श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य

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Sri Aurobindo

All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

The Complete Works of Sri Aurobindo (CWSA) Writings in Bengali and Sanskrit Vol. 9 715 pages 2017 Edition
Bengali
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All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य 528 pages 1999 Edition
Hindi Translation
Translator:   Hriday  PDF    LINK

पूर्णयोग के मुख्य लक्षण

 

    भाव को लेकर, तत्त्व को लेकर पूर्णयोग के बारे में बहुत कुछ कहा जा चुका है, अब जब कि बहुत-से लोग इस पथ पर आ चुके हैं और आ रहे हैं तो एक बार सहजभाव से अपने इस योगपथ के उद्देश्य को और योगसिद्धि के मुख्य लक्षणों की व्याख्या करना आवश्यक हो मया है । योगावस्था कभी भी बुद्धि से आसानी से नहीं समझी जा सकती, उसे यथार्थ में समझने के लिये अनुभूति होनी जरूरी है, आत्मोपलब्धि के फलस्वरूप आती है वह । तथापि बुद्धि के सम्मुख ऐसी रूपरेखा स्थापन करने की आवश्यकता है जो इस पथ का सभी दिशाओं में गंतव्य स्थान और नक्शा मानव दृष्टि के सामने खींच दे, जो योग का उद्देश्य और लक्षण जानना चाहते हैं  उनकी सहज उपलब्धि के लिये,-

(अपूर्ण)

 

*

 

    हमारा आदर्श मोक्ष नहीं, ब्रह्य में लीन होकर अनिर्देश्य अनन्त में निर्वाण-प्राप्ति नहीं । हमारा आदर्श है व्यष्टि और समष्टि  में भागवत चेतना की उपलब्धि, भागवत चेतना के साथ ऐक्य की संसिद्धि और आनंद, उसी चेतना में निवास कर आत्म- प्रतिष्ठित, भगवत्प्रेरित, भगवत्-शक्ति से चालित जीवन और कर्म, मुक्तवत् कर्म । जैसा कि गीता में कहा , ''योगस्थ: कुरु  कर्माणि", वह योगस्थ कर्म केवल इस साधना का अंग ही नहीं, सिद्धि का भी प्रदान अंग है। समस्त जीवन को, अंतर और बाह्य को भागवत सत्ता में प्रस्फुटित करना और भागवत ऐक्य की अभिव्यक्ति बनाना है इस योग का उद्देश्य और सिद्धावस्था का लक्षण ।

*

 

    पूर्णयोग के चार अंग हैं--ज्ञान, कर्म, प्रेम और सिद्धि । इन चार स्तम्भों पर प्रतिष्ठित है देवजीवन का अभ्रभेदी सत्य-मंदिर ।

 

    पूर्णयोग में ज्ञानयोग का उद्देश्य मोक्ष नहीं, लय नहीं, संसार-भीरु का पलायन नहीं, बैरागी की विश्व-वितृष्णा नहीं, परब्रह्य  की आकांक्षा में लीलामय भगवान् को दूर करना नहीं । इस ज्ञानयोग का उद्देश्य है भगवान् को जानना, भागवत चेतना तक अपनी चेतना को उठाना, उसके साथ एक होना, आत्मा और जगत् में एक, विज्ञान में एवं मन-प्राण-चित्त में एक, शरीर में एक-किसी को भी नहीं छोड़ना । -पूर्ण अद्वैत,... सर्वं खल्विदं ब्रह्य, तुरिय; कारण, सूक्ष्म, स्थूल, सुषुप्ति, स्वप्न जाग्रत, ब्रह्यमाया, पुरुष, प्रकृति, तुम, मैं--ये सभी वही हैं, वासुदेवं सर्वमिति, यही है ज्ञान का मूल मंत्र |

(अपूर्ण)

*

२१९


गीत। ने कहा है--समता ही योग है, समत्वं योग उच्यते। और भी कहती है, जिनका मन समता में दृढ़ रूप से प्रतिष्ठित है वे ही जगत् में रहकर जगज्जयी हैं, क्योंकि परम ब्रम्ह जिस प्रयोजन से सर्वत्र समभाव में विराजमान हैं, समताप्राप्त योगसिद्ध ज्ञानी और कर्मी सब कर्मो में, सर्व भावों में ब्रम्ह में दृढ़ रूप से प्रतिष्ठित है ।

ड़हैव तैर्जित सर्गो  एषां साम्य स्थित मन: |

निर्दो हि समं ब्रम्ह तस्मात् ब्राम्हणी  ते स्थिता: ||

 यही है समता-ततत्व की मूल भित्ति ।

 

   पूर्णयोग की साधना-प्रणाली में समता है योगसिद्धि के आरोहण का मुख्य सोपान । या कह सकता हूं कि ब्रम्ह-भाव है योगभूमिस्वरूप, समता है वृक्ष और साधना से प्राप्त नाना वस्तुएं हैं पत्र, पुष्य और फल । पूर्ण सत्ता, पूर्ण आत्मज्ञान, पूर्ण चेतना, पूर्ण तप:शक्ति, पूर्ण अखण्ड आनंद में से एक भी समता के बिना नहीं पाया जा सकता, पूर्ण समता में ही इनकी पूर्णता भी विकसित और दृढ़ रूप से प्राप्त हो सकती है । इसीलिये जबतक विशुद्ध समता साधक के अंदर स्थायी, विशाल और सुदृढ़ नहीं हो जाती तबतक इस योगसिद्धि की भित्ति कमजोर और अपर्याप्त समझनी होगी । समता स्थापित हो जाने पर ही योगपथ सम, निष्कंटक, सीधा, सरल, ॠजु, आनन्दमय हो जाता है ।

 

*

 

   भगवत सत्ता के साथ एक होना, भागवत चेतना के साथ चेतना मिला देना, उसी में निवास करना, भागवत शक्ति के प्रभाव में अपनी शक्ति को लीन कर देना, भागवत साधर्म्य प्राप्त कर सिद्ध आत्मवान् होना, यही है पूर्णयोग का उद्देश्य । सौ बात की एक बात-देव-जन्मलाभ, भागवत जीवन ।

 

   निर्लक्षण अनिर्देश्य लय नहीं, उस तरह का मोक्ष हमें अभिप्रेत नहीं । ब्रम्ह नित्य सनातन है, जगत् रूप  ब्रम्हविकास भी नित्य सनातन है । मैं उसी प्रकाश का एक केन्द्र हूं, सारा जगत् मेरी परिधि, सारा ब्रम्हांड  मेरी दुनिया, सब जीव मेरे असंख्य मैं, जैसे अनन्त ब्रम्ह का अनिर्देश्य ऐक्य सत्य है वैसे ही ब्रम्ह का बहुरूप विशिष्ट ऐक्य सत्य है ।

 

   क्षर पुरुष में जो बहु रूप विशिष्ट ऐक्य का एक ही समय, एक ही आधार में भोग करते हैं वही गुरुब्रम्ह पुरुषोत्तम अक्षर जगत् की स्थिति में भी पुरुष रूप में उसी अनिर्देश्य ऐक्य का भोग करते हैं । पुरुषोत्तम की यही लीला मैं... (वाक्य अधूरा) । यह ध्विविध रसभोग ही अनन्त की पूर्णता है ।

 

   भगवान् की अखण्ड सत्ता एक है, उसी सत्ता को हम परमात्मा कहते हैं ।

 

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