All writings in Bengali and Sanskrit including brief works written for the newspaper 'Dharma' and 'Karakahini' - reminiscences of detention in Alipore Jail.
All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)
जगन्नाथ का रथ
आदर्श समाज ही है व्यष्टि-समष्टि का अंतरात्मा भगवान् का वाहन, जगन्नाथ का यात्रा-रथ । एकता, स्वाधीनता, ज्ञान और शक्ति हैं इस रथ के चार चक्र ।
मनुष्य की बुद्धि द्धारा गठित अथवा प्रकृति के अशुद्ध प्राणस्पंदन की क्रिया से रचा समाज है दूसरी तरह का । यह समाज समष्टि के नियंता भगवान् का रथ नहीं, बल्कि जो बहुरूपी देवता मुक्त अंतर्यामी को आच्छादित कर भगवत्-प्रेरणा को विकृत करता है उस समष्टिगत अहंकार का वाहन है । यह नाना भोगपूर्ण लक्ष्यहीन कर्म-पथ पर, बुद्धि के असिद्ध और अपूर्ण संकल्प के आकर्षण से, निम्न प्रकृति की प्राचीन या नवीन प्रेरणावश चलता है । जबतक अहंकार ही कर्ता है तबतक प्रकृत लक्ष्य का अनुसन्धान पाना है असंभव-लक्ष्य का पता लगने पर भी रथ को उस ओर सीधे ले जाना है असाध्य । अहंकार है भागवत पूर्णता में प्रधान बाधक । यह जैसे व्यष्टि के लिये सत्य है वैसे ही समष्टि के लिये भी ।
साधारण मनुष्य-समाज के तीन मुख्य भेद दिखायी देते हैं । पहला, निपुण कारीगर की सृष्टि, यह है सुन्दर, चमचमाता, उज्ज्वल, निर्मल, सुखकर जिसे खींच रहा है बलवान् सुशिक्षित अश्व, वह अग्रसर हो रहा है सुपथ पर, सयत्न, धीर-स्थिर गति से । सात्त्विक अहंकार इसका स्वामी है, आरोही है । जिस उपरिस्थ उत्तुंग प्रदेश में भगवान् का मंदिर है, रथ उसके चारों ओर धूम रहा है, किंतु घूमता है थोड़ा दूर ही दूर रहकर, उस उच्च भूमि के बिलकुल पास नहीं पहुंच पाता । यदि इस स्थान से भी ऊपर उठना हो तो नियम यही है कि रथ से उतर अकेले पैदल जाया जाये । वैदिक युग के बाद प्राचीन आर्य-जाति के समाज को ऐसा ही रथ कहा जा सकता है ।
दूसरा है विलासी कर्मठ की मोटरगाड़ी | धूल का अम्बार उड़ाती, भीमवेग से वज्र निर्घोष करती, राजपथ को चूर-चूर करती अशान्त अश्रान्त गति से वह दौड़ रही है । भोंपू की आवाज से कान फटे जा रहे हैं, जिसे भी सामने पाती है उसे ही रौंदती- पीसती चली जाती है । यात्री के प्राण संकट में हैं, अनवरत दुर्घटनाएं होती हैं; रथ टूट जाता है, किसी तरह मरम्मत हो जाने पर फिर सदर्प चल पड़ता है । इसका कोई निर्दिष्ट लक्ष्य नहीं, किंतु जो भी नवीन दृश्य आंखों के सामने पड़ जाता है उसे ही रथ का स्वामी राजसिक अहंकार 'यही है लक्ष्य, यही है लक्ष्य' चिल्लाता उस ओर दौड़ पड़ता है । इस पथ पर चलने में यथेष्ट भोग-सुख मिलता है, विपत्ति भी अनिवार्य है, परंतु भगवान् के निकट पहुंच पाना है असंभव । आधुनिक पाश्चात्य समाज है ऐसी ही मोटरगाड़ी ।
तीसरा है मैली, पुरानी, कछुए की चाल चलनेवाली, अध-टूटी बैलगाड़ी । इसे खींच रहे हैं दुबले-पतले, भूख के मारे अधमरे बैल, यह चल रही है संकीर्ण ग्राम्य पथ पर । मैला-कुचैला कपड़ा पहने, अत्यंत सुखपूर्वक कीचड़-सने हुक्के को पीता, गाड़ी की कर्कश घड़-घड़ आवाज सुनता, अतीत की कितनी ही विकृत-बिखरी स्मृतियों में
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खोया बैठा है उदरसर्वस्व एक दुर्बल अन्धा बूढ़ा । इस मालिक का नाम है तामसिक अहंकार । गाड़ीवान का नाम है पुस्तकी ज्ञान, वह पंचांग देख-देख कर चलने का समय और दिशा का निर्देश करता है, उसके मुंह में एक ही बात 'जो कुछ है या था वही अच्छा, जो कुछ होने की चेष्टा करता है वह खराब' । इस रथ की भगवान् के निकट न सही, शून्य ब्रह्म के निकट शीघ्र ही पहुंच जाने की संभावना है ।
तामसिक अहंकार की बैलगाड़ी जबतक गांवों की कच्ची सड़क पर चलती है तभी तक खैर है । जिस दिन वह चली आयेगी जगत् के राजपथ पर जहां असंख्य वेगवान् मोटरें दौड़ती हैं, उस दिन क्या परिणाम होगा उसकी सोचते ही प्राण सिहर उठते हैं । दुःख यही है कि रथ को बदल देने का समय पहचानना या स्वीकारना तामसिक अहंकार की अक्क्ल के बाहर की बात है । समय को पहचानने की प्रवृत्ति भी उसमें नहीं, क्योंकि इससे उसका व्यवसाय और मिल्कियत मिट्टी में मिल जायेंगे । जब-जब समस्या उपस्थित होती है तो कोई-कोई यात्री बोल उठता है, ''नहीं, रहने दो, यही अच्छा है क्योंकि यह हम लोगों का ही है । '' ये हैं लकीर के फकीर या भावुक देशभक्त । कोई-कोई कहता है, ''इधर-उधर से कुछ मरम्मत कर लो न ।'' इसी सहज उपाय से मानों बैलगाड़ी तुरत एक अनिन्ध, अमूल्य मोटरगाड़ी में परिणत हो जायेगी ! -इनका नाम है सुधारक । कोई-कोई कहता है, ''प्राचीन काल का सुन्दर रथ ही क्यों न लौट आये ।'' इस असाध्य साधन का उपाय भी ढूंढ़ निकालने का प्रयास बीच-बीच में करते रहते हैं । किंतु आशा के अनुसार फल होगा इसका कोई विशेष लक्षण कहीं भी दिखायी नहीं देता ।
इन तीनों में से ही यदि एक को पसंद करना अनिवार्य हो और उच्चतर चेष्टा को भी यदि हम छोड़ दें तो सात्त्विक अहंकार का एक नवीन रथ निर्मित करना युक्तिसंगत होगा । किंतु जबतक जगन्नाथ का रथ सृष्ट नहीं होता तबतक आदर्श समाज भी संगठित नहीं होगा । वही आदर्श है, वही है चरम, गभीरतम, उच्चतम सत्य का विकास और उसकी प्रतिकृति । गुप्त विश्वपुरुष की प्रेरणा से मनुष्य-जाति उसे ही गढ़ने में सचेष्ट है, किंतु प्रकृति के अज्ञानवश वह दूसरे ही प्रकार की प्रतिमा गढ़ डालती है-यह प्रतिभा या तो विकृत, असिद्ध और कुत्सित होती है या काम चलाऊ, अर्द्ध-सुन्दर या सौन्दर्ययुक्त होने पर भी असंपूर्ण । शिव के बदले या तो वह वानर को गढु डालती है या किसी राक्षस को या किसी मध्यम लोक के अर्द्ध-देवता को ।
जगन्नाथ के रथ की प्रकृत आकृति या नमुना कोई नहीं जानता, कोई भी जीवन- शिल्पी उसे आंकने में समर्थ नहीं । यह छवि विश्वपुरुष के हृदय में विधमान है, किंतु नाना आवरणों से आवृत । द्रष्टा और कर्ता की, अनेक भगवद्-विभूतियों की अनेक चेष्टाओं द्धारा धीरे-धीरे उसे बाहर का स्थूल जगत् में प्रतिष्ठित करना ही है अन्तर्यामी की अभिसन्धि।
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जगन्नाथ के इस रथ का असली नाम समाज नहीं, संघ है । यह बहुमुखी शिथिल जनसंघ या जनता नहीं, बल्कि आत्मज्ञान की, भागवत ज्ञान की ऐक्यमुखी शक्ति द्धारा सानंद गठित, बंधनरहित, अच्छेध संहति है, है भागवत संघ ।
अनेक समवेत मनुष्यों के मिलकर कर्म करने के साधनस्वरूप संहति ही है समाज । शब्द की उत्पत्ति समझ लेने से उसका अर्थ भी समझ में आ जाता है । 'सम' उपसर्ग का अर्थ है 'एकत्र', 'अज्' धातु का अर्थ है 'गमन, धावन, युद्ध' । हजारों मनुष्य कर्म के लिये और कामना की पूर्ति के लिये एकत्रित होते है, एक ही क्षेत्र में नाना लक्ष्यों की ओर दौड़ते हैं, कौन आगे बढ़े, कौन बड़ा हो, इसी को लेकर लाग-डांट होती है, जैसे अन्य समाजों के साथ वैसे ही आपस में भी युद्ध और झगड़ा होता है-इस कोलाहल में ही श्रुंखला के लिये, सहायता के लिये, मनोवृत्ति की चरितार्थता के लिये नाना संबंध स्थापित किये जाते हैं, नाना आदर्शों की प्रतिष्ठा होती है, फलत: कष्टसिद्ध, असंपूर्ण, अस्थायी कुछ तैयार होता है-यही है समाज का, प्राकृत संसार का स्वरूप ।
भेद की भित्ति पर प्रतिष्ठित है प्राकृत समाज । उसी भेद पर निर्मित होता है उसका आंशिक, अनिश्चित और अस्थायी ऐक्य । किंतु आदर्श समाज का गठन है ठीक इसके विपरीत । उसकी भित्ति है ऐक्य; वहां पार्थक्य का खेल होता है आनन्द-वैचित्र्य के लिये, भेद के लिये नहीं । समाज में हमें शारीरिक, मानस-कल्पित और कर्मगत ऐक्य का आभास मिलता है, किंतु संघ का प्राण है आत्मगत ऐक्य ।
आंशिक रूप से, संकीर्ण क्षेत्र में संघ-स्थापना की निष्फल चेष्टा तो कई बार हुई है । वह या तो हुई बुद्धिगत चिंतन की प्रेरणा से-जैसा पाश्चात्य देशों में हुआ; अथवा निर्वाणोन्मुख कर्मविरति के स्वच्छंद अनुशीलन से-जैसा बौद्धों ने किया; या भागवत भाव के आवेग से-जैसा प्रथम ईसाई-संघ ने किया । परंतु थोड़े समय में ही समाज के जितने दोष, अपूर्णताएं और प्रवृत्तियां हैं वे संघ में घुस आती हैं और उसे समाज मे परिणत कर देती हैं । चंचल बुद्धि का चिंतन नहीं टिक पाता, बह जाता है प्राचीन या नवीन प्राणप्रवृत्ति के अदम्य स्रोत में । भाव के आवेग से इस चेष्टा को सफल करना असंभव है, भाव अपनी तीव्रता के वश क्लांत हो उठता है । निर्वाण को अकेले ही ढूंढ़ना अच्छा है, निर्वाण-प्रेमियों का किसी संघ को सृष्टि करना है एक विपरीत कांड । संघ स्वभावत: है कर्म की, संबंध की लीलाभूमि ।
जिस दिन समष्टिगत विराट् पुरुष को इच्छाशक्ति की प्रेरणा से, ज्ञान, कर्म और भाव के सामंजस्य और एकीकरण द्धारा आत्मगत ऐक्य दिखायी देगा उसी दिन जगन्नाथ का रथ जगत् के रास्ते पर बाहर आ आलोकित कर देगा दसों दिशाओं को । उस दिन पृथ्वी के वक्ष पर उतर आयेगा सत्ययुग, मर्त्य मनुष्य की पृथ्वी होगी देवता का लीला-शिविर, भगवान् की मन्दिर-नगरी, temple city of God--आनन्दपुरी ।
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