गीता-प्रबंध

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Sri Aurobindo

Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) Essays On The Gita Vol. 13 576 pages 1970 Edition
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Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo गीता-प्रबंध 629 pages 1984 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

भगवान् की अवतरण-प्रणाली

 

      हम देखते हैं कि मनुष्य में परमेश्वर का अवतरण अर्थात् परमेश्वर का मानव-रूप और मानव-स्वभाव-धारण एक ऐसा रहस्य है जो गीता की दृष्टि में स्वयं मानव-जन्म के चिरंतन रहस्य का एक दूसरा पहलू है; क्योंकि मानव-जन्म मूलत:, बाह्यत:

 न सही, ऐसा ही आश्चर्यमय व्यापार है । प्रत्येक मनुष्य का सनातन और विराट् आत्मा स्वयं परमेश्वर है; उसका व्यष्टिभूत आत्मा भी परमेश्वर का ही अंश है (ममैवांश: ) जो निश्चय ही परमेश्वर से कटकर अलग हुआ कोई टुकड़ा नहीं,--कारण परमेश्वर के सम्बन्ध में कोई ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती कि वे छोटे-छोटे टुकड़ों में बँटे हुए हों,--बल्कि वह एक ही चैतन्य का आंशिक चैतन्य है, एक ही शक्ति का शक्त्यंश है, सत्ता के आनन्द के द्वारा जगत्-सत्ता का आंशिक आनन्द-उपभोग है, और इसलिए व्यक्त रूप में या यह कहिए कि प्रकृति में यह जीव उसी एक अनन्त अपरिच्छिन्न पुरुष का एक सांत परिच्छिन्न भाव है । इस परिच्छिन्नता की जो छाप उसपर पड़ी है वह एक ऐसा अज्ञान है जिससे वह न केवल उन परमेश्वर को जिनसे वह आया, बल्कि उन परमेश्वर को भी भूल जाता है जो सदा उसके अंतर में विराजमान हैं, उसकी अपनी प्रकृति के गुह्य हृद्देश  में अवस्थित हैं और उसके अपने मानवचैतन्य के देवालय की अंतर्वेदी में प्रच्छन्न अग्नि के समान प्रज्वलित हैं ।

      मनुष्य उन्हें नहीं जानता, क्योंकि उसकी आत्मा की आँखों पर और उसकी समस्त इन्द्रियों पर उस प्रकृति की, उस माया की छाप लगी हुई है जिसके द्वारा वह परमेश्वर की सनातन सत्ता से बाहर निकालकर अभिव्यक्त किया गया है; प्रकृति ने उसे भागवत सत्व की अत्यंत मूल्यवान् धातु से सिक्के के रूप में ढाला है, पर उसपर अपने प्राकृत गुणों के मिश्रण का इतना गहरा लेप चढ़ा दिया है, अपनी मुद्रा की और पाशविक मानवता के चिह्न की इतनी गहरी छाप लगा दी है कि यद्यपि भागवत भाव का गुप्त चिह्न वहाँ मौजूद है लेकिन वह आरम्भ में दिखायी नहीं देता, उसका बोध होना सदा ही दुस्तर होता है, उसका पता चलता है तो केवल आत्म-स्वरूप के रहस्य  की उस दीक्षा से जो बहिर्मुख मानवता से ईश्वरा-

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भिमुख मानवता का पार्थक्य स्पष्ट दिखा देती है । अवतार में अर्थात् दिव्य- जन्मप्रात मनुष्य में वह भागवत सत्व लेप के रहते हुए भी भीतर से जगमगा उठता है;  प्रकृति की मुहरछाप वहाँ केवल रूप के लिये होती है, अवतार की दृष्टि अंत:- स्थित ईश्वर की दृष्टि होती है, उनकी जीवन-शक्ति अंत:स्थित ईश्वर की जीवन्-शक्ति होती है और वह धारण की हुई मानव-प्रकृति की मुहरछाप को भेद कर बाहर निकल पड़ती है;  ईश्वर का यह चिह्न, अंतरस्थ अंतरात्मा का यह चिह्न कोई बाह्यया भौतिक चिह्न  न होने पर भी उनके लिए स्पष्ट बोधगम्य होता है जो उसे देखना चाहें या देख सकें; आसुरी प्रकृति अवश्य ही यह सब नहीं देख सकती, क्योंकि वह केवल शरीर को देखती है आत्मा को नहीं, वह बाह्म सत्ता को देखती है अंत:सत्ता को नही, वह परदे को देखती है उसके भीतर के पुरुष को नहीं । सामान्य मानव-जन्म में मानवरूप धारण करनेवाले जगदात्मा जगदीश्वर का प्रकृतिभाव ही मुख्य होता है; अवतार के मनुष्य-जन्म में उनका ईश्वरभाव प्रकट होता है । एक में ईश्वर मानव-प्रकृति को अपनी आंशिक सत्तापर अधिकार और शासन करने देते हैं और दूसरे में वे अपनी अंशसत्ता और उसकी .प्रकृति को अपने अधिकार में लेकर उसपर शासन करते हैं । गीता हमें बतलाती है कि साधारण मनुष्य जिस प्रकार विकास को प्राप्त होता हुआ या ऊपर उठता हुआ भागवत जन्म को प्राप्त होता है उसका नाम अवतार नहीं है, बल्कि भगवान् जब मानवता के अंदर प्रत्यक्ष रूप में उतर आते हैं और मनुष्य के ढांचे को पहन लेते हैं, तब वह अवतार कहलाते हैं ।

     परन्तु अवतार लेने के लिए यह स्वीकृति या यह अवतरण मनुष्य के आरोहण या विकास को सहायता पहुँचाने के लिए ही होता है, इस बात को गीता ने बहुत स्पष्ट करके कहा है । कहा जा सकता है कि मानव-प्राणी के रूप में भगवान् के प्राकटय की सम्भावना को दृष्टांतरूप से सामने रखने के लिए अवतार होता है, ताकि मनुष्य देखे कि यह क्या चीज है और उसमें इस बात का साहस हो कि वह अपने जीवन को उसके जैसा बना सके । और यह इसलिए भी होता है कि पार्थिव प्रकृति की नसों में इस प्राकटय का प्रभाव बहता रहे और उस प्राकटय की आत्मा पार्थिव प्रकृति के ऊर्ध्वगामी प्रयास का नेतृत्व करती रहे ।  यह जन्म मनुष्य को दिव्य मानवता का एक ऐसा आध्यात्मिक सांचा देने के लिए होता है जिसमें मनुष्य की जिज्ञासु अंतरात्मा अपने-आपको ढाल सके । यह जन्म एक धर्म देने के लिए-कोई संप्रदाय या मतविशेषमात्र नहीं, बल्कि आंतर और बाह्म जीवनयापन की प्रणाली--आत्म-संस्कारक मार्ग, नियम और विधान  .देने के लिए होता है जिसके द्वारा मनुष्य दिव्यता की ओर बढ़ सके । चूंकि

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मनुष्य का इस प्रकार आगे बढ़ना, इस प्रकार आरोहण करना मात्र पृथक् और वैयक्तिक व्यापार नहीं है, बल्कि भगवान् के समस्त जगत्-कर्म की तरह एक सामूहिक व्यापार है, मानवमात्र के लिये किया गया कर्म है इसलिए अवतार का आना मानव-यात्रा की सहायता के लिए, महान् संकट-काल के समय मानव-जाति को एक साथ रखने के लिए, अधोगामी शक्तियाँ जब बहुत अधिक बढ़ जायें तो उन्हें चूर्ण-विचूर्ण करने के लिए, मनुष्य के अन्दर जो भगवन्मुखी महान् धर्म है उसकी स्थापना या रक्षा के लिए, भगवान् के साम्राज्य की (फिर चाहे वह कितना ही दूर क्यों न हो ) प्रतिष्ठा के लिए, प्रकाश और पूर्णता के साधकों (साधुनां ) को विजय दिलाने के लिए और जो अशुभ और अंधकार को बनाये रखने के लिए युद्ध करते हैं उनके विनाश के लिए होता है । अवतार के ये हेतु सर्वमान्य हैं और उसके कर्म को देखकर ही जनसमुदाय उन्हें विशिष्ट पुरुष जानता और पूजने को तैयार होता है । केवल आध्यात्मिक मनुष्य ही यह देख पाते हैं कि अवतार एक चिह्न है, मानसिक और शारीरिक क्षेत्र में अभिव्यक्त होकर उसे अपने साथ एकता में विकसित करने और उसपर अधिकार करने के लिए अपने-आपको अभिव्यक्त करने वाले सनातन आन्तरिक भगवान् का प्रतीक है । बाह्य मानवरूप में ईसा, बुद्ध या कृष्ण का जो दिव्य प्राकटय होता है और मनुष्य के अन्दर भगवान् के चिरंतन अवतार का जो प्राकटय होता है, दोनों के मूल में एक ही गूढ़ सत्य है । जो कुछ अवतारों के द्वारा इस पृथ्वी के बाह्म मानव-जीवन में किया गया है वह समस्त मानव-प्राणियों के अन्दर दोहराया जा सकता है ।

       अवतार लेने का यही उद्देश्य होता है, पर इसकी प्रणाली क्या है ? अवतार के संबंध में एक यौक्तिक या संकीर्ण विचार है जिसे केवल इतना ही दिखायी देता है कि अवतार किन्हीं नैतिक, बौद्धिक और क्रियात्मक दिव्यतर गुणों की असाधारण अभिव्यक्तिमात्र होते हैं, जो साधारण मानवजाति का अतिक्रमण कर जाते हैं । इस विचार में अवश्य ही कुछ सत्य है । अवतार विभूति भी हैं । ये श्रीकृष्ण जो अपनी अंत:सत्ता में मानव-शरीरधारी ईश्वर हैं, वे ही अपनी बाह्य मानवसत्ता में अपने युग के नेता, वृष्णिकुल के महापुरुष हैं । यह प्रकृति के दृष्टिकोण से है, आत्मा की दृष्टि से नहीं । भगवान् अपने-आपको प्रकृति के अनन्त गुणों में प्रकट करते हैं और इस प्राकटच की तीव्रता उन गुणों की शक्ति और सिद्धि से जानी जाती है । इसलिए भगवान् की विभूति, नैर्व्यक्तिक भाव से उनके गुणों की अभिव्यक्त शक्ति है, वह उनका बहि:प्रवाह है चाहे ज्ञान के रूप में हो अथवा शक्ति, प्रेम, बल या अन्य किसी रूप में;  और वैयक्तिक भाव से यह वह मनोमय रूप और सजीव सत्ता है जिसमें वह शक्ति सिद्ध होती

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 और अपने महत् कर्म करती है । इस आंतरिक और बाह्य सिद्धि को प्राप्त करने में कोई प्रधानता, भागवत गुण की कोई महत्तर शक्ति, कोई कारगर ताकत ही विभूति का लक्षण है । मानव विभूति भागवत सिद्धि प्राप्त करने के लिए मानव-जाति के संघर्ष का अग्रणी नेता होता है--कारलाइल के अनुसार मनुष्यों के अन्दर एक भागवत शक्ति । ''वृष्णियो में मैं वासुदेव (श्रीकृष्ण ) हूँ, पांडवों में धनंजय (अर्जुन ) हूँ, मुनियों में व्यास और कवियों में उशना कवि हूँ' ', अर्थात् प्रत्येक कोटि या कक्षा में सर्वोत्तम, प्रत्येक समूह में सबसे महान्, जिन-जिन गुणों और कर्मो के द्वारा उस समूह की विशिष्ट आत्मशक्ति प्रकट होती है उन गुणों और कर्मो का प्रकाश जिसके द्वारा सर्वोत्तम रूप से प्रकट होता है वह ईश्वर की विभूति है । जीव की शक्तियों का यह उत्कर्ष भागवत प्राकटय के क्रम में अत्यंत आवश्यक है । कोई भी महान् पुरुष जो हमारी औसत कक्षा के ऊपर उठ जाता है वह अपने उस कर्म से साधारण मानव-जाति को ऊपर उठा देता है; वह हमारी भागवत संभावनाओं का एक सजीव आश्वासन, परमेश्वर की एक प्रतिश्रुति और भागवत प्रकाश की एक प्रभा तथा भागवत शक्ति का एक उच्छ्वास होता है ।

      मनुष्यों में महामनस्वी और वीर पुरुषों को देवता की तरह पूजने की जो स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है उसके मूल में यही सत्य है । भारतवासियों का मन तो सभी बड़े-बड़े संत-महात्माओं, आचार्यों और पंथ-प्रवर्त्तकों को अनायास ही आंशिक अवतार मान लेने में अभ्यस्त है और दक्षिण के वैष्णव तो अपने कुछ संतों को भगवान् विष्णु के प्रतीकात्मक सचेतन शस्त्रों के अवतार मानते हैं, क्योंकि सचभुच महान् आत्माएँ भगवान् की सचेतन शक्तियाँ और शस्त्र ही तो हैं, जिनसे ऊपर की ओर आगे बढ़ने और विध्न-बाधाओं से संग्राम करने का काम लिया जाता है । यह विचार जीवन के बारे में हर रहस्यवादी या आध्यात्मिक दृष्टि के लिए--जों भागवत सत्ता और प्रकृति तथा मानवसत्ता और प्रकृति के बीच अमिट रेखा नहीं खींचती--सहज और अपरिहार्य है--यह मानवता में भगवान् का बोध है । परन्तु फिर भी विभूति अवतार नहीं हैं; यदि विभूति और अवतार एक ही होते तो अर्जुन, व्यास, उशना सब वैसे ही अवतार होते जैसे श्रीकृष्ण थे, चाहे उनमें अवतारपन की शक्ति इनसे कुछ कम ही होती । परन्तु दिव्य गुण का होना ही पर्याप्त नहीं है; अवतार होना तो तब कहा जा सकता है जब कि अपने परमेश्वर और परमात्मा होने का आंतरिक ज्ञान हो और यह ज्ञान हो कि हम अपनी भागवत सत्ता से मानव-प्रकृति का शासन कर रहे हैं । गुणों की शक्ति का उत्कर्ष संभूति (भूतग्राम ) का अंश है, सामान्य अभिव्यक्ति

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में यह ऊर्ध्य की ओर आरोहण है । पर अवतार में एक विशेष अभिव्यक्ति होती है, यह दिव्य जन्म ऊपर से होता है, सनातन विश्वव्यापक विश्वेश्वर व्यष्टिगत मानवता के एक आकार में उतर आते हैं 'आत्मानं सृजामी' और वे केवल परदे के अन्दर ही अपने स्वरूप से सचेतन नहीं रहते, बल्कि बाह्म प्रकृति में भी उन्हें अपने स्वरूप का ज्ञान रहता है ।

     एक मध्यस्थ विचार भी है, अवतार के बारे में एक अधिक रहस्यमय दृष्टि है जिसके अनुसार मानव-आत्मा अपने अन्दर भगवान् का आवाहन करके यह अवतरण कराती है और तब वह भागवत चैतन्य के अधिकार में हो जाती है अथवा उसका प्रभावशाली प्रतिबिंब या माध्यम बन जाती है । यह विचार किन्हीं आध्यात्मिक अनुभवों के सत्य पर अवलंबित है । यह मनुष्य में भागवत जन्म, अर्थात् मनुष्य का आरोहण, मानव-चैतन्य का भागवत चैतन्य में संवर्धन है और पृथक् आत्मा का भागवत चैतन्य में लय हो जाना ही इसकी परिणति है । आत्मा अपने व्यष्टिभाव को अनन्त और विश्वव्यापक सत्ता में मिला देती या परात्पर सत्ता की परा स्थिति में खो देती है; वह विराट् आत्मा के साथ, ब्रह्म के साथ, भगवान् के साथ एक हो जाती है अथवा जैसा कि प्रायः और भी अधिक निश्चित रूप से कहा जाता है--वह स्वयं ही एकमेवाद्वितीय आत्मा, ब्रह्म, भगवान् बन जाती है । जीव के ब्रह्मभूत होने और उसी कारण भगवान् में, श्रीकृष्ण में निवास करने की बात स्वयं गीता भी कहती है, पर यह ध्यान में रहे कि गीता ने कहीं भी यह नहीं कहा है कि जीव भगवान् या पुरुषोत्तम हो जाता है । हाँ, जीव के संबंध में गीता ने इतना अवश्य कहा है कि जीव सदा ही ईश्वर है, भगवान् की अंशसत्ता है (ममैवांश: ) । कारण यह जो महामिलन है, यह जो उच्चतम भाव है यह आरोहण का ही एक अंग है; और यद्यपि यह वह दिव्य जन्म है जिसे प्रत्येक जीव प्राप्त होता है, पर यह परमेश्वर का नीचे उतरना नहीं है, यह अवतार नहीं है, अधिक-से-अधिक, बौद्ध सिद्धांत के अनुसार इसे हम बुद्धत्व की प्राप्ति कह सकते हैं, यह जीव का अपने अभी के जागतिक व्यष्टिभाव से जागकर अनंत परचैतन्य को प्राप्त होना है । इसमें अवतार की आंतरिक चेतना अथवा अवतार के लाक्षणिक कर्म का होना जरूरी नहीं है ।

      दूसरी ओर, भागवत चैतन्य में प्रवेश करने के फलस्वरूप यह हो सकता है कि भगवान् हमारी सत्ता के मानव-अंगों में प्रवेश करें या उनमें आगे आकर प्रकट हों और अपने-आपको मनुष्य की प्रकृति, उसकी कर्मण्यता, उसके मन और शरीर तक में ढाल दें; और तब इसे कम-से-कम अंशावतार तो कहा ही जायगा । गीता कहती है कि ईश्वर हृदेश में निवास करते हैं,-अवश्य ही गीता का

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 अभिप्राय सूक्ष्म शरीर के हृदय से है जो भावावेगों, संवेदनों और मनोमय चेतना का ग्रंथिस्थान है, जहाँ व्यष्टि-पुरुष भी अवस्थित है,--पर यहाँ वे परदे की आड़ में ही रहते हैं, अपनी माया से अपने-आपको ढँके रहते हैं । परन्तु, ऊपर उस लोक में, जो हमारे अन्दर है पर अभी हमारी चेतना के परे है, जिसे प्राचीन तत्व-दर्शियों ने स्वर्ग कहा है, वहाँ ये ईश्वर और यह जीव दोनों एक साथ एक ही स्वरूप में प्रत्यक्ष होते हैं । इन्हीं को कुछ संप्रदायों की सांकेतिक भाषा में पिता और पुत्र कहा गया है-पिता हैं भागवत पुरुष और पुत्र है भागवत मनुष्य जो उन्हींसे उन्हींकी परा प्रकृति से, परा माया से निम्न, मानव-प्रकृति में जन्म लेता है । इन्हीं परा प्रकृति, परा माया को जिनके द्वारा यह जीव अपरा मानव प्रकृति में उत्पन्न होता है, कुमारी माता

कहा गया है । ईसाइयों के अवतारवाद का यही भीतरी रहस्य प्रतीत होता है । त्रिमूर्ति में पिता ऊपर इसी अंत:स्वर्ग में हैं; पुत्र

 अर्थात् गीता की जीवभूता परा प्रकृति इस लोक में, इस मानव-शरीर में दिव्य या देव-मनुष्य के रूप में है; और पवित्र आत्मा (होली स्पिरिट ) इन दोनों को एक बना देती है और इसीमें इन दोनों का परस्पर-व्यवहार होता है; क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि वह पवित्र आत्मा ईसा में उतर आयी थी और इसी अवतरण के फलस्वरूप ईसा के शिष्यों में भी, जो सामान्य मानव-कोटि के थे, उस महत् चैतन्य की क्षमता आ गयी थी ।

      परन्तु यह भी संभव है कि परम पुरुषोत्तम का उच्चतर भागवत चैतन्य पुरुष मनुष्य के अन्दर उतर आये और जीव-चैतन्य का उसमें लय हो जाय । श्रीचैतन्य के समकालीन लोग बतला गये हैं कि वे अपनी साधारण चेतना में भगवान् के केवल एक प्रेमी और भक्त थे और देवत्वारोपण को अस्वीकार करते थे । किन्तु कभी-कभी वे एक ऐसे विलक्षण भाव में आ जाते थे कि उस अवस्था में वे स्वयं भगवान् हो जाते तथा भगवद्धाव से ही भाषण और कर्माचरण करते थे; और ऐसे समय उनसे भगवत्-सत्ता के प्रकाश, प्रेम और शक्ति का अबाध प्रवाह उमड़ पड़ता था । इसीको यदि जीवन की सामान्य अवस्था मान लें, अर्थात् मनुष्य सदा इस भागवत सत्ता और भागवत चैतन्य का केवल एक पात्र ही बना रहे तो ऐसा पुरुष अवतार-संबंधी मध्यवर्ती भावना के अनुसार अवतार होगा ? मानव-धारणा के अनुसार अवतार-संबंधी यह भावना ठीक ही जँचती है; क्योंकि यदि मानवप्राणी अपनी प्रकृति को इतना उन्नत कर ले कि उसे भागवत सत्ता के साथ

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१. बौद्ध आख्यायिका में गौतम बुद्ध की, माता का नाम इस सांकेतिक भाषा को खोल देता है । ईसाईयों  के यहां यह संबंध   सुपरिचित पौराणिक कथाओं की रचना-प्रणाली के अनुसार नजरेथ के ईसा की मानुषी माता के साथ जोड़ दिया गया है ।

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एकत्व अनुभव हो और वह भगवान् के चैतन्य, प्रकाश, शक्ति और प्रेम का एक वाहक-सा बन जाय, उसका अपना संकल्प और व्यक्तित्व भगवान् के संकल्प और उनकी सत्ता में घुल-मिलकर अपना पृथकत्व खो दें--क्योंकि यह भी एक मानी हुई आध्यात्मिक अवस्था है--तो मानव-जीव के अन्दर, उसके संपूर्ण व्यक्तित्व को अधिकृत करके, भगवान् का ही संकल्प, भगवान् की ही सत्ता और शक्ति, उन्हींके प्रेम, प्रकाश और चैतन्य प्रतिबिंबित हो सकते हैं, और यह जरा भी असंभव नहीं है । और, इस प्रकार की अवस्था मनुष्य का केवल आरोहण द्वारा दिव्य जन्म और दिव्य स्वभाव को प्राप्त होना ही नहीं है, बल्कि उसमें दिव्य पुरुष का मानव में अवतरण भी है, यह एक अवतार है ।

      परन्तु गीता इसके भी आगे चलती है । वह साफ-साफ कहती है कि भगवान् स्वयं जन्म लेते हैं । श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरे बहुत से जन्म बीत चुके और अपने शब्दों से यह स्पष्ट कर देते हैं कि वे ग्रहणशील मानव-प्राणी में उतर आने की बात नहीं कह रहे हैं, बल्कि भगवान् के ही बहुत से जन्म ग्रहण करने की बात कह रहे हैं, क्योंकि यहाँ वे ठीक सृष्टिकर्ता की भाषा में बोल रहे हैं और इसी भाषा का प्रयोग वे वहाँ करेंगे जहाँ अपनी जगत्-सृष्टि की बात कहेंगे । ''यद्यपि मैं प्राणियों का अज अविनाशी ईश्वर हूँ तो भी मैं अपनी माया से अपने-आपको सृष्ट करता हूँ'' ---अपनी प्रकृति के कार्यों का अधिष्ठाता होकर । यहाँ ईश्वर और मानव-जीव या पिता या पुत्र की, दिव्य मनुष्य की कोई बात नहीं है, बल्कि केवल भगवान् और उनकी प्रकृति की बात है । भगवान् अपनी ही प्रकृति के द्वारा मानव-आकार और प्रकार में उतरकर जन्म लेते और यद्यपि वे स्वेच्छा से मनुष्य के आकार, प्रकार और साँचे के अन्दर रहकर कर्म करना स्वीकार करते हैं, तो भी उसके अन्दर भागवत चेतना और भागवत शक्ति को ले आते हैं और शरीर के अन्दर प्रकृति के कर्मों का नियमन वे उसकी अंत:स्थित और ऊर्ध्व-स्थित आत्मा-रूप से करते हैं, ''प्रकृतिं स्वां अधिष्ठाय ।''   ऊपर से वे सदा ही शासन करते हैं, क्योंकि इसी तरह वे समस्त प्रकृति का शासन चलाते है, और मनुष्य-प्रकृति भी इसके अंतर्गत है; अन्दर से भी वे स्वयं छिपे रहकर सारीप्रकृति का शासन करते हैं, अंतर यह है कि अवतार में वे अभिव्यक्त रहते हैं, प्रकृति के ईश्वर-रूप में भगवान् की सत्ता का, अंतर्यामी का सचेतन ज्ञान रहता है, यहाँ प्रकृति का संचालन ऊपर से उनकी गुप्त इच्छा के द्वारा 'स्वर्गस्थ पिता की प्रेरणा के द्वारा'  नहीं होता, बल्कि भगवान् अपने प्रत्यक्ष प्रकट संकल्प से ही प्रकृति का संचालन करते हैं । यहाँ किसी मानव मध्यस्थ के लिये कोई स्थान नहीं है क्योंकि यहाँ 

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१.   ४-६

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भूतानां ईश्वर अपनी प्रकृति (प्रकृतिं स्वां ) का आश्रय लेकर, किसी जीव की विशिष्ट प्रकृति का नहीं, मानव-जन्म के जामे को ओढ़ लेते हैं ।

      बात बड़ी विलक्षण है, जल्दी समझ में आनेवाली नहीं, मनुष्य की बुद्धि के लिए इसे ग्रहण कर लेना आसान नहींइसका कारण भी स्पष्ट है--अवतार स्पष्ट रूप से मनुष्य जैसे ही होते हैं । अवतार के सदा दो रूप होते हैं--भागवत रूप और मानव-रूप; भगवान् मानव-प्रकृति को अपना लेते हैं, उसे सारी बाह्य सीमाओं के साथ भागवत चैतन्य और भागवत शक्ति की परिस्थिति, साधन और करण तथा दिव्य जन्म और दिव्य कर्म का एक पात्र बना लेते हैं और यही होना चाहिए;. वरना अवतार के अवतरण का उद्देश्य ही पूर्ण नहीं हो सकता । अवतरण का उद्देश्य यही दिखलाना है कि मानव-जन्म मनुष्य की सब सीमाओं के रहते हुए भी दिव्य जन्म और दिव्य कर्म का साधन और करण बनाया जा सकता है, अभिव्यक्त दिव्य चैतन्य के साथ मानव-चैतन्य का मेल बैठाया जा सकता है, उसका धर्मान्तर करके उसे दिव्य चैतन्य का पात्र बनाया जा सकता है, और उसके साँचे को रूपांतरित करके उसके प्रकाश, प्रेम, सामर्थ्य और पवित्रता की शक्तियों को ऊपर उठाकर उसे दिव्य चैतन्य के अधिक समीप लाया जा सकता है ।  अवतार यह भी दिखाते हैं कि यह कैसे किया जा सकता है । यदि अवतार अद्भुत चमत्कारों के द्वारा ही काम करें, तो इससे अवतरण का उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता । असाधारण अथवा अद्भुत चमत्काररूप अवतार के होने का कुछ मतलब ही नहीं रहता । यह भी जरूरी नहीं है कि अवतार असाधारण शक्तियों का प्रयोग--जैसे कि ईसा के रोगियों को आराम कर देनेवाले तथाकथित चमत्कार--करें ही नहीं, क्योंकि असाधारण शक्तियों का प्रयोग मानव-प्रकृति की संभावना के बाहर नहीं है । परन्तु इस प्रकार की कोई शक्ति न हो तो भी अवतार में कोई कमी नहीं आती, न यह कोई मौलिक बात है । यदि अवतार का जीवन असाधारण आतिशबाजी का खेल हो तो इससे भी काम न चलेगा । अवतार ऐंद्रजालिक जादूगर बनकर नहीं आते, प्रत्युत मनूष्य-जाति के भागवत नेता और भागवत मनुष्य के एक दृष्टांत बनकर आते हैं । मनुष्योचित शोक और भौतिक दु:ख भी उन्हें झेलने पड़ते हैं और उनसे काम लेना पड़ता है, ताकि वे यह दिखला सकें कि किस प्रकार इस शोक और दु:ख को आत्मोद्धार का साधन बनाया जा सकता है । ईसा ने दुःख उठाकर यही दिखाया । दूसरी बात उन्हें यह दिखलानी होती है कि मानव-प्रकृति में अवतरित भागवत आत्मा इस शोक और दु:ख को स्वीकार करके उसी प्रकृति में उसे किस प्रकार जीत सकता है । बुद्ध ने यही करके दिखाया था । यदि कोई बुद्धिवादी ईसा के आगे

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चिल्लाया होता ''तुम यदि ईश्वर के बेटे हो तो उतर आओ इस सूली पर से ।''  अथवा अपना पाण्डित्य दिखाकर कहता कि अवतार ईश्वर नहीं थे, क्योंकि वे मरे और वह भी बीमारी से--कुत्ते की मौत मरे-तो वह बेचारा जानता ही नहीं कि वह क्या बक या है, क्योंकि वह तो विषय की वास्तविकता से ही वंचित है । भागवत आनन्द के अवतार से पहले शोक और दु:ख को झेलनेवाले अवतार की भी आवश्यकता होती हैमनुष्य की सीमा को अपनाने की आवश्यकता होती है, ताकि यह दिखाया जा सके कि इसे किस प्रकार पार किया जा सकता है । और, यह सीमा किस प्रकार या कितनी दूर तक पार की जायगी, केवल आंतरिक रूप से पार की जायगी या बाह्य रूप से भी, यह बात मानव-जाति के उत्कर्ष की अवस्था पर निर्भर है, यह सीमा किसी अमानव चमस्कार के द्वारा नहीं लांघी जायगी ।

     अब यह प्रश्न उपस्थित होता है और यही असल में मनुष्य की बुद्धिके लिये एकमात्र बड़ी समस्या है--क्योंकि यहां आकर मानव-बुद्धि अपनी ही सीमा के अन्दर लुढ़कने-पुढ़कने लगती है--कि अवतार मानव-मन-बुद्धि और शरीर का ग्रहण कैसे करता है ? कारण इनकी सृष्टि अकस्मात् एक साथ इसी रूप में नहीं हुई होगी, बल्कि भौतिक या आध्यात्मिक या दोनों ही प्रकार के किसी विकासक्रम से ही हुई होगी । इसमें संदेह नहीं कि अवतार का अवतरण, दिव्य जन्म की ओर मनुष्य के आरोहण के समान ही तत्वत: एक आध्यात्मिक व्यापार है; जैसा कि गीता के ''आस्मानं सृजामि''  वाक्य से जान पड़ता है,--यह आत्मा का जन्म है । परन्तु फिर भी इसके साथ एक भौतिक जन्म तो लगा ही रहता है । तब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि अवतार के मानव-मन और शरीर का कैसे निर्माण होता है । यदि हम यह मान लें कि शरीर सदा ही वंशानुक्रमिक विकास से निर्मित होता है, अचेतन प्रकृति और तदनुस्यूत प्राणशक्ति शरीर-निर्माण का यह कार्य किया करती है, इसमें व्यष्टिगत अंतरात्मा के करने की कोई बात नहीं, तो मामला सीधा हो जाता है । तब यही मान लेना पड़ेगा कि किसी शुचि और महत् वंश के विकास-क्रम से ही यह अन्नमय और मनोमय शरीर भगवत्-अवतार के उपयुक्त तैयार होता है और तब अवतरित होनेवाले भगवान् उस शरीर को धारण कर लेते हैं । परन्तु गीता के इसी अवतारवाले श्लोक में पुनर्जन्म का सिद्धांत स्वयं अवतार पर भी हिम्मत के साथ घटाया गया है, और पुनर्जन्म के संबंध में सामान्य मान्यता यही है कि पुनर्जन्म ग्रहण करनेवाला जीव अपने पिछले आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक विकास के अनुसार अपने मनोमय और भौतिक शरीर को निर्द्धारित करता या यों कहें कि तैयार करता है । जीव

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स्वयं अपना शरीर निर्माण करता है, उसका शरीर उससे पूछे, बिना योंही तैयार नहीं कर दिया जाता । तो क्या इससे हम यह समझ लें कि सनातन या सतत अवतार अपने अनुकूल अपना मनोमय और अन्नमय शरीर मानव-विकास की आवश्यकता और गति के अनुसार आप ही निर्माण करते और इस तरह युग-युग में प्रकट हुआ करते हैं ? इसी तरह के किसी एक भाव से कुछ लोग विष्णु के दश अवतारों की व्याख्या करते हैं । पहले कई पशुरूप, बाद में नरसिंह-मूर्ति, तब वामन-मूर्ति, उसके बाद प्रचण्ड आसुरिक परशुराम, फिर देव-प्रकृति-मानव महत्तर राम, इसके बाद सजग आध्यात्मिक बुद्ध, और काल के हिसाब से पहले पर स्थान के हिसाब से अंतिम, पूर्ण दिव्याभावापन्न मनुष्य श्रीकृष्ण-क्योंकि आखिरी अवतार कल्कि केवल श्रीकृष्ण के द्वारा आरंभ किये हुए कर्म को ही संपन्न करते हैं, पहले के अवतार समस्त संभावनाओं से युक्त जिस महत् प्रयास को प्रस्तुत. कर गये हैं, कल्कि उसीको शक्ति देकर सिद्ध करते हैं । हमारी आधुनिक मनोवृत्ति के लिए इसे स्वीकार करना कठिन है, किन्तु ऐसा मालूम होता है कि गीता की भाषा का रुख इसी ओर है । अथवा जब गीता इस समस्या का साफ तौर पर हल नहीं करती तब हम अपने किसी दूसरे तरीके से इस प्रश्न को हल कर सकते हैं और कह सकते हैं कि अवतार का शरीर तो जीव के द्वारा निर्मित होता है पर जन्म से ही भगवान् उसे धारण करते हैं, अथवा यह भी कह सकते हैं कि इस शरीर को गीतोक्त 'चत्वारो मनव:' अर्थात् प्रत्येक मानव मन और शरीर के आध्यात्मिक पितर प्रस्तुत करते हैं । इस तरह से कहना अवश्य ही गूढ़ रहस्यमय क्षेत्र की गहराई में प्रवेश करना है जिसकी बातें आधुनिक बुद्धिवादी लोग अभी तो सुनना ही नहीं चाहते; परन्तु जब हमने अवतार का होना मान लिया तब रहस्यमय क्षेत्र में तो प्रविष्ट हो ही गये और जब प्रविष्ट हो गये तो एक-एक कदम मजबूती से रखते हुए बढ़ें चलना ही उत्तम है ।

     ऐसा है गीता का अवतार-विषयक सिद्धांत । भगवान् की अवतरण-प्रणाली का यहाँ जो विस्तार किया गया और इसी तरह  पहले के अध्याय में अवतार की संभावना के विषय में जो आलोचना की गयी, इसका कारण यह है कि इस प्रश्न को इसके सभी पहलुओं से देखना और मनुष्य की तर्कबुद्धि में इस बारे में जो कठिनाइयां खड़ी हो सकती हैं उनका सामना करना आवश्यक था । यह सही है कि भौतिक रूप में ईश्वर के अवतार का गीता में विशेष विस्तार नहीं है, पर गीता की शिक्षा का जो क्रम है उसकी शृंखला में इसका अपना विशिष्ट स्थान है जो गीता की संपूर्ण योजना में अनुस्यूत है । गीता का ढाँचा यही है कि अवतार एक विभूति को, उस मनुष्य को जो मानवता की ऊँची अवस्था में

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पहुँच चुका है, दिव्य जन्म और दिव्य कर्म की ओर ले जा रहे हैं । इसमें कोई संदेह नहीं कि मानव जीव को अपनेतक उठाने के लिये भगवान् का अवतार लेना ही मुख्य बात है--इन्हीं आन्तरिक कृष्ण, बुद्ध या ईसा से ही असली मतलब है । पर जिस प्रकार आन्तरिक विकास के लिए बाह्य जीवन भी अत्यंत महत्वपूर्ण साधन है, वैसे ही बाह्म अवतार भी इस महान् आध्यात्मिक अभिव्यक्ति के लिए किसी प्रकार कम महत्व की वस्तु नहीं हैं । मानसिक और शारीरिक प्रतीक की परिपूर्णता आंतर सद्वस्तु के विकास में सहायक होती है; फिर यही आंतरिक सद्धस्तु और भी अधिक शक्ति के साथ जीवन के द्वारा अधिक उत्कृष्ट रूप में अपने-आपको प्रकट करती है । मानव-जाति में भागवत अभिव्यक्ति ने आध्यात्मिक सद्वस्तु और मानसिक तथा भौतिक अभिव्यक्ति के बीच, परस्पर सतत आदान-प्रदान के द्वारा संगोपन और प्रकटन के चक्रों में गति करना स्वीकार किया है ।

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