श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य

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Sri Aurobindo

All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

The Complete Works of Sri Aurobindo (CWSA) Writings in Bengali and Sanskrit Vol. 9 715 pages 2017 Edition
Bengali
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All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य 528 pages 1999 Edition
Hindi Translation
Translator:   Hriday  PDF    LINK

कारागृह व स्वाधीनता

 

     लगभग सारी मनुष्यजाति ही है बाह्य अवस्था की दास, स्थूल जगत् की अनुभूति में  आबद्ध । सब मानसिक क्रियाएं इस वाह्य अनुभूति का ही आश्रय लेती हैं, बुद्धि भी स्थूल की संकीर्ण सीमा लांघने में अक्षम है; प्राण के सुख-दुःख हैं बाह्य घटना की प्रतिध्वनिमात्र । शरीर का आधिपत्यजनित है यह दासत्व । उपनिषद् में कहा गया है, ''जगत्-स्रष्टा स्वयंभू ने शरीर के सब द्वारों को बहिर्मुखी करके गढ़ा है इसलिये सबकी दृष्टि  बहिर्जगत् में आबद्ध है, अंतरात्मा को कोई भी नहीं देखता । वे धीर प्रकृति महात्मा विरल हैं जिन्होंने अमृत की लालसा से चक्षुओं को भीतर की ओर मोड़ आत्मा के प्रत्यक्ष दर्शन किये हैं ।''  हम भी साधारणतः जिस बहिर्मुखी स्थूल दृष्टि  से मनुष्यजाति का जीवन देखते हैं उस दृष्टि से शरीर ही है हमारा मुख्य संबल । यूरोप को हम जितना भी जड़वादी क्यों न कहें पर असल में मनुष्यमात्र ही है जड़वादी । शरीर है धर्म-साधन का उपाय, हमारा बहु-अश्वयुक्त रथ, जिस देह-रथ में आरोहण कर हम संसार-पथ पर दौड़ लगाते हैं । किंतु हम देह का अयथार्थ प्राधान्य स्वीकार कर देहात्मक बुद्धि को ऐसे प्रश्रय देते हैं कि बाह्य कर्म और बाह्य शुभाशुभ द्वारा संपूर्णतया बंधे रह जाते हैं । इस अज्ञान का फल है जीवनव्यापी दासत्व और पराधीनता । सुख- दुःख, शुभाशुभ, संपद्-विपद् हमारी मानसिक अवस्था को अपना अनुयायी बनाने के लिये सचेष्ट ती होते ही हैं, हम भी कामना का ध्यान करते-करते उस स्रोत में बह जाते हैं । सुख की लालसा से, दुःख के भय से पराश्रित हो जाते हैं, पर-दत्त सुख और दुःख को ग्रहण कर अशेष कष्ट और लांछना भोगते हैं । क्योंकि, प्रकृति हो या मनुष्य, जो हमारे शरीर पर थोड़ा भी आधिपत्य जमा सकता है या अपनी शक्ति को अधिकार-क्षेत्र में ले आ सकता है उसी के प्रभाव के अधीन रहना होता है । इसका चरम दृष्टांत है शत्रुग्रस्त या काराबद्ध  की अवस्था । किंतु जो बंधु-बांधव से वेष्टित हो स्वाधीनता से मुक्त आकाश में विचरण करते हैं, काराबद्धों की तरह उनकी भी यही दुर्दशा है । शरीर ही है कारागृह और देहात्मक-बुद्धिरूप अज्ञानता है कारारूप शत्रु।

 

    यह कारावास है मनुष्यजाति की चिरंतन अवस्था । दूसरी और, साहित्य और इतिहास के प्रत्येक पन्ने पर देखने में आता है स्वाधीनता पाने के लिये मनुष्यजाति का अदमनीय उच्छवास और प्रयास । जैसे राजनीतिक या सामाजिक क्षेत्र में वैसे ही व्यक्तिगत जीवन में युग-युग में हुई है यही चेष्टा । आत्मसंयम, आत्मनिग्रह, सुख- दुःख वर्जन, Stoicism (स्टोइकवाद) , Epicureanism (सुखवाद), Asceticism (वैराग्य), वेदांत, बौद्धधर्म, अद्वैतवाद मायावाद, राजयोग, हठयोग, गीता, ज्ञानमार्ग, भक्तिमार्ग, कर्ममार्ग आदि नाना पंथों का है एक ही गम्यस्थल । उद्देश्य--देह-विजय, स्थूल  के आधिपत्य का वर्जन, आंतरिक जीवन की स्वाधीनता । पाश्चात्य  विज्ञानविदों ने यह सिद्धांत बनाया है कि स्थूल जगत् के सिवा दूसरा  कोई जगत् नहीं, स्थूल पर

 

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प्रतिष्ठित है सूक्ष्म, सूक्ष्म अनुभव है स्थूल अनुभव की प्रकृतिमात्र, व्यर्थ है मनुष्य का स्वाधीनता-प्रयास धर्म-दर्शन और वेदांत हैं अलीक  कल्पनाएं, संपूर्ण भूतप्रकृति-आबद्ध हमारा वह बंधन-मोचन या भूत प्रकृति की सीमा का उल्लंघन है मिथ्या चेष्टा । किंतु  मानव-हृदय के ऐसे गूढ़तर स्तर में निहित है वह आकांक्षा कि हजार युक्तियां भी इसका उन्मूलन करने में असमर्थ हैं । मनुष्य विज्ञान के सिद्धांत  से कभी संतुष्ट नहीं रह सकता । चिरकाल से मनुष्य अस्पष्ट: अनुभव करता आ रहा है कि स्थूल-जय में समर्थ सूक्ष्म वस्तु उसके अभ्यंतर में दृढ़ता से वर्तमान है, सूक्ष्ममय अधिष्ठाता हैं नित्यमुक्त, आनंदमय पुरुष । वह नित्यमुक्ति और निर्मल आनंद पाना है धर्म का उद्देश्य । धर्म का यह जो उद्देश्य है, विज्ञान-कल्पित evolution (विकास) का उद्देश्य भी वही है । विचारशक्ति और उसका अभाव पशु और मनुष्य का प्रकृत  अंतर नहीं । पशु में विचारशक्ति है, लेकिन पशुदेह मैं उसका उत्कर्ष नहीं होता । पशु और मनुष्य में असली भेद यह है कि शरीर का संपूर्ण दासत्व स्वीकार करना है पाशविक अवस्था और शरीर-जय और आंतरिक स्वाधीनता की चेष्टा ही है मनुष्यत्व का विकास । यह स्वाधीनता ही है धर्म का प्रधान उद्देश्य, इसे ही कहते हैं मुक्ति । इस मुक्ति के लिये हम अंत:करणस्थ मनोमय-प्राण-शरीर-नेता को ज्ञान द्वारा पहचानने या कर्म और भक्ति द्वारा प्राण, मन और शरीर को अर्पित करने के लिये सचेष्ट होते हैं । योगस्थ: कुरु कर्माणि--गीता का जो प्रधान उपदेश है यह स्वाधीनता ही है वह गीतोक्त योग । आंतरिक सुख-दुःख जब बाह्य शुभाशुभ, संपद्-विपद् का आश्रय न ले स्वयं-जात, स्वयं-प्रेरित और स्व-सीमाबद्ध होते हैं तब मनुष्य की साधारण अवस्था से विपरीत अवस्था होती है, उस समय बाह्य जीवन को आंतरिक जीवन का अनुयायी बनाया जा सकता है, कर्म-बंधन शिथिल हो सकता है । गीता के आदर्श पुरुष कर्मफल में आसक्ति त्याग पुरुषोत्तम में कर्मसंन्यास करते हैं । दुःखेष्वनुद्रिग्नना: सुखेषु  विगत- स्पृह:, आंतरिक स्वातंत्र्य प्राप्त कर आत्मरत और आत्मसंतुष्ट हो रहते हैं । वे साधारण  जन की तरह सुख की लालसा से, दुःख के भय से किसी पर आश्रित नहीं होते, परदत्त सुख-दुःख ग्रहण नहीं करते, फिर भी कर्मो के भोग नहीं भोगते । वरन् महासंयमी, महाप्रतापान्वित देवासुर युद्ध में राग, भय, क्रोध से अतीत महारथी हो भगवत्प्रेमी  जो कर्मयोगी राष्ट्रविप्लव , घर्मविप्लव  या प्रतिष्ठित राज्य, धर्मसमाज की रक्षा कर निष्काम भाव से भगवत्कर्म सुसंपन्न करते हैं, वे हैं गीता के श्रेष्ठ पुरुष ।

 

     आधुनिक युग में हम खड़े हैं--नूतन और पुरातन के संधिस्थल पर । मनुष्य निरंतर अपने गंतव्य स्थान की ओर अग्रसर हो रहा है, कभी-कभी समतल भूमि को त्याग ऊपर आरोहण करना होता है और आरोहण के समय राज्य, समाज, धर्म और ज्ञान  में विप्लव होता है । आजकल स्थूल से सूक्ष्म की ओर आरोहण करने का प्रयास चल रहा है । पाश्चात्य वैज्ञानिक पंडितों द्वारा स्कूल जगत् की सांगोपांग परीक्षा और नियम-निर्धारण से आरोहण मार्ग के चारों ओर की समतल भूमि परिष्कृत हो गयी है । सूक्ष्म

 

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जगत् के विशाल राज्य में पाश्चात्य ज्ञानियों का प्रथम पदक्षेप हो रहा है, बहुतों का मन उस राज्य को जीतने की आशा से प्रलुब्ध हो उठा है । इसके अलावा दूसरे लक्षण भी दिखायी दे रहे हैं--जैसे थोड़े दिनों में थियोसोफी का विस्तार, अमेरिका में वेदांत का आदर, पाश्चात्य  दर्शनशास्र और चिंतनप्रणाली में परोक्ष रूप से भारतवर्ष का कुछ आधिपत्य आदि । किंतु सर्वश्रेष्ठ लक्षण है भारत का आकस्मिक और आशातीत उत्थान । भारतवासी जगत् के गुरु-पद पर अधिकार कर नये युग का परिवर्तन करने के लिये उठ रहे हैं । उनकी सहायता  से वंचित रहने पर पाश्चात्य-गण उन्नति करने की चेष्टा में सिद्धकाम नहीं हो सकेंगे । जैसे आंतरिक जीवन के विकास के सर्वप्रधान साधन--ब्रह्मज्ञान , तत्त्वज्ञान और योगाभ्यास--में भारत को छोड़ दूसरे किसी देश का उत्कर्ष नहीं हुआ उसी तरह मनुष्यजाति के लिये आवश्यक चित्तशुद्धि, इंद्रियसंयम, ब्रह्यतेज, तप:क्षमता और निष्काम कर्मयोग-शिक्षा हैं भारत की ही संपत्ति । बाह्य सुख-दुःख की उपेक्षा कर आंतरिक स्वाघीनता अर्जित करना भारतवासी के लिये ही साध्य है, निष्काम कर्म में भारतवासी ही समर्थ है, अहंकार-वर्जन और कर्म में निर्लिप्तता उन्हीं की शिक्षा और सभ्यता का चरम उद्देश्य होने के कारण राष्ट्रीय चरित्र  में बीजरूप में निहित है ।

 

    इस बात का याथार्थ्य मैंने पहले अलीपुर जेल में अनुभव किया । इस जेल में अधिकतर चोर, डकैत और हत्यारे रहते हैं । यधपि कैदियों के साथ हमारी बातचीत निषिद्ध थी तथापि व्यवहार में यह नियम पूरी तरह नहीं पाला जाता था, इसके अलावा रसोइये, पानीवाले और झाड़ू देनेवाले मेहतर आदि के साथ संपर्क हुए बिना नहीं चलता था, बहुत बार उनके साथ अबाध वाक्यालाप होता । जो मेरे साथ उसी अपराध में पकड़े गये थे वे भी ''नृशंस हत्यारों का दल'' आदि दु:श्राव्य विशेषणों से कलंकित और निंदित होते । यदि भारतवासी के चरित्र को कहीं घृणा की दृष्टि से देखना हो, यदि किसी अव्यवस्था में उसके निकृष्ट, अधम और जघन्य भाव से परिचय पाना संभव हो तो अलीपुर जेल ही है वह स्थान और अलीपुर का कारावास ही है वह निकृष्ट, हीन अवस्था । इस स्थान में, ऐसी अवस्था में मैंने बारह  महीने काटे । इन बारह  महीनों के अनुभव का फल--भारतवासियों की श्रेष्ठता के संबंध में दृढ़ धारणा, मनुष्यचरित्र के प्रति द्विगुण भक्ति और स्वदेश एवं मनुष्यजाति की भावी उन्नति और कल्याण की दस गुनी आशा ले कर्मक्षेत्र में लौटा हूं । यह मेरे स्वभावजात optimism (आशावाद) या अतिरिक्त विश्वास का फल नहीं । श्रीयुत विपिन चंद्र पाल एक बार जेल में यह अनुभव कर आये थे, अलीपुर जेल के भूतपूर्व डाक्टर डैलि साहब भी इसका समर्थन करते थे । डैलि साहब थे मानव-चरित्र से अभिज्ञ, सहृदय और विचक्षण व्यक्ति, मानव-चरित्र की सारी निकृष्ट और जघन्य वृत्तियां प्रतिदिन उनके सामने विधमान रहतीं,  फिर भी वे मुझसे कहते, ''भारत के सज्जन या नीच लोगों को, समाज के

संभ्रांत व्यक्ति या जेल के जितने भी कैदियों को देखता-सुनता हूं उससे मेरी यही

 

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धारणा दृढ़ हुई है कि चरित्र और गुण में तुम लोग हमसे बहुत ऊंचे हो । इस देश के कैदियों और यूरोप के कैदियों में आकाश-पाताल का अंतर है । इन युवकों को देखकर मेरी यह धारणा और भी दृढ़ हो गयी है । इनका आचरण, चरित्र और नाना सदगुण  देखते हुए कौन कल्पना कर सकता है कि ये anarchist (अराजकतावादी) या हत्यारे  हैं । उनमें क्रूरता, उद्दाम भाव, अधीरता या धृष्टता जरा भी नहीं पाता, पाता हूं सब उल्टे गुण ।''  निस्संदेह चोर और डाकू जेल में साधु-संन्यासी नहीं बन जाते । अंग्रेजों की जेल चरित्र सुधारने की जगह नहीं, साधारण कैदियों के लिये तो उल्टे चरित्रहानि और मनुष्यत्व नाश का साधन है । जो चोर, डाकू और खूनी थे, वे चोर, डाकू और खूनी ही रहते हैं, जेल में चोरी करते हैं, कड़ी पाबंदियों के बावजूद नशा करते, धोखा देते हैं । पर इससे क्या ? भारतीय का मनुष्यत्व जाकर भी नहीं जाता । सामाजिक अवनति के कारण पतित, मनुष्यत्वनाश के फलस्वरूप निष्येषित और बाहर कालिमा, कदर्थभाव, कलंक और विकृति, फिर भी भीतर वही लुप्तप्राय  मनुष्यत्व भारतवासी के मज्जागत सदगुण में छिपे आत्मरक्षा करता है, बार-बार उसकी बातों में और आचरण में प्रकट होता है । जो थोड़ा-सा ऊपरी कीचड़ देख घृणा से मुंह फेर लेते हैं, केवल वे ही कह सकते हैं कि हमने इनमें मनुष्यत्व लेशमात्र भी नहीं देखा । किंतु जो साधुता का अहंकार त्याग अपनी सहजसाध्य स्थिर द्रष्टि से निरीक्षण करते हैं वे कभी उनकी हां में हां नहीं मिलायेंगे । श्रीयुत विपिन चंद्र पाल ने बक्सर जेल में चोर-डाकुओं के बीच में ही सर्वघट में नारायण के दर्शन कर छ: मास के कारावास के बाद उत्तरपाडा की सभा में मुक्त कंठ से इस बात को स्वीकार था । मैं भी अलीपुर जेल में ही हिन्दू धर्म के इस मूलतत्त्व को हृदयंगम कर पाया, पहली बार नरदेह में चोर, डाकू और खूनी में नारायण को उपलब्ध किया ।

 

    इस देश में सैंकड़ों निरपराध व्यक्ति दीर्घकाल तक जेल-रूपी नरकवास के भोग से पूर्वजन्मार्जित  दुष्कर्म के फल को हल्का कर अपना स्वर्गपथ परिष्कृत कर रहे हैं । किंतु साधारण पाश्चात्यवासी  जो धर्मभाव से पूत और देवभावापन्न नहीं वे ऐसी परीक्षा में कहांतक उत्तीर्ण होते हैं इसका सहज अनुमान जो पश्चिम में रह चुके हैं या जिन्होंने पश्चिमी चरित्र-प्रकाशक साहित्य पढ़ा है, वे ही कर सकते हैं । ऐसे स्थलों में या तो उनका निराशा-पीड़ित, क्रोध और दुःख के अश्रु जल से प्लावित हृदय पार्थिव नरक के घोर अंधकार में एवं सहवासियों के संसर्ग में पड़ उनकी क्रूरता और नीचवृत्ति का आश्रय लेता है; या दुर्बलता के निरतिशय निष्पेषण से बल-बुद्धिहीन  हो केवल मनुष्य का नष्टावशेष बच रहता है ।

 

    अलीपुर के एक निरपराधी की बात सुनाता हूं । इस व्यक्ति को डकैती में शामिल होने के कारण दस साल के सश्रम कारावास का दंड मिला था । जाति का था ग्वाला, अशिक्षित, लिखने-पढ़ने के पास न फटकता, धर्म और संबंध के नाते उसमें थी भगवन् पर आस्था और आर्यशिक्षा--सुलभ धैर्य और अन्यान्य सदगुण । इस वृद्ध का

 

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भाव देख मेरा विधा और सहिष्णुता का अहंकार चूर्ण हो गया । वृद्ध के नयनों में सदा विराजता प्रशांत, सरल मैत्रीभाव और मुंह में सर्वदा निष्कपट, प्रीतिपूर्ण आलाप । कभी-कभी अपने निरपराध होने पर भी कष्ट-भोग की बात कहते, स्त्री-पुत्र के बारे में बताते, कब भगवान् कारा से मुक्ति दिला स्त्री-पुत्र के मुख का दर्शन करायेंगे, यह भाव भी प्रकाशित करते, लेकिन कभी भी उन्हें निराश और अधीर नहीं देखा । भगवान् की कृपा के भरोसे धीर भाव से जेल का सब काम संपन्न करते हुए दिन काट रहे थे । वृद्ध की सारी चेष्टाएं और भावनाएं अपने लिये नहीं थीं, थीं दूसरों की सुख-सुविधाओं के लिये । उनकी हर बात से झलकती थी दया और दुःखियों के प्रति सहानुभूति । पर-सेवा था उनका स्वभाव-धर्म । नम्रता में ये सारे सदगुण और भी फूट उठे थे । अपने से सहस्र गुना उच्च हृदय देख इस नम्रता  के सामने मैं सर्वदा लज्जित हो जाता, वृद्ध से सेवा कराते संकोच होता था, लेकिन वे छोड़ते नहीं थे, वे सदा ही मेरी सुख-स्वस्ति के लिये चिंतित रहते । जैसा मुझ पर वैसा ही सब पर--विशेषतया निरपराधों और दु:खीजनों के प्रति उनकी दयादृष्टि और विनीत सेवा-सम्मान और भी अधिक था । तिसपर भी चेहरे पर और आचरण में कैसा एक स्वाभाविक और प्रशांत गांभीर्य और महिमा थी ! देश के प्रति भी इनका यथेष्ट अनुराग था । इस वृद्ध कैदी की दया- दाक्षिण्यपूर्ण श्वेतश्मश्रुमंडित  सौम्यमूर्ति चिरकाल मेरे स्मृति-पटल पर अंकित रहेगी । इस अवनति के समय भी भारत के किसानों में-जिन्हें हम अशिक्षित और छोटी जात कहते हैं,-ऐसी हिन्दू-संतानें मिलती हैं, इसीलिये भारत का भविष्य आशाजनक है । शिक्षित युवकमंडली और अशिक्षित कृषकवर्ग-इन दो वर्गों में ही निहित है भारत का भविष्य, इनके मिलन से ही गठित होगी भावी आर्यजाति ।

 

    ऊपर एक अशिक्षित खेतिहर की कहानी सुनायी, अब दो शिक्षित युवकों की कहानी सुनाता हूं । इन्हें सात साल का सश्रम कारावास का दंड मिला था । ये थे हैरिसन रोड के दो कविराज, नरेंद्रनाथ और धरणी । ये भी जिस शांत भाव से, संतुष्ट मन से इस आकस्मिक विपत्ति, इस अन्यायपूर्ण राजदंड को सह रहे थे, उसे देख आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता था । कभी भी उनके मुख से क्रोध-आक्रोश या असहिष्णुता-प्रकाशक एक भी बात नहीं सुनी । जिनके दोष से जेलरूपी नरक में यौवन काटना पड़ा था उनके प्रति जरा-सा भी क्रोध, तिरस्कार का भाव या विरक्ति तक का कोई लक्षण कभी नहीं देखा । वे थे आधुनिक शिक्षा के गौरवस्थल पाश्चात्य भाषा और पाश्चात्य विधा से अनभिज्ञ । मातृभाषा ही थी इनका संबल, लेकिन अंग्रेजी-शिक्षाप्राप्त लोगों में उनके तुल्य कम ही लोग देखे । दोनों ने ही मनुष्य या विधाता के आगे शिकवा-शिकायत न कर हंसते-हंसते नतमस्तक हो दंड ग्रहण कर लिया था । दोनों ही भाई थे साधक लेकिन विभिन्न प्रकृति के । नगेंद्र थे धीर प्रकृति, गंभीर और बुद्धिमान् हरिकथा और धर्म-चर्चा में अत्यंत रुचि रखनेवाले । जब हमें निर्जन कारावास में रखा गया था तब जेल के अधिकारियों ने जेल की कड़ी मशक्कत के बाद हमें पुस्तकें पढ़ने की

 

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अनुमति दी थी । नगेंद्र की इच्छा थी भगवदगिता पढ़ने की, मिली बाइबल । बाइबल पढ़कर उनके मन में कैसे-कैसे भाव उठते, कठघरे में बैठकर सब मुझे बताते । नगेंद्र ने गीता नहीं पढ़ी, किंतु आश्चर्य ! बाइबल की  कथा न कह वे गीता के श्लोकों का अर्थ बोल रहे थे-कभी-कभी तो ऐसा लगता था कि कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्णमुख से निःसृत भगवद् गुणात्मक सारी महती उक्तियां उसी वासुदेव के मुखकमल से इस अलीपुर के कठघरे में फिर से निःसृत हो रही हैं । गीता न पढ़ी होने पर बाइबल में गीता का समतावाद, कर्मफल त्याग, सर्वत्र ईश्वर-दर्शन इत्यादि भाव उपलब्ध करना सामान्य साधना का लक्षण नहीं । धरणी नगेंद्र के समान बुद्धिमान नहीं थे, लेकिन थे विनीत, कोमल प्रकृति और स्वभाव से ही भक्त । वे सदा ही मात्रुध्यान में विभोर रहते, उनके चेहरे पर प्रसन्नता, सरल हंसी और कोमल भक्ति-भाव देख जेल जेल नहीं लगती थी । इन्हें देख कौन कह सकता है कि बंगाली हीन और अधम हैं ? यह शक्ति, यह मनुष्यत्व, यह पवित्र अग्नि बस छिपी पड़ी है राख के ढेर में ।

 

   ये दोनों ही थे निरपराध । बिना दोष के काराबद्ध होने पर भी निजी गुणों या शिक्षा के बल पर बाह्य सुख-दुःख का आधिपत्य अस्वीकार कर आंतरिक जीवन की स्वाधीनता की रक्षा करने में समर्थ थे । किंतु जो अपराधी हैं, उनमें भी जातीय चरित्र के सदगुण विकसित होते । मैं बारह महीने अलीपुर में था, दो-एक को छोड़ जितने भी कैदी, चोर-डाकू और खूनियों के साथ हमारा संपर्क हुआ सभी से हम सद्व्यवहार और अनुकूलता पाते । बल्कि आधुनिक शिक्षा से दूषित हम लोगों में इन सब गुणों का अभाव देखा जाता है । आधुनिक शिक्षा के अनेक गुण हो सकते हैं किंतु सौजन्य और निःस्वार्थ परसेवा उन गुणों में नहीं आते । जो दया और सहानुभूति हैं आर्यशिक्षा के मूल्यवान् अंग उन्हें  इन चोर-डाकुओं में भी देखता । मेहतर, भंगी और पानीवाले को बिना दोष के हमारे साथ-साथ निर्जन-कारावास का दुःख-कष्ट थोड़ा-बहुत भोगना पड़ता, लेकिन उन्होंने इससे एक दिन भी हमारे ऊपर असंतुष्टि या क्रोध नहीं दिखाया । देशीय जेलर के सामने भले ही कभी-कभी अपना दुखड़ा रो लेते थे लेकिन हमारी कारामुक्ति की प्रार्थना प्रसन्न-वदन करते । एक मुसलमान कैदी अभियुक्तों से अपने बेटों जैसा स्नेह करते थे, विदा लेते समय वे अपने आंसू न रोक पाये । देश के लिये यह लांछना और कष्ट भोगते देख वे और सबको संबोधित कर अफसोस करते, ''देखो, ये हैं कुलीन, धनियों की संतान, गरीब-दुखियों की रक्षा करने जाने पर है इनकी ऐसी दुर्दशा ।''  जो पाश्चात्य सभ्यता के पिट्ठू हैं उनसे पूछता हूं, इंग्लैंड की जेल में निम्नश्रेणी के कैदियों, चोरों, डाकुओं और खूनियों में मिलेगा ऐसा आत्मसंयम, दया-दाक्षिण्य, कृतज्ञता , परार्थ और भगवदभक्ति ? असल में तो यूरोप है भोक्त्रुभूमि और भारत है दात्रुभूमि । गीता  में दो श्रेणी के लोग वर्णित हैं-देव और असुर । भारतवासी हैं स्वभावत: देवप्रकृति और पाश्चात्यगण स्वभावत: असुरप्रकृति । किंतु इस घोर कलियुग में, तमोगुण के प्राधान्यवश आर्यशिक्षा के लोप से देश की अवनति से हम निकृष्ट आसुरिक वृत्ति

 

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संचित कर रहे हैं और दूसरी ओर पाश्चात्य लोग राष्ट्रीय उन्नति और मनुष्यत्व के क्रमविकास के गुणद्वारा देवभाव अर्जित कर रहे हैं । इसके बावजूद उनके देवभाव में कुछ असुरत्व और हमारे आसुरिक भाव में कुछ देवभाव अस्पष्टतया  प्रतीयमान है । उनमें जो श्रेष्ठ हैं वे भी पूरी तरह असुरत्व-रहित नहीं । निकृष्ट  और निकृष्ट की जब हम तुलना करते हैं तो इसकी यथार्थता अति स्पष्ट रूप में समझ में आ जाती है ।

 

   इस विषय में बहुत कुछ लिखने को है, प्रबंध बहुत लंबा हो जाने के भय से नहीं लिखा । तो भी जेल में जिनके आचरण में इस आंतरिक स्वाधीनता के दर्शन किये हैं, वे हैं इस देवभाव के चरम दृष्टांत । परवर्ती प्रबंध में इस विषय पर लिखने की इच्छा है ।

 









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