श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य

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Sri Aurobindo

All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

The Complete Works of Sri Aurobindo (CWSA) Writings in Bengali and Sanskrit Vol. 9 715 pages 2017 Edition
Bengali
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All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य 528 pages 1999 Edition
Hindi Translation
Translator:   Hriday  PDF    LINK

 संन्यास और त्याग

 

    पिछले प्रबन्ध में कहा गया है कि गीतोक्त धर्म सबके लिये आचरणीय है, गीतोक्त योग का अधिकार सबको है, फिर भी उस धर्म की परमावस्था किसी भी धर्म की परमावस्था को अपेक्षा कम नहीं । गीतोक्त धर्म है निष्काम कर्मी का धर्म । हमारे देश में आर्यधर्म के पुनरुथान के साथ-साथ एक संन्यासमुखी स्रोत सर्वत्र व्याप रहा है । राजयोग के साधक का मन सहज ही गृहकर्म या गृहदास से संतुष्ट रहना नहीं चाहता । उसके योगाभ्यास के लिये ध्यान-धारणा आदि अत्यंत आयासपूर्ण चेष्टाओं की आवश्यकता है । मन में थोड़ा भी विक्षोभ होने से या बाह्य स्पर्श से ध्यान-धारणा की स्थिरता विचलित हो जाती है या एकदम नष्ट । घर में इस तरह की अनेक बाधाएं हैं । अतएव जो पूर्वजन्मप्राप्त योगलिप्सा ले जनमते हैं उनके लिये तरुणावस्था में ही संन्यास की ओर आकृष्ट  होना अत्यंत स्वाभाविक है । इस तरह के जन्म से योगलिप्सा रखनेवालों की संख्या अधिक हो जाने के कारण जब सारे देश में वह शक्ति संचारित होती है और देश के युवक-संप्रदाय में संन्यासमुखी स्रोत प्रबल रूप में दिखायी देता है तब देश के कल्याण-पथ का द्धारा भी खुल जाता है, उस कल्याण-मार्ग में आनेवाली विपत्तियों  की आशंका भी बढ़ जाती है । कहा गया है, संन्यास-धर्म श्रेष्ठ धर्म है, किंतु उस धर्म के अधिकारी थोड़े ही होते हैं । जो बिना अधिकार के उस पथ में प्रवेश करते हैं, वे अंत में, थोड़ी ही दूर जा, आधे रास्ते में तामसिक अप्रवृत्तिजनक आनंद के अधीन हो निवृत्त हो जाते हैं । ऐसी अवस्था में इह जीवन तो सुख से कट जाता है किंतु उससे जगत् का कोई हित साधित नहीं होता और योग के ऊर्ध्वतम  सोपान पर आरोहण करना भी दु:साध्य हो जाता है ।. हमारे लिये जैसा समय और जैसी अवस्था उपस्थित हुई है उसमें हमारा प्रधान कर्तव्य हो गया है रज: और सत्त्व यानी प्रवृत्ति और ज्ञान को जगा, तम का वर्जन कर देशसेवा और जगत्सेवा के लिये अपने राष्ट्र की आध्यात्मिक शक्ति और नैतिक बल को पुनरुज्जीवित करना । इस जीर्ण-शीर्ण तम:पीडित स्वार्थसीमित राष्ट्र के गर्भ से ज्ञान, शक्तिमान और उदार आर्य- जाति की पुन: सृष्टि करनी होगी । इसी उद्देश्य को सिद्ध करने के लिये आज भारत में इतने अधिक शक्तिसंपन्न, योगबलप्राप्त आत्माओं का जन्म हो रहा है । वे यदि संन्यास की मोहिनी शक्ति द्धारा आकृष्ट हो स्वधर्म और ईश्वर-प्रदत्त कार्य का त्याग करें तो धर्मनाश से राष्ट्र का ध्वंस होगा । युवक-समुदाय को यह याद रखना चाहिये कि ब्रम्हचर्याश्रम का समय शिक्षाप्राप्ति और चरित्रगठन के लिये निर्दिष्ट है । इस आश्रम के बाद गृहस्थाश्रम विहित है । जब हम कुशलरक्षा और भावी आर्य-जाति का गठन कर पूर्वपुरुषों के ॠण से मुक्त हो जायेंगे, जब सत्कर्म और धनसंचय कर समाज का ॠण एवं ज्ञान, दया, प्रेम और शक्ति का वितरण कर जगत् का ॠण चुका देंगे, जब भारत जननी के हित के लिये उदार और महान् कर्म कर जगन्माता को संतुष्ट कर

 

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लेंगे, तब वानप्रस्थ और संन्यास ग्रहण करना दोषपूर्ण नहीं माना जा सकता । अगर ऐसा न किया जाये तो फिर धर्मसंकर और अधर्म की वृद्धि होगी । पूर्वजन्म में ऋणमुक्त हुए बाल-संन्यासियों की बात हम नहीं कहते, पर अनधिकारी का संन्यास ग्रहण करना निन्दनीय है । अनुचित वैराग्य की अधिकता और क्षत्रियों के स्वधर्म-त्याग की प्रवृत्ति के कारण महान् और उदार बौद्धधर्म ने जहां देश का बहुत कुछ हित साधित किया वहां अनिष्ट भी किया और अंत में भारत से बाहर भगा दिया गया । हमें ऐसा दोष नवयुग के नवीन धर्म में नहीं आने देना चाहिये ।

 

    गीता में श्रीकृष्ण ने बार-बार अर्जुन को संन्यास लेने से क्यों मना किया है ? उन्होंने संन्यास-धर्म का गुण स्वीकार किया है, किंतु विरक्त और कृपापरवश पार्थ के बार-बार पूछने पर भी कर्ममार्ग के अपने आदेश को वापस नहीं लिया । अर्जुन ने पूछा कि यदि कर्म से कामनाशून्य योगयुक्त बुद्धि ही श्रेष्ठ है तो फिर आप गुरुजनों की हत्या के समान अत्यंत भीषण कर्म में मुझे क्यों नियुक्त कर रहे हैं ? बहुतों ने अर्जुन के इस प्रश्न को पुन: उठाया है और कोई-कोई व्यक्ति तो श्रीकृष्ण को निकृष्ट धर्मोपदेशक और कुपथप्रवर्तक कहने से भी बाज नहीं आये । उत्तर में श्रीकृष्ण ने समझाया है कि संन्यास से त्याग श्रेष्ठ है, स्वेच्छाचार की अपेक्षा भगवान् को स्मरण करते हुए निष्कामभाव से स्वधर्म का पालन ही उत्तम है। त्याग का अर्थ है कामना का त्याग, स्वार्थ का त्याग; उस त्याग की शिक्षा के लिये पर्वत या निर्जन स्थान में आश्रय नहीं लेना होता, कर्मक्षेत्र में ही कर्मद्धारा वह शिक्षा मिलती है, कर्म ही है योगपथ पर आरूढ़ होने का साधन । यह विचित्र लीलामय जगत् जीव के आनंद के लिये सृष्ट है । भगवान् का यह उद्देश्य नहीं कि यह आनंदमय खेल समाप्त हो जाये । वह जीव को अपना सखा और खेल का साथी बना जगत् में आनंद का स्रोत बहाना चाहते हैं । खेल की सुविधा के लिये वे हम से दूर चले गये हैं ऐसा मानने से ही, जिस अज्ञान-अंधकार में हम हैं वह अंधकार हमें घेरे रहता है । उनके द्धारा निर्दिष्ट  ऐसे बहुत-से साधन हैं जिनका अवलम्बन लेने से मनुष्य अंधकार से निकल उनका सान्निध्य प्राप्त करता है । जो उनकी लीला से विरक्त होते या विश्राम लेना चाहते हैं उनकी अभिलाषा को वह पूरी करते हैं । परंतु जो उन्हींके लिये उन साधनों का अवलम्बन लेते हैं, भगवान् उन्हें ही इहलोक और परलोक में अपने खेल का उपयुक्त साथी बनाते हैं । अर्जुन श्रीकृष्ण के प्रियतम सखा और क्रीड़ा के सहचर थे इसीलिये गीता की गूढ़तम शिक्षा प्राप्त कर सके । वह गूढ़तम शिक्षा क्या है, इसे समझाने की चेष्टा इससे पहले की गयी है । भगवान् ने अर्जुन से कहा, कर्मसंन्यास जगत् के लिये अनिष्टकर है और त्यागहीन संन्यास केवल विडम्बना । संन्यास से जो फल मिलता है, त्याग से भी वही मिलता है अर्थात् अज्ञान से मुक्ति, समता, शक्ति, आनंद और श्रीकृष्ण की प्राप्ति । सर्वजनपूजित व्यक्ति जो कुछ करते हैं लोग उसे ही आदर्श मानकर चलते हैं, अतएव तुम यदि कर्म से संन्यास लोगे तो सब उसी पथ के पथिक

 

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हो धर्म की संकरता और अधर्म की प्रधानता की सृष्टि करेंगे । तुम कर्मफल की स्पृहा का त्याग कर मनुष्य के साधारण धर्म का आचरण करो, आदर्शस्वरूप बन सबको अपने-अपने पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा दो, तब तुम मेरा साधर्म्य प्राप्त करोगे और मेरे प्रियतम सुहृद् बनोगे । उसके बाद उन्होंने समझाया है कि कर्मद्धारा श्रेयमार्ग पर आरूढ़ होने पर उस मार्ग की अंतिम अवस्था में शम अर्थात् सर्वारम्भ-परित्याग (सब कर्मो का परित्याग) विहित है । यह भी कर्मसंन्यास नहीं, बल्कि यह है अहंकार का त्याग, अत्यंत आयासपूर्ण राजसिक चेष्टा का त्याग, भगवान् के साथ युक्त हो, गुणातीत हो, उनकी शक्तिद्धारा चालित यंत्र की नाई कर्म करना । उस अवस्था में जीव को यह स्थायी ज्ञान रहता है कि मैं कर्ता नहीं द्रष्टा हूं, मैं भगवान् का अंश हूं, मेरे स्वभावरचित इस देहरूप कर्ममय आघार में भगवान् की शक्ति ही लीला का कार्य कर रही है । जीव है साक्षी और भोक्ता, प्रकृति कत्रीं, परमेश्वर अनुमन्ता । ऐसे ज्ञानप्राप्त पुरुष शक्ति के किसी भी कार्यारम्भ में कामनावश सहायता या बाधा देना नहीं चाहते । शक्ति के अधीन हो उसका शरीर, मन और बुद्धि ईश्वरादिष्ट कर्म में प्रवृत्त होते हैं । कुरुक्षेत्र के भीषण हत्याकाण्ड के लिये भी यदि भगवान् की अनुमति हो और स्वधर्म के मार्ग मैं वही आ पड़े तो भी अलिप्त बुद्धि कामनारहित, ज्ञान-प्राप्त जीव को पाप स्पर्श नहीं करता । परंतु इस ज्ञान और आदर्श को बहुत थोड़े लोग ही प्राप्त कर सकते हैं; यह जनसाधारण का धर्म नहीं बन सकता । तो फिर इस पथ के साधारण पथिक का कर्तव्य कर्म क्या है ? साधारण मनुष्य भी कुछ अंश में यह ज्ञान प्राप्त कर सकता है कि वे यन्त्री  हैं और मैं यंत्र । उसी ज्ञान के बल से, भगवान् को स्मरण करते हुए स्वधर्म का पालन करना ही है उसके लिये निर्दिष्ट ।

श्रेयान् स्वधर्मो विगुण: परधर्मात् स्वनुष्ठितांत् |

स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नो किल्बिषम् ||

    स्वधर्म है स्वभावनियत कर्म । कालक्रम में स्वभाव की अभिव्यक्ति और परिणति होती है । कालक्रम में मनुष्य का जो साधारण स्वभाव गठित होता है वही है स्वभावनियत कर्म, युगधर्म । राष्ट्र की कर्मगति से जो राष्ट्रीय स्वभाव गठित होता है उसी स्वभाव द्धारा नियत कर्म है राष्ट्र का धर्म । व्यक्ति की कर्मगति से जो स्वभाव गठित होता है, उसी स्वभाव द्धारा नियत कर्म है व्यक्ति का धर्म । ये नाना धर्म सनातन धर्म के साधारण आदर्श द्धारा परस्पर संयुक्त और सुश्रुंखलित होते हैं । साधारण धार्मिक व्यक्ति के लिये यही धर्म है स्वधर्म । ब्रह्मचर्य की अवस्था में इसी धर्म का पालन करने के लिये ज्ञान और शक्ति का संचय किया जाता है, गृहस्थाश्रम में इस धर्म का अनुष्ठान होता है और धर्म का पूरी तरह अनुष्ठान होने पर वानप्रस्थ या संन्यास का अधिकार प्राप्त होता है । यही है धर्म की सनातन गति ।

 

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