Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita.
Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.
भगवदीय सत्य और मार्ग
गीता अब परम और समग्र रहस्य को, उस एकमात्र ध्येय और सत्य को जिसमें पूर्णता-सिद्धि तथा मुक्ति के साधक को रहना सीखना होगा, तथा उसके सब आध्यात्मिक अंगों और उनके समस्त व्यापारों की पूर्णता-सिद्धि के एकमात्र विधान को खोलकर प्रकट करना चाहती है । यह परम रहस्य है उन परात्पर परमेश्वर का स्वरूपरहस्य जो समग्र हैं और सर्वत्र हैं, पर जगत् तथा उसके नाना नामरूपों से इतने महत्तर और इतर हैं कि यहाँ की किसी वस्तु में वे नहीं समा सकते, कोई वस्तु उन्हें वास्तविक रूप में प्रकट नहीं कर सकती और न कोई भाषा ही, जो दिशा और काल से परिमित पदार्थों के रूपों और उनके परस्पर सम्बन्धों से ही निर्मित हुआ करती है, उनके अचिन्तनीय स्वरूप को किसी प्रकार लक्षित करा सकती है । फलत: हमारि पूर्णता-सिद्धि का विधान है अपनी संपूर्ण प्रकृति के द्वारा उनका यजन-पूजन जो उसके मूल और उसके स्वामी हैं और उन्हीं को इसका आत्मसमर्पण । हमारा एकमात्र परम मार्ग यही है कि इस जगत् में हमारी जो कुछ सत्ता है, केवल उसका कोई यह या वह अंश नहीं, बल्कि सब प्रकारसे वह उन सनातन पुरुष की ओर ले जानेवाला मात्र एक कर्म बना दी जाय । ऐश्वर योग की शक्ति और रहस्यमयी कृति के द्वारा हम लोग उनकी अनिर्वचनीय गुह्यातिगुह्य स्थिति से निकल कर प्राकृत पदार्थों की इस बद्ध दशा में आ गये हैं । अब उसी ऐश्वर योग की उल्टी गति से हमें इस बाह्य प्रकृति की सीमाओं को पार करना होगा और उस महत्तर चैतन्य को फिर से प्राप्त होना होगा जिसके प्राप्त होने से हम परमेश्वर और परम सनातन तत्व में रह सकते हैं ।
परमेश्वर की परा सत्ता अभिव्यक्ति के परे है; उनकी यथार्थ सनातनी मूर्ति जड़ शरीर में प्रकट नहीं होती, न प्राण उन्हें ग्रहण कर सकता है न मन से उनका चिन्तन ही हो सकता है, क्योंकि वह ''अचिन्त्यरूप, अव्यक्तमूर्ति'' हैं । हम जो कुछ देखते हैं वह केवल एक स्वरचित रूप है, भगवान् का सनातन स्वरूप नहीं । जगत् से भिन्न कोई और या कुछ और भी है, जो अकथ, अचिंत्य, अनन्त भवावत्तत्व है जो अनन्तविषयक हमारी व्यापक-से-व्यापक या सूक्ष्मातिसूक्ष्म भाव-
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नाओं से प्राप्त हो सकनेवाले किसी भी आभास के सर्वथा परे है । यह नानाविध पदार्थों का बाना जिसे हम जगत् नाम से पुकारते हैं अनेकविध गतियों का एक महान् जोड़ है जिसकी हम कोई हद नहीं बाँध सकते और जिसके नाना रूपों और गतियों के अन्दर हम कोई स्थायी वस्तु, कोई ध्रुव पद, कोई समतल आधारभूमि और विश्व के नाभि-केन्द्र के ढूँढने का व्यर्थ ही प्रयास किया करते हैं । उसे इसी महतो महीयान् अनन्तने अपनी अनिर्वचनीय विश्वातीत रहस्यमयी शक्ति से बुन रखा है, रूप दिया है और फैलाया है । इसकी मूल भित्ति है एक ऐसी आत्मनिरूपण-क्रिया जो स्वयं अव्यक्त और अचिंत्य है । यह संभूतिका समूह जो प्रतिक्षण बदलता और चलता रहता है, ये सब जीव, ये सारे चराचर प्राणी, पदार्थ, सांस लेने और जीनेवाले रूप अपने अन्दर व्यष्टि रूप से या समष्टि रूप से भी उन भगवान् को नहीं समा सकते । अर्थात् वे उनमें नहीं हैं; उनके अन्दर या उनके द्वारा नहीं जीते, चलते या बने रहते--भगवान् भूतभाव नहीं है । बल्कि भूत ही, उनके अन्दर हैं, भूत ही उनके अन्दर जीते, चलते और उन्हीं से अपने स्वरूप का सत्य ग्रहण करते हैं; भूत उनकी संभूति हैं और वे उनकी आत्मसत्ता हैं ।१ अपनी दिक्कालातीत ( दिशा और काल से परे ) अचिंत्य अनन्त सत्ता के अन्दर उन्होंने एक असीम देशकाल में एक असीम संसार का यह छोटा-सा दृश्य विस्तृत किया है ।
और यह कहना भी कि सब कुछ उनके अन्दर है, इस विषय का सम्पूर्ण सार-तत्व नहीं है, न यह पूर्ण रूप से वास्तविक सम्बन्ध का ही द्योतक है; कारण उनके विषय में यह कहना देश की कल्पना करके कहना है, पर भगवान् तो देशातीत और कालातीत हैं । देश और काल, अंतर्यामित्व और व्यापकत्व और परत्व ये सभी उनकी चेतना के, चिद्भावके पद और प्रतीक हैं । ईश्वरी शक्ति का एक योग है-- 'ऐश्वर योग', 'मे योग ऐश्वरः' जिससे भगवान् अपना रूप अपनी ही विस्तृत अनन्तता के चैतन्यगत स्वरूपसाधन के रूप से निर्मित करते हैं, जड़ रूप से नहीं, जड़ तो उस अनन्त वितान का एक प्रतीकमात्र है । भगवान् उसके साथ अपने-आपको एकीभूत देखते हैं, उसके साथ तथा उसके अन्दर जो कुछ है उसके साथ तद्रूप होते हैं । सर्वेश्वरवादी जगत् और ब्रह्म का जो अभेद दर्शन करते हैं वह उस अनन्त आत्मदर्शन के सामने एक परिमित दर्शन ही है । जिस अनन्तदर्शन में, जो फिर भी उनका सम्पूर्ण देखना नहीं है, वे ( भगवान् ) यह सब जो कुछ है इसके साथ एक होते हुए भी इसके परे हैं । परन्तु वे इस ब्रह्म से या ब्रह्मसत्ता की इस विस्तृत अनन्तता से भी--जिसके अन्दर यह सारा विश्व है और जो विश्वातीत है उससे भी--इतर हैं । सब कुछ यहाँ उन्हीं के विश्वचेतन अनन्त स्वरूप में स्थित है,
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१. मृ मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः । ६. ४
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पर वह स्वरूप भी भगवान् के उस विश्वातीत स्वरूप के द्वारा अपनी आत्म-कल्पना के रूप में धृत है जो स्वरूप हमारी जागतिक स्थिति, सत्ता और चेतना की वाणी के सर्वथा परे है । उनकी सत्ता का यह रहस्य है कि वे विश्वातीत हैं पर किसी प्रकार विश्व से अलग नहीं हैं । क्योंकि विश्वात्मा के रूप से वे इस सबके अन्दर व्याप्त हैं; भगवान् की एक ज्योतिर्मय अलिप्त आत्मसत्ता है जिसे गीता में भगवान् ''मम आत्मा" कहकर लक्षित कराते हैं, जो सब भूतों के साथ सतत संबद्ध है और केवल अपनी सत्तामात्र से अपने सब भूतभावों को प्रकट कराती है ।१ इसी भेद को स्पष्ट करने के लिए आत्मा और 'भूतानि', ये दो पद हैं--एक से वह आत्मा लक्षित होती है जो स्व-स्वरूप में अपनी ही सत्ता से स्थित है और दूसरे से अर्थात् 'भूतानि' पद से वह भूत सत्ता लक्षित होती है जो आश्रित है । ये ही क्षर और अक्षर पुरुष हैं । परन्तु इन दो परस्पर-सापेक्ष सत्ताओं का आधारभूत परम सत्य वही सत्ता हो सकती है तथा इनके परस्पर-विरोध का निराकरण भी उसी सत्ता से हो सकता है जो इसके परे हो; वह सत्ता है उन परम पुरुष भगवान् की जो अपनी योगमाया अर्थात् अपने आत्मचैतन्य की शक्ति द्वारा इस आधार आत्मा और आधेय जगत् दोनों को प्रकट करते हैं । और उन भगवान् के साथ अपने आत्म-चैतन्य से युक्त होकर ही हम उनके स्वरूप के साथ अपना वास्तविक सम्बन्ध जोड़ सकते हैं ।
दार्शनिक भाषा में गीता के इन श्लोकों का यही अभिप्राय है : परन्तु इनका आधार कोई बौद्धिक अनुमान नहीं बल्कि आत्मानुभूति है; इनसे इन परस्पर-विरोधी सत्यों का जो समन्वय होता है उसका कारण भी यही है कि आत्मचैतन्य के कुछ प्रत्यक्ष अनुभूत सत्यों से ही ये उदगार वर्तुलाकार निकल पड़े हैं । जगत् में छिपे या प्रकट जो कोई परमात्मा या विश्वात्मा हों उनसे जब हम अपनी विविध चेतना के साथ योग करने का यत्न करते हैं तब हमें किसी न किसी प्रकार का कोई विशिष्ट अनुभव होता है और ऐसे जो अनुभव प्राप्त होते हैं उन्हें विभिन्न बुद्धिवादी विचारक सद्वस्तु के सम्बन्ध में अपना-अपना मूल भाव बना लेते हैं । सर्वप्रथम हमें एक ऐसी भगवत्सत्ता का कुछ अधूरा-सा अनुभव होता है जो हम लोगों से सर्वथा भिन्न और महान् है, जिस जगत् में हम लोग रहते हैं उससे भी सर्वथा भिन्न और महान् है; और यह बात ऐसी ही है--इससे अधिक और कुछ भी नहीं जबतक कि हम अपने प्राकृत स्वरूप में ही रहते और अपने चारों ओर जगत् के प्राकृत रूप को ही देखते हैं । क्योंकि भगवान् का परम स्वरूप जगदातीत है और जो कुछ प्राकृत है वह स्वयंबुद्ध आत्मा की अनन्तता से इतर मालूम होता है, मिथ्या नहीं तो कम-से-कम एक अपर सत्य का केवल प्रतीक-सा प्रतीत होता है । जब हम
१. भृतभृम्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावन: || ६-५;
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केवल इस प्रकार की भेदस्थिति में रहते हैं तब भगवान् को मानो विश्व से पृथक और इतर मानते हैं । इस प्रकार वे केवल इसी अर्थ में पृथक् और इतर हैं कि वे विश्व के परे होने के कारण विश्वप्रकृति और उसकी सृष्टियों के अन्दर नहीं हैं, इस अर्थ में नहीं कि ये सब सृष्टियाँ उनकी सत्ता के बाहर हैं; क्योंकि सर्वत्र एकमात्र सनातन और सद्रूप सत्ता ही है, उसके बाहर कुछ भी नहीं है । भगवत्सत्ता के सम्बन्ध में इस प्रथम सत्य को हम तब आत्मबोध के द्वारा अनुभव करते हैं जब हमें यह अनुभव होता है कि हम उन्हीं के अन्दर रहते और चलते-फिरते हैं, उन्हींके अन्दर हमारी सारी सत्ता और सारा जीवन है, चाहे हम उनसे कितने भी भिन्न हों हमारा अस्तित्व उन्हीं पर निर्भर है और यह सारा विश्व उन्हीं परमात्मा के अन्दर घटित होनेवाली एक दृश्य सत्ता और व्यापार है ।
परन्तु फिर इसके आगे, इससे परतर यह अनुभव होता है कि हमारी आत्मसत्ता उनकी आत्मसत्ता के साथ एक है । वहाँ हम सर्वभूतों के एकमेव आत्मा को अनुभव करते हैं, हमें उसकी चेतना का अनुभव होता है और उसके प्रत्यक्ष दर्शन भी । तब हम यह नहीं कह सकते न ऐसा सोच सकते हैं कि हम उससे सर्वथा भिन्न हैं; परन्तु आत्मवस्तु और इस स्वतःसिद्ध आत्मवस्तु का जगद्रूप आभास, ये दोनों पदार्थ भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं--आत्मा में सब कुछ एक अनुभूत होता है और जगद्रूप सब कुछ भिन्न-भिन्न दीखता है । आत्मा के साथ अभेद की ऐकान्तिक पराकाष्ठा में यह जगत् स्वप्नवत् और मिथ्या तक अनुभूत हो सकता है । परन्तु द्विविध भाव की द्विविध पराकाष्ठा में यह द्विविध अनुभव भी होता है कि भगवान् के साथ हमारा परम स्वत:सिद्ध एकत्व है और साथ ही हम उनके साथ भिन्न रूपसे तथा विविध सम्बन्धों से युक्त हुए एक ऐसे चिरंतन रूप में रहते हैं जो उन्हीं से निकला हुआ रूप है । यह जगत् और इस जगत् में हमारा रहना हमारे लिए तब भगवान् की आत्मविद् सत्ता का ही एक सतत और वास्तविक रूप बन जाता है । सत्य की इस अपूर्ण अनुभूति में हमारे और भगवान् के बीच तथा सनातन को इन सब चराचर शक्तियों और जगत्प्रकृतिस्थ विश्वात्मा के साथ के हमारे व्यवहारों में परस्पर नानाविध भेदसम्बन्ध हुआ करते हैं । ये भेद-सम्बन्ध विश्वातीत सत्यसे इतर हैं, आत्मचैतन्य के शक्तिविशेष की ये विकृत सृष्टियाँ हैं; और चूंकि ये इतर हैं और हैं विकार ही, वे लोग जो विश्वातीत निरपेक्ष ब्रह्म के अनन्य उपासक हैं, इन्हें अपेक्षाकृत अथवा सर्वथा मिथ्या करार देते हैं । फिर भी ये हैं भगवान् से ही उत्पन्न, उन्हीं की सत्ता से निकले हुए सत्तावान् रूप, न-कुछ से निकली हुई कोई मायिक चीज नहीं । क्योंकि आत्मा जहाँ भी जो कुछ देखती है वह सब वह सदा स्वयं ही है, उसीका प्रतीक है और वह उससे सर्वथा भिन्न कोई और वस्तु
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नहीं है । हम यह भी नहीं कह सकते कि बिश्वातीत परमात्मसत्ता में कोई ऐसी वस्तु ही नहीं है जो इन सब सम्बन्धों से किसी प्रकार का मेल खाती हो । हम यह तो नहीं कह सकते कि ये सब विकार हैं तो उसी मूल से उत्पन्न चेतना के पर उस मूल में कोई ऐसी चीज नहीं है जो किसी प्रकार इन्हें आश्रय देती हो या जो इनके अस्तित्व को युक्ति-युक्त सिद्ध करती हो, कोई ऐसी चीज नहीं जो इन सब रूपों का सनातन सद्रूप और परात्पर मूलतत्व हो ।
फिर यदि हम एक दूसरे ढंग से आत्मा और आत्मा के इन सब रूपों के भेद को देखें तो ऐसा समझ सकते हैं कि यह आत्मा सबकी धारणकर्त्रृ है और सबके अन्दर व्याप्त है, इस तरह हम सर्वत्र अवस्थित आत्मवस्तु का होना मान सकते हैं, फिर भी आत्मा के ये रूप, उसकी सत्ता के ये सब पात्र हमें न केवल आत्मा से भिन्न, न केवल अनित्य पदार्थ ही, बल्कि मिथ्याभास प्रतीत हो सकते हैं । इस प्रकार की अनुभूति में हमें आत्मानुभव तो हुआ, उस अक्षर ब्रह्म का अनुभव हुआ जिसकी साक्षि-दृष्टि में जगत् की सारी क्षरताएँ सतत विद्यमान हैं; यहाँ अपने अन्दर और सब प्राणियों के अन्दर अंतर्यामी भगवान् की पृथक्, एक साथ या एकीभूत अनुभूति हुई । और फिर भी जगत् हमारे लिये उनकी और हमारी चेतना का केवल एक प्रातिभासिक रूप हो सकता है, अथवा सत्ता का केवल एक ऐसा प्रतीक या संकेत हो सकता है जिससे हम उनके साथ अपने विशिष्ट सम्बन्ध जोड़ते चलें और क्रमश: उन्हें जानते जायँ । पर इसके विपरीत, हमें एक ऐसा प्रत्यक्ष आत्मानुभव हो सकता है जिसमें हम सब पदार्थों को भगवान् ही देखें, केवल उस ब्रह्म ही को नहीं जो इस जगत् और इसके असंख्य प्राणियों में अक्षर-रूप में विराजते हैं, बल्कि यह सब जो कुछ अन्दर-बाहर समस्त भूतभाव है उसे भी भगवद्रूप में ही देखें । तब यही प्रत्यक्ष होता है कि यह सब जो कुछ है भगवत्सत्ता है और इस रूप में हमारे अन्दर और अखिल ब्रह्माण्ड के अन्दर भगवान् ही प्रकट हो रहे हैं । यदि यह अनुभूति एकदेशीय हुई तो 'सर्वेश्वरवादी' साक्षात्कार होता है उन सर्वमय हरि का जो सर्व हैं : पर यह सर्वेश्वरवादी दर्शन केवल आशिक दर्शन ही है । यह सारा संसार-विस्तार ही वह सर्व नहीं है जो कि आत्मतत्व या ब्रह्म है, कोई सनातन वस्तुतत्व है जो संसार से बड़ा है और उसीसे संसार की सत्ता बनती है । विश्व-ब्रह्माण्ड ही तत्वत: सम्पूर्ण भगवत्तत्व नहीं, बल्कि यह उसका केवल एक आत्मा-विर्भाव है, आत्मसत्ता की एक सच्ची पर गौण क्रिया है । ये सारे आध्यात्मिक अनुभव पहली दृष्टि में चाहे कितने ही परस्पर भिन्न या विरुद्ध हों, फिर भी इनका सामंजस्य हो सकता है यदि हम एकदेशीय बुद्धि से किसी एक पर ही जोर न दें, बल्कि इस सीधे-सादे सरल सत्य को समझ लें कि भगवत्तत्व विश्वब्रह्माण्ड की
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सत्ता से कोई महान् वस्तु है, परन्तु फिर भी सारा विश्व और विश्व के सारे भिन्न-भिन्न पदार्थ भगवद्रूप ही हैं, और कुछ नहीं-हम कह सकते हैं कि वे भगवान् के ही द्योतक हैं । अवश्य ही भगवान इन रूपों के किसी अंश में या इनके समुच्चय में पूर्णतया प्रकट नहीं हैं तथापि ये रूप हैं उनके ही सूचक । यदि थे भगवत्सत्ता की ही कोई चीज न होते, बल्कि उससे भिन्न कोई दूसरी ही चीज होते तो ये भगवान् के सूचक न हो सकते । सत्यस्वरूप या सत्तत्व भगवान् ही हैं; और ये रूप तो उन्हीं के अभिव्यंजक सत्तत्व हैं ।१ ''वासुदेव: सर्वमिति'' का यही अभिप्राय है, यह सारा जगत् जो कुछ है भगवान् हैं, इस जगत् में जो कुछ है और इस जगत् से जो कुछ अधिक है वह भी भगवान् हैं । गीता प्रथमत: भगवान् की विश्वातीत सत्ता की ओर विशेष ध्यान दिलाती है । क्योंकि, यदि ऐसा न किया जाय तो मन-बुद्धि अपने परमध्येय को न जानेगी और विश्वगत सत्ता की ओर मुड़ी रहेगी अथवा जगत् में स्थित भगवान् की किसी आंशिक अनुभूति में ही आसक्त हुई अटकी रहेगी । इसके अनन्तर गीता भगवान् की उस विश्वसत्ता पर जोर देती है जिसमें सब पदार्थ और प्राणी जीते और कर्म करते हैं । कारण जागतिक प्रयास का यही औचित्य है और वही वह विराट् आध्यात्मिक आत्मसंवित् है जिसमें भगवान् अपने आपको काल-पुरुष के रूप में देखते हुए अपना जगत्कर्म करते हैं । इसके बाद गीता ने भगवान् को मानव-शरीरनिवासी के रूप में ग्रहण करने की बात विशेष गम्भीर आग्रह के साथ कही है । क्योंकि, भगवान् सब भूतों में अंतर्यामी रूप से निवास करते ही हैं, और यदि अंत:स्थित भगवान् को न माना जाय तो न केवल वैयक्तिक जीवन का गुप्त भागवत अभिप्राय समझ में न आयगा, अपनी परम आध्यात्मिक भवितत्यता की ओर हमारी जो प्रवृत्ति है उसकी एक सबसे बड़ी शक्ति ही नष्ट न होगी, बल्कि मानव आत्माओं के परस्पर-सम्बन्ध भी क्षुद्र, अतिसीमित और अहंभावापन्न ही होंगे | अन्त में, गीता ने विस्तार के साथ यह बतलाया है कि संसार के सब पदार्थों में
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१. निरपेक्ष सत्य के सामने चाहे ये हमें अपेक्षाकृत असत् से हो प्रतीत होते हों, शंकराचार्य के मायावाद को उसके तार्किक आधार से अलग करके आध्यात्मिक अनुभूति की दृष्टि से देखा जाय तो वह इसी सापेक्ष असत् का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन मात्र प्रतीत होता है । मन-बुद्धि के परे इस तरह की कोई उलझन नहीं रहती क्योंकि वहाँ ऐसी कोई उलझन कभी थी ही नहीं । वहाँ, विभिन्न धार्मिक संप्रदायों और दर्शनों या योगशास्त्रों की आधारभूत पृथक-पृथक् श्रनुभूतियों का कुछ दूसरा ही रूप हो सकता है, उनसे निकलने-वाले विभिन्न बौद्धिक सिद्धान्त छूट जाते हैं और उनका समन्वय हो जाता है और जब ये अपनी उच्चतम समान प्रगाढ़ता को प्राप्त होते हैं तो अतिमानसिक अनन्त में इनका एकीकरण होता है ।
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भगवान् का ही प्राकटय हो रहा है और इन सब पदार्थों का मूल उन्हीं एक भगवान् की ही प्रकृति, शक्ति और ज्योति है, क्योंकि सब पदार्थों को इस रूप में देखना भी भगवान् का ज्ञान प्राप्त करने के लिए अत्यंत आवश्यक है; इसी पर प्रतिष्ठित है समस्त भाव और समस्त प्रकृति का भगवान् की ओर पूर्ण रूप से मुड़ना, जगत् में भागवत शक्ति के कर्मों का मनुष्य के द्वारा स्वीकार किया जाना और उसके मन और बुद्धि का उस भगवत्कर्म के साँचे में ढल सकना जिसका आरम्भ परम से होता, हेतु जागतिक होता और जो जीव से होकर जगत् को प्राप्त होता है ।
तात्पर्य, परम पुरुष परमेश्वर, विश्वचेतनातीत अक्षर आत्मा, मानव आधार में स्थित व्यष्टि-ईश्वर और विश्व-प्रकृति तथा उसके सब कर्मों और प्राणियों में गुप्त रूप से चैतन्यस्वरूप अथवा अंशत: आविर्भूत ईश्वर सब एक ही भगवान् हैं । परन्तु इस एक ही भगवत्सत्ता के ये जो विभिन्न भाव हैं इनमें से किसी भी एक भाव का जो यथार्थ वर्णन हम पूर्ण विश्वास के साथ कर सकते हैं उसे जब भगवत्सत्ता के अन्य भावों पर घटाने का प्रयत्न करते है तब वह वर्णन उलट जाता या उसका अभिप्राय बदल जाता है । जैसे भगवान् ईश्वर हैं, पर इसलिए उनके इस ईश्वरत्व और प्रभुत्व को हम भगवत्सत्ता के इन चारों ही क्षेत्रों पर एक-सा, बिना किसी परिवर्तन के, यों ही नहीं घटा सकते । विश्वप्रकृति में प्रकट भगवान् के नाते वे प्रकृति के साथ तदाकार होकर कर्म करते हैं । वहां वे स्वयं प्रकृति हैं ऐसा कह सकते हैं पर प्रकृति की सारी क्रियाओं के अन्दर उन्हीं की वह आत्म-शक्ति होती है जो पहले से देखती और पहले से संकल्प करती है, समझती और प्रवृत्त करती है, प्रकृति को विवश कर उससे कर्म कराती है और फिर फल का विधान करती है । सबकी एकमेव निष्क्रिय शान्त आत्मा के नाते वे अकर्ता हैं, केवल प्रकृति ही कर्त्नी है । इन सारे कर्मों को जीवों के स्वभाव के अनुसार करना वे प्रकृति पर छोड़ देते हैं, ''स्वभावस्तु प्रवर्तते" , फिर भी वे प्रभु हैं विभु हैं, क्योंकि वे हमारे कार्यों को देखते और धारण करते हैं तथा अपनी मौन अनुमति से प्रकृति को कर्म करने में समर्थ बनाते हैं । वे अपनी अक्षरता से परमेश्वर की शक्ति को अपनी व्यापक अचल सत्ता में से प्रकृति तक पहुँचाते हैं और अपने साक्षि-स्वरूप की सर्वत्र सम दृष्टि से उसके कार्यों को आश्रय देते हैं । विश्वातीत परम पुरुष परमेश्वर के नाते वे सबके आरम्भ करनेवाले हैं; सबके ऊपर हैं, सबको प्रकट होने के लिए विवश करते हैं, पर जो कुछ रचते हैं उसमें अपने-आपको खो नहीं देते और न अपनी प्रकृति के कर्मों में आसक्त ही होते हैं । उन्हीं का सर्वोपरि सर्वसंचालक संकल्प प्राकृत कर्ममात्र के सब कारणों में मूल कारण है । व्यष्टि पुरुष में अज्ञान की अवस्था में वे वही अंत:स्थित निगूढ़ ईश्वर हैं जो हम सब लोगों
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को प्रकृति के यंत्न पर घुमाया करते हैं । इस यंत्न के साथ यंत्र के एक पुरजे के तौर पर हमारा अहंकार घूमा करता है, यह अहंकार प्रकृति के इस चक्र में बाधक और साधक दोनों ही एक साथ हुआ करता है । पर प्रत्येक जीव में रहनेवाले ये भगवान् समग्र भगवान् ही होते हैं, इसलिए हम अज्ञान की दशा को पार करके इस सम्बन्ध के ऊपर उठ सकते हैं । कारण हम अपने-आपको सर्वभूतस्थित एकमेव अद्वितीय आत्मा के साथ तद्रूप कर साक्षी और अकर्ता बन सकते हैं । अथवा हम अपने व्यष्टि-पुरुष को अपने अंत:स्थ परम पुरुष परमेश्वर के साथ मानव-आत्मा का जो सम्बन्ध है उस सम्बन्ध से युक्त कर सकते हैं और उसे उसकी प्रकृति के सब अंशों में उन परमेश्वर के कार्य का निमित्त ( निमित्त कारण और करण ) तथा उसकी परा आत्मसत्ता और पुरुष-सत्ता में उसे उन आन्तरिक विधान के परम, स्वतंत्र और अनासक्त प्रभुत्व का एक महान् भागी बना सकते हैं । हमें इस बात को गीता में स्पष्टतया देखना होगा; एक ही सत्य के ये जो विभिन्न भाव सम्बन्ध-भेद और तज्जन्य प्रयोग-भेद से हुआ करते हैं, इनके लिए अपने विचार में अवकाश रखना होगा । अन्यथा हमें परस्पर-विरोध और विसंगति ही देख पड़ेगी जहाँ कोई परस्पर-विरोध या विसंगति नहीं है अथवा अर्जुन की तरह हमें भी ये सब वचन ए क पहेली से मालूम होंगे और हमारी बुद्धि चकरा जायगी ।
अब गीता कहती है कि परम पुरुष के अन्दर सारे पदार्थ हैं पर वे पुरुष किसी में नहीं हैं, ''मत्स्थनि सर्वभूतानिं न चाहं तेष्ववस्थित:" ( सब मेरे अन्दर स्थित हैं, पर मैं उनके अन्दर नहीं ), पर इसके बाद ही फिर गीता ने कहा, ''न च मत्स्थानि भूतानि...... भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावन: ( मेरे अन्दर सब भूत नहीं हैं...... मेरी आत्मा सब भूतों का धारण करनेवाली है, भूतों में रहनेवाली नहीं ) ।''१ और फिर इसके बाद परस्पर-विरोधाभास के साथ गीता ने यह बात कही कि मनुष्यशरीर में भगवान् ने अपना वासस्थान, अपना घर कर लिया है, ''मानुषीं तनुमाश्रितम्'', और इस सत्य को जान लेना कर्म, भक्ति और ज्ञान के समग्र मार्ग के द्वारा जीव के मुक्त होने के लिए आवश्यक है । ये सब वचन केवल देखने में ही परस्पर-विसंगत हैं । परम पुरुष परमेश्वर के नाते भगवान् भूतों में नहीं हैं, और न भूत उनमें हैं क्योंकि आत्मभाव और भूतभाव में हम लोग जो भेद करते हैं वह केवल पांचभौतिक जगत् के आविर्भाव के सम्बन्ध में ही है । विश्वातीत सत्ता में तो सभी सनातन आत्मा हैं और सब, यदि वहाँ भी अनेकत्व है तो, सनातन आत्मा ही हैं । वहाँ के लिए रहने का स्थानसम्बन्धी प्रश्न भी उत्पन्न नहीं हो सकता, क्योंकि विश्वातीत निरपेक्ष आत्मा देश और काल के प्रत्ययों से
१. ६, ४-५
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सीमित नहीं होती, देश और काल तो भगवान् की योगमाया से यहाँ सिरजे जाते हैं । वहाँ सबका अधिवास आत्मा में है, देश या काल में नहीं; वहाँ की भित्ति आत्मिक स्वरूपता और सहस्थिति ही हो सकती है । परन्तु इसके विपरीत विश्व के प्राकट्य में परम अव्यक्त विश्वातीत पुरुष के द्वारा देश और काल के अन्दर विश्व का विस्तार है, और उस विस्तार में वे प्रथम उस आत्मा के रूप में प्रकट होते हैं जो 'भूतभृत्' है अर्थात् सब भूतों को धारण करनेवाली है, वही अपनी सर्वव्यापक आत्मसत्ता में सबको धारे रहती है । और इस सर्वत्रावस्थित आत्मा के द्वारा भी वे परम पुरुष परमात्मा इस जगत् को धारण किये हुए हैं ऐसा कहा जा सकता है; वे ही उसकी अदृश्य आत्मप्रतिष्ठा और सब भूतों के आरम्भ का गुप्त आत्मिक कारण हैं । वे इस जगत् को उसी प्रकार धारण किये हुए हैं जिस प्रकार हमारी अंतःस्थ गुप्त आत्मा हमारे विचारों, कर्मों और व्यापारों को धारण करती है । वे मन, प्राण, शरीर में व्यापक हैं और इन्हें अपने अन्दर रखे हुए, अपनी सत्ता से इन्हें धारण किये हुए से प्रतीत होते हैं । परन्तु यह व्यापकता स्वयं ही चैतन्य की एक क्रिया है, जड़ की नहीं; स्वयं शरीर आत्मा के चैतन्य की ही एक सतत क्रिया है ।
सब भूत इन परमात्मा के अन्दर हैं; सब उनमें अवस्थित हैं, वस्तुत: जड़ रूप से नहीं, बल्कि आत्मसत्ता के ही उस विस्तृत आध्यात्मिक आधान के रूप में जिसके सम्बन्ध में हमारी यह कल्पना कि वह यही पार्थिव और आकाशीय अवकाश है, बहुत संकुचित और वैसी ही है जैसी कि भौतिक मन-बुद्धि और इन्द्रियाँ उसकी कल्पना कर सकती हैं । वास्तव में यहाँ जो कुछ है, सब आध्यात्मिक सहस्थिति, सरूपत्व और सहघटन है; पर यह वह मौलिक सत्य है जिसे हम तब-तक व्यवहार में नहीं ला सकते जबतक कि हम उस परम चैतन्य को पुन: प्राप्त न हो जाएँ । तबतक यह भावना केवल एक ऐसा बौद्धिक प्रत्यय ही रहेगी जिसका कोई सजातीय अनुभव हमें अपने व्यावहारिक जगत् में प्राप्त न होगा । अत: देशकाल से संबद्ध इन पदों का प्रयोग करते हुए हमें यों कहना चाहिए कि यह जगत् और इसके सब प्राणी स्वत:स्थित भगवान् में वैसे ही रहते हैं जैसे अन्य सब कुछ आकाश के मूल अवकाश में रहता है, जैसा कि भगवान् स्वयं ही अर्जुन से कहते है कि, ''यथाकाशस्थितो नित्यं वायु: सर्वत्रगो महान्'' तथा ''सर्वाणि भूतानि मत्स्थानी-त्युपधारय" ( जिस प्रकार सर्वत संचार करनेवाला वायुतत्व आकाश में रहता है, उसी प्रकार तुम समझो कि सब प्राणी मेरे अन्दर रहते हैं।) विश्वसत्ता सर्वव्यापक और अनन्त है और स्वत:सिद्ध भगवान् भी सर्वव्यापक और अनन्त हैं;
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पर स्वत:स्थित आनन्त्य स्थिर, अचल, अक्षर है और विश्व का आनन्त्य ''सर्वत्रग:'' सर्वव्यापक गतिरूप है । आत्मा एक है, अनेक नहीं, पर विश्वात्मा 'सर्वभूतानि' के रूप में प्रकट होती है और ऐसा मालूम होता है मानो यह सब भूतों का जोड़ है । एक आत्मा है; दूसरी आत्मा की शक्ति है जो मूल, आधारस्वरूप, अक्षर आत्मा की सत्ता में गतिमान् है, सिरजती है और कर्म करती है । आत्मा इन सब भूतों में या इनमें से किसी में वास नहीं करती, यह कहने का अभिप्राय यह है कि वह किसी पदार्थ के अंतर्भूत नहीं है, ठीक वैसे ही जैसे आकाश किसी रूप में अंत्तर्भूत नहीं है यद्यपि सब रूप मूलत: आकाश से ही उत्पन्न होते हैं । सब भूत मिलकर भी उन्हें अपने अंतर्भूत नहीं कर सकते न उनके घटक ही बन सकते हैं, ठीक वैसे ही जैसे आकाश वायुतत्व के गतिमान् विस्तार के अन्दर अंतर्भूत नहीं होता न वायु के सब रूप या शक्तियाँ आकाश को घटित ही कर सकती हैं । परन्तु फिर भी गति में हैं भगवान् ही; एक होने पर भी वे अनेकों में प्रत्येक के ईश्वर होकर निवास करते हैं । ये दोनों ही सम्बन्ध उनके विषय में एक साथ सत्य हैं । एक आत्मसत्ता का जागतिक गति के साथ सम्बन्ध है; और दूसरा अर्थात् प्रत्येक रूप मे जो उनका अधिवास है वह उन्हीं की जागतिक सत्ता का अपने ही विभिन्न रूपों के साथ सम्बन्ध है | एक अपने अन्दर सबका अंतर्भाव करनेवाला अक्षरत्व, स्वत:सिद्ध आत्मतत्व है, और दूसरा उसी आत्मा का शक्तितत्व है जो अपने ही आवरण और प्राकटय की विभिन्न शक्तियों के संचालन और निरूपण के रूप में प्रकट है ।
परम पुरुष जगत् के ऊर्ध्वमूल से अपनी प्रकृति पर झुकते हैं या उसे दबाते हैं, ताकि प्रकृति के अन्दर जो कुछ है, जो कुछ एक बार व्यक्त हो चुका था और फिर अव्यक्त में लीन हो गया उसका सनातन चक्र फिर से प्रवर्तित हो । विश्व के सब प्राणी इसी अंत:प्रेरणा के तथा व्यक्त-सत्तासंबन्धी उन विधानों के वशीभूत होकर ही कर्म करते हैं जिनके द्वारा विश्वगत सामंजस्यों के रूप में भगवान् की सर्वरूप सत्ता अभिव्यक्त होती है । इसी भागवत प्रकृति के, ''प्रकृति मामिकाम्, स्वां प्रकृतिम्'' के कर्म के अन्दर ही जीव अपने भवचक्र का अनुवर्तन करता है । जीव का इस या उस व्यष्टिभाव को प्राप्त होना उसी प्रकृति के प्रगतिक्रम में होनेवाले स्थित्यंतरों से होता है; जीव उस भागवत प्रकृति को ही प्रकट करता है और उसे प्रकट करने में अपने विशिष्ट स्वधर्म का ही पालन करता है, चाहे प्रकृति की वह गति उच्चतर और प्रत्यक्ष हो अथवा निम्नतर और विकृत हो, ज्ञान के क्षेत्र में हो या अज्ञान के; चक्र की गति पूरी होने पर प्रकृति अपनी प्रवृत्ति से निवृत्त होकर अचला और निष्क्रिय अवस्था को लौट जाती है । अज्ञान की दशा में जीव प्रकृति के प्रवाह के अधीन होता है, अपना मालिक आप नहीं बल्कि प्रकृति के
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वश में होता है-''अवश: प्रकृतेर्वशात्''; अपनी प्रभुता और मुक्त स्थिति को वह फिर से तभी प्राप्त हो सकता है जब वह लौटकर भागवत चैतन्य को पुन: प्राप्त हो । भगवान् भी प्रकृति के इस चक्र का अनुगमन करते हैं, पर उसके वश में रहकर नहीं बल्कि अन्तर से ही उसका निर्माण तथा मार्ग-दर्शन करनेवाली आत्मा के रूप में; उनकी सारी सत्ता इस स्थिति में निवर्तित नहीं होती, बल्कि उनकी आत्मशक्ति प्रकृति का साथ देती और उसे आकार देती है । वे अपने ही प्रकृति- कर्म के अध्यक्ष होते हैं, वह जीव नहीं जो प्रकृति में जन्मे हों बल्कि वह सिरजन-हार आत्मा जो प्रकृति से जगद्रुप में व्यक्त होनेवाला यह सारा विस्तार कराते हैं । वे प्रकृति के साथ रहते और उसकी सारी क्रियाएँ उससे कराते हैं, पर साथ ही वे उसके परे भी रहते हैं, जैसे प्रकृति के सारे विश्वकर्म के ऊपर कोई अपने विश्वातीत प्रभुत्व में विराज रहा हो । प्रकृति के साथ उन्हें उलझानेवाली और प्रकृति का प्रभुत्व उनके ऊपर स्थापित करनेवाली किसी वासना-कामना के कारण वे किसी प्रकार प्रकृति में लिप्त या आसक्त नहीं हैं और इसलिए प्रकृति के कर्मों से बद्ध भी नहीं हैं, क्योंकि वे इन सब कर्मों के अनन्त परे और आगे हैं, कालचक्र के भूत, भविष्य और वर्तमान सभी आवर्तनों में एकरस हैं । कालकृत क्षरभाव उनकी अक्षर सत्ता में विकार नहीं उत्पन्न करते । सारे विश्व को व्यापने और धारण करनेवाली मौन आत्मा विश्व में होनेवाले परिवर्तनों से प्रभावित नहीं होती; क्योंकि विश्व के इन परिवर्तनों को धारण करते हुए भी वह इनमें भाग नहीं लेती । यह परात्पर परम विश्वातीत आत्मा इसलिए भी इनसे प्रभावित नहीं होती कि यह इनके आगे बढ़ती और सदा ही परे रहती है ।
पर यह कर्म भी है ''स्वां प्रकृतिम्'', अपनी ही भागवत प्रकृति का कर्म और भागवत प्रकृति भगवान् से कभी पृथक् नहीं हो सकती, इसलिए जो कुछ भी प्रकृति निर्मित करती है उसके अन्दर भगवान् रहते ही हैं । यह सम्बन्ध ही भगवान् की सारी सत्ता का संपूर्ण सत्तत्व नहीं है, पर यह जितना है उसकी किसी प्रकार उपेक्षा नहीं की जा सकती । भगवान् मानवशरीर में वास करते हैं । जो उनकी इस सत्ता की अपेक्षा करते हैं, जो इस मानवरूप के आवरण के कारण उनकी अवमानना करते हैं वे प्रकृति के दिखावों से भरमते और विमूढ़ होते हैं और इस कारण वे यह अनुभव नहीं कर सकते कि हमारे अन्दर गुप्त रूप से भगवान् निवास करते हैं चाहे उनका यह निवास करना मानुष-तन में रहते हुए भी स्वरूप में जागते हुए निवास करना हो जैसा कि अवतार में होता हैं या माया से छिपा हुआ हो । जो महात्मा हैं, अपने अहंभाव के अन्दर कैद नहीं, जो अंत:स्थित भगवान् की ओर अपने-आपको सम्मुख किये हुए हैं, वे यह जानते हैं कि मनुष्य के अन्दर जो गुप्त आत्मा है, जो
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यहाँ सीमित मानव-प्रकृति से बद्ध प्रतीत होती है वह वही अनिर्वचनीय तेज है जिसे हम बाहर परम पुरुष परमेश्वर कहकर पूजते हैं । वे भगवान् के उस परम पद को जानते हैं जहाँ भगवान् सब भूतों के स्वामी और प्रभु हैं और फिर भी प्रत्येक भूत में वे देखते हैं कि वे ही भगवान् प्रत्येक के परम इष्टदेव और अंत:स्थित परमात्मा हैं । बाकी जो कुछ है वह विश्व में प्रकृति के नानात्व के प्राकटय के लिए अपने-आपको सीमित करता है । वे यह भी देखते हैं कि यह उन्हीं भगवान् की प्रकृति है जो विश्व में सब कुछ बनी हुई है, इसलिए यहाँ जो कुछ है, अन्दर की असलियत में वही एक भगवान् है, सब कुछ वासुदेव है । और इस तरह वे भगवान् को केवल विश्व के परे रहनेवाले परमेश्वर के रूप में ही नहीं बल्कि इस जगत् में, एकमेव अद्वितीय रूप में तथा प्रत्येक जीव के रूप में पूजते हैं । वे इस तत्व को देखते, इसीमें रहते और कर्म करते हैं । वे उन्हीं को सब पदार्थों के परे स्थित परम तत्व के तथा जगत् में स्थित ईश्वर के रूप में, और जो कुछ है उसके अधीश्वर के रूप में पूजते हैं, उन्हीं में रहते और उन्हीं की सेवा करते हैं । वे यज्ञकर्मों के द्वारा सेवा करते हैं, ज्ञान के द्वारा ढूंढते है और सर्वत्र उन्हीं को देखते हैं, उनके सिवा और किसी चीज को नहीं और अपने जीवभाव तथा अपनी बाह्यांतर प्रकृति दोनों ही प्रकार से अपनी सम्पूर्ण सत्ता को उन्हीं की ओर उन्नत करते हैं । इसीको वे विशाल, प्रशस्त और सिद्ध मार्ग जानते हैं; क्योंकि यही एकमेव परमतत्व-स्वरूप तथा विश्वस्थित और व्यष्टिस्थित परमेश्वर के सम्बन्ध में सम्पूर्ण सत्य का मार्ग है ।१
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१. अ० ६, श्लोक ४-११, १३-१५, ३४ ;
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