All writings in Bengali and Sanskrit including brief works written for the newspaper 'Dharma' and 'Karakahini' - reminiscences of detention in Alipore Jail.
All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)
गीता की भूमिका
प्रस्तावना
गीता है जगत् की श्रेष्ठ धर्मपुस्तक । गीता में जिस ज्ञान की व्याख्या संक्षेप में की गयी है वही ज्ञान चरम और गुह्यतम है; गीता में जिस धर्मनीति का वर्णन है, सब धर्मनीतियां उसी नीति के अंतर्गत तथा उसी पर प्रतिष्ठित हैं; गीता में जो कर्ममार्ग प्रदर्शित किया गया है वही कर्ममार्ग है उन्नतिशील जगत् का सनातन मार्ग ।
गीता है अनगिनत रत्नों को उत्पन्न करनेवाला अथाह समुद्र । जीवन-भर इस समुद्र की थाह लेते रहने पर भी इसकी गहराई का अनुमान नहीं लगता, इसकी थाह नहीं मिलती । सैंकड़ों वर्षो तक ढूंढ़ते रहने पर भी इस अनंत रत्न-भंडार का सहस्त्रांश भी आहरण करना दुष्कर है । तथापि इससे दो-एक रत्न भी निकाल लेने पर दरिद्र धनी हो जाते हैं, गभीर चिंतनशील व्यक्ति ज्ञानी, भगवद्धिद्धेष प्रेमिक बन जाते हैं तथा महापराक्रमी, शक्तिमान कर्मवीर अपने जीवन की उद्देश्य-सिद्धि के लिये पूर्ण रूप से सुसज्जित और सन्नद्ध हो कर्मक्षेत्र में लौट आते हैं ।
गीता है अक्षय मणियों की खान । यदि युग-युगांत तक इस खान से मणियां निकलती रहें तो भी भावी वंशधर इससे सर्वदा नये-नये अमूल्य मणि-माणिक्य प्राप्त कर प्रसन्न और विस्मित होते रहेंगे ।
ऐसी गभीर और गुप्तज्ञानपूर्ण पुस्तक, फिर भी भाषा अतिशय प्रांजल, रचना सरल तथा बाह्य अर्थ सहजबोधगम्य । गीता-समुद्र की छोटी तरंगों के ऊपर-ही-ऊपर सैर करते रहने पर भी, डुबकी न लगाने पर भी, शक्ति और आनन्द की थोड़ी-बहुत वृद्धि हो ही जाती है । गीतारूपी खान की रतनोद्भासित गभीर गुहा में प्रवेश न कर, केवल चारों ओर घूमते रहने पर भी घास-पात पर गिरी उज्ज्वल मणि मिल जाती है, उससे ही हम जीवन-भर के लिये धनी बन सकते हैं ।
गीता की हजारों व्याख्याएं होने पर भी ऐसा समय कभी नहीं आयेगा जब किसी नयी व्याख्या की आवश्यकता नहीं होगी । कोई जगत्-श्रेष्ठ महापंडित या गभीर ज्ञानी गीता की ऐसी व्याख्या नहीं कर सकता जिसे हृदयंगम कर हम यह कह सकें कि बस हो चुका, अब इसके बाद गीता की कोई और व्याख्या करना निष्प्रयोजन है, सारा अर्थ समझ में आ गया । सारी बुद्धि खर्च कर हम इस ज्ञान की मात्र कतिपय शिक्षाओं को समझ या समझा सकेंगे । बहुत दिनों तक योगमग्न अथवा निष्काम कर्ममार्ग में उच्च से उच्चतर स्थान पर आरूढ़ होकर भी हम इतना ही कह सकेंगे कि गीतोक्त कुछ--एक गभीर सत्यों को ही प्राप्त किया है या गीता की दो-एक शिक्षाओं को ही इस जीवन में कार्यान्वित किया है । लेखक ने जितना उपलब्ध किया है, जितने अंश का कर्मपथ पर अभ्यास किया है, उसके अनुसार विचार-वितर्क द्धारा जो अर्थ किया है,
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उसका दूसरों को सहायता के लिये विवरण देना ही है इन प्रबंधों का उद्देश्य ।
वक्ता
गीता के उद्देश्य और अर्थ को समझने के लिये पहले उसके वक्ता, पात्र और उस समय की अवस्था पर विचार करना आवश्यक है । वक्ता हैं भगवान् श्रीकृष्ण, पात्र हैं भगवान् के सखा वीरश्रेष्ठ अर्जुन, अवस्था है कुरुक्षेत्र के भीषण हत्याकांड का आरंभ ।
बहुत-से लोग कहते हैं कि महाभारत रूपक-मात्र है; श्रीकृष्ण हैं भगवान् अर्जुन हैं जीव, धार्तराष्ट्रगण कामक्रोधादि रिपु और पाण्डव-सेना मुक्ति के लिये अनुकूल वृत्ति । ऐसा कहने से जैसे महाभारत को काव्य-जगत् में हीन स्थान प्राप्त होता है वैसे ही गीता की गभीरता, कर्मी के जीवन में उसकी उपयोगिता तथा मानवजाति की उन्नति करानेवाली उसकी उच्च शिक्षा भी खर्व और नष्ट होती है । कुरुक्षेत्र का युद्ध गीताचित्र का फ्रेम-भर नहीं, वह है गीता की शिक्षा का मूल कारण तथा गीतोक्त धर्म को संपादित करने का श्रेष्ठ क्षेत्र । यदि कुरुक्षेत्र के महायुद्ध का काल्पनिक अर्थ स्वीकार कर लिया जाये तो गीता का धर्म वीरों का धर्म, संसार में आचरणीय धर्म न बन संसार के लिये अनुपयोगी, शांत संन्यासधर्म में परिणत हो जायेगा ।
श्रीकृष्ण हैं वक्ता । शास्त्र कहते हैं श्रीकृष्ण हैं स्वयं भगवान् । गीता में भी श्रीकृष्ण ने अपने-आपको भगवान् कहा है । चौथे अध्याय में अवतारवाद और दसवें अध्याय में विभूतिवाद का वर्णन कर यह बतलाया गया है कि भगवान् भूत-मात्र के शरीर में प्रच्छन्न रूप से अधिष्ठित हैं, विशेष-विशेष भूतों में शक्ति के विकास के अनुसार कुछ परिमाण में व्यक्त हैं और श्रीकृष्ण-शरीर में हैं पूर्णांश रूप में अवतीर्ण । बहुतों का कहना है कि श्रीकृष्ण अर्जुन और कुरुक्षेत्र रूपक-मात्र हैं, इस रूपक को छोड़कर ही गीता की असली शिक्षा का उद्धार करना होगा, किंतु उस शिक्षा के इस अंश को नहीं छोड़ा जा सकता । अवतारवाद को यदि मानते हैं तो श्रीकृष्ण को क्यों छोड़ दें ? अतएव स्वयं भगवान् ही हैं इस ज्ञान और शिक्षा के प्रचारक ।
श्रीकृष्ण हैं अवतार, मानवशरीर में मनुष्य के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक धर्म को ग्रहण कर तदनुसार लीला कर गये हैं । उस लीला की प्रकट और गूढ़ शिक्षा को यदि हम आयत्त कर सकें तो इस जगद्व्यापी लीला के अर्थ, उद्देश्य और प्रणाली को भी समझ जायेंगे । उस महती लीला का प्रधान अंग है पूर्ण ज्ञान द्धारा प्रवर्तित कर्म; उस कर्म में तथा उस लीला के मूल में जो ज्ञान निहित था वही गीता में प्रकाशित हुआ है ।
महाभारत के श्रीकृष्ण हैं, कर्मवीर, महायोगी, महासंसारी, साम्राज्य-संस्थापक, राजनीतिज्ञ और योद्धा, क्षत्रिय-शरीर में ब्रम्हज्ञानी । उनके जीवन में महाशक्ति का अतुलनीय विकास और रहस्यमयी क्रीड़ा देखते हैं । उसी रहस्य की व्याख्या है गीता।
श्रीकृष्ण जगत्प्रभु हैं, विश्वव्यापी वासुदेव हैं, फिर भी अपनी महिमा को प्रच्छन्न रख
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मनुष्यों के साथ पिता, पुत्र, भ्राता, पति, सखा, मित्र, शत्रु इत्यादि का संबंध स्थापित कर लीला की है । उनके जीवन में आर्य-ज्ञान का श्रेष्ठ रहस्य और भक्तिमार्ग की उत्तम शिक्षा निहित है । इन दोनों का तत्त्व भी गीता की शिक्षा के अंतर्गत हैं ।
श्रीकृष्ण द्धापर और कलियुग के संधिकाल में अवतीर्ण हुए थे । प्रत्येक कल्प में भगवान् उसी संधिकाल में पूर्णांश रूप में अवतीर्ण होते हैं । कलियुग चारों युगों में जितना निकृष्ट युग है उतना ही श्रेष्ठ भी । यह युग मानवोन्नति के प्रधान शत्रु पापप्रवर्तक कलि का राज्यकाल है । मनुष्य की अत्यंत अवनति और अधोगति होती है कलि के राज्यकाल में । बाधा के साथ युद्ध करते-करते शक्ति बढ़ती है, पुरातन का ध्वंस होने से नूतन की सृष्टि होती है, कलियुग में भी यही नियम दिखायी देता है । जगत् के क्रमविकास द्धारा अशुभ का जो अंश विनाश की ओर अग्रसर होता रहता है, कलियुग में वही अतिविकास द्धारा नष्ट हो जाता है, दूसरी ओर नव सृष्टि का बीज वपित और अंकुरित होता है, वही बीज सत्ययुग में वृक्ष में परिणत होता है । इसके अतिरिक्त जैसे ज्योतिष विधा में एक ग्रह की दशा में सभी ग्रहों की अंतर्दशा का भोग होता है, वैसे ही कलि की दशा में सत्य, त्रेता, द्धापर और कलि भी अपनी-अपनी अंतर्दशा का बारंबार भोग करते रहते हैं । इस प्रकार की कालचक्र की गति के कारण कलियुग में घोर अवनति, पुन: उन्नति, पुन: घोरतर अवनति, पुन: उन्नति होती है और इस तरह भगवान् का उद्देश्य साधित होता है । द्धापर और कलियुग के संधिकाल में भगवान् अवतीर्ण हो अशुभ का अतिविकास, अशुभ के नाश, शुभ के बीजवपन और अंकुरित होने के लिये अनुकूल अवस्था उत्पन्न कर जाते हैं, उसके बाद होता है कलियुग का आरंभ । श्रीकृष्ण इस गीता में सत्ययुग ले आने योग्य गुह्य ज्ञान और कर्मप्रणाली छोड़ गये हैं । कलि की वास्तविक अंतर्दशा आरंभ होने के समय गीताधर्म का विश्वव्यापी प्रचार अवश्यंभावी है । अब वह समय आ गया है और इसीलिये गीता का प्रचार कुछ ज्ञानी और पंडित लोगों तक ही सीमित न रह सर्वसाधारण में और म्लेच्छ देशों तक में हो रहा है ।
अतएव वक्ता श्रीकृष्ण से उनकी गीतारूपी वाणी को अलग नहीं किया जा सकता । श्रीकृष्ण गीता में प्रच्छन्न रूप से विधमान हैं; गीता है श्रीकृष्ण की वाङ्मयी मूर्ति ।
पात्र
गीतोक्त ज्ञान के पात्र हैं पांडवश्रेष्ठ महावीर इंद्रतनय अर्जुन । जिस तरह वक्ता को छोड़ देने से गीता का उद्देश्य और निगूढ़ अर्थ समझना कठिन है, उसी तरह पात्र को छोड़ देने से उस अर्थ की हानि होती है ।
अर्जुन थे श्रीकृष्ण के सखा । जो लोग श्रीकृष्ण के समकालीन थे, एक ही कर्मक्षेत्र
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में उतरे थे, उन्होंने मनुष्यदेहधारी पुरुषोत्तम के साथ अपने-अपने अधिकार और पूर्वकर्मभेदानुसार नाना संबंध स्थापित किये थे । उद्धव थे श्रीकृष्ण के भक्त, सात्यकि उनके अनुगत सहचर और अनुचर, राजा युधिष्ठिर उनकी मंत्रणा के अनुसार चलनेवाले आत्मीय और बंधु, किंतु अर्जुन की तरह कोई भी श्रीकृष्ण के साथ घनिष्ठता स्थापित नहीं कर सका था । समवयस्क दो पुरुषों में जितने भी मधुर और निकट संबंध हो सकते हैं, श्रीकृष्ण और अर्जुन में वे सभी मधुर संबंध थे । अर्जुन थे श्रीकृष्ण के भाई, उनके प्रियतम सखा, उनकी प्राणप्यारी बहन सुभद्रा के स्वामी । चतुर्थ अध्याय में भगवान् ने कहा है कि इस घनिष्ठता के कारण ही उन्होंने अर्जुन को गीता का परम रहस्य सुनने के पात्र के रूप में वरण किया है ।
स एवायं मया तेऽघ योग: प्रोक्त: पुरातन: |
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्रेतदुत्तमम् ||
''तुझे अपना भक्त और सखा जान इस पुरातन लुप्त योग को आज मैंने तेरे सामने प्रकट किया है । कारण, यही योग जगत् का श्रेष्ठ और परम रहस्य है ।'' अठारहवें अध्याय में भी गीता के केन्दस्वरूप कर्मयोग का मूलमंत्र व्यक्त करने के समय इसी बात की पुनरुक्ति हुई है ।
सर्वगुह्यतम भूय: शृणु मे परमं वच: |
इश्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्यामि ते हितम् ||
''अब मेरी परम और सबसे अधिक गुह्यतम बात को सुन । तू मुझे अत्यन्त प्रिय है, इसी कारण मैं तेरे सामने इस श्रेष्ठ मार्ग की बात प्रकट करूंगा ।'' इन दोनों श्लोकों का तात्पर्य श्रुति के अनुकूल है, जैसा कि कठोपनिषद में कहा गया है-
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो मेधया न बहुना श्रुतेन |
यमेवैष वृणुत तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ||
''यह परमात्मा न दार्शनिक को व्याख्या से प्राप्त होते हैं, न मेधाशक्ति से और न अत्यधिक शास्त्रज्ञान से. भगवान् स्वयं जिन्हें वरण करते हैं उन्हें ही वे प्राप्त होते हैं, उन्हींके सामने परमात्मा अपने शरीर को प्रकट करते हैं ।'' अतएव जो भगवान् के साथ सख्य आदि मधुर संबंध स्थापित करने में समर्थ हैं, वे ही हैं गीतोक्त ज्ञान के पात्र ।
इसके अंदर एक और अत्यंत आवश्यक बात निहित है | भगवान् ने अर्जुन को एक ही शरीर में भक्त और सखा के रूप में वरण किया था । भक्त नाना प्रकार के होते हैं । साधारणतया जब किसी को भक्त कहा जाता है तब हमारा मन गुरु-शिष्य संबंध की ओर ही जाता है । उस भक्ति के मूल में भी प्रेम तो होता ही है, पर प्रायः बाध्यता,
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सम्मान और अंधभक्ति ही उसका विशेष लक्षण होती है । परंतु सखा सखा का सम्मान नहीं करता, वह उसके साथ खेल-कूद आमोद-प्रमोद और स्नेह-संभाषण करता है; कीड़ा के लिये उसका उपहास और तिरस्कार भी करता है, उसे गाली देता है और उसके साथ शरारत भी करता है । सखा सर्वदा अपने सखा की आज्ञा से बंधा नहीं होता, वह उसकी ज्ञानगरिमा और अकपट हितैषिता से मुग्ध हो यधपि उसके आदेशानुसार चलता है, पर अंधभाव से नहीं, वह उसके साथ तर्क करता है; अपने समस्त संदेहों को उसके सामने रखता है, बीच-बीच में उसके मत का प्रतिवाद भी करता है । सख्य-संबंध की पहली शिक्षा है भयविसर्जन; दूसरी शिक्षा है सम्मान के बाह्य आडंबर का त्याग; प्रेम है उसकी सबसे पहली और अंतिम बात । जो इस जगत् को, संसार को माधुर्यमय, रहस्यमय, प्रेममय और आनंदमय लीला मान भगवान् को लीला सहचर के रूप में वरण कर उन्हें सख्त-संबंध में बांध सकते हैं, वे ही हैं गीतोक्त ज्ञान के पात्र । जो भगवान् की महिमा, प्रभुता, ज्ञानगरिमा और भीषणता को हृदयंगम करके भी उससे अभिभूत नहीं होते और उनके साथ निर्भय हो प्रफुल्ल-वदन खेलते रहते हैं, वे ही हैं गीतोक्त ज्ञान के पात्र ।
सख्य-संबंध में क्रीड़ा के बहाने और सब संबंध अंतर्भूत हो सकते हैं । गुरु-शिष्य संबंध सख्य-भाव में प्रतिष्ठित होने पर वह अत्यंत मधुर हो उठता है, ऐसे ही संबंध की स्थापना अर्जुन ने श्रीकृष्ण के साथ गीता के आरंभ में की थी । ''तुम मेरे परम हितैषी बंधु हो, तुम्हारे सिवा और किसकी शरण में जाऊं ? मैं हतबुद्धि हो रहा हूं, कर्तव्य के भय से अभिभूत हो रहा हुं, कर्तव्य के संबंध में संदिग्ध हो रहा हूं, तीव्र शोक से आतुर हो रहा हूं । तुम मेरी रक्षा करो, मुझे उपदेश दो, मैं अपने लौकिक और पारलौकिक मंगल का समस्त भार तुम पर छोड़ता हूं । इस भाव के साथ अर्जुन मानवजाति के सखा और सहायक के निकट ज्ञान प्राप्त करने के लिये आये थे । इसके अतिरिक्त मातृसंबंध और वात्सल्यभाव भी सख्यभाव में सन्निविष्ट होता है । वयोवृद्ध और ज्ञानश्रेष्ठ अपने से अल्पवयस्क तथा अल्पविज्ञ सखा को मातृवत् स्नेह करते, उसकी रक्षा करते, देख-भाल करते, उसे सदा अपनी गोद में रख विपत्ति और अशुभ से बचाते हैं । जो श्रीकृष्ण के साथ सख्यभाव स्थापित करते हैं, उनके सामने श्रीकृष्ण अपने मातृरूप को भी प्रकट करते हैं । सख्य-भाव में जैसे मा मात्रृप्रेम प्रेम की गभीरता आ सकती है, वैसे ही दाम्पत्य-प्रेम को तीव्रता और उत्कट आनंद भी । सखा सदा सखा के सान्निध्य की प्रार्थना करते हैं, उनके विरह से कातर होते और शरीर-स्पर्श से पुलकित होते हैं । उनके लिये प्राण तक दे देने में आनंदित होते हैं । दास्य-संबंध भी सख्त की क्रीड़ा के अंतर्भूत होने पर अत्यंत मधुर हो उठता है । कहा जाता है कि पुरुषोत्तम के साथ जो जितना मधुर संबंध स्थापित कर सकते हैं उनका सख्य-भाव उतना ही प्रस्फुटित होता है तथा उन्हें गीतोक्त ज्ञान की उतनी ही पात्रता प्राप्त होती है ।
कृष्णसखा अर्जुन हैं महाभारत के प्रधान कर्मी और गीता में कर्मयोग की शिक्षा है
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प्रधान शिक्षा । ज्ञान, भक्ति और कर्म ये तीनों मार्ग परस्पर-विरोधी नहीं, कर्ममार्ग में, ज्ञान-प्रवर्तित कर्म में भक्तिलब्ध शक्ति का प्रयोग कर, भागवत उद्देश्य में उनसे युक्त हो, उनका ही आदिष्ट कर्म करना है गीतोक्त शिक्षा । जो संसार के दुःख से डरते हैं, वैराग्य-पीड़ित हे, भगवान् की लीला से वितृष्ण हो गये हैं तथा इस लीला को छोड़ अनंत की गोद में छिप जाना चाहते हैं, उनका मार्ग है भिन्न । वीरश्रेष्ठ महाधनुर्धर अर्जुन की ऐसी कोई इच्छा या भाव नहीं था । श्रीकृष्ण ने किसी शांत संन्यासी अथवा दार्शनिक ज्ञानी के सामने इस उत्तम रहस्य को प्रकट नहीं किया, किसी अहिंसापरायण ब्राम्हण को इस शिक्षा के पात्र के रूप में वरण नहीं किया, बल्कि एक महापराक्रमी, तेजस्वी क्षत्रिय योद्धा को माना इस अतुलनीय ज्ञान को प्राप्त करने का उपयुक्त आधार; जो संसार-युद्ध में जय या पराजय से विचलित नहीं होते वे ही इस शिक्षा के गूढ़तम स्तर में प्रवेश करने में समर्थ होते हैं । नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः (यह आत्मा बलहीन पुरुषों को प्राप्त नहीं होती) । जो मुमुक्षुत्व की अपेक्षा भगवान् को पाने की आकांक्षा रखते हैं वे ही भागवत सान्निध्य का आस्वाद ग्रहण कर अपने-आपको नित्य-मुक्त जानते हैं और मुमुक्षुत्व को अज्ञान का अंतिम आश्रयस्थल जान उसे त्यागने में समर्थ हैं । जो तामसिक और राजसिक अहंकार त्याग सात्त्विक अहंकार से बद्ध रहना नहीं चाहते वे ही हो सकते हैं गुणातीत । अर्जुन ने क्षत्रियधर्म का पालन कर राजसिक वृत्ति को चरितार्थ किया था, और फिर सात्त्विक आदर्श ग्रहण कर रज:शक्ति को सत्त्वमुखी बनाया था । ऐसा पात्र ही है गीतोक्त शिक्षा का उत्तम आधार ।
अर्जुन समसामयिक महापुरुषों में श्रेष्ठ नहीं थे । आध्यात्मिक ज्ञान में श्रेष्ठ थे व्यासदेव, उस युग के सर्वविध सांसारिक ज्ञान में श्रेष्ठ थे भीष्म पितामह, ज्ञान-तृष्णा में राजा धृतराष्ट्र और विदुर, साधुता और सात्त्विक गुण में धर्मपुत्र युधिष्ठिर, भक्ति में उद्धव और अक्रूर, स्वभावगत शौर्य और पराक्रम में बड़े भाई महारथी कर्ण । फिर भी जगत्प्रभु ने अर्जुन को ही वरण किया था, उन्हीं के हाथों में अचला जयश्री एवं गांडीव आदि दिव्य अस्त्रों को अर्पण कर उनके द्वारा भारत के हजारों जगद्धिख्यात योद्धाओं का संहार कर युधिष्ठिर का असपत्न साम्राज्य अर्जुन के पराक्रमलब्ध दान के रूप में स्थापित किया था; और इसके अतिरिक्त उन्हें ही गीतोक्त परम ज्ञान का एकमात्र उपयुक्त पात्र निर्णीत किया था । अर्जुन ही हैं महाभारत के नायक और प्रधान कर्मी; इस काव्य का प्रत्येक अंश उन्हीं की यशकीर्ति को घोषणा करता है । यह पुरुषोत्तम या महाभारत-रचयिता व्यासदेव का अन्याय और पक्षपात नहीं । यह उत्कर्ष है पूर्ण श्रद्धा और आत्म-समर्पण का फल । जो पुरुषोत्तम पर पूर्ण श्रद्धा रख, उन्हीं पर निर्भर रह कोई दावा न कर, अपने शुभ और अशुभ, मंगल और अमंगल, पाप और पुण्य का समस्त भार उन्हें अर्पण करते हैं, अपने प्रिय कर्म में आसक्त न हो उनके आदेशानुसार कर्म करने के इच्छुक अपनी प्रिय वृत्ति को चरितार्थ न कर उनके द्धारा प्रेरित वृत्ति को ग्रहण करते हैं, स्वप्रशंसित गुण का साग्रह आलिंगन न कर उनके दिये गुण और प्रेरणा
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को उन्हीं के काम में प्रयुक्त करते हैं, वे श्रद्धावान् अहंकाररहित कर्मयोगी ही हैं पुरुषोत्तम के प्रियतम सखा और शक्ति के आधार, उनके द्धारा जगत् के विराट् कार्य निर्दोष रूप से संपन्न होते हैं । इस्लाम-धर्म के प्रणेता हजरत मुहम्मद इसी प्रकार के श्रेष्ठ योगी थे । अर्जुन भी इसी प्रकार आत्म-समर्पण करने के लिये बराबर सचेष्ट रहे । यही चेष्टा थी श्रीकृष्ण की प्रसन्नता और प्रेम का कारण । जो पूर्ण आत्म-समर्पण करने की दृढ़ चेष्टा करते है वे ही हैं गीतोक्त शिक्षा के उत्तम अधिकारी । श्रीकृष्ण उनके गुरु और सखा बन उनका इहलोक और परलोक का सारा भार ग्रहण करते हैं ।
अवस्था
मनुष्य के प्रत्येक कार्य और उक्ति का उद्देश्य और कारण पूर्णतया समझने के लिये यह जानना आवश्यक है कि किस अवस्था में वह कार्य किया गया था या वह उक्ति व्यक्त हुई थी । कुरुक्षेत्र के महायुद्ध के आरम्भ में जिस समय शस्त्रप्रयोग आरंभ हुआ था- प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते-उसी समय भगवान् ने गीता सुनायी थी । इस बात से बहुत-से लोग विस्मित और क्रोधित होते हैं; वे कहते हैं कि यह निश्चय ही या तो कवि की असावधानी है या बुद्धि का दोष । परंतु वास्तव में उसी समय, उसी स्थान पर, उसी प्रकार के भावापन्न पात्र को देश-काल-पात्र का विचार कर श्रीकृष्ण ने गीतोक्त ज्ञान प्रदान किया था ।
समय था युद्ध का आरंभ । जिन्होंने प्रबल कर्मस्रोत में अपने वीरत्व और शक्ति का विकास नहीं किया, उसकी परीक्षा नहीं की, वे अभी गीतोक्त ज्ञान के अधिकारी नहीं हो सकते । परंतु जो कोई कठिन महाव्रत आरम्भ करते हैं, ऐसा महाव्रत जिसमें अनेक प्रकार के बाधा-विध्न आते हैं, अनेक शत्रुओं की वृद्धि होती है, बहुत बार पराजय की आशंका स्वभावत: ही होती है, उस महाव्रत का पालन करने से जब दिव्य शक्ति उत्पन्न होती है तब उस व्रत के अंतिम उधापन के लिये, भगवान् की कार्य-सिद्धि के लिये यह ज्ञान प्रकाशित होता है । गीता कहती है कि कर्मयोग द्धारा भगवान् की प्राप्ति होती है, श्रद्धा और भक्तिपूर्ण कर्म से ज्ञान उत्पन्न होता है, अतएव गीतोक्त मार्ग का पथिक पथ छोड़कर किसी दूरस्थ शांतिमय आश्रम में, पर्वत या निर्जन स्थान में भगवान् का साक्षात्कार प्राप्त नहीं करता, बल्कि बीच रास्ते में ही, कर्म के कोलाहल में ही हठात् वह स्वर्गीय दीप्ति उसके सामने जगत् को आलोकित कर देती है, वह मधुर तेजोमयी वाणी उसके कर्णकुहर में प्रवेश कर जाती है ।
स्थान था युद्धक्षेत्र, दो सेनाओं का मध्य स्थल, जहां शस्त्रपात हो रहा था । जो इस पथ के पथिक होते हैं, ऐसे कर्म में अग्रणी होते हैं, वे प्रायः ही कोई महत्तर फल उत्पन्न होने के समय, उस समय जब कि कर्मी के भाग्य को गति उसके कर्मानुसार इस ओर
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या उस ओर परिचालित होनेवाली होती है, अकस्मात् योगसिद्धि और परम ज्ञान प्राप्त करते हैं । उनका ज्ञान कर्मरोधक नहीं बल्कि कर्म के साथ घुल-मिल जाता है । यह बात भी सत्य है कि ध्यान से, निर्जन स्थान में, स्वस्थ आत्मा के अंदर ज्ञान प्रकाशित होता है, इसी कारण मनीषिगण निर्जन स्थान में रहना पसंद करते हैं । परंतु गीतोक्त योग के पथिक मन, प्राण और देहरूपी आधार को इस प्रकार विभक्त कर सकते हैं कि वे जनता के अंदर निर्जनता, कोलाहल के अंदर शांति, घोर कर्मप्रवृत्ति के अंदर परम निवृत्ति का अनुभव कर सकें । वे अंतर को बाह्य द्वारा नियंत्रित नहीं करते, बल्कि बाह्य को अंतर द्वारा नियंत्रित करते हैं । साधारण योगी संसार से डरते हैं और संसार से भागकर योगाश्रम में शरण लेकर योग में प्रवृत्त होते हैं । परंतु कर्मयोगी का योगाश्रम है संसार । साधारण योगी बाहरी शांति और नीरवता की अभिलाषा करते हैं, शांति भंग होने से उनका तपोभंग होता है । कर्मयोगी अंतर की विशाल शांति और नीरवता में लीन रहते हैं, बाहरी कोलाहल में उनकी यह अवस्था और भी गभीर होती है, बाह्य तपोभंग होने से उनका वह स्थिर आंतरिक तप भग्न नहीं होता, अविचलित रहता है । लोग कहते हैं कि युद्ध के लिये तैयार दो सेनाओं के बीच श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद किस प्रकार संभव है ? उत्तर है, योग-प्रभाव से संभव होता है । उस योगबल द्वारा युद्ध के कोलाहल में एक स्थान पर श्रीकृष्ण और अर्जुन के अंदर और बाहर शांति विराजमान थी, युद्ध का कोलाहल उन दोनों व्यक्तियों को स्पर्श नहीं कर सका था । इस बात में कर्मोपयोगी एक और आध्यात्मिक शिक्षा निहित है । जो गीतोक्त योग का अनुशीलन करते हैं वे हैं श्रेष्ठ कर्मी एवं कर्म में अनासक्त । वे कर्म के अंदर ही आत्मा के आंतरिक आवाहन को सुनकर कर्म से विरत हो योगमग्न और तपस्यारत होते हैं । वे जानते हैं कि कर्म भगवान् का है, फल भगवान् का है, हम यंत्र हैं, इसलिये वे कर्मफल के लिये उत्कंठित नहीं होते । वे यह भी जानते हैं कि कर्मयोग की सुविधा के लिये, कर्म की उन्नति के लिये, ज्ञान और शक्ति बढ़ाने के लिये यह आवाहन होता है । इसलिये कर्म से विरत होने में उन्हें भय नहीं होता, वे जानते हैं कि तपस्या में समय लगाने से वह कभी व्यर्थ नहीं जा सकता ।
पात्र का भाव है कर्मयोगी के अंतिम सदेह का उद्रेक । विश्व की समस्या, सुख-दुःख की समस्या, पाप-पुण्य की समस्या से विमूढ़ हो बहुत-से लोग पलायन को ही श्रेयस्कर समझ निवृत्ति, वैराग्य और कर्म-त्याग की प्रशंसा का डंका बजाते हैं । बुद्धदेव ने जगत् को अनित्य और दुःखमय बता निर्वाण-प्राप्ति का मार्ग दिखाया था । ईसा मसीह, टालस्टाय आदि मानवजाति के लिये संतति पैदा करनेवाली विवाह-पद्धति और जगत् के चिरन्तन नियम-युद्ध-के घोर विरोधी हैं । संन्यासी कहते हैं, कर्म है ही अज्ञान-सृष्ट, अज्ञान त्यागो, कर्म त्यागो, शांत और निष्क्रिय बनो । अद्वैतवादी कहते हैं, जगत् मिथ्या है, जगत् मिथ्या है, ब्रम्ह में विलीन होओ । तो फिर यह जगत् क्यों ? यह संसार क्यों ? भगवान् यदि हैं तो फिर क्यों उन्होंने एक नादान बच्चे की तरह
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यह व्यर्थ पशुश्रम किया, यह नींरस उपहास आरंभ किया ? यदि केवल आत्मा ही हो और जगत् माया ही हो तो फिर इस आत्मा ने इस जघन्य स्वप्न को अपने निर्मल अस्तित्त्व पर क्यों थोपा ? नास्तिक कहते हैं, भगवान् भी नहीं, आत्मा भी नहीं, है केवल एक अंधशक्ति की अंध क्रिया । यह भला कैसी बात ? शक्ति किसकी ? कहां से उत्पन्न हुई ? अंध और उन्मत्त ही भला क्यों ? इन सब प्रश्नों की संतोषजनक मीमांसा कोई भी न कर सका, न ईसाई, न बौद्ध न अद्वैतवादी, न नास्तिक, न वैज्ञानिक सभी हैं इस विषय में निरुत्तर और समस्या की उपेक्षा कर टालने भें सचेष्ट । केवल उपनिषद् और तदनुयायी गीता इस प्रकार टाल-मटोल करना नहीं चाहतीं । इसीलिये कुरुक्षेत्र के युद्ध में गीता गायी गयी । घोर सांसारिक कर्म गुरु-हत्या, भ्रातृ-हत्या, आत्मीय-हत्या है उसका उद्देश्य । इस अगणित प्राणिसंहारक युद्ध के प्रारंभ होने पर अर्जुन हतबुद्धि हो गांडीव धनुष हाथ से छोड़ देते हैं और कातर स्वर में कहते हैं-
तत्किं कर्माणि घोरे मां नियोजयसि केशव ||
''हे केशव ! क्यों मुझे इस घोर कर्म में नियुक्त करते हो ?'' उत्तर में उस युद्ध के कोलाहल के बीच भगवान् के मुंह से वज्र-गंभीर स्वर में यह महागीत निःसृत होता है :
कुरु कर्मैव तस्मातत्वं पूवैं: पूर्वतरं कृतम् |
*
योगस्थ कुरु कर्माणि सङं त्यक्त्वा धनञ्जय |
बुद्धियुक्तो जहातीत उभे सुकृतदुष्कृते |
तस्माधोग्य युज्स्व योग: कर्मसु कौशलम् ||
असक्तो हयाचरान् कर्म परमाप्नोति पुरुष: |
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मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा !
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वर: ||
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतस: |
यज्ञायाचरत: कर्म समग्रं प्रविलीयते ||
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तव: |
भोक्तारं यज्ञतपासां सर्वलोकमहेश्वरं |
सुहृदं सर्वभूतनां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ||
मया हतांस्तवं जहि मा व्यथिष्ठा
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते |
हत्वापि स इमौल्लोकान् न हन्ति न निबध्यते ||
"इसलिये तुम कर्म ही करते रहो, तुम्हारे पूर्वपुरुष पहले से जो कर्म करते आये हैं, तुम्हें भी वही कर्म करना होगा | ... योगस्थ हो आसक्ति त्याग कर्म करो |...जिनकी बुद्धि योगस्थ होती है वे इस कर्मक्षेत्र में ही पाप-पुण्य का अतिक्रमण करते हैं, अतएव योग के लिये साधना करो, योग है ही कर्म का श्रेष्ठ सम्पादन | ... मनुष्य यदि अनासक्त हो कर्म करें तो निश्चय ही वे परम भगवान् को प्राप्त करेंगे |... ज्ञानपूर्ण हृदय से अपने समस्त कर्म मुझे सौंप दो, कामना त्याग, अहंकार त्याग, दुःख-रहित हो युद्ध करो | ... जो मुक्त हैं, आसक्तिरहित हैं, जिनका चित्त सदा ज्ञान में
२४९
निवास करता है, जो यज्ञार्थ कर्म करते हैं उनके समस्त कर्म बंधन का कारण न बन, उसी क्षण पूर्ण रूप से मुझमें विलीन हो जाते हैं ।... समस्त प्राणियों का अंतर्निहित ज्ञान अज्ञान से आवृत्त है इसलिये वे सुख-दुःख, पाप-पुण्य आदि द्धंद्धों की सृष्टि कर मोह में जा गिरते हे । मुझे समस्त लोकों का महेश्वर, यज्ञ, तपस्या आदि सब प्रकार के कर्मों का भोक्ता तथा प्राणि-मात्र का सखा और बन्धु मानने से परम शांति प्राप्त होती है ।... मैं तुम्हारे शत्रुओं का वध कर चुका हूं, तुम यंत्र बन उनका संहार करो, दुःखी मत होओ, युद्ध में लग जाओ, विपक्षियों को रण में जीतोगे ।... जिनका अंतःकरण अहं-ज्ञान-शून्य है, जिनकी बुद्धि निर्लिप्त है, वे यदि समस्त जगत् का संहार करें तो भी वे हत्या नहीं करते, उन्हें किसी प्रकार का पाप-बंधन नहीं लगता । ''
प्रश्न टालने का, प्रश्न से मुंह मोड़ने का कोई लक्षण नहीं । प्रश्न को स्पष्ट रूप में सामने रखा गया है । भगवान् क्या हैं, जगत् क्या है, संसार क्या है, धर्म-पथ क्या है, गीता में इन सभी प्रश्नों का उत्तर संक्षेप में दिया गया है । फिर भी संन्यास की शिक्षा नहीं, कर्म की शिक्षा ही है गीता का उद्देश्य । इसी में है गीता की सार्वजनीन उपयोगिता ।
२५०
प्रथम अध्याय
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव: |
मामका: पाण्डवास्चैव किमकुर्वत सञ्जय ||१||
धृतराष्ट्र ने कहा-
हे संजय, धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में युद्ध के लिये समवेत हो मेरे पक्ष और पाण्डव-पक्ष ने क्या किया ?
सञ्जय उवाच
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा
आचार्यमुपसङम्य राजा वचनमब्रवीद ||२||
संजय ने कहा-
उस समय राजा दुर्योधन व्यूहबद्ध पांडव-अनीकिनी को देख आचार्य (द्रोणाचार्य) के समीप उपस्थित हो यह बोले ।
पश्यैतां पाण्डव पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् |
व्युढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ||३||
देखिये आचार्य ! अपने मेधावी शिष्य द्रुपदतनय धृष्टधुम्न द्वारा रचित व्यूह इस महती पांडवसेना को देखिये ।
अत्र शूरा महेष्वासा मीमार्जुनसमा युघि |
युयुधानो विराटशच्य द्रुपदश्र्च महारथ: ||४||
धृष्टकेतुश्र्चेकितानः काशिराराजश्र्च वीर्यवान्
परुजित् कुन्तिभोजस्चत्र शैब्यसच नरपुङ्गव: ||५||
युधामन्युसच विक्रान्त उत्तमौजासच वीर्यवान् |
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथा: ||६||
इस विराद सेना में भीम और अर्जुन के समान महाधनुर्धर वीर पुरुष हैं,-युयुधान, विराट् और महारथी द्रुपद,
धृष्टकेतु, चेकितान और महाप्रतापी काशिराज, पुरुजित् कुंतिभोज और नरपुंगव शैव्य,
विकमशाली युधामन्यु और प्रतापवान् उत्तमौजा, सुभद्रातनय अभिमन्यु और द्रौपदी के पुत्रगण, सभी महायोद्धा हैं ।
२५१
अस्साकं तु विशिष्टा ते तान्निवोध द्धिइजोत्तम |
नायक मम सैन्यस्य संज्ञार्थ ताब्ब्रवीमि तो ||७||
हम में जो असाधारण-शक्तिसम्पन्न हैं, जो मेरी सेना के नायक हैं उनके नाम आपके स्मरणार्थ, कहता हूं, ध्यान दीजिये ।
भवान भीष्मश्र्च कर्मक्ष्च कृपक्ष्च कृपक्ष्च समितिज्जय: |
अश्वस्थामा विकर्णश्रच सौमदत्तिर्जयद्रथ : ||८||
अन्ये च बहव: शूरा मदर्थे त्यक्तजीविता: |
नानाशस्त्रप्रहरणा: सर्वे युद्धविशारदा: ||९||
आप, भीम, कर्ण और समरविजयी कृप, अश्वत्थामा, विकर्ण, सोमदत्त-तनय भूरिश्रवा और जयद्रथ,
और भी अनेक वीर पुरुषों ने मेरे लिये प्राण की ममता छोड़ दी है, ये सभी युद्धविशारद और नानाविध अत्रशस्रों से सुसज्जित हैं ।
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभीरक्षितम् |
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ||१०||
हमारा यह सैन्यबल एक तो अपरिमित है, उस पर भीष्म हैं हमारे रक्षक, उनका सैन्यबल परिमित है, भीम ही है उनकी रक्षा के आशास्थल ।
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिता: ।
मीष्यमेवाभिरक्षन्तु भवन्त: सर्व एव हि ||११||
अतएव आप सभी युद्ध के सब प्रवेशस्थलों पर अपने-अपने निर्दिष्ट सैन्यभाग में रह भीष्म की ही रक्षा करें ।
तस्य सज्जनयन् हर्ष कुरुवृद्ध: पितामह: |
सिहंनादं विनधोच्खै: शङ्ख प्रतापवान् ||१२||
दुयोंघन के प्राणों में हर्षोद्रेक कर कुरुवृद्ध महाप्रतापी पितामह भीष्म ने उच्च सिंहनाद से रणस्थल को ध्वनित कर शंखनिनाद किया ।
ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखा: |
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ||१३||
तब शंख, भेरी, पणव, आनक और गोमुख आदि युद्ध के बाजे अकस्मात् बजने लगे, तुमुल शब्द से रणक्षेत्र गूंज उठा ।
२५२
तत: श्वेतैर्हयैयुक्ते महाति स्यन्दने स्थितौ |
माधव: पाणड़वश्चेव दिव्यौ शङ्खो प्रदध्म्तु: ||१४||
तदुपरान्त श्वेत अश्वों से युक्त विशाल रथ में खड़े माधव और पांडुपुत्र अर्जुन ने अपना-अपना दिव्य शंख बजाया ।
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्यय: |
पौण्ड़ं दध्यौ महाशङ्ख भीमकर्मा वृकोदर: ||१५||
हृषीकेश ने पांचजन्य, धनंजय ने देवदत्त, भीमकर्मा वृकोदर ने पौंड़ नामक महाशंख बजाया ।
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर:
नकुल: सहदेवश्च सुधोषमणिपुष्पकौ ||१६||
कुंतीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनंतविजय शंख तथा नकुल और सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक शंख बजाये ।
काश्यश्र्च परमेष्वास: शिखण्डी च महारथः |
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजित: ||१७||
द्रुपदो द्रौपदेयाश्व सर्वश: पृथिवीपते |
सौभद्रश्च महाबाहु: शङ्खाध्मु: पृथक् पृथक् ||१८||
परम धनुर्धर काशीराज, महारथी शिखंडी, धृष्टद्युम्न, अपराजित योद्धा सात्यकि, दुपद दौपदी के पुत्रगण, महाबाहु सुभद्रातनय, सबने चारों ओर से अपना-अपना शंख बजाया ।
स घोषो धार्त्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् |
नभश्च पृथिवीञ्चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ||१९||
उस शब्द ने आकाश और पृथ्वो को तुमुल रव से प्रतिध्वनित कर धार्तराष्ट्रो का हृदय विदीर्ण किया ।
अथ व्यवस्थितान् दृष्ट्वा धार्त्तराष्ट्रान् कपिध्वज: |
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुधम्य पाण्डव: ||२०||
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महिपते |
तब शस्त्रनिक्षेप आरम्भ होने के बाद पांडुपुत्र अर्जुन ने धनुष उठा हृषीकेश से यह कहा ।
२५३
अर्जुन उवाच
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ||२१||
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान, |
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ||२२||
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागता; |
धार्त्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षव: ||२३||
अर्जुन ने कहा-
हे निष्पाप । दोनों सेनाओं के बीच मेरा रथ.खड़ा करो । तबतक मैं युद्ध के इच्छक इन अवस्थित विपक्षियों का निरीक्षण कर लूं । जानना चाहता हूं कि किनके साथ इस रणोत्सव में युद्ध करना होगा ।
देखूं ये युद्धप्रार्थी कौन हैं जो दुर्बुद्धि धृतराष्ट्रतनय दुर्योधन का प्रिय कार्य करने की इच्छा से युद्धक्षेत्र में उतर आये हैं ।
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत |
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ||२४||
भीष्मद्रोणप्रमुखत: सर्वेषां च महीक्षिताम् |
उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कृरूनिति ||२५||
गुडाकेश की यह बात सुन हृषीकेश दोनों सेनाओं के बीच उस उत्तम रथ को खड़ा कर भीष्म द्रोण और समस्त राजाओं के सामने उपस्थित हो बोले, ''हे पार्थ! समवेत कौरवों को देखो ।''
तत्रापश्यन स्थितान् पार्थ: पितृनथ पितामहान् |
आचार्यान्मालान्भ्रान्तृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ||
श्वशुरान् सुहृदचैव सेनयोरुभयोरपि ||२६||
उस रणस्थल में पार्थ ने देखा कि पिता, पितामह, आचार्य, मामा, भाई, पुत्र, पौत्र, सखा, श्वसुर, सुहृद जितने भी आत्मीय और स्वजन हैं, वे सब दोनों परस्पर-विरोधी सेनाओं में खड़े हैं ।
तान् समीक्ष्य स कौन्तेय: सर्वान् बन्धुनवस्थितान् |
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ||२७||
उन सब बंधु-बांधवों को इस प्रकार अवस्थित देख कुंतीपुत्र तीव्र कृपा से अभिभूत हो विषादग्रस्त हृदय से यह बोले-
२५४
अर्जुनउवाच
दृष्ट्वेमान् स्वजनान् कृष्ण युयुत्सुन् समवस्थितान् |
सीदन्ति नम गात्राणि मुखञ्च यरिशुष्यति ||२८||
वेपथुश्च शरीरे रोमहर्षस्च जायतो |
गाण्डीवं स्त्रंसते हस्तात्त्वक् चैव परिदह्यते ||२९||
हे कृष्ण ! इन सब स्वजनों को युद्धार्थ अवस्थित देख मेरे शरीर के सभी अंग अवसन्न हो रहे हैं, मुंह सूखा जा रहा है,
समस्त शरीर में कंप और रोमांच हो रहा है, गांडीव अवश हाथ से गिरा जा रहा है, त्वचा मानों आग में जली जा रही है ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मन: |
निमित्तानि व पश्यामि विपरीतानि केशवा ||३०||
मैं खड़ा होने में भी असमर्थ हो रहा हूं, मन मानों चक्कर खा रहा है; हे केशव ! मैं सभी अशुभ लक्षण देख रहा हूं ।
न च श्रेयोऽनुयश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।
न कङ्क्षे विजयं कृष्णन व राज्यं सुखानि च ||३१||
युद्ध में स्वजनों को मारने में कोई कल्याण नहीं देखता; हे कृष्ण ! मैं जय नहीं चाहता, राज्य भी नहीं चाहता, सुख भी नहीं चाहता ।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा |
येषामर्थे कड़क्षतं नो राज्यं भोगा सुखानि च ||३२||
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च |
आचार्या: पितर: युत्रास्तथैव च पितामहाः ||३३||
बोलो, गोविन्द राज्य से हमें क्या लाभ ? भोग से क्या लाभ ? जीवन का क्या प्रयोजन ? जिनके लिये राज्य, भोग और जीवन वांछनीय हैं,
वे ही जीवन और धन को त्याग इस रणक्षेत्र में उपस्थित हैं,-आचार्य, पिता, पुत्र, पितामह,
मातुला: श्वशुराः: पौत्र: श्याला: सम्बन्धिनस्तथा |
एतान्न हन्तुमिच्छामि ध्नतोऽपि मधुसूदन ||३४||
अपि त्रैलोक्यतज्यस्य हेतो: किं नु महीकृते |
निहत्य धार्त्तराष्ट्रन्न: का प्रीति: स्याज्जनार्दन |३५||
२५५
ममा, ससुर, पोते, साले तथा और भी संबंधी । है मधुसुदन, ये यदि मेरा वध भी करें तो भी मैं इन्हें मारना नहीं चाहता;
त्रिलोक के राज्य के लोभ से भी नहीं, पृथ्वी के आधिपत्य की तो बात ही क्या ? धार्तराष्ट्रों का संहार कर हे जनार्दन, हमारे मन को क्या सुख मिल सकता है ?
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिन: |
तस्मात्रार्हा वयं हन्तुं धार्त्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान् ।|
स्वजनं हि कथं हत्या सुखिन: स्याम माधव ||३६||
ये आततायी हैं, तथापि इनका वध करने से हमारे मन में पाप को ही आश्रय मिलेगा । अतएव धार्तराष्ट्रगण जब हमारे आत्मीय हैं तो हमें इनका संहार करने का अधिकार नहीं । हे माधव ! स्वजनों के वध से हम कैसे सुखी होंगे ?
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतस: |
कृलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ||३७||
कथं न ज्ञेयमस्माभि: पापादस्मान्निवर्तिम् |
कुखक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ||३८||
यद्यपि लोभवश बुद्धिभ्रष्ट हो ये कुलनाश के दोष और मित्र का अनिष्ट करने के महापाप को नहीं समझ पा रहे,
तथापि, हे जनार्दन ! हम कुलक्षयजनित दोष को समझते हैं, हमें बोध क्यों न हो ? इस पाप से क्यों न हम निवृत्त हों ?
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कृलघर्मा: सनातना: |
धर्मे नष्टै कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ||३९||
कुलक्षय से सारे सनातन कुलधर्म विनाश को प्राप्त होते हैं, धर्मनाश से अधर्म सारे कुल को अभिभूत करता है ।
अधर्माभिभवात् कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्रिय: |
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकर: ||४०||
अधर्म के अभिभव से, हे कृष्ण, कुल की स्त्रियां दुश्वरित्रा हो जाती हैं । कुल की स्त्रियों के दुश्चरित्रा होने से वर्णसंकर होता है ।
सङ्करो नरकायैव कुलध्नानां कुलस्य च |
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रिया: ।|४१||
वर्णसंकर कुल और कुलनाशक लोगों को नरक में ले जाने का हेतु बनता है;
२५६
क्योंकि उनके पितृगण पिण्डोदक से वंचित हो पितृलोक से पतित होते हैं ।
दोषैरेतै: कुलध्नानां वर्णसङ्करकारकै: |
उत्साधन्ते जातिधर्मा: कुलधर्माश्च शाश्वता: ||४२||
कुलनाशकों के इन वर्णसंकरोत्पादक दोषों के कारण सनातन जातिधर्म और कुलधर्म नष्ट होते हैं ।
उत्सन्नलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन |
नरके नियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ||४३||
जिनके कुलधर्म नष्ट हो गये हैं, उन मनुष्यों के लिये नरकवास निर्दिष्ट होता है, प्राचीन काल से यही सुनता आ रहा हूं |
अहो बत मह्त्यापं कर्तु व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुधता: ||४४||
अहो ! हमने बहुत बड़ा पाप करने का निश्चय किया था जो राज्य-सुख के लोभ से स्वजनों का वध करने को उद्यत हो रहे थे ।
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणय : |
धार्त्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ||४५||
यदि मुझ निहत्थे और प्रतिकार न करनेवाले को सशस्त्र धार्त्तराष्ट्रगण रण में मार डालें तो उससे मेरा अधिक मंगल होगा ।
संजय उवाच
एवमुक्त्वार्जुन: संख्ये रथोपस्थ उपाविशत् |
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ||४६||
ऐसा कह अर्जुन शोक से उद्विग्नचित्त हो युद्ध के समय धनुष-बाण छोड़ रथ में बैठ गये ।
२५७
संजय को दिव्य-चक्षु-प्राप्ति
गीता महाभारत के महायुद्ध के आरंभ में कही गयी थी । इसीलिये गीता के पहले ही श्लोक में राजा घृतराष्ट्र दिव्य-चक्षु प्राप्त संजय से युद्ध के बारे में पूछ रहे हैं, दोनों ओर की सेनाएं युद्धक्षेत्र में उपस्थित हैं, वृद्ध राजा यह जानने के लिये उत्सुक हैं कि उनकी पहली चेष्टा क्या है । संजय की दिव्य-चक्षु प्राप्ति की बात आधुनिक भारत के अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों की दृटि में कवि-कल्पना के सिवा और कुछ भी नहीं । यदि कहते कि अमुक व्यक्ति दूरद्रष्टि (clairvoyancep) और दूरश्रवण (clairaudience) से किसी दूरस्थ रणक्षेत्र का रोमांचकारी दृश्य तथा महारथियों का सिंहनाद इंद्रियगोचर कर सका था तो संभवत: यह बात उतनी अविश्वसनीय न भी होती । और यदि कहें कि व्यासदेव ने यह शक्ति संजय को दी थी तो इसे कपोल-कल्पना कह उड़ा देने की प्रवृत्ति होती है । यदि कहते कि एक विख्यात यूरोपीय विज्ञानविद् ने अमुक व्यक्ति को सम्मोहित (hypnotised) कर उसके मुंह से उस दूर घटना का हाल जान लिया था तो जिन्होंने पाश्चात्य सम्मोहन (Hypnotism) को बात ध्यानपूर्वक पढ़ी है वे संभवत: विश्वास कर लेते । किंतु सम्मोहन योगशक्ति का एक निकृष्ट और त्याज्य अंग-मात्र है । मनुष्य में ऐसी अनेक शक्तियां निहित हैं जिन्हें पुराकालीन सभ्य जातियां जानती थीं और उन्हें विकसित करती थीं; पर कलि-संभूत अज्ञान-स्रोत में वे सब विधाएं बह गयी हैं, केवल अंशतः थोड़े-से लोगों में गुप्त और गोपनीय ज्ञान के रूप में रक्षित होती आ रही हैं । स्थूल इंद्रियों के परे सूक्ष्म द्रष्टि नामक एक सूक्ष्मेंद्रिय है जिसके द्वारा हम स्थूल इंद्रियों की पहुंच के परे की वस्तुओं और ज्ञान को आयत्त कर सकते हैं, सूक्ष्म वस्तु का दर्शन, सूक्ष्म शब्द का श्रवण, सूक्ष्म गंध का आघाण, सूक्ष्म पदार्थ का स्पर्श और सूक्ष्म आहार का आस्वादन कर सकते हैं । सूक्ष्म दृष्टि के चरम परिणाम को ही दिव्य-चक्षु कहते हैं, उसके प्रभाव से दूरस्थ, गुप्त या अन्य लोकों की सब बातें हमें ज्ञानगोचर होती हैं । परम योगशक्ति के आधार महामुनि व्यास यह दिव्य-चक्षु संजय को देने में समर्थ थे,-इस बात में अविश्वास करने का हम कोई भी कारण नहीं पाते । जब हमें पाश्चात्य सम्मोहनकारी (hypnotist) की अदभुत शक्ति में अविश्वास नहीं होता तब भला अनुपम ज्ञानी व्यासदेव की शक्ति में ही अविश्वास क्यों ? शक्तिमान् की शक्ति दूसरे के शरीर में संचारित हो सकती है, इसके असंख्य प्रमाण इतिहास के पन्ने-पन्ने पर और मनुष्य जीवन के प्रत्येक कार्य में मिलते हैं । नेपोलियन, इतो इत्यादि कमवीरों ने उपयुक्त पात्रों में शक्ति-संचार कर अपने कार्य के लिये सहकर्मी तैयार किये थे । अति सामान्य योगी भी कोई सिद्ध प्राप्त कर कुछ क्षण के लिये या किसी कार्य-विशेष में प्रयोग करने के लिये दूसरों को अपनी सिद्धि दे सकते हैं, व्यासदेव तो जगत् के श्रेष्ठ मनीषी और असामान्य योगसिद्ध पुरुष थे । वास्तव में दिव्य-चक्षु का होना कपोल-कल्पना नहीं, बल्कि है एक वैज्ञानिक
२५८
सत्य । हम जानते हैं, आंखें नहीं देखतीं, कान नहीं सुनते, नाक नहीं सूंघती, त्वचा स्पर्श नहीं करती, रसना स्वाद नहीं लेती; मन ही देखता है, मन ही सुनता है, मन ही सूंघता, मन ही स्पर्श करता और मन ही स्वाद लेता है । दर्शनशास्र और मनोविज्ञान में यह सत्य चिरकाल से स्वीकृत होता आ रहा है, सम्मोहन में वैज्ञानिक प्रयोग द्धारा यह परीक्षित हो प्रमाणित हुआ है कि आंखें बंद रहने पर भी दर्शनेद्रिय का कार्य किसी नाड़ी द्धारा संपादित किया जा सकता है । उससे यही सिद्ध होता है कि चक्षु इत्यादि स्थूल इंद्रियां ज्ञान प्राप्ति के केवल सुविधाजनक साधन हैं, स्थूल शरीर के सनातन अभ्यासवश हम उनके दास हो गये हैं । किंतु वास्तव में चाहे किसी भी शारीरिक प्रणाली द्धारा वह ज्ञान मन तक पहुंचाया जा सकता है-जैसे एक अंधा स्पर्श द्धारा पदार्थो की आकृति और स्वभाव की ठीक-ठीक धारणा करता है । किंतु अंधे की दृष्टि और सम्मोहित व्यक्ति की दृष्टि में यह भेद दिखायी देता है कि सम्मोहित व्यक्ति पदाथों की प्रतिमूर्ति मन के अंदर देखता है । इसे ही कहते हैं दर्शन । वास्तव में हम सामने रखी पुस्तक नहीं देखते, उस पुस्तक की जो प्रतिमूर्ति हमारी आंखों में चित्रित होती है उसे ही देखकर मन कहता है कि मैंने पुस्तक देखी । किंतु सम्मोहित व्यक्ति के दूर स्थित पदार्थ या घटना को देखने और सुनने से यह भी सिद्ध होता है कि पदार्थ का ज्ञान प्राप्त करने के लिये किसी शारीरिक प्रणाली की आवश्यकता नहीं-सूक्ष्म- दृष्टिद्धारा दर्शन कर सकते हैं । लंदन के एक मकान में बैठे हुए उस समय एडिनबरा में घट रही घटना को मन से देख लेते हैं, ऐसे दृष्टान्तो की संख्या आजकल दिन-दिन बढ़ रही है । इसी को कहते हैं सूक्ष्म-दृष्टि । सूक्ष्म-दृष्टि और दिव्य-दृष्टि में यही भेद है कि सूक्ष्म-दृष्टि से अदृष्ट पदार्थ की प्रतिमूर्ति मन के अंदर देखते हैं और दिव्य-दृष्टि से हम उस दृश्य को मन के अंदर न देख शारीरिक स्थूल आंखों के सामने देखते हैं, चिन्तन-स्रोत में उस शब्द को न सुन शारीरिक कानों से सुनते हैं । इसका एक सामान्य दृष्टांत है स्फटिक के अंदर या स्याही के अंदर समसामयिक घटना को देखना । किंतु दिव्य-चक्षु प्राप्त योगी को इस प्रकार के किसी उपकरण की कोई आवश्यकता नहीं, वे इस शक्ति का विकास कर बिना किसी उपकरण के, देश-काल का बंधन तोड़, अन्य देशों और अन्य समयों की घटना जान सकते हैं । देश के बंधन तोड़ने के हम यथेष्ट प्रमाण पा चुके हैं, परंतु इस बात के बहु संख्यक और संतोषजनक प्रमाण अभी जगत् के सामने उपस्थित नहीं किये गये कि काल का बंधन भी तोड़ा जा सकता है, मनुष्य त्रिकालदर्शी हो सकता है । फिर भी यदि देशबंधन को तोड़ना संभव हो तो कालबंधन धन को तोड़ना असंभव नहीं कहा जा सकता । जो हो, इस व्यासप्रदत्त दिव्य-चक्षु से संजय ने हस्तिनापुर में बैठे-बैठे ही मानो कुरुक्षेत्र में खड़े हो, वहां समवेत धार्तराष्ट्रों और पाण्डवों को अपनी आंखों देखा, दुर्योधन की उक्ति, भीष्म पितामह का भीषण सिंहनाद पांचजन्य का कुरुध्वंसघोषक महाशब्द और गीतार्थधोतक कृष्णार्जुन-संवाद अपने कानों सुना ।
२५९
हमारे मत में महाभारत रूपक नहीं, कृष्ण और अर्जुन की कवि-कल्पना नहीं, गीता भी आधुनिक तार्किक या दार्शनिक लोगों का सिद्धांत नहीं । अतएव हमें यह सिद्ध करना होगा कि गीता को कोई भी बात असंभव या युक्ति-विरुद्ध नहीं । इसीलिये दिव्य-चक्षु-प्राप्ति की इतनी विस्तृत आलोचना की है ।
दुर्योधन की वाक्-चातुरी
संजय ने उस युद्ध के प्रथम प्रयास का वर्णन करना आरंभ किया । दुर्योधन पांडव सेना की व्यूहरचना देख द्रोणाचार्य के निकट उपस्थित हुए । द्रोण के निकट क्यों गये इसकी व्याख्या आवश्यक है । भीष्म थे सेनापति, उचित था युद्ध की बात उनसे ही कही जाती किंतु कूटबुद्धि दुर्योधन के मन में भीष्म पर विश्वास नहीं था । भीष्म पांडवों के प्रति अनुरक्त थे, हस्तिानुपुर के शांति-अनुमोदक दल (peace-party) के नेता थे; यदि पांडवों और धार्तराष्ट्रों में ही युद्ध होता तो भीष्म कभी अस्त्र धारण न करते; किंतु कुरुगण के प्राचीन शत्रु और समकक्ष साम्राज्याभिलाषी पांचालों द्धारा कुरुराज्य को आक्रान्त देख कुरुजाति के प्रधान पुरुष, योद्धा और राजनीतिविद् सेनापति के पद पर नियुक्त हो निज बाहुबल से चिर रक्षित स्वजाति के गौरव और प्राधान्य की अंतिम बार रक्षा करने के लिये कृत-संकल्प हुए । दुर्योधन थे स्वयं असुर-प्रकृति, राग-द्धेष ही था उनके सब कार्यो का प्रमाण और कारण, इसलिये कर्तव्यपरायण महापुरुषों के मन का भाव समझने में असमर्थ थे, वह यह कभी विश्वास न कर सके कि कर्तव्य-बुद्धिवश प्राणतुल्य पांडवों का भी युद्धक्षेत्र में संहार करने का बल इस कठिन तपस्वी के प्राणों में है | परामर्श के समय स्वदेश-हितैषी अपना मत प्रकट कर स्वजाति को अन्याय और अहित से निवृत्त करने के लिये प्राणपण चेष्टा करने पर भी वह अन्याय और अहित लोगों द्धारा एक बार स्वीकृत हो जाये तो वे अपने मत की उपेक्षा कर अधर्मयुद्ध में भी स्वजाति की रक्षा और शत्रुदमन करते हैं, भीष्म ने भी इसी पक्ष का अवलंबन लिया था । यह भाव समझना भी दुर्योधन के वश का नहीं था । अतएव भीम के पास न जा द्रोण को स्मरण किया । द्रोण व्यक्तिगत रूप से पांचाल राज्य के घोर शत्रु थे, पांचाल देश के राजकुमार धृष्टधुम्न ने गुरु द्रोण का वध करनेकी प्रतिज्ञा की थी, अतएव दुर्योधन ने सोचा कि इस व्यक्तिगत वैरभाव की बात याद दिलाने से आचार्य शांति का पक्ष छोड़ पूर्ण उत्साह के साथ युद्ध करेंगे । यह बात स्पष्टत: नहीं कही । धृष्टधुम्न के नाम का उल्लेख-भर किया, उसके बाद भीष्म को भी संतुष्ट करने के लिये उन्हें कुरु-राज्य का रक्षक और विजय का आशा-स्वरूप कहा । पहले विपक्ष के मुख्य-मुख्य योद्धाओं के नामों का उल्लेख किया, फिर अपनी सेना के कुछ नेताओं के नाम गिनाये, सबके नहीं, द्रोण और भीष्म का ही नाम लेना उनकी उद्देश्य-सिद्धि के
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लिये काफी था, किंतु उस उद्देश्य को छिपाने के लिये और चार-पांच नामों का उल्लेख किया । उसके बाद उन्होंने कहा-''मेरी सेना अति विशाल है, भीष्म हैं मेरे सेनापति, पांडवों की सेना है अपेक्षाकृत छोटी, उनका आशास्थल है भीष्म का बाहुबल, अतएव हमारी विजय क्यों नहीं होगी ? भीष्म ही जब हमारे प्रधान अवलंब हैं तब शत्रुओं के आक्रमण से उनकी रक्षा करना सबके लिये उचित है, उनके रहते हमारी विजय है अवश्यंभावी ।'' बहुत-से लोग 'अपर्याप्त' शब्द का उलटा अर्थ करते हैं, वह युक्तिसंगत नहीं; दुर्योधन की सेना अपेक्षाकृत विशाल है, उस सेना के नेता शौर्य-वीर में किसी से भी कम नहीं, तब भला आत्मश्लाघी दुर्योधन अपने बल की निन्दा कर निराशा उत्पन्न करने क्यों जायेंगे ? भीष्म ने दुर्योधन के मन का भाव और गूढ़ उद्देश्य समझ लेने पर उनका संदेह दूर करने के लिये सिंहनाद और शंखध्वनि की । दुर्योधन के हृदय में इससे प्रसन्नता हुई । उन्होंने सोचा, मेरा उद्देश्य सिद्ध हो गया, द्रोण और भीष्म दुविधा दूर कर युद्ध करेंगे ।
पूर्व सूचना
ज्यों ही भीष्म के गगनभेदी शंखनाद से रणक्षेत्र कंपित हुआ त्यों ही उस विशाल कौरवसेना में चारों ओर रण-वाध गूंज उठे और रणोल्लास से रथिगण झूमने लगे । इधर पांडवों के श्रेष्ठ वीर और उनके सारथी श्रीकृष्ण ने भीष्म के युद्धाह्वान के उत्तर में शंखनाद किया और युधिष्ठिर आदि पांडव-पक्ष के वीरों ने अपना-अपना शंख बजा सेना के हृदय में रणचंडी को जगाया । उस महा रव ने पृथ्वी और गगनमंडल को प्रतिध्वनित कर मानों धार्तराष्ट्रों का हृदय विदीर्ण किया । इसका अर्थ यह नहीं कि भीष्म आदि इस रव से डर गये थे; वे थे वीर पुरुष, रणचंडी के आहान से भला भयभीत क्यों होने लगे ? इस उक्ति द्धारा कवि ने पहले अत्यंत उत्कट रव के शारीरिक वेगवान् संचार का वर्णन किया है, जैसे वज्रनाद से बहुत बार श्रोता को ऐसा लगता है मानो उसका सिर दो टूक हो गया हो, वैसे ही इस रणक्षेत्रव्यापी महा रव का संचार हुआ; और यह रव था मानों धार्तराष्ट्रों के भावी निधन को घोषणा, जिन हृदयों को पांडवों के शस्त्र विदीर्ण करेंगे उन्हें उनके शंखनाद ने पहले ही विदीर्ण कर डाला । युद्ध आरंभ हुआ, दोनों ओर से शस्त्रसंपात होने लगा, ऐसे समय अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा, ''तुम मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच खड़ा करो, मैं देखना चाहता हूं कि कौन-कौन विपक्षी हैं, कौन दुर्बुद्धि दुर्योधन का प्रिय कार्य करने के लिये समागत हैं, किनके साथ मुझे युद्ध करना होगा ।'' अर्जुन का भाव यही था कि मैं ही हूं पांडवों की आशा, मेरे द्धारा ही विपक्ष के प्रधान-प्रधान योद्धा मारे जायेंगे, अतएव देखूं ये कौन हैं । यहां तक तो अर्जुन में क्षत्रियभाव रहता है, 'कृपा' या दुर्बलता का कोई चिन्हय नहीं ।
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भारत के अनेक श्रेष्ठ वीर पुरुष विपक्ष की सेना में उपस्थित हैं, सबका संहार कर अर्जुन अपने ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिर को असपत्न साम्राज्य देने के लिये उधोगी हैं । परंतु श्रीकृष्ण जानते हैं कि अर्जुन के मन में दुर्बलता है, अभी अगर चित्त शुद्ध न किया गया तो किसी भी समय वह अकस्मात् चित्त से निकल बुद्धि पर अधिकार जमा सकती है जिससे पांडवों का बड़ा अनिष्ट होगा, संभवत: सर्वनाश ही हो जाये । इसीलिये श्रीकृष्ण ने ऐसे स्थान पर रथ स्थापित किया कि भीष्म, द्रोण इत्यादि अर्जुन के प्रियजन उनके सामने रहें और साथ ही कौरव पक्ष के दूसरे सब राजाओं को भी देख सकें, और उनसे कहा : देखो, समवेत कुरुजाति को देखो । याद रखना चाहिये कि अर्जुन स्वयं थे कुरुजातीय, कुरुवंश के गौरव, उनके सभी आत्मीय, प्रियजन, बाल्यसखा उसी कुरुजाति के थे, तब हृदयंगम होगा श्रीकृष्ण के कहे इन तीन सामान्य शब्दों का गभीर अथ और भाव । उस समय अर्जुन ने देखा कि जिनका संहार कर युधिष्ठिर का असपत्न राज्य संस्थापित करना होगा, वे और कोई नहीं, अपने ही प्रिय आत्मीय, गुरु, बंधु, तथा भक्ति और प्रेम के पात्र हैं और देखा कि भारत-भर के क्षत्रिय एक-दूसरे के साथ प्रिय संबंध द्धारा आबद्ध हैं फिर भी एक-दूसरे का संहार करने के लिये इस भीषण रणक्षेत्र में इकट्ठे हुए हैं ।
विषाद का मूल कारण
क्या था अर्जुन के वैराग्य का मूल कारण ? बहुत-से लोग इस विषाद की प्रशंसा कर श्रीकृष्ण को कुमार्ग-प्रदर्शक और अधर्म का अनुमोदक कह निंदा करते हैं । इस धारणावश ही कि ईसाई-धर्म का शांतिभाव, बौद्ध धर्म का अहिंसाभाव और वैष्णव-धर्म का प्रेमभाव ही उच्च और श्रेष्ठ धर्म है, युद्ध और नरहत्या पाप हे और भ्रातृहत्या और गुरुहत्या महापातक, वे ऐसी असंगत बात कहते हैं । परंतु यह आधुनिक धारणा द्धापर--युग के महावीर पांडव के मन में भी नहीं उठी थी; इस विचार का कोई चिन्ह तक अर्जुन की बात में दिखायी नहीं देता कि अहिंसाभाव श्रेष्ठ है या युद्ध नरहत्या, भ्रात्रुहत्या और गुरुहत्या महापाप हैं और इस कारण युद्ध से विरत होना उचित । पर इतना अवश्य कहा कि गुरुजनों की हत्या की अपेक्षा भिक्षावृत्ति का अवलंबन श्रेयस्कर है, यह भी कहा कि बंधु-बांधव की हत्या से हमें पाप लगेगा, किंतु कर्म का स्वभाव देख यह बात नहीं कही, बल्कि कर्म का फल देख यह बात कही । इसी कारण श्रीकृष्ण ने उनका विषाद भंग करने के लिये यह शिक्षा दी कि कर्म का फल नहीं देखना चाहिये, कर्म का स्वभाव देख निश्चय करना चाहिये कि वह कर्म उचित है या अनुचित । अर्जुन का पहला भाव था, ये हैं मेरे आत्मीय, गुरुजन, बंधु, बाल्यसहचर, सभी स्नेह, भक्ति और प्रेम के पात्र, इनकी हत्या कर असपत्न राज्य भोग करने पर
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वह राज्यभोग कदापि सुखद नहीं हो सकता, बल्कि जीवन-भर दुःख और पश्चात्ताप से जलते रहना होगा, बंधु-बांधव-शून्य पृथ्वी का राज्य किसी के लिये भी वांछनीय नहीं । अर्जुन का दूसरा भाव था, प्रियजनों की हत्या करना है धर्म-विरुद्ध जो द्धेष के पात्र हैं उन्हें युद्ध में मारना है क्षत्रिय का धर्म । उनका तीसरा भाव था, स्वार्थ के लिये ऐसा करना धर्मविरुद्ध और क्षत्रिय के लिये अनुचित है । चौथा भाव था, भ्रात्रृ-विरोध और भ्रात्रृहत्या से कुलनाश और जातिध्वंस । ऐसा कुफल उत्पन्न करना कुलरक्षक और जाति- रक्षक क्षत्रिय वीर के लिये महापाप है । इन चार भावों के अतिरिक्त अर्जुन के विषाद के मूल में और कोई भाव नहीं । इसे समझे बिना श्रीकृष्ण का उद्देश्य और उनकी शिक्षा का अर्थ भी समझ में नहीं आ सकता । ईसाई-धर्म, बौद्ध-धर्म, वैष्णव-धर्म के साथ गीता के धर्म के विरोध और सामंजस्य को बात बाद में बतलायेंगे । सूक्ष्म विवेचन द्धारा अर्जुन के कथन के भाव का निरीक्षण कर उनका मनोभाव दिखाने की चेष्टा करेंगे ।
वैष्णवी माया का आक्रमण
अर्जुन ने पहले अपने विषाद का वर्णन किया । स्नेह और 'कृपा' के अकस्मात् विद्रोह से महावीर अर्जुन अभिभूत और परास्त हो गये, क्षण-भर में उनके शरीर का सारा बल जाता रहा, सारे अंग शिथिल हो गये, खड़े रहने तक की शक्ति नहीं रही, बलवान् हाथ गांडीव धारण करने में असमर्थ थे, शोक के उत्ताप से ज्वर के लक्षण दिखायी देने लगे, शरीर दुर्बल हो गया, त्यचा मानों आग में जलने लगी, मुंह सूख गया, समस्त शरीर जोर से कांपने लगा, मन मानों उस आक्रमण से चक्कर खाने लगा । ऐसे भाव का वर्णन पढ़ पहले तो उसे कवि की तेजस्विनी कल्पना का अतिशय विकास मान केवल उस कवित्व-सौंदर्य का उपभोग कर चुप बैठ जाते हैं; किंतु जब ड़स भाव की सूक्ष्म विवेचना कर निरीक्षण करते हैं तब मन में इस वर्णन का एक गूढ़ अर्थ प्रकट होता है । पहले भी अर्जुन ने़ कौरवों के साथ युद्ध किया था, पर ऐसा भाव कभी नहीं उठा, इस बार श्रीकृष्ण की इच्छा से हठात् यह आंतरिक उत्पात उठ खड़ा हुआ । मनुष्यजाति की अनेक अति प्रबल वृत्तियां क्षात्र-शिक्षा और उच्च आकांक्षा द्धारा पराभूत और आबद्ध हो अर्जुन के हृदय-तल में गुप्त पड़ी थीं । निग्रह से चित्तशुद्धि नहीं होती, विवेक और विशुद्ध बुद्धि की सहायता से, संयम से होती है चित्त-शुद्धि । निगृहीत भाव और वृत्तियां इस जन्म या दूसरे जन्म में, किसी-न-किसी दिन चित्त से उभइ बुद्धि पर आक्रमण करते हैं और उसे विजित कर समस्त कर्मो को निज विकास के अनुकूल मार्ग पर चलाते हैं । इसी कारण इस जन्म में दयावान् दूसरे जन्म में निष्ठुर होता है, इस जन्म में कामी और दुश्चरित्र दूसरे जन्म में साधु और पवित्रचेता होता है । निग्रह न कर विवेक और विशुद्ध बुद्धि को सहायता से सभी वृत्तियों को निकाल चित्तशुद्धि
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करनी चाहिये । यही है संयम । ज्ञान के प्रभाव से तमोभाव दूर न होने तक संयम असंभव है । इसीलिये श्रीकृष्ण अर्जुन के अज्ञान को दूर कर, सुप्त विवेक को जगा, चित्त-शोधन करने के इच्छुक थे । परंतु त्याज्य वृत्तियों को चित्त में ऊपर उठा बुद्धि के सामने उपस्थित न करने से बुद्धि ही उन्हें निकाल बाहर करने का अवसर नहीं पाती, और फिर युद्ध भें ही अंत:स्थ दैत्य और राक्षस विवेक द्धारा नष्ट किये जाते हैं, तब विवेक बुद्धि को मुक्त करता है । योगसाधना की प्रारंभिक अवस्था में, चित्त में बद्धमूल सब कुप्रवृत्तियां साधक की बुद्धि पर बड़े जोर से आक्रमण करती हैं और अनभ्यस्त साधक को भय और शोक से विह्वल कर देती हैं, पाश्चात्य देशों में इसे ही कहते हैं शैतान का प्रलोभन, यही है मार (कामदेव) का आक्रमण । परंतु यह भय और शोक हैं अज्ञान-संभूत, यह प्रलोभन शैतान का नहीं, है भगवान् का | अंतर्यामी जगद्गुरु ही साधक पर आक्रमण कराने के लिये इन सब प्रवृत्तियों का आह्यान करते हैं, उसके अमंगल के लिये नहीं, मंगल के लिये, चित्त-शोधन के लिये । श्रीकृष्य जैसे सशरीर बाह्य जगत् में अर्जुन के सखा और सारथी थे वैसे ही उनके अंतर में थे अशरीरी ईश्वर और अंतर्यामी पुरुषोत्तम, उन्होंने ही इन सब गुप्त वृत्तियों और भावों को एक ही साथ बड़े वेग से अर्जुन की बुद्धि पर फेंका था । इस भीषण आघात से अर्जुन की बुद्धि चक्कर खाने लगी और उसी क्षण प्रबल मानसिक विकार स्थूल शरीर में कवि-वर्णित सब लक्षणों द्धारा व्यक्त हुए । प्रबल अप्रत्याशित शौक और दुःख इसी तरह शरीर में प्रकट होते हैं, यह हम जानते हैं, यह मनुष्य-जाति के साधारण अनुभव से बाहर की बात नहीं । भगवान् की वैष्णवी माया ने अर्जुन को अखण्ड बल से क्षण-भर में अभिभूत कर लिया था, उसी से हुआ यह प्रबल विकार । अधर्म जब दया, प्रेम आदि धर्म का कोमल आकार घारण करके आता है, अज्ञान जब ज्ञान के वेष में छद्म-वेषी बन आता है, प्रगाढ़ अंधकारमय तमोगुण जब उज्जवल और विशद पवित्रता का रूप घारण कर कहता है कि ''मैं हूं सात्त्विक, मैं हूं ज्ञान, मैं हूं धर्म, मैं हुं भगवान् का प्रिय दूत, पुण्य रूप और पुण्य प्रवर्त्तक," तब समझना होगा, भगवान् की वैष्णवी माया प्रकट हुई है बुद्धि के अंदर ।
वैष्णवी माया का लक्षण
इस वैष्णवी माया के मुख्य अस्र हैं 'कृपा' और स्नेह । मनुष्य-जाति का प्रेम और स्नेह विशुद्ध वृत्तियां नहीं, शारीरिक और प्राण-कोषागत विकारवश पवित्र प्रेम और दया कलुषित और विकलांग हो जाते हैं । चित्त ही है वृत्तियों का वासस्थान । प्राण है भोग का क्षेत्र, शरीर कर्म का यंत्र और बुद्धि चिंतन का देश । शुद्ध अवस्था में इन सब की प्रवृत्ति स्वतंत्र पर परस्पर-अविरोधी होती है, चित्त में भाव उठता है, शरीर से तदनुसार
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कर्म होता है, बुद्धि में तत्संबंधी विचार उठते हैं, प्राण उसी भाव, कर्म और चिन्तन का आनंद लेता है और जीव साक्षी रूप से प्रकृति की यह आनंदमयी क्रीड़ा देख आनंदित होता है । अशुद्ध अवस्था में प्राण शारीरिक या मानसिक भोग के लिये लालायित हो शरीर को कर्म-यंत्र न बना भोग का साधन बनाता है, शरीर भोग में आसक्त हो, बारंबार शारीरिक भोग के लिये दावा करता है, शारीरिक भोग की कामना से आक्रांत हो चित्त निर्मल भाव ग्रहण करने में असमर्थ होता है और कलुषित वासना-युक्त भाव चित्त-सागर को विक्षुबध करता है, उसी वासना का कोलाहल बुद्धि को अभिभूत कर व्याकुल करता है, उसे बहरी बनाता है, अब बुद्धि निर्मल, शांत और अभ्रांत चिंतन को ग्रहण करने में समर्थ नहीं रह जाती, चंचल मन के वशीभूत हो वह भ्रम, विचार-विप्लव और असत्य के प्राबल्य से अंधी बन जाति है । जीव भी इस बुद्धि-भ्रंश के कारण ज्ञानशून्य हो साक्षीभाव और निर्मल आनंदभाव से वंचित हो आधार के साथ अपना एकत्व स्वीकार कर ''मैं हूं देह, मैं हूं प्राण, मैं हूं चित्त, मैं हूं बुद्धि'' इस भ्रांत धारणा से शारीरिक और मानसिक सुख-दुःख से सुखी और दुःखी होता है । अशुद्ध चित्त है इस धांधली का मूल, अतएव चित-शुद्धि है उन्नति का प्रथम सोपान । यह अशुद्धि केवल तामसिक और राजसिक वृत्ति को कलुषित कर चुप नहीं बैठ जाती, सात्त्विक वृत्ति को भी कलूषित करती है । ''अमुक मनुष्य मेरे शारीरिक और मानसिक भोग की सामग्री है, वह मुझे अच्छा लगता है, उसी को चाहता हूं, उसके विरह से मुझे क्लेश होता है,'' यह है अशुद्ध प्रेम, शरीर और प्राण ने चित्त को कलुषित कर निर्मल प्रेम को विकृत कर दिया है । बुद्धि भी इस अशुद्धि के कारण भ्रांत हो कहती है : '' अमुक मेरी स्त्री है, भाई, बहिन, सखा, आत्मीय, मित्र है, उसे ही प्यार करना होगा, यही प्रेम पुण्यमय है, यदि मैं इस प्रेम के प्रतिकूल कार्य करूं तो वह पाप होगा, क्रूरता होगी, अधर्म होगा | '' इस प्रकार के अशुद्ध प्रेम के फल-स्वरूप इतनी बलवती 'कृपा' होती है कि प्रियजनों को कष्ट देने, प्रियजनों का अनिष्ट करने की अपेक्षा धर्म को ही तिलांजलि देना श्रेयस्कर लगता है, अंत में कहीं इस 'कृपा' को चोट न पहुंचे इसलिये धर्म को अधर्म कह अपनी दुर्बलता का समर्थन करते हैं । इस प्रकार की वैष्णवी माया का प्रमाण अर्जुन की प्रत्येक बात में मिलता है ।
वैष्णवी माया की क्षुद्रता
अर्जुन की पहली बात थी कि ये हमारे स्वजन हैं, आत्मीय हैं, स्नेह के पात्र हैं, युद्ध में इनकी हत्या कर हमारा क्या हित साधित होगा ? विजेता का गर्व, राजा का गौरव, धनी का सुख ? मैं ये अर्थहीन स्वार्थ नहीं चाहता । लोगों को राज्य, भोग और जीवन क्यों प्रिय होता है ? हमारे स्त्री, पुत्र, कन्या हैं, हम आत्मीय-स्वजनों को सुख
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से रख सकेंगे, बंधु-बांधवों के साथ ऐश्वर्य के सुख और आमोद में दिन बितायेंगे--ऐसा मानकर सुख और महत्त्व उनके लोभ के विषय बन जाते हैं । परंतु जिनके लिये हम राज्य, भोग और सुख चाहते हैं, वे ही हमारे शत्रु बन युद्ध में उपस्थित हैं । वे हमारा वध करने को तैयार हैं, पर हमारे साथ मिल-जुल कर राज्य और सुख का उपभोग करने के लिये तैयार नहीं । वे भले ही मेरा वध करें पर मैं कभी इनका वध नहीं कर सकूंगा । इनकी हत्या से यदि मुझे तीनों लोकों का राज्य मिले तो भी मैं यह काम नहीं कर सकूंगा, पृथ्वी का असपत्न साम्राज्य खाक ही तो है ! स्थूल-दर्शी लोम-
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च |
और-
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन |
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतो: किं नु महीकृते ||
इन उक्तियों से मोहित हो कहते हे, ''वाह, कितना महान्, उदार, निःस्वार्थ और प्रेममय भाव है अर्जुन का ! रक्त से सने भोग और सुख की अपेक्षा उन्हें पराजय, मरण और चिर दुःख पसंद है ।'' परंतु, यदि अर्जुन के मनोभाव की परीक्षा करें तो पता लगेगा कि अर्जुन का भाव अत्यंत क्षुद्र, दुर्बलतासूचक और क्लीवोचित है । कुल के हित के लिये या प्रियजनों के प्रेमवश, 'कृपा' के वशीभूत हो और रक्त-पात के भय से व्यक्तिगत स्वार्थ का त्याग अनार्य के लिये महत् उदार भाव हो सकता है, आर्य के लिये तो वह मध्यम कोटि का है, धर्म और भगवत्प्रीति के लिये स्वार्थ-त्याग करना ही है उत्तम भाव । दूसरी ओर, कुल के हित के लिये, प्रियजनों के प्रेम के कारण, 'कृपा' के वश हो, रक्त-पात के भय से धर्म का परित्याग अधर्म भाव है । धर्म और भगवत्प्रीति के लिये स्नेह, 'कृपा' और भय का दमन करना ही है यथार्थ आर्य-भाव । अपने इस क्षुद्र भाव के समर्थन के लिये अर्जुन स्वजनों की हत्या का पाप दिखाकर पुनः बोले, ''कौरवों का वध करने से हमें कौन-सा सुख, कौन-सी मनस्तुष्टि मिल सकती है ? वे हमारे बंधु-बांधव हैं, आत्मीय-स्वजन हैं, वे अन्याय और हमारे साथ शत्रुता करते हैं, हमारा राज्य छीनते हैं और सत्य का गला घोंटते हैं, फिर भी उनके वध से हमें पाप ही लगेगा, सुख नहीं मिलेगा ।'' अर्जुन यह भूल गये थे कि वे धर्मयुद्ध में उतरे हैं, श्रीकृष्ण ने उन्हें उनके अपने या युधिष्ठिर के सुख के लिये, कौरवों के वध के लिये नियुक्त नहीं किया था, बल्कि धर्म-स्थापना, अधर्म-नाश, क्षत्रियधर्म-पालन, भारत में धर्म-प्रतिष्ठित एक महान् साम्राज्य की स्थापना ही था इस युद्ध का उद्देश्य । समस्त सुख को तिलांजलि दे आजीवन दुःख और यंत्रणा सहकर भी इस उद्देश्य को सिद्ध करना था अर्जुन का कर्तव्य ।
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कुलनाश की बात
परंतु अपनी दुर्बलता के समर्थन में अर्जुन ने एक और उच्चतर युक्ति ढूंढं निकाली, इस युद्ध में कुलनाश और जातिनाश होगा इसलिये यह युद्ध धर्मयुद्ध नहीं, अधर्मयुद्ध है । इस भ्रात्रृहत्या से मित्रद्रोह, अर्थात् जो स्वभाव के अनुकूल और सहायक हैं उनका अनिष्ट करना होगा, और फिर अपने कुल का, अर्थात् जिस कुरु-नामक क्षत्रियवंश और जाति में दोनों पक्षों का जन्म हुआ है, विनाश होगा । प्राचीन काल में जातियां प्रायः ही रक्त-संबंध पर प्रतिष्ठित थीं । एक बड़ा कुल बढ़ता-बढ़ता जाति में परिणत हो जाता था, भारत राष्ट्र के अंतर्गत कुल-विशेष जैसे भोजवंश, कुरुवंश आदि, एक-एक बलशाली जाति बन गये थे । कुल के अंतर्विरोध और पारस्परिक अनिष्ट-वृत्ति को ही अर्जुन ने मित्रद्रोह कहा । एक तो यह मित्रद्रोह नैतिक दृष्टि से महापाप है, तिस पर अर्थनीतिक दृष्टि से इस मित्रद्रोह में एक महान् दोष यह है कि कुलक्षय इसका अवश्यंभावी फल है । सनातन कुलधर्म का सम्यक् पालन कुल की उन्नति और अवस्थिति का कारण है, गृहस्थ जीवन और राजनीतिक क्षेत्र में पितृगण जिस महत् आदर्श और क्रमशृंखला की स्थापना और रक्षा करते आ रहे हैं, उस आदर्श के ह्रास या शृंखला के शिथिल होने से कुल का अधःपतन होता है । जब तक कुल सौभाग्यवान् और बलशाली बना रहता है, तभी तक यह आदर्श और क्रमशृंखला सुरक्षित रहती हैं, कुल के क्षीण या दुर्बल हो जाने से, तमोभाव बढ़ जाने से इस महान् धर्म में शिथिलता आ जाती है, फलस्वरूप अराजकता, दुर्नीति आदि दोष कुल में घुस जाते हैं, कुल की महिलाएं दुश्चरित्रा हो जाती हैं और कुल की पवित्रता नष्ट हो जाती है, नीच जाति और नीच चरित्रवालों के सहवास से महान् कुल में वर्णसंकर होता है | इस प्रकार पितरों की प्रकृत संतति नष्ट होने से कुलनाशकों को नरक की प्राप्ति होती है तथा अधर्म के फैलने से वर्णसंकर-संभूत नैतिक अधोगति और नीच गुणों के बढ़ जाने से एवं अराजकता आदि दोषों के घुस आने से सारा कुल ही विनष्ट होता है और नरक में जाता है । कुलनाश से राष्ट्रधर्म और कुलधर्म दोनों ही नष्ट हो जाते हैं । राष्ट्र-धर्म का अर्थ है समस्त कुलसमष्टि से बने महान् राष्ट्र का परंपरागत सनातन आदर्श और क्रम-शृंखला । इसके बाद अर्जुन एक बार फिर अपने प्रथम सिद्धांत और कर्तव्य-धर्म-विषयक अपने निश्चय को जना युद्ध के समय ही गांडीव त्याग रथ में बैठ गये । कवि ने इस अध्याय के अंतिम श्लोक में इशारे से यह दिखाया है कि शोक से बुद्धि-भ्रम होने के कारण अर्जुन ने इस प्रकार क्षत्रिय के लिये अनुचित और अनार्यो जैसा आचरण करने का संकल्प किया था ।
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विधा और अविधा
अर्जुन की कुलनाश-विषयक बात में हमें एक अत्यंत विशाल और उन्नत भाव की छाया दिखायी देती है, इस भाव के साथ जो गुरुतर प्रश्न जुड़ा हुआ है उसकी आलोचना करना गीता के व्याख्याकार के लिये अत्यंत आवश्यक है । और अगर हम गीता का केवल आध्यात्मिक अर्थ ही खोजें, अपने राष्ट्रीय, गृहस्थ-संबंधी और व्यक्तिगत सांसारिक कर्म और आदर्श से गीतोक्त धर्म का संपूर्ण विच्छेद करें तो उस भाव और उस प्रश्न का महत्त्व और प्रयोजनीयता अस्वीकृत हो जाती है और गीतोक्त धर्म का सर्वव्यापी विस्तार संकुचित हो जाता है । शंकर आदि जिन लोगों ने गीता की व्याख्या की है वे थे संसार-त्यागी, दार्शनिक, अध्यात्म विधापरायण ज्ञानी अथवा भक्त, गीता में अपने लिये आवश्यक ज्ञान और भाव को खोजकर, प्रयोजनीय को प्राप्त कर वे संतुष्ट हो गये । जो एक साथ ही ज्ञानी, भक्त और कर्मी हैं वे ही हैं गीता की गूढ़तम शिक्षा के अधिकारी । गीता के वक्ता श्रीकृष्ण ज्ञानी और कर्मी थे, गीता के पात्र अर्जुन भक्त और कर्मी थे, उनके ज्ञान-चक्षु-उन्मीलन के लिये कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण ने यह शिक्षा प्रतिपादित की । एक महान् राजनीतिक संघर्ष था गीतोपदेश का कारण, उस संघर्ष में अर्जुन को एक महान् राजनीतिक उद्देश्य की सिद्धि के यंत्र और निमित्त के रूप में युद्ध में प्रवृत्त करना था गीता का उद्देश्य, युद्धक्षेत्र ही था शिक्षा का स्थल । श्रीकृष्ण थे श्रेष्ठ राजनीतिज्ञ और योद्धा, धर्मराज्य-संस्थापना था उनके जीवन का प्रधान उद्देश्य, अर्जुन भी थे क्षत्रिय राजकुमार, राजनीति और युद्ध थे उनके स्वभाव-नियत कर्म । फिर भला गीता के उद्देश्य को, गीता के वक्ता, पात्र और उसके कारण को अलग कर गीता की व्याख्या करने से कैसे काम चल सकता है ?
मानव-जगत् के पांच मुख्य आधार चिरकाल से विधमान हैं-व्यक्ति, परिवार, वंश, राष्ट्र और मानवसमष्टि । धर्म भी इन्हीं पांच आधारों पर प्रतिष्ठित है । धर्म का उद्देश्य है भगवत्प्राप्ती । भगवत्प्राप्ती के दो मार्ग हैं-विधा को आयत्त करना और अविधा को भी आयत्त करना; दोनों ही हैं आत्म-ज्ञान और भगवद्दर्शन के साधन । विधा का मार्ग है ब्रम्ह की अभिव्यक्ति, अविधामय प्रपंच का परित्याग कर, सच्चिदानंद की प्राप्ति या परब्रम्ह में लय । अविधा का मार्ग है सर्वत्र आत्मा और भगवान् के दर्शन कर ज्ञानमय, मंगलमय, शक्तिमय परमेश्वर को बंधु, प्रभु, गुरु, पिता, माता, पुत्र, कन्या, दास, प्रेमी, पति और पत्नी रूप में प्राप्त करना । शांति है विधा का उद्देश्य और प्रेम अविधा का । परंतु भगवान् की प्रकृति है विधा-अविधामयी । अगर हम विधा के मार्ग का ही अनुसरण करें तो हम विधामय ब्रमः को प्राप्त करेंगे, यदि केवल अविधा के मार्ग का अनुसरण करें तो अविधामय ब्रम्ह को । जो विधा और अविधा दोनों को ही आयत्त कर सकते हैं वे ही पूर्णतया वासुदेव को प्राप्त करते हैं; वे विधा और अविधा के परे हैं । जो विधा के अंतिम लक्ष्य तक पहुंच जाते हैं वे विधा की सहायता से अविधा को आयत्त
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करते हैं । ईशोपनिषद् में यह महान सत्य अत्यंत स्पष्टतया व्यक्त किया गया है । जैसे-
अन्धं तम: प्रविशन्ति येऽविधामुपासते |
ततो भूय इव ते तमो य उ विधायां रता : ||
अन्यदेवाहुर्विधाऽन्यदाहुरविधया |
इति शुश्रम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षरे ||
विधाञ्चाविधाञ्च यस्तद्वन्दोभयं सह |
अविधया मृत्युं तीर्त्वा विधयामृतमश्र्नुते ||
''जो अविधा के उपासक हैं वे अंध अज्ञानरूप तम में प्रवेश करते हैं । जो केवल विधा के उपासक हैं वे भी मानों अधिकतर तम में प्रवेश करते हैं । जिन धीर ज्ञानियों ने हमें ब्रम्हज्ञान की शिक्षा दी है, उनके मुंह से सुना है कि विधा का भी फल होता है और अविधा का भी, वे दोनों फल भिन्न-भिन्न हैं । जो विधा और अविधा दोनों को अपने ज्ञान द्वारा अधिकृत कर पाये हैं वे ही अविधा द्वारा मृत्यु को अतिक्रम कर विधा द्वारा अमृमय पुरुषोत्तम के आनंद का उपभोग करते हैं ।
समस्त मानव-जाति अविधा का भोग करती हुई विधा की ओर अग्रसर हो रही है, यही है वास्तविक क्रमविकास । को श्रेष्ठ, साधक, योगी, ज्ञानी, भक्त और कर्मयोगी हैं, वे हैं इस महान् अभियान के अग्रगामी सैनिक, दूरस्थित गंतव्य स्थान पर क्षिप्र गति से पहुंच लौट आते हैं और मनुष्य-जाति को सुसंवाद सुनाते हैं, पथ-प्रदर्शन करते हैं, शक्ति वितरण करते हैं । भगवान् के अवतार ओर विभूतियां आकर पथ सुगम बनाते हैं, अनुकूल अवस्था उत्पन्न करते हैं और बाधाएं दूर करते हैं । अविधा में विधा, भोग में त्याग, संसार में संन्यास, आत्मा में सर्वभूत, सर्वभूत में आत्मा, भगवान् में जगत्, जगत् में भगवान्--यही उपलब्धि है असली ज्ञान, यही है मानवजाति का गंतव्य स्थान की ओर जाने का निर्दिष्ट पथ । आत्मज्ञान की संकीर्णता है उन्नति की प्रधान बाधा, देहात्मक बोध और स्वार्थबोध हैं उस संकीर्णता के मूल कारण, अतएव दूसरे को आत्मवत् देखना है उन्नति का प्रथम सोपान । मनुष्य पहले अपने व्यक्ति-भाव में व्यस्त रहता है, अपनी व्यक्तिगत शारीरिक और मानसिक उन्नति, भोग और शक्ति के विकास में रत रहता है, मैं देह हूं, मैं मन हूं, मैं प्राण हूं, देह का बल, सुख और सौंदर्य, मन की क्षिप्रता, आनंद और स्वच्छता, प्राण का तेज, भोग और प्रफुल्लता हैं जीवन के उद्देश्य और उन्नति की चरमावस्था-यही है मनुष्य का पहला या आसुरिक ज्ञान । इसकी भी आवश्यकता है; देह, मन और प्राण का विकास और परिपूर्णता साधित कर उस पूर्णविकसित शक्ति को दूसरों की सेवा में प्रयुक्त करना उचित है । इसीलिये आसुरिक शक्ति का विकास है मानवजाति की सभ्यता की प्रथम अवस्था; पशु, यक्ष,
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राक्षस, असुर, पिशाच तक मनुष्य के मन में, कर्म में, चरित्र में लीला करते और पनपते हैं । उसके बाद मनुष्य आत्मज्ञान का विस्तार कर दूसरों को आत्मवत् देखना आरंभ करता है, परार्थ में स्वार्थ को डुबा देना सीखता है । पहले परिवार को ही आत्मवत् देखता है, स्त्री-पुत्र की प्राणरक्षा के लिये प्राण त्यागता है, स्त्री-संतान के सुख के लिये अपने सुख को तिलांजलि देता है | इसके बाद वंश या कुल को आत्मवत् देखता है, कुलरक्षा के लिये प्राण त्यागता है, स्वयं अपनी, अपनी स्त्री और संतान की बलि चढ़ाता है, कुल के सुख, गौरव और वृद्धि के लिये अपने और स्त्री-पुत्र के सुख को तिलांजलि देता है । फिर देश को आत्मवत् देखता है, देश को रक्षा के लिये प्राण त्यागता है, अपनी स्त्री, संतति और कुल की बलि चढ़ाता है,--जैसे चित्तौड़ के राजपूत कुल ने सारी राजपूत जाति की रक्षा के लिये बार-बार स्वेच्छा से अपना बलिदान किया था,-जाति के सुख और गौरव की वृद्धि के लिये अपने, स्त्री-संतान के कुल के सुख और गौरव की वृद्धि को तिलांजलि देता है । उसके बाद समस्त मानवजाति को आत्मवत् देखता हैं, मानवजाति की उन्नति के लिये प्राण त्यागता हे, अपनी, स्त्री-संतान की, कुल की, जाति की बलि देता है--मानव-जाति के सुख और गौरव-वृद्धि के लिये अपने, स्त्री-संतान के, कुल के सुख और गौरव-वृद्धि को तिलांजलि देता है । इस तरह दूसरे को आत्मवत् देखना, दूसरे के लिये अपनी और अपने सुख की बलि देना है बौद्ध धर्म और बौद्ध धर्म-प्रसूत इसाई-धर्म की प्रधान शिक्षा । यूरोप की नैतिक उन्नति इसी पथ से आगे बढ़ी है । पुराकालीन यूरोपियनों ने व्यक्ति को परिवार में, परिवार को कुल में डुबा देना सीखा था, आधुनिक यूरोपियनों ने कुल को राष्ट्र में डुबा देना सीखा है, राष्ट्र को मनुष्य-समष्टि में डुबा देना अभी उनके लिये कठिन आदर्श माना जाता है, टाल्सटाय इत्यादि मनीषिगण तथा सोशलिस्ट (समाजवादी), एनार्किस्ट (अराजकता--वादी) इत्यादि नवीन आदर्शों के अनुमोदक दल इसी आदर्श को कार्य में परिणत करने के लिये उत्सुक हैं । यूरोप की दौड़ यहीं तक । वे हैं अविधा के उपासक, प्रकृत विधा से अवगत नहीं-- अन्धं तम: प्रविशन्ति ये अविधामुपासते |
भारत में मनीषियों ने विधा और अविधा, दोनों को ही आयत्त किया है । वे जानते हैं कि अविधा के पांच आधारों के अतिरिक्त विधा और अविधा दोनों के आधार भगवान् हैं, उनको जाने बिना अविधा भी नहीं जानी जाती, आयत्त नहीं होती । अतएव केवल दूसरे को आत्मवत् न देख, उन्होंने आत्मवत् परदेहेषु अर्थात् अपने अंदर और दूसरों के अंदर समान भाव से भगवान् को देखा है । हम अपना उत्कर्ष करेंगे, हमारे उत्कर्ष से परिवार का उत्कर्ष होगा; परिवार का उत्कर्ष करेंगे, परिवार के उत्कर्ष से कुल का उत्कर्ष होगा; राष्ट्र का उत्कर्ष करेंगे, राष्ट्र के उत्कर्ष से मानवजाति का उत्कर्ष होगा-यही ज्ञान है आर्यो की सामाजिक व्यवस्था और आर्य-शिक्षा के मूल में निहित । व्यक्तिगत त्याग है आर्य का मज्जागत अभ्यास : परिवार के लिये त्याग, कुल के लिये त्याग, समाज के लिये त्याग, मानवजाति के लिये त्याग, भगवान् के लिये
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त्याग । हमारी शिक्षा में जो दोष या कमी दिखायी देती है वह कुछ एक ऐतिहासिक कारणों का फल है; जैसे, राष्ट्र को समाज के अंदर देखना, समाज के हित में व्यक्ति और परिवार का हित डुबा देना, परंतु राष्ट्र के राजनीतिक जीवन का विकास करना हमारे धर्म में मुखय अंग के रूप में स्वीकृत नहीं था । पश्चिम से इस शिक्षा की आमदनी करनी पड़ी है । किंतु हमारी भी प्राचीन शिक्षा में, महाभारत में, गीता में, राजपूताने के इतिहास में, रामदास के दासबोध में हमारे अपने देश में ही यह शिक्षा विधमान थी । विधा की अत्यघिक उपासना के कारण, अविधा के भय से हम उस शिक्षा का विकास न कर सके और उसी दोषवश तमोभिभूत हो, राष्ट्रधर्म से च्युत हो कठिन दासत्व, दुःख और अज्ञान में जा पड़े, अविधा को भी आयत्त नहीं कर सके और विधा को भी खो बैठे । ततो भूय इव ते तमो य उ विधायां रता: ।
श्रीकृष्ण का राजनीतिक उद्देश्य
मानव-समाज के क्रमिक विकास में कुल और राष्ट्र भिन्न-भिन्न हैं, प्राचीन काल में भारत तथा अन्य देशों में भी यह भिन्नता इतनी परिस्फुट नहीं हुई थी । कुछ एक बड़े-बड़े कुलों के समावेश से एक राष्ट्र तैयार हो जाता था । ये भिन्न-भिन्न कुल या तो एक ही पूर्व पुरुष के वंशधर होते थे या भिन्न वंश-जात होने पर भी प्रीति-संबंध स्थापित करने के कारण एक ही वंश के माने जाते थे । समस्त भारत एक बड़ा राष्ट्र नहीं बन सका, किंतु जो बड़ी-बड़ी जातियां सारे देश में फैली हुई थीं उनमें एक ही सभ्यता, एक ही धर्म, एक ही संस्कृत भाषा एवं विवाह आदि संबंध प्रचलित थे । तथापि प्राचीन काल से एकत्व की चेष्टा होती आ रही थी, कभी कुरु, कभी पांचाल, कभी कोसल, कभी मगध-जाति देश का नेता या सार्वभौम राजा बनकर साम्राज्य स्थापित करती थी, किंतु प्राचीन कुलधर्म और कुल की स्वाधीनता के प्रति अनुराग एकत्व के लिये ऐसी प्रबल बाधा उत्पन्न करते थे कि वह चेष्टा कभी चिरकाल तक नहीं टिक पायी । भारत में यह एकत्व की चेष्टा, असपत्न साम्राज्य की चेष्टा पुण्यकर्म तथा राजा के कर्तव्य कर्म के अंतर्गत थी । इस एकत्व की धारा इतनी प्रबल हो गयी थी कि चेदिराज शिशुपाल जैसे तेजस्वी और दुर्दांत क्षत्रिय भी युधिष्ठिर के सम्राज्य-संस्थापन को पुण्य कर्म मान सहयोग देने के लिये सम्मत हो गये थे । ऐसा एकत्व, साम्राज्य या धर्मराज्य स्थापित करना था श्रीकृष्ण का राजनीतिक उद्देश्य । मगधराज जरासन्ध ने इससे पहले ऐसी चेष्टा की थी, किंतु उनकी शक्ति अधर्म ओर अत्याचार पर प्रतिष्ठित थी, अत: उसे क्षणस्थायी समझ श्रीकृष्ण ने भीम के हाथों उनका वध करवा वह चेष्टा विफल की । श्रीकृष्ण के कार्य में सब से प्रधान बाधक था गर्वित और तेजस्वी कुरुवंश । कुरु-जाति बहुत दिनों से भारत की नेतृस्थानिया जाति थी, अंग्रेजी में जिसे
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कहते हैं hegemony अर्थात् बहुत-सी एक समान स्वाधीन ज़ातियों के बीच प्रधानत्व और नेतृत्व, कुरुजाति का उसपर पुरुषपरंपरागत अधिकार था । श्रीकृष्ण यह जानते थे कि जबतक इस जाति का बल और गर्व अक्षुण्ण रहेगा तबतक भारत में कभी एकत्व स्थापित नहीं होगा । अत: उन्होंने कुरुजाति का ध्वंस करने का संकल्प किया । किंतु श्रीकृष्ण यह नहीं भूले कि भारत के साम्राज्य पर कुरुजाति का परंपरागत अधिकार है; जो धर्मत: किसी का प्राप्य है उससे उसे वंचित करना अधर्म है, इसलिये न्यायत: जो कुरुजाति के राजा और प्रधान थे, उन्हीं युधिष्ठिर को उन्होंने भावी सम्राट् पद के लिये मनोनीत किया । श्रीकृष्ण ने, परम धार्मिक और समर्थ होने पर भी, स्नेहवश अपने प्रिय यादव-कुल को कुरुजाति के स्थान पर बैठाने की चेष्टा नहीं की, पांडवों में ज्येष्ठ युधिष्ठिर की अवहेलना कर अपने प्रियतम सखा अर्जुन को उस पद पर नियुक्त नहीं किया । परंतु केवल उम्र या पूर्वाधिकार देखने से अनिष्ट की संभावना रहती है, गुण और सामर्थ्य भी देखनी होती है । राजा युधिष्ठिर यदि अधार्मिक, अत्याचारी या अशक्त होते तो फिर श्रीकृष्ण दूसरा पात्र खोजने के लिये बाध्य होते । युधिष्ठिर जैसे वंश-परंपरा, न्याय्य अधिकार और देश के पूर्व प्रचलित नियमानुसार सम्राट् होने के उपयुक्त थे, वैसे ही वह गुण में भी थे उस पद के यथार्थ अधिकारी । उनसे कहीं अधिक तेजस्वी और प्रतिभावान् थे बड़े-बड़े वीर राजा, किंतु केवल बल और प्रतिभा से ही कोई राज्य का अधिकारी नहीं हो जाता । राजा को धर्मरक्षा करनी होती है, प्रजारंजन करना होता है, देश की रक्षा करनी होती है । प्रथम दो गुणों में युधिष्ठिर थे अतुलनीय, वे थे धर्मपुत्र, दयावान्, न्यायपरायण, सत्यवादी, सत्यप्रतिज्ञ, सत्यकर्मा और प्रजा को अत्यन्त प्रिय । शेषोक्त आवश्यक गुण में जो उनकी न्यूनता थी उसे उनके दो वीर भाई भीम और अर्जुन पूरा करने में समर्थ थे । समकालीन भारत में पंच पांडवों के समान पराक्रमी राजा या वीर पुरुष कोई नहीं था । अतएव जरासन्ध-वध द्धारा कण्टक दूर कर श्रीकृष्ण के परामर्श से राजा युधिष्ठिर ने देश की प्राचीन-प्रणाली का अनुसरण कर राजसूय यज्ञ किया और देश के सम्राट् बने ।
श्रीकृष्ण थे धार्मिक और राजनीतिविशारद । यदि देश के धर्म, देश की प्रणाली, देश के सामाजिक नियमानुसार कार्य करने से उनके महत् उद्देश्य की सिद्धि की संभावना हो तो फिर उस धर्म की हानि, उस प्रणाली के विरुद्ध आचरण, उस नियम का भंग भला क्यों करेंगे ? बिना कारण इस प्रकार का राष्ट्रविप्लव और समाजविप्लव करना देश के लिये अहितकर होता है । इसी कारण पहले पुरानी प्रणाली को रक्षा करते हुए अपनी उद्देश्य-सिद्धि के लिये अचेष्ट हुए । किंतु देश की पुरानी प्रणाली में यह दोष था कि उससे प्रयास सफल होने पर भी उस फल के स्थायी होने की संभावना बहुत कम थी । जिनके पास सामरिक बल अधिक था वे राजसूय यज्ञ कर सम्राट् तो बन सकते थे, पर उनके वंशधरों के तेजहीन होते ही वह मुकुट उनके मस्तक से स्वतः गिर पड़ता था । जो तेजस्वी वीर जातियां पिता या पितामह के वश में हुई थीं वे भला अब
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विजयी के पुत्र या पौत्र की अधीनता क्यों स्वीकार करती ? वंशगत अधिकार नहीं, राजसूय यज्ञ अर्थात् असाधारण बलवीर्य था उस साम्राज्य का मूल, जिनमें अधिक बलवीर्य होता वे ही यज्ञ कर सम्राट् बन जाते थे । अतएव साम्राज्य के स्थायी होने की कोई आशा नहीं रहती थी, थोड़े समय के लिये प्रधानता या hegemony ही मिल सकती थी । इस प्रथा में और एक दोष यह था कि नये-नये सम्राटों के अकस्मात् बलशाली और सर्वप्रधान हो जाने से देश के बलाभिमानी, असहिष्णु, तेजस्वी क्षत्रियों के हृदय में ईर्ष्या-वन्ही प्रज्वलित हो उठती थी; उनके मन में सहज ही इस विचार के उठने की संभावना थी कि ये ही प्रधान क्यों हों, हम क्यों नहीं । युधिष्ठिर के अपने कुल के क्षत्रिय इसी ईर्ष्या से उनके विरोधी हुए थे, उनके पितृव्य की संतानों ने इसी ईर्ष्या का सहारा ले बड़ी चतुराई के साथ उन्हें पदच्युत और निर्वासित किया था । देश की प्रणाली का दोष थोड़े ही दिनों में प्रकट हो गया |
श्रीकृष्ण जैसे धार्मिक थे वैसे ही राजनीति भी । वे कभी सदोष, अहितकर या समय के लिये अनुपयोगी प्रणाली, उपाय या नियम को बदलने में आगा-पीछा नहीं करते थे । वे अपने युग के थे प्रधान विप्लवी । राजा भूरिश्रवा ने श्रीकृष्ण की भर्त्सना करते समय समकालीन प्राचीन मतावलंबी बहुत-से भारतवासियों का आक्रोश प्रकट करते हुए कहा, कृष्ण और कृष्णचालित यादव कुल कभी भी धर्म के विरुद्ध आचरण करने में या धर्म को विकृत करने में कुण्ठित नहीं होता, जो कृष्ण के परामर्श से कार्य करेगा वह निश्चय ही अविलम्ब पाप के गर्त में गिरेगा । कारण, पुरातन रीति में आसक्त रक्षणशील पुरुषों के मतानुसार नूतन प्रयास ही है पाप । श्रीकृष्ण युधिष्ठिर के पतन से समझ गये-समझ क्यों गये, वे तो भगवान् थे, पहले से ही जानते थे-कि द्धापरयुग के लिये उपयोगी प्रथा कलि में कभी भी रक्षणीय नहीं । अतएव उन्होंने फिर वैसी चेष्टा नहीं की, कलि के लिये उचित भेद-दण्ड-प्रधान राजनीति का अनुसरण कर, गर्वित, दृप्त क्षत्रिय-जाति का बल नष्ट कर भावी साम्राज्य को निष्कण्टक बनाने की चेष्टा की । उन्होंने कुरुओं के पुराने समकक्ष शत्रु पांचाल जाति को कुरुवंश का ध्वंस करने में प्रवृत्त किया, जितनी जातियां कुरुओं के प्रति विद्वेष होने के कारण, युधिष्ठिर के प्रेम द्धारा या धर्मराज्य और एकत्व की आकांक्षा से आकृष्ट हो सकती थीं, उन सबको उस पक्ष में खींच लाये और युद्ध की तैयारी कराने लगे । सन्धि की जो चेष्टा की गयी थी उसमें श्रीकृष्ण का विश्वास नहीं था, वे जानते थे कि सन्धि की कोई. संभावना नहीं, सन्धि होने पर भी वह स्थायी नहीं हो सकती, फिर भी धर्म के लिये और राजनीति के लिये उन्होंने सन्धि की चेष्टा की । इसमें संदेह नहीं कि कुरुक्षेत्र-युद्ध था श्रीकृष्ण की राजनीति का फल और कुरुध्वंस, क्षत्रियध्वंस और निष्कण्टक साम्राज्य और भारत का एकत्वसंस्थापन था उनका उद्देश्य । धर्मराज्य की स्थापना के लिये जो युद्ध होता है वही है धर्मयुद्ध उसी धर्मयुद्ध के ईश्वरनिर्दिष्ट विजेता, दिव्यशक्ति प्रणोदित महारथी थे अर्जुन । अर्जुन के अस्त्र-त्याग करने से तो श्रीकृष्ण का सारा राजनीतिक प्रयास ही नष्ट
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हो जाता, भारत में एकता स्थापित न होती और देश के भावी जीवन में अविलंब घोर कुफल फलता ।
भ्रात्रृवध और कुलनाश
अर्जुन की सारी युक्ति कुल के हित को सामने रखकर प्रयुक्त हुई थी, स्नेहवश जाति के हित का विचार उनके मन से अपसारित हो गया था । वे कुरुवंश के हित का विचार करते हुए भारत का हित भूल गये थे, अधर्म के भय से धर्म को तिलांजलि देने के लिये कटिबद्ध हो उठे थे । यह बात सभी जानते हैं कि स्वार्थ के लिये भ्रात्रृवध करना महापाप है, परंतु भ्रात्रुप्रेम के वशीभूत हो राष्ट्र का अनर्थ करने में सहायक होना, राष्ट्र के हितसाधन से मुंह मोड़ना है उससे भी बड़ा पाप । अर्जुन यदि शास्त्रत्याग करते तो अधर्म की जीत होती, दुर्योधन भारत के प्रधान राजा और सारे देश के नेता बन अपने बुरे दृष्टान्त से राष्ट्रीय चरित्र और क्षत्रिय कुल का आचरण कलुषित कर देते, भारत के सारे प्रबल, पराक्रमी कुल स्वार्थ, ईर्ष्या और विरोधप्रियता की प्रेरणा से एक-दूसरे का विनाश करने के लिये तत्पर होते, देश को एकत्रित, नियंत्रित और सारी शक्ति को एकत्रित कर उसकी रक्षा करनेवाली कोई असपत्न धर्मप्रणोदित राजशक्ति न रह जाती, ऐसी अवस्था में जो विदेशी आक्रमण उस समय भी रुद्ध समुद्र की तरह भारत पर टूट परिप्लावित करने के लिये तैयार हो रहा था, वह समय में ही आ आर्य-सभ्यता को नष्ट कर इस जगत् के भावी हित की आशा को ही निर्मूल कर देता । श्रीकृष्ण और अर्जुन द्धारा प्रतिष्ठित साम्राज्य का नाश होने के दो हजार वर्ष बाद भारत में जो राजनीतिक उत्पात आरंभ हुआ था, वह उसी समय आरंभ हो गया होता ।
लोग कहते हैं कि अर्जुन ने जिस अनिष्ट के भय से यह आपत्ति उठायी थी, कुरुक्षेत्र-युद्ध के फलस्वरूप ठीक वही अनिष्ट फला । भ्रात्रृवध, कुलनाश और यहां तक कि राष्ट्र-नाश भी कुरुक्षेत्र के युद्ध के फल थे । कुरुक्षेत्र-युद्ध कलि के आरंभ का कारण बना । इस युद्ध में भीषण भ्रात्रृवध हुआ था यह सच है । प्रश्न यह है कि अन्य किस उपाय से श्रीकृष्ण का महान् उद्देश्य सिद्ध होता ? इसीलिये तो श्रीकृष्ण ने संधि-प्रार्थना की विफलता को जानते हुए भी संधि करने के लिये काफी प्रयास किया था, यहां तक कि पांच गांव ही मिल जाने पर युधिष्ठिर युद्ध न करते, पैर रखने के लिये उतना-सा ही स्थान पा जाने पर श्रीकृष्ण धर्मराज्य की स्थापना कर लेते । किंतु दुर्योधन का दृढ निश्चय था कि बिना युद्ध वे सूच्यग्र भूमि भी नहीं देंगे । जब सारे देश का भविष्य युद्ध के फल पर निर्भर होता है तब उस युद्ध में भ्रात्रृवध होगा इस कारण महत्कर्म से विरत होना है अधर्म । परिवार का हित राष्ट्र के हित में, जगत् के हित में डुबा देना होता है; भ्रात्रृस्नेह, पारिवारिक प्रेम के मोह से कोटि-कोटि लोगों का सर्वनाश नहीं
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किया जा सकता, कोटि-कोटि मनुष्यों के भावी सुख या दुख:मोचन को विनष्ट नहीं किया जा सकता, उससे व्यक्ति और कुल को नरक की प्राप्ति होती है ।
कुरुक्षेत्र-युद्ध से कुलनाश हुआ था--यह बात भी सच है । इस युद्ध के फलस्वरूप महाप्रतापी कुरुवंश एक तरह से लुप्त हो गया । किंतु कुरुजाति के लोप होने से यदि समस्त भारत की रक्षा हुई है तो कुरुध्वंस से हानि नहीं, लाभ ही हुआ है । जैसे पारिवारिक प्रेम की माया होती है वैसे ही कुल की भी । देशभाई को हम कुछ नहीं कहेंगे, देशवासी का विरोध नहीं करेंगे, अनिष्ट करने पर भी, आततायी होने पर भी, देश का सर्वनाश करने पर भी वे हमारे भाई हैं, स्नेह के पात्र हैं, चुपचाप सह लेंगे-हमारे अंदर यह जो वैष्णवी-मायाप्रसूत अधर्म धर्म का स्वांग रच बहुतों की बुद्धि भ्रष्ट करता है वह इस कुल की माया के मोह से उत्पन्न होता है । बिना कारण या स्वार्थ के लिये, नितांत प्रयोजन या आवश्यकता के अभाव में देशभाई का विरोध और उससे कलह करना अधर्म है । किंतु जो देशभाई सबकी मां को जान से मार डालने के लिये या उसका अनिष्ट करने के लिये कटिबद्ध है उसका अत्याचार चुपचाप सहन कर उस मातृहत्या या अनिष्ठाचरण को प्रश्रय देना घोरतर पातक है । शिवाजी जब मुसलमानों के पृष्ठपोषक देशभाइयों का संहार करने गये तब यदि उनसे कोई कहता कि अहा ! क्या करते हो, ये देशभाई हैं, चुपचाप सहो, मुगल महाराष्ट्र-देश को अधिकृत करते हैं तो करें, मराठे-मराठे के बीच प्रेम बना रहना ही पर्याप्त है, तो क्या यह बात नितांत हास्यजनक न लगती ? दासप्रथा को उठाने के लिये जब अमेरिका में विरोध और गृहयुद्ध भड़का तब अमेरिकनों ने हजारों देशभाइयों का प्राणसंहार किया था तब क्या उन्होंने कोई कुकर्म किया था ? बहुत बार देशभाइयों का विरोध करना, देशभाइयों का युद्ध में वध करना राष्ट्र के हित और जगत् के हित का एकमात्र उपाय होता है । इससे यदि कुलनाश की आशंका हो तो भी राष्ट्र के हित और जगत् के हित-साधन से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता । यदि उस कुल की रक्षा करना राष्ट्र के हित के लिये आवश्यक हो तो निस्संदेह समस्या जटिल हो जाती है । महाभारत के युग में भारत में राष्ट्र प्रतिष्ठित नहीं हुआ था, सब कुल को ही मनुष्य-जाति का केंद्र मानते थे । इसीलिये भीष्म, द्रोण आदि ने, जो कि पुरातन विधा के आधार थे, पाण्डवों के विरुद्ध युद्ध किया था । उन्हें पता था कि धर्म पाण्डवों के पक्ष में है, वे जानते थे कि महत् साम्राज्य की स्थापना के लिये समस्त भारत को एक केंद्र में आबद्ध करने की आवश्यकता है । परंतु वे यह भी समझते थे कि कुल ही है कर्म का आघार और राष्ट्र का केंद्र, कुल का नाश होने पर धर्मरक्षा और राष्ट्रसंस्थापन करना असंभव होगा । अर्जुन भी उसी भ्रम में पड़े थे । इस युग में राष्ट्र ही है धर्म का आघार, मानव समाज का केंद्र । राष्ट्र-रक्षा है इस युग का प्रधान धर्म, राष्ट्र का नाश है इस युग का अमार्जनीय महापातक । परंतु ऐसा भी युग आ सकता है जब एक बृहत् मानवसमाज प्रतिष्ठित हो सकता है, हो सकता है कि उस समय जगत् के बड़े-बड़े ज्ञानी और कर्मी राष्ट्र को रक्षा के लिये युद्ध
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करें और दूसरे पक्ष में श्रीकृष्ण विप्लवी बन नया कुरुक्षेत्र-युद्ध संघटित कर जगत् का हित-साधन करें ।
श्रीकृष्ण की राजनीति का फल
पहले 'कृपा' के आवेश में अर्जुन ने कुलनाश की बात पर अधिक जोर दिया-था, क्योंकि ऐसे बृहत् सैन्य-समावेश को देख कुल की चिंता, राष्ट्र की चिंता स्वतः ही मन में उठती है । पहले कह चुके हैं कि कुल की हितचिंता तत्कालीन भारतवासियों के लिये स्वाभाविक थी, जैसे राष्ट्र की हितचिंता आधुनिक मनुष्यजाति के लिये स्वाभाविक है । किंतु क्या यह आशंका निर्मूल थी कि कुल का नाश होने से राष्ट्र का आधार नष्ट हो जायेगा ? बहुत-से लोग कहते हैं कि अर्जुन को जिस बात का भय था वास्तव मे वही हुआ, कुरुक्षेत्र-युद्ध भारत की अवनति और दीर्घकालव्यापी पराधीनता का मूल कारण है । तेजस्वी क्षत्रियवंश के लोप से, क्षात्र तेज के ह्रास से भारत का भारी अमंगल हुआ है । एक विख्यात विदेशी महिला, जिनके श्रीचरणों में बहुत-से हिन्दू आज शिष्य-भाव से नतसिर हैं, यह कहने में भी कुण्ठित नहीं होतीं कि क्षत्रियों का नाश कर ब्रिटिश सम्राज्य स्थापित करने का पथ सुगम बनाना ही था स्वंय भगवान् के अवतीर्ण होने का वास्तविक उद्देश्य । हमारा ख्याल है कि जो ऐसी असंबद्ध बातें कहते हैं वे इस विषय की गहराई में न जा अति नगण्य राजनीतिक तत्त्व के वशीभूत हो श्रीकृष्ण की राजनीति का दोष दिखाते हैं । यह राजनीतिक तत्त्व है म्लेच्छ-विधा, अनार्य चिंतन-प्रणाली-संभूत । अनार्यगण आसुरिक बल में बलीयान् होते हैं, उसी बल को स्वाधीनता और राष्ट्रीय महत्व का एकमात्र आधार मानते हैं ।
राष्ट्रीय महत्त्व केवल क्षात्र तेज पर ही प्रतिष्ठित नहीं हो सकता, चतुर्वर्ण का चुतर्विध तेज ही है उस महत्त्व का आघार । सात्त्विक ब्रम्हतेज राजसिक क्षात्रतेज को ज्ञान, विनय तथा परहित-चिंतन की मधुर संजीवनी सुधा से जीवित बनाये रखता है और क्षात्र तेज रक्षा करता है शांत ब्रम्हतेज की । क्षात्रतेज-रहित ब्रम्हतेज तमोभाव द्धारा आक्रांत हो शूद्रत्व के निकृष्ट गुणों को प्रश्रय देता है, इसीलिये जिस देश में क्षत्रिय नहीं होते उस देश में ब्राम्हण का रहना निषिद्ध है । यदि क्षत्रियवंश का लोप हो जाये तो नये क्षत्रियों की सृष्टि करना ब्राम्हण का प्रथम कर्तव्य है । ब्रम्हतेज-परित्यक्त क्षात्रतेज दुर्दान्त, उद्दाम आसुरिक बल में परिणत हो पहले परहित का विनाश करने की चेष्टा करता है फिर अंत में स्वयं विनष्ट हो जाता है । रोमन कवि ने ठीक ही कहा है, असुर अपने ही बलातिरेक से पतित हो समूल नष्ट हो जाते हैं । सत्त्व रजस् की सृष्टि करे, रज: सत्त्व की रक्षा करे, सत्त्विक कार्य में नियुक्त हो, तभी व्यक्ति की और राष्ट्र की रक्षा संभव है । सत्त्व यदि रजस् को ग्रस ले, रजस् यदि सत्त्व को ग्रस ले तो तमस्
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के प्रादुर्भाव से विजयी गुण स्वयं पराजित हो जाते हे, तमोगुण का राज्य फैल जाता है । ब्राम्हण कभी राजा नहीं हो सकता, क्षत्रिय का नाश होने पर शूद्र राजा होगा, ब्राह्मण तामसिक हो अर्थ के लोभ में ज्ञान को विकृत कर शूद्र का दास बन जायेगा, आध्यात्मिक भाव निश्चेष्टता का पोषण करेगा, स्वयं म्लान हो धर्म की अवनति का कारण बनेगा । निःक्षत्रिय शूद्रचालित राष्ट्र का दासत्व है अवश्यम्भावी । यही हुई है भारत की अवस्था । दूसरी ओर आसुरिक बल के प्रभाव से क्षणिक उत्तेजना में शक्ति का संचार तथा महत्त्व की प्राप्ति तो हो सकती है पर शीघ्र ही दुर्बलता और ग्लानि आ जाती है, शक्तिक्षय से देश अवसन्न हो जाता है अथवा राजसिक विलास, दम्भ और स्वार्थ की वृद्धि से राष्ट्र अनुपयुक्त हो अपनी महत्ता की रक्षा करने में असमर्थ हो जाता है या फिर अंतर्विरोध, दुर्नीति और अत्याचार से देश छार-खार हो शत्रु के लिये सहजलभ्य शिकार बन जाता है । भारत और यूरोप के इतिहास में इन सब परिणामों के अनेकों दृटांत मिलते हैं ।
महाभारत के युग में आसुरिक बल के भार से पृथ्वी डोल उठी थी । भारत में उतने तेजस्वी, पराक्रमशाली, प्रचण्ड क्षत्रिय तेज का विस्तार न तो उससे पहले कभी हुआ था न उसके बाद ही कभी हुआ, पर उस भीषण बल का सदुपयोग होने की संभावना बहुत ही कम थी । जो उस बल के धारणकर्ता थे वे सभी आसुरिक प्रकृतिवाले थे--अहंकार, दर्प, स्वार्थ और स्वेच्छाचार उनकी रग-रग में भरा था । यदि श्रीकृष्ण इस बल का नाश कर धर्मराज्य स्थापित न करते तो जिन तीन परिणामों का वर्णन किया है उनमें से एक-न-एक जरूर घटता । भारत असमय में ही म्लेच्छों के हाथ पड़ जाता । यहां स्मरण रखना चाहिये कि पांच हजार वर्ष पूर्व कुरुक्षेत्र-युद्ध हुआ था । ढाई हजार वर्ष बीतने के बाद म्लेच्छों का पहला सफल आक्रमण सिंध नदी के दूसरे पार तक पहुंच पाया था । अतएव अर्जुन द्धारा प्रतिष्ठित धर्मराज्य ने इतने दिनों तक ब्रम्हतेज-अनुप्राणित क्षात्रतेज के प्रभाव से देश की रक्षा की थी । उस समय भी संचित क्षात्रतेज देश में इतना था कि उसके भग्नांश ने ही और भी दो हजार वर्षों तक देश को बचाये रखा; चन्द्रगुप्त, पुष्यमित्र, समुद्रगुप्त, विक्रम, संग्रामसिंह, प्रताप, राजसिंह, प्रतापादित्य, शिवाजी इत्यादि महापुरुषों ने उसी क्षात्रतेज के बल से देश के दुर्भाग्य के साथ संग्राम किया । अभी, उसी दिन तो गुजरात के युद्ध में और लक्ष्मीबाई की चिता में उसका अंतिम स्फुलिंग निर्वापित हुआ है । उस दिन श्रीकृष्ण के राजनीति कार्य का सुफल और पुण्य क्षीण हो गया, भारत की, जगत् की रक्षा के लिये फिर से पूर्णावतार की आवश्यकता हुई । वह अवतार फिर से लुप्त ब्रम्हतेज को जगा गये, वही ब्रम्हतेज क्षात्रतेज की सृष्टि करेगा । श्रीकृष्ण ने भारत के क्षात्रतेज को कुरुक्षेत्र के रक्तसमुद्र द्धारा निर्वापित नहीं किया था, वरन् आसुरिक बल का विनाश कर ब्रम्हतेज और क्षात्रतेज दोनों की ही रक्षा की थी । उन्होंने आसुरिक बलदृप्त क्षत्रियवंश के संहार से उद्दाम रज:शक्ति को छिन्न-भिन्न कर दिया था--यह सत्य है । ऐसे महाविप्लव,
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अन्तर्विरोध को दारुण दु:खभोग द्धारा क्षीण कर निगृहीत करना, उद्दाम क्षत्रियकुल का संहार करना सर्वदा अनिष्टकर नहीं होता । अंतर्विरोध से रोमन क्षत्रियकुल का नाश होने से और राजतंत्र की स्थापना से रोम का विराट् साम्राज्य अकाल ही कालकवलित होने से बच गया था । इंग्लैंड में श्वेत और रक्त गुलाब-दल के अंतर्विरोध द्धारा क्षत्रिय कुल का नाश होने के कारण चौथे एडवर्ड, आठवें हेनरी और रानी एलिजाबेथ सुरक्षित, पराक्रमशाली, विश्व विजयी आधुनिक इंग्लैंड की नींव स्थापित कर सके थे । कुरुक्षेत्र युद्ध से भारत की भी उसी तरह रक्षा हुई ।
इसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता कि कलियुग में भारत की अवनति हुई है । किंतु अवनति ले आने के लिये भगवान् कभी अवतीर्ण नहीं होते । धर्मरक्षा, विश्वरक्षा, लोकरक्षा के लिये ही आते हैं अवतार । विशेषत: कलियुग में ही भगवान् पूर्ण रूप में अवतीर्ण होते हैं क्योंकि कलि में मनुष्य की अवनति का भय अधिक होता है, अधर्म की वृद्धि स्वाभाविक होती है, अतएव मानवजाति की रक्षा के लिये, अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना के लिये, कलि की गति को रोकने के लिये इस युग में बार-बार अवतार आते हैं । श्रीकृष्ण जब अवतीर्ण हुए थे तब कलि का राज्य आरंभ होने का समय हो गया था, उनके आविर्भाव से भयभीत हो कलि अपने राज्य में पदार्पण नहीं कर सके थे, उन्हीं के प्रसाद से परीक्षित ने कलि को पांच गांव देकर उसी के युग में उसके एकाधिपत्य को स्थगित कर रखा था । जिस कलियुग के आदि से अंत तक कलि के साथ मनुष्य का घोर संग्राम चल रहा है और चलता रहेगा, उस संग्राम के सहायक और नायक के रूप में भगवान् की विभूति और अवतार कलि में बार-बार आते हैं, उस संग्राम के उपयुक्त ब्रम्हतेज, ज्ञान, भक्ति, निष्काम-कर्म की शिक्षा देने तथा उनकी रक्षा करने के लिये कलि के आरंभ में भगवान् ने मानव शरीर धारण किया था । भारत की रक्षा है मानव-कल्याण का आधार और आशाओं का स्थल । भगवान् ने कुरुक्षेत्र में भारत को रक्षा की थी । उस रक्तसमुद्र में नवीन जगत् के लीलापद्म पर महाकाल विराट् पुरुष ने विहार करना आरंभ किया ।
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द्धितीय अध्याय
संञ्जय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपृर्णाकुलेक्षणम्
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदन: ||१||
अर्जुन की 'कृपा' के आवेश को, उसकी अश्रुपूर्ण आंखों और विषण्ण भाव को देख मधुसूदन ने उसे यह उत्तर दिया ।
श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् |
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्त्तिकरमर्जुन ||२||
भगवान् ने कहा-
हे अर्जुन ! इस संकट के समय यह अनार्यों द्धारा आदृत, स्वर्ग-पथ-रोधक और अकीर्तिकर मन की मलिनता कहां से आ गयी ?
क्लैव्यं मा स्म गम: पार्थ नैततत्वय्युपपधते |
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ||३||
हे पार्थ ! हे शत्रुदमन में समर्थ ! नपुंसकता का आश्रय मत लो, यह तुम्हारे लिये सर्वथा अनुपयुक्त है । मन की यह क्षुद्र दुर्बलता त्याग दो, उठो ।
श्रीकृष्ण का उत्तर
श्रीकृष्ण ने देखा कि 'कृपा' ने अर्जुन को अभिभूत कर लिया है, विषाद ने ग्रस लिया है । इस तामसिक भाव को दूर करने के लिये अंतर्यामी भगवान् ने अपने प्रिय सखा का क्षत्रियोचित तिरस्कार किया कि शायद इससे राजसिक भाव जागृत हो तामसिक भाव को दूर कर दे । उन्होंने कहा : देखो, यह है तुम्हारे पक्ष के लिये संकट का काल, इस समय यदि तुम हथियार रख दोगे तो उनके एकदम विपत्ति में पड़ जाने और नष्ट हो जाने की संभावना है । रणक्षेत्र में अपने पक्ष का त्याग करने की बात तुम्हारे जैसे श्रेष्ठ क्षत्रिय के मन में नहीं उठनी चाहिये, हठात् यह दुर्मति कहां से आ गयी ? तुम्हारा यह भाव है दुर्बलतापूर्ण और पापपूर्ण । ऐसे भाव की तो अनार्य प्रशंसा करते हैं, वे इसके वश में होते हैं, किंतु आर्य के लिये यह है अनुचित, इससे परलोक में स्वर्ग की प्राप्ति के मार्ग में बाधा पहुंचती है और इस लोक में यश और कीर्ति की हानि होती है । इसके बाद उन्होंने और भी मर्मभेदी शब्दों में तिरस्कार किया । यह भाव
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क्लीवोचित है, तुम वीरश्रेष्ठ हो, जेता हो, कुन्ती के पुत्र हो, तुम ऐसी बात कहते हो ? प्राण की यह दुर्बलता त्यागी, उठो, अपने कर्तव्य कर्म में लग जाओ ।
कृपा और दया
कृपा और दया हैं दो भिन्न भाव, यहां तक कि कृपा दया का विरोधी भाव भी हो सकता है । दया के वशीभूत हो हम जगत् का कल्याण करते हैं, मनुष्य का दुःख, राष्ट्र का दुःख, दूसरों का दु:खमोचन करते हैं । अगर हम अपना दुःख या किसी व्यक्ति-विशेष का दुःख न सह सकने के कारण उस कल्याण-कार्य से विमुख हो जायें तो हम में दया का नहीं कृपा का आवेश हुआ है । समस्त मानव-जाति या देश के दु:खमोचन के लिये जब हम तत्पर होते हैं तो वह है दया का भाव । रक्तपात के भय से, प्राणहिंसा के भय से जब हम पुण्य-कार्य से विमुख होते हैं, जगत् के, राष्ट्र के दुःख के चिरस्थायी होने में हां भरते हैं तो वह है कृपा का भाव । दूसरों के दुःख से दुःखी हो दु:खमोचन को जो प्रबल प्रवृत्ति है वह है दया । दूसरों के दुःख को चिंता से या दूसरों के दुःख को देख कातर होना है कृपा का भाव । कातरता दया नहीं, कृपा है । दया है बलवान् का धर्म और कृपा दुर्बल का । दया के आवेश से बुद्धदेव ने स्त्री-पुत्र, पिता-माता व बन्ध-बान्धवों को दुःखी और हृतसर्वस्व कर जगत् का दुःख दूर करने के लिये घर त्यागा था । तीव्र दया के आवेश से उन्मत्त काली ने संसार-भर के असुरों का संहार कर, पृथ्वी को रक्त से प्लावित कर किया था सबका दु:खमोचन । परंतु अर्जुन ने शस्त्र-परित्याग किया था कृपा के आवेश से ।
यह भाव है अनार्य द्वारा प्रशंसित, अनार्य द्वारा आचरित । आर्य-शिक्षा है उदार, वीरोचित, देवताओं की शिक्षा । अनार्य मोह में पड़, अनुदार भाव को धर्म मान उदार धर्म का परित्याग करते हैं । अनार्य राजसिक भाव से भावान्वित हो अपना, अपने प्रियजनों का, अपने परिवार या कुल का हित देखते हैं, विराट् कल्याण नहीं देखते, कृपावश घर्मविमुख हो, अपने को पुण्यवान् कह गर्व करते हैं, कठोर व्रती आर्यों को निष्ठुर और विधर्मी कहते हैं । अनार्य तामसिक मोह से मुग्ध हो अप्रवृत्ति को निवृत्ति कहते हैं, सकाम पुण्य-प्रियता को धर्मनीति के उच्चतम आसन पर बिठाते हैं । दया आर्यों का भाव है, कृपा अनार्यो का ।
पुरुष दयावश वीर की तरह दूसरों के अमंगल और दुःख का नाश करने के लिये अमंगल के साथ युद्ध करने में प्रवृत्त होते हैं । नारी दयावश दूसरे का दुःख हल्का करने भें, सेवा-शुश्रूषा और देख-भाल करने में एवं परहित चेष्टा में अपनी पूरी शक्ति और जी-जान से लग जाती है । जो कृपावश अस्त्र त्यागता है, धर्म से विमुख होता है, रोने बैठ जाता है और यह सोचता है कि मैं अपना कर्तव्य कर रहा हूं, मैं पुण्यवान हूं,
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वह है क्लीव । यह भाव क्षुद्र है, दुर्बलता है । विषाद कभी धर्म नहीं हो सकता । जो विषाद को आश्रय देता है वह पाप को आश्रय देता है | यह चित्त की मलिनता, यह अशुद्ध और दुर्बल भाव त्यागकर युद्ध की चेष्टा करना, कर्तव्य के पालन द्वारा जगत की रक्षा करना, धर्म की रक्षा करना, पृथ्वी के भार को हल्का करना ही है श्रेयस्कर । यही है श्रीकृष्ण की उक्ति का मर्म ।
कथं मीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन
इषुभि: प्रतियोत्स्यामि पूर्जार्हावरिसूदन ||४||
हे मधुसूदन ! हे शत्रुनाशक ! भीष्म और द्रोण का प्रतिरोध कर उन पूजनीय गुरुजनों के विरुद्ध युद्ध में मैं कैसे अस्त्र चलाऊंगा ?
गुरुनहत्वा हि महानुभावान्
श्रेयो भोक्तुं भैक्यममपीह लोके |
हत्वार्थकामांस्त गुरूनिहैव
भूञ्जीय भोगानरुधिरप्रदिग्धान् ||५||
इन उदारचेता गुरुजनों का वध न कर पृथ्वी पर भिखारी बनकर रहना ही अच्छा है । यदि मैं गुरुजनों का वध करूं तो धर्म और मोक्ष खो केवल अर्थ और काम का भोग करूंगा, वह भी रुधिर-सना विषय-भोग, पृथ्वी पर ही भोग्य, जो मरने तक ही रहता है ।
न चैतद्विद्म कतरन्नो गरीयो
युद्धा जयेम यदि वा नो जयेयु: |
यानेव हत्या न जिजीविषाम-
स्तेऽवस्थिता: प्रमुखे धार्तराष्ट्रा: ||६||
इसलिये हमारी जय या पराजय कौन-सी है अधिक प्रार्थनीय, हम समझ नहीं पा रहे । जिनका वध कर देने पर हम लोगों की जीने की कोई इच्छा नहीं रह जायेगी, वे ही विपक्षी सेना के अग्रभाग में उपस्थित हैं, धृतराष्ट्र के पुत्रों के सेनानायक हैं ।
कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव:
प्रच्छामि त्वां घर्मसंमूढचेता: |
यच्छेय: स्यान्निश्चितं ब्रुहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ||७||
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मेरा क्षत्रिय-स्वभाव दीनता-दोष से अभिभूत हो उठा है, धर्माधर्म के विषय में बुद्धि विमूढ़ हो गयी है, इसीलिये मैं तुमसे पूछता हूं कि किस में मेरा श्रेय है यह निश्चित रूप से बताओ । मैं तुम्हारा शिष्य हूं, तुम्हारी शरण आया हूं, मुझे शिक्षा दो ।
न हि प्रपश्यामि ममापनुधाद
यच्छोकमुच्छोषणन्द्रियाणाम् |
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं
राज्यं सराणामपि चाधिपत्यम् ||८||
क्योंकि पृथ्वी पर असपत्न राज्य और देवताओं पर आधिपत्य प्राप्त कर लेने पर भी यह शोक मेरी इन्द्रियों का तेज सोख लेगा, इस शोक को दूर करने का कोई उपाय मुझे नहीं दिखायी देता ।
शिक्षा के लिये अर्जुन की प्रार्थना
अर्जुन ने श्रीकृष्ण को उक्ति का उद्देश्य समझा, अब और राजनीतिक आपत्ति नहीं उठायी; परंतु दूसरी आपत्तियों का कोई उत्तर न पा शिक्षा प्राप्त करने के लिये श्रीकृष्ण की शरण में आये । उन्होंने कहा : ''स्वीकार करता हूं कि मैं क्षत्रिय हूं, कृपा के वशीभूत हो महान् कार्य से विमुख होना मेरी अपकीर्तिजनक और धर्मविरुद्ध नपुंसकता का ही सूचक है । परंतु मन भी नहीं मानता, प्राण भी नहीं मानता । मन कहता है : गुरुजनों की हत्या महापाप है, अपने सुख के लिये गुरुजनों को मारने से अधर्म का भागी बनूंगा, मेरा धर्म, मोक्ष, परलोक, जो कुछ वांछनीय है सब कुछ जाता रहेगा । कामनाएं तृप्त होगी, अर्थलिप्ता तृप्त होगी पर कबतक के लिये ? अधर्म द्वारा प्राप्त भोग मृत्यु तक ही टिकता है, उसके बाद होती है अकथनीय दुर्गति । और जब भोग करूंगा तब उस भोग में गुरुजनों के रक्त का स्वाद मिलने पर क्या सुख या शांति मिलेगी ? प्राण कहता है : ये हैं मेरे प्रियजन, इनकी हत्या करने से इस जन्म में फिर न कोई सुख भोग सकूंगा न जीवित ही रहना चाहूंगा । तुम चाहे मुझे समस्त पृथ्वी के साम्राज्य का भोग करने दो या स्वर्ग जीत कर इन्द्र का ऐश्वर्य , मैं नहीं मानूंगा । जो शोक मुझे अभिभूत करेगा उसके द्वारा सभी कमेंन्द्रियां और ज्ञानेन्दियां अभिभूत और अवसन्न हो अपना-अपना कार्य करने में शिथिल और असमर्थ हो जायेंगी, तब तुम क्या सुख भोगोगे ? मेरे चंचल चित्त में दीनता आ गयी है, महान् क्षत्रिय-स्वभाव उस दीनता में डूब गया है । मैं तुम्हारी शरण में आया हूं । मुझे ज्ञान, शक्ति और श्रद्धा दो, श्रेयस्कर पथ दिखा मेरी रक्षा करो ।''
संपूर्णता: भगवान् की शरण लेना है गीतोक्त योगमार्ग का पथ । इसे कहते हैं
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आत्म-समर्पण या आत्म-निवेदन । जो भगवान् को गुरु, प्रभु, सखा, पथ-प्रदर्शक मान अन्य सब धर्मों को तिलांजलि देने के लिये तैयार हैं, पाप-पुण्य, कर्तव्य-अकर्तव्य, धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य, मंगल-अमंगल का विचार न कर अपने ज्ञान, कर्म और साधना का सारा भार श्रीकृष्ण के हाथों में सौंप देते हैं, वही हैं गीतोक्त योग के अधिकारी । अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा, ''यदि तुम गुरुहत्या करने के लिये कहो तो मुझे समझा दो कि यह है धर्म और कर्तव्य कर्म, मैं वही करूंगा । '' इसी गभीर श्रद्धा के बल पर अर्जुन समकालीन सभी महापुरुषों को अतिक्रम कर गीता की शिक्षा के श्रेष्ठ पात्र के रूप में चुने गये थे ।
उत्तर देते हुए पहले श्रीकृष्ण ने अर्जुन की दो आपत्तियों का खण्डन किया और फिर गुरु का भार ग्रहण कर उन्हें असली ज्ञान देना आरंभ किया । ३८वें श्लोक तक आपत्तियों का खण्डन है, उसके बाद आरंभ होती है गीता की शिक्षा । किंतु इन आपत्तियों के खण्डन में कई अमूल्य शिक्षाएं मिलती हैं जिन्हें समझे बिना गीता की शिक्षा हृदयंगम नहीं होती । इन कतिपय बातों की विस्तृत आलोचना की आवश्यकता है ।
एवमुक्त्वा हृषीकेश गुडाकेश: परन्तप: |
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्यीं बभूव ह ||९||
परन्तप गुडाकेश हृषीकेश को ऐसा कहकर फिर उन गोविन्द से बोले, ''मैं युद्ध नहीं करूंगा'' और चुप हो गये ।
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत |
सेनयोरुंमयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वच: ||१०||
श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच अवस्थित विषण्ण अर्जुन को मुस्कुराते हुए यह उत्तर दिया ।
अशोच्यनन्वशीचस्तवं प्रज्ञावादांश्र्च भाषसे |
गतासूनगतासूंस्च नानुशोचन्ति पाण्डिता: ||११||
श्रीभगवान् ने कहा --
जिनके लिये शोक करने का कोई कारण नहीं उनके लिये तुम शोक करते हो, और ज्ञानी की तरह तात्त्विक विषयों पर वाद-विवाद करने की चेष्टा करते हो, किंतु
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तत्त्व-ज्ञानी मृत या जीवित किसी के लिये भी शोक नहीं करते ।
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिप: |
न चैव न मविष्याम: सर्वे वयमत: परम् ||१२||
ऐसा भी नहीं है कि मैं पहले नहीं था या तुम नहीं थे या ये नृपतिवृन्द नहीं थे, यह भी नहीं कि हम सब देहत्याग करने के बाद फिर नहीं रहेंगे ।
देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा |
तथा देहान्तरप्राप्तिर्घीरस्तत्र न मुह्यति ||१३||
जैसे इस जीव-अधिष्ठित शरीर में बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था काल की गति से आती हैं वैसे ही दूसरी देहप्राप्ति भी काल की गति से होती है, इससे स्थिरबुद्धि ज्ञानी पुरुष विमूढ़ नहीं होते ।
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्यसुखदु:खदा |
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ||१४||
मृत्यु कुछ भी नहीं, जिस विषय-स्पर्श से शीत, उष्ण, सुख, दुःख आदि संस्कार उत्पन्न होते हैं वे स्पर्श अनित्य हैं, आते-जाते हैं, अविचलित रह उन सबको ग्रहण करने का अभ्यास करो ।
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ |
समदु:खसुखं धिरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ||१५||
जो स्थिरबुद्धि पुरुष इन स्पर्शों को भोगकर भी व्यथित नहीं होते, इनके द्वारा सृष्ट सुख-दुःख को समभाव से ग्रहण करते हैं, वही होते हैं मृत्यु को जीतने में समर्थ ।
नासतो विधते भावो नाभावो विधते सत: |
उमयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभि: ||१६||
जो असत् है उसका अस्तित्व नहीं होता, जो सत् है उसका विनाश नहीं होता, फिर भी सत् और असत् दोनों का अंत होता है, तत्त्व-दर्शियों ने इसका दर्शन किया है ।
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् |
विनाशमव्ययस्यास्य न कसरत कश्र्चित् कर्त्तुमर्हति ||१७||
परंतु जिसने इन समस्त दृश्य जगत् का अपने अंदर विस्तार किया है उस आत्मा का क्षय नहीं होता, कोई उसका ध्वंस नहीं कर सकता ।
२८४
अन्तवन्त ड़मे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण: |
अनाशिनोऽप्रमेयस्व तस्माधुध्यस्व भारत ||१८||
नित्य देहाश्रित आत्मा के इन सब शरीरों का अंत है, आत्मा असीम और अनश्वर है, इसलिये हे भारत, युद्ध करो ।
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् |
उमौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ||१९||
जो आत्मा को हन्ता कहते हैं और जो देह के नाश पर आत्मा को निहत हुआ समझते हैं वे दोनों ही भ्रांत हैं, अज्ञ हैं, यह आत्मा हत्या भी नहीं करता और हत भी नहीं होता ।
न जायते भ्रियते वा कदाचित्
नायं भूत्वा भविता वा न भूय: |
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ||२०||
इस आत्मा का जन्म नहीं, मृत्यु नहीं, इसका न कभी उद्भव हुआ और न कभी लोप होगा । यह जन्मरहित है, नित्य है, सनातन है, पुरातन है, देह के नाश होने पर हत नहीं होता ।
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् |
कथं स: पुरुष: पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ||२१||
जो इसे नित्य, अनश्वर और अक्षय जानते हैं, वह कैसे किसी की हत्या करते या कराते हैं ?
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गुह्यानति नरोऽपराणि |
तथा शरीराणि विहाय जीर्ण-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ||२२||
जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्र उतार नया वस्त्र पहनता है वैसे ही जीव जीर्ण देह छोड़ नयी देह का आश्रय लेता है ।
नैनं छन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: |
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत . ||२३||
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शस्त्र इसे छेद नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, जला भिगो नहीं सकता वायु सुखा नहीं सकती
उच्छेधोऽयमदाह्योऽमक्लेधोऽशोष्य एव च |
नित्य: सर्वगत: स्थाणुरचलोऽयं सनातन: ||२४||
आत्मा है अच्छेध, अदाह्य, अक्लेध, अशोष्य, नित्य, सर्वव्यापी, स्थिर, अचल और सनातन ।
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते |
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमहॅसि ||२५||
आत्मा है अव्यक्त, अचिंत्य और विकाररहित, आत्मा को इस रूप में जान शोक करना छोड़ दो |
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मनस्ये मृतम् |
तथापि त्वं महाबाहो नैनं शोचितुमहॅसि ||२६||
ओर यदि तुम यह मानते हो कि जीव बार-बार जनमता ओर मरता है, तब भी उसके लिये शोक करना उचित नहिं |
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुर्वं जन्म मृतस्य च |
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ||२७||
जिसका जन्म होता है, उसकी निश्चय ही मृत्यु होती है, उसका निश्चय ही जन्म होता है, अतएव जब मृत्यु अपरिहार्य परिणाम है तो उसके लिये शोक करना है अनुचित |
अव्यक्तादीन भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत |
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ||२८||
सभी प्राणी प्ररंम्भ में अव्यक्त होते है मध्य में व्यक्त होते है और फिर अन्त में अव्यक्त होते हैं, इस स्वाभाविक क्रम में शोक करने का कोई कारण ही नहीं |
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यद्वदति तथैव चान्यः |
आश्चर्यवच्चैयनमन्य: शृणोति श्रुत्वाऽप्येनं वेद न चैव कश्चित् ||२९||
आत्मा को कोई एक आश्चर्य के रूप मे देखता है, कोई आश्चर्य कहकर उसके विषय में बोलता है, कोई एक आश्चर्य समझकर इसके बारे में सुनता है, किन्तु सुन कर भी कोई आत्मा को नहिं जान पाता |
२८६
देहि नित्यमवध्योडयं देहे सर्वस्य भारत |
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ||३०||
आत्मा सदा सब की देह में अवध्य होकर रहता है, अतएव सब प्राणियों के लिये शोक करना कभी उचित नहीं ।
मृत्यु की असत्यता
अर्जुन की बात सुन श्रीकृष्ण के आनन पर हंसी की झलक दिखायीं दी, वह हंसी परिहासमय होते हुए भी प्रसन्नतापूर्ण थी-अर्जुन के भ्रम में मानवजाति के प्राचीन भ्रम को पहचान अंतर्यामी हंसे । वह भ्रम श्रीकृष्ण की माया से ही उत्पन्न हुआ है, जगत् में अशुभ, दुःख या दुर्बलता का भोग और संयम द्वारा क्षय करने के लिये ही उन्होंने मनुष्य को इस माया के वशीभूत किया है । प्राण की ममता, मरने का भय, सुख-दुःख की अधीनता और प्रिय-अप्रिय का बोध आदि अज्ञान अर्जुन की बातों से साफ झलकता था, इसी अज्ञान को मनुष्य की वृद्धि से दूर कर जगत् को अशुभ से मुक्त करना आवश्यक था, इसी शुभ कार्य के अनुकूल अवस्था प्रस्तुत करने के लिये श्रीकृष्ण आये थे, गीता को प्रकट करने जा रहे थे । परंतु पहले, अर्जुन के मन में जो भ्रम उत्पन्न हुआ था उसका भोग द्वारा क्षय करना आवश्यक था । अर्जुन श्रीकृष्ण के सखा थे, मानवजाति के प्रतिनिधि थे, उन्हीं को गीता सुनानी थी, वही थे श्रेष्ठ पात्र; किन्तु मानवजाति अभीतक गीता का अर्थ ग्रहण करने के योग्य नहीं हुई है, अर्जुन भी संपूर्ण अर्थ ग्रहण नहीं कर सके । जो शोक, दुःख और कातरता उनके मन में उठी थी उसे कलियुग के आरंभ से ही मानवजाति पूर्ण मात्रा में भोगती आ रही है, ईसाई धर्म प्रेम से, बौद्ध धर्म दया से और इस्लाम धर्म शक्ति से इस दुःख के भार को हल्का करने के लिये आये हैं । आज कलियुगांतर्गत सत्ययुग का प्रथम खण्ड आरंभ होगा, भगवान् फिर से भारत को, कुरुजाति के वंशधरों को गीता प्रदान कर रहे हैं, यदि इसे ग्रहण करने में, धारण करने में समर्थ हों तो इससे भारत का, जगत् का मंगल सुनिश्चित फल है ।
श्रीकृष्ण ने कहा : अर्जुन ! तुम पण्डितों की तरह पाप-पुण्य का विचार कर रहे हो, जीवन और मरण के तत्त्व की चर्चा कर रहे हो, किस बात से राष्ट्र का कल्याण या अकल्याण होता है इसको प्रतिपादित करने की चेष्टा कर रहे हो, किन्तु वास्तविक ज्ञान का परिचय तुम्हारी बातों से नहीं मिलता, बल्कि तुम्हारी प्रत्येक बात है घोर अज्ञानपूर्ण । साफ-साफ कहो कि मेरा हृदय दुर्बल है, शोक से कात है, बुद्धि कर्तव्य--विमुख हो गयी है; ज्ञानी की भाषा में अज्ञानी की तरह तर्क कर अपनी दुर्बलता का समर्थन करने का कोई प्रयोजन नहीं । शोक मनुष्य-मात्र के हृदय में उत्पन्न होता है,
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मनुष्य-मात्र के लिये ही मरण और विच्छेद है अत्यंत भयंकर, जीवन अत्यंत मूल्यवान् शोक असह्य और कर्तव्य एक कठोर वस्तु होता है, स्वार्थसिद्धि को मधुर जानकर हर्षित होता है, दुःखित होता है, हंसता है, रोता है, किंतु इन सब वृत्तियों को कोई ज्ञानप्रसूत नहीं कहता । जिनके लिये शोक करना अनुचित है उनके लिये तुम शोक कर रहे हो । ज्ञानी किसी के लिये भी शोक नहीं करते--न मृत व्यक्ति के लिये, न जीवित के लिये । वे तो यह जानते हैं कि न मृत्यु है, न विच्छेद और न दुःख, हम अमर हैं, हम सदा एक हैं, हम आनंद की संतान हैं, अमृत की संतान हैं, इस पृथ्वी पर जीवन--मरण के साथ, सुख-दुःख के साथ आंख-मिचौली खेलने आये हैं--प्रकृति के विशाल रंगमंच पर रोने-हंसने का अभिनय करते हैं, शत्रु-मित्र बन युद्ध और शांति, प्रेम और कलह का रसास्वादन करते हैं । यह जो हम थोड़े समय तक बचे रहते हैं, कल-परसों देह त्याग कहां चले जायेंगे पता नहीं, यह है हमारी अनंत क्रीड़ा का एक मुहूर्त-मात्र, क्षणिक खेल, कुछ ही क्षणों का भाव । हम थे, हम हैं, हम रहेंगे--सनातन नित्य, अनश्वर -हम हैं प्रकृति के ईश्वर, जीवन-मरण के कर्ता, भगवान् के अंश, भूत, वर्तमान और भविष्य के स्वामी । जैसे शरीर की बाल्य, युवा और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही देहान्तरप्राप्ति भी-मरण केवल एक नाम है, हम नाम सुनकर डरते हैं, दुःखी होते हैं, यदि ठीक-ठीक समझते तो न डरते, न दुःखी ही होते । यदि हम बालक की यौवनप्राप्ति को मरण समझें और रोते हुए यह कहें कि हाय ! हमारा वह प्रिय बालक कहां चला गया, यह युवा पुरुष तो वह बालक नहीं, हमारा वह सोने का चांद किधर गया, तो हमारे इस व्यवहार को सभी हास्यास्पद और घोर अज्ञानप्रसूत ही कहेंगे; क्योंकि यह अवस्थांतर-प्राप्ति प्रकृति का नियम है, बालक-शरीर में और युवक-शरीर में एक ही पुरुष बाह्य परिवर्तन से अतीत स्थिरतापूर्वक विराजमान हैं । ज्ञानी साधारण मनुष्य में मृत्यु का भय और मृत्यु का दुःख देख उसके इस व्यवहार को ठीक उसी तरह हास्यास्पद और घोर अज्ञानजनित मानता है, क्योंकि देहान्तर-प्राप्ति प्रकृति का नियम है, स्थूल देह और सूक्ष्म देह में एक ही पुरुष बाह्य परिवर्तन से अतीत स्थिरतापूर्वक विराजमान हैं । अमृत की संतान हैं हम, कौन मरता-मारता है ? मृत्यु हमारा स्पर्श नहीं कर सकती-मृत्यु एक निरर्थक शब्द है, मृत्यु भ्रम है, मृत्यु नाम की कोई चीज नहीं ।
मात्रा
पुरुष अचल है और प्रकृति सचल । सचल प्रकृति में अचल पुरुष अवस्थित है । प्रकृतिस्थ पुरुष पंचेन्दिय द्धारा जो कुछ देखता, सुनता, सूंघता, स्वाद लेता और स्पर्श करता है उसी का भोग करने के लिये वह प्रकृति की सहायता लेता है । हम रूप
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देखते हैं, शब्द सुनते हैं, गंध सूंघते हैं, रस का स्वाद लेते हैं, स्पर्श का अनुभव करते हैं । शब्द स्पर्श, रूप, रस और गन्ध ये पांच तन्मात्राएं ही हैं इंद्रिय-भोग के विषय । छठी इन्द्रिय है मन का विशेष विषय संस्कार । बुद्धि का विषय है चिंतन । पंच तन्मात्राओं और संस्कार एवं चिंतन का अनुभव और भोग करने के लिये है पुरुष--प्रकृति का पारस्परिक संभोग और अनंत क्रीड़ा । यह भोग है दो प्रकार का, शुद्ध और अशुद्ध । शुद्ध भोग में सूख-दुःख नहीं होता, पुरुष का चिरन्तन स्वभावसिद्ध धर्म आनंद ही है । अशुद्ध भोग में सुख-दुःख होता है, सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, हर्ष-शोक इत्यादि द्धंद्ध अशुभ भोग-भोगियों को विचलित और विक्षुब्ध करते हैं । कामना है अशुद्धता का कारण । कामी-मात्र ही हैं अशुद्ध जो निष्काम है वह है शुद्ध । कामना से राग और द्वेष पैदा होते हैं, राग-द्वेष के वश में हो पुरुष विषयों में आसक्त होता है और आसक्ति का फल है बन्धन । पुरुष विचलित और विक्षुब्ध, यहांतक कि व्यथित और यन्त्रणा से पीड़ित होने पर भी आसक्ति का अभ्यस्त हो जाने के कारण अपने क्षोभ, व्यथा या यन्त्रणा के कारण का परित्याग करने में असमर्थ होता है ।
समभाव
श्रीकृष्ण ने पहले आत्मा की नित्यता का उल्लेख किया और फिर अज्ञान के बंधन को ढीला करने का उपाय बताया । मात्रा अर्थात् विषय के नाना स्पर्श हैं सुख-दुःख आदि द्धंद्ध के कारण । ये सब स्पर्श हैं अनित्य, इनका आरंभ भी है और अंत भी । इन्हें अनित्य जान आसक्ति त्यागनी चाहिये । अनित्य वस्तु में जब हम आसक्त होते हैं तब उस वस्तु के आगमन से खुश होते और उसका नाश या अभाव होने पर दुःखित और व्यथित होते हैं । इस अवस्था को अज्ञान कहते हैं । अज्ञान द्वारा अनश्वर आत्मा का सनातन भाव और यथार्थ आनंद आच्छादित हो जाता है, केवल क्षणभंगुर भाव और वस्तु में ही मत्त हुए रहते हैं, उसका नाश होने पर मारे दुःख के शोकसागर में डूब जाते हैं । इस प्रकार अभिभूत न हो जो विषयों के स्पर्श को सह सकता है, अर्थात् जो द्धंद्धों की प्राप्ति होने पर भी सुख-दुःख में, सर्दी-गर्मी में, प्रिय-अप्रिय में, मंगल-अमंगल में, सिद्धि-असिद्धि में हर्ष और शोक का अनुभव न कर उनको समान भाव से, प्रफ्फुलित चित्त से, हंसते हुए ग्रहण कर सकता है वह पुरुष राम-द्वेष से मुक्त हो जाता है, अज्ञान के बन्धनों को काट सनातन भाव और आनंद को उपलब्ध करने में समर्थ होता है- अमृतत्वाय कल्पते ।
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समता की विशेषता
यह समता है गीता की पहली शिक्षा । समता ही है गीतोक्त साधना का आघार । यूनान के स्टोइक (Stoic) संप्रदाय ने भारत से इसी समता की शिक्षा प्राप्त कर यूरोप में समतावाद का प्रचार किया था । यूनानी दार्शनिक एपिक्यूरस ने श्रीकृष्ण द्वारा प्रचारित शिक्षा का एक और पक्ष लेकर शांत भोग की शिक्षा, (Epicureanism) या भोगवाद का प्रचार किया था । ये दो मत, समतावाद और भोगवाद प्राचीन यूरोप में श्रेष्ठ नैतिक मत माने जाते थे और आधुनिक यूरोप में भी नया आकार धारण कर उन्होंने Puritanism (पवित्रतावाद) और Paganism (मूर्तिपूजावाद) के चिर द्वंद्व की सृष्टि की है । परंतु गीतोक्त साधना में समतावाद और शांत या शुद्ध भोग एक ही बात है । समता कारण है और शुद्ध भोग कार्य । समता से आसक्ति नष्ट होती है, राग-द्वेष प्रशमित होता है और आसक्ति का नाश तथा रागद्वेष का प्रशमन होने से शुद्धता उत्पन्न होती है । शुद्ध पुरुष का भोग कामना और आसक्ति रहित होता है, अतएव शुद्ध होता है । इसी कारण समता की यह विशेषता है कि समता के साथ आसक्ति और रागद्वेष एक ही आधार में साथ-साथ नहीं रह सकते । समता ही है शुद्धि का बीज ।
दुःख पर विजय
यूनानी स्टोइक सम्प्रदाय ने यह भूल की कि वे दुःख-विजय का यथार्थ उपाय न समझ सके । उन्होंने दुःख को निग्रह द्वारा दबा, पददलित कर जीतने की चेष्टा की । किंतु गीता में अन्यत्र कहा गया है : प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रह: कि करिष्यति । भूत-मात्र अपनी-अपनी प्रकृति का अनुसरण करते हैं, निग्रह करने से क्या होगा ? दुःख के निग्रह से मनुष्य का ह्रदय शुष्क, कठोर और प्रेमशून्य हो जाता है । दुःख में आंसू नहीं बहाऊंगा, यंत्रणा-बोध को नहीं स्वीकारूंगा, 'यह कुछ नहीं है' कह चुपचाप सहन कर लुंगा, स्त्री का दुःख, संतान का दुःख, बंधु का दुःख, देश का दुःख अविचलित चित्त से देखूंगा-इस प्रकार का भाव है बलगर्वित असुर का तपस्या-भाव; इसका भी महत्त्व है, मनुष्य को उन्नति के लिये इसकी भी आवश्यकता है, किंतु यह दुःख पर जय पाने का वास्तविक उपाय नहीं, अंतिम या चरम शिक्षा नहीं । दुःख-जय का वास्तविक उपाय है ज्ञान, शांति और समता । शांत भाव से सुख-दुःख को ग्रहण करना ही है वास्तविक पथ । प्राण में होनेवाले सुख-दुःख के संचार को रोकना नहीं चाहिये, बल्कि बुद्धि को अविचलित रखना चाहिये । समता का स्थान बुद्धि है, चित्त और प्राण नहीं । बुद्धि सम होने पर चित्त और प्राण अपने-आप सम हो जाते हैं और प्रेम आदि प्रकृतिजात प्रवृत्तियां भी नहीं सूखतीं, मनुष्य पत्थर नहीं हो जाता, जड़ और निर्जीव
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'नहीं बन जाता । प्रकृतिं यान्ति भूतानि-प्रेभ इत्यादि प्रवृत्तियां हैं प्रकृति को चिरंतन प्रवृत्तियां, उनके हाथ से परित्राण पाने का एकमात्र उपाय है परब्रहम में विलीन हो जाना । प्रकृति में रहते हुए प्रकृति का त्याग करना है असंभव । यदि हम कोमलता का परित्याग करें तो कठोरता हृदय को अभिभूत कर लेगी--यदि बाहर दुःख के स्पन्दन को पास न आने दें तो दुःख भीतर जमा रहेगा और अलक्षित रूप से प्राण को सुखा देगा । इस प्रकार की कृच्छ साधना से उन्नति की कोई संभावना नहीं । ऐसी तपस्या से शक्ति तो प्राप्त होगी पर इस जन्म में जिस चीज को दबा कर रखेंगे दूसरे जन्म में वह सभी अवरोधों को तोड़-फोड़ दुगने वेग के साथ उमड़ आयेगी ।
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