श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य

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Sri Aurobindo

All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

The Complete Works of Sri Aurobindo (CWSA) Writings in Bengali and Sanskrit Vol. 9 715 pages 2017 Edition
Bengali
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All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य 528 pages 1999 Edition
Hindi Translation
Translator:   Hriday  PDF    LINK

राष्ट्रीय उत्थान

 

     हमारे प्रतिपक्षी अंग्रेज हमारे वर्तमान महत् और सर्वव्यापी आंदोलन के विषय में आरंभ से ही कहते आ रहे हैं कि यह विद्धेष के कारण उत्पन्न हुआ है और उनके अनुकरणप्रिय कुछ भारतवासी भी इस मत की पुनरावृत्ति करने मे त्रुटि नहीं करते । हम धर्म-प्रचार में प्रवृत्त हैं; राष्ट्रीय उत्थानस्वरूप आंदोलन धर्म का ही एक प्रधान अंग है, इसीलिये हम उसमें अपनी शक्ति लगा रहे हैं । यह आंदोलन अगर विद्धेष से उत्पन्न हुआ होता तो इसे धर्म का अंग मान हम कभी इसका प्रचार करने का साहस न करते । विरोध, युद्ध और हत्या तक धर्म का अंग हो सकते हैं; किंतु विद्धेष और घृणा धर्म के बाहर की चीजें हैं; विद्धेष और घृणा जगत् की क्रमोन्नति के विकास में वर्जनीय होती हैं, अतएव जो स्वयं इन वृत्तियों का पोषण करते हैं या राष्ट्र में इन्हें जाग्रत् करने की चेष्टा करते हैं वे अज्ञान के मोह में पड़ पाप को प्रश्रय देते हैं । हम यह नहीं कह सकते कि इस आंदोलन में कभी विद्धेष प्रविष्ट हुआ ही नहीं । जब एक पक्ष विद्धेष और घृणा करता है तब दूसरे पक्ष में भी उसके प्रतिघात में विद्धेष और धृणा का उत्पन्न होना अनिवार्य है । इस प्रकार के पाप की सृष्टि के दायी हैं बंगाल के कतिपय अंग्रेजी संवाद-पत्र और कुछ उद्धतस्वभाव के अत्याचारी व्यक्तियों के आचरण । प्रतिदिन संवाद-पत्रों में उपेक्षा, घृणा और विद्धेषसूचक तिरस्कार और बहुत समय तक रेल में, बाट में, हाट में, घाट में गालियां, अपमान और मारपीट तक सहन करते-करते अंत में यह उपद्रव सहिष्णु और धीर-स्वभाव भारतवासियों के लिये भी असह्य हो उठा और  'गाली के बदले गाली और मार के बदले मार' का प्रतिदान आरंभ हो गया । अनेक अंग्रेजों ने भी अपने देश-भाइयों के इस दोष और अशुभ दृष्टि के दायित्व को स्वीकार किया है । इसके अतिरिक्त सरकारी कर्मचारी दारूण भ्रमवश बहुत दिनों से प्रजा के स्वार्थ-विरोधी, असंतोषजनक और मर्म वेदनादायक कार्य करते आ रहे हैं । मनुष्य का स्वभाव है क्रोधप्रवण; स्वार्थ में आघात लगने पर, अप्रिय आचरण से या प्राण-प्रिय वस्तु या भाव पर अत्याचार होने से वह सर्वप्राणी-निहित क्रोधवनीय  प्रज्ज्वलित हो उठती है । क्रोध की अतिशयता और अंधगति से विद्धेष और विद्धेषजात आचरण भी उत्पन्न होता है । भारतवासियों के प्राणों में बहुत दिनों से कुछ विशिष्ट अंग्रेजों के अनुचित आचरण और उद्धत बातों के कारण एवं वर्तमान शासनतंत्र में प्रजा का कोई भी सच्चा अधिकार या क्षमता न रहने के कारण भीतर-ही-भीतर असंतोष बढ़ता जा रहा था । अंत में लार्ड कर्जन के शासनकाल में इस असंतोष ने भीषण मूर्ति धारण कर ली और बंग-भंग-जात असह्य मर्मवेदना से असाधारण क्रोध देश-भर में प्रज्ज्वलित हो सरकारी कर्मचारियों की दमननीति के कारण विद्धेष में परिणत हो उठा । हम यह भी स्वीकारते हैं कि बहुतों ने क्रोध से अधीर हो उस विद्धेषाग्नि  में प्रचुरता से धृताहुति दी

है | भगवन् की लीला विचित्र है, उनकी सृष्टि में शुभ और अशुभ के

द्धंद्ध द्धारा

 

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जगत् की क्रमोन्नति परिचालित होती है फिर भी अशुभ प्रायः ही शुभ की सहायता करता है, भगवान् के अभीप्सित मंगलमय फल को समुत्पन्न करता है । इस परम अशुभ-विद्धेष-सृष्टि  का भी यह शुभ फल हुआ की तमोभिभूत भारतवासियों में राजसिक शक्ति के जागरण के उपयुक्त उत्कट राजसिक प्रेरणा उत्पन्न  हुई । परंतु ऐसा कह हम अशुभ की या अशुभकारियों की प्रशंसा नहीं कर सकते । जो राजसिक अहंकारवश अशुभ कार्य करते है उनके कार्य से ईश्वर-निर्दिष्ट शुभ फल के उत्पन्न होने में सहायता पहुंचती है कहने से उनका दायित्व और फलभोग का बंधन तनिक भी कम नहीं हो जाता । जो राष्ट्रगत विद्धेष का प्रचार करते हैं वे भ्रांत हैं; विद्धेष के प्रचार से जो फल होता है उसका दसगुना फल निःस्वार्थ धर्मप्रचार से होता है एवं अधर्मजनित पापफल भोगना नहीं पड़ता, बल्कि उससे धर्म की वृद्धि तथा विशुद्ध पुण्य की सृष्टि होती है । हम राष्ट्रगत विद्धेष और धृणा-जनक बात नहीं लिखेंगे, दूसरों को भी वैसे अनर्थ की सृष्टि करने से मना करेंगे । राष्ट्र-राष्ट्र में स्वार्थ का विरोध उत्पन्न होने पर अथवा वर्तमान अवस्था का अपरिहार्य अंग बन जाने पर हम कानून और धर्मनीति के अनुसार पर-राष्ट्र का स्वार्थ नष्ट करने तथा अपने राष्ट्र का स्वार्थ सिद्ध करने के अधिकारी हैं । अत्याचार या अन्यायपूर्ण कार्य घटित होने पर हम कानून और धर्मनीति के अनुसार उसका तीव्र उल्लेख करने तथा राष्ट्रीय शक्ति-संघात, सर्वविध वैध उपाय एवं वैध प्रतिरोध द्धारा उसका खण्डन  करने के अधिकारी हैं । कोई व्यक्तिविशेष, चाहे वह सरकारी नौकर हो या देशवासी, यदि अमंगलजनक, अन्यायपूर्ण और अयौक्तिक कार्य करे या मत प्रकट करे तो हम भद्रसमाजोचित आचारानुकूल विद्रूप और तिरस्कार द्धारा उस कार्य या उस मत का प्रतिवाद और खण्डन  करने के अधिकारी हैं । परंतु किसी जाति या व्यक्ति के लिये विद्धेष या घृणा का पोषण करने या सृष्टि करने के अधिकारी हम नहीं । अतीत में यदि ऐसा दोष हो गया हो तो वह अतीत की बात है; भविष्य में यह दोष न घटे इसलिये हम सबको तथा विशेषकर राष्ट्रीय पक्ष के समाचारपत्रों और कार्यक्षम युवकों को यह उपदेश देते हैं ।

 

     आर्यज्ञान, आर्यशिक्षा, आर्य-आदर्श जड़ज्ञानवादी राजसिक भोगपरायण पाश्चात्य जाति के ज्ञान, शिक्षा और आदर्श से बिलकुल भिन्न है । यूरोपीय लोगों के मतानुसार स्वार्थ और सुखान्वेषण के बिना कर्म अनाचरणीय है, विद्धेष के बिना विरोध और युद्ध होना असंभव है । उनकी धारणा है कि या तो सकाम कर्म किया जा सकता है या कामनाहीन संन्यासी बनकर बैठा जा सकता है । उनके विज्ञान का मूलमंत्र है- जीविका के लिये संघर्ष द्धारा जगत् गठित हुआ है, उसीके द्धारा जगत् की क्रमोन्नति साधित हो रही है । जिस दिन आर्यों ने उत्तर मेरु से दक्षिण को यात्रा कर पंचनदभूमि को अधिकृत किया था उसी दिन से इस सनातन शिक्षा को प्राप्त कर उन्होंने सनातन प्रतिष्ठा भी प्राप्त की है कि यह विश्व आनंदधाम है, प्रेम, सत्य और शक्ति के विकास

के लिये सर्वव्यापी नारायण स्थावर और जंगम में, मनुष्य, पशु, कीट और पतंग में,

 

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साधु और पापी में, शत्रु और मित्र में, देव और असुर में प्रकट हो जगत्-भर में क्रीड़ा कर रहे हैं । क्रीड़ा के लिये ही सुख है, क्रीड़ा के लिये ही दुःख है, क्रीड़ा के लिये ही पाप है, क्रीड़ा के लिये ही पुण्य, क्रीड़ा के लिये ही मित्रता है, कीड़ा के लिये ही शत्रुता, क्रीड़ा के लिये ही देवत्व है, क्रीड़ा के लिये ही असुरत्व । मित्र-शत्रु सभी क्रीड़ा के सहचर हैं, दो दलों में विभक्त हो उन्होंने स्वपक्ष और विपक्ष की सृष्टि की है । आर्य मित्र की रक्षा करते हैं और शत्रु का दमन, परंतु उनमें आसक्ति नहीं होती । वे सर्वत्र, सब भूतों में, सब वस्तुओं में, सभी कर्मो और सभी फलों में नारायण के दर्शन कर इष्ट-अनिष्ट, शत्रु-मित्र, सुख-दुःख, पाप-पुण्य, सिद्धि-असिद्धि के प्रति समभाव रखते हैं । परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि सब परिणाम उन्हें इष्ट हैं, सब उनके मित्र हैं, सब घटनाएं उन्हें सुख देती हैं, सब कर्म उनके लिये आचरणीय हैं, सब फल उनके लिये वांछनीय हैं । पूर्णरूपेण योग की प्राप्ति हुए बिना द्धंद्ध का नाश नहीं होता, उस अवस्था को बहुत कम लोग ही प्राप्त कर पाते हैं, परंतु आर्यशिक्षा है साधारण आर्यों की संपत्ति । आर्य इष्ट को साधने और अनिष्ट को वर्जित करने की चेष्टा करते हैं, परंतु इष्ट की प्राप्ति पर विजय-मद से मत्त नहीं हो जाते और न अनिष्ट के घटित होने पर भयभीत ही होते हैं । मित्र की सहायता करना और शत्रु  को पराजित करना उनके प्रयास का उद्देश्य होता है पर वे शत्रु  के प्रति विद्धेष और मित्र के प्रति अन्यायपूर्ण पक्षपात का भाव नहीं रखते, कर्तव्य के लिये वे स्वजनों का संहार भी कर सकते हैं, विपक्षियों की प्राणरक्षा के लिये प्राणतक त्याग सकते हैं । सुख उन्हें प्रिय है और दुःख अप्रिय, फिर भी वे सुख मे अधीर नहीं होते, दुःख में भी उनकी धीरता और प्रसन्नता अविचलित रहती है । वे पाप का त्याग और पुण्य का संचय करते हैं, किंतु पुण्य कर्म के लिये गर्वित नहीं होते, न पाप में गिर जाने पर दुर्बल बालक की भांति रोते हैं, बल्कि हंसते-हंसते कीचड़ से निकल, कीचभरे शरीर को पोंछ, परिष्कृत और शुद्ध हो पुन: आत्मोन्नति  की चेष्टा करते हैं । आर्य कार्यसिद्धि के लिये विपुल प्रयास करते हैं, हजार पराजय होने पर भी पैर पीछे नहीं हटाते, परंतु असिद्धि से दुःखित होना, विषण्ण या असंतुष्ट होना उनके लिये अधर्म है । निस्संदेह, जब कोई मनुष्य योगारूढ़ हो गुणातीत की तरह कर्म करने में समर्थ होता है तब उसके लिए द्धंद्ध का अंत हो जाता है, जगन्माता जो कार्य देती हैं उसे ही वह बिना विचारे करता है, जो फल देती हैं उसका ही सानंद उपभोग करता है, जिन्हें मां उसके पक्ष में निर्दिष्ट कर देती हैं उन्हींको ले वह मां का कार्य संपन्न करता है, जिन्हें मां विपक्षी के रूप में उसे दिखाती है उनका आदेशानुसार दमन या संहार करता है । यही शिक्षा है आर्यशिक्षा । इस शिक्षा में विद्धेष या घृणा का स्थान नहीं । सर्वत्र नारायण हैं । भला किससे विद्धेष और किससे घृणा ? अगर हम पाश्चात्य ढंग का राजनीतिक आंदोलन करें तो फिर विद्धेष और घृणा का आना अनिवार्य है,  और यह पाश्चात्य मतानुसार निंदनीय नहीं, क्योंकि स्वार्थ का विरोध है,

एक ओर उत्थान और दूसरी ओर दमन हो रहा है | परं

तु हमारा उत्थान केवल

 

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आर्यजाति का उत्थान नहीं, प्रत्युत आर्यचरित्र, आर्यशिक्षा, आर्यधर्म का उत्थान है । आंदोलन की प्रारंभिक अवस्था में भी यह सत्य अनुभूत हुआ है; मातृपूजा, मातृप्रेम और आर्य अभिमान के तीव्र अनुभव से धर्मप्रधान द्धितीय अवस्था प्रस्तुत  हुई है । राजनीति धर्म का अंग है, परंतु उसका आचरण आर्य-भाव के साथ, आर्य-धर्मानुमोदित उपाय से करना चाहिये । अपनी भावी आशा-युवकों-से कहते हैं कि यदि तुम्हारे प्राणों में विद्धेष हो तो उसे शीघ्र ही जड़ से निकाल फेंको । विद्धेष की तीव्र उत्तेजना से क्षणिक रज:पूर्ण बल आसानी से जागृत होता है और शीघ्र ही क्षीण हो दुर्बलता में परिणत हो जाता है । जिन्होंने देशोद्धार करने की प्रतिज्ञा की है और उसके लिये अपने प्राण उत्सर्ग करना चाहते हैं उनके अंदर प्रबल मातृभाव, कठोर उधमशीलता, लौहसम दृढ़ता और ज्वलंत-अग्निलुल्य तेज का संचार करो, उसी शक्ति से हमें अटूट बल प्राप्त होगा और हम होंगे चिरविजयी ।

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