श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य

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Sri Aurobindo

All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

The Complete Works of Sri Aurobindo (CWSA) Writings in Bengali and Sanskrit Vol. 9 715 pages 2017 Edition
Bengali
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All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य 528 pages 1999 Edition
Hindi Translation
Translator:   Hriday  PDF    LINK

ऋग्वेद

 

भूमिका

 

    ''आर्य"  पत्रिका में ''वेद रहस्य" में वेदसंबंधी जो नवीन मत प्रकाशित हो रहा है उसी मत के अनुसार यह अनुवाद है । उस मत के अनुसार वेद का यथार्थ अर्थ आध्यात्मिक है, किन्तु गुह्य और गोपनीय होने के कारण अनेक उपमाओं, सांकेतिक शब्दों, बाह्य यज्ञ-अनुष्ठानों के उपयुक्त वाक्यों द्वारा वह अर्थ आवृत है । आवरण साधारण मनुष्यों के लिये अभेध था, पर दीक्षित वैदिक लोगों के लिये झीना और सत्य का सर्वांङ  प्रकाशक वस्तु-मात्र था । उपमा इत्यादि के पीछे इस अर्थ को खोजना होगा । देवताओं के ''गुप्त नाम'' तथा उनकी अपनी-अपनी क्रियाओं, ''गो'', ''अश्व'', ''सोमरस'' इत्यादि सांकेतिक शब्दों के अर्थो, दैत्यों के कर्मो और गूढ़ अर्थो, वेद के रूपकों, गाथाओं (myths) इत्यादि का तात्पर्य जान लेने पर वेद का अर्थ मोटे तौर पर समझ में आ जाता है । निस्संदेह, उसके गूढ़ अर्थ की वास्तविक और सूक्ष्म उपलब्धि विशेष ज्ञान और साधना का फल है, बिना साधना के केवल वेदाध्ययन से वह नहीं होती ।

     इस सकल वेदतत्त्व को अपने पाठकों के सम्मुख रखने की इच्छा है । अभी तो वेद की केवल मुख्य बात ही संक्षेप में बतायेंगे । यह है : जगत् ब्रम्हमय है, पर ब्रम्हतत्त्व मन के लिये अज्ञेय है । अगस्त्य  ऋषि ने कहा है : तद् अदभुतम् अर्थात् सबसे ऊपर और सबसे अतीत, कालातीत है वह । आज या कल कब कौन उसे जान सका है ? और सबकी चेतना में उसका संचार होता है, किंतु मन यदि नजदीक जाकर निरीक्षण करने की चेष्टा करता है तो तत् अदृश्य हो जाता है । केनोपनिषद् के रूपक का भी यही अर्थ है, इन्द्र ब्रम्ह् की ओर धावित होते हैं, निकट जाते ही ब्रम्ह अदृश्य हो जाता है । फिर भी तत् ''देव''-रूप में ज्ञेय है ।

    ''देव'' भी ''अदभुत'' हैं किंतु त्रिधातु के अंदर प्रकाशित अर्थात् देव सन्मय, चित्-शक्तिमय, आनंदमय हैं । आनंदतत्त्व में देव को प्राप्त किया जा सकता है । देव नाना रूपों में विविध नामों से जगत् में व्याप्त हैं और उसे धारण किये हुए हैं । नाम-रूप हैं वेद के सब देवता ।

     वेद में कहा गया है कि दृश्य जगत् के ऊपर और नीचे दो समुद्र हैं । नीचे अप्रकेत ''हृध'' व हृत्समुद्र है, अंग्रेजी में जिसे अवचेतन (subconscient) कहते हैं,-ऊपर सत्-समुद्र है जिसे अंग्रेजी में अतिचेतन (superconscient) कहते हैं । दोनों को ही

 

    सन् १९१४ से १९१९ तक प्रकाशित ''आर्य'' पत्रिका में श्रीअरविन्द ने ''वेद-रहस्य'' शीर्षक से जो लेखमाला लिखी थी यहां उसी की तरफ संकेत है ।

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गुहा या गुह्यतत्त्त कहा जाता है । ब्राम्हणस्पति अप्रकेत से वाक् द्वारा व्यक्त को प्रकट करते हैं, रुद्र प्राणतत्त्व में प्रविष्ट हो रुद्र-शक्ति द्वारा विकास करते हैं, जोर लगाकर ऊपर की ओर उठाते हैं, भीम ताड़ना द्वारा गंतव्य पथ पर चलाते हैं, विष्णु व्यापक शक्ति द्वारा धारण कर इस नित्यगति के सत्-समुद्र या जीवन की सप्त नदियों के गंतव्य स्थल की ओर ले जाते हैं । अन्य सभी देवता हैं इस गति के कार्यकर्ता, सहाय और साधन ।

    सूर्य सत्य-ज्योति के देवता हैं, सविता-सृजन करते हैं, व्यक्त करते हैं, पूषा-पोषण करते हैं, ''सूर्य''- अनृत और अज्ञान की रात्रि में से सत्य और ज्ञानालोक को जन्म देते हैं । अग्नि चित्-शक्ति के ''तप:'' हैं, जगत् का निर्माण करते हैं, जगत् की वस्तुओं में विद्यमान हैं । वह भूतत्त्व  में हैं अग्नि, प्राणतत्त्व  में कामना और भोगप्रेरणा, जो पाते हैं भक्षण करते हैं; मनस्तत्त्व  में हैं चिन्तनमयी प्रेरणा और इच्छाशक्ति और मन से परे के तत्त्व में ज्ञानमयी क्रियाशक्ति के अधीश्वर ।

 

कुछ चुने हुए सूक्त

 

प्रथम मण्डल-सूक्त १

 

मूल, अर्थ और व्याख्या

 

अग्निमीणे पुरोहितं यज्ञस्व देवम् ॠत्विजम | होतारं रत्नधातमम् ||१||

 

     मैं अग्नि की उपासना करता हूं जो यज्ञ के देव, पुरोहित, ऋत्विक, होता एवं आनंद-ऐश्वर्य का विधान करने में श्रेष्ठ हैं ।

     र्ड़णे-भजामि, प्रार्थये, कामये । उपासना करता हूं ।

     पुरोहितम्-जो यज्ञ में पुर:, सामने स्थापित हैं; यजमान के प्रतिनिधि और यज्ञ के संपादक ।

     ॠत्विजम्--जो ॠतु के अनुसार अर्थात् काल, देश, निमित्त के अनुसार यज्ञ का संपादन करे ।

     होतारम्-जो देवता का आह्वान कर होम निष्पादन करे ।

     रत्नधा-सायण ने रत्न का अर्थ रमणीय धन किया है । आनंदमय ऐश्वर्य कहना यथार्थ अर्थ होगा । धा का अर्थ है जो धारण करता है या विधान करता है अथवा जो दृढ़तापूर्वक स्थापित करता है ।

 

३१५


अग्नि: पुर्वेभिॠषिभि: ईडयो  नृतनै: उत | स देवां एह  वक्षित ||२||

 

   जो अग्नि-देव प्राचीन ऋषियों के उपास्य थे वह नवीन ऋषियों के भी (उत) उपास्य हैं । क्योंकि वह देवताओं को इस स्थान पर ले आते हैं ।

    मंत्र के अंतिम चरण द्वारा अग्नि-देव के उपास्य होने का कारण निर्दिष्ट किया गया है । स शब्द उसी का आभास देता है ।

    एह वक्षति-इह आवहति । अग्नि अपने रथ पर देवताओं को ले आते हैं ।

 

    अग्निना  रयिमन्न्ववत् पोष्म् एव दियेदिये | यशसं वीरवत्त्मम् ||३||

 

     रयिम्-रत्न का जो अर्थ है वही रयि:, राध:, राय: इत्यादि का भी । फिर भी ''रत्न'' शब्द में ''आनंद'' अर्थ अधिक प्रस्फुटित है ।

     अन्नत्-अन्श्रुयात् । प्राप्त हो या भोग करे |

     पोषम् प्रभृति रवि के विशेषण हैं । पोषम् अर्थात् जो पुष्ट होता है, जो वृद्धि को प्राप्त होता है ।

     यशसम्-सायण ने यश का अर्थ कभी तो कीर्ति किया है और कभी अन्न । असली अर्थ प्रतीत होता है सफलता, लक्ष्य-स्थान की प्राप्ति इत्यादि । दीप्ति अर्थ भी संगत है, किंतु यहां वह लागू नहीं होता ।

           अग्ने यं यज्ञम् अध्वरं विश्वत: परिभू:  असि | स इद् देवेषु   गच्छति ||४||

      जिस अध्वर यज्ञ को चारों ओर से व्यापे हुए तुम प्रादुर्भूत होते हो वही यज्ञ  देवताओं तक पहुंचता है ।

      अध्वरम्--'ध्वृ' धातु का अर्थ है हिंसा करना । सायण ने 'अध्वर' का अर्थ अहिंसित यज्ञ किया है । किंतु 'अध्वर' शब्द स्वयं यज्ञवाचक हो गया है । ''अहिंसित'' शब्द का ऐसा अर्थ-परिवर्तन कभी संभव नहीं । ''अध्वरन्'' का अर्थ है पथ, अतः अध्वर का अर्थ 'पथगामी' अथवा 'पथस्वरूप' ही होगा । यज्ञ था देवधाम जाने का पथ और यज्ञ देवधाम के पथिक के रूप में सर्वत्र विख्यात है । यही है संगत अर्थ । 'अध्वर' शब्द भी 'अध्वन्' की तरह 'अध्' धातु से बना है । इसका प्रमाण यह है कि 'अध्वा' और 'अध्वर' दोनों ही आकाश के अर्थ में व्यवहृत थे ।

 

परिभू:--परितो जात: (चारों ओर प्रादुर्भूत) ।

देवेषु-सप्तमी के द्वारा लक्ष्यस्थान निर्दिष्ट है ।

इत्-एव (ही) ।

३१६


अग्निर्होता कविक्रतु: सत्यश्चित्रश्रवस्तम: | देवो देवेभिरागमत् ||५||

 

यदअङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि | तवेत् सत्यमन्गिर:||६||

 

उप तवाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया   वयम् | नमो भरन्त एमसि ||७||

 

राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम् | वर्धमानं स्वे दमे ||८||  

 

स न: पितवे सुनवेऽग्ने सूपायनो भव | सचस्वा न: स्वस्तये ||९||

 

 

 

आध्यात्मिक अर्थ

 

   जो देवता होकर हमारे यज्ञ के कर्मनियामक पुरोहित, कालज्ञ, ॠत्विक् और हवि और आह्यान को वहन करनेवाला होता बनते हैं तथा अशेष आनंद और ऐश्वर्य का विधान करते हैं, उन्हीं तपोदेव अग्नि की मैं उपासना करता हूं  |।१।।

   प्राचीन ऋषियों की तरह आधुनिक साधकों के लिये भी ये तपोदेवता उपास्य हैं । वे ही देवताओं को इस मर्त्यलोक में ले आते हैं ।।२।।

   तप:-अग्नि द्वारा ही मनुष्य दिव्य ऐश्वर्य प्राप्त करता है । वही ऐश्वर्य अग्नि-बल से दिन-दिन वर्द्धित, अग्निबल से विजयस्थल की ओर अग्रसर तथा अग्निबल से ही प्रचुर वीर-शक्तिसंपन्न होता है ।।३।।

   हे तपः-अग्नि, जिस देवपथगामी यज्ञ के सब ओर तुम्हारी सत्ता अनुभूत होती है, वह आत्म-प्रयासरूपी यज्ञ ही देवताओं के निकट पहुंचकर सिद्ध होता है ।।४।।

  जो तप-अग्नि होता, सत्यमय हैं, जिनकी कर्मशक्ति सत्यदृष्टि  में स्थापित है, नानाविध ज्योतिर्मय श्रौत ज्ञान में जो श्रेष्ठ हैं, वही देववृंद को साथ ले यज्ञ में उतर आवें ।।५।।

  हे तप:-अग्नि, जो तुम्हें देता है तुम तो उसके श्रेय की सृष्टि करोगे ही, यही है तुम्हारी सत्य सत्ता का लक्षण ।।६।।

  हे अग्नि, प्रतिदिन, अहर्निश हम बुद्धि के विचार द्वारा आत्मसमर्पण को उपहार-स्वरूप वहन करते हुए तुम्हारे निकट आते हैं ।।७।।

  जो समस्त देवोन्मुख  प्रयास के नियामक, सत्य के दीप्तिमय रक्षक हैं, जो अपने धाम में सर्वदा वर्द्धित होते हैं, उन्हींके निकट हम आते हैं  ।।८।।

   जिस तरह पिता का सामीप्य संतान के लिये सुलभ है उसी तरह तुम भी हमारे लिये सुलभ होओ । दृढ़सगी बन कल्पाणगति साधित करो ।।९।।

 

३१७


विकल्प अनुवाद

 

   जो मेरे यज्ञ के पुरोहित और ॠत्विक् हैं, मेरे यज्ञ के होता हैं, प्रभूत आनन्द जिनका दान है उन तपोदेव अग्नि की मैं कामना करता हूं ।।१।।

   तपोदेवता ही प्राचीन ॠिषयों के काम्य थे, वे ही हैं नवीनों के भी काम्य । वे ही इस पृथ्वी पर देववृन्द को वहन कर ले आते हैं ।।२।।

   तपोदेव अग्नि द्वारा ही मानव उस वैभव का भोग करता है जिसकी प्रतिदिन वृद्धि होती है, जो यशस्वी है और वीर-शक्ति से परिपूर्ण है ।।३।।

   हे अग्नि तपोदेव, जिस देवपथगामी यज्ञ को चारों ओर से तुम अपनी सत्ता से परिवेष्टित  करते हो, वही कर्म देवमण्डल में पहुंच लक्ष्य स्थान को प्राप्त करता है ||४||

   तपोदेव अग्नि हमारे यज्ञ के होता, सत्य कविकर्मा, विचित्र, नाना स्तुतियों के स्रोता हैं । देवता दूसरे अन्य देवताओ को साथ ले हमारे समीप आते हैं ।।५।।

   हे अंगिरा अग्नि, यज्ञदाता के लिये लुप्त जो परम आनन्द व कल्याण की सृष्टि करोगे वही है परम सत्य ।।६।।

  अग्नि तपोदेवता, हम प्रतिदिन, अहोरात्र तुम्हारे पास चिन्तन में, मन में समर्पण भाव को वहन कर आते हैं ।।७।।

  तुम देवयात्री राजास्वरूप सत्य के गोप्ता स्व-भवन में सदा वर्द्धित हो सुदीप्ति को प्रकाशित करो ।।८।।

  पिता जैसे अपने पुत्र के लिये सहज गम्य होता है वैसे ही तुम भी सहज गम्य बनो । सदा हमारा कल्याण करो ।।९।।

 

 

व्याख्या

 

विश्व-यज्ञ

 

   विश्व-जीवन एक बृहत् यज्ञस्वरूप है । उस यज्ञ के देवता हैं स्वयं भगवान् और प्रकृति है यज्ञदाता । भगवान् हैं शिव और प्रकृति उमा । उमा अपने अंतर में शिव-रूप को धारण करने पर भी प्रत्यक्ष में शिवरूप-विरहित हैं, प्रत्यक्ष में शिव-रूप को पाने के लिये सर्वदा लालायित । यही लालसा है विश्व-जीवन का निगूढ़ अर्थ ।

    किंतु किस उपाय से मनोरथ सफल हो ? अपने स्वरूप को पा पुरुषोत्तम के स्वरूप को पाने का क्या उपाय है ? पुरुषोत्तम तक पहुंच पाने का कौन-सा पथ प्रकृति के लिये निर्दिष्ट है ? आंखों पर अज्ञान का आवरण, चरणों में जड़ता के सहस्र बंधन । स्थूल सत्ता ने मानों अनंत सत् को भी सांत में बांध लिया है, मानों [अनंत सत्] स्वयं

 

३१८


भी बंदी हो गया है, स्वयंरचित इस कारागार की खोयी चाभी अब और हाथ नहीं लग रही । जड़-प्राणशक्ति के अवश संचार से अनंत, उन्मुक्त, चित्-शक्ति विमूढ़, निलीन, अभिभूत, अचेतन हो गयी है जैसे । अनंत आनंद तुच्छ सुख-दुःख के अधीन प्राकृत चैतन्य बन छद्मवेश में घूमते-घूमते अपने स्वरूप को ही भूल गया है मानों, अब उसे खोज ही नहीं पाता, खोजते-खोजते दुःख के और भी असीम पंक में निमज्जित हो जाता है । सत्य मानों अनृत की द्विधामयी तरंग में डूब गया है । मनसातीत विज्ञानतत्त्व में अनंत सत्य का आधारस्थल है । विज्ञानतत्त्व  की क्रीड़ा पार्थिव चैतन्य के लिये या तो निषिद्ध है या स्वल्प और विरल, मानो परदे के पीछे के क्षणिक विधुत् का उन्मेष भर हो । यहां सिर्फ सत्य और अनृत के बीच दोलायमान भीरु, खंज, विमूढ़ मानसतत्त्व घूम-फिरकर सत्य को खोजता रहता है, पाकर भी खो देता है, क्षण-भर सत्य के एक पहलू को पकड़ लेने पर दूसरे पहलू को पकड़ने को कोशिश में पहला हाथ से फिसल जाता है । मानसतत्त्व बहुत प्रयास करने पर सत्य का आभास या सत्य का भग्नांश पा सकता है, लेकिन सत्य का पूर्ण और यथार्थ ज्योतिर्मय अनन्त रूप उसकी पहुंच के बाहर है । जैसे ज्ञान में वैसे ही कर्म में भी वही विरोध, वही अभाव, वही विफलता । सहज सत्यकर्म के हास्यमय देवनृत्य के बजाय प्राकृत इच्छाशक्ति की शृंखलाबद्ध चेष्टा, सत्य-असत्य, पाप-पुण्य, वैध-अवैध, कर्म-अकर्म-विकर्म के जटिल पाश में वृथा छटपटाया करती है । वासनाहीन, वैफल्यहीन, आनंदमय, प्रेममय, ऐक्यरस में मत्त भागवती क्रियाशक्ति की गति मुक्त, अकुंठित, अस्खलित होती है, उसका सहज-स्वाभाविक विश्वमय संचारण प्राकृत इच्छाशक्ति के लिये असंभव है । इस तरह से सांत के अनृत जाल में पड़ी इस पार्थिव प्रकृति के लिये उस अनंत सत्, उस अनंत चित्-शक्ति, उस अनंत आनंद-चैतन्य को प्राप्त करने की भला क्या आशा है, उपाय ही क्या है ?

   यज्ञ ही है उपाय । यज्ञ का अर्थ है आत्म-समर्पण, आत्म-बलिदान । जो कुछ तुम हो, जो कुछ तुम्हारा है, जो कुछ भविष्य में निज चेष्टा से या देवकृपा से बन सकते हो, जो कुछ कर्मप्रवाह में अर्जन या संचय कर सको, सब उसी अमृतमय को लक्ष्य कर हवि रूप में तप:-अग्नि में डालो । अल्प सर्वस्व का दान करने से अनंत सर्वस्व प्राप्त करोगे । यज्ञ में योग निहित है । योग में आनन्त्य, अमरत्व और परमतत्त्व के परमानन्द की प्राप्ति विहित है । यही है प्रकृति के उद्धार का पथ ।

   जगती देवी इस रहस्य को जानती हैं  । अतएव उस विपुल आशा से वह अनिद्रित, अशांत, दिन-रात, मास पर मास, वर्ष पर वर्ष, युग पर युग यज्ञ ही करती जा रही हैं । हमारे सभी कर्म, सभी प्रयास, समस्त ज्ञान, समस्त द्वेष, समस्त भ्रम, सुख-दुःख हैं उसी विश्व-यज्ञ के अंगमात्र । जगती देवी ने स्थूल  की सृष्टि कर विश्वमय अग्नि के जठर में उसे डाल दिया है, बदले में पाया है प्राण-शक्ति का संचार जीव में, उदभिद  में, धातु में । किंतु प्राण-शक्ति प्रकृति का स्वरूप नहीं, प्राणमय पुरुषोत्तम नहीं । जगती

 

३१९


देवी ने जगत् के सभी प्राणियों को और उनके सारे प्रयासों को वैश्वानर अग्नि के क्षुधित जठर में डाल दिया है, बदले में पाया है मन:शक्ति का संचार पशु में, पक्षी में, मानव में । पर मन:शक्ति भी प्रकृति का स्परूप नहीं, मनोमय पुरुष पुरुषोत्तम नहीं । जगती देवी ने जगत् के सभी प्रेम-द्वेष, हर्ष-दुःख में, सुख-वेदना, पाप-पुण्य, ज्ञान- विज्ञान में, चेष्टा-अविष्कार, मति और मनीषा-बुद्धि को विश्व-मानव अग्नि के अनन्त जठर में डाल दिया है, बदले में पायेंगी विज्ञान-तत्त्व का उन्मुक्त  द्वार , अनन्त सत्य का पथ, विश्व-पर्वत के आनन्द-शिखर पर आरोहण, अनन्तधाम में अनन्त पुरुषोत्तम का आलिंगन ।

     पायेंगी, अभीतक पाया नहीं है । क्षीण आशा की रेखा-भर काल-गगन में दिखायी दी है । अतएव अनवरत यज्ञ चल रहा  है, देवी जो कुछ भी उत्यादित कर पायी है उसी की बलि देती जा रही हैं । वे जानती हैं कि सभी के अंदर वही लीलामय अकुण्ठित मन से लीला का रसास्वादन कर रहे हैं, यज्ञ मानकर सभी चेष्टाओं, सभी तपस्याओं को ग्रहण कर रहे हैं । वे ही विश्व-यज्ञ को धीरे-धीरे, घुमा-फिरा, सर्पिल गति से, उत्थान-पतन द्वारा, ज्ञान में, विज्ञान में, जीवन में, मरण में निर्दिष्ट पथ से निर्दिष्ट गंतव्य धाम की ओर सर्वदा ही आगे ही आगे बढ़ाते जा रहे हैं । उन्हीं के भरोसे प्रकृति देवी तो हैं निर्भीक, अकुण्ठित और निश्चिन्त । सर्वत्र और सर्वदा ही भागवती प्रेरणा को समझ सर्जन और हनन, उत्पादन और विनाश, ज्ञान-अज्ञान, सुख-दुःख, पाप-पुण्य, पक्व-अपक्व, कुत्सित, सुन्दर, पवित्र, अपवित्र जिसे भी हाथ में पाती हैं, सभी का उसी बृहत् चिरंतन होमकुण्ड में निक्षेपण कर रही हैं । स्थूल है सूक्ष्म यज्ञ की हवि:, जीव है यज्ञ का बद्ध पशु । यज्ञ के मन-प्राण-तन रूपी त्रिबन्धनयुक्त यूपकाष्ट से जीव को बांधे रख प्रकृति अहरह उसकी बलि चढ़ाती जा रही है । मन के बन्धन हैं अज्ञान, प्राण के बंधन हैं दुःख, कामना और विरोध और देह का बंधन है मृत्यु  ।

      प्रकृति का उपाय तो निर्दिष्ट हुआ किंतु इस बद्ध जीव का क्या उपाय हो ? उसका निस्तार न होने से प्रकृति का भी उद्देश्य सिद्ध नहीं होता, इसीलिये उपाय तो अवश्य है लेकिन वह है क्या ? उपाय है यज्ञ, आत्मदान, आत्मबलि । पर प्रकृति के अधीन न हो, स्वयं उठ खड़े हो, यजमान बन सर्वस्व दे देना होगा । यही विश्व का निगूढ़ रहस्य है कि पुरुष ही जैसे यज्ञ का देवता है, वैसे ही पुरुष ही यज्ञ का पशु है । जीव ही पशुरूप है । पुरुष ने अपने मन, प्राण और शरीर को बलि-रूप में, यज्ञ के प्रधान उपाय-रूप में, प्रकृति के हाथ समर्पित कर दिया है । उनके इस आत्मदान में यह गुप्त उद्देश्य निहित है कि एक दिन चैतन्य प्राप्त कर, प्रकृति को अपने हाथ में ले, प्रकृति को अपनी इच्छा-अनुकूल दासी, प्रणयिनी और यज्ञ को सहधर्मिणी बना वह स्वयं निर्दोष यज्ञ संपन्न करेंगे । इसी गुप्त कामना को पूरी करने के लिये हुई है नर की सृष्टि । पुरुषोत्तम नर-मूर्ति में वही लीला करना चाहते हैं । आत्मस्वरूप, अमरत्व, सनातन आनन्द का विचित्र आस्वादन, अनंत ज्ञान, अबाध शक्ति, अनंत प्रेम का भोग

 

३२०


नर-देह में, नर-चैतन्य में करना होगा । यह सब आनंद तो  पुरुषोत्तम के अपने अंदर है ही, पुरुष अपने अंदर सनातन रूप से सनातन भोग कर रहे हैं । किंतु मानव की सृष्टि कर, बहु में एकत्व, सांत में अनंत, बाह्य में आंतरिकता, इंद्रिय में अतीन्द्रिय, पार्थिव में अमर लोकत्व, इस विपरीत रस को ग्रहण करने में वे तत्पर हैं । पहले दोनों के बीच अविद्या द्वारा भेद-भाव का सर्जन कर भोग करने की इच्छा, बाद में अविद्या को विद्या के और विद्या को अविद्या के आलिंगन में बांध एकत्व में द्विधत्व को सुरक्षित रख एक ही आधार में, एक साथ संभोग द्वारा दोनों बहनों का पूर्ण भोग करेंगे । जागरण के दिनतक हमारे अंदर मन के ऊपर, बुद्धि के उस पार, गुप्त सत्यमय विज्ञानतत्त्व  में बैठ, फिर हमारे ही अंदर हृदय के पीछे चित्त का जो गुप्त स्तर है, जहां हृदय-गुहा है, जहां अंतर्निहित गुह्य चैतन्य का समुद्र है, हृदय, मन, प्राण, देह और अहंकार जिस समुद्र की छोटी-छोटी तरंगें हैं, वहीं बैठ वह पुरुष प्रकृति के अंध प्रयास, अंध अन्वेषण, द्वंद्व और प्रतिघात द्वारा ऐक्य स्थापन की चेष्टा का विविध रसास्वादन अनुभव करते हैं । ऊपर सज्ञान भोग है, नीचे अज्ञानपूर्ण भोग, इस प्रकार दोनों एक संग चल रहे हैं । किंतु चिरकाल इसी अवस्था में मग्न रहने से उनकी निगूढ़ प्रत्याशा, उनका चरम उद्देश्य सिद्ध नहीं होता । इसीलिये प्रत्येक मनुष्य के जागरण का दिन विहित है । अंतरस्थ देवता एक दिन अवश पुण्यहीन प्राकृत आत्म-बलि त्याग कर सज्ञान समंत्र यज्ञ संपादन करना आरंभ करेंगे; सभी प्राणियों के लिये यह निर्धारित है ।

     यही सज्ञान समंत्र यज्ञ  है वेदोक्त ''कर्म'' । उसका उद्देश्य है द्विविध, विश्वमय बहुत्व में संपूर्णता, जिसे वेद में विश्वदेव्य और वैश्वानरत्व कहा गया है, और उसके साथ एकात्म परम-देवसत्ता में अमरत्व लाभ । जब विश्वदेव्य कहता हूं तो समझना चाहिये ये वेदोक्त देवतागण अर्वाचीन, साधारण लोगों के हेय इन्द्र अग्नि, वरुण नामक तुच्छ देवता नहीं, ये हैं भगवान् की ज्योतिर्मयी शक्तिसंपन्न नाना मूर्तियां । और यह अमरत्व पुराणोक्त तुच्छ स्वर्ग नहीं, है वैदिक ऋषियों का अभिलषित स्वर्लोक, जन्म-मृत्यु के उस पार परम धाम अनंत लोक का आधार, वेदोक्त अमरत्व, सच्चिदानंदमय अनंत सत्ता  और चैतन्य । मानव के अंदर देवत्व का जागरण, मानव-आधार में सभी देवताओं के गठन, उन्हीं देवगणों के एकीभूत बहुत्व को अपने में प्रतिष्ठित कर परम देवत्व की सत्ता की ओर चरम आरोहण और उसी जगतबन्धु गोपाल' की गोद में आनंद की लीला-यही है वेद में उल्लिखित यज्ञ का उद्देश्य ।

 

    १ वैदिक शब्द । भगवान् का गोपलत्व पुराण की सृष्टि नहीं, यह है वैदिक उपमा |

 

३२१


तपोदेव अग्नि

 

    इस यज्ञ में जीव ही है यजमान्, गृहस्वामी, जीव की प्रकृति गृहपत्नी यजमान की सहधर्मिणी, परंतु पुरोहित कौन होगा ? जीव यदि स्वयं अपने यज्ञ में पुरोहिताई करने जाये तो कहा जा सकता है कि यज्ञ के सुचारु रूप से परिचालित होने की कोई आशा नहीं; कारण जीव अहंकार द्वारा चालित होता है, मानसिक, प्राणिक और दैहिक त्रिविध बंधनों से विजड़ित होता है । ऐसी अवस्था में अपने-आप पुरोहिताई करने पर अहंकार ही होता, ॠत्विक्, यहांतक कि यज्ञ का देवता भी बन बैठता है और फिर अवैध यज्ञ-विधान के कारण महत् अनर्थ घटित होने की आशंका होती है । सबसे पहले नितांत बद्ध अवस्था से वह मुक्ति चाहता है । और यदि बंधनमुक्त होना हो तो अपनी शक्ति से भिन्न अन्य शक्ति का आश्रय लेना ही होगा । त्रिविघ यूप-रज्जु के शिथिलीकरण के बाद भी यज्ञ करने योग्य निर्दोष ज्ञान और शक्ति हठात् प्रादुर्भूत या सत्वर गठित नहीं होतीं । दिव्यज्ञान और दिव्यशक्ति की आवश्यकता है, उसका आविर्भाव और सुगठन यज्ञ द्वारा ही संभव है । और जीव के मुक्त हो जाने पर भी, दिव्यज्ञानी और दिव्य-शक्तिमान् हो जाने पर भी यज्ञ के भर्ता अनुमंता ईश्वर यज्ञफल के भोक्ता होते हैं, किंतु कर्मकर्ता नहीं । देवता को ही पुरोहित-रूप में वरण कर वेदी पर संस्थापित करना होगा । जबतक देवता स्वयं मानव-हृदय में प्रविष्ट, प्रकाशित और प्रतिष्ठित नहीं हो जाते तबतक मनुष्य के लिये देवत्व और अमरत्व प्राप्त करना असाध्य है; यह ठीक है कि देवता के जाग्रत् होने से पहले उस बोधन के लिये मंत्रद्रष्टा ऋषिगण यजमान का पौरोहित्य स्वीकार करते हैं, वशिष्ठ और विश्वामित्र सुदास, त्रसदस्पु और भरतपुत्र के होता बनते हैं किंतु देवता का आह्वान करने पर वेदी पर पुरोहित और होता का स्थान देने के लिये ही होता है मंत्रप्रयोग और हवि:प्रयोग । देवता यदि अंतर में जाग्रत् न हों तो कोई भी जीव को तार नहीं सकता । देवता ही हैं त्राणकर्ता । देवता ही हैं यज्ञ के एकमात्र सिद्धिदाता पुरोहित ।

     देवता जब पुरोहित होते हैं तब उनका नाम होता है अग्नि, उनका रूप भी होता है अग्निस्वरूप । अग्नि का पौरोहित्य है सर्वांग सुन्दर और सफल यज्ञ का मुख्य साधन और प्रारंभ । इसीलिये ॠग्वेद के प्रथम मण्डल के प्रथम सूक्त की प्रथम ॠचा में ही अग्नि का पौरोहित्य निर्दिष्ट किया गया है ।

      यह अग्नि कौन है ? 'अग्' धातु का अर्थ है 'शक्ति', जो शक्तिमान् है वही है अग्नि । 'अग्' धातु का दूसरा अर्थ है आलोक या ज्वाला, जो शक्ति ज्वलंत ज्ञान के आलोक से उद्भभासित है, ज्ञान का कर्मबल-स्वरूप है, उस शक्ति का शक्तिधर है अग्नि । 'अग्' धातु का अन्य अर्थ है पूर्वत्व और प्रधानत्व, जो ज्ञानमय शक्ति जगत् का आदि-तत्त्व है और जगत् की अभिव्यक्त सभी शक्तियों का मूल और प्रधान है, उसी शक्ति का शक्तिधर है अग्नि । 'अग्' धातु का एक और अर्थ है नयन जगदादि

 

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सनातन-पुरातन प्रधान शक्ति के जो शक्तिधर जगत् को निर्दिष्ट  पथ से निर्दिष्ट गंतव्य धाम की ओर ले जा रहे हैं, जो कुमार देवसेना के सेनानी हैं, जो पथ के प्रदर्शक हैं, जो प्रकृति की नाना शक्तियों को ज्ञान से, बल से, उनके अपने-अपने व्यापार में प्रवर्तित कर सुपथ पर चलाते हैं वही शक्तिधर हैं अग्नि । वेद के सैकड़ों सूक्तों में अग्नि के ये सब गुण कथित और स्तुत हुए हैं । जगत् के आदि् जगत् के प्रत्येक स्फुरण में निहित, सब शक्तियों के मूल और प्रधान, सकल देवताओं के आधार, सकल धर्मो के नियामक, जगत् के निगूढ़ उद्देश्य तथा निगूढ सत्य के रक्षक यह अग्नि और कुछ नहीं स्वयं भगवान् के ओजः-तेज:-भ्राज:-स्वरूप    सर्वज्ञानमंडित परम ज्ञानात्मक तप:शक्ति हैं ।

  सच्चिदानंद का सत्-तत्त्व चिन्मय है । यही सत् का चिद बन जाती है सत् की शक्ति । चित्-शक्ति ही है जगत् का आधार, चित्-शक्ति ही है जगत् का आदिकरण और स्रष्ट्री, चित्-शक्ति ही है जगत् की नियामिका और प्राणस्वरूप । चिन्मयी जिस समय सत्-पुरुष के वक्षस्थल में मुंह छिपा, स्तिमित नयन से केवल सत्-स्वरूप का चिंतन करती हैं उस समय अनंत चित्-शक्ति निस्तब्ध रहती है, वही अवस्था है प्रलय की अवस्था, निस्तब्ध आनंदसागर-स्वरूप । और जब चिन्मयी मुंह ऊपर उठा नेत्र उन्मीलित कर सत्-पुरुष का मुखमण्डल तथा तनु प्रेमसहित हेरती हैं, सत्-पुरुष के अनंत नाम-रूप का ध्यान करती हैं, कृत्रिम विच्छेद-मिलन-जनित संभोग-लीला का स्मरण करती हैं तब उस आनंद का अजस्त्र प्रवाह उनके उमुक्त विक्षोभ की, विश्वानंद की अनंत तरंगों की सृष्टि करता है । चित्-शक्ति का यह विविध ध्यान, यह एकमुखी फिर भी बहुमुखी समाधि ही तप:शक्ति के नाम से अभिहित है । सत्-पुरुष जब किसी नाम-रूप का सृजन करने, किसी तत्त्व का विकास करने और किसी भी अवस्था को प्राप्त करने के लिये अपनी चित्-शक्ति को संगृहीत, संचालित तथा अपने विषय पर संस्थापित करते हैं तब तप:शक्ति प्रयुक्त होती है । यह तपःप्रयोग ही है योगेश्वर का योग । इसी को अंग्रेजी में 'डिवाइन विल' (Divine Will) अथवा 'कास्मिक विल' (Cosmic Will) कहते हैं । इसी 'डिवाइन विल' या तपःशक्ति द्वारा जगत् सृष्ट, चालित और रक्षित होता है । अग्नि ही है यह तप:शक्ति ।

     हम चित्-शक्ति के दो पक्ष देखते हैं-चिन्यय और तपोमय, सर्वज्ञान-स्वरूप और सर्वशक्ति-स्वरूप, किंतु यथार्थ में ये दोनों एक ही हैं । भगवान् का ज्ञान सर्वशक्तिमय है और उनकी शक्ति सर्वज्ञानमय । उनके प्रकाश का चिंतन करते ही प्रकाश की सृष्टि  का होना अनिवार्य है, क्योंकि उनका ज्ञान उनकी शक्ति का चिन्यय स्वरूप ही है । जगत् के किसी भी जड़-स्पन्दन में ज्ञान निहित है, जैसे, अणु के नृत्य में अथवा विधुत् के लम्फन में, क्योंकि उनकी शक्ति उनके ज्ञान का ही स्फुरण है । केवल  हमारे अंदर अविधा की भेद-बुद्धि में, अपरा प्रकृति की भेदगति में, ज्ञान और शक्ति विभिन्न, असम और मानों परस्पर कलहप्रिय हैं अथवा विसंगतिग्रस्त और खर्व हो पड़ी हैं

 

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अथवा क्रीड़ा के लिये उस तरह की असमता और कलह का ढोंग करती हैं । वास्तव में देखा जाये तो जगत् के क्षुद्रतम कर्म या संचरण में भगवान् का सर्वज्ञान और सर्वशक्ति निहित हैं, इसके बिना या इसके कम होने पर उस कर्म या संचरण को घटित कराने की शक्ति किसी में नहीं । जिस तरह ॠषि के वेदवाक्य में वा शक्तिधर महापुरुष  के युग-प्रवर्तन में, उसी तरह मूर्ख की निरर्थक वाचालता में अथवा आक्रांत क्षुद्र जीव की छटपटाहट में वही सर्वज्ञान और सर्वशक्ति प्रयुक्त होते हैं । हम सब जब ज्ञान के अभाव में शक्ति का अपव्यय करते हैं या शक्ति के अभाव में ज्ञान का निष्फल प्रयोग करते हैं तब सर्वज्ञानी और सर्वशक्तिमान् आड़ में बैठ उस शक्ति के प्रयोग को अपने ज्ञान द्वारा, उस ज्ञान-प्रयोग को अपनी शक्ति द्वारा संभालते और चलाते हैं और इसी कारण उस क्षुद्र चेष्टा द्वारा जगत् में कुछ घट जाता है । निर्दिष्ट कर्म संपन्न हो गया और उसका उचित कर्मफल भी साधित हुआ । उससे तुम्हारा-हमारा अज्ञ मनोरथ और प्रत्याशा व्यर्थ अवश्य हो जाती है किंतु उस विफलता द्वारा ही उनकी गूढ़  अभिसंधि सिद्ध होती है एवं उस विफलता द्वारा ही हमारे किसी छद्मवेशी कल्याण और जगत् के महान उद्देश्य के एक क्षुद्रतम अंश का क्षुद्र आंशिक पर अत्यावश्यक उपकार साधित होता है । अशुभ, अज्ञान और विफलता हैं छद्मवेश-मात्र । अशुभ में शुभ, अज्ञान में ज्ञान, विफलता में सफलता और शक्ति गुप्त रूप से विधमान रहकर अप्रत्याशित कर्म संपादन करती हैं । तप:-अग्नि की निगूढ़ अवस्थिति है इसका कारण । यह अनिवार्य शुभ, यह अखंडनीय ज्ञान, यह अचूक शक्ति है भगवान् का अग्नि-रूप । जैसे सतपुरुष का चित् और तप: एक हैं, जैसे दोनों ही आनंद के स्पंदन हैं, वैसे ही उनके प्रतिनिधि-स्वरूप इस अग्नि का ज्ञान और शक्ति अविच्छिन्न हैं तथा दोनों ही हैं शुभ और कल्याणकारी ।

     जगत् की बाहरी आकृति दूसरी तरह की है, वहां अनृत, अज्ञान, अशुभ, विफलता ही प्रधान हैं । परंतु बच्चे को डरानेवाले मुखौटे के भीतर मातृमुख छिपा है । यह अचेतन, यह जड़, यह निरानंद है प्रहेलिका-मात्र । भीतर आसीन हैं जगत्पिता, जगन्माता, जगदात्मा सच्चिदानंद । इसीलिये वेद में हमारी साधारण चेतना रात्रि नाम से अभिहित है । हमारे मन का चरम विकास भी है ज्योत्सना-पुलकित तारा-नक्षत्र-मंडित भगवती रात्रि का विहार-मात्र । किंतु इसी रात्रि की गोद में उसकी भगिनी दैवी उषा अनंत-प्रसूत भावी दिव्य ज्ञान का आलोक लिये छिपी बैठी है  । पार्थिव चेतना की इस रात्रि में भी 'तप:-अग्नि' बार-बार जाज्वल्यमान हो उषा की आभा से आलोक फैलाते हैं । 'तप:-अग्नि' ही अंध जगत् में सत्य-चैतन्यमयी उषा के जन्म-मुहूर्त्त की तैयारी कर रहे हैं । परम देव ने इस 'तप:-अग्नि' को जगत् में भेजा और स्थापित किया है, प्रत्येक पदार्थ और जीव-जंतु के अंतर में निहित हो विश्व की समस्त गति का नियमन अग्नि-देव ही कर रहे हैं । क्षणिक अनृत में वह अग्निदेव ही हैं चिरंतन सत्य के रक्षक, अचेतन और जड़ में अग्नि ही हैं अचेतन की निगूढ़ चेतना, जड़ की

 

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प्रचंड गति-शक्ति । अज्ञान के आवरण में अग्नि ही हैं भगवान् का गूढ़ ज्ञान, पाप की विकृति में अग्नि ही हैं उनकी सनातन अकलंक शुद्धता, दुःख-दैन्य के विषण्ण कुहासे में अग्नि ही हैं उनका ज्वलंत विश्वभोगी आनंद । दुर्बलता और जड़ता के मलिन वेश में अग्नि ही हैं उनकी सर्ववाहक, सर्वक्षम, दक्ष क्रियाशक्ति । एक बार इस काले आवरण को भेद यदि हम अग्नि को अपने अंतर में प्रज्वलित, प्रकाशित, उन्मुक्त और ऊर्ध्वगामी बना सकें तो वही दैवी उषा को मानव चैतन्य में ला, देवताओं को भीतर जगा अनृत, अज्ञान, निरानंद और विफलता के काले आवरण को दूर हटा हमें अमर और देवभावापन्न बना देंगे । अग्नि ही हैं अंतरस्थ देवता का प्रथम और प्रधान जाग्रत् रूप । उन अग्नि को हृदय-वेदी में प्रज्वलित कर, पौरोहित्य के लिये वरण करते हैं । उनकी सर्वप्रकाशक ज्वाला है ज्ञान, सर्वदाहक और पावक ज्वाला है शक्ति । उन ज्ञानमय, शक्तिमय, ज्वलंत अग्नि में अपने इन सब तुच्छ सुख-दुःखों को, इन सब क्षुद्र परिमित चेष्टाओं और विफलताओं को, इस समस्त मिथ्यापन और मृत्यु को समर्पित करते हैं । पुरातन और अनृत भस्मीभूत हो जाने दो, नवीन और सत्य जाज्वल्यमान सावित्री-रूप में गगनस्पर्शी तप:-अग्नि से आविर्भूत होंगे ।

     भूलना मत कि सभी हमारे अंतर में हैं; मनुष्य के भीतर ही अग्नि है, भीतर ही हैं वेदी, हवि और होता, भीतर ही हैं ऋषि-मंत्र और देवता, भीतर ही हैं भ्रमह का वेदगान, भीतर ही हैं  भ्रमहद्वेषी राक्षस और देवद्वेषी दैत्य, भीतर ही हैं वृत्र और वृत्रहंता, भीतर ही हैं देव-दानव युद्ध भीतर ही हैं वशिष्ठ, विश्वामित्र, अंगिरा, अत्रि, भृगु, अथर्वा, सुदास, त्रसदस्यु , दासजाति और पंचविध भ्रम्हान्येषी आर्यगण । मनुष्य को आत्मा और जगत् एक हैं । उसके भीतर ही है दूर और निकट, दस दिशाएं, दो समुद्र, सात नदियां और सात भुवन । हमारा यह पार्थिव जीवन दो गुप्त समुद्रों के बीच अभिव्यक्त है । नीचे का समुद्र वह गुप्त अनंत चैतन्य है जिससे ये समस्त भाव और वृत्तियां, नाम और रूप अहरह प्रति मुहूर्त्त प्रादुर्भूत होते हैं जैसे प्रस्फुटित होते हैं भगवती रात्रि की गोद में तारा-नक्षत्र । आधुनिक भाषा में इसे निश्चेतना  (inconscient) अथवा (subconscient) कहते हैं, वेद का अप्रकेतं सलिलम्, प्रज्ञाहीन समुद्र । प्रज्ञाहीन होने पर भी यह अचेतन नहीं है, इसके अंदर प्रज्ञातीत विश्व-चैतन्य सर्वज्ञान में ज्ञानी, सर्वकर्म में समर्थ हो मानो अवश संचरण द्वारा जगत् की सृष्टि और गति संपादित करता है । ऊपर है गुहय मुक्त अनन्त चैतन्य जिसे अतिचैतन्य (superconscient) कहते हैं, जिसकी छाया है यह अचेतन-चेतन । वहां सच्चिदानंद जगत् में पूर्णत: अभिव्यक्त हैं, सत्यलोक में अनंत सत्-रूप में, तपोलोक में अनंत चित्-रूप में, जनलोक में अनंत आनंद-रूप में और महर्लोक में विशाल विश्वा त्मा के सत्य-रूप में । मध्यस्थ पार्थिव चैतन्य है वेदोक्त पृथिवी । इसी पृथिवी से जीवन का आरोहणीय पर्वत गमन  की ओर उठता है, उसका प्रत्येक सानु है आरोहण का एक सोपान, प्रत्येक सानु है सत्यलोक के एक लोक का अंतस्थ राज्य । देवगण आरोहण के सहायक हैं, दैत्यगण शत्रु और

 

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पथरोधक । यह पर्वतारोहण ही है वैदिक साधक की यज्ञगति, यज्ञसहित परम लोक में, परम आकाश में, आलोक-समुद्र में ऊपर उठना होगा । यह अग्नि ही है आरोहण का साधन-स्वरूप, इस पथ का नेता, इस युद्ध का योद्धा और इस यज्ञ का पुरोहित । वैदिक कवियों का अध्यात्म-ज्ञान इसी मूल उपमा पर प्रतिष्ठित  है, जैसे वृन्दावनवासी प्रेमी गोप-गोपियों पर वैष्णवों का राधा-कृष्ण -विषयक सकल ज्ञान । इस उपमा का अर्थ सर्वदा मन में रखने से वेदतत्त्व को हृदयंगम करना आसान हो जाता है ।

 

प्रथम मण्डल--सूक्त २

 

     हे सर्वद्रष्टा जीवनदेव वायु, आओ । तुम्हारे लिये यहां प्रस्तुत है आनंद का मध रस । इस आनंद मधरस का पान करो, सुनो यह आहायन , जब पुकारूं, सुनो ।।१।।

    

     जीवन देवता, तुम्हारे प्रणयीजन अपने उक्थों से तुम्हारी उपासना करते हैं, उनके आनंद रस प्रस्तुत हैं, तुम्हारे दिन की ज्योति उनको प्राप्त है ।।२।।

 

     जीवन देवता, दाता के लिये तुम्हारी भरी प्राण-नदी स्पर्श करती हुई बह रही है, आनंद मध का पान करने के लिये उसकी धारा विशाल और विस्तृत बन गयी है ।।३।।

 

     इन्द्र और वायु, यही वह आनंद मध रस है, सकल श्रेयों को लेकर आओ । सोम और देवतागण तुम दोनों की कामना करते हैं ।।४।।

 

     विभव से धनवान् इन्द्र  और वायु, तुम दोनों आनंद-रस की चेतना को जगा दो । दौड़े आओ ।।५।।

 

     इन्द्र और वायु, त्रिदेव के नर, अपने यथार्थ चिंतन को ले  इस सु-सिद्ध आनंद-रस के भोग के लिये शीघ्र उपस्थित होओ ।।६ ।।

     पवित्र बुद्धि मित्र का, नाशक परिपन्थी  को विनष्ट  करनेवाले वरुण का आहायान करता हूं, जो ज्योतिर्मय हैं, सत्य के आलोकमय चिन्तन की साधना करते हैं ।।७।।

 

     मित्र और वरुण, तुम सत्य की वृद्धि करते हो, सत्य का स्पर्श करते हो, सत्य द्वारा वृहत् कर्म-शक्ति प्राप्त कर भोग करो ।।८।।

     मित्र व वरूण हैं हमारे दो द्रष्टा कवि, बहुविध जन्म हैं उनके, उरु अनन्त लोक है उनकी वास-भूमि । कर्म करते समय वे ज्ञानशक्ति को सम्मुख धारण करते हैं ।।९।।

 

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प्रथम मण्डल--सूक्त ३

 

   द्रुतपद, अश्विद्व्य , बहुभोगी, आनन्दपति, हमारी कर्म-प्रसूत सभी प्रेरणाओं में आनन्द लो ।।१।।

 

   बहुकर्मी, मनस्वी नर अश्विदय, तुम अपने तजोमय चिन्तन में हमारी सकल उक्तियों को स्थान दे संभोग करो ।। २।।

 

   हे कर्मी पथिकद्वय ! प्रसृत हुआ है, उनका यौवन भरा आनन्द-रस स्थान, यह यज्ञासन; वह भी प्रस्तुत है । तीव्रगामी पथिक तुम सब आओ ।।३।।

 

   हे विचित्र-रश्मि से युक्त शक्तिधर इन्द्र, दस सूक्ष्म शक्तियों के हाथों यह सोमरस शरीर में पवित्र हो तुम्हारी कामना करता है ।।४।।

 

   आओ इन्द्र, हमारे चिन्तन तुम्हें पथ की प्रेरणा दे रहे हैं, द्रष्टा ऋषिगण सवेग पथ पर चला रहे हैं । सोमदाता ! आहनकारी के मंत्रों को वरण करने के लिये आओ ।।५।।

 

   हरिव-अश्व  के नियामक इन्द्र, मन्त्रों को वरण करने के लिये तीव्र गति से आओ;  इस सोमरस से हमें जो आनंद है तुम भी उसे अपने मन में धारण करो ।।६।।

 

   हे विश्वदेवगण ! तुम भी आओ जो द्रष्टा मानव के कल्याणकारी धारणकर्ता हैं, दाता का आनन्द-रस जो वितरण करते हैं ।।७।।

 

   हे विश्वदेवगण, स्वर्ग नदी को पार कर त्वरित आओ जहां सोमयज्ञ के मानो अपने-अपने विश्राम-स्थान में त्रिदिव के दीप्तगामी के झुण्ड हैं ।।८।।

 

   हे विश्वदेवगण, तुम सब हो प्रकाण्ड ज्ञानी, तुम्हारा कोई विरोधी नहीं, न ही कोई विनाशकारी । मेरे मन के इस यज्ञ को वहन करो, इसका वरण करो ।।९।।

 

   बहु वैभव से वैभवशालिनी, चिंतनधन से ऐश्वर्यमयी विश्वपावनी देवी सरस्वती, वे भी मानों मेरे इस यज्ञ कर्म की कामना करें ।।१०।।

 

   सरस्वती हैं सत्य वाक् के लिये प्रेरणादायिनी, सरस्वती हैं सुचिन्तन के लिये ज्ञान जागृत करनेवाली, मेरे यज्ञकर्म को अपने में धारण कर आसीन हैं ।।११।।

 

   सरस्वती मन की दृष्टि के बल पर चेतना के महासमुद्र को हमारे ज्ञान की वस्तु बना देती हैं । मेरे विचारों में आलोक का विस्तार कर वे आसीन हैं ।।१२।।

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प्रथम मण्डल--सूक्त  ४

 

    प्रतिदिन मानों उस सुन्दर रूपों के शिल्पी का, ज्ञानरश्मि का दोहन करने में कुशल उस दोहनकारी का आहवान करता हूं ।।१।।

 

    आनन्द-रस के आनन्दपायी, सोमयज्ञ में आओ । पान करो । प्रचुर ऐश्वर्य, तुम्हारी महत्ता ।।२।।

 

    तुम्हारे वे सब अंतरतम सुविचार हमारे ज्ञान में आते हैं । आओ, तुम्हारा प्रकाश हमसे परे उस पार न चला जाये ।।३।।

    

    अग्रसर होओ उस पार ही, शक्तिमान, अपराजित, आलोकित चित्त इन्द्र को प्राप्त करो, जो तुम्हारे सखाओं के लिये जो परम है उसी का विधान करेंगे ।।४।।

 

    जो हमारी सिद्धि की निन्दा करते हैं वे कहेंगे, ''जाओ, हो गया है, अन्य क्षेत्रों में भी साधना करो । इन्द्र में अपने कर्म को स्थापित करो ।।५।।

 

    हे कर्मी, ये आर्यगण भी हमें सौभाग्यशाली कहें । इन्द्र की शांति से हम आनन्द में वास करें ।।६।।

 

    तीव्र गतिवाले इन्द्र को इस तीव्र गति यज्ञश्री को, इस नरचित्त मत्तकारी को आनन्द-मदिरा लाकर दो । उन्हें पथ की प्रेरणा दो जो अपने सखाओं को आनन्द-मद से विभोर करते हैं ।।७।।

 

    हे शतकर्मी, इस आनन्द-रस का पान कर तुमने आवरणकारियों का विनाश किया है, ऐश्वर्यशाली मनुष्य को उसके ऐश्वर्य से वर्धित किया है ।।८।।

 

    हे इन्द्र शतकर्मी, ऐश्वर्य से ऐश्वर्यशाली हो तुम, ऐश्वर्य से ही तुम्हारा भरण करें; तुम हमारे होकर और भी ऐश्वर्यें को जय करोगे ।।९।।

 

    जो ऐश्वर्य की नदी हैं, जो महान् हैं, जो उस पार नित्य पथ पर पहुंचाते हैं, जो सोमदाता के सखा हैं उन्हीं इन्द्र का गान करें ।।१०।।

 

प्रथम मण्डल--सूक्त ५

 

    हे स्तोमवाहक सखागण, आओ, बोलो, इन्द्र के लिये गान करो ।।१।।

   

    बहु के मध्य जिसका बहुत्व श्रेष्ठ है, सभी कमनीय वस्तुओं के जो ईश्वर हैं, प्रकाश हैं-आनंद-रस का दोहन कर उसी इन्द्र के लिये गान करो ।।२।।

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    वे मानों योग द्वारा लभ्य लाभ के लिये, वे ईश्वर्य  और आनंद देने के लिये, वे इस पुरी को अधिष्ठात्री शक्ति से आविर्भूत होती है । मानों वे अपना सारा वैभव लेकर हमारे पास आते। हैं ।।३।।

 

    जिसके युद्ध में दीप्त अश्वों को शत्रु संग्राम में रोकने में असमर्थ हैं, उस इन्द्र की स्तुति करो ।।४।।

   

    वे आनन्द-रस को पवित्र करते हैं, पवित्र हो यही दधि-मिश्रित सोम पानार्थ उनके निकट जा रहा है ।।५।।

 

    हे सतकर्मी इन्द्र उसे पान करने, महत् से महत्तर बनने के लिये तुम उसी मुहूर्त्त स्वयं का विस्तार करो ।।६।।

 

    हे  मंत्र प्रिय, वही तीव्र गतिवान् आनन्द-रस मानों तुममें प्रवेश करे, तुम्हारे ज्ञानी मन को आनन्द दे ।।७।।

 

    हे शतकर्मी, हमारी उक्थियां, हमारे स्तव तुम्हें पहले ही वर्धित करते थे, अब भी मानो हमारे वाक्य तुम्हें और भी वर्धित  करें ।।८।।

 

    अक्षयवृद्धिशाली इन्द्र इस वैभव पर विजय पायें जिसमें सर्वविध बलवीर्य निहित हैं ।।९।।

 

    हे मन्त्रप्रिय, देखना कोई भी मर्त्य हमारे शरीर को कोई हानि न पहुंचाये । तुम सभी के ईश्वर को, उसके अस्त्रों को किसी और ही दिशा की ओर मोड़ दो ।।१०।।

 

 

प्रथम मण्डल--सूक्त १७

मूल

 

इन्दावरुणयोरहं सम्राजोरव आ वृणे । ता नो मृणा  ईदृशे ।।१।।

गन्तारा हि स्थोऽवसे हवं विप्रस्य मात: । धर्तारा चर्षणीनाम् ।।२।।

अनुकामं तर्पयेथामिन्द्रावरुण राय आ । ता वां नेदिष्ठमीमहे ।।३।।

युवाकु हि शचीनां युवाकु सुमतीनाम् । भूयाम वाजदानाम् ।।४।।

इन्द्र: सह्स्रदाव्नां वरुण: शंस्यानाम् । क्रतुभर्वत्युक्थ्य: ।।५।।

तयोरिदवसा वयं सनेम नि च धीमहि । स्यादुत प्ररेचनम् ।।६।।

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इन्द्रावरुण वामहं हुवे चित्राय राधसे । अस्मान्त्सु जिग्युषस्कृत् ।।७।।

इन्दावरुण नू नु वां सिषासन्तीषु धीष्वा । अस्मभ्यं शर्म यच्छतम् ।।८।।

प्र वामश्रोनुतु  सुष्टुतिरिन्द्रावरुण यां हुवे । यामृधाथे सधस्तुतिम् ।।९।।

 

     इदृशे | अथवा ''इस दृष्टि से'' । इतनी दृष्टि में । मावत: । ''म'' धातु का आदिम अर्थ ही है सकल वंश का धारण किंतु चूडान्त प्राप्ति, संपूर्णता और सिद्धि भी ''म'' से व्यक्त होते हैं । विप्रस्य मावत:--इसका अर्थ यह भी हो सकता है ''जो ज्ञानी ज्ञान या साधना की अंतिम सीमा पर पहुंच गये हैं''; लेकिन जब इन्द्र और वरूण कार्य के धारणकर्ता के रूप में आहूत हुए तो पहला अर्थ ही समर्थनीय है । मानिसक बल के देवता इन्द्र और भाव-महत्त्व  के देवता वरुण शक्तिधारण में जो कार्यसिद्धि और सामर्थ्य है उसीकी सहायता करते हैं । दुर्बल उनका आवेश सहने में असमर्थ है इसीलिये वे उस परिमाण में उसकी सहायता और रक्षा नहीं कर सकते ।

   क्रतु: शब्द का प्राचीन अर्थ था शक्ति, बल या सामर्थ्य; ग्रीक  भाषा में उसी अर्थ में क्रातौस् (kratos--बल, krateros---बलवान) शब्द मिलता हे । यहां जब इन्द्र और वरुण को क्रतु कह कर अभिहित किया गया हो तो इससे यही प्रमाणित होता है कि इस शब्द का अर्थ बलवान् या प्रभु भी था ।

  प्ररेचनम् शब्द का आध्यात्मिक अर्थ था कुमति और कुवृत्ति का बहिष्कार कर आधार को मलशून्य और शुद्ध करना । यही है ग्रीक लोगों का ''katharsis" ।

  सधस्-सधू धातु का विशेषण और विशेष्य, जिस धातु से साधन शब्द बनता है । लेकिन बाद में संस्कृत से वह धातु लुप्त हो गयी । लद  अर्थ का धोतक सधिष्ठ  शब्द है--जो जन्तु  परिश्रम करता है, जमीन को खेती के योग्य बनाता है वही है सधिष्ठ  ।

 

अनुवाद

 

   हे इन्द्र, हे वरुण, तुम्हीं सम्राट हो, तुम देवों को ही हम रक्षक-रूप में वरण करते हैं-ऐसे तुम इस अवस्था में हमारे प्रति सदय होओ ।।१।।

 

   कारण, जो ज्ञानी शक्ति धारण कर पाते हैं, उन्हींके यज्ञस्थल में तुम रक्षा करने के लिये उपस्थित होते हो । तुम ही सब कार्यों के धारणकर्ता हो ।।२।।

 

   आधार के आनंद-प्राचुर्य में यथा-कामना आत्मतृप्ति अनुभव करो, हे इन्द्र और वरुण, हम तुम्हारे अत्यंत निकट सहवास चाहते हैं ।।३।।

 

   जो शक्तियां एवं जो सुबुद्धियां आंतरिक ऋद्धि बढ़ाती हैं, उन्हीं सबके प्रबल आधिपत्य में हम मानों प्रतिष्ठित रहें ।।४।।

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   जो-जो शक्तिदायक हैं उनके इन्द्र  और जो-जो प्रशस्त और महत हैं उनके वरुण ही स्पृहणीय प्रभु हों ।।५।।

 

   इन दोनों के रक्षण से हम स्थिर सुख के साथ निरापद रहते एवं गभीर ध्यान करने में समर्थ होते हैं । हमारी पूर्ण शुद्धि हो ।।६।।

 

   हे इन्द्र, हे वरुण, हम तुमसे तरह-तरह के आनंद प्राप्त करने के लिये यज्ञ करते हैं, हमें सर्वदा .विजयी बनाओ ।।७।।

 

   हे इन्द्र, हे वरुण, हमारी बुद्धि की सभी वृत्तियां हमारी वश्यता स्वीकार करें, उन सभी वृत्तियों में अधिष्ठित हो हमें शांति प्रदान करो ।।८।।

 

   हे इन्द्र, हे वरूण, ये जो सुन्दर स्तव हम तुम्हें यज्ञरूप में अर्पण करते हैं, वह तुम्हारा भोग्य हो, उस साधना के लिये तुम ही स्तव-वाक्य को पुष्ट और सिद्धियुक्त बना रहे हो ।।९।।

 

व्याख्या

 

   प्राचीन ऋषि जब आध्यात्मिक युद्ध में अन्तर-शत्रु के प्रबल आक्रमण होने पर देवताओं की सहायता पाने के लिये प्रार्थना करते, साधना-पथ पर किञ्चित्  अग्रसर होने पर असंपूर्णता का अनुभव कर पूर्णता की प्रतिष्ठा की, मन में बाज: या शक्ति की स्थायी घनीभूत अवस्था की कामना करते या अन्तर-प्रकाश और आनंद की परिपूर्णता में उसीकी प्रतिष्ठा करने में, भोग करने में या उसकी रक्षा करने के लिये देवताओं का आहवान करते, तब हम देखते हैं कि वे प्रायः युग्म रूप में अमरगण के सम्मुख एक वाक्य, एक स्तव द्वारा स्तुति कर अपना मनोभाव प्रकट करते थे । अश्वि-युगल (अश्विनौ), इन्द्र और वायु, मित्र और वरुण ऐसे संयोगों के उदाहरण हैं । इस स्तव में इन्द्र और वायु नहीं, मित्र और वरुण भी नहीं । इन्द्र और वरुण का इस प्रकार संयोग कर कण्ववंशज मेधातिथि आनंद, महत्त्वसिद्धि और शांति के लिये प्रार्थना कर रहे हैं । इस समय उनके मन का भाव उच्च, विशाल और गंभीर है । वह चाहते हैं मुक्त और महत् कर्म, चाहते हैं प्रबल तेजस्वी भाव किंतु वह बल प्रतिष्ठित होगा स्थायी, गंभीर और विशुद्ध ज्ञान पर, वह तेज विचरण करेगा शांति के दो विशाल पंखों पर आरूढ़ हो कर्मरूपी आकाश में । आनंद के अनंत सागर में निमग्न होने पर भी, आनंद की तरह-तरह की तरंगों पर आंदोलित होने पर भी वह चाहते हैं उसी आनंद में स्थैर्य, महिमा और चिरप्रतिष्ठा का अनुभव । वे उस सागर में डूब आत्म-ज्ञान खोने, उन तरंगों पर लुलितदेह गोता खाने को अनिच्छुक हैं | उस महत्-आकांक्षा की प्राप्ति करने के 

 

३३१


योग्य सहायता देनेवाले देवता हैं इन्द्र और वरुण । राजा इन्द्र, सम्राट् वरुण । जो मानसिक तेज और तप: समस्त मानसिक वृत्तियों, अस्तित्त्व और कार्यकारित्य के कारण हैं उनके दाता इन्द्र ही हैं, वृत्रों के आक्रमण से उसकी रक्षा वे ही करते हैं । चित्त और चरित्र के जितने भी महत् और उदार भाव हैं, जिनके अभाव में मन और कर्म में उद्धतता, संकीर्णता, दुर्बलता या शिथिलता का आना अवश्यंभावी है, उनकी स्थापना और रक्षा वरुण ही करते हैं । अतएव इस सूक्त के प्रारंभ में ॠषि मेधातिथि इन दोनों की सहायता और मित्रता का वरण करते हैं । इन्द्रावरुणयोरहमव आ वृणे | सम्राजो:--क्योंकि वे ही सम्राट हैं । अतएव ईदृशे इस अवस्था में (मन की जिस अवस्था का वर्णन किया है) या इस अवसर पर वे अपने लिये और सबके लिये उनकी प्रसन्नता की प्रार्थना करते हैं- ता नो मृणात ईदृशे । जिस अवस्था में देह, प्राण, मन तथा विज्ञानांश की सभी वृत्तियां और चेष्टाएं अपने स्थान में समारूढ़ और संवृत रहती हैं, किसी का भी जीव पर आधिपत्य, विद्रोह अथवा यथेच्छाचार नहीं होता, सभी अपने-अपने देवता की पराप्रकृति की वश्यता स्वीकार कर अपना-अपना कर्म भगवन्निर्दिष्ट समय पर और परिमाण में आनद के साथ करने में अभ्यस्त होते हैं, जिस अवस्था में गभीर शांति तथा साथ ही तेजस्विनी सीमारहित प्रचण्ड कर्म-शक्ति होती है, जिस अवस्था में जीव स्थराज्य का स्वराट् होता है, अपने आधारभूत आंतरिक राज्य का यथार्थ सम्राट, उसी के आदेश से या उसी के आनंद के लिये सभी वृत्तियां सुचारू रूप से परस्पर सहायता करती हुई कर्म करती हैं अथवा उसकी इच्छा होने पर गंभीर तमोरहित नैष्कर्म्य में मग्न हो अतल शांति के अनिर्वचनीय आनंद का आस्वादन करती हैं, उसी अवस्था को पूर्व युग के वैदांतिक स्वराज्य वा साम्राज्य कहा करते थे । इन्द्र और वरूण इसी अवस्था के विशेष अधिष्ठाता हैं, सुम्राट् हैं । इन्द्र सम्राट बन अन्य सभी वृत्तियों को चालित करते हैं, वरुण सम्राट  बन अन्य सभी वृत्तियों पर शासन करते और उन्हें महिमान्वित करते हैं ।

    इन महिमान्वित अमरद्वय की संपूर्ण सहायता प्राप्त करने के अधिकारी सभी नहीं होते । जो ज्ञानी हैं, धैर्य-प्रतिष्ठित हैं वे ही हैं अधिकारी । 'विप्र' होना होगा, 'मावान्' बनना होगा । विप्र का अर्थ ब्राम्हण नहीं । 'वि' धातु का अर्थ है प्रकाश, 'विप' धातु का अर्थ है प्रकाश की क्रीड़ा, कंपन या पूर्ण उच्छवास । जिसके मन में ज्ञान का उदय हुआ है, जिसके मन का द्वार ज्ञान की तेजस्वी क्रीड़ा के लिये मुक्त है वही है विप्र । 'मा' धातु का अर्थ है धारण करना । जननी गर्भ में संतान धारण करती है इसीलिये वह 'माता' नाम से अभिहित है । आकाश समस्त भूत के, समस्त जीव के जन्म, खेल और मृत्यु को अपने गर्भ में धारण कर स्थिर, अविचलित बना रहता है, इसलिये वह समस्त कर्म के प्रतिष्ठापक प्राणस्वरूप वायुदेवता मातरिश्वा के नाम से विख्यात है । आकाश की तरह ही जिसमें धैर्य और धारण-शक्ति है, जब प्रचण्ड बवण्डर दिङ्मण्डल को आलोड़ित कर प्रचंड हुंकार के साथ वृक्ष, पशु, गृह तक को उड़ाता हुआ रूद्र भयंकर

 

३३२


रासलीला का नृत्य-अभिनय करता है तब आकाश उस क्रीड़ा को जिस प्रकार सहन करता है, चुपचाप आत्मसुख में मग्न रहता है, उसी तरह जो प्रचण्ड विशाल आनंद को, प्रचण्ड रुद्र कर्मस्रोत को, यहांतक कि शरीर या प्राण की असह्य यंत्रणा को भी, अपने आधार में उस क्रीड़ा के लिये उन्मुक्त क्षेत्र प्रदान कर अविचलित और आत्मसुख में प्रफुल्ल रहता हुआ साक्षी-रूप में धारण करने में समर्थ होता है वही है 'मावान्' । जिस समय ऐसे मावान् विप्र, ऐसे धीर ज्ञानी अपने आधार को वेदी बना यज्ञ के लिये देवताओं का आवाहन करते हैं, उस समय इन्द्र और वरुण की वहां अबाध गति होती है, वे स्वेच्छा से भी उपस्थित होते हैं, यज्ञ की रक्षा करते हैं, उसके समस्त अभीप्सित कर्म के आश्रय और अवलंब बन (धर्तारा र्षणीनाम्) विपुल आनंद, शक्ति और ज्ञान का प्रकाश प्रदान करते हैं ।

 

प्रथम मण्डल--सूक्त ७५

 

मूल और अनुवाद

 

जुषस्व सप्रथस्तमं वची देवप्सरस्तमम् | हव्या जुहवाहन आसीन ||१||

 

   मैं जिसे व्यक्त करता हूं वह अतिशय विस्तृत और वृहत् है एवं देवता के भोग की सामग्री है, उसे तुम प्रेमसहित आत्मसात् करो । जितना भी हव्य प्रदान करता हूं, सब अपने ही मुंह में अर्पण करो ।।१।।

 

अथा ते अड़िरस्तमाग्ने वेधस्तम प्रियम | वोचेम बहम सानसि ||२||

 

    हे तप-देव ! हे शक्तिधारियों में श्रेष्ठ तथा उत्तम विधाता ! मैं अपने लोगों के हृदय का जो मंत्र व्यक्त करता हूं वह तुम्हें प्रिय हो और मेरी अभिलषित वस्तुओं का विजयी भोक्ता हो ।।२।।

 

कस्ते जामिर्जनानामग्ने को दाश्वध्वर: | को ह कस्मिन्नसि श्रित: ||३||

 

   हे तप-देव अग्नि ! जगत् में कौन तुम्हारा साथी और भाई हे ? तुम्हें देवगामी सख्य देने में कौन समर्थ है ? तुम ही कौन हो ? किसके अंतर में अग्निदेव का आश्रय हैं ? ||३||

 

त्व जामिर्जनानामग्ने मित्रों असि प्रिय: | सखा सखिभ्य  ईडय: ||४||

 

   हे अग्नि ! तुम ही सब प्राणियों के भ्राता हो, तुम ही जगत् के प्रिय बन्धु  हो, तुम ही सखा और अपने सखाओं के काम्य हो ।।४।।

 

   यजा नी मित्रावरुणा यजा देवां ॠतं वृहत् | अग्ने यक्षि स्वं दमम् ||५||

३३३


    मित्र और वरुण के लिये, देवताओं के लिये, ब्रहत् सत्य के लिये यज्ञ करो ! हे अग्नि ! वह सत्य तुम्हारा अपना ही घर है, उसी लक्ष्यस्थल पर यज्ञ को प्रतिष्ठित करो ।।५।।

 

प्रथम मण्डल-सूक्त ११३

 

  सर्व ज्योतियों में जो श्रेष्ठ ज्योति है वही आज हमारे सम्मुख उपस्थित है । देखो, सर्वव्यापी विचित्र ज्ञानमय बोधरूप में उसका जन्म हुआ है ! रात्रि भी है विश्वस्त्रष्टा सत्यात्मा की नन्दिनी, वे भी हैं स्रष्टा की सृष्टि के लिये सृष्टा, रात्रि अपने गर्भ में उषा को वहन कर रही हैं, अब गर्भ को शून्य कर उस ज्योति को जन्म  दे गयी हैं ।।१।।

 

  रक्ताभ-वत्स-युक्ता, रक्ताभ-श्वेतवर्णा आलोक देवी उपस्थित हैं, कृष्णवर्ण तमो-रूपिणी रात्रि ही जीवों के इन सभी विविध गृहों को उनके लिये मुक्त करती चल रही हैं । इस रात्रि और इस उषा के एक ही प्रेममय बन्धु हैं, दोनों ही हैं अमृतत्व-पूर्ण, दोनों ही हैं आपस में अनुकूलमना । ये जो पृथ्वी और धुलोक हैं ये हमारे बाहरी-भीतरी क्षेत्र हैं, उसकी दिशाओं को निश्चित करने के लिये दोनों ही विचरण करती हैं ।।२।।

 

  दोनों भगिनियों का है एक ही अनन्त पथ, देवी की शिष्याएं दोनों भगिनियां अलग-अलग  उस पथ पर विचरण करती हैं । दोनों न मिलती हैं न एक-दूसरे के ऊपर दान-वर्षण करते-करते पथ पर रुकती हैं । रात्रि और उषा के मन एक ही हैं, केवल रूप अलग-अलग हैं  ।।३।।

 

  सत्यपथ में जो हमारी दीप्तिमयी नेत्री है वे ही अभी सारे सत्यों को चित्त में उद्भासित कर रही हैं । देखो, कितने तरह-तरह के अर्गलाबद्ध उद्घाटित हो गये । दासों दिशाओं में जगत् की सकल संकीर्ण परिधियों को देवता ने अपनी भुजाओं में ले  लिया है, हमारे प्राणों में आनन्द के बहुत्व प्रकाशित हुए हैं । उषा ने हमारे जगत्-क्षेत्र के सारे अव्यक्त भुवनों को प्रकाशित किया है ।।४।।

 

  पुरुष जगत् के इस अनृतमय वक्र पथ पर सोये पड़े थे । हे पूर्णतादायिनी उषा, तुम ही उसे कर्मपथ पर, भोगपथ पर, आनंदपथ पर आगे बढ़ने के लिये आह्वान करती हो, पुकारती हो । जो अल्प दर्शन में समर्थ और संतुष्ट थे उनकी दृष्टि को विशाल बनाने के लिये तुमने जगत्-क्षेत्र के नाना भुवनों को उनके सामने प्रकट किया है ।।५।।

 

  तुम ही क्षात्रतेज हो, तुम ही हो दिव्य ज्ञान-शक्ति, तुम ही महती प्रेरणा हो, तुम ही हमारे क्षेत्र और हमारे पथ हो, तुम ही हो उस पथ पर चलने की शक्ति । जीवन के जितने एकात्म नानारूप विकास और क्रीड़ाएं हैं उन्हें दिखाने के लिये उषादेवी ने जगत्-क्षेत्र के नाना भुवनों को प्रकट किया है ।।६।।

 

३३४


   यह देखो, स्वर्ग को दुहिता संपूर्ण प्रभात बन रही है, आलोक-वसना युवति ने दर्शन दिया है । हे पूर्ण भोगमयी उषा, आज ही इस मर्त्य लोक में पृथ्वी के सारे ऐश्वर्यों  के ईश्वरी  रूप में स्वयं को प्रकट करो ।।७।।

 

   जो आगे जा चुके हैं उनके गन्तव्य स्थल का अनुसरण ये भी कर रहे हैं; जो प्रतिदिन धारा में बहते आयेंगे उनमें से ये ही हैं प्रथमा और अग्रगामिनी । जो जीवित हैं उन्हें आरोहण मार्ग में उठाती चलती हैं । विश्वप्राण में जो भी मृत पड़ा था उसे भी जगाती जा रही हैं ।।८।।

 

   उषा, तुमने बल-देवता अग्नि को पूणदीप्ति प्राप्त करने में समर्थ बनाया है, तुमने सत्यात्मा सूर्य की सत्य-दृष्टि द्वारा इन सबको प्रकाशित किया है, विश्व-यज्ञ के हेतु तुम मानव को तमस् से प्रकाश में ले आयी हो । देवताओं के व्रत में ये ही हैं तुम्हारे आनंद-दायक कर्म ।।९।।

 

   ज्ञान की क्या सीमा, प्रकाश की क्या विशालता, जब जो उषा पहले प्रकाशित हुई हैं और जो अब प्रकाशित होती आ रही हैं उनके साथ अब का उषा रूप विश्वमय ज्ञानोन्मेष एकदीप्त हो जाता है । प्राचीन सभी प्रभातों ने इस प्रभात की कामना की थी, उनके आलोक से ये आलोकित हैं । अब ध्यानस्थ हो भावी सभी उषाओं के साथ मिलने और एकचित्त होने के लिये मानस में उसी आलोंक को भविष्य की ओर आगे बढ़ा रही हैं ।।१०।।

 

तृतीय मण्डल--सूक्त ४६

 

मूल

 

युध्मस्य वे बृषभस्य  स्वराज उग्रस्य  यून: स्थविरस्य घृष्वे |

अजूर्यतो वज्रिणो विर्याणीन्द्र श्रुतस्य महतो महानि ||१||

 

महॉ  असि महिष वृष्यचेभिर्धनस्पृदुग्र सहमानो अन्यान् |

एको विश्वस्य  भुवनस्य राजा स योधाया च क्षयया च जनान् ||२||  

 

प्र मात्राभी रिरिचे रोचमान: प्र देवेभिर्विश्वतो  अप्रतीत: |

प्र मज्मना दिव इन्द्र: पृथिव्या: प्रोरोर्महो   अन्तरिक्षाड़जीषी ||३||

 

उरुं गभीरं जनुषाभ्युग्रं विश्वचसमवतं मतीनाम् |

इन्द्रं सोमास: प्रदिवि सुतास: समुद्रं न स्त्रवत  आ  विशन्ति ||४||

 

३३५


यं सोममिन्द्र  पृथिवीधावा गर्भ माता बिभृतस्त्वाया |

तं ते हिन्वन्ति तमु ते मृजन्त्यध्वर्यवो वृषभ पातवा उ ||५||

 

अनुवाद

 

    जो देवता पुरुष योध्धा, ओजस्वी, स्वराज्य के स्वराट् हैं, जो देवता नित्ययुवा स्थिर-सक्षम प्रखर दिप्तिस्वरूप और अक्षय, अति महान् हैं, वही हैं श्रुतिधर वज्रधर इन्द्र, अति महान् हैं उनके समस्त विरकर्म ||१||
 

     हे विराट् हे ओजस्वी ! तुम महान् हो, अपनी विस्तार-शक्ति के कर्म द्वारा तुम अन्य सब पर जोर-जबर्दस्ती कर उनमे हमारा अभिलषित धन छीन लो | तुम एक हो, समस्त जगत् में जो कुछ दीख रहा है उस सबके राजा हो, मनुष्य को युध्ध की प्रेरणा दो, उसके जेतव्य स्थिर-धाम में उसे स्थापित करो ||२||

     इन्द्र दीप्ती-रूप में प्रकट होकर जगत् की सारी मात्रा का अतिक्रमण कर जाते हैं, देवताओं को भी सब ओर से अनंतभाव से अतिक्रम कर सबके लिये अगम्य हो जाते हैं | ॠजुगामी ये शक्तिधर सवेग इन्द्र अपनी ओजस्विता से मनोजगत, विस्तृत भूलोक एवं महान् प्राण-जगत् को भी अतिक्रम कर जाते हैं ||३||

     इस विस्तृत और गभीर, इस जन्मत: उग्र और तेजस्वी, इस सर्वविकासकारी और सर्वविचारधारक इन्द्र-रूप समुद्र में जगत् के सभी आनंद-मधकर रसप्रवाह मनोलोक की ओर अभिव्यक्त होकर स्रोतस्विनी नदियों की तरह करते हैं ||४||

     हे शक्तिधारी, जिस तरह माता अजात शिशु को धारण करती है उसी तरह यह आनंद-मदिरा मनोलोक और भूलोक को तुम्हारी ही कामना से धारण करती है | हे वर्षक इन्द्र ! अध्वर का अध्वर्यु तुम्हारे ही लिये, तुम्हारे ही पाने के लीये उस अनंदप्रवाहा को दौड़ता है, तुम्हारे लिये ही उस आनंदको परिशुद्ध करता है ||५||     

 

चतुर्थ मण्डल--सूक्त १

 

  हे तापोदेवता अग्नि, तुम्हें ही देववृन्द ने एक प्राण हो उच्चाशय से कर्मधर रूप में मानव के अंतर में प्रेरित किया है, चिन्मय क्रियाशक्ति के आवेश में प्रेरित क्रिया है | हे यज्ञकारिन, उनहोंने ही मर्त्य मानव के अंतर में अमर देवता को जन्म दिया है | जिसके प्रज्ञाबल से मानव में देवता प्रकाशित हैं, विश्वमय के ज्ञान-संचरण में जो देवता मानव में विकसित हुए हैं, देववृन्द ने उनको जन्म दिया है ||१||

 

३३६ 


   हे तप:अग्नि, वही तुम हमारे भ्राता वरुण को यज्ञानन्द बृहत्तम अनंतव्यापी को पथ में प्रवर्तित करो, मन की सुमति में देवधाम के उद्देश्य से मानव के आरोहण को साधित करो ।।२।।

 

   हे कर्म-निष्पादक सखा, जैसे अश्वयुगल, वेगवान् अश्वयुगल शीघ्रगामी रथचक्र को पथ पर दौड़ने में प्रवर्तित करते हैं, वैसे ही हमारी यात्रा में भी इस सखा को प्रवर्तित करो । वरुण संगी हैं, सर्व-ज्योति-प्रकाश मरुद्गण संगी हैं, परम सुख खोज लो । हे फलदायिन् ! पवित्र ज्वाला से दीप्त तप:-अग्नि ! योद्धा की पथ-प्रेरणा की पूर्ति के लिये, आत्मपुत्र रूप देवता के सृजन के लिये जो सुख-शांति मिलती है उसे भीतर गठित करो ।।३।।

 

   वरुण जब क्रूद्ध हों तब तुम ज्ञानी उनके उद्धत प्रहार को अपसारित करो । यज्ञ में समर्थ, कर्म-धारणा में बलवान्, पवित्र दीप्त प्रकाश द्धारा प्राण में अशुभ सेना के विदारक स्पर्श को दूर करो ।।४।।

 

   हमारे इस उषाकाल में, इस ज्ञानोदय में निम्नतम पार्थिव भुवन में उतर मानव का अति अंतरंग संगी बन तप:-अग्नि का आनंद मानों वरुण के ग्रास के परे जा सुख-शांति से पहुंच कर प्रतिष्ठित होता है । सर्वदा पुकार सुनकर सत्वर हृदय में आओ हे तप:अग्नि ।।५।।

 

   मर्त्यगण के लिये ये सुखभोगी देवताओं के दर्शन हैं श्रेष्ठ  चित्रतम और स्पृहणीय जैसे अविनाश्य विश्वधात्री जगत् धेनु का दान-स्रोत, मानों उसका स्वच्छ सुप्त धृत क्षरित हुआ हो ।।६।।

 

   इस अग्नि के तीन परम जन्म हैं, तीनों ही हैं सत्यमय, तीनों ही हैं स्पृहणीय । वे ही त्रिविध रूप में अनन्त के मध्य विश्वभर में संचरण के लिये प्रकाशित हो अनन्त अग्नि सान्त में उतर आये हैं । पवित्र, शुभ्र आदिकर्मा हैं, उनकी दीप्ति प्रकट हो रही है ।।७।।

 

   अग्नि दूत बन मानव आत्मा के वास-भवनरूपी सर्व मुवन में अपनी कामना प्रसारित कर रहे हैं, सर्व भुवन में होता बन ज्योतिर्मय रथ में आरूढ़ संचरण करते हुए आनन्दमयी जिह्या  से सर्व वस्तुओं का भोग करते हैं । उनके अश्व हैं रक्तवर्णी, वपु के महत् आलोक सर्वत्र विस्तारित हो रहे हैं, सर्वदा ही वे आनन्द में रहते हैं मानों सभागृह भोग-वस्तुओं से परिपूर्ण है ।।८।।

 

   ये ही मनुष्य को ज्ञान द्वारा जागृत करते हैं, ये ही मानव यज्ञ के ग्रंथि हैं, मानो दीर्घ रज्जु उन्हें अग्रसर करते हुए के जा रही हो, आत्मा के इस द्वारयुक्त विविध वासगृह में तप-अग्नि सिद्धि की साधना में रत रहते हुए निवास करते हैं । देवता मर्त्य मानव की साधना के साधन-स्वरूप स्वीकृत हैं ।।९।।

 

३३७


सप्तम मण्डल--सूक्त ७०  

  

       हे अश्विद्वय, जो कुछ वरणीय है वह तुम्हीं  दान करते हो ! आओ, तुम्हारा वह स्वर्ग पृथ्वी पर ही व्यक्त हुआ है | जीवन का अश्व सुखी और पुष्ट हो उस स्थान में प्रविष्ट हुआ है, वह तुम्हारे जन्म का स्थान है, आश्रय-स्थान है, उसी स्थान में तुम सभी ध्रुव स्थिति के लिये आरोहण करो ||१||

       वही वह तुमलोगों की आनन्दमयी सुमति हमें दृढ़ता से आलिंगन में बांध रही है, मनुष्य के इस बहु दवारयुक्त पुर में मन का स्वच्छ तप: तप्त हुआ है | वही शक्ति सुयुक्त श्वेत किरणमय अश्वद्वय का रूप धारण कर हमारे रथ में योजित होते हैं | सारे समुद्रों को, सभी नदियों को पार करा देते हैं ||२||

 

सप्तम मण्डल--सूक्त ७७

 

उषा-स्तोत्र

 

   तरुणी प्रेयसी उषा की दीप्तिमयी देह प्रकट हुई है । अखिल विश्व के जीवन को उद्देश्यपथ की ओर प्रेरित किया है उषा ने । तपोदेव अग्नि मनुष्यों के भीतर प्रज्वलित होने के लिये जन्मी है । सब तरह के अंधकार को ठेलकर ज्योति के सृजन में तत्पर हैं उषा ।

 

   महत् विस्तार, सब की ओर दृष्टि डालते हुए उदित हो रही हैं उषा । आलोक वस्त्रों से भूषित वीर्यतत्त्व से श्वेतकाय बनी देवी प्रकाश फैला रही हैं । उनका वर्ण है स्वर्ग का सोना, उनका दर्शन है पूर्णदृष्टि-स्वरूप, ज्ञान के रश्मिपुंज की माता, ज्ञान के दिवसों की नेत्री, उनकी आलोकमयी काया प्रकट हो रही है ।

 

   देवताओं के चक्षु सूर्य को वहन करने के लिये, श्वेत प्राण-अश्व  को लाने के लिये, सत्य की किरणों से सुव्यक्त हो दर्शन दिया है भोगमयी उषा देवी ने । देख रहा हूं नानाविध दैव ऐश्वर्य , सबके अंदर, सर्वत्र संभूत हुई हैं आलोकमयी देवी ।

 

   जो कुछ आनंदमय है वह भीतर खिल उठे, जो कुछ मानव का शत्रु है वह दूर हो ! कामना है तुम्हारे ऐसे प्रभात की । संचित करो हमारे अंदर सत्यदीप्तियों का असीम गोयूथ, गठित करो हमारी भयरहित आनन्दभूमि । जो कुछ द्वन्दमय  है, द्वेषमय है उसे दूर हटाओ, मनुष्य की आत्मा की जितनी संपदा है सब बहा ले आओ । हे ऐश्वर्यमयि ! आनन्द और ऐश्वर्य से समृद्ध  करो जीवन ।

 

३३८ 


   देवी उषा, जिन श्रेष्ठ दीप्तियों के साथ तुम खेलती हो उन्हें लेकर हमारे अंतर में विकसित होओ, इस देही के जीवन को विस्तारित करो । हे सर्वानन्दमयि ! स्थायी प्रेरणा दो । दो वह ऐश्वर्य जिसमें सत्यकिरणों का गोधन है, जहां जीवन का वही अनन्तगामी रथ और अश्व हैं ।

 

   उसी धन से धनी वशिष्ठ हैं हम लोग । हे सुजाते, हे स्वर्गन्दिनि, जब हम अपने मनन-चिंतन से वर्धित करते हैं तुम्हें, तुम भी हमें अंदर धारण करती हो । वही आनन्दराशि है हमारा उपलब्ध ज्ञान ।

 

 

नवम मण्डल-सूक्त---१

 

   मन के देवता इन्द्र के पान के लिये अभिषुत हो स्वादुतम, मादकतम धारा में बह निकलो हे सोमदेव ।।१।।

 

   प्रतिरोधी, राक्षसों के हन्ता, सर्वकर्मी शक्तिधर, ज्ञानविधुत-प्रहृतजन्म-स्थान से इन्द्रियों के आधार में ढाला हुआ सिद्धि-स्थान में आसीन हो ।।२।।

 

   वृत्र के हननकारी अपने धन के मुक्तहस्त दाता हो तुम, परम सुख के विधाता बनो, ऐश्वर्यशाली देवताओं के ऐश्वर्य--सुख को पार कराते हुए हमारे पास ले आओ ।।३।।

 

   अपने आनंद-सार के बल पर महान् देवताओं को जन्म देने, ऐश्वर्यपूर्णता और सत्यश्रुति  की पूर्णता की सृष्टि करने के लिये यात्रा करो ।।४।।

 

   वही देव जन्म ही है हमारा गन्तव्य-स्थल, उसी लक्ष्य की ओर, दिन-प्रतिदिन हम कर्मपथ पर अग्रसर होते हैं । हे आनंददाता, तुम में ही हमारे सत्यधोतक सारे उक्थ प्रकाशित होते हैं ।।५।।

 

   ज्ञानमय सूर्यदेव की दुहिता पवित्र मन के अविच्छिन्न  विस्तार में रस ग्रहण कर पूत करती हैं ।।६।।

 

   जिस मानसलोक को हम पार करेंगे वही धुलोक में मन की सूक्ष्म शक्ति द्वारा कर्मप्रयास से देवता को पकड़ता है । वे दस बहनें हैं, देवता की दस भोग्या रमणीस्वरूप ।।७।।

 

   इस देवता को अग्रगामिनी सारी शक्तियां पथ पर दौड़ने के लिये प्रेरणा देती हैं, उनके आधार-पात्रों को शब्दों से भर देती हैं । वही आनन्द-मदिरा सर्वव्यापी है, तीन परम तत्त्वों से निर्मित ।।८।।

 

३३९


   मन के देवता इन्द्र के पान के लिये स्वर्ग की अहननीय धेनुगण इस शिशु आनन्द को ज्योति-दुग्ध से मिश्रित करती हैं ।।९।।

 

    इसी की मत्तता से वीर मन के देवता सारे विरोधी दानवों का नाश करते हैं और स्वर्ग के प्रसूत धन प्रभूत दान में वितरण करते हैं ।।१०।।

 

नवम मण्डल--सूक्त २

 

    देवत्व को जन्म देने के लिये, पवित्र मन को अतिक्रम कर सवेग बहते जाओ, हे सोमदेव ! हे आनन्द, विश्वधन के वर्षणकारी बन मन-देवता इन्द्र में प्रवेश करो ।।१।।

 

    हे आनन्द के देवता, विपुल ज्योति से युक्त होओ, विश्व-धन के वर्षणकारी वृषभ हो तुम, हमारे अंदर महत् सुख भोग का विकास करो । स्वधाम में आसीन होओ, विश्वजीवन को धारण करो ।।२।।

 

    सुत होने पर ये सर्व विधाताओं की प्रीतिमय, स्वर्ग-मधु आनन्द-धारा का दोहन कर देते हैं । संकल्प से सिद्ध हो इन्होंने विश्वप्रवाह को वसन-रूप में धारण किया ।।३।।

 

    वही महती विश्व-प्रवाह रूप स्वर्ग की सारी नदियां इस महान् की ओर धावित होती हैं जब वे ज्योतिपुंज से आच्छादित होना चाहते हैं ।।४।।

 

    ये जो आनन्द समुद्र धुलोक के चरणकारी और भित्तिस्वरूप हैं, उसी प्रवाह में बह पवित्र मन में परिमार्जित होता है, पवित्र मन में आनन्ददेव मानव को चाहता है ।।५।।

 

    ज्योतिर्मय आनन्द-वृषभ ने हुंकारा है । वे महान् हैं, मित्र की तरह सर्वदर्शी हैं, ज्ञान-सूर्य की किरणों से उद्दीप्त ।।६।।

 

    हे आनन्ददेव, तुम्हारी कर्मेच्छुक सारी उक्तियां महाबल से पूत और मार्जित होती हैं जब तुम मत्तता देने के लिये अपने शरीर को शोभायमान करते हो ।।७।।

 

    उसी तेजस्वी मत्तता के लिये हम तुम्हें चाहते हैं, हमारे अंदर तुम अतिमानस लोक के स्रष्टा हो, तुम जो व्यक्त करते हो वह सभी महान् है ।।८।।

 

    सुमधुर मदिरा की धारा में हमारे लिये देवमन-आकांक्षी बन, वर्षणकारी पर्जन्य बन धावित होओ ।।९।।

 

    हे आनन्ददेव, तुम उस लोक के ज्योतिर्मय गामी हो, आशु अश्व, वीर योद्धा पुरुष हो और पूर्ण धन को विजित कर लेते हो, सोमदेव, तुम ही हो यज्ञ के आदि और परम आत्मा ।।१०।।

३४०


नवम मण्डल---सूक्त ११३

 

    अमरत्व के प्रकाश्य और आनन्दस्वरूप इस सूक्त में कश्यप ऋषि ने सोमदेव का आहवान कर उस महान् देवता से स्तवपूर्वक अमरत्व की याचना की । सूक्त का तत्त्व इस प्रकार है :

 

    वृत्रहन्ता इन्द्र आनन्द-सरोवर से सोमरस पान करें, सोमपान द्वारा आत्मा में बल धारण करें, सोमपान द्वारा महत् वीर कर्म की इच्छा करें । हे आनन्दमय ! विशाल प्रवाह में बह इन्द्र को प्लावित करो ।।१।।

 

    अनन्तदिक्पति, सर्ववरदायिन् ! ऋजुता की जन्मभूमि से चिरदिन आते रहो, सोमदेव !  सत्यबल में सत्यवाणी के गर्भ में श्रद्धा से, तपस्या से समुद्रभूत हो तुम । विशाल प्रवाह में बह इन्द्र को प्लावित करो ।।२।।

 

    पर्जन्य के सर्वदान से यह महान् देवता वर्धित है, सूर्यदुहिता के सर्वज्ञान से स्थापित किया गया है यह महान् देवता, गन्धर्व के रसग्रहण से गृहीत है यह महान् देवता, गन्धर्व-ग्रहण के लिये सोमरस में वह परम रस निहित है । विशाल प्रवाह में बह इन्द्र को प्लावित करो ।।३।।

 

    सत्य-ज्योतिर्मय हो तुम, वाणी में व्यक्त करो सत्य धर्म, सत्यकर्मा हो तुम, व्यक्त करो सत्य सत्ता, आनंद के राजा सोमदेव हो तुम, वाणी में व्यक्त करो सत्य-श्रद्धा । सोमदेव, धाता के हाथ हुआ है तुम्हारा निर्दोष सर्जन । विशाल. प्रवाह में बह प्लावित करो इन्द्र को ।।४।।

 

    विशाल, उग्र आनंद का पूर्ण नानाविध प्रवाह सत्य-सत्ता से संयुक्त होने के लिये धावित है, मिलन की इच्छा से रसमय के असंख्य रस एक-दुसरे पर गिर रहे हैं । हे देवता ! हृद्गत मंत्र से तुम पूत हो, हृद्गत सत्यमंत्र से धुतिमान् हो । विशाल प्रवाह में बह इन्द्र को प्लावित करो ।।५।।

 

    मन की जिस उच्च चुड़ा  पर छन्द की गति से मंत्रद्रष्टा के चिन्तन वाणी से उद्गत हुए वहीं है सोम-निस्सरण से, सोमरस के प्लावन से आनंद की सृष्टि, आनंद की स्वर्गीय महिमा । विशाल प्रवाह में बह इन्द्र को प्लावित करो ।।६।।

 

    जिस धाम में अविनाशी ज्योति, जिस धाम में स्वर्लोक निहित है, हे आदि सोमदेव, उसी घाम में हमें उठा के ले चलो, अमर लक्ष्य लोक में हमें ठौर दो । विशाल प्रवाह में बह इन्द्र को प्लावित करो ।।७।।

 

    जिस धाम में सूर्यतनय धर्मराज राजा हैं, जिस धाम में धुलोक  की आरोहणीय सानु

 

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की चूड़ा है, जिस धाम में प्रबल विश्वनदी सबका उत्स है, उसी धाम में हमें अमर बना दो । विशाल प्रवाह में बह इन्द्र को प्लावित करो ।।८।।

 

    जीस धाम में स्वच्छन्द विचरण है धुलोक का, जो त्रिदिव के स्वर्लोक के त्रिपुट आनन्द का धाम है, जिस लोक की अधिवासी हैं निर्मल, ज्योतिर्मयी आत्माएं, उस धाम में हमें ले जाकर अमर बना दो । विशाल प्रवाह में बह प्लावित कर दो इन्द्र को ।।९।।

 

    जिस धाम में कामना है अतिकामना की निःशेष प्राप्ति, जिस धाम में है महत् सत्य की निवास-भूमि, जिस धाम में हैं स्वभाव की सारी प्रेरणाओं की तृप्ति, स्वप्रकृतिपूर्ण है, उसी धाम में हमें अमर बना ले चलो । विशाल प्रवाह में बह इन्द्र को प्लावित करो ।।१०।।

 

    जिस धाम में हैं सकल आनन्द, सकल प्रमोद जिस धाम में चिरकाल के लिये आसीन हैं सकल प्रीति, सारे सुखों की क्रीड़ा, जिस धाम में है काम की सभी कामनाओं का निर्दोष सुख-आस्वादन, हमें अमर बना ले चलो उसी धाम में । विशाल प्रवाह में बह इन्द्र को प्लावित करो ।।११।।

 

दशम मण्डल-सूक्त १0८

 

   हृदय में कौन-सी कामना है सरमे ? किसलिये इस देश में आगमन हुआ है ? दूर है वह पन्था जो परम शक्ति से प्रकाशित है । हमसे क्या आशा रखती हो, कौन-सी प्रेरणा की आशा ? पथ में कौन-सी गभीर वाणी है ? अतल रसा-नदी की तरंगों को किस रंग में पार किया है सरमे ? ।।१।।

 

   इन्द्र की दूती हूं मैं, इन की प्रेरणा से विचरण कर रही हूं तुम लोगों की विपुल गुप्त निधि की कामना से पाणिगण । उल्लंघन के भय से रात्रि हट गयी । कूद कर पार की रसा-नदी की तरंगमालाएं ।।२।।

 

   वह इन्द्र कैसा है सरमे ? कैसी है उसकी दृष्टि-शक्ति जिसके दूत -कार्य के लिये जगत् के शिखर से इस देश में आयी हो ? आवें वे देवता, बनाऊंगा उसे सखा, बना दूंगा ज्योतिर्मय गोयूथ का गोपति ।।३।।

 

   विजित इन्द्र कभी किसी के नहीं... जिसके दूत-कार्य के लिये जगत् की चूड़ा से इस देश में आयी हूं । सुगभीर अवहमान सब नदियां तरंगों में छिपा नहीं रखतीं ।।४।।

 

अस्पष्ट |

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