Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita.
Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.
भगवान् गुरु
संसार के अन्य सब महान् धर्मग्रंथों की अपेक्षा गीता की यह विलक्षणता है कि वह अपने-आपमें स्वतंत्र ग्रंथ नहीं है; इसका निर्माण बुद्ध, ईसा या मुहम्मद जैसे किसी महापुरुष के आत्मिक जीवन के फलस्वरूप नहीं हुआ है, न यह वेदों और उपनिषदों के समान किसी विशुद्ध आध्यात्मिक अनुसंधान के युग का फल है, बल्कि, यह जगत् के राष्ट्रों और उनके संग्रामों तथा मनुष्यों और उनके पराक्रमों के ऐतिहासिक महाकाव्य के अन्दर एक उपाख्यान है जिसका प्रसंग इसके एक प्रमुख पात्र के जीवन में उपस्थित एक विकट संकट-काल से पैदा हुआ है । प्रसंग यह है कि सामने वह कर्म उपस्थित है जिससे अबतक के सब कर्मों की परिपूर्णता होनेवाली है; पर यह कर्म भयंकर, अति उग्र और खून-खराबी से भरा हुआ है और संधि की वह घड़ी उपस्थित हो गयी है जब उसे या तो इस कर्म से बिलकुल हट जाना होगा या इसे इसके अवश्यंभावी कठोर अंत तक पहुँचाना होगा । कई आधुनिक समालोचकों की यह धारणा है कि गीता महाभारत का अंग ही नहीं है, इसकी रचना पीछे हुई है और इसके रचयिता ने इसको महाभारत में इसलिये मिला दिया कि इसको भी इस महान् राष्ट्रीय महा-काव्य की प्रामाणिकता और लोकप्रियता मिल जाय, किन्तु यह बात ठीक है या नहीं, इससे कुछ नहीं आता-जाता । मेरे विचार में तो यह धारणा गलत है, क्योंकि इसके विपक्ष में बड़े प्रबल प्रमाण हैं और पक्ष में भीतरी-बाहरी जो कुछ प्रमाण है वह बहुत पोचा और स्वल्प है । परन्तु यदि पुष्ट और यथेष्ट प्रमाण हो भी तो भी यह तो स्पष्ट ही है कि ग्रंथकार ने अपने इस ग्रंथ को महाभारत की बुनावट में बुनकर इस तरह मिला दिया है कि इसके ताने-बाने महाभारत से अलग नहीं किये जा सकते, यही नहीं, बल्कि गीता में ग्रंथकार ने बार-बार उस प्रसंग की याद दिलायी है जिस प्रसंग से यह गीतोपदेश किया गया, केवल उपसंहार में ही नहीं, बल्कि अत्यंत गंभीर तत्वनिरूपण के बीच-बीच में भी उसका स्मरण कराया है । ग्रंथकार का यह आग्रह मानना ही होगा और इस गुरु-शिष्य-संवाद में गुरु और शिष्य दोनों का जिस प्रसंग की ओर बारंबार ध्यान
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खिंचता है उसे उसका पूर्ण महत्व प्रदान करना ही होगा । इसलिए गीता को सर्वसाधारण अध्यात्मशास्त्र या नीतिशास्त्र का एक ग्रंथ मान लेने से ही काम न चलेगा, बल्कि नीतिशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र का मानव-जीवन में प्रत्यक्ष प्रयोग करते हुए ही व्यवहार में जो संकट उपस्थित होता है उसे दृष्टि के सामने रखकर इस ग्रंथ का विचार करना होगा । वह संकट क्या है, कुरुक्षेत्र के युद्ध का आशय क्या है और अर्जुन की आन्तरिक सत्ता पर उसका क्या असर होता है, इन बातों को हमें पहले निश्चित कर लेना होगा, तब कहीं हम गीता के मतों और उपदेशों की केन्द्रीय विचारधारा को पकड़ सकेंगे ।
यह बात तो बिलकुल स्पष्ट है कि कोई गहन गम्भीर उपदेश किसी ऐसे सामान्य-से प्रसंग के आधार पर नहीं खड़ा हो सकता जिसके बाह्य रूप के पीछे कोई वैसी ही गहरी भावना और भयंकर धर्म-संकट न हो और जिसका समाधान नित्य के सामान्य आचार-विचार के मानक से किया जा सकता हो । गीता में सचमुच तीन बातें ऐसी हैं जो आध्यात्मिक दृष्टि से बड़े महत्व की हैं, प्राय: प्रतीकात्मक हैं और उनसे आध्यात्मिक जीवन और मानव अस्तित्व के मूल में जो बहुत गहरे संबंध और समस्याएँ हैं वे प्रत्यक्ष होती हैं । वे तीन बातें हैं─ श्रीगुरु का भागवत व्यक्तित्व, उनका अपने शिष्य के साथ विशिष्ट प्रकार का संबंध और उनके उपदेश का प्रसंग । श्रीगुरु स्वयं भगवान् हैं जो मानव-जाति में अवतरित हुए हैं; शिष्य अपने काल का श्रेष्ठ व्यक्ति है, जिसे हम आधुनिक भाषा में मनुष्य-जाति का प्रतिनिधि कह सकते हैं, और जो इस अवतार का अंतरंग सखा और चुना हुआ यन्त्र है । वह एक विशाल कार्य और संग्राम में प्रमुख पात्र है जिसका रहस्यमय उद्देश्य उस रंगभूमि के पात्रों को ज्ञात नहीं, ज्ञात है केवल उन मनुष्य-शरीरधारी भगवान् को जो अपने ज्ञानमय अथाह मानस के पीछे छिपे हुए यह सारा कार्य चला रहे हैं । और, प्रसंग है इस कार्य और संग्राम में उपस्थित अति विकट भीषण परिस्थिति की वह घड़ी जिसमें इसकी बाह्य गति का आतंक और धर्म-संकट तथा अंध प्रचंडता इस आदर्श व्यक्ति के मानस पर प्रत्यक्ष होकर इसे सिर से पैर तक हिला देती है और वह सोचने लगता है कि आखिर इसका अभिप्राय क्या है, जगदीश्वर का इस जगत् से आशय क्या है, इसका लक्ष्य क्या है, यह किधर जा रहा है और मानव-जीवन और कर्म का मतलब क्या है ।
भारतवर्ष में प्राचीन काल से ही बड़े दृढ़ विश्वास के साथ यह मान्यता चली आयी है कि भगवान् वास्तव में अवतार लिया करते हैं, अरूप से रूप में अवतरित हुआ करते हैं, मनुष्यरूप में मनुष्यों के सामने प्रकट हुआ करते हैं । पश्चिमी
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देशों में यह विश्वास लोगों के मन पर कभी यथार्थ रूप से जमा ही नहीं, क्योंकि लौकिक ईसाई धर्म में इस भाव का एक ऐसे धार्मिक मत-विशेष के रूप में ही प्रतिपादन किया गया है जिसका युक्ति, सर्व साधारण चेतना और जीवन व्यवहार से मानो कोई मूलगत संबंध ही न हो । परंतु भारतवर्ष में वेदान्त की शिक्षा के स्वाभाविक परिणामस्वरूप यह विश्वास बराबर बढ़ता और जमता गया और इस देश के लोगों की चेतना में ही जड़ पकड़ गया है । यह सारा चराचर जगत् भगवान् की ही अभिव्यक्ति है, कारण एकमात्र भगवान् ही सत् हैं, बाकी सब उन्हीं एकमात्र सत् का सत् या असत् रूप है । इसलिए प्रत्येक जीवन किसी-न-किसी अंश में, किसी-न-किसी विधि से उसी एक अनन्त का सांत दीखनेवाले इस नामरूपात्मक जगत् में अवतरणमात्र है । परन्तु यह मानो परदे के पीछे अभिव्यक्ति है; और, भगवान् का जो परभाव है तथा सांत रूप में जीव की यह जो पूर्णतः अथवा अंशत: अविद्या में छिपी चेतना है, इन दोनों के बीच में चेतना का चढ़ता-उतरता हुआ क्रम लगा है । देह में रहनेवाली चिन्मय आत्मा, जिसे देही कहते हैं भगवदग्नि की चिनगारी है और मनुष्य के अन्दर रहनेवाली यह आत्मा जैसे-जैसे अपने बारे में अज्ञान से बाहर निकलकर आत्म-स्वरूप में विकसित होने लगती है वैसे-वैसे वह स्वात्म-ज्ञान में बढ़ने लगती है । भगवान् भी इस विश्व-जीवन के नानाविध रूपों में अपने-आपको ढालते हुए, सामान्यत:, इसकी शक्तियों के फलने-फूलने में इसके ज्ञान प्रेम, आनन्द और विभूति की तेजस्विता और विपुलता में, अपनी दिव्यता की कलाओं और रूपों में आविर्भूत हुआ करते हैं । परन्तु जब भागवत चेतना और शक्ति मनुष्य के रूप तथा कर्म को मानव-प्रणाली को अपना लेती है, और इसपर केवल शक्ति और विपुलता द्वारा अथवा अपनी कलाओं और बाह्य रूपों द्वारा ही नहीं, बल्कि अपने शाश्वत ज्ञान के साथ अधिकार करती है, जव वह अजन्मा अपने-आपको जानते हुए मानव मन-प्राण-शरीर धारण कर, मानव-जन्म का जामा पहनकर कर्म करता है तव वह देश-काल के अन्दर भगवान् के प्रकट होने की पराकाष्ठा है : वही भगवान् का पूर्ण और चिन्मय अवतरण है, उसीको अवतार कहते हैं ।
वेदान्त के वैष्णव संप्रदाय में इस सिद्धांत की बड़ी मान्यता है और वहाँ मनुष्यों में रहनेवाले भगवान् और भगवान् में रहनेवाले मनुष्य का जो परस्पर संबंध है वह नर-नारायण के द्विविध रूप से परिदर्शित किया गया है; इतिहास की दृष्टि से नर-नारायण एक ऐसे धर्म-संप्रदाय के प्रवर्तक माने जाते हैं जिसके सिद्धांत और उपदेश गीता के सिद्धांतों और उपदेशों से बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं । नर मानव-आत्मा है, भगवान् का चिरंतन सखा है जो अपने स्वरूप को
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तभी प्राप्त होता है जब वह इस सखा-भाव में जागृत होता है, और, जैसा कि गीता में कहा है, वह उन भगवान् में निवास करने लगता है । नारायण मानव-जाति में सदा वर्तमान भागवत आत्मा है, वह सर्वान्तर्यामी, मानव-जीव का सखा और सहायक है, यह वही है जिसके बारे में गीता ने कहा है, ''ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देश...... तिष्ठति ।'' हृदय के इस गूढ़ाशय के ऊपर से जब आवरण हटा लिया जाता है और ईश्वर का साक्षात् दर्शन करके मनुष्य उनसे प्रत्यक्ष संभाषण करता है, उनके दिव्य शब्द सुनता है, उनकी दिव्य ज्योति ग्रहण करता है और उनकी दिव्य शक्ति से युक्त होकर कर्म करता है तब इस मनुष्य-शरीर-धारी सचेतन जीव का परमोद्धार होकर उस अज-अविनाशी शाश्वत स्वरूप को प्राप्त होना संभव होता है । तब वह भगवान् में निवास और सर्वभाव से भगवान् में आत्म-समर्पण करने योग्य होता है जिसे गीता ने ''उत्तमं रहस्यं" माना है । जब यह शाश्वत दिव्य चेतना जो मानव-प्राणिमात्र में सदा विद्यमान है अर्थात् नर में विराजनेवाले ये नारायण भगवान् जब इस मानव-चैतन्य को अंशत:१ या पूर्णतः अधिकृत कर लेते और दृश्यमान मानव-रूप में जगद्गुरु, आचार्य या जगन्नेता होकर प्रकट होते हैं तब यह उनका प्रत्यक्ष अवतार कहा जाता है । यह उन आचार्यों या नेताओं की बात नहीं है जो सब प्रकार से हैं तो मनुष्य ही पर कुछ ऐसा अनुभव करते हैं कि दिव्य प्रज्ञा का बल या प्रकाश या प्रेम उनका पोषण कर रहा है और उनके द्वारा सब कार्य करा रहा है, बल्कि यह उन मानव-तनु धारी की बात है जो साक्षात् उस दिव्य प्रज्ञा से, सीधे उस केन्द्रीय शक्ति और पूर्णता में से आते हैं । मनुष्य के अन्दर जो भगवान् हैं, वही नर में नारायण का सनातन अवतार है; और नर में जो अभिव्यक्ति है वही बहिर्जगत् में उनका चिह्न और विकास है ।
इस प्रकार जब अवतार-तत्व हमारी समझ में आ जाता है तब हम देखते हैं कि चाहे गीता की मूलगत शिक्षा─जिसको जानना ही हमारा प्रस्तुत विषय है─की दृष्टि से हो, या आम तौर पर आध्यात्मिक जीवन की दृष्टि से हो, इस ग्रंथ के बाह्य पहलू का महत्व गौण ही है । यूरोप में ईसा की ऐतिहासिकता पर जो वाद-विवाद चलता है वह अध्यात्मचेता भारतवर्ष के विचार में प्रायः समय का दुरुपयोग ही है; ऐसे वाद-विवाद को वह ऐतिहासिक दृष्टि से तो महत्व देगा, पर उसकी दृष्टि में इसका कोई धार्मिक महत्व नहीं है, क्योंकि ईसा नामक कोई मनुष्य यूसुफ नाम के किसी बढ़ई के पुत्र-रूप से नजरथ या बेथलहम में पैदा
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१ नवद्वीप के अवतार श्री चैतन्य के विषय में यह कहा गया है कि वे अंशत: या कभी-कभी भागवत चैतन्य और चिच्छक्ती द्वारा अधिकृत हो जाते थे ।
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हुए, पढ़े और राजद्रोह के किसी सच्चे या बनावटी अपराध में मृत्युदंड से दंडित हुए या नहीं, इन बातों से आखिर क्या आता-जाता है जब कि हम आध्यात्मिक अनुभव से अपने अंत:स्थित ईसा को जान सकते हैं और ऊर्ध्व चेतना में ऊपर उठकर उनकी शिक्षा की ज्योति में निवास कर सकते हैं, ईसा का सूली पर चढ़ना भगवान् के साथ जिस ऐक्य का प्रतीक है उस ऐक्य के द्वारा प्रकृति-विधान की दासता से मुक्त हो सकते हैं? ईसा अर्थात् ईश्वर का बनाया हुआ मनुष्य यदि हमारे अध्यात्मभाव में स्थित है तो इस बात का बहुत अधिक मूल्य नहीं दीखता कि मेरी के कोई पुत्र जूडिया में शरीरत: थे या नहीं और उन्होंने कष्ट झेले और अपने प्राणों को न्योछावर किया या नहीं । इसी प्रकार जिन श्रीकृष्ण का हमारे लिये महत्व है वे भगवान् के शाश्वत अवतार हैं, कोई ऐतिहासिक गुरु या मनुष्यों के नेता नहीं ।
इसलिए गीतोपदेश के सारतत्व को ग्रहण करने के लिए हमें महाभारत के उन मानव-रूप भगवान् श्रीकृष्ण के केवल आध्यात्मिक मर्म के साथ ही मतलब रखना चाहिए जो इस कुरुक्षेत्र की संग्राम-भूमि में हमारे सामने अर्जुन के गुरु-रूप में अवस्थित हैं । ऐतिहासिक श्रीकृष्ण भी थे, इसमें कोई संदेह नहीं । छांदोग्य उपनिषद् में, पहले-पहल, यह नाम आता है और वहाँ इनके बारे में जो कुछ मालूम होता है वह इतना ही है कि आध्यात्मिक परंपरा में ब्रह्मवेत्ता के रूप में उनका नाम सुप्रसिद्ध था, उनका व्यक्तित्व और उनका इतिवृत्त लोगों में इतना व्यापक था कि केवल देवकी-पुत्र श्रीकृष्ण कहने से ही लोग जान जाते थे कि किसकी चर्चा हो रही है । इसी उपनिषद् में विचित्रवीर्य के पुत्र राजा धृतराष्ट्र का भी नामोल्लेख है । और, चूंकि यह परंपरा इन दोनों नामों को महाभारत-काल में भी इतने निकट संपर्क में चलाये चली है, कारण ये दोनो-के-दोनों ही महाभारत के प्रमुख व्यक्ति हैं, इसलिए हम इस निर्णय पर भली प्रकार पहुँच सकते हैं कि ये दोनों वास्तव में समकालीन थे और यह कि इस महाकाव्य में अधिकतर ऐतिहासिक व्यक्तियों की ही चर्चा हुई है और कुरुक्षेत्र के संबंध में किसी ऐसी ऐतिहासिक घटना का ही उल्लेख है जिसकी छाप इस जाति के स्मृति-पट पर अच्छी तरह पड़ी हुई थी । यह बात भी ज्ञात है कि ईसा का जन्म होने से पहले की शताब्दियों में श्रीकृष्ण और अर्जुन पूजे जाते थे; और, यह मान लेने का कुछ कारण है कि यह पूजा किसी ऐसी धार्मिक या दार्शनिक परंपरा के कारण ही होती होगी, जहाँसे गीता ने अपने बहुत-से तत्वों को, यहांतक कि ज्ञान, कर्म और भक्ति के समन्वय की भित्ति को भी लिया होगा, और शायद यह भी माना जा सकता है कि ये मानव श्रीकृष्ण ही इस संप्रदाय के प्रवर्तक, पुन: संस्थापक
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या कम-से-कम कोई पूर्वाचार्य रहे होंगे । इसलिए गीता का बाह्य रूप पीछे चाहे कुछ बदला भी हो तो भी यह भारतीय विचारधारा के रूप में श्रीकृष्ण के ही उपदेश का फल है और इस उपदेश का ऐतिहासिक श्रीकृष्ण के साथ तथा अर्जुन और कुरुक्षेत्र के युद्ध के साथ संबंध केवल कवि की कल्पना ही नहीं है । महाभारत में श्रीकृष्ण एक ऐतिहासिक व्यक्ति हैं और अवतार भी; इनकी उपासना और इनके अवतार होने की मान्यता देश में उस समय तक प्रस्थापित हो चुकी थी जब ईसा के पूर्व (पाँचवीं और पहली शताब्दी के बीच में ) महाभारत की प्राचीन कहानी और कविता या महाकाव्य-परंपरा ने अपना वर्तमान रूप धारण किया । इस काव्य में अवतार की बाल-वृंदावन-लीला की कथा या किंवदंती का भी संकेत है जिसे पुराणों ने इतने प्रबल और सतेज आध्यात्मिक प्रतीक के रूप में वर्णित किया है कि उसका भारत के धार्मिक मन पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा है । हरिवंश में भी श्रीकृष्ण की लीला का वर्णन है, इसमें स्पष्ट ही प्रायः उपाख्यान भरे हैं और शायद सब पौराणिक वर्णन हैं ही इन्हीं के आधार पर ।
इतिहास की दृष्टि से इन सबका काफी महत्व है, फिर भी हमारे प्रस्तुत विषय के लिये इनका कुछ भी उपयोग नहीं है । यहाँ केवल भगवान् गुरु के उस रूप से मतलब है जिसको गीता ने हमारे सामने रखा है और मानव-जीव को आध्यात्मिक प्रकाश देनेवाली उस शक्ति से मतलब है जिसको देने के लिये वे गुरु आये हैं। गीता मानव-रूप में भगवान् के अवतार लेने के सिद्धान्त को मानती है; क्योंकि भगवान् गीता में मानव-रूप में बारंबार युग-युग में प्रकट होने की बात कहते हैं ।१ यह प्राकट्य तब होता है जब कि वे शाश्वत अजन्मा अपनी माया के द्वारा, अपनी अनंत चिच्छक्ति से सांत रूपों का जामा पहनकर संभूति की अवस्थाओं को─जिन्हें हम जन्म कहते है─धारण करते हैं । परन्तु गीता में भगवान् के इस रूप पर नहीं, बल्कि परात्पर, विराट और आंतरिक रूप पर जोर दिया गया है, वे जो समस्त वस्तुओं के उद्गम हैं, सबके स्वामी हैं और मनुष्य के हृदय में वास करते हैं । इन्हीं अन्तःस्थित भगवान् से वहां मतलब है जहाँ गीता में उग्र आसूर तप के करनेवालों के विषय में यह कहा गया है कि ये "अन्त: शरीरस्थं मां," मुझ भगवान् को कष्ट देते हैं या जहाँ यह कहा गया है कि ये असुर ''मानुषों तनुमाश्रितं मां" मनुष्य-शरीर में रहनेवाले मुझसे द्वेष करके पाप करते हैं और वहां भी जहाँ यह कहा गया है कि इनके अज्ञान-तम को ''प्रज्वलित ज्ञानदीप के द्वार'' मैं "नष्ट कर देता हूँ" (नाशयामि ज्ञानदीपेन
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१ बहूनि मे व्यतीतानि.......संभवामि युगे युगे ।
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भास्वता) । अतएव, ये सनातन अवतार, मानव-जीव में सदा वर्तमान रहनेवाला यह चैतन्य, मनुष्य में रहनेवाले ये भगवान् ही प्रत्यक्ष प्रकट होकर गीता में मानव-आत्मा से बोल रहे हैं, जब वह जगत् के दु:खमय रहस्य के आमने-सामने खड़ी है । उसको जीवन के आशय का और भागवत कर्म के गुह्य तत्व का बोध दे रहे हैं, और दे रहे हैं भागवत ज्ञान और जगदीश्वर के आश्वासक और बलदायक शब्द तथा उसका पथ-प्रदर्शन कर रहे हैं । यही वह चीज है जिसे भारत की धार्मिक चेतना अपने समीप ले आने का प्रयत्न करती है, फिर चाहे उसका रूप कुछ भी क्यों न हो, चाहे वह रूप मंदिरों में स्थापित प्रतीकात्मक मानव आकार की मूर्त्ति हो अथवा अवतारों की उपासना हो या उस एक जगद्गुरु की वाणी को सुनानेवाले गुरु की भक्ति हो । इन सबके द्वारा वह उस आंतरिक वाणी के प्रति जागृत होने की चेष्टा करती है, उस अरूप के रूप को खोजती है और उस अभिव्यक्त भागवत शक्ति, प्रेम और ज्ञान के आमने-सामने आ जाती है ।
दूसरी बात यह है कि इन मानव श्रीकृष्ण का एक लाक्षणिक, प्राय: प्रतीकात्मक मर्म है, यही महाभारत के महान् कर्म के प्रवर्तक हैं, नायक-रूप से नहीं, बल्कि उसके गुप्त केन्द्र और अज्ञात संचालक के रूप से । यह कर्म एक विराट् कर्म है जिसमें मनुष्यों और राष्ट्रों का सारे-का-सारा संसार सम्मिलित है, इनमें कुछ लोग और राष्ट्र ऐसे हैं जो केवल इस कर्म और इसके परिणाम के सहायक होकर ही आये हैं, जिससे उनका अपना कोई लाभ नहीं है, श्रीकृष्ण इनके नेता हैं; कुछ लोग ऐसे हैं जो इस कर्म के विरोधी हैं और उनके, श्रीकृष्ण भी विरोधी हैं, उनकी चालों को उलटानेवाले और उनका संहार करनेवाले हैं; और कुछ लोग तो यहांतक समझते हैं कि इस सारे अनर्थ के मूल श्रीकृष्ण हैं, जो पुरानी व्यवस्था, सुपरिचित जगत् और पुण्य और धर्म की सुरक्षित परंपरा को मिटाये दे रहे हैं; इनमें फिर कुछ लोग ऐसे हैं जिनके द्वारा यह कर्म सिद्ध होनेवाला है, श्रीकृष्ण उनके उपदेष्टा और सुहृद् हैं । जहाँ यह कर्म अपनी प्राकृतिक गति से हो रहा है और इस कर्म के करनेवालों को उनके शत्रुओं से पीड़ा पहुँचती है और उन्हें उन अग्नि-परीक्षाओं को पार करना पड़ता है जो उनको प्रभुत्व-लाभ करने के लिये तैयार करती हैं वहाँ अवतार अप्रकट हैं अथवा प्रसंग-विशेष पर आवश्यक सांत्वना और सहायता भर के लिये प्रकट होते हैं, किन्तु प्रत्येक संकट में उनके सहायक हाथों का अनुभव होता है, फिर भी यह अनुभव इतना हलका है कि इस विराट् कर्म के सभी कर्ता अपने-आपको ही कर्ता मानते हैं और अर्जुन भी, जो उनका अतिप्रिय सखा और उनके हाथ का मुख्य यन्त्र या उपकरण है
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वह भी, यह अनुभव नहीं करता कि 'मैं उपकरण हूँ' और उसे यह बात अंत में स्वीकार करनी पड़ती है कि अबतक 'मैंने अपने सखा सुहृद् भगवान् को सचमुच में जाना ही नहीं था ।' अर्जुन को उनके ज्ञान से बराबर मंत्रणा मिलती रही, उनकी शक्ति से सहायता भी मिलती रही, अर्जुन उन्हें प्यार करता रहा और उनसे प्यार पाता भी रहा, अवतार के भगवत्स्वरूप को जाने बिना अर्जुन उन्हें पूजता भी रहा । और, सब लोगों की तरह अर्जुन को भी अहंकार के द्वारा ही पथ-प्रदर्शन मिलता रहा और उसे जो मंत्रणा, सहायता और आदेश दिया गया वह अज्ञान की भाषा में ही दिया गया और अर्जुन ने भी उसे अज्ञान के विचारों के द्वारा ही ग्रहण किया । और, यह उस समय तक चलता रहा जबतक कि कुरुक्षेत्र के मैदान में इस संघर्ष की भीषण अवस्था सामने नहीं आयी, और तब अवतार योद्धा बनकर नहीं, बल्कि युद्ध की भवितव्यता को बहन करनेवाले रथ के ऊपर विराजमान सारथी बनकर सामने आये, उन्होंने अपने स्वरूप को अपने चुने हुए यंत्रों के आगे भी प्रकट नहीं किया ।
इस प्रकार श्रीकृष्ण यहाँ मानो मनुष्यों के साथ भगवान् के व्यवहारों के प्रतीक बन जाते हैं । इस जगत् में हम लोगों के द्वारा जो सब कर्म कराया जाता है वह हम लोगों के अहंकार और अज्ञान के रास्ते से ही कराया जाता है और हम लोग यह समझते हैं कि हम ही अपने सब कर्मों के कर्ता हैं, और इनका जो कुछ फल होता है उसके हम ही असली कारण हैं । ऐसा समझकर हम अपने-आपपर गर्व करते हैं, पर यथार्थ में जो चीज हमसे यह सब कराती है वह कुछ और ही है और उसे हम लोग यदा-कदा प्रसंगवश ही ज्ञान, अभीप्सा और शक्ति के किसी अस्पष्ट स्रोत के रूप में देख पाते हैं या किसी सिद्धांत या प्रकाश या सामर्थ्य के रूप में भी जानते और मानते हैं और उसके वास्तविक रूप को जाने बिना ही उसे पूजते भी हैं; वह चीज वास्तव में क्या है यह हमें तबतक नहीं मालूम होता जबतक वह प्रसंग नहीं उपस्थित होता जो हमें बलात् इस रहस्य के सामने लाकर खड़ा कर दे । भगवान् श्रीकृष्ण मानव-जीवन के समस्त विशाल कर्म के अन्दर क्रियाशील हैं, केवल उसके आभ्यंतर जीवन में ही नहीं, बल्कि जगत् के सारे अज्ञान-अंधकारमय क्रम के अन्दर भी, जिसका अनुमान हम अपनी बुद्धिके टिमटिमाते हुए प्रकाश से करते हैं जब वह हमारी अनिश्चित अग्रगति के आगे एक छोटे दायरे को अस्पष्ट रूप से दिखाता है । गीता की यही विशेषता है कि वास्तव में एक ऐसे ही कर्म की पराकाष्ठा से गीता के उपदेश का प्रादुर्भाव हुआ है और उसीसे गीता के कर्म-सिद्धांत को इतना महत्व प्राप्त हुआ और उसका इतना सुस्पष्ट और जोरदार प्रतिपादन हुआ है जितना अन्य
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किसी भारतीय धर्मग्रंथ का नहीं देख पड़ता । केवल गीता में ही नहीं, महाभारत के अन्य स्थानों में भी श्रीकृष्ण ने कर्म की आवश्यकता की बड़े जोर के साथ घोषणा की है; पर उसका रहस्य और हमारे कर्मों के पीछे छिपी हुई दिव्य सत्ता तो गीता में ही प्रकट की गयी है ।
अर्जुन और श्रीकृष्ण के अर्थात् मानव-आत्मा और भागवत आत्मा के सख्य का रूपक अन्य भारतीय ग्रंथों में भी आता है, जैसे एक स्थान में यह वर्णन है कि इन्द्र और कुत्स एक ही रथ पर बैठे हुए स्वर्ग की ओर यात्रा कर रहे हैं, जैसे उपनिषदों में दो पक्षी एक ही वृक्ष पर बैठे हुए मिलते हैं अथवा जैसे यह वर्णन आता है कि नर-नारायण ऋषि ज्ञानार्थ एक साथ तपस्या कर रहे हैं । पर इन तीनों उदाहरणों में, जैसा कि गीता ने कहा है, वह ज्ञान ही लक्ष्य है जिसमें, ''सारा कर्म अपनी पूर्णता प्राप्त करता है"; परन्तु गीता में वह कर्म लक्ष्य है जो उस ज्ञान को प्राप्त कराता है और जिसमें ज्ञाता भगवान् ही कर्म के कर्ता बनकर सामने आते हैं । यहाँ अर्जुन और श्रीकृष्ण, अर्थात् मनुष्य और भगवान् ऋषि मुनियों के समान किसी तापस आश्रम में ध्यान करने नहीं बैठे हैं, बल्कि रणभेरियों के तुमुल निनाद से आकुल समर-भूमि में शस्त्रों की खनखनाहट के बीच युद्ध के रथ पर रथी और सारथी के रूप में विद्यमान हैं । अतएव, गीता के उपदेष्टा गुरु केवल मनुष्य के वे अंतर्यामी ईश्वर ही नहीं हैं जो केवल ज्ञान के वक्ता के रूप में ही प्रकट होते हों, बल्कि मनुष्य के वे अंतर्यामी ईश्वर हैं जो सारे कर्म-जगत् के संचालक हैं, जिनसे और जिनके लिये समस्त मानव-जीवन यात्रा कर रहा है । वे सब कर्मों और यज्ञों के छिपे हुए स्वामी हैं और सबके सुहृद् हैं ।
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