श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य

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Sri Aurobindo

All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

The Complete Works of Sri Aurobindo (CWSA) Writings in Bengali and Sanskrit Vol. 9 715 pages 2017 Edition
Bengali
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All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य 528 pages 1999 Edition
Hindi Translation
Translator:   Hriday  PDF    LINK

 स्तव-स्तोत्र

 

   साधक, साधन और साध्य-इन्हीं तीन अंगों को लेकर हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । साधकों का स्वभाव भिन्न-भिन्न होने के कारण भिन्न-भिन्न  साधनाएं आदिष्ट हैं, भिन्न-भिन्न साध्यों का भी अनुसरण किया जाता है । परंतु स्थूल दृष्टी से नाना प्रकार के साध्य होने पर भी, सूक्ष्म द्रष्टि से देखने पर पता चलता है कि सब साधकों का साध्य एक है-वह साध्य है आत्मतुष्टि । उपनिषद् में याज्ञवल्क्य  अपनी सहधर्मिणी को समझाते हैं कि आत्मा के लिये है सब कुछ, आत्मा के लिये स्त्री, आत्मा के लिये धन, आत्मा के लिये प्रेम, आत्मा के लिये सुख, आत्मा के लिये दुःख, आत्मा के लिये जीवन, आत्मा के लिये मरण । इसीलिये है इस प्रश्न की गुरुता और प्रयोजनीयता कि आत्मा है क्या।

 

    बहुत-से विज्ञ और पंडित व्यक्ति कहते हैं कि आत्मज्ञान के लिये इतनी वृथा माथा-पच्ची क्यों ? इन सब सूक्ष्म विचारों में समय नष्ट करना है पागलपन, संसार के आवश्यक विषयों और मानवजाति के कल्याण की चेष्टा में लगे रहो । परंतु संसार के लिये क्या-क्या विषय आवश्यक हैं और मानवजाति का कल्याण किससे होगा-इन प्रश्नों की मीमांसा भी आत्मज्ञान पर निर्भर है । जैसा हमारा ज्ञान, वैसा ही होगा हमारा साध्य । यदि हम अपनी देह को आत्मा समझें तो उसकी तुष्टि के लिये अन्य सभी विचारों और विवेचनाओं को तिलांजलि दे स्वार्थपरायण नर-पिशाच बन जायेंगे । अगर स्त्री को ही आत्मवत् देखें, आत्मवत् प्यार करें तो स्त्रैण हो, न्याय-अन्याय का कोई विचार न कर उसके मन के संतोष के लिये प्राणपण चेष्टा करेंगे, दूसरों को कष्ट पहुंचा उसे ही सुख देंगे, दूसरों का अनिष्ट कर उसीका अभीष्ट सिद्ध करेंगे । यदि देश को ही आत्मवत् देखें तो हम एक बहुत बड़े देशहितैषी होंगे संभवत: इतिहास में अमर कीर्ति छोड़ जायेंगे, परंतु अन्यान्य धर्मो का परित्याग कर दूसरे देशों का अनिष्ट, घन-लुण्ठन और स्वाधीनता-अपहरण कर सकते हैं । यदि भगवान् को आत्मा समझें या आत्मवत् प्यार करें--दोनों एक ही बात हैं, क्योंकि प्रेम है चरम-दृष्टि--तो हम भक्त, योगी, निष्काम-कर्मी बन साधारण मनुष्य के लिये अप्राप्य शक्ति, ज्ञान या आनंद का उपभोग कर सकते हैं । यदि निर्गुण परब्रह्य को आत्मा माने तो शांति और लय को प्राप्त हो सकते हैं । यों यच्छद्ध: अ एव सः.-जिसकी जैसी श्रद्धा होती है वह वैसा ही बन जाता है । मानवजाति चिरकाल से साधना करती आ रही है, पहले छोटे, फिर अपेक्षाकृत बड़े, अंत में सर्वोच्च परात्पर साध्य की साधना कर गन्तव्य स्थान श्रीहरि के परम धाम को प्राप्त होने के लिये अग्रसर हो रही है । एक युग था जब मानवजाति केवल शरीर-साधना करती थी, शरीर-साधना थी उस समय का युगधर्म, अन्य धर्मों की अवहेलना  करके भी शरीर की साधना करना उस समय श्रेय पथ माना जाता था ।

कारण, यदि वैसा न किया जाता तो शरीर, जो शरीर धर्म-साधन का उपाय ओर

 

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आधार है, उत्कर्ष को प्राप्त न होता । उसी तरह एक दूसरे युग में स्त्री-परिवार, और एक युग में कुल, एक और दूसरे युग में-जैसे कि आधुनिक युग में-राष्ट्र ही साध्य है । सवोंच्च परात्पर साध्य हैं परमेश्वर, भगवान् । भगवान् ही हैं सबके प्रकृत और परम आत्मा, अतएव प्रकृत और परम साध्य । इसीलिये गीता में कहा गया है कि सब धर्मो का परित्याग करो, मेरी ही शरण में आओ । भगवान् में सब धर्मो का समन्वय होता है, उन्हें उपलब्ध  कर लेने पर वही हमारा भार ग्रहण कर, हमें अपना यंत्र बना, स्त्री, परिवार, कुल, राष्ट्र और मानव-समष्टि की परम तुष्टि और परम कल्याण साधित करेंगे ।

 

    एक साध्य के नाना साधकों का स्वभाव भिन्न-भिन्न होने के कारण साधनाएं भी नाना होती हैं । भगवत्-साधना का एक प्रधान साधन है स्तव-स्तोत्र । स्तव-स्तोत्र सबके लिये उपयोगी साधन नहीं । ज्ञानी के लिये है ध्यान और समाधि'; कर्मी के लिये कर्मसमर्पण है श्रेष्ठ साधन; स्तव-स्तोत्र है भक्ति का अंग- श्रेष्ठ अंग न सही, क्योंकि अहैतुक प्रेम है भक्ति का चरम उत्कर्ष । वह प्रेम स्तव-स्तोत्र द्धारा भगवान् के स्वरूप को आयत्त कर लेने के बाद स्तव-स्तोत्र की आवश्यकता को अतिक्रम कर उस स्वरूप के भोग में लीन हो जाता है; तथापि ऐसा कोई भक्त नहीं जो स्तव-स्तोत्र किये बिना रह सके, जब अन्य किसी साधन की आवश्यकता नहीं रहती तब भी स्तव-स्तोत्र में प्राणों का उच्छवास उमड़ पड़ता है । केवल इतना स्मरण रखना चाहिये कि साधन साध्य नहीं, जो मेरा साधन है वह दूसरे का साधन नहीं भी हो सकता । अनेक भक्तों को यह धारणा होती है कि जो भगवान् का स्तव-स्तोत्र नहीं करते, स्तोत्र सुन आनंद प्रकट नहीं करते, वे धार्मिक नहीं । यह है भ्रांति और संकीर्णता का लक्षण । बुद्ध स्तव-स्तोत्र नहीं करते थे, पर बुद्ध को कौन अधार्मिक कह सकता है ? भक्ति-मार्ग की साधना के लिये स्तव-स्तोत्र की सृष्टि हुई है ।

 

    भक्त भी नाना प्रकार के होते हैं, स्तव-स्तोत्र के भी नाना प्रयोग होते हैं । आर्त्त भक्त दुःख के समय रोने के लिये, सहायता मांगने के लिये, उद्धार की आशा से भगवान् का स्तव-स्तोत्र करते हैं; अर्थार्थी भक्त किसी भी अर्थ-सिद्धि की आशा से, धन, मान, सुख, ऐश्वर्य , जय, कल्याण, भुक्ति, मुक्ति इत्यादि के लिये संकल्प कर स्तव-स्तोत्र करते हैं । इस तरह के भक्त बहुत बार भगवान् को प्रलोभन दिखा संतुष्ट करना चाहते हैं, कोई-कोई तो अभीष्ट-सिद्धि न मिलने से परमेश्वर पर बहुत क्रोधित हो उठते हैं, उन्हें निष्ठुर, प्रवंचक इत्यादि गालियां देकर कहते हैं कि अब और भगवान् की पूजा नहीं करूंगा, उनका मुंह नहीं देखूंगा, किसी भी तरह उन्हें नहीं मानूंगा । बहुत-से हताश हो नास्तिक बन जाते हैं, यह सिद्धांत बना लेते हैं कि यह जगत् दुःख का राज्य है, अन्याय-अत्याचार का राज्य, भगवान् हैं ही नहीं । यह दो प्रकार की भक्ति अज्ञ भक्ति है पर इसी कारण उपेक्षणीय नहीं, क्षुद्र से ही महत् में उठा जाता है । अविधा को सिद्ध करना है विधा का प्रथम सोपान । बालक भी अज्ञ होता है, किंतु बालक की अज्ञता

में माधुर्य है, बालक भी मां के पास रोने आता है, दु:ख का

 

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प्रतिकार चाहता है, नाना सुखों और स्वार्थसिद्धि के लिये दौड़ा आता है, साधता है, रोता-धोता है, न पाने पर क्रोध करता है, और उपद्रव भी  । जगज्जननी भी हंसते हुए अज्ञ भक्त का सारा हठ और उपद्रव सहन करती हैं ।

 

   जिज्ञासु भक्त किसी अर्थसिद्धि के लिये या भगवान् को संतुष्ट करने के लिये स्तव-स्तोत्र नहीं करते, उनके लिये स्तव-स्तोत्र है केवल भगवान् के स्वरूप की उपलब्धि और अपने भाव की पुष्टि का साधन । ज्ञानी भक्त को उसकी भी आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि उन्हें स्वरूप की उपलब्धि हो चुकी होती है, उनका भाव सुदृढ़ और सुप्रतिष्ठित हो चुका होता है, उन्हें केवल भावोच्छ्वास के लिये स्तव-स्तोत्र की आवश्यकता होती है । गीता में कहा गया है कि इन चारों श्रेणियों के भक्त उदार हैं, कोई उपेक्षणीय नहीं, सभी भगवान् के प्रिय हैं, फिर भी ज्ञानी भक्त है सर्वश्रेष्ठ, क्योंकि ज्ञानी और भगवान् हैं एकात्मा । भगवान् भक्त के साध्य हैं, अर्थात् आत्मरूप में ज्ञातव्य और प्राप्य, ज्ञानी भक्त और भगवान् में आत्मा और परमात्मा का संबंध होता है । ज्ञान, प्रेम और कर्म--इन्हीं तीन सूत्रों से परस्पर आबद्ध हैं आत्मा और परमात्मा । कर्म है, वह कर्म है भगवत्प्रदत्त , उसमें कोई प्रयोजन या स्वार्थ नहीं, कुछ भी प्रार्थनीय नहीं; प्रेम है, वह प्रेम है कलह और मान से शून्य-निःस्वार्थ, निष्कलंक, निर्मल; ज्ञान है, वह ज्ञान शुष्क  और भावरहित नहीं, गभीर, तीव्र आनंद और प्रेम से पूर्ण । साध्य एक होने पर भी जैसा साधक वैसा ही साधन होता है, उसी तरह भिन्न-भिन्न साधक एक ही साधना का भिन्न-भिन्न प्रयोग करते हैं ।

 

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