All writings in Bengali and Sanskrit including brief works written for the newspaper 'Dharma' and 'Karakahini' - reminiscences of detention in Alipore Jail.
All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)
कुछ फुटकर लेख
पुरातन और नूतन
देख रहे हैं कि हम जो पुरातन के कारागार को तोड़ नूतन की सृष्टि करने के लिये देश को पुकार रहे हैं, उससे बहुतों के मन मैं क्रोघ, भय और आशंका उमड़ पड़ी है । उनकी धारणा है कि पुरातन ही है सर्वमंगलकारी, निर्दोष सत्य, पूर्ण जन, धर्म ऐथर्य का अनिंदनीय समृद्धिशाली कोषागार; पुरातनता में ही है भारत को भारतीयता । हम, जो भगवान तथा भागवत शक्ति पर अटल भरोसा रख उब्रति-पथ पर अग्रसर होने के लिये उयत हैं, अकुंठ साहस के साथ भविष्य का नवीन आकार गढ़ने के इल्कुक है, उनकी इट्टि में हैं यौवन के मद में उन्यत्त, पाबात्य खान से पुछ, उल्कुंखल पथ के पथिक । पुरातन को हटा नवीन के आगमन को सहज बनाना अत्यत विपल्लनक है, सर्वनाश का पथ है । पुरातन यदि चला गया तो फिर भारत का सनातन घर्म रहा कहां? पुरातन से चिपके रहने में ही है श्रेय-वही चिरन्तन मोक्षपरायणता, वही अतुल्य कक्याणकर मायावाद, वही अचल स्थितिशीलता जो है भारत की एकमात्र संपदा । कह सकता था कि भारत की जो वर्तमान अवस्था है उससे और अधिक सर्वनाश, और अधिक शोचनीय परिणाम क्या हो सकता है, यह समअj। या कल्पना करना है दुष्कर । पुरातन से चिपके रहने से जब यह अवस्था हुई तब भला नुतन के लिये चेट) करने में क्या दोष? राड़ की क्य की आशंका सामने है, ऐसे समय पुरातन पर निर्भर रह निम्रेट बन जाना अच्छा है या इस जाल को छिन्न-विच्छिन्न कर स्वाधीनता के जीवन के मुक्त पथ पर चलने की प्रवृत्ति श्रेयस्कर है? किंतु जो आपत्ति करते हैं, उनमें से बहुतेरे पंडित, विचारशील, गण्यमान्य व्यक्ति हैं, उनकी उक्ति को इस प्रकार उड़ा देने की इच्छा नहीं होती । हम ले अपनी बात का तात्यर्य, अपने इस अखान का गभीरतर तत्व समजने की चेट। कर रहे हैं ।
सनातन और पुरातन एक ही नहीं । सनातन है चिरकालीन, जो त्रिकालातीत है, जो अविनश्रर है, जो सकल परिवर्तनों में अविच्छिन्न धारा रूप से विद्यमान रहता है, जिसे हम विनश्यन्ह अविनश्यन्तम देखते हैं, वही है सनातन । पुरातन होने के कारण भारत के धर्म और मूल विचार को हम सनातन धर्म, सनातन सत्य नहीं कहते । आत्मा- नुमृतिलव्य सनातन आत्म-ज्ञान होने के कारण वह विचार तथा सनातन जान पर प्रतिछित होने के कारण वह धर्म सनातन है । पुरातन तो है सनातन का एक समयोपयोगी रूप-मात्र ।
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