All writings in Bengali and Sanskrit including brief works written for the newspaper 'Dharma' and 'Karakahini' - reminiscences of detention in Alipore Jail.
All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)
धर्म और राष्ट्रीयता
धर्म :
हमारा धर्म
सनातन धर्म में अनेक गौण धर्म निहित हैं; सनातन का अवलम्बन कर परिवर्तन- शील महान् और क्षुद्र नानाविध धर्म अपने-अपने कर्म में प्रवृत्त होने हैं । सब तरह के धर्म-कर्म हैं स्वभावसृष्ट । सनातन धर्म जगत् के सनातन स्वभाव पर आश्रित है और ये नाना धर्म हैं नानाविध आधारगत स्वभाव के फल । व्यक्तिगत धर्म, राष्ट्रधर्म, वर्णाश्रित धर्म, युगधर्म इत्यादि हैं नाना धर्म । ये अनित्य हैं इसलिये उपेक्षणीय वा वर्जनीय नहीं, बल्कि इन्हीं अनित्य परिवर्तनशील धर्मों द्धारा सनतान धर्म विकसित और अनुष्ठित होता है । व्यक्तिगत धर्म, राष्ट्रधर्म, वर्णाश्रित धर्म, युगधर्म परित्याग करने से सनातन धर्म की पुष्टि न हो अधर्म की ही वृद्धि होती हे और गीता में जिसे संकर कहा गया है अर्थात् सनातन प्रणाली का भंग और क्रमोन्नति की विपरीत गति वसुंधरा को पाप और अत्याचार से दग्ध करती हैं । जब उस पाप और अत्याचार की अतिरिक्त मात्रा से मनुष्य की उन्नति की विरोधिनी धर्मदलनी आसुरी शक्तियां स्फीत और बलशाली हो स्वार्थ, क्रूरता और अहंकार से दसों दिशाओं को आच्छन्न करती हैं, जब जगत् में अनीश्वर ईश्वर का रूप ग्रहण करना आरंभ करता है, तब भारार्त्त पृथिवी का दुःख कम करने के लिये भगवान् के अवतार या विभूतियां मानव शरीर में प्रकट हो पुन: धर्मपथ को निष्कंटक बनाती हैं ।
सनातन धर्म का ठीक-ठीक पालन करने के लिये व्यक्तिगत धर्म, राष्ट्रधर्म, वर्णाश्रित धर्म और युगधर्म का आचरण सर्वदा रक्षणीय है । परंतु इन नानाविध धर्मो में क्षुद्र और महान् दो रूप हैं । महान् धर्म के साथ क्षुद्र धर्म को मिला और संशोधित कर उसका अनुष्ठान करना है श्रेयस्कर । व्यक्तिगत धर्म को राष्ट्रधर्म के अंकाश्रित कर
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आचरण करने से राष्ट्र नष्ट हो जाता है और राष्ट्रधर्म लुप्त होने से व्यक्तिगत धर्म का क्षेत्र और सुयोग नष्ट होता है । यह भी है धर्मसंकर--जिस धर्मसंकर के प्रभाव से राष्ट्र और संकरकारी दोनों ही अतल नरक में निमग्न होते हैं । पहले राष्ट्र की रक्षा करनी चाहिये, तभी व्यक्ति की आध्यात्मिक, नैतिक और आर्थिक उन्नति निरापद बनायी जा सकती है । वर्णाश्रित धर्म को भी युगधर्म के सांचे में ढालकर न गढ़ पाने से, महान् युगधर्म की प्रतिकूल गति से वर्णाश्रित धर्म के चूर्ण और विनष्ट होने पर समाज भी चूर्ण और विनष्ट होता है । क्षुद्र सदा ही महान् का अंश या सहायक है; इस संबंध की विपरीत अवस्था में धर्मसंकर-संभूत घोर अनिष्ट घटता है । क्षुद्र धर्म और महान् धर्म के बीच विरोध होने पर क्षुद्र धर्म परित्याग कर महान् धर्म का अनुष्ठान है मंगलप्रद ।
हमारा उद्देश्य है सनातन धर्म का प्रचार और सनातन धर्माश्रित राष्ट्रधर्म और युगधर्म का अनुष्ठान । हम भारतवासी हैं आर्यजाति के वंशधर, आर्यशिक्षा और आर्यनीति के अधिकारी । यह आर्यभाव ही है हमारा कुलधर्म और राष्ट्रधर्म । ज्ञान, भक्ति और निष्काम कर्म हैं आर्यशिक्षा के मूल; ज्ञान, उदारता, प्रेम, साहस, शक्ति, विनय हैं आर्यचरित के लक्षण । मानव-जाति को ज्ञान देना, जगत् में उन्नत उदार चरित्र का निष्कलंक आदर्श रखना, दुर्बल की रक्षा करना, प्रबल अत्याचारी को दण्ड देना है आर्यजाति के जीवन का उद्देश्य, उसी उद्देश्य की सिद्धि में है उसके धर्म की चरितार्थता । हम धर्मभ्रष्ट, लक्ष्यभ्रष्ट, धर्मसंकर होकर और भ्रांतिसंकुल तामसिक मोह में पड़कर आर्यशिक्षा और आर्यनीति को खो बैठे हैं । हम आर्य होकर भी शूद्रत्व और शूद्रधर्मरूप दासत्व को अंगीकार कर जगत् में हेय, प्रबल-पददलित और दुःख-परंपरा- प्रपीड़ित हैं । अतएव यदि हमें जीवित रहना है, यदि अनंत नरक से मुक्त होने की लेशमात्र भी अभिलाषा है तो राष्ट्र की रक्षा है हमारा प्रथम कर्तव्य । और राष्ट्र की रक्षा का उपाय है आर्यचरित का पुनर्गठन । समस्त राष्ट्र को, विशेषकर युवकों को, ऐसी उपयुक्त शिक्षा, उच्च आदर्श और आर्यभाव-उद्दीपक कर्म-प्रणाली देना है हमारा प्रथम उद्देश्य जिससे जननी जन्मभूमि की भावी संतान ज्ञानी, सत्यनिष्ठ, मानवप्रेमी, भ्रातृभाव-युक्त, साहसी, शक्तिमान् और विनीत बने । इस कार्य में सफल न होने तक सनातन धर्म का प्रचार है ऊसर क्षेत्र में बीज-वपनमात्र ।
राष्ट्रधर्म के अनुष्ठान से धर्मयुग की सेवा सहजसाध्य हो जायेगी । यह युग है शक्ति और प्रेम का युग । जब कलि का आरंभ होता है तब ज्ञान और कर्म भक्ति के अधीन और सहायक हो अपनी-अपनी प्रवृत्ति चरितार्थ करते हैं, सत्य और शक्ति प्रेम का आश्रय ले मानवजाति में प्रेम का विकास करने के लिये सचेष्ट होते हैं । बौद्धधर्म की मैत्री और दया, ईसाईधर्म की प्रेम-शिक्षा, मुसलमानधर्म का साम्य और भ्रातृभाव, पौराणिक धर्म की भक्ति और प्रेमभाव हैं इसी चेष्टा के फल । कलियुग में सनातन धर्म मैत्री, कर्म, भक्ति, प्रेम, साम्य और भ्रातृभाव की सहायता ले मनुष्यजाति का कल्याण साधित करता है । ज्ञान, भक्ति और निष्काम कर्म से गठित आर्यधर्म में ये सारी
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शक्तियां प्रविष्ट और विकसित हो प्रसारित होने और अपनी प्रवृत्ति को चरितार्थ करने का मार्ग खोज रही हैं । शक्ति-स्फुरण के लक्षण हैं कठिन तपस्या, उच्चाकांक्षा और महत्कर्म । जब यह राष्ट्र तपस्वी, उच्चाकांक्षी, महत्कर्मप्रयासी होगा, तब समझना होगा कि जगत् की उन्नति के दिन आरंभ हो गये हैं, धर्मविरोधिनी आसुरिक शक्तियों का ह्रास और देवशक्तियों का पुनरुत्थान अवश्यंभावी है । अतएव इस प्रकार की शिक्षा भी वर्तमान समय के लिये आवश्यक है ।
युगधर्म और राष्ट्रधर्म के साधित होने पर सारे जगत् में सनातन धर्म अबाध रूप से प्रचारित और अनुष्ठित होगा । पूर्वकाल से विधाता ने जो निर्दिष्ट किया है, जिसके संबंध में शास्रों में भविष्यवाणी लिखित है, वह भी कार्य में अनुभूत होगा । समस्त जगत् आर्यदेश-संभूत ब्रह्यज्ञानियों के पास ज्ञान-धर्म का शिक्षाप्रार्थी बन, भारतभूमि को तीर्थ मान, अवनत-मस्तक हो इसका प्राधान्य स्वीकार करेगा । उस दिन को ले आने के लिये ही हो रहा है भारतवासियों का जागरण, आर्यभाव का नवोत्थान ।
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