधारण कार्य के फलाफल और उनकी महती चेष्टा की परिणति को समझने में विशेष सुविधा होती । सिक्ख इतिहास के केंद्रस्थल में हैं गुरु गोविन्द सिंह । उन्होंने जिस जाति के संगठन में अपनी समग्र प्रतिभा व शक्ति लगा दी उस जाति का इतिहास ही तो है इस महापुरुष का प्रकृत जीवन-चरित्र । जैसे जड़ और शाखारहित तने की शोभा नहीं होती वैसे ही सिक्ख संप्रदाय के पूर्व व परवर्ती वृतांत के बिना गोविन्द सिंह का जीवन-चरित्र असंपूर्ण लगता है । आशा है, द्धितीय संस्करण में लेखक यह अंश जोड़ देंगे एवं सिक्ख महापुरुष के धर्ममत और समाज-संस्कार की विशद वर्णना कर अपनी लिखी पुस्तक को सर्वांग सुन्दर बनायेंगे । उनकी पुस्तक को पढ़ते
हुआ खालसा-संस्थापक स्वदेशी-हितैषी महावीरों के उदार चरित्र व अदभुत कार्य
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की ओर मन प्रबल रूप से आकृष्ट होता है । जिन्होंने देश के कार्य के लिये आत्मोत्सर्ग किया है या जो करना चाहते हैं, यह जीवनी उनकी शक्ति बढ़ायेगी और ईश्वरीय प्रेरणा को दृढ़ बनायेगी ।
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कार्तिक १, १३१६
राष्ट्रीय घोषणा-पत्र पढ़ा गया, यह बहुत ही हर्ष का विषय है । इस बीच और कोई बात न उठने पर, वाद-प्रतिवाद और मनोमालिन्य का कोई अवसर न दिये जाने पर हम इसके लिये नेताओं को धन्यवाद दे छुट्टी पाते । किंतु 'बंगाली' पत्रिका ने हमें मिथ्यावादी ठहराया है इसलिये हम इस विषय का असली वृत्तांत सर्वसाधारण की जानकारी के लिये प्रकाशित करने को बाध्य हुए । 'सहयोगी' ने सच्ची बात को गुप्त रख इतना ही कहा है कि 'धर्म' में प्रकाशित बातें सर्वथा निराधार हैं, अर्थात् हमने झूठी व मनगढंत बातों का प्रचार कर मध्यपंथी नेताओं के प्रति लोगों को असंतुष्ट करने का प्रयास किया है । अब आप सच्ची घटना को जानकर विचार करें । हमने पहले कहा था कि पिछले साल कई विज्ञापन में लिखा था : ''राष्ट्रीय घोषणा-पत्र पढ़ा जायेगा । '' इस बार जब विज्ञापन के बारे में परामर्श चल रहा है तब एक संभ्रांत नेता ने ''राष्ट्रीय घोषणा-पत्र'' को रद्द कर दिया और इसे हटा कर विज्ञापन छापने का हुकुम हुआ । इस बारे में परामर्श के समय प्रतिवाद बिलकुल ही नहीं हुआ हो ऐसी बात नहीं, किंतु नेताओं के विरुद्ध आवाज उठाने का साहस किसी में नहीं था । ठीक हुआ है कि श्रीयुत सुरेंद्रनाथ वंधोपाध्याय, ए० रसूल और राय यतींद्रनाथ चौधरी हस्ताक्षर करेंगे । राष्ट्रीय घोषणा-पत्र वर्जित हुआ है देख रसूल साहब विस्मित हुए । यह भूल संशोधित न होने तक विज्ञापन में हस्ताक्षर करने को वे राजी नहीं, ऐसा उत्तर उन्होंने सुरेंद्रबाबू को लिख भेजा है । इस बीच श्रीयुत रसूल के नामसहित विज्ञापन की छपाई और बंटाई आरंभ हो चुकी थी । पर उनका उत्तर प्राप्त होते ही छपाई व बंटाई बंद कर श्रीयुत रसूल के नाम के बदले श्रीयुत मतिलाल घोष का नाम बिठा वही विज्ञापन छपाकर बांटा गया । जो कुछ कहा है वह केवल सुनी-सुनायी बात नहीं, उसे अस्वीकार करने की क्षमता किसी में भी नहीं, प्रत्येक बात का अकाट्य प्रमाण है । इसके बाद श्रीयुत रसूल और श्रीयुत अरविन्द घोष ने जब जाना कि नेतागण घोषणा-पत्र का बहिष्कार करने में सचेष्ट हैं तब जिन्होंने विज्ञापन में हस्ताक्षर किया था उनको
एवं सभापति श्रीयुत चौधरी को नोटिस दिया की एतदर्थ हम आम सभा में
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आपत्ति उठायेंगे और चेष्टा करेंगे कि राष्ट्रीय घोषणा-पत्र पढ़े जाने का आदेश मिले । उत्तर में श्रीयुत मतिलाल घोष ने देवघर से इस प्रकार का टेलिग्राम भेजा : यदि सरकार ने निषेध न किया हो । राष्ट्रीय घोषणा-पत्र पढ़े जाने के बारे में सुरेंद्रबाबू और यतींद्रबाबू ने कोई उत्तर नहीं दिया । सभापति शुक्रवार को कलकत्ता पहुंचे, रात को पत्र मिला, अत: उनका भी कोई उत्तर नहीं आया । बुधवार को पत्र लिखा गया । शुक्रवार को श्रीयुत गीष्पति काव्यतीर्थ ने कालेज स्क्वायर में, आम सभा में, यह शुभ संवाद घोषित किया कि राष्ट्रीय घोषणा पढ़ी जायेगी । शनिवार को सुबह 'बंगाली' पत्रिका में हमारी बात झूठी है यह कहकर वह शुभ-संवाद पाठकवर्ग को बतलाया गया । यही है वृत्तांत । जनता ही इसका विचार करे ।
३०वीं आश्विन
३०वीं आश्विन का समारंभ देख इस बार देशवासियों को आनंद, विपक्षियों को मन:क्षोभ होगा । आंदोलन शांत नहीं हुआ है, बाधा-विघ्न, भय-प्रलोभन को अतिक्रम कर पूर्ण मात्रा में जीवंत है । उसका बाह्य चिन्ह चाहे बंद कर दो, लुप्त कर दो, पर हृदय-हृदय में नूतन भाव जाग्रत ही रहेगा, स्वराज्य-लाभ से ही शांत नहीं होने का, संतुष्ट हो अन्य आकार धारण करेगा । विजातीय समाचार-पत्र जनता के उत्साह को अस्वीकार करने की चेष्टा करेगा ही, किंतु उनके लेखों में उनका उत्साह-भंग लक्षित होता है । 'स्टेटसमैन' ने अन्य उपाय न देख श्रीयुत चौधरी के भाषण से सांत्वना रस चूसने की चेष्टा की है, क्योंकि चौधरी महाशय ने छात्रों को राजनीति से किनारा करने के लिये कहा है । किंतु छात्रों ने जो ३० आश्विन के समारंभ में पूर्णरूपेण भाग लिया इस बात पर चुप क्यों ? लोगों का कहना है कि पिछली बार सभा में इतनी भीड़ नहीं हुई थी, उस जन-समुद्र-प्रांत पर बैठने की भी जगह नहीं थी, खड़े ही रहना पड़ा । आस-पास के रास्ते पर, दीवार पर, छतों पर भी लोग ही लोग थे । सभी बंगालियों ने दूकानें बंद कर दी थीं, केवल बड़े बाजार के मारवाड़ी और 'हिन्दुस्तानी' दूकानदार लोभ संवरण न कर पाये, किंतु उनकी दूकानों पर खरीदनेवाले कम ही देखे, बस, दूकान खोले बैठे थे वे । लोगों में उत्साह भी कुछ कम नहीं था । श्रीयुत सुरेंद्रनाथ वंधोपाध्याय और श्रीयुत अरविन्द घोष को सभा से ले जाने के समय उस उत्साह की उग्रता व गभीरता देखते ही बनती थी । जो अनवरत जय-जयकार व 'वन्दे मातरम्' की ध्वनि बहुत देर तक पृथ्वी और आकाश को कंपित करती रही, वह नेताओं के लिये नहीं, वह था उनके लिये सम्मान जो इस दुर्दिन में आंदोलन के चिन्हस्वरूप अग्रभाग में रह राष्ट्रीय ध्वजा को उठाये खड़े थे । नेता याद रखें यह बात कि कल यदि वे भग्नोतत्साह हों या उस
ध्वजा को धूल पर लोटने दें तो जय-जयकार के बदले उठेगी धिक्कार की आवाज |
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गवर्नमेंट के गोखले कि गोखले की गवर्नमेंट
पूना का कांड और गोखले महाशय के किये का फल देख सारा भारत अवाक् रह गया । श्रीयुत गोपालकृष्ण गोखले की बुद्धि व चरित्र पर हम अन्य देशवासियों की तरह कभी भी मुग्ध नहीं थे । उनके स्वार्थ-त्याग में व्यक्तिगत यशोलिप्या, सम्मान- प्रियता और ईर्ष्या देख हम असंतुष्ट थे । उनकी देशसेवा में साहस व उच्च आदर्श का अभाव देख उसके अंतिम परिणाम के बारे में हमें चिरकाल से ऐसी ही आशा थी । किंतु हमने सपने में भी नहीं सोचा था कि भारतवासियों के इस सम्मान और प्रेम-भाजन के भाग्य में इतनी अवनति बदी है । हम जानते थे कि अपनी विख्यात क्षमा- प्रार्थना के बाद गोखले महाशय सरकारी-कर्मचारियों के अतीव प्रिय पात्र हो उठे थे । जब वे व्यवस्थापक सभा में उन सबके साथ वाद-विवाद करते तब देखने पर वे लगते धनी के मुंह लगे लाड़ले, जिनकी देह पर वे हाथ फेरते या मीठी-मीठी गालियां देते । किंतु एक दिन उनकी ही खातिर एक विख्यात साप्ताहिक पत्र दमन नीतिवश निगृहीत होगा, पूना शहर खाना-तलाशी की धूम-धाम से परेशान हो उठेगा, एक संभ्रांत वकील पुलिस द्धारा पकड़े जायेंगे और अभियुक्त बनेंगे एवं अन्यान्य नागरिक पकड़े जाने के भय से व्याकुल होंगे, यह सब हमने सपने में भी नहीं देखा था । हम जानते थे कि गोखले हैं गवर्नमेंट के, अब पूछना पड़ता है क्या गवर्नमेंट गोखले की है ? गोपालकृष्ण गोखले क्या ब्रिटिश साम्राज्य के स्तंभ और भारतीय शासन-तंत्र के अंग बन गये हैं ? हम जानते थे कि राजनीतिक हत्या या सशस्त्र विद्रोह की प्रशंसा करने से देशवासी का छापाखाना गवर्नमेंट की संपत्ति बन जाती है, बम या विद्रोह के षड्यंत्र को गंध पुलिसपुंगवों की तीव्र घाणेन्द्रिय में पहुंचते ही शहर-भर में खाना-तलाशी की धूम मच जाती है । पर हम यह नहीं जानते थे कि एक व्यक्ति की मानहानि से या उन्हें भय दिखाने से इस तरह का नवयुग का कांड घट सकता है । यह नयी प्रणाली गवर्नमेंट के योग्य है कि नहीं इसकी विवेचना राज-कर्मचारी करें । किंतु गोखले महाशय का परिणाम देख हम दुःखित हैं । कवि ने ठीक ही कहा है हम मनुष्य हैं, विगत महत्व की छाया के विनाश से भी हमारी आंखें भर आती हैं । गोखले महाशय कभी भी महत् नहीं थे, तब हां, महत् की छाया तो थे ही । उनका सकल मत, बुद्धि- विधा, चरित्र उनका अपना नहीं था, था कैलाशवासी रानाडे का दान । गोखले में महात्मा रानाडे की छाया विनष्ट होते देख हम दुःखी हैं ।
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अंक १०
कार्तिक २२, १३१६
बजट के लिये युद्ध
विलायत में बजट को ले जो महायुद्ध छिड़ा है वह अंग्रेजी राजनीति की सामान्य बक-झक नहीं । उदारनीति दल और रक्षणशील दल में जो संघर्ष होता था वह सामान्य मतभेद लेकर होता था । रिर्फोर्म बिल के बाद जमींदार-वर्ग और मध्य श्रेणी के अंग्रेजी में जो तीव्र विद्वेष व विरोध रानी एलिजाबेथ और राजा चार्ल्स के समय से अंग्रेज राजनीति की इतिहास के प्रत्येक पृष्ठ पर अंकित हैं वह प्रशमित हुआ । मध्य श्रेणी की जीत हुई किंतु विजेताओं ने विजित पक्ष को विनष्ट न कर लब्ध अधिकार का भाग दिया । इसके बाद से घरेलू विवाद चल रहा है । इस विवाद में मध्य श्रेणी निम्न श्रेणी की सहायता से विद्रोही जमींदार-वर्ग का दमन करने की आशा से धीरे-धीरे अंग्रेजी राजनीतिक जीवन को भित्ति को विस्तृत बना रही है । इसका इंग्लैंड आजकल असंपूर्ण प्रजातंत्र (Limited Democracy) बन गया । अब लायड जॉर्ज और विन्सटन चर्चिल इस शांत राजनीतिक जीवन में महा विभ्राट और राष्ट्र-विप्लव की संभावना की सृष्टि कर रहे हैं । आजकल सारे यूरोप में सोशलिस्ट (समाजवाद) दल की अतिशय वृद्धि हो रही है और प्रभाव बढ़ रहा है । जर्मनी में, इटली में, बेलजियम में वे मंत्रणा-सभा में प्रबल व बहुसंख्यक हैं । स्पेन में जोर-जबरदस्ती से उनके प्रचार व दल-वृद्धि बंद करने की चेष्टा हुई थी इसीलिये वर्सेलोना में भीषण दंगा हुआ । फेरर की मृत्यु और सारे पाश्चात्य जगत् में दंगा-फसाद हुआ । इंग्लैंड और फ़्रांस इस प्रवाह के बाहर ही रहे क्योंकि इन दो देशों की प्रजा की स्वाधीनता और सुख की थोड़ी-बहुत व्यवस्था हो चुकी थी । किंतु इधर चार-पांच वर्षों से उन दो देशों में भी सोशलिस्टों का प्रभाव व संख्या बढ़ती जा रही है । लायड जॉर्ज के बजट में हठात् सोशलिज्म को ब्रिटिश राजतंत्र में घुसाया गया है । इस बजट में जमींदार-वर्ग की संपत्ति पर कर बैठाया गया है इससे जमींदार और मध्य श्रेणी में जो संधि हुई थी उसका मुख्य अंग विनष्ट हो गया । जमींदारों की जमींदारी पर एक बार कर बैठाने पर ब्रिटिश प्रजा-वर्ग शीघ्र ही उस कर को बढ़ाते-बढ़ाते अंत में सारी जमींदारियों को थोड़े दाम में ही देश की संपत्ति बना लेगा । जमींदार-वर्ग फिर नहीं रह जायेगा । इसीलिये जमींदार क्रोध से उबल पड़े हैं और जमींदार सभा (House of Lords) बजट का प्रत्याख्यान या परिवर्तन कर Commons (लोकसभा) को लौट। देने के लिये कृत-निश्चय हैं । इससे ब्रिटिश राजतंत्र के मूल नियम पर हस्तक्षेप होगा । नाम के लिये प्रजा के प्रतिनिधि वर्ग के सर्वविध प्रस्तावों का प्रत्याख्यान या परिवर्तन करने का
अधिकार जमींदार सभा को है, किन्तु बजट सिर्फ सम्मान के लिये उस सभा में भेजा
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जाता है, जमींदार सभा कभी बजट में हस्तक्षेप नहीं करती । अतएव बजट के अस्वीकृत होते ही उदारनीतिक मंत्री अंग्रेजों के सामने यह प्रस्ताव ले उपस्थित होंगे कि जमींदार सभा का लोकसभा के प्रस्ताव को निषेध करने का अधिकार खतम किया जाये । उदारनीतिक दल की जय होने से पुरातन राजतंत्र निषेध अधिकार के लोप से खुद ही लुप्त होगा । और शीघ्र ही होगा पूर्ण प्रजातंत्र का स्थापन, जमींदार-सभा व जमींदार-वर्ग का विनाश और सोशलिज्म का विस्तार । लायड जॉर्ज और चर्चिल जान-बूझकर इस राष्ट्र-विप्लव को पाल रहे हैं । आस्किथ, मारले इत्यादि वृद्ध मध्यपंथी इन दोनों के तेज से अभिभूत ही, ऊंचे पद के मोह से और राजनीतिक संग्राम के मद से अंधे हो उनकी चेष्टा में योग दे रहे हैं । अब Conservative England, रक्षणशील इंग्लैंड की खैर नहीं । सर्वग्रासी कलि अंग्रेजों का राष्ट्रीय चरित्र, राष्ट्रीय धर्म और महत्व की भित्ति, सबको निगलता जा रहा है ।
क्या होगा ?
जनवरी में जो प्रतिनिधि विलायत में निर्वाचित होंगे उन पर बहुत-कुछ निर्भर करता है भारत का भाग्य । हमारे लिये उदारनीतिक और सोशलिस्ट दल की जय नितांत वांछनीय है । यदि कभी भी वैध प्रतिरोध द्वारा अंग्रेजी सरकार को स्वायत्त-शासन का बिल कोमन्स (लोकसभा) में उपस्थित करने को हम बाध्य करें, तो जैसे जमींदार सभा ने आयरिश स्वायत्त-शासन के बिल का निराकरण किया था वैसे ही हमारे स्वायत्त-शासन के बिल का भी निराकरण करेंगे । अतएव जमींदार सभा के निषेध-अधिकार का नष्ट होना ही है हमारी कार्यसिद्धि का एकमात्र उपाय । भगवान् उस उपाय के लिये उधोग कर रहे हैं । सोशलिस्ट दल के प्राबल्य से चाहे और कोई विशेष कार्यसिद्धि न हो, दमन-नीति को शिथिल करने की सुविधा हो भी सकती है, कारण, सोशलिस्ट दल अभी अधिकार-रहित है और है अधिकार-लाभ का प्रयासी, अतः जगत् के अधिकार-रहित सभी संप्रदायों व राष्ट्रों के साथ उनकी सहानुभूति है । किंतु अब जो अवस्था है उसमें उदारनीतिक दल की जय और सोशलिस्टों के प्राबल्य की आशा नहीं की जा सकती । बजट द्वारा निजी संपत्ति की प्रथा विनष्ट हो जायेगी, इंग्लैंड में सोशलिज्म स्थापित होगा, किसी की भी घन-संपदा अब निरापद नहीं रहेगी, ऐसी अफवाह उड़ा रक्षणशील (कंजर्वेटिव) दल अनेक उदारनीतिक सज्जनों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है । और फिर उन्होंने टेरिफ रिफार्म (प्रशुल्क-सुधार) का धुआं उड़ा निम्न श्रेणी के अनेक लोगों को भी वैसे ही अपने हाथ में कर किया है । अबाध वाणिज्य में, वाणिज्य-क्षेत्र में इंग्लैंड का प्रधान स्थान विलुप्त हो गया है । दूसरे राष्ट्र
उसे मात दे रहे हैं, इसलिये निम्न श्रेणी के कर्म के अभाव में खाधा के अभाव में
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हाहाकार मच रहा है-इस मत का जोर-शोर से प्रचार किया गया है । जो निर्वाचन पिछले कुछ महीनों में हो चुके हैं उनमें इस उपाय से रक्षणशील दल की वृद्धि की गयी है, उदारनीतिक वोट कम गये हैं, फिर भी यदि उदारनीतिक व सोशलिस्ट दल एक हों तो रक्षणशील दल पराजित होगा । किंतु अब तो अवस्था विपरीत है । जहां से उदारनीतिवाले खड़े होते हैं वहीं से खड़े होते हैं सोशलिस्ट । यधपि दोनों के संयुक्त वोट रक्षणशील निर्वाचन प्रार्थी के वोटों से अधिक हैं तथापि पारस्परिक विरोध से दुर्बल पक्ष की जीत होती है । सोशलिस्टों ने ठीक पथ ही पकड़ा है, इस तरह असुविधा न भोगने से उदारनीतिक दल उनके साथ संधि करने के लिये बाध्य क्यों होगा ? किंतु मि० आस्किथ यदि निर्वाचन प्रथा के पक्ष में झूठी बात और परस्पर विरोधी युक्ति का प्रयोग करते-करते बुद्धि भ्रष्ट न हो जायें तो निर्वाचन के पहले ही वे सोशलिस्टों के अस्सी प्रतिनिधियों के निर्वाचन की व्यवस्था कर अन्य सभी उदारनीतिक स्थानों को निरापद बनायेंगे और टेरिफ रिफार्म की हवा उड़ाने के लिये पार्लियामेंट के टूटने के पहले ही निषेध-अधिकार खतम करने का बिल कोमन्स् में उपस्थित कर उस पर ही प्रतिनिधि निर्वाचन के समय वे निर्भर करेंगे । इससे सबके सब अंग्रेज निम्न श्रेणी के निर्वाचक टैरिफ रिफार्म का मोह भूल उदारनीतिक पक्ष को वोट देने को दौड़े आयेंगे । ग्लैडस्टोन जीवित होते तो यही करते । आस्किथ साहब से इस चौकस बुद्धि की प्रत्याशा की जाये कि नहीं-संदेह है ।
अंक ११
कार्तिक २१, १३१६
रिफार्म
आज है सोमवार, १५ नवंबर । आज के दिन महामति लार्ड मारले व लार्ड मिण्टो की गभीर भारत-हित की चिंता से राजनीतिक तीक्ष्ण बुद्धि और उदार मत में आसक्ति के फलस्वरूप शासन-सुधाररूपी मानसिक गर्भ प्रसूत होगा । धन्य हैं लार्ड मारले, धन्य हे मिण्टो और धन्य हैं हम । आज भारत में स्वर्ग उतर आयेगा । आज फारस, टर्की, चीन, जापान तक भारत की ओर ईर्ष्याभरी नजर से देख 'इंगलिशमैन' के सुर में सुर मिलाकर गायेंगे, ''धन्य हैं वे जो पराधीन हैं, धन्य, धन्य, जो पराधीन हैं यूरोपीय राष्ट्रों के, धन्य, धन्य, धन्य जो पराधीन हैं उदारनीतिक मारले-मिण्टो के । काश, हम भी भारतवासी होते तो इस सुख से वंचित न रहते । '' आशा है कि जो भी भारतवासी नव
उन्मादना से उन्मत्त न हुए होंगे, इस कोरस-गान से आकाशमंडल को विध्वनित करेंगे |
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'इंग्लिशमैन' का क्रोध
बहुत दिन पहले हमने सहकारी 'इंग्लिशमैन' की सरलता की प्रशंसा की थी । आज फिर प्रशंसा किये बिना नहीं रह सके । अन्य ऐंग्लो-इंडियन दैनिक हैं दुमुंहे सांप, स्वाधीनता की प्रशंसा करते हैं और भारत की पराधीनता की भी । और तो और भारत की पराधीनता की आवश्यकता को प्रमाणित करने की भी चेष्टा करते हैं । सहयोगी की आंखों में शर्म नहीं । जो मन में आता है, केवल मानहानि के कानून को सामने रख बिना आवरण के लिख मारता हे । ऊटपटांग रुकना हो तो ऊटपटांग ही बकता है । युक्ति, सत्य संलग्नता पर ताण्डव नृत्य करना उसे बहुत प्रिय है । वह है मुक्तपुरुष, समाचार-पत्रों में नागा सन्यासी । 'इंग्लिशमैन' स्वाधीनता की बात सुनते ही सिहर उठता है । जैसे वह भारतवर्ष का स्वाधीनता-विरोधी है वैसे ही इंग्लैंड का भी । एक स्वेच्छाचार-तंत्र सारे ब्रिटिश साम्राज्य पर अधिकार कर विराजे और 'इंग्लिशमैन' बना रहे उसका मुखपात्र, यही है सहयोगी का राजनीतिक आदर्श । जो स्वाघीनता के अनुमोदक या प्रचारक हैं वे हैं वध्य या निर्वासन और जेल के योग्य । मि० बैलफूर के अधिकार प्राप्त करते ही लुई नैपोलियन की तरह राष्ट्रविप्लव खड़ा कर मि० लायड जॉर्ज व विंस्टन चिर्चिल को जेल भेजने और मि० कीर हार्डी व विक्टर ग्रेसन को कोर्ट मार्शल करने का परामर्श सहयोगी निश्चय ही किसी भी दांव-पेंच से देगा । उन्हें स्वाधीनता से भी बढ़कर अप्रिय है साम्य । सहयोगी का कहना है कि सारे यूरोप व एशिया में जो साम्य-प्रचार और साम्य की आकांक्षा उठी है उसे प्रचारकों के रक्त से बुझाने पर पृथ्वी के सारे सिंहासन डोल जायेंगे व हेअर स्ट्रीट लुप्त हो जायेगी । अतएव विक्टर ग्रेसन, वृद्ध और मूर्ख टालस्टाय व ''माणिकतला' ' के अरविन्द घोष-कैसा अपूर्व समावेश । 'इंगलिशमैन' ठीक फेरर की तरह बिना विचारे गोली दागने को नहीं कहता पर वैसी ही कुछ व्यवस्था न करने से अब किसी की खैर नहीं । इतनी सरलता में यह असरलता क्यों ? 'इंगलिशमैन' को भला क्या डर ? हिंदू-पंच के भाग्य में जो लिखा था 'इंगलिशमैन' द्धारा हत्या या बल-प्रयोग की हजार सलाह देने पर भी उसके भाग्य में वह नहीं घटने का । प्रजा की हत्या करने की प्रवृत्ति को बंद करना है आईन का उद्देश्य, पर राजा के मन में हत्या की प्रवृत्ति जगाने की चेष्टा के लिये कोई दंड नहीं !
देवघर में जीवंत समाधि
समाचार-पत्र में प्रकाशित हुआ है कि एक हिंदू साधु हरिदास संन्यासी से आगे बढ़
गये | समाधि-निमग्न न होने पर भी जिंदा ही कुछ दिन कब्र में रहे | हमारे देश में
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सारी प्राचीन विधा लुप्त हो गयी है इसी से हम ऐसे प्रयोग से आशचर्यान्यित होते हैं । पूर्व-पुरुषों की बात हम कुसंस्कार कह उड़ा देते हैं । हमें अपने प्राचीन साहित्य में, धर्म में, शास्त्र में, शिक्षा में जिस विधा का भग्नांश ही हस्तगत हुआ है उसकी तुलना में आधुनिक पाश्चात्य विज्ञान की सारी विद्या है नवजात शिशु का अर्थहीन प्रलाप-मात्र । जैसे शिशु जो पदार्थ भी सामने देखता है उसे हाथ में उठा, हाथ फिरा, तोड़-फोड़कर बाह्य जगत् का थोड़ा-बहुत ज्ञान संचय करता है, किंतु जगत् क्या है, पदार्थ का असली स्वरूप क्या है व संबंध क्या है, कुछ भी नहीं जानता, वैसे ही पाश्चात्य विज्ञान प्रकृति के सब स्थूल पदार्थ हाथ में उठा, हाथ फिरा, तोड़-फोड़कर कुछ ज्ञान संचय करता है । किंतु जगत् क्या है, पदार्थ का असली स्वरूप क्या है, स्थूल और सूक्ष्म में क्या संबंध है, इस विषय में वह कुछ भी नहीं जानता और इस विद्या के अभाव में पदार्थ के वास्तविक स्वभाव से अवगत नहीं हो पाता । शवच्छेद कर और रोग के लक्षण व असंबद्ध कारण का निरीक्षण कर मनुष्य के बारे में जितना-सा ज्ञान संचय होता है बस उतना ही ज्ञान पाश्चात्य विद्या से पाया जाता है । अनेक विषयों में यह ज्ञान भ्रांत है । वैज्ञानिक कहते हैं कि आकर्षण-शक्ति है जगत् का सर्वव्यापी अलंद्य नियम, किंतु मनुष्य प्राणायाम द्वारा आकर्षण-शक्ति जीत सकता है, जगत् के बाहर इस नियम में कोई दम नहीं । वैज्ञानिकों का कहना है कि हृत्पिंड के स्पंदन और श्वास-निःश्वास के रुद्ध होते ही शरीर में प्राण नहीं रह सकते, किंतु प्रमाणित हो चुका है कि हृत्पिंड के स्पंदन और श्वास-निःश्वास की क्रिया बहुत देर तक और बहुत दिनों तक रुद्र रह सकती है, फिर भी वह निःश्वास-रुद्ध व्यक्ति पूर्ववत् चल-फिर सकता है, बात कर सकता है, बचे रहना तो मामूली बात है । इससे पता चलता है कि पाश्चात्य विद्या अपने क्षेत्र और स्थूल पदार्थ के ज्ञान में भी कितनी संकीर्ण और क्षुद्र है । असली विज्ञान तो हमारा ही था । वह ज्ञान स्थूल प्रयोग द्वारा प्राप्त न हो सूक्ष्म प्रयोग द्वारा प्राप्त हुआ था । हमारे पूर्वपुरुषों का ज्ञान भले ही लुप्त-प्राय हो गया हो, पर जिस उपाय से वह लुप्त हुआ था उसी उपाय से पुन: प्राप्त हो सकता है । वह उपाय है योग ।
संयुक्त कांग्रेस
सहयोगी 'बंगाली' ने संयुक्त कांग्रेस के बारे में जो निबंध छापा है, उसे न छापता तो अच्छा होता । सहयोगी जिन शर्तो पर राष्ट्रीय पक्ष का अहायन कर रहा है वे हैं मध्यपंथियों के अनुकूल । गत वर्ष राष्ट्रीय पक्ष ने कन्वेंशन में प्रवेश पाने की सुविधा के लिये प्रार्थना की थी और कलकत्ते के अधिवेशन में चारों प्रस्तावों के स्वीकृत होने की
आशा देख मध्यपंथियों की मनोनीत शर्तें मान ली थीं | इस बार वह सहज ही सहमत
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नहीं हो सकता । इस बीच राजनीतिक क्षेत्र में अनेक परिवर्तन हो चुके हैं । पश्चिम भारत के मध्यपंथियों के मनोभाव परिस्फुट हो रहे हैं, राष्ट्रीय पक्ष अब गोखले-मेहता के अधीन हो कांग्रेस बुलाने के लिये राजी नहीं होगा, तथापि अब भी विवेचना चल रही है, थोड़े दिनों में कोई स्थिर सिद्धांत बनने की बात है । ऐसे में इस तरह विचार प्रकट कर देने से वाद-विवाद होने पर समझौते में बाधा ही आयेगी ।
अंक १२
अगहन ६, १३१६
हिंदू संप्रदाय और शासन-सुधार
हमने जब हिंदू सभा की बात लिखी थी तब इस आशय की राय दी थी कि यद्यपि गवर्नमेंट के प्रसाद-अन्वेषी व स्वतंत्रता-अनुमोदक मुसलमान संप्रदाय के प्रति विरक्त हो स्वतंत्र राजनीतिक चेष्टा करना हिंदुओं के लिये स्वाभाविक है पर वैसी चेष्टा से देश का अनिष्ट ही होगा, भला होने की संभावना नहीं । अब भी इस मत को बदलने का कोई कारण हमें विदित नहीं । शासन-सुधार या नूतन व्यवस्थापक सभा में हमारी कभी कोई आस्था नहीं रही, हिंदुओं और मुसलमानों को बिना पक्षपात के उस सभा में प्रवेश करने का समान अधिकार देने पर भी हम उस कृत्रिम सभा का अनुमोदन नहीं करते । हमारा भविष्यत् हमारे हाथ में है, इस सत्य को संपूर्णतया और दृढ़ हृदय से ग्रहण करने की शक्ति जब प्राप्त होगी तब अविलंब प्रकृत प्रजातंत्र के विकास के अनुकूल व्यवस्थापक सभा की सृष्टि हो जायेगी । अतः इस कृत्रिम स्वर्ण-भूषित खिलौने को ले भाई-भाई में झगड़ा खड़ा करना हमारे मत में केवल बालोचित मूर्खता है । फिर भी हम यह स्वीकार करते हैं कि इस नये सुधार द्वारा हिंदू संप्रदाय के अपमान और बहिष्कार की चेष्टा से उसके असंतुष्ट और विरक्त हो जाने के यथेष्ट कारण हैं । सर्वत्र मुसलमानों को स्वतंत्र प्रतिनिधित्व दिया गया है । जहां उनकी संख्या कम है वहां उन्हें अल्प-संख्यक मान उनके स्वतंत्र निर्वाचक-वर्ग के निर्वाचित स्वतंत्र प्रतिनिधि नियत किये गये हैं, और जहां उनकी संख्या अधिक है वहां उन्हें बहु-संख्यक मान उनके स्वतंत्र निर्वाचक-वर्ग के निर्वाचित स्वतंत्र प्रतिनिधि निर्धारित किये गये हैं । हिंदुओं को कहीं भी ऐसी सुविधा नहीं दी गयी । जहां वे अल्प-संख्यक हैं वहां उन्हें दी नहीं जा सकती, देने से सभा में उनका प्राबल्य होगा, जहां वे बहु-संख्यक हैं वहां भी नहीं दी गयी, देने से सभा में मुसलमानों का पूर्ण प्राबल्य खर्व होगा । जिस नियमानुसार निर्वाचक-वर्ग गठित हुआ है उससे निर्दिष्ट तत्व या उदार मत लक्षित नहीं होता । बहुत-से शिक्षित
और संभ्रांत मुसलमान बाहर रह गये हैं | अनेक अशिक्षित गवर्नमेंट के खैरखावाह
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निर्वाचक-वर्ग में आ घुसे हैं तथापि इस नयी सृष्टि पर प्रजातंत्र की अस्पट दूरवर्ती छाया की छाया पड़ी है । हिंदुओं पर रत्तीभर भी अनुग्रह नहीं हुआ । यह जानने के लिये मन में कौतूहल हो रहा है कि इस तरह भारतवर्ष के प्रधान संप्रदाय को अपमानित और असंतुष्ट बनाये रखने का कौशल किस जगद्-विख्यात राजनीतिज्ञ की कल्पना में पहले-पहल उपजा । बर्क और वाल्तेयर के भक्त मारले की या कनाडा-शासक लार्ड मिंटो की ? या और किसी छिपे रत्न की ?
मुसलमानों का असंतोष
शासन-सुधार से दो मुसलमान असंतुष्ट हुए हैं । एक हैं इंग्लैंड निवासी अमीर अली साहब और दूसरे कलकत्ते के डाक्टर सुहरावर्दी । दोनों के असंतोष का कारण एक ही तरह का नहीं । अमीर अली रूठे हैं क्योंकि शासन-सुधार द्वारा जो कुछ मुसलमानों को दिया गया है वह है अति अल्प । जार्ज साहब का विश्वग्राही लोग उससे तृप्त नहीं होता । पहले ही हम जान गये थे कि सारासेन जाति का इतिहास लिखने के कारण अमीर अली साहब के मन में अति उच्च व प्रशंसनीय महत्त्व का लोभ जनमा है । उनके मन में मध्यकालीन मुसलमान साम्राज्य के पुनराविभार्व का स्वप्न घूम रहा है । मजाक किया पर यह मजाक की बात नहीं । महत् मन, महती आकांक्षा और विशाल आदर्श राजनीतिक क्षेत्र में अतिशय उपकारी और प्रशंसनीय हैं । इनसे शक्ति बढ़ती हैं, उदार क्षत्रिय भाव जगता है, जीवन में तीव्र स्पंदन आता है । जो अल्पाशी हैं वे हैं जीवन्मृत । किंतु मजाक की बात, हास्यकर स्वप्न की बात यह है कि ब्रिटिश कर्मचारी-वर्ग की अधीनता में मुसलमानों के लुप्त महत्त्व का उद्धार होगा । अमीर अली क्या यह सोचते हैं कि अंग्रेज मुसलमानों को भारत के ''दीवान'' बनाने की मनशा से यह पक्षपात कर रहे हैं ? डाक्टर सुहरावर्दी के असंतोष का कारण है अपेक्षाकृत क्षुद्र । उनकी नालिश यह है कि विलायत से लौटे अनेक शिक्षित मुसलमानों को निर्वाचन-अधिकार से वंचित कर जितने गवर्नमेंट के ख़ैरख़ाह अशिक्षित कारीगर, दफ्तरी, विवाह के रजिस्ट्रार, खां बहादुर, खां साहब हैं, उन्हें निर्वाचक बनाया गया है । वे क्या इतना भी नहीं समझ सकते कि विलायत में स्वाधीनता नामक एक विष है, जो विलायत से लौटे हैं वे शायद उस विष से थोड़ा- बहुत विषमय होकर लौटे हों, ऐसे लोगों के व्यवस्थापक सभा में प्रवेश करने से महा विभ्राट् मचने की संभावना है । और ऐसे सुधार में शिक्षित व्यक्ति उपयुक्त निर्वाचक हैं या ख़ैरख़ाह, कारीगर, दफ्तरी, खां-साहब, खां बहादुर और विवाह के रजिस्ट्रार ? डाक्टर साहब विवेचना कर इस प्रश्न का उत्तर दें । वे मानने को बाध्य होंगे कि उनका
असंतोष है आज्ञान-जनित |
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मूल और गौण
हमारे राजनीतिक चिंतन का प्रधान दोष और राजनीतिक कर्म के दौर्बल्य का कारण यह है कि हम मूल और गौण में प्रभेद समझने में अक्षम हैं । जो मूल है उसे ही पकड़ना चाहिये, जो गौण है वह यदि मूल के अनुकूल हो तो मूल को कायम रखते हुए उसे ग्रहण करें । गौण को ग्रहण करने से यदि मूल को पाने की राह में बाधा पहुंचे या विलंब की संभावना हो तो कोई भी राजनीतिज्ञ गौण को अपनाने के लिये सहमत नहीं होगा । पर हम सहमत होते हैं, पग-पग पर मूल को फेंक गौण को साग्रह पकड़ने जाते हैं । हमारा ध्रुव विश्वास है कि गौण के मिलने से अंत में मूल स्वयं ही हाथ आ जायेगा । उल्टी बात ही ठीक है-मूल को प्राप्त करने पर उसके साथ-साथ सब गौण सुविधाएं व अधिकार जुट जाते हैं । रिफार्म के बारे में अनेकों का ऐसा मज्जागत भ्रम व बुद्धि-दौर्बल्य देख हम दुःखित हुए । खैर, कुछ तो लाभ हुआ, किसी समय और भी होगा । अंत में, थोड़ा-थोड़ा अधिकार प्राप्त करते-करते स्वर्ग पहुंचेंगे, जिनकी ऐसी धारणा है वे सचमुच इस कृत्रिम व्यवस्थापक सभा के प्रतिनिधि बनने के उपयुक्त राजनीतिज्ञ हैं । शिशु को छोड़ खिलौने की कद्र कौन समझता है ? किंतु शिशु-प्रकृति त्याग, स्वप्न-राज्य से नीचे उतर यदि एक बार कठिन व अप्रिय सत्य को देखें तो सहज ही बोध होगा कि इस तरह की चिंतन-प्रणाली कितनी भ्रांत व निराधार है । विज्ञ शिशुगण हमारे सामने इंग्लैंड का दृष्टांत रख अपने मत का समर्थन करते हैं । किंतु यह काल न तो मध्ययुग का है न रानी एलिजाबेथ का, यह है प्रजातंत्र के चरम विकास का काल-बीसवीं शताब्दी; हम भी स्वराष्ट्र के अधीन अंग्रेज प्रजा नहीं, हम हैं श्वेतवर्ण पाश्चात्य राजकर्मचारी-वर्ग की कृष्णवर्ण एशियावासी प्रजा, अतः इस अवस्था में और उस अवस्था में है स्वर्ग-पाताल का अंतर । इंग्लैंड में भी गौण की उपेक्षा कर मूल को आदाय करने की सुविधा या यंत्र न रहने से इंग्लैंड शायद आज भी स्वेच्छाचार-तंत्र के अधीन देश रहता, या फिर रक्तपात वा राष्ट्रविप्लव से स्वाधीन होता । वह सुविधा या यंत्र हुआ power of the purse (धन-बल), राजा ने हमारी बात नहीं मानी, हम भी राजा के बजट को वोट नहीं देंगे-यह है अचूक ब्रम्हास्त्र । आईन-संगठन या बजट-विरचन का अधिकार प्रजा के प्रतिनिधि वर्ग के हाथ में रहने पर हम भी अब और रिर्फोर्म का बॉयकाट करने को न कहते । तब भला क्या, रिफॉर्म अस्वीकार करना विज्ञों का काम नहीं, गवर्नमेंट तो गवर्नमेंट ठहरी, वह जो दे उसे ग्रहण करना चाहिये, पीछे और भी दे सकती है । एक बार भी क्या यह सोचा है कि गवर्नमेंट ने क्यों यह खिलौना भारत के पक्वकेश शिशुओं को दिया है ? देशव्यापी असंतोष, अशांति और दृढतापूर्वक बहिष्कार और अस्त्रप्रयोग के फलस्वरूप तुम्हें यह प्राप्त हुआ है । वह देख रही है कि इस प्राप्ति से तुम संतुष्ट होगे या और भी कुछ देना पड़ेगा ।
तुम यदि इसे ग्रहण करो तो फिर और एक बार उसी तरह तीव्र आन्दोलन
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नीति का प्रयोग न करने से और कुछ भी न पाओगे, न आकाश का चांद, न चांद की कृत्रिम स्वर्ग-विलेपित प्रतिकृति । यदि वह देखे कि इससे तो नहीं बना-प्रकृत अधिकार देना ही पड़ेगा तो प्रकृत अधिकार देगी, अधिक न हो, थोड़ा कुछ देगी । अतः रिफॉर्म अस्वीकार कर दृढ़ता से बॉयकाट का प्रयोग ही है बुद्धिवानों का कर्म । किंतु तुम्हें ये बातें कहना व्यर्थ है । शिशु-समाज में जिस 'संदेश' और रसगुल्ले का प्रचलन है वही है तुम्हारा मुख-रोचक । फिर तुम सब ही लड़कों से कहते फिरते हो कि राजनीति में नहीं पड़ना चाहिये, तुम सब अब भी हो अपक्व-बुद्धि राजनीति समझ नहीं सकते । खुद जब यह बचकानी बुद्धि त्यागते तब तुम्हारा यह कहना उचित होता ।
एक खरी वात
अपने राजनीतिज्ञों को दोष क्यों दें ? ब्रिटिश-शासन-काल में, बहुत दिन से इस देश में असली राजनीतिक जीवन लुप्त हो गया है । इस अनुभव के अभाव से हमारे नेता राजनीतिक-तत्त्व समझने में असमर्थ हो गये हैं । किलु इतने लंबे अरसे तक पराधीन देश के शासन में कृतविध और लब्ध-प्रतिष्ठ होकर भी अंग्रेज राजनीतिज्ञ इन कुछ वर्षो से जो विषम भूल करते आ रहे हैं उसे देख विस्मित होना पड़ता है । बंग-भग के बाद यह रिफॉर्म ही है उनकी प्रधान और मारात्मक भूल । इस रिर्फोर्म के फलस्वरूप देश में मध्यपंथियों का प्रभाव विनष्ट होगा, राष्ट्रीय पक्ष की दुगनी बल-वृद्धि होगी, इससे कर्मचारी-वर्ग की यथेष्ट क्षति होगी । किंतु सारे हिंदू-संप्रदायको अपदस्थ व अपमानित कर जो विष-बीज वपन किया गया है उससे और भी गुरुतर क्षति हुई है । मि० रैमसे मैक्डोनाल्ड ने 'एंपायर' के प्रतिनिधि से कहा है कि राजनीति-क्षेत्र में हिंदू-मुसलमान का यह भेद स्थापित कर कर्मचारी-वर्ग ने अपना अनिष्ट ही किया है । कच्चे राजनीतिक आंदोलन की अपेक्षा सांप्रदायिक व धर्म भेद-जनित असंतोष और आक्रमण हैं अति गुरुतर और गवर्नमेंट की भीति के कारण । बिलकुल खरी बात । यदि हम अंग्रेजों के प्रति विद्वेष भाव से गवर्नमेंट के अकल्याण को लक्ष्य में रख देश का कार्य करते-हमारे शत्रु इसी बात का रात-दिन प्रचार करते हैं-तो हमें आनंद होता । पर हम सरकार का अकल्याण नहीं चाहते, हम चाहते हैं देश का कल्याण और स्वाधीनता । हिंदू और मुसलमान के संघर्ष से जैसे गवर्नमेंट का वैसे ही देश का भारी अकल्याण होगा, अतः हम इस भेद-नीति का तीव्र प्रतिवाद करते हैं और हिंदू संप्रदाय से कहते हैं कि मुसलमानों के साथ संघर्ष छोड़ रिफॉर्म का बाँयकाट करो ।
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अंक १३
अगहन १३, १३१६
रैमसे मैक्डोनाल्ड
रैमसे मैक्डोनाल्ड के भारत आगमन के समय हमने लिखा था कि वे आकर ही क्या करेंगे, थोड़े दिन भारत में धूम-फिरकर ही क्या जान लेंगे ? भारत के शासन-सुधार में जब वे इतने आस्थावान् हैं तब भला हम भी उनसे सहानुभूति या लाभ की क्या प्रत्याशा कर सकते हैं ? इसके बाद मैक्डोनाल्ड के साथ हमारा परिचय हुआ । थोड़े ही दिन भारत में घूम आगामी प्रतिनिधि के निर्वाचन का संवाद पा वे विलायत लौट जाने के लिये बाध्य हुए हैं, इन थोड़े-से दिनों में भी वे प्रायः सभी अंग्रेज कर्मचारियों के साथ रहे । फिर भी देखा कि वे भारत की अवस्था को समझने की चेष्टा कर रहे हैं और कुछ परिमाण में कृतकार्य भी हुए हैं । पर मैक्डोनाल्ड हैं राजनीतिज्ञ और सतर्क । वे कीर हार्डी की तरह तेजस्वी व स्पष्ट वक्ता नहीं । अपनी राय बहुत-कुछ छिपाये रखते हैं, जो सोचते हैं उसका अल्पांश ही शब्दों में व्यक्त करते हैं । ब्रिटिश राजनीतिक जीवन में वे हैं श्रमजीवी दल के नरमपंथी नेता । श्रमजीवी सभी हैं, सभी सोशलिस्ट एक उद्देश्य को लक्ष्य बना अग्रसर हो रहे हैं । वर्तमान समाज को तोड़-फोड़ नये सिरे से गढ़ना चाहते हैं । किंतु कई चरमपंथी इस उद्देश्य को प्रकट कर, उदारनीतिक व रक्षणशील उभय दलों को पराभूत कर, प्रकृत साम्यपूर्ण प्रजातंत्र में व्यक्ति को डुबा समष्टि को देश की सर्वविध संपत्ति और आधिपत्य का अधिकारी बनाने को कृत-संकल्प हैं । मध्यपंथी श्रमजीवी कीर हार्डी का दल सुविधानुसार कभी तो उदारनीतिक दल को योगदान और कभी सुविधानुसार उस दल के विरुद्ध आचरण करता है, तब हमारे भूपेन्दबाबू और सुरेन्दबाबू की तरह association cum opposition (साहचर्य और विरोध) की नीति का अवलंबन ले एक हाथ से लड़ाई और दूसरे हाथ से आलिंगन करता है । नरमपंथी स्वतंत्रता की रक्षा करते हुए उदारनीतिक दल की पूर्ण सहायता ले अति सतर्कता से अवसर होना चाहते हैं । पर उद्देश्य एक ही है । मैक्डोनाल्ड हैं अतिशय बुद्धिमान, चिंतनशील व चतुर राजनीतिज्ञ । विलायत के भावी महायुद्ध में शायद वे एक प्रधान महारथी बनें । भारत के प्रति उनकी आंतरिक सहानुभूति है, किंतु इस अवस्था में भारत का कोई हित-साधित करना उनके बूते की बात नहीं ।
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रिफॉर्म और मध्यपंथी दल
मध्यपंथी दल अपना चिर वांछित शासन-सुधार पा गया है किंतु इस लाभ से हर्ष-प्रफुल्ल न हो शोक-संतप्त हो रहा है । उसके क्रंदन और तीव्र क्षोभ के यथेष्ट कारण हैं । उसके चतुर चूड़ामणि श्वेत श्यामराय ने मध्यपंथी राधा के प्रति स्वभाव-सुलभ धूर्तता की आड़ में चंद्रावली को काउन्सिल-अभिसार में बुलाकर प्रवेश कराया है । मध्यपंथी कह रहे हैं कि हमने ही शासन-सुधार कराया और हम ही उससे बहिष्कृत हो गये । जो शासन-सुधार के विरोधी थे वे ही ले लिये गये, यह कैसा मजाक, कैसा अन्याय ! यही करुण 'अभिमानपूर्ण' निवेदन चारों तरफ सुनायी दे रहा है, पर निवेदन निवेदन में प्रभेद है । बंबई-वासिनी राधा चिर अभ्यास की रक्षा करती हुई श्याम के साथ प्रेम-मिश्रित मधुर कलह कर रही है । बंग-वाहिनी राधा भारी मान में भरी बैठी है : अब श्याम का मुंह नहीं देखूंगी, यह कहने का साहस नहीं । श्याम को एकबारगी रंजीदा करना नहीं चाहती, पर मन-ही-मन कुछ ऐसा ही भाव है । मध्यपंथियों की विप्रलंभ की-सी दशा देख हंसी भी आती है और दया भी । किंतु राधा को यह समझना उचित था कि केवल कलह, केवल दावा करने से प्रेम नहीं टिकता, श्वेतवर्ण श्यामसुंदर ऐसा लड़का नहीं कि मान के भय से राधा के श्रीचरणों में लोट अपना सर्वस्व उसे दे दे । दुःख की बात है कि बेलविडया-निवासी श्यामसुंदर ने खूब प्रेम दिखाया था, उन्होंने ही ज्यादा धूर्तता की, अब मान-भंजन कौन करे ? वृद्ध मारले क्या फिर नूतन वंशी-रव से इनके आहत हृदय को शीतल करेंगे ?
गोखले की मानहानि
बड़े दुःख की बात है कि ब्रिटिश साम्राज्य के प्रधान स्तंभ माननीय गोखले महाशय के विरुद्ध कुछ अपक्वबुद्धि लोगों ने मिथ्या तिरस्कार कर और मजाक उड़ा महाराष्ट्रीय प्रजा को उत्तेजित किया है । गोखले महाशय ने मर्माहत हो ब्रिटिश विचारों का आश्रय लिया है । उनकी सहायता से अपनी मानहानि का मार्ग बंद कर दिया और अपने प्रधान शत्रु व निंदक 'हिंदू पेच' का उच्छेद कर डाला है । ठीक ही हुआ है । झूठ नहीं बोलना चाहिये । विश्वास करने पर भी जिस बात को तुम विचारालय में प्रमाणित करने में अक्षम हो उसे नहीं लिखना चाहिये । 'हिंदू पंच' के संपादक व पूना के वकील श्रीयुत भिडे इस बात को भूल दंड के भागी बने हैं । अच्छी बात है । किंतु राजनीतिक क्षेत्र में लोकप्रियता नालिश करके आदाय नहीं की जाती । दूसरे लोग गोखले महाशय की मानहानि करें इसका तो उपाय है, उसी उपाय के सहारे से वे जयी भी हुए हैं, पर
खुद ही वे अपनी मानहानि करें तो उसका क्या उपाय हो सकता ? गोखले महाशय
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जिसकी प्रशंसा करते थे अब उसकी निंदा कर रहे हैं, जिसकी निंदा करते थे उसकी प्रशंसा कर रहे हैं । यह देख लोग सहज ही उनके प्रति श्रद्धा खो बैठे हैं । पहले कर्मचारियों के प्रिय होते हुए भी जनता की प्रीति आकर्षित करना कठिन होने पर भी असाध्य नहीं थी, किंतु नये प्रलय के बाद से वह जल-स्थल-वासी जानवर विलुप्त हो गया है ।
नया काउन्सिल
जब वन के बड़े-बड़े सब वृक्ष काटे जाते हैं तब हजारों अलक्षित छोटे-छोटे पेड़-पत्ते आंखों को आकिर्षत करते हैं । पहले भूपेंद्रनाथ, सुरेंद्रनाथ, दरभंगा महाराज, रास बिहारी इत्यादि बड़े-बड़े राजनीतिक नेता, विख्यात जमींदार और लब्ध-प्रतिष्ठ विद्वान् व्यवस्थापक सभा के सभ्य होते थे, नये सुधार के प्रभाव से ऐसे लोगों को हटा कितनी ही छोटी-छोटी मछलियां सागर तल पर आ नव सूर्य की किरणों के नीचे सहर्ष उछल-कूद कर रही हैं । प्रतिदिन नये-नये निर्वाचन प्रार्थियों का नाम पढ़ हम विस्मित हो रहे हैं । इतने सारे अजाने महार्ध्य रत्न इतने दिन अंधकार में छिपे पड़े थे । हम लार्ड मारले का धन्यवाद करते हैं, देश इतना धनी था, अपना ऐश्वर्य आप ही नहीं जान पाया, मारले के प्रभाव से धन-भंडार का रुद्ध द्वार खुल गया है-सूर्य किरणों से प्रदीप्त हो सारे रत्न नयनों को चौंधियाये दे रहे हैं ।
अंक १४
अगहन २०, १३१६
ट्रांसवाल में भारतीय
ट्रांसवाल-वासी भारत-संतान ने जो दृढता और स्वार्थ-त्याग का दृटांत रखा है व रख रही है वह जगत् में अतुलनीय है । प्राचीन आर्य-शिक्षा व आर्य-चरित्र, इस सुदूर देश में, इन निःसहाय कुली-मजदूर और दुकानदारों के प्राणों में जिरा तीव्रता से जाग उठा है वैसा भारत में तो क्या बंगाल में भी उसी तरह, उतने ही परिमाण में अभी भी नहीं जगा है । बंगाल में हमने वैध प्रतिरोध का सिर्फ मुंह से समर्थन किया है, ट्रांसवाल में वे व्यवहार में उस प्रतिरोध का चरम दृष्टांत प्रस्तुत कर रहे हैं । तिसपर भारत में जो सब सुविधाएं और सहज फल-सिद्धि की संभावना है ट्रांसवाल में उसकी
रत्ती-भर नहीं | कभी-कभी लगता है की यह है व्यर्थ की चेष्टा, किस आशा से ये
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इतनी यातना, इतना धन-नाश, इतना अपमान व लांछन सह रहे हैं ?
टाउन-हॉल की सभा
मि० पोलक ट्रांसवालवासी भारत-संतान के प्रतिनिधि बन इस देश में आ भारतवासियों को सहानुभूति व सहायता की भिक्षा मांग रहे हैं । हममें सहानुभूति का अभाव नहीं, क्षमता के अभाव से हम निरुपाय और निश्चेष्ट पड़े हैं । हमारे तीन पथ हैं । गवर्नमेंट से निवेदन कर सकते हैं; इससे फल की कोई आशा नहीं, गवर्नमेंट भी ट्रांसवाल गवर्नमेंट के इस तरह के बर्बर व्यवहार से असंतुष्ट है, किंतु हमारे सरकारी कर्मचारी हमसे भी ज्यादा निरुपाय हैं । जिस विषय में भारत का हित इंग्लैंड के हित का विरोधी है उस विषय में भारतीय सरकारी कर्मचारी इच्छा रहने पर भी हमारा हित करने में अक्षम हैं । भारतवासी का औपनिवेशिक गवर्नमेंट के विरुद्ध आचरण करना
इंग्लैंड के हित में नहीं, औपनिवेशिकों का क्रोध विफल मन का भाव नहीं, वही क्रोध
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है कार्यकर । भारतवासी के हित पर चोट पड़ने से पराधीन भारतवासी रोयेगा ही, और क्या करेगा, हम नाटाल में कुली भेजने के पथ को बंद करने के लिये कह रहे हैं, इस पर यदि नाटालवासी असंतोष प्रकाश करें तो हमारी सरकार कभी भी इस उपाय को अपनाने का साहस नहीं करेगी । दूसरा पथ है-ट्रांसवाल के भारतीयों को आर्थिक सहायता दे पुष्ट करना, विशेषतया, उनके बच्चों को शिक्षा देने-दिलाने में ऐसी सहायता करने से उनकी एक गुरुतर असुविधा दूर होगी । पर ऐसी सहायता देना सहज नहीं । भारत को भी धन की बड़ी आवश्यकता है । धन के अभाव में कोई भी चेष्टा फलवती नहीं होती । किंतु इस विषय में गवर्नमेंट की सहानुभूति है, गोखले ने भी दूरवर्ती वैध प्रतिरोध की प्रशंसा छी है । राजद्रोह-भय से ग्रस्त भारत की धनी संतान इस निर्दोष युद्ध में धन की सहायता देने से पराङ्मुख क्यों होने लगी ? तीसरा पथ है-भारत-भर में प्रतिवाद के लिये सभा कर गांव-गांव में ट्रांसवाल-निवासी भारतीयों का अपमान, लांछना, यंत्रणा, दृढ़ता, स्वार्थ-त्याग जनता को जना भारत के उसी आध्यात्मिक बल को जगाना । किंतु इस कार्य के लिये उपयुक्त व्यवस्था और कर्म- शृंखला हैं कहां ? जिस दिन बंगाल बंबई का मुखापेक्षी न हो अपनी एकता व बल-वृद्धि करना सीखेगा उसी दिन हो सकती है वह व्यवस्था और कम-शृंखला । हमारा द्रष्टांत देख दूसरे प्रदेशों के लोग भी उसी पथ पर दौड़ पड़ेंगे । तबतक यह निर्जीव और अकर्मण्य अवस्था ही रहेगी ।
निर्वासित बंग-संतान
करीब-करीब एक वर्ष बीतने को आया, निर्वासित बंग-संतान आज भी केवल यही कहते आ रहे हे : अब हुआ, अब मिली कारा से मुक्ति, मारले एक तरह से मान गये हैं, कल हो जायेगा, अमुक अवसर पर होगा, राजा के जन्य-दिन पर होगा, रिफार्म का प्रचार होते ही होगा, प्रतिवाद-सभा मत करो, ऊधम मत मचाओ, ऊधम मचाने से हमारा सारा परिश्रम मटियामेट हो जायेगा । उस दिन मैक्डोनाल्ड साहब को कहते सुना कि भारतीयों की निश्चेष्टता से पार्लियामेंट में कॉटन आदि के आंदोलन निस्तेज पड़ गये हैं, क्योंकि विलायत के लोग कह रहे हैं कि कहां, ये तो हुड़दंग नहीं मचा रहे, भारत में कोई चूं तक नहीं करता, इससे लगता है कि भारतवासी निर्वासन से संतुष्ट हैं, निर्वासितों के कुछ-एक आत्मीय, बंधु-बांधव आदि ही आपत्ति उठा रहे हैं, निर्वासन से लोकमत तो क्षुब्ध नहीं । विलायत की जनता के लिये ऐसा सिद्धांत अनिवार्य है । सारा देश निर्वासन से दुःखित और क्षुब्ध है, फिर भी सभी ने नीरव रह शांत भाव से गवर्नमेंट को दमन-नीति को शिरोधार्य कर लिया, यह ब्रिटिश जाति की तरह तेजस्वी
और राजनीति-कुशल जाती को समझ नहीं आता | तिसपर मद्रास-कांग्रेस के नाम से
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अभिहित सरकारी कर्मचारी-भक्तों की मजलिस में बड़े-बड़े नेताओं ने मारले-मिण्टो का, स्तव-स्तोत्र गा, बॉयकाट का वर्जन कर गाया--''अहा, आज भारत का कैसा सुख का समय आया है । '' बंगाल के सुरेंद्रनाथ, भूपेंद्रनाथ प्रभृति ने उस उत्सव में भाग लिया, और भारतीयों के आदरणीय गोखले ने पूना में गवर्नमेंट की 'कठोर और निर्दय दमन-नीति' की आवश्यकता प्रतिपादित कर भारतवासियों के नेता व प्रतिनिधि के रूप में उसका समर्थन किया । ऐसी राजनीति से कभी भी किसी भी देश में कोई भी राजनीतिक सुफल न प्राप्त हुआ ह न होगा ।
सहयोगी 'बंगाली' ने उस दिन फिर असमय ही संयुक्त कांग्रेस की बात उठाकर कहा कि जो 'क्रीड' पर सही नहीं करेंगे, जो ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत स्वायत्त-शासन से संतुष्ट न हो स्वाधीनता को ही आदर्श बनायेंगे उन्हें कांग्रेस में प्रवेश करने का अधिकार नहीं, वे मेहता-गोखले की मजलिस के योग्य नहीं । इस प्रबंध को ले 'अमृत बाजार पत्रिका' के साथ सहयोगी का वाद-विवाद हुआ है । 'बंगाली' ने कहा है कि अब वाद-विवाद करना अनुचित है, मिलन की जो थोड़ी संभावना है वह नष्ट हो सकती है । बड़ी अच्छी बात है । हमने पहले ही 'बंगाली' को इसके बारे सतर्क कर दिया था और मौन रहने की सलाह दी थी । आशा है जबतक इस विषय की मीमांसा नहीं हो जाती तबतक सहयोगी पुन: वाक्-संयम करेगा । किंतु 'बंगाली' ने जब इस तरह स्वाघीनता-आदर्श के बहिष्कार का आदेश प्रचारित किया है तो हम उसके उत्तर में यह कहने को बाध्य हैं कि हम सच्चे व उच्च आदर्श को छोड़ मेहता-मजलिस में घुसने के लिये लालायित नहीं, हम चाहते हैं उपयुक्त कांग्रेस, मेहता-मजलिस नहीं । स्वाधीन-चेता व उच्च आकांक्षी भारत-संतान के प्रवेश के लिये उस मजलिस का द्वार रुद्ध है, यह हम जानते हैं । यह भी जानते हैं कि कांस्टिट्यूशन रूपी अर्गला और क्रीडरूपी ताले से सयत्न बंद किया गया है । जब भारत के अधिकांश धनी और लब्ध-प्रतिष्ठित राजनीतिज्ञ स्वाधीनता-आदर्श को खुले आम स्वीकारने से डरते हैं तब हम भी कांग्रेस के उस विषय पर जिद करने को राजी नहीं, कलकत्ते में भी जिद नहीं की थी, सूरत में भी नहीं । जबतक सब एकमत नहीं होंगे तबतक स्वायत्त-शासन ही कांग्रेस का उद्देश्य है यह मानने को हम राजी हैं । किंतु हमें उस उद्देश्य के लिये व्यक्तिगत रूप से मत देने, सत्य-भ्रष्ट होने, झूठा आदर्श प्रचार करने का आदेश देने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं । स्वाधीनता ही है हमारा आदर्श । वह चाहे ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत हो चाहे बहिर्गत, पर आईन-संगत उपायों से वह आदर्श-सिद्धि है
वांछनीय | यदि मेहता-मजलिस को कांग्रेस में परिणत करने की आकांक्षा हो तो उस
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रुद्ध द्वार का ताला तोड़ना पड़ेगा । कांस्टिट्यूशन को उस द्वार को अर्गला न बन कर्म का आधार बनना आवश्यक है, नहीं तो और किसी भित्ति पर कांग्रेस संगठित करना उचित है । निस्संदेह, यह हमारा ही मत है । हुगली में जो कमेटी नियुक्त हुई है उसके परामर्श के परिणाम से हम अवगत नहीं, अंतिम फल की प्रतीक्षा में हैं ।
बुद्ध गया
गत ३ दिसंबर को प्रत्युष वेला में पश्चिम बंगाल के छोटे लाट बहादुर सदल मोटरकार से बुद्ध गया-स्थित प्राचीन बौद्ध मंदिर देखने गये थे । यह प्राचीन मंदिर है गया से ७ मील दूर । दुर्भाग्य से यह प्राचीन स्थपति-विद्या का कौतूहल-उद्दीपक आदर्श एवं बौद्धों को घोरतर मनोमालिन्य का विषय बन गया है । महंत ने छोटे लाट को घर की सब प्रधान-प्रधान द्रष्टव्य वस्तुएं घुमा-घुमा कर दिखलायीं । बहुतों का यह विश्वास है कि जहां राजकुमार सिद्धार्थ ने सर्वप्रथम बुद्धत्व प्राप्त किया था ठीक वहीं पर अवस्थित है यह मंदिर । जिस वृक्ष तले बैठ उन्होंने अपने नये धर्म का आविष्कार किया था, सुनते हैं कि वह अब नहीं रहा । मंदिर के भीतर बुद्धदेव की एक प्रकांड प्रतिमूर्ति है । यहां अब भी विद्यमान है अशोक रेलिंग का प्राचीन भग्नावशेष । इसका बहुत-कुछ आज भी खड़ा है । यह निःसंदेह अशोक का समकालीन और कम-से-कम दो हजार वर्ष पुराना है । रेलिंग के अनेक प्रस्तर खंड पार्श्ववर्ती मकानों की दीवारों से दब गये थे, वे फिर से यथास्थान बैठा दिये गये हैं । दो हजार से भी अधिक वर्षों से यह मंदिर समग्र प्राच्य भूखंड के बौद्धों का एक प्रधान तीर्थ-स्थान रहा है । इसका निर्माण हुआ था ईसा पूर्व की पहली शताब्दी में ।
अंक १५
अगहन २७, १३१६
फिरोजशाह मेहता की चाल
कुचक्री का चक्र समझ पाना टेढ़ी-खीर है । फिरोजशाह मेहता हैं कुचक्रियों के शिरोमणि । जब बल से पार नहीं पाते तब हठात् कोई अप्रत्याशित चाल चल अभीष्ट-सिद्धि पाने की उनकी आदत है । किंतु लाहौर कन्वेन्शन के पन्द्रह दिन पहले उन्होंने
जो अपूर्व चला चली उससे किसका क्या लाभ होगा, यह कहना कठिन है | लोग
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अपनी-अपनी अटकलें लड़ा रहे हैं । किसी-किसी का कहना है कि फिरोजशाह बंगाल व पंजाब के असंतोष से भय खा रण में पीठ दिखा रहे हैं । मानते हैं कि बंबई के इस एकमात्र सिंह ने कलकत्ते में लोकमत के भय से अपनी दुम पेट में दबा रखी थी, कहीं कोई कुचल न दे,-किंतु लाहौर कन्वेन्शन तो है सिंह महाशय की अपनी मांद । वहां किसी भी भक्तिहीन जंतु का प्रवेश सुकठोर आईन द्वारा निषिद्ध है । तिसपर अभ्यर्थना-समिति ने नियम बनाया है कि स्वयंसेवक हो चाहे दर्शक कोई भी पंडाल में चिल्ला नहीं सकता, न hiss, न 'वंदे मातरम्' की ध्वनि, न 'shame, shame', न जय-जयकार ही कर सकता है । जो ऐसा करेगा उसे अर्धचंद्र दे सभा से बाहर निकाल दिया जायेगा । सिंह किससे हरे हुए हैं ? दुम का कुचला जाना तो दूर की बात, प्रभु के कान में कोई विरक्ति-सूचक शब्द तक नहीं पहुंच सकता, निरापद ही निरापद । और फिर कोई-कोई कहते हैं कि सर फिरोजशाह इंडिया काउन्सिल के सभ्य बनने के लिये बुलाये गये हैं, अपनी राजभक्ति के चरम विकास का चरम पुरस्कार उन्हें हाथ लग रहा है, इसीलिये अब वे कन्वेन्शन के सभापति बनने में असमर्थ हैं । पर केवल पन्द्रह दिन की देर है, सर फिरोजशाह क्या इतने निष्ठुर पिता हैं कि अपनी लाड़ली कन्या को मझधार में छोड़ स्वर्ग जाने से सहमत होंगे ? गवर्नमेंट भी क्या कन्वेन्शन का मोल नहीं समझती ? इस आवश्यक कार्य के लिये क्या फिरोजशाह को पन्द्रह दिन की छुट्टी नहीं देगी ? हमने भी एक अनुमान लगाया है । शासन-सुधार से समस्त हिंदू-संप्रदाय असंतुष्ट व कुद्ध हो उठा है, फिरोजशाह इससे अनभिज्ञ नहीं, फिर भी शासन-सुधार व गवर्नमेंट के अनुग्रह का लोभ दिखा उन्होंने सूरत कांग्रेस में फूट डाली थी । उसके बाद बंगाल के प्रतिनिधियों की इतनी रूढ़ता से अवमानना की थी कि वे लाहौर जाकर पुन: अपमानित होना नहीं चाहते । फिरोजशाह खुद कहते हैं कि किसी गुरुतर राजनीतिक कारण से उन्होंने सभापति-पद त्याग दिया है । यही क्या वह राजनीतिक कारण नहीं ? पद-त्याग के कारण यदि सुरेन्दबाबू आदि कन्वेन्शन में भाग लेने के लिये राजी हों तो शासन-सुधार के ग्रहण का दोष मेहता के हिस्से में न पड़ सारे मध्यपंथी दल में सम-भाव से विभक्त होगा, यही है आशा । यदि बंगाल के मध्यपंथियों की अनुपस्थिति से मेहता के सभापतित्व में अल्प संख्यक प्रतिनिधियों द्वारा शासन-सुधार स्वीकृत हुआ तो सुधार के साथ-साथ कन्वेन्शन की दशा भी अति शोचनीय होगी । फिरोजशाह की इच्छा है कि बंगाल के प्रतिनिधियों को लाहौर में हाजिर करा उनसे अपना काम निकाल बंगाली शिखंडी की आड़ में छिपे-छिपे युद्ध चलायें । ऐसा नहीं हो तो कुचक्रियों के शिरोमणि उद्देश्यहीन चाल क्यों चलेंगे भला ?
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पूर्व बंगाल में निर्वाचन
पूर्व बंगाल शुरू से तेज, सत्य-प्रियता व राजनीतिक तीक्ष्ण दृटि दिखलाता आ रहा है, शासन-सुधार की परीक्षा भें जाना गया कि वे सब गुण दमन और प्रलोभन से निस्तेज नहीं हुए हैं, पहले जैसे ही हैं । फरीदपुर में एक भी हिंदू निर्वाचन-प्रार्थी नहीं बना । ढाका में सिर्फ एक व्यक्ति मारले के मोह से मुग्ध हुए हैं । मैमनसिंह में जो चार व्यक्ति इस राजभोग की आशा से दौड़े आये थे उनमें से दो चैतन्य लाभ कर खिसक गये हैं, और दो व्यक्ति, आशा है, श्रेय: पथ पकड़ेंगे । बड़े आश्चर्य की बात है, सुनने में आ रहा है कि अश्विनीकुमार का बारीसाल सुधार के मद से मतवाला हो लज्जा परित्याग कर मारले की इच्छानुसार नाच रहा है । यह दुर्बुद्धि क्यों ? निर्वासित अश्विनीकुमार का यह अपमान क्यों ? बारीसाल के देवता ब्रिटिश जेल में कैद हैं, कठिन रोग से आक्रान्त, अकारण ही बंधु-बांधवों व आत्मीयों की सेवा-टहल से वंचित । उनका बारीसाल उन्हें भूल सरकारी कर्मचारियों के प्रेम बाजार में अपने को बेच देने के लिये दौड़ पड़ा है । छिः ! शीघ्र ही यह दुर्मति त्यागो, कहीं बंगाल बारीसाल का उपहास कर यह न कहे कि व्यर्थ ही अश्विनीकुमार जीवन-भर बारीसालवासियों को मनुष्यत्व सिखाने और द्रष्टांत द्वारा दिखलाने के लिये खटे, व्यर्थ ही अंत में देश के हित अपनी बलि चढ़ायी ।
पश्चिम बंगाल की अवस्था
पश्चिम बंगाल कभी भी रुचि का रास्ता नहीं पकड़ता । जिस राह जाता है उसपर दौड़ ही लगाता है, जिस भाव का अवलंबन लेता है उसका चरम द्रष्टांत दिखाता है । पश्चिम बंगाल में जैसे सर्वश्रेष्ठ तेजस्वी पुरुष सिंह हैं वैसे ही निर्लज्ज चाटुकारों का दल भी । जो कमर बांध निर्वाचन की दौड़ में प्रथम स्थान पाने के लिये लालायित हैं वे हैं प्रायः देश के अज्ञात, अपूज्य, स्वार्थ-अन्वेषी चाटुकारों का दल । काउन्सिल में उनके भीड़ लगाने से न कोई लाभ है न हानि,-सभा बन जायेगी अयोग्य चाटुकारों का चिड़ियाखाना, और कोई कुफल नहीं निकलेगा । पर उनमें दो-एक देशपूज्य लोगों का नाम देख दुःखित हुए । बंगाल में श्रीयुत बैकुंठनाथ सेन का क्या इतना कम आदर है कि अंत में उन्हें इस भीड़ में, काउन्सिल में घुसने के लिये ठेलाठेली करनी पड़ी ? वृद्धावस्था में बैकुंठ बाबू की यह अपमान-प्रियता क्यों ? चिड़ियाखाना में प्रवेश क्या इतना लोभनीय है ?
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मारले-नीति का फल
यह कहना पड़ा कि मोटे तौर पर मारले-नीति का फल देश के लिये उपकारी है । भारत के प्रधान बंधु व हितकारी लार्ड कर्जन ने बंग-भग कर सुप्त जाति को जगाया था, दूर किया था निबिड़ मोह । जो अवशिष्ट रहा--मोह का पुनर्विस्तार, निद्रा के नव प्रभाव की आशंका,-शासन-सुधार कर उसका अपसारण किया हमारे हितैषी लार्ड मारले ने । जिनपर बंग-भंग की चोट नहीं पड़ी वे भी इस प्रकार से मर्माहत हो जाग रहे हैं । सारी हिंदू-जाति परमुखापेक्षा की असारता जान राष्ट्रीयता की ध्वजा तले अविलंब इकट्ठी होगी । सरकार का साथ दे रहे हैं जमींदार और मुसलमान । देखें वे भी कबतक टिकते हैं । भगवान् से प्रार्थना करते हैं कि हमारा कोई तृतीय हितैषी अंग्रेजों के मन में कोई नयी युक्ति घुसा दे जिसके सुफल से जमींदारों व मुसलमानों को भी पूरी तरह होश आ जाये । राष्ट्रीय दल की आस्था व्यर्थ कल्पना नहीं, जब भगवान् सुप्रसन्न होते हैं तब विपक्ष की चेष्टा के विपरीत फल से उनकी उद्देश्य-सिद्धि में सहायता करते हैं ।
मिण्टो का उपदेश
इस परीक्षा के समय छोटे-बड़े अनेक अंग्रेज भारतीयों को सुधार-विषयक सदुपदेश देने के लिए आगे बढ़ रहे हैं । इनमें हमारे अति लोक-प्रिय सदाशय बड़े लाट ने भी अपने पूजनीय मुख-विवर से उपदेश-सुधा ढाल हमारे कानों को तृप्त किया है । सबके मुंह में एक ही बात--अहा, कैसा सुंदर शिशु भूमिष्ठ हुआ है, तुम सब इस तरह उसके अपरूप रूप में छोटी-छोटी खोट न निकाल co-operation सुधा (सहयोग-सुधा) से हमारे सोने के चांद को हृष्ट-पुष्ट करो, सब दोष खुद ही मिट जायेंगे । शिशु के मां-बाप ऐसी प्रशंसा करेंगे, दोष ढकेंगे, यह तो स्वाभाविक और मार्जनीय है । किंतु सच बात तो यह है कि लड़के में एक या दो या तीन छोटे-मोटे दोष होते तो कोई हानि नहीं थी, उसका तो सारा शरीर ही गला-सड़ा हुआ है, वह जनमा ही है हृत् रोग, यकृत् रोग, क्षय रोग लेकर, यह सोने का चांद नहीं बचने का, बचने के लायक भी नहीं, व्यर्थ में उसे बचा कष्ट देने की अपेक्षा बॉयकाट के तकिये से उसका गला घोंटकर यंत्रणा-मुक्त करना होगा दयावान् का काम । इससे यदि शिशु-हत्या व नृशंसता के दोष से अपराधी बने तो न हुआ नरक-भोग कर लेंगे । किंतु कौतूहल का एक कारण रह गया हमारा-सोने के चांद के बाप मिण्टो की उक्ति सुनी,-माननीय मि० गोखले जो सोने के चांद के मातृस्वरूप हैं, वे क्यों चुपचाप संतान की निंदा सह रहे हैं ? या
हमारे गोपाल कृष्ण 'हिंदू-पंच' का ध्वंस कर विजय-आनंद के अतिरेक से समाधिस्थ
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हैं ? शायद कुछ दिन सूतिका अशौच का पालन कर रहे हैं । समय आने पर सभ्य समाज में फिर मुख दिखाने आयेंगे ।
लाहौर कन्वेन्शन
लाहौर कन्वेन्शन का अदृष्ट निबिड़ मेघाच्छन्न है । बंगाल अप्रसन्न है, पंजाब असंतुष्ट है, देश के अधिकांश लोग या तो बहिष्कृत हैं या भाग लेने के अनिच्छुक । फिरोजशाह-प्रसूत, हरकिसन लाल-पालित, गवर्नमेंट-लालित कन्वेन्शन बड़े कष्ट से प्राण बचा रही थी । अंत में कैसा वज्राघात ! जिस प्रिय पिता के प्रेम से बंगाल की आपत्ति को अग्राह्य कर स्वयं को विपदापन्न किया था वही पिता व इष्ट देवता फिरोजशाह विमुख हो सब प्रार्थनाओं को ठेल निज गुप्त विचार के अभेद्य तिमिर में इंद्रजित की तरह अतर्क्य माया-युद्ध के लिये प्रवृत्त हुए । बंबई के 'सांझ वर्तमान' के टेलिग्राम के उत्तर में हरकिसन लाल ने दुःख के साथ जनाया है कि फिरोजशाह अपने पद-त्याग का कारण बतलाने को तैयार नहीं । लाचार हो भक्त अपने रहस्यमय अनिर्देश्य और अतर्क्य देवता के मुख की तरफ करुण व शून्य दृटि से मुंह बाये ताक रहे हैं । ऑल इंडिया ''कांग्रेस' ' कमेटी को छोड़ नये सभापति को और कौन निर्वाचित करेगा ? उस कमेटी का सभा-स्थल है फिरोजशाह का शयन-कक्ष । अत: कमेटी के अधिवेशन में प्रभु की इच्छा व्यक्त हो भी सकती है । फिरोजशाह-स्पर्शित, पुण्यमयी, परित्यक्त माला उनके पवित्र कर-कमल से निक्षिप्त हो किसके गले में पड़ेगी ? वाच्छा के या मालवीय के या गोखले के ? हमारे सुरेंद्रनाथ का नाम भी लिया गया है, किंतु वे फिरोजशाह के उच्छिष्ट सभापतित्व को उनकी कृपा के दान के रूप में स्वीकार कर बंगालियों के अप्रीति-भाजन बनेंगे, यह आशा पालना अन्याय होगा । गोखले हैं फिरोजशाह के द्वितीय आत्मा, वाच्छा हैं उनके आज्ञावाहक भृत्य । मालवीय को इस महत् पद पर बिठा कमेटी को स्वाघीनता का ढोंग करने दो ।
अंक १६
पौष पू, १३१६
'बंगाली' की उक्ति
हमारे सहयोगी 'बंगाली' ने संयुक्त कांग्रेस कमेटी का विफल परिणाम देख आक्षेप
कर लिखा है की राष्ट्रीय दल के प्रतिनिधि क्रीड (सिद्धांत-पत्र) से सहमत नहीं हुए,
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क्रीड पर सही न करने से कोई कांग्रेस में प्रवेश नहीं पा सकेगा, इस अंतिमेत्थम् के बावजूद सहयोगी यह आशा करता है कि पुन: मिलन की चेष्टा हो सकती है, पुन: दोनों दल मिलकर एक साथ देश-कार्य में प्रवृत्त हो सकते हैं । जबतक यह भ्रांत धारणा मध्यपंथी नेताओं के मन से विदूरित नहीं होती तबतक मिलन की आशा व्यर्थ है । जबतक वे यह जिद छोड़ने को तैयार नहीं होते तबतक राष्ट्रीय दल मिलन की और किसी भी चेष्टा में योग नहीं देगा । क्योंकि वे जानते हैं कि अपर पक्ष में प्रकृत मिलन की इच्छा नहीं । देश को व्यर्थ आशा दिखाना अनुचित है । जनता को बतलाने के लिये राष्ट्रीय पक्ष अविलंब अपना वक्तव्य प्रकाशित करेगा, इससे यह स्पष्टत: निरूपित होगा कि वे किस शर्त पर मध्यपंथियों के साथ संधि करने के लिये तैयार हैं । जिस दिन मध्यपंथी मेहता व मारले की सफल राजनीति से विरक्त हो यह शर्त मान हमारे पास संधि स्थापनार्थ आयेंगे उसी दिन हम फिर से संयुक्त कांग्रेस की स्थापना के लिये सचेष्ट होंगे ।
मजलिस के सभापति
मेहता के पद-त्याग से बंगाल के मध्यपंथी इस प्रबल आशा से उत्फुल्ल हो उठे थे कि अबकी शायद सुरेन्द्र बाबू की बारी आयी । बंगाल के यह मध्यपंथी नेता कन्वेन्शन के सभापति बनेंगे, बॉयकाट का प्रस्ताव पारित होगा, बंगाल की जीत होगी । आशा ही है मध्यपंथियों का संबल । सहिष्णुता है उनका प्रधान गुण । जो सहस्र बार श्वेतांग के आनंदमय पद-प्रहार का भोग कर पुन: प्रेम करने के लिये दौड़ पड़ते हैं, सहस्र बार आशा से प्रतारित हो सगर्व कहते हैं कि हम अब भी निराश नहीं हुए हैं, वे स्वेच्छाचारी स्वदेशवासी के बार-बार के अपमान से लब्धसंज्ञ होंगे या मेहता-मजलिस के बंग-विद्वेष से जर्जरित होकर भी सीखेंगे और आत्म-सम्मान को बचाये रखने की चेष्टा करेंगे, ऐसी आशा व्यर्थ है | मेहता की मजलिस न कोंग्रेस है न कन्वेन्शन | जो मेहता के सुर में गायेंगे, मेहता के पद-पल्लव में स्वाधीन मत व आत्म-सम्मान विक्रय करेंगे, उनके लिये ही है यह मजलिस | जो मेहता-पूजा के "क्रीड" को स्वीकार न कर प्रवेश करेंगे वे अनाहूत अतिथि की तरह अपमानित होंगे और यदि अपमान से वश में न आये तो अंत में गरदनियां खा उस संग को परित्याग के लिये बाध्य होंगे | उन्होंने क्या यह समझ लिया है कि पद-त्याग करके भी मजलिस के कर्णधार ने पतवार छोड़ ? हम तभी जान गये थे की मदनमोहन ही सभापति होंगे | मजलिस के परमेश्वर ने ऐसी आज्ञा दी है, उनकी बंबईवासी आज्ञावह-मंडली ने देश को यह आज्ञा जनाये है, ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी ने भी सीर झुका दिया है | बंगाल के थोड़े-से लोग प्रतिनिधि चुने गये हैं--कलकत्ता और ढाका में, अन्यत्र कोई चहल-पहल नहीं | कितने
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जायेंगे मालूम नहीं । जो जायेंगे वे यह मानकर जायेंगे कि हम ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन के प्रतिनिधि बनकर जा रहे हैं । वे बंगाल के प्रतिनिधि नहीं ।
इंग्लैंड में राष्ट्रीय विप्लव
इंग्लैंड के पुरातन ब्रिटिश राजतंत्र को ले जो महान् संघर्ष आरंभ हुआ है उसके पूर्व लक्षण भी उग्र व भीति-संचारक हैं । इंग्लैंड का लोकमत किस तरह उत्तेजित व क्रुद्ध होता जा रहा है वह 'रायटर' के संवाद से दिन-प्रतिदिन प्रकट हो रहा है । बहुत दिन बाद उस देश में प्रकृत राजनीतिक उत्तेजना और दल-दल में विद्वेष दिखायी दे रहा है । पहले तो साधारणत: जो होता है वही हुआ, उदारनीतिक मंत्री मि० ऊर के भाषण के समय शोरगुल और विरोधियों का हुड़दंग, फिर बल-प्रयोग से सभा-भंग की चेष्टा । रक्षणशील (कंजर्वेटिव) दल के नेता भी, विशेषत: जमींदार-वर्ग, प्रजा के असंतोष से ऐसी बाधा पाने लगे, अब मुख्य-मुख्य मंत्रियों व विख्यात वक्ताओं को छोड़ कोई भी रक्षणशील राजनीतिज्ञ बेरोक-टोक स्वमत के प्रकाशन का अवसर नहीं पा रहा, अनेक सभाओं में एक शब्द भी नहीं कहने दिया गया । कुछ-एक स्थानों में सूरत कांग्रेस का अभिनय इंग्लैंड में अभिनीत हो रहा है । अब देखते हैं कि बड़े-बड़े रक्षणशील राजनीतिज्ञ भी बाधा पा रहे हैं । और भी उग्र लक्षण दिखायी दिया है-प्राण लेने की चेष्टा । ऊर की एक सभा में उस घर के कांच के दरवाजे को एक तरह के battering-ram (भित्ति-पातक) से चूर-चूर कर दिया गया, अनेक आहत हुए । और एक रक्षणशील-सभा में बल-प्रयोग से सभा भंग की गयी, उस दल के स्थानीय कर्मचारियों को निर्दय प्रहार से अचेत कर दिया गया, निर्वाचन-प्रार्थियों ने भागकर विपदा के हाथ से अपनी रक्षा की । ये लक्षण हैं राष्ट्र-विप्लव के । दिन-पर-दिन वह जो उग्र रूप धारण करता जा रहा है उससे संदेह होता है कि निर्वाचन के समय रक्षणशील निर्वाचक-वर्ग को वोट देने दिया जायेगा कि नहीं ।
गोखले का मुख-दर्शन
मोखले महाशय का सूतिका अशौच समाप्त हुआ, उन्होंने फिर अपना मुंह दिखाया है, उनकी अमूल्य वाणी भी सुनी गयी है । राष्ट्रीय पक्ष के नृसिंह चिन्तामणि केलकर दुष्टा-सरस्वती के आवेश में नव व्यवस्थापक सभा में निर्वाचन-प्रार्थी हुए थे, बंबई के लाट ने केलकर को अयोग्य व्यक्ति मान उनकी निर्वाचन-लालसा पर रोक लगायी ।
केलकर भी लज्जा छोड़ लाट साहब को साधने गये थे, लाट साहब ने भी इस दावे
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का उपयुक्त उत्तर दिया है । हमारे गोपाल कृष्य ने सोचा, अच्छा हुआ, गवर्नमेंट को कठोरता व निर्दयता से इनका दमन करने दो, इस बीच मैं उनके साथ जरा प्रेम कर लूं, मुझपर लोगों की जो घृणा व क्रोध है शायद वह कम हो जाये । अतः अपने ''दक्षिण-सभा'' के अधिवेशन में गोखले ने केलकर के पक्ष का समर्थन कर बंधु क्लार्क को मीठी-मीठी झिड़की सुनायी है । उन्होंने कहा-केलकर अयोग्य नहीं, योग्य व्यक्ति हैं, गोखले उन्हें यौवन-काल से जानते हैं, उत्तम सिफारिश दे सकते हैं, केलकर राजद्रोही नहीं, विकृत-मस्तिष्क भी नहीं । लाट साहब पुन: विवेचना करें तो अच्छा हो ।
गोखले का स्वसंतान-समर्थन
गोखले महाशय ने अपनी सुधाररूप संतान को बात भी कही है । कहा है-मेरी प्रिय संतान बहुत सुंदर लड़का है, शांत-शिष्ट लड़का है, सारे देश के प्यार के योग्य । किंतु गवर्नमेंट ने जो रेगुलेशनरूपी परिधान उसे पहनाया है उससे ही घपला हो गया है, 'सोने के चांद' का रूप निखर नहीं पा रहा है । कोई बात नहीं, सोने के चांद को प्यार करो, पालो, वस्त्र कितने दिन रहेगा, शीघ्र ही प्रचलित परिपाटी के अनुसार वेश-भूषा पहना उसका निर्दोष सौंदर्य सबको दिखाऊंगा । बंबई के लाट ने भी यही उपदेश दिया है । देश क्या इतना अभद्र व राजद्रोही हो गया है कि लाट का अनुरोध अमान्य करेगा ? गोखले को ही शोभा देती है ऐसी बात ।
हमें देश को यह बताते हुए दुःख हो रहा है कि कांग्रेस के एक होने की जरा भी संभावना नहीं । हुगली में प्रादेशिक सभा में जो कमेटी बनी थी उसका प्रयास विफल रहा है । कमेटी के प्रथम अधिवेशन में नरमपंथी दल के प्रतिनिधियों ने यह प्रस्ताव किया था कि गत वर्ष ''अमृत बाजार'' के ऑफिस में जो तीन मुख्य प्रस्ताव निश्चित हुए थे, उन्हें ही लेकर फिर से आवश्यक परिवर्तनसहित बम्बई निवासियों के साथ लिखा-पढ़ी शुरू हो । ये तीन प्रस्ताव इस प्रकार थे,-राष्ट्रीय पक्ष क्रीड को स्वीकार करेगा, राष्ट्रीय पक्ष कन्वेन्शन के नियमों को स्वीकार करेंगे पर उस नियमावली को कांग्रेस में स्वीकार किया जायेगा; कलकत्ता अधिवेशन के चारों प्रस्तावों को कांग्रेस स्वीकार करेगी । उस बार महाराष्ट्र से जो राष्ट्रीय पक्ष के प्रतिनिधि बनकर आये थे, वे
लोग कांग्रेस का फिर से बॉयकोट करने की लालसा से क्रीड व कान्स्टिट्यूशन को
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स्वीकार करने को सम्मत हुए हैं । पर फिरोजशाह मेहता किसी भी तरह कलकत्ता कांग्रेस के बॉयकाट प्रस्ताव को मानने के लिये सहमत नहीं हुए ।
इस बार चरमपंथियों का यह प्रस्ताव था कि फिरोजशाह बॉयकाट ग्रहण करने से असहमत हैं, तब चारों प्रस्तावों की चर्चा निरर्थक है, संयुक्त कांग्रेस की विषय-निर्वाचन समिति में हम बॉयकाट के लिये चेष्टा करेंगे, फिलहाल चुप्पी साधना ही बेहतर है । क्रीड स्वीकार कर बिना किसी आपत्ति के हस्ताक्षर करने होंगे । कन्वेंशन के नियमों को भी मानना होगा, तब हां, नियमों को संशोधित करने के लिये लाहौर में एक कमेटी बननी चाहिये । राष्ट्रीय दल के प्रतिनिधि इस अदभुत प्रस्ताव से संतुष्ट नहीं हो पाये एवं श्रीयुत अरविन्द घोष ने यह स्पष्ट कर दिया कि वे कभी भी क्रीड पर हस्ताक्षर करने के लिये सहमत नहीं होंगे, पर हा, जो प्रस्ताव किया गया है, कुछ दिन उसकी विवेचना कर और नियमों का निरीक्षण कर उस प्रस्ताव में क्या परिवर्तन आवश्यक हैं उसे नरमदल को बताएंगे । निश्चित हुआ कि पूजा की छुट्टी के बाद कमेटी फिर से बैठ निश्चित सिद्धांत अपनायेगी । छुट्टी के बाद राष्ट्रीय दल के प्रतिनिधियों ने यह प्रस्ताव रखा कि वे कन्वेंशन के उद्देश्य को कांग्रेस का उद्देश्य मान स्वीकार करेंगे किंतु इसे निजी मत के रूप भें मानना कभी स्वीकार नहीं करेंगे । उस संकीर्ण लक्ष्य से बंधे रहने से कभी सहमत नहीं होंगे और क्रीड पर कभी भी हस्ताक्षर नहीं करेंगे; वे कन्वेन्शन के नियमों को कांग्रेस का
कान्स्टिट्यूशन
हमने बार-बार कहा है, बंगदेश का राष्ट्रीय दल कभी भी मेहता-मजलिस को कांग्रेस कहकर स्वीकार नहीं करेगा, उस मजलिस में प्रवेश पाने के लिये वह लालायित नहीं है, क्रीड पर हस्ताक्षर करने के लिये कतई राजी नहीं होगा । नरमपंथी नेताओं के प्रस्ताव का मतलब है कि राष्ट्रीय दल अपना दोष स्वीकार कर अपने मत
और सत्यप्रियता को जलांजलि दे, मेहता और गोखले के निकट हाथ जोड़कर साष्टांग
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नमस्कार करते हुए मजलिस में प्रवेश करे, वहां अल्पसंख्यक राष्ट्रीय पक्ष के प्रतिनिधि बहुसंख्यक नरम पक्ष के नेताओं से अनुग्रह की भिक्षा मांगें । राष्ट्रीय दल भला क्यों इतनी हीनता और आत्मावमानना प्रकट करे यह हमारी समझ के परे है । नरमदलीय नेतागण क्या यह समझ बैठे हैं कि राष्ट्रीय दल दो साल के कठिन व निर्दय निग्रह से भीत हो मेहता-मजलिस में शरण लेने के लिये उन्मत्त कामना से मिलनाकांक्षी हुए हैं? जब दो परस्पर-विरोधी दल हों तब यह कहां का तुक है कि एक दल विपक्ष के सारे दावे सहता रहे, अपने सभी मत, आपत्तियों और उच्च आशाओं को भूल विपक्ष के सामने सिर झुकाता रहे ? मत वर्ष ''अमृत बाजार'' के ऑफिस में जो प्रस्ताव पारित हुए थे-उन प्रस्तावों से बंगदेशीय राष्ट्रीय दल सहमत नहीं था-उसमें भी श्रीयुत मतिलाल घोष ने कलकत्ते के चारों प्रस्तावों की रक्षा को थी, इस बार तो नरम दल के प्रस्तावों में उसे सम्मिलित ही नहीं किया गया । रष्ट्रीय दल की एक भी बात उसमें नहीं रहेगी, नरमपंथियों की बातें पूर्णत: माननी होंगी, यही है इस अदभुत संधि की भित्ति ।
कलकत्ते के अधिवेशन में ऐसा मान किया गया था कि ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत औपनिवेशिक स्वायत्त शासन काँग्रेस की मांग है पर इससे हम सहमत नहीं थे । फिर भी अधिकांश प्रतिनिधियों का मत है ऐसा मान हमने इसे स्वीकार कर लिया था । फिर सूरत के कन्वेन्शन में निश्चित हुआ कि जो इस आदर्श को राजनीतिक अंतिम लक्ष्य स्वीकार करने को राजी नहीं वे इसमें प्रवेश नहीं पा सकते । क्रीड पर हस्ताक्षर करना और इस बात से सहमत होना एक ही बात है । पहले तो, जिसमें हमारी सहमति नहीं उसपर हम हस्ताक्षर क्यों करें ? धर्म है हमारा एकमात्र सहाय, उस धर्म को जलांजलि देकर मेहता की मनस्तुष्टि के लिये भगवान् के असंतोष का भाजन क्यों बने ? दूसरी बात, यदि कहो, कांग्रेस की मांग कांग्रेस के लक्ष्य (उद्देश्य) में परिणत हो गयी है, और कोई परिवर्तन नहीं किया गया, तब स्वीकार क्यों नहीं करेंगे ? इससे मेल की आशा से राजी हो सकते हैं पर क्रीड पर हस्ताक्षर नहीं करेंगे । भारतीय कांग्रेस न नरमपंथियों की है न राष्ट्रियपंथियों की; भारतवासी जिसे प्रतिनिधि मानकर मनोनीत करेंगे उस प्रतिनिधि मान ग्रहण करना ही होगा नहीं तो तुम लोग कांग्रेसी नहीं, हो सिर्फ नरमपंथियों की परामर्श सभा-मात्र । भारत की कांग्रेस न तो नरमपंथियों की है न भीरुओं को । क्रीड पर हस्ताक्षर करवाने का मतलब यही है कि भारत की स्वाधीनता-प्रयासी, स्वार्थ-त्यागी साहसी मां की संतान भारत की कांग्रेस में प्रवेश पाने के अयोग्य है । क्रीड पर हस्ताक्षर करवाना है राष्ट्रीय आदर्श का अपमान, राष्ट्र का अपमान, राष्ट्रीयता का अपमान, मातृभक्त निगृहीत भारत-संतान का अपमान ।
तुम लोगों की नियमावली है स्वेच्छाचार और प्रजातंत्र के नियम-भंग की स्मारिका । यह कभी भी कांग्रेस में गृहीत नहीं हुई, फिर भी कुछ-एक बड़े लोगों की
इच्छा से कांग्रेस अधिवेशन में इस नियमावली में शामिल करने की चेष्टा | यदि हम
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उसे
राष्ट्रीय दल के प्रतिनिधियों का प्रस्ताव न्यायसंगत व मेल की इच्छा से परिपूर्ण है । उन्होंने कांग्रेस के उद्देश्य और कन्वेन्शन की नियमावली को यथासंभव मान लिया है, अपने मत की स्वाधीनता की, सत्य की मर्यादा की, देश के हित के लिये जो रक्षणीय है उसकी रक्षा की है, उससे नरमपंथियों को असल में कोई असुविधा नहीं होगी, सरकारी कर्मचारी भी कांग्रेस को राजद्रोहियों का गुट कहकर अंगुलि नहीं उठायेंगे । कांग्रेस के कार्यकलाप में भी कोई गोलमाल होने की संभावना नहीं । आदान-प्रदान हैं संधि के नियम । एक दल तो सदा आदान ही करता रहे, और दूसरा प्रदान, कौन-से देश का यह नियम है भला ? या ऐसे नियम से कब कहां असली मेल-मिलाप हुआ है ? यदि हम युद्ध में पराजित होते और संधि की भीख मांगते तब तो समझ में भी आती नरमपंथियों की उद्धतता; न हम पराजित हैं न भिक्षाप्रार्थी । देश के हित के लिये, देशवासियों की कामना को देखते हुए संयुक्त कांग्रेस की समा करने को प्रयत्नशील हुए थे-नहीं तो हममें बल है, तेज है, साहस है, भविष्य हमारे पक्ष में है, देशवासी हमारे साथ हैं, युवकमंडली तो हमारी है ही, हम स्वतंत्र भाव से खड़े होने को हमेशा तैयार हैं ।
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अंक १७
पौष १२, १३१६
प्रस्थान
जिन्होंने लाहौर के धनीपुंगव हरकिसन लाल के निमंत्रण का मान रखने के लिये प्रस्थान किया हु, जो कन्वेन्शन-यज्ञ में मारले के श्रीचरणों में स्वदेश की बलि चढ़ाने और शासन-सुधार के पेषण-यंत्र में जन्मभूमि के भावी ऐक्य व स्वाधीनता को पीसकर चूर-कूर करने को तैयार बैठे भारत-सचिव का धन्यवाद अदा करने सानंद, महा सुख से नाचते-गाते जा रहे हैं वे ठहरे देश के नेता, संभ्रांत, धनी, देश में उनका ''stake" (खूंटा) है, सम्मान है, प्रभाव-प्रतिष्ठा है । शायद यह धन-संपत्ति, सम्मान, प्रभाव-प्रतिष्ठा है अंग्रेजों की दी हुई, मां की दी हुई नहीं, तभी तो वे कृतघ्नता और अपवाद के भय से जन्मभूमि की उपेक्षा कर मारले को ही भज रहे हैं । दरिद्र मां एक तरफ, वरदाता, शांतिरक्षक, संपत्तिरक्षक गवर्नमेंट दूसरी तरफ । जो मां से प्रेम करते हैं वे एक तरफ जायेंगे, जिन्हें स्वयं से प्यार है वे दूसरी तरफ । अब दोनों तरफ रहने की चेष्टा न करें, दोनों तरफ के देय पुरस्कार और सुविधा भोग करने की दुराशा अब न पालें । जिन्होंने कन्वेन्शन में योग देने के लिये प्रस्थान किया है वे अपनी लोक-प्रियता, देश-वासियों के हृदय में अपनी प्रतिष्ठा और देश-हितैषिता के गौरव को पद-दलित कर उस कुस्थान की ओर भाग रहे हैं । उनका यह प्रस्थान है राजनीतिक महाप्रस्थान ।
हरकिसन लाल का अपमान
तेजस्वी स्वदेश-हितैषी अंग्रेज को कभी भी देशद्रोही का सम्मान करना प्रिय नहीं रहा । यदि कभी अपनी उद्देश्य-सिद्धि के लिये थोड़े दिन मौखिक भद्रता व प्रीति दिखाये भी तब भी अवज्ञा व असम्मान का भाव उनके हृदय में छिपा रहता है । पंजाब के हरकिसन लाल मान बैठे थे कि मैं तो सरकारी कर्मचारियों का बहुत प्रिय हूं, पंजाब के लोक-मत का दलन कर कन्वेन्शन बुला रहा हूं, सरकार की सहायता से स्वदेशी वस्तुओं की प्रदर्शनी कर रहा हूं, गवर्नमेंट मेरे सब दावे को मान लेगी । हरकिसन लाल पंजाब विश्वविधालय के प्रतिनिधि होने को लालायित हैं, उनका नाम भी निर्वाचन-प्रार्थियों में रखा गया था । किंतु किसी नियम भंग के कारण वह नाम स्वीकृत नहीं हुआ । इससे लालजी के प्राणों को बड़ी ठेस लगी है । कन्वेन्शन के हरकिसन लाल, गवर्नमेंट के हरकिसन लाल, प्रतिनिधि नहीं बनेंगे, नाम तक नहीं लिया मय। । यह
कैसी बात ? किसकी है इतनी बड़ी धृष्टता ? ठहरो, गवर्नमेंट को लिखता हूँ | सबको
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मजा चखाउंगा । किंतु हरकिसन के आवेदन का फल का उल्टा । पंजाब गवर्नमेंट ने लालाजी को अपदस्थ कर कलम के एक ही वार में उनके आवेदन को अग्राह्य कर कहा है कि नियम के अनुसार हरकिसन लाल का नाम अस्वीकृत हुआ है, अस्वीकृत ही रहेगा । न्याय्य वात । व्यक्ति की खातिर नियम भंग करना सभ्य राजतंत्र की प्रथा नहीं । किंतु हरकिसन लाल मारले व मिण्टो की मनस्तुष्टि के लिये जब प्राणपण से खटे थे, तब नाम अस्वीकारने के पहले उन्हें सतर्क कर सकते थे । भूल संशोधित हो जाती । हम जानते हैं कि जान-बूझकर यह अपमान किया गया है, मध्यपंथी दल को सबक सिखाने के लिये किया गया है । सरकारी कर्मचारी मध्यपंथियों को अपने पक्ष में करना चाहते हैं, पर कैसे मध्यपंथियों को ? ऐसे मध्यपंथियों की अब अंग्रेजों के बाजार में दर नहीं जो एक हाथ से गवर्नमेंट के पांच दबाने और दूसरे हाथ से गला टीपने के अभ्यस्त हों, गवर्नमेंट की निंदा भी करें और अनुग्रह का दान भी पाना चाहे । जो पूर्ण राजभक्त बने, पूर्ण सहयोग दें, ऐसे मध्यपंथी बनी, नहीं तो चरमपंथियों की तरह तुम सब भी बहिष्कृत कर दिये जाओगे । नूतन काउन्सिल की नियमावली का जो उद्देश्य है वही उद्देश्य है हरकिसन लाल के अपमान का ।
फिर से जागो
बंगवासियों, बहुत दिन से सोये पड़े हो, जो नव जागरण हुआ था, जिस नव-प्राण संचारक आंदोलन ने समस्त भारत को आंदोलित किया था, वह निस्तेज पड़ गया है, म्रियमाण अवस्था में है, अर्ध-निर्वाण-प्राप्त अग्नि की तरह सिसक-सिसक कर जल रहा है । अभी है संकट को घड़ी । यदि बचाना चाहते हो तो मिथ्या भय, कूट-नीति व आत्म-रक्षा की चेष्टा छोड़ केवल मां के मुख की तरफ निहार फिर से सम्मिलित हो कार्य में लग जाओ । जिस मिलन की आशा में इतने दिन प्रतीक्षा की थी, वह आशा व्यर्थ हुई । मध्यपंथी दल राष्ट्रीय दल के साथ एक होना नहीं चाहता, चाहता है ग्रसना । ऐसे मिलन के फल से देश का यदि हित होता तो हम बाधा न देते । जो सत्य-प्रिय हैं, महान् आदर्श की प्रेरणा से अनुप्राणित हैं, भगवान् और धर्म को ही एकमात्र सहाय मान कर्म-क्षेत्र में उतरे हैं, वे तो हट जाते, जो कुट-नीति का आश्रय लेने से सहमत हैं, वे मध्यपंथियों का साथ दे, मेहता का आधिपत्य और मारले की आज्ञा शिरोधार्य कर देश का हित करते । किंतु ऐसी कूटनीति से भारत का उद्धार नहीं होने का । धर्म के बल से, साहस के बल से, सत्य के खल से उठेगा भारत । अतः जो राष्ट्रीयता के महान् आदर्श के लिये सर्वस्व त्यागने को प्रस्तुत हैं, जो जननी को पुन: जगद् की शीर्ष-स्थानीय।, शक्तिशालिनी, ज्ञानदायिनि, विश्व-मंगलकारिणी ऐश्वरी शक्ति
मान मानव जाति के सामने प्रकाश करने को उत्सुक हैं वे एक हों, धर्म-बल से,
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त्याग-बल से बलीयान् हो मातृ कार्य आरंभ करें । मां की संतान, आदर्शभ्रष्ट हो गयी हो, फिर से धर्म के पथ पर आओ । किंतु अब उद्दाम उत्तेजना के वश कोई कार्य मत करना, सब मिल एक प्रण, एक पंथ एक उपाय निर्धारित कर जो धर्म-संगत हो, जिससे देश का हित अवश्यंभावी हो, वही करना सीखो ।
नासिक में खून
नासिकवासी सावरकर ने-कुछ उद्दाम कविताएं लिखी थीं । अंग्रेज विचारालय में उन्हें यावज्जीवन द्वीपांतर का दंड मिला । सावरकर के एक अल्प वयस्क बंधु ने नासिक के कलक्टर जैकसन की हत्या कर उसका प्रतिशोध लिया । राजनीतिक हत्या के बारे में अपना मत हमने पहले ही प्रकाशित किया है, बार-बार उसकी पुनरावृत्ति वृथा है । अंग्रेजी पत्रिकाएं क्रोध से अधीर हो पूरे भारत पर इस हत्या का दोष मढ़ गवर्नमेंट से और भी कठोर उपाय अपनाने का अनुरोध कर रही हैं । यानी दोषी-निर्दोष का विचार न कर जिसपर संदेह हो उसे पकड़ो, द्वीपांतर भेजी, फांसी के तख्ते पर झुला दो । जो कोई भी गवर्नमेंट के विरुद्ध चूं-चां करे उन्हें निःशेष करो । देश-भर में प्रगाढ़ अंधकार, गभीर नीरवता, परम निराशा फैल जाने दो । इतने पर भी यदि राजद्रोह के स्फुलिंग फिर और प्रकट न हों तो गुप्त वहिन्न बुझ जायेगी । यह उन्मत्त प्रलाप सुन, ब्रिटिश राजनीति की शोचनीय अवनति देख दया भी होती है और विस्मय भी । यदि उस पुरातन राजनीतिक कुशलता का भग्नांश भी रहता तो तुम सब जानते कि अंधकार में ही हत्यारे की बन आती है, नीरवता में उन्मत्त राष्ट्र-विप्लवकारियों की पिस्तौल व बम की आवाज बार-बार सुनायी पड़ती है, निराशा ही है गुप्त समिति की आशा । हम भी ऐसी ही चेष्टा करना चाहते हैं जिससे राजनीतिक हत्या का अवलंबन लेने की यह प्रवृत्ति देश से उठ जाये । किंतु इसका एकमात्र उपाय है कार्यो द्वारा यह दिखाना कि वैध उपायों से भारत की राजनीतिक उन्नति व स्वाधीनता साधित हो सकती है । केवल मुंह से यह शिक्षा देने से लोग इसका विश्वास नहीं करेंगे, कार्य द्वारा भी समझाना होगा । इस पुण्य कार्य में तुम ही बाधा दे सकते हो । किंतु इससे जैसे हमारा विनाश होगा वैसे ही तुम्हारे विनाश की भी संभावना है ।
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अंक १८
पौष १९, १३१६
मरणासन्न कन्वेन्शन
हमारे कन्वेन्शन-प्रिय महारथी लाहौर में मेहता-मजलिस करने को बद्धपरिकर थे । पंजाब की जनता कन्वेन्शन नहीं चाहती थी । कितनी ही तरह से उसने अपनी अनिच्छा और अश्रद्धा ज्ञापित की, किंतु हरकिसन लाल ठहरे ना-छोड़ बंद। । लोक-मत का दलन करने के लिये कन्वेन्शन की सृष्टि हुई थी । पंजाब के लोक-मत को दलित कर सरकारी कर्मचारियों की प्रसन्नता पर निर्भर हो यदि लाहौर में कन्वेन्शन बुला सके तो मेहता-मजलिस का अस्तित्व सार्थक होगा । इस हठ का यथेष्ट प्रतिफल फल। है । सारे भारतवर्ष में सिर्फ तीन सौ प्रतिनिधि मेहता-मजलिस में पधारे और दर्शकवृंद की संख्या इतनी कम थी कि नातिवृहत् ब्रैडला हॉल आधा ही भर पाया था । इस शून्य मंदिर में इन अल्प पूजकों के हताश पुरोहितों ने ब्रिटिश राजलक्ष्मी को नाना स्तव-स्तोत्रों से तुष्ट कर उनके चरण-कमलों में अनेक आवेदन-निवेदनों का उपहार चढ़।, भक्तों का यथोचित आदर न करने के कारण उनकी मृदु-मंद भर्त्सना कर आर्यकुल में अपना जन्म चरितार्थ किया । मेहता-मजलिस ने जबरदस्ती अपने को राष्ट्रीय कांग्रेस के नाम से अभिहित किया है । राष्ट्रीय कांग्रेस के किस अधिवेशन में, अर्ध-शून्य पंडाल में, अल्प जन प्रतिनिधियों ने इस तरह के हास्यकर प्रहसन का अभिनय किया है, बताओ तो जरा ? तुम्हारी मजलिस सभा तो है पर न ''महा'' है, न ''जातीय'' (राष्ट्रीय) । जिस सभा में जाति भाग लेने को तैयार नहीं उसका न नाम हुआ ''जातीय'' सभा !
सख्य-स्थापन के प्रमाण
उत्तर समुद्र के उस पार बैठ ब्रिटिश राजलक्ष्मी ने जब 'रायटर' के टेलीग्राम-दूत की मुंह से इन सब स्तव-स्तोत्रों को सुना तब अपने मन में अंतर्निहित विद्रूप और अवज्ञा को मन में ही रख वह हर्ष से हर्ज या नहीं-हमें पता नहीं । शायद प्रतिनिधि निर्वाचन के महारव में मालवीय, गोखले और सुरेंद्रनाथ का क्षीण स्वर एकदम ही दब गया हो । कौन जाने, शायद पूज्य अंग्रेज-देवता यह भी न जानते हों कि हरकिसन लाल ने राजभक्ति को चरितार्थ करना ही कन्वेन्शन का चरम उद्देश्य निर्दिष्ट किया है । कोई हानि नहीं, कलकत्ते के अंग्रेजी समाचार-पत्रों के कर्ता-धर्ताओं ने बरतानिया
के नाम से पूजा ग्रहण कर ली है | लाहौर का यह कलंककारी व्यापार बेकार नहीं
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गया । 'इंडियन डेली न्यूज' ने मुक्त हस्त से आशीर्वाद की वर्षा की है । 'स्टेट्समैन' ने उस मधुर भर्त्सना के मधुर भाव को न समझ जरा असंतुष्ट होने पर भी पूजा पर संतोष प्रकट किया है । 'इंग्लिशमैन' ने भी गाली-गलौज की गुंजाइश न देख,आड़े-तिरछे-बंकिम कटाक्ष करके भी हरकिसन लाल की राजभक्ति अस्वीकृत नहीं की | देश-वासियों का असंतोष, एंग्लो-इंडियनों की खुशी व प्रशंसा हैं मेहता-मजलिस के परिपोषकों का योग्य पुरस्कार |
नेता तो हैं, सेना कहां ?
कन्वेन्शनकी अपूर्व बहादुरी यह है कि सर्वप्रधान फिरोजशाह को छोड़ भारत के सारे बड़े-बड़े नेता उपस्थित थे । किंतु उनके अधीन सेना ने लाहौर को कड़ाके की ठंड से भय खा या और किसी कारण से नेताओं के साहस से समुत्साहहित न हो अपने घर में ही बड़े दिन की छुट्टियां बितायीं । बंगाल से अंबिकाबाबू को छोड़ जितने भी नेता-सुरेनबाबू भूपेनबाबू आशुबाबू योगेशबाबू पृथ्वीशबाबू-गये थे उनकी सेना की संख्या कोई कहते हैं दो थी, कोई कहते तीन, कोई कहते पांच । मद्रास से बारह व्यक्ति गये थे । कोई दीवान बहादुर थे इस महती सेना के नेता । और कितने नेता थे उसकी ठीक-ठीक सूचना अभी तक नहीं आयी है । मध्य-प्रदेश से पांच-छ: जन गये थे, सभी नेता, कारण वहां उनके अलावा और कोई मध्यपंथी हैं ही नहीं । संयुक्त प्रदेश से महारथी मालवीय, गंगाप्रसाद और कई राजे, साहबजादे इत्यादि गये थे । उन सब की सेनाएं थीं, कोई कहते हैं तीस जनों की, तो कोई साठ और कोई अस्सी । सिर्फ पंजाब में यह क्रम नहीं टिक पाया । वहां हरकिसन लाल ही हैं एकमात्र नेता, अन्य सब हैं सेना । ग्रीक प्रतिनिधि किनियस ने रोमन सेनेट में उपस्थित हो कहा था : 'This is a senate of kings ! '-इस सभा का प्रत्येक सभ्य है एक-एक राजा ! हम भी कन्वेन्शनक की ओर देख कह सकते हैं : This is a Congress of leaders, इस महासभा में प्रत्येक सभ्य है एक-एक नेता ! किंतु सेना कहां ?
श्रीरामकृष्य और भावी भारत
भगवान् श्रीरामकृष्णदेव की उक्तियां और उनसे संबंधित जितनी पुस्तकें रचित हुई हैं उनके पढ़ने से ज्ञात होता है कि जो नूतन भाव देश में गठित हुआ है, जो भावराशि समग्र भारतवर्ष को प्लावित करे दे रही है, जिस भाव-तरंग में मत्त हो कितने ही युवक सब कुछ को तुच्छ कर आत्माहुति दे रहे हैं, उस भाव की कोई बात उन्होंने नहीं कहीं,
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सर्वभूत-अंतर्यामी भगवान् ने उसे नहीं देखा; ऐसी बातों पर भला कैसे विश्वास कर सकते हैं ? जिनके पाद-स्पर्श से पृथ्वी पर सत्ययुग उतर आया है, जिनके स्पर्श से धरणी सुखमग्न है, जिनके आविर्भाव से बहुयुग संचित तमोभाव विदूरित हुआ है, जिस शक्ति के सामान्य उन्मेष-भर से दिग-दिगन्त-व्यापिनी प्रतिध्वनि जागरित हुई है; जो पूर्ण हैं, युग धर्म-प्रवर्तक हैं, जो हैं अतीत के अवतारों के समष्टि स्वरूप, उन्होंने भावी भारत को नहीं देखा या उसके बारे में कुछ नहीं कहा, यह हम विश्वास नहीं करते--हमारा विश्वास है कि जो उन्होंने मुंह से नहीं कहा उसे कार्यान्यित कर गये हैं । वे भावी भारत को, भावी भारत के प्रतिनिधि को अपने सामने ही गढ़ गये हैं । इस भावी भारत के प्रतिनिधि हैं स्वामी विवेकानन्द । बहुतेरे ऐसा मानते हैं कि स्वामी विवेकानन्द का स्वदेश-प्रेम है उनका निजी दान । किंतु यदि सूक्ष्म दृटि से देखा जाये तो मालम होगा कि उनका स्वदेश-प्रेम है उनके परम पूज्यपाद मुकदेव का ही दान । उन्होंने भी अपना कहकर कुछ दावा नहीं किया । लोक-गुरु जिस तरह उन्हें गढ़ गये थे वही है भारत को गढ़ने का उत्कृष्ट पथ । उनके संबंध में कोई नियम-विचार नहीं था-उन्होंने उन्हें पूर्ण वीर साधक की तरह गढ़ा था । वे जन्म से ही थे वीर, यह था उनका स्वभाव-सिद्ध भाव । श्रीरामकृष्ण उनसे कहा करते थे : ''तू तो वीर है रे, वीर !'' वे जानते थे कि जो शक्ति वे उनके भीतर संचारित कर जा रहे हैं समय आने पर उसी शक्ति की उदभिन्न छटा से देश प्रखर सूर्य-किरण के जाल से आवृत हो उठेगा । हमारे युवकों को भी इसी वीर भाव से साधना करनी होगी । उन्हें बेपरवाह हो देश का कार्य करना होगा और अहरह यह भगवद्वाणी स्मरण रखनी होगी : ''तू तो वीर है रे वीर, ! ''
अंक १९
पौष २६, १३१६
कन्वेन्शन की दुर्दशा
बंबई के 'राष्ट्र-मत' में कन्वेन्शन के प्रतिनिधियों और दर्शकों की संख्या छपी है । इस पत्र के लाहौर-संवाद-दाता ने लिखा है, ''लाहौर के क्रीड कांग्रेस के अधिवेशन में सब मिलाकर २२४ प्रतिनिधि उपस्थित थे । उनमें आधे से ज्यादा थे पंजाब के अधिवासी । जो पहले भी राजनीतिक कार्य कर चुके हों ऐसे सज्जन बहुत थोड़े ही थे । दर्शकों की संख्या छ: सौ या सात सौ के लगभग होगी । कभी-कभी हॉल के दोनों भाग ही रिक्त रह जाते । एक भी मुसलमान प्रतिनिधि या मुसलमान दर्शक नहीं आया था । सभापति मालवीय ने बहुत ही दक्षता से कार्य चलाया, नहीं तो क्रीड कांग्रेस की इस बार और भी दुर्दशा होती |" संवाददाता की अंतिम उक्ति में किसी गुप्त मतभेद
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की ओर इशारा है । संभवत: यह मतभेद शासन-सुधार के कारण हुआ हो, दोनों दलों के समझौते की शर्त कन्वेन्शन के तद्विषयक प्रस्ताव को देखने से ही समझी जा सकती है । प्रस्ताव के पहले अंश का अंतिम अंश के साथ कोई मेल नहीं | पहले अंश में है मिण्टो व मारले की उदारता, जनता की मनस्तुष्टि के लिये उत्कट व विकट चेष्टा इत्यादि गुणों की सानंद प्रशंसा और कृतज्ञता की उद्दाम लहरी; अंतिम अंश में है कठोर, लगभग अभद्र भाषा में गवर्नमेंट को गली-गलौज और क्रोध व घृणा का उद्दाम उच्छ्वास | इस हास्यास्पद और असंगत सम्मिलन में मालवीय की दक्षता प्रकट हुई है | कराल अकाल मृत्यु के हाथ से छुटकारा पा कन्वेन्शन इलाहाबाद में मालवीय की शींतल छाया में पुन: सम्मिलित होने की दुराशा पाल रही है |
गुटबंदी और एकता का मिथ्या ढोंग
मनुष्य-मात्र है बातों का दास, वाक् देवी के हाथों का खिलौना | चिर परिचित श्रुति-मधुर बातें सुना मन को नचाने में हमारे मध्यपंथी बंधु हैं सिद्धहस्त | वे हैं अंग्रेज राजनीतिज्ञों के चेले | जैसे अंग्रेज श्रुति-मधुर शब्दों की आवृत्ति कर--तथा, ब्रिटिश शांति, ब्रिटिश न्यायपरता, स्वयत्तशासन-सुधार इत्यादि--विशाल शून्य भाव की आड़ में अभीष्ट कार्य कर लेने के अभ्यस्त हैं वैसे ही उनके मध्यपंथी चेले "ब्रिटिश न्यायपरता का इजलास", "ब्रिटिश जनता की विवेक-बुद्धि", "ब्रिटिश साम्राज्य-अंतर्गत अधिकार", आदि श्रुति-मधुर खोखले शब्दों द्धारा देश की बुद्धि को पथ-भ्रष्ट कर इतने दिनों तक भारत की प्रकृत उन्नति का सुपथ रोके बैठे थे | अब भी वह आदत नहीं गयी | राष्ट्रीय पक्ष की ओर से स्वतंत्र कार्य-शृंखला की चेष्टा चलती है देख वे "गुटबंदी", "एकता" इत्यादि परिचित शब्दों का शोर मचा जन-साधारण के मन को नचाने में लगे हैं | उन्होंने ही 'क्रीड' व 'कांस्टिट्युशन्' की रचना कर मारले की मनस्तुष्टि की आशा में राष्ट्रीय पक्ष को बहिष्कृत किया | उन्होंने ही हुगली प्रादेशिक समिति में यह विभीषिका दिखलायी की यदि राष्ट्रीय पक्ष का एक भी प्रस्ताव स्वीकृत हुआ तो वे समिति को तोड़ देंगे | वे ही तो राष्ट्रीयदल के नेताओं के साथ काम करने से भय खाते हैं, उनके साथ काम करना नहीं चाहते | किसी भी घोषणा में मध्यपंथी नेताओं के नाम के साथ यदि उनके देने की बात उठे तो "काम नहीं, काम नहीं, गवर्नमेंट नाराज होगी, बड़े लोग नाराज होंगे," कह उस प्रस्ताव को छोड़ देते हैं | फिर भी "उल्टा चोर कोतवाल को डांटे" से लज्जित नहीं होते | हम लोग ही जैसे गुटबंदी कर रहे हैं, सामान्य मतभेद के कारण एक साथ काम करना नहीं चाहते, कन्वेन्शन में शामिल हो, मेहता को समझाने-बुझाने की चेष्टा न कर अलग-अलग रहते हैं | अबतक हमने कोई बाधा नहीं दी | देश, आंदोलन, राजनितिक क्षेत्र, तुम्हारे ही
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हाथों में तो था । इसका फल यह हुआ कि सारा देश नीरव हो गया, भारत सो गया है, लोगों का उत्साह और आशा टूटने-टूटने को है । हम देश को जगाना चाहते हैं--तुम सबों को पहचान गये हैं, हम जानते हैं कि इच्छा रहने पर भी और विपद की आशंका तुम्हें काम नहीं करने देगी--हम पर भले ही विपत्ति टूटे, हमारा दलन हो, पर हम देश का कार्य करेंगे, यही उधोग हम कर रहे हैं । तुरत ही मध्यपंथियों का शोर उठ खड़ा होता है--अहा, क्या कर रहे हो ? झुंड बांध कैसी गहरी नींद हम सो रहे थे । फिर से गुटबंदी ! हमारी प्रिय एकता गयी, रक्षा करो, मतिलाल कहां अनाथबधु कहां, हमारी रक्षा करो । तुम्हारे मन की बात हम जानते हैं, राष्ट्रीय-पक्ष यदि कार्य-शृंखला-सहित कार्य करने में समर्थ हो, तो तुम्हें चाहे तो उस कार्य में योग दे गवर्नमेंट का अप्रिय बनना होगा या फिर निश्चेष्ट रहने, अकर्मण्य और भीरु करार दिये जाने पर देशवासी का सम्मान और अपने नष्टप्राय नेतृत्व का भग्नांश खोना होगा । इसलिये चिर अभ्यास-वश मिथ्या एकता का ढोंग कर अपनी उस प्रिय और सुखकर निश्चेष्टा के लिये उद्विग्नता दर्शाते हो ।
निर्वासन की विभीषिका
हमारे पुलिस बंधुओं ने हवा उड़ायी है कि फिर निर्वासन ब्रम्हास्त्र चलाया जायेगा । इस बार नौ नहीं चौबीस जानों को कार से, रेल से, "guide" जहाज से गवर्नमेंट के खर्चे पर नाना प्रदेशों ओर विविध जेलों की सैर कर आने के लिये प्रस्थान करना पड़ेगा । पुलिस की इस तालिका में श्रीयुत अरविंद घोष ने शायद पहला स्थान पाया है । हम कभी समझ नहीं पाते कि निर्वासन ऐसी क्या भयंकर चीज है कि निर्वासन का नाम सुनते ही लोग भय से काठ हो, देश का कार्य, कर्तव्य, मनुष्यत्व परित्याग कंपित कलेवर घर के कोने में मुंह ढक दुबक जाते हैं । चिदंबरम् प्रभृति कर्म-वीरों ने बॉयकाट का प्रचार करने के अपराध में जिन कठिन दंडों को हंसते-हंसते शिरोधार्य किया है उसकी तुलना में यह दंड बहुत तुच्छ है, अकिंचित्कार है । बाहर परिश्रम कर रहे थे, नाना दुश्चिंताओं में घिरे देश-सेवा करने को चेष्टा कर रहे थे, शायद भगवान् ने लार्ड मिण्टो या मारले को अपना यंत्र बनाकर कहा, ''जाओ, निश्रिंत हो बैठे रहो, निर्जन में मेरा चिंतन करो, ध्यान लगाओ, पुस्तक पढ़ो, पुस्तक लिखी, ज्ञान का संचय करो, ज्ञान का विस्तार करो । जनता के बीच रह रस का आस्वादन कर रहे थे, अब निर्जनता का स्वाद चखो । '' यह ऐसी क्या भयानक बात है कि भय से कातर होना होगा ? कुछ दिन प्रिय जनों का मुंह नहीं देख पायेंगे--विलायत घूमने जाने पर भी तो यही होता है, फिर भी लोग विलायत घूमने जाते हैं । मान लो, अखाध खा, जाड़ा-गरमी में कष्ट पा शरीर टूट जायेगा | घर में रहने पर भी तो रोग के चुंगल से छुटकारा
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नहीं मिलता, घर में भी बीमारी आती है, मृत्यु होती है, अदृष्ट में लिखी आयु को कोई अन्यथा नहीं कर सकता । और हिंदुओं के लिये तो मृत्यु भयंकर नहीं । देह गयी यानी पुराना वस्त्र गया, आत्मा तो नहीं मरती । हजार बार जन्मा हूं, हजार बार जनक।। । भारत की स्वाधीनता भले स्थापित नहीं कर पाया, भारत की स्वाधीनता का भोग करने आऊंगा, कोई मुझे रोक नहीं सकता । इतना भय किसका ? बिना कष्ट के, सस्ते में इतिहास में अमर नाम कमाया, स्वर्ग का पथ उन्मुक्त हुआ, या सामान्य शरीर-क्लेश की बदौलत पायी मुक्ति और भूक्ति । बस, इतनी-सी बात ? ट्रांसवाल के कुलियों का महान् भाव और भारत के शिक्षित लोगों का यह जघन्य कातर भाव देख लज्जित होना पड़ता है ।
निर्वाचन असंभव
हमारी धारणानुसार यह भय दिखाना है निरर्थक दंभ-मात्र । प्रस्ताव रखा गया है, शायद इंडियन गवर्नमेंट की अनुमति भी मिली है, किंतु लार्ड मारले मान जायेंगे इसपर हम सहज ही विश्वास करना नहीं चाहते । नौ जनों को निर्वासित करने पर उन्हें काफी भोगना पड़ा है, फिर से चौबीस को निर्वासित करेंगे ? विशेषतः यह जानी हुई बात है कि लार्ड मारले श्रीयुत कृष्णकुमार मित्र आदि नौ जनों को जेल से मुक्ति देने के लिये उत्सुक हैं, केवल इंडिया गवर्नमेंट के हठ के कारण ऐसा नहीं कर पा रहे । ऐसी अवस्था में क्या वे सहज ही और चौबीस व्यक्तियों को निर्वासित कर देश की गभीर अशांति को और गभीर बनायेंगे, विप्लवियों के इच्छानुसार कार्य करेंगे ? उन्होंने अनेक भूलें की हैं, किंतु अभी वे उन्माद की अवस्था तक नहीं पहुंचे हैं । अवश्य ही यदि लार्ड मिण्टो कहें कि निर्वासन की अनुमति न देने पर वे भारत की शांति के लिये दायी नहीं, या पद-त्याग का डर दिखायें तब लार्ड मारले बाध्य हो सहमत हो सकते हैं । नहीं भी हो सकते हैं, क्योंकि लार्ड मिण्टो के न रहने पर ब्रिटिश साम्राज्य का ध्वंस हो जायेगा, इस बात पर लार्ड मारले को शायद पूर्ण विश्वास नहीं । जो भी हो, चौबीस व्यक्तियों को निर्वासित कीजिये, या सौ को, अरविंद घोष को निर्वासित कीजिये या सुरेन्द्रनाथ बनर्जी को, कालचक्र की गति नहीं थमने की ।
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अंक २०
माघ ४, १३१६
नवयुग का प्रथम शुभ लक्षण
शासन-सुधार है नवयुग की प्रथम अवतारणा । उस युग में अविश्वास का घोर अंधकार मधुर प्रीति के आलोक में परिणत होगा और दंड-नीति की कठोर मूर्ति अंग्रेज प्रकृति में लीन हो साम्य नीति का आनंदमय विकास भारत-जीवन को सुख और प्रेम से पूर्ण करेगा, यह श्रुति-मधुर रव बहुत दिनों से सुनते आ रहे हैं । इतने दिन बाद मायाविनी आशा की वाणी सफल हुई । जो सभा-निषेध का आईन पूर्व बंगाल के एक ही जिले में जारी हुआ था वह अब सारे भारत में लागू हुआ है । पिछले शुक्रवार से समग्र भारत इस आईन के लपेट में आ गया है । कानूनन बिना अनुमति के कहीं भी बीस आदमी न एक साथ खड़े हो सकेंगे न बैठ सकेंगे । खड़े या बैठे इन बीस आदमियों के सम्मेलन को पुलिस यदि खुली सभा के नाम से अभिहित करने की अभिलाषा करे-ऐसी हास्य-रस-प्रिय पुलिस की संख्या कम नहीं-तो जो खड़े या बैठे हैं वे कानूनन दंडनीय होंगे । प्रमाणित करना होगा कि वे ''सभा'' के सदस्य नहीं थे या सदस्य होने पर भी ''प्रकाश्य'' नहीं थे । जब ''प्रकाश्य'' नहीं थे तब गुप्त थे, यह तो और भी विपज्जनक है । यह प्रमाणित न कर पाने पर छ: मास बिना पैसे के गवर्नमेंट के आतिथ्य और बिना महीना के सम्राट् के लिये मजदूरी का सुयोग पा नवयुग का रसास्वादन कर सकेंगे । अपने घर में भी एकत्रित होने पर रक्षा नहीं । वहां भी यदि राजनीति की चर्चा हो, या होने की संभावना रहे, या वहां 'अमृत बाजार पत्रिका', 'पंजाबी', 'बंगाली', 'कर्मयोगिन्' आदि राजद्रोही समाचार-पत्र पढ़े जाते हों या पढ़े जाने की कोई संभावना हो तो पुलिस वहां आ सकती है और गृहस्वामी व उनके बंधुओं को सरकारी होटल ले जा सकती है । यदि बीस आदमियों को पितृ-श्राद्ध या कन्या के विवाह में निमंत्रण दें तो वहां भी यह पुलिस-लीला संभव है । नवयुग का विहान हुआ है । मिण्टो-मारले की जय ! शासन-सुधार की जय !
आईन और हत्यारे
यह कहना कठिन है कि लाटसाहब ने क्यों सारे भारत पर यह अनुग्रह किया है । बहुतों का कहना है कि हत्याएं व डकैतियां होती हैं इसीलिये सभा-निषेध की यह घोषणा की गयी है । गुप्त हत्याकारी और राजनीतिक डाकू इस भयंकर ब्रम्हास्त्र से डर जायेंगे, इसमें हमें विश्वास नहीं | ऐसे बीस आदमी मिल "प्रकाश्य सभा" करने के
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अभ्यस्त हैं यह भी कभी नहीं सुना । इसकी भी बहुत कम ही संभावना है कि छ: महीने के कारा-दंड के भय से वे जिला-मजिस्ट्रेट या पुलिस-कमिश्नर से अनुमति ले हत्या या डकैती के लिये सलाह करने बैठेंगे । इस युक्ति का मर्म अपनी इस क्षुद्र बुद्धि से हम ग्रहण नहीं कर पाये । पर हमारे ऐंग्लो-इंडियन बंधुओं का कहना है कि ऐसी बात नहीं, देश में आंदोलन होने पर हत्याएं हैं उनका अवश्यंभावी फल, अतः सभा-समिति का बंद करना और हत्या-डकैती बंद करना एक ही बात है । यदि यह सच होता तो जगत् में राजनीति बहुत ही सरल खेल होती, पांच साल का बच्चा भी शासन-कार्य चला सकता । दुःख की बात है कि आज की राजनीतिक अवस्था में इस अदभुत उपाय का एक भी प्रमाण नहीं मिलता, वरन् विपरीत सिद्धांत ही है अनिवार्य । अबतक क्या सभा-समिति बंद नहीं थी ? चरमपंथी दल की सभा-समितियां बहुत पहले से ही लुप्त हो चुकी हैं । मध्यपंथी नेताओं ने निर्वासन के बाद से सभा- समितियों में योग देना बंद कर दिया है । कभी-कभी कालेज स्क्वायर में जो स्वदेशी सभाएं होती हैं उनमें कोई विख्यात वक्ता उपस्थित नहीं होते, दर्शक मंडली की संख्या भी नगण्य रहती है । जेल से बाहर आने के बाद श्रीयुत अरविंद घोष ने कुछ-एक दिन भाषण जरूर दिया पर हुगली प्रादेशिक सभा के बाद से वे भी चुप हो गये हैं । सभाओं में होती हैं बार-बार हत्या-निषेध की सभाएं या कभी-कभी होती हैं दक्षिण सभा के अधिवेशन में अंग्रेज-बंधु गोखले की शक्तिशाली वक्तृताएं । तो क्या हत्या-डकैती हैं गोखले महाशय के भाषण का फल ? हो भी सकता है, क्योंकि गोखले महाशय ने भारत के स्याधीनता-लुब्ध युवकों को समझा दिया है कि बल प्रयोग ही है एकमात्र स्वाघीनता-प्राप्ति का उपाय | तभी तो पूर्ण नीरवता में हत्या-डकैती दिन-दिन बढ़ रही है । यही स्वाभाविक भी है, भीतर वहिन्न हो तो अबाध निर्गैमन से ही वह निर्विघ्न शांत होती है, निर्गमन का पथ खोल प्रतिरोध को विनष्ट कर बाहर आती है ।
हम क्या निश्चेष्ट रहेंगे ?
अब भी जिला या शहर में यह आईन सरकारी कर्मचारी द्धारा प्रचारित नहीं हुआ है, किंतु किसी भी प्रदेश में आंदोलन के सतेज आरंभ होत ही लागू हो जायेगा, इसमें संदेह नहीं, अतः इसे कहना होगा सब तरह से आंदोलन को बंद करने का सरकारी संकेत । अब विवेच्य यह है कि ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय पक्ष कौन-सा पथ पकड़ेगा । हम अपने राजनीतिक आंदोलन को आईन के दायरे में आबद्ध रखने को सचेष्ट हैं । यदि आईन का घेरा इतना संकीर्ण हो कि उसमें खुला आंदोलन और नहीं चल सकता तो हमारे लिये क्या उपाय रह गया है ? एक ही उपाय-नीरव रह इस भ्रांत नीति की प्रतीक्षा करना । हम जानते हैं और गवर्नमेंट भी जानती है कि भारतीयों की स्वाघीनता
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की आशा बुझ नहीं गयी, मस्तक पर दमन-दंड के प्रहार से असंतोष प्रेम में परिणत नहीं हो गया है । जनता की स्पृहा, जनता का असंतोष अपने में आबद्ध हो घुमड़ रहा है । अब भी विप्लवीगण लोगों के मन को गुप्त हत्या और बल-प्रयोग के पथ पर खींच नहीं पाये, पर कब खींच ले जायेंगे यह भी निश्चिति नहीं । यदि एक बार अनर्थ घट गया तब तो गवर्नमेंट की विपद् और देश की दुर्दशा की सीमा नहीं रह जायेगी । इसी आशंका से एवं देश के नवजीवन की रक्षा की आशा से हम राष्ट्रीय पक्ष को सुश्रुंखलित करने का प्रयास कर रहे थे । हमारी धारणा थी कि स्वाधीनता-प्राप्ति का निर्दोष पथ दिखा पाने पर गुप्त हत्या देश से उठ जायेगी । अब हम समझ गये कि अंग्रेज गवर्नमेंट वह उपाय अपनाने नहीं देगी । ऐसी अवस्था में स्वभावत: ही यह विचार मन में उठता है,--वही हो, उनकी यदि ऐसी ही घारणा है कि और भी उग्र दंड- नीति का प्रयोग करने से रोग का उपशम होगा तो वे जी भर दंड-नीति का प्रयोग करें । हम चुप बैठे देखेंगे कि किससे क्या होता है । हम भ्रांत हैं कि वे । जब अंग्रेज राजनीतिज्ञ अपनी भुल समझेंगे तब हमारे कर्म का समय आयेगा । इस पथ को कहा जा सकता है masterly inactivity (फलवती अकर्मण्यता) ।
कर्मण्यता के उपाय
अकर्मण्यता को अपनाने से हमारी भावी सुविधा तो हो सकती है पर उससे देश का प्रचुर अमंगल होने की आशंका है । हमने न हुआ भाषण या सभा-सम्मेलन नहीं किया, बीस आदमी सम्मिलित न भी हुए तो क्या | हमारा उद्देश्य न तो भाषण देना है न ही अंग्रेजी ढंग का आंदोलन चलाना । देश के लिये काम करना है हमारा उद्देश्य, कार्य की श्रृंखला है हमारे मिलन का कारण । देश के बारह-चौदह प्रतिनिधि क्या उस कार्य की शृंखला नहीं बन सकते ? वे जो कार्य-प्रणाली निर्धारित करेंगे देश के लोग क्या उसी परिमाण में छोटा-सी परामर्श-सभा बुला सुसंपन्न नहीं कर सकते ? और यदि ऐसा कानून भी हो कि पांच आदमियों का एक साथ बैठना गैरकानूनी जनता होगी तो क्या और कोई निर्दोष उपाय नहीं है ? शंकराचार्य के देश में सभा-सम्मेलन के बिना क्या कोई मत प्रचारित नहीं हो सकता ? मंदिर में, विवाह में, श्राद्ध में, नाना स्थानों में, नाना अवसरों पर भाई-भाई से भेंट होती है, साधारण बातों के बीच क्या देश--कार्य-विषयक दो-एक बातें नहीं हो सकतीं ? आईन के घेरे में रहेंगे, पर आईन जो कुछ मना नहीं करता उसे तो कर ही सकते हैं ? इतना करने पर भी यदि अंत में गवर्नमेंट राष्ट्रीय शिक्षा-परिषद् को बेक़ानूनी जनता मान सब राष्ट्रीय विधालयों को बंद करे, शिक्षा देने, स्वदेशी कपड़े पहनने, विदेशी माल न खरीदने और सालिसी में कलह मिटाने को घोरतर अपराध मान सश्रम जेल या कालेपानी की व्यवस्था करे, और यदि
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ट्रांसवालवासी कुली व दुकानदारों का साहस, देश-हितैषिता और स्वार्थ-त्याग हममें न हो तो पुलिस और गुप्त विप्लवियों के पथ को रुद्ध करना अब अनावश्यक मान हम हट जायेंगे । इस हद तक चेष्टा करके तो देखा जाये ।
अंक २१
माघ ११, १३१६
आर्य समाज
आर्य समाज है स्वामी दयानंद की सृष्टि । वे जो भाव और प्रेरणा दे गये हैं, जबतक आर्य समाज उस भाव से समन्वित एवं प्रेरणा से अनुप्राणित रहेगा तबतक रहेगा उसका तेज, वृद्धि और सौभाग्य । विभूति या महापुरुष किसी एक विशेष भाव को ले पृथ्वी पर अवतीर्ण होते हैं, उस भाव को अभिव्यक्त कर उसकी शक्ति से जगत् का उपकारी महत् कार्य कर चले जाते हे या अपने भाव के संचार व विस्तार से शक्ति का एक विशेष केंद्र स्थापित कर जाते हैं । उनके द्धारा संस्थापित संस्था, चाहे बड़ी हो या छोटी, उसी विभूति या महापुरुष की प्रतिनिधि हो जगत् में उनका आरब्घ कार्य चलाती रहती है । जिस दिन संस्था में महापुरुष का भाव मलिन हो उठेगा, या उसके तिरोहित होने के लक्षण दिखेंगे उस दिन या तो वह विनष्ट हो जायेगी या अन्य आकार, अन्य भाव ग्रहण कर जगत् का अनिष्ट करना आरंभ कर देगी । उस समय अन्यान्य महापुरुष जन्म ले संस्था का विनाश रोक सकते हैं और अनिष्ट की मात्रा कम कर सकते हैं, किंतु असली भाव लौटा लाना संभव नहीं । आर्य समाज के संस्थापक तेजस्वी स्वामी दयानंद के भाव में हम पाते हैं तीन तत्व : पुरुषार्थ, स्वाधीनता और कर्म । इन तीनों पर अवलंबित उनका प्रचारित धर्म कर्मठ तेजस्वी, स्वधीनताप्रिय पंजाबी जाति का प्रिय बन गया है । वह दिखला पाया है अतुल्य कर्म-शृंखला, कार्य सिद्धि और उत्तरोत्तर उन्नति । जो परीक्षा उपस्थित है हमें नहीं लगता कि उसमें आर्य समाज उत्तीर्ण होगा । लाला लाजपतराय के निर्वासन के समय समाज में अनेक दोष प्रकट हुए थे, अब तो हम और भी शोचनीय दुर्बलता के लक्षण देख रहे हैं । जिस मनुष्यत्व और स्वाधीनता पर आधारित था दयानंद सरस्वती का भाव, उस मनुष्यत्व और स्वाधीनता को तिलांजलि दे किससे निरापद रह सकेगा, इसी चिंता व भय से उन्मत्त हो उठा है समाज । बिना विचारे परमानंद को निकालना और दो सामान्य पत्रों के प्रकाशन से लाला लाजपतराय को उनके सभी पद से हटा देना है इस आश्चर्यभरी विह्वलता के प्रमाण । यदि शीघ्र ही मति न लौटी तो आर्य समाज मृत्यु की ओर दौड़ेगा । जितने भी धर्म जगत् में वर्तमान हैं, मनुष्यजाति के मन में अधिकार जमाये हुए हैं--ईसाई धर्म,
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बौद्ध धर्म, इसलाम, सिक्ख धर्म-छोटे हों या बड़े, सभी परीक्षा के समय अपने-अपने भाव की रक्षा कर पाये थे, तभी तो आज वे जीवित हैं ।
इंग्लैंड में निर्वाचन
इंग्लैंड में निर्वाचन आरंभ हो गया है । किस दल का प्राधान्य होगा यह ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता । अबतक तो रक्षणशील दल की ही जीत होती रही है । दक्षिण और मध्य इंग्लैंड में इनका प्रभाव अत्यंत अधिक दीख रहा है । लंदन में दोनों दलों का समान प्रभाव है शायद । उत्तर भाग में ही उदारनीतिक दल का प्रभाव है एवं वेल्स और स्कॉटलैंड एक तरह से संपूर्णतः इनकी तरफ है । निर्वाचन के फलस्वरूप उभय दलों की क्षमता एक समान होने पर जो भी दल गवर्नमेंट चलाना चाहेगा उसे नेशनलिस्टों (राष्ट्रवादियों) पर ही निर्भर करना होगा । रक्षणशील होमरूल (स्वराज्य) के पक्षपाती नहीं अतः नेशनलिस्टों के साथ मिल उदारनीतिक दल सरकार बना सकते हैं । किंतु ऐसा हो जाने पर भी वे सरकार नहीं चला सकेंगे । कारण अभिजात सभा के पास वीटो की क्षमता तो रह ही जायेगी और वे फिर बजट को अस्वीकार कर देंगे । अत: जिस पथ पर भी क्यों न जायें, सभी बंद हैं । यह अदभुत उभय संकट एक महा समस्या का विषय बन गया है । इस निर्वाचन के फल के साथ भारतवर्ष का कोई खास संबंध नहीं । पर हम इतनी आशा करते हैं कि उदारनीतिक दल की विजय और अभिजात सभा की वीटो की क्षमता लुप्त व उससे संबंधित कोई परिवर्तन होने पर शासन-सुधार के बारे में हमें थोड़ी सुविधा होगी | फिर चाहे उदारनीतिक दल की विजय हो या रक्षणशील की, हमारे लिये तो दोनों ही हैं समान
अंक २४
फाल्गुन २, १३१६
विचार
विचारों की शुद्धता है समाज का स्तंभ | वह शुद्धता कुछ तो निर्भर करती है जज के मन व चित्त की शुद्धता पर व कुछ रक्षित होती है स्वाधीन लोकमत द्धारा | जज राजा के मुख्य धर्म का भार वहन करते हैं, वे हैं ईश्वर के प्रतिनिधि, जैसे ईश्वर विचार-आसन पर बैठे निरपेक्षता से शत्रु-मित्र, धनी-दरिद्र, रजा-प्रजा इत्यादि का राग-द्धेष, मानमर्यादा,
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राजनीतिक या सामाजिक किसी भी उद्देश्य-वश आईन में धांधली मचाते हैं तो वे तो धर्म-च्युत होते ही हैं साथ ही समाज का बंधन भी शिथिल पड़ जाता है । और यदि अज्ञ या लघु-चित्त व्यक्ति को विचारक के आसन पर बिठा दिया जाये तो उस राज्य का अकल्याण है अवश्यंभावी । शासन-तंत्र के अन्य सभी विभागों में धांधली होने से अनिष्ट क्षण-स्थायी हो भी सकता है, पर विचार की अशुद्धता से राजा, राज्य और प्रजा का ध्वंस होता है । किसी भी शासन-तंत्र के गुण-दोष का निर्णय करने के समय सहस्त्र श्रुंखला, कार्य-क्षमता व सुख शांति का प्रमाण देना निरर्थक है,--यदि विचार-प्रणाली निर्दोष न हो तो उस शासन-तंत्र की प्रशंसा मिथ्या है ।
लोक-मत की आवश्यकता
मनुष्य यदि निष्पाप व स्थिर-बुद्धि होता तो विचार के संबंध में लोकमत की स्वाधीनता आवश्यक न होती । किंतु मनुष्य का मन है चंचल, उसके चित्त में कामना व राग-द्वेष प्रबल हैं, उसकी बुद्धि है अशुद्ध और पक्षपातपूर्ण । ऐसी अवस्था में विचार की शुद्धता की रक्षा के उपाय हैं तीन । प्रथम उपाय-कानूनवेत्ता प्रौढ़, धीर-प्रकृति लोगों को विचार-आसन पर बिठा उन्हें सब तरह के प्रलोभनों से, भय-प्रदर्शन, स्वार्थ-चिंता, पर-आदेश, प्रार्थना, अनुनय आदि से दूर रखना; चंचलमना आईन से अनभिज्ञ युवक को कभी भी विचार-आसन पर आरूढ़ करना उचित नहीं, विचारक को किसी भी तरह से शासक के अधीन करना भी है विपज्जनक । यह तत्व व नियम इंग्लैंडीय विचार-प्रणाली में पूर्णत: रक्षित हैं, तभी तो होती है उसकी इतनी प्रशंसा । दूसरा उपाय-विचार का महान निष्कलंक आदर्श स्थापित कर उस आदर्श को विचारक, आईन-व्यवसायी और सर्व-साधारण के मन में दृढ़त: अंकित करना । किंतु आदर्श-भ्रष्ट होना मनुष्य के लिये है अति सहज, इसीलिये लोक-मत को आदर्श के रक्षक के रूप में खड़ा करना अच्छा है । विचारक को यदि मालूम हो कि आदर्श से लेश-मात्र भी भ्रष्ट होने पर लोगों की निंदा व कलंक का पात्र बनना होगा तो उनके मन में अन्याय करने की प्रवृत्ति सहज ही आश्रय नहीं पायेगी ।
हमारे देश में
हमारे देश में कई कारणों से विचारक को शासक के अधीन रखा गया है, इसी से उनका दायित्व बहुत-कुछ शासक पर पड़ा है । विचारक ईश्वर के प्रतिनिधि न हो शासक के प्रतिनिधि हैं । अतएव शासक का दायित्व है अति गुरुतर । तिसपर शासनतंत्र
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की सुविधा के लिये अपक्व-केश, अनभिज्ञ लोगों पर विचार का भार देना आवश्यक हो गया है । हाल में ही बने नये कानून के अनुसार विचारक के विचार के बारे में विपरीत लोक-मत व्यक्त करना निषिद्ध है । प्रचारित किया गया है कि ये व्यवस्थाएं शासन के लिये आवश्यक हैं अत: इसके बारे में कुछ भी कहने का अधिकार हमें नहीं । किंतु इस अवस्था से शासक पर कितना भारी दायित्व आ पड़ा है यह शासक जरा विवेचना कर देखें । वे स्मरण रखें कि वे इस अपूर्व क्षमता का कैसा प्रयोग कर रहे हैं, यह भगवान् देख रहे हैं, देश का हिताहित, राज्य-शासन का फलाफल और साम्राज्य की सुख-शांति व स्थायित्व इसी पर निर्भर है ।
अंक २५
फाल्गुन ९, १३१६
भगवत्-दर्शन
देश-पूज्य श्रीयुत कृष्णकुमार मित्र ने ब्रह्म-समाज के छात्रों को बतलाया है कि आगरा जेल में निर्वासित हो कैसे उन्होंने भगवान् के प्रत्यक्ष उपलब्धि व सर्वत्र-दर्शन प्राप्त किया । जब श्रीयुत अरविंद घोष ने उत्तरपाड़ा में यही बात कही थी तब पूना के 'इंडियन सोशल रिफार्मर' (समाज-सुधारक) ने उपहास कर कहा था कि देखते हैं जेल में ईश्वर-दर्शन का तांता लग गया है । उपहास का अर्थ यही है कि ये बातें हैं सिरफिरे पागलों की कल्पना या मिथ्या प्रतारणा । अरविंद बाबू ने जो कुछ कहा था अविकल वही तो कहा है ब्रम्ह-समाज के शीर्ष स्थानीय श्रीयुत कृष्णकुमार ने । इसमें ऐसी क्या बात है जो अनेकों को परिहास के योग्य लगी, विचारक और जेल में उसी सर्वव्यापी प्रेममय व दयामय का दर्शन, यही तो दोनों ने लाभ किया है । निःसंदेह, एक ही आध्यात्मिक उपलब्धि के दो तरह के तार्किक सिद्धांत ही सकते हैं, एक सत्य को ले नाना मतों का होना है स्वाभाविक । किंतु आगरा और अलीपुर में भिन्न मत और भिन्न प्रकृतिवाले दो व्यक्तियों को जब एक ही प्रत्यक्ष उपलब्धि हुई है .तब क्या कोई उसे पागलपन या ढोंग कह सकता है ? पूना के 'समाज-सुधारक' के मतानुसार भगवान् कभी भी प्रत्यक्ष दर्शन नहीं देते । वे रहते हैं नियमों की ओट में । हम प्राकृतिक नियम का अनुभव कर सकते हैं, भगवान् के अस्तित्व का अनुभव करना है वाचालों का प्रलाप । कोई विज्ञान-अनभिज्ञ यदि कहे कि अमुक रासायनिक प्रयोग मिथ्या है और कुछ विज्ञानविद् वैज्ञानिक प्रयोग करके कहें कि यह सत्य है, हमने अपनी आंखों से देखा है तो किसकी बात अधिक विश्वासयोग्य होगी, लोग किसका मत ग्रहण करने को बाध्य होंगे ?
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जेल में दर्शन
ऐसे लोगों के अविश्वास का एक और कारण है । जेल है अपवित्र स्थान, खूनी, चोर और डकैतों से भरपूर । यदि भगवान् दर्शन दे भी तो देंगे पवित्र स्थान में, साधु-संन्यासियों को, कानून के जाल में फंसे राजनीतिज्ञ, घोर राजसिक कार्य में लिप्त संसारी को जेल में दर्शन देने क्यों जायेंगे ? हमारे मत में साधु-संन्यासी की अपेक्षा ऐसे लोगों को ही भगवान् सहज में पकड़ाई देते हैं । आश्रम व मंदिर की अपेक्षा जेल में या वध्य भूमि में ही लगता है भगवत् दर्शन का तांता । जो मानवजाति के लिये, देश के लिये खटते हैं, जीवन उत्सर्ग करते हैं वे खटते हैं, जीवन उत्सर्ग करते हैं भगवान् के लिये । ईसा मसीह ने कहा है कि जो दुःखी को सांत्वना, दरिद्र को मदद, प्यासे को पानी, निरुपाय को उपाय देता है वह मुझे ही देता है; मैं ही हूं वह दुःखी, वह दरिद्र, वह प्यासा, वह निरुपाय । और फिर जेल में अहंकार पूर्णत: मिट जाता है । वहां रत्ती-भर भी स्वाधीनता नहीं रह जाती । भगवान् के मुंह को ओर ताकते ही रहना होता है आहार, निद्रा, सुख, भाग्य और स्वाधीनता के लिये । अतः ऐसी अवस्था में पूर्ण निर्भरता, पूर्ण आत्म-निवेदन और आत्म-समर्पण जितना सहज हो उठता है उतना और कहीं नहीं । कर्मवीर का आत्म-समर्पण है भगवान् को अतिप्रिय उपहार, यही पूजा है श्रेष्ठ पूजा, यही बलि है श्रेष्ठ बलि । यदि इससे भगवान् के दर्शन नहीं होंगे तो किससे होंगे ।
वेद में पुनर्जन्म
जब यूरोपियनों ने पहले-पहल आर्य-साहित्य का आविष्कार किया तब उन्हें इतना आनंद हुआ कि समुचित प्रशंसा करने को शब्द न जुटते, पंडित जो कह देते उसे ध्रुव सत्य मान लेते । इसके बाद पाश्चात्य हृदय में प्रज्वलित हो उठी ईर्ष्या की आग । अनेकों ने उस ईर्ष्यावश संस्कृत भाषा और विफल साहित्य को ब्राह्मणों का जाल व जुआचोरी कह उड़ा देने की चेष्टा की । जब वह चेष्टा चल रही थी तब यूरोपीय पंडितों ने एक नया फंदा रचा, उन्होंने प्रमाणित करने की चेष्टा की कि हिंदुओं का कुछ भी अपना नहीं, सब विदेश से आया है । रामायण और महाभारत हैं होमर के अनुकरण, ज्योतिष, काव्य, नाटक, आयुर्वेद, शिल्प, चित्रकला, स्थापत्य विद्या, गणित, देवनागरी अक्षर, पंचतंत्र आदि जो कुछ भी भारत के गौरव के नाम से प्रसिद्ध हैं, वे हैं ग्रीस, इजिष्ट, बैबिलॉन आदि देशों से उधार लिये हुए । गीता है ईसाई-धर्म से चुराया माल । हिंदू-धर्म में यदि कोई गुण है तो वह है बौद्ध-धर्म का दान,- और हम कहें कि बुद्ध तो हैं भारतवासी, तो वे इस अदभुत कल्पना का आविष्कार करते हैं कि बुद्ध हैं मंगोल या
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तुरस्क जाति के । शाक्यगण हैं शक या scythian । इसी समय यह मत प्रचारित हुआ कि कर्मवाद और पूर्वजन्मवाद बुद्ध के पूर्ववर्ती हिंदूधर्म में नहीं थे, बुद्ध ने ही इन दोनों मतों की सृष्टि की । अभी उस दिन देखा, Hindu Spiritual Magazine के संपादक ने यह मत प्रचारित किया है कि यह बात ठीक है, पूर्वजन्मवाद वेद में नहीं, पूर्वजन्मवाद हिंदूधर्म का अंग नहीं । मालूम नहीं, संपादक महाशय ने यह बात स्वयं वेद का अध्ययन करके कही है या यह है केवल पाश्चात्य पंडितों की प्रतिध्वनि । हम दिखा सकते हैं और दिखायेंगे कि उपनिषदों को पाश्चात्य पंडित तक बुद्ध के आविर्भाव के पहले का मानते हैं । जो उपनिषदें हैं वैदिक ज्ञान का चरम विकास, उन्हीं उपनिषदों में पुनर्जन्म ध्रुव और गृहीत सत्य के रूप में सर्वत्र उल्लिखित है । कर्मवाद भी वेद में मिलता है । बौद्ध धर्म है हिंदूधर्म की एक शाखा-मात्र, हिंदूधर्म बौद्ध धर्म का परिणाम नहीं ।
आर्य समाज की अवनति
आर्य समाज की अवनति देख हम दुःखित हैं । इस समाज के अध्यक्ष ने हाल ही में ऐसा विचार प्रकट किया है कि राजभक्ति आर्य समाज के धर्म-मतों में एक मत माना गया है, अतः जो ''मैं राजभक्त हूं'' कह शपथ लेगा उसे ही प्रवेश करने दिया जायेगा, दूसरे किसी को नहीं । अन्य धर्म संप्रदायों को भी इस महात्मा ने इसी विधान का उपदेश दिया है । यदि यह अध्यक्षजी का प्रकृत मत होता तो हम कुछ नहीं कहते, किंतु आर्य समाज पर बार-बार राजद्रोह का अभियोग लगने के पहले उसमें उस उत्कट राजभक्ति का उदय नहीं हुआ था । धर्म सभी के लिये है, जिस धर्म संप्रदाय से राजनीतिक मत के कारण कोई बहिष्कृत कर दिया जाये, वह संप्रदाय धर्म संप्रदाय नहीं, है स्वार्थ-संप्रदाय । मैं राजभक्त हूं या नहीं यह सरकारी कर्मचारी देखेंगे और सरकारी कर्मचारी भी तो मेरे मन के भावों पर अधिकार करने की चेष्टा नहीं करते, वे केवल यही चेष्टा करते हैं कि राजभक्ति के विरुद्ध-भाव के प्रचार से देश की शांति नष्ट न हो, उनका अधिकार नष्ट न हो । जिस धर्म-मंदिर के द्धारा पर यह नहीं पूछा जाता कि तुम भगवद् भक्त हो कि नहीं, पूछा जाता है तुम राजभक्त हो कि नहीं, उस मंदिर में कोई भगवद्-भक्त पग न रखे । Render unto Caesar the things that are Caesar's, unto God the things that are God's-- -जो सम्राट् का प्राप्य है उसे ही सम्राट् को अर्पण करो, जो भगवान् का प्राप्य है वह भगवान् का है, सम्राट् का नहीं ।
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परिशिष्ट
ऐक्य और स्वाघीनता
गत दिसम्बर मद्रास में राष्ट्रीय-सभा के उन्नीसवें अधिवेशन के समय बंगाल के प्रधान वक्ता और सभापति श्रीयुत लालमोहन घोष ने जो भाषण दिया था उससे एक नये राजनैतिक युगपरिवर्तन का बहुत ही अस्पट आभास मिला है । श्रीयुत घोष महोदय का भाषण...१दूसरे अधिवेशनों के सभापतियों के भाषणों से काफी कुछ अलग ढंग का था । उनके भाषण का सुर उस चिर परिचित एकतान से ठीक मिल नहीं सका । पहले के [?]२ सभापति प्रायः ही भिक्षुक वेश में राजद्वार पर उपस्थित होते थे, कोई-कोई रुक्षभाषी दुर्दान्त भिक्षुक गृहस्थ के कर्ण कुहर में शोर मचा-मचा कर, उसे तंग करके दान निकलवाने की चेष्टा करता था--कोई सज्जन भिक्षुक कोमल स्वर में अथवा अति क्षीण क्रन्दन स्वर में गृहस्वामी को फुसला अपना मनोरथ सिद्ध करने की चेष्टा करता था । किंतु घोष महोदय के भाषण में एक नये भाव का अभ्युदय दिखायी देता है, अर्ध-जाग्रत् मनुष्यत्व की वह पहली जरा-सी आवाज अभी भी क्षीण और अस्पट है तथापि कवि वड़ॅसवर्थ की तेजस्वी सारगर्भित महती वाणी की प्रतिध्वनि मानों दूर से सुनायी दे रही है--जो मुक्त होना चाहते हैं उन्हें स्वयं ही आघात करना चाहिये । स्वाधीनता यदि चाहिये तो अपने-आप अपनी शृंखलाएं काटो, कोई और तुम्हारे लिये नहीं काट सकता ।
तो स्वाधीनता क्या है--आधुनिक भारतवर्ष के लिये कितनी स्वाधीनता प्रयासलभ्य और श्रेयस्कर है इस संबंध में किसी परिपक्य और फ्लिइ९ निश्चित धारणा को मन में दृढुरूप से अंकित करना बहुत आवश्यक है । राजनीतिक क्षेत्र में बाहरी, आडंबरपूर्ण, अनिश्चित और अस्पष्ट उक्तियां बार-बार दुहराना भारतवासियों का एक रोग बन गया है । इसमें ही हमारा बल, धन और समय नष्ट होता है । यह रोग जैसे बुद्धि की तीक्ष्णता, प्रगाढ चिंतन के अभ्यास, मन के स्वभावगत प्रांजल भाव और... को नष्ट करता है वैसे ही कार्यसिद्धि में विलंब करता है, कभी-कभी तो संपूर्णतया लोप ही कर देता है और अंत में निराशा और निश्चेष्ट आलस्य का कारण बनता है । आजकल बंगाल में यही अंतिम अवस्था ही कुछ परिमाण में अनुभव कर रहा हूं ।
इस संबंध में राष्ट्रीय मन में दो विभिन्न उद्देश्यों को लेकर चिंतन की दो धाराएं बह रही हैं । एक है प्राचीन जो दिन-प्रतिदिन सूखे जा रही है लेकिन देश के अधिकांश राजनीतिक नेता अभी भी उसी धारा में बह रहे हैं और सारे राष्ट्र को भी उसी में बहाने
१जहां... यह चिन्ह है वहां एक या एकाधिक शब्द या पंक्तियां पढ़े नहीं गये ।
२जहां प्रश्न-चिन्ह (?) लगा है वह पाठ संदेहास्पद है ।
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में लगे हैं । दूसरी है नूतन । यधपि दो-चार संभ्रांत और विख्यात पुरुषों को छोड़कर कोई सर्वजनसम्मत नेता इस पथ पर अग्रसर नहीं हुए हैं तथापि वे जो भागीरथी का पथ प्रशस्त कर रहे हैं और राष्ट्रीय जीवन भी उसी पथ पर बहेगा, ऐसी संभावना अधिक है । पुराने नेता कहते हैं, कि हमारे राजनीतिक जीवन का चरम उद्देश्य यह रहना चाहिये कि धीरे-धीरे अधिकार और स्वत्व पाते-पाते अंत में अनेक प्रयास और परिश्रम के फलस्वरूप ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन स्वाधीनता पा लेंगे । भारत के सरकारी कर्मचारी कितने भी निष्ठुर क्यों न हों लेकिन अंग्रेज जाति महान् और सहृदय है--उसमें विल्बरफोर्स, हॅार्वडॅ ग्लैडस्टोन आदि महात्माओं ने जन्म लिया है । वे हमारा दुःख नहीं जानते लेकिन रोने से सुनेंगे ।
(अपूर्ण)
३० आश्विन
इस वर्ष ३० आश्विन का समारोह जिस आग्रह, स्वाभाविक उच्छवास और एकता के साथ सुसंपन्न हुआ है वह पिछले दो वषों में नहीं हुआ है, यह बात अंग्रेज, बंगाली, शत्रु-मित्र सभी स्वीकार करने को बाध्य हुए हैं । इस नवजात राष्ट्रीय भाव की, नवलबध मातृबोघ की वृद्धि देखकर सर्वत्र उसकी संतान के हृदय में उत्साह और बल का भी दुगुना संचार हुआ है । क्या कारण है कि तीसवीं आश्विन बंगाली के लिये इतनी पवित्र और पूज्य तिथि है ? यह तिथि है बंगभंग का दिन, शोक का दिन, अपमान का दिन, सिर्फ इसीलिये तो यह तिथि प्रगतिशील राष्ट्र के हृदय में प्रतिष्ठा नहीं पा सकती, असंभव है यह । जो दिन ऐसी किसी चिरस्मरणीय घटना या महान् राष्ट्रीय समारंभ का स्मरण करा दे, जिसे स्मरण कर संतान के हृदय में भक्ति, आनंद और उच्च आशा संचारित हो, वह दिन ही राष्ट्र का प्रिय दिन है, वह तिथि ही पूज्य और पवित्र है । ७ अगस्त बॉयकाट के दिन के रूप में याद नहीं किया जाता बल्कि राष्ट्रीय आत्मज्ञान--प्राप्ति के दिन के रूप में स्मरणीय है । बॉयकाट भी विद्धेषजन्य घृणा का प्रकाशन नहीं या सरकार के साथ थोड़े दिन का मनमुटाव नहीं ही, उसमें निहित है उच्चतर राष्ट्रीय भाव । हम बंगाली आत्मज्ञानहारा हो गये थे, ७ अगस्त को उसी राष्ट्रीय आत्मज्ञान को पुन: प्राप्त किया है, समझ लिया है कि भारत का राष्ट्रीय जीवन और उन्नति किसी की कृपा की मुहताज नहीं, हम विदेशी साम्राज्य के नगण्य और पराधीन क्षुद्रांश नहीं । हम भी दुनिया में एक राष्ट्र की हस्ती लिये हैं, हम भी स्वतंत्र, दैवी शक्तिसंपन्न हैं और स्वाघीनता के अधिकारी हैं । बॉयकाट है उसी स्वतंत्रता की घोषणा, कर्मक्षेत्र में उसी नवजाग्रत् आत्मज्ञान के विकास का प्रकाशन एवं ७वीं अगस्त है उसी आत्मज्ञान-प्राप्ति की' तिथि । इसी तरह बंगभंग नहीं बंगभंग का अमृतमय फल ही है ३०वी आश्विन का
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सार-मर्म ।... ३०वीं आश्विन को मातृबोघ जग उठा, हमने मां को पुन: प्राप्त किया, यही है ३०वीं आश्विन की पवित्रता, इसीलिये है बंगाली के हृदय में इस तिथि की चिर प्रतिष्ठा । ३०वीं आश्विन है मातृबोघ की प्राप्ति की पवित्र और पूज्य तिथि ।
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