गीता-प्रबंध

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Sri Aurobindo

Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) Essays On The Gita Vol. 13 576 pages 1970 Edition
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Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo गीता-प्रबंध 629 pages 1984 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अवतार की संभावना और हेतु

 

 

    जिस योग में कर्म और ज्ञान एक हो जाते हैं कर्मयज्ञयोग और ज्ञानयोग एक हो जाते हैं, जिस योग में कर्म की परिपूर्णता ज्ञान में होती है और ज्ञान कर्म का पोषण करता, उसका रूप बदल देता और उसे आलोकित कर देता है और फिर ज्ञान और कर्म दोनों ही उन परम भगवान् पुरुषोत्तम को समर्पित किये जाते हैं जो हमारे अन्दर नारायण-रूप से सदा हमारे हृदयों में गुप्त भाव से विराजमान है जो मानव-आकार में भी अवताररूप से प्रकट होते हैं और दिव्य जन्म ग्रहण करके हमारी मानवता को अपने अधिकार में ले लेते है उस योग का वर्णन करते हुए श्रीकृष्ण बातों-बातों में यह कह गये कि यही वह सनातन आदियोग है जो मैंने सूर्यदेव विवस्वान् को प्रदान किया और विवस्वान् ने जिसे मनुष्यों के जनक मनुको ओर मनु ने सूर्यवंश के आदिपुरुष इक्ष्वाकु को दिया और इस प्रकार यह योग एक राजर्षि से दूसरे राजर्षि को मिलता रहा और इसकी परंपरा चलती रही, फिर काल की गति में यह खो गया । भगवान् अर्जुन से कहते हैं आज वही योग मैं तुझे दे रहा हूँ, क्योंकि तू मेरा प्रेमी, भक्त, सखा और साथी है । भगवान् ने इस योग को परम रहस्य कहकर इसे अन्य सब योगों से श्रेष्ठ बताया, क्योंकि अन्य योग या तो निर्गुण ब्रह्म को या सगुण साकार इष्टदेव को ही प्राप्त करानेवाले, या निष्कर्मज्ञानस्वरूप मोक्ष अथवा आनन्दनिमग्न मुक्ति के ही दिलानेवाले हैं, किन्तु यदु योग परम रहस्य और संपूर्ण रहस्य को खोलकर दिखानेवाला, दिव्य शक्ति और दिव्य कर्म को प्राप्त करानेवाला तथा पूर्ण स्वतंत्रता से युक्त दिव्य ज्ञान, कर्म और परमानन्द को देनेवाला है । जैसे भगवान् की परम सत्ता अपनी व्यक्त सत्ता की सब परस्पर-विभिन्न और विरोधी शक्तियों और तत्वों का समन्वय कर उन्हें अपने अन्दर एक कर लेती है वैसे ही इस योग में भी सब योगमार्ग मिलकर एक हो जाते हैं । इसलिए गीता का यह योग केवल कर्मयोग नहीं है जैसा कि कुछ लोगों का आग्रह है और जो इसे तीन मार्गों में से सबसे कनिष्ठ मार्ग बतलाते हैं, बल्कि यह परम योग है, पूर्ण समन्ययात्मक और अखंड है, जिसमें जीव के अंग-प्रत्यंगों की सारी शक्तियाँ भागन्मुखी  की जाती हैं ।

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    इस योग को विवस्वान् आदि को दिये जाने की बात को अर्जुन ने अत्यंत स्थूल अर्थ में ग्रहण किया (इस बात को दूसरे अर्थ में भी लिया जा सकता है ) और पूछा कि सूर्यदेव जो जीव-सृष्टि में अग्रजन्माओं में से एक हैं, जो सूर्यवंश के आदिपुरुष हैं उन्होंने मनुष्यरूप श्रीकृष्ण से, जो अभी-अभी जगत् में उत्पन्न हुए, यह योग कैसे ग्रहण किया । इस प्रश्न का उत्तर श्रीकृष्ण यह दे सकते थे कि सम्पूर्ण ज्ञान के मूलस्वरूप जो भगवान् हैं उस भगवद्रूप से मैंने यह उपदेश उन सविता को किया था जो भगवान् के ही ज्ञान के व्यक्त रूप हैं और जो समस्त अंतर्बाह्म दोनों ही प्रकाशों के देनेवाले हैं--''भर्गो सवितुर्द्देवस्य यो नो षियः प्रचोदयात् ''  परन्तु यह उत्तर उन्होंने नहीं दिया । उन्होंने इस प्रश्न के प्रसंग से अपने छिपे हुए ईश्वर-रूप की वह बात कही जिसकी भूमिका वे तभी बांध चुके थे जब उन्होंने कर्म करते हुए भी कर्मों से न बंधने के प्रसंग में अपना दिव्य दृष्टांत सामने रखा था । पर वहाँ उन्होंने इस बात को अच्छी तरह स्पष्ट नहीं किया था । अब वे अपने-आपको स्पष्ट शब्दों में अवतार घोषित करते हैं ।

    भगवान् गुरु की चर्चा के प्रसंग में वेदांत को दृष्टि से अवतार-तत्व का प्रतिपादन संक्षेप में किया जा चुका है । गीता भी इस तत्व को वेदांत की ही दृष्टि से हमारे सामने रखती है । अब हम इस तत्वं को जरा और अन्दर पैठकर देखें और उस दिव्य जन्म के वास्तविक अभिप्राय को सभझें जिसके बाह्य रूप को ही अवतार कहते है क्योंकि गीता की शिक्षा में यह चीज एक ऐसी लड़ी है जिसके बिना इस शिक्षा की शृंखला पूरी नहीं होती । सबसे पहले हम श्रीगुरु के उन शब्दों का अनुवाद करके देखें जिनमें अवतार के स्वरूप और हेतु का संक्षेप में वर्णन किया गया है और उन श्लोकों को या वचनों को भी ध्यान में ले आवें जो उससे सम्बन्ध रखते हैं । ''हे अर्जुन, मेरे और तेरे बहुत से जन्म बीत चुके; मैं उन सबको जानता हूँ, पर तू नहीं जानता । हे परंतप, मैं अपनी सत्ता से यद्यपि अज और अविनाशी हूँ, सब भूतों का स्वामी हूँ, तो भी अपनी प्रकृति को अपने अधीन रखकर आत्म-माया से जन्म लिया करता हूँ । जब-जब धर्म की ग्लानि होती है और अधर्म का उत्थान, तब-तब मैं अपना सृजन करता हूँ । साधु पुरुषों को उबारने और पापात्माओं को नष्ट करने और धर्म की संस्थापना करने के लिए मैं युग-युग में जन्म लिया करता हूँ । मेरे दिव्य जन्म और दिव्य कर्म को जो कोई तत्वत: जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर पुनर्जन्म को नहीं, बल्कि, हे अर्जुन, मुझको प्राप्त होता है । राग, भय और क्रोध से मुक्त, मेरे ही भाव में लीन, मेरा ही आश्रय लेनेवाले, ज्ञानतप से पुनीत अनेकों पुरुष मेरे भाव को (पुरुषोत्तम-भाव को) प्राप्त हैं । जो जिस प्रकार मेरी ओर आते हैं, उन्हें

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मैं उसी प्रकार प्रेभपूर्वक ग्रहण करता हूँ (भजामि ); हे पार्थ, सब मनुष्य सब तरह से मेरे ही पथ का अणुसरण करते हैं ।''

      गीता अपना कथन जारी रखते हुए बतलाती है कि बहुत से मनुष्य अपने कर्मों की सिद्धि चाहते हुए, देवताओं के अर्थात् एक परमेश्वर के विविध रूपों और व्यक्तित्वों के प्रीत्यर्थ यज्ञ करते हैं, क्योंकि कर्मों से--ज्ञानरहित कर्मों से--होनेवाली सिद्धि मानव-जगत् में सुगमता से प्राप्त होती है; वह केवल उसी जगत् की होती है । परन्तु दूसरी सिद्धि, अर्थात् पुरुषोत्तम के प्रीत्यर्थ किये जानेवाले ज्ञानयुक्त यज्ञ के द्वारा मनुष्य की दिव्य आत्मपरिपूर्णता, उसकी अपेक्षा अधिक कठिनता से प्राप्त होती है; इस यज्ञ के फल सत्ता की उच्चतर भूभिका के होते हैं और जल्दी पकड़ में नहीं आते । इसलिए मनुष्यों को अपने गुण-कर्म के अनुसार चतुर्विध धर्म का पालन करना पड़ता है और सांसारिक कर्म के इस क्षेत्र में वे भगवान् को उनके विविध गुणों में ही ढूँढ़ते हैं । परन्तु भगवान् कहते हैं कि यद्यपि मैं चतुर्विध कर्मों का कर्ता और चातुर्वर्ण्य का स्रष्टा हूँ तो भी मुझे अकर्ता, अव्यय, अक्षर आत्मा भी जानना चाहिए । ''कर्म मुझे लिप्त नहीं करते, न कर्मफल की मुझे कोई स्पृहा है ।''  कारण भगवान् नैर्व्यक्तिक हैं और इस अहं-भावापन्न व्यक्तित्व के तथा प्रकृति के गुणों के इस द्वन्द्व के परे हैं, और अपने पुरुषोत्तम-स्वरूप में भी, जो उनका नैर्व्यक्तिक पुरुषभाव है, वे कर्म के अन्दर रहते हुए भी अपनी इस परम स्वतंत्रता पर अधिकार रखते हैं । इसलिए दिव्य कर्मों के कर्ता को चातुर्वर्ण्य का पालन करते हुए भी उसी को जानना और उसी में रहना होता है जो परे है, जो नैर्व्यक्तिक है और फलत: परमेश्वर है । भगवान् कहते हैं ''इस प्रकार जो मुझे जानता है, वह अपने कर्मों से नहीं बंधता । यही जानकर मुमुक्षु लोगों ने पुराकाल में कर्म कियाइसलिए तू भी उसी पूर्वतर प्रकार के कर्म कर जैसे पूर्वपुरुषों ने किये थे ।''

      जिन श्लोकों का अनुवाद ऊपर दिया गया है, उनमें से पीछे के श्लोक, जिनका सारांश-मात्र दिया गया है, 'दिव्य कर्म ' का स्वरूप बतलानेवाले हैं और उसका निरुपण हम पिछले अध्याय में कर चुके हैं; और उनमें से पहले के श्लोक, जिनका संपूर्ण अनुवाद दिया गया है, वे 'दिव्य जन्म' अर्थात् अवतारतत्व का प्रतिपादन करनेवाले हैं । पर यहाँ हमें एक बात बड़ी सावधानी के साथ कह देना है कि अवतार का आना--जो मानवजाति के अन्दर भगवान् का परम रहस्य है--केवल धर्म का संस्थापन करने के लिए ही नहीं होता । क्योंकि धर्मसंस्थापन स्वयं कोई इतना

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२.  ४-१२-

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बड़ा और पर्याप्त हेतु नहीं है, कोई ऐसा महान् लक्ष्य नहीं है जिसके लिये ईसा या कृष्ण या बुद्ध को उतरकर आना पड़े, धर्मसंस्थापन तो किसी और भी महान्, परतर और भागवत संकल्पसिद्धि की एक सामान्य अवस्थामात्र है । कारण दिव्य जन्म के दो पहलू हैं;  एक है अवतरण, मानव-जाति में भगवान् का जन्मग्रहण, मानव आकृति और प्रकृति में भगवान् का प्राकटच, यही सनातन अवतार है दूसरा है आरोहण, भगवान् के भाव में मनुष्य का जन्मग्रहण, भागवत प्रकृति और भागवत चैतन्य में उसका उत्यान (मद्भावमागता: ), यह जीव का नव-जन्म, द्वितीय जन्म है । भगवान् का अवतार लेना और धर्म का संस्थापन करना इसी नव-जन्म के लिए होता है । अवतारविषयक गीतासिद्धांत के इस द्विविध पहलू की ओर उन लोगों का ध्यान नहीं जाता जो गीता को सरसरी तौरपर पढ़ जाते हैं और अधिकांश पाठक ऐसे ही होते हैं जो इस ग्रंथ की गंभीर शिक्षा की ओर न जाकर इसके ऊपरी अर्थ से ही संतुष्ट हो जाते हैं । और वे भाष्यकार भी, जो अपनी सांप्रदायिक चहारदीवारी के अन्दर बंद रहते हैं, इसको नहीं देख पाते । इसलिए अवतारतत्वसम्बन्धी गीता का जो सिद्धान्त है उसके सम्पूर्ण अर्थ को समझने के लिए अवतार के इस द्विविध पहलू को जान लेना आवश्यक है । इसके बिना अवतार की भावना एक मतविशेष भर, एक प्रचलित मूढ़ विश्वास भर रह जायगी अथवा यह हो जायगा कि ऐतिहासिक या पौराणिक अतिमानवों को कल्पना के जोर से या रहस्यमय तरीके से भगवान् बना दिया जायगा और यह भावना वह नहीं रह जायगी जो गीता की शिक्षा है, जो गंभीर दार्शनिक और धार्मिक सत्य है और जो ''उत्तम रहस्यं"  को प्राप्त कराने का एक आवश्यक अंग या पदक्षेप है ।

    यदि परमेश्वर-सत्ता में मनुष्य के आरोहण की सहायता करना मनुष्य-रूप में परमेश्वर के अवतीर्ण होने का प्रकृत हेतु न हो तो धर्म के लिए भगवान् का अवतार लेना एक निरर्थक-सा व्यापार प्रतीत होगा; कारण धर्म, न्याय और सदाचार की रक्षा का कार्य तो भगवान् की सर्वशक्तिमत्ता अपने सामान्य साधनों के द्वारा अर्थात् महापुरुषों और महान् आंदोलनों के द्वारा तथा ऋषियों, राजाओं और धर्माचार्यों के द्वारा सदा कर ही सकती है, उसके लिए अवतार की कोई प्रकृत आवश्यकता नहीं । अवतार का आगमन मानव-प्रकृति में भागवत प्रकृति को प्रकटाने के लिये होता है, ईसा, कृष्ण और बुद्ध की भगवत्ता को प्रकटाने के लिए, जिससे मानव-प्रकृति अपने सिद्धांत, विचार, अनुभव, कर्म और सत्ता को ईसा, कृष्ण और बुद्ध के सांचे में ढालकर स्वयं भागवत प्रकृति में रूपांतरित हो जाय । अवतार जो धर्म संस्थापित करते हैं उसका मुख्य हेतु भी यही होता है; ईसा,

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बुद्ध, कृष्ण इस धर्म के तोरणद्वार बनकर स्थित होते हैं और अपने अन्दर से होकर ही वह मार्ग निर्माण करते हैं जिसका अनुवर्त्तन करना मनुष्यों का धर्म होता है । यही कारण है कि प्रत्येक अवतार मनुष्यों के सामने अपना ही दृष्टांत रखते और अपने-आपको ही एकमात्र मार्ग और तोरणद्वार घोषित करते हैं; अपनी मानवता को ईश्वर की सत्ता के साथ एक बतलाते और यह भी प्रकट करते हैं कि मैं जो मानव पुत्र हूँ वह और जिस उर्द्वस्थित  पिता से मैं अवतरित हुआ हूँ वह, दोनों एक ही हैं,-मनुष्य-शरीर में जो श्रीकृष्ण हैं वे (मानुषीं तनुमाश्रितम् ) और परमेश्वर तथा सर्वभूतों के सुहृत् जो श्रीकृष्ण हैं वे, थे दोनों उन्हीं भगवान् पुरुषोत्तम के ही प्रकाश हैं, वहां वे अपनी ही सत्ता में प्रकट हैं, यहां मानव-आकार में प्रकट हैं ।

      अवतार का दूसरा और वास्तविक उद्देश्य ही गीता के समग्र प्रतिपादन का मुख्य विषय है । यह बात उस श्लोक से ही, यदि उसका यथार्थ रूप से विचार किया जाय तो, प्रकट है । पर केवल उस एक श्लोक से ही नहीं--क्योंकि ऐसा करना गीता के श्लोकों का ठीक अर्थ लगाने का गलत रास्ता है--बल्कि अन्य श्लोकों के साथ उसका जो सम्बन्ध है उसका पूरा ध्यान रखते हुए और समय प्रतिपादन के साथ उसका मेल मिलाते हुए विचार किया जाय तो यह बात और भी अच्छी तरह से स्पष्ट हो जाती है । गीता का यह सिद्धान्त कि सबमें एक ही आत्मा है, और प्रत्येक प्राणी के हृद्देश में भगवान् विराजमान हैं और साथ ही सृष्टिकर्ता प्रजापति और उनकी प्रजा, इन दोनों का जैसा परस्पर-सम्बन्ध गीता बतलाती तथा विभूति-तत्व का प्रतिपादन जिस जोरदार आग्रह के साथ करती है, इन सभी बातों को ध्यान में रखना होगा और एक साथ विचारना होगा । भगवान् अपने निष्काम कर्म का उदाहरण देते हैं, जो मानव श्रीकृष्ण पर उतना ही घटता है जितना सर्वलोकमहेश्वर पर, उसकी भाषा को भी ध्यान में रखना होगा और नवें अध्याय के इस वचन को भी उसका प्राप्य स्थान देना होगा कि, ''मूढ़ लोग मानुषी तनु में आश्रित मुझे तिरस्कृत करते हैं क्योंकि वे मेरे सर्वलोकमहेश्वर परम भाव को नहीं जानते;''  और इन विचारों को सामने रखकर तब इस वचन का अभिप्राय निकालना होगा जो इस समय हमारे सामने है कि उनके दिव्य जन्म और दिव्य कर्म के ज्ञानद्वारा मनुष्य भगवान् के पास आता है और भगवन्मय होकर तथा उनका आश्रित होकर उनके भाव को प्राप्त होता है (मद् भावम् ) । तब हम दिव्य जन्म और उसके हेतु का यह तत्व समझ सकेंगे कि यह कोई सबसे न्यारी अचरजभरी विलक्षण-सी चीज नहीं है, बल्कि जगत्-प्राकटच का जो संपूर्ण क्रम है उसमें इसका भी एक विशिष्ट स्थान है;  इसके बिना हम अवतार के इस दिव्य  

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 १.    ६-- १

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रहस्य को समझ ही नहीं सकेंगे, बल्कि इसकी खिल्ली उड़ायेंगे या बिना समझे इसे मान लेंगे अथवा इसके बारे में आधुनिक मन के उन क्षुद्र और बाहरी विचारों में जा फंसेंगे जिनसे इसका जो आंतरिक और उपयोगी अर्थ है, वह नष्ट हो जायगा ।      क्योंकि आधुनिक मन के लिए अवतार-तत्त्व तर्कबद्ध मानव-चेतना पर पूर्व की ओर से धारा-प्रवाह आनेवाली विचारधाराओं में एक बिचार है और इसे स्वीकार करना या समझना सबसे कठिन है । यदि वह अवतारतत्व को उदार भाव से ले तो वह कहेगा कि यह मानव शक्ति का, स्वभाव का, प्रतिभा का, जगत् के लिए जगत् में किये गये किसी महान् कर्म का एक प्रतीक मात्र है और यदि वह इसको अनुदार भाव से ग्रहण करेतो वह कहेगा कि यह एक कुसंस्कार या मूढू-विश्वासमात्र है । नास्तिक के लिए यह एक मूर्खतापूर्ण विचार है और यूनानी के .लिये मार्ग का रोड़ा । जड़-वादी तो इस विचार को अपने ध्यान में भी नहीं ला सकते, क्योंकि वे ईश्वर की सत्ता को ही नहीं मानते; युक्तिवादी या भागवत प्राकटय को न माननेवाले ईश्वर-वादी इसे मूर्खता और उपहास का विषय समझ सक्ते हैं कट्टर द्वैतवादियों की दृष्टि में मानव-स्वभाव और देवस्वभाव के बीच का अंतर कभी मिट ही नहीं सकता, इसलिए उनकी दृष्टि में तो ऐसी बात कहना ईश्वर की निन्दा ही है । युक्तिवादियों का पक्ष यह है कि ईश्वर यदि है तो विश्वातीत, विश्व के परे है, संसार के मामलों में वह दखल नहीं देता, बल्कि संसार का अनुशासन एक सुनिश्चित विधान के बने-बनाये यंत्न के द्वारा होने देता है-यथार्थ में वह विश्व से दूर रहनेवाला कोई वैधानिक राजा सा या कोई जड़भरत सा आध्यात्मिक राजा है, उसकी अधिक-से-अधिक प्रशंसा यही हो सकती है कि वह प्रकृति के पीछे रहनेवाला, सांख्यवर्णित साधारण और वस्तुनिरपेक्ष साक्षी पुरुष सा अकर्ता आत्म-तत्व है; वह. विशुद्ध आत्मा है, वह शरीर धारण नहीं कर सकता; वह अपरिच्छिन्न अनन्त है मनुष्य की तरह सांत परिच्छिन्न नहीं हो सकता; वह अजन्मा सृष्टिकर्ता है, संसार में जन्मा हुआ सृष्ट प्राणी नहीं हो सकता--ये बातें उसकी निरपेक्ष शक्तिमत्ता के लिए भी असंभव हैं । कट्टर द्वैतवादी इन बातों में अपनी तरफ से इतनी बात और जोड़ देगा कि ईश्वर हैं पर उनका स्वरूप, उनका कर्म और स्वभाव मनुष्य से भिन्न और पृथक् हैं; वे पूर्ण हैं और मनुष्य की अपूर्णता को अपने ऊपर नहीं ओढ़ सकते; अज .अविनाशी साकार परमेश्वर मनुष्य नहीं बन सकते;  सर्वलोकमहेश्वर प्रकृति से बंधे हुए मानवकर्म में और नाशवान् मानव-शरीर में सीमाबद्ध नहीं हो सकते । ये आक्षेप जो पहली नजर में बड़े प्रबल मालूम होते हैं, गीता के वक्ता भगवान् गुरु की दृष्टि के सामने मौजूद रहे होंगे जब वे कहते हैं कि, यद्यपि मैं अपनी आत्म-सत्ता में अज हूँ, अव्यय हूँ, प्राणि-

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मात्र का ईश्वर हूँ, फिर भी मैं अपनी प्रकृति का अधिष्ठान करके अपनी माया के द्वारा जन्म लिया करता हूँ; और जब वे यह कहते हैं कि मूढ़ लोग मनुष्य-शरीर में होने के कारण मुझे तुच्छ गिनते हैं पर यथार्थ में अपनी परम सत्ता के अन्दर मैं प्राणिमात्र का ईश्वर हूँ , और यह कि मैं अपनी भागवत चेतना की क्रिया में चातुवर्ण्य  का स्रष्टा हूँ तथा जगत् के कर्मों का कर्ता हूँ और यह होते हुए भी अपनी भागवत चेतना की नीरवता में मैं अपनी प्रकृति के कर्मों का उदासीन साक्षी हूँ, क्योंकि मैं सदा कर्म और अकर्म दोनों के परे हूँ, परम प्रभु । और इस तरह गीता अवतार-तत्व के विरुद्ध किये जानेवाले आक्षेपों का पूजा जवाब दे देती है और इन सब विरोधों का समन्वय करने में समर्थ होती है, क्योंकि ईश्वर और जगत् के सम्बन्ध में वेदान्त-शास्त्र के सिद्धान्त से गीता का आरम्भ होता है ।

      वेदान्त की दृष्टि में ये आपातप्रबल आक्षेप प्रारम्भ से ही निस्सार और निरर्थक हैं । वेदान्त की योजना के लिए अवतार की भावना अनिवार्य नहीं है सही, पर फिर भी यह भावना उसमें सर्वथा युक्तियुक्त और न्यायसंगत धारणा के रूप में सहज भाव से आ जाती है । यहाँ जो कुछ है सब ईश्वर, आत्मा, एकमेवा-द्वितीय ब्रह्म ही तो है और ऐसी कोई चीज नहीं  जो उससे भिन्न हो, कोई चीज हो ही नहीं सकती जो उससे इतर और भिन्न हो;  प्रकृति भागवत चेतना की ही एक शक्ति होने के अतिरिक्त न कुछ है न हो सकती है;  सब प्राणी एक ही भागवत सत्ता के आन्तर और बाह्म, अहं और इदं, जीवरूप और देहरूप के अतिरिक्त न कुछ हैं न हो सकते हैं, ये उसी भागवत चेतना की शक्ति से उत्पन्न होते और उसीमें स्थित रहते हैं, अनंत ईश्वर के सांत भाव को धारण करने के बारे में सवाल ही नहीं उठता जब कि सारा जगत् उस अनन्त के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । इस समग्र विशाल जगत् में, जहाँ हम रहते हैं, हम जिधर दृष्टि उठाकर देखें, चाहे जैसे देखें, उसी को देखेंगे, और किसी को नहीं । आत्मा का साकार न हो सकना अथवा अन्नमय या मनोमय रूप के साथ सम्बन्ध जोड़ने और परिच्छिन्न स्वभाव या शरीर धारण करने से घृणा करना तो दूर रहा, यहाँ तो जो कुछ है वही है, उसी सम्बन्ध से, उसी परिच्छिन्न स्वभाव और शरीर को धारण करने से ही इस जगत् का अस्तित्व है । जगत् का यंत्रवत् चलनेवाला विधान-मात्र होना तो दूर रहा, जिसकी शक्तियों की गति में या जिसके मन-प्राण-शरीर से होनेवाले कर्मों में हस्तक्षेप करनेवाला कोई आत्मा या पुरुष नहीं है, है केवल कोई आदि तटस्थ आत्मतत्व की सत्ता जो इस जगत् में नहीं, इसके बाहर या ऊपर कहीं निष्क्रय रूप से रहती है, यह सारा जगत् और इसका प्रत्येक अणु-रेणु ही कर्मरत भागवत शक्ति है और इसकी प्रत्येक गति

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का निर्धारण और नियमन उसी भागवत शक्ति के द्वारा होता है, इसके प्रत्येक रूप में उसी का निवास है, प्रत्येक जीव और उसका अंत:करण उसीका है; सब कुछ ईश्वर में है और उसी में सब कुछ होता रहता है, सबमें वही है, वही कर्म करता और अपनी सत्ता दरशाता है; प्रत्येक प्राणी छद्मवेश में नारायण ही हें ।

      अजन्मा जन्म नहीं ले सकता यह बात तो दूर रही, यहाँ तो प्रत्येक जीव अपने व्यक्तित्व के अन्दर रहते हुए भी वही अजन्मा आत्मा है, वही सनातन है जिसका न कोई आदि है न अंत । और अपने मूल अस्तित्व और अपनी विश्व-व्यापकता में सभी जीव वही एक अजन्मा आत्मा हैं, जिसके आकार-ग्रहण और आकार-परिवर्तन का नाम ही जन्म और मृत्यु है । इस जगत् का सारा रहस्यमय व्यापार यही तो है कि अपूर्णता को पूर्ण कैसे धारण किए हुए है् ? पर यह अपूर्णता धारण किए गये मन और शरीर के रूप और कर्म में ही प्रकट होती है, यहाँके बाह्म जगत् में ही रहती है; जो इसे धारण करता है, उसमें कोई अपूर्णता नहीं होती; जैसे सूर्य, जो सबको आलोकित करता है, उसमें प्रकाश या दर्शन-शक्ति की कोई कमी नहीं होती, कमी होती है व्यक्ति-विशेष की दर्शनेंद्रिय की क्षमता में । फिर, यह भी नहीं है कि भगवान् बहुत दूर किसी स्वर्ग में विराजे इस जगत् का राज करते हों, बल्कि उनका राज तो उनकी अपनी निगूढ़ सर्वव्यापकता से हुआ करता है; प्रत्येक परिच्छिन्न सांत गुणकर्म अपरिच्छिन्न अनन्त शक्ति का ही एक कार्य है, किसी पृथक् परिच्छिन्न स्वयंभू क्रिया-शक्ति का नहीं जो अपने ही बल से कोई परिश्रम कर रही हो; मन-बुद्धि के संकल्प और ज्ञानी की प्रत्येक परिच्छिन्न क्रिया में हम अपरिच्छिन्न अखिल संकल्प और अखिल ज्ञान के किसी कर्म का आश्रयरूप से होना ढूँढकर देख सकते हैं । भगवात् का राज ऐसा राज नहीं है जहां का शासक अनुपस्थित रहता हो, विदेशी हो या बाहरी हो;   वे इसलिए सबका शासन करते हैं कि वे सबका अतिक्रमण करते है साथ ही इसलिए भी कि वे सब क्रियाओं में स्वयं रहते हैं और वे ही उन क्रियाओं के एकमात्र प्राण और आत्मा हैं । इसलिए अवतार की सम्भावना के विरुद्ध जो-जो आक्षेप हमारी तर्क-बुद्धि में आया करते हैं वे सिद्धान्तत: टिक नहीं सकते क्योंकि यह सब हमारे बौद्धिक तर्कद्वारा उपस्थित किया हुआ एक ऐसा व्यर्थ का विभेद है जिसे जगत् का सारा व्यापार और उसकी सारी वास्तविकता दोनों ही प्रतिक्षण खंडित और अप्रमाणित कर रहे हैं ।

       परन्तु अवतार की सम्भावना के प्रश्न को छोड़कर एक और प्रश्न है और वह यह है कि क्या भगवान् सचमुच इस प्रकार कर्म करते हैं, क्या सचमुच भागवत

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चेतना परदे से बाहर निकलकर इस सांत, मनोमय, .अन्नमय, परिच्छिन्न, अपूर्ण बाह्म जगत् में सीधे कर्म करती है ? यह सांत बाह्म परिच्छिन्न रूप आखिर क्या है--यह अनन्त के ही विभिन्न चिद्भावों के सामने अनन्त की अपनी अभि-व्यक्तियों का एक सुनिश्चित बाह्म रूप, उनका एक बाहरी मूल्य है; प्रत्येक सान्त बाह्म रूप का वास्तविक मूल्य तो यह है कि वह बाह्म प्रकृति के कर्म और सांसारिक आत्म-अभिव्यक्ति में चाहे जैसा हो पर अपनी बाह्य आत्म-सत्ता में अनन्त ही है । यदि हम अधिक गौर से देखें तो मनुष्य सर्वथा अकेला नहीं है, वह सर्वथा पृथक् रहनेवाला स्वत:स्थित व्यक्ति नहीं है, बल्कि किसी मनविशेष और शरीर-विशेष में स्वयं मानव-जाति है; और स्वयं मानव-जाति भी स्वत:स्थित सबसे पृथक् जाति नहीं है, बल्कि भूमा विश्वपति ही मानवजाति के रूप में मूर्तिमान हैं;  इस रूप में वे कतिपय संभावनाओं को क्रियान्वित करते हैं, आधुनिक भाषा में कहें तो अपनी अभिव्यक्ति की शक्तियों को प्रस्फुटित और विकसित करते हैं, पर जो कुछ विकसित होकर आता है वह स्वयं अनंत होता है, स्वयं आत्मा होता है ।

      आत्मा से हमारा अभिप्राय है उस स्वयंभू सत्ता से जिसमें चेतना की अनन्त शक्ति और अपार आनन्द निहित हैं; आत्मा यही है और यदि यह न हो तो कुछ भी नहीं है अथवा कम-से-कम मनुष्य और जगत् के साथ उसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है और इसलिए मनुष्य और जगत् का उससे कोई सम्बन्ध नहीं है । स्थूल द्रव्य, शरीर तो सचेतन सत्ता की शक्ति का ही पुंजीभूत कर्म है, चेतना की इन्द्रिय-शक्ति द्वारा क्रियान्वित होनेवाले चेतना के परिवर्तनशील सम्बन्धों को काम में लाने के लिए साधन के तौर पर यह उपयोग में लाया जाता है । यथार्थ में स्थूल द्रव्य कहीं भी चेतना से खाली नहीं है; क्योंकि एक-एक अणु-रेणु और छिद्र-रंघ्र में भी कोई संकल्पशक्ति, कोई बुद्धि कार्य कर रही है, यह बात अब आधुनिक सायंस को भी मजबूरन स्वीकार करनी पड़ी है । परन्तु यह संकल्पशक्ति या बुद्धि उस आत्मा या ईश्वर की है जो इसके अन्दर विद्यमान है, यह किसी जड़ छिद्र या अणु का अपना, अपनेसे ही उपजा हुआ पृथक् संकल्प या विचार नहीं है । स्थूल में अंतर्लीन विराट्f संकल्प और बुद्धि कार्य के बाद एक रूपों में से होकर अपनी शक्तियों का विकास करते रहते हैं और अंत में पृथ्वी पर मनुष्य के अन्दर पहुँचकर पूर्ण भागवत शक्ति के ज्यादा से ज्यादा पास पहुँच जाते हैं और यहीं इनको, इनकी बहिर्गत और रूपगत बुद्धि में भी, पहले-पहल अपनी दिव्यता का कुछ-कुछ धुंधला-सा आभास मिलता है । परन्तु यहाँ भी एक सीमा होती है, यह प्राकटय भी अभी अपूर्ण है और इसलिए निम्नतर रूपों को भगवान् के साथ अपने तादात्म्य का ज्ञान नहीं हो पाता । क्योंकि प्रत्येक ससीम प्राणी में बाह्य जगत् की क्रिया

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 की एक सीमा बंधी होती है और उसके साथ-साथ उसकी बाह्म चेतना की भी एक सीमा लगी रहती है जो जीव के स्वभाव का निरूपण करती और एक-एक जीव के अन्दर आन्तरिक भेद उत्पन्न कर देती है । अवश्य ही भगवान् इस सबके पीछे रहकर कर्म करते हैं और इस बाह्य अपूर्ण चेतना और संकल्प के द्वारा अपनी विशेष अभिव्यक्तियों का नियमन करते हैं, किन्तु, जैसा कि वेद में कहा गया है, वे अपने-आपको गुहा में छिपाये रहते हैं । गीता इसी बात को यों कहती है कि ''ईश्वर सब प्राणियों के हृद्देश में वास करते हैं और सबको माया से यंत्रारूढ़-वत् चलाते रहते हैं ।''  हृद्देश में छिपे हुए भगवान्, अहमात्मक प्राकृत चेतना के द्वारा जिस प्रकार कर्म करते हैं वही जगत् के प्राणियों के साथ ईश्वर की कार्य-प्रणाली है । जब ऐसा ही है, तब हमें यह मानने की क्या आवश्यकता है कि, वे किसी रूप में, यानी प्राकृत चेतना में भी सामने आकर प्रकट होते और प्रत्यक्ष में अपने विरुद्ध चैतन्य के साथ कार्य करते हैं ? इसका उत्तर यही है कि यदि भगवान् इस तरह आते हैं तो मनुष्य और अपने बीच के परदे को फाड़ने के लिए आते हैं जिस परदे को अपनी प्रकृति में सीमित मनुष्य उठातक नहीं सकता ।

      गीता कहती है कि जीव साधारणतया जो अपूर्ण रूप से कर्म करता है उसका कारण यह है कि वह प्रकृति की यांत्रिक क्रिया के वश में होता है और माया के रूपों से बंधा रहता है । प्रकृति और माया भागवत चैतन्य की कार्यशक्ति के ही दो परस्पर-पूरक पहलू हैं । माया यथार्थ में भ्रम नहीं है--भ्रम का भाव या आभास केवल अपरा प्रकृति के अज्ञान से अर्थात् त्रिगुणात्मिका माया से उत्पन्न होता है--भागवत चैतन्य में सत्ता की विविध आत्माभिव्यक्तियों को करने की शक्ति को माया कहते हैं, और प्रकृति उसी चैतन्य की वह कार्यशक्ति है जो भगवान् के प्रत्येक अभिव्यक्त रूप का उसके स्वभाव और स्वधर्म के अनुसार, उसके गुण-कर्म के अनुसार जगत्-अभिनय में परिचालन करती है । भगवान् कहते हैं कि,  ''मैं अपनी प्रकृति के ऊपर स्थित होकर, उसपर दबाव डालकर इन विविध प्राणियों को, जो प्रकृति के वश में अवश हैं, सिरजता हूँ ।''  जो लोग मानवशरीर में निवास करनेवाले भगवान् को नहीं जानते, वे इस बात से अनभिज्ञ हैं, क्योंकि वे सर्वथा प्रकृति की यांत्रिकता के वश में, उसके मनोमय बन्धनों में अवश रूप से बंधे हुए और उन्हीं को मानकर चलनेवाले हैं और उस आसुरी प्रकृति में वास  .करते हैं जो कामना से मन को मोहती और अहंकार से बुद्धि को भरमाती है (मोहिनिं प्रकृतिं श्रिता: ) । क्योंकि अंत:स्थित भगवानू पुरुषोत्तम हरएक के सामने सहसा

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२.    ६--८

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प्रकट नहीं होते; वे अपने-आपको किसी घने काले मेघ के अन्दर या किसी चभक-दार रोशनी के बादल में छिपाये, अपनी योगमाया का आवरण ओढ़े रहते हैं (नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृत: ) । गीता बतलाती है कि ''यह सारा जगत् प्रकृति के त्रिगुणमय भावों से विमोहित है और मुझे नहीं पहचानता; क्योंकि मेरी दैवी गुणमयी माया बड़ी दुस्तर है; वे ही इसे तरते हैं जो मेरी शरण में आते हैं; पर जो आसुरी प्रकृति का आश्रय किये रहते हैं उनका ज्ञान माया हर लेती है ।''  दूसरे शब्दों में, सबके अन्दर भागवत चैतन्य निहित है, क्योंकि सबमें ही भगवान् निवास करते हैं; परन्तु भगवान् का यह निवास उनकी माया से आवृत है और इस कारण इन प्राणियों का मूल आत्म-ज्ञान इनसे अपहृत हो जाता है और माया की क्रिया से, प्रकृति की यंत्रवत् क्रिया से, अहंकाररूप भ्रम में बदल जाता है । तथापि प्रकृति की इस यांत्रिकता से पीछे हटकर उसके आंतर और गुप्त स्वामी की ओर जाने से मनुष्य को अंतर्यामी भगवान् का प्रत्यक्ष बोध हो सकता है ।

     अब यह बात ध्यान में रखने की है कि गीता भगवान् के सामान्य प्राणिजन्म के कर्म और स्वयं अवताररूप से जन्म लेने के कर्म इन दोनों ही कर्मों का, शब्दों के सामान्य से पर महत्वपूर्ण फेरफार के साथ, एकसा वर्णन करती है । ''अपनी प्रकृति को वश में करके (प्रकृतिं स्वामावष्टभ्य ) मैं इन प्राणियों के समूह को जो प्रकृति के वश में हैं उत्पन्न करता हूँ (विसृजामि ) ।''   फिर, ''अपनी प्रकृति के ऊपर स्थित होकर मैं अपनी आत्ममाया से जन्म लेता हूँ ( प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय   ..... आत्ममायवा ) -अपने-आपको उत्पन्न करता हूँ ( आत्मानम् सृजामि ) ''  'अवष्टभ्य' पद से दबाव डालना सूचित किया गया है जिससे अधिकृत वस्तु परवश, परपीड़ित, अपनी क्रिया में अवरुद्ध या परिसीमित और वशी के वश में ( अवशं वशात् ) होती है; इस क्रिया में प्रकृति यंत्रवत् जड़ होती है और प्राणिसमूह उसकी इस यांन्त्रिकता में बेबस फंसे रहते हैं, अपने कर्म के स्वामी नहीं होते । 'अधि-ष्ठाय, पद इसके विपरीत, अन्दर स्थित होना तो सूचित करता ही है, पर साथ ही प्रकृति के ऊपर स्थित होना भी सूचित करता है जिससे यह अभिप्राय निकला कि इसमें भगवान् अंतर्यामी अधिष्ठातृ-देवता होकर प्रकृति का सचेतन नियंत्रण और शासन करते हैं, यहाँ पुरुष अज्ञान के वश में विवश होकर प्रकृति के चलाये नहीं चलता, बल्कि प्रकृति ही पुरुष के प्रकाश और संकल्प से परिपूर्ण होती है । 

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इसलिए सामान्य प्राणिजन्मरूप जो विसर्ग है वह प्राणियों या भूतों की सृष्टि है जिसे गीता 'भूतग्रामं' कहती है और दिव्यजन्मरूप जो सर्ग या आत्मसृष्टि है वह स्वात्मसचेतन स्वयंभू आत्मा का जन्म है जिसे गीता 'आत्मानं कहती है । यहाँपर यह बात जान लेनी चाहिए कि 'आत्मानं' और ' भूतानि' का वेदान्तशात्र में वही भेद माना गया है जो भेद पाश्चात्य दर्शन सत्ता और उसकी संभूति में करता है । दोनों जन्मों में माया ही सृष्टि या अभिव्यक्ति का साधन है, पर दिव्य जन्म में यह 'आत्ममाया' है, अज्ञान की निम्नतर माया में संवेष्टन नहीं, बल्कि स्वतः- स्थित परमेश्वर का प्रकृतिरूप में अपने-आपको प्रकट करने का सचेतन कर्म है जिसे अपनी क्रिया और अपने हेतु का पूरा बोध है । इसी कर्मशक्ति को गीता ने अन्यत्र योगमाया कहा है । सामान्य प्राणिजन्म में भगवान्, इस योगमाया के द्वारा अपने-आपको निम्नतर चेतना से ढांके और छिपाये रहते हैं, इसलिए यही हमारे अज्ञान का कारण बनती है, यही अविद्या माया है; परन्तु फिर इसी योगमाया के द्वारा हमारी चेतना को भगवान् की ओर पलटाकर हमें आत्म-ज्ञान की प्राप्ति करायी जाती है, वहाँ यह ज्ञान का कारण बनती और विद्यामाया कहाती है; और दिव्य जन्म में इसकी क्रिया यह होती है कि जो कर्म सामान्यत : अज्ञान में किये जाते हैं उनको यह स्वयं ज्ञानस्वरूप रहकर संयत और आलोकित करती है ।

       इसलिए गीता की भाषा से यह स्पष्ट होता है कि दिव्य जन्म में भगवान् अपनी अनन्त चेतना के साथ मानव-जाति में जन्म लेते हैं और यह मूलत: सामान्य जन्म का उलटा प्रकार हे-यद्यपि जन्म के साधन वे ही हैं जो सामान्य जन्म के होते हैं--क्योंकि यह अज्ञान में जन्म लेना नहीं, बल्कि यह ज्ञान का जन्म है, कोई भौतिक घटना नहीं बल्कि यह आत्मा का जन्म है । यह आत्मा का स्वत:स्थित पुरुषरूप से जन्म के अन्दर आना है, अपने भूतभाव को सचेतन रूप से नियंत्रित करना है, अज्ञान के बादल में अपने-आपको खो देना नहीं; यह पुरुष का प्रकृति के प्रभु-रूप से शरीर में जन्म लेना है । यहाँ प्रभु अपनी प्रकृति के ऊपर खड़े स्वेच्छा

नका कर्म ज्ञानकृत होता है, सामान्य प्राणियों का सा अज्ञानकृत नहीं । यह सब प्राणियों के अन्दर छिपे हुए अंतर्यामी अंतरात्मा का ही परदे की आड़ से बाहर निकल आना और मानवरूप में पर भगवान् की भांति, उस जन्म को अधिकृत करना है जिसे वह सामान्यत: परदे की आड़ में ईश्वररूप से अधिकृत किये रहता है, जब कि परदे के बाहर की जो बहिर्गत चेतना है वह अधिकारी होने की अपेक्षा स्वयं ही अधिकृत

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रहती है, क्योंकि वहां वह आंशिक सचेतन सत्ता-रूप से आत्मविस्मृत जीव है और प्रकृति के अधीन जो यह जगद्व्यापार है उसके द्वारा अपने कर्म में बंधा है । इसलिए अवतार का अर्थ है  भागवत पुरुष श्रीकृष्ण का पुरुष के दिव्य भाव को मानवता के अन्दर प्रत्यक्ष रूप से प्रकट करना । भगवान् गुरु अर्जुन को जो मानव-आत्मा है, मानव-प्राणी का श्रेष्ठतम नमूना है, विभूति है, उसी दिव्य भाव में ऊपर उठने के लिये निमंत्रित करते हैं जिसमें वह तभी पहुँच सकता है जब अपनी सामान्य मानवता के अज्ञान और सीमा को पार कर ले । यह ऊपर से उसी तत्व का नीचे आकर आविर्भूत होना है जिसे हमें नीचे से ऊपर चढ़ा ले जाना है; यह मानव-सत्ता के उस दिव्य जन्म में भगवान् का अवतरण है जिसमें हम मर्त्य प्राणियों को आरोहण करना है; यह मानव-प्राणी के सम्मुख, मनुष्य के ही आकार और प्रकार के अन्दर तथा मानवजीवन के सिद्ध आदर्श नमूने के अन्दर, भगवान् का एक आकर्षक दिव्य उदाहरण है ।

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  १. 'अवतार' शब्द का अर्थ है उतरना; यह भगवान् का उस रेखा के नीचे उतर आना है, जो भगवान् को मानव-जगत् या मानद-अवस्था से पृथक् करती है ।

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