श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य

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Sri Aurobindo

All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

The Complete Works of Sri Aurobindo (CWSA) Writings in Bengali and Sanskrit Vol. 9 715 pages 2017 Edition
Bengali
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All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य 528 pages 1999 Edition
Hindi Translation
Translator:   Hriday  PDF    LINK

कोरिया और जापान

 

    स्वाधीनता की प्रबल आकांक्षा सारे एशिया में व्याप अपूर्व लीला खेल रही है । अघटनघटनापटीयसी महाशक्ति के लिये कुछ भी असाध्य, असंभव नहीं । हम जिसे असाध्य कहते हैं, महाशक्ति की प्रेरणा से, महाशक्ति के अभ्रांत साधनों से वह सहज--साध्य हो जाता है । हम जिसे असंभव कहते हैं, महाशक्ति की इच्छा से वह हो जाता है संभव और अवश्यंभावी  । दुर्बल फारस दो प्रकांड आसुरिक शक्तियों की खरल में पड़कर भी सहसा उठ खड़ा हुआ है, अनगिनत विघ्नों को पार कर धीर, दृढ़ गति से बल जुटा रहा है । मुमूर्षु तुर्किस्तान न जाने कहां से संजीवनी सुधा पान कर नये बल से बलीयान् हो, नये यौवनावेग से प्रफुल्ल हो यूरोप के विस्मय व भय का कारण बन रहा है । प्राचीन चीन का स्वेच्छाचारी राजतंत्र अपने ही आग्रह से प्रजातंत्र में परिणत हो रहा है । अरब में, तुर्किस्तान में, भारत में जो भी एशियाई पराधीन हैं उन सभी देशों में स्वाधीनता की अदम्य आकांक्षा अंगड़ाई ले सब देशों को आलोड़ित कर रही है । अफगानिस्तान में भी अशांति की पहली झलक दिखायी पड़ने लगी है । केवल वर्मा व स्याम में इस प्रवाह ने बहाना शुरू नहीं किया है । सारा एशिया है जीवित, जाग्रत् स्वाधीनता के संग्राम में जयाभिलाषी ।

    खेद है कि इस उत्थान के समय एशियाई एशियाई के बीच विरोध उठ खड़ा हुआ है । तुर्क-साम्राज्य में जो अशांति है वह सुलतान अब्दुल  हमीद के पहले के किये गये पाप के प्रायश्चित्त के रूप में नये प्रजातंत्र को भोगना पड़ रहा है । इसमें संदेह नहीं कि इस प्रजातंत्र के उदार, प्रतिभाशाली और तीक्ष्णबुद्धि राजनीतिविद् नेता इस अशांति को शीघ्र ही प्रशमित करेंगे । पर पूर्वी एशिया में जापान की साम्राज्य-लिप्सा  और वाणिज्य-विस्तार की आकांक्षा से जो बाधा पनपी है उसे हटाना उतना सहज नहीं । जापान के प्रधान और पूज्यतम नेता, नये जापान के स्रष्टा, त्राता और विस्तारकर्ता हिरोवूमि इतो पराधीन कोरियाई के हाथ मारे गये हैं । जो राष्ट्र दूसरे की स्वाधीनता में हस्तक्षेप करता है वह महापाप करता है इसमें कतई संदेह नहीं; पर सारे एशिया के आवश्यक हितकार्य के लिये भगवान् की इच्छा से जापान ने कोरिया में प्रवेश किया है और जबतक उसके आगमन का उद्देश्य सिद्ध नहीं हो जाता तबतक कोरिया के हजार प्रयत्न करने पर भी वह बंधन नहीं कटने का । वह उद्देश्य है--रूस के हाथ से उत्तरी और पूर्वी एशिया की रक्षा । यह उद्देश्य कोरिया से संपन्न नहीं हो सकता । जापान को ही भगवान् ने उस उद्देश्य की पूर्ति के लिये उपयुक्त शक्ति, सामर्थ्य, जनबल, धनबल और साधन दिये हैं । तिसपर कोरिया है उत्तरी एशिया का गढ़--जो कोई भी कोरिया को जीत सकेगा वही उत्तरी एशिया का प्रभु बन विराजेगा । रूस ने यदि कोरिया में प्रवेश किया--रूस-जापान के युद्ध के पहले रूस ने वहां प्रवेश किया

था--तो जापान की स्वाधीनता दो दिन भी नहीं टिकने की | ऐसी अवस्था में कोरिया

 

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पर अधिकार जमाना है जापान की आत्मरक्षा का आवश्यक साधन; इसे पाप-कर्म नहीं कहा जा सकता । यह सिर्फ आत्म-रक्षा ही नहीं है, यह है ईश्वरनिर्दिष्ट पुण्य-कार्य का अनिवार्य अंग । जबतक साइबेरिया पुनः एशिया के करतलगत नहीं हो जाता, जबतक क्रूर, अत्याचारी और परस्वापहारी रूस का राज्य उस देश में नष्ट नहीं हो जाता, तबतक एशिया की स्वाधीनता निरापद नहीं हो सकती । साइबेरिया है जापान का प्राप्य । जापान ही रूस को साइबेरिया से हटा सकता है । कोरिया पर अधिकार न करने से हार्बिन और व्लाडिवोस्टक पर भी अधिकार नहीं किया जा सकता । अत: भगवान् की इच्छा और उनकी उद्देश्य-सिद्धि के लिये जापान कोरिया में घुसा है । यह उद्देश्य विफल होने का नहीं । जबतक व्लाडिवोस्टक जापान के हाथ नहीं आ जाता तबतक कोरिया की स्वाधीनता की इच्छा व चेष्टा विफल रहेगी ।

 

     किंतु इस अनिवार्य कार्य में जापानियों ने अनावश्यक कठोरता बरती और अत्याचार ढाया--इसमें जो थोड़ा-बहुत दोष कोरिया का है इसे नकारा नहीं जा सकता; पर सारा दोष कोरिया का नहीं । नीच श्रेणी व नीच प्रकृति जापानियों का लोभ, विजय की मत्तता और पाशविक प्रवृत्ति हैं इसके कारण । इस अत्याचार से कोरियावासियों की क्रोधाग्नि भभक उठी तब जापान के नेता हिरोवूमि इतो ने स्वयं कोरिया जा इस कठिन व विपज्जनक महत् कार्य के भार को अपने ऊपर लिया । व्यक्तिगत अत्याचार तो उन्होंने बंद करा दिये पर खुद कोरियावासियों पर और भी जोर-जुल्म ढ़ाने लगे । कोरिया का स्वतंत्र जीवन, स्वतंत्र शिक्षा, स्वतंत्र आचार-व्यवहार, स्वतंत्र अस्तित्व के प्रत्येक छाप-चिह्न को कठोर निर्दय पेषण से चूर-मार कर कोरिया को जापान का उपनिवेश बना जापानी शिक्षा, जापानी सभ्यता, जापानी आचार-व्यवहार, जापानी कार्य-दक्षता, कार्य-प्रणाली व श्रृंखला, जापानी मंत्र, जापानी तंत्र को कोरियावासियों के तन-मन-प्राण भें अंकित करने में जुट गये । इतो कोई साधारण राजनीतिज्ञ नहीं थे, उनके जैसे महापुरुष उन्नीसवीं शताब्दी में राजनीति-क्षेत्र में अवतीर्ण नहीं हुए । नैपोलियन के बाद उन्हें ही जगत् का श्रेष्ठ कर्मी कहा जा सकता है । ऐसे व्यक्ति ने इस कठिन कार्य को क्यों इस तरह के नृशंस साधनों से संपन्न करने की चेष्टा की ? अंशत: अतिरिक्त देशहित व साम्राज्य की लिप्सा से । भगवान् की विभूति भी मानव शरीर धारण करने पर अपनी निर्मल बुद्धि पर मानव स्वभाव का रंग चढ़ा जगत् का कार्य करती हैं । इतो थे जापानी, अतः उनमें थे जापानियों के गुण, जापानियों के दोष । यदि कोरिया चिरकाल तक जापानी साम्राज्य में रहे तो जापान का गौरव बढ़ेगा, बलवृद्धि होगी और उत्तरी एशिया में उसकी प्रतिष्ठा व विस्तार का पथ निष्कंटक होगा । पर एक दूसरा कारण भी ढूंढ़ा जा सकता है-- अपने किये पाप के फल से कोरिया-वासियों को यह लांछना भोगनी पड़ी । जब विजातीय विदेशीय विधर्मी रूस राज्य ने कोरिया में अपना सर्वनाशी विस्तार आरंभ किया तब कोरियावाले स्वाधीनता खो जाने

के भय से आशंकित नहीं थे, वरन् चीन के प्रति वि

द्धे

ष, जापान के प्रति वि

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कारण रूस के साथ संधि और मैत्री स्थापित कर अपने विनाश, जापान के विनाश, चीन के विनाश, सारे एशिया की स्वाधीनता के विनाश में जान-बूझकर मदद दे रहे थे । यह पाप कोई मामूली पाप नहीं । कितने दिन तक कोरिया को इसका प्रायश्चित भोगना पड़ेगा इसकी कोई सीमा नहीं । फिर जब जापान ने, एशिया का रक्षक और परित्राता बन, कोरिया में प्रवेश किया, रूस को उत्तरी एशिया के गढ़ से चन्द दिनों में निकाल बाहर किया, तब कोरिया ने, अपने श्वेतवर्ण बन्धु के दुःख से दुःखित हो जापान के विरुद्ध आचरण किया । अंत में जब जापान के अत्याचार से अधीर हो उठे तब भी निज मनुष्यत्व के बल से उठने की चेष्टा न कर पहले तो रूस के साथ षड्यंत्र किया, फिर उसमें भी विफल मनोरथ हो यूरोप के दर पर रोने के लिये अपने प्रतिनिधि भेजे । कैसा आश्चर्यमय प्रभेद । शत्रु निपीड़ित हो जापान व चीन ने जब यूरोप में प्रतिनिधि-संघ (Commission) को भेजा तो किस उद्देश्य से भेजा ? शत्रुओं में ऐसी कौन-सी विधा, गुण, प्रणाली व श्रृंखला है जिससे वे अजेय और दुर्धर्ष पराक्रमशाली हो उठे हैं, उसे जान अपने देश लौट आ उसी विधा, गुण, प्रणाली व श्रृंखला को स्वदेश में संस्थापित कर स्वाधीनता की रक्षा और शत्रु के विनाश के पथ को उन्मुक्त करना था उस प्रतिनिधि-संघ को भेजने का उद्देश्य | और इस अवस्था में कोरिया का प्रतिनिधि-संघ क्यों यूरोप दौड़ा गया ?  अर्थलोलुप, परदेशलोलुप पाश्चात्य राष्ट्रों के सामने गिड़गिड़ाने, उन्हें जापान के विरुद्ध भड़काने-यही था भिक्षुक-यात्रा का उद्देश्य । मूर्ख भी जानता है कि कृतकार्य होने से जापान का सर्वनाश हो जाता, पर कोरिया को स्वाधीनता न मिलती । इस नीचता, इस बार-बार के महापातक आचरण के फल से कोरिया अब क्षिप्तप्राय हो रहा है । हिरोवूमि इतो ने देखा कि कोरिया यदि जापान से अलग रहा तो इस दुर्बल की स्वाधीनता-चेष्टा  के कारण एक-न-एक दिन पाश्चात्य शत्रु जापान का, एशिया का विनाश करने का सुअवसर जरूर प्राप्त करेंगे, पूर्व एशिया में एक बार फिर प्लासी का कांड अभिनीत होगा । अत: कोरिया के स्वातंत्र्य का विनाश करना है आत्मरक्षा का श्रेष्ठ साधन । एक बार कृत निश्चय होने पर कर्मवीर अपने निर्दिष्ट पथ से डिगे नहीं । इतो ने अपनी सारी शक्ति, प्रतिभा, विधा लगा दी कोरिया की स्वंतत्रता को नवीन निष्पेषण से नेस्त-नाबूद करने में ।

   पापों का प्रायश्चित तो करना होगा । पापों में भी दो पाप हैं  विशेष घृण्य व अमार्जनीय-क्रूरता और नीचता । जापन की क्रूरता बनी नये जापान के निर्माता, पृथ्वी के श्रेष्ठ कर्मवीर इतो की हत्या का कारण । कोरिया की नीचता ने बना दिया उसकी स्वाधीनता और स्वातंत्र्य के विनाश को अवश्यंभावी । इस हत्या से कोरिया की स्वाधीनता-प्राप्ति में कोई सुविधा नहीं होगी । जापानियों में मृत्यु भय नहीं, वे अंत तक दृढ़त: इतो की राजनीति का अनुसरण करेंगे । कोरिया का स्वातंत्र विनिष्ट  होगा । कोरिया के परिणाम से भारत एक आवश्यक सबक सीख सकता है । जिस पातक के

कारण कोरिया विनाशोन्मुख हुआ है, सहस्र वर्षों से हम वही पातक करते आ रहे हैं,

 

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उसका फल भी भोग रहे हैं । फिर भी हम नहीं चेतते । दूसरे पर निर्भर रहने से किसी भी राष्ट्र का कल्याण नहीं हो सकता, भ्रातृ-विरोध से दूसरे की शरण लेने में अपना विनाश, भाई का विनाश अनिवार्य है । राष्ट्रीयता का पहला नियम है अपने बल से बलीयान् होना, अपनों से अपने-आप निपटना । जो भी इस नियम का उल्लंघन करेगा, वह हिन्दू हो या मुसलमान, नरमपंथी हो या चरमपंथी, उसे पाप का प्रायश्चित करना ही होगा | 

 

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