Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita.
Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.
आर्य क्षत्रिय-धर्म १
अर्जुन की वेगवती शंकाओं की जो पहली बाढ़ आयी-जिसमें उसका चित्त संहार-कर्म से हट गया, जिसमें उसे दुःख और पाप ही दीखने लगा, जीवन शून्य और निस्सार प्रतीत होने लगा, पाप-कर्म से भविष्य में होनेवाले पापमय परिणाम दिखायी देने लगे-उनका एक ही उत्तर भगवान् श्रीगुरु ने दिया और वह था एक बड़ी फटकार । उन्होंने कहा कि यह सब उसके मन की उथल-पुथल है, मन का भ्रम है, उसके हृदय का दौर्बल्य है, कापुरुषता है, उसके अपने क्षात्र तेज से, शूरवीर के पौरुष से च्युत होना है । यह पृथा के पुत्र को शोभा नहीं देता । धर्म-कार्य के प्रधान रक्षक को, जिसपर उसके सफल होने का सारा भरोसा है, ऐन मौके पर, ऐसे विकट संकट-काल में अपने हृदय और इन्द्रियों के विद्रोह के वश होकर उसे छोड़ देना ठीक नहीं और न यह उसके लिये उचित है कि अपनी विवेक-बुद्धि पर परदा पड़ने दे और अपने संकल्प से च्युत होकर देवप्रदत्त गांडीव धनुष आदि शस्त्रों को नीचे रखकर भगवान् के सौंपे हुए कर्म को करने से मुंह फेर ले । यह आर्यो की रीति नहीं है, यह भाव न तो स्वर्ग से आया है, न स्वर्ग ले जानेवाला है । और, इस लोक में यह उस कीर्ति का नाश करनेवाला है जो बल, वीर्य, पराक्रम और उदार कर्म से ही प्राप्त हुआ करती है । इसलिए यही उचित है कि वह इस दुर्बल और आत्मकेंद्रित दया को त्यागकर अपने शत्रुओं का संहार करने के लिये उठ खड़ा हो ।
क्या हम कहेंगे कि यह तो एक वीर का दूसरे वीर को वीरोचित उत्तर है, लेकिन ऐसा नहीं जिसकी हम भागवत गुरु से आशा करते हैं; क्योंकि ऐसे गुरु से तो यही आशा की जाती है कि वे सदा मृदुता, साधुता एवं आत्मत्याग के भावों को तथा सांसारिक ध्येयों और दुनियादारी से विरक्ति के भाव को ही प्रोत्साहित करेंगे । गीता स्पष्ट कहती है कि अर्जुन अवीरोचित दुर्बलता में जा पड़ा था, ''उसके नेत्र आकुल और अश्रुपूर्ण हो गये थे, उसका हृदय विषाद से भर गया था,'' कारण वह ''कृपाविष्ट''--कृपा से आक्रांत हो गया था । तब क्या यह दैवी
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१ गीता द्वितीय अध्याय १-३८
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दुर्बलता नहीं थी ? कृपा क्या दैवी भावावेग नहीं है, इस प्रकार की कृपा को क्या ऐसी कड़ी फटकार के साथ निरुत्साहित करना चाहिए ? अथवा हम किसी ऐसी शिक्षा के सामने तो नहीं आ पड़े जो केवल युद्ध और वीर कर्म का ही उपदेश देती हो, जो नीत्शे के सिद्धान्त जैसी हो, जिसका ताकत और गर्वोन्मत्त बल ही एकमात्र धर्म है, जो इब्रानी और पुराने टयुटानिकों की कठोरता की तरह हो जिसमें कृपा एक दुर्बलता समझी जाती है और जो उस नारवेजियन वीर के भाव में चिंतन करती है जो ईश्वर को इसलिये धन्यवाद देता था कि उसने उसको एक कठोर हृदय दिया था ? परन्तु गीता का उपदेश भारतीय धर्म से निकला है और भारतीयों के लिये करुणा सदा से ही दैवी प्रकृति का एक प्रधान अंग मानी गयी है । आगे चलकर स्वयं भगवान् ही एक अध्याय में दैवी प्रकृति की संपदाओं को गिनाते हुए प्राणिमात्र पर दया, मृदुता, अक्रोध, अहिंसा आदि गुणों को अभय, वीर्य और तेज के बराबर ही आवश्यक बतलाते हैं । क्रूरता, कठोरता, भयानकता और शत्रुओं के वध में हर्ष, धन-संचय और अन्यायपूर्ण भोग आसुरी गुण हैं; इनकी उत्पत्ति उस प्रचण्ड आसुरी प्रकृति से होती है जो जगत् में और मनुष्य में भगवान् की सत्ता नहीं मानती और कामना को ही अपना आराध्य देंव जानकर पूजती है । तो ऐसे किसी दृष्टिकोण से अर्जुन की दुर्बलता फटकारी जाने लायक नहीं है ।
''यह विषाद, यह कलंक, यह अज्ञान ऐसे विकट संकट के समय तुझमें कहाँसे आया?''१ श्रीकृष्ण अर्जुन से पूछते हैं । प्रश्न का इशारा है अर्जुन के अपने वीर स्वभाव से स्खलित होने के वास्तविक स्वरूप की ओर । एक देवी करुणा होती है जो हमपर ऊपर से उतरती है और जिस मनुष्य की प्रकृति में यह दया नहीं है, जिसका चरित्र इस दया के साँचे मे ढला हुआ नहीं है उसका अपने-आपको श्रेठ्ठ मनुष्य, सिद्ध पुरुष या अतिमानव बतलाना मूर्खता और घृष्टतामात्र है, कारण अतिमानव उसीको कहना चाहिये जिसके द्वारा मानव-जाति के अन्दर भगवान् का उच्चतम स्वभाव व्यक्त होता है । यह करुणा युद्ध और संघर्ष, मनुष्य की ताकत और दुर्बलता, उसके पुण्य और पाप, उसके सुख और दुःख, उसके ज्ञान और अज्ञान, उसकी बुद्धिमत्ता और मूर्खता, उसकी अभीप्सा और असफलता, इन सभी द्वंद्वों को प्रेम की, ज्ञान की और स्थिर सामर्थ्य की दृष्टि से देखती है और उनमें प्रवेश करके सबकी सहायता करती और सबके क्लेश का निवारण करती है । साधु पुरुषों और परोपकारियों में यह दया प्रेम या उदारता की प्रचुरता के रूप में मूर्त होती हे; विचारकों और
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वीरों में यह सहायक ज्ञान एवं बल की विशालता तथा शक्ति का रूप धारण करती है । आर्य योद्धा में यह करुणा ही उसके शौर्य का प्राण होती है, जो किसी मरे को नहीं मारा करती, बल्कि दुर्बल, दीन, पीड़ित, पराभूत, आहत और गिरे हुए की सहायता और रक्षा करती है । परन्तु वह भी दैवी करुणा ही है जो बलशाली पीड़क और धृष्ट अत्याचारी को मार गिराती है, क्रोध और घृणा से नहीं,--क्योंकि क्रोध और घृणा कोई बड़े दैवी गुण नहीं हैं पापियों पर ईश्वर का कोप, दुष्टों से ईश्वर की घृणा इत्यादि बातें अर्द्ध-प्रबुद्ध संप्रदायों की वैसी ही कल्पित कहानियाँ हैं जैसी उनकी ईजाद की हुई बाह्य नरकों की नानाविध स्थूल यंत्रणाओं की कहानियाँ । जैसा कि प्राचीन आध्यात्मिकता ने स्पष्ट रूप से देखा, यह दैवी करुणा जब बल के मद से मत्त पापी दैत्य की हत्या करती है तब भी इसमें वही प्रेम और अनुकंपा होती है जो प्रेम और अनुकंपा उन दीन-दुखियों और पीड़ितों पर होती है जिन्हें उस दैत्य की हिंसावृत्ति और अन्याय से इसे बचाना है ।
परन्तु जो दया अर्जुन को उसके कर्म और जीवन के लक्ष्य का परित्याग करने के लिये उकसा रही है वह दैवी करुणा नहीं है । वह दया ही नहीं है, बल्कि दुर्बल आत्मदया से परिपूर्ण नपुंसकता है । जो कर्म उसके सामने उपस्थित है उसके फलस्वरूप जो मानसिक यंत्रणा उसे भोगनी पड़ेगी वह उससे बचना चाहता है, वह कहता है कि, ''मेरी इन्द्रियों को सुखानेवाले इस शोक को मैं कैसे दूर करूँ, यह मेरी समझ में नहीं आता,''१ यह आत्मदया अत्यंत तुच्छ और अनार्य भावों में गिनी जाती है । इसमें जो दूसरों के सुख के लिये कृपा का भाव है वह भी एक प्रकार की आत्म-तुष्टि ही है, यह स्नायुओं का हत्याकाण्ड से पीछे हटना है, धार्त्तराष्ट्रों के संहार-कार्य से उसके चित्त का अहमात्मक और भावावेगमय संकोच है, क्योंकि ये लोग उसके स्वजन हैं और इनके बिना तो जीवन ही शून्य हो जायगा । यह दया मन और इन्द्रियों की दुर्बलता है जो उन लोगों के लिये अच्छी है जो अभी अपने विकास के निम्न स्तर पर हैं, जिन्हें दुर्बल होना ही चाहिये अन्यथा वे क्रूर और कठोर बन जायँगे; उन्हें अपने संवेदनात्मक अहंकार के कठोर रूपों को अपने कोमल स्वभाव के द्वारा ठीक करना पड़ता है, प्रकाशमय तत्व अर्थात् सत्वगुण की सहायता के लिये दुर्बल और आलसी तत्व अर्थात् तमोगुण का इसलिए आवाहन करना पड़ता है कि वह राजसिक आवेशों और ज्यादतियों को दबाये रहे । पर यह मार्ग उस उन्नत आर्य पुरुष का नहीं है जिसको दुर्बलता के रास्ते से नहीं, बल्कि अधिकाधिक बलवान् होकर ही आगे
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बढ़ना है । अर्जुन देवनर है, नरश्रेष्ठ बनाये जाने की प्रक्यिा में है और इसलिए देवताओं ने उसे चुना है । उसे एक काम सौंपा गया है, उसके समीप उसके रथ पर स्वयं भगवान् विराजमान हैं, उसके हाथों में दिव्य गांडीव धनुष है और अधर्म के नेता, संसार में भगवान् के नेतृत्व के विरोधी उसके सामने खड़े हैं । उसे यह अधिकार नहीं है कि अपने भावावेगों और आवेशों के अनुसार कर्म और अकर्म का निर्णय करे, या अपने अहंपरायण हृदय और बुद्धि की बात मानकर एक आवश्यक संहार-कर्म से हट जाय, अथवा यह सोचकर अपने कर्तव्य कर्म से विरत हो कि इससे जीवन दु:खमय और सारहीन हो जायगा या चूंकि इस संग्राम में जिन लाखों प्राणियों का विनाश होगा उनके वियोग के कारण इसके लौकिक परिणाम का उसकी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं । यह सब उसका अपने उच्चतर स्वभाव से दुर्बलतावश अधःपतन है । उसका अधिकार बस अपने ''कर्तव्य कर्म'' को देखने का है, उसे चाहिए कि केवल भगवान् के उस आदेश को सुने जो उसके क्षात्र-स्वभाव में से होकर दिया जा रहा है और यही अनुभव करे कि जगत् और मानव-जाति का भवितव्य उसे अपना देव-प्रेषित मनुष्य जानकर इसलिए पुकार रहा है कि वह जगत् और मानव-जाति के आगे बढ़ने में सहायक हो और अंधकार का पक्ष लेनेवाली जो शत्रु-सेनाएं मार्ग को रोके हुई हैं, उन्हें मार भगावे ।
अर्जून श्रीकृष्ण को उत्तर देते हुए फटकार को स्वीकार करता है, हालाँकि अब भी वह उनके आदेश का पालन करने से हिचकता और इनकार करता है । वह अपनी दुर्बलता को जानता है, फिर भी उसके अधीन होकर रहना चाहता है । उसके हृदय की कृपणता ने उसके असली वीर स्वभाव को पराभूत कर दिया है; उसकी सारी चेतना धर्मसंमूढ़ हो गयी है और वह अपने सखा भगवान् को अपने गुरुरूप से वरण करता है; परन्तु उसने अपने धर्म-ज्ञान का समर्थन जिन भावावेगमय और बौद्धिक आधारों पर किया था, वे एकदम गिर गये हैं और वह गुरु के ऐसे आदेश को नहीं स्वीकार कर सकता जो उसकी नजर में उसके पुराने दृष्टिकोण के जैसा ही है और कर्म-संबंधी कोई नया आधार नहीं देता । इसलिए अब भी वह उपस्थित कर्म न करने की बात का ही समर्थन करने की चेष्टा करता है और उसकी पुष्टि में अपनी स्नायवीय और संवेदनात्मक सत्ता के दावे को उपस्थित करता है जो इस हत्याकाण्ड से और इसके रक्त से सने हुए भोगों के परिणाम से कांपती है, अपने हृदय के दावे को उपस्थित करता है जो इस संहार-कर्म से इसलिए पीछे हटता है कि इससे जीवन खोखला और उदास हो जायगा, अपने प्रचलित नैतिक विचारों के दावे को उपस्थित करता है जो इसलिए भयभीत हो गये हैं कि भीष्म और द्रोणाचार्य जैसे गुरुओं की हत्या करना
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आवश्यक होगा, अपनी तर्कबुद्धि के दावे को उपस्थित करता है जो उसको सौंपे गये भीषण और प्रचण्ड कर्म में कोई भी भलाई नहीं देखती, बल्कि जिसमें उसे बुराई-ही-बुराई नजर आती है । उसने यह निश्चय कर लिया है कि अबतक जिन विचारों और प्रेरक-भावों के आधार पर वह लड़ सकता था उनके आधार पर तो वह अब नहीं लड़ेगा और इस निश्चय के साथ वह मौन होकर बैठ गया और अपनी आपत्तियों के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा, वह समझता था कि इन आपत्तियों का कोई उत्तर नहीं हो सकता । श्रीकृष्ण सबसे पहले अर्जुन की अहमात्मक सत्ता के इन दावों का निराकरण करते हैं जिससे उसके अन्दर ऐसे उच्चतर धर्म के लिये स्थान खाली हो जाय जो कर्म के समस्त अहमात्मक प्रेरक हेतुओं से परे है ।
श्रीगुरु का उत्तर दो विभिन्न धाराओं पर चलता है । पहला संक्षिप्त उत्तर आर्य-संस्कृति की उच्चतम भावनाओं के आधार पर है जिसमें अर्जुन पला है, दूसरा, सर्वथा भिन्न प्रकार का और अधिक व्यापक है, उसका आधार है वह अधिक अंतरंग ज्ञान जो हमारी सत्ता के गभीरतर सत्यों में हमारा प्रवेश कराता है, और वही से गीता को वास्तविक शिक्षा आरंभ होती है । पहला उत्तर वेदांत-दर्शन की दार्शनिक और नैतिक धारणा पर तथा कर्तव्य और स्वाभिमान-संबंधी सामाजिक भावना पर अवलंबित था और ये ही थे आर्यो के समाज के नैतिक आधार । अर्जुन ने युद्ध करने से इनकार करते समय नैतिक और यौक्तिक कारण दिखाकर अपनी बात को पुष्ट करना चाहा, किन्तु इसमें उसने अपने अज्ञानी और अशुद्ध चित्त के विद्रोह को ऊपरी युक्तियों के शब्दजाल से ढक दिया है । उसने भौतिक जीवन और शरीर की मृत्यु के संबंध में ऐसी-ऐसी बातें कही हैं मानो ये ही मूल सद्वस्तु हों; परन्तु ज्ञानी और पंडितों की दृष्टि में इनका ऐसा कोई तात्विक मूल्य नहीं है । अपने सगे-संबंधियों और बंधु-बांधवों की शारीरिक मृत्यु का दुःख एक ऐसा शोक है जो बुद्धिमत्ता और जीवन के सच्चे ज्ञान की दृष्टि से अनुचित है । ज्ञानवान जीवन-मरण पर रोया नहीं करते, क्योंकि वे जानते हैं कि दुःख और मृत्यु आत्मा के इतिहास में सामान्य घटनाएं मात्र हैं । आत्मा ही सद्वस्तु है, शरीर नहीं । ये सब राजा जिनकी मृत्यु समीप जानकर अर्जुन शोक कर रहा है, इस जीवन के पहले भी जीते थे और आगे भी मनुष्य-रूप में जीयेगे; क्योंकि जीव जैसे शरीरत: कौमार से यौवन और यौवन से वार्द्धक्य की अवस्था को पहुंचता है वैसे ही वह शरीर परिवर्तन करता है । जो धीर है, जो विचारक है, जिसका मन अचंचल और ज्ञानी है, जो जीवन को स्थिर दृष्टि से देखता है और अपने इन्द्रियानुभवों और भावावेगों से विक्षुब्ध और अंधा नहीं
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होता उसे ये बाह्य भौतिक दृश्य धोखा नहीं दे सकते; उसके खून का, उसकी स्नायुओं का और उसके हृदय का कोलाहल उसके निर्णय पर परदा नहीं डाल सकता न उसके ज्ञान को अन्यथा कर सकता है । वह शरीर और इन्द्रियों के जीवन के बाह्य तथ्यों के परे जाकर अपनी सत्ता के वास्तविक तथ्य को देखता है । वह अज्ञानमय प्रकृति की भावावेगमय और भौतिक कामनाओं से ऊपर उठकर मानव-जीवन के एकमात्र सच्चे ध्येय में पहुँच जाता है ।
वास्तविक तथ्य क्या है ? वह परम ध्येय क्या है ? यह कि जगत् के इन महान् आवर्तनों के भीतर मनुष्य के जीवन-मरण का जो सतत प्रवाह चल रहा है वह एक दीर्घ-कालव्यापी प्रगति है जिसके द्वारा मानव-प्राणी अपने-आपको अमृतत्व के लिये तैयार करता है । वह अपने-आपको कैसे तैयार करे ? कौन-सा मनुष्य अधिकारी होता है ? वह जो अपने-आपको प्राण और शरीर समझनेवाली धारणा से ऊपर उठाता है, जो संसार के भौतिक और संवेदनात्मक प्रभाव को बहुत अधिक मूल्य नहीं देता अथवा उतना मूल्य नहीं देता जितना देहात्म-वुद्धि रखनेवाला देता है, जो अपने-आपको और सबको आत्मा जानता है, जो अपने शरीर में नहीं, बल्कि आत्मा में रहने का अभ्यासी होता है और दूसरों के साथ, उन्हें केवल देह-स्वरूप जानकर नहीं, बल्कि आत्मा जानकर ही व्यवहार करता है । कारण अमृतत्व का अर्थ मृत्यु के बाद केवल जीना ही नहीं है--वह तो मन को लेकर जन्मे हुए प्रत्येक प्राणी को प्राप्त है--अमृतत्व का अर्थ है जीवन-मरण की अवस्था को पार कर जाना । यह वह ऊर्ध्व-गति है जिससे मनुष्य मन से अनु-प्राणित शरीर के रूप में न रहकर अंत में आत्मा होकर आत्मा में ही रहने लगता है । जो कोई शोक और दुःख के वशीभूत होता है, इन्द्रियानुभवों और भावावेगों का दास बनता है, क्षणभंगुर और अनित्य मात्रस्पर्शो में लिप्त रहता है, वह अमृतत्व का अधिकारी नहीं हो सकता । इन सबको तबतक सहना होगा जबतक इनपर प्रभुत्व न स्थापित हो जाय, जबतक वह मुक्त अवस्था न प्राप्त हो जाय जहां ये कोई दुःख न दे सके, जबतक कि संसार की सब पार्थिव घटनाएं, चाहे वे सुखद हों या दुःखद, ज्ञानयुक्त स्थिरता और समता से वैसे ही ग्रहण न की जा सकें जैसे हमारे अन्दर रहनेवाली शांत सनातन गूढ़ आत्मा उन्हें ग्रहण करती है । शोक और भय से विचलित होना, जैसे अर्जुन हुआ है, और अपने गंतव्य पथ से भ्रष्ट हो जाना, तथा दैन्य और दु:खभार से दबकर शारीरिक मृत्यु की अनिवार्य और अतिसामान्य घटना का सामना करने से पीछे हटना अनार्यजुष्ट है, आर्य अपनी धीर शक्ति के साथ जिस अमर जीवन की ओर ऊपरर चढ़ता रहता है उसका यह रास्ता नहीं है ।
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मृत्यु यथार्थ में कोई चीज नहीं है, क्योंकि मरता तो शरीर है और शरीर मनुष्य नहीं है । जो वास्तव में है, उसका अस्तित्व कभी नष्ट नहीं हो सकता; हाँ, वह जिन रूपों को लेकर प्रकट होता है उनको बदल सकता है । वैसे ही, जो नहीं है वह हो भी नहीं सकता । आत्मा है और उसका अस्तित्व कभी समाप्त नहीं हो सकता । यह सत् और असत् (है और नहीं ) का जो अंतर है, आत्मभाव और भूतभाव का अंतर दिखानेवाली यह जो तुला है जिससे मनुष्य का मन इस जगत् और जीवन को देखा करता है, इसकी परिणति उस आत्मानुभव में हुआ करती है जहाँ यह बोध होता है कि एक आत्मा ही अविनाशी पुरुष है जिसके द्वारा यह सारा विश्व प्रसारित है । शरीर सांत है, उसका अंत हुआ करता है पर जो इस शरीर को धारण करता और इससे काम लेता है वह अनंत, अपरिच्छिन्न, सनातन और अविनाशी है । वह जीर्ण-शीर्ण शरीरों को छोड्कर नये शरीर धारण करता है, जैसे मनुष्य अपने फटे-पुराने वस्त्रों को त्यागकर नये वस्त्र धारण करता है; इसमें शोक करने, सहमने और पीछे हटने की कौन-सी बात है ? वह न जनमता है न मरता है, न वह ऐसी वस्तु है जो होकर लुप्त हो जाय और कभी न हो । वह अब, अनादि, अव्यय आत्मा है; शरीर के मारे जाने से वह नहीं मारा जाता । अजर-अमर आत्मा को मार ही कौन सकता है ? शस्त्र उसे छेद नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, चल भिगो नहीं सकता, हवा सुखा नहीं सकती । वह स्थाणु है, अचल है, सर्वव्यापी है, सनातन है--सदा से है और सदा रहेगा । शरीर की तरह वह व्यक्त नहीं है, लेकिन समस्त अभिव्यक्ति से महत्तर है, उसका विचार द्वारा विश्लेषण नहीं हो सकता, क्योंकि वह समूचे मन से बड़ा है, प्राणशक्ति और उसके करणोपकरण एवं उनके विषयों की तरह उसमें विकार और परिवर्तन नहीं होते, बल्कि वह मन, प्र और शरीर के परिवर्तनों के परे है, फिर भी वह वह सध्वस्तु है जिसे ये सब मूर्तिमान् करने में लगे हैं ।
यदि आत्मा का सत्य इतना महान्, विशाल और जीवन-मरण के परे न हो, यदि आत्मा सदा जनमती और मरती हो, तो भी प्राणियों की मृत्यु शोक का कारण नहीं होनी चाहिये । क्योंकि जीव की आत्म-अभिव्यक्ति की यह एक अनिवार्य अवस्था है । उसके जन्म का अर्थ है उसका किसी ऐसी अवस्था से बाहर निकल आना जहाँ वह अस्तित्वहीन तो नहीं है, पर हमारी मर्त्य इन्द्रियों के लिये अप्रकट है, उसकी मृत्यु का अर्थ है उसी अप्रकट जगत् या अवस्था में लौट जाना जहाँसे वह इस भौतिक अभिव्यक्ति में फिर प्रकट होगा । भौतिक मन और इन्द्रियाँ रोग-शय्या पर या रणक्षेत्र में होनेवाली मृत्यु और उसके भय के संबंध में जो रोना-पीटना मचाती है वह प्राण की हायतोबाओं में सबसे अधिक
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अज्ञानमय है । मनुष्यों की मृत्यु पर हमारा शोक, उनके लिये अज्ञानभरा दुःख है, जिनके लिये दुःख करने का कोई कारण नहीं, क्योंकि न तो वे अस्तित्व से बाहर गये हैं न उनकी अवस्था में कोई दुःखद या भयानक परिवर्तन ही हुआ है । वे अपनी सत्ता में मृत्यु के उतने ही परे हैं जितने कि व जीवन में रहते हुए थे और जीवन की अपेक्षा इस अवस्था में अधिक दुःखी नहीं हैं । परन्तु यथार्थ में उच्चतर सत्य ही वास्तविक सत्य है । सब कुछ वही आत्मा है, वही ''एक'' है, वही परमात्मा है जिसे हम समझ से परे, अद्भुत मानते हैं और उसके बारे में यही कहते और सुनते हैं । क्योंकि हमारी इतनी खोज और ज्ञान की घोषणा के बाद भी तथा ज्ञानी जनों से इतना सब सुनने के बाद भी, उस ''केवल'' को कोई मानव-मन कभी नहीं जान सका है । वह ''केवल'', शरीर का स्वामी ही यहाँ इस जगत् की ओट में छिपा हुआ है; सारा जीवन उसकी छायामात्र है; जीव का भौतिक अभिव्यक्ति में आना और मृत्यु के द्वारा हमारा इस अभिव्यक्ति से बाहर निकल जाना, उसकी एक गौण क्रियामात्र है । जब हम अपने-आपको इस रूप में जान लेते हैं तब यह कहना कि हमने किसी की हत्या की या किसी ने हमारी हत्या की, निरर्थक है । सत्य तो एकमात्र यही है और इसी में हमें रहना होगा कि मनुष्य को आत्मा की यात्रा के इस महान् चक्र में मानव-जीव-रूप से वह शाश्वत पुरुष ही स्वयं प्रकट होता है, जिसमें जन्म और मृत्यु उस यात्रा के मार्ग में मील के पत्थर हैं, परलोक उसके विश्राम-स्थान हैं, जीवन की सारी अवस्थाएँ, चाहे सुखद हों या दुःखद, हमारी प्रगति, संग्राम और विजय के साधन हैं और अमरत्व हमारा धाम है जहाँके लिये आत्मा यात्रा कर रही है ।
इसलि, गुरु कहते हैं कि हे भारत, इस वृथा शोक और हृदय-दौर्बल्य को दूर कर और लड़ । परन्तु यह निष्कर्ष कहाँसे निकला ? यह उच्च और महान् ज्ञान,--मन और आत्मा का यह कष्टसाध्य आत्मानुशासन जिसके द्वारा उसे भावावेगों के कोलाहल और इन्द्रियों के धोखों के परे आत्मज्ञान में ऊपर उठना है--हमें शोक और मोह् से तो मुक्त कर सकता है; मृत्यु का भय और मरे हुओं का शोक तो इससे दूर हो सकता है; इससे यह बोध भी हो सकता है कि जिन्हें हम मरा हुआ जानते हैं वे मरे हुए है ही नहीं, उनके लिये शोक करने की कोई बात नहीं, क्योंकि वे केवल परलोक में चले गये हैं; साथ ही वह शिक्षा मिल सकती है जिससे हम जीवन के भयंकर थपेड़ों को और शरीर की मृत्यु को अविचलित भाव से एक मामूली घटना के तौर पर देख सकें; इससे हम इतने ऊँचे उठ सकते हैं कि जीवन की सारी अवस्थाओं को उसी ''एक'' का प्राकटय जानें और यह जानें कि ये हमारी आत्माओं के लिये जगत के बाह्य दृश्यों से ऊपर
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उठने के साधन हैं, और हमारा यह ऊर्ध्वगामी विकास तबतक चलेगा जबतक हम अपने-आपको अमर आत्मा के रूप में न जान लें; पर इससे अर्जुन को दिये गये कर्म के आदेश और कुरुक्षेत्र के हत्याकाण्ड को कैसे न्यायसंगत ठहराया जा सकता है ? इसका उत्तर यह है कि अर्जुन को जिस मार्ग पर चलना है उस मार्ग में उसके लिए यह कर्म करना आवश्यक है; यह कर्म उसके सामने, अपने स्वधर्म का, अर्थात् सामाजिक कर्तव्य, जीबनधर्म और अपनी सत्ता के धर्म का पालन करते हुए अपरिहार्य रूप से आ पड़ा है । यह जगत्, भौतिक जगत् में आत्मा का यह प्राकट्य, केवल जीव के आंतरिक विकास का चक्र नहीं है, बल्कि यह एक क्षेत्र है जिसमें जीवन की बाह्य अवस्थाओं को उस आंतरिक विकास-साधन के लिये परिस्थिति और प्रसंग के रूप में ग्रहण करना होता है । यह जगत् परस्पर-साहाय्य और संघर्ष का क्षेत्र है; यह हमें किसी ऐसी प्रगति का अवसर नहीं देता कि हम अपने अनायास प्राप्त सुखों को भोगते हुए शांति और चैन के साथ आगे बढ़ते चले जायें, बल्कि यहाँ एक-एक पैड़ी वीरोचित प्रयास से और परस्पर-विरोधी शक्तियों के संघर्ष से होकर ही चढ़नी होती है । क्षत्रिय, पराक्रमी पुरुष वे ही हैं जो इस आंतरिक और बाह्य संघर्ष को, यहाँतक कि इसके अत्यंत भौतिक रूप अर्थात् रण को भी अंगीकार करते हैं; युद्ध, विक्रम, महानता, और साहस उनका स्वभाव होता है; धर्म की रक्षा करना और रण का आह्वान होते ही उत्साह के साथ उसमें कूद पड़ना उनका गुण और कर्तव्य होता है । धर्म और अधर्म, न्याय और अन्याय, संरक्षण करनेवाली शक्ति और अत्याचार एवं पीड़न करनेवाली शक्ति, इनके बीच सतत संघर्ष होता ही रहता है और एक बार जहाँ इसने स्थूल संग्राम का रूप धारण कर लिया तो सत्य, न्याय और धर्म की ध्वजा को लेकर चलनेवाले पुरुष का यह काम नहीं है कि वह अपने इस कर्म के हिंसामय और घोर रूप को देखकर घबरा जाय या काँप उठे; उसके लिये यह कदापि उचित नहीं कि चूंकि हिंसक और क्रूर के प्रति उसमें एक दुर्बल अनुकम्पा है तथा जिस संहार-कार्य को करने का उसे आदेश मिला है उसकी विशालता को देखकर उसके जी में एक भौतिक त्रास होता है इसलिए वह अपने अनुयायियों और सहयोद्धाओं का साथ छोड़ दे, अपने पक्षवालों को धोखा दे, धर्म तथा न्याय की ध्वजा को धूल में घसीटे जाने दे या आततायियों के रक्त-रंजित पैरों तले कीचड़ में रौंदे जाने दे । उसका धर्म और कर्तव्य युद्ध करने में है, युद्ध से पराङ्मुख होने में नहीं; यहां संहार करना नहीं, बल्कि संहार से हाथ खींचना ही पाप होगा ।
इसके बाद गुरु क्षण भर के लिये प्रस्तुत विषय से अलग होकर अर्जुन के
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आत्मीय-स्वजनों की मृत्यु से होनेवाले दुःख-संबंधी विलाप का एक और उत्तर देते हैं, जिसमें उसने कहा था कि इससे तो मेरा जीवन ही निस्सार हो जायगा, क्योंकि तब जीवन के हेतु और विषय ही नहीं रहेंगे। क्षत्रिय के जीवन का सच्चा उद्देश्य क्या है और किस बात में उसका वास्तविक सुख है ? अपने-आपको खुश रखना, परिवार को सुखी देखना और मित्रों और नातेदारों के बीच रहते हुए आराम से और मौज से सुख-शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत करना क्षत्रिय-जीवन का सच्चा उद्देश्य नहीं है; क्षत्रिय-जीवन का सच्चा उद्देष्य है सत्य के लिये लड़ना और उसका बडे-से-बड़ा सुख इसी बात में है कि उसे कोई ऐसा शुभ कार्य और अवसर प्राप्त हो जिसके लिये या तो वह अपना जीवन दान कर सके या विजयी होकर वीर जीवन का यश और गौरव प्राप्त कर सके । ' ''क्षत्रिय के लिये धर्मयुद्ध से बढ़कर और कोई श्रेय नहीं, ऐसे युद्ध का अवसर उसकी ओर स्वर्ग के खुले द्वार की तरह आता है, तो क्षत्रिय सुखी हो जाता है । यदि तू धर्म की रक्षा के लिये यह युद्ध न करेगा तो तू स्वधर्म और कीर्ति का परित्याग करके पाप का भागी होगा|''१ यदि वह ऐसे अवसर पर लड़ने से इनकार करेगा तो अपमानित होगा, लोग उसे कायर और दुर्बल कहेंगे और उसके क्षत्रिय-नाम की मर्यादा नष्ट होगी । क्षत्रिय के लिये सबसे बडा शोक क्या है ? वह है उसकी आन की हानि, उसकी कीर्ति की हानि, शूरवीरों में, बलवान और साहसी पुरुषों में उसका जो उच्च स्थान है उससे च्युति; उसके लिये यह मरण से भी बुरा है | संग्राम, साहस, शक्ति, शासन, वीरों का मान और युद्ध में वीरगति--यह है योद्धा का आदर्श । इस आदर्श को गिराना, इस मान पर छींटे पड़ने देना, वीरों में ऐसे वीर का उदाहरण रखना जो स्वयं कायरता और दुर्बलता से कलंकित हो और इस प्रकार मानव-जाति के नैतिक मानदण्ड को नीचे गिराना अपने प्रति असत्याचरण है और जगत् अपने नेताओं व राजाओं से जैसी आशा करता है उसका अपलाप है । ''रण में मारा जायगा तो स्वर्ग लाभ करेगा, जीतेगा तो पृथ्वी पर राज करेगा; इसलिये, हे कुन्ती-पुत्र, युद्ध का निश्चय करके उठ ।''२
इस स्थल से पहले जिस समत्वपूर्ण आध्यात्मिकता का उपदेश हुआ है और इस स्थल के आगे जिस गभीरतर आध्यात्मिकता की चर्चा होगी, उनके सामने यह वीरोचित पुकार नीचे दर्जे की प्रतीत होती है; क्योंकि बाद के ही श्लोक में अर्जुन को यह उपदेश दिया जाता है कि सुख-दुख, लाभालाभ और जयाजय में
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समता बनाये रखकर युद्ध कर और यही गीता का वास्तविक उपदेश है । परन्तु भारतीय धर्मशास्त्र ने मनुष्य के विकासोन्मुख नैतिक और आध्यात्मिक जीवन के लिए उत्तरोत्तर चढ़ते हुए आदर्शों की व्यावहारिक आवश्यकता का सदा अनुभव किया है । यहाँ क्षत्रिय का जो आदर्श सामने रखा गया है वह चातुर्वर्ण्य के अनुसार सामाजिक दृष्टि से रखा गया है, इसकी जो आध्यात्मिक दृष्टि आगे चलकर दिखायी गयी है उस दृष्टि से नहीं । श्रीकृष्ण यहाँ अर्जुन से वास्तव में यही कह रहे हैं कि ''यदि तू सुख और दुःख और कर्म के परिणाम का हिसाब लगाकर ही अपने कर्तव्याकर्तव्य का निश्चय करना चाहता है तो मेरा यही जवाब है । मैं पहले बता चुका हूँ कि आत्मा और जगत् का जो उच्चतम ज्ञान है उस दृष्टि से तेरा क्या कर्तव्य है और अब मैंने यह भी बताया कि तेरा सामाजिक कर्तव्य और तेरा अपना नैतिक आदर्श तुझे किस ओर चलने का इशारा करता है--'स्वधर्ममपि चावेक्ष्य ।' तू चाहे जिस भी पहलू से देख परिणाम एक ही है । परन्तु, यदि तुझे अपने सामाजिक कर्तव्य और वर्णधर्म से संतोष न होता हो, और समझता हो कि उससे तू दुःख और पाप का भागी बनेगा तो मेरा आदेश है कि तुझे किसी हीन आदर्श की ओर नीचे गिरने की अपेक्षा किसी ऊँचे आदर्श की ओर ऊपर उठना चाहिए । अहंकार का सर्वथा त्यागकर दु :ख की, लाभ-हानि की तथा ऐहिक परिणामों की परवाह न कर; बल्कि उस हेतु पर अपनी दृष्टि रख जिसकी पूर्ति में तुझे सहायक होना है और उस काम की ओर ध्यान दे जिसे तुझे सिद्ध करना है और जो भगवन्निर्दिष्ट है । ऐसा करने से तू पाप का भागी न होगा--''नैव पापमवाप्स्यसि ।'' इस प्रकार अर्जुन की जो दलीलें थीं--उसका दु:खी होना, हत्याकांड से पीछे हटना, इसमें पापका बोध और इस कर्म के दुष्परिणाम की आशंका-इन सबका उत्तर, अर्जुन की जाति और युग के उच्चतम ज्ञान और श्रेष्ठ नैतिक आदर्श के अनुसार दिया जा चुका ।
आर्य योद्धा का यही धर्म है और इस धर्म का यह निर्देश है कि ''ईश्वर को जान, अपने-आपको जान, मनुष्यों की मदद कर; धर्म की रक्षा कर, भय, दुविधा और दुर्बलता को त्याग कर संसार में अपना युद्ध-कर्म कर । तू शाश्वत अविनाशी आत्मा है, तेरी आत्मा अमृतत्व के ऊर्ध्वगामी मार्ग पर चलती हुई इस संसार में आयी है; जीवन-मरण कोई चीज नहीं हैं दुःख और क्लेश और कष्ट कोई चीज नहीं हैं, इन सबको जीतना और वश में करना होगा । अपने सुख, प्राप्ति और लाभ को मत देख, बल्कि ऊपर की ओर और चारों ओर देख, ऊपर उस प्रकाशमय शिखर को देख जिसकी ओर तू चढ़ रहा है, और अपने चारों ओर इस संग्राममय और संकटपूर्ण जगत् को देख जिसमें शुभ और अशुभ, उन्नति और
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अवनति परस्पर घोर संघर्ष में जकड़े हुए हैं । लोग तुझे सहायता के लिये पुकारते हैं, तू उनका लौह पुरुष है, लोकनायक है, सहायता कर, लड़, संहार कर अगर संहार के द्वारा ही जगत् की प्रगति हो, लेकिन जिसका संहार करे उससे घृणा न कर और न मरे हुए के लिये शोक ही कर । सर्वत्र उस एक ही आत्मा को जान, सब प्राणियों को अमर आत्मा और शरीर को बस मिट्टी जान । अपना काम स्थिर, दृढ और सम भाव से कर, लड़ और शान से मैदान में काम आ, या फिर पराक्रम से विजय प्राप्त कर । क्योंकि भगवान् ने और तेरे स्वभाव ने तुझे यही काम पूरा करने के लिये दिया है ।''
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