All writings in Bengali and Sanskrit including brief works written for the newspaper 'Dharma' and 'Karakahini' - reminiscences of detention in Alipore Jail.
All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)
'स' को
स : मां, आज मैं तुम लोगों को अपने इतने पास अनुभव कर रही हूं, फिर भी सारी सत्ता में तुम लोगों का अभाव खटक रहा है । मेरे ये भाव किस तरह स्थायी रह सकते हैं मां ?
उ० : मां पर पूर्ण श्रद्धा रखने से, बाधा-विपत्तियों से विचलित न हो, स्थिर रहते हुए, सामना करते हुए, मां की शक्ति से उसे अतिक्रम करना--ऐसा भाव रखने पर ही यह अवस्था स्थायी होती है ।
७.२.३४
*
स : अपने प्रधान प्राण-स्तर में देखती हूं एक अर्धचन्द्र, मानों राहु-ग्रस्त हो । उसके बाद देखती हूं सारा स्तर भर उठा है protection (रक्षा) की अग्नि से । पहले था हरा प्रकाश, अग्नि के जल उठने के साथ-साथ अर्धचन्द्र के बदले एक प्रकाण्ड सूर्य उदित हुआ । सारा प्राण जगत् सूर्य को अरुणिम किरणों से जगमगा रहा था ।
उ० : प्राण में जिस आध्यात्मिकता का प्रकाशित होना आरंभ हुआ था, वही है अर्ध--चन्द । चन्द्रग्रहण था वह । हरे रंग का अर्थ है विशुद्ध प्राण-शक्ति । सूर्य का उदय=प्राण जगत् में सत्य-चेतना का प्रकाश ।
८.२.३४
चन्द्र=अध्यात्म का आलोक ।
हस्ती=बल का प्रतीक ।
सोने का हस्ती=सत्य की चेतना का बल ।
९.२.३४
सफेद सच्चिदानन्द का आलोक हो सकता है । लेकिन पीला तो है मन-बुद्धि का आलोक ।
१०.२.३४
स : मां, सोते-जागते मैंने देखा कि ''म'' की निम्न प्राण-शक्तियां आ मेरी प्राण-शक्ति के साथ आदान-प्रदान करना चाहती हैं, भावविनिमय करना चाहती हैं, मुझे
४७३
दुर्बल बना, लक्ष्य-भ्रष्ट कर, स्नेह-परवश करके अपनी ओर खींच लेना चाहती हैं ।
उ० : 'म' के प्राण की कामनाएं इन शक्तियों का रूप धर तुम्हारे पास आती हैं । उनका प्रत्याख्यान करो, अंतत: नहीं आयेंगी ।
१२.३.३४
स : मां, सीढ़ी पर बैठे हुए मैंने देखा कि तुम अपने आसन पर बैठी हो । एक काली मूर्ति तुम्हारे पांव से निकल कर साष्टांग तुम्हें प्रणाम कर रही है ।
यह सब मैं क्या देखती हूं मां ? इन अनुभूतियों में कोई सच्चाई भी है क्या ?
उ०: इन अनृभूतियों का दाम है, इनमें सच्चाई है, इनसे साधना में उन्नति होती है । पर इतना ही यथेष्ट नहीं है, अनुभूति चाहिये, भागवत शक्ति, समता, पवित्रता, ऊर्ध्व चेतना, ज्ञान, शक्ति और आनंद का अवतरण और प्रतिष्ठा-यही है असली बात ।
१४.२.३४
स : मां, मैं स्पष्ट अनुभव कर रही हूं कि हमारी प्राण-शक्ति और प्राण-प्रकृति की एक चेतना है । हमारे चाल-चलन, खान-पान, परस्त्री कातरता, हिंसा, लोभ, मोह, आलस्य-- ये सभी हैं प्राण-प्रकृति के आवरण । हम अचेतन हैं अत: ये हमारे प्रकृत ''में'' को ढके हुए हैं । जब ऊर्ध्व के ज्ञान-आलोक की रश्मियां हमारे आधार पर पड़ती है तब इन आवरणों का खर्व होता है और हम उनका त्याग कर सकते हैं । आज मैं अपने आधार के अंदर जिस तरह इनका सारा खेल देख सकती हूं उसी तरह बाहरी जगत् में उस खेल को देख पाती हूं--खुली आंखों से ही देख रही हूं, कुछ भी अज्ञान, अंधकाराच्छन्न या स्थूल नहीं-सब में ही तुम्हारे स्वरूप और सौंदर्य को देख पा रही हूं ।
उ० : हां, यह है सच्ची अनुभूति-आवरण रूप में जिस प्राण-शक्ति का खेल देख रही हो वह है मिथ्या, अविद्या की प्राण-प्रकृति का खेल, उस आवरण के पीछे है सत्य की प्राण-प्रकृति जो भागवत शक्ति का यन्त्र बन सकती है ।
१७.२.३४
स : मां, आपने लिखा है कि इतने थोड़े दिनों में वह शक्ति नहीं उतारी जा सकती । अगर आप वह शक्ति उतार लातीं तो हमें कई तरह से सुविधा होती, नहीं क्या ?
उ० : शक्ति उतारने में बहुत दिन लगते हैं, चन्द दिनों का काम नहीं ।
२४.२.३४
४७४
[साधिका को बहुत तरह के सूक्ष्म दर्शन हो रहे हैं, सुगंधें आ रही है । सुन्दर फूलों की गंध से मन, प्राण शीतल हो रहे हैं । ध्यान के समय विभिन्न रंगों के जगत् और देवी-देवता दिखायी देते हैं । साधिका को दुःख है कि यह सब मानों एक पतले आवरण के पीछे है, उनका पूर्ण रहस्य और अर्थ समझ में नहीं आता ।]
ये सब vision (दर्शन) और अनुभूतियां सूक्ष्म दृष्टि और सूक्ष्म इन्दियों की हैं (जैसे गन्ध) जो सूक्ष्म चेतना से स्थूल चेतना में आयी हैं--ये टिकती नहीं, सब याद भी नहीं रहतीं । और अन्य जगतों के हाव-भाव सिर्फ दृष्टि द्वारा स्पष्ट दिखायी नहीं देते । आवरण तो रहता ही है--जो समाधिस्थ हो वहां जा सकते हैं वे ही देखते हैं, किंतु उन्हें भी सब याद नहीं रहता ।
२७.२.३४
[खाना कम कर देने के लिये मना करने पर साधिका ने लिखा--खाना तो है निम्न प्रकृति के लिये जो माया की अविद्या से आच्छन्न है । अत: उसे इतना अधिक खाने देने में क्या सार्थकता है ?]
आहार है देह-धारण के लिये और देह की बल-पुष्टि के लिये । इसमें अविद्या की, माया की बात कहां से घुस आयी ?
स: मां, जिन अनुभूतियों के बारे में मैं तुम्हें लिखती हूं वे यदि असत्य हों या उनका कोई मूल्य न हो तो लिखकर व्यर्थ में तुम्हें क्यों कष्ट देना ?
उ० : अनुभूतियां असत्य नहीं हुआ करतीं, इनकी भी अपनी जगह है,--पर अभी ज्यादा जरूरत है असली अनुभूतियों की जिनके द्वारा प्रकृति का रूपांतर होता है ।
२८.२.३४
स : मां, चारों तरफ हवा में एक गभीर व्यथा क्यों विराज रही है ? सिर्फ तुम्हारे लिये है यह व्यथा । सारी सत्ता, समस्त प्रकृति गभीरता से तुम्हें पाना चाहती है, किंतु उनकी अंधता, अज्ञानता और मलिनता के कारण तुम्हें नहीं पा रही और भविष्य में भी पाने की कोई आशा नहीं दीखती । इसीलिये यह असहनीय जीवन धारण करना बेकार मान हताश हो रही है, रो रही हैं, मानों दावानल में जल रही हों ।
उ० : ये सब है प्राण-प्रकृति के विलाप-इससे साधना में कोई मदद नहीं मिलती, अवरोध ही खड़ा होता है | भगवान् में शांत और समाहित श्रद्धा, दृढ़ निश्चयता, सहिष्णुता
४७५
हैं साधक के प्रधान सहायक, दुःख व निराशा योग-पथ में नहीं ले जातीं |
१.३.३४
अनुभूतियां बेकार नहीं होतीं-उनका भी मोल है, यानी वे अनुभूतियां prepare (तैयारी) करती हैं, आधार को खुलने में मदद करती हैं, दूसरे लोकों का, नाना स्तरों का ज्ञान देती हैं । असली अनुभूति है भागवत शांति, समता, प्रकाश, ज्ञान, पवित्रता, विशालता, भागवत सान्निध्य, आत्म-उपलब्धि, भागवत आनंद विश्व-चेतना की उपलब्धि (जिससे अहंकार विनष्ट हो), निर्मल कामनारहित भागवत प्रेम, सर्वत्र भागवत दर्शन इत्यादि सम्यक् अनुभूतियां और उनकी प्रतिष्ठा । इन सब अनुभूतियों का पहला सोपान है ऊर्ध्व शांति का अवतरण और पूरे आधार में और आधार के चारों ओर उसकी दृढ़ प्रतिष्ठा ।
स : मां, रोग क्यों मुझे पुन: इस तरह आक्रांत कर रहा है ? शरीर में एकाएक ऐसा दर्द उठा कि मानों हड्डी-पसली चूर-चूर हो जायेंगी । चलते-बैठते कहां दर्द उठेगा इसका कोई ठिकाना नहीं । कम खाकर रह रही हूं-सोचा था कि शरीर दुबला-पतला रहेगा तो आक्रमण कम होगा और कष्ट सह सकूंगी पर इससे कोई अंतर नहीं पड़ रहा ।
उ० : ये सब दर्दे स्नायु-प्रसूत रोग हैं । कम खाने से कम नहीं होता । तन-मन प्राण की शांति ही हे इसकी श्रेष्ठ दवा ।
२.३.३४
पेड़ों में भी प्राण है, चेतना है । पेड़ों के साथ भावों का आदान-प्रदान सरलता से होता है ।
३.३.३४
स : मां, ऊर्ध्व से तरल जल की तरह क्या उतरता है ?
उ० : ऊर्ध्व चेतना का प्रवाह जब उतरना आरंभ होता है तब उस तरह पतले जल की तरह current (धारा) का बोध होता है ।
४७६
ऐसी अनुभूति होती है-शरीर में मां का प्रवेश-पर उसके फलस्वरूप चेतना का जो रूपांतर होता है वह दीर्घ साधना पर निर्भर करता है--एकाएक नहीं हो जाता ।
६.३.३४
शरीर में मां तो हैं ही--गूढ़ चेतना में--किंतु जबतक बाह्य चेतना में अविद्या की छाप रहती है तबतक उसके फल तुरत-फुरत एक मुहूर्त में दूर नहीं हो जाते ।
जबतक कामना, दावा, कल्पना-जल्पना का जोर रहता है तबतक प्राण का राज तो रहेगा ही । ये हैं प्राण की खुराक, खुराक मिलने पर वह (प्रचण्ड) और बलवान् क्यों न हो भला ?
८.३.३४
जो देखा है वह ठीक है, ऊपर की शक्ति नीचे उतर धीरे-धीरे सत्य-चेतना को स्थापित करती है । पर मानवी प्रकृति ऐसा नहीं चाहती--अन्य विचारों में व्यस्त रहती है, अवहेलना करती है, विरोध तक करती है--नहीं तो शीघ्र ही हो जाता ।
१०.३.३४
स : मां, एक नूतन अवस्था मेरे अंदर परिलक्षित हो रही है । लोगों के साथ बात करती हूं, उनसे मिलती-जुलती हूं सिर्फ प्रयोजन हेतु, उसमें प्राण का कोई आकर्षण नहीं, आमोद-प्रमोद में भी निस्तब्धता में रहती हूं । दिन भर एक नीले आलोक में मानों तुम्हें ही देखती हूं, ऊर्ध्व की चेतना ने नीचे उतर सारी सत्ता को कांच की तरह स्वच्छ और खास तौर से सचेतन बना रखा है ।
उ० : ऐसा यदि हो तब तो बड़ी अच्छी बात है । सर्वदा अनासक्त रह लोगों के साथ संसर्ग करना चाहिये ।
स : आज प्रणाम के समय ऊर्ध्व जगत् से एक प्रगाढ़ शांति का प्रवाह उतर आया--मुझे पता ही नहीं चला कि मेरे सारे रोग कहां बिला गये ।
४७७
उ०: जबतक संपूर्ण आधार शांत-समाहित नहीं हो जाता तबतक शांति के अवतरण की ऐसी अनुभूति सबसे ज्यादा जरूरी है ।
१३.३.३४
स : मां, आज सुबह से ही पेट में बड़ा दर्द हो रहा था । प्रणाम-हॉल में एकाग्र मन से तुम्हें पुकार रही थी और सारी चेतना और सत्ता को उर्ध्व की ओर खुला रखा था । ऐसे समय ऊपर से एक विराट् विश्व-व्यापक शांति की तरंग उतर आयी । मुझे लगा कि यह शांति-प्रवाह नाभि के नीचे तक नहीं उतर पाया । मैंने पुन: उस अंश को ऊर्ध्व की शांति के प्रवाह की ओर खुला रखने की कोशिश की । थोड़ी देर को तो असह्य यंत्रणा हुई--उसके बाद किंतु वह ज्यादा देर तक नहीं टिक पायी ।
उ० : यही है रोगों से मुक्ति का श्रेष्ठ उपाय, पर देह की चेतना सब समय खुलना नहीं चाहती और शीघ्र ही अभ्यस्त लोक पर चलने लगती है ।
१५.३.३४
स : मां, तुम्हारी दिव्य चेतना और दिव्य दृष्टि-शक्ति मेरे आधार में उतर आती है तब आध्यात्मिक पवित्रता के प्रवाह में सारा अंधकार, ग्लानि, मलिनता, व्याधि दूर हो स्वच्छ और पवित्र हो जाते हैं । किंतु ज्यादा देर तक यह अवस्था क्यों नहीं बनी रहती ?
उ०: थोड़ी देर रहने पर भी इससे बड़ा लाभ है । पहले-पहल थोड़ी देर ही रहती है ऐसी अवस्था--फिर धीरे-धीरे इसकी अवधि बढ़ जाती है ।
२०.३.३४
स : मां, आज मेरा मन किसी का भी संसर्ग पसंद नहीं कर रहा--लोग, वस्तु सब कुछ बोझ-सा बन गया है । तुम्हारी उपस्थिति को छोड़ और किसी सोच से गर्दन में, सिर में पीड़ा होने लगती है । नितांत प्रयोजनीय बात करने से भी दम फूलने लगता है और दुर्बलता अनुभव करती हूं ।
उ० : इतना ज्यादा sensitive (संवेदनशील) होना ठीक नहीं ।
[साधिका का कहना कि आजकल ऊर्ध्व की अनुभूतियां अब और नहीं हो रहीं, आधार में ही अनुभूति हो रही हैं ।]
४७८
हर समय ऊर्ध्व में ऊर्ध्व की अनुभूतियां होते रहने से, आधार में अनुभूतियां न होने से आधार का रूपांतर क्योंकर होगा ?
२२.३.३४
स : मां, ध्यान में देखा कि सिर के ऊपर हर समय एक उज्ज्वल सफेद ज्योति विद्यमान है । स्थूल मन जब स्थूल का सोचता है तब आधार के स्थूल अंश का द्वार बंद रहता है--तभी ऊर्ध्व की ज्योति और शांति नहीं उतर पातीं । जब भी मैं ऊर्ध्व की ओर देखती हूं तभी मेरी जड़-सत्ता के स्थूल अंश में भी ऊर्ध्व की शांति, शक्ति और पवित्रता नीचे उतर सारे जंजालों को दूर कर देती हैं ।
उ० : ऐसा तो प्रायः होता है । जब पूरा आधार खुल जाता है तब ऐसा नहीं होता--स्थूल मन स्थूल के बारे में सोचे भी तो उस समय उर्ध्व की ज्योति व शांति बनी रहती हैं ।
स : मैं अब समझ पा रही हूं कि मेरी एक ज्योतिर्मयी सत्ता है । पर कोई शक्ति उसे ढके हुए है । आज देखा कि तुम्हारे संगीत के सारे सुर मानों ज्ञान-ज्योति की एक-एक शिखा हैं । ये शिखाएं जड़भूमि पर उतर उस अज्ञान और तामसपूर्ण जंजालों को मिटा देती हैं ।
उ० : सब में ही ज्योतिर्मयी सत्ता होती है, सभी में अज्ञान के बंधन होते हैं । सत्य की शक्ति उन बंधनों को खोल देती है । मां बजाने के समय सत्य को, उस सत्य की शक्ति को नीचे उतार लाती है ।
हरा रंग है emotion (भावुकता) का ।
अ : मां, सफेद फीका नीले रंग का एक शक्ति-प्रवाह उतर रहा है । स्वच्छ जल की तरह चेतना की एक धारा नीचे उतर मेरे वक्र शरीर को सीधा कर दे रही है, दुर्बल स्नायुओं को सतेज, सबल नीरोग और निस्तब्ध कर दे रही है ।
४७९
उ० : वह तो है ऊर्ध्व चेतना का प्रवाह ताकि सब कुछ रूपांतरित हो सके ।
२४.३.३४
यह है दो विपरीत प्रभावों का द्वंद्व-सत्य की शक्ति का प्रभाव जब तन को छूता है तब सब स्वस्थ हो जाता है- अविद्या के प्रभाव से रोग, कष्ट, स्नायविक विकार लौट आते हैं ।
ये सब बातें तो बिलकुल स्पष्ट हैं, क्यों नहीं समझ पातीं ? आत्मा है अनश्वर, अनंत, दुःख-कष्ट हैं सब अविद्या के फल, आत्मा का, यहां तक कि आधार का भी यह स्वाभाविक धर्म नहीं । जिसे ऊर्ध्व चेतना कहते है वह आत्मा का ही धर्म है-उस उदात्त धर्म को शरीर में उतारना चाहिये, यदि उतर जाये तो रोग-दुःख-कष्ट नहीं रह जाते ।
२६.३.३४
कोई भी नियम पालन करने से नहीं होता । स्थिर, शांत, दृढ़ संकल्प से प्रत्याख्यान करने से धीरे-धीरे अविद्या का प्रभाव चला जाता है । चंचल होने से (विव्रत होने से, अंधे बने रहने से, हताश होने से) अविद्या की शक्ति ज्यादा बल पकड़ती है और आक्रमण करने का साहस जुटाती है ।
२७.३.३४
स : मां, ध्यान में मेरी पूरी चेतना ऊपर को उठ जाती है । मैं और मेरा अपना बोलकर कुछ नहीं रह जाता । केवल एक निम्न चेतना आधार में बैठे-बैठे घर-गृहस्थी और बाहरी चिंता में मग्न रहती है । ऊर्ध्व चेतना को उतार इस निम्न चेतना में, जो अभी भी तुम्हारे असली काम से अलग रह गयी है, परिवर्तन न ला पाने के कारण दुःख पाती हूं ।
उ० : इस तरह की दुविधाएं साधना में होती हैं, उनकी भी जरूरत है--उसके बाद निम्न चेतना में ऊपर के भाव को उतार लाना ज्यादा सहज बन जाता है ।
२९.३.३४
४८०
साधना करते-करते ऐसी अवस्था आती है कि मानों दो स्वतंत्र सत्ताएं हैं, एक अंदरूनी, शांत, विशुद्ध भागवत सत्य-दृष्टि और अनुभूति में मग्न रहती है या उसके साथ संयुक्त, और दूसरी है बाहरी जो छोटी-मोटी बातों में व्यस्त रहती है । उसके बाद दोनों के बीच भागवत एकता स्थापित होती है--ऊर्ध्व जगत् और बहिर्जगत् एक हो जाते हैं ।
३१.३.३४
स : मां, मैं सारी दुनिया में तुम्हारी महान् आनन्दपूर्ण प्रेम-कल्लोलित एक ध्वनि सुन रही हूं और तुम्हारा अमृतमय, ज्ञानोज्ज्वल हास्यमय आनन्द-समीरण दुनिया के सारे दुःख-दैन्य को अपसारित कर रहा है और पिपासित शुष्क धरती आज सतेज हो उठी है । आज ध्यान नहीं कर पायी, केवल यही सब देखती रही ।
उ० : ऐसी अनुभूतियां प्राण-जगत् में घटती हैं । कुछ बुरा नहीं, तब हां, सिर्फ इसे ही पकड़कर नहीं बैठ जाना चाहिये ।
इन सब प्राण के व्यर्थ विलापों को शह देने से अनुभूतियां कैसे आयेंगी भला ? आयें भी तो टिकेंगी कैसे ? फलीभूत होंगी कैसे ? यह प्राण का क्रन्दन तो केवल अवरोध ही खड़ा करेगा । यह जो इतनी अच्छी अनुभूति आयी इससे आनन्दित न हो रोना-धोना क्यों ?
५.४.३४
ये विलाप और हायतौबाभरी बातें योगपथ में अग्रसर होने में केवल अवरोध ही बनती हैं--यह प्राण का एक प्रकार का खेल है मात्र । इन सबको दूर हटा, शांत रह साधना करने से शीघ्र उन्नति होती है ।
लोग क्या करते हैं और नहीं करते यह अलग बात है--साधक को क्या करना चाहिये, किस तरह साधना में उन्नति होगी, यही है सौ बात की एक बात ।
६.४.३४
४८१
स: भावावेग का स्तर सामने की तरफ है, चैत्यपुरुष का स्तर पीछे की ओर । दोनों के बीच एक परदा-सा पड़ा है । मैंने देखा था कि कुण्डलिनी शक्ति चैत्य स्तर से बार-बार भावावेग के स्तर पर आ-जा रही है और ऊर्ध्व के सत्य का प्रभाव उतार लाती है । इन दोनों के बीच पड़े परदे को कुण्डलिनी उठा देना चाहती है ।
उ० : Emotional being (भावावेगी सत्ता) और चैत्य के बीच जो आवरण है उसे हटा देने के लिये है यह आयोजन । ऐसा होने पर vital emotions (प्राणिक भावावेग) के बदले चैत्य भावावेग हृदय में विराजमान होगा ।
स: मैंने सपने में देखा कि 'म' मर गया है ।
उ० : प्राण-जगत् के सपने में और वास्तविक स्थूल घटना में कोई संबंध नहीं । ऐसे सपने तो आते रहते हैं जिनका कोई दाम नहीं ।
स: अपने सिर पर एक कमल देखा । कमल का ऊपरला भाग सूर्य-रश्मि की तरह और निचला भाग सफेदी लिये नीला ।
उ०: चक्र का ऊपरी भाग पाता है Overmind और Intuition (अधिमानस और अंतर्ज्ञान) का प्रकाश, सुनहला प्रकाश या सूर्य-रश्मि । निचला भाग Higher Mind और Spiritual Mind (उच्चतर मन और आध्यात्मिक मन) के साथ संश्लिष्ट है जिनका प्रकाश नीला व सफेद होता है ।
७.४.३४
चैत्य पुरुष है भगवान् का अंश, उसका खिंचाव है सत्य की तरफ, भगवान् की तरफ, और वह खिंचाव होता है कामना-रहित, अधिकार-रहित, निम्न वासना-रहित । चैत्य भावावेग होता है पवित्र और निर्मल । भावावेग प्राण का अंश है, इसमें कामना, अहंकार, मांग, रूठना आदि काफी मात्रा में होते हैं । यह भगवान् को भी चाहता है तो अपने अहंकार, कामना को चरितार्थ करने के लिये-पर चैत्य के संस्पर्श से शुद्ध--पवित्र हो सकता है ।
४८२
ऊपर की चेतना अनेक रूपों में उतरती है--हवा के रूप में, वर्षा, तरंग, धारा या समुद्र के रूप में-जैसे शक्ति की जरूरत या सुविधा हो ।
मैंने कहा है कि इस तरह का रोना-धोना साधारण लोगों के लिये ठीक है, साधक के योग्य नहीं । यह साधना में अंतराय बन जाता है ।
स : मैं प्राण में एक गतिवेग देख रही हूं, यही है भावावेग--वह हर समय कितनी ही प्राणिक भाव-प्रवणता और अहंकारयुक्त हरकतों को खींच लाता है । वह अपने अहंकार में तुम्हें डुबाये रखना चाहता है और ओछी वासना के प्रभाव में आ तुम्हें चाहता है और अपनी ओर खींचता है ।
उ० : यदि ऐसा समझती हो तो उस अहंकारात्मक भावावेग को झाड़ फेंको । जो शुद्ध है या चैत्य का है वही भावावेग साधना में सहायक होता है ।
१०.४.३४
स :... उनको (प्राण की चंचलता, अहंकार की गति और जोर-जबर्दस्ती) त्यागने की क्षमता मुझमें नहीं । एक तरफ से बाहर फेंक देने पर तरह-तरह के स्वांग रचा और रूप धर कर दूसरी तरफ से अंदर घुस आते हैं । मुझ पर अपनी धौंस जमाते रहते हैं ।
उ० : तामसिक शरीर-चेतना और राजसिक प्राण के कारण । वे सहमति देते हैं अत: है उनकी धौंस । यदि वे हामी न भरें तो क्या उनकी यह धौंस संभव है ?
१२.४.३४
मरना कोई समाधान नहीं । इसी जन्म में उन कठिनाइयों को नेस्तनाबूद नहीं कर देने से, तुम क्या समझती हो अगले जन्म में वे तुम्हें छोड़ देंगी ? इसी जन्म में उनसे छुटकारा पा लेना चाहिये ।
[साधिका के मन में ख्याल उठा है की मां उसे नहीं चाहतीं | अस्थिर होने के
४८३
कारण वह आश्रम को, मां को छोड़कर चली जाना चाहती है पर रहना भी चाहती है, वह दिशाहारा हे ।]
यह सब है केवल कामना-उदभूत अशान्त प्राण का विद्रोह--उसे प्रश्रय क्यों देती हो ? तुम प्राण को चरितार्थ करने यहां नहीं आयी हो । दृढ़ता से प्राण को संयमित कर योग-साधना को ही एकमात्र उद्देश्य बना लो--तब ऐसी स्थिति नहीं आयेगी ।
१३.४.३४
अपने को संयत रख लोगों से मिलने-जुलने में चेतना नीचे नहीं गिरती ।
ऊर्ध्व चेतना का स्पर्श-उसी ऊर्ध्व चेतना के भाव, शांति, ज्ञान और गभीरता का अवतरण हैं योग-सिद्धि के साधन । प्राण को संयत रख उस शक्ति को ही तन, मन, प्राण को अधिकृत करने देना चाहिये ।
१४.४.३४
स : कुण्डलिनी जाग उठी है और ऊपर की ओर उठ रही है--पर मां, कुण्डलिनी की पूंछ एक हरे रंग के मयूर में बदल गयी ।
उ० : हरा रंग है emotional power (भावों की शक्ति) का लक्षण । मयूर है विजय का प्रतीक ।
[साधिका श्रीअरविन्द के कमरे में काम करना चाहती है । पहले भी एक बार काम मांग चुकी थी पर नहीं मिला । अब श्रीअरविन्द के कमरे में काम करनेवाले के चले जाने से उसी पुरानी इच्छा को व्यक्त किया है ।]
मेरी बात को गलत समझा है तुमने । मैंने कहा था कि जो काम कर रहे हैं उन्हें नये लोगों के लिये क्यों हटा दूं ? यदि कोई चला जाये तो तुम्हें वह काम क्यों मिलना चाहिये ? बहुत-से साधक और साधिकाओं ने इस काम की मांग की थी, मां ने नहीं दिया, तुमसे बहुत पहले वे मांग चुके थे, यहांतक कि दस साल पहले । उन सबको (कम-से-कम २० होंगे) छोड़ तुम्हें ही क्यों मिले ? इससे तो साफ जाहिर है कि यह है तुम्हारे अहंकार की मांग । प्राण की मांग पर कान मत दो । शांत और
४८४
अहंकार-रहित हो स्वयं को तैयार करो, योग-पथ में उन्नति को ही लक्ष्य बनाकर चलो, यही है उन्नति का श्रेष्ठ साधन ।
चाहिये ऊर्ध्व की अनुभूतियां, चाहिये प्रकृति का रूपांतर । हर्ष, विषाद, हताशा, निरानन्द हैं साधारण प्राण के खेल, उन्नति में अंतराय । इन सबको अतिक्रम कर ऊर्ध्व की विशाल एकता और समता को प्राण में और सर्वत्र स्थापित करना चाहिये ।
१७.४.३४
स : मां, अब भी कभी-कभी इच्छा होती है कि पढ़ना छोड़ दूं । मन में उठता है कि मैं तो यहां भगवान् के लिये आयी हूं तो लिखने-पढ़ने का क्या काम ? फिर तुरत ख्याल आता है कि अपने मन की भावनाओं और विचारों को तुप्ततक पहुंचाने योग्य होने की भी तो आवश्यकता है ।
उ० : यह है मन-प्राण की चंचलता । जिसे आरंभ कर चुकी हो उसे स्थिर भाव से चालू रखना चाहिये जबतक कि वह उद्देश्य सिद्ध न हो जाये ।
स : रात्रि के पिछले पहर में देखती हूं कि मैं एक पारदर्शी फीके नीले प्रकाश में डूबती जा रही हूं, तुम्हारे एकमात्र आनंद और प्यार ने मेरी सारी देह को भर दिया है, कहीं भी तिलभर भी न निरानन्द है न अपवित्रता ।
उ० : ऐसी अनुभूतियां लाभदायक होती है । हताशा में निवास न कर आनंद में रहना है साधना की सच्ची अवस्था ।
१९.४.३४
साधकों में शून्यता की ऐसी अवस्था तब आती है जब ऊर्ध्व लोक की चेतना उतर आ मन-प्राण को अपने अधिकार में करने की तैयारी करती है । आत्मा की अनुभूति जब होती है तब भी उसके प्रथम स्पर्श से एक विशाल शांत शून्यता का ही अनुभव होता है, उसके बाद उस शून्य में उतरती है एक विशाल, प्रगाढ़ शांति और नीरवता, स्थिर, निश्चल आनन्द ।
२१.४.३४
४८५
स: आज दो दिन से देख रही हूं कि कुछ विरोधी सैन्यों के दल मुझपर आक्रमण करने के लिये चले आ रहे हैं, कूड़े-कबाड़ के कुछ एक पहाड़ अंधकार की तरह मुझे घेरना, दबाना चाहते हे । मेरे भीतर से एक शक्ति सामने आ और मेरे सिर पर चढ़ सारी विरोधी सेना के पथ को रोक रही है, युद्ध की झूठी शक्ति की राह में रोड़े अटका रही है ।
इस तरह के अस्वाभाविक तरीके का वीरत्व मैं क्यों देख रही हूं मां ?
उ० : यदि इस अभिज्ञता पर भरोसा किया जाये तो समझना होगा कि प्राण-जगत् में जहां विरोधी शक्तियों का आक्रमण हो रहा है वहां भागवत प्राण-शक्ति प्रतिष्ठित हो चुकी है जो स्वतः ही उस आक्रमण को बेकार कर देती है ।
२४.४.३४
स : ध्यान करना आरंभ करने पर एक शक्ति इतने जोर से उतरती है और इतना दबाव डालती है कि मैं न तो कुछ सोच सकती हूं न इधर-उधर ताक-झांक कर सकती हूं । शांत भाव से यथासाध्य उस शक्ति के सामने अपने को रखती हूं, बाद में सारी प्रकृति शांत, निश्चल और स्तब्ध हो जाती है । एक नीरव आनंद में मुझे डुबो रखती है ।
उ० : यह शुभ ऊर्ध्व चेतना का (उस चेतना की शांति-शक्ति का) अवतरण है--स्वयं को आधार में दृढ़ता से स्थापित करने का पहला आयोजन ।
२६.४.३४
स : मां, मेरा मन खाली हो गया है, सोचने की शक्ति न जाने कहां तिरोभूत हो गयी है । किंतु एक और पुरुष मन में जाग उठा है जो इस जगत् और अंतर्जगत् का छोटा-बड़ा जो कुछ भी मेरी चेतना में आता है उसे जांच-परख कर सत्य को चुन लेता है और मिथ्या का जड़-मूल से नाश कर देता है । पहले मिथ्यात्व के प्रपंच को झाड़ फेंकने में बड़ी तकलीफ होती थी । अब उस जाग्रत् चैतन्यमय पुरुष की सहायता से इन आक्रमणों से छुटकारा पाना मेरे लिये सहज हो गया है ।
उ० : यह पुरुष है higher mental being (उच्चतर मनोमय पुरुष)--ऊर्ध्व चेतना के अवतरण के समय जाग्रत् हो जाता है-उसका ज्ञान साधारण मन का नहीं, ऊर्ध्व मन का है ।
४८६
उ०: पहले-पहल चाहिये शून्य विशाल चेतना जहां ऊपर के प्रकाश, शक्ति आदि अपना स्थायी स्थान बना सकें । मन के रवाली न होने तक पुरानी movements (हरकतें) ही अपना खेल दोहराती रहती हैं । ऊर्ध्व की वस्तुएं सुविधाजनक स्थान नहीं पातीं ।
५.५.३४
प्राण चिन्तारहित विशालता की अवस्था से कोई लगाव नहीं रखता । वह चाहता है हलचल, चाहे जैसी भी हलचल क्यों न हो, ज्ञान की हो या अज्ञान की । कोई भी अचंचल-स्थिर अवस्था उसे नीरस लगती है ।
८.५.३४
सत्ता के किसी भी अंश को नहीं छोड़ा जा सकता, रूपांतरित करना होता है । स्वभाव के किसी खास रंग-ढंग को त्यागा जा सकता है, सत्ता कै अंश तो स्थायी हैं ।
स : अब भी मेरी वही शून्य अवस्था बनी हुई है । ऊर्ध्व का उज्ज्वल प्रभाव नीचे उतर रहा है । आधार शून्य के अतल तल में डूबता जा रहा है । सारा जगत् हो गया है स्वच्छ, निर्मल, निराकार । इस निराकार के बीच भागवती नीरव निस्तब्धता और अविचलित शांति और आनंद का अनुभव कर रही हूं ।
उ० : ऐसी ही होती है उन्नति की प्रतिष्ठा । ऐसी नीरवता में ही सब नीचे उतर सकता है और प्रकट हो सकता है ।
१०.५.३४
स : मां, आज प्रणाम के समय मस्तक के ऊपर एक कमल देखा । कमल के एक तरफ इंजन लगाया जा रहा है । इंजन द्वारा निकली जल की धारा मेरे पूरे आधार को धो दे रही है । इंजन की एक दूसरी पाइप से जल की वेगवती धारा ऊपर की ओर उठ रही है और कोहरे की न्याईं नीले आकाश के साथ एकाकार हो रही है ।
उ० : यह है, purification (पवित्रीकरण) का symbol (प्रतीक) । ऊर्ध्व चेतना की धारा से धुलने पर आधार पवित्र हो जाता है ।
४८७
स : मैंने देखा, आध्यात्मिक स्तर पर एक प्रकाण्ड चक्र अविराम चक्कर काट रहा है और उसके घूमने के साथ-साथ नीला, सादा, हरा, लाल, सुनहरा सूर्य-रश्मि की तरह का प्रकाश मेरे चैत्य पुरुष के स्तर में और अन्यान्य निचले स्तरों में उतर रहा है । एक के बाद एक आलोक नीचे आ चक्र की गति से आधार के सारे अंधकार को धो-पोंछकर साफ कर दे रहा है; इसके बाद चक्कर को गति के साथ-साथ चेतना और सत्ता को ऊर्ध्व के राज्य में खींचे लिये जा रहा है और फिर से चक्कर की ही गति के साथ नीचे ला रहा है ।
उ० : चक्र का घूमना है शक्ति का कर्म-प्रयोग । अध्यात्मशक्ति काम कर रही है आधार की सफाई करके और चेतना को ऊपर की ओर ले जाकर--ऊपर ले जाकर उर्ध्व चेतना के साथ संयुक्त कर वह उसको पुन: उसके स्थान पर उतार लाती है ।
१५.५.३४
यदि बाहरी चेतना भीतर की चेतना के साथ संश्लिष्ट हो और दोनों ही मां के प्रति पूर्ण समर्पित, शांत, पवित्र हो जायें तो सब संभव है ।
१७.५.३४
स : मां, आज प्रणाम के समय मेरी चेतना इतने गंभीर राज्य में पहुंच गयी थी कि लगता था कि शरीर भी उस स्तर पर उठ आया है ।
उ० : स्थूल देह तो नहीं उठ सकता इन सब राज्यों में--सूक्ष्म देह उठ सकती है, वह भी आसानी से नहीं होता । पर जब प्राण उठ जाता है तो वह अपने साथ physical consciousness (पार्थिव चेतना) का कोई अंश खींच ले जा सकता है ।
१९.५.३४
स : मैंने देखा है कि सारी दुनिया धूम्राच्छन्न है और नीचे सब कुछ एक सागर-सा है । उस सागर के बीच एक विशालकाय स्टीमर में तुम हम सभी को ऊर्ध्व की ओर लिये चली जा रही हो ।
उ० : वह सागर और आकाश physical (पार्थिव) चेतना और प्रकृति की obscurity (तमिस्रा) को दर्शाता है । दिव्य आलोक को जड़ तक में पाने के लिये सभी उसी में से गुजर रहे हैं ।
२४.५.३४
४८८
स : मां, मुझे ऐसा क्यों लगता है कि मेरी कोई उन्नति नहीं हो रही । इस अपवित्रता से भरे तन और स्वभाव को लेकर योग-पथ पर अब और अग्रसर नहीं हो सकती ।
उ० : जड़ चेतना में उतरी हो इसीलिये ऐसा लगता है । पर यह सच नहीं--जहां उतरी हो वहां physical (भौतिक) के रूपांतर के लिये उतरी हो ।
प्राणिक मन हृदय से ऊपर है और गले से नीचे । उच्च प्राण है हृदय में; नाभि में है central (केंद्रीय) या ordinary (साधारण) या middle (मध्य का) प्राण । नाभि के नीचे है निम्न प्राण । मूलाधार है physical (जड़) चेतना का केंद्र ।
स : मां, आज जब ध्यान में बैठी तो देखा कि मेरे आधार के भीतर कुछ लोग गप्पों में मस्त हैं, एक दूसरे को हुकुम दे रहा है और तरह-तरह के आदेश दे रहा है ।
उ० : या तो ये अवचेतना की आवाजें हैं या फिर general physical mind (साधारण पार्थिव मन) के सुझाव--उधर attention (ध्यान) देने की कोई आवश्यकता नहीं ।
२५.५.३४
स : मैंने देखा कि ऊपर से एक सूर्य मेरे मस्तक में उतर आया है । उसके बाद देखा एक सांप-सांप का सिर ही था सूर्य-धीरे-धीरे नीचे की ओर सरक रहा है । जब वह मेरे पांव के नीचे तक उतरा तब वह एक बृहदाकार अग्नि में परिणत हो गया और मैं उस अग्नि के बीच में हूं । इसी तरह निम्न स्तर में उतरी । वहां एक जंगल को पार करके देखा एक बड़ा-सा मकान । उस मकान में से कई दैत्य निकले और उस अग्नि को देखकर जादू से चारों ओर अंधकार फैला दिया पर क्योंकि मैं इस अग्नि के बीच में थी अत: वे मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सके । उसके बाद देखा कि तुम वहां प्रकट हुईं और अंधकार का लोप हो गया और वह स्थान मानों तरल, एक तरह से जलमय हो गया ।
उ० : यह जगत् होगा अवचेतना का राज । वहां होती है अंधकार और अज्ञान की आंख-मिचौली-यह है वहां सत्य के प्रकाश की उतरने की चेष्टा ।
४८९
गला है बाह्य मन का केंद्र-physical मन, वह ठीक स्थूल मन का केंद्र नहीं बुद्धि का जो अंश express (अभिव्यक्त) करता है वही है वह, बातें कहता है, मन के विचार और चिंतन को किसी तरह व्यक्त करता है, उनके प्रभाव को बाह्य जगत् में मूर्त रूप दे सफल बनाने को चेष्टा आदि करता है, पर स्थूल मन के साथ घनिष्ठता बनाये रखता है ।
२६.५.३४
निम्न प्राण के संवेदन उठते हैं मन-बुद्धि पर आक्रमण करके प्राण की प्रेरणा में बहा देने के लिये या फिर बुद्धि की सम्मति और सहायता पाने के लिये-इसके बाद पूरे जोर-शोर से अपने को बातों में या कार्य में परिणत करते हैं । ऐसा न कर सकने पर बुद्धि को एक तरफ रख (स्थगित कर) अपना आधिपत्य स्थापित करने की चेष्टा करता है । इससे त्राण पाने का एकमात्र उपाय है higher consciousness and will (उच्चतर चेतना और संकल्पशक्ति) और चैत्य पुरुष को आधार में अधिकाधिक सजग और बलवान् बनाना और उन्हें सर्वत्र सक्रिय करना ।
स : कभी-कभी लगता है कि पुन: तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध पढ़ना आरंभ किया है इसलिये सुन्दर अवस्था से नीचे गिर गयी हूं । यह भी लगता है कि मैं बहुत अपवित्र हूं--मैं इस योग में ज्यादा उन्नति करने में समर्थ नहीं हूं ।
उ० : ये सब दुश्चिंताएं outward (बाहरी) प्राण के स्वभाव से आती हैं-यह जल्दी से निराश हो जाता है--बुद्धि की परवाह नहीं करता--अपनी कल्पना को प्रश्रय दे कितनी ही दुश्चिंताओं को जनम देता है जिनका कोई मूल्य नहीं होता ।
स : कल ध्यान के समय एक भारी-भरकम जानवर को अपने सामने खड़े देखा । तुम्हारी जो शक्ति उतर रही थी वह उतर न सके मानों इस भाव से वह अपनी भारी- भरकम देह को और फैलाकर मेरे सामने खड़ा था । जब चैत्य पुरुष की अभीप्सा और आवाहन से मेरे आधार में तुम्हारी शक्ति वेग के साथ उतरी तब इस विकट जानवर की देह चूरमार हो गयी । बाद में सोचा कि यह मेरी स्थूल निम्न प्रकृति की ही कोई मिथ्या शक्ति रही होगी-किंतु इतनी बड़ी कैसे हो गयी मां ?
४९०
उ० : स्थूल प्रकृति की ही शक्ति-किंतु तुम्हारी स्थूल प्रकृति की नहीं ।
२.६.३४
स : पहले की तरह किसी के भी साथ मिलते-जुलते मैं प्राण की धारा में अपने को बह जाने नहीं देती, अपने को उससे पृथक् रखने की चेष्टा करती हूं । पहले जैसे क्रोध, असंतोष, निरानन्द इत्यादि बहुत जल्दी से मेरे अंदर घर बना लेते थे--अब देखती हूं वे मेरे अंदर घुस नहीं सकते, कभी आ जाने पर भी उसी क्षण उन्हें भगा देने की क्षमता मानों कुछ बढ़ी है ।
उ० : यह उन्नति ही पहले चाहिये-यह न हो तो और कुछ भी स्थायी नहीं हो सकेगा ।
स : मां, निम्न शक्तियां क्यों जग उठती हैं ? साधारण अवस्था में इतना नहीं होता जितना नींद में उन्हें आने का सुयोग मिलता है ।
उ० : नींद में उठने की भूल जड़ अवचेतना ही हो सकता है--तथापि प्राण के किसी भाग में छिपी प्रकृति किसी छोटी-सी छेड़खानी से अथवा अकारण ही उठ सकती है । ऐसा प्रायः ही होता है ।
१९.६.३४
स : मां, सभी मेरी निन्दा करते हैं कि मैं तुम्हें शरीर के बारे में सब अनाप-शनाप बातें लिख देती हूं । वे कहते हैं कि साधना और प्रार्थना की बातों के सिवा वे और कुछ भी तुम्हें नहीं लिखते ।
उ० : बीमारी यदि आती है--वह चाहे जैसी भी बीमारी हो--जैसे रोगी डॉक्टर से कुछ नहीं छिपाता, कुछ कहने में नहीं हिचकता वैसे ही मां को भी मुक्त भाव से सब कुछ कह देना उचित है । लोगों की बातों पर ध्यान न दो, वे नासमझी में जो-तो बोल जाते हैं ।
२६.६.३४
जब शांत और उद्विग्न हो मां की शक्ति के प्रति अपने को खुला रखोगी तो मां की शक्ति काम कर सकेगी । मां एक दिन कठोर हैं एक दिन प्रसन्न यह साधक के मन
४९१
की उपज हैं, वास्तविकता नहीं । अपने को खुला रखो-- यही है एकमात्र असली बात ।
२७.६.३४
ऐसी सब चिन्ताएं और विलाप करने से साधना में कोई हित साधित नहीं होता । प्राण ही कठिनाइयों का जनक है और प्राण ही फिर उन कठिनाइयों के लिये विलाप करता है, निराश होता है । जैसे प्राण की बाधक शक्ति से कोई लाभ नहीं वैसे ही बाधाजनित निराशा से कोई लाभ नहीं । इससे तो नम्र और सरलभाव से श्रद्धा रख और समर्पण कर, प्राण की सब अशुद्ध movements (हरकतों) का त्याग कर प्राण में true consciousness (सत्य चेतना) को उतारने का प्रयास ज्यादा अच्छा है ।
२८.६.३४
स: मां, केवल मुझे ही क्यों लगता है कि तुम कठोर और निर्दय हो ? प्रति पल मैं जो अन्याय और अनुचित करती हूं फिर भी तुम लोशमात्र भी विचलित न हो मुझे शांति देती हो यह मैं अच्छी तरह जानती हूं--तब क्यों तुम्हारी दृष्टि की कठोरता मेरे अंतर को छेद जाती है ?
उ० : प्राण की बाधा । मनुष्य का प्राण बाहरी चीजें चाहता है, लोगों के साथ प्राण का विनिमय चाहता है, अपनी निजी कामनाओं, मांगों आदि तक की संतुष्टि चाहता है, मां का अनुग्रह भी चाहता है लेकिन उसी भाव से, अपने को न देकर, मां मुझे प्यार देंगी, दुलार देंगी, प्रधान स्थान देंगी, अपनी करुणा, प्रकाश, शांति और बड़ी-बड़ी अनुभूतियों की वर्षा करेंगी-यह तो मां का कर्तव्य है--मैं तो मजे से भोग करूंगी । मां, यदि यह सब नहीं करतीं तो वे निर्दय, कठोर, करुणा-विहीन हैं । यही है प्राण का असली स्वभाव । इस सब की एकदम सफाई करनी होगी, वास्तविक विशुद्ध समर्पण करना होगा--यह होते ही बाधाएं भाग खड़ी होंगी ।
२९.६.३४
बिल्ली है प्राणिक (emotional) वासनाओं इत्यादि की प्रतीक ।
३०.६.३४
काम या पढ़ना छोड़कर कोई स्थाई फल नहीं होता । प्राण की ही सफाई करनी
४९२
होगी और उसमें ऊपर के शांति, समता और पवित्रता के भाव लाओ ।
स : मां, आजकल मुझे जो सब अनुभूतियां हो रही है वे मिथ्या हैं क्या ? तुम आजकल) अनुभूतियों का उत्तर नहीं देतीं इसीलिये मन में शंका हुई ।
उ० : अनुभूतियां मिथ्या नहीं हैं, किंतु इन सबका अर्थ पहले ही समझा चुका हूं इसीलिये उनके संबंध में और कुछ नहीं लिख रहा । ये सब अनुभूतियां ऊपर के स्तर की हैं, वहां ये सत्य हैं, निम्न स्तर में सत्य बनने की चेष्टा कर रही हैं । लेकिन उसके लिये आवश्यक है निम्न स्तर में शांति, नीरवता, पवित्रता, विशालता और ऊर्ध्व चेतना का अवतरण ।
२.७.३४
स : प्राण ने तो पहले मुझे कभी तंग नहीं किया, कष्ट नहीं दिया । तुम्हारे पथ पर दौड़कर आने के लिये, समस्त पार्थिव बन्धनों को छिन्न-भिन्न करने के लिये इसने मुझे यथेष्ट सहायता दी है । आज इसी प्राण की इतनी अशुद्धता क्यों जग उठी मां ?
उ० : प्राण में अशुद्धता तो थी ही, यह जगी नहीं । यहां उसपर बदलने के लिये मां की शक्ति का दबाव पड़ा इसीलिये कठिनाई उभर आयी ।
३.७.३४
ये सब प्राणिक स्तर के स्वप्न हैं--किंतु इसमें अवचेतना के कल्पित रूप इस कदर घुलमिल गये हैं कि उनका कोई अर्थ और मूल्य नहीं रह गया । बहुत-से स्वप्न ऐसे ही होते हैं । जो स्पष्ट और अर्थपूर्ण होते है उनका ही मूल्य होता है ।
१३.७.३४
समझ नहीं सका । जिस अवस्था का ब्यौरा दे रही हो वह आध्यात्मिक उन्नति के लिये श्रेष्ठ अवस्था है । प्रकृति शांत, चंचलता और उत्तेजना का अभाव, शांत गभीर आनंद अडिग उत्साह- और अधिक क्या चाहती हो ? यही तो उन्नति का आधार है ।
१८.८.३४
४९३
स : मां, मेरे मन, प्राण और आत्मा कहां अंतर्धान हो गये ? मेरा शरीर एक क्षीण प्रकाश-किरण की तरह पड़ा है-किसी भी तरह का भाव, कष्ट और उत्तेजना का अनुभव मैं नहीं कर पा रही ।... तुम्हारे पास पहुंचने के अनेक रास्ते देख रही हूं किंतु सीधा रास्ता एक भी नहीं । मा, पहले क्योंकि सीधा था, मैं सब देख सकती थी, अब क्यों नहीं देख पा रही ?
उ० : तुम अभी physical (भौतिक) चेतना के बीच बैठी हो-वह चेतना प्रकाश के लिये प्रस्तुत हो रही है और प्रतीक्षारत है ।
२१.८.३४
व्यथा, हताशा, निरानन्द और निरुत्साह से कभी किसी की योगपथ में उन्नति नहीं हुई । इनका न होना ही अच्छा है ।
२४.८.३४
इस योगपथ में मिथ्यात्व ही है सबसे बड़ा अंतराय-किसी भी तरह के मिथ्यात्व की गुंजायश नहीं-मन में भी नहीं, वचन में भी नहीं, काम में भी नहीं ।
१.९.३४
अविश्वास है मानों निम्न प्रकृति का धर्म-निम्न प्रकृति की बात नहीं सुनते । सत्य वही है जो ऊपर से आये ।
जब शरीर-चेतना तैयार हो जायेगी तब काम के द्वारा भी उन्नति हो सकेगी ।
मिथ्यात्व तो निम्न प्रकृति का स्वभाव है । वहां सत्य की स्थापना करनी होगी ।
११.९.३४
केवल ऊर्ध्व में उठ जाने पर ही इस योग में सिद्धि नहीं मिल जाती-ऊपर का
४९४
सत्य, शांति, प्रकाश इत्यादि उतर कर जब मन-प्राण-देह में प्रतिष्ठित हो जायें तभी सिद्धि मिलती है ।
यदि ऊर्ध्व चेतना उतरे और तुम मन-प्राण-देह के सारे मिथ्यात्व का बहिष्कार करो तभी सत्य प्रतिष्ठित हो सकता है ।
१४.९.३४
यदि मानुषी प्रेम की ओर मन भागे या उससे आकर्षित हो तो भगवान् को पाना कठिन है, यह बात बिलकुल सच्ची है ।
१९.९.३४
स : ज्ञान, आलोक और शक्ति मेरे भीतर उतर रही है और उनका प्रयोग करने का ज्ञान भी आ रहा है । किंतु उन्हें व्यक्त करने के लिये भाषा, छन्द और पथ ढूंढे नहीं मिल रहा ।
उ० : भाषा और छन्द की जरूरत नहीं-यह जो उतरना चाह रहा है वह है ज्ञान-पहले ज्ञान पा लेने से ज्ञान के आलोक में उन्नति करना आसान हो जाता है-अभी बाहरी किसी भी व्यवहार की आवश्यकता नहीं ।
२५.९.३४
साधारण मनुष्य का सामने का भाग ही जाग्रत् होता है, लेकिन यह सामने की जाग्रत चेतना सच्चे अर्थो में जाग्रत् नहीं, वह अविद्यापूर्ण है, अज्ञ है । इसके पीछे है inner being (आंतरिक सत्ता) का क्षेत्र-वह ऐसे ढका ला है मानों सो रहा हो । किंतु इस आवरण को हटा देने से इस पीछे की चेतना को खुला देख सकते है, वहीं सबसे पहले प्रकाश, शक्ति और शांति आदि उतरते है । बाहर की जाग्रत् सत्ता जो नहीं कर सकती उसे यह पीछे की भीतरी सत्ता आसानी से कर सकती है । भगवान् की ओर, विश्व चेतना की ओर अपने को खोल चेतना विशाल और मुक्त्त बन सकती है ।
जब चेतना शरीर को अतिक्रम कर ऊपर उठ सकती है-और यह उठना योग का प्रधान अंग है-तो कुण्डलिनी भी वैसे ही उठ सकती है । कुण्डलिनी केंद्रस्थित गुप्त
४९५
चेतना की शक्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।
२९.९.३४
स : बाबा, सिर्फ वास्तविक रूप में किस तरह लिखा जाता है वह तो मैं जानती नहीं । मेरे लिखने-पढ़ने की दौड़ तो बस यहीं तक है । मेरा भावावेग ऊर्ध्य चेतना की इन उदित हुई चीजों को रूप दे भाषा का जामा पहना इस जगत् में प्रकाशित करना चाहता है ।
उ० : यदि ज्ञान उतरता है तो वही यथेष्ट है, लिखने की क्या जरूरत है ?
आधार जितना परिष्कृत होगा उतना ही अच्छा है-भीतर और बाहर मां का सान्निध्य प्रकट हो सकेगा ।
६.१०.३४
यदि भीतर सब ठीक हो जाये तो बाहरी बाधाएं क्या बिगाड़ सकती हैं ?
१३.१०.३४
अपने अंदर ठीक रहने का मतलब है अपने को संयत करके रखना, किसी की ओर आकर्षित न होने देना, प्राणिक आकर्षण को प्रश्रय न देना, अपने आप भी किसी पर कोई प्राणिक मोह या आकर्षण न फेंकना ।
१६.१०.३४
स : तब तुम्हारी शक्ति, शांति और ज्योति के साथ कितनी अनुभूतियां होती थीं- अब वे क्यों नहीं आतीं ? अब केवल शांति, आनन्द और आस्पृहा उतरती हैं, अनुभूतियां नहीं आतीं ।
उ० : जब चेतना का कोई भी स्तर उठता है जिसके साथ ऊपर का संबंध अभीतक स्थापित नहीं हुआ है या फिर बहि:प्रकृति का एक रो आता है मन-प्राण के ऊपर और मन-प्राण उसके वशीभूत हो जाते हैं तब ऐसी अवस्था आती है-इन दो में से कोई एक कारण होगा ।
३०.१०.३४
४९६
जो कुछ अविद्या में रहता है वह सब विश्व चेतना के अंदर ही रहता है प्रकाश और अंधकार की तरह किंतु इससे सबमें प्रकाश और अंधकार समान है ऐसा नहीं है । अंधकार का वर्जन और आलोक का वरण करना होता है ।
३.११.३४
या तो चैत्य को आधार का नियामक (ruler चालक, पथप्रदर्शक) बनकर बुद्धि मन, प्राण, शरीर की चेतना को भगवान् की ओर उन्मुख करना होगा नहीं तो ऊर्ध्व चेतना को शरीर-चेतना तक नीचे उतर समस्त आधार को अपने अधिकार में करना होगा । ऐसा हो जाये तो स्थूल चेतना की भित्ति सुदृढ़ हो जायेगी ।
६.११.३४
जो स्थान तुम बता रही हो, गले के जरा-सा नीचे वह है vital mind (प्राणिक मन) का आरंभ, जहांसे vital being (प्राणिक सत्ता) का संकल्प और विचार निकलते हैं ।
७.११.३४
सब कुछ निर्भर करता है चैत्य की प्रधानता पर-बाह्म प्रकृति क्षुद्र अहंकार और वासना-कामना को चरितार्थ करने में व्यस्त है-मानस पुरुष आत्मा को लेकर व्यस्त है-किंतु क्षुद्र अहं को इससे कोई तृप्ति नहीं मिलती, वह क्षुद्रता ही चाहता है । चैत्य भगवान् में रत है, समर्पण उसी का काम है-एक चैत्य पुरुष ही बाह्य प्रकृति को वश में कर सकता है ।
१३.११.३४
पुरुष कुछ नहीं करता, प्रकृति या शक्ति ही सब कुछ करती है । फिर भी, यदि पुरुष की इच्छा न हो तो कुछ नहीं हो सकता । यह तो जानी हुई बात है, तुमने कभी सुनी नहीं ?
८.१२.३४
साधना का पथ तो दिखा दिया है । संयत रह, शांतभाव से मां की शक्ति के प्रति
४९७
अपने को खोल दो, उस शक्ति के काम में अपनी सहमति दो, निम्न प्रकृति की प्रेरणा का त्याग करो । अपने को बाहर खो जाने मत दो-भगवान् के लिये ही अपने को पवित्र और पृथक् रखो । यदि मां से प्रेम है तो वह प्रेम आंतरिक हो, बाहरी नहीं, प्राण का अशुद्ध प्रेम नहीं, कामना और अधिकार का नहीं-बाधा से डरो मत-निराशा का स्वागत मत करो । स्थिर शांत भाव से साधना ही किये जाओ । अंत में, अभी जो कठिन लगता है वह आसान हो उठेगा ।
१३.१२.३४
स्नायविक कल्पना भी बीमारी को जन्म दे सकती है ।
१४.१२.३४
शरीर के स्नायविक भाग में (nervous system में) शांति और शक्ति को उतारना-स्नायुओं को सबल बनाने का इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं ।
१५.१२.३४
स : मां, नीरव निर्जन में केवल तुम्हारे साथ रहने की दिन-रात प्राणपण से चेष्टा करती हूं, लेकिन हमेशा इसमें सफल नहीं होती । चेतना आधार में उतर आती है और बाहरी जगत् में बिखर जाती है ।
उ० : क्योंकि बाहर की ओर आकर्षण रहता है इसलिये । वह आकर्षण इतनी आसानी से नहीं जाता ।
१८.१२.३४
बहुत अधिक शक्ति के दबाव से सिरदर्द हो सकता है, लेकिन बीमारी का अहसास नहीं होना चाहिये ।
३.१.३५
स : मां, इतने दिन बाद मेरी देह और मस्तक शक्ति को बिना कष्ट के धारण करने में सक्षम हुआ है । हमेशा पहले-पहल आधार में शक्ति उतरने के समय इस तरह से अग्नि के समान होकर क्यों उतरती है ? जैसे रंग अग्नि की भांति उसी तरह तेज भी अग्नि की तरह ।
४९८
उ० : यदि मन, प्राण, शरीर में अशुद्धता हो, resistance (प्रतिरोध) हो तो अग्नि की जरूरत पड़ती है ।
५.१.३५
भीतरी nearness (सामीप्य) ही असली सामीप्य है-जों बाहर से मां के आस- पास रहते हैं वे ही समीप है ऐसी धारणा भ्रांत धारणा है ।
१५.१.३५
असुर राह में हर समय खड़े है पर मनुष्य प्रायः ही उन्हें नहीं पहचानते-निम्न प्रकृति के वश में हो उनका दास बनकर रहते हैं ।
१९.१.३५
पाप की बात क्यों-पाप नहीं, मानवी दुर्बलता । आत्मा सदा शुद्ध है, चैत्य पुरुष शुद्ध साधना द्वारा आंतरिक भाग (inner mind, vital, physical आंतर मन, प्राण, शरीर) शुद्ध हो सकते है फिर भी external being (बाह्य सत्ता) और बाह्य प्रकृति में चरित्र की वही पुरानी दुर्बलता बहुत दिनों तक चिपकी रह सकती है, पूरी तरह शुद्ध करना कठिन है । उसके लिये चाहिये complete sincerity (पूर्ण ऋजुता), दृढ़ता और धैर्य, सदा जाग्रत् भाव । यदि चैत्य पुरुष सामने रहे, सदा जागरूक रहे, अपना प्रभाव विस्तृत करे तो भय की कोई बात नहीं । किंतु ऐसा हर समय होता नहीं । राक्षसी माया वही पुराने weak point (कमजोर अंगों) को पकड़, मन को फुसला अंदर घुसने का पथ पा जाती है । प्रत्येक बार उन्हें लताड़ कर रास्ता बंद करना होता है ।
२२.१.३५
स: मां, आज कई दिन से सपने में देख रही हूं कि मैं सबको छोड़कर जा रही हूं । सभी पुराने आत्मीयजन मुझे विदाई-भोज देने में यत्नशील हैं और रो रहे हैं । मेरा ध्यान उस तरफ नहीं है । सुन्दर-सुन्दर नदी में स्नान कर रही हूं और मानों वन्ध्रनहीन आनन्द में भार-मुक्त्त हो विहर रही हूं ।
उ० : ये सब है प्राण-जगत् के व्यापार । वहां जो आत्मीयजनों की खींच और संबंध था वह शिथिल पड़ गया है और बिलकुल बंद होने की तैयारी में है । उसकी जगह
४९९
सच्चे प्राण का आनन्द और सौंदर्य तुम्हें पुकार रहा है । यह है स्वप्न का अर्थ ।
२३.१.३५
जब कोई भी शक्ति आधार में उतरती है तब उसे receive (ग्रहण) करने की difficulty (कठिनाई) के रूप में कंपकंपी और उथल-पुथल होते है । शांत रहने से और सत्त्व गुणों को खोल देने से आधार absorb और assimilate करना (अपने में समाना और आत्मसात् करना) आरंभ करता है ।
२६.१.३५
स: मां, आजकल नींद में, ध्यान में अथवा साधारण अवस्था में मेरे विचारों या कल्पनाओं में अचानक मेरा कोई बहुत उपकारी या आत्मीय जन आता है । मैं उसे पहचान नहीं सकती; अथवा कोई ऐसी चीज या दृश्य देखती हूं जिसके संबंध में मेरी कोई धारणा ही नहीं होती । फिर भी क्यों उस मनुष्य को मनुष्य कहने और स्वप्न को स्वप्न कहने का मन नहीं होता ।
उ० : स्वप्न में या ध्याने में बहुत बार भीतर का कुछ उस तरह का रूप धरकर दिखायी देता है सही-किंतु वे सब बाहरी चीजें नहीं है, भीतर की किसी चीज की सूचना देने आते हैं ।
स: मां, देखना एक बात है, अनुभव करना दूसरी बात और समझना बिलकुल अलग । मैं ध्यान में अथवा बाहर जो देखती हूं उसे हृदय में महसूस करती हूं लेकिन समझती नहीं, मां ।
उ० : उसके लिये चाहिये ज्ञान का विस्तार । वह ज्ञान धीरे-धीरे भीतर से या ऊपर से आ सकता है ।
जब मन-प्राण बाहर की ओर दौड़ते रहते हैं तब भीतर के किसी भी पुरुष की बात वह कैसे सुनेंगे ? या तो बाहरी कोलाहल में वह आवाज थम जाती है या फिर सुनी नहीं जाती । फिर भी ऐसी अवस्था आ जानी चाहिये जिसमें जब बाहरी कोलाहल हो तब भी भीतरी पुरुष सजग बना रहे या फिर अविचलित हो देख सके या फिर धीरे-
५००
धीरे अपना प्रभाव फैलाये और बाहरी कोलाहल को रोक सके ।
भीतरी पुरुष अनेक हैं । चैत्य पुरुष, भीतरी मनोमय पुरुष, भीतरी प्राण-पुरुष, भीतरी देह-पुरुष । ऊपर है केंद्रीय सत्ता-ये सब उसी की नाना आकृतियां हैं । चेतना का विकास होने पर इन सबको पहचाना जा सकता है ।
भौतिक का केंद्र है मेरुदण्ड के अंतिम भाग में, जिसे मूलाधार कहते हैं, वहां-तब हां, वह अक्सर दिखायी नहीं देता, उसकी उपस्थिति का अहसास होता है ।
२९.१.३५
यह तो है प्राणमय पुरुष, emotional vital (भावमय प्राण) में प्रतिष्ठित । प्राणमय पुरुष के तीन स्तर हैं-हृदय में, नाभि में और नाभि के नीचे । जो हृदय में है वह है emotional being (भावमय सत्ता), नाभि में है कामनामय, नाभि से नीचे है sensational (संवेदनप्रघान) अर्थात् इंद्रियों के आकर्षण और प्राण के छोटे-छोटे भावों को लेकर व्यस्त ।
तुम्हारी अनुभूति बहुत सुन्दर है--ऊपर की शक्ति का चक्र (कार्यकारी गति) उतर रहा है निम्न प्रकृति को आलोकित और सचेतन करने के लिये, और इस तरफ मां के काम के लिये भीतर का उच्चतर प्राण पुरुष सामने आया है-जिसे हम कहते हैं true vital being (सच्चा प्राण पुरुष) ।
तुम्हारा काम देखकर मां खूब संतुष्ट हैं । कोई डर नहीं-अहंकार आदि को प्रश्रय न दे सरल भाव से मां का काम करते जाओ, सर्वांगीण उन्नति होगी ।
१८.४.३५
सामंजस्य होने तक ये सब कठिनाइयां साधना में आती हैं, विशेषकर प्राण और शरीर में । वह सामंजस्य साधित होता है जब (१) चैत्य सत्ता का आधिपत्य स्थापित होता है मन, प्राण, शरीर पर (२) ऊर्ध्व चेतना की शांति और पवित्रता जब ऊपर से नीचे सारी सत्ता में उतर आती है--अंत में अंतर-सत्ता में विशाल अतल भावसे स्थापित हो जाती हैं ।
१०.६.३५
५०१
काम के लिये और साधना के लिये शरीर का स्वस्थ होना जरूरी है ।
२०.६.३५
डाक्टर खोजबीन कर रहे हैं--क्योंकि तुम्हारे शरीर में ऐसा कोई दोष नहीं मिल रहा जिसके ये सब स्वाभाविक लक्षण होते हैं । जो हो, इतना व्याकुल होने का कोई कारण नहीं । योगपथ की साधिका हो तुम, जो घटता है उसे शांत, अविचलित मन से देख, भगवान् पर आश्रित रहकर योगपथ पर अग्रसर होओ । यही है इस पथ का और प्रायः सभी योगपथों का नियम ।
२१.६.३५
स : मां, कल रात देखा एक बड़े बगीचे में एक सरोवर, सरोवर में बहुत-से सांप खेल रहे थे । वहां एक सर्पाकृति विशालकाय मस्तकहीन जन्तु था; मस्तक के बदले था बड़ा विकराल मुख और दोनों तरफ दांत । सरोवर में छिपा हुआ था, अचानक उठ आया मुंह बाये सीधा मेरी ओर बढ़ा ग्रसने के लिये । मैं खड़ी देख रही हूं कि उसके पेट में और भी कितने ही जंतु हैं । मेरे पास पहुंचने से पहले ही एक असुराकृति जीव अपने-आप उसके मुख में घुस, गया जैसे, तब वह और नहीं आया, अपने-आप पिछड़ गया । मेरे मन में आया कि मेरे प्राण में अशुद्ध शक्ति छिपी बैठी है । मैं तुम्हें पुकारती हूं इसीलिये वह मुझे अपना ग्रास नहीं बना सकी, आने पर भी नहीं ।
उ० : तुम्हारी व्याख्या ठीक है-सरोवर है निम्न प्राण । वहां निम्न प्रकृति की अनेक छोटी-छोटी शक्तियां हैं किंतु उनके नीचे अवचेतना की सर्वग्रासी एक तामसिक शक्ति है जो सबको ग्रास बनाती है, साधक और साधना को ग्रसने आती है । उसके मुख में यदि उसकी निजी आसुरिक वृत्तियां पड़ जायें (ध्वंस हो जायें) तब वह तमस् साधक को और अपना ग्रास नहीं बना सकता ।
१.७.३५
यदि मन-प्राण को हर समय मां की ओर, ऊपर की ओर उन्मुख रखो तो कोई राक्षस या और कोई तुम्हें नीचे की ओर नहीं खींच सकेगा ।
४.७.३५
ये सब प्राण जगत् के स्वप्न हैं । वहां अपनी या लोगों की प्रेरणा, चिता, कामना
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और अच्छी एवं खराब शक्तियों को चरितार्थ करने की चेष्टा अनेक रूप धरती है--स्वप्न में वे ऐसे दिखायी देते हैं जैसे यथार्थ में घट रहे हैं ।
२२.७.३५
यह सब रोना-धोना, चिल्लाना, भावों की उत्तेजना साधना-पथ के लिये अच्छा नहीं है, इन सबको त्याग दो । अहंकार-रहित भाव, भीतरी शांति, शांत समर्पण हैं योगसाधना की नींव और आधार । काम में भी यही भाव ही रहना चाहिये ।
२५.१०.३५
यदि मन-प्राण शांत चाहो तो सब मांगों, दावों और अहंवृत्ति को अतिक्रम करना होगा । शांत मन-प्राण ही हैं साधना की उन्नति में मुख्य सहायक ।
२६.१०.३५
एकमात्र पथ है प्राण के वश न हो निरहंकार भाव से काम करना और चैत्य पुरुष की साधना करना ।
२३.१२.३५
प्रत्येक पुरुष का अपने-अपने केंद्र और क्षेत्र में स्थायी अवस्थान--चैत्य पुरुष का है गभीर हृदय में, प्राण-पुरुष का है हृदय में नाभि में या नाभि से नीचे जो केंद्र हैं वहां । अथवा पूरे प्राण-पुरुष को इस समस्त प्राण-क्षेत्र में व्याप्त अनुभव करता हूं । मूलाधार के ऊपर ही प्राण के क्षेत्र का अंत होता है । मूलाधार से पैरों तक अन्नमय (physical) पुरुष का क्षेत्र हे, मूलाधार है उसकी अवस्थिति । लेकिन योगाभ्यास के समय निम्न चेतना ऊपर उठने लगती है---जैसे प्राण-चेतना-देख रहा हूं कि हृत्केंद्र और उसके निकटस्थ भाग से सारी ऊपर की प्राण-चेतना उठ रही है, मस्तक के ऊपर ऊर्ध्व चेतना के साथ मिल रही है । इसके साथ प्राण-पुरुष जहां उठ रहा है उसे भी अनुभव कर सक रहा हूं । इसका उद्देश्य है वहां तक उठ अध्यात्म के साथ एक हो अध्यात्म-स्वभाव के साथ प्राण-स्वभाव का मिलन । अंत में उर्ध्वचेतना नीचे उतर पूरी प्राणचेतना और प्राणप्रकृति को अधिकार में कर उसे भागवत चेतना में परिणत कर देती है । यही है योग का नियम ।
१०.१.३६
५०३
स : मां, सारा दिन सब चीजों में देख रही हूं कि मेरे नाभि-प्रदेश से कोई चीज वक्ष तक उठकर मनुष्यों के प्रेम के विषय में सोच रही है, मानवी प्रेम मुझे उद्भासि करे दे रहा है । मस्तक से और एक चीज उतर कर, वक्ष में आ भगवान् को पाने के लिये भागवत प्रेम की आकांक्षा में सब कुछ को सतेज (उद्दीप्त) करे दे रहा है... मां, यह क्या हो रहा है ?
उ० : जो तुम्हारे प्राण से उठता है वह है तुम्हारी साधना की एक प्रधान बाधा, मानवी प्रेम और स्नेह का आकर्षण । ऊपर से जो उतरने की चेष्टा कर रहा है वह है ठीक इससे उल्टा भाव, भागवत प्रेम को पाने की आस्पृहा--यह बड़ी स्पष्ट अनुभूति है, इसमें ऐसा कुछ नहीं जो समझना कठिन हो ।
११.३.३६
स: आज शाम को अपने सामने एक काले चतुष्पाद विराट् जन्तु को खड़े देखा । वह पीछे की तरफ से आया । उसकी जीभ लपलपा रही थी और गर्दन ऊपर-नीचे हो रही थी कुछ खाने के लिये । मैं प्राणपन से तुम्हें पुकारने लगी, उसके बाद जन्तु गायब हो गया ।
उ० : अर्थात् एक निम्न प्राणशक्ति जिसे तुम खाना देने की अभ्यस्त हो ।
२१.४.३६
(काम के प्रकोप के बारे में)
शरीर-चेतना को purify (पवित्र) करके ही यह सब जायेगा, अन्यथा जाना कठिन है ।
२९.५.३६
स : एक दिन देखा कि मेरा एक साल का शिशु बहुत बीमार है । मैं उसकी चिकित्सा के लिये पवित्र के पास गयी और उन्होंने मुझे रोगी की अवस्था के बारे में बड़ी स्पष्टता से समझाया और दिखाया । इसके बाद एक दिन देखा कि शिशु उस बीमारी में मर गया । मैं किस शिशु को देख रही हूं, मां ? मेरा अपना जो शिशु था वह तो अब दस-ग्यारह साल का हो गया है । और यदि इसे चैत्यपुरुष समझूं तो वह मरेगा क्यों ? वह तो मरता नहीं ।
उ० : यह तो चैत्य नहीं;* प्रकृतिजात और कुछ था जो तुम्हारे भीतर मर गया ।
७.७.३६
*संशयपूर्ण पाठ |
५०४
स : मां, योगपथ पर मेरी जितनी कठिनाइयां हैं उनसे, मिथ्यात्व के आवरण से, प्राण की बाधाओं से अपने को मुक्त करना चाहती हूं, पर कर नहीं पाती । वे मुझ पर अपना आसन जमाये बैठी हैं । किस तरह से मन, प्राण और देह चेतना को शुद्ध और पवित्र कर सकूंगी मां, मेरा पथ-प्रदर्शन करो ।
उ० : इस अवस्था से त्राण पाने का उपाय है--सरल स्पष्ट भाव से बुद्धि की सब भूलों और प्राण के दोषों को पहचान लेना, अपने से और मां से कुछ भी न छिपा प्रकाश के सामने रख देना, उनका वर्जन करना और मां की शक्ति को पुकारना । यह एक दिन में फलीभूत नहीं हो जाता क्योंकि मन-प्राण resist (विरोघ) करेंगे ही, प्रकृति का पुराना अभ्यास आसानी से नहीं जाता । लेकिन यदि sincere will (सच्चा संकल्प) हो और उसके साथ हो perseverence (अध्यवसाय) तो धीरे- धीरे आसान हो जाता है और अंतत: पूर्ण सफलता मिलती है ।
१०.७.३६
देह-प्राण ऐसे ही स्वच्छ नहीं हो जाते--साधना और आत्मसंयम द्वारा प्राण को पवित्र करना होता है । प्राण स्वच्छ हो तो शरीर के अनेक रोग-कष्ट उपशम हो जाते हैं ।
११.७.३६
स : मां, बुद्धि की भूल के बारे में जो तुमने लिखा है वह मैं समझ नहीं पायी । साधना में मन-प्राण बाधा उत्पन्न करते हैं यह तो जानती थी किंतु बुद्धि में दोष हैं और बुद्धि भी भागवत पथ पर चलने में रुकावट डालती है यह नहीं जानती थी ।
उ० : जब बुद्धि प्राण की भ्रांतियों का समर्थन करती है, अहंकार का समर्थन करती है, गलत अवतरण के लिये खोज-खोज कर justifying reasons (पुष्टियां और तर्क) उपस्थित करती है, मिथ्या कल्पनाओं को आश्रय देती है तब ये सब बुद्धि की भूलें हैं । और भी बहुत-सी हैं । मनुष्य की बुद्धि बहुत तरह के असत्य को स्थान देती है ।
अंतर की गभीरतम गहराइयों में डूबे रहना बहुत अच्छा है किंतु वहां से काम-काज करने की सामर्थ्य भी develop (विकसित) करनी चाहिये |
१५.९.३६
५०५
जब स्वभाव के दोष जान गयी हो तो उन्हें और अधिक प्रश्रय न दे, मां की शक्ति को पुकार कर स्वभाव में से बाहर फेंक दो । साधकों में आंतरिक अनुभूतियां रहने पर भी बाहर का स्वभाव नहीं बदलता । यही है सारे अशुभों की जड़ । इस समय इस तरफ विशेष ध्यान देना और चेष्टा करना सबके लिये उचित है।
२४.९.३६
मानव-मात्र में इन सब शक्तियों का प्रभाव है । ये शक्तियां तुम्हारे अंदर नहीं हैं, ये हैं विश्व-प्रकृति की निम्न शक्तियां, लेकिन इनका प्रभाव सबके अंदर है । जबतक अपने अंदर की सारी wrong movement (गलत गतिविधियों) को पहचान नहीं लेते, acknowledge (स्वीकार) नहीं कर लेते तबतक इस प्रभाव से मुक्त होना कठिन है । यदि पहचान ली जायें तब मुक्त होने की संभावना हो जाती है । फिर भी विचलित न हो, दृढ़ भाव से देख उनको अस्वीकार करना उचित है । मां की शक्ति को पुकार सबको बुहार देना होता है ।
१३.१०.३६
चैत्य पुरुष, अंतरात्मा, सूक्ष्म सत्ता जो मन-प्राण आदि को धारण किये हुए है, ये सब एक ही है, psychic being--आत्मा का स्थान मेरुदण्ड में नहीं है--आत्मा तो सर्वव्यापी है, सबकी आत्मा एक है ।
१७.७.३७
उपवास आध्यात्मिकता का एक अंग है यह धारणा गलत है । लोभ नहीं रखना, लोभवश नहीं खाना, आवश्यकता से अधिक नहीं खाना-ये सब नियम अवश्य पालने चाहियें । लेकिन शरीर के लिये जितना आवश्यक हो उतना खाना चाहिये । गीता में कहा है कि बहुत ज्यादा खा लेने से योग नहीं हो सकता लेकिन न खाने से, खूब कम खाने से भी योग नहीं किया जाता ।
२२.७.३७
चाय पीने के हानि और लाभ दोनों ही हे । बहुत strong (कड़ी) बनाने से या ज्यादा चीनी डालने से शरीर के लिये हानिकारक है, ज्यादा मात्रा में पीने से भी ऐसा ही होता है । कम चीनी की light (हल्की) चाय (खौलते पानी में पत्ती डालकर तभी
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या शीघ्र ही प्याले में डाल लेनी चाहिये चाहिये) लेने से हानि नहीं होती ।
१४.६.३८
[साधिका की बेटी के यहां से कितनी ही तरह की समस्याएं लिये बहुत-सी चिठ्ठियां आ रही हैं । साधिका श्रीअरविन्द को उन सबसे अवगत करा रही है ।]
पिता के घर जाना नहीं चाहती, नानी के आधीन रहना अच्छा नहीं लगता तो फिर क्या किया जाय ? मनुष्य के जीवन में स्वेच्छा या स्वातन्त्र्य की गुंजायश बहुत कम है, कर्तव्य ही प्रधान है । जो बहुत शक्तिशाली है उसे भी पहले discipline (आत्म- संयम) सीखना होता है-जो सीखना नहीं चाहता उसके लिये दु:खभोग अनिवार्य है ।
६.७.३८
तुम्हारी अनुभूति तो सच्ची है किंतु जो सब नाम तुमने गिनाये हैं वे गलत हैं । मनुष्य का पृथक् परमात्मा नहीं है, परमात्मा भगवान् है, भगवान् ही सबके परमात्मा हैं । जिसे तुम परमात्मा कह रही हो वह है तुम्हारी जीवात्मा, मस्तक के ऊपर है उसका स्थान, जो भगवान् के साथ, मां के साथ युक्त है । जिसे तुम जीवात्मा कहती हो वह जीवात्मा नहीं है, वह है तुम्हारा प्राण-पुरुष, बल्कि निम्न प्राण-पुरुष | प्राण हृदय के नीचे से मूलाधार तक फैला हुआ है, उसमें नाभि के निचे जो है वह है निम्न प्राण । इसी तरह जिसे आत्मा कह रही हो वह आत्मा नहीं कहलाती, वह है psychic being, हृदय में चैत्य पुरुष । चैत्य पुरुष (इसे अंतरात्मा कह सकती हो) जीवात्मा के साथ युक्त होने पर, मां के साथ युक्त होने पर सत्य चेतना की नींव स्थापित होती है । यही अंतरात्मा मनुष्य के सारे मन-प्राण-देह को पीछे से धारण करती है लेकिन यह गुप्त है, साधारण आदमी का मन, प्राण, देह उसे देखता और पहचानता नहीं । मनुष्य प्राण-पुरुष को अपनी आत्मा समझने की भूल करता है, प्राण-पुरुष के अधीन हो दुःख भोगता है । जब प्राण-पुरुष के वश न हो अंतरात्मा के वश में होता है तब सब कुछ सुन्दर, सुखमय, मां के साथ तदात्म, मां-मय हो जाता है । यह सब तुमने देखा है और जो देखा है वह ठीक है, सिर्फ नाम बदलने होंगे ।
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