श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य

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Sri Aurobindo

All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

The Complete Works of Sri Aurobindo (CWSA) Writings in Bengali and Sanskrit Vol. 9 715 pages 2017 Edition
Bengali
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All writings in Bengali and Sanskrit. Most of the pieces in Bengali were written by Sri Aurobindo in 1909 and 1910 for 'Dharma', a Calcutta weekly he edited at that time; the material consists chiefly of brief political, social and cultural works. His reminiscences of detention in Alipore Jail for one year ('Tales of Prison Life') are also included. There is also some correspondence with Bengali disciples living in his ashram. The Sanskrit works deal largely with philosophical and cultural themes. (This volume will be available both in the original languages and in a separate volume of English translations.)

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्रीअरविन्द का बंगला साहित्य 528 pages 1999 Edition
Hindi Translation
Translator:   Hriday  PDF    LINK

स्वाधीनता का अर्थ

 

    हमारी राजनीतिक चेष्टा का उद्देश्य है स्वाधीनता, परंतु स्वाधीनता है क्या, इसमें मतभेद है । कोई स्वायत्त शासन को स्वाधीनता कहता है, कोई औपनिवेशिक स्वराज्य को, तो कोई संपूर्ण स्वराज्य को । आर्य ऋषि संपूर्ण व्यावहारिक और आध्यात्मिक स्वाधीनता और उसके फलस्वरूप अक्षुण्ण आनंद को स्वराज्य कहा करते थे । राजनीतिक स्वाधीनता है स्वराज्य का एक अंगमात्र--उसके दो पक्ष हैं, बाह्य स्वाधीनता और आंतरिक स्वाघीनता । विदेशी शासन से पूर्ण मुक्ति है बाह्य स्वाधीनता, प्रजातंत्र है आंतरिक स्वाधीनता का चरम विकास । जबतक दूसरे का शासन या राज्य रहता है तबतक किसी राष्ट्र को स्वराज्यप्राप्त स्वाधीन राष्ट्र नहीं कहा जाता । जबतक प्रजातंत्र नहीं स्थापित हो जाता तबतक राष्ट्र के अंतर्गत प्रजा को स्वाधीन मनुष्य नहीं कहा जा सकता । हम चाहते हैं पूर्ण स्वाधीनता, विदेशी आदेश और बंधन से पूर्ण मुक्ति और अपने घर में प्रजा का पूर्ण आधिपत्य, यही है हमारा राजनीतिक लक्ष्य ।

    इस आकांक्षा का कारण संक्षेप में बतलायेंगे । राष्ट्र के लिये पराधीनता है मृत्यु का दूत और आज्ञा-वाहक, स्वाधीनता में ही है जीवन-रक्षा, स्वाधीनता में ही है उन्नति की संभावना । स्वधर्म अर्थात् स्वभावनियत राष्ट्रीय कर्म और प्रयास है राष्ट्रीय  उन्नति का एकमात्र पथ । विदेशी यदि देश को अधिकृत कर अत्यंत दयालु और हितैषी भी बने रहें तो भी वे हमारे सिर पर परधर्म का बोझ लादे बिना नहीं छोड़ेंगे । उनका उद्देश्य चाहे भला हो या बुरा, उससे हमारा अहित ही होगा, हित नहीं । दूसरे के स्वभावनियत पथ पर चलने की शक्ति और प्रेरणा हममें नहीं है, उस पथपर चलने से हम बहुत सुंदर रूप में उसका अनुकरण कर सकते हैं, उसकी उन्नति के लक्षण और वेशभूषा  में बड़ी दक्षता के साथ अपनी अवनति को आच्छादित कर सकते हैं, परंतु परीक्षा के समय परधर्मसेवा से उत्पन्न हमारी दुर्बलता और असारता प्रकाशित होगी । हम भी उस असारतावश विनाश को प्राप्त होंगे । रोम के आधिपत्य में रहकर रोम की सभ्यता प्राप्त कर यूरोप के प्राचीन राष्ट्रों ने बहुत दिनों तक सुख-स्वच्छन्दता  से जीवन यापन तो किया, परंतु उनकी अंतिम अवस्था बड़ी भयानक हुई, मनुष्यत्व के विनाश से उनकी जो घोर दुर्दशा हुई, वही मनुष्यत्व-विनाश और घोर दुर्दशा प्रत्येक पराधीनतापरायण राष्ट्र के लिये अवश्यंभावी है । पराधीनता का प्रधान आधार है राष्ट्र का स्वधर्मनाश और परधर्मसेवा । यदि पराधीन अवस्था में हम स्वधर्म की रक्षा या स्वधर्म को पुनरुज्जीवित कर सकें तो फिर पराधीनता का बंधन अपने-आप टूट जायेगा-यह है अलंघनीय प्राकृतिक नियम । अतएव यदि कोई राष्ट्र अपने दोष से पराधीनता में जा पड़े तो अविकल और पूर्णांग स्वराज्य ही होना चाहिये उसका प्रथम उद्देश्य और राजनीतिक आदर्श । औपनिवेशिक स्वायत्त शासन स्वराज्य नहीं, पर, यदि बिना शर्त पूरा-पूरा

अधिकार दिया जाये और राष्ट्र आदर्शभ्रष्ट और स्वधर्मभ्रष्ट न हो तो वह स्वराज्य की

 

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अनुकूल और पूर्ववर्ती अवस्था हो सकता है । आजकल यह बात उठी है कि ब्रिटिश साम्राज्य से बाहर स्वाघीनता की आशा करना है धृष्टता का परिचायक और राजद्रोह का सूचक । जो औपनिवेशिक स्वायत्त शासन से संतुष्ट नहीं वे निश्चय ही राजद्रोही राष्ट्र-विप्लवी हैं और सर्वविध राजनीतिक कार्यों से अलग रखे जाने योग्य हैं । किंतु उस तरह की आशा और आदर्श के साथ राजद्रोह का कोई संबंध नहीं । अंग्रेजी राजत्व के आरंभ से ही बड़े-बड़े अंग्रेज राजनीतिज्ञ यह कहते आ रहे हैं कि उस तरह की स्वाधीनता अंग्रेजी सरकार का भी उद्देश्य है, अब भी अंग्रेज विचारक मुक्त कंठ से कह रहे हैं कि स्वाधीनता के आदर्श का प्रचार और स्वाधीनता प्राप्त करने की वैध चेष्टा  कानूनन उचित और दोषरहित है । किंतु हमारी स्वाधीनता ब्रिटिश साम्राज्य से बाहर या उसके भीतर रहकर होगी--इस प्रश्न की मीमांसा राष्ट्रीय दल कभी आवश्यक नहीं समझता । हम पूर्ण स्वराज्य चाहते हैं । यदि ब्रिटिश एक ऐसे युक्त साम्राज्य की व्यवस्था करे जिसके अंतर्गत भारतवासी वैसा ही स्वराज्य पा सकें तो फिर उसमें आपत्ति ही क्या ? अंग्रेजों के प्रति विद्धेष होने के कारण हम स्वराज्य की चेष्टा नहीं कर रहे, देश की रक्षा के लिये कर रहे हैं । परंतु हम पूर्ण स्वराज्य के अतिरिक्त अन्य किसी आदर्श को स्वीकार कर देशवासियों को मिथ्या राजनीति और देशरक्षा का गलत मार्ग दिखाने के लिये प्रस्तुत नहीं ।

 

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