श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

The Complete Works of Sri Aurobindo (CWSA) Writings in Bengali and Sanskrit Vol. 9 715 pages 2017 Edition
Bengali
 PDF   
Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य 528 pages 1999 Edition
Hindi Translation
Translator:   Hriday  PDF    LINK

गीता

 


गीता का धर्म

 

      जिन्होंने गीता को ध्यानपूर्वक पढ़ा है, उनके मन में सम्भवत: यह प्रश्न उठ सकता है कि भगवान् श्रीकृष्ण ने बारंबार 'योग' शब्द का व्यवहार किया है और युक्तावस्था का वर्णन किया है, परंतु कहां, साधारण लोग जिसे योग कहते हैं, उसके साथ तो इसका कोई मेल नहीं दिखायी देता ? श्रीकृष्ण ने जगह-जगह पर संन्यास की प्रशंसा की है, अनिर्द्देश्य परब्रम्ह  की उपासना से परम गति प्राप्त होने को बात भी कही है, किन्तु इन्हें अत्यंत संक्षेप में ही समाप्त कर गीता के श्रेष्ठांश में उन्होंने त्याग के महत्त्व और वासुदेव के प्रति श्रद्धा और आत्मसमर्पण द्धारा परमावस्था की प्राप्ति की बात को ही विविध प्रकार से अर्जुन को समझाया है । छठे अध्याय में राजयोग का कुछ वर्णन है, किंतु गीता को राजयोग-प्रचारक ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता । समता, अनासक्ति, कर्मफल-त्याग, श्रीकृष्ण को संपूर्ण आत्मसमर्पण, निष्काम-कम, गुणातीत्य और स्वधर्मसेवा ही हैं गीता के मूल तत्त्व । इसी शिक्षा को भगवान् ने परम ज्ञान और गुह्यतम रहस्य कहा है । हमारा विश्वास है कि गीता ही जगत् के भावी धर्म का सर्वजनसम्मत शास्त्र होगी । किंतु गीता का ठीक-ठीक अर्थ सब नहीं समझते । बड़े-बड़े पण्डित और श्रेष्ठ मेधावी, तीक्ष्णबुद्धि लेखक भी इसका गूढ़ार्थ समझने में असमर्थ हैं । एक ओर मोक्षपरायण व्याख्याकारों को गीता में अद्वैतवाद और संन्यासधर्म की श्रेष्ठता  का प्रतिपादन दिखायी पड़ा है, दूसरी ओर अंग्रेजी दर्शन में निष्णात बंकिमचंद्र को गीता में केवल वीरभाव से कर्तव्य पालन करने का ही उपदेश मिला है, और उसी अर्थ को तरुणमण्डली के मन में घुसा देने की चेष्टा  की है । इसमें संदेह नहीं कि संन्यासधर्म है उत्कृष्ट धर्म, किंतु उस धर्म का आचरण थोड़े लोग ही कर सकते हैं । सर्वजनसम्मत धर्म में आदर्श और ततत्वसंबंघी एक ऐसी शिक्षा होनी चाहिये जिसे सर्वसाधारण अपने-अपने जीवन और कर्मक्षेत्र में उपलब्ध कर सकें और साथ ही उस आदर्श का पूर्णरूपेण आचरण करने पर  अप्लजनसाध्य परमगति को भी प्राप्त कर सकें । वीरभाव से कर्तव्य-पालन करना उत्कृष्ट धर्म तो है किंतु कर्तव्य क्या है इस जटिल समस्या के कारण ही धर्म और नीति में इतनी अधिक धांधली है । भगवान् ने कहा है, गहना कर्मणो गति:; कर्तव्य क्या है, अकर्तव्य क्या है, कर्म क्या है, अकर्म क्या है, विकर्म क्या है, इसका निर्णय करने में ज्ञानी भी विमोहित हो जाते हैं किंतु मैं तुम्हें ऐसा ज्ञान दूंगा जिससे तुम्हें अपना गंतव्य पथ निर्धारित करने में कोई रुकावट नहीं होगी, कर्म जीवन का लक्ष्य तथा सर्वदा अनुष्ठेय  नियम एक ही शब्द से विशद रूप में स्पष्ट हो जायेगा । यह ज्ञान क्या है, लाख बातों की एक बात कहां मिलेगी ? हमारा विश्वास  है कि गीता के अंतिम अध्याय में भगवान् ने जहां अपने सर्वगुह्यतम परम कर्तव्य को बतलाने की प्रतिज्ञा अर्जुन से की है, वहीं खोजने से यह दुर्लभ अमूल्य वस्तु प्राप्त हो सकती है | वह सर्वगुह्यतम परम वाणी क्या है ?

 

२३१


मम्मना भव मदभक्तो मधाजि मां नमस्कुरु |

मामेवैष्यसि  सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ||

सर्वघर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो  मोक्षयिष्यामि  मा शुच: ||

    इन दो श्लोकों का अर्थ एक शब्द में कहा जा सकता है-आत्मसमर्पण । जो जितने परिमाण में श्रीकृष्ण को आत्मसमर्पण कर सकते हैं, उनके शरीर में उतने ही परिमाण में भगवद्द्त्त शक्ति आती है और वे परम मंगलमय के प्रसाद से पापमुक्त हो देवभाव को प्राप्त करते हैं । उसी आत्मसमर्पण का वर्णन श्लोक के पहले अर्द्धांश में किया गया है । तम्मना तदभक्त और तधाजी होना होगा । तम्मना अर्थात् सब भूतों में उनके दर्शन करना, सब समय उनका स्मरण करना, सब कार्यों और सब घटनाओं में उनकी शक्ति, ज्ञान और प्रेम के खेल को देखते हुए परम आनन्द से रहना । तदभक्त अर्थात् उनपर पूर्ण श्रद्धा और प्रीति रख उनके साथ युक्त रहना । तधाजी अर्थात् छोटे-बड़े सब कर्मों को श्रीकृष्ण के निमित्त यज्ञ रूप में अर्पण करना तथा स्वार्थ और कर्मफल में आसक्ति का त्याग कर उनके लिये ही कर्तव्य-कर्म में प्रवृत्त होना । पूर्णरूप से आत्मसमर्पण करना मनुष्य के लिये कठिन है, किंतु थोड़ी-सी भी चेष्टा करने से स्वयं भगवान् अभय दे, गुरु रक्षक और सुहृद बन योगमार्ग पर अग्रसर कर देते हैं । स्वलपमप्यस्य   धर्मस्य त्रायते महतो भयात् । उन्होंने कहा है, इस धर्म का आचरण करना सहज और सुखप्रद है । वास्तव में ऐसा ही है, संपूर्ण आचरण का फल है अनिर्वचनीय आनन्द, शुद्धि और शक्तिलाभ । 'मामेवैष्यसि' अर्थात् मुझे प्राप्त करोगे, मेरे साथ वास करोगे, मेरी प्रकृति को प्राप्त करोगे | इस उक्ति से प्रकट होती है सादृश्य, सालोक्य और सायुज्यरूप फल की प्राप्ति । जो गुणातीत हैं वे ही भगवान् के सादृश्य-प्राप्त हैं । उनमें कोई आसक्ति नहीं रहती, फिर भी वे कर्म करते हैं, पापमुक्त हो महाशक्ति के आधार बन जाते हैं और इस शक्ति के सभी कार्यों में आनंदित होते हैं । सालोक्य भी केवल देहपात के बाद की ब्रह्मलोक की गति नहीं है, इस शरीर में भी सालोक्य की प्राप्ति होती है । देहयुक्त जीव जब अपने अंतर में परमेश्वर के साथ क्रीड़ा करता है, मन उनके दिये ज्ञान से पुलकित होता है, हृदय उनके प्रेमस्पर्श से आनंदप्लुत होता है, बुद्धि मुहुर्मुहु: उनकी वाणी श्रवण करती है तथा प्रत्येक विचार में उन्हींकी प्रेरणा को अनुभव करती है, तभी होती है मानवतनु में भगवान् के साथ सालोक्य प्राप्ति । सायुज्य भी इसी शरीर में होता है । गीता में भगवान् के अंदर निवास करने की बात कही गयी है । जब 'सब जीवों में वह हैं' यह उपलब्धि स्थायी रूप से वर्तमान रहती है, सब इंद्रियां उन्हींके दर्शन करती, श्रवण करती, घ्राण  लेती, आस्वादन करती, स्पर्श करती हैं, जीव सर्वदा उन्हींमें अंशभाव से निवास करने का अभ्यस्त होता है, तब इसी शरीर में सायुज्य की प्राप्ति होती है । यह परम गति है, संपूर्ण अनुशील

 

२३२


का फल । किंतु इस धर्म के अल्प-आचरण से भी महान् शक्ति, विमल आनंद पूर्ण सुख और शुद्धता प्राप्त होती हैं । यह धर्म विशिष्ट-गुण-सम्पन्न लोगों के लिये सृष्ट हुआ । भगवान् ने कहा है, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र, पुरुष, नारी, पापयोनी प्राप्त जीव तक इस धर्म द्धारा उन्हें प्राप्त कर सकते हैं । घोर पापी भी उनकी शरण ले थोड़े समय में विशुद्ध हो जाते हैं । अतएव यह धर्म सबके लिये आचरणीय है । जगन्नाथ के मंदिर में जाति का विचार नहीं, फिर भी इसकी परम गति किसी भी धर्म द्धारा निर्दिष्ट परमावस्था से कम नहीं ।

 

२३३









Let us co-create the website.

Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.

Image Description
Connect for updates