All writings in Bengali and Sanskrit including brief works written for the newspaper 'Dharma' and 'Karakahini' - reminiscences of detention in Alipore Jail.
All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)
साधनाविषयक पत्र*
'न' को
यह सच नहीं है कि विरोधी शक्ति तुम्हारे भीतर ही है--विरोधी शक्ति बाहर है । आक्रमण करके भीतर प्रवेश करने की चेष्टा करती है--इस तरह के भय और उद्वेग को प्रश्रय न दो ।
६.र.३४
न: दो-तीन दिन से देख रही हूं कि आश्रम में और आश्रम के वातावरण में एक खराब शक्ति और एक अच्छी शक्ति घूम रही हैं । मेरी अनुभूति में कुछ सच्चाई है क्या ?
उ० : जैसे बहिर्जगत् में वैसे ही आश्रम में भी ये दोनों शक्तियां आरंभ से ही विधमान हैं । अशुद्ध शक्ति को विजित कर सिद्धि पानी होगी ।
६.२.३४
*
न : मां, सब लोग हर पल तुम्हें अनुभव कर, ध्यान कर शांतभाव से बढ़ रहे हैं | मैं ही क्यों तुम्हें भुलकर द्वंद्व मिथ्या शक्ति और विरोधी शक्तियों की बाधा से हमेशा आक्रांत हो जाती हुं ?
उ० : सब कौन ? दो-एक को छोड़कर कोई शांतभाव से नहीं चल रहा, सभी बाधाओं को चीरकर आगे बढ़ रहे हैं |
८ . २ . ३४
महेश्वरी का दान, शांति, समता, मुक्ति की विशालता की तुम्हें विशेष जरूरत है | इसीलिये तुम्हारे आवाहन पर वे दिखायी देती हैं |
९.२.३४
* ये पत्र 'न', 'स' और 'ए' को लिखे गये थे | इनमें से 'न' और 'स' थी आश्रम की साधिकाएं--श्रीमां को संबोधन कर बंगला में चिट्ठी लिखती थीं | उन सब चिट्ठी का उत्तर अरविन्द देते थे | 'ए' थीं दशवर्षीया बालिका, उन्होंने कलकत्ते से श्रीअरविंद को चिठ्ठी लिखना आरंभ किया था |
३८१
इससे भयभीत अथवा विचलित न होओ । योगपथ का यह नियम है कि आलोक और अंधकार की अवस्था अतिक्रम कर चलना होता है । अंधकार छा जाने पर भी शांत बनी रहो ।
Persevere in the attitude of firmness and courage. इस दृढ़ता और साहस के भाव को हमेशा पकड़े रहो |
(Red Lotus)- The Divine Harmony. (लाल कमल)--भगवत सामंजस्य |
(Blue Light)-- The Higher Consciousness. (नील वर्ण)--उच्चतर चेतना |
(Golden Temple)--The Temple of the Divine Truth. दिव्य सत्य का देवालय |
स्थिर धीर बनी रहो, तभी तुम्हारे बाहर भी, बहिर्प्रकृति में, जीवन में धीरे-धीरे यह सब प्रतिफलित होगा ।
१२.२.३४
बाधाएं सबके सामने आती हैं । आश्रम में ऐसा कोई साधक नहीं जिसे इसका सामना नहीं करना पड़ता । अपने भीतर स्थिर बनी रहो , बाधाओं के होते हुए भी सहायता पाओगी, सत्य चैतन्य सब स्तरों पर प्रस्फुटित होगा ।
शांतभाव से मां की शक्ति को पुकार कर, सब उद्वेगों को छोड़कर हर समय स्थिर रहो ।
१३.२.३४
तुम्हारा सबसे बड़ा अंतराय है प्रति क्षण बाधा के बारे में ही बात, मैं खराब हूं, मैं
३८२
खराब हूं, इत्यादि के बारे में ही चिंता । शांतभाव से मां पर निर्भर रह, स्थिर भाव से साधारण प्रकृति का परिहार कर धीरे-धीरे विजय पाना ही है परिवर्तन लाने का एकमात्र उपाय ।
२३.२.३४
यह क्या और भी बड़ा अहंकार नहीं है कि तुम्हारे लिये ही इतना काण्ड घटा है ? मैं बहुत अच्छी हूं, खूब शक्तिशाली हूं, मेरे द्वारा ही सब हो रहा है, मेरे बिना मां का काम नहीं चल सकता--यह है एक तरह का अहंकार । मैं खराब से भी खराब हूं, मेरी बाधा के कारण सब बंद हुआ है, भगवान् अपना काम नहीं कर पा रहे--यह है और एक तरह का उल्टा अहंकार ।...
यह है तुम्हारे भीतरी मन और मां के भीतर मन का संबंध--भ्रूमध्य में है उस मन का centre (केंद्र) -यह संबंध जब स्थापित हो जाता है तब उस भीतरी मन में भागवत सत्य के प्रति आकर्षण होता है और वह उठना आरंभ करता है ।
२६.२.३४
यही है उचित पथ । हर समय अच्छी अवस्था, हर समय भीतर मां का दर्शन श्रेष्ठ साधक को भी नहीं मिलता । वह होता है साधना के परिपक्व होने पर, सिद्धि की अवस्था आने पर । कभी भरा-भरा लगना और कभी रीतापन सबको लगता है । रीतावस्था में भी शांत रहना चाहिये ।
निस्संदेह अनुभव सच्चा है--इसे बनाये रखना होगा तथा बार-बार repeat (दोहराना) करना होगा । और विपरीत अनुभव या बाधा या रीतावस्था आने पर क्षुब्ध न हो, शांतभाव से अच्छे अनुभव की प्रतीक्षा करना उचित है ।
न : कल रात सपने में देखा कि मेरा मन, प्राण और प्रकृति भी तुम्हारे पथ पर
३८३
चलने में सहायता कर रही है । यह क्या कभी सच होगा ?
उ० : यदि तुम शांत और स्थिर बनी रही तो वे आज से ही सहायता कर सकती हैं ।
... तपस्या की अग्नि प्रज्ज्वलित होने पर कंपन और सिर में एक तरह की असाधारण अवस्था सबकी होती है । स्थिर बने रहने से वह और नहीं टिकती, सब शांत हो जाता है ।
न : कल रात से सिर के ऊपर खूब शांत और गभीर चीज अनुभव कर रही हूं । कभी तो वह विस्तृत होकर पूरे आधार पर फैल जाती है, या कभी हृदय और मन में उतर कुछ देर तक रहती है ।
उ० : यह शुभ लक्षण है । यह है असली अनुभूति । यही शांति जब समस्त आधार में व्याप्त हो जाती है और दृढ़ ठोस एवं स्थायी हो जाती है तभी भागवत चेतना की पहली भित्ति स्थापित होती है ।
२७.२.३४
ऐसा करना सबके लिये कठिन है । शांति सत्य इत्यादि पहले स्थापित होते हैं, इसके बाद कार्य में लक्षित होते हैं |
२८.२.३४
खालीपन से डरो नहीं | खालीपन में ही भगवत शांति उतरती है | मां हमेशा ही तुम्हारे भीतर विराजमान हैं | लेकिन शांति, शक्ति और प्रकाश अपने अंदर स्थापित न होने से उनकी उपस्थिति का अहसास नहीं होता |
जिसमे तुम्हें आवाज लगायी वह तुम्हारी मां नहीं | इन सब अनुभूतियों में पार्थिव मां का मतलब होता है पार्थिव प्रकृति, साधारण बाह्य प्रकृति है प्रतीक-मात्र |
फरवरी १९३४
३८४
सब बाधाएं तो विरोधी शक्तियों की सृष्टि नहीं हैं--साधारण अशुद्ध प्रकृति की सृष्टि हैं जो सभी के अंदर है ।
तपस्या सिर्फ यही है कि स्थिर रहो, मां को पुकारो, खूब शांत दृढ़भाव से अशान्ति का, निराशा का, कामना-वासना का वर्जन करो ।
आश्रम में जो बीमारी जिस-तिस को घेर रही है यह उसीका लक्षण है--स्थिर रहने से यह मात्र छूकर चली जायेगी ।
न : कभी-कभी मेरे भीतर एक ऐसी शक्ति और तेज आता है तब लगता है कि कोई मिथ्यात्व की शक्ति मुझे छू नहीं सकती ।
उ० : हां, ऐसी शक्ति आधार में हमेशा बनी रहे तो साधना बहुत-कुछ आसान हो जाती है-यदि इसमें अहंकार न आ मिले ।
बाधाएं सब के सामने आती हैं-जो काम नहीं करते उनके सामने भी विशेष प्रबलता से बाधाएं आती हैं ।
१.३.३४
न : ध्यान करते समय पहले की तरह गहराई में और समाधि में क्यों नहीं जा पाती मां ?
उ०: क्यों होता है बता चुका हूं । योगशक्ति का जोर अभी प्रकृति के रूपांतर पर, शांति और ऊर्ध्व चेतना के अवतरण और प्रतिष्ठा पर ज्यादा है, गभीर ध्यान की अनुभूति पर उतना नहीं--जैसा पहले होता था ।
३८५
न : आज देखा कि मूलाधार का मां की चेतना के साथ एक स्वर्ण-डोर से संबंध जुड़ा है ।
उ० : इसका अर्थ हुआ कि मां की चेतना के साथ तुम्हारी physical (भौतिक) चेतना का एक संबंध जुड़ा है । स्वर्ण-डोर उसी संबंध का प्रतीक है ।
२.३.३४
न :... मेरे अंदर मन-मरा अलसाया-सा भाव आया है । और दो दिन से देख रही हूं कि मन, प्राण की चेतना मुझे छोड़ बाहर की चीजों के साथ और चेतना के साथ लिप्त हो चक्कर काट रही है । तुम्हें खोकर शून्य निर्जनता के बीच में पड़ी हूं जैसे ।
उ. : यदि ऐसा ही है तो इसका अर्थ है कि तुम्हारे भीतर की सत्ता बहुत-कुछ स्वतंत्र और मुक्त हो गयी है । बाहरी सत्ता ही बाहरी चीजों से युक्त होती है । इस बाहरी सत्ता को भी आलोकित और मुक्त करना जरूरी है ।
३.३.३४
सफेद गुलाब का अर्थ है मां के प्रति प्रेममय आत्मसमर्पण । उसका फल होगा सत्य के आलोक का आधार में विस्तार । सफेद कमल=तुम्हारे मानसिक स्तर पर मां की प्रस्फुटित चेतना । नारंगी रंग का आलोक (Red Gold) = देह में अतिमानस का प्रकाश (supramental in physical) ।
५.३.३४
सत्य तक सीधा पहुंचने का रास्ता है आधार खोलना । आधार में उस अवस्था में जो समर्पण किया जाता है वह सहज-सरल भाव से मां के पास जाकर ऊपर सत्य के साध मिल जाता है, सत्यमय हो जाता है ।
न : मां, मैंने देखा कि overmind (अधिमन) के ऊपर एक infinite (अनन्त) जगत् है । उस जगत में देखा कि तुम्हारे जैसी अनेक बालिकाएं खेल रही हैं । कुछ देर बाद देखती हूं कि उनमें से दो बालिकाएं मुझे बुलातीं-बुलातीं मेरी ओर उतर आयीं । मां, ये बालिकाएं कौन हैं ?
३८६
उ० : सत्य का जगत् था यह, उस जगत् से दो शक्तियां उतरी थीं बुलाने-सत्य की ओर ले जाने के लिये ।
न : ऊपर से एक बड़े चक्र को तरह मेरे मस्तक में कुछ उतरा है ।... और उसका यह प्रभाव देखती हूं कि सब स्तरों पर थोड़ा-थोड़ा फैल रहा है ।
उ : यह है मां को शक्ति की एक क्रिया । जो ऊर्ध्व चेतना से मानसिक स्तर पर उतर सारे आधार में कार्य करने के लिये फैल रहा है ।
७.३.३४
न : आत्मा के गभीर प्रदेश में एक गभीरतम जगत् है । जगत् में ऊर्ध्व की ओर जाता एक सीधा रास्ता-सा देखा ।
उ०: अर्थ-वहां परम सत्य के साथ एक संबंध स्थापित हो गया है ।
न : नाभि के ऊपर से एक चमकीले सांप को रेंगते, बलखाते ऊपर की ओर चढ़ते देखा ।
उ. : इसका अर्थ है देह और प्राण की शक्ति उर्ध्व सत्य के साथ मिलने के लिये उठ रही है ।
न : मां, जितना ही तुम्हारी शक्ति का शांत दवाब पड़ता है उतना ही, देखती हूं, सिर में दर्द होता है ।
उ० : भौतिक मन खुल जाने पर उस तरह का सिरदर्द नहीं होगा ।
न : मां, अंतर में जो सब सुन्दर अनुभूतियां होती हैं उससे लगता है कि अब से मैं इसी तरह के सुन्दर भाव में रहूंगी । किंतु बाहरी और चेतना में आते ही सब क्यों विला जाता है ? तुम्हें दुबारा याद करने से और दृष्टि अंतर की तरफ डालने से वे अनुभूतियां लौट आती हैं |
३८७
उ० : ऐसा ही होता है । यदि याद करने पर सुन्दर अवस्था को दुबारा देख या अनुभव कर सकती हो तो यह उन्नति का लक्षण है । ऐसा लगता है कि बहिर्प्रकृति के विपरीत भाव का वेग कम होता जाता रहा है ।
९.३.३४
न : कोई छोटी-छोटी बालिकाओं की तरह करुण मधुर स्वर में केवल तुम्हें बुला रही हैं, ''मां, हम तुम्हें चाहते हैं, हमें अपना बना लो ।'' मैं उन्हें देख नहीं पा रही । इनमें कुछ सच्चाई है क्या ? ये कौन हैं ?
उ० : हां, यह सच है । या तो ये बालिकाएं नाना स्तरों पर तुम स्वयं हो या तुम्हारी चेतना की कुछ-एक शक्तियां (energies) ।
ज्ञान कई तरह का होता है-जैसी चेतना वैसा ही ज्ञान । उर्ध्व चेतना का ज्ञान सच्चा और परिष्कृत होता है--निम्न चेतना के ज्ञान में सत्य और मिथ्या मिले रहते हैं, अपरिष्कृत रहते हैं । बौद्धिक ज्ञान एक तरह का होता है, supramental (अतिमानसिक) चेतना का ज्ञान और एक तरह का, बुद्धि से परे । शांत ज्ञान है ऊर्ध्व चेतना का ।
१२.३.३४
न : तुम्हें अपने अंदर अनुभव करने पर मानों मैं अपने अस्तित्व को भूल जाती हूं । मेरी चेतना, इच्छा, अनुभूति और सारी सत्ता मानो यंत्रवत् चलती है । कुछ समय बाद वह खो देती हूं ।
उ० : ऐसी अनुभूतियां भी उर्ध्व चेतना की हैं । वह चेतना जब मन, प्राण और तन में उतरती हैं तब जाग्रतावस्था में ऐसा होता है ।
न : मैंने एक छोटे-से सुन्दर पौधे को देखा । उसके पत्ते चांदनी जैसे धवल और उज्जवल थे । पौधा क्रमश: बड़ा और उज्ज्वल होता गया और अपने-आपको भगवान् की तरफ खोलने लगा । और देखा कि एक शांत स्वच्छ समुद्र तुम्हारी ओर बह रहा है, मैं जो समर्पण करती हूं वह इस समुद्र के साथ एक हो जाता है ।
३८८
उ० : पौधा तुम्हारे भीतर आध्यात्मिकता की वृद्धि का प्रतीक है । समुद्र हुआ तुम्हा vital (प्राण ) |
न: अतिमानस का प्रकाश (supramental light) क्या नारंगी रंग का होता है ?
उ०: हां, आदि supramental light (अतिमानस प्रकाश) ऐसा नहीं होता, पर जब वह प्रकाश physical (भौतिक स्तर) पर उतरता है तब इसी रंग का हो जाता है |
यह बहुत अच्छा है | सत्य और मिथ्या का इस प्रकार अलग-अलग हो जाना psychic (चैत्य पुरुष) के जाग्रत् भाव का लक्षण है | Psychic discrimination (चैत्य पुरुष के विवेक) द्वारा ऐसी छंटाई होती है |
१४.३.३४
साधक-साधिकाओं की बात के बारे में बहुत सोचना नहीं--उससे मन सहज ही साधारण बाह्य चेतना में उलझ जाता है-यह सब मां को समर्पण कर, मां के ऊपर निर्भर रह भीतर निवास करना चाहिये ।
१६.३.३४
न: मानों एक छोटी बालिका मेरे साथ-साथ घूम फिर रही है । जब वह बाह्य सत्ता पर प्रभाव डालती है तो मानो बाह्य सत्ता का कोई भाग तुम्हें पाने को aspire (लालायित होता) करता है ।
उ०: लगता है वह बालिका तुम्हारा अपना psychic being (चैत्य पुरुष) है--मां का अंश ।
१७.३.३४
यह सब विलाप और आत्म-ग्लानि की बात लिखने से विशेष कुछ उपकार नहीं
३८९
होगा । शांतभाव से मां के ऊपर निर्भर रह चलना होता है । यदि बाधा आती है तो शांतभाव से साधना करते हुए, मां को पुकारते हुए, मां की शक्ति द्वारा उसे अतिक्रम करना होता है । यदि अपने अंदर प्रकृति की कोई त्रुटि या wrong movement (गलत प्रक्रिया) देखो तब भी विचलित, चंचल और दुःखी होने से कोई लाभ नहीं--साधना आगे बढ़ने से यह सब दूर हो जायेगा ऐसा शांत विश्वास रखकर अपने को ऊपर की ओर खोलना चाहिये | योगसिद्धि या रूपांतर एक दिन में या कुछ दिनों में साधित नहीं होता | धीर और शांत रह पथ बढ़ाना होता है |
न: बिच-बिच में अपने भीतर देखती हूं की गभीर स्तर से बहुत सुन्दर, आलोकमय, पवित्र, शांत कोई फूल जैसी चीज तुम्हें पुकारती हुई ऊपर उठती है | कुछ ऊपर उठने के बाद देखती हूं कि ऊपर से आपकी कई सारी चीजें नीचे उतर उसके साथ मिल जाती है |
उ० : जो ऊपर उठती है वह है तुम्हारी psychic (चैत्य) चेतना--जो उर्ध्व चेतना के स्तर पर उठती है | वह उस स्तर की शक्ति, प्रकाश, शांति आदि के साथ मिलकर उन्हें आधार में नीचे ले आती है |
२०.३.३४
फूल बनने का अर्थ है तुम्हारा psychic surrender (चैत्य समर्पण) हो रहा है |
न : मां, अब देख रही हूं की सिर के चारों ओर एक शांत, शक्तिशाली और प्रकाशमय कुछ घूम रहा है और तन, मन, प्राण से कुछ शुष्क और बासी फूल जैसा झर रहा है |
उ० : यह है उर्ध्व चेतना का अवतरण और आधार पर उसका प्रभाव |
समय के मांग के अनुसार साधना होती है | पहले थी आंतरिक साधना, सहज ध्यान
३९०
की अवस्था--अब मांग है भीतर-बाहर को एक करने की--देह चेतना तक को भी ।
२१.३.३४
न: आपने लिखा था ''... कि काम के समय खूब गभीर अवस्था में न जाना ही बेहतर है ।'' मां, गभीर अवस्था में जाना क्या बुरा है ? मेरी जब ऐसी अवस्था होती है तब देखती हूं कि मेरा बाहरी भाग जो करना होता है कर रहा होता है... ।
उ० : वही ठीक है । 'गभीर' में जाने का मेरा मतलब था गभीर ध्यान में मग्न होना । कोई यदि अचानक ध्यानभंग कर दे तो उसका परिणाम अच्छा न भी हो ।
ये सब अनुभूतियां होनी बहुत अच्छी हैं । पहले-पहल ये अनुभूतियां केवल आती--जाती हैं, टिकती नहीं लेकिन धीरे-धीरे जोर पकड़ती हैं, आधार भी अभ्यस्त होता जाता है । बाद में ज्यादा स्थायी होती हैं ।
२२.३.३४
बड़ा राज्य true physical (spiritual physical) सच्चा भौतिक (आध्यात्मिक भौतिक) हो सकता है और बालक-बालिका उस राज्य के पुरुष-प्रकृति शायद ।
२३.३.३४
और सब ठीक है किंतु psychic (चैत्य) सत्ता तन-मन-प्राण के पीछे रहती है और तीनों का स्पर्श करती है । मन के उस पार है अध्यात्म सत्ता और उर्ध्व चेतना ।
जो तुमने देखा है वह ठीक ही है--फिर भी जिसे तुम खराब शक्ति कहते हो वह है सिर्फ साधारण प्रकृति । वह प्रकृति ही मनुष्य से प्रायः सब कुछ कराती है--साधना द्वारा उसके प्रभाव को अतिक्रम करना होता है--हां, आसानी से यह नहीं होता--दृढ़ स्थिर प्रयास से अंततः संपूर्ण रूप से हो जाता है ।
२६.३.३४
३९१
न: मां, प्राण के नीचे एक समतल भूमि देखी । वहां देखी एक गाय । और मन के नीचे भी समतल भूमि देखी । उसपर देखा एक मयूर ।
उ० : समतल भूमि का अर्थ है मन और प्राण में चेतना की दृढ़ प्रतिष्ठा--मयूर है सत्य की शक्ति की विजय का लक्षण । गाय है सत्य के प्रकाश का प्रतीक ।
२८.३.३४
साधारण मन के तीन स्तर हैं । चिंतन का स्तर अथवा बुद्धि, इच्छाशक्ति का स्तर (बुद्धिप्रेरित will) और बहिर्मुखी बुद्धि । ऊर्ध्व मन के भी तीन स्तर हैं--Higher Mind, Illumined Mind, Intuition (उर्ध्वतर मन, प्रकाशित मन, अंत:प्रेरणा) | जब मस्तक में देखा है तो उसी साधारण मनके तीन स्तर होंगे--ऊपर की तरफ प्रकाश का अर्थ है प्रत्येक के अंदर एक विशेष भागवती शक्ति काम करने उतरी है |
३०.३.३४
प्राण की उर्ध्वगामी अवस्था है भगवान् की ओर, सत्य की ओर उठाना | सत्य का (सुनहली) और Higher Mind (उच्चतर मन) का (नील वर्णा) प्रभाव मूर्त हो ऊपर उठ, नीचे उतर घूम रहा उस उर्ध्वगामी प्राणचेतना चेतना में |
जो चक्र तुमने देखा है वह प्राणिक psychic (चैत्य) हो सकता है--समुद्र है vital consciousness (प्राणिक चेतना), अग्निकुंड है प्राण की aspiration (अभीप्सा), ईगल पक्षी (चील) है प्राण की उर्ध्वगामी प्रेरणा--मन्दिर है psychic (चैत्य) से प्रभावित प्राण प्रकृति का मन्दिर |
जब साधक शुद्ध चेतना में निवास करने लग जाता है तब भी अन्य भाग रह जाते है, फिर भी शुद्ध चेतना का प्रभाव बढ़ते-बढ़ते धीरे-धीरे उन्हें निस्तेज कर देता है |
२.४.३४
३९२
Higher Mind (उच्चतर मन ) में निवास करना उतना कठिन नहीं है-- जब चेतना मस्तक से जरा ऊपर उठती है तब उसका आरंभ होता है--किंतु Overmind (अधिमन) तक उठाने में काफी समय लगता है, खूब बड़ा साधक न बन जाने तक नहीं होता | इन सब स्तरों पर वास करने से मन के बन्धन टूट जाते हैं, चेतना विशाल हो जाती है, क्षुद्र अहंकार कम हो जाता है, सब एक हैं, सभी भगवान् में हैं, इत्यादि भागवत और अध्यात्म ज्ञान की उपलब्धि सहज हो जाती है |
शिशु है तुम्हारा psychic being (चैत्य पुरुष) जो तुम्हारे भीतर के सत्य को बाहर ले आ रहा है--रास्ता है Higher Mind (उर्ध्व मन)का रास्ता जो सत्य की ओर जा रहा है |
६.४.३४
यह सच नहीं है--बहुतों कुण्डलिनी-जागरण की अनुभूति नहीं होती, कुछ को होती है--इस जागरण का उद्देश्य होता है सब स्तरों को खोल देना और उर्ध्व चेतना के साथ जोड़ देना--लेकिन यह उद्देश्य अन्य उपायों से भी पूरा किया जा सकता है |
बड़ा स्तर अध्यात्म चेतना होगी, उसके बिच सत्य का मन्दिर, तुम्हारे vital (प्राण) के साथ इस स्तर का संबंध स्थापित हुआ हैं, मानों इस सेतु पर से उर्ध्व की शक्ति vital (प्राण) में चढ़ाना-उतरना कर रही है |
मां की ही एक emanation अर्थात् उनकी सत्ता और चेतना का अंश, प्रतिकृति और प्रतिनिधि बनकर प्रत्येक साधक के पास उसकी सहायता करने के लिये बाहर आती है या उसके साथ रहती हैं--असल में तो मां ही स्वयं वह रूप धर कर आती हैं |
९.४.३४
न : देख रही हूं कि तुम्हारे जगत् से दो बालिकाएं मेरी प्रिय सखियों की तरह
३९३
बार-बार नीचे आती हैं | एक का रूप है नीलवर्णी आलोक की तरह और दूसरी का है सूर्यालोक के समान | एक का परिधान नीला, दूसरी का पिला |
उ० : उर्ध्व मन की शक्ति (नील) और उसके ऊपर जो मन अथवा Intuition (अंत:प्रेरणा) है, संभवत: ये उन्हीं दो की शक्तियां हैं |
वेदयज्ञ में पांच प्रकार की अग्नियां होती हैं, पांच नहीं होने से यज्ञ पूर्ण नहीं होता | हम कह सकते हैं कि psychic (चैत्य), मन, प्राण, तन और अवचेतना में अग्नि, ये पंचों अग्नि आवश्यक हैं |
नील--Higher Mind (उच्चतर मन),
सूर्यालोक--Light of Divine Truth, (दिव्य सत्य का प्रकाश),
उज्जवल लाल--या तो Divine Love (दिव्य प्रेम) नहीं तो उर्ध्व चेतना की Force (शक्ति) |
११.४.३४
न : मेरी हर समय नीरव गंभीर एकांत में रहने की इच्छा होती है | बहिर्मुखी होकर और हल्की-फुल्की गपशप में चंचल हो जाती हुं |
उ०: Inner being (आंतरिक सत्ता) में जो हो रहा है उसी के फलस्वरूप अंदर से नीरवता की ओर खिंचाव है |
ये सब है symbols (प्रतीक) जैसे कमल चेतना का प्रतीक है, सूर्य ज्ञान का या सत्य का, चन्द्र आध्यात्मिक ज्योति का, तारे सृष्टि का, अग्नि तपस्या या aspiration (अभीप्सा) का, सुनहला गुलाब सत्य चेतनामय प्रेम और समर्पण का |
सफेद कमल-- मां की चेतना (divine consciousness)
गाय है चेतना और प्रकाश का प्रतीक | सफेद गाय का अर्थ है ऊपर की शुद्ध चेतना |
३९४
तुमने कहा था कि तुमने ध्यान में कुछ लिखा हुआ देखा-उसके उत्तर में मैंने कहा था कि जैसे ध्यान में नाना दृश्य दिखायी देते हैं, उसी तरह ध्यान वे कई तरह की लिखावट भी दिखाई देती है । इन सब लेखों को तुम लिपि या आकाशलिपि कहते हैं । इन लेखों को बंद आखों से भी देख सकते हैं, खुली आखों से भी ।
१३.४.३४
न: मैंने देखा गले के नीचे एक पोखर, छाती के नीचे एक पोखर और नाभि के ऊपर एक पोखर । इन तीनों में ही पानी नहीं, सब सूखा है । काफी देर बाद देखा कि बहुत ऊंचाई पर एक पर्वत है । उस पर्वत से होकर पवित्र जल उन पोखरों में गिर रहा है । और मां, देखा कि इस जल में कमल खिलने लगे हैं ।
उ० : साधारण मन, हृदय, प्राण ही हैं ये तीन सूखे पोखर--उनके अंदर ऊर्ध्व चैतन्य की धारा प्रवाहित हो रही है-और मन, हृदय, प्राण फूलों की तरह खिल रहे हैं ।
१६.४.३४
लाल-गुलाबी हैं भागवत प्रेम का प्रकाश, सफेद है भागवत चेतना का ।
न: Outer being (बाह्य सत्ता) को कैसे बदलूं और तुम्हारे श्रीचरणों में समर्पित करूं ? मेरा चिंतन, खाना, पहनना, बोलना, करना, सोना सब मानों तुम्हारा ही हो । मेरा प्रत्येक श्वास-प्रस्वास मानों तुम्हारी ओर से ही आ रहा है ऐसा अनुभव होता है ।
उ० : बाहर की ओर यह पूर्वावस्था बाद में आती है । अभी जाग्रत् चेतना में सत्य की अनुभूति को पनपने दो । उसके परिणामस्वरूप यह सब होगा ।
पेड़ है भीतरी spiritual life (आध्यात्मिक जीवन), उसके ऊपर बैठा है सत्य का विजयस्वरूप स्वर्ण-मयूर, प्रत्येक भाग में चन्द है आध्यात्म शक्ति का आलोक ।
१८.४.३४
('न' को लग रहा है कि इतने दिन उसने गलत ही साधना की । सब कुछ व्यर्थ हो गया, चेतना की कोई प्रगति नहीं - हुई | )
३९५
उ० : जो हुआ था वह न गलत था न व्यर्थ--जैसे-जैसे चेतना खुलती जाती है दृष्टि और साधना करने का ढंग बदलता जाता है । साधना में जो अहंकार, प्राणिक कामना का मिश्रण था वह झड़ना शुरू कर देता है ।
२०.४.३४
अनुभूतियां अच्छी हैं--यह अग्नि है psychic fire (चैत्य अग्नि) । -और जिस अवस्था का तुमने वर्णन किया है वह है psychic condition (चैत्य अवस्था) जिसके अंदर अशुद्ध प्रवेश नहीं पा सकता ।
२३.४.३४
यह चिंता और स्वप्न, लगता है, 'म' के मन से निकल अलक्षित भाव से तुम्हारी अवचेतना में प्रकट हुआ है । दूसरों के विचारों के आक्रमण से अवचेतन मन-प्राण की सदा रक्षा करना कठिन होता है । ये मेरे नहीं हैं ऐसा सोचकर ही अस्वीकार करना होता है ।
२६.४.३४
न: मैं अब देख रही हूं कि मेरा अंतर अहंकार, आत्मगरिमा, वासना, कामना, मिथ्या कल्पना, हिंसा, विरक्ति, उत्तेजना, अधिकार, आसक्ति, चंचलता, जड़ता, आलस्य आदि अजस्त्र दोषों से भरा है । मेरा कुछ भी तुम्हारी ओर नहीं खुला है, सिर्फ हृदय ही जरा-सा खुला है और psychic being (चैत्य) तुम्हें चाहता है ।
उ : अवश्य ही इन दोषों को निकाल बाहर करना होगा । किंतु जब हृदय खुल गया है और चैत्य सचेतन हो रहा है तब और सब खुलेगा ही खुलेगा, दोष बाधाएं धीरे-धीरे झड़ जायेगी ।
(संभवत: इस रेखांकित अंश की व्याख्या 'न' ने श्रीअरविन्द से मांगी होगी ।)
अर्थ : मनुष्य-मात्र में ये सब दुर्बलताएं रहती हैं, (उन्हें अपनी दृष्टि से बिना छिपाये) उनके बारे में सचेतन होना होता है-फिर भी चैत्य जब सचेत हो गया है तो डर की कोई बात नहीं । ये सब दूर हो जायेंगी ।
३९६
साधकों में चैत्य पुरुष जब सचेत होता है तब मनुष्य-स्वभाव की सब दोष--दुर्बलता वह दिखा देता है-निराशा के हेतु से नहीं, समर्पण और रूपांतर करने के लिये ।
२७.४.३४
न: प्रायः दिन भर अनुभव होता रहा है कि कमल-पुष्य की तरह मेरे अंदर कुछ खुलता जा रहा है, और ऊपर से नील-धवल प्रकाश और शांति उतर रही हैं । जब तुम्हें याद करती हूं तब देखती हुं कि ज्योतिर्मय और चंद्रालोक की तरह कुछ पतला-सा तुम्हारे जगत् की ओर उठ रहा है ।
उ० : जो खुल रहा है वह है psychic (चैत्य) और heart (हृदय) की चेतना--ऊपर से आ रही है Higher Mind (उर्ध्वतर मन) और भागवत चेतना की ज्योति और शांति । जो चांद की तरह उठ रहा है वह है psychic (चैत्य) से आध्यात्मिक aspiration (अभीप्सा) का स्रोत ।
आक्रमण होने पर रोना-धोना न मचाओ, मां को पुकारो-मां को पुकारने से शक्ति मिलेगी, आक्रमण निरस्त्र हो जायेगा ।
४.५.३४
कुछ तो वैसा ही है, तब हां, बाधा किसी को आसानी से नहीं छोड़ती, खूब बड़े योगी को भी नहीं । मन की बाधा से पार पाना अपेक्षाकृत आसान होता है किंतु प्राण और शरीर की बाधा उतनी आसानी से नहीं छूटती, समय लगता है ।
१८.५.३४
सांप है energy (ऊर्जा) का प्रतीक । ऊर्ध्व की एक energy (ऊर्जा) मस्तक के ऊपर higher consciousness (उच्चतर चेतना) में खड़ी है ।
३०.५.३४
न: मैंने देखा है कि मैं अपनी इस देह में नहीं हूं । एक आनंदित, मुक्त छोटी बालिका की तरह शायद तुम्हारे श्रीचरणों में हूं ।
३९७
उ०: तुम्हारे inner being (अंतर सत्ता) का रूप है यह |
निस्संदेह, इस तरह की आलोचना न करना ही श्रेयस्कर है | मनुष्य का स्वभाव है दूसरों के बारे में इस तरह की आलोचना करने का-बहुत-से अच्छे साधक भी इस तरह की आदत छोड़ना नहीं चाहते या छोड़ नहीं सकते | किंतु इससे साधना में क्षति ही होती है, उपकार नहीं |
१.६.३४
( Date 8.6.34 To Date-25.6.34 Not Apper )
जाग्रत् अवस्था में ही सब अवतरित करना ओर सारी भागवत अनुभूतियां पाना इस योग का नियम है | निस्संदेह, प्रारंभिक अवस्था में ध्यान में ही ज्यादा होता है ओर वह अंतत: उपकारी हो सकता है--लेकिन सिर्फ ध्यान में ही अनुभूति होने से समस्त सत्ता का रूपांतर नहीं होता | इसीलिये जाग्रतावस्था में वैसा होना खूब शुभ लक्षण है |
२५.६.३४
कमल और सूर्य का अर्थ तो तुम्हें पता है | उसे खाट पर देखने का कोई विशेष अर्थ नहीं, सिर्फ इतना ही कि यह सब physical (भौतिक) तक उतर रहा है |
न: आज देखा की तुम्हारी गोद में सिर रखकर मानों ध्यान कर रही हूं | और तुम्हारे शरीर से अग्निल प्रकाश बाहर निकल मेरी समस्त मलिनता को दूर कर रहा है, और एक शांत और खूब उज्ज्वल रूप बाहर निकल मुझे शांत और आलोकित कर रहा है |
उ०: यह है psychic (चैत्य) की सच्ची अनुभूति, अति उत्तम | यही चाहिये |
...हर रोज चिंतन न कर physical mind relax (भौतिक मन को ढीला छोड़) कर सदा मां को याद रखना विरले ही कर पाते हैं | उर्ध्व चेतना के पूर्ण अवतरण के बाद ही यह संभव होता है |
२६.६.३४
स्वर्ण=सत्य-ज्ञानमयी चेतना, रूपल = अध्यात्म चेतना |
२७.६.३४
३९९
'न' के लिखे पत्र में "सफेद प्रकाश" और "अग्निल प्रकाश" के सामने यथाक्रम श्रीअरविन्द ने लिखा, "भागवत चैतन्य का प्रकाश" एवं "aspiration (अभीप्सा) और तपस्या का प्रकाश" |
सोने की डोरी--मां के साथ सत्य चेतना का संबंध | सोने का गुलाब-सत्य चैतन्यमय प्रेम ओर समर्पण | सफेद कमल--मां की चेतना (Divine Consciousness) Higher Mind (उच्चतर मन) और psychic (चैत्य) में खुल रही है | चक्र का अर्थ है निम्न स्तर में मां की शक्ति काम कर रही है |
२८.६.३४
हीरक प्रकाश है मां का प्रकाश at its strongest (अपने प्रखर रूप में)--यदि साधक अच्छी अवस्था में हो तो इस तरह से मां के शरीर से निकल साधक के ऊपर पड़ना बहुत स्वाभाविक है |
२९.६.३४
किसी भी साधक के बारे में आलोचना करना अच्छा नहीं | इससे किसी का भला नहीं होता, वरन् अनिष्ट ही होता है | आश्रम में सब ऐसा करते हैं | किंतु इससे atmosphere troubled (वातावरण मलिन) होता है, साधना की हानि होती है | इससे मां के बारे में सोचना, योग या अन्य अच्छी बातों के बारे में बोलना ज्यादा अच्छा है |
बड़े-बड़े साधकों को भी बाधा आक्रांत कर सकती है, उससे क्या हुआ ? Psychic (चैत्य) अवस्था में रहने पर, मां के साथ युक्त रहने पर इन सब आक्रमणों का प्रयास बेकार हो जाता है |
४००
नीला तो Higher Mind (उच्चतर मन) का वर्ण है--नील पद्म है तुम्हारी चेतना में उर्ध्व चेतना का उन्मीलन |
३०.६.३४
हो सकता है की शरीर में ध्यान करने के लिये कुछ बाधा हो जिससे वह बैठना नहीं चाहता | बहुत-से लोगों के साथ ऐसा भी होता है कि साधना अपने-आप चलती है, जबर्दस्ती ध्यान में बैठना और नहीं होता, किंतु वैसे चलते-फिरते, सोते-जागते साधना चलती है |
२.७.३४
न: देखा की आधार में एक बहुत बड़ा वृक्ष है जो उर्ध्व की ओर बढ़ रहा है |
उ०: वृक्ष है तुम्हारा आध्यात्मिक जीवन जो तुम्हारे अंदर बढ़ाना शुरू हुआ है |
६.७.३४
हां, किसी कामना, मांग आदि का पोषण न कर मां को ही पुकारना होता है | उन सबके उठाने पर उन्हें प्रश्रय न दे फेंक देना चाहिये | उसके बाद भी प्रकृति के पुराने अभ्यासवश वे आ सकती हैं, लेकिन अनंत: वह अभ्यास क्षीण हो जायेगा, और नहीं आयेगा |
Sex-force (काम-शक्ति) मानव-मात्र में है | वह impulse (आवेग) प्रकृति का एक प्रधान यंत्र है जिसके द्वारा वह मनुष्य को चलाती है | संसार, समाज और परिवार का सृजन करती है, मनुष्य का जीवन बहुत-कुछ उसके ऊपर निर्भर करता है | इसलिये सबके अंदर sex-impulse (कामावेग) है, कोई भी अपवाद नहीं है--साधना करने पर भी यह आवेग छोड़ना नहीं चाहता, आसानी से नहीं छोड़ता | वह प्राणिक शरीर की प्रकृति रूपांतरित होने तक लौट-लौट कर आता है | फिर भी साधक सावधान हो उसको संयत करता है, निराकरण करता है, जितनी बार आये उतनी बार उसे लताड़ देता है--ऐसा करते-करते अंतत: यह विलीन हो जाता है |
१०.७.३४
४०१
मेरी बात, जो तुम्हें अनेक बार कही है, भूल न जाना | उतावली न हो स्थिर शांत-भाव से साधना करो | इससे धीरे-धीरे सब सही रस्ते पर जा जायेगा | जोर-जोर से रोना अच्छा नहीं--शांतभाव से मां को पुकारो, उनके प्रति समर्पण करो | प्राण जितना ही शांत होता है, उतनी ही साधना steadily (धीर गति से ) एक पथ पर चलती है |
१७.८.३४
शांत और सचेतन रहो, मां को पुकारो, अच्छी अवस्था लौट आयेगी | संपूर्ण समर्पण करने में समय लगता है--जहां देखो की नहीं हुआ है उसे भी समर्पित करो--इस तरह करते-करते अंतत: संपूर्ण होगा |
२७.८.३४
It is good (यह अच्छा है) |
यदि हृदय मां की ओर खुला रहे तो बाकी सब जल्दी खुल जाता है |
२९.८.३४
हां, अंदर ही सब कुछ है ओर वह नाशवान् नहीं-- इसलिये बाहरी बाधा-विपत्तियों से विचलित न हो उस भीतरी सत्य में संस्थित होना होता है और उसके फलस्वरूप बाह्य भी रूपांतरित होगा |
४. १०.३४
जब खूब गभीर अवस्था होती है तो उठने और चलने पर इस तरह के चक्कर आते हैं- शरीर की दुर्बलता के कारण नहीं, वरन् चेतना भीतर चली गयी, शरीर में पूर्ण चेतना नहीं रही इसलिये | ऐसी अवस्था में चुपचाप बैठे रहना अच्छा हैं-- जब चेतना शरीर में पूरी तरह लौट आये तब उठ सकती हो |
२४.१०.३४
यह बहुत बड़ी opening ( उद्घाटन) है-- जो सूर्य की ज्योति उतर रही वह सत्य की ज्योति है--वह सत्य उर्ध्व मन से भी बहुत ऊपर है |
४०२
मूलाधार है physical का centre (भौतिक का अंतर-चक्र), पोखर है चेतना की एक opening या formation (उद्घाटन अथवा आकार), उस चेतना के बीचों-बीच श्रीअरविन्द की उपस्थिति=लाल कमल और inner physical (अंतर-भौतिक) में प्रेम का गुलाबी प्रकाश उतर रहा है ।
कल्पना नहीं है । मां के अनेक व्यक्तित्व हैं, वे उन सभी के different (भिन्न- भिन्न) रूप हैं, वे सब समय-समय पर मां के शरीर में व्यक्त होते हैं । जैसा साड़ी का रंग होता है मां उसी रंग की ज्योति व शक्ति लेकर आती हैं । क्योंकि प्रत्येक रंग एक-एक शक्ति (force) का द्योतक है ।
२६.१०.३४
न: मां, देखती हूं कि मूलाधार का लाल कमल धीरे-धीरे खिलता जा रहा है और लगता है उसमें से तुम्हारा प्रकाश भी उतरने लगा है ।
उ०: That is very good. (यह बहुत अच्छा है) । वहीं से शरीर-प्रकृति का रूपांतर शुरू होता है ।
बाघा तो कुछ खास नहीं है, मनुष्य की बहिर्प्रकृति में जो होती है वही है--वे सब मां की शक्ति की working (क्रिया) द्वारा क्रमशः दूर हो जायेंगी । उसके लिये चिंतित या दुःखित होने का कोई कारण नहीं ।
१२.११.३४
हां, जो कहती हो वह सच ही है । बहिस्चेतना अज्ञानमयी होती है, ऊपर से जो आता है उसका मानों एक गलत transcription (गलत नकल या गलत अनुवाद) करना चाहती है, अपने जैसा बनाना चाहती है, अपने कल्पित भोग या बाहरी सार्थकता या अहंभाव की तृप्ति की ओर घुमाने का प्रयास करती है । यही है मानव स्वभाव की दुर्बलता । भगवान् को भगवान् के लिये ही चाहना होता है, अपनी चरितार्थता के लिये नहीं | जब psychic being (चैत्य पुरुष) भीतर सबल होता है तभी बहिर्प्रकृति के
४०३
ये सब दोष कम होते-होते अंत में निर्मूल हो जाते हैं ।
(१९३४)
अज्ञान, अहंकार और कामना ही हैं बाधा-तन, मन, प्राण यदि उर्ध्व चेतना के आधार बन जाये तो यह भागवत ज्योति शरीर में उतर सकेगी ।
८.१.३५
ऊपर का यही जगत् है उर्ध्व चेतना का स्तर (plane) । हमारी योगसाधना द्वारा उतर रहा है । पार्थिव जगत् आजकल विरोधी प्राण जगत् के तांडव से भरा हुआ और ध्वंसोन्मुख है ।
निम्न प्राण और मूलाधार ही हैं sex-impulse (कामावेग) के स्थान । गले के नीचे है vital mind (प्राणिक मन) का स्थान । अर्थात् जब नीचे sex impulse उठती है तब vital mind में उसी की (sex impulse) चिंता या कोई mental (मानसिक) रूप लेने का प्रयास होता है, उससे मन विक्षिप्त-सा हो जाता है ।
१५.१.३५
लगता है बाहय स्पर्श से यह सब हुआ है । इस समय यह प्राणिक गड़बड़ें कुछ लोगों में बार-बार हो रही हैं । एक से होकर दूसरे में जा रही है एक रोग की तरह | ज्यादातर भाव यह रहता है कि में मर जाऊं, यह शरीर न रखूं, इस शरीर से योगसाधना नहीं होगी, यही भाव प्रबल होता है । लेकिन यह शरीर छोड़ दूसरा शरीर धारण करने पर बिना बाधा के योगसिद्धि होगी यह धारणा बिलकुल भ्रांत है । बस इस भाव से यह देह त्यागने पर दूसरे जन्म में ज्यादा बाधाएं आयेंगी और मां के साथ संबंध रहेगा ही नहीं । यह सब है विरोधी शक्तियों का आक्रमण, उनका उद्देश्य है साधकों की साधना भंग करना, मां का शरीर भंग करना, आश्रम का और हमारा काम भंग कर देना । तुम सजग रहना, इन सबको अपने अंदर घुसने मत देना ।
बाहर के लोग मुझे डांटते हैं, मुझे चोट पहुंची है, मैं मर जाऊंगी, ये बातें हैं प्राणिक अहंकार की, साधक की नहीं । मैं तुम्हें सतर्क कर चुका हूं अहंकार को तूल
४०४
न दो । कोई यदि कुछ बात कहता है तो अविचलित रही, शांत, सम, निरहंकार भाव से रहो, मां के साथ जुड़ी रहो ।
२७.१.३५
सूर्य के अनेक रूप होते हैं; बहुत-से रंगों के प्रकाश का सूर्य, जैसे लाल वैसे ही हिरण्यमय, नीला, हरा इत्यादि ।
२९.१.३५
इस तरह मां में मिल जाना ही है असली मुक्ति का लक्षण ।
३१.१.३५
इस तरह शरीर में मां की ज्योति फैल जाने से physical (शारीरिक) चेतना का रूपांतर संभव हो जाता है ।
It is very good. (अति उत्तम) । सोते समय चेतना एक-पर-एक कई स्तरों में जाती है । जगत् पर जगत्-जैसा जगत् है वैसा स्वप्न देखती है । बुरे स्वप्न हैं प्राण जगत् के कुछ प्रदेशों के दृश्य और घटना-मात्र-और कुछ नहीं ।
२.२.३५
न: मां, दो दिन से प्रणाम करके आने के बाद अवस्था मानों कुछ और ही हो जाती है, कुछ भी अच्छा नहीं लगता । कहां जाऊं, कहां जाने से मां मिलेंगी, भगवान् मिलेंगे, शांति और आनंद मिलेंगे और कब अपने को मां को दे सकूंगी--ऐसे विचार उठते हैं ।
उ० : ऐसे विचारों को घुसने मत दो--इन्हीं विचारों ने बहुतों के अंदर घुसकर उनकी साधना में विषम व्याघात पहुंचाया है--इससे मां के प्रति असंतोष, अस्थिर चंचलता, चले जाने की इच्छा, मर जाने की इच्छा, स्नायविक दुर्बलता इत्यादि घुस पड़ते हैं । जो एक तामसिक शक्ति आश्रम में घूमती-खोजती फिर रही है कि किसको पकडूं वही शक्ति ये सब अज्ञानमयी चिंताएं घुसा देती है इन feelings (चिंता-
४०५
विचारों) का कोई सिर-पैर नहीं होता--मां को छोड़ कहां जाकर मां को पाओगी । शांति और आनंद लाभ करोगी । इन सब को पल-भर के लिये भी प्रश्रय मत देना ।
२२.४.३५
सांप है प्रकृति की शक्ति-मूलाधार (physical centre) है उसका प्रधान स्थान--वह वहां कुंडलित अवस्था में सोयी रहती है । जब साधना करने से जगती है तब सत्य के साथ मिलने के लिये ऊपर की ओर उठती है । मां की शक्ति के अवतरण से वह इस बीच स्वर्णमय हो उठी है, अर्थात् भागवत सत्य की ज्योति से ज्योतित ।
२५.४.३५.
नहीं, यह कल्पना या मिथ्या नहीं है--उपर का मन्दिर उर्ध्व चेतना का है, नीचे का मन्दिर इस मन, प्राण, शरीर की रूपांतरित चेतना है--मां ने नीचे उतर इस मंदिर को गढ़ा है और वहां से तुम्हारे अंदर सर्वत्र सत्य का प्रभाव फैला रही हैं ।
२६.४.३५
न : मां, मैं तुम्हारे चरणों के पास क्यों कुछ नहीं देखती और अनुभव करती, सब कुछ तुम्हारी गोद और हृदय से ही क्यों अनुभव करती हूं ?
उ०: सबके साथ प्रायः ऐसा ही होता है--हृदय से ही मां की सृष्टि और शक्ति बाहर निकल सबके अंदर अपना काम करती हैं । और स्थानों पर से भी करती है लेकिन केंद्र है हृदय ।
२६.४.३५.
समीपता और भीतर मां की सन्निधि को feel (अनुभव) करना, मां ही सब कर रही हैं ऐसा अनुभव करना, मां का सब कुछ अपने भीतर ग्रहण करना ही साधना है । ऐसी अवस्था रहने पर और मन लगाकर पढ़ने से कोई क्षति नहीं हो सकती ।
२९.४.३५
मां तुम्हें चाहती हैं और तुम मां को । तुम मां को पा रही हो, और भी पाओगी ।
४०६
फिर भी हो सकता है कि तुम्हारी physical consciousness (भौतिक चेतना) में बीच-बीच में यह आकांक्षा का उठे कि जो मां का बाहरी घनिष्ठ संबंध और शारीरिक सान्निध्य इत्यादि हैं वह होना चाहिये । मां वह सब मुझे क्यों नहीं देतीं, शायद मुझे नहीं चाहती । किंतु जीवन और साधना की इस अवस्था में वैसा हो नहीं सकता । देने पर भी उससे साधक उसीमें मशगूल हो जायेगा और असली भीतरी रूपांतर और साधना होंगी नहीं । मैं सिर्फ मां का आंतरिक घनिष्ठ संबंध और सान्निध्य एवं रूपांतर चाहती हूं-बाह्य तन, मन, प्राण भी संपूर्ण रूप से ऐसा अनुभव करेंगे और रूपांतर होगा । ऐसा ही मानकर चलो ।
१७.५.३५
न: बीच-बीच में लगता है कि सारी सत्ता खूब खुलकर रो ले तो बहुत कुछ परिवर्तित हो जायेगा । मां, तुम्हारे लिये अब रोने-धोने की जरूरत है क्या ?
उ० : रोना यदि psychic being (चैत्य) का हो, सच्ची-शुद्ध चाहना या चैत्य भाव का क्रन्दन-पुकार हो तो ऐसा फल हो सकता है । Vital (प्राणिक) दुःख या कामना या निराशाजनित रोना-धोना करने से तो सिर्फ हानि ही होती है ।
मैं यह बात बहुत बार बता चुका हूं कि मनुष्य की बाहरी चेतना का पूर्ण रूपांतर थोड़े समय में नहीं होता । भागवत शक्ति उसे धीरे-धीरे बदलती जाती है जिससे अंत में कुछ बचा नहीं रह जाता, क्षुद्रतम भाग में भी निम्न प्रकृति को कोई पुरानी हरकत नहीं रह जाती । इसलिये अधीर हो haste (उतावली) नहीं करते । सिर्फ सब कुछ समर्पित करना होता है, मां के प्रति खोलना होता है । बाकी सब धीरे-धीरे ठीक हो जायेगा ।
१.६.३५
न:... काम-काज करते हुए, चलते-फिरते, अंदर-बाहर हर सभय एक ही अवस्था--शांत, नीरव और आनंदित ।
उ० : यह बहुत अच्छी है--पूर्ण समता और असली ज्ञान की अवस्था--जब यह स्थायी हो जाती है तब कह सकते हैं कि साधना ने जड़ पकड़ ली है ।
७.६.३५
४०७
मूलाधार का स्वर्णिम सर्प--रूपांतरित सत्यमयी शरीर-चेतना का प्रतीक ।
१३.६.३५
तुम यदि भीतर शांत और समर्पित रही तो बाधा-विघ्न इत्यादि तुम्हें विचलित नहीं करेंगे । अशांति, चंचलता और ''क्यों नहीं हो रहा, कब होगा'' आदि भावों को घुसने देने से बाधा-विघ्नों को बल मिलता है । तुम बाधा-विघ्नों की तरफ इतना ध्यान देती ही क्यों हो ? मां की ओर निहारो । अपने अंदर शांत और समर्पित बनी रहो । निम्न प्रकृति के छोटे-छोटे defect (दोष) आसानी से नहीं जाते । उनके कारण विचलित होना व्यर्थ है । जब मां की शक्ति संपूर्ण सत्ता और अवचेतना पर पूर्ण प्रभुत्व पा लेगी तब होगा--इसमें यदि बहुत दिन लग जायें तो भी क्षति नहीं । सर्वांगीण रूपांतर के लिये बहुत समय की आवश्यकता होती है ।
१९.६.३५
ऊपर जो खूब बड़ा-सा कुछ है वह है ऊर्ध्व चेतना की असीम विशालता । तुम्हें जो यह अनुभव हो रहा है कि सिर घूम-घूम कर नीचे आ रहा है वह मस्तक तो निश्चय ही नहीं है, वह है मनबुद्धि । वह उस विशालता में उठकर इसी तरह नीचे आता है ।
२२.६.३५
कितनी दूर आ गयी हूं और कितनी दूर जाना है इन सब प्रश्नों का कोई लाभ नहीं । मां को खिवैया बनाकर प्रवाह में बढ़ती चलो, वे तुम्हें गंतव्य स्थान पर पहुंचा देंगी ।
२५.६.३५
मस्तक के ऊपर एक कमल है, वह है ऊर्ध्व चेतना का केंद्र. हो सकता है कि वह कमल खिलना चाहता है ।
२४.८.३५
मस्तक के ऊपर है ऊर्ध्व चेतना का स्थान, ठीक मस्तक के ऊपर से वह शुरू होता है एवं और भी ऊपर अनंत तक जाता है । वहां जो विशाल शांति और नीरवता हैं उन्हीं
४०८
का pressure (दबाव) तुम अनुभव कर रही हो । वह शांति और चेतना समस्त आधार में उतरना चाह रही हैं ।
जब चेतना विशाल और विश्वमय हो जाती है और अखिल विश्व में मां ही दिखायी देती हैं तब अहं और नहीं रह जाता, रह जाती है सिर्फ मां की गोद में तुम्हारी वास्तविक सत्ता, मां की संतान और मां का अंश ।
क्यों दुःख पा रही हो ? मां पर निर्भर रह, समता बनाये रखने से दुःख पाने का कोई कारण नहीं । मनुष्यों से सुख, शांति और आनंद पाने की आशा व्यर्थ है ।
८.९.३५
तुम्हीं मेरी बात समझ नहीं सकीं । मैंने यह नहीं कहा था कि तुम्हें बीमारी नहीं है, मैंने यह कहा था कि यह बीमारी nervous (स्नायुजात) है । एक तरह की बदहजमी है जिसे डॉक्टर नाम देते हैं nervous dyspepsia (स्नायुजात अजीर्ण) जो सब sensation (भाव) तुम अनुभव कर रही हो, गले और छाती में खाना उठकर अटकना इत्यादि, वे सब उसी रोग के लक्षण हैं, nervous sensation (स्नायुजात अनुभव) | इस रोग से मुक्ति बहुत-कुछ मन पर निर्भर करती है | मन यदि रोग के suggestion (सुझाव) के अनुसार खाता-पिता है तो रोग बहुत दिन तक बना रहता है, मन यदि उन सब suggestions (सुझावों) को नकार देता है तो रोग से छुटकारा आसान हो जाता है, विशेषकर जब मां की शक्ति भी हो | मैंने यही कहा था की उल्टी-उल्टी के भाव को accept न करो (प्रश्रय न दो), मां को पुकारो | बिमारी चली जायेगी |
मैंने बार-बार एक बात तुम्हें लिखी है, उसे भूल क्यों जाती हो ? शांति और दृढ़ता के साथ, मां पर पूरी तरह निर्भर रह पथ पर आगे बढ़ना होगा | अधैर्य चंचलता को प्रश्रय नहीं देना, समय लगने या बाधा आने पर भी विचलित, अधीर या उद्विग्न न हो चलाना होगा | अधीर होने, अस्थिर और उद्विग्न होने से बाधा बढ़ जाती है, और भी देर लगती है | यह बात सदा याद रखकर साधना करो |
बिलकुल निराहार रहना ठीक नहीं--उससे कमजोरी बढ़ जाती है, कमजोरी बढ़ने से बीमारी लंबी हो जाती है | निदान है दूध तो पीना ही चाहिये, संभव हो तो पेट को
४०९
थोड़े-थोड़े खाने का भी अभ्यास करना चाहिये । मां कह रही हे yellow (पीला) केला खाने को, lithine (लिथनी पाउडर) लेना भी अच्छा है ।
इस रोग में यकृत की distrubances (गड़बड़े) हो सकती हैं । खाते ही जरा देर में जी का मिचलाना है nervous dyspepsia (स्नायुजात अजीर्णता) का लक्षण ।
१०.९.३५
दोनों तरह से करना अच्छा है । यदि केवल दूर रहकर साधना करना संभव होता तो वही सर्वश्रेष्ठ होता, किंतु ऐसा हमेशा होता नहीं । असली बात तो यह है कि चैत्य में अपनी दृढ़ अवस्थिति कर या निरापद दुर्ग बना साधना करनी होती है--अर्थात् स्थिर-धीर भाव से मां पर निर्भर करना, अधीर न हो प्रसन्न चित्त से चलना । तुम जो कह रही हो वह ठीक है--बड़ी बाधाओं की अपेक्षा ये छोटी-छोटी असंपूर्णताएं इत्यादि ही हैं इस समय असली अंतराय । लेकिन इन्हें धीरे-धीरे बाहर निकालना होता है, असंपूर्णता को पूर्णता में बदलना होता है, आनन-फानन में सब कुछ नहीं हो जाता । अतएव उन्हें देखकर दुःखी या अधीर नहीं होते, मां की शक्ति ही धीरे-धीरे वह काम कर देगी ।
१२.९.३५
जैसे इस साधना में चंचलता दूर करनी होती है उसी तरह दुःख को भी स्थान नहीं देना चाहिये । मां पर भरोसा रखकर स्थिर चित्त और शांत प्रसन्न मन से आगे बढ़ना होता है । जब मां पर भरोसा हो तब दुःख की गुंजायश ही कहां ? मां दूर नहीं हैं, हमेशा पास ही हैं यह अहसास और विश्वास हमेशा बना रहना चाहिये ।
१७.९.३५
उससे घबराओ नहीं । हर समय प्रयास करके याद रखना आसान नहीं--जब मां की presence (उपस्थिति) से सारा आधार भर उठेगा तब उसका स्मरण स्वतः बना रहेगा, भूलने का कोई कारण नहीं रहेगा ।
२३.९.३५
जो feel (अनुभव) कर रही हो वह ठीक ही है--यही है मनुष्य की बाधा, दुःख और अवनति का कारण । मनुष्य स्वयं ही है अपने अशुभ का निर्माता, प्रश्रयदाता और उससे चिपटा रहता है ।
२६.९.३५
४१०
यदि गभीर हृदय (चैत्य) का पथ अनुसरण करो, मां की गोद में शिशु की नाई रहो तो ये सब sex-impulse (कामावेग) इत्यादि धावा बोलने पर भी कुछ नहीं कर सकेंगे और अंतत: तो घुस भी नहीं सकेंगे ।
३०.९.३५
यदि मां के प्रति शुद्ध प्रेम और भक्ति हो, उन पर भरोसा हो तो उन्हें पाया जा सकता है । ये न हो तो कठिन प्रयास द्वारा भी उन्हें नहीं पाया जा सकता ।
२.१०.३५
सब है बाह्य प्रकृति जो अंदर घुसने के लिये साधक के चारों ओर मंडराती रहती है । अपने तन, मन, प्राण यदि इस बाह्य प्रकृति के कवल से कवलित रहें तो निस्संदेह इस तरह का पर्दा रह सकता है लेकिन यदि मां पर भरोसा हो, उनसे युक्त हो जाये तो उनकी शक्ति वह पर्दा फाश कर देगी और तन, मन, प्राण और चेतना को अपने यंत्र के रूप में परिणत कर देगी ।
शरीर में मां की शक्ति को पुकार कर इन सब व्यथा और बीमारियों को दूर भगाना होगा ।
९.१०.३५
Yes, this is the true psychic attitude. (हां यही सच्चा चैत्य मनोभाव है ।) जो यह मनोभाव हमेशा, हर घटना में बनाये रख सकता है वह सीधे गंतव्य पर पहुंच जाता है ।
११.१०.३५
मनुष्य का मन ही है अविश्वासी कल्पना, गलत धारणा और अश्रद्धा से भरा, अज्ञानमय और दुःख से संकुल । अज्ञान ही है अश्रद्धा का कारण, दुःख का मूल । मनष्य की बुद्धि है अज्ञान का यंत्र, वह प्रायः ही गलत चिंतन और गलत धारणाएं बनाती है पर सोचती है मैं ही ठीक हूं । उसके चिंतन में गलती है कि नहीं और गलती कहां है यह देखने और
४११
विचारने का धैर्य उसमें नहीं । यहांतक कि भूल दिखाने से अहंकार को चोट लगती है, क्रोध या दुःख होता है, स्वीकार करना नहीं चाहती । लेकिन दूसरों के दोषों और गलतियों को दिखा सकने से उसे खूब तृप्ति मिलती है । दूसरों की निंदा सुन तत्काल उसे सच मान बैठती है, वह कितनी सच है या झूठ इसपर विचार भी नहीं करती । इस तरह के मन में श्रद्धा और विश्वास आसानी से नहीं जमते । इसीलिये लोगों की चर्चा सुनते नहीं, सुननी भी पड़े तो उससे अपने को प्रभावित नहीं करते । असली चीज है अपने अंतरस्थ चैत्य पुरुष को जगाना । उसीमें से सत्य बुद्धि धीरे-धीरे मन में पनपती है, सत्य भाव और feeling (भावना) हृदय में आती हैं, सत्य प्रेरणा प्राण में उठती है । चैत्य के प्रकाश में मनुष्य सब चीजों, घटनाओं और जगत् को नयी दृष्टि से देखता है, मन की अज्ञानमयी गलत दृष्टि, गलत विचार, अविश्वास और अश्रद्धा और नहीं आते ।
२२.१०.३५
[किसी ने 'न' के साथ दुर्व्यवहार किया]
इस समय प्रायः ही साधकों का अहंकार उठकर साधना में घोर अवरोध पैदा कर रहा है, बहुतों से अनुचित व्यवहार करा रहा है । तुम स्वयं अचल हो अंतरस्थ रहो, उसे जगह न दो ।
२३.१०.३५
This is very good. (अति उत्तम) । ये सब अतिक्रमण यदि घुस नहीं सकते, या घुसने पर भी टिक नहीं सकते तो समझो कि outer being (बाह्य सत्ता) की चेतना जागृत हो गयी है और उसकी शुद्धि में प्रचुर progress (प्रगति) हुई है ।
२७.१०.३५
आत्मा ही इस तरह से असीम विराट् इत्यादि है, भीतर का मन, प्राण और physical consciousness (भौतिक चेतना) जब संपूर्ण रूप से खुलते हैं तो वे भी वैसे ही हो जाते हैं--बाहरी तन, मन, प्राण तो इस जगत् की बाह्य प्रकृति के साथ व्यवहार करने और खेलने के लिये यंत्र-मात्र हैं । बाह्य तन, मन, प्राण भी जब प्रकाशमय, चैतन्यमय हो जाते हैं तब वे संकीर्ण और आबद्ध नहीं रह जाते, अनन्त के साथ मिल जाते हैं ।
३०.१०.३५
४१२
जब physical consciousness (भौतिक चेतना) प्रबल हो और सबको आच्छादित कर सारी जगह हथिया लेने का प्रयास करती है तब ऐसी अवस्था होती है--क्योंकि जब अकेली भौतिक चेतना की प्रकृति प्रगट होती है तब सब कुछ जड़बद्ध, तमोमय, ज्ञान के प्रकाश से रहित, शक्ति की प्रेरणा से रहित अनुभव होता है । इस अवस्था को प्रश्रय मत मत दो-यदि आये तो मां की ज्योति और शक्ति को पुकार लाओ इस भौतिक चेतना के भीतर जिससे यह आलोकमय और शक्तिमय हो उठे ।
हां, खाना अच्छा है--कमजोर हो जाने से तमोमयी अवस्था आने की संभावना ज्यादा हो जाती है ।
३१.१०.३५
न: मां, तुम्हारी होकर सिर्फ तुम्हारे लिये काम करती हूं । 'क' मेरे साथ दुर्व्यवहार करे तो भी मैं नीरव और शांत रहती हूं ।... किसी का कोई व्यवहार, कोई बात मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती ।
उ० : काम में यह मनोभाव ही अच्छा है । हर समय यह बना रहना चाहिये, इससे काम में मां के साथ जुड़ना आसान हो जाता है ।
२.११.३५
वही तो चाहिये--हृदय-कमल सर्वदा खुला, सारी nature (प्रकृति) हृदयस्थ चैत्य के आधीन, इसी से होता है नवजन्म ।
३.११.३५
न: मैं आज भी तुम्हें अपने से बहुत दूर क्यों महसूस करती हूं मां ?
उ०: क्यों महसूस करती हो ? क्योंकि inner being (चैत्य पुरुष) को physical mind (भौतिक मन) द्वारा आच्छादित होने देती हो इसलिये । तुम्हारा चैत्य पुरुष अपने को हमेशा ही मां के शिशु के रूप में पहचानता है, मां के पास, मां की गोद में रहता है--physical mind (भौतिक मन) के लिये वैसा सोचना, उस सत्य तक पहुंचना उतना आसान नहीं होता । इसीलिये हमेशा गहराई में चैत्य पुरुष में
४१३
रहना होता है । जो अंदर तुम्हारी आत्मा जानती है उसे बाहर से भौतिक मन द्वारा खोजने की क्या आवश्यकता है ? जब बाह्य मन पूर्ण रूप से ज्योतित हो जायेगा तब वह भी जान जायेगा ।
६.११.३५
हा, पूरी सत्ता (physical mind और physical vital --भौतिक मन और भौतिक प्राण तक) को एक तरफ ही मोड़ना होता है । वे भी जब उस तरफ मुड़ जाते हैं तब कोई serious difficulty (गंभीर कठिनाई) और नहीं रह जाती ।
७.११.३५
जो बहुत बार कह चुका हूं वही दोहरा रहा हूं । शांत समाहित होकर साधना करो, सब कुछ ठीक रास्ते पर चलेगा, बाह्य प्रकृति भी बदलेगी, लेकिन एकाएक नहीं, धीरे--धीरे । दूसरी तरफ यदि विचलित और चंचल होओ, कल्पना या अधिकार का भाव उठे तो निरर्थक दुःख-कष्ट को जन्म दोगी । मां गंभीर हो गयीं, मुझसे प्यार नहीं करतीं आदि ये सब मां पर आक्रोश, किसी कामना या मांग के लक्षण हैं, क्योंकि कामना और मांग पूरी नहीं हुई इसलिये ऐसी धारणा बनती है । इन सबको स्थान मत दो, इन सबसे बेकार साधना में क्षति पहुंचती है ।
२९.११.३५
यह अवस्था और ऐसे विचार ही ठीक हैं, इन्हें सब समय बनाये रखो । अहंपूर्ण विचारों से और लोगों व घटनाओं को न देख अध्यात्म-बुद्धि से भीतर की चैत्य-दृष्टि से देखना चाहिये ।
७.१२.३५
जिसमें मां के ऊपर संपूर्ण विश्वास और श्रद्धा है वह हर समय मां की गोद में, मां के हृदय में वास करता है । बाधाएं आ सकती हैं पर हजारों बाधाएं भी उसे विचलित नहीं कर सकतीं । यह अटूट विश्वास, यह श्रद्धा हर समय, सब अवस्थाओं में, सब घटनाओं में बनाये रखनी चाहिये । यह है योग का मौलिक सिद्धांत । बाकी सब गौण बातें हैं, यही है वास्तविक रहस्य ।
१६.१२.३५
४१४
इस समय शक्ति physical consciousness (भौतिक चेतना) पर काम कर रही है इसलिये बहुत-से लोगों में भौतिक चेतना की यह बाधा बहुत प्रबल भाव में उठी थी--तुम्हारी छटपटाहट का कारण यही था की तुमने अपने को इस बाहरी भौतिक चेतना के साथ identify (तदात्म) कर लिया था मानो वह चेतना ही तुम हो । किंतु असली सत्ता भीतर है जहां मां के साथ तदात्मता है । इसीलिये physical consciousness (भौतिक चेतना) के अज्ञान, तामसिकता, गलतफहमी आदि अपने बल के साथ नहीं मिलाने चाहियें । ये हैं मानो बाहरी यंत्र, इस यंत्र के जितने दोष और असंपूर्णताएं हैं वह सब मां को शक्ति दूर कर देगी ऐसा मान कर भीतर से साक्षी की तरह, अविचलित रहकर देखना होता है--मां पर संपूर्ण विश्वास और श्रद्धा रखते हुए ।
भीतर सब कुछ है और मां का काम वहां हो रहा है । लेकिन बाहरी मन के साथ मिले रहने से, उसके पूर्ण आलोकित न होने तक और अंदर तदात्मता न होने तक उस काम की भनक नहीं मिलती |
१९.१२.३५
तुम जो वर्णन कर रही हो, "भीतर गहराई में शांतिमयी, प्रेममयी वेदना होती है और तब भीतर कुछ मुझे खींचता-सा है" यह psychic वेदना के सिवा और कुछ नहीं हो सकता | ये सभी psychic sorrow (चैत्य दु:ख:) के लक्षण है |
२०.१२.३५.
इन सब बाधाओं को देखकर विचलित मत होओ | भीतर जाकर स्थिर भाव से देखती जाओ, भीतर से ही ज्ञान बढ़ेगा | मां शक्ति ही धीरे-धीरे इन सब बाधाओं को दूर कर देगी |
२०.१२.३५
असली बात यह है कि कर्म करते समय अहंकार या बाह्य प्रकृति के वश में न हो जाओ | यदि ऐसा होता है तो फिर काम साधना का अंश नहीं रह जाता, वह हो जाता है एक सामान्य काम की तरह | काम भी समर्पित भाव से अंदर से करना होता है |
२७.१२.३५
४१५
न: आज कुछ दिनों से दुःख, निरानन्द और हताशाभरे विचार और प्रेरणाएं आनी शुरू हुई हैं । मैं सिर्फ छोटे-से शिशु के समान मां-मां पुकारती हुई चल रही हूं । इससे देखती हूं कि कुछ समय बाद सब कुछ old (सूखे) पत्तों की तरह झड़कर गिर गये हैं और तुम्हारी शांति, प्रकाश, पवित्रता और आनंद उतरने लगे हैं ।
उ०: इस तरह reject (परित्याग) कर देने से, फेंक देने से वे सब suggestion (सुझाव) नष्ट हो जाती हैं--उनका जोर क्रमशः कम होता जाता है और अंत में वे निष्प्राण हो जायेंगी ।
४.१.३६
न: सिर्फ बाधा को लेकर ही उद्विग्न हो उठी थी, उसीके बारे में बहुत सोच रही थी इसीलिये इतना दुःख-कष्ट और आघात मिला । तुम्हें और नहीं बिसराऊंगी ।
उ० : यही अच्छा है । यदि ऐसा कर सको तो बाधा बाधा की तरह नहीं आयेगी वरन् रूपांतर की सुविधा के लिये आयेगी ।
इस सब गड़बड़-झमेले के बारे में एक बात कहनी आवश्यक हो गयी है-तुम किसके साथ घनिष्ठता रखती हो या ज्यादा मिलती-जुलती हो इस विषय में इस समय बहुत सावधान रहो । जैसे D.R. (भोजनालय) में 'च' और 'ज' । 'च' के अंदर अशुद्ध शक्तियां खुल खेलती हैं, उस समय उसके शरीर में एक ज्याला उठती है और मति उलट जाती है, hunger-strike (भूख हड़ताल) करके जबदरस्ती मां से अपनी इच्छा मनवाना चाहता है, विद्रोह करके हमारी बुराई तक करता है, साधिकाओं के मन में हमारे प्रति असंतोष पैदा करने की चेष्टा करता है | मैंने देखा है कि 'च' के साथ जो ज्यादा मेलजोल बढ़ाते थे उनके अंदर भी पेट में अग्निज्वाला की गड़बड़ और मतिभ्रष्ट हो जाने की अवस्था संक्रामक रूप से आरंभ हुई थी | 'ज' के साथ उतना नहीं होता फिर भी जाने से अहंकार और अशुद्ध अवस्था सहज ही उठ खड़ी होती है, शारीर में भी अग्निज्वाला और बहुत-सी गड़बड़ें होती है | तुम्हारी गड़बड़ की, unsafe condition (असुरक्षित अवस्था) की feeling (भावना), और शरीर में कटे घाव पर लाल मिर्च लगने की-सी feeling (संवेदना) उनकी उसी अशुद्ध शक्ति का धावा बोलने का प्रयास हो सकता है | इसीलिये कहता हूं सावधान रहो, मां के सिवाय और किसी के प्रति अपने को open न करो (मत खोलो)| यह बात सिर्फ तुम्हारे लिये ही लिख रहा हूं, और किसी को नहीं बताना | प्रणाम के समय मां देख रही थीं कि तुम्हारे अंदर कुछ गड़बड़ की feeling क्यों हो रही है | प्रकृति की बाधाएं तो सबमें ही होती
४१६
हैं--लेकिन उनसे गड़बड़ न हो इसके लिये सजग रहना अच्छा है ।
२१.१.३६
यह अनुभूति बहुत अच्छी है । प्रणाम के समय मां भीतर से क्या दे रही हैं वही feel (अनुभव) करना चाहिये--सिर्फ बाहरी appearance (दिखावे) को देखकर लोग कितना गलत समझते हैं, भीतरी दान लेना भूल जाते हैं या ले नहीं सकते ।
२२.१.३६
यह change (परिवर्तन) (पीछे की तरफ) बहुत अच्छा है, बहुत बार पीछे से इस तरह का आक्रमण होता है लेकिन मां की शक्ति और चेतना वहां हों तो वह प्रवेश नहीं कर सकता । सफेद कमल का अर्थ है कि वहां मां की चेतना प्रकट हो रही है ।
पीछे की तरफ है चैत्य पुरुष का स्थान और वहां जितने भी केंद्र हैं, जैसे heart centre, vital centre, physical centre (हृदय केंद्र प्राण-केंद्र और भौतिक केंद्र) जहां मेरुदण्ड के साथ मिलते हैं वहां उनकी अवस्थिति है । इसीलिये इस पीछे की चेतना की अवस्था बहुत important (महत्त्वपूर्ण) है ।
२४.१.३६
यह जो feeling होती है (महसूस होता है) कि मां दूर हैं, यह धारणा गलत है । मां तुम्हारे पास ही हैं लेकिन जब बाहरी मन, प्राण का पर्दा पड़ जाता है तो ऐसी धारणा बनती है । जो एक बार अंदर ही अंदर मां की गोद में रहता है उसके लिये इस पर्दे को सरकाना मुश्किल नहीं होता ।
३१.१.३६
एक बात याद रखो कि मां दूर नहीं जातीं, हमेशा तुम्हारे पास भीतर ही होती हैं--जब बाहरी प्रकृति में किसी भी तरह की चंचलता होती है तब वह एक लहर की तरह भीतर सत्य को ढक देती है, इसीलिये ऐसा महसूस होता है । अंदर रहो, अंदर से ही सब देखो, करो ।
१२.२.३६
४१७
ये सभी ठीक है । बाह्य अहंकार और अज्ञान हैं असत्य । बाहरी तुम्हारा निजी नहीं, आत्मा का नहीं, ऐसा समझकर reject (अस्वीकार) करना होता है । इसलिये भीतर रहना होगा, वहां से सब समझना, देखना, करना होगा ।
१३.२.३६
जब हम बाहरी भौतिक चेतना में रहते हैं तब इस तरह की साधना-शून्य अनुभूति शून्य अवस्था होती है--ऐसा सबके साथ होता है । ऐसा न हो इसका एकमात्र उपाय तुम्हें बताया था--भीतर रहना, बाहरी अज्ञान, अहंकार और साधारण प्राणवृतियों के अधीन न हो भीतर चैत्य लोक से इन सबको देखना, परिहार करना । भीतर से ही मां की शक्ति धीरे-धीरे इन सब अंधकारमय भागों को आलोकित और रूपांतरित करती है । जो ऐसा करते हैं उन्हें बाधा भी बाधा नहीं दे सकती । बहुत-से लोग ऐसा नहीं करते, जबतक भौतिक के ऊपर से आलोक, शक्ति इत्यादि नहीं उतरते वे भौतिक में ही निवास करते हैं ।
२३.२.३६
इस बात का उत्तर मैं पहले ही दे चुका हूं । भीतर रही, बाहरी आंख से नहीं, भीतर से सब देखो । चेतना बहिर्मुखी होने से सोचने करने में बहुत भूलें हो सकती हैं । भीतर रहने से चैत्य क्रमश: प्रबल होता है, चैत्य ही सत्य को देखता है, सब कुछ सत्यमय कर देता है ।
२५.२.३६
इस चिंता और भय के बदले यह निश्चयता और श्रद्धा रखनी चाहिये कि जब एक बार भीतर मां के साथ तार जुड़ गया है तब चाहे हजार बाधाएं आयें या बाहरी प्रकृति के कितने ही दोष और असंपूर्णताएं हों, मेरे अंदर मां की विजय अवश्यंभावी है, अन्यथा हो ही नहीं सकता ।
२६.२.३६
जब यह शून्यावस्था आती है तब मन को खूब शांत रखो, बाहरी प्रकृति में उतारने के लिये मां की शक्ति और आलोक को पुकारो ।
७.३.३६
४१८
यह सब बाहरी प्रकृति से आता है । जैसे ही आये वैसे ही 'यह मेरा नहीं है' कह reject (वर्जन) करो । बाहर से जो आता है उसे स्थान न मिलने से अंत में आ ही नहीं सकेगा ।
९.३.३६
''लोगों ने चोट पहुंचायी'' मतलब तुम्हारे अहंकार ने चोट खायी । जितने दिन अहंकार रहेगा उतने दिन उसपर आघात पड़ेगा ही । अहंकार को छोड़कर शुद्ध समर्पित अंतःकरण में समभाव से काम करना होता है । यही है साधना का मुख्य अंग । ऐसा करने से आघात नहीं लगेगा, मां को पाना भी आसान होगा ।
१८.३.३६
भीतर से जो आवाज आयी है वह सच है । बहिश्चेतना के अज्ञान से सिर्फ भूल-भ्रांति और व्यर्थ का कष्ट होता है, वहां सब कुछ अहं का खेल है । भीतर ही रहना चाहिये--जिसके अंदर असली सत्य-चेतना, सत्य-भाव, सत्य-दृष्टि है, वहां अहंकार, अभिमान, कामना या दावा रत्ती-भर भी नहीं रहना चाहिये, उसे ही grow करने (पनपने) दो, तब मां की चेतना तुम्हारे अंदर प्रतिष्ठित होगी, मानवी प्रकृति का अंधकार, विरोध और विभ्राट् नहीं रहेगा ।
ऐसी बात । पहले भीतर से पाना होगा मां को, बाहर से नहीं । बाहर से पाने जाने पर वैसा भी होता तो है, लेकिन भीतर का कभी भी उसके द्वारा आलोकित नहीं होता । भीतर में पूर्णरूपेण पा लेने के बाद बाहर जो भी आवश्यक हो वह realised (सिद्ध) हो सकता है । दो-एक को छोड़ कोई भी अभीतक इस सत्य को अच्छी तरह नहीं समझ पाया है ।
२२.३.३६
न: सपने में देखा कि एक पुरुष सामने आ खड़ा हुआ है । उसकी छाती पर चढ़कर मैंने उसे मार डाला और उसके पुरुषांग को काट डाला ।... तब मैंने देखा कि मेरा रूप काली की तरह हो उठा है ।
उ० : यह पुरुष कोई vital force (प्राणिक शक्ति) हो सकता है, शायद sex
४१९
impulse (कामावेग) की कोई force (शक्ति) हो । इस अनुभूति से ऐसा लगता है कि तुम्हारी प्राण-सत्ता ने उसे काट फेंका । साधक को प्राण-सत्ता को ऐसा ही योद्धा होना चाहिये । खराब प्राण-शक्ति के वश में न हो, भयभीत न हो उसका सामना करो और उसका नाश करो ।
२३.३.३६
न: मां, मैं देख रही हूं कि मेरा मन खूब शांत, पवित्र और आलोकित हो विश्वमय हो रहा है ।
उ० : बहुत ही सुन्दर अनुभूति है । इससे लगता है कि mind (मन) में उर्ध्व चेतना उतर रही है, आत्मा की उपलब्धि को नीचे उतार ला रही है । तभी मन ऐसा शांत, पवित्र, आलोकमय और विश्वमय होता है-क्योंकि आत्मा या true (यथार्थ) सत्ता वैसी ही शांत, पवित्र, आलोकमयी और विश्वमयी है ।
२७.३.३६
हां, ऐसे ही ऊर्ध्व चेतना को शांत, विश्वमय भाव लेकर नीचे उतरना चाहिये, पहले मन में, बाद में हृदय में (emotional vital and psychic में)-उसके बाद नाभि में और नाभि के नीचे vital (प्राण) में, अंत में सारे physical (भौतिक) पर छा जाये ।
२८.३.३६
नीला प्रकाश मेरा है, श्वेत प्रकाश मां का--जब ऊर्ध्व चेतना (higher consciousness) विश्वमय भाव लेकर आधार में उतरना आरंभ करती है तब नीले प्रकाश का दिखना बहुत स्वाभाविक होता है ।
भीतर मां के साथ युक्त रहना चाहिये और वहां से बाहरी प्रकृति के दोष-त्रुटियों को देखना चाहिये, देखने पर न विचलित होना चाहिये न निराश । स्थिर रहते हुए उसका प्रत्याख्यान कर मां के प्रकाश और शक्ति के बल से उसमें सुधार लाना चाहिये ।
४२०
जिस चिंता की बात कह रही हो उसे दूर करना चाहिये । मैंने जो चाहा हुआ नहीं, जिसे पाने की आशा की वह मिली नहीं । कैसे करूंगी, मेरा तो कुछ भी नहीं होने का--प्राणों को चाहना और पाने न पाने की चिंता-ये सब अश्रद्धा की बातें हैं । मां के पास से मैं क्या पा सकूंगी यह सोच है अहं की-मां को किस तरह अपना सर्वस्व दे सकूं यह भाव है अंतरात्मा का--साधकों में सभी छिपी बाधाओं के मूल में है यही पाने की भावना । जो सर्वस्व भगवान् को देता है वह भगवान् को और भगवान् का सब कुछ पाता है, न चाहने पर भी पाता है । जो इस और उस की मांग करता है उसे वह मिलता है पर भगवान् नहीं मिलते ।
१८.४.३६
बाघाओं से सामना होने पर कोई यदि मां पर निर्भर कर, सचेतन रह, मां की शक्ति के जोर से, धीर भाव से उन्हें परे ठेल देता है, चाहे वे जितनी बार भी क्यों न आये, तो अंतत: वह बाधाओं से मुक्त होगा ही होगा ।
२०.४.३६
It is good. (यह अच्छा है) । सब समय मां पर ऐसी संपूर्ण आस्था रखनी चाहिये कि हम उसीके हाथ में हैं, उसकी शक्ति से सब कुछ होगा । ऐसा होने पर बाधा के लिये न दुःख आयेगा न निराशा ।
१७.५.३६
ऐसी अवस्था होनी चाहिये कि चेतना तो रहेगी भीतर मां के साथ युक्त और मां की शक्ति काम करायेगी, बाहरी चेतना उस शक्ति का यंत्र बन काम करेगी-किंतु ऐसी अवस्था पूरी तरह सहज ही नहीं आती । साधना द्वारा धीरे-धीरे आती है और धीरे- धीरे complete (पूरी) होती है ।
२३.५.३६
साधना-पथ में बहुत बार शुन्यता का अनुभव होता है--शून्य अवस्था से विचलित नहीं होना चाहिये । शून्यता बहुत बार नूतन उन्नति को राह prepare (तैयार) करती है । पर नजर रखनी होगी कि शून्यता की अवस्था में कहीं विषाद या चंचलता न आ जाये ।
२५.५.३६
४२१
यही ठीक है । देह के मरने से मुक्त्ति नहीं मिलती, इसी देह में नवीन देह चेतना और उसी नवीन चेतना की शक्ति चाहिये ।
ऐसी अवस्था ही तो चाहिये-अंदर सब विराट् शांत, नीरव, मां-मय और आनंदमय ।
२८.५.३६
'स' के बारे में लिखा था कि 'प' की अधखायी रोटी ग्रहण करना बड़ी भूल थी । ऐसी जगह में उस व्यक्ति में यदि कोई खराब शक्ति अधिकार किये हुए हो तो इस आहार को साधन बना वह शक्ति खानेवाले के शरीर पर, प्राण पर आक्रमण कर सकती है ।
३.६.३६
न : 'त' और 'स' के साथ और दिनों से ज्यादा बातें करने के कारण सिर में बहुत दर्द हो रहा था और बेचैनी महसूस कर रही थी । फिर जब थोड़ा शांत हुई, तुम्हें पुकारा और मेरे भीतर एक 'तुम'-मय तीव्र इच्छा और विश्वास जगा कि यह दूर होगी ही । थोड़ी देर बाद देखा, सचमुच वह दूर हो गया है और मैं असीम शांति, आनंद प्रेम और पवित्रता से और तुमसे भर उठी हूं ।
उ० : यही है असली उपाय-इसी उपाय से चेतना के lowering और deviation (निम्न गति और भ्रांत गति) से मुक्ति मिल सकती है ।
९.६.३६
न : सारी रात मानो अंधकारमय अचेतन, तमोमय जगत् में मुर्दे की तरह पड़ी रहती हूं । सवेरे उठ नहीं पाती । जबर्दस्ती उठती हूं तो देखती हूं कि शरीर बहुत ही जड़-सा, अलस, बलहीन, उत्साहहीन शांति और आनंदरहित हो जाता है । मां, ऐसा होने पर नींद को मुझसे दूर कर दो ।
उ० : अचेतना को नींद ऐसी ही होती है । पर नहीं सोने से अचेतना में दबाव बढ़ जाता है, कम नहीं होता । ऐसे में एकमात्र उपाय है ऊपर से प्रकाश और चेतना को उतार लाना ।
२०.६.३६
४२२
बाधा की अवस्था कभी भी स्थायी नहीं रह सकती--मां की गोद से तुम दूर जा भी नहीं सकती-कभी-कभार पर्दा पड़ जाता है केवल, इसलिये बाधा के सिर उठाने पर डरो मत, दुःखी मत होओ, बाधा को reject (परे) करते-करते, मां को पुकारते--पुकारते अच्छी अवस्था लौट आती है--अंत में बाधा के उठने पर भी वह स्थायी यथार्थ अवस्था को cover नहीं कर सकती (ढक नहीं सकती) |
२२.६.३६
यह है उर्ध्व चेतना का सोपान--इस चेतना के अनेक plane या स्तर हैं, इस सोपान में स्तर-पर-स्तर पार करते हुए अंत में हम supermind (अति मानस) में भगवान् के सीमाहीन आलोकमय, आनन्दमय, अनंत में उठते हैं |
२७.६.३६
जब आज्ञान का मिथ्थात्व उठता है तब पथ ढक जाया करता है--इसका उपाय है इस मिथ्यात्व पर विश्वास न करना, इस suggestion (सुझाव) को reject (परित्याग) करना कि यह सब सत्य नहीं हो सकता | बाधाएं है तो क्या हुआ, सीधे पथ पर बढ़ते चलो, अंतत: बाधाएं झड़ जायेंगी |
यह है बाहरी गड़बड़ी का फल | शरीर पर आक्रमण--शांतभाव से, अपने में संयत रहे उसे दूर करना होगा |
१.७.३६
बाहर प्रिय या अप्रिय जो कुछ घटे, सब समय अविचलित रहना, भीतर मां के साथ युक्त रहना--यह तो अच्छी बात है | ऐसी ही अवस्था साधक के लिये उचित है |
२.७.३६
अभी भी शरीर बाहर के साधारण influence (प्रभाव) से ऊपर नहीं उठा है--सर्दी वर्षा, ठंड, नम हवा का फल है यह | किंतु शरीर मां की शक्ति की ओर खुला है, उस
४२३
शक्ति को पुकारने से ये सब बाहरी स्पर्श शीघ्र ही पुंछ जाते हैं |
१२.७.३६
न: मेरे अंदर अब और दुःख, रोना, हताशा, मर जाऊंगी, चली जाऊंगी, मां मुझे प्यार नहीं करतीं आदि मानव प्रकृति की चीजें प्रवेश नहीं कर पा रहीं । यदि कभी आ भी जाये तो न जाने कौन मुझे सचेत कर जाता है और मैं एक छोटे शिशु की तरह मां-मां पुकारने लगती हूं और हृदय की गहराई में जाती हूं...
उ०: It is very good. (यह तो बड़ी अच्छी बात है) । इस तरह चलते रहने पर मानव-प्रकृति की ये सब पुरानी पड़ गयी movements (गतिविधियां) झड़ जायेंगी, फिर लौटकर नहीं आयेंगी ।
न: मां, अब मैं feel (अनुभव) करती हूं कि तुम मेरे भतर से काम करती हो और मेरे भीतर हो... । आजकल कोई यदि काम के लिये बक-झक करे तो मैं शांत रहती हूं और सतर्क हो भीतर के आनंद से काम करने की चेष्टा करती हूं । किंतु कभी-कभी बाहरी और मानवी प्रकृति की चीजें आ मुझे घेर लेती हैं, तब मैं घपले में पड़ जाती हूं, चिंता और चंचलता अनुभव करती हूं और तुम्हें भूल जाती हूं ।
उ०: This also is very good (यह भी बहुत अच्छी बात है) । बाहरी प्रकृति और भूलना हैं स्वभाव की habit (आदत) के कारण । किंतु इस भीतरी भाव को यदि सर्वदा यत्न से बनाये रखी तो ये सभी habits (आदतें) झड़ जायेंगी, फिर पास नहीं फटकेंगी । वास्तविक चेतना की movements (गतिविधियां) ही मन-प्राण की natural habits (स्वभाव) बन जायेंगी ।
१८.७.३६
हमने तुम्हें छोड़ नहीं दिया है । जब depression (निराशा) आता है तब तुम ऐसी बातें करती हो । रह-रह कर तुम बाहरी चेतना में आ जाती हो और मां को अनुभव नहीं करतीं । इसीलिये ऐसा नहीं सोचना चाहिये कि मां ने तुम्हें छोड़ दिया है । पुन: भीतर पैठो, वहां उन्हें feel (अनुभव) करोगी ।
५.९.३६
४२४
जब चेतना physical (भौतिक) में उतरती है तब ऐसी अवस्था होती है । इसका यह अर्थ नहीं कि साधना का सारा फल व्यर्थ गया है या ऊपर चला गया है । सब कुछ है पर आवरण की आड़ में हो गया है । इस obscure physical (अंधकारमय भौतिक) में भी मां की चेतना, प्रकाश और शक्ति को उतारना चाहिये--जब वह प्रतिष्ठित हो जायेगी तब फिर वह अवस्था लौट कर नहीं आयेगी । यदि विचलित होओ, निराश होओ या ऐसे विचार प्रवेश करें कि अब मेरा इस जीवन में कुछ नहीं होगा, मरना ही अच्छा है, आदि, तब चेतना प्रकाश और शक्ति के उतरने की राह में बाधा बनकर खड़ी हो जाती है । अत: इन सबको बहिष्कृत कर मां पर निर्भर रहते हुए शांत भाव से aspire (अभीप्सा) करना और उन्हें पुकारना उचित है ।
१९.९.३६
मां ने तो तुम्हारे बारे में ऐसा कुछ नहीं कहा । यह बात ठीक है कि हर एक को मां ने एक मुख्य काम दिया है, वही है प्रधान कार्य । उसके बाद बच रहे समय में वे जो कुछ करना चाहे वह अलग बात है । असल बात है, बाहरी कुछ न चाहते हुए, मां के चरणों में समर्पण करते हुए सब काम right sprit (सही भावना) से करना चाहिये ।
२१.९.३६
यह सीधा आलोकमय पथ ही है असली पथ । पर हां, उसतक पहुंचने में समय लगता है । एक बार इस पथ पर पहुंच जाने पर और कोई खास कष्ट, बाधा या स्खलन नहीं होता ।
मैं बता चुका हूं कि क्यों हठात् और संपूर्णत: नहीं हो जाता-बाह्य physical consciousness (भौतिक चेतना) के ऊपर उठ आने के कारण सभी की ऐसी अवस्था होती है । तब धैर्य के साथ उस अवस्था में मां की चेतना को उतारना होता है, ज्यादा समय लगे भी तो कोई हानि नहीं । रूपांतर तो बहुत कठिन और महान् काम है, उसमें समय लगना स्वाभाविक है । धैर्य रखना चाहिये ।
२६.९.३६
४२५
यह सच है कि बाहरी मन, आंख, मुंह को अपना न मानते हुए सब कुछ मां को देना होता है ताकि सब उसके ही यंत्र बनें, और कुछ नहीं ।
१.१०.३६
ये विलाप और आक्रोश तामसिक अहंकार के लक्षण हैं--मैं नहीं कर सकती, में मर जाऊंगी, मैं चली जाऊंगी आदि कहने-सोचने से बाधाएं और भी घनी हो उठती हैं और तामसिक अवस्था की वृद्धि करती हैं, इससे साधना में उन्नति के लिये कोई सहायता नहीं मिलती । मैं तुम्हें यह बार-बार लिख चुका हूं । असली बात एक बार और लिख रहा हूं । तुम्हारी साधना नष्ट नहीं हुई है, जो पाया है वह खो नहीं गया है, सिर्फ पर्दे के अंतराल में हो गया है । साधना करते हुए एक समय ऐसा आता है जब चेतना एकदम ही physical plane (भौतिक स्तर) पर उतर आती है । तब भीतरी सत्ता पर, भीतर की अनुभूतियों पर एक अप्रवृत्ति और अंधकार का परदा पड़ जाता है, ऐसा लगने लगता है कि साघना-वाधना कुछ नहीं है, aspiration (अभीप्सा) नहीं, अनुभूति नहीं, मां का सान्निध्य नहीं, नितांत साधारण मनुष्य की तरह हो गयी हूं । ऐसी अवस्था सिर्फ तुम्हारी ही हुई हो सो बात नहीं, सभी की ऐसी होती है या हुई है या होगी, यहांतक कि श्रेष्ठ साधकों की भी ऐसी अवस्था होती है । पर वास्तविकता तो यह है कि यह साधना-पथ का एक passage (पड़ाव) मात्र है, यद्यपि बड़ा लम्बा पड़ाव । ऐसी अवस्था न होने पर पूर्ण रूपांतर नहीं होता । इस स्तर पर उतर, वहां स्थिर रह मां की शक्ति की लीला को, रूपांतर के काम को पुकारना होता है, धीरे-धीरे सब clear (साफ) हो जाता है, अप्रकाश के बदले दिव्य प्रकाश, अप्रवृत्ति के बदले दिव्य शक्ति और अनुभूतियों का प्रकाश होता है । सिर्फ भीतर ही नहीं, बाहर भी, सिर्फ ऊंचे स्तर पर नहीं, निम्न स्तर पर भी, शरीर की चेतना में, अवचेतना में भी होता है । और जिन सब अनुभूतियों पर परदा पड़ गया था वे सब बाहर निकल आती हैं, इन सभी स्तरों को भी अपने अधिकार में कर लेती हैं । पर ऐसा सहज ही और शीघ्र नहीं होता, धीरे--धीरे होता है--चाहिये घैर्य, चाहिये मां पर विश्वास, चाहिये दीर्घकालव्यापी सहिष्णुता । जो भगवान् को चाहता है उसे भगवान् के लिये कष्ट स्वीकार करना पड़ता है । जो साधना चाहता है उसे साधना-पथ की कठिनाइयों, कष्टों और विपरीत दशा को सहना पड़ता है । साधना में केवल सुख और विलास चाहने से नहीं चलेगा, बाघाएं हैं, विपरीत अवस्था आती है कह रोने-धोने और निराशा का पोषण करने से नहीं चलेगा । उससे पथ और भी लंबा हो जाता है । धैर्य चाहिये, श्रद्धा चाहिये और चाहिये मां पर पूर्ण निर्भरता ।
१४.१२.३६
४२६
यही attitude (मनोभाव) अच्छा है । जब भी कठिनाइयां आती हैं, चेतना पर पर्दा पड़ जाता है | तब विचलित न हो शांत भाव से मां को पुकारना चाहिये जबतक कि परदा सरक न जाये । पर्दा पड़ता जरूर है पर सब कुछ अंतराल में रहता है ।
१५.१२.३६
मां ने स्वेच्छा से चोट नहीं पहुंचायी ! पर हां, यदि भीतर कोई कामना या अहंकार रहे तो वे उठ खड़े होते हैं और मां से उसकी स्वीकृति या पोषण न पाने के कारण आहत महसूस करते हैं और साधक मान बैठते हैं कि मां हमें चोट पहुंचा रही हैं । कभी मां यदि चोट करें भी तो अहंकार और कामना को चोट पहुंचाती हैं, तुम्हें नहीं । अहंकार और कामना को वर्जित कर संपूर्ण आत्मसमर्पण करने से प्रकृति के सब दोष क्रमश: तिरोहित हो जाते हैं एवं मां का चिर सान्निध्य उपलब्ध हो सकता है ।
१५.१.३७
शारीरिक चेतना में नीचे उतर आना तो सभी साधकों में होता है--नीचे नहीं उतरने से उस चेतना का रूपांतर होना कठिन है ।
२४.१.३७
न : मां, मैं प्रायः हर समय तुम्हारे प्रकाश और चेतना को अपने अंदर उतार लाने की कोशिश करती हूं पर मेरे अंदर वैसा कुछ नहीं हो रहा । मैं क्या करूं मां ?
उ० : धीरज रख चेष्टा करते रहने से अंततः नतीजा निकलना आरंभ होता है । शरीर-चेतना खुलती है, थोड़ा-थोड़ा कर परिवर्तन आरंभ होता है ।
इससे विचलित मत होओ । योग-पथ में ऐसी अवस्था आती ही है--जब निम्नतम शरीर-चेतना में और अवचेतना में उतर आने का समय आता है तो वह सब अनेक दिन टिक जाते हैं । किंतु इस पर्दे के पीछे मां हैं, बाद में दिखायी देंगी, यह निम्न राज्य उर्ध्व आलोक के राज्य में परिणत होगा ऐसा दृढ़ विश्वास रखकर सब समर्पण करते-करते इस बाधापूर्ण स्थिति का अंत आ जाने तक आगे बहती चलो ।
८.३.३७
४२७
मां तुमसे दूर नहीं चली गयी हैं, साथ ही हैं--बाह्य चेतना के परदे के कारण अनुभव नहीं कर पा रही हो-यह विश्वास रखकर चलना होता है कि मां मेरे साथ हैं, मेरे अंदर ही हैं । ये कठिनाइयां तो कुछ भी नहीं, मनुष्य-मात्र में ये कठिनाइयां रहती हैं, ''उपयुक्त'' तो कोई भी नहीं । अच्छे-बुरे को गिनते रहना व्यर्थ है । मां पर विश्वास और अटूट aspiration (अभीप्सा) रखना ही सार है । इससे सारी बाधाओं को अतिक्रम किया जा सकता है ।
१४.३.३७
जितना भी नीचे, अतल गहराई में जाओ, मां वहां तुम्हारे साथ हैं ।
१८.३.३७
मां और भगवान् के बिना तुम नगण्य हो-मां तो तुम्हारे साथ ही हैं । साधक पाताल में उतरते हैं वहां ऊर्ध्व के प्रकाश और चेतना को उतार लाने के लिये--ऐसा विश्वास रख धीर चित्त से चलो; वह प्रकाश, वह चेतना उतरेगी ही उतरेगी ।
३.४.३७
अंतिम पत्र मैं जो लिखा है सब सच है--इसी तरह सतत सचेत रहो । बाहरी स्पर्श या मिथ्यात्व को शक्ति के suggestion (सुझाव) से अब और विचलित या विमूढ़ नहीं होना चाहिये । अपने अंदर रहो जहां मां हैं--बाहर तो बाहर है, बाहर को भीतर से सत्य की आंखों से देखना चाहिये, तभी साधक निरापद होता है । अज्ञान में डूबे रहने के कारण साधक खुद मां के पास से दूर हो जाते हैं । मां तो कभी दूर नहीं होतीं, चिरकाल के लिये अंदर, साथ ही हैं । भीतर रहने पर उन्हें खोने का प्रश्न ही नहीं उठता ।
पुनश्च-रोग शायद इस आक्रमण का फल है । शांत रह, मां की तरफ शरीर-चेतना को खोल दो, ठीक हो जायेगा ।
३.६.३७
न : आजकल प्रतिपल, हर श्वास-प्रश्वास में, हर सोच-विचार और दृश्य में असंख्य छोटे-छोटे ओसकणों की तरह अनुभव करती हूं कठिनाइयों को । प्रायः ही सिरदर्द रहता है, खासकर तब जब भीतर डूबी होती हूं यह असह्य हो उठता है । कभी-कभी
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छाती में भय की तरह कुछ कंपित होता है, मन-प्राण छटपटाते हैं, कभी तो कांटे की तरह कुछ गले में अटक-सा जाता है... ।
उ० : शरीर-चेतना तो ऐसी कठिनाइयों को उभारती ही है । इनकी उपेक्षा कर, दृढ़ हो मां के पास जाने के लिये अटल संकल्प रखो तब बाधाएं पथ पर रोड़े नहीं अटकायेंगी ।
६.६.३७
मां की सहायता तो है ही । बाधा से निराश न हो, भीतर से नीरव हो अपने को खोल दो । जो सहायता पाओगी उसे ग्रहण कर सकोगी ।
३१.८.३७
मां का प्रेम और सहायता सदा ही हैं, उसका कभी भी अभाव नहीं होता ।
२६.९.३८
न : अभीतक भी मैं क्यों नहीं मां को काम करते समय याद रख सकती ?
उ. : मन का स्वभाव है कि जो वह करता है उसमें मग्न रहता है । साधना के अभ्यास से मन को इस साधारण गति को अतिक्रम किया जा सकता है ।
सारी सत्ता को detail (विस्तार) से खोलने और संपूर्णत: समर्पित होने में समय लगता है, खासकर lower vital और physical (नाभि के नीचे और पांव के तल तक) में उर्ध्व चेतना को उतारने में समय लगता है । तुम्हारा higher vital (उच्चतर प्राण) काफी खुला है, निम्न प्राण और शरीर-चेतना खुल रहे हैं--पर पूरी तरह नहीं खुले हैं इसीलिये बाधाएं अब भी है पर उनसे विचलित नहीं होना चाहिये | तुम्हारे अंदर मां का काम द्रुत गति से हो रहा है | सब हो जायेगा |
मैंने लिखा था की किसी तरह की कामना या दावे को कोई प्रश्रय न दे मां को ही चाहना चाहिये | कामना आदि आती हैं प्राणों की पुरानी आदत के कारण | पर तुम
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यदि हामी न भरो और हर वार उसे झाड़ फेंको तो आदत का जोर कम पड़ जायेगा, अंतत: कामना और दावा नहीं रह जायेंगे ।
It is very good. (यह बहुत अच्छा है) । जब अंदर परिवर्तन हुआ है तब बाहर भी धीरे -धीरे हो जायेगा । बहिस्सत्ता भीतर के प्रकाश का, मां का यन्त्र बनेगी ।
न : मैं पूरे आधार में तुम्हारी शक्ति और काम को अनुभव कर रही हूं । बोध हो रहा है कि पीछे की तरफ अर्थात् पीठ के मध्य कुछ खुल रहा है और वहां तुम्हारी शक्ति और ज्योति को देखती हूं और अनुभव करती हूं ।
उ० : अति उत्तम । पीछे की सत्ता प्रायः अचेतन ही रहती है और उसके द्वारा बाधाएं सहज ही घुस आती हैं । इस तरह पीछे के भाव का खुलना और सचेतन होना खूब अच्छा फल लाता है |
नींद न आना, शरीर का दुर्बल होना किसी भी तरह ठीक नहीं । नींद न आने से शरीर कमजोर होगा ही । नींद में भी साधना की स्थिति रह सकती है । यानी मां की गोद में सोना, किंतु नींद तो आनी ही चाहिये ।
कभी अच्छी अवस्था, कभी कंटकाकीर्ण अवस्था तो सबकी होती है । यह तो साधना की परंपरा है । धीरज से काम लो । धीरे-धीरे अच्छी अवस्था बढ़ेगी, बाधाएं कम हो जायेंगी, अंत में खतम हो जायेगी ।
अशान्ति और अचेतनता आने पर शांत हो उनका प्रत्याख्यान कर मां को समर्पित करो, तब ये नहीं टिक पायेंगी ।
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मां की सहायता तो तुम्हारे पास है ही । अपने को खुला रखने से तुम्हारे भीतर उनका काम फलीभूत होगा ।
यही तो चाहिये-यदि बाधा आयेगी और वह तुम्हें डिगा न पाये तब तो चेतना की दृढ़ प्रतिष्ठा हो रही है--जैसे भीतर वैसे ही बाहरी प्रकृति में भी ।
क्लांति का बोध होना शरीर चेतना का, तमोगुण का प्रधान लक्षण है जब शरीर--चेतना यह सोचती है कि 'मैं काम कर रही हूं' तब ऐसा क्लांति-बोध होता है । आजकल आश्रम में शरीर-चेतना में इस तमोगुण का खूब खेल हो रहा है, एक की चेतना से दूसरे की चेतना में इसका प्रसार हो रहा है ।
'मां आज गुरु-गंभीर थीं । मुझसे असंतुष्ट हैं । मैं योग के अयोग्य हूं, मेरा कुछ नहीं होने का', ऐसे ख्यालों से आश्रम के अनेक साधक विरोधी शक्ति के आक्रमण को अपने भीतर प्रवेश करने देते हैं, यंत्रणा भोगते हैं, यहांतक कि चरम विपदा में गिरने की तैयारी करते हैं । तुम उनकी तरह मत करो । जब ऐसे विचार आये तब उन्हें दूर ठेल दो । Confidence in the Mother (माँ पर विश्वास) है इस योग का प्रधान अवलम्ब । यह विश्वास कभी नहीं खोना चाहिये ।
निःसंदेह वाक्-संयम साधना के पथ में बहुत उपकारी हैं । अनावश्यक बात बोलने से शक्ति का क्षय होता है और बहुत आसानी से निम्न चेतना में गिर पड़ते हैं ।
बहिर्मन की बाधा को अतिक्रम करने में समय लगता है क्योंकि उसकी जड़ स्वभाव की मिट्टी में बड़ी गहरी और दृढ़ता से रोपी हुई होती है । इस बाधा से विचलित होना ठीक नहीं, इस stage (अवस्था) में वह स्वाभाविक है | उसे पूरी तरह निर्मूल
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करने के लिये patience (धैर्य) और perseverence (अध्यवसाय) चाहिये ।
तुम्हें कहा है कि कुछ बाधाएं ऊपरी सतह पर रहेंगी, भीतर शांत-स्थिर रहने से वे भीतर नहीं घुस सकेंगी-साधना करते-करते वे ऊपरी बाधाएं भी धीरे-धीरे लुप्त हो जायेंगी--ये सब प्रायः आनन-फानन में नहीं चली जातीं ।
न : मां, जैसे ध्यान में शांति और प्रकाश अनुभव करती हूं, जाग्रतावस्था में भी जैसे वही अनुभव करती हूं । तुम क्या अभी पुन: मेरे अंदर उतर आयी हो ? लगता है तुम्हारे चरण-युगल मेरे भीतर उतर आये हैं और वहां विराजमान हैं ।
उ० : It is very good (यह बहुत अच्छा है) । सब अंदर ही निहित था, कुछ भी खोया नहीं था--देख ही रही हो कि सब कुछ लौट रहा है१ ।
न : कल जो मैं सारा दिन रोती रही वह इसलिये कि क्यों मैं तुम्हारे साथ युक्त नहीं, क्यों मैं pure (पवित्र) और तुम्हारे प्रति पूर्ण रूप से open(खुली) नहीं । आज वह मनस्ताप नहीं है । आज मैं तुम्हें हर समय, हर चीज में feel (अनुभव) कर रही हूं और तुम मानों धीरे-धीरे मेरी ओर बढ़ती आ रही हो और अपने शांति और आलोक से भर मुझे उठा रही हो ।
उ० : यह सब अच्छा ही है । अभी तक जो हर समय और संपूर्ण रूप से नहीं होता तो इसमें कोई आश्चर्य करने की, दुःखी होने की कोई बात नहीं । साधना मैं इतनी जल्दी और इतनी दूर तक जो प्रगति हुई है वही आश्चर्यजनक और सुखद है ।
न : मां, आज प्रणाम करने के समय मेरे भीतर तुमसे कुछ पाने के लिये लालायित था । किस कारण से मेरे भीतर ऐसा हुआ ? क्यों मैं प्रफुल्ल अंतर से, मुक्त भाव से सब कुछ तुम्हारे श्रीचरणों में अर्पित नहीं कर सकी ?
१ श्रीमां को संबोधन करके लिखे गये साधकों के अनेक पत्रों के उत्तर श्रीअरविन्द दिया करते थे | --सं०
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उ० : लगता है पुराने अभ्यासवश कुछ पाने की चाह मन में उठी थी । कामना दुःख की जननी है । जरा सजग हो प्रत्याख्यान करने से चली जायेगी ।
न : लगता है मां को सर्वत्र और सर्वदा देख पा रही हू और आंखें सजल हो उठती हैं । ये आंसू तो निजी दुःख के आंसू नहीं । फिर ये किसलिये ?
उ० : आंसू जब दुःख के नहीं हैं तो प्रेम-भक्ति के ही आंसू होंगे ।
न : मां, तुमने अपने शिशु को और शिशु के सारे भार को ओढ़ लिया है और तुम्हारे और मेरे बीच कोई भेद नहीं रहा । चलचित्र की तरह, काल्पनिक वस्तु की तरह मैं यह सब क्या देख रही हूं ?
उ०; यह अवस्था अच्छी ही है । जब भेद नहीं रहा तो उसका मतलब है कि भीतरी चेतना मां के साथ मिल गयी है, इसीलिये ऐसा अनुभव हो रहा है ।
न : हृदय में तुम्हारे आसन के दोनों ओर काफी ऊंचाई से दो सीढ़ियां उतर रही हैं, एक रूपहली दूसर सुनहली । छोटी बालिका की न्याईं इस सीढ़ी से बहुत-सी शक्ति उतर रही है; उसका रूप, परिधान और प्रकाश दो तरह का था--शुभ्र धवल और उज्ज्वल सूर्य की तरह ।
उ० : आध्यात्मिकता का पथ और आध्यात्मिक शक्ति और ऊर्ध्व सत्य का पथ और उस सत्य की शक्ति ।
उ०: कभी-कभी ऐसा feel (महसूस) करती हूं कि काफी ऊंचाई से कोई मधुर भाव से कह रहा है, ''आओ, आओ, सब कुछ छोड़ समर्पण कर ऊपर उठ आओ ।'' और इस वाणी को सुनने के साए-साथ खूब उज्ज्वल नीला प्रकाश भी पाती हूं । मां, मुझे कौन बुला रहे हैं ?
उ० : एक दिन ऊपर, मन से ऊपर उठना होगा । ऊपर की शांति और शक्ति को
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नीचे उतारना और ऊपर आरोहण कर मन के ऊपर रहना--ये दोनों योग के आवश्यक अंग हैं ।
न : आज मेरे साथ किसी का कुछ संबंध नहीं, मैं मानों सब कुछ से मुक्त हो गभीर शांति और मातृमयी चेतना में डूबी हुई हूं । आज दो बार दो खराब शक्तियों को देखा था, तब समझ लिया था कि वे मेरी पुरानी चेतना और अंधकार के रास्ते मेरे अंदर प्रवेश करना चाहती हैं । किंतु मैं अचंचल बनी रही और उन सब की तुम्हारी श्रीचरणों में बलि चढ़ा दी ।
उ०: It is very good. (अति उत्तम) । खराब शक्ति या अवस्था के आना चाहते ही, इसी तरह शांत और सचेतन मन से मां को पुकारने से वह चली जायेगी ।
न : मां, तुम मानों अब अपने शिशु के मस्तक में हो । पहले तुम्हें हृदय में महसूस करती और देखती थी, अब क्यों मस्तक में देखती हूं ?
उ० : लगता है मां तुम्हारे मन को विशेष रूप से ऊर्ध्व चेतना की ओर खोलना चाहती हैं इसीलिये उन्होंने मस्तक में अपना आसन जमाया है ।
न : मां, अब देखती हूं कि मेरे गले में किसी ने सफेद कमल की माला पहना दी है । मुझे इतना आनंद अनुभव क्यों हो रहा है मां, पता नहीं ।
उ० : It is very good. (यह बहुत अच्छा है) । इसका अर्थ है physical mind (भौतिक मन) में मां की चेतना के प्रकाश की स्थापना ।
न : एक साधिका ने स्वप्न में देखा कि श्रीमां उसका बड़ी कठोरता से तिरस्कार कर रही हैं । किंतु उस साधिका को विश्वास है कि कोई विरोधी शक्ति श्रीमां का रूप धरकर उसे विचलित और उद्विग्न कर रही है ।
उ० : ये सब झूठे सपने आते हैं प्राण की अवचेतना से--जाग्रत् अवस्था में उनका जोर नहीं चलता अतः नींद में अवचेतन अवस्था में मिथ्या रूप धर यदि विचलित
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कर सकें, अच्छी अवस्था को रौंद सकें-विरोधी शक्ति की यही चेष्टा रहती है । इस तरह के स्वप्न का विश्वास न करना, जागने पर झाड़ देना ।
यह sex-difficulty (कामशक्ति की कठिनाई) आश्रम में अधिकांश साधकों की प्रधान बाधा है । एकमात्र मां की शक्ति ही इससे पिंड छुड़ा सकती है--उस शक्ति के प्रति अपने को खुला रखो और समस्त मन-प्राण में उससे छुटकारे के लिये aspiration (अभीप्सा) जगाओ ।
यह दुर्बलता आयी है सोना, खाना छोड़ देने से । इस तरह की न खाने की इच्छा को भगा देना होगा--जोर करके खाना होगा और धीरे-धीरे खाना बढ़ाना होगा जबतक पहले की तरह न हो जाओ । दर्दें आदि सब कमजोरी के कारण हैं । अच्छी तरह खाने से नींद भी आती है ।... असली बात तो यह है कि बीमार होते ही तुम बड़ी चंचल हो जाती हो, इसीलिये यह सब होता है । यदि शांत रहो तो थोड़े में और जल्दी ही बीमारी भाग जाती है । और फिर तुम दवा भी खाना नहीं चाहतीं, यह और एक मुसीबत है--दवा लेने से भी जल्दी मुक्ति मिल जाती है । यदि दवा नहीं खाना चाहतीं तो खूब शांत, सचेतन रहना चाहिये । जो हो, इस समय खाने, सोने और शांत रह विश्राम करने से शरीर की स्वस्थ अवस्था शीघ्र ही लौट आयेगी ।
इस साधना में प्राण और शरीर को तुच्छ समझ फेंक देने की इच्छा एक बड़ी भारी भूल है । यह प्राणहीन अशरीरी योग साधना नहीं है । प्राण और शरीर हैं मां के यन्त्र, वासस्थान और मन्दिर । इन्हें स्वच्छ रखना होता है, सबल सजग रखना होता है । खाने, सोने इत्यादि में neglect (लापरवाही) नहीं करते, जिससे शरीर भला-चंगा रहे वही करना चाहिये । और यह बात सदा याद रखो कि शरीर है साधना का साधन । उसे सम्मान देना होगा, स्वस्थ अवस्था में' रखना होगा ।
न : मां, मैं दूर-दूर से कुछ भी देखना, अनुभव करना नहीं चाहती । मां का शिशु क्यों मां के पास रहकर भी दूरत्व का अनुभव करेगा ?
उ० : इस बात की चिन्ता करना छोड़ दो--पहले भीतर सब कुछ प्रतिष्ठित करो, बाहर का सब कुछ बाद में होगा ।
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न : मां, आजकल मैं कभी-कभी साधारण चेतना और आमोद-प्रमोद में जा पड़ने की भूल कर बैठती हूं, सांसारिक विषयों के बारे में चिंतन और आलोचना करती हूं ।
उ० : मां की चेतना तुम्हारे अंदर जितना-जितना स्थान बनाती जायेगी और सारे आधार पर अधिकार करती जायेगी उतना-उतना ही वे चीजें बहिष्कृत और रूपांतरित होती जायेंगी । तबतक स्थिर, धीर भाव से साधना करती चलो ।
न: मां, चिट्ठी लिखने बैठते ही कितनी मिथ्या कल्पना-जल्पना और कामनाएं घिर रही हैं...
उ० : कठिनाइयों को अपनी न मान, उनसे अलग होकर उन्हें देखो और ये मेरी नहीं हैं कहकर reject (अस्वीकार) करो । इससे उन्हें अतिक्रम करना बहुत आसान हो जाता है ।
न : मां, मेरे मन में ये विचार उठ रहे हैं कि तुम मेरे से नाराज और असंतुष्ट हो इसीलिये तुम मेरी ओर देखकर मुस्कराती नहीं, देखकर भी देखती नहीं । यह भी मन में आता है कि मैं बहुत खराब हूं, तुम्हारे योग के लिये अनुपयुक्त्त हूं ।
उ० : ये सब हैं बाहरी प्राण-प्रकृति के suggestions (सुझाव) तुम्हें निराशा की ओर ठेलने के लिये तथा बाधाएं सामने खड़ी करने के लिये-इन सब कल्पनाओं को तूल नहीं देते ।
न : अचानक देववाणी की तरह किसी ने मुझसे कहा, ''तुम्हारी यह बाधा अंतिम बाधा है, इसको जीत लेने पर और बाधा नहीं, तुम्हारी स्थूल चेतना का परिवर्तन और रूपांतर करने के लिये यह बाधा आयी है । संपूर्ण रूपांतर कर मातृमय होकर रहना होगा ।'' क्या यह सब सच है, मां?
उ० : जिस-दिन चैत्य हर समय जागरूक रहेगा, सम्मुख रहेगा, उस दिन यह वाणी सत्य सिद्ध होगी । अभी उसी की तैयारी चल रही है ।
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ध्यान करने के लिये प्रयास करने की जरूरत नहीं--स्वत: जो हो जाये वही यथेष्ट है ।
न : मां, किसी ने जैसे मुझसे कहा, ''तुम्हें और कुछ करने की जरूरत नहीं, किसी तरफ ताकने-झांकने की और ध्यान देने की जरूरत नहीं । सिर्फ मां के प्रति अपना पूर्ण समर्पण कर दो और उन्हें ही निरंतर गुहारती चलो । मां और मां की शक्ति सब कर देंगी ।''
उ० : यह बात ठीक है । चैत्य की ही वाणी है । जहां मां के विरुद्ध या मां द्वारा की गयी व्यवस्था के विरूद्ध साधक में अहंकार उदित होता है वहां संघर्ष होगा ही--उस सब में मत उलझना, मां की शक्ति जो करेगी वही होगा ।
न : बाहरी सत्ता पर कब और कैसे तुम्हारा राज्य स्थापित होगा ?
उ०: कब होगा यह तो अभी नहीं कह सकता-लेकिन भीतर की चेतना जब मां-मय हो जायेगी तो उसके बल से बाह्य प्रकृति भी बदलेगी, यही कहा जा सकता है ।
मैंने तो तुम्हें बार-बार कहा है कि जैसा तुम्हारा स्वभाव है और जैसी तुममें बाधाएं हैं--प्राय: सभी में वैसी मानुषी स्वभाव और बाधाएं होती हैं-साधकों की difficulties (कठिनाइयों) में थोड़ा हेर-फेर हो सकता है किंतु मूलत: सभी मनुष्य हैं, बाह्य प्रकृति अभी भी अशुद्ध और असिद्ध है ।
न: किसी चीज की माला-सी मेरे गले में झूल रही है, उसमें से तुम्हारा आलोक विकीर्ण होकर तुम्हारे शिशु का सब कुछ आलोकित कर रहा है और तुम से ओतप्रोत करे दे रहा है ।
उ० : गले में का अर्थ है मनबुद्धि का बहिर्गामी अंश (physical mind), हां जो काम हो रहा है और उस काम का जो फल मिल रहा है वह समझ में आ रहा है ।
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यदि दुर्बलता महसूस होती हो तो धीरे-धीरे मां की शक्ति को शरीर में उतारलाओ-बल मिलेगा ।
न : मां, तुम्हारी अपेक्षा लोगों की बातों में ध्यान ज्यादा जाता है । बार-बार मन संसार की ओर दौड़ना चाहता है । मेरी प्रकृति बहुत चंचल और unconscious (अचेतन) है । मन और प्राण की चेतना में असंख्य अदिव्य चीजें आ घुसी हैं ।
उ० : इसलिये कि तुम अपनी शांत साधना की गति नहीं रख सकीं, और इसलिये कि बाधाएं आने पर व्याकुल हो अशांति और चंचलता को निमंत्रण दिया । यह जो बाहर से आनेवाले दर्शनार्थी अपने साथ बाहर का atmosphere (वातावरण) लाते हैं उससे आश्रम के वातावरण में एक कोलाहल और confusion (अस्त-व्यस्तता) आ गयी थी । उसीका प्रभाव तुम्हारे ऊपर भी पड़ा । स्थिर हो जाओ, अशांति को स्थान न दे दृढ़ भाव से मां को बार-बार पुकार कर वही पुरानी अच्छी अवस्था वापिस ले आओ |
न : मां, आज दोपहर को अंधकार मुझे घेर लेना चाहता था, जैसे कुछ नीचे की ओर खींच रहा था, और इसी बीच देखा कि उपर से शांति और प्रकाश उतर रहे हैं । शुरू में डर लगने पर भी दृढ़ता से कहा कि मेरे अंदर मां आसीन हैं; ये मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते । थोड़ी देर बाद देखा सब बिला गये ।
उ० : हां, ऐसा ही करना चाहिये, दृढ़ रहना होता है--ऐसा हो जाये तो निम्न प्रकृति के आक्रमणों से आसानी से निपटा जा सकता है ।
न : मां, मैं अभीतक भी काम करते-करते या पढ़ते हुए क्यों तुम्हें कुछ देर के लिये भूल जाती हूं ?
उ० : पढ़ते और काम करते हुए मां को याद रखना आसान नहीं है-काम व पढ़ाई में लीन हो मन भूल जाता है । प्रयास करते-करते स्मरण करने का अभ्यास हो जाता है ।
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न : बीच-बीच में जब शरीर शांत भाव से विश्राम लेता है तब देखती और अनुभव करती हूं कि समूची सत्ता तुम्हें समर्पित हो रही है एवं सब कुछ सुन्दर रीति से तुमसे ओतप्रोत हो रहा है । अपने-आपको जबर्दस्ती बाहर की तरफ या काम की तरफ लगाने से यह सुन्दर अवस्था जैसे नष्ट हो जाती है ।
उ० : चेतना की बहुत उन्नति का लक्षण है--अंतत: यह मां-मयी चेतना काम के समय संपूर्ण रूप से बनी रहती है किंतु अभी जबर्दस्ती काम की तरफ मोड़ने की जरूरत नहीं ।
न : आजकल मेरी नींद जैसे शांत, आलोकित और सचेतन हो रही है । लगता है जैसे मैं प्रकाश और शांति से घिरी सो रही हूं ।
उ० : ऐसी नींद की अवस्था बहुत ही शुभ है । नींद ऐसी ही सचेतन होनी चाहिये ।
न : मां, कभी-कभी तुम्हारी मुद्रा देखकर लगता है कि तुम मुझे देखकर मुस्करायी नहीं क्योंकि मेरे अंदर कुछ प्रगति नहीं हुई । मेरे भीतर सब कुछ खराब है ।
उ० : इसीका मैंने निषेध किया था क्योंकि यह है मन की कल्पना । पहली बात-साधक मां के बारे में केवल गलत धारणाएं बनाते हैं-दूसरी बात, साधक की अच्छी अवस्था या खराब अवस्था पर मां का मुस्कुराना या गंभीर होना निर्भर नहीं । और इसके ऊपर इन सब कल्पनाओं के साथ मिली हुई हैं प्राण की मांगें । इसीलिये ऐसा सब सोचकर निराशा और रोना-धोना आता है । अत: ये सब कल्पनाएं और निरर्थक अनुमान नहीं करने चाहियें ।
न : मेरे भीतर हर समय जैसे एक अग्नि जल रही है और वेदना के जैसा कुछ हो रहा है, मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा ।
उ० : इस तरह की ज्वाला और अच्छा न लगना अशांत प्राण का लक्षण है, इसे शह न दो ।
Sex-impulse (कामावेग) मानव प्रकृति का प्रबल अंग है अत: बार-बार आता
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है । किसी तरह का प्रश्रय न दे (मन की कल्पना इत्यादि से) अविचलित रहो, यह मेरा नहीं है समझकर परित्याग करो, अंत में उसका वेग और नहीं रह जायेगा, आने पर भी चेतना का स्पर्श और नहीं कर पायेगा, उसके बाद उसका आना भी बंद हो जायेगा ।
एक बार तुम्हें कहा था कि मनुष्य में एक नहीं अनेक व्यक्ति होते हैं--many persons in one being--सभी अलग-अलग । फिर भी यदि central being (केंद्रीय पुरुष) स्थिरभाव से साधना करता चले तो बाकी सब मां के वश में हो जायेंगे ।
ध्यान में जैसे अंतर्दर्शन होते हैं वैसे ही लिपि भी दिखायी देती है--यहांतक कि खुली आंखों से भी देख सकते हैं । इसे लिपि या आकाशलिपि कहते हैं ।
न : मां, जिस चीज की जरूरत होती है वह तुम्हें लिख देने की इच्छा होती है । किंतु यदि तुम देती हो तो खुले दिल से ग्रहण नहीं कर पाती । और नहीं देने से दुःखी होती हूं ।
उ० : यदि नहीं देने से दुःख होता है तो इससे यह प्रमाणित होता है कि उस जरूरत में कामना-वासना छिपी थी । साधक को कामना-शून्य होना होता है ।
कितने भी बाधा-विरोध आयें, साधना नष्ट नहीं हो सकती--यहां हो या अन्यत्र, साधना शुरू करते ही बाधाएं सिर उठाती हैं क्योंकि प्रकृति का रूपांतर करना होता है, उस रूपांतर की प्रक्रिया में सब ऊपर उठता है, पुरानी प्रकृति का सब कुछ दिखायी देने लगता है, साधक उससे भयभीत नहीं होता, मां की शक्ति की सहायता से सब रूपांतरित कर देता- है ।
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न : देखती हूं कि ऊपर से बहुत मधुमयी सघन शांति आधार के एक स्तर में उतर रही है ।
उ० : इस शांति को सर्वत्र उतारना होता है--मानों सारा शरीर चिर-स्थिर शांति से भर उठा ।
न:... मस्तक के ऊपर एक आलोकमय चक्र को घूमते देखती हूं, मां । यह क्या है ?
उ० : आलोकमय चक्र के घूमने का अर्थ है ऊपर के आलोक की शक्ति मन के ऊपर काम कर रही है ।
पांच साल तो कुछ भी नहीं--बड़े-बड़े योगियों ने उससे कहीं ज्यादा समय तक प्रयास करके भी भगवान् को नहीं पाया, रूपांतर भी नहीं कर सके--इसके लिये चिल्लाना और योगसाधना छोड़कर चली जाऊंगी कहना, ऐसी मांग और अहंकार करना उचित नहीं । शांति से, धैर्य के साथ साधना करो-यदि कोई विशेष गुरुतर स्खलन हो तो वह भी... मां को बता दो और उनसे सहायता मांगो । साधारण कठिनाइयां तो सभी को होती हैं, उनके लिये अंदर ही अंदर मां को पुकारती रहो, अंतत: फल मिलेगा लेकिन ये सब निराशाभरी बातें और कुछ नहीं हुआ, कुछ नहीं हुआ इत्यादि की बोली बोलना छोड़ दो ।
यह दवा खाकर किसी को कभी भी उल्टी नहीं हुई--लगता हे तुम्हारे nervous mind (स्नायविक मन) की कल्पना बहुत प्रबल है इसीलिये शरीर पर ऐसा असर हुआ है । लेकिन अगर दवा के प्रति इतनी घृणा है तो खाने से क्या लाभ ? बिना खाये शक्ति द्वारा जो हो--शरीर को शक्ति के प्रति खोलना होगा ।
न : मां, में कपड़े बहुत जल्दी फाड़ देती हूं । बचपन में भी ऐसा ही होता था, इसके लिये मेरे मां-बाप खूब नाराज होते थे ।
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उ० : शरीर-चेतना शांत-स्थिर हो जाने से आदत सुधर जायेगी ।
न : मां, बिना मसहरी के मजे से सो सकती हूं, मुझे मच्छर नहीं काटते । जो अनावश्यक है उसका और व्यवहार नहीं करूंगी, अपनी मसहरी और दो छोटी-छोटी चीजें आपके चरणों में निवेदित करती हूं ।
उ० : ये क्यों दी हैं ? मां को जरूरत नहीं, तुम्हें है । गर्मियों में मच्छर उतने नहीं काटते किंतु बरसात के बाद दुबारा आयेंगे । मां ये सब वापस कर रही हैं, मां का दान समझकर ले लो । यदि मां को कुछ देना है तो अपने-आपको दो, मां सहर्ष स्वीकार कर लेंगी उसे ।
Very good (अत्युत्तम) । जो कुछ अशुद्ध-अपवित्र है वह शांत हो मां की शक्ति की अग्नि में होम दो । ऊपर का सब कुछ आधार में उतर आने दो--अंतर में निम्न स्तर की किसी चीज के लिये जगह नहीं रह जायेगी ।
न: क्यों इतना नीचे उतर गयी ? मन में आता है कि सब कुछ तुम्हारे श्रीचरणों में अर्पित कर दूं जिससे तुम्हारे जगत् से उनका समूल ध्वंस हो जाये । हे भगवान् क्या यह कोरी कल्पना है ?
उ० : यह कल्पना नहीं है । नीचे जाने का उद्देश्य ही यही है । नीचे जो कुछ है उस सबका समर्पण करना, आलोकित और रूपांतरित करना ।
न : बीच-बीच में सिर में न जाने कैसा-कैसा लगता है--किसी समय अवश और शांत होता है और किसी समय झन-झन करता है और वहां से जैसे कुछ ऊपर की ओर आरोहण करता है और किसी समय ऐसा लगता है मानों ऊपर से कुछ उतरकर खोल रहा है ।
उ० : जब ऊपर से शक्ति मस्तक में उतरती है तो कभी-कभी ऐसा अनुभव होता है ।
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न : बहुत ऊपर एक तरंगहीन प्रशांत महासागर देखती हूं । वह सागर मानों अनंत के साथ मिल गया है और एक स्वर्ण-तरी को अपने वक्ष में छिपा धीरे-धीरे नीचे की ओर आ रहा है ।
उ० : ऊर्ध्व चेतना की धारा के अवरोहण का लक्षण ।
न : ऊपर से सूर्य समान और नीले प्रकाश के समान दो प्रकाश वर्तुलाकार हो केवल हृदय में उतर रहे हैं ।
उ० : इसका अर्थ है कि सत्य का प्रकाश और ऊर्ध्व मन का प्रकाश पुन: नीचे आ रहा हैं |
न : अपने चारों ओर असंख्य छोटी-छोटी बाधाएं देख रही हूं । लगता है, क्योंकि मैं सब बाधाओं को खोज-खोजकर बाहर निकाल रही हूं और दृढ़ता से संपूर्ण रूप से उन्हें विजित कर रही हूं इसीलिये ये बाधाएं इस तरह से दिखायी दे रही हैं । मेरी अनुभूति में कुछ तथ्य है क्या ?
उ० : तुम्हारी अनुभूति सच्ची है । बाधाओं से डरो मत--सब देख-जानकर हटाना होता है, इसीलिये दिखायी दे रही हैं ।
शरीर-चेतना का बहिर्मन ही साधना की इस stage (स्थिति) में विशेष बाधा देता है, वह बड़ा ही obstinate (जिद्दी) होता है, छोड़ता नहीं--साधक को उससे भी ज्यादा जिद्दी बनना होता है, धीर-स्थिर, मां को भीतर पाने के लिये दृढ़प्रतिज्ञ होना होता है । अंत में, कितना ही जिद्दी क्यों न हो, यह मन और जिद नहीं कर सकेगा, रास्ते पर आ ही जायेगा ।
न : सुना, कोई मुझे कह रहा है, ''तुम्हारी भीतरी मानसिक, प्राणिक, शारीरिक जितनी सब कठिनाइयां हैं उन्हें रूपांतरित कर अथवा दूर कर नूतन जन्म ले मां के पास जा सकोगी ।'' मां, क्या यह ठीक है ?
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उ० : ये सारी बातें ठीक हैं, सभी साधकों पर लागू होती हैं । फिर भी इन सब कठिनाइयों के बावजुद्, परिवर्तन की लम्बी अवधि के बीच भी मां सर्वदा समीप हैं, सहायता कर रही है यह बात सदा याद रखने से शांत मन से निरापद हो पथ पर चलना आसान होता है ।
न : अनुभव कर रही हूं कि मन-प्राण की चेतना अंतर्मुखी न हो बाहर की ओर भाग रही है ।
उ० : ऐसा सबके साथ होता है । साधना पथ पर बहुत आगे बढ़ जाने के बाद भीतर-बाहर एक हो जाते हैं, इसके बाद ऐसा नहीं होता ।
न : बीच-बीच में जब करुणामयी मां को अनुभव करती और पुकारती हूं तो बहुत जोर से रोना आता है और उसके साथ-ही-साथ हृदय के गंभीरतम प्रदेश में एक मधुर शांतिपूर्ण अहसास होता है ।
उ० : इस प्रकार का क्रन्दन प्रायः ही चैत्य पुरुष से आता है--जो भावना उठती है इसके साथ वह चैत्य पुरुष की भावना ही होती है ।
स्थिर भाव से साधना करती चलो-समय पाकर कठिनाइयां सरक जायेंगी ।
न: मां, मैं इस समय एक शुल्क मरुभूमि में पड़ी हूं । लगता है मेरे भीतर तुम लोगों के लिये कुछ नहीं है । क्यों इतनी निम्नावस्था में गिर गयी हूं ?
उ० : साधना में चेतना के उतार-चढ़ाव अनिवार्य हैं--जिस समय नीचे गिरो उस समय विचलित न होओ, धैर्यपूर्वक मां की ज्योति और शक्ति को उस शुष्क भाग में पुकार लाओ--यही है right attitude (उचित मनोभाव) और उत्कृष्ट उपाय ।
न: मां, मेरी प्राण-जगत् की एक शक्ति की ऊपर की शक्ति और एक शक्ति ने आकर
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तुम्हारे श्रीचरणों में बलि चढ़ा दी । कुछ समय बाद देखती हूं कि इस बलि के रक्त में से एक कमल खिल रहा है ।
उ० : निम्न प्रकृति की एक शक्ति के नाश हो जाने पर प्राण के एक भाग में सत्य चेतना खुल गयी ।
अब समझ में आता है कि तुम्हारी बीमारी nervous (स्नायविक) है, क्योंकि ये सब sensations (संवेदन) nervous (स्नायविक) को छोड़ और कुछ नहीं है । यह वमन का suggestion (सुझाव) भगा दों--जब ऐसे सब संवेदन आयें तो शांत बनी रहो, श्रद्धा के साथ मां को पुकारो । इन सुझावों का दबाव कम होते ही बीमारी झड़ जायेगी ।
जब किसी कठिनाई को दूर करने का प्रयास हो रहा होता है तब वैसा ही होता है--एक दिन सबसे मुक्ति मिल जाती है, लगता है सब चले गये हैं, दूसरे दिन फिर वही बाधा दिखायी देती है । Perseverence (अध्यवसाय) के साथ लगे रहने से बाधा दुर्बल हो जाती है, फिर नहीं आती, यदि आये भी तो उसमें दम नहीं होता ।
न : मां, आजकल और चीजों की अपेक्षा मैं वाणी ही क्यों अधिक सुन रही हूं और लिपि भी क्यों देख रही हूं ?
उ० : साधना की गति का वेग बढ़ते-बढ़ते यह सब होता है । फिर भी खूब सावधानी से लिपि और वाणी को देखना-सुनना होता है--क्योंकि वे सच्ची और उपकारी हो सकती हैं और झूठी और विपज्जनक भी ।
न : जब मैं 'क', 'ख' इत्यादि के साथ बात करती हूं तो शरीर में दुर्बलता लगती है, भीतर अशांति और बेचैनी-सी महसूस होती है, सिरदर्द हो जाता है, कुछ भी अच्छा नहीं लगता । किंतु 'द', 'स' इत्यादि के साथ बातचीत करते हुए कभी ऐसा नहीं लगता | क्यों मां ?
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उ०: जब मिलना-जुलना और बातचीत होती है तब उस आदमी की चेतना की vibrations (स्पंदन) तुम्हारे ऊपर आती है । आपस में ज्यादा मेल-मिलाप और बातचीत करने से ही ऐसा होता है, किंतु साधारण अवस्था में किसी को कुछ महसूस नहीं होता, conscious effect (सचेतन प्रभाव) भी नहीं होता और यदि हो भी तो लोगों को समझ में नहीं आता कि इसलिये ऐसा हुआ है । जब साधना करने पर चेतना सजग और sensitive (संवेदनशील) हो जाती है तब महसूस होने लगता है और ऐसा फल भी मिलता है । जिनकी चेतना तुम्हारी चेतना के अनुकूल हो उनके साथ बात करने से कुछ नहीं होता, लेकिन जहां चेतना अनुकूल नहीं होती अथवा उस आदमी में दुर्भावनाएं हों तो तुम्हारे ऊपर ऐसा effect (प्रभाव) हो सकता है ।
यह है पुरानी प्राण-प्रकृति जो एक मांग का भाव लेकर उठती है, कहां, मैं जो चाहती हूं वह तो मुझे मिलता नहीं । इसी भाव से ये सब कल्पनाएं आती हैं कि मां मुझे दूर रखती हैं, मुझे नहीं चाहतीं इत्यादि । ये जब उठें तो उन्हें समझाना होता है, झाड़ फेंकना होता है, चैत्य यह सब नहीं चाहता । वह सिर्फ मां को चाहता है, जानता है कि मां को चाहने से, उनपर श्रद्धा-भक्ति रखने से सब हो जाता है । हर समय गहराई में, चैत्य में रहना होता है ।
न: मैं प्रायः हर समय अपने सामने एक सीधा रास्ता देखती हूं । कोई जैसे अंदर से कहता है, ''सब कुछ दूर फेंककर, किसी भी तरफ ध्यान न दे सिर्फ मां-मां कहते हुए बढ़ती चलो--मां ले चलेंगी ।''
उ० : यही सच्चा रास्ता है--इस रास्ते पर कठिनाइयां आयें तो disturbed (झुब्ध) मत होओ, मां ही इन सबको सुधार लेंगी, मुझे भय या दुःख करने की जरूरत नहीं । ऐसा सोचकर ही सीधे पथ पर बढ़ती चलो ।
क्या किया जा सकता है, 'स' की उम्र हो गयी है, स्वभाव को आसानी से नहीं बदला जा सकता । उसके साथ धैर्यपूर्वक यथासंभव काम करना होगा । जिस दिन psychic atmosphere (चैत्य वातावरण) सर्वत्र स्थापित होगा उस दिन और ऐसा नहीं लगेगा ।
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तुमने क्या green (हरा) केला खाया था ? जिनमें पित्त की अधिकता हो उनके लिये यह अच्छा नहीं । खाने से जी मिचलाता है । इन्हें खाना नहीं चाहिये ।
जैसे भी हो ध्यान में, काम करते हुए या वैसे ही बैठे हुए मां की चेतना और शक्ति को आधार में उतारना और उसे काम करने देना ही वास्तविक चीज है--वह जिस भी तरह से, जिस भी उपाय से क्यों न हो ।
न : देखती हूं कि यहां साधक-साधिकाओं में पारस्परिक हिंसा और परनिन्दा करने की आदत काफी फैली हुई है ।
उ० : तुम जो कह रही हो वह ठीक है--मनुष्य का मन प्रायः इन्हीं सब दोषों से भरा रहता है । साधक अभी भी इन सब क्षुद्रताओं को मन-प्राण से झाड़ फेंकना नहीं चाहता, इससे मां के काम में अनेक विध्न आते हैं । लेकिन तुम यह सब देखकर विचलित नहीं होना--अपने को इन सबसे... स्वतंत्र रखकर, सबके लिये मंगल कामनाएं करते हुए शांत मन से अपनी साधना करती चलो ।
झील का अर्थ--चेतना का ऐसा एक स्थायी स्रोत जिससे ऊर्ध्व स्तर और भौतिक स्तर का संबंध होता हो--ऐसा संबंध हो जाये तो ऊर्ध्व स्तर का प्रकश physical (भौतिक) में उतर सकता है ।
यदि उससे भीतर की चेतना भटक नहीं जाती तो विशेष क्षति नहीं । जो भी करो, उसमें सचेतन रहते हुए मां के साथ युक्त्त रहना चाहिये, यही असली चीज है ।
तुमने मेरी बात को गलत समझा--मैंने लिखा था कि अहंकार दो तरह का है--एक राजसिक अहंकार जो सोचता है मैं शक्लिशाली हूं, मेरे द्वारा ही सब होता है--और
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एक है इससे ठीक उल्टा--तामसिक अहंकार जो सोचता है मैं सबसे खराब हूं इत्यादि, जैसे तुम बार-बार बोलती हो, ''आश्रम में मेरे जैसा खराब और कोई नहीं है ।'' और इसके ऊपर यदि कहो, ''मेरे कारण से सब बन्द हुआ है, मेरी ही कठिनाई से आश्रम की यह अवस्था हुई है ।'' तब यह शेषोक्त तामसिक अहंकार के सिवा और क्या हो सकता है ?
पहले जो अवस्था थी या जो प्राप्त किया था वह सब नष्ट नहीं हुआ, नष्ट होगा भी नहीं लेकिन तुम्हारी अशांति और असावधानता से पर्दा पड़ गया था । शांत और सचेतन होते ही सब लौट आता है । वही अभी हो रहा है । अब पहले की तरह साधना करो--फिर से द्रुत उन्नति होगी ।
जब उर्ध्व चेतना की अवस्था के बदले निम्न चेतना की अवस्था आती है--और ऐसा सभी साधकों के साथ होता है--तब अपने को quiet (शांत) रखकर मां की शक्ति को पुकारना चाहिये और जबतक उर्ध्व अवस्था वापिस नहीं आ जाती, अपने को खुला रखना चाहिये । निम्न अवस्था स्थायी नहीं हो सकती, अच्छी अवस्था आयेगी ही आयेगी । ऐसा करने से प्रत्येक बार निम्न प्रकृति की कुछ उन्नति होती है, एक भाग--जों पहले खुला नहीं था--खुल जाता है--अंत भें सब खुल जायेगा और सब ऊर्ध्व चेतनामयी अवस्था में स्थायी भाव से रहने लगेगा ।
मां ने तुम्हें छोइ नहीं दिया है और छोडेंगी भी नहीं । क्योंकि यह बाधा शरीर-चेतना में आयी है इसीलिये वहां ठिठक गयी है, बहुतों के साथ ऐसा हुआ है । यह चिरस्थायी नहीं होती । बाधा होते हुए भी धैर्यपूर्वक चलो--अच्छी अवस्था आयेगी ।
'त' के बारे में मैंने तुम्हें पहले ही सावघान कर दिया था और इन सबमें न उलझ मां का काम, मां के लिये ही करने को कहा था, तुमने भी अपनी सहमति जतायी थी । इसके अलावा इन सबको सहन करना न सीखने से साधक में उचित समता
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कहां से आयेगी ? अप्रिय व्यवहार, अप्रिय बात, अप्रिय घटना ये सभी साधक को भगवान् के प्रति एकनिष्ठ और जगत् की सब घटनाओं में अविचल रहने की opportunity (अवसर) प्रदान करती हैं । और सब जो लिखा है उसका निदान रोना--कलपना नहीं है, निदान है अपने चैत्य में वास कर, मां की शक्ति पर निर्भर कर अग्रसर होना, इससे सब कठिनाइयां, सब अपूर्णताएं चुपचाप कम हो जायेंगी, विनष्ट हो जायेंगी । तुम्हारी अच्छी अवस्था लौट आयी है जानकर राहत मिली । वह अवस्था अचल बनी रहे !
जब vital (प्राण) में और गड़बड़ नहीं रहेगी, physical (शरीर) में जब शांति पूर्णतया और हर समय रहेगी तब शरीर की ये सब गड़बड़िया और नहीं टिकेंगी ।
न: आज कुछ दिन से निम्न प्रकृति से उठी असंख्य बाधाएं मुझे ग्रस रही हैं, अधिकार जमाना चाह रही हैं । किंतु इस सबके होते हुए भी अपने हृदय में तुम्हारा स्मरण और तुम्हारे प्रति आत्मसमर्पण करने की इच्छा और तुम्हारे लिये प्रेम अनुभव कर रही हूं ।
उ० : बाधाओं के होते हुए यदि वह भाव, वह स्मृति रख सक रही हो तो फिर चिंता करने की कोई बात ही नहीं है; उसीसे अंतत: सब बाधाओं को अतिक्रम करके मां की चेतना में स्थायी भाव से निवास करो ।
ये सब तो हैं प्राण की तामसिक कल्पनाएं, निम्न प्रकृति के suggestion (सुझाव) । विरोधी शक्तियां भी निराशा और दुर्बलता लाने के लिये इन सब अयोग्यताओं का और मरने का idea suggest करती हैं (विचार सुझाती हैं) । इन सब suggestions (सुझावों) को भीतर प्रवेश नहीं करने देना चाहिये ।
Sex-impulse (कामावेग) किस तरह उठ रहा है ? साधारण भाव में या किसी के प्रति आकर्षण द्वारा ? जैसे भी क्यों न उठे, उसे प्रश्रय न दे, उसका प्रत्याख्यान कर
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मां को पुकारो, मां की शक्ति को आधार में नीचे उतारो--फिर से सत्य चेतना आकार शरीर में स्थापित होगी ।
न :... सिर के ऊपर से कुछ अवतरण और दबाव का अनुभव कर रही हूं, उस समय सिरदर्द क्यों होता है ?
उ० : उस सिरदर्द को तूल न दो । ऊपर की चीज उतरने पर वह दूर हो जाता है ।
न :... मां, कल रात स्वप्न में अपनी पार्थिव मां को देखा । वे कह रही थीं, ''अपने को संपूर्ण रूप से मां को अर्पित कर साधना करो, मैं तुम्हारे रास्ते में और रोड़े नहीं अटकाऊंगी । तुझे मां मिल जायें तो में भी मुक्त हो जाऊंगी । ''
उ० : इस तरह के स्वप्नों में पार्थिव मां physical nature (पार्थिव प्रकृति) की प्रतीक बनकर आती हैं । जिसने तुमसे यह बात कही वे तुम्हारी पार्थिव मां नहीं थीं, वह थी पार्थिव मां के रूप में पार्थिव प्रकृति ।
न : आज से मैं धैर्यहीन, अशांत और अधीर नहीं होऊंगी और रुकावटें देख भयभीत नहीं होऊंगी... । अब जितने भी विरोध आयें शांत भाव से, गभीर विश्वास के साथ तुम्हारी ओर मुड़ूंगी और उन्हें तुम्हारे पदकमलों में अर्पित कर दूंगी ।
उ० : यही है right attitude (उचित मनोभाव) । हमेशा यही मनोभाव रहना चाहिये, तभी मां की शक्ति अंदर ही अंदर अवचेतना के क्षेत्र को रूपांतरित करने के लिये आसानी से काम कर सकेगी ।
न : मां, मैं उसे (एक बहुत शांत भाव) अनुभव कर रही हूं लेकिन आंख से देख नहीं रही । वह रूपहीन क्यों है ?
उ० : शांति का काम रूपहीनता में ही होता है ।
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न : मैं बीच-बीच में अपनी चेतना क्यों खो देती हूं ? यह खराब है या अच्छा ? कुछ काम करते-करते देखती हूं कि अचानक चेतना कहीं चली गयी, पुन: अपने--आप लौट आती है ।
उ० : चेतना जब अंतर्मुखी होती है तब ऐसा होता है । खराब तो नहीं है पर हां, काम के समय बहुत गहराई में न जाना ही अच्छा है ।
न : मां, मेरे अंदर एक भाव उठता है कि तुम मुझे बड़े-बड़े साधक-साधिकाओं की तरह पसंद नहीं करतीं, नहीं चाहतीं, नहीं देखतीं और अपना नहीं समझतीं ।
उ० : जो देख रही हो उसमें सच्चाई है । सिर्फ तुम्हारा ही नहीं, सारे आश्रम में यह भाव फैला हुआ है, बहुतों की साधना में विषम बाधाओं को जन्म दे रहा है । इसमें निहित है तामसिक अहंकार और क्षुद्र प्राण की मांग । इस भाव को कभी अपने अंदर जगह न दो । जो मां से कुछ भी न मांग अपने को देता है वह मां को संपूर्णभाव से पाता है, मां को पाने पर सब कुछ मिल जाता है, भागवत चेतना, शांति, विशालता, भागवत ज्ञान और प्रेम इत्यादि । लेकिन छोटी-छोटी मांगों को लेकर बैठ जाने से बाधा-हीं-बाधा हाथ आती है ।
न : दो-तीन दिन से मेरे सिर में दर्द हो रहा है... । लगता है सिर के ऊपर पहले की तरह बड़ा-सा कुछ धरा है । और अब सिर से लेकर सारे शरीर तक में फैल रहा है ।
उ०: शायद इस 'बड़े-से कुछ' के अवतरण के लिये शरीर में कोई difficulty (कठिनाई) है इसीलिये सिर में दर्द है । यदि ऐसा है तो मन को खूब शांत और wide (विशाल) कर के खोल देने से वह difficulty (कठिनाई) चली जाती है ।
यही तो चाहिये--सारे स्तरों में चैत्य का प्रभाव और आधिपत्य ।
यह भी कितनी बार कहा है--शांत होकर अंतरस्थ रहो--जैसे ही सत्य की चेतना
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आती है यह सब चंचलता सत्य को दूर भगा देती है, रह जाते है सिर्फ मिथ्यात्व, निराशा इत्यादि । मां के ऊपर निर्भर रह शांत चित्त बनी रहो, कठिनाइयां सबके जीवन में आती हैं, उनके रहते हुए भी स्थिर रहकर पथ पर बढ़ना होता है ।
एक आवरण अभी भी है--संपूर्ण शक्ति अभी भी उतर सकती है । उसके बिना अनेक साधकों की अवस्था अधसोये जैसी है-पूरा-पूरा जागना नहीं चाहते ।
हताश और दु:खी नहीं होते, रोना-धोना नहीं मचाते । शांत हो विचारो और स्थिर--शांत हो (दोष-त्रुटि को) सुधारो ।
न: आज देखती हूं कि ऊपर से एक चक्र नाभि के निचले भाग में उतर रहा है ।
उ० : इसका अर्थ है शफ्ति की working lower vital (क्रिया निम्न प्राण) में उतर आयी है ।
'क' को मिलने के बाद तुम्हारे जाग्रत् मन पर तो नहीं परंतु अवचेतना में सब पुरानी घटनाओं की छाप रह गयी--उसके ऊपर स्पर्श पड़ा था इसीलिये रात को ऐसा स्वप्न आया । अवचेतना की ये सब पुरानी यादें और छापें स्वप्न में प्रायः ही उभरकर आती हैं, उससे विचलित होने का कोई कारण नहीं । ये सब छापें धीरे--धीरे एक बार में ही पुंछ जायेंगी--तब ऐसा और नहीं होगा ।
न: मां, आजकल जरा ज्यादा बात कर लूं तो सिर घूमता है और कांपने लगता है और उसके बाद दुर्बलता लगती है, चंचल हो उठती हूं ।
उ० : यह सब न होना अच्छा है--जैसे भीतर शांत रहना चाहिये वैसे शरीर में भी सब शांत, सुखमय, अचंचल होना चाहिये । Peace in the cells, (अणु-अणु में
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शांति) व्याप जायेगी, सिर चकराना आदि और नहीं रहेगा ।
न : काम की बात कहते-कहते अनावश्यक बात भी बोल जाती हूं । उसके बाद देखती हूं कि इससे मेरी आंतरिक शांति और गभीरता नष्ट होती है ।
उ० : अंतरस्थ रह, सचेतन हो बात करना--यही चाहिये । यह अभ्यास पक्का हो जाये तो ऐसी अड़चन और नहीं रहेगी ।
उस घर में कुछ disturbance in the atmosphere (वातावरण में क्षुब्धता) है, यह ठीक ही है--लेकिन क्षुब्धता चाहे बाहर से हो या भीतर से, धीर भाव से दृढ़ता के साथ मां के ऊपर भरोसा करने से कोई force (शक्ति) कुछ नहिं बिगाड़ सकती ।
Very good. (अत्युत्तम) । मां की जय होगी ही, यह विश्वास हर समय रखकर शांत, धीर, भयशून्य होकर साधना करनी होगी ।
रुकावटें इसीलिये आती है कि मां की शक्ति उतरकर रास्ता साफ कर दे । निम्न प्रकृति को मां के प्रकाश, शांति और शक्ति से भर रूपांतरित करने के लिये उसकी तह में चली जाओ |
यही ज्ञान ठीक है--मूलाधार है शरीर चेतना का केंद्र, वह है sex-impulse (कामावेग) का स्थान, वहां मां का राज्य स्थापित करना होगा ।
न :... देख रही हूं कि सत्य की, ज्ञान की, शांति की, चेतना की, पवित्रता की
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सीढ़ी की तरह कुछ नीचे उतर रहा है; बीच--बीच में उस सीढ़ी पर मानों चढ़ जाती हूं और वहां अनेक बालिकाओं के साथ भेंट होती है ।
उ० : जिन बालिकाओं की बात तुमने लिखी है वे विभिन्न स्तरों पर मां की शक्ति हैं । तुम्हारी अनुभूति बहुत अच्छी है-अवस्था भी अच्छी है--साधना भली प्रकार चल रही है--बाधाएं आती है बहि:प्रकृति से अवस्था को disturb (तंग) करने के लिये-इन्हें ग्रहण मत करो ।
दो अग्नियां है मन की शांत और प्राण की तीव्र aspiration (अभीप्सा) जो ऊपर उठ रही हैं--उसके फलस्वरूप ऊर्ध्व चेतना का ज्योतिर्मय प्रकाश नीचे उतरता है ।
न : ... गले से बांये हाथ तक मानों कुछ हो गया है और हो रहा है... feel (महसूस) कर रही हूं कि इतना-सा भाग झिन झिन कर शांत-अवश हुए जा रहा है और प्रत्येक रोमकूप के अंदर नीले प्रकाश की तरह बूंद-बूंद कर कुछ गिर रहा है ।
उ० : उर्ध्व चेतना ही उतर रही है । गले में है बहिर्मुखी बुद्धि का केंद्र, बाह्य कमेंन्द्रिय का एक स्थान । गला, कंधा और वक्ष का ऊपरी हिस्सा । (हृदय के ऊपर) है कर्मोन्मुख vital mind (प्राणिक मन) का स्थान । वहां ऊपर की शक्ति का विस्तार हो रहा है ।
सफेद जवा पुष्प--मां की शुद्ध शक्ति ।
न : मां, सीढ़ी से नीचे प्रणाम होल की ओर आते हुए मैं अनुभव करती हूं कि तुम ऊपर से मेरे भीतर ही उतर रही हो और बीच-बीच में अनुभव करती हूं कि तुम्हारे पग रखते ही मेरे अंदर कमल खिल रहा है ।
उ० : यह अनुभव सच्चा है । उस समय मां तुम्हारे भीतर उतर चेतना (कमल) को खिला देती है ।
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शांति उतरना अच्छा ही है--भीतर और बाहर सब ओर प्रगाढ़ शांति उतरे ।
न : अहंकार, वासना, कामना, मांग, हिंसा, गर्व, आसक्ति, अचेतनता कहां से आती है ? उनका वास कहां है ? मां, ये सब कब और कैसे पूर्णत: दूर होंगी ?
उ० : उनका वास अंदर कहीं नहीं है--ये बाह्य प्रकृति से आती हैं । पर जब मनुष्य के अंदर स्थान मिला है तो ये प्राणिक स्तर पर अधिकार किये बैठी हैं--जैसे अतिथि बुलाये जाने पर घर पर अधिकार करके बैठ जाये । योगसाधना द्वारा हम उन्हें बाहर धकेलते हैं, फिर ये बाहर से दुबारा अधिकार जमाने के प्रयास में रत रहती हैं--जबतक ये विनष्ट नहीं हो जातीं ।
इस तरह साधारण चेतना में उतर आने की physical consciousness (भौतिक चेतना) की पुरानी आदत सब में आसानी से ही आ जाती है । उसके लिये दुःखी मत होओ, स्थिर हो पुन: उर्ध्व चेतना में लौट जाओ । लौट जाना पहले की अपेक्षा अब सरल है ।
... सबकी बाह्य सत्ता में इस तरह का जन्मजात अंधकारमय अंश होता है । वह अपना नहीं वंशगत होता है । इसे नये रूप में गढ़ना होता है ।
It is very good. (यह बहुत अच्छा है)--जो देखा है, समझा है वह ठीक है । अंतर में जो पथ देखा है उसी पर चलना होगा, जिस आंतरिक अवस्था पर ध्यान दिया है उसे बनाये रखना होगा । बाहर जो है उसे देख लो, जो जरूरी है वह कर लो किंतु उसमें डूब नहीं जाओ, उससे जुड़ नहीं जाओ, उसकी चाहना न करो । यदि कोई यह अवस्था बनाये रख सके तभी वह साधनापथ पर शीघ्रता से आगे बढ़ सकता है, बाधा--विघ्न आदि आयें भी तो उसे छू नहीं सकते और बाह्य प्रकृति भी धीरे-धीरे अंतर प्रकृति की सुन्दर अवस्था को प्राप्त करेगी ।
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न : कोई भी मुझे 'न' कहने से पहचान नहीं रहा, 'न' कहने से आवक् हो उठते हैं । मां, कल जैसे इसी स्वप्न में पूरी रात बीत गयी । सवेरे जगने के बहुत देर बाद तक भी इसका प्रैशर शरीर तक में महसूस करती रही ।
उ० : स्वप्न का अर्थ है पुराने देह--स्वभाव की मृत्यु और देह-चेतना में नवजन्म की प्राप्ति ।
... यदि प्राण समर्पित हो जाये तो बाकी सब समर्पित करने में विशेष रुकावट नहीं आती ।
'क' और 'ख' के साथ जो बेमेल है वह उनकी मानव प्रकृति की natural movement (स्वाभाविक हरकत) का फल है । चैत्य परिवर्तन को छोड़ अन्य कोई उपाय नहीं । इस सबको एक आंतरिक शांत समता के स्तर से देख अविचलित भाव से observe (निरीक्षण) करना सीखना होगा । मानव प्रकृति सहज ही नहीं बदलती--जिनके भीतर चैत्य जागरण और अध्यात्म भित्ति स्थापित हो गयी है उनके लिये भी इस पथ पर प्रकृति को संपूर्ण रूप से अतिक्रम करना, रूपांतरित करना सहज नहीं । जो अभी भीतर से इन चीजों के लिये कच्चे हैं उनके लिये तो असंभव ही है ।
सदा मां का स्मरण करो, मां को पुकारो, कठिनाई विदा ले लेगी । उससे भयभीत मत होओ, विचलित न होओ-स्थिर हो मां को पुकारो ।
बाधाएं अनंत दीखती तो हैं पर वह दिखावा सच नहीं है,--राक्षसी माया-भर है--ठीक रास्ते पर चलते-चलते अंत में पथ परिष्कृत हो जाता है ।
Very good. (शाबाश)-स्थिर भाव से साधना करती चलो--पुरानी प्रकृति का जो कुछ भी अभी अवशिष्ट है, धीरे-धीरे चला जायेगा ।
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यह बाधा सबके सामने है । हर पल मां के साथ युक्त होना आसान नहीं । धीर भाव से साधना करते-करते हो जाता है ।
मन की बहुत प्रकार की गतियां होती हैं जिनका आपस में कोई सामंजस्य नहीं । ऐसा साधक में भी होता है, साधारण मनुष्य में भी, सबमें होता है । अंतर इतना ही है कि साधक देखता और जानता है, साधारण मनुष्य अंदर क्या हो रहा है वह नहीं समझता । सब कुछ भगवान् की तरफ मोड़ते-मोड़ते मन एकोन्मुखी होता जाता है ।
जब मां के साथ भीतर मिलन हो गया हो तब और डरने की जरूरत नहीं । जो परिवर्तन करना होगा वह मां की शक्ति ही कर देगी । वह सब परिवर्तन करने में समय लगता है किंतु उसके लिये चिंता करने की कोई बात नहीं । केवल मां के साथ युक्त और मां के प्रति समर्पित बनी रहो, बाकी सब निश्चित ही हो जायेगा ।
न: मां, मैं इस समय तुम्हारी नीरवता और शांति तो ग्रहण कर रही हूं लेकिन तुम्हारी चेतना नहीं । प्रयास हर समय यही रहता है कि किसी भी अवस्था में, काम--काज करते, बातचीत करते समय तुम्हारे प्रति conscious (सचेतन) हो सकूं... ।
उ० : पहले शांति उतरती है-समस्त आधार शांत न हो तो ज्ञान का आना दुष्कर है । शांति स्थापित हो जाने पर मां की विशाल अनन्त चेतना आती है, उसमें डूब जाने से अहंभाव भी मग्न हो जाता है, ह्रास को प्राप्त हो जाता है-- अंत में उसका नाम-- निशान भी नहीं रहता । रह जाता है केवल भागवत अनंत के भीतर मां का सनातन अंश ।
बाधाएं पूरी तरह आसानी से पिंड नहीं छोड़ती । खुलते-खुलते, चेतना बढ़ते-बढ़ते शरीर-चेतना तक जब रूपांतरित होती है तब बाधाएं पूरी तरह नष्ट होती है । उससे पहले कम हो जायेंगी, बाहर निकल जायेंगी, बाहर-ही-बाहर मंडरायेंगी--तुम उनसे विचलित न हो अपने को असंपृक्त करके रखो । उन्हें अपनी समझ और स्वीकार न
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करो-- ऐसा हो जाये तो उनका दम कम हो जायेगा ।
प्राण का ध्वंस नहीं करते, प्राण को त्याग कर कोई काम नहीं किया जा सकता, जीवन ही नहीं रहता । प्राण का रूपांतर करना होता है, उसे भगवान् का यंत्र बनाना होता है ।
अपने अंदर शांति, मां की शक्ति और प्रकाश रखकर शांतभाव से सब करती चलो--और किसी चीज की जरूरत नहीं-पथ परिष्कृत हो जायेगा ।
शून्यावस्था दो तरह की होती है--भीतर physical (भौतिक) तामसिक जड़ निश्चेष्टता और दूसरी शून्यता और निश्चेष्टता आती है ऊर्ध्व चेतना की विराट् शांति और आत्मबोध उतरने से पहले । इन देनों में से कौन-सी आयी है यह देखना होगा, क्योंकि दोनों में ही सब स्तब्ध हो जाता है, आंतरिक चेतना शून्य हो पड़ी रहती है ।
जब शून्यावस्था आये तब शांत हो मां को पुकारो । शून्यावस्था सब की होती है पर वह शून्यावस्था होनी चाहिये शांत, तभी साधना के लिये उपकारी होती है--अशांत होने से वह फलप्रद नहीं होती ।
अशुभ शक्ति को छोड़ और कौन इतना नीचे खींच सकता है, दुर्बल और उथल--पुथल करके फेंक सकता है ? साधक प्रश्रय देते हैं इसीलिये atmosphere (वातावरण) में इस तरह की अनेक शक्तियां घूम रही हैं । यदि तुम्हारे ऊपर आ पड़ती हैं तो मां को पुकार कर उनका प्रत्याख्यान कर दो । वे कुछ नहीं बिगाड़ सकेंगी, सामने टिक नहीं सकेंगी ।
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यह तो सभी मनुष्यों में होता है--प्रशंसा से प्रसन्न और निन्दा से दुःख--इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं । लेकिन साधकों को इस दुर्बलता को अतिक्रम करना नितांत आवश्यक है--स्तुति--निन्दा में, मान--अपमान में अविचलित रहना चाहिये । लेकिन यह आसानी से नहीं होता, समय आने पर ही होता है ।
मन में जब यह विराट् अवस्था आती है तो उसका अर्थ है मन विशाल होकर विश्व-मन के साथ युक्त हो रहा है । गले इत्यादि के विराट् होने का अर्थ है--उस--उस केंद्र में जो चेतना है उसकी भी वही अवस्था शुरू हुई है ।
यदि कामनाओं का पोषण करते जाओ और साधना के फल के लिये अधीर हो जाओ तो शांत और नीरव कैसे रह सकोगी ? मनुष्य-स्वभाव के रूपांतर जैसा बड़ा काम क्या पलक झपकते हो सकता है ? स्थिर हो मां की शक्ति को काम करने दो, ऐसा हो जाये तो समय लेकर सब हो जायेगा ।
हम दूर न गये हैं न छोड़ ही दिया है । तुम्हारे मन-प्राण जब अशांत होते है तब ये सब ऊल-जलूल कल्पनाएं तुम्हारे मन में उठती है । जब कठिनाइयां सामने हों, अंधकार घिरा हो तो मां के ऊपर भरोसा नहीं गंवाते-स्थिर भाव से उसे पुकारते हुए अचंचल बनी रहो, कठिनाई और अंधकार सरक जायेंगे ।
प्रणाम या दर्शन के समय मां की बाह्य appearance (आकृति) देखकर यह अनुमान लगाना कि वे सुखी है या दु:खी, उचित नहीं है । लोग ऐसा करके केवल भूल ही करते हैं, मिथ्या अनुमान करते हैं कि मां असंतुष्ट हैं, मां कठोर हैं, मां मुझे नहीं चाहतीं, अपने से दूर रखती हैं इत्यादि कितनी झूठी कल्पनाएं और उससे निराश हो अपने पथ पर अपने ही कुठाराघात करते हैं । यह सब न कर अपने अंदर मां के ऊपर, उनके love और help (प्रेम और सहायता) पर अटल विश्वास रखकर प्रफुल्ल शांत मन से साधना में आगे बढ़ना चाहिये । जो ऐसा करते है वे निरापद रहते हैं--बाधाएं
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और अंधकार घिर आने पर भी वे उनका स्पर्श नहीं कर सकते । वे कहते हैं, "नहीं, मां ही हैं, वे जो करें वही अच्छा--यदि मैं उन्हें इस पल नहीं देख सक रहा तो भी वे मेरे पास ही हैं, मुझे घेरे हुए हैं, मुझे किसी का डर नहीं ।'' यही करना चाहिये--इसी भरोसे साधना करनी चाहिये ।
तामसिक समर्पण के साथ तामसिक अहंकार का कोई संबंध नहीं । तामसिक अहंकार का अर्थ है ''मैं पापी हूं, में दुर्बल हूं, मेरी कोई उन्नति नहीं होगी, मेरी साधना नहीं हो सकती, मैं दुःखी हूं, भगवान् ने मुझे स्वीकार नहीं किया है । मरण ही मेरा एकमात्र आश्रय है, मां मुझे प्यार नहीं करतीं, अन्य सभी को करती हैं'' आदि-आदि विचार । Vital nature (प्राण-प्रकृति) इस तरह अपने को हीन समझ अपने पर प्रहार करती है । अपने को सबसे खराब, दुःखी, दुष्ट, निष्पीड़ित समझ अहंभाव को चरितार्थ करना चाहती है--विपरीत भाव से । राजसिक अहंकार इससे ठीक उल्टा है, मैं बड़ा हूं ऐसा समझ अपने को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना चाहता है ।
सफेद प्रकाश divine consciousness (दिव्य चेतना) का प्रकाश है--नीला प्रकाश higher consciousness (उच्चतर चेतना) का--रुपहला प्रकाश है आध्यात्मिकता का प्रकाश ।
यह है मन के ऊपर की ऊर्ध्व चेतना जहां से आते है शांति, शक्ति, प्रकाश इत्यादि-श्वेत कमल है मां की चेतना और लाल कमल मेरी--वहां ज्ञान और सत्य का प्रकाश हमेशा ही विद्यमान है ।
न : दो-तीन दिन से प्रायः ही तुम्हारा हाथ अपने मस्तक पर feel (अनुभव) कर रही हूं, तुम आशीर्वाद दे रही हो जिससे कि तुम्हारी गभीरतम शांति और चेतना में डूबी रहूं । हर समय तुम्हारा मधुमय प्रेममय आवाहन सुन रही हूं ।
उ० : यही सत्य चेतना की अवस्था और दृष्टि है । गहराई में जाने पर या बाह्य
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चेतना में आने पर यदि यह बनी रहती है तो भागवत उद्देश्य की तरफ सब ठीक-ठीक आगे बढ़ता रहेगा ।
बहिर्जगत् के साथ संबंध तो रहना चाहिये किंतु वह सब ऊपरी सतह पर होना चाहिये--तुम अपने अंदर स्थित मां के पास रहोगी और वहां से सब देखोगी--यही चाहिये, यही है कर्मयोग का प्रथम सोपान--इसके बाद दूसरी अवस्था है भीतर रह मां की शक्ति द्वारा बाहरी सब कर्म इत्यादि निभाना । यदि ऐसा कर सको तो और कोई गोलमाल नहीं रह जायेगा ।
पहले मां को अंदर से पाना चाहिये । बाद में जब बाह्य भी पूर्णतया वश में हो जाता है तो वहां भी सर्वदा अनुभव कर सकती हो ।
सदा स्मरण रखो कि जैसी भी अवस्था हो, जितनी भी बाधाएं आयें, जितना भी समय लगे पर मां के ऊपर संपूर्ण श्रद्धा रखकर चलना होता है, तब गंतव्य स्थान पर पहुंच पाना निश्चित है--कोई भी बाधा, कितना भी विलंब, कैसी भी मंद अवस्था उस अंतिम सफलता को व्यर्थ नहीं कर सकेगी ।
ठीक ही देखा । चैत्य चेतना का रास्ता है ऊपर की सत्य चेतना की ओर--उसी चैत्य को केंद्र बनाकर सारे स्तर एकमुखी हो भगवान् की तरफ मुड़ना आरंभ कर रहे हैं । वही रास्ता ऊपर को ओर उठ रहा है--छोटा शिशु है तुम्हारा चैत्यपुरुष ।
नारंगी रंग का अर्थ है Divine (भगवान्) के साथ मिलन और अपार्थिव चेतना का स्पर्श ।
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शांत भाव से साधना करते-करते अग्रसर होओ-दुःख और निराशा को फटकने मत दो-अंत में सारा अंधकार विदीर्ण हो जायेगा ।
यह भाव, यह श्रद्धा और विश्वास सदा बनाये रखना चाहिये, साधक का यही श्रद्धा और विश्वास, faith, conviction मां की शक्ति के प्रधान सहायक हैं ।
दृढ़, शांत मन से, मां के ऊपर अटूट श्रद्धा और निर्भरता रख साधना करनी होती है । Depression (अवसाद) को कभी अवसर न दो । यदि आये तो प्रताड़ित कर दूर भगा दो । मैं नीच और अधम हूं, मुझ से कुछ नहीं होगा, मां ने मुझे दूर कर दिया है, मैं चली जाऊंगी, मर जाऊंगी आदि विचार यदि घेर लें तो समझ लेना कि ये सब निम्न प्रकृति के suggestions (सुझाव) हैं, सत्य और साधना विरोधी । इन सब भावों को कभी भी टिकने न दो ।
अर्थ यही है--जो अच्छा साधक अच्छी तरह साधना करता है, उसकी साधना अच्छी होते हुए भी अहंकार, अज्ञान, वासना की छाप बहुत दिन तक उसके अंदर रह सकती है--लेकिन चेतना जब खुलते--खुलते कुन्दन बनती है--जैसी तुम्हारी होनी शुरू हुई है--तब वह सब अज्ञान का मिश्रण खिसकने लगता है ।
यह सब है प्राण की निरर्थक disturbance (गतिरोध) । योगपथ पर शांत हो चलना होता है, क्षोभ और निराशा के लिये कोई जगह नहीं ।
निश्चित ही इस तरह की बात करने में क्षोभ, मां के ऊपर असंतोष, दूसरों के प्रति हिंसा, विषाद, दुख आदि प्राण की अनेक अशुद्ध गतियां घुस सकती हैं । इन सबको पकड़ कर मत बैठी रहो ।
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शिशु है तुम्हारा चैत्य पुरुष । जो वक्ष से चढ़-उतर रही है वह है बहि:प्रकृति की बाघा, आंतरिक सत्य को स्वीकार करना नहीं चाहती, ढक कर रखना चाहती है ।
वह स्थान है पीछे मेरुदण्ड के बीच में चैत्य का स्थान । जो वर्णन कर रही हो वे सब हैं चैत्य पुरुष के लक्षण ।
हां, मनुष्य की चेतना का केंद्र है वक्ष में जहां चैत्य पुरुष का स्थान है ।
मूलाधार से पैर की तली तक को physical (भौतिक) का स्तर कहते हैं, पैर से नीचे अवचेतना का राज्य है ।
ऊपर और नीचे अनेक स्तर है पर प्रसिद्ध हैं नीचे के चारु स्तर--मन का स्तर, चैत्य का स्तर, प्राण का स्तर और शरीर का स्तर--और ऊपर के हैं ऊर्ध्व मन के अनेक स्तर, उसके बाद विज्ञान का स्तर और सच्चिदानन्द ।
यदि नीचे चली भी जाओ तो वहां भी शांत हो मां की ज्योति और शक्ति का आवाहन कर उन्हें वहां उतारो । जैसे ऊपर वैसे ही नीचे, अपने अंदर मां का राज्य संस्थापित कर दो ।
जल चेतना का प्रतीक है--जो उठ रहा है वह है चेतना की आकांक्षा या तपस्या । यदि सफेद मिश्रित नीला प्रकाश (whitish blue) हो तो वह मेरा प्रकाश है--यदि साधारण नीला हो तो वह है ऊर्ध्व ज्ञान का प्रकाश ।
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हमेशा स्थिर रहो और मां की ऊर्ध्व चेतना को अवतरित होने दो--उससे ही बहिश्चेतना क्रमश: रूपांतरित हो जायेगी ।
शांत भाव से समर्पण करती-करती बढ़ती चलो, जिन पुरानी चीजों का रूपांतर अपेक्षित है वह क्रमश: हो जायेगा ।
भगवान् की संतान होने पर भी ऐसा कोई भी साधक नहीं जिसमें प्रकृति के अनेक छोटे-छोटे दोष न हों । जब इन सबका सुराग मिल जाता है तो इनको reject (त्याग) करना होता है, मां की शक्ति का संबल और भी दृढ़भाव से चाहना होता है जिससे धीरे-धीरे इस क्षुद्र प्रकृति के सारे दोष विनष्ट हो जायें, लेकिन विश्वास और मां पर निर्भरता और उनके प्रति समर्पण होने चाहियें सतत और अटूट । इन सब दोषों को पूरी तरह बाहर निकालने में समय लगता है, ये अभी भी बने हुए है जानकर विचलित मत होओ |
कौन चले जायें ? जिनमें आंतरिक भाव नहीं, जिन्हें मां पर श्रद्धा-विश्वास नहीं, जो मां की इच्छा की अपेक्षा निजी कल्पना को बड़ा समझते हैं, वे जा सकते हैं | लेकिन जो सत्य को चाहता है, श्रद्धा और विश्वास चाहता है, जो मां का वरण करता है उसे डरने की जरूरत नहीं, उसके सामने हजारों बाधाएं भी आयें उन्हें वह अतिक्रम कर लेगा, यदि स्वभाव में अनेक दोष हों तो भी उन्हें वह सुधार लेगा, यदि पतन भी होता है तो फिर उठ खड़ा होगा--अंत में वह एक दिन साधना के गंतव्य स्थल पर पहुंचेगा ही ।
यह right attitude (उचित मनोभाव) नहीं है । तुम्हारी साधना ध्वस्त नहीं हुई, मां ने तुम्हारा त्याग नहीं किया, तुम से दूर नहीं गयीं, तुमसे नाराज नहीं हैं--ये सब हैं प्राण की कल्पनाएं, इन सब कल्पनाओं पर ध्यान न दो, प्रश्रय न दो इन्हें । शांत, सरल भाव से मां पर भरोसा रखो, कठिनाइयों से डरो नहीं, मां की शक्ति को भीतर
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पुकारो--तुमने जो उपलब्ध किया है वह सब तुम्हारे भीतर ही है, नयी उन्नति भी होगी ।
चेतना ऊर्ध्व सत्य की ओर खुल रही है । स्वर्ण-मयूर-सत्य की विजय । मां की शक्ति physical (भौतिक) तक उतर रही है-उसके फलस्वरूप सत्य का प्रकाश (स्वर्णिम प्रकाश) उतर रहा है और तुम मां की ओर शीघ्रता से बढ़ रही हो ।
शरीर का पिछला भाग सबसे ज्यादा अचेतन होता है--प्राय: सबसे अंत में आलोकित होता है । तुमने जो देखा है वह सच है ।
मां की विजय होगी ही यह विश्वास हर समय रखकर शांत, धीर, भयशून्य हो साधना करनी चाहिये |
मां ही हैं गंतव्य-स्थल, उनके अंदर सब कुछ है, उन्हें पाने से सब कुछ मिल जाता है, उनकी चेतना में वास करने से और सब कुछ अपने-आप खिलने लगता है ।
मां का भाव तो बदलता नहीं--एक ही रहता है । लेकिन साधक अपने मन के भाव के अनुसार देखता है कि मां बदल गयी हैं-पर यह सच नहीं है ।
ध्वंस हो जाने से परिवर्तन किसका होगा ? प्राण और शरीर की पुरानी प्रकृति का ध्वंस करना होगा, प्राण और शरीर का नहीं ।
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यह बात ठीक है कि मां सबके भीतर विराजमान हैं और उनके साथ एक संबंध रहना चाहिये लेकिन वह संबंध personal नहीं है, वह लोगों के साथ होता हुआ भी मां के साथ है, एक विशाल ऐक्य का संबंध ।
एक ओर शांति और सत्य चेतना की वृद्धि दूसरी ओर समर्पण, यही है सच्चा पथ ।
प्राण का नाश करने की इच्छा गलत इच्छा है--प्राण के नाश से शरीर नहीं बचेगा, शरीर नहीं बचेगा तो साधना भी नहीं होगी ।
लगता है तुमने शक्ति बहुत ज्यादा ही खींच ली है--इसीलिये शरीर जैसे उसे ठीक धारण नहीं कर पा रहा । जरा शांत रहने से सब ठीक हो जायेगा ।
हां, तुमने ठीक ही देखा--मस्तक के ऊपर सात कमल या चक्र हैं--फिर भी ऊर्ध्व मन न खुलने तक ये दिखायी नहीं देते ।
चैत्य पुरुष के पीछे और चैत्य अवस्था के पीछे अहंकार टिक नहीं सकता । लेकिन प्राण से अहंकार आकर उसके साथ युक्त होने का प्रयास कर सकता है । यदि इस तरह का कुछ देखो तो उसे ग्रहण न कर, उसे त्यागने के लिये मां के प्रति समर्पण करो ।
सीधा रास्ता है चैत्य का पथ जो समर्पण के बल से और सत्य दृष्टि के प्रकाश में बिना मुड़े-तुड़े सीधा ऊपर की ओर जाता है--जों पथ थोड़ा सीधा, थोड़ा घुमावदार होता है वह होता है मानसिक तपस्या का पथ । और जो एकदम घुमावदार है वह है प्राण का पथ, आकांक्षाओं, कामनाओं से संकुल पथ, ज्ञान भी नहीं, फिर भी प्राण में सच्ची अभीप्सा है, इसीलिये किसी तरह चला जा सकता है ।
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जितना लोग बाधाओं के बारे में सोचते है उतना ही वे उनपर हावी होती हैं । मां के प्रति अपने को खोलकर भगवान् के बारे में ज्यादा सोचना चाहिये--प्रकाश, शांति और आनंद की बात ।
यह असीम शांति जितनी बढ़े उतना ही अच्छा । शांति ही है योग का आधार ।
जो देखा है वह बिलकुल ठीक है । गले के मध्य में सत्ता का एक केंद्र है । वह है externalising mind or physical mental (बाह्य अथवा भौतिक मन) का केंद्र, अर्थात् जो मन बौद्धिक क्रिया-कलाप को बाह्य रूप देता है, जो मन speech (वाणी) का अधिष्ठाता है, जो मन physical (भौतिक) को सब कुछ देखता है, उसी को लेकर व्यस्त रहता है । मस्तक का निचला भाग और मुख उसी के अधिकार में हैं । यही मन यदि उर्ध्व चेतना किंवा आंतरिक चेतना के साथ संश्लिष्ट हो जाये, इन्हें व्यक्त करे तो अच्छा है । किंतु इसका घनिष्ठ संबंध होता है निम्न भाग के साथ, lower vital और physical consciousness (निम्न प्राण और भौतिक चेतना) के साथ (जिसका केंद्र है मूलाधार) । इसीलिये ऐसा होता है । इसीलिये साधना में वाणी का संयम बहुत जरूरी है जिससे वह ऊपर और भीतर की चेतना को व्यक्त करने का अभ्यस्त हो, निम्न अथवा बाह्य चेतना को नहीं ।
यतो चाहिये--बाहरी चीजें अंदर की ओर मुड़ें, उसे चाहें, उसके साथ एक हों, भीतरी भाव को ग्रहण करें ।
शरीर को इस तरह से देखना अच्छा है । फिर भी चेतना देहबद्ध न होने पर भी, चेतना विशाल और असीम हो जाने पर भी देह को चेतना के एक भाग और मां के यंत्र के रूप में अंगीकार करना चाहिये, शरीर चेतना का रूपांतर करना चाहिये ।
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यह बहुत अच्छा लक्षण है । उर्ध्व चेतना के साथ मिलने के लिये निम्न चेतना ही उठ रही है । ऊर्ध्व चेतना भी जाग्रत् चेतना के साथ मिलने के लिये अवतरित हो रही है ।
यह है तुम्हारा आज्ञाचक्र अर्थात् भीतरी बुद्धि चिंतन, दृष्टि और इच्छाशक्ति का केंद्र--वह इस समय pressure (दबाव) के कारण इस तरह से खुल गया है, ज्योतिर्मय हो गया है कि ऊर्ध्व चेतना के साथ एक हो उसके प्रभाव को समस्त आधार में फैला रहा है ।
यह अनुभूति बहुत सुन्दर और सच्ची है--प्रत्येक आधार इसी तरह मन्दिर बने । जो सुना है कि मां ही सब करेंगी, सिर्फ उनके अंदर डूब जाओ, यह भी बहुत बड़ा सत्य है ।
जो विशालता अनुभव कर रही हो उसमें ऊर्ध्व में वास करना होगा, भीतर गहराई में भी उसी में वास करना होगा--किंतु इसके अतिरिक्त सर्वत्र प्रकृति में, यहांतक कि निम्न प्रकृति में भी उसी विशालता को उतारना होगा । तभी निम्न प्रकृति और बहि:प्रकृति के संपूर्ण रूपांतर की स्थायी प्रतिष्ठा संभव है । क्योंकि यह विशालता है मां की चेतना की विशालता--संकीर्ण निम्नप्रकृति जब मां की चेतना में विशाल और मुक्त हो जायेगी तभी उसका आमूल रूपांतर हो सकेगा ।
जब हम अपनी अनुभूति को बातों में या लेखों में व्यक्त करते हैं तब वह या तो कम हो जाती है या बन्द हो जाती है, यही तो बहुत-से लोगों के साथ होता है । इसीलिये योगी प्रायः अपनी अनुभूतियों की बात किसी से नहीं कहते या फिर स्थायी हो जाने के बाद कहते है । तथापि गुरु को या मां को कहने से कम नहीं होती वरन् बढ़ती है । तुम्हें इसी अभ्यास का पालन करना उचित है ।
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बालक है हृदयस्थ भगवान् और शक्ति तो मां ही होंगी ।
चक्र घूमने का मतलब है कि outer being (बाह्य सत्ता) में मां की शक्ति का काम चल रहा है-उसका रूपांतर होगा ।
जब अनुभूतियां आयें तो उनपर अविश्वास न कर उन्हें ग्रहण करना चाहिये । यह थी सच्ची अनुभूति-उपयुक्त या अनुपयुक्त की बात नहीं हो रही, इन सब बातों का साधना में विशेष कोई महत्व नहीं, मां के प्रति खुलने से ही सब संपन्न होता है ।
मस्तक में जो अनुभव कर रही हो वह है भौतिक मन (physical mind) और नाभि के नीचे है lower vital (निम्न प्राण) ।
मस्तक में ऐसा होने का अर्थ है कि मन पूरी तरह खुल चुका है और ऊर्ध्व चेतना को receive (ग्रहण) करने लगा है ।
हां, नींद जब सचेतन हो उठती है तब ऐसा होता है । जैसे जाग्रत् अवस्था में वैसे ही निद्रावस्था में साधना अनवरत चलती रहती है ।
बाह्य प्रकृति से छुटकारा नहीं मिल रहा है अत: हैं ये कठिनाइयां । बाह्य प्रकृति का जब नया जन्म होगा तब बाधाएं और नहीं रहेंगी ।
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ये दो बाधाएं सभी साधकों में होती है । पहली है प्राण की, दूसरी शरीर-चेतना को । इनसे अपने को अलग रखने पर ये कम हो जायेंगी और अंत में मिट जायेंगी ।
सभी को इन बाधाओं का सामना करना पड़ता है । यदि ऐसा न होता तो चन्द दिनों में योग-सिद्धियां मिल जाया करतीं |
कठिनाइयां सहज ही दूर नहीं होतीं । खूब बड़े साधकों की भी ''आज ही'' पल-भर में सब बाधाएं नहीं मिट जातीं । मैं तो बहुत बार कह चुका हूं कि शांत और अचंचल रह मां पर पूरा भरोसा रखते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ना होगा । यह पलक झपकते ही नहीं हो जाता । ''आज ही'' सब चाहिये ऐसे दावों से कठिनाइयां और बढ़ जाती हैं । धीर-स्थिर रहना चाहिये |
जब अवचेतना से तमोभाव उठकर शरीर पर आक्रमण करता है तब बीमार-बीमार जैसा लगता है-ऊपर से मां की शक्ति को शरीर में उतारो-सब ठीक हो जायेगा ।
अवचेतना की बाधाओं से छुटकारा पाने का उपाय है पहले उन्हें पहचान लेना, फिर उन्हें झाड़ फेंकना, अंत में मां के भीतर के या ऊर्ध्व के प्रकाश और चेतना को शरीर की चेतना में उतारना । उससे अवचेतना में ignorant movement (अझ वृत्तियां) भागेगीं और उसके बदले में उस चेतना की वृत्तियां स्थापित होंगी । पर यह सहज ही नहीं होता, धीरज के साथ करना होगा । अटूट patience (धीरता) चाहिये । मां पर भरोसा ही है संबल । फिर भीतर रह पाने पर, भीतरी दृष्टि और चेतना रख पाने पर न उतना कष्ट होता है न परिश्रम करना पड़ता है । ऐसा हर समय नहीं हो पाता । तब श्रद्धा और धैर्य की नितांत आवश्यकता होती है ।
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मनुष्य' का स्वभाव है कि वह हमेशा अपने भीतर नहीं रह पाता-किंतु मां को भीतर-बाहर सभी स्थितियों में अनुभव कर सकने से ये कठिनाइयां नहीं रह जातीं ।वैसी अवस्था आयेगि |
अशुद्ध प्रकृति ही साधकों में बाधाओं का सृजन करती है । काम-भोग की इच्छा, अज्ञानता आदि मनुष्य की अशुद्ध प्रकृति के ही अंतर्गत है । ऐसी कठिनाइयां सब में ही होती हैं । जब आयें तब विचलित न हो शांत रह अपने को उनसे अलग रख उनका प्रत्याख्यान करना चाहिये । यदि कहो कि ''हम पापी है'' आदि तो दुर्बलता की ही वृद्धि होती है । कहना चाहिये-''यह है मानव की अशुद्ध प्रकृति, यह मनुष्य के साधारण जीवन में रहती है तो रहे-मैं नहीं चाहती, मैं भगवान् को चाहती हूं, भगवती मां को चाहती हूं-ये सब हमारी यथार्थ चेतना की बातें नहीं । जब-जब ये आयें तब-तब स्थिर रह उनका प्रत्याख्यान करूंगी-न ही विचेलित होऊंगी न हामी भरूंगी ।
'' मैंने तुम्हें इसके बारे में बार-बार समझाया है-बाघाएं पल-भर में नहीं जातीं । बाधाएं हैं मानवी बहि:प्रकृति के स्वभाव का फल-वह स्वभाव एक दिन में या चन्द दिनों में नहीं बदलता । श्रेष्ठ साघकों का भी नहीं । तब हां, मां पर संपूर्ण निर्भर रह, शांत और धीर भाव से, उत्कंठित न हो यदि मां को सदा याद करती रहो तो बाधाएं आने पर भी वे कुछ नहीं बिगाड़ पायेंगी । समय पर उनका जोर कम हो जायेगा, वे नष्ट हो जायेंगी, तब और नहीं रह जायेगी ।
न : जब ध्यान करने बैठती हूं तब मेरे पांव झन-झन करने लगते हैं और अंदर कुछ छटपट करता है ।
उ० : यह है शरीर (शरीरस्थ प्राण) में चंचलता । बहुतों में ऐसा होता है । स्थिर रहने पर यह प्रायः छंट जाती है ।
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न: में अंदर जो देखती हूं वही कभी-कभी बाहर खुली आखों से भी क्यों देखती हूं ? यह क्या महज कल्पना है ?
उ० : नहीं, जो अंदर दीखता है वही physical (चर्म) चक्षुओं से भी देखा जा सकता है । पर भीतरी दृष्टि सहज ही खुलती है, बाहर सूक्ष्म दृश्य देखना जरा कठिन होता है ।
Physical consciousness (भौतिक चेतना) का प्रभाव ज्यादा बढ़ गया था इसीलिये अध्यात्म अनुभूतियां परदे की ओट में हो गयी हैं, एकदम चली नहीं गयीं ।
बिलकुल ही नीरव नहीं क्या जाता, उचित भी नहीं । पर पहले-पहल जितना संभव हो नीरव, गंभीर होना साधना के लिये अनुकूल होता है । जब बाह्य प्रकृति मात्रुमय हो जायेगी तब बातें करने, हंसने इत्यादि में भी वास्तविक चेतना बनी रहेगी ।
हां, उस तरह रोने-धोने से दुर्बलता आती है । सर्वदा, सब अवस्थाओं में धीर और शांत रह, मां पर भरोसा रख उन्हें पुकारों । ऐसा करने से अच्छी अवस्था जल्दी लौट आती है ।
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