All writings in Bengali and Sanskrit including brief works written for the newspaper 'Dharma' and 'Karakahini' - reminiscences of detention in Alipore Jail.
All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)
नवजन्म
गीता में अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा-''जो योगमार्ग में प्रवेश कर अंत तक पहुंचते-न-पहुंचते पतित और योगभ्रष्ट हो जाते हैं, उनकी क्या गति होती है ? वे क्या ऐहलौकिक और पारलौकिक दोनों फलों से वंचित हो वायुखंडित मेघ की तरह विनष्ट हो जाते हैं ।'' उत्तर में श्रीकृष्ण ने कहा--''इहलोक या परलोक में वैसे व्यक्तियों का विनाश असंभव है । कल्याणकृत व्यक्तियों की कभी दुर्गति नहीं होती । पुण्यलोकों में उनकी गति होती है, वहां बहुत दिनों तक निवास कर शुद्ध श्रीमान् पुरुषों के घर में या योगयुक्त महापुरुषों के कुल में दुर्लभ जन्म पाते हैं, उस जन्म में पूर्वजन्मप्राप्त योगलिप्या से चालित हो सिद्धि के लिये और अधिक प्रयास करते हैं, और अंत में अनेक जन्मों के अभ्यास से पापमुक्त हो परम गति प्राप्त करते हैं ।'' जो पूर्वजन्मवाद चिरकाल आर्य-धर्म के योगलब्ध ज्ञान का एक अंगविशेष रहा है उसकी प्रतिष्ठा पाश्च्चात्य विधा के प्रभाव से शिक्षित सम्प्रदाय में नष्टप्राय हो गयी थी, श्रीरामकृष्णलीला के बाद से वेदांतशिक्षा के प्रचार और गीता के अध्ययन से वही सत्य पुनः प्रतिष्ठित हो रहा है । जैसे स्थूल जगत् में heredity (वंशानुक्रम) प्रधान सत्य है, वैसे ही सूक्ष्म जगत् में पूर्वजन्मवाद प्रधान सत्य है । श्रीकृष्ण की उक्ति में ये दोनों ही सत्य निहित हैं। योगभ्रष्ट पुरुष अपने पूर्वजन्मार्जित ज्ञान के संस्कार के साथ जन्म लेते हैं, उसी संस्कार द्धारा, वायुचालित तरणी की तरह, योगपथ पर चालित होते हैं । परंतु कर्मफल की प्राप्ति के योग्य शरीर पाने के लिये उपयुक्तत कुल में जनमना आवश्यक है । उत्कृष्ट heredity (वंशानुक्रम) सुयोग्य शरीर उत्पन्न करती है । शुद्ध श्रीमान् पुरुषों के घर में जन्य होने से शुद्ध सबल शरीर उत्पन्न करना संभव होता है, योगीकुल में जन्म लेने से उत्कृष्ट मन और प्राण गठित होते हैं तथा वैसी ही शिक्षा और मानसिक गति प्राप्त होती है |
कुछ वर्षो से भारतवर्ष में यह दिखायी दे रहा है मानों पुरानी तमोभिभूत जाति के अंदर एक नयी जाति सृष्ट हो रही है । भारतमाता की पुरातन संतति धर्मग्लानि और अधर्म के अंदर जन्म ले के और तदनुसार शिक्षा प्राप्त कर अल्पायु, क्षुद्राशय, स्वार्थ-परायण और संकीर्ण-हृदय हो गयी थी । उनमें से बहुत-से तेजस्वी महात्माओं ने शरीर धारण कर इस विषम विपत्ति-काल में जाति की रक्षा की थी । किंतु अपनी शक्ति और प्रतिभा के उपयुक्त कर्म न कर वे केवल राष्ट्र के भावी माहात्म्य और विशाल कर्म का क्षेत्र निर्माण कर गये हैं । उन्हीं के पुण्यबल से नव उषा की किरणमाला चारों ओर उद्भासित हो रही है । भारत-जननी की नूतन संतति माता-पिता के गुण प्राप्त न कर, साहसी, तेजस्वी, उच्चाशय, उदार, स्वार्थत्यागी, पदार्थ और देशहितसाधन में उत्साही और उच्चाकांक्षी हो रही है । इसीलिये आजकल युवकगण माता-पिता के वश में न हो अपने स्वतंत्र पथ के पथिक बन रहे हैं, वृद्ध और तरुण में मतभेद और कार्य में विरोध
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हो रहा है । वृद्ध लोग इन देवांशसंभूत तरुण सत्ययुग-प्रवर्त्तकों को स्वार्थ और संकीर्णता की सीमा में आबद्ध रखना चाहते हैं, अनजाने में कलि की सहायता कर रहे हैं । युवकगण हैं महाशक्तिसृष्ट अग्निस्फुलिंग, पुरातन को तोड़फोड़ नवीन को गढ़ने में उधत, पित्रूभक्ति और आज्ञाकारिता की रक्षा करने में अक्षम । भगवान् ही कर सकते हैं इस अनर्थ का उपशमन । किन्तु महाशक्ति की इच्छा विफल नहीं हो सकती, यह नवीन संतति जो कुछ करने के लिये आयी है, उसे पूरा किये बिना नहीं जायेगी । इस नवीन में भी पुरातन का प्रभाव है । अपकृष्ट heredity (वंशानुक्रम) के दोष से, आसुरिक शिक्षा के दोष से बहुतेरे कुलांगारों ने भी जन्म लिया है; जिन्हें नवयुग का प्रवर्त्तन करने का आदेश मिला है वे भी अंतर्निहित तेज और शक्ति विकसित नहीं कर पा रहे हैं । नवीन लोगों में सत्ययुग के प्राकटय का एक अपूर्व लक्षण दिखायी दे रहा है, उनकी धर्म में मति है और बहुतों के हृदय में है योगलिप्सा और अर्ध-विकसित योगशक्ति ।
अलीपुर-बम-केस के अभियुक्त अशोक नन्दी शेषोक्त श्रेणी के थे । जो उन्हें जानते थे उनमें से कोई भी यह विश्वास नहीं कर सकता था कि वे किसी भी षड्यंत्र में लिप्त थे । उन्हें छोटे-से अविश्वसनीय प्रमाण पर ही दंड दिया गया था । वे अन्य युवकों की तरह देशसेवा की प्रबल आकांक्षा से अभिभूत नहीं थे । बुद्धि में, चरित्र में, प्राण में वे पूर्णरूपेण योगी और भक्त थे, संसारी के गुण उनमें नहीं थे । उनके पितामह एक सिद्ध तांत्रिक योगी थे, उनके पिता भी थे योगप्राप्त शक्तिसंपन्न विशिष्ट पुरुष । गीता में जो योगीकुल में जन्म लेना मनुष्य के लिये अति दुर्लभ कहा गया है उसी का सौभाग्य उन्हें प्राप्त हुआ था । छोटी उम्र में उनकी अंतर्निहित योगशक्ति के लक्षण कभी-कभी प्रकट होते थे । पकड़े जाने से बहुत पहले वे जान गये थे कि यौवन-काल में उनकी मृत्यु निर्दिष्ट है, अतएव विधोपार्जन और सांसारिक जीवन की आरंभिक तैयारियों में उनका मन नहीं लगा, फिर भी पिता के परामर्श से, असफलता के पूर्व ज्ञान की उपेक्षा कर, कर्तव्य कर्म का पालन करते थे और योगमार्ग का भी अनुसरण करते थे । ऐसे समय वै अकस्मात् पकड़ लिये गये । उस कर्मफलप्राप्त विपत्ति से विचलित न हो अशोक जेल में अपनी सारी शक्ति योगाभ्यास में प्रयुक्त करने लगे । इस मुकदमे के आसामियों में से बहुतों ने इस पथ का अवलंबन किया था, उनमें वे अग्रगण्य न होने पर भी अन्यतम थे । वे भक्ति और प्रेम में किसी से भी कम नहीं थे, उनका उदार चरित्र, गंभीर भक्ति और प्रेमपूर्ण हृदय सबको मोह लेता था । गोसाईं की हत्या के समय वे अस्पताल में रुग्णावस्था में पड़े थे । पूर्ण स्वस्थ होने से पहले ही निर्जन कारावास में रखे जाने के कारण वह बार-बार ज्वर से पीड़ित होने लगे । उसी ज्वर की अवस्था में उन्हें खुले कमरे में शीत काल की रातें बितानी पड़तीं । इस तरह उन्हें क्षय रोग हो गया और उसी अवस्था में, जिस समय प्राण-रक्षा की कोई आशा नहीं थी, उन्हें विषम दण्ड देकर फिर से उसी मृत्यु गृह में बंद कर दिया गया । बैरिस्टर
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चित्तरंजन दास की प्रार्थना पर उन्हें अस्पताल ले जाने की व्यवस्था की गयी, किंतु जमानत पर नहीं छोड़ा गया । अंत में छोटे लाट की सहृदयता के कारण उन्हें अपने घर में, अपने आत्मीय-स्वजनों की सेवा प्राप्त कर मरने की अनुमति प्राप्त हुई । अपील के द्धारा मुक्त होने से पहले ही भगवान् ने उन्हें इस देह-कारागार से मुक्त कर दिया । अंतिम समय में अशोक की योगशक्ति में विलक्षण वृद्धि हो गयी थी, मृत्यु के दिन विष्णु-शक्ति से अभिभूत हो सबको भगवान् का मुक्तिदायक नाम और उपदेश वितरण कर, नामोच्चारण करते-करते उन्होंने देह-त्याग किया । पूर्वजन्मार्जित दुःख-फल का क्षय करने के लिये अशोक नन्दी का जन्म हुआ था, इसीलिये यह अनर्थक कष्ट और अकाल मृत्यु घटी । सत्ययुग का प्रवर्त्तन करने के लिये जिस शक्ति की आवश्यकता है वह शक्ति उनके शरीर में अवतीर्ण नहीं हुई थी परंतु वे स्वाभाविक योगशक्ति के प्राकट्य का उज्ज्वल द्रष्टांन्त दिखा गये हैं । कर्म की गति ऐसी ही होती है । पुण्यवान् लोग पापफल का क्षय करने के लिये थोड़े समय तक पृथ्वी पर विचरण करते हैं, फिर पापमुक्त होकर, दूषित देह का त्याग कर और दूसरा शरीर धारण कर अंतर्हित शक्ति को प्रकट करने व जीवों का हितसाधन करने के लिये आते हैं ।
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