श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

The Complete Works of Sri Aurobindo (CWSA) Writings in Bengali and Sanskrit Vol. 9 715 pages 2017 Edition
Bengali
 PDF   
Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य 528 pages 1999 Edition
Hindi Translation
Translator:   Hriday  PDF    LINK

ईशा उपनिषद्

 

कर्मयोग का प्रधान तत्व

 

   १. इस चला पृथ्वी में जो कुछ भी चल है सभी मानों ईश्वर द्वारा आवृत और आच्छादित है । इन सब का त्याग कर भोग करो, किसी के धन पर लोभी दृटि मत डालो ।

   २. इस लोक में कर्म करना ही श्रेयस्कर है, कर्म करते हुए सौ साल तक जीने की इच्छा करो । ऐसे कर्मयोग में, जिसका लक्षण है त्याग द्वारा भोग, मनुष्य की बुद्धि अपने किये काम से निर्लिप्त रहती है, तुम मनुष्य हो इससे भिन्न तुम्हारी कोई और गति नहीं ।

   ३. जिन अंध तिमिरावृत लोकों को असूर लोक कहते हैं, जो आत्म-हत्या करते हैं वे देह-त्याग के बाद उन्हीं लोकों को जाते हे

 

ईश्वर क्या हैं ? वे हैं परब्रम्ह , आत्मा

 

   ४. जो एक हैं, जो अचल होकर भी मन से भी वेगवान हैं, देवता उनके पीछे दौड़ने पर भी उन्हें पकड़ नहीं पाते, और सभी दौड़ते हौं, वे खड़े रहते हुए भी उनसे आगे निकल जाते हैं । उसके अंदर आकाश में बहनेवाला प्राणरूप वायु जल के सारे विकारों को विहित स्थानों में स्थापित करता है ।

   ५. वह चल है फिर भी अचल है, वह दूर है फिर भी निकट है, वह सबके भीतर है पर सब के बाहर भी है ।

 

सर्वत्र आत्म-दर्शन का फल

 

    ६. जो सर्व भूत को आत्मा के भीतर और सर्व भूतों में आत्मा को देखते हैं वे कभी दूसरों के प्रति द्वेष नहीं रखते, किसी भी तरह  उनमें घृणा का उद्रेक नहीं होता ।

    ७. उनमें ज्ञान है और उनके चित्त में सर्वभूत में आत्मा ही अनुभूत होती है, ऐसी अवस्था में मोह या शोक कैसे हो सकता है ? वे सर्वत्र एकत्व देखते हैं; यानी एक ईश्वर को ही देखते हैं ।

 

कौन है ईश्वर ?

 

    ८. वे ही सर्वत्र व्याप्त हैं । जो ज्योतिर्मय, निराकार, दोषरहित, जिनके स्नायु आदि कुछ नहीं हैं, जो शुद्ध हैं, जिन्हें पाप ने स्पर्श नहीं किया है, वे ही हैं । वे ज्ञानस्वरूप प्राज्ञ हैं, वे मनोमय हिरण्यगर्भ हैं, वे ही सर्वव्यापी विराट् हैं, वे स्वयंभू तुरीय हैं । उन्होंने ही अनादि काल से सभी वस्तुओं का उनके स्वभाव और धर्म के अनुसार विधान किया है |

 

२९९


विधा और अविधा के संबंध

 

   ९. जो अविधा का ही सेवन करते हैं वे अन्य तिमिर में प्रवेश करते हैं, जो विधा में रत हैं वे मानों और भी घने अंधकार में निमग्न होते हैं ।

   १०. विधा में एक फल विहित है तो अविधा में और एक फल । जिन धीर पुरुषों से हमने परब्रम्ह का ज्ञान पाया है उन्होंने ही ऐसा बताया है ।

   ११. जो विधा और अविधा दोनों को जानते हैं वे अविधा द्वारा मृत्यु के पार जा कर विधा द्वारा अमृतत्व का भोग करते हैं ।

   १२. जो अव्यक्त प्रकृति की ही उपासना करते हैं वे अंध तिमिर में प्रवेश करते हैं, जो व्यक्त प्रकृति में रत रहते हैं वे मानों और भी घने तिमिर में निमग्न होते हैं ।

   १३. जन्म से एक फल होता है, जन्म के वर्णन से एक और फल । जिन धीर पुरुषों से हमने परभ्रमह के तत्त्व का ज्ञान पाया है उन्होंने ही हमें ऐसा बताया है ।

   १४. जो संभूति और विनाश उभय को जानते हैं वे विनाश द्वारा मृत्यु को पार कर संभूति में अमृतत्व का भोग करते हैं ।

 

योग-सिद्धि के लिये प्रार्थना

 

   १५. सत्य के मुंह को स्वर्णमय ढकने से ढक कर रखा गया है । हे सूर्य, सत्य ही है हमारा धर्म, सत्य-दर्शनार्थ तुम इस ढक्कन को हमारे लिये हटा लो ।

   १६. हे सूर्य, हे पूषण, हे एकमात्र ज्ञानी, हे यम, हे प्रजापति-तनय, अपने किरण-जाल को हटा लो, फिर (सूर्यमंडल के भीतर) उसे संहत करो । जो ज्योति तुम्हारे (अष्ट रूपों में) सर्वश्रेष्ठ हो और सुन्दर-स्वरूप हो उसे जैसे देख पाऊं । जो पुरुष वहां अवस्थित है वह मैं ही हूं ।

   १७. यह जो हमारे प्राण हैं वह वायु से भिन्न और कुछ नहीं, शरीर भस्म में परिणत हो जाता है, यही है मृत्युरहित । हे शक्ति के आधार मन, स्मरण कर, अपने किये कर्मो का स्मरण कर । हे मन, स्मरण कर, सब कर्मो का स्मरण कर ।

   १८. हे अग्निदेव, सभी कर्मो को जानते हुए सुपथ से मंगल धाम की ओर हमें ले चलो । हमारी कुटिल पाप-वृत्तियों को आत्मसात् करो । हम तुम्हें बारंबार नमस्कार करते हैं ।

*         *           *

 

    शंकराचार्य ने ईशा उपनिषद् के ज्ञानकाण्ड और कर्मकाण्ड को अलग-अलग और परस्पर-विरोधी शिक्षा समझकर ऐसी ही व्याख्या की है । शंकर हैं ज्ञानमार्गी अद्वैतवादी--वेद में सर्वत्र ज्ञानमार्ग की प्रशंसा और कर्म की हीनता को, अद्वैतवाद के परिपोषक अर्थ को ही देखा है । दूसरे आचार्यो ने दूसरी तरह से व्याख्या की है । जहां नाना मुण्ड

 

३००


ओर नाना मत हों वहां हम किस पथ का अनुसरण करें ? विवेचना करते समय हमें प्रत्येक शब्द के सरल स्वाभाविक अर्थ पर निर्भर रह उपनिषद् स्ययं क्या कहती हैं वही देखना चाहिये । किसी भी ''वाद'' की तरफ अर्थ को खींचतान से व्याख्या में घपला ही होगा । और एक वात याद रखनी चाहिये-उपनिषदों के ॠषियों ने तर्क के आधार पर किसी सिद्धांत पर पहुंच कुछ नहीं कहा । वे द्रष्टा थे--योगमार्ग में जिसका उन्होंने दर्शन किया उसे ही व्यक्त किया, उसका ही तर्क द्वारा समर्थन किया है । किंतु तर्क प्रमाण नहीं, दर्शन ही प्रमाण है । जो तर्क के आधार पर किसी सिद्धांत पर पहुंचते हैं वे यथार्थ दार्शनिक नहीं । जो तत्त्वदर्शी हैं वे ही हैं वास्तविक दार्शनिक । इन दो नियमों को आधार बना हम ईशा उपनिषद् की व्याख्या के लिये प्रवृत्त हुए हैं । हर श्लोक की व्याख्या कर बाद में इस उपनिषद् में जो ज्ञान की शिक्षा दी गयी है उसकी आलोचना करेंगे । 'धर्म' पत्रिका में गीता की व्याख्या प्रकाशित हो रही है, गीता के अनेक तथ्यों के प्रमाण इस उपनिषद् में मिलते हैं ऐसा जानकर ही ईशा उपनिषद और गीता की व्याख्या साथ-ही-साथ देना युक्तिसंगत लगा ।

 

३०१









Let us co-create the website.

Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.

Image Description
Connect for updates