All writings in Bengali and Sanskrit including brief works written for the newspaper 'Dharma' and 'Karakahini' - reminiscences of detention in Alipore Jail.
All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)
पत्र
मृणालिनी देवी को
बारीन को
'प्रवर्तक' को
'न' को
'स' को
'ए' को
c/o K. B. Jadhav esq.
Near Municipal office
Baroda
25 June, 1902
प्रियतमा मृणालिनी,
तुम्हारे बुखार का सुनकर बहुत ही दुःख हुआ । आशा है अब से अपनी सेहत का ख्याल रखोंगी । ठंडी जगह है, वही करना जिससे ठंड न लग जाये । आज दस रुपये भेज रहा हूं । दवा मंगाकर रोज खाना । लापरवाही मत करना । मुझे एक ऐसी दवा का पता चला है जिससे तुम्हारी बीमारी ठीक हो सकती है । हर रोज खाने की जरूरत नहीं, दो-एक बार लेने से ही छुटकारा मिल जायेगा । लेकिन आसाम में इसका सेवन संभव नहीं । यदि देवघर जाओगी तो वहां ले सकती हो । मैं सरोजिनी को लिख दूंगा कि क्या करना होगा ।
सरोजिनी देवघर में ही है । भाभी दार्जिलिंग से कलकत्ते आयी हुई हैं । दार्जिलिंग में वे बीमार पड़ जाती हैं । सरोजिनी ने लिखा है कि जाड़ा जाने तक वे कलकत्ते ही रहेगी । नानी आदि सबने उन्हें खूब पकड़ा है, उनकी आशा है कि भाभी सरोजिनी के विवाह की व्यवस्था कर सकती हैं । मेरे ख्याल से आशा कम ही है । सरोजिनी अतिशय रूप और गुणों के सपने देखना छोड़े तब न !
कैंचो लानावली पहाड़ पर गया था । मुझे भी वहां बुला रहा था । एक प्रबन्ध लिखाने की उसकी इच्छा थी इसीलिये बुलाया था । लेख तो लिखना हुआ पर प्रकाशित नहीं करेगा । अंत में क्या हुआ पता नहीं, एकाएक विचार बदल गया । और एक बहुत बड़ा और गोपनीय काम आ पड़ा । मुझे ही करना पड़ा । मेरा काम देखकर कैंचो बहुत संतुष्ट था और वायदा किया है कि वेतन ज्यादा देगा । कौन जाने देगा कि नहीं । कैंचो सिर्फ बोलता है, काम कुछ नहीं दीखता । दे भी सकता है । जो देख रहा हूं उससे लगता है कि कैंचो का पतन सन्निकट है, सारे लक्षण खराब हैं ।
मैं अभी खासीराव के घर पर ही हूं । तुम लोग जब आओगी तब नौलाखी जायेंगे । इस साल शायद वर्षा ज्यादा न हो । वर्षा न होने पर निश्चित ही भयंकर अकाल पड़ेगा । तब तुम लोगों का आना स्थगित हो सकता है । आने पर कष्ट ही कष्ट होगा । खाने का कष्ट, पीने का कष्ट, गरमी का कष्ट । इस साल बड़ौदा में कोई खास गरमी नहीं पड़ी । बड़ी ही सुहावनी हवा बह रही है पर इस सुहावनी हवा से वर्षा की संभावना भी उड़ी जा रही है । अभी भी १०-१२ दिन बचे हैं । इस बीच यदि अच्छी वर्षा हो गयी तो इस महाविपद् से छुटकारा मिल जायेगा । देखें, अदृष्ट में क्या लिखा है ।
तुम्हारी छवि जल्दी ही भेजूंगा । यतीन्द्र बनर्जी हमारे मकान में ही रहते हैं । आज मिलने जाऊंगा, एक अच्छी-सी छवि चुन लुंगा ।
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अपने पिताजी और मां से मेरा प्रणाम कहना । और कुछ ज्यादा न लिखने पर भी सब समझ लेना ।
तुम्हारा स्वामी
3०th August
तुम्हारी २४ अगस्त की चिट्ठी मिली । तुम्हारे मां-बाप को फिर वही दुःख हुआ है-पढ़कर दुःखी हुआ । तुमने यह नहीं लिखा कि कौन-सा लड़का परलोकवासी हुआ है । दुःख होने से भी क्या बनता है ? संसार में सुख की खोज में जाने से ही सुख के बीच दुःख दिखायी देता है, दुःख सदा ही सुख को घेरे रहता है यह नियम केवल पुत्रकामना के विषय में ही लागू नहीं होता, सब सांसारिक कामनाओं का फल यही होता है । धीर चित्त से सब दुःख-सुख भगवान् के चरणों में अर्पण करना ही है मनुष्य के लिये एकमात्र उपाय ।
मैंने बीस रुपयों की जगह दस रुपये पढ़ा था, इसलिये दस रुपये भेजने की बात लिखी थी । अगर पन्द्रह रुपयों की जरूरत है तो पन्द्रह रुपये ही भेजूंगा । इस महीन सरोजिनी ने दार्जिलिंग में तुम्हारे लिये कपड़ा खरीदा था उसके लिये रुपया भेज चुका हूं । इधर जो तुम उधार कर बैठी हो यह भला कैसे जानूं ? पन्द्रह रुपये लगे थे वे भेज दिये हे; और तीन-चार रुपये जो लगेंगे वे आगामी महीने भेज दूंगा । इस बार तुम्हें बीस रुपये भेजूंगा ।
अब उस बात पर आवें । अबतक तुम्हें पता चल गया होगा कि जिसके भाग्य के साथ तुम्हारा भाग्य जुड़ा है वह बड़े विचित्र ढंग का मनुष्य है । इस देश में आजकल के लोगों का जैसा मनोभाव है, जीवन का उद्देश्य और कर्म का क्षेत्र है, मेरा वैसा नहीं; सब कुछ ही भिन्न है, असाधारण है । सामान्य लोग असाधारण मत, असाधारण प्रयास, असाधारण उच्च आशा के बारे में जो कहते हैं वह शायद तुम जानती हो । इन सब भावों को वे पागलपन कहते हैं, परंतु पागल के कर्मक्षेत्र में सफलता मिलने पर उसे पागल न कह प्रतिभावान् महापुरुष कहते हैं । किंतु कितनों का प्रयास सफल होता है ? हजारों में दस असाधारण होते हैं, उन दस में कोई एक कृतकार्य होता है । मेरे कर्मक्षेत्र में सफलता तो दूर की बात है, कर्मक्षेत्र में पूर्णत: उतर भी नहीं सका हूं, अतएव मुझे पागल ही समझेंगे । पागल के हाथ में पड़ना एक स्त्री के लिये बड़ा ही अमंगल है क्योंकि स्त्री-जाति की सारी आशा सांसारिक सुख-दुःख में ही आबद्ध होती है । पागल अपनी स्त्री को सुख नहीं दे सकता, दुःख ही देता है ।
हिंदूधर्म के प्रणेताओं ने इसे समझा था वे असामान्य चरित्र, प्रयास और आशा के
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बड़े अनुरागी थे; पागल हो या महापुरुष, असाधारण मनुष्य को बहुत मानते थे; किंतु इन सब बातों से स्त्री की जो भयंकर दुर्दशा होती है उसका क्या उपाय हो ? ॠषियों ने यह उपाय निश्चित किया : उन्होंने स्त्री-जाति से कहा कि तुम दुसरे की अपेक्षा 'पति: परमो गुरु:' इसी मंत्र को स्त्री-जाति का एकमात्र मंत्र समझना । स्त्री स्वामी की सहधर्मिणी है, पति जिस कार्य को स्वधर्म मान ग्रहण करे उसमें तुम सहायता देना, सलाह देना, उत्साह देना, उन्हें देवता समझना, उन्हींके सुख में सुख, उन्हींके दुःख में दुःख मानना । कार्य का चुनाव करना पुरुष का अधिकार है, सहायता और उत्साह देना स्त्री का ।
अब प्रश्न यह है कि तुम हिन्दुधर्म का पथ ग्रहण करोगी या नये सभ्य धर्म का ? पागल के साथ तुमने विवाह किया है-यह है तुम्हारे पूर्वजन्मार्जित कर्मदोष का फल । अपने भाग्य के साथ एक समझोता कर लेना अच्छा है । कैसा होगा वह समझौता ? पांच आदमियों की राय मान क्या तुम भी उसे पागल कहकर उड़ा दोगी ? पागल तो पागलपन के रास्ते दौड़ेगा ही दौड़ेगा, तुम उसे पकड़कर नहीं रख सकोगी, तुम्हारी अपेक्षा उसका स्वभाव अधिक बलवान् है । तब क्या तुम कोने में बैठ केवल रोओगी या उसके साथ ही दौड़ पड़ोगी, पागल के उपयुक्त पगली बनने की चेष्टा करोगी, जैसे अंधे राजा को महिषी दोनों आंखों पर पट्टी बांध स्वयं भी अंधी बन गयी थीं ? हजार बाह्य स्कूल में तुम क्यों न पढ़ी होओ, आखिर हो तो हिंदू घर की लड़की, हिंदू पूर्वपुरुषों का रक्त तुम्हारे शरीर मैं है, मुझे संदेह नहीं, तुम शेषोक्त पथ ही अपनाओगी ।
मेरे तीन पागलपन हैं । पहला पागलपन है: मेरा दृढ़ विश्वास है कि भगवान् ने जो गुण, जो प्रतिभा, जो उच्च शिक्षा और विधा और जो धन दिया है, सभी भगवान् का है, जो कुछ परिवार के भरण-पोषण में लगता है और जो नितान्त आवश्यक है उतना ही अपने लिये खर्च करने का अधिकार है, बाकी बचे को भगवान् को लौटा देना उचित है । यदि मैं सब अपने लिये, सुख के लिये, विलास के लिये खर्च करूं तो मैं चोर कहलाऊंगा । हिंदू शास्त्र कहते हैं, जो भगवान् से धन ले भगवान् को नहीं देता वह चोर है । आजतक मैं भगवान् को दो आने दे, चौदह आने अपने सुख वे खर्च कर, हिसाब चुकता कर, सांसारिक सुख में मत्त था । जीवन का अर्द्धांश वृथा ही गया, पशु भी अपना और अपने परिवार का उदर भर कृतार्थ होता है ।
मैं अबतक पशुवृत्ति और चौर्यवृत्ति करता आ रहा था, यह जान गया हूं । यह जान बड़ा अनुताप और अपने पर घृणा हो रही है, अब और नहीं, वह पाप जन्म-भर के लिये छोड़ दिया । भगवान् को देने का अर्थ क्या है ? अर्थ है धर्मकार्य में व्यय करना । जो रुपया सरोजिनी या उषा को दिया है उसके लिये मुझे कोई अनुताप नहीं, परोपकार धर्म है, आश्रित की रक्षा करना महाधर्म है, किंतु केवल भाई-बहिन को देने से हिसाब नहीं चुका जाता । इस दुर्दिन में समस्त देश मेरे द्वार पर आश्रित है, इस देश
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में मेरे तीस कोटि भाई-बहन हैं, उनमें से बहुत-से अनाहार मर रहे हैं, अधिकांश कष्ट और दुःख से जर्जरित हो किसी तरह बचे हुए हैं उनका हित करना होगा ।
क्या कहती हो, इस विषय में मेरी सहधर्मिणी बनोगी ? केवल सामान्य लोगों की तरह खाना-पहनना, जिस चीज की सचमुच जरूरत हो उसे ही खरीदना और सब भगवान् को दे देना-यही है मेरी इच्छा; तुम्हारी राय मिलने पर और त्याग स्वीकार कर सकने पर ही मेरी अभिसन्धि पूरी हो सकती है । तुमने कहा था, ''मेरी कोई उन्नति नहीं हुई'', यह एक उन्नति का पथ दिखा दिया, चलोगी इस पथ पर ?
दूसरा पागलपन हाल में ही सिर पर सवार हुआ है : चाहे जैसे भी हो भगवान् का साक्षात् दर्शन प्राप्त करना । आजकल का धर्म है, बात-बात में भगवान् का नाम लेना, सबके सामने प्रार्थना करना, लोगों को यह दिखाना कि मैं कितना धार्मिक हूं ! वह मैं नहीं चाहता । ईश्वर यदि हैं तो उनके अस्तित्व का अनुभव करने का, उनका साक्षात् दर्शन प्राप्त करने का कोई-न-कोई पथ होगा, वह पथ कितना भी दुर्गम क्यों न हो, उस पथ पर जाने का दृढ़ संकल्प कर बैठा हूं । हिंदूधर्म का कहना है कि अपने शरीर के, अपने मन के भीतर ही है वह पथ । जाने के नियम दिखा दिये हैं, उन सबका पालन करना आरंभ कर चुका हूं, महीने-भर में अनुभव करने लगा हूं कि हिंदूधर्म की बात झूठी नहीं, जिन-जिन चिन्हों की बात कही गयी है उन सबको उपलब्ध करने लगा हूं । अब मेरी इच्छा है कि तुम्हें भी उस पथ पर ले चलूं; ठीक साथ-साथ नहीं चल सकोगी, क्योंकि तुममें अभी उतना ज्ञान नहीं है, किंतु मेरे पीछे-पीछे आने में कोई बाधा नहीं, उस पथ पर सबको सिद्धि मिल सकती है, किंतु प्रवेश करना अपनी इच्छा पर निर्भर है, कोई तुम्हें जबरदस्ती नहीं ले जा सकता, यदि तुम सहमत होओ तो इस संबंध में फिर और लिखूंगा ।
तीसरा पागलपन है : अन्य लोग स्वदेश को एक जड़ पदार्थ, कुछ मैदान, खेत, वन, पर्वत, नदी-भर मानते हैं; मैं स्वदेश को मां मानता हूं, उसकी भक्ति करता हूं, पूजा करता हूं । मां की छाती पर बैठ यदि कोई राक्षस रक्तपान करने के लिये उधत हो तो भला बेटा क्या करता है ? निश्चिन्त हो भोजन करने, स्त्री-पुत्र के साथ आमोद-प्रमोद करने के लिये बैठ जाता है या मां का उद्धार करने के लिये दौड़ पड़ता है ? मैं जानता हूं कि इस पतित जाति का उद्धार करने का बल मेरे अंदर है, ज्ञान का बल, शारीरिक बल नहीं, तलवार या बंदुक ले मैं युद्ध करने नहीं जा रहा । क्षात्र तेज ही एकमात्र तेज नहीं, भ्रमह तेज भी है, यह तेज है ज्ञान पर प्रतिष्ठित । यह भाव नया नहीं, आजकल का नहीं, इस भाव के साथ ही मैं जनमा था, यह भाव मेरी नस-उस में भरा है, भगवान् ने इसी महाव्रत को पूरा करने के लिये मुझे पृथ्वी पर भेजा है । चौदह वर्ष की उम्र में बीज अंकुरित होने लगा था, अठारह वर्ष की उम्र में इसकी प्रतिष्ठा दृढ़ और अचल हो गयी थी । तुमने न-मौसी (चौथी मौसी) की बात सुन यह सोचा था कि न मालूम कहां का बदजात मेरे सरल भलेमानस स्वामी को कुपथ पर खींचे ले जा रहा है । परंतु
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तुम्हारा भलामानस स्वामी ही उस आदमी को तथा और सैंकड़ों आदमियों को उस पथ पर, कुपथ हो या सुपथ, खींच ले आया था तथा और भी हजारों आदमियों को खींच ले आयेगा । कार्यसिद्धि मेरे रहते ही होगी यह मैं नहीं कहता, पर होगी अवश्य ।
अब पूछता हूं इस विषय में तुम क्या करना चाहती हो ? स्त्री स्वामी की शक्ति है । तुम उषा की शिष्या बन साहबी पूजा-मंत्र का जप करोगी ? उदासीन हो स्वामी की शक्ति को खर्व करोगी ? या सहानुभूति और उत्साह द्विगुणित करोगी ? तुम कहोगी कि इन सब महत् कर्मो में भला मेरे जैसी एक सामान्य लड़की क्या कर सकती है ? मुझ में मन का बल नहीं, बुद्धि नहीं, उन बातों का विचार तक आने से भय होता है । उसका सहज उपाय है भगवान् का आश्रय लो, ईश्वर-प्राप्ति के पथ में एक बार प्रवेश करो, तुममें जो-जो अभाव हैं उन्हें वे शीघ्र पूरा कर देंगे, जो भगवान् का आश्रय ले चुका है उसे भय धीरे-धीरे छोड़ देता है । अगर मेरा विश्वास करो, दस जनों की बात न सुन यदि मेरी ही बात सुनो तो मैं अपना ही बल तुम्हें दे सकता हूं, इससे मेरे बल की हानि न हो वृद्धि ही होगी । हम कहते हैं कि स्त्री स्वामी की शक्ति है, यानी, स्वामी स्त्री में अपनी प्रतिमूर्ति देख उसमें अपनी महत् आकांक्षा की प्रतिध्वनि पा दुगुनी शक्ति पाता है ।
चिरदिन क्या वैसी ही रहोगी ? मैं अच्छा पहनूंगी, अच्छा खाऊंगी, हसूंगी, नाचूंगी, सब प्रकार के सुख भोगूंगी, मन की ऐसी अवस्था को उन्नति नहीं कहते । आजकल हमारे देश की स्त्रियों के जीवन ने ऐसा ही संकीर्ण और अति हेय रूप धारण कर लिया है । तुम यह सब छोड़ दो, मेरे साथ आओ, जगत् में भगवान् का कार्य करने के लिये आये हैं, आओ, वही कार्य आरंभ करें ।
तुम्हारे स्वभाव में एक दोष है, तुम जरूरत से ज्यादा सरल हो । जो काई जो कुछ कहता है वही मान लेती हो । इससे मन सर्वदा अस्थिर रहता है, बुद्धि का विकास नहीं हो पाता, किसी काम में एकाग्रता नहीं आती । इसे सुधारना होगा, एक अदमी की ही बात मान ज्ञान संचय करना होगा, एक लक्ष्य बना अविचलित चित्त से कार्य सिद्ध करना होगा, लोगों की निन्दा और कटाक्ष की परवाह न कर स्थिर भक्ति रखनी होगी ।
और एक दोष है, तुम्हारे स्वभाव का नहीं, काल का दोष । बंगाल में ऐसा ही समय आया है । लोग गंभीर बात को भी गंभीर भाव से नहीं सुन पाते; धर्म, परोपकार, महती आकांक्षा, देशोद्धार, जो कुछ गंभीर, जो कुछ उच्च और महत् है उन सभी बातों का हंसी-मजाक और कटाक्ष, सब कुछ हंसकर उड़ा देना चाहते हैं । बाह्य स्कूल में रहते-रहते तुम्हारे अंदर यह दोष थोड़ा-थोड़ा आ गया है, बारीन में भी था, थोड़ी-बहुत मात्रा में हम सभी इस दोष से दूषित हैं, देवघर के लोगों मैं तो यह बुरी तरह बढ़ गया है । मन के इस भाव को दृढ़ मन से भगाना होगा, तुम सहज ही कर सकोगी, और एक बार चिंतन करने का अभ्यास कर लेने पर तुम्हारा असली स्वभाव फूट उठेगा; परोपकार और स्वार्थत्याग की ओर तुम्हारी प्रवृत्ति है, केवल एक मन के जोर का
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अभाव है, ईश्वर-उपासना से वह जोर पाओगी ।
यही थी मेरी वह गुप्त बात । किसी के सामने प्रकट न कर अपने मन में, धीर चित्त से, इन सब बातों को सोचना । इसमें भय करने का कुछ नहीं है, पर चिन्तन के लिये बहुत-सी बातें हैं । पहले और कुछ नहीं करना होगा, हर रोज आध घंटा भगवान् का ध्यान करना होगा, उनके सामने प्रार्थना-रूप अपनी बलवती इच्छा प्रकट करनी होगी । मन धीरे-धीरे तैयार हो जायेगा । उनके सामने सदा यह प्रार्थना करनी होगी कि मैं स्वामी के जीवन, उद्देश्य और ईश्वर-प्राप्ति के पथ में बाधा न डाल सर्वदा सहायक होऊं, साधनभूत बनूं । करोगी यह ?
तुम्हारा-
3 Oct. 1905
प्रियतमा,
करीब पन्द्रह दिनों से कॉलेज में परीक्षाएं चल रही हैं । इसके अलावा एक स्वदेशी समिति की भी स्थापना हो रही है । इन दोनों कार्यो में व्यस्त था अत: पत्र लिखने का अवकाश नहीं मिला । तुम्हारी चिट्ठी भी बहुत दिन से नहीं आयी । आशा करता हूं तुम सभी सकुशल हो । कल से कालेज बन्द हो रहा है पर मुझे छुट्टी कहां ? तब हां, एक घंटे से ज्यादा नहीं करना होगा ।
इस बार मैं २०/- भेज रहा हूं । दस रुपये Burn Company (बर्न कम्पनी) के कर्मचारियों के लिये दे सकती हो । न हो तो किसी और भले काम में खर्च कर सकती हो । Burn Company का क्या मामला है कुछ समझ नहीं आता । अखबारों में भी कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिलता । आजकल इस तरह की हड़तालें करना सहज काम नहीं । गरीब प्रायः ही मार खाते हैं । धनियों की जय होती है । जिस दिन भारत के मध्यम वर्ग के लोग तुच्छ नौकरियों की आशा छोड़ निजी व्यवसाय करना आरंभ करेंगे वह दिन भारत के लिये बड़ा शुभ दिन होगा । ज्यादा पैसा नहीं भेज सकूंगा क्योंकि सरोजिनी के खर्चे के लिये ६०-७०/- दार्जिलिंग भेजने होंगे । और माधवराव को किसी विशेष काम के लिये विलायत भेजा गया है, उसके लिये भी कुछ रुपये बचाने होते हैं । स्वदेशी आंदोलन के लिये भी बहुत-से रुपये दिये हैं, इसके अलावा एक और movement (आंदोलन) चलाने की चेष्टा कर रहा हूं उसके लिये भी अपार धन चाहिये । अतः मेरे पास कुछ बचता ही नहीं ।
Floriline (फ्लोरिलिन) भेजा गया है, शायद मिल गया होगा । धनजी यहां नहीं थे, बाद में आये । लक्ष्मणराव परीक्षा में लगे हैं, मेरी भी वही दशा है । हम दोनों ही भूल गये थे । जल्दी ही prescription (नुस्खा) भेजूंगा ।
''Seeker" क्यों पढ़ना चाहती हो ? वह तो पुरानी कविता है । धर्म के बारे में
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तब मेरी जानकारी नगण्य थी । वह कविता बेहद pessimistic है । बंगला में pessimistic को क्या कहते हैं मुझे मालूम नहीं, मराठी में ''निराशावादी'' कहते हैं । अब समझ पाया हूं कि निराशा अज्ञान का ही एक रूप है ।
उस दिन खासेराव के यहां गया था । आनन्दराव भी खूब तगड़ा हो गया है । बड़ा मस्तान बनेगा ।
श्री
22 October 1905
प्रियतमा मृणालिणी,
तुम्हारा पत्र मिला । बहुत दिनों से तुम्हें चिट्ठी नहीं लिखी, बुरा न मानना । मेरी health (स्वास्थ्य) के बारे में इतनी चिंता क्यों करती हो, मुझे तो सर्दी-खांसी को छोड़ कभी कोई बीमारी नहीं होती । बारीन यहां है, उसकी शारीरिक अवस्था बहुत खराब है, जरा-सा ज्वर होते ही नाना रोग आ घेरते हैं, किंतु हजार रोग हो जायें तो भी उसका तेज कम नहीं होता, चैन से नहीं बैठता, जरा-सा ठीक होते ही देश के काम के लिये निकल पड़ता है । वह नौकरी करेगा नहीं । हां, ये सब खबरें सरोजनी को नहीं देता, तुम भी न लिखना, वह सोच-सोच कर पागल हो जायेगी । लगता है नवंबर में कलकत्ता जउंगा, वहां मुझे बहुत-से काम करने हैं ।
तुम्हारी लंबी चिट्ठी पाकर मैं निराश नहीं हुआ, आनंदित ही हुआ । तुम्हारी तरह सरोजिनी भी त्याग करने को प्रस्तुत हो जाये तो भावी कार्यो में मुझे बहुत सुविधा होगी । लेकिन वह होगा नहीं । उसकी सुख की अभिलाषा बहुत प्रबल है, पता नहीं इसे कभी विजित कर पायेगी कि नहीं । जैसी भगवान् की इच्छा वैसा ही होगा ।
तुम्हारी चिट्ठी कागजों के जंगल में खो गयी है, ढूंढूंगा । मिलते ही दुबारा लिखूंगा । शाम हो आयी है, आज यहीं तक ।
में सकुशल हूं, चिट्ठी न मिले तो भी चिंता मत करना । मुझे क्या बीमारी होगी ? आशा करता हूं तुम लोग सब सकुशल होओगे ।
तुम्हारा
_
मेरा नाम लेकर क्या करोगी ? डैश लगाया है, वह काफी नहीं होगा क्या ?
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c/o Babu Subodh Chandra Mallick
12 Wellington square Calcutta
December 1905
तुम्हारा पत्र मिला । पढ़कर दुःख हुआ । बम्बई से मैंने तुम्हें एक पत्र लिखा था । उस पत्र में मैंने कलकत्ता लौटने का अपना इरादा बताया था । साथ ही कई जरूरी बातें भी लिखी थीं । और किसी को अपने लौटने के बारे में नहीं बताया । नहीं बताने का खास कारण भी था । अब मालूम हुआ कि वह चिट्ठी तुम्हें नहीं मिली । या तो नौकर ने डाक में डाली ही नहीं या फिर डाकवालों ने कुछ गड़बड़ी की है । जो हो, तुम इतने जरा-से में धीरज खो बैठती हो यह बड़े दुःख की बात है । फिर वही बात दोहराता हूं-तुम किसी एक साधारण पुरुष की पत्नी नहीं हो, तुम्हें तो विशेष धैर्य और बल की जरूरत है । ऐसा समय भी आ सकता है जब तुम्हें एक-डेढ़ महीना तो क्या, छ: महीने तक मेरी कोई खोज-खबर न मिले । अभी से थोड़ा सशक्त बनना सीखना होगा । नहीं तो भविष्य में बहुत कष्ट सहने पड़ेंगे ।
बहुत-सी जरूरी बातें लिखी थीं, फिर से वह सब लिखने के लिये समय नहीं है । बाद में लिखूंगा । यहां से शीघ्र ही काशी जाऊंगा, काशी से बड़ौदा जाते ही छुट्टी ले पुन: वापस कलकत्ते आऊंगा । यदि Clarke (क्लार्क) लौटकर न आये हों तो छुट्टी मिलने में थोड़ी कठिनाई होगी |
बारिन देवधर में है | उसे हमेशा बुखार रहता है | मुझे यदि छुट्टी नहीं मिली तो शायद वह बड़ौदा वापिस आ जाये
A. G.
आज कलकत्ते जा रहा हूं | बहुत पहले ही जाने की बात थी किंतु छुट्टी मंजूर होने के बावजूद बड़ोदा के अधिकारीयों को हस्ताक्षर करने का अवकाश नहीं मिलने के कारण मेरे दस दिन व्यर्थ हो गये | जो हो, सोमवार को कलकत्ते पहुंचूंगा | कहां ठहरूंगा मालुम नहीं | 'न' मौसी के यहां ठहरने की गुंजायश नहीं | एक तो मांस-मछली खाना छोड़ दिया है मैंने, और इस जीवन में शायद ही कभी खाऊं | पर 'न' मौसी तो मानने से रहीं | दूसरी, यदि एकांत जगह न हुई तो मुझे सुविधा नहीं होगी | सुबह-शाम डेढ़-डेढ़ घंटा अकेले बैठे कितना कुछ करना होता है जो दूसरों के सामने नहीं किया जा सकता | 12, Wellington Square ( १२ वेलिंगटन स्कवेयर) मेरे लिये काफी सुविधाजनक होता, पर हाल ही में हेम मल्लिक का
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स्वर्गवास हो गया हे । वहां ऐसे समय नहीं जा सकूंगा । पर उसी पते पर यदि पत्र लिखोगी तो मुझे मिल जाया करेगा ।
आसाम आने के लिये कह रही हो, चेष्टा करूंगा । किंतु एक बार कलकत्ते में पांव रखने पर कोई छोड़ना नहीं चाहता । हजारों काम आ पड़ते हैं । रिश्तेदारों से भी मिलने जाने का समय नहीं मिलता । और यदि आसाम गया भी तो दो-चार दिन ही रह पाऊंगा । बारि आराम से तुम्हें ले आ सकता है । उसके साथ रणछोड़ को भेज सकता हूं ।
शायद इस महीने मेरा जाना संभव न हो । फिर भी कलकत्ते जाकर देखना पड़ेगा कि क्या कर सकता हूं । यह भी हो सकता है कि यदि सरोजिनी आसाम जाना चाहे तो बारि उसे पहुंचा दे और मैं महीने-भर बाद जाकर ले आऊं । कलकत्ते पहुंचने पर निश्चित करूंगा ।
श्रीअरविन्द घोष
23, Scott's Lane,
Calcutta.
17th February, 1907*
प्रिय मृणालिनी,
बहुत दिनों से पत्र नहीं लिखा, यह मेरा चिरंतन अपराध है, यदि तुम निज गुण से क्षमा न करो तो मेरे लिये भला और चारा ही क्या ? जो मज्जागत है वह एक दिन में ही नहीं चला जाता, इस दोष को सुधारने में शायद मेरा यह जीवन बीत जाये ।
८ जनवरी को आने की बात थी, पर आ नहीं सका, मेरी इच्छा से ऐसा नहीं हुआ । भगवान् जहां ले गये वहां जाना पड़ा । इस बार अपने काम से नहीं गया था, उन्हींके काम से गया था । आजकल मेरे मन की अवस्था दूसरी तरह की हो गयी है, यह बात इस पत्र में प्रकट नहीं करूंगा । तुम यहां आ जाओ, तब जो कुछ कहना है वह कहूंगा; केवल इतना ही कहना है कि अब मैं अपनी इच्छाधीन नहीं रहा, भगवान् मुझे जहां ले जायेंगे वहीं कठपुतली की तरह जाना होगा, जो करायेंगे वही कठपुतली की तरह करना होगा । अभी इस बात का अर्थ समझना तुम्हारे लिये कठिन होगा, परंतु कहना आवश्यक है, अन्यथा मेरी गतिविधि तुम्हारे आक्षेप और दुःख का कारण हो सकती है । तुम समझोगी कि मैं तुम्हारी उपेक्षा कर काम कर रहा हूं परंतु ऐसा मत समझना । आजतक मैंने तुम्हारे प्रति बहुत अपराध किये हैं, तुम जो इससे असंतुष्ट हो गयी थीं
* पत्र में उल्लिखित घटनाओं के तथ्य के आधार पर ऐसा लगता है कि ये पत्र १७ फरवरी १९०८ में लिखे गये, १९०७ में नहीं ।
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वह स्वाभाविक ही था, परंतु अब मुझे स्वाधीनता नहीं रही, अब से तुम्हें यह समझना होगा कि मेरे सभी कार्य मेरी अपनी इच्छा पर निर्भर न हो भगवान् के आदेश से ही हो रहे हैं । तुम जब आओगी तब मेरा तात्पर्य हृदयंगम कर सकोगी । आशा करता हूं कि भगवान् ने अपनी अपार करुणा का जो आलोक मुझे दिखाया है उसे तुम्हें भी दिखायेंगे, पर वह उन्हींकी इच्छा पर निर्भर है । यदि तुम मेरी सहधर्मिणी होना चाहती हो तो तुम प्राणपण से चेष्टा करो जिससे तुम्हारी ऐकांतिक इच्छा के बल से तुम्हें भी करुणा का पथ दिखावें । यह पत्र किसी को भी देखने मत देना, कारण जो बात मैंने लिखी है वह अत्यंत गोपनीय है । तुम्हारे सिवा और किसी को भी नहीं कहा है, कहना मना है । आज इतना ही ।
पुनश्च--सांसारिक बातें सरोजिनी को लिखी हैं, तुम्हें अलग से लिखना अनावश्यक था, वह पत्र देखने से ही समझ जाओगी ।
6th December, 1907
मैंने परसों चिट्ठी पायी थी, उसी दिन रैपर भी भेजा गया था, क्यों तुम्हें नहीं मिला समझ नहीं पाया ।...
***
यहां मुझे मुहूर्त्त भर भी समय नहीं, लिखने का भार मुझ पर, कांग्रेस-संबंधी कार्य का भार मुझ पर, 'वंदे मातरम' के झमेले निपटाने का भार मुझ पर । इतना अधिक काम है कि संभाले नहीं संभाल पा रहा । इसके अलावा मेरा अपना काम भी है, उसे भी नहीं छोड़ सकता ।
मेरी एक बात मानोगी क्या ? मेरे लिये यह बड़ी ही दुश्चिंता का समय है, चारों ओर से इतनी खींच-तान चल रही है कि पागल होने की नौबत आ गयी है । इस समय तुम्हारे अस्थिर होने से मेरी चिंता और कठिनाई और भी बढ़ जायेगी, उत्साह और सांत्वनाभरी चिट्ठी लिखने से मुझे विशेष बल मिलेगा, प्रसन्न मन समस्त विपत्ति और भय अतिक्रम कर सकूंगा । जानता हुं कि देवघर में अकेली रहने से तुम्हें कष्ट होता है, परंतु मन को दृढ़ करने और विश्वास पर निर्भर रहने से दुःख मन पर उतना आधिपत्य नहीं जमा सकेगा । जब तुम्हारे साथ मेरा विवाह हुआ है, तो तुम्हारे भाग्य में यह दुःख अनिवार्य है, बीच-बीच में विच्छेद होगा ही, कारण साधारण मनुष्य की तरह परिवार और स्वजनों के सुख को ही मैं जीवन का मुख्य उद्देश्य नहीं बना सकता ।
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ऐसी अवस्था में मेरा धर्म ही है तुम्हारा धर्म, मेरे निर्दिष्ट कार्य की सफलता में ही अपना सुख मानने के सिवा तुम्हारे किये और कोई गति नहीं । और एक बात, जिनके साथ तुम अभी रहती हो उनमें से बहुत-से तुम्हारे और मेरे गुरुजन हैं, वे यदि कटु वचन कहें, अनुचित बात कहें तो भी उन पर क्रोध मत करना । और जो कुछ वे कहें उससे यह मत सोच बैठना कि वह सब कुछ उनके मन की बात है अथवा बिना सोचे तुम्हें दुःख देने के लिये कहते हैं । बहुत बार क्रोध वश बिना सोचे समझे बात निकल जाती है, उसे पकड़े रहना अच्छा नहीं । यदि रहना नितांत कठिन मालूम हो तो मैं गिरीश बाबू से कहूंगा, जबतक मैं कांग्रेस में हूं तबतक तुम्हारे नानाजी घर पर रह सकते हैं ।
मैं आज मेदिनीपुर जा रहा हूं । लौटने पर यहां की सारी व्यवस्था कर सूरत जाऊंगा । संभवत: १५ या १६ तारीख तक जाना होगा । दो जनवरी को लौट आऊंगा ।
23, Scott's lane
Calcutta
21.2.08
कॉलिज से वेतन मिलने में देर होगी अतः राधा कुमुद मुखर्जी से ५०/- कर्ज लेकर तुम्हें भेज रहा हूं । अविनाश से कहा है भेजने के लिये । उसने शायद तार द्वारा भेज दिया होगा । पर तुम्हारे नाम से भेजना भूल गया । उसमें से किराये के पैसे रखकर जो बचे उसमें से कुछ मां को देकर बाकी से थोड़ा उधार चुका देना । अगले महीने फरवरी और जनवरी के ३००/- मिलेंगे तब बकाया कर्जा चुका सकूंगा ।
पहले जो चिट्ठी लिखी थी उसकी बात अभी रहने दो । तुम जब आओगी तब सब खोलकर बताउंगा । आदेश जब हुआ है तब सब कुछ कहे बिना रह नहीं सकता । आज यहीं तक ।
काफी अरसे से तुम्हें पत्र नहीं लिख पाया । लगता है कि जल्दी ही हमारे जीवन में एक बड़ा परिवर्तन होने जा रहा है । यदि ऐसा हुआ तो हमारे सारे अभाव दूर हो जायेंगे । मां की इच्छा पर निर्भर हूं । मेरे भीतर भी कुछ विशेष परिवर्तन हो रहे हैं । बार-बार मां का भावावेश हो रहा है | एक बार इस परिवर्तन के अंत हो जाने पर,
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आवेश के स्थायी हो जाने पर हमारा विच्छेद नहीं रह जायेगा । क्योंकि योग-सिद्धि के दिन निकट ही हैं । उसके बाद सारे कार्यों का स्रोत । कल या परसों तक कोई-न- कोई लक्षण प्रकट होगा । उसके बाद तुमसे मिलूंगा ।
मृणालिनी,
काफी दिन हुए तुम्हारा पत्र मिला था, उत्तर नहीं दे पाया । उसके कुछ दिन बाद से मेरी अवस्था जड़भरत-सी हो गयी थी । सब तरह का काम और लेखन बंद हो गया था । आज फिर प्रवृत्ति जगी है, तभी तुम्हारे पत्र का उत्तर दे पा रहा हूं ।
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