All writings in Bengali and Sanskrit including brief works written for the newspaper 'Dharma' and 'Karakahini' - reminiscences of detention in Alipore Jail.
All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)
कुछ अधूरे लेख
भगवान् सन्मय, चिन्मय, आनन्दमय हैं, सच्चिदानन्द ही है सनातन सत्ता का सनातन सत्य; सच्चिदानन्द ही है जगत् का उत्स, जगत् का कारण, जगत् का प्रकृत स्वभाव, उसका गुह्म अर्थ... ।
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अखिल अध्यात्म सत्य की सूर्यकिरण-स्वरूप महीयसी श्रुति उपनिषद् ही है आदि परिपूर्ण प्रकृत वेदान्त । जो प्रसिद्ध दर्शन उसी नाम से जाने जाते हैं वे इसी महान् वेदान्त के मात्र एक पक्ष से सृष्ट हुए हैं, मानुषी बुद्धि द्वारा निर्मित हैं, बुद्धि के अंधकार में रत्नस्वरूप वेदान्तदर्शन दर्शन के रूप में एक बहुमूल्य कृति है, तथापि दर्शन ही आदि और असली वेदान्त नहीं है । जब सूर्योदय हो जाता है तो दीपक की आवश्यकता नहीं रह जाती, उपकारिता भी नहीं रह जाती।
माया प्रकृति शक्ति लीला
माया, माया है अनवरत बल । यह माया क्या है इसे एकबार इसके तल तक जाकर समझने की कोशिश करें क्या ? कथोपकथन के दास हैं हम, अध्यात्मवाद की बोली बोलनेवाले तोते, मनुष्य की स्वाधीन बुद्धि से सीखे शब्द के पीछे असली चीज क्या है, दार्शनिक वाद-विवाद के चक्कर में न पड़ असली अनुभूति क्या है एक बार उसकी तह में जाकर देखना अच्छा होगा ।
तुम कहते हो जगत् माया है, और जो मायाप्रसूत है वह मिथ्या है, उसका सत्य वास्तविकता नहीं । जगत् जादूगर का इन्द्रजाल है, विकृत मस्तिष्क का दुःस्वप्न है ।
मनुष्य के जन्म का अर्थ और उद्देश्य क्या है, उसकी चरम उन्नति कैसे हो सकती है, क्यों भगवान् इस तरह का संसार रचकर अनन्त काल से आनन्द भोग कर रहे हैं--ये प्रश्न उठते हैं । उत्तर है--जगत् है भगवान् का नानाविध आत्म-गोपन और आत्मप्रकाशन का क्षेत्र, यह आनन्द ही है जगत् का मूल कारण । यही आत्मविकास जगत् में धरती पर क्रमविकास का रूप धारण करता है, मनुष्य जीवन उसी
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क्रमविकास का केन्द्र और यंत्र है, यही है मनुष्य के जन्म का अर्थ और उद्देश्य । आत्मवान् होना, भगवान् को पाना और अपने अंदर छिपे देवत्व को प्रकट करना ही है मनुष्य की चरमसिद्धि का पथ । और एक ही सूत्र में पिरोये ये तीनों, मनुष्य के मन- प्राण-शरीर में भगवान् की अभिव्यक्ति के तीन तथ्य है । जो मनुष्य आत्मवान् नहीं हुआ वह भगवान् को नहीं पाया, जिसने भगवान् को नहीं पाया उसके लिये अपने भीतर छिपे देवत्व को प्रकट करने की दुराकांक्षा आकाश-कुसुम खिलाने की कल्पना- मात्र है ।
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करतोया नदी
बंगाल के पश्चिमी पर्वतीय प्रदेश में निविड़ वनों से आच्छादित दो पर्वत-मालाओं के मध्य उपत्यका में से होकर गुजरती है क्षिप्रगामिनी, कलकल-स्वर मुखरिता करतोया नदी । एक तरुण बाला की तरह चंचल, हिलती, डोलती, बलखाती, हंसती-खेलती दक्षिण-दिशा की ओर अग्रसर होती है । एक छलांग में शिला पर उठ बैठती है तो दूसरी छलांग में नीचे कूद जाती है, या कभी तटवर्ती वृक्ष के श्याम चरणों पर आघात कर भाग खड़ी होती है । इस तरह अनगिनत बाल-सुलभ क्रीड़ा-कौतुक कर अंतत: मानों दूर से जननी की मधुर पुकार सुनती है । एकाएक उपत्यका से बाहर निकल मां-गंगा की पवित्र, स्नेहमयी गोद की ओर गाते-गाते दौड़ पड़ती है ।
करतोया की उपत्यका को अनेक अर्थों में निकटस्थ समतल भूमि से अलग एक स्वंतत्र जगत् कहा जा सकता है । उच्च पर्वत-प्राचीरों में आबद्ध प्रकृति के निर्झर से संयुक्त'* रमणीय क्रीड़ा-भूमि, पावन-पूत, स्वच्छ सलिल से सिक्त पूजा-गृह । विलम्ब से सूर्योदय, समय से पूर्व ही सूर्यास्त । अति दीर्घ प्रभात-वेला में जगत् का युगव्यापी आविर्भाव, अति दीर्घ गोधूलि-वेला में उस वृद्ध योगमग्न जगत् का युगव्यापी शान्त अवसान, प्रतिदिन की उपलब्धि हो जैसे । अहोरात्र वन के उच्छवास-मर्मर से पूरित निविड़ हरित पल्लवों के अन्त:स्थल में पवन की गंभीर, मरुत्-शांत-भावात्मक अविराम ब्रह्म-गाथा, अहोरात्र निम्न भूमि के छोटे-छोटे स्वच्छ पत्थरों के बीच निर्झरणी का मर्मव्यापी पर स्निग्ध, सुखदायी निनाद, अहोरात्र उपत्यका के बीच करतोया की मृदु तरंगों का अविराम हंसी-खेल । उपत्यका का जीवन है मुखर पर कोलाहल नहीं । उसने उस उत्तुंग अचल पर्वतमाला और निविड़ रहस्य-ध्यानमग्न वनराजी के गंभीर चंचल सलिल और मुखरित पवन को भी गहरी शांति से अभिभूत कर दिया है । इस स्थान की रमणीयता में जीवनमुक्त चरित्र का सुन्दर आदर्श प्रतिफलित है । बाहर संसार की चंचलता, हंसना-रोना, प्रेम, केलि, कलह, पुनर्मिलन व भीतर शुद्ध गंभीर, ईश्वर-ध्यान, निरपेक्ष, प्राणी-मात्र की हित-कामना, चित्त-प्रसार, समता और अचल अद्वैत भाव ।
* संदिग्ध पाठ |
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