श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य

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Sri Aurobindo

All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

The Complete Works of Sri Aurobindo (CWSA) Writings in Bengali and Sanskrit Vol. 9 715 pages 2017 Edition
Bengali
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Sri Aurobindo

All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य 528 pages 1999 Edition
Hindi Translation
Translator:   Hriday  PDF    LINK

 

कहानी

 


स्वप्न

 

    एक दरिद्र अंधेरी कोठरी में बैठा अपनी शोचनीय अवस्था और भगवान् के राज्य में अन्याय-अविचार की बातें सोच रहा था । दरिद्र अभिमान से अभिभूत हो कहने लगा,  ''लोग कर्म की दुहाई दे भगवान् के सुनाम की रक्षा करना चाहते हैं । यदि गत जन्म के पाप से मेरी यह दुर्दशा हुई होती, यदि मैं इतना ही पापी होता हो तो निश्चय ही इस जन्म में भी मेरे मन में पाप-चिंतन का स्रोत बहता होता, इतने घोर पातकी का मन क्या एक दिन में निर्मल हो सकता है ? और उस मोहल्ले के तीनकौड़ी शील को तो देखो, उसकी धन-दौलत, सोना-चांदी, दास-दासियों को देखो, यदि कर्मफल सत्य हो तो निःसन्देह वह पूर्व जन्म में कोई जगद्विख्यात साधु-महात्मा रहा होगा । परंतु कहां, इस जन्म में तो उसका नाम-निशान तक नहीं दिखायी देता । ऐसा निष्ठुर, पाजी, बदमाश तो संसार में दूसरा नहीं । नहीं, कर्मवाद है भगवान् का छलावा, मन को फुसलाने का बहाना-मात्र । श्यामसुन्दर बड़े चतुरड़ाड़ामणि हैं, मुझे पकड़ाई नहीं देते, इसी से खैर है, नहीं तो ऐसा सबक सिखाता कि सब चालाकी धरी रह जाती ।''

     इतना कहते ही दरिद्र ने देखा कि हठात् उसकी अंधेरी कोठरी अतिशय उज्ज्वल  आलोक-तंरग से प्रवाहित हो उठी है, फिर तुरत ही वह आलोक-तरंग अंधकार में विलीन हो गयी और उसने देखा कि उसके सामने एक सुन्दर कृष्णवर्ण बालक हाथ में दीपक लिये खड़ा है-धीरे-धीरे मुस्करा रहा है, पर कुछ बोलता नहीं । उसके सिर पर मोर-मुकुट और पांवों में नूपुर देख दरिद्र ने समझ लिया कि स्वयं श्यामसुन्दर ही उसे पकड़ाई दने के लिये आये हैं । दरिद्र अप्रतिभ हो उठा, एक बार उसने सोचा कि प्रणाम करूं, किंतु बालक का विहँसता चेहरा देख किसी तरह भी प्रणाम करने को मन नहीं हुआ । अंत में उसके मुंह से यह वाक्य निकल पड़ा-''अरे कन्हैया, तू क्यों आ गया ?''

    बालक ने हँसकर कहा-''क्यों, तुमने ही तो मुझे बुलाया था ? अभी-अभी तो मुझे चाबुक लगाने की प्रबल इच्छा तुम्हारे मन में उठी थी । अब तो मैं पकड़ में आ गया, उठकर चाबुक लगाओ न ।''

    दरिद्र और भी अप्रतिभ हुआ, भगवान् को चाबुक लगाने की इच्छा के लिये उसे हृदय में अनुत्ताप नहीं, किन्तु इतने सुन्दर बालक को स्नेह न कर उसपर हाथ उठाना उसे ठीक सुरुचि-संगत नहीं मालूम हुआ । बालक ने फिर कहा--''देखो हरिमोहन, जो मुझसे भय न कर मुझे अपना सखा मानते हैं, स्नेहभाव से गाली देते हैं, मेरे साथ क्रीड़ा करना चाहते हैं, वे मुझे बहुत ही प्रिय हैं । मैंने क्रीड़ा के लिये ही जगत् की सृष्टि की है, मैं सर्वदा इस क्रीड़ा का उपयुक्त साथी खोजता रहता हूं । परंतु भाई, ऐसे साथी मिलते कहां हैं ? सभी मुझपर क्रोध करते हैं, दावा करते हैं, दान चाहते हैं, मान चाहते हैं, मुक्ति चाहते हैं, न जाने क्या-क्या चाहते रहते हैं, किंतु कहां,

 

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मुझे तो कोई नहीं चाहता ! जो कुछ ये चाहते हैं वही दे देता हूं । क्या करूं, इन्हें संतुष्ट रखना ही पड़ता है, नहीं तो ये मेरी जान के गाहक बन जायें । देखता हूं, तुम भी कुछ चाहते हो । नाराज होने पर चाबुक खाने के लिये तुम्हें एक आदमी चाहिये, इसी साध को मिटाने के लिये तुमने मुझे बुलाया है । लो, चाबुक की मार खाने के लिये मैं आ गया- ये यथा मां प्रपधन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । फिर भी प्रहार करने के पहले यदि तुम मेरे मुँह से कुछ सुनना चाहो तो मैं तुम्हें अपनी प्रणाली समझा दूँ  । क्यों ! राजी हो ?''

     हरिमोहन ने कहा-''समझा सकेगा तू ? देखता हूँ, तू बड़ा ही वाचाल है, किंतु तेरे जैसा नन्हा-सा बालक मुझे कुछ सिखा सकेगा यह मैं कैसे विश्वास करूं ? ''

     बालक ने फिर हँसकर कहा-''आजमा कर देखो, सिखा सकता हूँ या नहीं ।''

     इतना कह श्रीकृष्ण ने हरिमोहन के सिर पर हाथ रखा । दरिद्र के समस्त शरीर में विद्युत्-धारा प्रवाहित होने लगी, मूलाधार में सुप्त कुंडलिनी-शक्ति अग्निमयी भुजंगिनी के रूप में गर्जन करती हुई ब्रह्मरंध्र की ओर दौड़ी, उसका मस्तिष्क प्राण-शक्ति की तरंगों से भर गया । तुरत ही उसे ऐसा लगने लगा कि घर के चारों ओर की दीवारें मानों दूर भागी जा रही हैं, नाम-रूपमय जगत् मानों उसे छोड़ अनन्त में छिप गया है । हरिमोहन बाह्यज्ञानशून्य हो गया । जब उसे फिर से चेतना आयी तो उसने देखा कि वह किसी अनजान जगह में बालक के संग खड़ा है, उसके सामने गाल पर हाथ रखे गद्दी पर बैठे है एक वयोवृद्ध पुरुष, प्रगाढ़ चिन्ता में निमग्न । उस घोर दुश्चिन्ता-विकृत, हृदय-विदारक निराशा-विमर्षित मुखमण्डल को देख हरिमोहन को यह विश्वास करने की इच्छा नहीं हुई कि यही हैं गांव के हर्ता-कर्ता तीनकौडी शील । अंत में अत्यंत भयभीत हो उसने बालक से कहा--''अरे, यह तूने क्या किया कन्हैया, चोर की तरह घोर रात्रि में दूसरे के मकान में घुस आया ? पुलिस आकर हमें पकड़ लेगी और मारते-मारते दोनों के दम निकाल देगी ! तीनकौड़ी शील के प्रताप को क्या तू नहीं जानता ?''

     बालक ने हँसकर कहा--''अच्छी तरह जानता हूं । परंतु चोरी तो मेरा पुराना धन्धा है, पुलिस के साथ मेरी खूब पटती है, तुम डरो मत । अब मैं तुम्हें सूक्ष्म-दृष्टि देता हूं, वृद्ध के मन के भीतर देखो । तीनकौडी के प्रताप को तो तुम जानते ही हो, अब मेरे प्रताप को भी देखो ।''

    अब देख पाया हरिमोहन वृद्ध तीनकौड़ी के मन को । देखी शत्रु-आक्रमण से विध्वस्त धनाढ्य नगरी । उस तीक्ष्ण और ओजस्वी मन में कितनी ही विकराल मूर्तियां, पिशाच और राक्षस घुसकर शांति नष्ट कर रहे हैं, ध्यान भंग कर रहे हैं, सुख लूट रहे है । वृद्ध ने अपने प्यारे कनिष्ठ पुत्र के साथ कलह किया है, उसे घर से निकाल दिया है; अब वे बुढ़ापे के प्यारे पुत्र को खो शोक से म्रियमाण हो रहे हैं, किन्तु क्रोध, गर्व और हठ उनके हृदय-द्वार पर सांकल चढ़ा पहरा दे रहे हैं । क्षमा को वहां प्रवेश करने

 

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का अधिकार नहीं । उनकी कन्या के नाम दुश्चरित्रा होने का कलंक लगा है, अत: वृद्ध अपनी प्रिय कन्या को घर से निकाल अब उसके लिये रो रहे हैं; वृद्ध यह जानते हैं कि वह निर्दोष है, किंतु समाज का भय, लोक-लज्जा, अहंकार और स्वार्थ ने स्नेह को दबा रखा है, उसे वे उभड़ने का अवसर ही नहीं देते । हजारों पाप-स्मृतियों से डरकर वृद्ध बार-बार चौंक उठते हैं, तथापि पाप-प्रवृत्तियों को सुधारने का साहस या बल उनमें नहीं । बीच-बीच में मृत्यु और परलोक की चिन्ता वृद्ध को अत्यंत दारुण विभीषिका दिखा जाती । हरिमोहन ने देखा कि मरने की चिन्ता के परदे के पीछे से विकट यमदूत वृद्ध की ओर बार-बार झांक रहे हैं और दरवाजा खटखटा रहे हैं । जब- जब ऐसा शब्द होता है तब-तब वृद्ध की अंतरात्मा भयातुर हो चीत्कार कर उठती है । इस भयंकर दृश्य को देख हरिमोहन भयभीत हो उठा और बालक की ओर देख बोला--''अरे कन्हैया ! यह क्या ? मैं तो सोचता था कि वृद्ध परम सुखी हैं ।''

      बालक ने कहा-''यही है मेरा प्रताप । अब बोलो, किसका प्रताप अधिक है, उस मोहल्ले के तीनकौड़ी शील का या वैकुंठवासी श्रीकृष्ण का ? देखो हरिमोहन ! मेरे यहां भी पुलिस है, पहरा है, सरकार है, कानून है, न्याय है, मैं भी राजा बनकर खेल कर सकता हूं । पसंद है तुम्हें यह खेल ?''

      हरिमोहन ने कहा--''ना रे बाबा, यह तो बड़ा बुरा खेल है । तुझे अच्छा लगता है यह खेल ? ''

     बालक ने हँसते हुए उत्तर दिया--''मैं सभी खेल पसंद करता हूं, चाबुक लगाना भी और चाबुक खाना भी ।''  इसके बाद उसने कहा--''देखो हरिमोहन, तुम लोग केवल बाहर का ही देखते हो, भीतरी रूप देखने की सूक्ष्म-दृष्टि अभी तक विकसित नहीं की है । इसीलिये कहते हो कि तुम दुःखी हो और तीनकौड़ी सुखी । इस आदमी को किसी भी पार्थिव वस्तु का अभाव नहीं--फिर भी यह लखपति तुम्हारी अपेक्षा कितनी अधिक दुःख-यंत्रणा भोग रहा है । ऐसा क्यों ? बता सकते हो ? मन की अवस्था में ही सुख है और मन की अवस्था में ही दुःख । सुख और दुःख हैं मन के विकार-मात्र । जिसके पास कुछ नहीं, विपदा ही जिसकी संपदा है, वह अगर चाहे तो उस विपत्ति में भी परम सुखी हो सकता है । और देखो, जिस तरह तुम नीरस पुण्य में दिन बिताते हुए सुख नहीं पा रहे हो, केवल दुःख का ही चिंतन करते हो, उसी तरह ये भी नीरस पाप में दिन बिताते हुए केवल दुःख का ही चिंतन करते हैं । इसीलिये पुण्य से केवल क्षणिक दुःख और पाप से केवल क्षणिक सुख मिलता है । इस द्वंद्व में आनंद नहीं । आनन्द--आगार की छवि तो मेरे पास है । जो मेरे पास आता है, जो मेरे प्रेमपाश में बँधता है, मेरा सुमिरण करता है, मुझपर जोर-जुल्म करता है, अत्याचार करता है--वह मेरे आनन्द की छवि के दर्शन का हकदार बन जाता है ।

     हरिमोहन बड़ी तत्परता के साथ श्रीकृष्ण की बातें सुनने लगा । बालक ने फिर कहा--''और देखो, हरिमोहन, शुष्क पुण्य तुम्हारे लिये नीरस हो गया है फिर भी

 

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संस्कार के प्रभाव को तुम नहीं छोड़ पा रहे, इस तुच्छ अहंकार को नहीं जीत पा रहे । इसी तरह वृद्ध के लिये पाप नीरस हो गया है फिर भी संस्कार के वश हो वे उसे नहीं छोड़ पा रहे और इस जीवन में नरक-यंत्रणा भोग रहे हैं । इसे ही कहते हैं 'पुण्य का बन्धन' और 'पाप का बन्धन' । अज्ञानजनित संस्कार है इस बंधन की रस्सी । परंतु वृद्ध की यह नरक-यंत्रणा बड़ी शुभ अवस्था है । इससे उनका परित्राण और मंगल होगा ।''

     हरिमोहन अबतक चुपचाप बालक की बातें सुन रहा था, अब उसने कहा--''कन्हैया, तेरी बातें तो बड़ी मीठी हैं, किंतु मुझे विश्वास नहीं हो रहा । सुख और दुःख मन के विकार हो सकते हैं, किंतु इनका कारण है बाह्य अवस्था । देख, क्षुधा की ज्वाला से जब प्राण छटपटा रहे हों तब क्या कोई परम सुखी हो सकता है ? अथवा जब रोग या यंत्रणा से शरीर कातर हो रहा हो तब क्या कोई तुझे याद कर सकता है ?''

     बालक ने कहा--''चलो हरिमोहन, यह भी तुम्हें दिखा दूं। ''

    इतना कह बालक ने हरिमोहन के सिर पर पुन: अपना हाथ रखा । स्पर्श का बोध होते ही हरिमोहन ने देखा कि तीनकौड़ी शील के मकान का अब कहीं कोई पता नहीं । एक निर्जन सुरम्य पर्वत के वायुसेवित  शिखर पर एक संन्यासी आसन लगाये ध्यानमग्न बैठे हैं, उनके चरणों के पास एक विराट्काय व्याघ्र प्रहरी की तरह लेटा हुआ है । बाघ को देख हरिमोहन के पैरों ने आगे बढ़ने से इनकार कर दिया, किंतु बालक उसे खींच संन्यासी के निकट ले ही गया । बालक से पार न पा लाचार हो हरिमोहन को चलना पड़ा । बालक ने कहा--''देखो, हरिमोहन ।''

   हरिमोहन ने देखा कि संन्यासी का मन उसकी आंखों के सामने एक खुली बही के समान पड़ा है, इसके पन्ने-पन्ने पर 'श्रीकृष्ण' लिखा है । संन्यासी निर्विकल्प समाधि के सिंह-द्वार का अतिक्रमण कर सूर्यलोक में श्रीकृष्ण के संग क्रीड़ा कर रहे है । उसने यह भी देखा कि संन्यासी कई दिनों से अनाहार हैं तथा गत दो दिनों से उनके शरीर को भूख-प्यास से विशेष कष्ट हो रहा है । हरिमोहन ने कहा--''अरे कन्हैया ! यह क्या ? बाबाजी तुझसे इतना प्रेम करते है फिर भी ये भूख-प्यास की पीड़ा भोग रहे हैं । तुझे क्या जरा भी समझ नहीं ? इस निर्जन व्याघ्रसंकुल अरण्य में कौन आहार देगा इन्हें ?''

    बालक ने कहा--''मैं दूंगा, किंतु एक और मजा देखो ।''

    हरिमोहन ने देखा कि बाघ ने उठकर अपने पंजे के एक आघात से निकटवर्ती वल्मीक को तोड़ दिया । फिर क्या था, छोटी-छोटी सैंकड़ों चीटियां बाहर निकल क्रोध से भर संन्यासी के बदन पर चढ़ काटने लगीं । संन्यासी ज्यों-के-त्यों बैठे रहे ध्यानमग्न, निश्चल, अटल । अब बालक ने संन्यासी के कान में अति मधुर स्वर से पुकारा--''सखे !'' संन्यासी ने आंखें खोलीं । पहले तो उन्होंने इस मोह-ज्यालामय दंशन का अनुभव नहीं किया, अभीतक उनके कान में वही विश्ववांछित चित्तहारी

 

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 वंशीध्वनि बज रही थी--ठीक उसी तरह जिस तरह वृन्दावन में राधा के कानों में बजी थी । उसके बाद उन सैंकड़ों चीटियों के काटने से उनकी बुद्धि शरीर की ओर आकृष्ट हुई । संन्यासी अपने आसन से हिले नहीं--विस्मयपूर्वक मन-ही-मन कहने लगे-''यह क्या ? ऐसा तो कभी नहीं हुआ । ओहो ! यह तो श्रीकृष्ण मेरे संग क्रीड़ा कर रहे हैं, क्षुद्र चिंटीसमूह के रूप में मुझे काट रहे है ।'' हरिमोहन ने देखा कि चींटियों के काटने की पीड़ा अब संन्यासी की बुद्धि तक नहीं पहुंचती, प्रत्येक दंशन में तीव्र शारीरिक आनंद अनुभव कर, 'श्रीकृष्ण' नाम लेते हुए आनन्दपूर्वक तालियां बजाते हुए नाचने लगे । चाटियां धरती पर गिर-गिर कर भाग गयीं । हरिमोहन ने आश्चर्य के साथ पूछा--''कन्हैया, यह कैसी माया ?''

      बालक ताली बजा एक पैर के बल दो चक्कर काट ठठाकर हँस पड़ा । कहा--''मैं हूँ जगत् का एकमात्र जादूगर ! इस माया को तुम नहीं समझ सकोगे, यह मेरा परम रहस्य है । देखा ? यंत्रणा में भी संन्यासी मेरा स्मरण कर सके न ! और देखो ।''

      संन्यासी प्रकृतिस्थ हो फिर बैठ गये; शरीर अब भूख-प्यास अनुभव करने लगा; किंतु हरिमोहन ने देखा के संन्यासी की बुद्धि उस शारीरिक विकार का अनुभव-मात्र करती है, न तो वह उससे विकृत ही हो रही है न लिप्त ही । तभी पहाड़ पर से किसी ने वंशीविनिन्दित स्वर से पुकारा : ''सखे !''  हरिमोहन चौंक पड़ा । यह तो श्यामसुन्दर का ही मधुर वंशीविनिन्दित स्वर था । उसके बाद देखा कि शिलाचय के पीछे से एक सुन्दर कृष्णवर्ण बालक थाली में उत्तम आहार और फल लिये आ रहा है । हरिमोहन हतबुद्धि हो श्रीकृष्ण की ओर देखने लगा । बालक उसके पास खड़ा है, फिर भी जो बालक आ रहा है वह भी अविकल श्रीकृष्ण  का ही रूप है । दूसरा बालक वहां आया और संन्यासी को रोशनी दिखाकर बोला--''देख, क्या लाया हूं । ''

     संन्यासी ने हँसकर कहा--''आ गया ? इतने दिनों तक भूखा ही रखा न ? खैर, जब आया है तो बैठ, मेरे संग खा । ''

     संन्यासी और बालक उस थाली की खाद्य सामग्री खाने लगे, एक दूसरे को खिलाने लगे, आपस में छीना-झपटी करने लगे । आहार समाप्त होने पर बालक थाली ले अंधकार में विलीन हो गया ।

     हरिमोहन कुछ पूछने ही जा रहा था कि हठात् उसने देखा कि न वहां श्रीकृष्ण हैं न संन्यासी ! न बाघ और न पर्वत । वह अब एक भद्र गांव में वास कर रहा है । प्रचुर धन-दौलत है, स्त्री है, परिवार है, नित्य ब्राह्मणों को दान देता है, भिक्षुकों को दान देता है, त्रिकाल संध्या करता है, शास्त्रोक्त आचार-विचार की यत्नपूर्वक रक्षा करता हुआ रघुनंदन-प्रदर्शित पथपर चलता है । आदर्श पिता, आदर्श स्वामी और आदर्श पुत्र बनकर जीवन यापन करता है । परंतु दूसरे ही क्षण उसने भयभीत होकर देखा कि जो  इस भद्र ग्राम में वास करते हैं उनमें लेश-मात्र भी सदभाव या आनन्द नहीं, ये यंत्र की तरह बाह्य आचार-रक्षा को ही पुण्य समझते हैं । इस जीवन से हरिमोहन को आरंभ में

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जितना आनन्द हुआ था, अब उसे उससे उतनी ही यंत्रणा होने लगी । उसे ऐसा मालूम हुआ मानों उसे भयानक प्यास लगी है, किंतु जल नहीं मिल रहा, वह धूल फाँक रहा है, धूल, केवल धूल, अनन्त धूल खा रहा है । वहां से भाग वह एक दूसरे गांव गया, वहां एक विराट् अट्टालिका के सामने अपार जनसमूह और उसके आशीर्वाद का कोलाहल मचा हुआ था । हरिमोहन ने कुछ आगे बढ़कर देखा कि तिनकौड़ी शील दालान में बैठे उस जनता में अशेष धन बाँट रहे हैं, कोई भी वहां से निराश नहीं लौट रहा । हरिमोहन ठठाकर हँस पड़ा, उसने सोचा--''यह कैसा स्वप्न ! तीनकौड़ी शील और दाता !'' उसके बाद उसने तीनकौड़ी के मन को देखा । उसे ज्ञात हुआ कि उस मन में लोभ, ईर्ष्या, काम, स्वार्थ आदि हजारों अतृप्तियाँ और कुप्रवृत्तियाँ 'देहि, देहि' चिल्ला रही है । तीनकौड़ी ने पुण्य के लिये, यश के लिये, गर्व के वश उन भावों को अतृप्त अवस्था में ही किसी तरह दबा रखा है, अपने चित्त से उन्हें भगा नहीं दिया है । इसी बीच हरिमोहन को पकड़ कोई जल्दी-जल्दी परलोक दिखा लाया । हरिमोहन हिन्दू का नरक, ईसाई का नरक, मुसलमान का नरक, यूनानी का नरक, हिन्दू का स्वर्ग, ईसाई का स्वर्ग, मुसलमान का स्वर्ग, यूनानी का स्वर्ग--न मालूम और कितने ही नरकों और कितने ही स्वर्गों को देख आया । उसके बाद उसने देखा कि वह अपने ही मकान में, अपनी परिचिता फटी चटाई पर मैले तोशक का अवलम्ब ले बैठा है, सामने ही श्यामसुन्दर खड़े हैं । बालक ने कहा--''रात अधिक हो गयी है, यदि मैं घर न लौटा तो घरवाले सभी मुझसे नाराज होंगे, मुझे पीटेंगे । संक्षेप में ही कहता हूं । जिन स्वर्गों और नरकों को तुमने देखा है, वे सब स्वप्न-जगत् के हैं, कल्पना-सृष्ट हैं । मनुष्य मरने के बाद स्वर्ग-नरक जाता है, अपने गत जन्म के भाव को अन्यत्र भोगता है । तुम पूर्वजन्म में पुण्यवान् थे, किन्तु उस जन्म में प्रेम को तुम्हारे हृदय में स्थान नहीं मिला । न तुमने ईश्वर से प्रेम किया न मनुष्य से । इसलिये प्राण त्याग करने के बाद स्वप्न-जगन् में उस भद्र पल्ली में निवास कर पूर्व जीवन के भावों का तुम भोग करने लगे, भोग करते-करते उस भाव से ऊब गये, तुम्हारे प्राण व्याकुल होने लगे और वहां से निकल तुम धूलिमय नरक में बास करने लगे, अंत में जीवन के पुण्य फलों का भोग कर पुन: तुम्हारा जन्म हुआ । उस जीवन में छोटे-मोटे नैमित्तिक दानों को छोड़, नीरस बाह्य व्यवहार को छोड़, किसी के अभाव को दूर करने के लिये तुमने कुछ नहीं किया । इसीलिये इस जन्म में तुम्हें इतना अभाव है । और अभी जो तुम नीरस पुण्य करते हो उसका कारण यही है कि केवल स्वप्न-जगत् के भोग से पाप-पुण्य का संपूर्ण क्षय नहीं होता, इनका संपूर्ण क्षय तो पृथ्वी पर कर्मफल भोगने से ही होता है । तीनकौड़ी गत जन्म में दाता कर्ण थे, हजारों व्यक्तियों के आशीर्वाद से इस जन्म में लखपति हुए हैं, उन्हें किसी वस्तु का अभाव नहीं । परंतु उनकी चित्तशुद्धि न होने के कारण उन्हें इस समय अपनी अतृप्त कुप्रवृत्तियों को पाप-कर्मो द्वारा तृप्त करना पड़ रहा है । कर्म का रहस्य कुछ समझ में आया ? न तो यह पुरस्कार है न दंड--यह है

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अमंगल द्वारा अमंगल की और मंगल द्वारा मंगल की सृष्टि । यह है प्रकृति का नियम । पाप अशुभ है, उसके द्वारा दुःख की  सृष्टि होती है; पुण्य शुभ है, उसके द्वारा सुख की सृष्टि होती है । यह व्यवस्था चित्त की शुद्धि के लिये, अशुभ के विनाश के लिये की गयी है । देखो हरिमोहन, पृथ्वी मेरी वैचित्र्यमयी  सृष्टि का एक अति क्षुद्र अंश है, किंतु कर्म द्वारा अशुभ का नाश करने के लिये तुम लोग वहां जन्म ग्रहण करते हो । जब पाप-पुण्य के हाथों से परित्राण पा तुम लोग प्रेम-राज्य में पदार्पण करते हो तब इस कार्य से छुटकारा पा जाते हो । अगले जन्म में तुम भी छुटकारा पा जाओगे । मैं अपनी प्रिय भगिनी शक्ति और उसकी सहचरी विद्या को तुम्हारे पास भेजूंगा, परंतु देखो, एक शर्त है, तुम मेरे खेल के साथी बनोगे, मुक्ति नहीं मांग सकोगे । राजी हो ? ''

      हरिमोहन ने कहा--''कन्हैया ! तूने मेरा बड़ा उपकार किया ! तुझे गोद में ले प्यार करने की बड़ी इच्छा होती है; मानों इस जीवन में अब कोई तृष्णा नहीं रह गयी ।''

      बालक ने हँसते हुए कहा--''हरिमोहन, कुछ समझा ?''

      हरिमोहन ने उत्तर दिया--''समझा क्यों नहीं ?''  इसके बाद उसने कुछ सोचकर कहा--''अरे कन्हैया, तूने फिर मुझे छला । अशुभ का सृजेन तूने क्यों किया इसकी तो कोई कैफियत दी ही नहीं ।''  इतना कह उसने बालक का हाथ पकड़ लिया । बालक ने अपना हाथ छुड़ा हरिमोहन को धमकाते हुए कहा--''दूर रहो, घंटे भर में ही मेरी सभी गुप्त बातें कहला लेना चाहते हो ?'' इतना कह बालक ने हठात् दीपक बुझा दिया और हरिमोहन से कुछ दूर हटकर हँसते हुए कहा--''क्यों हरिमोहन, चाबुक मारना तो तुम एकदम भूल ही गये । इसी डर से तो मैं तुम्हारी गोद में नहीं बैठा, कहीं तुम बाह्य दुःख से क्रुद्ध हो मेरी खबर न लेने लगो ! मुझे तुम पर कतई विश्वास नहीं । ''

   हरिमोहन ने अंधकार में अपना हाथ बढ़ाया, किन्तु बालक और दूर हट गया, बोला--''नहीं, यह सुख मैं तुम्हारे अगले जन्म के लिये रख छोड़ता हूं । अच्छा अब चला । ''

   इतना कह उस अंधेरी रात में बालक न जाने कहां अदृश्य हो गया । हरिमोहन उसकी नूपुरध्वनि सुनते-सुनते जाग उठा । जगकर उसने सोचा, ''यह कैसा स्वप्न देखा ! नरक देखा, स्वर्ग देखा, और भगवान् को 'तू' कहा, छोटा-सा बालक समझ कितना   डाँटा, डपटा ! कैसा पाप किया । परंतु जो हो, मन में अपूर्व शांति का अनुभव कर रहा हूं ।'' हरिमोहन अब उस कृष्णवर्ण बालक की मोहिनी मूर्ति को याद करने लगा और रह-रह कर कह उठता--''कितनी सुन्दर, कितनी मनोहर !'

 

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