श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य

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Sri Aurobindo

All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

The Complete Works of Sri Aurobindo (CWSA) Writings in Bengali and Sanskrit Vol. 9 715 pages 2017 Edition
Bengali
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All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य 528 pages 1999 Edition
Hindi Translation
Translator:   Hriday  PDF    LINK

 मिथ्यात्व की पूजा

 

     भूपेन्द्रनाथ को जेल में भेजकर फिरंगी सरकार ने सोचा कि इस बार उन्होंने  'युगांतर' की उठती हुई शक्ति को एकदम ही नेस्त-नाबूद कर दिया है । पर 'युगांतर' फिर भी प्रकाशित हुआ । मरा तो नहीं ही बल्कि इतनी आशा भी नहीं जगायी कि कभी मरेगा भी । इससे सरकार तो आगबबूला होगी ही ।

 

   'इंगलिशमैन' और 'डेली न्यूज' ने हाय-तौबा कर अंत में आशा बंधायी-''डरने की बात नहीं, छोटे लाट 'युगांतर' के संपादक को फिर से जेल भेजने की व्यवस्था कर रहे हैं ।'' छोटे लाट ने शायद कहा है कि देखता हूं 'युगांतर' के कितने संपादक हैं । सभी को जेल में भरेंगे ।

 

   'युगांतर' के संपादक भला कौन ? युगांतर तो है राष्ट्रीय भाव-समष्टि -मात्र । लोगों के प्राणों के भीतर से होकर जो भावस्रोत प्रवाहित है उसका एक-एक बिंदु 'युगांतर' को आगे ठेल जाता है । संपादक तो है केवल उसकी अभिव्यक्ति का यंत्र । यंत्र को पकड़ भी लो तो यंत्री तो नहीं पकड़े जाते । यंत्री तो ठहरे अशरीरी । ये जो झुंड के झुंड मतवाले लड़कों के दल 'वन्दे मातरम्' मंत्र से मुग्ध हो अनजान लक्ष्य की ओर दौड़ रहे हैं, ये जो नृमुंडमालिनि के खप्पर के नीचे आत्मबलिदान कर अमरत्व के लिये उत्सुक हैं, वे ही देश में युगांतर लायेंगे, वे ही हैं 'युगांतर' के संपादक । घमंड से अंधे बने तुम उनकी संख्या जानना चाहते हो ? एक दिन जान जाओगे । इन सभी को जेल में बंद कर सको इतनी बड़ी जेल तो तुम लोग आज तक नहीं बना पाये हो ।

 

    इतना बड़ा वीर इस त्रिभुवन में कोई नहीं जो खुद को गुलाम न समझनेवाले को गुलाम करार कर दे । तुम मुझे बंदी बना अपनी अधीनता स्वीकार कराओगे ? मैं यदि 'वो दुःख नहीं मां, तुम्हारी दया है' कह हंसते-हंसते कारागृह में प्रवेश करूं तो तुम्हारी दमन की चेष्टा ही व्यर्थ होगी । तुम मुझे फांसी के तख्ते पर झुलाओगे ? मैं मरते-मरते भी तुम्हें नीचा दिखा जाऊंगा । एक तरफ है मातृमंत्र और दूसरी तरफ अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कराना चाहते हो ? मुगल सम्राट ने जब एक दिन तुम्हारी तरह मदान्ध हो सिक्ख गुरु को धर्म त्यागने के लिये कहा था तब सिक्ख गुरु ने हंसते- हंसते अपनी बलि दी थी, धर्म की नहीं । हम भी वैसा ही करेंगे । भारत-भर में फिर से धर्म की बाढ़-सी आ गयी है । जिस तरह मुगल सिंहासन उसमें बह गया उसी तरह पलासी में आसानी से हथियाया हुआ तुम्हारा सिंहासन बह जायेगा । हमने तुम्हें यहां आश्रय दिया है तभी तुम यहां रह रहे हो; तुम्हें बचाये हुए हैं तभी बचे हुए हो; तुम्हारे मुंह में कौर भरते हैं तभी तुम हमें भूखों मारते हो; हम निर्जीव बने रहने का स्वांग करते हैं तभी तुम हम पर पैशाचिक अत्याचार करने का साहस करते हो; हमने तुम्हें सिर-आंखों पर बिठाया है तभी तुम सिरमौर बने हुए हो; जिस दिन घृणा के साथ थूक

की तरह तुम्हें दूर फेंक देंगे उस दिन तुम लोगों का मोल थूक से कुछ ज्यादा नहीं

 

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होगा । हम भ्रांति  की घुमेरी में मिथ्यात्व की पूजा में निरत थे अत: मिथ्यात्व आज सत्य के आसन पर बैठने का साहस कर रहा है । परमहंसदेव कहा करते थे-माया को माया नाम से पहचान लेने पर माया माया नहीं रह जाती । जिस दिन हम समझ लेंगे कि इन मुट्ठी-भर अन्न के गुलामों को, भव-घुमक्कड़ को पकड़ अपने ही हाथों हमने उनके भाल पर राजतिलक लगाया था, जिस दिन यह समझ लेंगे कि हम वास्तव में अंधे नहीं वरन स्वेच्छा से आंख बंद कर अंधकार देख रहे हैं, जिस दिन समझ लेंगे कि हम कमजोर नहीं, असमर्थ नहीं, सिर्फ आलस्य की घुमेरी में, अज्ञान के घेरे में पड़े हुए हैं उस दिन हमें दुर्दशा से छुटकारा मिलेगा । उस दिन 'हम आजादी के योग्य नहीं' कहलवा कर दुनिया के सामने मजाक बनने के लिये नहीं दौड़ेंगे । रन्ध्र -रन्ध्र में अनंत शक्ति को आधारभूत।, चैतन्यमयी हमारी जननी--हम भला किसके दास ?

 

     शपथ लो कि अब और मिथ्यात्व के संस्पर्श में नहीं आयेंगे; अंग्रेजों के विश्व-विघालय-रूपी जादूवर से पांडित्य का तमगा ले भेड़ बनकर नहीं रहेंगे; छोटे लाट और बड़े लाट की सवारी निकलने पर अभिनन्दन-पत्र के चिरदासत्व स्वीकार करने के लिये उनके पीछे-पीछे नहीं दौड़ेंगे-तब समझोगे मां का यथार्थ स्वरूप; देखोगे मां चिरस्वाधीना हैं । एक बार आंखों पर से पट्टी हटाकर मा के अभय-पद को देखो तो जरा, समझ जाओगे कि यह अंग्रेजी राग है एक प्रकाण्ड मिथ्यात्व से भरी मायानगरी ।

 

     ऐसा कहने पर तो अंग्रेज आगबबूला हो उठेंगे; किंतु हमारे साथ उनके मेल-मिलाप की तो कोई संभावना ही नहीं । एक ही जगह रहकर सच और झूठ दोनों तो निर्विवाद घर नहीं कर सकते । अंग्रेजों की दुश्मनी है धर्म के साथ, सत्य के साथ । और जिसकी दुश्मनी सच्चाई के साथ हो उसका मरण तो अवश्यंभावी है ।

 

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