All writings in Bengali and Sanskrit including brief works written for the newspaper 'Dharma' and 'Karakahini' - reminiscences of detention in Alipore Jail.
All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)
'प्रवर्तक' * को
सततं कीर्तयन्तो त्वं यतन्तशच्य दृढव्रता: |
नमस्यन्तश्च त्वं भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते |
तच्चित्ता तद्गतप्राण बोधयन्त: परस्परम् |
कथयन्तस्च त्वं नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति...
जो थोड़ा-बहुत बन सका हूं उतनी-सी है हमारी उपलब्धि । उस आदर्श को पूर्ण चरितार्थ नहीं कर पाया हूं, कर पाऊंगा ऐसी आस्था उसकी बातों पर रख साधना करता जा रहा हूं ।
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् |
ददामि बुद्धियोग तं येन मामुपयान्ति ते ||
हमारी जो आस्था है, अनुभव है और उससे भी ज्यादा pisgah की चोटी से जो promised land के दर्शन करते हैं उसी के बल पर दूसरों का इस साधन-पथ पर आह्वान कर हम मुक्त कंठ से प्रचार करते हैं । हममें से बहुतों को ऐसी अनुभूति हुई है ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ।
बिन्दु-भर जो शक्ति मिली है उसी से कर्म करने में प्रवृत्त हुआ हूं । फल है भगवान् के हाथ में, किंतु इस पथ में पूर्ण सिद्धि दूर की बात है । यह पथ केवल व्यष्टियोग के लिये या individual (व्यक्तिगत) सिद्धि का नहीं है, समष्टियोग का effective (कारगर) सिद्धि का पथ है, एक ने यदि भगवत्कृपा से पूर्णयोग की सिद्धि पा भी ली तो उसे सिद्ध पुरुष नहीं कहेंगे । यह पथ है आरोहण का पथ, सिद्धि के बाद भी सिद्धियां हैं, अंतिम सिद्धि न पाने तक और उत्तम योगारूढ़ न होने तक उसे सिद्धपुरुष कहना दर्पोक्ति होगी । हम miracle mongers (चमत्कारों के पीछे भागनेवाले) भी नहीं हैं । चमत्कार क्या होता है ? जो कुछ भी जगत् में होता है सभी है प्रकृति के नियम के अंतर्गत एक शक्ति का खेल । या तो वह miracle (चमत्कार) नहीं है या फिर all is miracle (सब कुछ ही चमत्कार है) । तब हां, साधारण शक्ति के ऊपर ईश्वरी शक्ति का खेल है यह
*श्री अरविन्द की प्रेरणा से स्थापित आध्यात्मिक संस्था और उसी नाम की मासिक पत्रिका |--सं०
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सच है, वह है भीतरी बात, बाहरी प्रवंचना नहीं । व्यक्तिगत शक्ति नहीं, भगवान् की इच्छाशक्ति है भगवदिच्छा की पूर्ति का साधन; व्यक्ति के अहंकार-स्फुरण, हृदय के आवेग, प्राण की वासनाएं, बुद्धि के मत-अभिमत पूर्णता के साधन नहीं ।
जो कुछ लिख रहा हूं वह पत्र-लेखक के मत के खंडन के हेतु नहीं लिख रहा । उस पत्र से कुछ एक साधारण प्रश्न उठते हैं । साधक के मन की अधपकी अवस्था में संदेह या भ्रांत धारणाएं जनम सकती हैं । इस पत्र को lead या starting point (आधार) बना उन प्रश्नों का उत्तर देना, शंका दूर करना ही उद्देश्य है । फिर भी, एक बात बता दूं । इन विषयों पर अंग्रेजी में बहुत दिनों से चर्चा करता रहा हूं,--तुम जो बंगला में इन विषयों पर लिखने को कह रहे हो वह जैसे मुझपर अत्याचार करना है वैसे ही पाठक पर भी । तुम तो अच्छी तरह जानते हो कि शिक्षा और घटनाओं की परंपरा के दोष से अंग्रेजी में थोड़ी-बहुत लिखने की क्षमता पनपी है किंतु वैसी क्षमता बंगला में नहीं | यदि मातृभाषा का अंगच्छेद या यहांतक की हत्या भी कर दूं 'प्रवर्तक' के पृष्ठों को अंग्रेजी-बंगला मिश्रित भाषा से कलुषित करूं तो वह दोष मेरा नहीं तुम्हारा होगा | यह तो हुई लंबी प्रस्तावना | अब असली बात पर आता हूं |
पत्र
इस पत्र के उत्तर की वसूली मुझसे ही क्यों ? तर्क यदि करना हो तो उसके लिये चाहिये साझा आधार (common ground) जिसका यहां निहायत अभाव है | विचार करने का तरीका भी अलग है, (जैसे) भागवत अनुभव में प्रकाश और अंधकार में भेद | मैं यह नहीं कहता की पत्र लिखनेवाले के मन में अंधेरा है और मेरा मन प्रकाशित हे | कहने का तात्पर्य यही है कि उनके लिये जो "निशा" है, उसी योगज्ञान की गभीर गुहा में हमारा जागरण होता है, दर्शन होता है, जिस बुद्धि के दिवालोक में वे जागते हैं और देखते हैं हमारी आंखों में वही वही आलोक घोर रात्रि भले न हो, रात्रि का अर्द्ध-आलोकित प्रदेश तो है ही, शायद मिथ्या प्रकाश का इंद्रजाल | योगलब्ध ज्ञान, योगलब्ध शक्ति उनके लिये हैं पहेली, आत्म-प्रवंचना और अज्ञान | मेरे लिये बौद्धिक ज्ञान है प्राण की आवेगमयी आशा, आज्ञान, जादुई पहेली और आत्म-प्रवंचना |
शायद पत्र-लेखक हैं यूरोपीय बुद्धि-प्रधान शास्त्र के उपासक | जिस मानवी बुद्धि के कल्याणकारी परिणाम से मानवजाति आजतक दलित, अधीर, क्षत-विक्षत है उसी के जयगान में उन्मत्त श्रीहक कैसे महारव से नभश्च पृथ्वीञ्चैव (नभ और पृथ्वी) को तुमुल निदान से भर भगवान् के विरुद्ध युद्धकी घोषणा में रत हैं | सिंहनादं विनाधोच्चै: शड़ं दध्मो प्रतापवान् | इस घोर आक्रमण द्धारा महा-कापुरुष भगवान् यदि भारत से सदा के लिये पलायन नहीं करते तो मानुषी बुद्धि की शक्ति व्यर्थ है | रही यूरोपीय शास्त्र की बात, उस शास्र में यूरोप के बुद्धिवाद को और अटल विश्वास नहीं रहा |
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कुछ तो बुद्धिवाद की अपूर्णता को समझ और कुछ उसके अति सेवन से परिणाम भोगकर यूरोप नयी भावना से सोच रहा है, यूरोप भगवान् को खोज रहा है । फ़्रांस में, इंग्लैंड में, अमेरिका में, दर्शन में, काव्य में, चित्रकारी में, संगीत में २०-३० साल से यह धारा बह रही है । यह सच है कि अब भी बहुत-से लोग जिस अंधकार में थे उसी में पड़े हैं, कितने ही हथड़ा रहे हैं । कुछ कुहासे में अस्पष्ट मूर्तियां देख रहे हैं । और बहुत-से हैं दिवालोक से आलोकित चक्षुष्मान । देख रहा हूं धारा दिन-पर-दिन वेग से बह रही है । अभी भी यूरोप की भूल के भुक्तभोगी नहीं हैं हम । भारत की नाना भूल-म्रांतियों के शोचनीय परिणाम से अस्थिर हैं हम । पत्र-लेखक उसी अधीरता से एक-देशदर्शी कल्पना के वशीभूत हो सपना देख रहे हैं, बुद्धि की उपासना से जव यूरोप प्रबल सुखी (?) अधीश्वर बन गया है तो वहां फल हुआ है उत्थान, यहां हुआ है पतन और जब नतीजा देखकर ही राह चुननी होती है, फलेन परिचीयते, तब हम भी क्यों न उसी पथ पर दौड़ पड़े ? कोई आपत्ति नहीं । देश को यदि यही अभिप्रेत है तो क्यों न दौड़ पड़े सब-के-सब ? गठ्ठों में गिरने के बाद भी यदि होश आ जाये और ठीक राह पर चलना सीख लें । मानुषी तनु धारण करनेवाले भगवान् की अवमानना कर ज्ञान, कर्म को तुच्छ मानकर जिस गठ्ठे में गिर पड़े हैं उसमें ही आजतक चक्कर खा रहे हैं । बुद्धि के बल से उठ जिस गर्त में गिर प्राचीन ग्रीस, रोम, मिस्र मर मिट गये, आधुनिक रूस, जर्मनी गिरे हैं और कितने ही राष्ट्र गिर कर सड़-पच जायेंगे, क्यों न हम भी उसी गर्त में गिर मुंह की खा उस सुख का उपभोग कर लें । मादक बुद्धि-मदिरा का सेवन--यावत् पतति भूतले--उसके बाद भी यदि इच्छा हुई--उत्थायपि पुन: नीत्वा द्द्विष्णो: परमं पदम्--अंत में सारा देश निर्वाण प्राप्त करे । पर हमने जिस सत्य के पथ का अन्वेषण किया है और सत्य को पाया है उस पथ पर चलने के लिये देश को आहान करनें से विरत नहीं होंगे ।
मत के विरोध की बात रहने दो । मेरे मत वे यधपि श्रीहक का कथन भ्रांतिपूर्ण है यानी विकृत सत्य है, तथापि विकृति में भी सत्य का आभास मिलता है । उसके मन की भावना और अवस्था काफी स्वाभाविक है । ही सकता है कि भारत में बहुतों की ऐसी ही मनोदशा हो । इसकी आवश्यकता भी थी । यह बात कई बार पहले भी लिख चूका हूं कि धर्म की कुमति को, भगवत्संबंघी तुच्छ भ्रांत धारणा को दृढ़ता से ध्वस्त करने के लिये यूरोप की जड़वादी नास्तिकता की एक समय आवश्यकता थी । अब
पत्र में इस अंश का कोई स्थाननिर्देश नहीं था--
ऐसा क्या हो सकता है ? मनुष्य की वीरबृद्धि कापुरुष भगवन् को निकाल बाहर नहीं कर सकती । क्या धरा पर से उनका नाम मिट गया ? अलबत्ता वे चाहते जरूर हैं; खेद है कि जो कृष्ण श्रीहक के विस्मय और भक्ति के पात्र हैं, वही धूर्त कृष्ण एक बार पलायन करके भी पुन: राज्य का विस्तार कर रहे हैं, बुद्धिवाद घटता चला जा रहा है । पुन: वेदान्त के भारत से, अवतारों के देश भारत से, चैतन्य, रामकृष्ण, विवेकानन्द की जन्मभूमि बंगाल से भगवान् को भगाने के लिये आह्वान कर रहे हैं । श्रीहक हमें क्षमा करें, ऐसी असाध्य साधना करने के लिये हम राजी नहीं ।
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जो आध्यात्मिक चिंतन और धारणा यूरोप और अमेरिका को आलोकित कर रही है वह है वेदान्त के उदार, उदात्त, गभीर सत्य से प्लावित । बुद्धिवाद, वैज्ञानिक जड़वाद, नास्तिकता ने इस भूमि को साफ-सुथरा कर नये बीज को बोने का अवसर दिया है । हमारे अंदर पुरानी अचल-अटल रूढ़ियों को तोड़ने की जरूरत थी । बुद्धिवादी अंग्रेजी शिक्षा ने इस काम में मदद की है । असली आध्यात्मिक पूर्ण सत्य को प्रकट करने का अवकाश दिया गया है । प्राचीन भारत के अंतिम समय में योग में वैराग्य, निश्चेष्टता और जीवन से पलायन के प्रयास में बहुत अधिक वृद्धि हो गयी थी । संसार में निस्तेज क्षुद्राशयता के लक्षण देखता हूं । पर उस व्याधि की वास्तविक औषधि बुद्धिवाद नहीं । जीवन में भी वेदान्त धर्म का पूर्णतर आचरण, यह ज्ञान ही है हमारी साधना और प्रचार का मूलमंत्र ।
श्रीहक उस पथ पर पांव धरना ही नहीं चाहते । बुद्धि-बल से ही देश को बलवान् करने के उत्सुक हैं । मुझे कोई आपत्ति नहीं । सभी अपने-अपने चिंतन और प्रेरणा-प्रवाह से काम में लग जायें । तथ्य तो यह है कि बुद्धि को ही जो मुख्य मानते हैं उनके लिये योग की बात एक पहेली और आत्म-प्रवंचना के सिवाय और कुछ नहीं । योग का प्रधान आधार है--बुद्धि के परे भी कुछ है, यो बुद्धे: परतस्तु स: । बुद्धि का विकास और विशुद्धता तो चाहिये ही चाहिये । चाहे तो पहले बुद्धि के बन्द द्वार खुलने पर स्वधाम में प्रतिष्ठित भगवान् के दर्शन करें या फिर हृदय के गुह्य गहयर में अनुभव करें, उसके बाद बुद्धि के परे जाना-- एवं बुद्धे: परं बृद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना--गीता ।
जो बुद्धि के परे है, बुद्धि से महान् है, बुद्धि की सहायता से ही उन्हें प्राप्त कर Small Self को Greater Self में (छोटे 'मैं' को बड़े 'मैं' में), मनुष्य के अहं को अंतरस्थ परमात्मा पुरुषोत्तम में निहित करना ही विहित है । बुद्धिवादी और आत्मवादी के पथ अलग हैं । गति के नियम और शक्ति में आस्था अलग-अलग हैं । पथिक की भाषा भी अलग है । मैं और श्रीहक दोनों ही भगवन् शब्द का प्रयोग करते हैं किंतु भगवत्संबंधी उनकी बुद्धि की धारणा और मेरे अंतर के अनुभव, इन दोनों वे बिन्दु-भर भी साम्य नहीं । शब्द एक हैं पर अर्थ अलग । ऐसे में तर्क करने से क्या लाभ ? वे यदि अंग्रेजी में लिखें और मैं यदि फ्रेंच में लिखूं तो इसका जैसा परिणाम होगा वैसा ही होगा इस क्षेत्र में भी । मैं उनकी अंग्रेजी भले समझ लूं वे मेरी फ्रेंच क्यों समझने लगे । उनके विचार मैं समझता हूं, साधारण लोगों के ऐसे ही विचार हैं । जब मैं बुद्धिवादी, नास्तिक या agnostic (संशयवादी) था, भगवान् का साक्षात्कार नहीं किया था तब मुझ में कभी ऐसे विचार, तर्क, संदेह नहीं थे ऐसी बात नहीं । मेरे जो विचार और प्रत्यक्ष दर्शन (direct experience) हैं, वे उनसे अछूते हैं, जब वे उस वस्तु को पहचानते ही नहीं तो जिस भाषा में वह व्यक्त होता है उनके लिये वह निरी कल्पना है, कोरे शब्द हैं । श्रीहक के कल्पित भगवान् को मानवी मन विताड़ित करे, मुझे कोई आपत्ति नहीं, लेकिन सच्चे भगवान् को कोई भी विताड़ित नहीं कर सकता,
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न श्रीहक न ही Voltair (वाल्तेयर), न जड़वादी विज्ञान । वे नास्तिक को भी चलाते हैं और आस्तिक को भी । वे सबके अंतर्यामी, सबके नियन्ता हैं ।
इस पत्र की एक और मुश्किल है कि जो हमने कहा ही नहीं वही पत्रलेखक जबर्दस्ती हमारे मुंह से कहलवा रहे हैं । उसी कल्पित झूठी भक्ति को ही व्यंग्यपूर्ण जोशीले वाक्यों के प्रवाह में बहा ले जाने पर तुले हुए हैं । पहली बात-उनका कहना है, आत्म-समर्पण है अकर्मण्यता का साधन, तुम्हारी साधना है अकर्मण्यता की साधना । ऐसा यदि हो... ।
धैर्य के साथ, बारीकी से दार्शनिक के विचार को समझ लेना आवश्यक है । लघुकाय 'प्रवर्तक' पत्रिका में छोटे निबन्ध द्वारा उस तरह का पूर्ण दार्शनिक आलोचना संभव नहीं । योग-पथ सिर्फ चिंतन की वस्तु नहीं, है आंतरिक जीवन के अनुभव का विषय । जैसे साधारण मानव जीवन में नाना विध्न उठ खड़े होते हैं उसी तरह योग की राह पर भी उतने या उससे भी अधिक बाधा-विघ्न प्रकट होते है । Provisional (सामयिक) सामंजस्य करते हैं अनुभूति द्वारा, विचार और अंतर्दृष्टि की सहायता से जिससे अंत में भगवदालोक विस्तारित होने से सब विध्न-बाधाओं से रहित विरोधी सत्यों का असली अर्थ समझ में आता है--इससे सामंजस्य अपने--आप आ जाता है, बुद्धि से मिलाने का प्रयास नहीं करना पड़ता । पर श्रीहक तो योगप्रार्थी नहीं हैं, आंतरिक जीवन उनका लक्ष्य नहीं, लक्ष्य है भारत का बाहरी जीवन । हमारा लक्ष्य और मत* है अंतर्मुखी जीवन से बाहरी जीवन को गढ़ना, to live from within outward, परिस्थिति का गुलाम न बनना, बाहरी घटनाओं के वेग में कठपुतली नहीं बनना, भीतरी स्वराज्य और साम्राज्य को ठोस भित्ति पर खड़ा करना । हमारा यह विश्वास है कि देश के युवक यदि इस तरह के भीतर के स्वराज्य और साम्राज्य का गठन कर सके तो भारतभूमि पुन: अभ्रभेदी महिमा से सिर ऊंचा कर सारे जगत् को अपने आलोक से, शक्ति से, आनंद से भर देगी, प्लावित कर देगी । फ़लेन परिचीयते, फल किंतु एक दिन ये नहीं मिलेगा न ही कच्ची अवस्था में मिलेगा । पूर्ण सिद्धि पर सब निर्भर है ।
हमारा विश्वास है कि ऐसे आध्यात्मिक प्रयास से ही प्राचीन काल में भारत महान् था । बाद में अवनति काल में भी इसीके बल पर हजारों संकटों से बचता रहा है । यूरोप आजकल जो पृथ्वी पर धर्म-राज की, भगवद् राज्य की स्थापना का प्रयासी है, वह प्रयास इस राह द्वारा सफल हो सकता है, बुद्धि के अहंकार के बल पर नहीं । श्रीहक के विचार में यह सिद्धांत नितान्त सारहीन और शिशु की सुखद कल्पना-मात्र है । उनका कहना है कि भारत की केंद्रीय शक्ति कभी भी आध्यात्मिक नहीं रही । Principle (सिद्धांत) को सामने रख ऐश्वर्य का त्याग नहीं किया, उसमें थी दुर्बलता,
* अस्पष्ट पाठ ।
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आत्म-रक्षा की असमर्थता, अत: संन्यासी बनने के सिवा कोई चारा ही नहीं था उसके पास ! सच, इतिहास की कैसी अदभुत व्याख्या ! भारत ने जान-बूझकर टॉल्सटाय की तरह resist no evil (किसी भी बुराई का प्रतिरोध न करो) इस महावाक्य में श्रद्धा रख दु:ख-दारिद्रय को बढ़ावा नहीं दिया । ''भारत का अध्यात्म-विज्ञान केवल एक छलावा है । यह जीवन को पूरी तरह गढ़ने में असमर्थ है ।'' और क्या कहते हैं कि "Lyod George, Dr. Wilson (लॉयड जॉर्ज और डा० विल्सन) सरीखा एक भी आदमी भारत में नहीं था जिसने सिद्धांत को सामने रख सारे ऐश्वर्य का त्याग किया हो ।'' हमारे आत्म-समर्पण की बात सुनकर श्रीहक को हंसी आती है, ऐसी बात सुनकर हमारे लिये भी हंसी को रोकना कठिन है । हम भले पागल हो या शिशु की तरह बहुत बेतुकी बातें बोलते हों पर तुम बुद्धि के उपासक यह बच्चों की तरह बात कैसे कर बैठे श्रीहक ? सच, प्राचीन भारत की आश्रम-प्रथा में क्या कोई विधि-विधान नहीं थे ? बुद्ध के ऐश्वर्य-त्याग में क्या कोई सिद्धांत नहीं था ? क्या निरुपाय होकर बुद्ध से लेकर रामकृष्ण तक सभी ने संन्यासियों का स्वांग रचा था ?
असल बात पर आता हूं । Resist no evil (किसी भी बुराई का प्रतिरोध न करो) प्राचीन बौद्धों और जैनियों का सिद्धांत था, सारे भारत का नहीं । भारत के प्राचीन मत में दारिद्रय को अपनाना, नि:स्व हो जाना था संन्यासियों का धर्म, संसारियों का धर्म नहीं । भारतीय शास्त्रों ने मानव जीवन के चार पुरुषार्थों को स्वीकारा है : अर्थ, काम, धर्म, मोक्ष । यूरोपीय शास्त्रों ने भी इन चारों को अपनाया था, भले ही वह unformulated (विधिवत् न) रहा हो । वह मानवी भावों पर आधारित था । यह सत्य है कि भारत के संन्यासी जो भी करें उन्होंने जातिगत इच्छा से ऐश्वर्य-त्याग नहीं किया । 'प्रवर्तक' के लेखक भावोच्छवास में ऐसी बात कह गये हैं कि भारतवर्ष युग-युगांतर से इस जगत् के सारे ऐश्वर्यों से सदा से वंचित रहा है, अत्याचार सहता रहा है-स्वेच्छा से नहीं, दैव दुर्विपाक से । यह अतिशयोक्ति है, यथार्थ सत्य नहीं । उस दिन तक भारत ऐश्वर्यशाली था, महाशक्तिवान् था- । चन्द दिनों में हूण, शकों को आत्मसात् कर लिया था । बर्बर को सुसभ्य और आध्यात्मिक भावासंपन्न बना सका था । मुसलमान आये पर भारत की समृद्धि में कमी नहीं आयी । विजित यदि कहते हो तो देखोगे कि यूरोप में भी एक भी ऐसा देश नहीं जो कभी-न-कभी विजेताओं के अधीन न रहा हो । किंतु भारत में राजनीतिक एकता न होने के कारण उसे बार-बार आक्रांत होना पड़ा है, पर बार-बार अपने को संभाल भी लिया है । चाहे तो विजेता को आत्मसात् कर लिया शांति से समझौता करके या युद्ध करके । यह भी कुछ कम शक्ति का प्रमाण नहीं । अंत में इन दो शताब्दियों में वह अवसन्न, दुर्बल और दरिद्र हो गया--हो गया ऐश्वर्यहीन, बन गया नाना दुर्दशाओं का शिकार । अब वह फिर से उठ रहा है, अंग्रेजों के साथ एक तरह का समझौता कर आजादी की चेष्टा में लगा है । यदि यह आध्यात्मिक बल नहीं तो किस शक्ति से वह इतने दिनों तक सुरक्षित रहा, बार-
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बार विपदाओं की तरंगों से उबरा है, सोचो जरा । भारतवासी जो भी कहें, चाहे वे अंग्रेज हो चाहे भारतीय, इस बात को कभी स्वीकार न करो कि हम हिन हैं, चिरपतित गुणहीन राष्ट्र हैं । यह कतई सत्य नहीं । सरासर झूठ है यह ।
अब अध्यात्म की बात लें--जो कहते हैं कि भारत की प्राचीन सभ्यता आध्यात्मिकता को principle (आदर्श) बना गठित नहीं की गयी तो या तो उन्होंने अच्छी तरह इसका अध्ययन नहीं किया कि आध्यात्मिकता क्या है या फिर उसके बारे में उनकी धारणा भ्रांत है । मानता हूं कि जीवन को पूर्णरूपेण आध्यात्मिकता के सांचे में नहीं ढाला जा सका । कितने हैं जो principle (विधि-विधान) को मान सत्ता के सभी अंशों को गढ़ सकने में समर्थ हैं ? मनुष्य अति complex being (जटिल प्राणी) है, तभी तो जीवन में हैं इतनी जटिलताएं, समस्याएं और आत्मविरोधिता । यह भी मानता हूं कि वही न्यूनता है सारे गोलमाल को जड़ । ऐसे आदर्श का जैसे महत् फल होता है वैसे ही महाविपत्ति भी आती है । न्यूनता के कारण सहज ही ह्रास भी होता है लेकिन फिर शीघ्र ही पुनरूत्थान भी होता है । यह भी स्वीकारता हूं कि अंत की तरफ अति करने से गड़बड़ी हुई थी, मानवी तनु में अवतरित भगवान् की अवमानना; ज्ञान, कर्म को अवज्ञा से देखना, योग का जीवन से विच्छेद और विमुखता आदि भ्रांतियों में अतिशय वृद्धि । इसीलिये भारत के अध्यात्म्--विज्ञान को बेबुनियाद मान उड़ा देना है अल्प और अधीर बुद्धि के लक्षण । आध्यात्मिकता की सच्ची राह से भटक जाने के कारण भारत की यह दुर्दशा हुई है । आध्यात्मिकता है भीतर की चीज । वह कभी लूप्त नहीं होती । उसी निहित शक्ति से सारे आक्रमणों और विपदाओं को सहते हुए भारत बचा हुआ है । उसी शक्ति से उठा है । प्रमाण है, जब भी, जहां कहीं भी वह उठा है तो उठा है आध्यात्मिकता की एक नयी तरंग के प्रभाव से, इतिहास है इसका साक्षी । इस बार भी वह जो उठ रहा है, आध्यात्मिकता की नूतन तरंग ही उसका पूर्व चिन्ह थी । इतिहास को यदि अस्वीकार करो, fact (तथ्य) को अपने मत के जोर से उड़ा दो तो कुछ कहने को नहीं रह जाता ।
श्रीहक यूरोप का उदाहरण देते हैं । पूछता हूं, मानवी बुद्धि का अनुशीलन करके कोई यूरोपीय राष्ट्र अमर हुआ है, या हजारों वर्षों तक जीवित रह सका है ? वे यदि यह कहें कि बुद्धि को प्रधानता न दे आध्यात्मिकता को पुनरावृत्ति के कारण भारत की यह अधोगति हुई है, स्वाधीन बुद्धि के अनुशीलन की कमी के कारण बड़ी हानि हुई है तो मैं इसे अस्वीकार नहीं करता, मैंने यह बात बार-बार लिखी है,--मैं भी कह सकता हूं कि केवल मानुषी बुद्धि को प्रधानता देने के कारण रोम, ग्रीस, मिस्र, असीरिया, बेबिलोन मर-मिट गये हैं । किंतु मानुषी बुद्धि के प्राबल्य से इंग्लैंड, फ़्रांस और अमेरिका ने जर्मनी पर विजय पायी है अत: भगवान् को उड़ा दो, जय हो मानवी बुद्धि, तेरी जय हो ! पूछता हूं क्या जर्मनी में बुद्धि-बल और बुद्धि का अनुशीलन नहीं था ? युद्ध के पहले दिन तक तो एक शताब्दी से जर्मनी ही था यूरोप का गुरु, दर्शन में गुरु,
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विधा में गुरु, बुद्धि में गुरु, socialism (समाजवाद्) में गुरु, वैज्ञानिक अन्वेषण में उतना अगुआ भले ही न हो पर उसके प्रयोग के क्षेत्र में तो गुरु था ही । इस तरह की बुद्धि द्वारा गठित श्रुंखला, दृढबंधन, organisation, efficiency (संगठन और दक्षता) और कहीं भी नहीं थे । यदि यह बुद्धि ही सर्वस्व है तो ऐसे जर्मनी का पतन क्यों हुआ ? जो इंग्लैंड बुद्धि को परवाह नहीं करता, जिसकी वाहवाही इसमें है कि we somehow muddle through (हम किसी तरह नैया पार लगा लेते हैं), वह क्योंकर जयी हुआ ? जिस फ़्रांस के ऊपर चिर कलंक है कि वह साहसी, बुद्धिमान् और सभ्यता का केंद्र होते हुए भी विपदा में टिक नहीं पाता वही इस बार टिक कैसे गया ? जो अमेरीका सभ्य भूखण्ड के कोने में पड़ा था वह भला एकाएक जगत् के idealism (आदर्श) का नेता कैसे बन बैठा ? सिर्फ क्या बुद्धि के बल पर ही ?
लगता है कि श्रीहक यूरोप के किसी भीतरी अखबार की खबर नहीं रखते, केवल इस देश का अखबार पढ़कर अपनी धारणा बनाते हैं । वे क्या यह नहीं जानते कि बुद्धिवादी यूरोप अब बुद्धिवादी नहीं रहा ? वहीं आरंभ हुआ है भारत की आध्यात्मिकता के आधिपत्य का काल । दर्शन, चिंतन, काव्य, कला, संगीत में यह स्रोत करीब बीस--तीस साल से प्रवाहित हो रहा है । वे क्या यह नहीं जानते कि अमेरिका में सैनिक किस तरह की चिट्ठियां लिख रहे हैं--बीच-बीच में काव्यमय उद्गार, रह-रह कर भगवान् की बातें, भगवान् पर भरोसा रख उनकी ही शक्ति के बल पर युद्ध करने की बातें । और साधारण लेखक जो सब कविताएं लिख रहे हैं उनमें होता है केवल आध्यात्म, पुनर्जन्म, सर्वभूत में भगवद् दर्शन की बात । कभी अंग्रेज Wells (वेलज़) ने बुद्धि के बल पर आदर्श समाज की स्थापना की बात लिखी थी, अब वे क्या लिख रहे हैं ? ''बुद्धि के बल पर नहीं होने का, अंतरस्थ भगवान् को जगाओ, उठ खड़े होओ, आओ, भगवान् के सैनिक बन, आत्मा के बल पर, भगवान् की शक्ति से पृथ्वी पर, स्वर्ग-राज्य, भगवद्-राज्य की स्थापना करें । ''Noyes (नॉयज़) जैसे अंग्रेज कवि भी वैसी ही बातें लिख रहे हैं--भगवान् का राज । श्रीहक महाकापुरुष भगवान् को देश से निकाल बाहर करने की बात करते हैं, यूरोप से कहें जाकर ऐसी बातें । सिर्फ हम ही स्वर्ग-राज्य की बात नहीं कर रहे, यूरोप के बुद्धिजीवी भी यही राग आलाप रहे हैं । पूर्व-पश्चिम एकमत हो रहे हैं ।
अब प्रश्न यह उठता है--यूरोप बुद्धिवाद को तज रहा है, हम किसे पकड़ें ? आध्यात्मिक ज्ञान के बल पर या बुद्धि के बल पर बलीयान् बने ? यदि जीवन को पूर्णत: आध्यात्मिक विज्ञान द्वारा गठित करना श्रेयस्कर है तो उसका वास्तविक पथ क्या है ? इसकी आलोचना बाद में होगी ।
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जो पत्र तुमने मेरे पास भेजा है उस पत्र का पत्रलेखक श्रीहक के मनपसंद का संतोषजनक उत्तर देना कठिन है । विक्षिप्त मन की उत्तेजना और हृदय के तीव्र आवेग में लेखक ने जिस तरह बेतरतीब तरीके से बातों को उड़ा दिया है, उनके चिंतन का यदि अनुसरण किया जाये तो उसी भंवर में फंसना पड़ेगा । पर दूसरी तरह और दूसरे पहलू से इसका ठीक-ठीक उत्तर दिया भी नहीं जा सकेगा । तिसपर चन्द शब्दों में विश्व-समस्या को चर्चा करना ! दो-चार मोटे-मोटे शब्दों में विश्व-समस्या की मीमांसा असाध्य है यधपि थोड़े शब्दों में इसका उल्लेख हो सकता है । खैर, जो हो, दो शब्दों में, सहज तरीके से यथा संभव इन प्रश्नों और आपत्तियों का उत्तर देने की चेष्टा करूंगा । पहले तो यह कहे बिना नहीं चलने का कि लेखक मानवी बुद्धि के क्षण-स्थायी ऐश्वर्य से विमुग्ध हैं, बुद्धि के बल से आस्थावान् और बलवान् होना चाहते हैं । अच्छी बात है, यदि यही एक राह हो तो पहले बुद्धि को धीर-स्थिर और श्रुंखलित करना होगा । हृदय के आवेग, उद्वेग, विक्षोप से, उद्वेलित विचार से किसी भी समस्या का समाधान नहीं होता और न ही जीवन-यापन का कोई स्थिर पथ मिलता है । यूरोप के बुद्धिजीवी भी इस बात से अवगत हैं और वे कहते हैं कि हृदय और मन से मत के दुराग्रह का वर्जन कर, अपने तुच्छ अहं को नीरव बना विराट् सत्य को देखना चाहिये । जगत् दुःखपूर्ण है कह चंचल होने से कोई लाभ नहीं । स्थिर चित्त से देखो कि घपला कहां है । रोग के मूल कारण का निदान कर दवा और पथ्य देना विधेय है । एक और अप्रिय बात कहने के लिये मैं बाध्य हूं । राष्ट्र या व्यक्ति यदि दुनिया में हजारों आघातों के बीच टिका रहना चाहता हो तो उसे धीरज के साथ अडिग, अटल रहना होगा । विपद् में निराशाभरा हाहाकार और रोना-धोना दुर्बलता और अक्षमता का लक्षण है । इससे तो हजार गुणा अच्छा है विपदा को ''मूंक और बधिर की तरह'' शान्त रह सहना । आत्मरक्षा, सहनशीलता या तितिक्षा, स्थिरता और क्षमता से स्वराज्य, आत्मशक्ति से साम्राज्य--ये हैं आत्मोनन्ति के चार सोपान, विश्वरूप विद्यालय के चार सबक । लेखक ने भगवान् को ''महाकापुरुष'' कहा है, पर भगवान् का जगत् है वीरों की दिग्विजय का रणक्षेत्र । देखो जीवन की आकृति, गति, स्थिति : जड़ से लेकर आत्मतत्त्व तक यही है इसकी पहली और अंतिम शिक्षा । वे यदि सचमुच लक्ष्य और पथ को सुनिश्चित कर principle (सिद्धांत) को सामने रख चलना चाहें-बुद्धि के खाम-ख्याल के वश नहीं, प्राण की तरंग और अधीर उच्छवास नहीं-तो पहले स्थिर चित्त से देखें, फिर जिस सत्य से साक्षात्कार हो उसका पूरी श्रद्धा के साथ अनुसरण करने पर फल मिलेगा । बुद्धि के पथ हैं अनंत, बुद्धिमान् एक पथ निश्चित कर लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं, इधर-उधर भटकने से अस्थिरता ही आती है, कहीं पहुंचा नहीं जा सकता । यही है बुद्धि का नियम ।
'प्रवर्तक' का निर्दिष्ट मार्ग अलग है । वह सिर्फ बुद्धि का नहीं, आत्मा और समग्र सत्ता का भी है । हम ठहरे पूर्णयोग के साधक, भगवान् को पूर्ण रूप से प्राप्त कर
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जगत् में खड़े होना चाहते हैं । इस साधना में नाना विरोधों में सामंजस्य प्राप्त करना, नाना जटिल समस्याओं और परीक्षाओं में उत्तीर्ण होना आवश्यक है । तथापि हमारा भी एक सिद्धांत है, उसका दृढ़ता से पालन करते हैं । वह क्या है बाद में व्याख्या करने का प्रयास करूंगा । पत्र-लेखक प्रवर्तक में विरोधी उक्तियां देखकर हमें कोसते हैं, विरोधों में सामंजस्य नहीं देखते क्योंकि वे केवल बहिर्मुखी तार्किक बुद्धि के भरोसे ही समझना चाहते हैं, पर हम देखते हैं आत्मज्ञान और साधना की दृष्टि से, उसीके इंगित पर चलते हैं । आत्म-विरोध का एक दृष्टांत देते हैं कि हमने एक जगह कहा है, ''जो जहां हो, बैठ जाये'' । और कहीं कहा है कि ''भगवान् जिधर हांक ले जाते हैं, उधर ही जाओ ।'' योगपथ में बैठ जाना जितना सत्य है उतना ही सत्य है दौड़ पड़ना । यह है साधना की बात । साधना की अनेक अवस्थाएं होती हैं । पहला वाक्य है एक साधारण नियम, दूसरा वाक्य विशेष अवस्था में लागू होता है । साधक की प्रथम अवस्था में भगवान् चलाते जरूर हैं पर हम दौड़ लगाते हैं अहंकारवश, राजसिक उत्तेजना के वश प्रेरणा को विकृत कर । तब होता है बैठने का आदेश, निश्चेष्टता की साधना अनिवार्य हो उठती है । सदा ही यदि उसी अशुद्ध मन की विकृत प्रेरणा से चलते रहे तो किसी गहरी खाई में गिर हड्डी टूटने के सिवा और कुछ हाथ नहीं आयेगा । भगवान् जब चलाते हैं चलो, जब बैठाते हैं बैठ जाओ, इसमें ऐसा क्या असंगत है ? जब सिद्धि की स्थिति आयेगी तब इस विकृति के जंजाल से छुटकारा मिल जायेगा । तब न हो लगातार बिना रुके दौड़ता जाऊंगा; वह भी निर्भर है भगवान् की इच्छा-शक्ति, आदेश और प्रेरणा पर । और तब भी सभी चेष्टाओं के पीछे रहेगी एक महती निश्चेष्टता । आत्मतत्त्व की कथा और योग की बात में केवल तार्किक बुद्धि से काम नहीं चलता । तार्किक बुद्धि के हिसाब से उपनिषद् के भगवान् को एक साथ ही निर्गुण और गुणी कहना है असंगत, दोष से दूषित वर्णन, जैसे एक फूल एक साथ ही सुगन्धित और गंधहीन नहीं हो सकता । किंतु यह भगवान् पर लागू नहीं होता । वे हैं गुण में निर्गुण, चेष्टा में निश्चेष्ट, जैसे जमी बरफ से ढका तरल जल । बुद्धिमान के mechanical (मशीनी) नियम से किये काम में और साधक के असंगठित पर जीवन्त कर्म में भी वही भेद है...
इस पत्र में कुछ एक गौण बातों की चर्चा कर लूं, असल बात पर बाद में ।
प्रथम पत्र आम लोगों के लिये नहीं लिखा था, लिखा था तुम्हारे पत्र के दो-एक प्रश्नों के उत्तर में । हमारे काम की राह में अति आवश्यक जानकर लिखा था कि बंगालियों में कहां है दोष-त्रुटी, कार्य की सिद्धि में कहां है अड़चनों की संभावना, अपने मन के विचार व्यक्त किये थे पत्र में । ये बातें लिखने की जरूरत नहीं थी कि किस दिशा में हैं बंगालियों की आशाएं, कहां है उनका बल, क्षमता, कार्य-सिद्धि के
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साधन, किसमें निहित है उनकी शक्ति । हमारी उदात्त आशाओं की भित्ति, हमारे कर्म की प्रेरणा में प्रधान सहायक क्या है वह सर्वविदित है । बंगालियों के जागरण, महत्त्व, सीमाहीन potentiality (सामर्थ्य), उज्जवल भविष्य के बारे में हम जो ऊंची धारणा और ऊंची आशा का पोषण करने का साहस करते हैं, बंगाल के भविष्य का जो उज्जवल चित्र मन के पट पर अंकित है वह इतना ऊंचा, इतना उज्जवल है कि वह बहुत ही कम लोगों की कल्पना में आ सकता है, वह आशा देश-अभिमानी का मिथ्या स्वप्न नहीं, वास्तव को बीज रूप में देख भावी बृहत् वृक्ष की आकृति का निरूपण है, actual (वास्तव) को पहचान संभाव्यता को पहचानना इसी कारण से...
जाति के दोष और अभाव के बारे में जो theory (अभिमत) है वह है तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर का एक पहलू-मात्र । छाया की तरफ देखकर यह मत समझना कि यही है विषयसंबंघी अंतिम उक्ति । हमेशा सत्य के दो पहलू होते हैं, छाया का पक्ष दिखा दिया, प्रकाश का पक्ष दिखाना होगा असली काम, उसी पर ज्यादा जोर देना बेहतर होगा । शुद्धि के हेतु भीतर के दोष-त्रुटी, अभाव को दूर करने के लिये negative (नकारात्मक) को दिखाना जरूरी होता है; सकारात्मक है सिद्धि का बीज, आत्मा का मूल capital (पूंजी, भावी उन्नति का मुख्य साधन ।...
फिर से जब मायावाद की बात उठी है तो उसके बारे में कुछ स्पष्टत: आलोचना करने की जरूरत महसूस करता हूं । सत्य क्या है, असत्य क्या है, नित्य-अनित्य, सत्-असत् आदि दुरूह दार्शनिक तर्क छोड़ दे रहा हूं । असल बात है सहज१ उद्देश्य के बारे में, practical spiritual result, आध्यात्मिक चरम-सिद्धि-जगज्जीवन के साथ उसके संबंध और परिणाम । हमारे विचार के क्या सिद्धांत मनोनीत हैं, क्या सोचते हैं, चिंतन की प्रणाली और लक्षण क्या हैं, यह है गौण, क्या बनते हैं यही है मुख्य बात । आध्यात्मिक चिंतन अध्यात्म-सिद्धि में सहायक है अत: है आदरणीय । चिंतन महान् है क्योंकि वह बनने का उपाय है, शक्ति का एक प्रधान यंत्र ।
'प्रवर्तक' में मायावाद के विरोध में पहले भी बहुत बार लिखा जा चुका है, अबतक गौण भाव से ही लिखा गया है । मायावाद-प्रसूत कुछ साधारण भ्रांतियां हमारे गंतव्य पथ में अंतराय बनकर खड़ी हो गयी हैं, उनके अपसारण के लिये दो-चार मोटी-मोटी
१अनिश्चित पाठ 'परम्' भी हो सकता है ।
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बातें । आजकल एक प्रधान संन्यासी प्रचारक ने इस आक्रमण से क्षुब्ध होकर उसी दार्शनिक शुष्कवाद के आधुनिक एक सरस१ प्रकाशित किया है । इस मौके पर जरा विस्तार से असल बात कह देनी ठीक होगी । शुरू में ही यह बात स्वाभाविक रूप से क्यों उठती है इसकी कैफियत देनी जरूरी है । मायावाद पर हमारी इतनी वितृष्णा क्यों ? वाद-विवाद की आवश्यकता ही क्यों ? भगवान् के पास जाने के लिये प्रत्येक का अपने-अपने मनोनीत पथ पर चलना ही तो काफी है । भगवान् हैं अनंत, उनके पास जाने के पथ भी हैं अनंत । निश्चय ही यह नियम लागू होता है सिर्फ व्यक्तिगत आध्यात्मिक साधन के बारे में, पर यह विषय व्यक्तिगत साधना को लेकर नहीं है, बात है समष्टि की, भारत के जीवन की, जगत् के जीवन की । मायावाद केवल साधना में एक मार्ग नहीं है, उसके हाथ जगत् को ग्रसने के लिये प्रसारित हैं । उसके प्रभाव की छाया सारे जीवन पर छा गयी है । उसकी छाया तले भारत का जीवन सूखकर अधमरा हो गया है । उसे पुन: पुनरुज्जीवित, बलवान्, परिपुष्ट सर्वांग सुन्दर बनाने की आवश्यकता है । मायावाद के एकछत्र आधिपत्य को उखाड़ फेंकना होगा ।
स्वामी सर्वानन्द की सभी उक्तियों का उत्तर देना कोई जरूरी नहीं; मुझे नहीं लगता है कि ऐसे वाद-विवाद से कोई भला होता है । यदि कुछ भला हुआ भी तो वह बुद्धि के घेरे में बद्ध रहता है । हो सकता है कि ऐसे तर्कों से, दार्शनिक युक्ति-तर्क और वाद-विवाद से बुद्धि के सूक्ष्म चिंतन की क्षमता में वृद्धि हो पर आत्मा की स्फूर्ति में न सरसता आती है न पूर्णता वरन् वह क्षरित ही होती है, सूख जाती है । जो वास्तविक है, जो प्रत्यक्ष है उसपर आधारित है आत्मा की अनुभूति का जीवंत विस्तार और प्रगति । तथापि, जब बात उठी है, इन सभी तर्कों से कच्ची बुद्धिवाला कोई विचलित हो सकता है, अत: इस बारे में हमें जो कहना है वह कहकर अंत करना ही श्रेयस्कर होगा ।
हमारा विश्वास है कि बुद्धि-प्रसूत दर्शन द्वारा न तो भगवान् का दर्शन मिलता है न आत्मा से साक्षात्कार होता है । संदेह नहीं कि दर्शन की आवश्यकता है, परंतु वही दर्शन कल्याणकारी होता है जो प्रकृत दर्शन है, दृष्टि, अनुभूति और intuition (सहज-बोध) पर प्रतिष्ठित होता है । तर्क कर जिस सिद्धांत को हम मनोनीत करते हैं उसे ही स्थापित कर एकांगी सत्य का प्रतिपादन करना-यही है बुद्धि-प्रसूत दर्शन का नियम...
१पाण्डुलिपि में 'सरस' शब्द के बाद काफी जगह रिक्त छोड़ दी गयी है, उसके बाद की पंक्ति 'प्रकाशित किया है' से आरंभ होती है |
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मायावाद का आधिपत्य, मायावाद ही है भारत-आत्मा का एकमात्र सच्चा ज्ञान, अन्य सर्वविध दर्शन और आध्यात्मिक अनुभूतियां हैं अर्ध सत्य या भ्रांतियां, यह धारणा जो शंकर के समय से आज तक हमारी बुद्धि (मानस) को आक्रांत और अभिभूत किये हुए है, 'प्रवर्तक' में इसके विपक्ष में बहुत बार लिखा जा चुका है । कुछ दिन पहले ही 'प्रवर्तक' में इसी आशय का एक छोटा-सा लेख छपा था । यह ठीक है कि वह लेख अवश्य ही गभीर सूक्ष्म दार्शनिक तत्त्व की गहराई नहीं नापता, केवल प्रश्न के एक पहलू को लेकर ही लिखा गया था । उसीके विरोध में स्वामी सर्वानन्द ने 'उद्बोधन' के आषाढ़ के अंक में मायावाद का समर्थन करते हुए एक लंबा लेख लिखा है । दार्शनिक वाद-विवाद में पड़ हम समय खोना नहीं चाहते । एक तो 'प्रवर्तक' का आकार छोटा है, दुसरे दार्शनिक वाग-वितण्डा का कोई अंत नहीं । सम्यक् रूप से यदि हमें इस युक्ति, उस युक्ति का निरसन, खण्डन, समर्थन प्रतिष्ठित करना हो तो अपने असली उद्देश्य को प्रतिपादित करने का अवसर मिलना कठिन होगा । मायावाद के बारे में भी दो-चार बातें कहकर हम संतुष्ट थे, वह भी सिर्फ इसलिये कहना पड़ा क्योंकि आधुनिक भारत के मन पर उस दार्शनिक मत की छाप, मायावाद का एकछत्र राज पूर्णयोग का प्रधान अंतराय बनकर खड़ा है, अतः कुछ कहे बिना गुजारा नहीं । मानव की सारी सत्ता को जागृत कर, आध्यात्म ज्ञान से आलोकित कर, आत्म-अनुभूतियों से परिपूर्ण कर भगवत्-चिंतन द्वारा ज्योतित कर मानव की सारी वृत्तियों को भगवान् के सायुज्य, सालोक्य, सामीप्य, साधर्म्य में, भगवद्-भावना में प्रतिष्ठित कर राष्ट्र और धरती के मानवी जीवन को प्रकृत उन्नति, संपूर्णता और संसिद्धि की ओर प्रेरित करना ही है हमारा लक्ष्य । यदि अकेला मायावाद ही एकमात्र सत्य है तो यह प्रयास है केवल पशुश्रग । एक ही मार्ग रह जाता है--कोपीन या गेरुआ धारण कर अरण्य में, पर्वत-गुहाओं में या मठों में बैठकर लय और मोक्ष के लिये घोर परिश्रम करना । पर यत्र नहीं भूलना चाहिये कि मठ की स्थापना भी है अज्ञानता और माया का इन्द्रजाल । यदि यही एकमात्र सत्य धर्म है तो हम असमर्थ हैं । जबतक सामर्थ्य नहीं आ जाती तबतक माया के बीच ही रहते हुए सारे दु:ख-क्लेश, देश के दारिद्रय और अवनति को सिर-आखों पर बिठाकर किसी तरह बचे रहना और सब कुछ ही माया हे, जगत मिथ्या है, चेष्टा भी मिथ्या है यही... बड़बड़ाते-बड़बड़ाते उसी एकमात्र सत्य-ज्ञान को... मन में जाग्रत् करना बुद्धिमानों का श्रेष्ठ पथ है ।
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