Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita.
Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.
आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता
गीता की विचारधारा का विकास एक ऐसे बिन्दु पर पहुँच गया है जहाँ केवल एक ही प्रश्न समाधान के लिए बाकी रह जाता है,-प्रश्न यह है कि हमारी यह प्रकृति, जो बद्ध और दोषपूर्ण है, केवल सिद्धान्त-रूप में ही नहीं बल्कि अपनी सभी चेष्टाओं में, निम्नतर से उच्चतर सत्ता की ओर तथा अपने वर्तमान कर्म-विधान से शाश्वत धर्म की ओर अपना विकास किस प्रकार साधित कर सकती है । यह एक ऐसी समस्या है जो गीता-प्रतिपादित कुछ एक सिद्धान्तों में अंतर्निहित है, किन्तु इसे उसकी अपेक्षा अधिक प्रधानता के साथ निरूपित करने तथा अधिक स्पष्ट रूप में अपनी बुद्धि के समक्ष रखने की जरूरत है । गीता मानसशास्त्र के उस ज्ञान को आधार बनाकर चली थी जो उस समय के विचारकों के लिए सुपरिचित था, और अपनी विचार-शृंखला में युक्ति के उन क्रमों को संक्षिप्त करना, बहुत-सी बातों को बिना सिद्ध किये मान लेना तथा उन अनेक बातों को बिना व्यक्त किये छोड़ देना उसके लिए भलीभाँति संभव था जिन्हें आज पूरे बल के साथ स्पष्ट करना तथा सुनिश्चित रूप में अपने सामने रखना हमारे लिए आवश्यक है । गीता की शिक्षा आरम्भ से ही हमारे जागतिक कर्म के लिए एक नया स्रोत एवं नया स्तर प्रस्तुत करने की ओर अग्रसर होती है; उसका आरम्भ-बिन्दु यही था और उसके उपसंहार का मूल प्रेरक भी यही है । वास्तव में उसका प्राथमिक उद्देश्य मोक्ष का मार्ग प्रतिपादित करना नहीं बल्कि यह दिखलाना था कि आत्मा के मोक्ष-प्रयत्न के साथ कर्मों की संगति कैसे बैठती है तथा जब एक बार आध्यात्मिक स्वातंत्र्य प्राप्त हो जाता है तो स्वयं उसके साथ अविच्छिन्न जाग-तिक कर्म, 'मुक्तस्य कर्म' का मेल कैसे सधता है । प्रसंगवश, आध्यात्मिक मुक्ति और सिद्धि प्राप्त करने के लिए एक समन्वयात्मक योग या मनोवैज्ञानिक पद्धति का विकास किया जा चुका है और कुछ एक दार्शनिक सिद्धान्त तथा हमारी सत्ता एवं प्रकृति के कई एक सत्य-विशेष, जिनपर इस .योग की प्रामाणिकता अवलंबित है, प्रतिपादित किये जा चुके हैं । परन्तु मूल लक्ष्य, मूल कठिनाई एवं समस्या शुरू से अब तक बराबर बनी हुई है । वह यह है कि अर्जुन, जो विचारों
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और भावों की प्रबल क्रांति के कारण कर्म के प्रचलित, स्वाभाविक एवं बौद्धिक आधारों तथा प्रतिमानों से च्युत हो चुका है, कर्मों का नया एवं संतोषजनक आध्यात्मिक मानदंड कैसे प्राप्त करे, वह मनुष्य की रूढ़िग्रस्त बुद्धि तथा प्रकृति के आंशिक सत्यों के अनुसार अब और कार्य नहीं कर सकता, अत: समस्या यह है कि कैसे वह आत्मा के सत्य में जीवन यापन करे और साथ ही कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अपना नियत कर्म भी संपन्न करे । निर्व्यक्तिक तथा विश्वमय आत्मा की नीरवता में आंतरिक तौर पर स्थिर, अनासक्त और प्रशांत रहना और फिर भी क्रियाशील प्रकृति के कार्यों को शक्तिशाली रूप से संपन्न करना, और अधिक व्यापक रूप में, अपने अंतःस्थ सनातन के साथ एकमय होना तथा जगद्वव्यापी सनातन की उस समस्त इच्छा को कार्यान्वित करना जो हमारी उन्नीत, मुक्त, विश्वात्मभाव से युक्त, भगवत्प्रकृति से एकीभूत वैयक्तिक प्रकृति की उदात्तीकृत शक्ति तथा दिव्य उच्चता के द्वारा प्रकट हो-यही है गीता का समाधान ।
अब हम जरा यह देखें कि अर्जुन की कठिनाई और इन्कार के मूल में जो समस्या है उसके दृष्टिकोण से तथा अत्यंत स्पष्ट और निश्चयात्मक शब्दों में इस समाधान का क्या अभिप्राय है । एक मनुष्य तथा सामाजिक प्राणी के रूप में उसका कर्तव्य क्षत्रिय के उच्च धर्म का पालन करना है जिसके बिना पाप, अत्याचार और अन्याय के अराजकतापूर्ण बलात्कार के विरुद्ध समाज के ढांचे की रक्षा नहीं की जा सकती, जाति के आदर्शों का औचित्य सिद्ध नहीं किया जा सकता, सत्य और न्याय की सुसमंजस व्यवस्था को धारण नहीं किया जा सकता । और फिर भी कर्तव्य का आह्वान अपने-आपमें युद्ध के नायक को अब पहले की तरह संतुष्ट नहीं कर सकता क्योंकि कुरुक्षेत्र की भीषण यथार्थता के बीच वह आह्वान अति कठोर, विमूढ़कारी और द्विविधापूर्ण रूप में उपस्थित होता है । अपने सामाजिक कर्तव्य का पालन उसके लिए सहसा ही इस अर्थ का द्योतक हो गया है कि वह अपरिमित पाप तथा दु:ख--कष्टरूपी परिणाम के लिए अपनी सहमति दे; सामाजिक व्यवस्था और न्याय की रक्षा का परंपरागत साधन उलटे बड़ी भारी अव्यवस्था और संकट की ओर ले जाता प्रतीत होता है । न्यायसंगत दावे तथा स्वार्थ का नियम भी, जिसे हम न्याय्य अधिकार कहते हैं, यहाँ उसकी कोई सहायता नहीं करेगा ; कारण, यद्यपि यह सही है कि जो राज्य उसे अपने लिए, अपने बंधु-बांधवों तथा युद्ध में अपने पक्ष के लोगों के लिए जीतना है उसपर वास्तव में न्याय-पूर्वक उन्हीं का अधिकार है तथा उस अधिकार की बलपूर्वक स्थापना करने का अर्थ आसुरी अत्याचार का उन्मूलन और न्याय का प्रतिष्ठापन करना है, तथापि वह न्याय रक्त-रंजित न्याय होगा और वह राज्य एक ऐसा राज्य होगा जो शोका-
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कुल हृदय के साथ अधिकृत होगा तथा एक महापाप से, समाज की भयंकर हानि और जाति के प्रति ज्वलंत अपराध से कलंकित होगा । धर्म अर्थात् नैतिक दावे का विधान भी उसकी द्विविधा का कोई अधिक अच्छा समाधान नहीं करेगा; क्योंकि यहाँ धर्मों का परस्पर-विरोध उसके सामने उपस्थित है । उसकी समस्या के समाधान के लिए आवश्यकता है एक नये तथा महत्तर पर अद्यावधि कल्पना-तीत विधान की, परन्तु वह विधान क्या है ?
क्योंकि एक संभव समाधान, जिसकी कल्पना करना सुगम है तथा जिसे क्रियान्वित करना भी सहज है, यह है कि वह अपने कर्म से मुँह मोड ले, साधुओं कीसी अकर्मण्यता की शरण ले ले तथा असंतोषकारक उपायों और उद्देश्यों से युक्त इस अपूर्ण जगत् को आप ही अपनी सुध लेने के लिए अकेले छोड़ दे, पर यह तो जैसे-तैसे समस्या से पिंड छुड़ाना हुआ और भगवान् गुरु ने ऐसा करने की आग्रह-पूर्वक मनाही की हे । किन्तु इस जगत् के स्वामी, जो मनुष्य के सब कर्मों के स्वामी हैं और जिनका यह जगत् एक कर्मक्षेत्र है, मनुष्य से कर्म की मांग करते हैं, भले ही वह कर्म अहंभाव के द्वारा तथा सीमित मानव बुद्धि के अज्ञान या आंशिक प्रकाश की स्थिति में किया जाय अथवा वह अंतर्दर्शन तथा प्रेरणा के एक अधिक उच्च तथा अधिक विशाल दृष्टिवाले स्तर से प्रेरित हो । और फिर, एक और प्रकार का समाधान यह होगा कि युद्धरूपी इस विशेष कर्म को बुरा मानते हुए इसे त्याग दिया जाय जो कि अदूरदर्शी नैतिकता-प्रधान मन का बना-बनाया उपाय है, पर भगवान् गुरु इस प्रकार की टाल-मटोल के लिए भी अपनी सहमति नहीं देते । यदि अर्जुन कर्म का परित्याग कर दे तो उससे पाप और बुराई में अत्यधिक वृद्धि ही होगी : यदि इसका कुछ परिणाम हुआ भी तो वह होगा अन्याय और अनाचार की विजय तथा भगवत्कर्म के यंत्न के रूप में उसके अपने महाव्रत का परित्याग । जाति की भवितव्यता में जो तीव्र संकट उत्पन्न हो गया है उसका कारण शक्तियों की कोई अंध गति या मानवीय विचारों, स्वार्थों, आवेगों तथा अहंकारों का अस्तव्यस्त संघर्ष मात्र नहीं है बल्कि वह भगवदिच्छा है जो इन बाह्य प्रतीतियों के पीछे कार्य कर रही है । अर्जुन को इस सत्य का साक्षात्कार करा देना आवश्यक है; उसे अपनी क्षुद्र व्यक्तिगत कामनाओं तथा दुर्बल मानवीय जुगुप्साओं के यत्न के रूप में नहीं बल्कि एक अधिक विराट् तथा अधिक ज्योतिर्मय शक्ति एवं अधिक महत्तर सर्वज्ञ, दिव्य और वैश्व संकल्प के यंत्न के रूप में, निर्व्यक्तिक तथा अचल-अटल भाव के साथ कर्म करना सीखना होगा । उसे अपनी आत्मा को अपने अन्दर और बाहर विद्यमान ईश्वर के साथ परम-योग-युक्त करके, अपनी परम आत्मा तथा विश्व की अनुप्रेरक आत्मा के साथ एक अवि-
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चल योग के द्वारा युक्त होकर निर्वैयक्तिक और विश्वजनीन. भाव से कर्म करना होगा ।
परन्तु जबतक मनुष्य अहंभाव के द्वारा, यहाँतक कि बुद्धि और मानसिक प्रज्ञा के अर्द्ध-आलोकित अप्रबुद्ध सात्त्विक अहं के द्वारा नियंत्रित होता है तबतक इस सत्य को ठीक रूप में नहीं देखा जा सकता और इस प्रकार का कर्म न तो सही रूप में आरम्भ किया जा सकता है और न ही वह सच्चे अर्थों में ऐसा कर्म हो सकता है । क्योंकि यह आत्मा का सत्य है, यह आध्यात्मिक भित्ति पर से किया जानेवाला कर्म है । बौद्धिक नहीं वरन् आध्यात्मिक ज्ञान ही इस प्रकार के कर्मों के लिए अनिवार्य रूप से अपेक्षित है, वही इसका एकमात्र संभवनीय प्रकाश, माध्यम तथा अभिप्रेरक है । इसलिए सर्वप्रथम भगवान् गुरु यह दिखलाते हैं कि ये सब विचार और भाव जो अर्जुन को व्यथित, व्याकुल और विमूढ़ कर रहे हैं, हर्ष और शोक, कामना और पाप, कर्म के बाह्य परिणामों के द्वारा कर्म को नियंत्रित करने की मन की प्रवृत्ति, इस जगत् के साथ विश्वात्मा के व्यवहारों में जो चीजें भीषण और विकराल प्रतीत होती हैं उनसे मानुषी जुगुप्सा--ये सब प्राकृत अज्ञान के प्रति हमारी चेतना की अधीनता से उत्पन्न वस्तुएँ हैं, ये निम्नतर प्रकृति की कार्य-शैलियाँ हैं जिनमें ग्रस्त होकर जीव अपनेको एक पृथक् अहं के रूप में देखता है जो अपने ऊपर होनेवाली वस्तुओं की क्रिया के प्रति सुख-दुःख, पाप-पुष्य, शुभ-अशुभ, इष्ट-अनिष्ट, सौभाग्य-दुर्भाग्यरूपी द्वंद्वात्मक प्रति- क्रियाएँ करता है । ये प्रतिक्रियाएँ भ्रांति का एक विषम जाल बुनती हैं जिसमें जीव अपने ही अज्ञान के कारण खो जाता तथा विभ्रांत हो जाता है; उसे उन आंशिक एवं अपूर्ण समाधानों के अनुसार अपना परिचालन करना होता है जो सामान्य जीवन में साधारणत: लड़खड़ाते हुए, भूल-चूक और स्खलनों में से गुजरते हुए ही सहायता करते हैं, पर जब वे व्यापकतर दृष्टि तथा गभीरतर अनुभूति की कसौटी पर कसे जाते हैं तो अनुपयोगी सिद्ध होते हैं । कर्म और जीवन का वास्तविक अभिप्राय समझने के लिए मनुष्य को इन सब बाह्य प्रतीतियों से पीछे हटकर आत्मा के सत्य में प्रवेश करना होगा; यथार्थ विश्व-ज्ञान का आधार उपलब्ध कर सकने से पहले उसे आत्म-ज्ञान का आधार स्थापित कर लेना होगा ।
सर्वप्रथम आवश्यक साधन है-कामना और आवेश तथा विक्षोभकारी भावावेग के, मानव मनकी इस सब विक्षुब्ध तथा विकृतिकारी परिस्थिति के बोझ को आत्मा के पंखों पर से झाड़ फेंकना और इस प्रकार उसे इस सबसे मुक्त कर निर्विकार समता के आकाश में उड़ान लेना, निर्व्यक्तिक शांति के स्वर्ग में और वस्तु-विषयक अहंशून्य दृष्टि एवं अनुभूति में प्रवेश करना । क्योंकि, उस
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विशुद्ध ऊर्ध्वतर वायुमंडल में ही, आंधी-तूफान और बादल-बिजली से सर्वथा रहित स्तरों में ही आत्म-ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है और इस जगत् का विधान तथा प्रकृति का सत्य भी व्यापक दृष्टि के साथ, अविचल, सर्वग्राही तथा सर्व-वेधक प्रकाश में स्थिरतापूर्वक देखा जा सकता है । यह जो क्षुद्र व्यक्तित्व है, यह जो प्रकृति का असहाय यंत्न है, उसकी एक निष्क्रिय या फिर व्यर्थ-प्रतिरोधशील कठपुतली है तथा उसके सृष्टि-चक्र में एक गठित रूप है--इसके पीछे एक निर्व्यक्तिक आत्मा है जो सबमें एक ही है तथा सभी चीजों को देखती और जानती है; एक सम, तटस्थ, विश्वव्यापी उपस्थिति है जो सृष्टि का आश्रय है, एक साक्षी चेतना है जो प्रकृति को वस्तुओं की उनके अपने स्वभाव के अनुसार अभिव्यक्ति साधित करने के लिए अनुमति देती है, पर इसके लिए वह जिस क्रिया का सूत्रपात करती है उसमें न तो लिप्त होती है और न अपनेको खो ही देती है । अहंभाव तथा विक्षुब्ध व्यक्तित्व से पीछे हटकर इस स्थिर, सम, नित्य, विराट् तथा निर्व्यक्तिक आत्मा में प्रवेश करना ही दृष्टिसंपन्न यौगिक कर्म करने का प्रथम पग है; ऐसा कर्म उस भागवत सत्ता एवं निर्भ्रांत संकल्प के साथ सचेतन एकत्व की अवस्था में किया जाता है जो इस समय हमारे लिए कितना भी प्रच्छन्न क्यों न हो पर इस विश्व में प्रकट अवश्य होता है ।
जब हम निर्व्यक्तिक विशालता के धाम इस आत्मा में शांत भाव से सुस्थित हो जाते हैं, तब, क्योंकि यह बृहत्, स्थिर, शांत एवं निर्वैयक्तिक है, हमारा दूसरा क्षुद्र मिथ्याभूत स्व, हमारा कर्मशील अहं इसकी बृहत्ता में विलीन हो जाता है और हम देखते हैं कि प्रकृति ही कार्य करती है हम नहीं, समस्त कर्म प्रकृति का ही कर्म हैं और इसके सिवा वह कुछ हो भी नहीं सकता । और यह चीज जिसे हम प्रकृति कहते हैं क्रियारत शाश्वत सत्ता की विश्वव्यापी कार्यवाहक शक्ति है; वह सत्ता स्व-सृष्ट प्राणियों की इस या उस श्रेणी में तथा श्रेणी-विशेष के प्रत्येक व्यष्टि में उसकी अपनी प्राकृत सत्ता के निज आदर्श, 'स्वभाव' के अनुसार तथा उस स्वभाव से फलित होनेवाले उसके अपने निज व्यापार एवं कर्म-विधान, 'स्वधर्म' के अनुसार विभिन्न आकार और रूप ग्रहण करती है । प्रत्येक प्राणी अपनी प्रकृति के अनुसार ही कार्य करता है, उसके सिवा और किसी चीज के द्वारा वह कार्य कर भी नहीं सकता । अहंभाव, वैयक्तिक संकल्प और कामना विश्व-ऊर्जा के स्पष्ट-सचेतन रूपों तथा सीमित प्राकृत व्यापारों से अधिक कुछ नहीं हैं, पर स्वयं वह शक्ति रूपातीत और अनंत है तथा उन रूपों से अतीव परे है; बुद्धि और प्रज्ञा, मन, इंद्रिय, प्राण और शरीर, वे सब चीजें जिनपर हम गर्व करते हैं या जिन्हें हम अपनी मानते हैं, प्रकृति के करणोपकरण हैं तथा उसीकी
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रचनाएँ हैं । परन्तु निर्व्यक्तिक आत्मा कर्म नही करती और वह प्रकृति का भाग नहीं है : वह पीछे तथा ऊपर से कर्म का निरीक्षण करती है तथा अपना ईश बनी रहती है, मुक्त और निर्विकार ज्ञाता एवं साक्षी बनी रहती है । जो जीव इस निर्व्यक्तिकता में निवास करता है वह हमारी इस प्रकृति को यंत्न बनाकर किए जानेवाले कार्यों से स्पृष्ट नहीं होता; वह उनके प्रति या उनके परिणामों के प्रति हर्ष-शोक, कामना-जुगुप्सा, राग-द्वेष के द्वारा या हमें आकृष्ट, विचलित तथा उद्वेलित करनेवाले सैकड़ों द्वंद्वों में से किसी के भी द्वारा प्रतिक्रिया नहीं करता । वह सभी मनुष्यों, सभी वस्तुओं तथा सभी घटनाओं को सम दृष्टि से देखता है, प्रकृति के गुणों को गुणों पर क्रिया करते हुए देखता है, यांत्रिक क्रिया के संपूर्ण रहस्य का दर्शन करता है, पर स्वयं इन गुणों और अवस्थाओं से परे है, शुद्ध और निरपेक्ष मूल सत्ता है, निर्विकार, मुक्त और शांत है । प्रकृति अपना कर्म निष्पन्न करती है और निर्व्यक्तिक तथा विश्वगत आत्मा प्रकृति को धारण करती है पर ग्रस्त तथा आसक्त नहीं होती; लिप्त, विक्षुब्ध तथा विमूढ़ नहीं होती । यदि हम इस सम आत्मा में निवास कर सकें तो हम भी शांति और निर्वृति लाभ कर लेंगे; जबतक प्रकृति की प्रेरणा हमारे करणों में डेरा डाले रहती है तबतक हमारे कर्म जारी रहते हैं, और फिर भी आध्यात्मिक मुक्ति एवं निस्तब्धता हमें प्राप्त रहती है ।
तथापि आत्मा और प्रकृति का यह द्वैत, अर्थात् नि:स्पंद पुरुष और सक्रिय प्रकृति ही हमारी सत्ता का संपूर्ण सारसर्वस्व नहीं हैं; सच पूछो तो, ये इस विषय के दो अंतिम शब्द नहीं हैं । यदि ऐसा हो तो या तो आत्मा सब कर्मों के प्रति सर्वथा उदासीन होगी और इस या उस कर्म का अनुष्ठान अथवा कर्म से विरति सदा-परिवर्तनशील गुणों की किसी अवश प्रवृत्ति के द्वारा निर्धारित होगी,- या तो अर्जुन अपने करणों के किसी राजसिक आवेग के द्वारा युद्ध में प्रवृत्त होगा या वह तामसिक जड़ता या सात्विक उदासीनता के द्वारा उससे निवृत्त होगा,-- या फिर, यदि ऐसी बात है कि काम तो उसे करना ही होगा तथा करना भी इसी ढंग से होगा तो यह प्रकृति की किसी यांत्रिक नियति के कारण ही होगा । अपि च, क्योंकि जीव कर्म से पीछे हटने पर निर्व्यक्तिक निश्चल आत्मा में निवास करने लगगो तथा क्रियाशील प्रकृति में निवास करना बिलकुल छोड़ देगा, इसका अंतिम परिणाम होगा निश्चलता, नैष्कर्म्य, निवृत्ति, निष्क्यिता, न कि गीता के द्वारा आदिष्ट कर्म । और, अंत में, यह द्वैत इस प्रश्न का कोई वास्तविक समाधान नहीं प्रस्तुत करता कि भला जीव को प्रकृति तथा उसके कर्मों में मज्जित होने के लिए पुकार आती ही क्यों है; क्योंकि यह तो नहीं हो सकता कि नित्य-
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निर्लिप्त आत्म-सचेतन एकमेव आत्मा स्वयमेव मज्जित हो जाय तथा अपना आत्म-ज्ञान गंवा दे और फिर उसे वह ज्ञान पुन: प्राप्त करना पड़े । इसके विपरीत, यह शुद्ध आत्मा सदा विद्यमान रहती है, सदा एकरस रहती है, सदैव कर्म का एकमेव आत्म-सचेतन, निर्व्यक्तिक, पृथक्-स्थित साक्षी या तटस्थ भर्ता बनी रहती है । यह छिद्र ही, यह असंभव शून्यता ही हमें दो पुरुषों या एक पुरुष की दो अवस्थाओं की कल्पना करने के लिए विवश करती है, एक तो वह जो आत्मा के अंदर गुप्त रूप से विद्यमान है तथा अपनी स्वयंस्थित सत्ता से सब वस्तुओं का निरीक्षण करता है-या शायद किसी भी चीज का निरीक्षण नहीं करता, दूसरा वह जो अपनेको प्रकृति के अन्दर निक्षिप्त करता है तथा उसके कार्य में सहायता पहुँचाता है और उसकी रचनाओं के साथ अपनेको तदाकार कर देता है । परन्तु दो पुरुषों के द्वैत के द्वारा संशोधित किया हुआ आत्मा तथा प्रकृति या माया का यह द्वैत भी गीता का संपूर्ण दार्शनिक सिद्धान्त नहीं है । यह इनसे परे एक उच्चतम पुरुष, पुरुषोत्तम के सर्व-आलिंगी परम एकत्व तक पहुँचती है ।
गीता कहती है कि एक परम रहस्य है, एक उच्चतम सत्य है जो इन दो विभिन्न अभिव्यक्तियों के सत्य को धारण करता तथा समन्वित करता है । एक परात्पर आत्मा, ईश्वर एवं ब्रह्म है जो निर्व्यक्तिक और सव्यक्तिक दोनो है पर इनमें से प्रत्येक से इतर और महत्तर है और इन दोनों के समुच्चय से भी इतर तथा महत्तर है । वे पुरुष एवं आत्मा हैं हमारी सत्ता की अंतरतम सत्ता हैं पर साथ ही वे प्रकृति भी हैं; क्योंकि प्रकृति सर्वात्मा की शक्ति है, कर्म और सर्जन के लिए स्वयं प्रवृत्त होनेवाले सनातन एवं अनंत की शक्ति है । वे परम अनिर्वचनीय और विश्व-पुरुष ही अपनी प्रकृति के द्वारा इन सब प्राणियों का रूप धारण करते हैं । वे परमात्मा और परब्रह्म ही अपनी विद्या की माया तथा अविद्या की माया के द्वारा विश्व-रहस्य के द्विविध सत्य को अभिव्यक्त करते हैं । वे परम ईश ही, अपनी शक्ति के वे स्वामी ही इस संपूर्ण प्रकृति का तथा इन असंख्य सत्ताओं के समस्त व्यक्तित्व, बल-सामर्थ्य एवं कार्यकलाप का सृजन, प्रेरण और नियंत्रण करते हैं । प्रत्येक जीव इन स्वयंभू एकमेव को अंशभूत सत्ता है, इन सर्वात्मा की अंशभूत शाश्वत आत्मा है, इन परम ईश तथा इनकी विश्वप्रकृति की आशिक अभिव्यक्ति है । यहाँ सभी कुछ यह भगवान् ही है, यह परमेश्वर एवं वासुदेव ही है; क्योंकि प्रकृति के द्वारा तथा प्रकृतिगत पुरुष के द्वारा वे ही सर्वभूत बनते हैं और प्रत्येक वस्तु उन्हीं से उद्भूत होती तथा उनके अन्दर या उनके द्वारा स्थितरहती है, यद्यपि वे स्वयं किसी भी विशाल से विशाल
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अभिव्यक्ति, गभीर-से-गभीर अध्यात्म-सत्ता से एवं किसी भी विश्वमय रूप से अधिक महान् है । यही सत्ता का संपूर्ण सत्य है और यही विश्व-कर्म का समस्त रहस्य है । हम देख चुके हैं कि गीता के पिछले अध्यायों से यही रहस्य अधिकाधिक प्रकट होता आ रहा है ।
परन्तु यह महत्तर सत्य आध्यात्मिक कर्म के सिद्धान्त में कैसा परिवर्तन लाता है या यह उसपर कैसा प्रभाव डालता है ? सर्वप्रथम, यह उसे एक मूल बात में ही परिवर्त्तित कर देता है, जिससे कि आत्मा, जीव और प्रकृति के सम्बन्ध का सम्पूर्ण अर्थ ही बदल जाता है, यह एक नयी दृष्टि खोल देता है, सत्य ज्ञान में जहाँ-जहाँ छिद्र थे उन्हें भर देता है, एक महत्तर विशालता प्राप्त कर लेता है, एक ऐसा सच्चा अर्थ धारण कर लेता है जो आध्यात्मिक दृष्टि से सुनिश्चित तथा निर्भांत रूप में सर्वांगीण होता है । जगत् के सम्बन्ध में तब और हमारी यह धारणा नहीं रहती कि यह प्रकृति का एक निरा यंत्रवत् चलनेवाला गुणात्मक व्यापार एवं निर्धारण है, जब कि इसकी दूसरी ओर है एक ऐसी निर्व्यक्तिक स्वयं-स्थित सत्ता की निस्पन्दता जिसमें न तो आत्म-निर्धारण का गुण या सामर्थ्य है और न सृजन की क्षमता या प्रेरणा । इस असंतोष-जनक द्वैत के द्वारा खाली छोड़ दी गयी खाई भर जाती है और ज्ञान और कर्म तथा आत्मा और प्रकृति का उन्नायक एकत्व प्रकाशित हो जाता है । प्रशांत निर्व्यक्तिक आत्मा एक सत्य है,--वह भगवान् की स्थिरता एवं सनातन की नीरवता का सत्य है, परमेश्वर की समस्त जन्म, भूतभाव, कर्म और सृष्टि के बंधन से मुक्त अवस्था का, उनकी उस स्वयंभू सत्ता की स्थिर एवं अनंत मुक्तता का सत्य है जो उनकी सृष्टि के द्वारा बद्ध, विक्षुब्ध या प्रभावित नहीं होती और न उनकी प्रकृति की क्रिया-प्रतिक्रिया के द्वारा स्पृष्ट ही होती है । तब स्वयं प्रकृति भी हमारे लिए कोई अव्याख्येय माया, कोई पृथक्कृत एवं विपरीत दृग्विषय नहीं रहती, बल्कि सनातन की एक गति प्रतीत होती है, उसकी समस्त क्रिया और चंचलता, उसका समस्त बहुत्व अक्षर पुरुष और आत्मा को अनासक्त तथा साक्षिभूत शांति पर प्रतिष्ठित और सुधृत प्रतीत होता है । प्रकृति के ईश्वर एक ही साथ विश्व के 'एक' और 'बहु' आत्मा हैं तथा अपनी आशिक अभिव्यक्ति में वे ये सब बल, शक्तियाँ, चेतनाएँ, देवता, जीवजन्तु, पदार्थ और मनुष्य बनते हैं और यह सब होते हुए भी वे वहो अक्षर आत्मा बने रहते हैं । गुणात्मिका प्रकृति उनकी शक्ति को निम्नतर स्वत:-त सीमित क्रिया है; वह अपूर्ण-चेतन अभिव्यक्ति को प्रकृति है और अतएव वह एक प्रकार की अज्ञानमयी प्रकृति है । उसकी जो स्थूल शक्ति यहाँ बाह्य कर्म में निमग्न है उससे आत्मा का सत्य और भगवान् का सत्य बहुत कुछ उसी प्रकार छिपे रहते
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हैं जिस प्रकार मनुष्य की गभीरतर सत्ता उसकी बाह्य चेतना के ज्ञान से छिपी रहती है । जबतक प्रकृति के अन्दर अवस्थित जीव अंतर्मुख होकर इस गुप्त वस्तु को ढूंढने तथा अपने अन्दर पैठने का यत्न नहीं करता और अपने वास्तविक सत्यों, अपनी ऊँचाइयों तथा गहराइयों को नहीं खोज लेता तबतक आत्मा एवं भगवान् का सत्य उससे छिपा ही रहता है । यही कारण है कि उसे आत्म-ज्ञान पाने में समर्थ बनने के लिए अपने क्षुद्र वैयक्तिक एवं अहमात्मक 'स्व' से पीछे हटकर अपने विशाल, निर्व्यक्तिक, अक्षर, विश्वव्यापी आत्मा की ओर लौटना होता है । परन्तु परमेश्वर केवल उस आत्मा में ही नहीं बल्कि प्रकृति में भी विद्यमान हैं । वे प्रत्येक प्राणी के हृद्देश में विराजमान हैं और अपनी उपस्थिति से इस महान् प्रकृति-यंत्न के आवर्तनों का परिचालन कर रहे हैं । वे सबके अन्दर उपस्थित हैं, सब उनके अन्दर रहते हैं, सब कुछ स्वयं वे ही हैं क्योंकि सब कुछ उनकी सत्ता की संभूति है, उनकी सत्ता का अंश या रूप है । परन्तु यहाँ सब कुछ एक निम्नतर आंशिक क्रिया के द्वारा ही चल रहा है जो एक गुप्त, उच्चतर, महत्तर एवं पूर्ण-तर भागवत प्रकृति से, परमेश्वर की शाश्वत अनंत प्रकृति या पूर्ण आत्म-शक्ति, 'देवात्मशक्ति', से उद्भूत हुई है । यदि हम सदा भागवत कर्म तथा अपनी सत्ता के इस वास्तविक सत्य में निवास करें तो मानव के अन्दर छिपी हुई पूर्ण समग्र-चेतन आत्मा,--देवाधिदेव का सनातन अंश, सनातन भागवत पुरुष का अंशभूत आध्यात्मिक पुरुष-हमारे अन्दर उद्घाटित हो सकती है और साथ ही हमें भगवान् की ओर उद्घाटित भी कर सकती है । भगवान् के जिज्ञासु को अपनी अक्षर और शाश्वत निर्व्यक्तिक सत्ता के सत्य में प्रवेश करना होगा और साथ ही उसे सर्वत्र उन भगवान् को देखना होगा जिनसे वह उत्पन्न हुआ है, उन्हें सर्व के रूप में देखना होगा, इस सारी-की-सारी क्षर प्रकृति में तथा इसके हरएक भाग और हरएक परिणाम में तथा इसके .सभी कार्यों में देखना होगा, और इन सबमें भी उसे अपने-आपको भगवान् के साथ एक करना होगा, इनमें भी उसे भगवान् के अन्दर रहना होगा, इनमें भी उसे भागवत एकत्व के अन्दर प्रवेश करना होगा । इस तरह उस समग्रता में वह अपनी गभीर तात्विक सत्ता की दिव्य स्थिरता एवं स्वतंत्रता को अपनी दिव्यीकृत प्राकृत सत्ता के अन्दर रहनेवाली यंत्नात्मक कर्म की परमोच्च शक्ति के साथ एकीभूत कर देगा ।
परन्तु यह किया कैसे जाय ? सर्वप्रथम, इसे अपने कर्मसम्बन्धी संकल्प में यथार्थ भावना धारण करके संपन्न किया जा सकता है । जिज्ञासु के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने समस्त कर्म को उन सर्वकर्ममहेश्वर के प्रति यज्ञरूप
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समझे जो सनातन और विश्वव्यापी पुरुष है उसकी अपनी उच्चतम आत्मा तथा अन्य सबकी भी आत्मा हैं और जगत् के अन्दर परम सर्वांतर्यामी, सर्वाधार, सर्व-नियंता परमेश्वर हैं । प्रकृति का सम्पूर्ण कर्म ऐसा ही यज्ञ है,--यह वास्तव में पहले उन दिव्य शक्तियों को अर्पित होता है जो प्रकृति को गति देती तथा उसके अन्दर गति करती हैं, परन्तु वे शक्तियाँ एकमेव तथा असीम देव की केवल सीमित नामरूप ही हैं । साधारणत: मनुष्य अपना यज्ञ खुल्लमखुल्ला या छुपे रूप में अपने अहंभाव को ही अर्पित करता है; उसकी आहुति अपने अहं-संकल्प तथा अज्ञान की एक मिथ्या क्रिया ही होती है । अथवा वह अपना ज्ञान, कर्म, अभीप्सा, तथा बल-पौरुष के कार्य आंशिक, पार्थिव एवं वैयक्तिक उद्देश्यों के लिए नाना देवताओं के प्रति अर्पित करता है | इसके विपरीत, ज्ञानी मनुष्य एवं मुक्त जीव अपने सब कर्मों को फल के प्रति या अपनी निम्नतर वैयक्तिक कामनाओं की पूर्त्ति के प्रति लेश मात्र भी आसक्ति रखे बिना एकमेव सनातन भगवान् को अर्पित करता है । वह ईश्वर के लिए कर्म करता है, अपने लिए नहीं, विश्व-मंगल के लिए एवं विश्वात्मा के लिए कर्म करता है, अपने ही द्वारा गढ़े हुए किसी वैयक्तिक एवं विशिष्ट उद्देश्य के लिए या अपने मानसिक संकल्प द्वारा परिकल्पित किसी धारणा के लिए या अपनी प्राणिक लालसाओं के किसी लक्ष्य के लिए नहीं, भगवान् के एक माध्यम के रूप में कार्य करता है, जगद्-व्यवसाय में एक प्रधान तथा स्वतंत्र व्यवसायी के रूप में नहीं । और यह ध्यान में रहे कि यह एक ऐसा कार्य है जो केवल उसी हद तक किया जा सकता है जिस हद तक हमारा मन समता, विश्वमयता, विशाल निर्व्यक्तिकता एवं आग्रहशील अहं के प्रत्येक छद्मवेश से सुस्पष्ट मुक्ति लाभ कर लेता है, इन चीजों के बिना यह वास्तव में किया ही नहीं जा सकता : क्योंकि इनके बिना इस प्रकार कार्य करने का दम भरना केवल एक भ्रम या धोखा ही है । इस जगत् का समस्त कर्म विश्व के अधीश्वर का कर्म है, स्वयंभू परमेश्वर का कार्य-व्यापार है, स्वयं यह जगत् प्रकृति के अंदर उन्हीं की अविच्छिन्न सृष्टि तथा विकासशील संभूति है, अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति एवं जीवंत प्रतिमूर्त्ति है । फल उन्हीं के हैं, परिणाम भी वही होते हैं जिन्हें वे निर्धारित करते हैं और जहांतक हमारा वैयक्तिक कर्म अहंपूर्ण दावे से प्रेरित होता है वहांतक यह केवल एक तुच्छ योगदान ही होता है । हमारे अंदर के परम पुरुष और परमात्मा सबके अन्दर अवस्थित पुरुष एवं आत्मा हैं और वे हमारे अहंभाव के लिए नहीं बल्कि जागतिक उद्देश्य, एवं जगत्कल्याण के लिए वस्तुओं का परि-चालन करते हैं, वे ही हमारे कर्म को नियंत्रित या निराकृत करते हैं । निर्वैय-क्तिक तथा निष्काम भाव से और कर्मफल की आसक्ति के बिना, ईश्वर और जगत्
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तथा महत्तर आत्मा के लिए एवं विश्व-संकल्प की परिपूर्त्ति के लिए कर्म करना ही मुक्ति और सिद्धि का पहला सोपान है ।
परन्तु इस सोपान के परे एक और महत्तर गति है, अपने अंत:-स्थित भगवान् के प्रति अपने सब कर्मों का आंतरिक समर्पण । क्योंकि, अनंत प्रकृति ही हमारे कर्मों को प्रेरित करती है और उसके अन्दर तथा ऊपर अवस्थित ईश्वरीय संकल्प ही हमसे कर्म की मांग करता है; हमारा अहंभाव कर्म के सम्बन्ध में जो चुनाव करता है या यह उसे जो रूप प्रदान करता है वह हमारे सत्त्व, रज, तम-रूपी गुण का अंशदान है, निम्नतर प्रकृति से जनित विकृति है । इस विकृति के पैदा होने का कारण यह है कि अहं अपने-आपको कर्ता समझता है; कर्म की धारा सीमित वैयक्तिक प्रकृति का रूप धारण कर लेती है और जीव उससे तथा उसके संकीर्ण रूपों से बंध जाता है और कर्म को अपने अंतर की असीम शक्ति से शुद्ध और स्वच्छंद रूप में प्रवाहित नहीं होने देता । अहं कर्म और उसके परिणाम से आबद्ध हो जाता है; जैसे वह कर्म आरम्भ करने का दायित्व लेने तथा उसके लिए वैयक्तिक संकल्प करने का दावा करता है वैसे ही उसे वैयक्तिक परिणाम और प्रतिफल को भी भोगना पड़ता है । मुक्त और पूर्ण कर्म तो तभी किया जा सकता है यदि पहले हम अपना कर्म तथा उसका आरम्भ अपनी सत्ता के दिव्य स्वामी के प्रति निवेदित करें और फिर अंत में उसे पूर्ण रूप से उन्हें समर्पित कर दें; क्योंकि हम अनुभव करते हैं कि हमारे अंदर अवस्थित परम उपस्थिति उसे उत्तरोत्तर अपने हाथ में ले रही है, हमारी अंतरात्मा एक आंतरिक शक्ति तथा देवत्व के साथ प्रगाढ़ सान्निध्य तथा घनिष्ठ एकत्व में लीन होती जा रही है और कर्म सीधे महत्तर आत्मा से, सनातन सत्ता की सर्वज्ञ, अनंत, विश्वगत शक्ति से निःसृत हो रहा है, क्षुद्र व्यक्तिगत अहं के अज्ञान से नहीं । तब भी कर्म का चुनाव तथा गठन तो प्रकृति के अनुसार ही होता है पर वह होता है पूर्ण रूप से हमारी प्रकृति के अन्दर विद्यमान भगवत्संकल्प के द्वारा, और अतएव उसका बाह्य रूप चाहे जो हो पर वह अंदर से मुक्त और पूर्ण ही होता है । वह अनंत की इस आभ्यंतर आध्यात्मिक छाप को लेकर आता है कि यही करणीय कार्य है, 'कर्तव्यं कर्म', कर्म और उसका एक-एक पग कर्म के सर्वज्ञ स्वामी की गति-विधियों में नियत हुआ रहता है । मुक्त व्यक्ति जब अपनी करणात्मक व्यक्तिगत सत्ता को तथा अपनी प्रकृति के विशेष संकल्प एवं बल को कर्म का साधन तथा निमित्त बनाकर उसमें योगदान करता है तब भी उसकी आत्मा अपनी निर्व्यक्तिकता में मुक्त रहती है । वह संकल्प एवं बल तब उसका पृथक् तथा अहंमय रूप से अपना निजी नहीं होता, बल्कि वह उन अतिव्यक्तिक ( Supraper-
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sonal) भगवान् का होता है जो अपनी आत्मा की इस अभिव्यक्ति में, अपने असंख्य व्यक्तित्वों में से अन्यतम इस व्यक्तित्व में इसके अपने स्वभाव के द्वारा (प्राकृत सत्ता के विशिष्ट भाव के द्वारा ) कर्म करते हैं । यह मुक्त पुरुष के कर्म का उत्तम 'गुह्य' और रहस्य है, 'उत्तमं रहस्यम् ।' यह भागवत ज्योति के अन्दर मानव आत्मा के विकसित हो जाने का तथा परमोच्च विश्व-प्रकृति के साथ अपनी प्रकृति का ऐक्य साधित कर लेने का फल है ।
यह परिवर्तन ज्ञान के बिना साधित नहीं हो सकता । आत्मा, ईश्वर तथा जगत् का यथार्थ ज्ञान आवश्यक है और साथ ही उस ज्ञान से उपलब्ध महत्तर चेतना में निवास करना तथा विकसित होना भी । यह तो अब हमें पता लग ही चुका है कि वह ज्ञान क्या है । इतना स्मरण रखना पर्याप्त है कि यह मानवीय मानसिक दृष्टि से भिन्न और विशालतर एक और ही दृष्टि पर एक परिवर्तित दृष्टि एवं उपलब्धि पर आधारित है जिसके द्वारा मनुष्य सर्वप्रथम अहंबुद्धि और उसके समस्त सम्बन्धों की संकीर्णताओं से मुक्त हो जाता है, सबके अन्दर एक ही आत्मा को तथा ईश्वर के अन्दर सबको अनुभव करता और देखता है, सब भूतों को वासुदेव, सबको भगवान् के वाहन तथा अपनी आत्मा को भी उन एक परमेश्वर की अंशभूत अर्थपूर्ण सत्ता तथा आत्म-शक्ति के रूप में अनुभव करता और देखता है । एक आध्यात्मिक एकीकारक चेतना में यह ज्ञान दूसरों के जीवनों की सब घटनाओं को ऐसे समझता है मानों वे मनुष्य के अपने ही जीवन की घटनाएँ हों | यह भेद की दीवार को नहीं खड़ी होने देता और सब भूतों के प्रति सार्वभौम सहानुभूति का भाव रखता है, जब कि जगद्वव्यापार के बीच वह 'सर्व-भूतहित' के लिए कर्तव्य कर्म फिर भी करता रहता है, पर करता है भगवान् के द्वारा नियत पद्धति के अनुसार तथा काल के अधीश्वर परमात्मा के आदेश द्वारा निर्धारित सीमा के भीतर । इस प्रकार इस ज्ञान में रहते और कर्म करते हुए मनुष्य की आत्मा सनातन के साथ, उनके वैयक्तिक और निर्व्यक्तिक दोनों रूपों के साथ एकमय हो जाती है, जिस प्रकार स्वयं सनातन प्रभु कर्म करते हैं उसी प्रकार काल में कर्म करती हुई भी वह आत्मा सनातन में निवास करती है और मुक्त, सिद्ध तथा आनंदमय बनी रहती है, भले ही प्रकृति के अन्दर किये गये कर्म का रूप और निर्धारण कैसा भी क्यों न हो ।
मुक्त पुरुष पूर्ण ज्ञानी, 'कृत्स्नविद्', होता है और मन की बनायी हुई किसी प्रकार की भी नियम-मर्यादा के बिना, अपने अंत: -स्थ दिव्य संकल्प की सामर्थ्य, स्वतंत्रता तथा असीम शक्ति के अनुसार सभी कर्म करता है, 'कृत्स्नकृत् ।' और क्योंकि वह सनातन के साथ योग-युक्त होता है, उसे भी अपनी सनातन सत्ता
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का शुद्ध, आध्यात्मिक और नि:सीम आनंद प्राप्त रहता है । वह उन परमात्मा की ओर, जिसका वह् एक अंश है, तथा अपने कर्मों के स्वामी एवं अपनी आत्मा और प्रकृति के दिव्य प्रेमी की ओर भक्तिभाव के साथ उन्मुख होता है, उनका भजन-पूजन करता है । वह केवल शांत और निर्विकार द्रष्टा ही नहीं होता; वह केवल अपने ज्ञान एवं संकल्प को ही नहीं बल्कि प्रेम, भक्ति और संवेग से पूर्ण अपने हृदय को भी शाश्वत की ओर ऊपर उठाता है । कारण, हृदय को इस प्रकार उठाये बिना उसकी संपूर्ण प्रकृति ईश्वर से परिपूरित और एकीभूत नहीं हो सकती; आत्मा की शान्ति की मस्ती को अंतरात्मा के आनंद की मस्ती के द्वारा रूपांतरित करना आवश्यक है । व्यक्तिरूप जीव तथा निर्व्यक्तिक ब्रह्म या आत्मा के परे वह उन विश्वातीत पुरुषोत्तम को प्राप्त करता है जो निर्व्यक्तिकता में अक्षर हैं और व्यक्तित्व में अपने-आपको चरितार्थ करते हैं और इन दो भिन्न प्रकार के आकर्षणों के द्वारा हमें अपनी ओर खींचते है । मुक्त साधक भगवान् के प्रति अपनी अंतरात्मा के प्रेम और प्रीति के द्वारा तथा कर्मों के स्वामी के प्रति अपने अंतरस्थ संकल्प की आराधना के द्वारा व्यक्तिगत रूप में उस उच्चतम परम पद की ओर उठ जाता है, इन परात्पर और विश्वमय परमेश्वर की स्वयंस्थित, समग्र, घनिष्ठ और अंतरंग सत्ता में उसे जो आनंद प्राप्त होता है उसके द्वारा उसके निर्व्यक्तिक विश्व-ज्ञान को शान्ति एवं विशालता पराकाष्ठा को पहुँच जाती है । यह आनन्द उसके ज्ञान को महिमामय बना देता है तथा उसे परमात्मा के आत्मगत एवं अभिव्यक्तिगत शाश्वत आनंद से एकीभूत कर देता है; यह भागवत पुरुष की अति-व्यक्तिकता में उसके व्यक्तित्व को भी सर्वांगसंपन्न बना देता है । और उसकी प्रकृतिगत सत्ता एवं कर्म को शाश्वत सौन्दर्य, नित्य सामंजस्य तथा सनातन प्रेम और आनंद के साथ एकमय कर देता है ।
परन्तु इस सब परिवर्तन का अर्थ है निम्न मानव-प्रकृति को छोड़कर, पूर्ण रूप से, उच्चतर दिव्य प्रकृति में चले जाना । यह अपनी संपूर्ण सत्ता को या, कम-से-कम, संकल्प, ज्ञान तथा वेदन करनेवाली अपनी सारी मनोमय सत्ता को, हम जो कुछ हैं उससे ऊपर उठाकर किसी उच्चतम अध्यात्म-चेतना में, सत्ता की किसी तृप्तिकारी पूर्णतम शक्ति में, आत्मा के किसी गभीरतम एवं विशाल- तम आनंद में ले जाना है । यह परिवर्तन भलीभाँति संपन्न हो सकता है यदि हम अपने वर्तमान प्राकृत जीवन को अतिक्रम कर जायँ अथवा पार्थिव जीवन से परे किसी स्वर्गिक अवस्था में या और भी परे किसी विश्वातीत अतिचेतना में पहुँच जायें; यह परिवर्तन तब भी घटित हो सकता है यदि हम परमात्मा की परम और अनंत शक्ति एवं परम और अनंत पद में संक्रमण कर जायं । परन्तु
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जब हम यहाँ देह और प्राण में अवस्थित हैं, कर्म में रत हैं .तब, इस परिवर्तन में, निम्नतर प्रकृति की क्या अवस्था होती है ? क्योंकि इस समय हमारे सब कर्मों की दिशा एवं रूप का निर्धारण प्रकृति ही करती है, और यह प्रकृति यहाँ त्रिगुणात्मिका प्रकृति है, और समस्त प्राकृत सत्ता में तथा प्रकृतिगत सभी कार्यों में ये तीन गुण विद्यमान रहते हैं,--अज्ञान और जड़ता से युक्त तम, गति और क्रिया से तथा आवेग, दुःख और विकार से युक्त रज, प्रकाश और सुख से युक्त सत्त्व ; और फिर समस्त प्राकृत सत्ताओं और कर्मों में इन चीजों का बंधन भी रहता ही है । मान लिया कि जीव अपनी अंत:सत्ता में त्रिगुण से ऊपर उठ जाता है फिर भी यह प्रश्न उठता है कि अपनी यंत्न-स्वरूप प्रकृति में वह उनके व्यापार, परिणाम तथा बंधन से किस प्रकार मुक्त होता है । कारण, गीता कहती है कि ज्ञानी मनुष्य को भी अपनी प्रकृति के अनुसार कर्म करना ही होगा । बाह्य अभिव्यक्ति में गुणों की प्रतिक्रिया को अनुभव तथा सहन करना, पर पीछे अव-स्थित साक्षिस्वरूप चेतन आत्मा में उनसे मुक्त तथा अतीत रहना ही पर्याप्त नहीं है, क्योंकि स्वतंत्रता और अधीनता का द्वैत, जो कुछ हम भीतर हैं और जो कुछ हम बाहर हैं उनमें अर्थात् हमारी आत्मा और शक्ति में विरोध, अपनी सत्ता का जैसा-कुछ स्वरूप हम जानते हैं तथा हम जो संकल्प एवं कर्म करते हैं उनमें विरोध फिर भी बना रहता है । इसमें मुक्ति है ही कहाँ, उच्चतम आध्यात्मिक प्रकृति में पूर्ण आरोहण तथा रूपान्तर है ही कहाँ, शाश्वत धर्म, भागवत सत्ता की अनंत पवित्रता एवं शक्ति का निज धर्म है ही कहाँ ? यदि इस देह में रहते हुए यह परिवर्तन साधित नहीं किया जा सकता तब तो यह कहना होगा कि सम्पूर्ण प्रकृति का रूपान्तर करना संभव नहीं और जबतक जीवन का यह मर्त्य ढांचा केंचुली की न्याई आत्मा से उतरकर अलग नहीं हो जाता तबतक यह द्वंद्व ज्यों-का-त्यों बना रहेगा, कभी सुलझेगा नहीं । पर यदि ऐसा हो तो कर्म का सिद्धान्त यथार्थ नहीं हो सकता या कम-से-कम वह चरम सिद्धान्त तो नहीं ही हो सकता : तब तो पूर्ण निस्तब्धता या, कम-से-कम, एक यथासंभव पूर्ण निस्तब्धता, उत्तरोत्तर वर्धमान संन्यास और कर्मत्याग ही पूर्णत्व-प्राप्ति के लिए एक सच्ची शिक्षा प्रतीत होगा,--वास्तव में मायावादी की भी यही स्थापना है, वह कहता है कि जबतक हम कर्मों के बीच रहते हैं तबतक गीता का मार्ग निःसंदेह समीचीन है, पर फिर भी कर्म माल भ्रम है और निस्तब्धता ही सर्वोच्च पथ । इस भावना से कर्म करना उत्तम अवश्य है पर कर्मत्याग, निवृत्ति एवं पूर्ण निस्पन्दता तक पहुँचने के एक सोपान के रूप में ही ।
यही वह कठिनाई है जिसका समाधान गीता को अभी करना है ताकि वह
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ईश्वरान्वेषक के लिए कर्मों का औचित्य सिद्ध कर सके । अन्यथा उसे अर्जुन को कहना होगा कि ''कुछ समय तक इस ढंग से कर्म कर, पर बाद में कर्मत्याग के उच्चतर पथ का अनुसरण कर ।'' परन्तु, इसके विपरीत, उसने कहा है कि कर्मों का त्याग नहीं वरन् कामना का त्याग ही श्रेयस्कर मार्ग है; उसने मुक्त पुरुष के कर्म की भी चर्चा की है, 'मुक्तस्य कर्म ।' यहाँतक कि उसने सभी कर्मों के अनुष्ठान का आग्रह किया है, 'सर्वाणि कर्माणि, कृत्स्नकृत्;' उसने कहा है कि सिद्ध योगी चाहे जिस भी तरह से रहे, चाहे जिस भी तरीके से कर्म करे, वह सदा ईश्वर में ही रहता और कर्म करता है । यह तभी हो सकता है यदि प्रकृति भी अपनी गतिशक्ति तथा कार्य-व्यापार में दिव्य बन जाय, एक ऐसी शक्ति बन जाय जो अविचल, निर्लेप, निर्विकार एवं विशुद्ध हो तथा अपरा प्रकृति की प्रतिक्रियाओं से विक्षुब्ध न होने पाये । यह अत्यंत कठिन रूपान्तर किस प्रकार तथा किन क्रमों के द्वारा साधित हो सकता है ? जीव के सिद्धि-लाभ का यह अन्तिम रहस्य क्या है ? हमारी मानवीय एवं पार्थिव प्रकृति के इस रूपान्तर का मूलसूत्र वा प्रक्रिया क्या है ?
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