All writings in Bengali and Sanskrit including brief works written for the newspaper 'Dharma' and 'Karakahini' - reminiscences of detention in Alipore Jail.
All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)
कारा-कहानी
मैं पहली मई सन १९०८ ई०,शुक्रवार के दिन 'वंदेमातरम्' के दफ्तर में बैठा था, तभी श्रीयुत श्यामसुन्दर चक्रवर्ती ने मुजफ्फरपुर से आया एक टेलीग्राम मेरे हाथ वे थमाया । पढ़कर मालूम हुआ कि मुजफ्फरपुर में बम फटा है, जिससे दो मेमों की मृत्यु हो गयी है । .उसी दिन के 'एम्पायर' अंग्रेजी अखबार में यह भी पढ़ा कि पुलिस कमिश्नर ने कहा है-हम जानते हैं, इस हत्याकाण्ड से किन-किन का हाथ है और वे शीघ्र ही गिरफ्तार कर लिये जायेंगे। तब यह नहीं जानता था कि मैं ही था इस संदेह का मुख्य निशाना, पुलिस के विचार में प्रधान हत्यारा, राष्ट्र-विप्लव-प्रयासी युवकदल का मंत्रदाता और युद्ध-नेता। नहीं जानता था कि आज का दिन ही होगा मेरे जीवन के एक अंक का अंतिम पृष्ठ। मेरे सम्मुख था एक वर्ष का कारावास, इस समय से ही मनुष्य-जीवन के साथ जितने बंधन हैं, सब छिन्न-भिन्न होंगे, एक वर्ष के लिये मानव समाज से अलग पशुओं की तरह पिंजरे में बंद रहना पड़ेगा । फिर जब कर्मक्षेत्र में वापस आऊंगा तब वह पुराना परिचित अरविन्द घोष नहीं होगा वरन् एक नया मनुष्य, नया चरित्र, नयी बुद्धि नया प्राण, नया मन ले और नये कार्य का भार उठा अलीपुरस्थ आश्रम से बाहर होगा । कहा है एक वर्ष का कारावास पर कहना उचित था एक वर्ष का वनवास, एक वर्ष का आश्रमवास । बहुत दिनों से हृदयस्थ नारायण के साक्षात् दर्शन करने की प्रबल चेष्टा में लगा था; उत्कट आशा संजोये हुए था कि जगद्धाता पुरुषोत्तम को बन्धुभाव में, प्रमुभाव में प्राप्त करूं । किंतु संसार की सहस्रों वासनाओं के बंधन, नाना कर्मो में आसक्ति और अज्ञान के प्रगाढ़ अंधकार के कारण कर न पाया । अंत में परम दयालु सर्व मंगलमय श्री हरि ने इन सब शत्रुओं को एक ही वार में समाप्त कर उसके लिये सुविधा कर दी, योमाश्रम दिखलाया और स्वयं गुरु रूप में, सखा रूप में उस क्षृद्र साधन कुटीर में अवस्थान किया । वह आश्रम था अंग्रेजों का कारागार । मैं अपने जीवन में बराबर ही यह आश्चर्यमय असंगति देखता आया हूं कि मेरे हितैषी बंधुगण मेरा जितना भी उपकार क्यों न करें, अनिष्टकारी-शत्रु किसे कहूं मेरा अब कोई शत्रु नहीं-शत्रुओं ने ही अधिक उपकार किया है । उन्होंने अनिष्ट करना चाहा पर इष्ट ही हुआ । ब्रिटिश गवर्नमेण्ट की कोप-दृष्टि का एकमात्र फल-भगवान-मुझे मिले । कारावास के आंतरिक जीवन का इतिहास लिखना इस लेख का उद्देश्य नहीं, कुछ एक घटनाओं को वर्णित करने की ही इच्छा है, किन्तु कारावास के मुख्य भाव का उल्लेख लेख के आरंभ में ही करना उचित समझा, नहीं तो पाठक समझ बैठेंगे कि कष्ट ही है कारावास का सार । कष्ट नहीं था ऐसी बात नहीं । किंतु अधिकांश समय आनंद से ही बीता ।
शुक्रवार की रात को मैं निश्चिंतता से सो रहा था । सवेरे करीब पांच बजे मेरी बहिन संत्रस्त-सी मेरे कमरे में आयी और मेरा नाम ले मुझे पुकारने लगी । मैं जाग पड़ा ।
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क्षण-भर में मेरा छोटा-सा कमरा सशस्त्र पुलिस से भर गया; उनमें थे सुपरिण्टेण्डेण्ट क्रेगन, २४ परगना के क्लार्क साहब, हमारे सुपरिचित श्रीमान् विनोदकुमार गुप्त की आनंदमयी और लावण्यमयी मूर्ति और कई एक इंस्पेक्टर, लाल पगडियां, जासूस और खानातलाशी के साक्षी । हाथों में पिस्तौल लिये वे वीर-दर्प से ऐसे दौड़े आये मानों तोपों और बन्दूकों से सुरक्षित किला दखल करने आये हों । आंखों से तो नहीं देखा पर सुना कि एक श्वेतांग वीर पुरुष ने मेरी बहिन की छाती पर पिस्तौल तानी थी । मैं बिछौने पर बैठा हुआ हूं, अर्द्धनिद्रित अवस्था, क्रेगन साहब ने पूछा, ''अरविन्द घोष कौन हैं ? क्या आप ही हैं ? '' मैंने कहा, ''हां, में ही हूं अरविन्द घोष ।" तुरत उन्होंने एक सिपाही को मुझे गिरफ्तार करने को कहा । उसके बाद क्रेगन साहब की किसी एक अश्लील बात पर लमहे-भर के लिये आपस में कहा-सुनी हो गयी । मैंने खाना- तलाशी का वारंट मांगा, पढ़कर उसपर सही की । वारंट में बम की बात देखकर समझ गया कि इस पुलिस सेना का आविर्भाव मुजफ्फरपुर में हुए खून से संबंधित है । परंतु यह समझ में नहीं आया कि बम या कोई स्फोटक पदार्थ मेरे मकान में पाये जाने के पहले ही और बिना 'बॉडी-वारंट' के मुझे क्यों गिरफ्तार किया गया । तो भी इस बारे में व्यर्थ कोई आपत्ति नहीं खड़ी की । इसके बाद ही क्रेगन साहब के हुकुम से मेरे हाथों में हथकड़ी और कमर में रस्सी बांध दी गयी । एक हिन्दुस्तानी सिपाही वह रस्सी पकड़े मेरे पीछे खड़ा रहा । ठीक उसी समय श्रीयुत अविनाशचद्र भट्टाचार्य और श्रीयुत शैलेंद्र वसु को पुलिस ऊपर ले आयी, उनके भी हाथों में हथकड़ी और कमर मैं रस्सी थी । करीब आधे घंटे बाद, न जाने किसके कहने से उन्होंने हथकड़ी और रस्सी खोल दीं । क्रेगन की बातों से ऐसा लगता था मानों वह किसी खूंखार मांद में घुस आये हों, मानो हम थे अशिक्षित, हिंस्र और स्वभाव से कानून-भंगी, हमारे साथ भद्र व्यवहार या भद्रोचित बात करना है निष्प्रयोजन । परंतु झगड़े के बाद साहब जरा नरम पड़ गये थे । विनोद बाबू ने मेरे बारे में उन्हें कुछ समझाने की चेष्टा की । तब क्रेगन ने मुझसे पूछा, ''आपने शायद बी० ए० पास किया है ? ऐसे मकान में, ऐसे सज्जाविहीन कमरे में जमीन पर सोये थे, इस तरह रहना आप जैसे शिक्षित व्यक्ति के लिये क्या लज्जा-जनक नहीं?'' मैंने कहा, ''मैं दरिद्र हूं, दरिद्र की तरह ही रहता हूं ।'' साहब ने तूरत गरजकर कहा, ''तो क्या आपने धनी बनने के लिये ही यह सब षड्यंत्र रचा है ?" देश-हितैषिता, स्वार्थत्याग दारिद्रय-व्रत का माहात्म्य इस स्थूल बुद्धि अंग्रेज को समझाना भैंस के आगे बीन बजाना था अतः मैंने वैसी चेष्टा नहीं की ।
इस बीच खानातलाशी चलती रही । यह सवेरे साढ़े पांच बजे आरंभ हुई और प्रायः साढ़े ग्यारह बजे समाप्त हुई । बक्स के बाहर, भीतर जितनी कापियां, चिट्ठियां, कागज, कागज के टुकड़े , कविताएं, नाटक, पघ, गध, निबंध, अनुवाद-जो कुछ भी मिला कुछ भी इन सर्वग्रासी खानातलाशियों के कवल से नहीं बच पाया । खानातलाशी के गवाहों में रक्षित महाशय क्षुण्णमना-से थे । बाद में बड़े दु:ख के साथ उन्होंने मुझे बताया कि
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पुलिस अचानक बिना कुछ कहे-सुने उन्हें यहां घसीट लायी है, उन्हें रत्तीभर भी इसकी भनक नहीं थी कि ऐसे घृणित कार्य में उन्हें सहयोग देना होगा । रक्षित बाबू ने बड़े ही करुण भाव से इस हरण-काण्ड की कथा सुनायी | दूसरे साक्षी समरनाथ का भाव कुछ और ही था । उन्होंने बड़ी स्फूर्ति से एक सच्चे राजभक्त की तरह यह खानातलाशी का कार्य सुसंपन्न किया मानों to the manner born -इसी के लिये जनमे हों । खानातलाशी के समय और कोई उल्लेखनीय घटना नहीं घटी । पर याद आती है गत्ते के एक छोटे डिब्बे में दक्षिणेस्वर की जो मिट्टी रखी थी क्लार्क साहब उसे बड़े संदिग्ध चित्त से बहुत देर तक परखते रहे मानों उनके मन में शंका थी कि हो न हो यह कोई नया भयंकर, तेजविशिष्ट स्फोटक पदार्थ है । एक तरह से क्लार्क साहब का संदेह निराधार भी नहीं कहा जा सकता । अंत में यह मान लिया गया कि यह मिट्टी के सिवा और कुछ नहीं, और इसे रासायनिक विश्लेष्णकारियों के पास भेजना अनावश्यक है । खानातलाशी के समय बक्स खोलने के सिवा मैंने और कुछ नहीं किया । मुझे कोई भी कागज या चिट्ठी दिखलायी या पढ़कर सुनायी नहीं गयी, केवल अलकधारी की एक चिट्ठी क्रेगन साहब ने अपने मनोरंजन के लिये उच्च स्वर में पढ़ी । बंधुवर विनोदगुप्त अपने स्वाभाविक ललित पदविन्यास से घर को कंपाते हुए चक्कर काट रहे थे, शेल्फ में से या और कहीं से कागज या चिट्ठी निकालते, बीच-बीच में ''बहुत जरूरी, बहुत जरूरी'' कह उसे क्रेगन साहब को थमाते जाते । मैं जान नहीं पाया कि ये आवश्यक कागज क्या थे ? इस बारे में कोई कुतूहल भी नहीं था क्योंकि मुझे पता था कि मेरे घर में विस्फोटक पदार्थ बनाने की प्रणाली या षड्यंत्र में हाथ होने का कोई भी सबूत मिलना असंभव है ।
मेरे कमरे का कोना-कोना छान मारने के बाद पुलिस हमें पासवाले कमरे में ले गयी । क्रेगन ने मेरी छोटी मासी का बक्स खोला, एक-दो बार चिट्ठियों पर नजर डालकर ''औरतों की चिट्ठियों की जरूरत नहीं'' कह उन्हें छोड़ गये । इसके बाद एकतल्ले पर पुलिस महात्माओं का आविर्भाव हुआ । वहां क्रेगन का चाय-पानी हुआ । मैंने एक प्याला कोको और रोटी ली । ऐसे सुअवसर पर साहब अपने राजनीतिक मतों को युक्तितर्क द्वारा प्रतिपादित करने की चेष्टा करने लगे । मैं अविचलित चित्त से यह मानसिक यंत्रणा सहता रहा । तो भी जिज्ञासा होती है कि शरीर पर अत्याचार करना तो पुलिस की सनातन प्रथा रही है, मन पर भी ऐसा अमानुषिक अत्याचार करना .unwritten law (अलिखित कानून) की चौहद्दी में पड़ता है क्या ? आशा है हमारे परम मान्य देशहितैशी श्रीयुत योगेन्द्रचंद्र घोष इस बारे में विधान सभा में प्रश्न उठायेंगे ।
नीचे के कमरों और 'नवशक्ति कार्यालय' की खानातलाशी के बाद 'नवशक्ति' के एक लौहसंदूक को खोलने के लिये पुलिस फिर से दोतल्ले पर गयी । आध घंटे तक व्यर्थ सिर फोड़ने के बाद उसे थाने ले जाना ही निश्चित हुआ । इस बार एक पुलिस साहब ने एक द्विचक्र-यान ढूंढ़ निकाला, उसपर लगे रेलवे-लेबल पर 'कुष्ठिया ' लिखा
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था । तुरत ही कुष्ठिया में साहब पर गोली गलानेवाले का वाहन मान इसे एक गुरुतर प्रमाण समझ सानंद उठा ले गये ।
प्रायः साढ़े ग्यारह बजे हम घर से रवाना हुए । फाटक के बाहर मेरे मौसाजी एवं श्रीयुत भूपेंद्रनाथ वसु गाड़ी में उपस्थित थे । मौसाजी ने मुझसे पूछा, ''किस अपराध में गिरफ्तार हुए हो ?'' मैंने कहा, ''मैं कुछ नहीं जानता, इन्होंने घर में घुसते ही गिरफ्तार कर लिया, हाथों में हथकड़ी पहनायी, 'बोडी वारण्ट' तक नहीं दिखाया ।'' मौसाजी के हथकड़ी पहनाये जाने का कारण पूछने पर विनोद बाबू बोले, ''महाशय, मेरा दोष नहीं, अरंविन्द बाबू से पूछिये, मैंने ही साहब से कहकर हथकड़ी खुलवायी है । '' भूपेन बाबू के पूछने पर कि क्या अपराध हैं, गुप्त महाशय ने नरहत्या की धारा दिखायी । यह सुन भूपेन बाबू स्तंभित रह गये और कोई भी बात नहीं की । बाद में सुना, मेरे सौलिसिटर श्रीयुत हरेन्दनाथ दत्त ने ग्रे स्ट्रीट में खानातलाशी के समय मेरी ओर से उपस्थित रहने की इच्छा प्रकट की थी पर पुलिस ने उन्हें लौटा दिया ।
हम तीनों को थाने ले जाने का भार था विनोद बाबू पर । थाने में उन्होंने हमारे साथ विशेष भद्र व्यवहार किया । वहीं नहा-धोकर, खा-पीकर लालबाजार के लिये चले । कुछ घंटे लालबाजार में बिठा रखने के बाद रायड स्ट्रीट ले गये, शाम तक उसी शुभ स्थान पर अपना समय काटा । वहीं जासूस-पुंगव मौलवी शम्स-उल्-आलम के साथ मेरा पहली भेंटवार्ता हुई । मौलवी साहब का तबतक न इतना प्रभाव था और न उनमें इतना उत्साह व उघम, बम-केस के प्रधान अन्वेषक या नोर्टन साहब के prompter (प्रेरक) या जीवन्त स्मरण-शक्ति के रूप में तबतक नहीं चमके थे । रामसदय बाबू ही थे इस केस के प्रधान पण्डा । मौलवी साहब ने धर्म पर अतिशय सरस वक्तृता सुनायी । हिन्दू धर्म और इस्लाम-धर्म का मूल मंत्र एक ही है, हिंदुओं के ओंकार में तीन मात्राएं हैं---अ उ म, कुराने के पहले तीन अक्षर हैं अ ल म, भाषातत्त्व के नियम से ल के बदले उ व्यवहृत होता है अतएव हिन्दू और मुसलमान का मंत्र एक ही है । तथापि अपने धर्म का पार्थक्य अक्षुण्ण रखना होता है, मुसलमान के साथ खाना खाना हिंदू के लिये निन्दनीय है । सत्यवादी होना भी है धर्म का एक प्रधान अंग । साहब लोग कहते हैं कि अरविन्द घोष हत्याकारी दल के नेता हैं, भारतवर्ष के लिये यह बड़े दुःख और लज्जा की बात है, फिर भी सत्यवादिता अपनाने से situation saved हो सकती है (स्थिति संभाली जा सकती है) । मौलवी का दृढ़ विश्वास था कि विपिन पाल और अरविन्द घोष जैसे उच्च चरित्रवान् व्यक्तियों ने चाहे जो भी किया हो, उसे मुक्तकण्ठ से स्वीकार करेंगे । श्रीयुत पूर्णचंद्र लाहिड़ी वहीं बैठे थे, उन्हें इसमें संदेह था किन्तु मौलवी साहब अपनी बात पर अड़े रहे । उनकी विधा-बुद्धि और उत्कट धर्मभाव देख मैं बहुत रोमांचित और हर्षित हुआ । ज्यादा बोलना धृष्टता होगी यह सोच मैंने नम्र भाव से उनका अमूल्य उपदेश सुना और उसे अयत्न हृदयांकित किया । धर्म के लिये इतने मतवाले होने पर भी मौलवी साहब ने जासूसी
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नहीं छोड़ी । एक बार कहने लगे, ''अपने छोटे भाई को बम बनाने के लिये आपने जो बगीचा दे दिया सो बड़ी भूल की, यह बुद्धिमानी का काम नहीं हुआ ।" उनकी बात का आशय समझ मैं मुस्कराया; कहा, ''महाशय, बगीचा जैसा मेरा वैसा मेरे भाई का, मैंने उसे दे दिया है या दिया भी तो बम तैयार करने के लिये दिया, यह खबर आपको कहां से मिली ?'' मौलवी साहब अप्रतिभ हो बोले, ''नहीं, नहीं, मैं कह रहा था यदि आपने ऐसा किया हो तो ।" यह महात्मा अपने जीवन-चरित का एक पन्ना खोल, मुझे दिखाते हुए बोले, ''मेरे जीवन में जितनी नैतिक या आर्थिक उन्नति हुई है उसका मूल कारण है मेरे बाप का एक बहुत ही मूल्यवान् उपदेश । वे हमेशा कहा करते थे, 'परोसी थाली कभी नहीं ठुकराना' । यही महावाक्य है मेरे जीवन का मूलमंत्र, इसे सदा याद रखने के कारण ही हुई मेरी यह उन्नति ।" ऐसा कहते समय मौलवी साहब ने ऐसी तीव्र दृष्टि से मेरी ओर घूरा मानों मैं ही हूं उनके सामने परोसी थाली । संध्या समय स्वनामधन्य श्रीयुत रामसदय मुखोपाध्याय का आविर्भाव हुआ । उन्होंने मेरे प्रति अत्यन्त दया और सहानुभूति दिखायी, सभी को मेरे खाने और सोने का प्रबंध करने को कहा । तुरत बाद कुछ लोग आकर मुझे और शैलेन्द्र को मूसलाधार वर्षा में लालबाजार हवालात में ले गये । रामसदय के साथ बस यही एक बार ही मरी बातचीत हुई । समझ गया कि आदमी बुद्धिमान् और उधमी हैं किंतु उनकी बातचीत, भावभंगी, स्वर, चलन, सब कुछ है कृत्रिम और अस्वाभाविक, हमेशा जैसे रगमंच पर अभिनय कर रहे हो | ऐसे भी आदमी होते हैं जिनका शरीर, बात, क्रिया सब मानों अनृत के अवतार हों । कच्चे मन को भुलाने में वे पक्के हैं, किंतु जो मानव चरित्र से अभिज्ञ हैं एवं बहुत दिनों तक मनुष्यों के साथ मिलते-जुलते रहे हैं, उनकी पकड़ में वे प्रथम परिचय में ही आ जाते हैं ।
लालबाजार में दूसरी मंजिल के एक बड़े कमरे में हम दोनों को एक साथ रखा गया । खाने को मिला थोड़ा-सा जलपान । कुछ देर बाद दो अंग्रेज कमरे में घुसे, बाद में पता चला कि उनमें से एक थे स्वयं पुलिस कमिश्नर हैलिडे साहब । हम दोनों को एक साथ देख हैलिडे सार्जट पर बरस पड़े, मुझे दिखाकर बोले, ''खबरदार, इस व्यक्ति के साथ न कोई रहे न कोई बोले ।" तुरत ही शैलेंद्र को हटा दूसरे कमरे में बंद कर दिया गया । और सब चले गये तो हैलिडे साहब मुझसे पूछते हैं-''इस कापुरुषोचित दुष्कर्म में भाग लेते हुए आपको शर्म नहीं आती?'' ''मैं इसमें लिप्त था यह मान लेने का आपको क्या अधिकार है?'' उत्तर में हैलिडे ने कहा, ''मैंने मान ही नहीं लिया, मैं सब जानता हूं ।'' मैंने कहा, ''क्या जानते हैं या क्या नहीं यह आपको ही पता होगा पर मैं इस हत्याकाण्ड के साथ अपना संपर्क पूर्णतया अस्वीकार करता हूं ।'' हैलिडे ने और कोई बात नहीं की ।
उस रात मुझे देखने और कई दर्शक आये, सभी पुलिस के । इनके आने में एक रहस्य निहित था, उस रहस्य की आजतक थाह नहीं ले पाया । गिरफ्तारी से डेढ़ माह
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पहले एक अपरिचित सज्जन मुझसे मिलने आये थे । उन्होंने कहा था, ''महाशय, आपसे मेरा परिचय नहीं फिर भी आपके प्रति श्रद्धा-भक्ति है, इसीलिये आपको सतर्क करने आया हूं और जानना चाहता हूं कि कोननगर में किसी से आपका परिचय है क्या ? वहां कभी गये थे या वहां कोई घर-बार है क्या ?'' मैंने कहा, ''घर नहीं है, कोननगर एक बार गया था, कइयों से परिचय भी है ।'' ''और कुछ नहीं कहूंगा पर कोननगर में अब और किसी से मत मिलियेगा, आप और आपके भाई बारीन्द्र के विरुद्ध दुष्टजन षड्यंत्र रच रहे हैं, शीघ्र ही आप लोगों को विपत्ति में डालेंगे । मुझसे और कोई बात न पूछें ।'' मैंने कहा, ''महाशय, मैं समझ नहीं पाया इस अधूरे संवाद से मेरा क्या उपकार हुआ, फिर भी आप उपकार करने आये थे उसके लिये धन्यवाद । मैं और कुछ नहीं जानना चाहता । भगवन् पर मुझे पूर्ण विश्वास है, वे ही सदा मेरी रक्षा करेंगे, उस विषय में स्वयं प्रयत्न करना या सतर्क रहना निरर्थक है । ''
उसके बाद इस संबंध में और कोई खबर नहीं मिली । मेरे इस अपरिचित हितैषी ने मिथ्या कल्पना नहीं की थी, इसका प्रमाण उस रात मिला । एक इन्स्पेक्टर और कुछ पुलिस कर्मचारियों ने आकर कोननगर की सारी बात जान ली । उन्होंने पूछा, ''कोननगर क्या आपका आदि स्थान है? वहां मकान है क्या ? वहां कभी गये थे ? कब गये थे ? क्यों गये थे ? कोननगर में बारीन्द्र की कोई सम्पत्ति है क्या ? " -इस तरह के अनेक प्रश्न पूछे गये । बात क्या है यह जानने के लिये मैं इन सब प्रश्नों का उत्तर देता गया । इस चेष्टा में सफलता नहीं मिली, किंतु प्रश्नों से और पुलिस के पूछने के ढंग से लगा कि पुलिस को जो खबर मिली है वह सच है या झूठ इसकी छान-बीन चल रही है । अनुमान लगाया जैसे ताई महाराज के मुकदमे में तिलक को भण्ड, मिथ्यावादी, प्रवंचक और अत्याचारी करार कर देने की चेष्टा हुई थी एवं उस चेष्टा में बंबई सरकार ने योग दे प्रजा के धन का अपव्यय किया था,-वैसे ही मुझे भी कुछ लोग मुसीबत में डालने की चेष्टा कर रहे हैं ।
रविवार का सारा दिन हवालात में कटा । मेरे कमरे के सामने सीढ़ी थी । सवेरे देखा कि कुछ अल्पवयस्क लड़के सीढ़ी से उतर रहे हैं । शक्ल से नहीं जानता था पर अंदाज लगाया कि ये भी इसी मुकदमे में पकड़े गये हैं, बाद में जान पाया कि ये थे मानिकतला बग़ीचे के लड़के । एक माह बाद जेल में उनसे बातचीत हुई । कुछ देर बाद मुझे भी हाथ-मुंह धोने नीचे के जाया गया-नहाने का कोई प्रबंध नहीं था अत: नहीं नहाया । उस दिन सवेरे खाने को मिला दाल-भात, जबरदस्ती कुछ-एक कौर उदरस्थ किये, बाकी छोड़ना पड़ा । शाम को मिले मुरमुरे । तीन दिन तक यही था हमारा आहार । किंतु इतना जरूर कहूंगा कि सोमवार को सार्जेंट ने स्वयं ही मुझे चाय और टोस्ट खाने को दिये ।
बाद में सुना कि मेरे वकील ने कमिश्नर से घर से खाना भेजने की अनुमति मांगी थी पर हैलिडे साहब नहीं माने । यह भी सुना कि आसामियों से वकील या अटर्नी का
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मिलना निषिद्ध है । पता नहीं यह निषेध कानून ठीक है या नहीं । वकील का परामर्श मिलने से यधपि मुझे कुछ सुविधा होती फिर भी नितांत आवश्यकता नहीं थी, किंतु उससे अनेकों को मुकदमे में क्षति पहुंची । सोमवार को हमें र कमिश्नर के सामने हाजिर किया गया । मेरे साथ थे अविनाश और शैलेन । सबको अलग-अलग दल में ले जाया गया । पूर्वजन्म के पुण्यफल से हम तीनों पहले गिरफ्तार हुए थे और कानून की जटिलता काफी अनुभव कर चुके थे इसलिये तीनों ने ही कमिश्नर के आगे कुछ भी बोलने से इनकार कर दिया । अगले दिन हमें थौर्णहिल मजिस्ट्रेट की कचहरी में में लाया गया । इसी समय श्रीयुत कुमारकृष्ण दत्त, मान्युएल साहब और मेरे एक संबंधी से भेंट हुई । मान्युएल साहब ने मुझसे पूछा, ''पुलिस कहती है आपके घर में अनेक संदेहजनक चिठ्ठी-पत्रियां मिली हैं । ऐसी चिट्ठियां या कागजात क्या सचमुच में थे ?'' मैंने कहा, ''निस्संदेह कह सकता हूं, नहीं थे, होना बिलकुल असंभव है । '' निश्चय ही तब ''मिष्टान्न पत्र'' ( 'sweet letter' ) या scribbling (घसीट लेख) की बात नहीं जानता था । अपने संबंधी से कहा, ''घर में कह देना कि डरे नहीं, मेरी निर्दोषिता संपूर्णतया प्रमाणित होगी । '' उस समय से मेरे मन में दृढ़ विश्वास उपजा कि ऐसा ही होगा । पहले-पहल निर्जन-कारावास में मन जरा विचलित हुआ किंतु तीन दिन प्रार्थना ओर ध्यान में बिताने के फलस्वरूप निश्चला शांति और अविचलित विश्वास ने प्राण को पुन: अभिभूत किया ।
थौर्णहिल साहब के इलजास से हमें गाड़ी में अलीपुर ले जाया गया । उस दल में थे निरापद् दीनदयाल, हेमचंद्र दास आदि । इनमें से हेमचंद्र दास को पहचानता था, एक बार मेदिनीपुर मैं उनके यहां ठहरा था । तब किसे पता था कि इस तरह बंदीभाव में जेल जाते हुए उनसे मिलना होगा । अलीपुर में मजिस्ट्रेट की अदालत में हमें काफी देर ठहरना पड़ा पर मजिस्ट्रेट के सामने हाजिर नहीं किया, केवल अंदर से वे हुकुम लिखा लाये । हम फिर से गाड़ी में चढ़े, तब एक सज्जन मेरे पास आकर बोले, ''सुनता हूं कि इन्होंने आपके निर्जन कारावास की व्यवस्था की है, हुकुम लिखा जा रहा है । शायद किसी से भी भेंट मुलाकात करने नहीं देंगे । इस बार यदि घर पर कुछ कहलाना चाहें तो मैं संदेश पहुंचा दूंगा । '' मैंने उन्हें धन्यवाद दिया, किंतु जो कहना था वह मैं अपने आत्मीय द्वारा कहला चुका था अत: उनसे और कुछ नहीं कहा । अपने प्रति देशवासियों की सहानुभूति और अयाचित अनुग्रह के द्रष्टान्त के रूप में मैंने इस घटना का उल्लेख किया । इसके बाद कोर्ट से जेल में पहुंचा । हमें जेल के कर्मचारियों के हाथों में सौंप दिया गया । जेल में घुसने से पहले हमें स्नान कराया, जेल की पोशाक पहनने को दी और हमारे कुर्ते, धोती आदि धोने के लिये ले गये । चार दिन बाद स्नान करने पर हमें स्वर्गसुख की अनुभूति हुई । स्नान के बाद सबको अपनी-अपनी कोठरी में पहुंचा दिया गया । मैं भी अपने निर्जन कारागार में घुसा, छोटी-सी कोठरी के लौह-कपाट बंद हो गये । अलीपुर कारावास का आरंभ हुआ था
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५ मई को । मुक्त हुआ अगले साल ६ मई को ।
मेरा निर्जन कारागृह था नौ फीट लंबा और पांच-छ: फीट चौड़ा, इसमें कोई खिड़की नहीं, सामने था एक वृहत् लौह-कपाट; यह पिंजरा ही बना मेरा निर्दिष्ट वासस्थान । कमरे के बाहर था एक छोटा-सा पथरीला आंगन और ईंट की ऊंची दीवार, सामने लकड़ी का दरवाजा । उस दरवाजे के ऊपरी भाग में मनुष्य की आंख की ऊंचाई पर था एक गोलाकार छेद, दरवाजा बंद होने पर संतरी उसमें आंख सटा थोड़ी-थोड़ी देर में झांकता था कि कैदी क्या कर रहा है । किंतु मेरे आंगन का दरवाजा प्रायः खुला रहता । ऐसे छ: कमरे पास-पास थे, इन्हें कहा जाता था छ: 'डिक्री' । डिक्री का अर्थ है विशेष दण्ड का कमरा, न्यायाधीश या जेल सुपरिण्टेण्डेण्ट के हुकुम से जिन्हें निर्जन कारावास का दण्ड मिलता था उन्हें ही इन छोटे-छोटे गह्रोमें में रहना होता था । इन निर्जन कारावासों की भी श्रेणी होती है । जिन्हें विशेष सजा मिलती है उनके आंगन का दरवाजा बंद रहता है; मनुष्य संसार से पूर्णतया वंचित हो जाते हैं, उनका जगत् से एकमात्र संपर्क रह जाता है संतरी की आंखों और दो समय खाना लानेवाले कैदी से । सी० आई० डी० की नजरों में हेमेंद्र दास मुझसे भी ज्यादा आतंककारी थे, इसीलिये उनके लिये ऐसी व्यवस्था की गयी । इस सजा के ऊपर भी सजा है-हाथ-पैर में हथकड़ी और बेड़ी पहन निर्जन कारावास में रहना । यह चरम दण्ड केवल जेल की शांति भंग करनेवालों या मारपीट करनेवालों के लिये नहीं, बार-बार काम में गफलत करने से भी यह दण्ड मिलता है । निर्जन कारावास के मुकदमे के आसामी को दण्ड-स्वरूप ऐसा कष्ट देना नियमविरुद्ध है परंतु स्वदेशी या 'वंदेमातरम्'-कैदी नियम से बाहर हैं, पुलिस की इच्छा से उनके लिये भी सुबंदोबस्त होता है|
हमारा वासस्थान तो था ऐसा, साजसरंजाम में भी हमारे सहृदय कर्मचारियों ने आतिथ्य सत्कार में कोई त्रुटि नहीं की थी । एक थाली और एक कटोरा आंगन को सुशोभित करते थे । खूब अच्छी तरह मांजे जाने पर मेरा सर्वस्व थाली और कटोरा चांदी की तरह इस कदर चमकते कि प्राण जुड़ा जाते और उस निर्दोष किरणमयी उज्ज्वलता में 'स्वर्गजगत्' में विशुद्ध ब्रिटिश राजतंत्र की उपमा पा राजभक्ति के निर्मल आनंद का अनुभव करता था । दोषों में एक दोष था कि थाली भी उसे समझकर आनंद में इतनी उत्फुल्ल हो उठती थी कि अंगुली का जरा-सा जोर पड़ते ही वह घुमक्कड़ अरबी दरवेशियों की तरह चक्कर काटने लगती, ऐसे में एक हाथ से खाना और एक हाथ से थाली पकड़े रहने के सिवा कोई चारा नहीं रह जाता था । नहीं तो चक्कर काटते-काटते जेल का अतुलनीय मुट्ठी-भर अन्न लेकर वह भाग जाने का उपक्रम करती । थाली की अपेक्षा कटोरा था और भी अधिक प्रिय और उपकारी । जड़ पदार्थो में मानों यह था ब्रिटिश सिविलियन । सिविलियनों में जैसे सब कार्यो में स्वभावजात निपुणता और योग्यता होती है, जज, शासनकर्ता, पुलिस, शुल्क-विभाग के कर्ता,म्युनिसिपैलिटी के अध्यक्ष, शिक्षक, धर्मोपदेशक जो चाहो वही, कहने-भर से
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ही बन सकते हो , जैसे उनके लिये, एक शरीर में, एक ही साथ अनुसंधाता, अभियोगकर्ता, पुलिस मजिस्ट्रेट और कभी-कभी वादी के परामर्शदाता का भी प्रीतिसम्मिलन सहज-साध्य था, वैसा ही था मेरा प्यारा कटोरा भी । कटोरे की जात नहीं, विचार नहीं । कारागृह में उसी कटोरे से पानी ले शौच किया, उसी कटोरे से मुंह धोया, स्नान किया, कुछ देर बाद उसी में खाना पड़ा, उसी कटोरे में दाल या तरकारी डाली गयी, उसी कटोरे से पानी पिया और कुल्ला की । ऐसी सर्वकार्यक्षम मूल्यवान् वस्तु अंग्रेजों की जेल में ही मिलनी संभव है । कटोरा मेरे ये सब सांसारिक उपकार कर योग-साधना में भी सहायक बना । घृणा परित्याग कराने का ऐसा सहायक और उपदेशक कहां पाऊंगा? निर्जन कारावास की पहली अवधि के बाद जब हमें एक साथ रखा गया तब मेरे सिविलियन के अधिकारों का पृथकीकरण हुआ,-अधिकारियों ने शौच के लिये अन्य उपकरण जुटाया । किंतु महीने-भर में घृणा पर काबू पाने का अयाचित पाठ पढ़ लिया था । शौच की सारी व्यवस्था ही मानों इस संयम की शिक्षा को ध्यान में रखकर की गयी थी । पहले कहा है, निर्जन कारावास विशेष दण्ड में गिना जाता है और उस दण्ड का मूल सिद्धांत है यथासाध्य मनुष्य-संसर्ग और मुक्त आकाश-सेवन का वर्जन । बाहर शौच की व्यवस्था करने से तो यह सिद्धांत भंग होता अत: कोठरी में ही तारकोल पुती दो टोकरियां दी जाती थीं । सवेरे-शाम मेहतर साफ कर जाता, तीव्र आंदोलन और मर्मस्पर्शी भाषण देने पर दूसरे समय भी सफाई हो जाती, किंतु असमय पाखाना जाने से घंटों-घंटों तक दुर्गन्ध भोगकर प्रायश्चित करना पड़ता । निर्जन कारावास की दूसरी अवधि में इसमें थोड़ा-बहुत सुधार हुआ किंतु सुधार होता है पुराने जमाने के मूलतत्त्वों को अक्षुण्ण रखते हुए शासन में सुधार । किं बहुना, इस छोटी-सी कोठरी में ऐसी व्यवस्था होने से हमेशा, विशेषकर खाने के समय और रात को, भारी असुविधा भोगनी पड़ती थी । जानता हूं, शयनागार के साथ पाखाना रखना प्रायः विलायती सभ्यता की विशेषता है किंतु एक छोटे-से कमरे में शयनागार, भोजनालय और पाखाना-इसे कहते हैं too much of good thing (भलाई की सीमा पार कर जाना) । हम ठहरे कु-अभ्यासग्रस्त भारतवासी, सभ्यता के इतने ऊंचे सोपान पर पहुंचना हमारे लिये कष्टकर है ।
गृह-सामग्री में और भी चीजें थीं : एक नहाने की बाल्टी, पानी रखने को एक टीन की नलाकार बाल्टी और दो जेल के कम्बल । स्नान की बाल्टी आंगन में रखी रहती, वहीं नहाता था । पहले हमारे भाग्य में पानी का कष्ट नहीं था पर बाद में यह भी भोगना पड़ा । पहले पास के गोहालघर के कैदी नहाते समय मेरी इच्छानुसार बाल्टी में पानी भर देते थे, इसीलिये नहाने का समय ही था जेल की तपस्या के बीच प्रतिदिन गृहस्थ की विलासवृत्ति और सुखप्रियता को तृप्त करने का अवसर । दूसरे आसामियों के भाग्य में इतना भी नहीं जुटा था; एक बाल्टी पानी से ही उन्हें शौच, बर्तन-मंजाई, स्नान सब करना होता था । विचाराधीन कैदी थे इसीलिये, इतना-सा विलास भी
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मिला हुआ था, कैदियों को तो दो-चार कटोरे पानी में ही स्नान करना पड़ता था । अंग्रेज कहते हैं भगवत् प्रेम व शरीर की स्वच्छंदता प्रायः समान और दुर्लभ गुण हैं, जेलों में यह व्यवस्था इस प्रवाद की यथार्थता को सिद्ध करने के लिये है या अतिरिक्त स्नान के सुख से कैदियों की अनिच्छा-जनित तपस्या के रस भंग होने के भय से यह व्यवस्था प्रचलित की गयी है, यह निर्णय करना कठिन है ।
आसामी अधिकारियों की इस दया को काक-स्नान कह खिल्ली उड़ाते थे । मनुष्यमात्र ही है असंतोषप्रिय । नहाने की व्यवस्था से पीने के पानी की व्यवस्था थी और भी निराली । गर्मी का मौसम, मेरे छोटे-से कमरे में हवा का प्रवेश था लगभग निषिद्ध । किंतु मई महीने की उग्र और प्रखर धूप बेरोक-टोक घुस आती थी । कमरा जलती भट्टी-सा हो उठता था । इस भट्टी में तपते हुए अदम्य जलतृष्णा को कम करने का उपाय था वही टीन की बाल्टी का अर्घ-उष्ण जल । बार-बार वही पीता था, प्यास तो नहीं ही बुझती थी वरन् पसीना छूटता और कुछ देर में फिर से प्यास लग आती थी । पर हां, किसी-किसी के आंगन में मिट्टी की सुराही रखी होती, वे अपने पूर्वजन्म की तपस्या का स्मरण कर अपने को धन्य मानते । घोर पुरुषार्थवादी को भी भाग्य में विश्वास करने को बाध्य होना पड़ता था, किसी के भाग्य में ठण्डा पानी बदा था तो किसी के भाग्य में प्यास, सब था भाग्य का फेर । अधिकारिगण, किंतु पूर्ण पक्षपात-रहित हो कलसी या बाल्टी वितरण करते थे । इस यदृच्छा-लाभ से मेरे संतुष्ट होने या न होने से भी मेरा जल-कष्ट जेल के सुहृदय डाक्टर बाबू को असह्य हो उठा । वे कलसी जुटाने में लगे किंतु क्योंकि इस बंदोबस्त में उनका हाथ नहीं था इसलिये बहुत दिन तक इसमें सफल नहीं हुए, अंत में उनके ही कहने से मुख्य जमादार ने कहीं से कलसी का आविष्कार किया । उससे पहले ही तृषा के साथ अनेक दिन के घोर संग्राम से मैं पिपासा-मुक्त हो चला था । तिसपर इस तप्त कमरे में बिस्तर के नाम को थे दो जेल के बने मोटे कम्बल । तकिया नदारद, एक कम्बल को नीचे बिछा लेता और दूसरे की तह करके तकिया बना सोता । जब गर्मी असह्य हो उठती और बिस्तर पर न रहा जाता तब मिट्टी में लोट लगा, बदन ठण्डा कर आराम पाता था । माता वसुन्धरा की शीतल गोद के स्पर्श का क्या सुख है यह तभी जाना । फिर भी, जेल में उस गोद का स्पर्श बहुत कोमल नहीं होता, उससे निद्रा के आगमन में बाधा आती अतः कम्बल की शरण लेनी पड़ती । जिस दिन वर्षा होती वह दिन भारी आनंद का दिन होता । इसमें भी एक असुविधा यह थी कि झड़ी-झंझा होते ही धूल, पत्ते और तिनकों से भरे प्रभंजन के ताण्डव नृत्य के बाद मेरे पिंजरे के अंदर बाढ़-सी आ जाती । ऐसे में रात को भीगा कम्बल ले कमरे के एक कोने में दुबकने के सिवा कोई चारा न रहता । प्रकृति की इस विशिष्ट लीला के समाप्त होने पर भी जलप्लावित धरती जबतक सूख नहीं जाती थी तबतक निद्रादेवी की आशा छोड़ विचारों का दामन पकड़ना पड़ता था । एकमात्र सूखी जगह थी शौच के आसपास किंतु वहां कम्बल
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बिछाने की प्रवृत्ति न होती । इन सब असुविधाओं के होते हुए भी झड़ी-झंझा के दिन भीतर खूब हवा आती और कमरे की जलती भट्टी का ताप दूर हो जाता इसलिये झड़ी-झंझा का सादर स्वागत करता ।
अलीपुर के गवर्नमेण्ट होटल का जो वर्णन मैंने किया है एवं आगे और भी करूंगा वह निजी कष्ट-भोग की विज्ञप्ति के लिये नहीं वरन् सुसभ्य ब्रिटिश राज्य में विचाराधीन कैदियों के लिये कितनी अदभुत व्यवस्था थी, निर्दोषों को दीर्धकालव्यापी कितनी यंत्रणा भोगनी पड़ सकती है, यह बतलाने के लिये ही है यह वर्णन । कष्टों के जो कारण दिखलाये हैं, वे तो थे ही किंतु भगवान् की दया दृढ़ थी इसलिये थोड़े दिनों तक ही कष्ट अनुभव किया, उसके बाद तो-किस उपाय से वह बाद में बताऊंगा-मन उस दु:ख से अतीत हो कष्ट अनुभव करने में असमर्थ हो गया था । इसीलिये मन में जेल की स्मृति जगने पर क्रोध या दुःख नहीं, हंसी ही आती है । पहले-पहल जब जेल की विचित्र पोशाक पहन अपने पिंजरे में घुसकर रहने का बन्दोबस्त देखा था तब यही भाव मन में उदित हुआ था । मन-ही-मन हंस रहा था । अंग्रेज जाति का इतिहास और आधुनिक आचरण का निरीक्षण कर बहुत पहले ही मैंने उनके विचित्र और रहस्यमय चरित्र को समझ लिया था, इसीलिये अपने लिये उनकी ऐसी व्यवस्था देखकर भी जरा भी आशचर्यान्यित या दुःखी नहीं हुआ । साधारण दृटि से हम लोगों के साथ उनका ऐसा व्यवहार अतिशय अनुदार व निंदनीय था । हम सब थे कुलीन घरानों के, बहुत-से थे जमींदारों के बेटे, कितने ही वंश, विधा, गुण और चरित्र में थे इंग्लैण्ड के शीर्षस्थानीय व्यक्तियों के समकक्ष ! हम जिस अपराध में पकड़े गये थे वह भी सामान्य खून, चोरी, डकैती नहीं था, था देश के लिये विदेशी सरकार के विकद्ध युद्ध- चेष्टा या समरोधोग का षइयंत्र । तिसपर कइयों को दोषी ठहराने में प्रमाण का नितांत अएभाव था; पुलिस का संदेह ही था उनके पकड़े जाने का एकमात्र कारण । ऐसे स्थान में सामान्य चोर-डकैतों की तरह रखना-चोर डकैत ही क्यों, पशुओं की तरह पिंजरे में रख, पशुओं का अखाद्य आहार खिलाना, जलकष्ट, क्षुत्यिपासा, धूप, वर्षा व शीत सहन कराना-इससे ब्रिटिश सरकार और ब्रिटिश जाति की गौरव-वृद्धि नहीं होती । यह है किंतु उनका जातीय चरित्रगत दोष । अंग्रेजों में क्षत्रियोचित गुण होते हुए भी शत्रु या विरुद्धाचरणकारी के साथ व्यवहार करते समय वे हैं सोलह आने बनिये । मेरे मन में तब विरक्ति की भावना ने स्थान नहीं पाया बल्कि मुझमें और देश के साधारण अशिक्षित लोगों में कुछ भेद नहीं रखा गया यह देखकर कुछ आनंदित हुआ, और फिर इस व्यवस्था ने तो मातृभक्ति के प्रेमभाव में आहुति का काम किया । मैंने इसे योग- शिक्षा और द्वंद्व-जय का अपूर्व उपकरण और अनुकूल अवसर माना, तिसपर मैं था चरमपंथी दल का जिनके मत में प्रजातंत्र एवं धनी-दरिद्र का साम्य है राष्ट्रीय भाव का एक प्रधान अंग । याद हो आया-मत को कार्यान्वित करना अपना कर्तव्य समझ सूरत जाते समय सभी ने एक साथ तीसरे दर्जे में यात्रा की थी, कैंप में नेतागण अपनाअपना
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अलग प्रबंध न कर सबके साथ एकभाव से, एक ही कमरे में सोते । धनी, दरिद्र ब्राम्हण , वैश्य,शुद्र, बंगाली, मराठी, पंजाबी, गुजराती-सब दिव्य भ्रातृभाव से एक साथ रहते, सोते, खाते । जमीन पर सोना, दाल-भात, दही ही खाना, सब चीजों में था स्वदेशी का बोलबाला । कलकत्ते और बंबई के विदेश से लौटे हुए लोग और मद्रास के तिलकधारी ब्राम्हण सब एक साथ मिल-जुल गये थे । इस अलीपुर जेल में रहते समय अपने देश के कैदी, अपने देश के किसान, लुहार, कुम्हार, डोम-बाग्दियों के समान आहार, समान रहन-सहन, समान कष्ट, समान मानमर्यादा पा समझा कि सर्वशरीरवासी नारायण ने इस साम्यवाद, इस एकता, इस देशव्यापी भ्रात्रृभाव से सहमत हो मानों मेरे जीवन-व्रत पर अपनी मुहर लगा दी हो । जिस दिन जन्मभूमि- रूपिणी जगज्जननी के पवित्र मण्डप में सारा देश भ्रात्रृभाव में एक प्राण हो जगत् के सामने उन्नतमस्तक हो खड़ा होगा, सहवासी आसामी और कैदियों के प्रेमपूर्ण आचरण एवं सरकार के इस साम्यभाव में, इस कारावास में उस शुभ दिन का हृदय में पूर्वाभास पा कितनी ही बार हर्षित व पुलकित हो उठता था । अभी उसी दिन पूना के " Indian Social Reformer' ने मेरी एक सहज बोधगम्य उक्ति पर व्यंग्य कसते हुए कहा था, ''जेल में तो भगवत्सान्निध्य की बड़ी बाढ़-सी आ गयी दीखती है ।'' हाय रे मान-सम्मान के अन्वेषी, अल्प विधा से, अल्प सदगुण से गर्वित मनुष्य के अहंकार और क्षुद्रता ! जेल में, कुटीर में, आश्रम में, दुःखी के हृदय में भगवान् प्रकट नहीं होंगे तो क्या धनी के विलास-भवन में, सुखान्वेषी स्वार्थाध संसारी की सुख-शय्या पर होंगे ? भगवान् विधा , सम्मान, लोकमान्यता, लोकप्रशंसा, बाह्य स्वच्छंदता व सभ्यता नहीं देखते । वे दुःखी के सामने ही दयामयी मां का रूप धरते हैं । जो मानवमात्र में, जाति में, स्वदेश में, दुःखी-गरीब, पतित-पापी में नारायण को देख उनकी सेवा में जीवन समर्पित करते हैं उन्हींके हृदय में आ बसते हैं नारायण और उथ्थानोधत पतित जाति में, देश-सेवक की निर्जन कारा में ही संभव है भगवत्-सान्निध्य को बाढ़ |
कंबल, थाली-कटोरी का प्रबंध कर जेलर के चले जाने पर बैठ मैं जेल का दृश्य देखने लगा । लालबाजार की हवालात की अपेक्षा यह निर्जन कारावास अधिक अच्छा लगा । वहां उस विशाल कमरे की निर्जनता मानों अपनी विशाल काया को विस्तारित करने का अवकाश पा निर्जनता को और भी गहन करे दे रही थी । यहां छोटे-से कमरे की दीवारें मानों बंधुरूप में पास आ, ब्रह्ममय हो आलिंगन में भर लेने को तैयार थीं । वहां दोतल्ले के कमरे की ऊंची-ऊंची खिड़कियों से बाहर का आकाश भी नहीं दीखता था, इस संसार में पेड़-पत्ते, मनुष्य, पशु-पक्षी, घर-द्वार भी कुछ है, बहुत बार उसकी कल्पना करना भी कठिन हो जाता था । यहां आंगन का दरवाजा खुला होने पर सरियों के पास बैठने से बाहर जेल की खुली जगह और कैदियों का आना-जाना देखा जा सकता है । आंगन की दीवार से सटा वृक्ष था, उसकी नयनरंजक नीलिमा से प्राण जुड़ा जाते । छ: डिक्री के छ: कमरों के सामने जो संतरी घूमता रहता
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उसका चेहरा और पदचाप बहुत बार परिचित बंधु के चलने-फिरने की तरह प्रिय लगता । कोठरी की पार्श्ववर्ती गोहालघर के कैदी कोठरी के सामने से गौएं चराने ले जाया करते । गौ और गोपाल थे प्रतिदिन के प्रिय दृश्य । अलीपुर के निर्जन कारावास में अपूर्व प्रेम की शिक्षा पायी । यहां आने से पहले मनुष्यों के साथ मेरा व्यक्तिगत प्रेम अतिशय छोटे घेरे में घिरा था और पशु-पक्षियों पर रुद्ध प्रेम-स्तोत्र तो बहता ही नहीं था । याद आता है, रवि बाजू की एक कविता में भैंस के प्रति एक ग्राम्य बालक का गभीर प्रेम बहुत सुंदर ढंग से वर्णित हुआ है, पहली बार पढ़ने पर वह जरा भी हृदयंगम नहीं हुई थी, भाव-वर्णन में अतिशयोक्ति और अस्वाभाविकता का दोष देखा था । अब पढ़ने पर उसे दूसरी ही दृष्टि से देखता । अलीपुर में रहकर समझ सका कि सब तरह के जीवों पर मनुष्य के प्राणों में कितना गभीर स्नेह स्थान पा सकता है, गौ, पक्षी, चींटीतक को देख कितने तीव्र आनन्द के स्फुरण में मनुष्य का प्राण अस्थिर हो सकता है ।
कारावास का पहला दिन शांति से कट गया । सभी कुछ था नया, इससे मन में स्फूर्ति जगी । लालबाजार की हवालात से तुलना करने पर इस अवस्था में भी प्रसन्नता हुई और भगवान् पर निर्भर था इसलिये यहां निर्जनता भी भारी नहीं पड़ी | जेल के खाने की अदभुत सूरत देखकर भी इस भाव में कोई व्याघात नहीं पड़ा । मोटा भात, उसमें भी भूसी, कंकड़, कीड़े, बाल आदि कितने तरह के मसालों से पूर्ण-स्वादहीन दाल में जल का अंश ही अधिक, तरकारी में निरा घास-पात का शाक । मनुष्य का खाना इतना स्वादहीन और निस्सार हो सकता है यह पहले नहीं जानता था । शाक की यह विषण्ण गाढ़ी कृष्ण मूर्ति देखकर ही डर गया, दो ही ग्रास खा उसे भक्तिपूर्ण नमस्कार कर एक ओर सरका दिया । सब कैदियों के भाग्य में एक ही तरकारी बदी थी और एक बार कोई तरकारी शुरू हो जाये तो अनंत काल तक वही चलती थी । उस समय शाक का राज्य था । दिन बीते, पखवारे बीते, माह बीते किंतु दोनों समय वही शाक, वही दाल, वही भात । चीजें तो क्या बदलनी थीं, रूप में भी कतई कोई परिवर्तन नहीं होता था, उसका वही नित्य, सनातन, अनाघनंत, अपरिणामातीत अद्वितीय रूप ! दो दिन में ही कैदी में इस नश्वर माया-जगत् के स्थायित्व पर विश्वास जनमने लगेगा । इसमें भी अन्य कैदियों की अपेक्षा मैं भाग्यशाली रहा, यह भी डाक्टर बाबू की दया से । उन्होंने हस्पताल से मेरे लिये दूध की व्यवस्था की थी, इससे कुछ दिन के लिये शाक-दर्शन से मुक्ति मिली ।
उस रात जल्दी ही सो गया; किंतु निश्चिंत निद्रा निर्जन कारावास का नियम नहीं, उससे कैदियों की सुखप्रियता जग सकती है । इसीलिये नियम है कि जितनी बार पहरा बदले उतनी बार कैदी को हांक मारकर उठाया जाता है और हुंकार भरने तक छोड़ते नहीं । जो जो छ: डिक्री का पहरा देते थे उनमें बहुत-से इस कर्तव्य-पालन से विमुख थे,-सिपाहियों में प्रायः ही कठोर कर्तव्य ज्ञान की अपेक्षा दया और सहानुभूति
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अधिक थी, विशेषत: हिन्दुस्तानियों के स्वभाव में । किंतु कुछ लोगों ने नहीं बख्शा । वे हमें इस तरह जमा यह कुशल संवाद पूछते : ''बाबू, ठीक हैं तो ?'' यह असमय का हंसी-मजाक सदा नहीं सुहाता पर समझ गया था कि जो ऐसा करते हैं वे सरलभाव से नियमवश ही हमें उठाते हैं । कई दिन विरक्त होते हुए भी इसे सह गया । अंतत: निद्रा की रक्षा के लिये धमकी देनी पड़ी । दो-चार बार धमकाने के बाद देखा कि रात को कुशल-क्षेम पूछने की प्रथा अपने-आप ही उठ गयी ।
अगले दिन सवेरे सवा चार बजे जेल की घंटी बड़ी । कैदियों को जगाने के लिये यह पहली घंटी थी । कुछ मिनट बाद दूसरी बजती, इसके बाद कैदी पंक्तिबद्ध हो बाहर आ हाथ-मुंह धो, 'लपसी' खा दिनभर की मशक्कत में लग जाते । इतनी घंटियों के बजते हुए सोना असंभव जान मैं भी उठ जाता ।
पांच बजे लौह-द्धार खोला जाता, मैं हाथ-मुंह धो फिर से कमरे में आ बैठा । कुछ देर बाद मेरे दरवाजे पर लपसी हाजिर हुई किंतु उस दिन उसे खाया नहीं, केवल चाक्षुष परिचय हुआ । इसके कुछ दिन बाद पहली बार इस परमान्न का भोग लगाया । लपसी अर्थात् मांड़सहित भात, यही थी कैदियों की छोटी हाजिरी । लपसी की त्रिमूर्ति या तीन अवस्थाएं हैं । पहले दिन लपसी का प्राज्ञभाव, अमिश्रित मूलपदार्थ, शुद्ध शिव शुभ्र-मूर्ति । दूसरे दिन लपसी का हिरण्यगर्भ रूप, दाल के साथ सीजा हुआ खिचड़ी के नाम से अभिहित, पीतवर्ण, नाना धर्मसंकुल । तीसरे दिन थोड़े-से गुड़ में मिश्रित लपसी की विराट् मूर्ति, धूसर वर्ण, कुछ परिमाण में मनुष्य के व्यवहार योग्य । प्राज्ञ और हिरण्यगर्भ का सेवन साधारण मर्त्य मनुष्य के बूते से बाहर मान मैंने उसे त्याग दिया था । कभी-कभार विराट् के दो ग्रास उदरस्थ कर ब्रिटिश राज्य के नाना अदगुण और पाश्चात्य सभ्यता के उच्च दर्जे के humanitarianism (लोकहितवाद) के बारे में सोच-सोचकर आनंदमग्न होता रहता था । कहना चाहिये कि लपसी ही था बंगाली कैदियों का एकमात्र पुष्टिकर आहार, बाकी सब था सारशून्य । वह होने से भी क्या होगा ? उसका जैसा स्वाद था, वह केवल भूख से सताये जाने पर ही खाया जा सकता है, वह भी जोर-जबरदस्ती, मन को बहुत समज्ञा-बुझाकरकर ।
उस दिन साढ़े ग्यारह बजे स्नान किया । घर से जो पहनकर आया था, पहले चार-पांच दिन वही पहने रहना पड़ा । नहाते समय गोशाला के जो वृद्ध कैदी वार्डर मेरी देख-रेख के लिये नियुक्त हुए थे उन्होंने कहीं से डेढ़ हाथ चौड़ा एंडी का कपड़ा जुटा दिया था, अपने एकमात्र कपड़े सूखने तक वही पहने बैठा रहता । मुझे कपड़े धोने और बर्तन मांजने नहीं पड़ते थे, गोशाला का एक कैदी यह कर देता था । ग्यारह बजे खाना । कमरे की टोकरी के सान्निध्य से बचने के लिये ग्रीष्म की धूप सहते हुए प्रायः ही आंगन में खाया करता । संतरी भी इसमें बाधा नहीं देते थे । शाम का खाना होता पांच, साढ़े पांच बजे । उसके बाद लौह-द्वार खुलना निषिद्ध था । सात बजे शाम का घण्टा बजता । मुख्य जमादार कैदी वार्डरों को इकट्ठा कर उच्च स्वर में नाम पढ़ते
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जाते थे, उसके बाद सब अपनी-अपनी जगह चले जाते । श्रांत कैदी निद्रा को शरण ले जेल के इस एकमात्र सुख का अनुभव करते । इस समय दुर्बलचेता अपने दुर्भाग्य या भावी जेल-दुःख की चिंता कर रोया करते । भगवदभक्त नीरव रात्रि में ईश्वर का सान्निध्य अनुभव कर प्रार्थना या ध्यान में आनंद लूटते । रात को इन अभागे, पतित, समाज-पीड़ित तीन सहस्र ईश्वर-सृष्टि प्राणियों का यह अलीपुर जेल, प्रकाण्ड यंत्रणा-गृह विशाल नीरवता में डूब जाता ।
जो मेरे साथ एक ही अभियोग के अभियुक्त थे उनसे जेल में मिलना-जुलना नहीं के बराबर था । उन्हें कहीं और रखा गया था । छ: डिक्री के पिछली तरफ छोटी-छोटी कोठरियों की दो पंक्तियां थीं, इन दोनों पंक्तियों में कुल मिलाकर थीं ४४ कोठरियां, इसीलिये ये चवालीस डिक्री कहलाती थीं, इसी डिक्री की एक पंक्ति में अधिकांश आसामियों का वासस्थान निर्दिष्ट था । कोठरी में बंद रहते हुए भी वे निर्जन कारावास नहीं भोग रहे थे, क्योंकि एक-एक कमरे में तीन-तीन थे । जेल के दूसरे भाग में और एक डिक्री थी, उसमें कुछ एक बड़े कमरे थे; एक-एक कमरे में बारह आदमी तक रह सकते थे । जिसके भाग्य में यह डिक्री पड़ती वे अधिक सुख से रहते । इस डिक्री में बहुत-से एक ही कमरे में बंद थे, रात-दिन बातचीत करने का मौका और मनुष्य-संसर्ग पा सुख से समय बिताते । तो भी, उनमें से एक इस सुख से वंचित थे । वह थे हेमचंद्र दास । न जाने क्यों अधिकारियों को इनसे विशेष भय या इनपर क्रोध था, इतने लोगों में से निर्जन कारावास की यंत्रणा भोगने के लिये अधिकारियों ने उन्हें ही चुना । हेमचंद्र की निजी धारणा थी कि पुलिस भरपूर चेष्टा करने पर भी उनसे दोष स्वीकार न करा सकी इसीलिये था उनपर यह क्रोध । उन्हें इस डिक्री के एक बहुत ही छोटे-से कमरे में बंद करके बाहर का दरवाजा तक बंद रखा जाता था । कह चुका हूं कि यही थी इस विशेष सजा की चरमावस्था । बीच-बीच में पुलिस नाना जाति, नाना वर्ण, नाना आकृतियों के साक्षी ला identification (शिनाख्त) के प्रहसन का नाटक कराती । उस समय हम सबको आफिस के आगे एक लंबी कतार में खड़ा किया जाता । जेल के अधिकारी हमारे साथ जेल के दूसरे-दूसरे मुकदमे के आसामियों को मिला उन्हें दिखाते थे । किंतु यह था केवल नाम के लिये । इन आसामियों में शिक्षित और सज्जन तो एक भी नहीं था, जब उनके साथ एक ही पंक्ति में खड़े होते तो दोनों तरह के आसामियों में इतना भेद होता कि एक तरफ तो बम-केस के अभियुक्त लड़कों का तेजस्वी, तीक्ष्णबुद्धि प्रकाशक चेहरे का भाव और गठन और दूसरी तरफ साधारण कैदियों की मलिन पोशाक और निस्तेज मुख को देख जो यह न बता पाये कि कौन किस श्रेणी का है उन्हें मूर्ख तो क्या न्यूनतम मनुष्यबुद्धि से भी रहित कहना होगा । यह शिनाख्त की परेड आसामियों को अप्रिय नहीं लगती थी । इससे जेल के एकरस जीवन में वैचित्र्य आता और आपस में दो-एक
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बात कहने का भी मौका मिल जाता । गिरफ्तारी के बाद पहली बार ऐसी परेड में अपने भाई बारीन्द्र को देख पाया किंतु तब उसके साथ कोई बातचीत नहीं हुई । प्रायः नरेंद्रनाथ गोस्वामी ही मेरी बगल में खड़े होते थे इसलिये उस समय उनके साथ बातचीत जरा ज्यादा हुई । गोसाईं अतिशय सुन्दर, लंबे, गोरे, बलिष्ठ, पुष्टकाय थे किंतु उनकी आंखों से कुवृत्ति झलकती थी, बातों में भी बुद्धिमत्ता का कोई लक्षण नहीं मिला । इस बारे में उनमें और अन्य युवकों में विशेष अंतर था । उनके चेहरे में प्रायः ही उच्च और पवित्र भाव अधिक और बातचीत में प्रखरबुद्धि ज्ञानलिप्सा और महत् स्वार्थहीन आकांक्षा की अभिव्यक्ति पाता । गोसाईं की बात मूर्खतापूर्ण और लघुचेता मनुष्य की बात की तरह होते हुए भी तेज और साहस से पूर्ण थी । उन्हें उस समय पूरा विश्वास था कि वे बरी हो जायेंगे । वे कहा करते थे, ''मेरे पिता मुकदमे में पारंगत हैं, पुलिस उन्हें कभी भी नहीं हरा सकेगी । मेरे इजहार भी मेरे विरुद्ध नहीं जायेंगे, क्योंकि यह प्रमाणित हो जायेगा कि पुलिस ने मुझे शारीरिक यंत्रणा देकर मेरे इजहार लिये हैं।'' मैंने पूछा, ''तुम तो पुलिस के हाथों में थे । साक्षी कहां है ?'' अम्लानवदन गोसाईं बोले, ''मेरे पिता सैंकड़ों मुकदमें लड़ चुके हैं, वे अच्छी तरह सब समझते हैं । साक्षी का अभाव नहीं होगा ।'' ऐसे लोग ही बनते हैं approver (मुखबिर) !
अबतक आसामियों की अनर्थक असुविधा और नाना कष्टों की बात कही है किन्तु यह भी कहना चाहिये कि सभी कुछ था जेल की प्रणाली के दोष के कारण; जेल के ये सब कष्ट किसी की व्यक्तिगत निष्ठुरता या मनुष्योचित गुण के अभाव से नहीं मिले । अलीपुर जेल के तो सभी अधिकारी बहुत ही भद्र, दयावान् और न्यायपरायण थे । यदि किसी जेल में कैदी की यंत्रणा कम हुई है, यूरोपीय जेल-प्रणाली की अमानुषिक बर्बरता या दया और न्यायपरायणता घटी है तो इस बुराई से भलाई हुई है अलीपुर जेल में और इमर्सन साहब के राजत्व में । इस भलाई के दो प्रधान कारण थे जेल के अंग्रेज सुपरिण्टेण्डेण्ट इमर्सन साहब और हस्पताल के असिस्टेण्ट बंगाली डाक्टर वैधनाथ चटर्जी के असाधारण गुण । इनमें से एक थे यूरोप के लुप्तप्राय क्रिश्चियन आदर्श के अवतार और दूसरे हिन्दुधर्म के सारमर्म दया और परोपकार की जीवंत मूर्ति । इमर्सन साहब जैसे अंग्रेज इस देश में कहां आते हैं, विलायत में भी कम ही मिलते हैं । एक क्रिश्चियन सज्जन में जो गुण होने चाहियें वे सब उनमें एक साथ अवतीर्ण हुए थे । वे थे शांतिप्रिय, विचारशील, दया-दाक्षिण्य में अतुलनीय, न्यायवान् भद्र व्यवहार को छोड़ अधम के प्रति भी अभद्रता दिखलाने में स्वभाव से अक्षम, सरल, निष्कपट, संयमी । दोष यही था कि कार्यकुशलता और उधमी की कमी थी, जेलर पर सारा कार्यभार छोड़ वे स्वयं निश्चेष्ट रहते । मेरा ख्याल है कि इससे कोई बड़ी भारी क्षति नहीं हुई । जेलर योगेंद्र बाबू दक्ष और योग्य पुरुष थे, मधुमेह से अतिशय पीड़ित होने पर भी अपने-आप सब काम-काज देखते और साहब का स्वभाव पहचानते थे इसलिये जेल में न्यायनिष्ठा और क्रूरता के अभाव की रक्षा करते । किंतु वे इमर्सन
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साहब की तरह महात्मा नहीं थे, थे मात्र बंगाली सरकारी नौकर, साहब को खुश करना जानते थे, दक्षता और कर्तव्यबुद्धि के साथ काम करते, स्वाभाविक भद्रता और शांतभाव से लोगों से साथ व्यवहार करते, इसके अतिरिक्त और कोई विशेष गुण उनमें नहीं देखा । नौकरी से प्रबल मोह था । विशेषकर तब मई का महीना था, पैंशन पाने का समय पास ही आ गया था, जनवरी में पैंशन के दीर्घ परिश्रमोपार्जित विश्राम का सुख लूटने की आशा बंधी थी । अलीपुर बम-केस के आसामियों का आविर्भाव देख हमारे जेलर महाशय अत्यंत भीत और चिंतित हो उठे थे । ये उग्र-स्वभाव तेजस्वी बंगाली लड़के किस दिन क्या काण्ड कर बैठे इसी चिंता से वे उद्विग्न रहते । वे कहा करते ताड़-वृक्ष पर केवल डेढ़ इंच चढ़ना बाकी है । किंतु उस डेढ़ इंच का केवल आधा ही वे चढ़ पाये थे । अगस्त के अंत में बोकानन साहब जेल का पर्यवेक्षण कर संतुष्ट हुए । जेलर महाशय आनंदित हो बोले, ''मेरे कार्य-अवधि में साहब का यह अंतिम आगमन था, अब पैंशन का डर नहीं ।'' हाय री मनुष्य की अंधता ! कवि ने ठीक ही कहा है, विधाता नै दुःखी मनुष्य के दो परम उपकार किये हैं । पहला, भविष्य को निविड़ अंधकार से ढक रखा है, दूसरा, उसका एकमात्र अवलंबन और सांत्वना- अंधी आशा-उसे दी है । उनके कहने के चार-पांच दिन बाद ही नरेन गोसाईं कानाई के हाथों मारे गये, बोकानन का बार-बार जेल में आना शुरू हुआ । फलस्वरूप योगेंद्र बाबू की असमय ही नौकरी छूट गयी और शोक और रोग के मिलित आक्रमण से देह भी छूट गयी । ऐसे कर्मचारी पर संपूर्ण भार न छोड़ इमर्सन साहब स्वयं यदि सब कार्य देखते तो उनके राज्य में अलीपुर जेल के अधिक सुधार और उन्नति की संभावना थी । वे जितना देखते उसे सुसंपन्न भी करते, उनके चरित्रगत गुण से ही जेल नरक न बन मनुष्य को कठोर दंड देने का स्थान-भर बनकर रह गया था । उनकी बदली हो जाने पर भी उनकी साधुता का फल पूरी तरह मिट नहीं गया, अबतक भी परवर्ती कर्मचारी उनकी साधुता दस आना बचाये रखने को बाध्य हैं ।
जैसे जेल के अन्यान्य विभागौ में बंगाली योगेन बाबू कर्ता-धर्ता थे वैसे ही हस्पताल के सर्वेसर्वा थे बंगाली डाक्टर वैधनाथ बाबू । उनके उच्च अधिकारी डाँ० डैलि, इमर्सन साहब की तरह दयावान् न होते हुए भी अत्यंत सज्जन और विचक्षण व्यक्ति थे । वे लड़कों का शांत आचरण, प्रफुल्लता और बाध्यता देख भूरी-भूरी प्रशंसा करते और अल्पवयशकों के साथ हंसी-मजाक और दूसरे आसामियों के साथ राजनीतिक, धर्म और दर्शनविषयक चर्चा करते । डाक्टर साहब थे आयरिश वंशजात उस उदार और भावप्रवण जाति के अनेक गुण उनमें साकार हुए थे । उनमें क्रूरता रत्ती-भर भी नहीं थी, कभी-कभी क्रोध के वशीभूत हो कोई कड़ी बात या कठोर आचरण कर बैठते लेकिन प्रायः ही उपकार करना उन्हें प्रिय था । वे जेल के कैदियों की चालाकी और कृत्रिम रोगों को देखने के अभ्यस्त थे; किंतु ऐसा भी कि असली
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रोगी की भी कृत्रिमता के संदेह में उपेक्षा कर देते थे, तो भी, सच्ची बीमारी का पता लगने पर बहुत ही यत्न से और दयापूर्वक रोगी की व्यवस्था करते । मुझे एक बार हल्का बुखार आया । उस समय थी वर्षाऋतु । अनेक वातायनयुक्त विशाल दालान में जलसिक्त मुक्त पवन अठखेलियां करता, फिर भी मैं हस्पताल जाना या दवा खाना नहीं चाहता था । रोग और चिकित्सा के संबंध में मेरे विचार बदल गये थे, औषधि-सेवन में अब ज्यादा आस्था नहीं रह गयी थी, मुझे विश्वास था कि रोग कठिन न हो तो प्रकृति की साधारण क्रिया से ही स्वास्थ्यलाभ होगा । बरसाती हवा के स्पर्श से जो अनिष्ट संभव है उसका योगबल से दमन कर योगशिक्षागत सारी क्रियाओं का याथार्थ्य और साफल्य अपनी तर्कबुद्धि के सामने प्रतिपादन करने को इच्छा थी । किंतु डाक्टर साहब मेरे लिये महा चिंतित थे, बड़े आग्रह के साथ उन्होंने मुझे हस्पताल जाने की आवश्यकता समझायी । हस्पताल जाने पर जितना हो सका उन्होंने घर की तरह रहने-खाने की व्यवस्था कर मुझे सौजन्य से रखा । वर्षा में जेल-वार्ड में रहने से मेरा स्वास्थ्य खराब न हो इस कारण वे मुझे ज्यादा दिन यहां सुख से रखना चाहते थे । किंतु मैं जबरदस्ती वार्ड में लौट आया, हस्पताल में और अधिक रहने को सहमत नहीं हुआ । सबपर उनका समान अनुग्रह नहीं था । खासकर जो पुष्टशरीर और बलवान् थे उन्हें बीमारी होते हुए भी हस्पताल में रखने से डरते थे । उनकी यह भ्रांत धारणा थी कि यदि जेल में कोई भी काण्ड घटता है तो वह इन सबल और चंचल लड़कों द्वारा होगा। अंतत: ठीक इसका विपरीत फल हुआ, हस्पताल में जो काण्ड घटा वह घटा व्याधिग्रस्त, विशीर्ण, शुष्ककाय सत्येंद्रनाथ वसु और रोगक्लिष्ट, घीरप्रकृति, अल्पभाषी कानाईलाल द्वारा । डाक्टर डैलि में ये सब गुण होते हुए भी वैधनाथ बाबू ही थे उनके अधिकांश सत्कार्यो के प्रवर्तक और प्रेरणादायक । सचमुच वैधनाथ बाबू के समान हृदयवान् मनुष्य मैंने न पहले कभी देखा और न बाद में ही दीखने की आशा है, उन्होंने मानों दया और उपकार करने के लिये ही जन्य लिया था । किसी भी दु:खगाथा से अवगत होना और उसे हल्का करने को तत्काल दौड़ना ही उनके चरित्र का स्वाभाविक कारण और अवश्यंभावी कार्य बन गया था जैसे । वे इस यंत्रणापूर्ण दु:खालय में मानो नरक के प्राणियों को स्वर्ग का सयत्न-संचित नंदनवारि वितरण करते । किसी भी अभाव, अन्याय या अनर्थक कष्टमोचन का श्रेष्ठ उपाय था उसे डाक्टर बाबू के कानों तक पहुंचा देना । उसे दूर करना यदि उनके बस का होता तो वैसी व्यवस्था करने से नहीं चूकते थे । वैधनाथ बाबू हृदय में गभीर देशभक्ति संजोये थे लेकिन सरकारी नौकर होने के कारण प्राणों की उस भावना को चरितार्थ करने में अक्षम थे । उनका एकमात्र दोष था जरूरत से ज्यादा सहानुभूति । किंतु वह भाव जेल के अधिकारी के लिये दोष होते हुए भी उच्च नीति के अनुसार मनुष्यत्व का चरम विकास और भगवान् का प्रियतम गुण कहलाता है । उनके लिये साधारण कैदियों और
'वंदे मातरम्' के कैदियों में कोई भेद नहीं था; पीड़ित देखते ही सभी को सयत्न
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हस्पताल में रखते और पूर्ण शारीरिक स्वास्थ्यलाभ हुए बिना छोड़ना नहीं चाहते थे । यह दोष ही था उनके बरख़ासत किये जाने का असली कारण । गोसाईं की हत्या के बाद अधिकारियों ने उनके इस आचरण पर संदेह कर उन्हें अन्यायपूर्वक कर्मच्युत कर दिया ।
इन सब अधिकारियों की दया और मनुष्योचित स्वभाव का वर्णन करने का विशेष अभिप्राय है । जेल में हमारे लिये जो व्यवस्था की गयी थी, पहले उसकी आलोचना करने को बाध्य हुआ था और उसके बाद भी ब्रिटिश जेलप्रणाली की अमानुषिक निष्ठुरता सिद्ध करने की चेष्टा करूंगा । बाद में कोई भी पाठक इस निष्ठुरता को कर्मचारियों के चरित्र का कुफल न मान लें इसीलिये किया है मुख्य कर्मचारियों के गुणों का बखान । कारावास की प्रथम अवस्था के विवरण में उनके इन सब गुणों के और भी प्रमाण मिलेंगे ।
निर्जन कारावास में पहले दिन की मानसिक अवस्था का वर्णन कर चुका हूं । इस निर्जन कारावास में समय बिताने के लिये पुस्तक या दूसरी कोई वस्तु के बिना कुछ दिन रहना पड़ा था । बाद में इमर्सन साहब मुझे घर से धोती, कुर्ता और पढ़ने को किताबें मंगवाने की अनुमति दे गये । मैंने कर्मचारियों से कलम, दवात और चिट्ठी के लिये जेल के छपे कागज मंगवा अपने पूजनीय मौसा, 'संजीवनी' के सुप्रसिद्ध संपादक को धोती, कुर्ता और पढ़ने की किताबों में गीता और उपनिषद् भेजने का अनुरोध किया । इन दो पुस्तकों को मुझतक पहुंचने में दो-चार दिन लगे । तबतक निर्जन कारावास का महत्त्व समझने का यथेष्ट अवसर मिला । यह भी जाना कि ऐसे कारावास में दृढ़ और सुप्रतिष्ठित बुद्धि भी नष्ट होती है और जल्द ही उन्मादावस्था को पहुंच जाती है और इसी अवस्था में भगवान् की असीम दया और उनके साथ युक्त होने का कितना दुर्लभ सुअवसर है यह भी हृदयंगम हुआ । कारावास से पहले मुझे एक घंटा सवेरे और एक घंटा शाम को ध्यान करने का अभ्यास था । इस निर्जन कारावास में और कोई काम न होने से ज्यादा देर ध्यानावस्थित रहने की चेष्टा की । किंतु मनुष्य के सहस्त्रों दिशाओं की ओर भागनेवाले चंचल मन को ध्यानार्थ यथेष्ट संयत और एक लक्ष्यमुखी रखना अनभ्यस्त मनुष्य के लिये सहज नहीं । किसी तरह डेढ़-दो घंटे एकमन हो रह पाता, फिर मन विद्रोही हो उठता, देह भी अवसन्न पड़ जाती । पहले नाना विचारों में व्यस्त रहता था । बाद में मनुष्य की उस आलापरहित चिंतन की विषयशून्य असहनीय अकर्मण्यता से मन धीरे-धीरे चिंतनशक्ति-रहित होने लगा । ऐसी अवस्था होने लगी मानों सहस्र अस्पष्ट विचार मन के सब द्धारों के चारों ओर चक्कर काट रहे हैं किंतु प्रवेश-पथ निरुद्ध है; दो-एक प्रवेश करने में समर्थ होने पर भी उस निस्तब्ध मनोराज्य की नीरवता से भयभीत हो निःशब्द भाग खड़े होते । इस अनिश्चित अवश अवस्था से अतिशय मानसिक कष्ट पाने लगा । प्रकृति को शोभा से चित्तवृत्ति स्निग्ध होने और तप्त मन को सांत्वना मिलने की आशा से बाहर की
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ओर निहारा, किंतु उसी एकमात्र वृक्ष, नीलाकाश के परिमित टुकड़े और जेल के उसी नीरस दृश्य से मनुष्य का ऐसी अवस्थाप्राप्त मन भला कितनी देर सांत्वना पा सकता है ? दीवारों की ओर ताका, जेल की कोठरी की उस निर्जीव सफेद दीवार के दर्शन से मन और भी अधिक निरुपाय हो केवल वृद्धावस्था की यंत्रणा ही उपलब्ध कर मस्तिष्क के पिंजरे में छटपटाने लगा । फिर से ध्यान करने बैठा, किसी भी तरह ध्यान न कर सका वरन् उस तीव्र विफल चेष्टा से मन और भी श्रांत, अकर्मण्य और दग्ध होने लगा । चारों ओर नजर दौड़ायी, अंतत: जमीन पर कुछ बड़ी-बड़ी काली चीटियों को विवर के पास घूमते-फिरते देखा, उनकी गतिविधि, चेष्टा और चरित्र का निरीक्षण करते-करते समय कट गया । उसके बाद देखता हूं कि छोटी-छोटी लाल चीटियां भी चल-फिर रही हैं । काली और लाल में बड़ा झगड़ा, काली चीटियां लाल को देख काट-काट कर उन्हें मार डालने लगीं । अत्याचार से पीड़ित लाल चींटियों पर बड़ी दया और सहानुभूति उपजी । मैं काली चीटियों को भगा उन्हें बचाने लगा । इससे एक काम जुटा, सोचने का विषय भी मिला, चीटियों की सहायता से ये कुछ दिन कट गये । फिर भी दीर्घ दिनाद्धॅ बिताने का कोई उपाय नहीं जुटता था । मन को समझाया, जबरदस्ती विचारों को खींच लाया किंतु दिन प्रतिदिन मन विद्रोही होने लगा, हाहाकार करने लगा । काल मानों उसपर असह्य भार बन पीड़ा पहुंचा रहा हो, उस चाप से चूर्ण हो हांफने तक की शक्ति वह नहीं पा रहा था, मानों स्वप्न में शत्रु द्धारा आक्रांत व्यक्ति गला घोटने से मरा जा रहा हो एवं हाथ-पैर होते हुए भी हिलने-डुलने की शक्ति न हो । यह अवस्था देख मैं आश्चर्यचकित रह गया । सच है कि मुझे अकर्मण्य और निश्चेष्ट रहना कभी न रुचा, फिर भी कितनी ही बार एकाकी रह चिंतन-मनन में समय गुजारा है, अब मन में ऐसी क्या दुर्बलता आ गयी है कि थोड़े दिन के इस एकांत से आकुल हो उठा हूं । सोचने लगा कि शायद उस स्वेच्छाप्राप्त एकांत और इस परेच्छाप्राप्त एकांत में प्रभेद है । घर में रहते हुए एकाकी रहना एक बात है और परेच्छावश कारागृह में यह निर्जनवास बिलकुल दूसरी बात । वहां, जब चाहूं मनुष्य का आश्रय ले सकता हूं, पुस्तकगत ज्ञान और भाषालालित्य में, बंधु-बांधव के प्रिय संभाषण में, रास्ते के कोलाहल में, जगत् के विविध दृश्यों में मन की तृप्ति का साधन पा प्राणों को शीतल कर सकता हूं । किंतु यहां कठोर नियमों में आबद्ध हो परेच्छा से सब संसर्गो से रहित हो रहना होगा । कहते हैं, जो निर्जनता सह सकता है वह या तो देवता है या पशु, मनुष्य के लिये यह संयम है साध्यातीत । पहले इस बात में विश्वास नहीं कर पाता था, अब समझा कि सचमुच योगाभ्यस्त साधकों के लिये भी यह संयम सहजसाध्य नहीं । याद हो आया इतालवी राजहत्यारे ब्रेशी का भयंकर अंत । उनके निष्ठुर न्यायाधीशों ने उन्हें प्राण दण्ड न दे सात साल के निर्जन कारावास की सजा दी थी । एक साल बीतते-न-बीतते ब्रेशी पागल हो गया । तो भी इतने दिन तो सहा ! मेरे मन की द्रढ़ता क्या इतनी कम है ? उस समय समझ सका था कि भगवान् मेरे
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साथ खेल रहे हैं, खेल-खेल में कुछ आवश्यक शिक्षाएं दे रहे हैं । मन की कैसी अवस्था में निर्जन कारावास के कैदी पागलपन की ओर दौड़ते हैं, उन्होंने यह दिखा, कारावास की ऐसी अमानुषिक निष्ठुरता समझा मुझे यूरोपीय जेल-प्रणाली का घोर विरोधी बना दिया, जिससे मैं यथाशक्ति देशवासियों और जगत् को इस बर्बरता से मोड़ दयानुमोदित जेल-प्रणाली का पक्षपाती बनाने की चेष्टा करूं, यह थी उनकी पहली शिक्षा । याद आता है, पन्द्रह साल पहले विलायत से स्वदेश लौटकर जब मैंने बंबई से प्रकाशित 'इंदु प्रकाश' पत्रिका में कांग्रेस की निवेदन-नीति के विरुद्ध तीव्र आलोचनात्मक प्रबंध लिखने शुरू किये थे तो स्वर्गीय महादेव गोविंद रानाडे ने युवकों के मन पर इन प्रबंधों का प्रभाव पड़ते देख उन्हें बंद करने के उद्देश्य से, जैसे ही में उनसे मिलने गया, मुझे आधे घंटे तक इस काम को छोड़ कांग्रेस का दूसरा कोई भी कार्यभार ग्रहण करने का उपदेश दिया । उनकी इच्छा मुझे जेल-प्रणाली-सुधार का कार्य देने की थी । रानाडे की इस अप्रत्याशित उक्ति से में आश्चर्यचकित और असंतुष्ट हुआ था और उस कार्यभार को अस्वीकार किया था । तब नहीं जानता था कि यह है सुदूर भविष्य का पूर्वाभासमात्र और एक दिन स्वयं भगवान् मुझे जैल में एक साल रखकर इस प्रणाली की क्रूरता और व्यर्थता एवं सुधार की आवश्यकता दिखायेंगे । अब समझा कि आज की राजनीतिक अवस्था में इस जेल-प्रणाली के सुधार की संभावना नहीं, फिर भी, जेल में बैठे-बैठे, अपनी अंतरात्मा को साक्षी बना, उसका प्रचार करने और उसके संबंध में युक्ति-तर्क देने की प्रतिज्ञा की जिससे स्वाधीन भारत में विदेशी सभ्यता का यह नारकीय अंश चिपका न रहे । भगवान् की दूसरी अभिसंधि थी मेरे मन की इस दुर्बलता को मन के आगे रख हमेशा के लिये विनष्ट करना । जो योगावस्था के प्रार्थी हैं उनके लिये जनता और निर्जनता समान होनी उचित हैं । वास्तव में बहुत थोड़े ही दिनों में यह दुर्बलता झड़ गयी, अब लगता है की बीस साल अकेले रहने पर भी मन चंचल नहीं होगा | मंगलमय अमंगलद्धारा भी परम मंगल साधते हैं | तीसरी अभिसंधि मुझे यह शिक्षा देना की मेरे योगाभ्यास में स्वचेष्टा से कुछ नहीं होगा, श्रद्धा और संपूर्ण आत्मसमर्पण ही है सिद्धि पाने का पथ; भगवान् प्रसन्न हो स्वयं जो शकित, सिद्धि या आनंद देगे उसे ही ग्रहण कर उनके कार्य में लगाना ही होगा मेरी योगस्पृहा का एकमात्र उद्देश्य | जिस दिन से आज्ञान का प्रगाढ़ अंधकार छंटने लगा, उसी दिन से मैं जगत् की सब घटना का निरीक्षण करते-करते मंगलमय श्रीहरि के आश्चर्यमय अनंत मंगल स्वरूप की उपलब्धि कर रहा हूं | एसी कोई घटना नहीं-चाहे वह घटना महान् हो या छोटी-से भी छोटी--जिसके द्वारा कोई मंगल संपन्न नहीं होता | प्राय: वे एक कार्य द्वारा दो-चार उद्देश्य सिद्धि करते है | हम जगत् में बहुत बार अंधशक्ति की लीला देखते हैं, अपव्यय ही प्रकृति का नियम है-कहकर भगवन् की सर्वज्ञता को अस्वीकार कर ईश्वरीय बुद्धि को दोषी ठहराते हैं | यह अभियोग निर्मूल है | ईश्वरीय शक्ति कभी भी अंधभाव से कार्य नहीं करती, बूंद-भर भी उनकी शकित का
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अपव्यय नहीं हो सकता वरन् वे ऐसे संयत तरीके से अल्प व्यय द्धारा प्रचुर फल उत्पादित करते हैं कि मनुष्य कल्पना भी नहीं कर सकता ।
इस तरह मन की निश्चेष्टता से पीड़ित हो कुछ दिन कष्ट से समय काट। । एक दिन अपराह्न् को कुछ सोच रहा था, विचार उमइने लगे, सारे विचार इतने असंयत और असंलग्न होने लगे कि मैं समझ गया कि विचारों पर बुद्धि की निग्रहशक्ति लुप्त हो चली है । उसके बाद जब प्रकृतिस्थ हुआ तो देखा कि बुद्धि की निग्रह-शक्ति लुप्त होने पर भी स्वयं बुद्धि लुप्त या पलभर को भी नष्ट नहीं हुई, वरन् शांतभाव से मन की इस अपूर्व क्रिया का जैसे निरीक्षण कर रही थी । किंतु तब मैं उन्मत्तता के भय से त्रस्त हो इस ओर ध्यान नहीं दे पाया । प्राणपन से भगवान् को पुकारा, अपने बुद्धिभ्रंश के निवारण के लिये कहा । उसी क्षण मेरे संपूर्ण अंतःकरण में हठात् ऐसी शीतलता व्यापने लगी, उत्तप्त मन ऐसा स्निग्ध, प्रसन्न और परम सुखी हो उठा कि जीवन में पहले कभी इतनी सुखमय अवस्था अनुभव नहीं कर सका था । जैसे शिशु मात्रृ-अंक में आश्वस्त और निर्भीक हो सोया रहता है मैं भी मानो विश्वजननी की गोद में उसी तरह सोया रहा । इसी दिन से मेरा कारावास का कष्ट खतम हो गया । इसके बाद कई बार वृद्धावस्था की अशांति, निर्जन कारावास में कर्महीनता से मन की उद्धिग्नता, शारीरिक क्लेश या व्याधि, योगान्तर्गत कातर अवस्थाएं आयीं किंतु उस दिन भगवान् ने एक पल में अंतरात्मा में ऐसी शक्ति भर दी कि ये सब दुःख मन पर छाने और मन पर से हट जाने के बाद कोई दाग या चिह्न न छोड़ पाते, दुःख में ही बल और आनंद अनुभव कर बुद्धि मन के दुःखों का प्रत्याख्यान करने में समर्थ होती । पद्मपत्र पर जलबिंदुवत् महसूस होता वह दुःख । उसके बाद जब पुस्तकें आयीं तो उनकी आवश्यकता बहुत कम रह गयी थी । पुस्तकें न आने पर भी अब मैं रह सकता था । यधपि इन प्रबंधों का उद्देश्य अपने आंतरिक जीवन का इतिहास लिखना नहीं फिर भी इस घटना का उल्लेख किये बिना न रह सका । बाद में, दीर्घकालीन निर्जन कारावास में क्योंकर आनंदपूर्वक रहना संभव हुआ वह इस घटना से समझा जा सकेगा । इसी हेतु भगवान् ने वैसी अवस्था रची । उन्होंने पागल न बना निर्जन कारावास में पागल हो जाने की क्रमिक प्रक्रिया का मेरे मन में अभिनय करा बुद्धि को उस नाटक के अविचलित दर्शक के रूप में बिठाये रखा । उससे मुझे शक्ति मिली, मनुष्य की निष्ठुरता के कारण अत्याचार-पीड़ित व्यक्तियों के प्रति दया और सहानुभूति बढ़ी और प्रार्थना की असाधारण शक्ति व सफलता हृदयंगम की ।
मेरे निर्जन कारावास के समय डाक्टर डैलि और सहकारी सुपरिण्टेण्डेण्ट साहब प्रायः हर रोज मेरे कमरे में आ दो-चार बातें कर जाते । पता नहीं क्यों, मैं शुरू से ही उनका विशेष अनुग्रह और सहानुभूति पा सका था । मैं उनके साथ कोई विशेष बात न करता, वे जो पूछते उसका उत्तर-भर दे देता । वे जो विषय उठाते वह या तो चुपचाप
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सुनता या केवल दो-एक सामान्य बात कह चुप हो जाता । तथापि वे मेरे पास आना न छोड़ते । एक दिन डैलि साहब ने मुझसे कहा कि मैंने सहकारी सुपरिण्टेण्डेण्ट को कहकर बड़े साहब को मना लिया है कि तुम प्रतिदिन सवेरे-शाम डिक्री के सामने टहल सकोगे | तुम सारा दिन एक छोटी-सी कोठरी में बंध रहो यह मुझे अच्छा नहीं लगता, इससे मन खराब होता है और शरीर भी | उस दिन से मैं सवेरे-शाम डिक्री के आगे खुली जगह में घूमने लगा | शाम को दस, पंद्रह , बीस मिनट घूमता लेकिन सवेरे एक घंटा, किसी-किसी दिन दो घंटे तक बाहर रहता, समय को कोई पाबंदी नहीं थी | यह समय बहुत अच्छा लगता | एक तरफ जेल का कारखाना, दूसरी तरफ गोशाला-मेरे स्वाधीन राज्य की दो सीमाएं | कारखाने से गोशाला, गोशाला से कारखाने तक घूमते-घूमते या तो उपनिषद् के गभीर, भावोद्दीपक, अक्षय शक्तिदायक मंत्रो की आवृत्ति करता या फिर कैदियों का कार्य-कलाप और यातायात देख 'सर्वघट में नारायण है' इस मूल सत्य को उपलब्ध करने की चेष्टा करता | वृक्ष, गृह, प्राचीर, मनुष्य, पशु, पक्षी, धातु और मिट्टी में, सर्वभूतों में 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' मंत्र का मन-हि- मन उच्चारण कर इस उपलब्धि को आरोपित करता | यह करते-करते ऐसा भाव हो जाता की कारागार और करागार न लगता | वह उच्च प्राचीर, लौह कपाट, वह सफ़ेद दीवार, वह सूर्य-रश्मि- दीप्त नील-पत्र-शोभित वृक्ष, छोटा-मोटा सामान मानों अब अचेतन नहीं रहा, सर्वव्यापी, चैतन्य-पूर्ण हो सजीव हो उठा, ऐसा लगता की वे मुझसे स्नेह करते हैं, मुझे आलिंगन में भर लेना चाहते हैं | मनुष्य, गौ, चींटी और विहंग चल रहे हैं, उड़ रहे हैं, गा रहे हैं, बातें कर रहे हैं, पर है यह सब प्रकृति की क्रीड़ा; भीतर एक महान् निर्मल, निर्लिप्त आत्मा शांतिमय आनंद में निमग्न हो विराजमान है | कभी-कभी ऐसा अनुभव होता मानों भगवान् उस वृक्ष के नीचे खड़े आनंद की वंशी बजा रहे हैं, और उस माधुर्य से मेरा हृदय मोह ले रहे हैं | सदा यह अहसास होने लगा की कोई मुझे आलिंगन में भर रहा है, कोई मुझे गोद में लिये हुए है | इस भावस्फुटन से मेरे सारे मन-प्राण को अधिकृत कर एक निर्मल महती शांति विराजने लगी, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता | प्राणों का कठिन आवरण खुल गया और सभी जीवों पर प्रेम का स्त्रोत्र उमड़ पड़ा | प्रेम के साथ दया, करुणा, अहिंसा इत्यादि सात्त्विक भाव मेरे राज:प्रधान स्वभाव को अभिभूत कर और अधिक पनपने लगे | और जैसे-जैसे वे बढ़ने लगे वैसे-वैसे आनंद भी बढ़ा एवं निर्मल शांतिभाव गंभीर हुआ | मुकदमे की दुश्चिंता पहले ही दूर हो गयी थी, अब उससे उल्टा विचार मन में आया | भगवान् मंगलमय हैं, मेरे मंगल के लिये ही मुझे कारागृह में लाये हैं, कारामुक्ति और अभियोग-खण्डन अवश्य ही होगा यह दृढ़ विश्वास जम गया | इसके बाद बहुत दिन तक मुझे जेल में कोई भी कष्ट भोगना नहीं पड़ा |
इस अवस्था को घनीभूत होने में कुछ दिन लगे, इसी बिच मजिस्ट्रेट की अदालत में मुकदमा शुरू हुआ | निर्जन कारावास की नीरवता से हठात् बाह्य जगत् के
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कोलाहल में लाये जाने पर शुरू-शुरू में मन बड़ा विचलित हुआ, साधना का धैर्य टूट गया और पांच-पांच घंटे तक मुकदमे के नीरस और विरक्तिकर बयान सुनने को मन किसी भी तरह राजी नहीं हुआ । पहले अदालत में बैठ साधना करने की चेष्टा करता, लेकिन अनभ्यस्त मन प्रत्येक शब्द और दृश्य की ओर खिंच जाता, शोरगुल में वह चेष्टा व्यर्थ चली जाती, बाद में भावपरिवर्तन हुआ, समीपवर्ती शब्द और दृश्य मन से बाहर ठेल सारी चिंतन-शक्ति को अंतर्मुखी करने की शक्ति जनमी, किंतु यह मुकदमे की प्रथम अवस्था में नहीं हुआ, तब ध्यान-धारणा की प्रकृत क्षमता नहीं थी । इसीलिये यह वृथा चेष्टा त्याग बीच-बीच में सर्वभूतों में ईश्वर के दर्शन कर संतुष्ट रहता, बाकी समय विपत्ति के साथियों की बातों और उनके कार्य-कलाप पर ध्यान देता, दूसरा कुछ सोचता, या कभी नोर्टन साहब को श्रवन-योग्य बात या गवाहों की गवाही भी सुनता । देखता कि निर्जन कारागृह में समय काटना जितना सहज और सुखकर हो उठा है, जनता के बीच और इस गुरुतर मुकदमे के जीवन-मरण के खेल के बीच समय काटना उतना सहज नहीं । अभियुक्त लड़कों का हंसी-मजाक और आमोद-प्रमोद सुनना और देखना बड़ा अच्छा लगता, नहीं तो अदालत का समय केवल विरक्तिकर ही महसूस होता । साढ़े चार बजे कैदियों की गाड़ी में बैठ सानंद जेल लौट आता ।
पंद्रह-सोलह दिन को बंदी अवस्था के बाद स्वाधीन मनुष्य-जीवन का संसर्ग और एक-दूसरे का मुख देख दूसरे कैदी अत्यंत आनंदित हुए । गाड़ी में चढ़ते ही उनकी हंसी और बातों का फव्वारा फूट पड़ता और जो दस मिनट उन्हें गाड़ी भें मिलते थै उसमें पल-भर को भी वह स्रोत न थमता । पहले दिन हमें खूब सम्मान के साथ अदालत ले गये । हमारे साथ ही थी यूरोपियन सार्जेंटों की छोटी पलटन और उनके साथ थीं गोली भरी पिस्तौलें । गाड़ी में चढ़ते समय सशस्त्र पुलिस की एक टुकड़ी हमें घेरे रहती और गाड़ी के पीछे परेड करती, उतरते समय भी यही आयोजन था । इस साज-सज्जा को देख किसी-किसी अनभिज्ञ दर्शक ने निश्चय ही यह सोचा होगा कि ये हास्य-प्रिय अल्पवयस्क लड़के न जाने कितने दु:साहसी विख्यात महायोद्धाओं का दल है । न जाने उनके प्राणों और शरीर में कितना साहस और बल है जो खाली हाथ सौ पुलिस और गोरों की दुर्भेध प्राचीर भेद पलायन करने में सक्षम हैं । इसीलिये शायद उन्हें इतने सम्मान के साथ इस तरह ले जाते हैं । कुछ दिन यह ठाठ चला, फिर क्रमश: कम होने लगा, अंत में दो-चार सार्जेंट हमें ले जाते और ले आते । उतरते समय वे ज्यादा ख्याल नहीं करते थे कि हम कैसे जेल में घुसते हैं; हम मानों स्वाधीन भाव से धूम-फिर कर घर लौट रहे हों, उसी तरह जेल में घुसते । ऐसी असावधानी और शिथिलता देख पुलिस कमिश्नर साहब और कुछ सुपरिण्टेण्डेण्ट क्रुद्ध हो बोले, ''पहले दिन पचीस-तीस सार्जेंटों की व्यवस्था की थी, आजकल देखता हूं चार-पांच नहीं आते |" वे सार्जेंटों की भर्त्सना करते और रक्षण-निरीक्षण की कठोर
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व्यवस्था करते; उसके बाद दो-एक दिन और दो सार्जेंट आते और फिर वही पहले जैसी शिथिलता आरंभ हो जाती । सार्जेंटों ने देखा कि बम-भक्त बड़े निरीह और शांत लोग हैं, पलायन में उनका कोई प्रयास नहीं, किसी पर आक्रमण करने या हत्या करने की भी मंशा नहीं, उन्होंने सोचा कि हम क्यों अमूल्य समय इस विरक्तिकर कार्य में नष्ट करें । पहले अदालत में घुसते और निकलते समय हमारी तलाशी लेते थे, उससे सार्जंटों के कोमल करस्पर्श का सुख अनुभव करते, इसके अलावा इस तलाशी से किसी के लाभ या क्षति की संभावना नहीं थी । स्पट था कि इस तलाशी की आवश्यकता में हमारे रक्षकों की गंभीर अनास्था है । दो-चार दिन बाद यह भी बंद हो गयी । हम अदालत में किताब, रोटी-चीनी जो इच्छा हो निर्विघ्न के ले जाते । पहले-पहल छिपाकर बाद में खुले आम । हम बम या पिस्तौल चलायेंगे, उनका यह विश्वास शीघ्र ही उठ गया । किंतु मैंने देखा कि एक भय सार्जेंटों के मन से नहीं गया । कौन जाने किसके मन में कब मजिस्ट्रेट साहब के महिमान्वित मस्तक पर जूते फेंकने की बदनीयत पैदा हो जाये, ऐसा हुआ तो सर्वनाश । अत: जूते भीतर ले जाना विशेषतया निषिद्ध था, और उस विषय में सार्जेंट हमेशा सतर्क रहते । और किसी तरह की सावधानता के प्रति आग्रह नहीं देखा ।
मुकदमे का स्वरूप कुछ विचित्र था । मजिस्ट्रेट, परामर्शदाता, साक्षी, साक्ष्य exhibits (साक्ष्य-सामग्री), आसामी सभी विचित्र । दिन-पर-दिन उन्हीं गवाहों और exhibits का अविराम प्रवाह, उसी परामर्शदाता का नाटकोचित अभिनय, उसी बालक-स्वभाव मजिस्ट्रेट की बालकोचित चपलता और लघुता । इस अपूर्व दृश्य को देखते-देखते बहुत बार मन में यह कल्पना उठती कि हम ब्रिटिश विचारालय में न बैठ किसी नाटकगृह के रंगमंच पर या किसी कल्पनापूर्ण औपन्यासिक राज्य में बैठे हैं । अब उस राज्य के सब विचित्र जीवों का संक्षिप्त वर्णन करता हूं ।
इस नाटक के प्रधान अभिनेता थे सरकार बहादुर के परामर्शदाता नोर्टन साहब । प्रधान अभिनेता ही क्यों इस नाटक के रचयिता, सूत्रधार (stage manager) और साक्षी-स्मारक (prompter) भी थे-ऐसी वैचित्र्यमयी प्रतिभा जगत् में विरल है । परामर्शदाता नार्टन थे मद्रासी साहब, इसीलिये शायद थे बंगाली बैरिस्टर मंडली की प्रचलित नीति और भद्रता से अनभ्यस्त एवं अनभिज्ञ । वे कभी राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता रहे थे, शायद इसीलिये विरोध और प्रतिवाद सह नहीं सकते थे और विरोधी को शासित करने के आदी थे । ऐसी प्रकृति को लोग कहते हैं हिंस्रस्वभाव । नोर्टन साहब कभी मद्रास कॉरपोरेशन के सिंह रहे कि नहीं, यह नहीं कह सकता पर हा, अलीपुर कोर्ट के सिंह तो थे ही । उनकी कानूनी अभिज्ञता की पैठ पर मुग्ध होना कठिन है-वह थी मानों ग्रीष्मकाल की शीत । किंतु वक्तृता के अनर्गल प्रवाह में, कथन-शैली में, बात की चोट से राई को पहाड़ बनाने की अदभुत क्षमता में, निराधार या
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आधार लिये हुए कथनों को कहने की दु:साहसिकता में, साक्षी और जूनियर बैरिस्टर की भर्त्सना में और सफेद को काला करने की मनमोहिनी शक्ति में नॉर्टन साहब की अतुलनीय प्रतिभा देख मुग्ध होना ही पड़ता था । श्रेष्ठ परामर्शदाताओं की तीन श्रेणियां हैं-जो कानून के पांडित्य से और यथार्थ व्याख्या और सूक्ष्म विश्लेषण से जज के मन में प्रतीति जनमा सकते हैं; जो चतुराई के साथ साक्षी से सच्ची बात उगलवा और मुकदमे-संबंधी घटनाओं और विवेच्य विषय का दक्षता के साथ प्रदर्शन कर जज या जूरी का मन अपनी ओर आकर्षित कर सकते हैं; और, जो ऊंची आवाज से, घमकियों से, वकृत्वता के प्रवाह से साक्षी को हतबुद्धि कर, मुकदमे के विषय को चमत्कारी ढंग से तोड़-मरोड़, गले के जोर से जज या जूरी की बुद्धि भरमा मुकदमे जीत सकते हैं । नॉर्टन साहब थे तीसरी श्रेणी में अग्रगण्य । यह कोई दोष की बात नहीं । वे ठहरे परामर्शदाता व्यवसायी आदमी, पैसा लेनेवाले, जो पैसा दे उसका अभीप्सित उद्देश्य सिद्ध करना है उनका कर्तव्य-कर्म । आजकल ब्रिटिश कानून-प्रणाली में सच्ची बात बाहर निकालना वादी या प्रतिवादी का असल उद्देश्य नहीं, किसी भी तरह मुकदमा जीतना ही है उद्देश्य । अतएव परामर्शदाता वैसी ही चेष्टा करेंगे, नहीं तो उन्हें धर्मच्युत होना होगा । भगवान् द्धारा अन्य गुण न दिये जाने पर जो गुण हैं उनके बल पर ही मुकदमा जीतना होगा, अत: नॉर्टन साहब स्वधर्म-पालन ही कर रहे थे । सरकार बहादुर उन्हें हर रोज हजार रुपये देती थी । यह अर्थव्यय वृथा जाने से सरकार बहादुर की क्षति होती, यह क्षति न हो इसके लिये नॉर्टन साहब ने प्राणपन से चेष्टा की थी । पर राजनीतिक मुकदमे में आसामी को विशेष उदारता के साथ सुविधा देना और संदेहजनक एवं अनिश्चित प्रमाण पर जोर न देना ब्रिटिश कानून-पद्धति का नियम है । नॉर्टन साहब यदि इस नियम को सदा याद रखते तो, मेरे ख्याल में, उनके केस की कोई हानि न होती । दूसरी तरफ कुछ-एक निर्दोषों को निर्जन कारावास की यंत्रणा न भोगनी पड़ती और निरीह अशोक नंदी की जान भी बच जाती । परामर्शदाता की सिंह-प्रकृति ही थी शायद इस दोष का मूल । होलिंशेड (Holinshed) हॉल (Hall) और प्लूटार्क (Plutarch) जैसे शेक्सपियर के लिये ऐतिहासिक नाटकों का उपादान संगृहीत कर रख गये थे, पुलिस ने भी वैसे ही इस मुकदमे के नाटक के उपादान का संग्रह किया था । हमारे नाटक के शेक्सपियर थे नॉर्टन साहब । किंतु शेक्सपियर और नॉर्टन में मैंने एक प्रभेद देखा । संगृहीत उपादान का कुछ अंश शेक्सपियर कहीं-कहीं छोड़ भी देते थे, पर नोर्टन साहब अच्छा-बुरा सत्य-मिथ्या, संलग्न-असंलग्न, अणोरणीयान् महतो महीयान् जो पाते, एक भी न छोड़ते, तिस पर निजी कल्पनासृष्ट - प्रचुर suggestion, inference, hypothesis (सुझाव, अनुमान, परिकल्पना) जुटा सुंदर plot (कथानक) रचा कि शेक्सपियर, डेफो इत्यादि सर्वश्रेष्ठ कवि और उपन्यासकार इस महाप्रभु के आगे मात खा गये । आलोचक कह सकते हैं कि जैसे फालस्टाफ के होटल के बिल में एक आने की रोटी और असंख्य गेलन शराब
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का समावेश था उसी तरह नॉर्टन साहब के plot में एक रत्ती प्रमाण के साथ दस मन अनुमान और suggestion (सुझाव) थे । किंतु आलोचक भी plot की परिपाटी और रचना-कौशल की प्रशंसा करने को बाध्य होगा । नार्टन साहब ने इस नाटक के नायक के रूप में मुझे ही पसंद किया यह देख मैं समधिक प्रसन्न हुआ था । जैसे मिल्टन के "Paradise Lost" का शैतान वैसे ही मैं भी था नॉर्टन साहब के plot का कल्पनाप्रसूत महाविद्रोह का केंद्रस्वरूप, असाधारण तीक्ष्ण बुद्धि-संपन्न क्षमतावान् और प्रतापशाली bold bad man (ढीठ बुरा आदमी) । मैं ही था राष्ट्रीय आंदोलन का आदि और अंत, स्रष्टा और त्राता, ब्रिटिश साम्राज्य का संहार-प्रयासी । उत्कृष्ट और तेजस्वी अंग्रेजी लेख देखते ही नॉर्टन साहब उछल पड़ते और उच्च स्वर में कहते-अरविन्द घोष । आंदोलन के जितने भी वैध, अवैध, सुश्रुंखलित अंग या अप्रत्याशित फल-वे सभी अरविन्द घोष की सृष्टि, और क्योंकि वे अरविन्द की सृष्टि हैं इसलिये वैध होने पर भी उसमें अवैध अभिसंधि गुप्त रूप से निहित है । शायद उनका यह विश्वास था कि अगर मैं पकड़ा न गया तो दो साल के अंदर-अंदर अंग्रेजों के भारतीय साम्राज्य का ध्वंस हो जायेगा । किसी फटे कागज के टुकड़े पर मेरा नाम पाते ही नॉर्टन साहब खूब खुश होते और इस परम मूल्यवान् प्रमाण को मजिस्ट्रेट के श्रीचरणों में सादर समर्पित करते । अफसोस कि मैं अवतार बनकर नहीं जनमा, नहीं तो मेरे प्रति उस समय की उनकी इतनी भक्ति और मेरे अनवरत ध्यान से नॉर्टन साहब निश्चित ही उसी समय मुक्ति पा जाते जिससे हमारी कारावास की अवधि और गवर्नमेंट का अर्थव्यय दोनों की ही बचत होती । सेशंस अदालत द्धारा मुझे निर्दोष प्रमाणित किये जाने से नॉर्टन-रचित plot की सब श्री और गौरव नष्ट हो गया । बेरसिक बीचक्राफ्ट 'हैमलेट' नाटक से हैमलेट को निकाल बीसवीं सदी के श्रेष्ठ काव्य को हतश्री कर गये । समालोचक को यदि काव्य-परिवर्तन का अधिकार दे दिया जाये तो भला क्यों न होगी ऐसी दुर्दशा ! नॉर्टन साहब को और एक दुःख था, कुछ गवाह भी ऐसे बेरसिक थे कि उन्होंने भी उनके रचित plot के अनुसार गवाही देने से साफ इन्कार कर दिया । नॉर्टन साहब ग़ुस्से से लाल-पीले हो जाते, सिंह-गर्जना से उनके प्राण कंपा उन्हें धमकाते । जैसे कवि को स्वरचित शब्द की अन्यथा प्रकाशन पर और सूत्रधार को, अभिनेता की आवृत्ति, स्वर या अंगभंगिमा उसके दिये गये निर्देशों के विरुद होने पर न्यायसंगत और अदमनीय क्रोध आता है, वैसा ही क्रोध आता था नार्टन साहब को । बैरिस्टर भुवन चटर्जी के साथ हुए संघर्ष का कारण यह सात्त्विक क्रोध ही था । चटर्जी महाशय के जितना रसानभिज्ञ पुरुष तो कोई नहीं देखा । उन्हें रत्तीभर भी समय-असमय का ज्ञान नहीं था । नॉर्टन साहब जब संलग्न-असंलग्न का विचार न कर केवल कवित्व की खातिर जिस-तिस प्रमाण को घुसेड़ते, तब चटर्जी महाशय खड़े हो असंलग्न या inadmissible (अमान्य) कह आपत्ति करते । वे समझ न सके कि ये साक्ष्य इसलिये नहीं पेश किये जा रहे कि ये संलग्न या कानून -
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सम्मत हैं वरन इसलिये कि वे नार्टनकृत नाटक में शायद उपयोगी हों । इस असंगत व्यवहार से नॉर्टन ही क्यों, बर्ली साहब तक झुंझला उठते । एक बार बर्ली साहब ने चटर्जी महाशय को बड़े करुण स्वर में कहा था, ''Mr, Chatterjee, we were getting on very nicely before you came--आपके आने से पहले हम निर्विघ्न मुकदमा चला रहे थे ।'' सच ही तो है, नाटक की रचना के समय बात-बात पर आपत्ति उठाने से नाटक भी आगे नहीं बढ़ता और दर्शकों को भी मजा नहीं आता ।
यदि नॉर्टन साहब थे नाटक के रचयिता, प्रधान अभिनेता और सूत्रधार तो मजिस्ट्रेट बर्ली को कहा जा सकता है नाटककार का पृष्ठपोषक या patron । बर्ली साहब शायद थे स्कॉच जाति के गौरव । उनका चेहरा स्कॉटलैंड की याद दिलाता था । खूब गोरी, खूब लम्बी, अतिकृष्ट दीर्घ देहयष्टि पर छोटा-सा सिर देख ऐसा लगता था जैसे अभ्रभेदी ऑक्टोरलोनी के monument (स्मारक) पर छोटे-से ऑक्टोरलोनी बैठे हो, या क्लियोपेट्रा के obelisk (स्तंभ) के शिखर पर एक पका नारियल रखा हो । उनके बाल थे धूसर वर्ण (sandy haired) और स्कॉटलैंड को सारी ठंड और बर्फ उनके चेहरे के भाव पर जमी हुई थी । जो इतना दीर्घकाय ही उसकी बुद्धि भी तद्रूप होनी चाहिये, नहीं तो प्रकृति की मितव्ययिता के संबंध में संदेह होता है । किंतु इस प्रसंग में, बर्ली की सृष्टि के समय, लगता है, प्रकृति देवी कुछ अनमनी एवं अन्यमनस्क हो गयी थीं । अंग्रेज कवि मार्लो ने इस मितव्ययिता का infinite riches in a little room (छोटे-से भण्डार में असीम धन) कह वर्णन किया है किंतु बर्ली का दर्शन कवि के वर्णन से विपरीत भाव मन में जगाता है--infinite room in little riches (असीम भण्डार के लिये थोड़ा-सा धन) । सचमुच इस दीर्घ देह में इतनी थोड़ी विधा--बुद्धि देख दुःख होता था और इस तरह के अल्पसंख्यक शासनकर्ताओं द्धारा तीस कोटि भारतवासी शासित हो रहे हैं यह याद कर अंग्रेजों की महिमा और ब्रिटिश शासन-प्रणाली पर प्रगाढ़ भक्ति उमड़ती थी । श्रीयुत व्योमकेश चक्रवर्ती द्वारा जिरह करते समय बर्ली साहब की विद्या की पोल खुली । इतने साल मजिस्ट्रेटगिरी करने के बाद भी यह निर्णय करने में उनका सिर धूम गया कि उन्होंने अपने करकमलों में यह मुकदमा कब ग्रहण किया या कैसे मुकदमा ग्रहण किया जाता है, इस समस्या को सुलआने में असमर्थ हो चक्रवर्ती साहब पर इसका भार दे साहब स्वयं निष्कृति पाने के लिये सचेष्ट हुए । अभी भी यह प्रश्न मुकदमे की आति जटिल समस्याओं में से एक गिना जाता है कि बर्ली ने कब मुकदमा अपने हाथ में लिया था । चटर्जी महाशय के प्रति किये गये जिस करुण निवेदन का उल्लेख मैंने किया है उससे भी साहब की चिंतनघारा का अनुमान लगाया जा सकता है । शुरू से ही वे नॉर्टन साहब के पाण्डित्य और वाग्विलास से मंत्रमुग्ध हो उनके वश में हो गये थे । ऐसे विनीत भाव से नॉर्टन द्धारा प्रदर्शित पथ का अनुसरण करते, नॉर्टन की हां में हां मिलाते, नॉर्टन के हंसने पर हंसते, नॉर्टन के कुपित होने पर कि यह
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सरल शिशुवत् आचरण देख कभी-कभी मन में प्रबल स्नेह और वात्सल्य का आविर्भाव होता । बर्ली के स्वभाव में निरा लड़कपन था । उन्हें कभी भी मजिस्ट्रेट न मान सका, ऐसा लगता मानों स्कूल का छात्र हठात् स्कूल का शिक्षक बन शिक्षक के उच्च मंच पर चढ़ बैठा है । ऐसे ही वे कोर्ट का काम चलाते । कोई उनके साथ अप्रिय व्यवहार करता तो स्कूली शिक्षक की तरह शासन करते । हम में से यदि कुछ मुकदमे के प्रहसन से विरक्त हो आपस में बातें करने लगते तो बर्ली साहब स्कूलमास्टर की तरह डांट पिलाते, न सुना हो तो सबको खड़े हो जाने की आज्ञा देते, उसका भी तुरत पालन न किया तो प्रहरी को हमें खड़ा कर देने के लिये कहते । हम स्कुलमास्टर के इस रंग-ढंग को देखने के इतने आदी हो गये थे कि जब बर्ली और चटर्जी महाशय का झगड़ा हुआ तो हम प्रति क्षण इस आशा में थे कि अब बैरिस्टर साहब को खड़े रहने का दंड मिलेगा । बर्ली साहब ने लेकिन उल्टा रास्ता पकड़ा, चिल्लाते हुये sit down Mr. Chaterjee (बैठ जाइये, मि. चटर्जी) कह अलीपुर स्कूल के इस नवागत उद्दण्ड छात्र को बिठा दिया । जैसे कोई-कोई मास्टर छात्र के किसी प्रश्न से या पढ़ाते समय अतिरिक्त व्याख्यान चाहने से उसे डांट देते हैं, बर्ली भी आसामी के वकील की आपत्ति पर खीज उसे डपट देते । कोई-कोई साक्षी नॉर्टन को परेशान करते । नॉर्टन सिद्ध करना चाहते थे कि अमुक लेख अमुक आसामी के हस्ताक्षर हैं, साक्षी यदि कहते कि नहीं, यह तो ठीक उस लेख की तरह नहीं, फिर भी हो सकता है, कहा नहीं जा सकता-बहुत-से साक्षी इसी तरह का उत्तर देते थे-तो नॉर्टन अधीर हो उठते । बक-झक कर, चिल्लाकर, डांट-डपट कर किसी भी उपाय से अभीप्सित उत्तर उगलवाने की चेष्टा करते । उनका अंतिम प्रश्न होता,."What is your belief ?" तुम क्या कहते हो, हां या ना ? साक्षी न हां कह पाते न ना । घुमा-फिरा बराबर वही उत्तर देते । नॉर्टन को यह समझाने की चेष्टा करते कि उनका कोई भी belief (राय) नहीं, वे संदेह में झूल रहे हैं । किंतु नॉर्टन वह उत्तर नहीं चाहते थे, बार-बार मेघगर्जना करते हुए उसी विकट प्रश्न से साक्षी के सिर पर वज्राघात करते, "Come, sir, what is your belief ?" (हां, तो फिर क्या राय है महाशय आपकी ? ) नोर्टन के क्रुद्ध होते ही बर्ली भी ऊपर से गरजते, ''टोमारा क्या राय है ? '' बेचारे साक्षी धर्मसंकट में पड़ जाते । उनकी कोई राय नहीं लेकिन एक तरफ से मजिस्ट्रेट दूसरी तरफ से नॉर्टन क्षुधित व्याघ्र की तरह उनकी बोटी-बोटी अलग कर अमूल्य अप्राप्य राय बाहर निकलवाने को तत्पर हो दोनों तरफ से भीषण गर्जन करते । बहुधा राय जाहिर न होती, चकरायी बुद्धि और पसीने से तर साक्षी उस यंत्रणा-स्थल से अपने प्राण बचा भाग खड़े होते । कोई-कोई प्राणों को ही विश्वास से प्रियतर मान नॉर्टन साहब के चरण-कमलों में झूठी राय का उपहार चढ़ा बच निकलते, नॉर्टन भी अति संतुष्ट हो बाकी जिरह स्नेहसहित संपन्न करते । ऐसे परामर्शदाता के साथ आ मिले थे ऐसे मजिस्ट्रेट तभी तो मुकदमे ने और भी अधिक नाटकीय रूप धारण कर लिया था ।
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कुछ एक साक्षियों के विद्धाचरण करने पर भी अधिकांश नॉर्टन साहब के प्रश्नों का अनुकूल उत्तर देते । इनमें जाने-पहचाने कम ही थे । कोई-कोई किंतु परिचित भी था । देवदास करण महाशय ने हमारी विरक्ति दूर कर हमें खूब हंसाया था, चिरकाल हम उनके कृतज्ञता के ॠण में बंधे रहेंगे । इन साक्षी ने यह गवाही दी थी कि मेदिनीपुर के सम्मेलन के समय जब सुरेन्द्र बाबू ने अपने छात्रों से गुरुभक्ति के बारे में पूछा था तब अरविन्द बाबू बोल पड़े थे, ''द्रोण ने क्या किया? '' यह सुनते ही नॉर्टन साहब के आग्रह और कौतुहल की सीमा न रही, उन्होंने निस्संदेह यह सोचा होगा कि द्रोण या तो कोई बम का भक्त है या राजनीतिक हत्यारा या मानिकतला बागान या छात्रमंडली से संयुक्त कोई व्यक्ति । नॉर्टन के ख्याल में इस वाक्य का अर्थ शायद यह था कि अरविन्द घोष ने सुरेन्द्र बाबू को गुरुभक्ति के बदले बम का पुरस्कार देने का परामर्श दिया था, तब तो मुकदमे में बड़ी सुविधा हो सकती है । अतएव उन्होंने साग्रह प्रश्न किया, ''द्रोण ने क्या किया?'' शुरू में साक्षी किसी भी तरह प्रश्न का उद्देश्य समझ न सके । पांच मिनट तक इसे लेकर खींच-तान चलती रही, अंत में करण महाशय ने दोनों हाथ ऊपर फैला नॉर्टन साहब को जतलाया, ''द्रोण ने अनेक चमत्कार खिलाये थे ।'' इससे नॉर्टन साहब संतुष्ट नहीं हुए । द्रोण के बम का अनुसंधान न मिलने तक संतुष्ट हो भी कैसे ? दुबारा पूछा, ''अनेक चमत्कार क्या बल हैं ? क्या विशेष किया है उन्होंने ?'' साक्षी ने इसके अनेकों उत्तर दिये, एक से भी द्रोणाचार्य के जीवन के इस गुप्त रहस्य का भेद नहीं खुला ! नॉर्टन साहब भड़क उठे, गर्जना शुरू किया । साक्षी भी चिल्लाने लगे । एक वकील ने हंसते हुए यह संदेह व्यक्त किया कि शायद साक्षी को पता नहीं कि द्रोण ने क्या किया । करण महाशय इस पर क्रोध और क्षोभ से आगबबूला हो उठे । चिल्लाये, ''क्या ? मैं ? मैं नहीं जानता कि द्रोण ने क्या किया ? वाह, क्या मैंने वृथा ही सारा महाभारत पढ़ा?" आधे घंटे तक द्रोणाचार्य की मृत-देह पर करण और नॉर्टन का महायुद्ध चला । हर पांच मिनट बाद अलीपुर विचारालय को कंपाते नॉर्टन अपना प्रश्न गुंजाने लगे, " Out with it, Mr. Editor ! What did Drona Do ?" ( हां, बताइये- बताइये, संपादक महाशय द्रोण ने क्या किया ?) उत्तर में संपादक महाशय ने एक लंबी रामकहानी आरंभ की, किंतु द्रोण ने क्या किया, इसका कोई विश्वसनीय संवाद नहीं मिला । सारी अदालत ठहाकों से गूंज उठी । अंत मे टिफिन के समय करण महाशय जरा ठंडे दिमाग से सोच-समझ कर लौटे और समस्या की यह मीमांसा बतलायी कि बेचारे द्रोण ने कुछ नहीं किया, बेकार ही उनकी परलोकगत आत्मा को ले आधे घंटे तक खींच-तान चली, अर्जुन ने ही गुरु द्रोण का वध किया था । अर्जुन के इस मिथ्या अपवाद से द्रोणाचार्य ने निस्तार पा कैलाश में बैठे सदाशिव को धन्यवाद दिया होगा कि करण महाशय को गवाही के कारण अलीपुर के बम-केस में उन्हें कठघरे में खड़ा नहीं होना पड़ा । संपादक महाशय की एक बात से सहज अरविन्द घोष के साथ
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उनका संबंध प्रमाणित हो जाता । किंतु आशुतोष सदाशिव ने उनकी रक्षा की ।
जो गवाही देने आये थे उन्हें तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है । पुलिस और गोयंदा, पुलिस के प्रेम में आबद्ध निम्नश्रेणी के लोग और सज्जन, और तीसरे अपने दोषवश पुलिस-प्रेम से वंचित, अनिच्छा से आये हुए गवाह । हर श्रेणी का गवाही देने का ढंग था अलग-अलग । पुलिस महोदय भाव से, अम्लानवदन अपने पूर्वज्ञात वक्तव्यों को मनमाने ढंग से बोल जाते, जिसे पहचानना होता पहचान लेते-कोई संदेह नहीं, दुविधा नहीं, भूल-चूक नहीं । पुलिस के संगी-साथी अतिशय आग्रह के साथ गवाही देते, जिसे पहचानना होता उसे भी पहचान लेते और जिसे नहीं पहचानना होता उसे भी बहुत बार अतिशय उत्सुकतावश पहचान लेते । अनिच्छा से आये गवाह जो कुछ जानते होते वही कहते, लेकिन वह बहुत थोड़ा होता; नॉर्टन साहब उससे असंतुष्ट हो और यह सोचकर कि साक्षी के पेट में अपार मूल्यवान् और संदेहनाशक प्रमाण हैं, जिरह के बल पर उसका पेट चीर उन्हें बाहर निकालने की भरपूर चेष्टा करते । इससे साक्षी महा संकट में पड़ जाते । एक ओर नॉर्टन साहब की गर्जना और वर्ली साहब की लाल-लाल आंखें, दूसरी ओर झूठी गवाही दे देशवासियों को कालेपानी भेजने का महापाप । गवाहों के सामने एक गुरुतर प्रश्न उठ खड़ा होता नॉर्टन-बर्ली को खुश करें या भगवान् को । एक तरफ क्षणस्थायी विपत्ति-मनुष्यों का कोप, दूसरी ओर पाप का दंड-नरक और परजन्म में दुःख । लेकिन वे सोचते नरक और परजन्म तो दूर की बातें हैं, मनुष्यकृत विपद् तो उन्हें अगले क्षण ही ग्रस सकती है । बहुतों के मन में यह डर था कि मिथ्या गवाही देने के लिये राजी न होने पर भी मिथ्या गवाही के अपराध में पकड़े जायेंगे, क्योंकि ऐसे स्थलों पर परिणाम के दृष्टांत विरल नहीं । अतएव इस श्रेणी के साक्षियों को जो समय साक्षी के कठघरे में अतिवाहित करना पड़ता वह उनके लिये विलक्षण भीति और यंत्रणा का समय होता । जिरह शेष होने पर उनके अर्ध-निर्गत प्राण फिर से देह में लौट उन्हें यंत्रणामुक्त करते । कुछ एक साहस के साथ गवाही देते, नॉर्टन की गर्जना की परवाह न करते, अंग्रेज परामर्शदाता भी यह देख जातीय प्रथा का अनुसरण कर नरम पड़ जाते । इस तरह कितने ही साक्षी आये, कितनी तरह की गवाहियां दे गये, किंतु एक ने भी पुलिस के लिये उल्लेखनीय कोई सुविधा नहीं की । एक ने साफ कहा--मैं कुछ नहीं जानता, समझ नहीं आता क्यों पुलिस मुझे जबरदस्ती खींच लायी है । इस तरह का मुकदमा चलाना शायद भारत में ही संभव है, दूसरे देशों में जज इससे झुंझला उठते और पुलिस का गंजन कर अच्छा सबक सिखाते । बिना अनुसंधान के दोषी-निर्दोष का विचार न कर कठघरे में खड़ा करना, अंदाज से साक्षी खड़े कर देश का पैसा बहाना और आसामियों को निरर्थक लंबे समय तक कारा-यंत्रणा में रखना इस देश की पुलिस को ही शोभा देता है । लेकिन बेचारी पुलिस क्या करे ? वह तो नाम की
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गोयंदा थी, उसमें जब वह क्षमता ही नहीं थी तो ऐसे साक्षियों के लिये एक विशाल जाल फेंककर अंदाज से उत्तम, मध्यम और अधम साक्षी फंसा कठघरे में खड़ा करना ही था एकमात्र उपाय । क्या मालूम शायद वे कुछ जानते हों, कुछ प्रमाण दे भी दें ?
आसामियों को पहचानने की व्यवस्था भी बड़ी रहस्यमय थी । पहले साक्षी से पूछा जाता, तुम इनमें से किसी को पहचान सकोगे ? साक्षी यदि कहते, हां, पहचान सकता हूं तो नॉर्टन साहब हर्षोत्फुल्ल हो तुरत कठघरे में identification parade (पहचान-परेड) की व्यवस्था करा वहां उन्हें अपनी स्मरणशक्ति को चरितार्थ करने का आदेश देते । यदि वे कहते, पता नहीं, शायद पहचान भी लूं , तो जरा नाराजगी से कहते, अच्छा, जाओ चेष्टा करो । यदि कोई कहता, नहीं, नहीं कर सकूंगा, मैंने उन्हें नहीं देखा या ध्यान नहीं दिया तो भी नॉर्टन साहब उन्हें न छोड़ते । शायद इतने चेहरे देख पूर्वजन्म की कोई स्मृति ही जागृत हो जाये इसलिये उसे परीक्षा करने को भेज देते । साक्षी में वैसी योगशक्ति नहीं थी । शायद पूर्वजन्मवाद में आस्था भी नहीं, वे आसामियों की दीर्घ दो पंक्तियों के बीच सार्जेंटों के नेतृत्व में, शुरू से अंत तक गंभीर भाव से कूच करते हुए, हमारे चेहरों को बिना देखे ही सिर हिलाकर कहते-नहीं, नहीं पहचानता । निराश हृदय नॉर्टन इस मत्स्यशून्य जीवंत जाल को समेट लेते । मनुष्य की स्मरणशक्ति कितनी प्रखर और अभ्रांत हो सकती है इसका अपूर्व प्रमाण मिला इस मुकदमे में । तीस-चालीस आदमी खड़े हैं, उनका नाम नहीं पता, किसी भी जन्म में एक बार भी उनके साथ बातचीत नहीं हुई, फिर भी दो मास पहले किसे देखा है, किसे नहीं देखा, अमुक को अमुक तीन जगह देखा, अमुक दो जगह नहीं; एक बार उसे दांत मांजते हुए देखा था इसलिये उसका चेहरा जन्म-जन्मांतर के लिये मेरे मन में अंकित रह गया है । इन्हें कब देखा, क्या कर रहे थे, कौन साथ थे, या एकाकी थे, कुछ भी याद नहीं, फिर भी उनका चेहरा मेरे मन में जन्म-जन्मांतर के लिये अंकित है; हरी को दस बार देखा है इसलिये उन्हें भूलने की कोई संभावना नहीं. श्याम को एक बार सिर्फ आधे मिनट के लिये देखा लेकिन उसे भी मरते दम तक नहीं भूल सकूंगा, भूल-चूक होने की कोई संभावना नहीं--ऐसी स्मरणशक्ति इस अपूर्ण मानव प्रकृति में, इस तमोभिभूत मर्त्य धाम में साधारणत: नहीं मिलती | एक नहीं, दो नहीं, प्रत्येक पुलिसपुंगव में ऐसी विचित्र, निर्मूल, अभ्रांत स्मरणशक्ति देखने को मिली | इससे सि० आई० डी० पर हमारी श्रद्धा-भक्ति दिन-दिन प्रगाढ़ होने लगी | अफसोस है, सैशन्स कोर्ट में वह भक्ति कम करनी पड़ी थी | मजिस्ट्रेट को कोर्ट में दो-एक बार संदेह न हुआ हो ऐसी बात नहीं | जब यह लिखित गवाही देखी की शिशिर घोष अप्रैल में बंबई में थे और ठीक उसी समय कुछ एक पुलिसपुंगवों ने उन्हें स्कोट्स लेन और हैरिसन रोड पर भी देखा तब थोड़ा-सा संदेह तो हुआ ही था | जब श्रीहट्टवासी वीरेंद्र्चंद्र सेन स्थूल शरीर से बनियाचंगा में पितृभवन में रहते हुए भी बागन में और स्कोट्स लेन में-जिस स्कोट्स लेन का पता वीरेंद्र नहीं जानते थे, इसका अकाट्य प्रमाण
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लिखित साक्ष्य में मिला था-उनका सूक्ष्म शरीर सी० आई डी० की सूक्ष्म दृटि ने देखा था, तब और भी संदेह हुआ था । विशेषकर जिन्होंने स्कोट्स लेन में कभी भी पदार्पण नहीं किया, उन्होंने जब सुना कि पुलिस ने उन्हें वहां कई बार देखा है, तब संदेह का उद्रेक होना कुछ अस्वाभाविक नहीं । मेदिनीपुर के एक साक्षी मेदिनीपुर के आसामियों से पता लगा कि वे भी गोयंदा हैं-बोले कि उन्होंने श्रीहट्ट के हेमचंद्र सेन को तमलूक में वक्तृता देखा था । किंतु हेमचंद्र ने अपनी स्थूल आंखों से कभी तमलुक नहीं देखा, तो भी उनके छायामय शरीर ने श्रीहट्ट से सुदूर तमलूक जाकर तेजस्वी और राजद्रोहपूर्ण स्वदेशी व्याख्यान दे गोयंदा महाशय की चक्षुतृप्ति और कर्णत्रुप्ति की थी । किंतु चंदननगर के चारुचंद्र राय के छायामय शरीर ने मानिकतला में उपस्थित हो इससे भी ज्यादा रहस्यमय कांड मचाया था । पुलिस के दो कर्मचारियों ने शपथ खाकर कहा था कि उन्होंने अमुक दिन अमुक समय चारु बाबू को श्यामबाजार में देखा था, वे श्यामबाजार से एक षइयंत्रकारी के साथ मानिकतला बागान तक पैदल गये थे, उन्होंने भी वहां तक उनका पीछा किया था और बहुत पास से देखा था, अत: भूल होने की गुंजायश नहीं । वकील की जिरह से दोनों साक्षी टस-से- मस न हुए । व्यासस्य वचनं सत्यम्-पुलिस,--पुलिस की गवाही भी अन्यथा नहीं हो सकती ।
दिन और समय के संबंध में भी उनकी भूल होने की बात ही नहीं, क्योंकि ठीक, उसी दिन, उसी समय चारु बाबू कॉलिज से छुट्टी ले कलकत्ते में उपस्थित थे, चंदननगर के डुप्ले कॉलिज के अध्यक्ष की गवाही से यह प्रमाणित हुआ था । किंन्तु आश्चर्य ! ठीक उसी दिन, उसी समय चारु बाबू हावड़ा स्टेशन के प्लैटफार्म पर चंदननगर के मेयर तार्दिवाल, तार्दिवाल की पत्नी, चंदननगर के गवर्नर और अन्यान्य संभ्रांत यूरोपीय सज्जनों के साथ बातें करते-करते टहल रहे थे । ये सब इसी बात को याद कर चारु बाबू के पक्ष में गवाही देने के लिये राजी हुए थे । फ्रैंच गवर्नमेंट की चेष्टा पुलिस द्वारा चारु बाबू को छोड़ दिये जाने पर विचारालय में इस रहस्य का उदघाटन नहीं हुआ । किंतु चारु बाबू को मैं यह परामर्श देता हूं कि वे ये सब प्रमाण Psychical Research Society को भेज मनुष्यजाति के ज्ञान-संचय में सहायता करें । पुलिस की गवाहियां मिथ्या नहीं हो सकतीं,-विशेषकर सी० आई० डी० की--अतएव थियोसोफी के आश्रय के अलावा हमारे लिये और कोई चार नहीं । सौ बात की एक बात, ब्रिटिश कानून-प्रणाली में कितनी आसानी से निर्दोषों को जेल, कालापानी और फांसी तक हो सकती है इसका दृष्टांत इस मुकदमे में पग-पग पर पाया । कठघरे में खड़े न होने तक पाश्चात्य विचार-प्रणाली की मायावी असत्यता हृदयंगम नहीं की जा सकती । यूरोप की यह प्रणाली है जुए का एक खास खेल; मनुष्य की स्वाधीनता, मनुष्य का सुख-दुःख, उसकी और उसके परिवार एवं आत्मीय बंधु की जीवनव्यापी यंत्रणा, अपमान और जीवंत मृत्यु को ले जुए का खेल । इससे कितने दोषी बच जाते हैं और कितने निर्दोष मर जाते हैं इसकी कोई गिनती नहीं ।
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यूरोप में Socialism (समाजवाद) और Anarchism (अराजकतावाद) का कितना प्रचार और प्रभाव हुआ है वह इस जुए में एक बार फंसने पर, इस निष्ठुर निर्विचार समाजरक्षक पेषणयंत्र में एक बार पड़ने पर पहली दृष्टि में ही समझ में आ जाता है । ऐसी अवस्था में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि अनेक उदारचेता दयालु, जन कहने लग गये हैं कि इस समाज को तोड़ दो, चूर-मार कर दो; इतने पाप, इतने दुःख, इतने निर्दोषों के तप्त नि:श्वास और हृदय के खून से यदि समाज की रक्षा करनी तो बेकार है वह रक्षा ।
मजिस्ट्रेट की कोर्ट में एकमात्र विशेष उल्लेखनीय घटना थी नरेंद्रनाथ गोस्वामी की गवाही । उस घटना का वर्णन करने से पहले अपनी विपदा के संगी युवक आसामियों के बारे में कहता चलूं । कोर्ट में इनका आचरण देख अच्छी तरह समझ गया था कि बंगाल में नवयुग आ गया है, नयी संतति मां की गोद में वास करना आरंभ कर चुकी है । तत्कालीन बंगाली लड़के दो तरह के थे, या तो थे शांत, शिष्ट, निरीह, सच्चरित्र, भीरु, आत्मसम्मान और उच्चाकांक्षा से शून्य; या दुश्चरित्र, दुर्दान्त, अस्थिर, ठग, संयमी और साधुता से शून्य । इन दो चरमावस्थाओं कै बीच नानारूप जीव बंगजननी की क्रोड़ में जनमे थे, लेकिन आठ-दस असाधारण प्रतिभावान् शक्तिमान् भविष्य के पथ प्रदर्शकों को छोड़ इन दो श्रेणियों के अलावा तेजस्वी आर्यसंतान प्रायः देखने में नहीं आती थी । बंगाली में बुद्धि थी, मेधाशक्ति थी लेकिन शक्ति नहीं थी; मनुष्यत्व नहीं था । लेकिन इन लड़कों को देखते ही लगता था कि मानों अन्य युग के अन्य शिक्षाप्राप्त, उदारचेता, दुर्दान्त तेजस्वी पुरुष फिर से भारतवर्ष में लौट आये हैं । वह निर्भीक सरल दृष्टि, वह तेजपूर्ण वाणी, वह चिंताशून्य आनंदमयी हंसी, इस घोर विपद् के समय भी वह अक्षुण्ण तेजस्विता, मन की प्रसन्नता, विमर्शता, चिंता या संताप का अभाव, उस समय के तम:क्लिष्ट भारतवासी का नहीं, है नूतन युग का, नूतन जाति का, नूतन कर्मस्रोत का लक्षण । ये यदि हत्यारे हों तो कहना पड़ेगा कि हत्या की रक्तमयी छाया उनके स्वभाव पर नहीं पड़ी, क्रूरता, उन्मत्तता और पाशविक भाव उनमें कतई नहीं था । उन्होंने भविष्य की या मुकदमे के फल की जरा भी चिंता न कर कारावास के दिन बालकोचित आमोद में, हंसी में, खेल में, पढ़ने-सुनने में, समालोचना में बिताये । बहुत जल्दी ही उन्होंने जेल में कर्मचारी, सिपाही, कैदी, यूरोपीय सार्जेट, जासूस, कोर्ट के कर्मचारी सभी के साथ मैत्री का नाता जोड़ लिया था एवं शत्रु-मित्र, छोटे-बड़े का विचार न कर सबके साथ बातचीत, हंसी-मजाक करने लग गये थे । कोर्ट का समय उन्हें बड़ा विरक्तिकर लगता, क्योंकि मुकदमे के प्रहसन में रस बहुत कम आता था । यह समय काटने के लिये उनके पास न पढ़ने को किताब थी न बात करने की अनुमति । जो योग करना शुरू कर चुके थे, उन्होंने तबतक गुल-गापाड़े में ध्यान करना नहीं सीखा था, उन्हें समय काटना पहाड़ हो
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जाता । शुरू में दो-चार जन पढ़ने के लिये किताब अंदर लाने लगे, उनकी देखा-देखी बाकी सबने भी उसी उपाय का सहारा लिया । उसके बाद एक अदभुत दृश्य देखने को मिलता-मुकदमा चल रहा है, तीस-चालीस आसामियों के सारे भविष्य को ले खींचा- तानी चल रही है, उसका फल हो सकता है फांसी के तख्ते पर मृत्यु या आजीवन कालापानी, किंतु उस ओर दृकपात न कर उनमें से कोई बंकिम का उपन्यास, कोई विवेकानंद का राजयोग या Science of Religions, कोई गीता, कोई पुराण तो कोई यूरोपीय दर्शन एकाग्र मन से पढ़ रहा होता । अंग्रेज सार्जेट या देशी सिपाही कोई भी उनके इस आचरण में बाधा नहीं देता । वे सोचते थे कि यदि इससे ही इतने सारे पिंजराबद्ध व्याघ्र शांत रहे तो हमारा काम भी कम होता है और इससे किसी की क्षति भी नहीं होती । लेकिन एक दिन बर्ली साहब की दृष्टि खिंच गयी इस दृश्य की ओर, असह्य हो उठा मजिस्ट्रेट साहब को यह आचरण । दो दिन तो वे कुछ नहीं बोले लेकिन और ज्यादा न सह सके, पुस्तकें लाने की मनाही कर दी । असल में बर्ली इतना सुन्दर विचार कर रहे थे, उसे सुनकर कहां तो सबको आनंद लेना चाहिये था उल्टे पढ़ रहे थे सब पुस्तकें । यह तो बर्ली के गौरव और ब्रिटिश जस्टिस की महिमा के प्रति घोर असम्मान प्रदर्शित करना है, इसमें संदेह नहीं ।
हम जितने दिन अलग-अलग कोठरियों में बंद थे उतने दिन केवल गाड़ी में, मजिस्ट्रेट के आने से पहले एक घंटा या आधा घंटा और खाने के समय कुछ बातें करने का अवसर पाते । जिनका परस्पर परिचय या अलाप था वे इस समय cell (सेल) को नीरवता और निर्जनता का प्रतिशोध लेते, हंसी, आमोद और नाना विषयों की आलोचना में समय बिताते । लेकिन ऐसे अवसरों पर अपरिचितों के साथ बात करने की सुविधा नहीं होती इसीलिये मैं अपने भाई बारींद्र और अविनाश को छोड़ और किसी से भी ज्यादा बात न करता, उनका हंसी-मजाक, उनकी बातें सुनता पर स्वयं उसमें भाग न लेता । किंतु एक आदमी बातचीत में मेरे पास खिसक आता । वे थे भावी approver (मुखबिर) नरेंद्रनाथ गोस्वामी । दूसरे लड़कों की तरह उनका स्वभाव न शांत था न शिष्ट। वे थे साहसी और लघुचेता एवं चरित्र, वाणी और कर्म में असंयत । पकड़े जाने के समय नरेन गोसाई ने अपना स्वाभाविक साहस और प्रगल्भता दिखायी थी, लेकिन
लघुचेता होने के कारण कारावास का थोड़ा-सा भी दु:ख और असुविधा सहन करना उनके लिये असाध्य हो उठा था | वे थे जमींदार के बेटे अतः सुख, विलास और दुर्नीति में पले, वे कारागृह के कठोर संयम और तपस्या से अत्यंत कातर हो गये थे, और यह भाव सबके सामने प्रकट करने में भी कुंठित नहीं हुए | जिस किसी भी उपाय से इस यंत्रणा से मुक्त होने की उत्कट लालसा उनके मन में दिन-दिन बढ़ने लगी | पहले उन्हें यह आशा थी की अपनी स्वीकारोक्ति का प्रत्याहार कर वे यह प्रमाणित कर सकेंगे कि पुलिस ने शारीरिक यंत्रणा देकर दोष स्वीकार कराया था | उन्होंने हमें बताया कि उनके पिता इस तरह के झूठे गवाह जुटाने के
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लिये कृतसंकल्प थे । किंतु थोड़े दिनों में ही और एक भाव सामने आने लगा । उनके पिता और एक मुखतार उनके पास बार-बार जेल में आने-जाने लगे, अंत में जासूस शमसुल आलम भी उनके पास बहुत देरतक गुप-चुप बातें करने लगे । ऐसे समय हठात् गोसाईं के कौतुहल और प्रश्न करने की प्रवृत्ति देख बहुतों के मन में संदेह का उद्रेक हुआ । भारतवर्ष के बड़े-बड़े आदमियों के साथ उनका परिचय या घनिष्ठता थी कि नहीं, गुप्त समिति को किस-किसने आर्थिक सहायता दे उसका पोषण किया, समिति के और कौन-कौन सदस्य बाहर या भारत के अन्यान्य प्रदेशों में थे, अब कौन समिति का कार्य चलायेंगे, शाखा-समिति कहां है इत्यादि अनेक छोटे-बड़े प्रश्न बारींद्र और उपेंद्र से पूछते । गोसाईं की यह ज्ञानातृष्णा की बात अचिरात् सबके कर्णगोचर हुई और शमसुल आलम के साथ उनकी घनिष्ठता की बात भी अब गोपनीय प्रेमालाप न रह open secret (खुला रहस्य) हो उठा । इसे लेकर खूब आलोचना होती और किसी-किसी ने यह भी लक्ष्य किया कि हमेशा पुलिस-दर्शन के बाद ही इस तरह के नये-नये प्रश्न गोसाईं के मन में चक्कर काटते थे । कहने की जरूरत नहीं कि उन्हें इन प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर नहीं मिला । जब पहले-पहल आसामियों में यह बात प्रचारित होने लगी तब गोसाईं ने स्वयं स्वीकार किया था कि पुलिस उनके पास आ ''सरकारी गवाह'' बन जाने के लिये उन्हें नाना उपायों से समझाने की चेष्टा कर रही है । कोर्ट में उन्होंने मुझे एक बार यह बात कही थी । मैंने उनसे पूछा था कि आपने क्या उत्तर दिया । वे बोले, ''मैं क्या मानूंगा ! मानने पर भी भला मैं क्या जानता हूं जो उनकी इच्छानुसार गवाही दूंगा ?'' उसके कुछ दिन बाद उन्होंने फिर से जब इस बात का उल्लेख किया तो देखा कि यह बात बहुत आगे बढ़ चुकी है । जेल में identification parade (पहचान परेड) के समय मेरी बगल में गोसाईं खड़े थे, तब वे मुझसे कहते : ''पुलिस केवल मेरे पास ही आती है ।'' मैंने उपहास करते हुए कहा, ''आप यह बात कह क्यों नहीं देते कि सर ऐन्ड्रू फ्रेजर गुप्त समिति के प्रधान पृष्ठपोषक थे, इससे उनका परिश्रम सार्थक होगा । '' गोसाईं बोले, ''ऐसी बात तो मैंने कह ही दी है । मैं उन्हें कह चुका हूं कि सुरेंद्रनाथ बनर्जी हैं हमारे head (प्रधान) और मैंने उन्हें भी एक बार बम दिखाया है ।'' स्तंभित हो मैंने उनसे पूछा, ''यह बात कहने की जरूरत क्या थी ?'' गोसाई बोले, ''मैं-का श्राद्ध करके रहूंगा । उस तरह की और भी बहुत-सी खबरें मैंने दी हैं । मरे साले corroboration (प्रमाण) खोजते-खोजते । क्या पता, इस उपाय से, मुकदमा फीस ही हो जाये ?'' इसके उत्तर में मैंने केवल इतना कहा था, ''ऐसी शरारत से बाज आइये । उनके साथ चालाकी करते-करते खुद ही ठगे जायेंगे ।'' पता नहीं गोसाईं की .यह बात कहांतक सच थी । और सब आसामियों की यह राय थी कि हमारी आंखों में धूल झोंकने के लिये उन्होंने ऐसा कहा था । मेरा ख्याल था कि तबतक गोसाईं approver (मुखबिर) होने के लिये पूर्णतया कृतनिश्चय नहीं थे, यह ठीक है कि इस विषय में वे आगे बढ़ चुके थे,
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किंतु पुलिस को ठग उनका केस मिट्टी कर देने की आशा भी उन्हें थी । चालाकी और असदुपाय से कार्यसिद्धि है दुष्प्रवृत्ति की स्वाभाविक प्रेरणा । तभी से समझ गया था कि गोसाईं पुलिस के वश हो सच-झूठ उन्हें जो भी चाहिये, वह कह अपने को बचाने की चेष्टा करेंगे । एक नीच स्वभाव का और भी निम्नतर दुष्कर्म की ओर अधःपतन हमारी आंखों के सामने नाटक की तरह अभिनीत होने लगा । मैंने लक्ष्य किया कि किस तरह गोसाईं का मन दिन-प्रतिदिन बदलता जा रहा है, उनके मुख, भाव-भंगिमा और बातचीत में भी परिवर्तन हो रहा है । विश्वासघात कर अपने संगी-साथियों का सर्वनाश करने के लिये वे जो कुछ जुटा रहे थे उसके समर्थन के लिये क्रम से नाना अर्धनैतिक और राजनैतिक युक्तियां बाहर करने लगे । ऐसी interesting psychological study (मनोरंजक मानसिक अध्ययन) प्रायः सहज ही हाथ नहीं लगती ।
शुरू में किसी ने भी गोसाईं को यह पता न लगने दिया कि सभी उनकी अभिसंधि भांप गये हैं । वे भी इतने नासमझ निकले कि बहुत दिन तक इसका कुछ भी न समझ सके, वे समझते थे कि मैं खूब छिपे-छिपे पुलिस की मदद कर रहा हूं । किंतु कुछ दिन बाद जब यह हुकुम हुआ कि हमें अब और निर्जन कारावास में न रख एक साथ रखा जायेगा, तब उस नूतन व्यवस्था से, रात-दिन पारस्परिक मेल-जोल और बातचीत से कुछ भी ज्यादा दिन छिपा न रहा । उन्हीं दीनों दो-एक लड़कों के साथ गोसाईं का झगड़ा हुआ उनकी बातों से और सबके अप्रीतिकर व्यवहार से गोसाईं समझ गये कि उनकी अभिसंधि किसी के लिये भी अज्ञात नहीं रही । जब गोसाईं गवाही देते तो कुछ एक अंग्रेजी अखबार में यह खबर छपती कि आसामी इस अप्रत्याशित घटना से चौंके और उत्तेजित हुए । कहना न होगा, यह थी रिपोर्टरों को कोरी कल्पना । बहुत दिन पहले ही सब जान गये थे कि इस तरह की गवाही दी जायेगी । यहां तक कि किस दिन कौन-सी साक्षी दी जायेगी उसका भी पता था । ऐसे समय एक आसामी गोसाईं के पास जाकर बोले, ''देखो भई, अब और नहीं सहा जाता, मैं भी approver (मुखबिर) बनूंगा, तुम शमसुल आलम को कहीं कि मेरी रिहाई की भी व्यवस्था करें । गोसाईं राजी हो गये । कुछ दिन बाद उनसे कहा : इस विषय में गवर्नमेंट की चिट्ठी आयी है कि इस आसामी के निवेदन के अनुकूल निर्णय (favourable consideration) होने की संभावना है । यह कह गोसाईं ने उन्हें उपेन आदि से कुछ इस तरह की आवश्यक बातें निकलवाने को कहा, जैसे-गुप्त समिति की शाखा कहां थी, कौन थे उसके नेता इत्यादि । नकली approver आमोदप्रिय एवं रसिक आदमी थे, उन्होंने उपेंद्रनाथ के साथ परामर्श कर गोसाईं को कुछ एक कल्पित नाम जता दिये कि मद्रास में विश्वंभर पिल्लै, सातारा में पुरुषोत्तम नाटेकर बंबई में प्रोफेसर भट्ट और बड़ौदा में कृष्णाजीराव भाऊ थे इस गुप्त समिति की
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शाखा के नेता । गोसाईं ने आनंदित हो यह सारा विश्वासयोग्य संवाद पुलिस को दे दिया । पुलिस ने भी मद्रास में कोना-कोना छान मारा, बहुत-से छोटे-बड़े पिल्लै मिले, एक भी पिल्लै विश्वंम्भर या अर्धविश्वंभर न मिला, सातारा में पुरुषोत्तम नाटेकर भी अपना अस्तित्व घने अंधकार में छिपाये रहे, बंबई में एक प्रोफेसर भट्ट मिल गये, किंतु वे थे निरीह राजभक्त सज्जन, उनके पीछे कोई गुप्त समिति होने की संभावना नहीं थी । फिर भी, गोसाईं ने गवाही देते समय, उपेन से पहले कभी सुनी हुई बात के आधार पर कल्पना-राज्य के निवासी विश्वंभर पिल्लै इत्यादि षड्यंत्र के महारथियों की नॉर्टन के श्रीचरणों में बलि चढ़ा अपनी अदभुत prosecution (अभियोग सिद्धांत) को पुष्ट किया । वीर कृष्णाजीराव भाऊ को लेकर पुलिस ने और एक रहस्य रचा । उन लोगों ने बागान से बड़ौदा के कृष्णाजीराव देशपांडे के नाम किसी ''घोष'' द्वारा प्रेषित टेलीग्राम की नकल प्रस्तुत की । उस नाम का कोई आदमी था कि नहीं, बड़ौदावासियों को इसका कोई संधान नहीं मिला, लेकिन चूंकि सत्यवादी गोसाईं ने बड़ौदावासी कृष्णाजीराव भाऊ की बात कही है तो निश्चय ही कृष्णाजीराव भाऊ और कृष्णाजीराव देशपांडे हैं एक ही व्यक्ति । और कृष्णाजीराव देशपांडे हों या न हो, हमारे श्रद्धेय बंधु केशवराव देशपांडे का नाम चिट्ठी-पत्री में मिला था । इसलिये निश्चय ही कृष्णाजीराव भाऊ और कृष्णाजीराव देशपांडे एक ही व्यक्ति हैं । इससे यह प्रमाणित हो गया कि केशवराव देशपांडे हैं गुप्त षड्यंत्र के एक प्रधान पंडा । ऐसे सब असाधारण अनुमानों पर प्रतिष्ठित थी नॉर्टन साहब की वह विख्यात theory (परिकल्पना) ।
गोसाईं की बात का विश्वास करने से यह भी विश्वास करना होगा कि उन्हीं के कहने से हमारा निर्जन कारावास खतम हुआ एवं हमें इकट्ठे रहने का हुकुम मिला । उन्होंने बताया कि पुलिस ने उन्हें सबके बीच में रख षड्यंत्र की गुप्त बातें निकलवाने के लिये यह व्यवस्था की है । गोसाईं नहीं जानते थे कि पहले ही सबने उनकी नूतन कारस्तानी की गंध पा ली है, इसलिये कौन षड्यंत्र में लिप्त है, शाखा समिति कहां है, कौन पैसे देते या सहायता करते हैं, अब कौन गुप्त समिति का काम चलायेंगे आदि ऐसे अनेक प्रश्न पूछने लगे । इन सब प्रश्नों के उन्हें कैसे उत्तर मिले इसका दृटांत मैंने ऊपर दिया है । लेकिन मोसाईं की अधिकांश बातें ही झूठी थीं । डा० डैलि ने हमें बताया था कि उन्हींके इमर्सन साहब से कह-सुन कर यह परिवर्तन कराया था । संभवत: डैलि की बात ही सच है; हो सकता है कि इस नूतन व्यवस्था से अवगत होने के बाद पुलिस ने ऐसे लाभ की कल्पना की हो । जो भी हो, इस परिवर्तन से मुझे छोड़ अन्य सबको परम आनंद मिला, मैं उस समय लोगों से मिलने-जुलने को अनिच्छुक था, तब मेरी साधना खूब जोरों से चल रही थी । समता, निष्कामता और शांति का कुछ-कुछ आस्वाद पाया था; किंतु तबतक यह भाव दृढ़ नहीं हुआ था । लोगों के साथ मिलने से, दूसरों के चिंतनस्रोत का आघात मेरे अपक्व नवीन चिंतन पर पड़ते ही इस नये भाव का ह्रास हो सकता है, बह जा सकता है । और सचमुच
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ऐसा ही हुआ । उस समय नहीं जानता था कि मेरी साधना की पूर्णता के लिये विपरीत भाव का जगना आवश्यक है, इसीलिये अंतर्यामी ने हठात् मुझे मेरी प्रिय निर्जनता से वंचित कर उद्दाम रजोगुण के स्रोत में बहा दिया । दूसरे सभी आनंद में अधीर हो उठे । उस रात जिस कमरे में हेमचंद्र दास, शचींद्र सेन इत्यादि गायक थे वह कमरा सबसे बड़ा था, अधिकांश आसामी वहीं एकत्रित हुए थे और रात के दो-तीन बजे तक कोई भी सो न सका । सारी रात हंसी के ठहाके, गाने का अविराम स्रोत, इतने दिन की रुद्ध कथा-वार्ता वर्षा-ॠतु की वन्या की तरह बहती रहने से नीरव कारागार कोलाहल से ध्वनित हो उठा । हम सो गये लेकिन जितनी बार नींद टूटी उतनी ही बार सुनी समान वेग से चलती हुई वही हंसी, वही गाने, वही गप्पें । अंतिम प्रहर में वह स्रोत क्षीण हो गया, गायक भी सो गये । हमारा वार्ड नीरवता में डूब गया ।
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