श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य

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Sri Aurobindo

All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

The Complete Works of Sri Aurobindo (CWSA) Writings in Bengali and Sanskrit Vol. 9 715 pages 2017 Edition
Bengali
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All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य 528 pages 1999 Edition
Hindi Translation
Translator:   Hriday  PDF    LINK

हमारी निराशा

 

हमारी आशा क्या है पहले लिख चुका हूं । आज लिख रहा हूं अपनी निराशा के बारे में । भगवान् की कृपा पर निर्भर है हमारी आशा । आध्यात्मिक शक्ति की वृद्धि से हम बलवान् तेजस्वी व सहायक हो राष्ट्रीय उत्कर्ष, स्वाधीनता और महानता प्राप्त करेंगे । जो पथ और उपाय मैंने निर्धारित किया था उसकी वर्तमान सफलता के बारे में हम निराश हैं । हमने आशा की थी कि वैध और निर्दोष साधनों का सहारा ले साहस, दृढ़ता, शांति के साथ राष्ट्रीय आंदोलन को पुन: प्रेरित कर और उसे सुपथ पर चला हम दो अति आवश्यक लक्ष्य प्राप्त कर सकेंगे । पहला, लोगों के मन में वैध पथ की श्रेष्ठता और सफलता पर पूरा विश्वास जगा, गुप्त हत्याएं और जोर-जुल्म की ओर जो आज के युवक खिंचे चले जा रहे हैं उसे रोक सकेंगे । दूसरा,  वैध प्रतिरोध और सत्य उपायों द्धारा दो राष्ट्रों के हितार्थ संघर्षजनित युद्ध चलाने की आवश्यकता का सरकारी कर्मचारियों को हृदयंगम करा राष्ट्र की उन्नति करना और क्रमश: राष्ट्र  की स्वाधीनता प्राप्त करना । हमें अब भी विश्वास है कि इन साधनों की सहायता से दोनों ही लक्ष्य सिद्ध होंगे । किंतु ये एक तरह से असाध्य हो उठे हैं ।

 

    पहली कठिनाई है लोगों में अनास्था और उत्साह के अभाव की । वैध प्रतिरोध द्धारा हम उन्नति की ओर अग्रसर हो सकेंगे-प्रौढ़ों में यह विश्वास है । मध्यपंथियों में अनुमोदित उपायों पर से सभी आस्थाएं लुप्त हो गयी हैं । पर इससे क्या होता है--सरकार हमें वैध उपायों द्धारा कुछ भी करने नहीं देगी । जब कानून बनाने का पूर्ण अधिकार सरकार के हाथ में है, जज, मजिस्ट्रेट, पुलिस उनके गुलाम हैं, देशवासियों के प्रभु हैं तब कोई भी वैध आंदोलन मुमकिन नहीं । हमने देखा है कि इस सिद्धांत का इतना प्राबल्य है कि वैध आंदोलन और वैध प्रतिरोध का चलते रहना संभव नहीं । लोगों में आस्था नहीं, श्रद्धा नहीं । श्रद्धारहित कर्म व्यर्थ हैं । उसके फल 'न चैवामुत्र नो इह' । वैध आंदोलन के लिये चाहिये स्वतंत्र विचार और स्वतंत्र सिद्धांत का प्रकाशन और प्रतिष्ठा । नहीं तो आंदोलन संभव नहीं । सभा-समितियों को स्वाधीन अधिकार होना चाहिये, 'सभा रोको' कानून की घोषणा से वह अधिकार छीन लिया गया है । पत्रों में आजाद विचारों को प्रकाशित करने का अधिकार चाहिये, वह भी राजद्रोह के कानून के कारण सत्वर छीन लिया जायेगा । स्थायी सभा संगठित करने और उस सभा की कर्म-तत्परता के लिये स्वाधीन विचार की प्रतिष्ठा का अधिकार चाहिये, वे सब बिना कारण सभा-समिति को बंद करने के कानून द्धारा छीन लिये गये हैं । बचा क्या रहा ? मन ही मन स्वाधीन चिंतन का पोषण करना भी विपत्ति को निमंत्रण देना है क्योंकि बिना कारण हैं खाना-तलाशी, झूठे संदेहवश गिरफ्तारी, बिना अभियोग निर्वासन । हर स्वाधीनता-प्रेमी के पथ में ये तीन विपदाएं सदा ग्रसने को तैयार । ऐसे

माहौल में आंदोलन करना एक तरह से कानूनन निषिद्ध है | निर्जीव आंदोलन निरर्थक   

 

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है और जीवन्त आंदोलन अवैध । अत: लोग आंदोलन करने से कतराते हैं ।

   दूसरी बाधा-क्रांतिकारियों की अदमनीय उद्दाम चेष्टा । हम जिससे रुक जाते हैं उससे क्रांतिकारियों में और भी तेज और उत्साह सिर उठाने लगते हैं । जितना ही निपीड़ित करो उतना ही वे सिर पर कफन बांध दौड़े आते हैं । आशु विश्वास की हत्या के बाद वह अशान्ति प्रायः बुझ-सी गयी थी । नये चीफ जस्टिस के सुविचार से, रिफॉर्म के गुंजन से, हुगली के राष्ट्रीय पक्ष के पुनरुत्थान से लोगों के मन में आशा जगी थी कि फिर से शायद वैध तरीके से राष्ट्रीय जागरण के उद्देश्य से आंदोलन चलाने की सुविधा दी गयी है । पर उस आशा की किरणें गहन अंधकार में खो गयी हैं । इधर राजनीतिक डकैतियों के कारण देश-भर में धड़-पकड़ और खानातलाशी से विप्लवियों के तेज और आशाएं उद्दीप्त हुई हैं । नासिक में खून, पूर्वी बंगाल में रेल में गोलियों का चलना, हाईकोर्ट में शमसुल आलम की हत्या । इस तरह की नयी-नयी घटनाएं हर रोज घट रही हैं । कहां होगा इसका अंत ? पहला फल, सरकारी कर्मचारी देश-भर के लोगों पर क्षुब्ध हो उठे हैं । आंदोलन के अवशिष्ट वह्नि-स्फुलिंग  को बुझाने के लिये बद्ध-परिकर हैं । दमनचक्र बढ़ जाने से गुप्त हत्याएं बढ़ गयी हैं और गुप्त हत्या को वृद्धि से दमन की वृद्धि । इस सिलसिले का अंत कहां ?  सरकारी कर्मचारियों का विवेकहीन क्रोध, क्रांतिकारियों की विवेचनाहीन उन्मत्तता इन दो शक्तियों के संघर्ष के दो पाटों के बीच पड़ हमारा आंदोलन पिसता चला जा रहा है ।

     ऐसी स्थिति में क्या करें ? गवर्नमेंट की इच्छा है कि हम चुप रहें, निश्चेष्ट रहें, जनता अब आवाज उठाना नहीं चाहती, चेष्टा भी नहीं करना चाहती । ऐसे में नीरव और निश्चेष्ट  रहना ही श्रेयस्कर है । अंग्रेज सरकार यह मानती है कि इसका दायित्व राष्ट्रीय पक्ष के संवाद-पत्रों और भाषणों पर है, इन्हें यदि जब्त कर सकें तो क्रांति की चेष्टा स्वतः ही थम जायेगी । तो ऐसा ही हो । हम रुक गये हैं, नीरव, निश्चेष्ट बन गये हैं । देखें तुम्हारे अभियोग सच हैं न झूठ ? कुछ दिन के लिये राजनीतिक चर्चा का त्याग करते हैं । भारत की आध्यात्मिक शक्ति को, भारत के चिंतन की गभीरता को कर्मक्षेत्र में उतार लाने का प्रयास करें ।

 

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