Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita.
Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.
भक्ति-ज्ञान-समन्वय१
गीता कोई दार्शनिक तत्वालोचन का ग्रंथ नहीं है, यद्यपि प्रसंग से इसमें बहुत-से दार्शनिक सिद्धान्त आ गये हैं; कारण इसमें किसी विशिष्ट दार्शनिक सिद्धान्त का उल्लेख स्वयं उसी के प्रतिपादन के लिए नहीं किया गया है । इसका प्रयोजन है परम सत्यको परम व्यावहारिक उपयोग के लिए ढूँढना, तर्कबुद्धि या आध्यात्मिक ज्ञान-पिपासा की तुष्टि के लिए नहीं, बल्कि एक ऐसे सत्य के रूप में ढूँढना जो हमारी रक्षा कर सके और हमारी वर्त्तमान मर्त्य जीवन की अपूर्णता से अमर पूर्णता की ओर ले जानेवाला मार्ग हमारे लिये खुल जाय । इसलिए इस अध्याय के पहले चौदह श्लोकों में एक ऐसे मुख्य दार्शनिक सत्य का निरूपण किया गया है जिसका जानना यहाँ हमारे लिए आवश्यक है और फिर तुरत ही बाद के सोलह श्लोकों में उसका व्यावहारिक उपयोग बताया गया है । यही कर्म, ज्ञान और भक्ति के समन्वय-साधन का आरंभ है--कर्म और ज्ञान का समन्वय तो इससे पहले हो ही चुका है ।
हमारे सम्मुख तीन शक्तियाँ हैं--परमसत्यस्करूप श्रीपुरुषोत्तम, जिनकी ओर हमें विकसित होना है, आत्मा और जीव, अथवा इसी बात को हम यों कह सकते हैं कि एक परम पुरुष है, दूसरी ब्रह्म और तीसरी वह बहुरूप जीवात्मा जो हमारे आध्यात्मिक व्यक्तित्व का कालातीत मूल है, सत्य और सनातन व्यष्टि-पुरुष ''ममैवांशः सनान:'' है । ये तीनों ही भगवदीय हैं, तीनों ही भगवान् है । पराप्रकृति, जो सीमित करनेवाले अज्ञान से मुक्त है, पुरुषोत्तम की प्रकृति है । वही पराप्रकृति ब्रह्म के अन्दर भी है पर वहाँ वह सनातनी शान्ति, साम्य और निवृत्ति की अवस्था में है । यही प्रकृति प्रवृत्ति के लिए बहुरूप व्यष्टि-पुरुष या जीव बनती है । परन्तु इस पराप्रकृति का आन्तरिक कर्म सदा भागवत कर्म ही होता है । इस परा भागवती प्रकृति की शक्ति ही अर्थात् परम पुरुष की सत्ताकी चिन्मयी संकल्पशक्ति ही जीवके विशेष स्वरूप-गुणकी विविध बीजभूत और आध्यात्मिक शक्ति के रूपमें अपने-आपको प्रकट करती है; यही बीजभूत शक्ति
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गीता अ० ७, श्लोक १५-२८
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जीवका स्वभाव है । इस आध्यात्मिक शक्ति से ही सीधे जो कर्म और जन्म होता है वह दिव्य जन्म और विशुद्ध आध्यात्मिक कर्म होता है । अतः इससे यह निष्कर्ष निकला कि कर्म करते हुए जीवका यही प्रयास होना चाहिये कि वह अपने मूल आध्यात्मिक व्यष्टि-स्वरूपको प्राप्त हो और अपने कर्मों को उसी की परमा शक्तिके ओज से प्रवाहित करे, कर्मको अपनी अंतरात्मा और अंतरतम स्वरूप-शक्ति से विकसित करे, न कि मन-बुद्धि की कल्पना और प्राणों की इच्छासे, और इस तरह अपने सब कर्मोंको परम पुरुष के संकल्प का ही विशुद्ध प्रवाह बना दे, अपने सारे जीवन को भगवत्-स्वभाव का गतिशील प्रतीक बना दे ।
परन्तु इसके साथ ही यह त्निगुणात्मिका अपरा प्रकृति भी है जो अज्ञान-विशिष्ट है और उसका कर्म अज्ञान-विशिष्ट, अशुद्ध, उलझा हुआ और विकृत होता है; यह निम्नतर व्यक्तित्व का, अहंकारका, प्राकृत पुरुष का कर्म होता है, आध्यात्मिक व्यष्टि-पुरुष का नहीं | उस मिथ्या व्यक्तित्व से विरत होनेके लिए हमें निर्गुण निराकार आत्मा की शरण लेकर उसके साथ एक हो जाना पड़ता है । तब, इस प्रकार अहंकारमय व्यष्टि-भावसे मुक्त होकर, हमारे वास्तविक व्यष्टि-स्वरूप का श्री पुरुषोत्तम के साथ जो संबंध है उसे हम जान सकते हैं । यह व्यष्टि-पुरुष सत्तामें उनसे अभिन्न है; यद्यपि व्यष्टि होने से प्रकृति के कर्म और कालाधीन विकास में, अनिवार्यत:, पुरुषोत्तम का अंश और विशेष रूपमात्न है । निम्न प्रकृति से मुक्त होने पर ही हम उस परा, भागवत, आध्या-त्मिक प्रकृति को जान सकते हैं । इसलिए आत्मा से कर्म करने का अभिप्राय वासनाबद्ध जीवन के अधिष्ठान में कर्म करना नहीं है; कारण वह परम आंतरिक स्वरूप नहीं बल्कि निम्न प्राकृत और बाह्य आभास मात्र है । आन्तरिक आत्मप्रकृति या स्वभाव से कर्म करने का अर्थ यह नहीं है कि अहंकार के, काम-क्रोधादि के वश होकर या अपनी प्राकृत प्रेरणा और त्निगुण के चंचल खेल के अनुसार उदासीनता के साथ अथवा वासना के साथ पाप और पुण्यका आचरण किया जाय । काम-क्रोध के वश होना, पाप में स्वेच्छा से या जड़तावश लिप्त होना न तो उच्चतम निराकार ब्रह्म की आध्यात्मिक शान्त निष्किय स्थिति पानेका ही कोई रास्ता है न उस भागवत व्यष्टि-पुरुष के आध्यात्मिक कर्म का ही साधन है जो परम पुरुष के संकल्प की सिद्धि का एक पात्र बनने को है, पुरुषोत्तम की अपनी शक्ति और प्रत्यक्ष विग्रह होने को है ।
गीता ने आरंभ से ही यह कह रखा है कि दिव्य जन्म अर्थात् परा स्थितिकी सबसे पहली शर्त ही यह है कि राजस काम और उसकी संतति का वध हो और इसका मतबल है पाप का सर्वथा निरोकरण । पाप है ही निम्न प्रकृति की वह
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क्रिया जो आत्मा के द्वारा प्रकृति को आत्म-नियत और आत्मवश करने के विरुद्ध अपनी ही मूढ़, जड़ या आसुरी राजस और तामस प्रवृत्तियों की भद्दी तुष्टिके लिये हुआ करती है । निम्न प्रकृति के इस निकृष्ट गुणकर्म के द्वारा आत्मसत्ता पर होनेवाले इस भद्दे बलात्कार से छूटने के लिए हमें प्रकृति के उत्कृष्ट गुण अर्थात् सत्वका आश्रय लेना पड़ता है, क्योंकि सत्वगुण. ही सतत समाधानसाधक ज्ञान, ज्योति और कर्म की प्रमादरहित विशुद्ध विधि का अनुसंधान करता रहता है । हमारे अन्दर जो पुरुष है, जो प्रकृति में रहता हुआ विविध गुणवृत्तियों का अनुमोदन करता है, उसे हमारी उस सात्विक प्रेरणा, संकल्प और स्वभाव को अनुमति देनी पड़ती है जो इस विधिका अनुसंधान करता है । हमारी प्रकृति में जो सात्विक इच्छा है उसे ही हमारा नियमन करना होगा, राजस-तामस इच्छा को नहीं । यही कर्माकर्म का संपूर्ण विवेक है और यही समस्त सच्ची धार्मिक नैतिक संस्कृति का अभि-प्राय है; यही हमारे अन्दर प्रकृति का वह विधान है जो प्रकृति के अधोमुख और अस्तव्यस्त कर्म के स्तर से उसके ऊर्ध्वमुख और सुव्यवस्थित कर्म के स्तर में विकसित होने का प्रयास करता है, काम-क्रोध-लोभ और अज्ञान में नहीं जिसका फल दुःख और अशान्ति है, बल्कि ज्ञान और प्रकाश में कार्य करने का प्रयास करता है जिसका फल आन्तरिक सुख, समत्व और शान्ति है । जबतक हम सबसे उत्तम गुण सत्व के ब्रिधान को अपने अन्दर पहले विकसित और प्रतिष्ठित नहीं कर लेते, तबतक हम त्रिगुण के पार नहीं पहुँच सकते ।
''कुकर्मी मुझे नहीं पा सकते जो मूढ़ हैं, नराधम हैं, क्योंकि'', भगवान् कहते हैं कि, ''मायासे उनका ज्ञान खो गया है और वे आसुर भाव को प्राप्त हुए हैं ।'' यह मूढ़ता प्रकृतिस्थ जीवको मायिक अहंकार का अपने जाल में फंसाना है । कुकर्मी को जो परम पुरुष की प्राप्ति नहीं हो सकती इसका कारण ही यह है कि यह सदा ही मानव-प्रकृति के निम्नतम स्तर पर रहनेवाले अपने इस इष्ट देवता अहंकार को ही पूजा करता है; अहंकार ही उसका यथार्थ परमेश्वर बन बैठता है । उसके मन और संकल्प को त्रिगुणात्मिका माया अपने व्यापार में घसीट ले जाती है और ये उसकी आत्मा का करण नहीं रह जाते बल्कि उसकी वासनाओं के, स्वेच्छा से या अपने-आपको धोखा देकर, गुलाम बन जाते हैं । वह तब अपनी निम्न प्रकृति को ही देखता है, उस परम आत्मा और परम पुरुष या परमेश्वर को नहीं जो उसके और जगत् के अन्दर हैं; वह सारे जगत् को अपने मन में अहंकार और काम की भाषा में समझा करता और अहंकार और कामना की ही सेवा किया करता है । अहंकार और कामना को पूजना और ऊर्ध्वमुखी प्रकृति और उच्चतर धर्म की कोई अभीप्सा न रखना असुर के मन और स्वभाव को प्राप्त करना है
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ऊपर उठने के लिए प्रथम आवश्यक सोपान ऊर्ध्वमुखी प्रकृति और उच्चतर धर्म की अभीप्सा करना, कामेच्छा की अपेक्षा किसी महात्तर विधान का पालन करना, और अहंकार से बड़े और श्रेष्ठ देवता को जानना और पूजना, सद्विचार से युक्त होना और सत्कर्म का कर्मी बनना ही है । पर इतना ही बस नहीं है; क्योंकि सात्विक मनुष्य भी गुणों के चक्कर में बंधा रहता है, क्योंकि अब भी वह राग-द्वेषके द्वारा ही नियंत्रित होता है । वह प्रकृति के नानारूपों के चक्र में घूमता रहता है, उसे उच्चतम, परम और समग्र ज्ञान प्राप्त नहीं होता । तथापि सदाचार-संबंधी अपने लक्ष्यकी ओर अपनी निरंतर ऊर्ध्वमुखीन अभीप्सा के बल से वह अन्त में पाप के मोहसे--जो पाप रजोगुण से उत्पन्न काम-क्रोध से ही पैदा होता है, उससे--मुक्त होता और अपनी प्रकृति को ऐसी विशुद्ध बना लेता है कि वह उसे त्निगुणात्मिका माया के विधान से छुड़ा देती है । पुण्य से ही कोई परम को नहीं पा सकता, पर पुण्य से १ वह उसे पाने का 'अधिकारी' होता है । अधकचरे राजस या कुन्द तामस अहंकार को हटा देना और उससे ऊपर उठना बड़ा कठिन होता है; सात्विक अहंकार को हटाना या उससे ऊपर उठना उतना कठिन नहीं होता और अभ्यास से जब अंत में वह यथेष्ट रूप से सूक्ष्म और प्रकाशयुक्त हो जाता है तब उसे पार कर जाना, उसे रूपान्तरित करना या मिटा देना भी आसान हो जाता है ।
इसलिए मनुष्य को सर्वप्रथम सुकृती, सदाचारी होना चाहिए और तब आचारधर्म में ही अटके न रहकर ऊपर की ओर अध्यात्मप्रकृति के उस प्रकाश, विशालता और शक्ति की ओर आगे बढ़ना चाहिये जहाँ वह द्वन्द्वों की पकड़ और उसके मोह के परे पहुँच जाता है । तब वह अपने वैयक्तिक हित या सुख की खोज नहीं करता न अपने वैयक्तिक दु:ख या पीड़ासे मुंह मोड़ता है; क्योंकि वहाँ इन चीजों का उसपर कोई असर ही नहीं पड़ता न उसके मुखसे कोई ऐसी बात ही निकलती है कि ''मैं पुण्यात्मा हूँ'', या ''मैं पापात्मा हूँ ।'' प्रत्युत वह जो कुछ करता है, अपने ही आध्यात्मिक स्वभाव में स्थित होकर भगवदिच्छा से जगत्कल्याण के लिए करता है । हम देख चुके हैं कि इसके लिए पहले आत्म-ज्ञान, समत्व, निर्व्यक्तिक ब्रह्मभाव का होना आवश्यक है और यह भी देख चुके हैं कि यही ज्ञान और कर्म के बीच, आध्यात्मिकता और सांसारिक कार्य के बीच, कालातीत आत्मा को अचल निष्क्रियता और प्रकृति की क्रियाशील शक्ति की लीला के बीच सामंजस्यसाधन का मार्ग है । पर अब गीता उस कर्मयोगी के लिए जिसने अपने कर्मको ज्ञानयोग के साथ एक कर लिया है, एक और, इससे भी
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१. स्पष्ट ही, सच्चे आन्तरिक पुणय से विचार, भाव, चत्तवृत्ति, हेतु और आचार की सात्बिक बिशुद्धि से, कंबल रूढ़ि या सामाजिक रीति-रिबाज से नहीं ।
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बड़ी चीजकी आवश्यकता बतलाती है । अब उससे केवल ज्ञान और कर्म की ही मांग नहीं की जाती बल्कि भक्ति की भी-भगवान् की ओर सच्ची लगन, उनकी पूजा, उनसे मिलने की अंतरात्मा की उत्कण्ठा भी चाही जाती है । यह मांग अभी तक उतने स्पष्ट शब्दों में तो नहीं प्रकट की गयी थी, पर जब गुरुने उसके योग को इस आवश्यक साधन की ओर फेरा था कि सब कर्मों को अपनी सत्ताके स्वामी श्रीभगवान् के लिए यज्ञरूप से करना होगा और इसकी परिणति इस बात में की थी कि सब कर्मों को केवल ब्रह्मार्पण ही नहीं बल्कि ब्रह्मभाव से परे जाकर उन सत्ताधीश्वर को समर्पित करना होगा जो हमारे सब संकल्पों और शक्तियों के मूल कारण हैं, तभी शिष्य का मन भक्ति की इस मांग के लिए तैयार किया जा चुका था । वहाँ जो बात गुप्त रूप से अभिप्रेत थी वही अब सामने आ गयी है और इससे हम गीता के उद्देश्य को भी और अधिक पूर्णता के साथ समझ सकते हैं ।
अब परस्पर-आश्रित तीन वृत्तियाँ हमारे सामने हैं जो हमें हमारे प्राकृत भावसे छुड़ाकर भागवत और ब्रह्मभाव में आगे बढ़ा सकती हैं । गीता कहती है, ''द्वन्द्वों के मोह से, जो रागद्वेष से उत्पन्न हुआ करता है, इस सृष्टि के सब प्राणी संमोह को प्राप्त होते हैं ।''१ यही वह अज्ञान, वह अहंभाव है जो सर्वत्र भगवान् को देखने और पकड़ने में असमर्थ रहता है, क्योंकि वह प्रकृति के द्वन्द्वों को ही देखा क़रता और सदा अपनी पृथक् वैयक्तिक सत्ता और उसी की अनुकूल और प्रतिकूल वृत्तियों में उलझा रहता है । इस चक्कर से छूटने के लिए हमारे कर्म में सबसे पहली जरूरी बात यह है कि हम प्राणमय अहंकार के पाप से, काम-क्रोध की आग से, रजोगुणी इच्छा के कोलाहल से बाहर निकल आयें; यह अपने नैतिक पुरुष की सात्विक प्रेरणा और संयम को दृढ़ करने से ही हो सकता है । जब यह काम हो चुकता है ''येषां त्यन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ''२, अथवा यह कहिये कि जब यह काम होता रहता है तभी--क्योंकि सात्विक वृत्ति के एक हद तक बढ़ने के बाद ही विलक्षण शान्ति, समता और त्रिगुणातिक्रमण की योग्यता उत्तरोत्तर बढ़ने लगती है--यह जरूरी होता है कि द्वन्द्वों के ऊपर उठकर निर्व्यक्तिक, सम, अक्षर ब्रह्मके साथ एक, सब भूतोंके साथ एकीभूत आत्मा होनेका अभ्यास किया जाय । आत्मस्वरूप को प्राप्त होने के इस अभ्यासक्रम से शुद्धि की पूर्णता होती है । पर जिस समय यह किया जा रहा हो, जब जीव इस प्रकार आत्मज्ञान की विशालता को अधिकाधिक प्राप्त हो रहा हो, उसी समय उसके लिए अपना भक्तिभाव भी बढ़ाना आवश्यक होता है । क्योंकि उसे केवल समता को विशालता में स्थित होकर ही कर्म नहीं करना है, बल्कि भगवान् के लिये यज्ञकर्म भी करना
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है, उन सर्वभूतस्थित भगवान् के लिए जिन्हें वह अभी पूर्ण रूप से नहीं जानता, पर पीछे जानेगा, समग्र रूप से, 'समग्रं माम्' जानेगा जब उसे सर्वत्र और सब भूतों में उसी एक आत्मा के सतत दर्शन होंगे । समत्व की स्थिति और सर्वत्र एक आत्मा को देखने की दृष्टि जहाँ एक बार पूर्णरूप से प्राप्त हो गयी, जहाँ इस प्रकार 'द्वन्द्वमोहविनिर्मुक्ता:' हो गये, वहाँ परा भक्ति, भगवान् के प्रति सर्वभावेन प्रेम-भक्ति ही जीव का संपूर्ण और एकमात्र धर्म बन जाती है । ''सर्वधर्मान्परित्यथ्य"-- अन्य सभी धर्म उस एक शरणागति में मिल जाते हैं । तब जीव इस भक्ति में तथा अपनी संपूर्ण सत्ता, ज्ञान और कर्म के आत्मोत्सर्ग के व्रतमें दृढ़ हो जाता है; क्योंकि अब उसे सबके जन्म के मूल कारण भगवान् का सिद्ध, समग्र और एकीभाव उत्पन्न करनेवाला ज्ञान अपनी सत्ता और कर्म के सुदृढ़ आधार और स्वत: सिद्ध नींव के रूप से प्राप्त होता है, ''ते भजन्ते मां दृढ़व्रता: ।''
सामान्य दृष्टि से देखा जाय तो ज्ञान और निर्व्यक्तिक भाव प्राप्त हो चुकने के पश्चात् जीव का भक्ति की ओर लौट आना या चित्त की वृत्तियों का बना रहना जीव-दशा में ही लौट आना मालूम हो सकता है । क्योंकि भक्ति का प्रवर्त्तक भाव परम पुरुष और विश्वात्मा के प्रति व्यष्टि-जीव का प्रेम और पूज्यभाव ही हुआ करता है, अतः भक्ति में व्यक्तित्व का भाव, यहाँतक कि वह उसका आधार हुआ करता है । परन्तु यह आपत्ति गीता की दृष्टि में जरा भी नहीं आ सकती, क्योंकि गीता का लक्ष्य नैष्कर्म्य को प्राप्त होना और सनातन निर्व्यक्तिक सत्ता में लीन हो जाना नहीं, प्रत्युत सर्वात्मभाव से पुरुषोत्तम के साथ एक होना है । इस योग में जीव निश्चय ही अपनी निर्व्यक्तिक अक्षर आत्मसत्ता को प्राप्त कर अपने निम्न व्यक्तित्व से मुक्त हो जाता है; फिर भी वह कर्म करता है और सारा कर्म क्षर प्रकृति में स्थित समष्टि-जीव का होता है । अत्यधिक नैष्कर्म्य की कल्पना के शोधन के लिए यदि हम परम पुरुष के प्रति यज्ञ के भाव को न ले आवें तो कर्म को कोई विजातीय पदार्थ मानना होगा, यह समझना होगा कि यह गुणों के खेल का अवशेष है--इसके पीछे कोई दिव्य सत्य नहीं, समझना होगा कि अहंकार या अहंभाव का ही यह रहा-सहा नाशोन्मुख अंतिम रूप है, निम्न प्रकृति की गति का ही पहलेसे चला आया हुआ वेग मात्र है जिसके लिए हम जिम्मेदार नहीं, क्योंकि हमारा ज्ञान इसे अस्वीकार करता और इससे निकलकर विशुद्ध नैष्कर्म्य को प्राप्त होना चाहता है । परन्तु एकमेव आत्मा की प्रशान्त ब्राह्मी स्थिति को परमेश्वर के प्रीत्यर्थ किए जानेवाले प्रकृति के कर्मों के साथ एक करके, इस दोहरी कुंजी की सहायता से हम निम्नतर अहंभावमय व्यक्तित्व से मुक्त होकर अपने सच्चे आध्यात्मिक व्यक्तित्व के शुद्ध स्वरूप में
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वर्द्धित होते हैं । तब हम निम्नतर प्रकृति में रहनेवाला बद्ध और अज्ञ अहं नहीं रह जाते, बल्कि पराप्रकृति में रहनेवाला मुक्त जीव बन जाते हैं । तब हम इस ज्ञान में नहीं रहते कि अक्षर निर्व्यक्तिक ब्रह्म और यह क्षर बहुविध प्रकृति दो परस्पर-विरोधी सत्ताएँ हैं, बल्कि हम उन पुरुषोत्तम के साक्षात् समालिंगन को प्राप्त हो जाते हैं जो हमारे स्वरूप की इन दोनों ही शक्तियों द्वारा एक साथ उपलब्ध होते हैं । ये तीनों ही आत्मा हैं और जो दो देखने में परस्पर-विरुद्ध से लगते हैं उस तीसरे के आमने-सामने के पार्श्वमात्न हैं जो इन दोनों से उत्तम है । भगवान् आगे चलकर स्वयं ही कहते हैं, '' क्षर और अक्षर दो पुरुष है, पर एक अन्य पुरुष भी है जो उत्तम है, जिसे परमात्मा कहते हैं, जो अव्यय ईश्वर है और तीनों लोकों में प्रवेश कर उनका पालन करता है । मैं ही क्षर से अतीत और अक्षर से भी उत्तम वह पुरुषोत्तम हूँ । जो मुझे पुरुषोत्तम जानता है, वही संपूर्ण ज्ञान और संपूर्ण भाव के साथ मेरी भक्ति करता है ।''१ अब गीता में संपूर्ण ज्ञान और संपूर्ण आत्मसमर्पणवाली इस भक्ति का ही आगे विस्तार होगा ।
यह बात ध्यान में रहे कि गीता शिष्य से जिस भक्ति की अपेक्षा करती है वह ज्ञानयुक्त भक्ति है और भक्ति के जो अन्य प्रकार हैं उन्हें अच्छा समझते हुए भी ज्ञानयुक्त भक्ति की अपेक्षा नीचा ही मानती है; भक्ति के उन अन्य प्रकारों से लाभ हो सकता है, पर जीव के परमोत्कर्ष में वे गीता के अनन्य लक्ष्य नहीं हैं । जिन लोगों ने राजस अहंकार के पाप को अपनी प्रकृति से हटा दिया है और जो भगवान् की ओर बढ़ रहे हैं उनमें से गीता ने चार प्रकार के भक्त गिनाए हैं । कोई तो संसार के दु:ख-शोक से बचने के लिए उनका आश्रय ढूँढ़ते
हैं, वे ''आर्त्त'' हैं । कोई उनका आश्रय सांसारिक कल्याण के लिए ढूँढ़ते हैं, वे ''अर्थार्थी'' हैं । कोई ज्ञान की इच्छा से उनके समीप जाते हैं वे ''जिज्ञासु'' हैं । और, कोई ऐसे भी हैं जो उन्हें जानकर उन्हें पूजते हैं, वे ''ज्ञानी'' हैं । ये सभी भक्त गीता को स्वीकार हैं, पर उसकी पूर्ण सम्मति की छाप तो अंतिम प्रकार के भक्त पर ही लगी है । भक्ति के ये सभी प्रकार निश्चय ही उत्तम हैं ''उदारा: सर्व एवैते'', परन्तु ज्ञानयुक्त भक्ति ही इन सब में विशेष है, ''विशिष्यते ।'' हम कह सकते हैं कि भक्ति के ये चार प्रकार क्रमश: ये हैं : प्रथम, प्राणगत भावमय प्रकृति की भक्ति है,२ द्वितीय, व्यावहारिक गतिशील कर्म-प्रधान प्रकृति की,
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२. उत्तरकालीन भावविमोर प्रेम की मक्ति मूलत: चैत्य प्रकृति की ही बस्तु है । केवल इसके निचले रूप और कोई-कोई बाह्य भाव ही प्राणगत भावुकता के द्योतक हैं ।
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तृतीय, तर्क-प्रधान बौद्धिक प्रकृति की और चतुर्थ, उस परम अंतर्ज्ञानमय सत्ता की भक्ति जो शेष सारी प्रकृति को भगवान् के साथ एकत्व में समेट लेती है । भक्ति के अंतिम प्रकार को छोड़ अन्य जितने प्रकार हैं वे वस्तुत: प्रारंभिक प्रयास ही माने जा सकते हैं । क्योंकि गीता स्वयं ही कहती है कि अनेकों जन्म बिताने के बाद कोई समय ज्ञान को पाकर तथा जन्म-जन्म उसे अपने जीवन में उतारने का साधन करके अन्त में परम को प्राप्त होता है । क्योंकि, यह जो कुछ है सब भगवान् है यह ज्ञान पाना बड़ा कठिन है और वह महात्मा पृथ्वी पर कोई विरला ही होता है जो 'सर्ववित्' हो--सब कुछ के अन्दर भगवान् को देख सकता हो और इस सर्वसंग्राहक ज्ञान की वैसी ही व्यापक शक्ति से अपनी संपूर्ण सत्ता और अपनी प्रकृति की सब वृत्तियों के साथ, 'सर्वभायेन', उनमें प्रवेश कर सकता हो ।
अब यह शंका उठ सकती है कि जो भक्ति केवल सांसारिक वरदान पाने के लिए भगवान् को ढूँढ़ती है अथवा जो दुःख-शोक के लिए उनका आश्रय लेती है और भगवान् के लिए ही भगवान् को नहीं चाहती वह उदार कैसे कहला सकती है ? क्या ऐसी भक्ति में अहंकारिता, दुर्बलता और वासना-कामना ही प्रधान नहीं रहती, इसलिए क्या इसे भी निम्न प्रकृति की ही चीज नहीं समझना चाहिए ? फिर, जहाँ ज्ञान नहीं वहाँ भक्त ''वासुदेव: सर्वमिति" इस समग्र सर्वव्यापी सत्य को जानकर भगवान् की ओर नहीं जाता, बल्कि भगवान् के ऐसे अधूरे नाम और रूप गढ़ता है जो उसकी अपनी ही आवश्यकता, मनोदशा और प्रकृति के प्रतीक मात्र होते हैं और इन्हें वह इसलिए पूजता है कि ये उसकी प्राकृत लालसाओं में सहायक हों या उन लालसाओं को पूर्ण करें । वह इस भगवान् के इन्द्र, अग्नि, विष्णु, शिव, देवभूत ईसा या बुद्ध आदि नाम-रूप गढ़ा करता है अथवा यह कल्पना किया करता है कि भगवान् प्राकृत गुणों का कोई समुच्चय अथवा कोई दयामय और प्रेममय ईश्वर या कोई सत्यपरायण और न्यायकारी अति कठोर देवता या क्रुद्ध, भयानक और दण्डधर कालानल-स्वरूप महादेव या इनमें से कुछ गुणों के समुच्चय-स्वरूप कोई परमेश्वर हैं और वह बाहर में और मन तथा प्राण में उसीकी वेदी तैयार करता और उसे ही साष्टांग प्रणाम करता और उससे सांसारिक सुख और भोग देने के लिए या घावों को भरने के लिए या अपने भूलभरे कट्टर, बौद्धिक, असहिष्णु ज्ञान के सांप्रदायिक समर्थन जैसी चीजों की माँग करता है । यह सब एक हद तक सही है । ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है जो यह जानता हो कि सर्वव्यापी वासुदेव ही यह सब कुछ हैं, ''वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ: ।''१ मनुष्य नाना प्रकार की बाहरी इच्छाओं के वशीभूत होते हैं और ये इच्छाएँ उनके
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अंतर्ज्ञान की क्रिया हर लेती हैं, ''कामैस्तैस्तैर्हृ तज्ञाना: ।'' वे अज्ञानवश अन्य देवताओं की, अपनी इच्छा के अनुकूल भगवान् के अपूर्ण रूपों की शरण लेते हैं, ''प्रपधन्तेऽन्यदेवता: ।'' वे अपनी सकीर्णतावश एक-न-एक विधि-नियम और आचार-विचार स्थापित कर लेते हैं जो उनकी प्रकृति की आवश्यकताओं को पूरा करता है, ''तं तं नियममास्थाय ।'' और, इस सब में उनका अपना अदम्य वैयक्तिक निर्णय ही उन्हें चलाता है, वे अपनी प्रकृति की इस तंग आवश्यकता के पीछे ही चलते हैं और उसीको परम सत्य मान लेते है, क्योंकि अभी तक उनमें अनन्त की व्यापकता को ग्रहण करने की क्षमता नहीं होती । यदि उनका विश्वास पूर्ण हो तो, इन रूपों में भगवान् उन्हें उनके इष्ट भोग अवश्य प्रदान करते हैं, परन्तु ये भोग क्षणिक होते हैं और केवल क्षुद्र बुद्धि और अविवेकवश ही लोग इन भोगों का पीछा करना अपने धर्म और जीवन का सिद्धान्त बना लेते हैं । और, इस तरह से जो कुछ भी आध्यात्मिक लाभ होता है वह देवताओं की ओर ले जानेवाला होता है; वे केवल क्षर प्रकृति के नाना-विध रूपों में स्थित भगवान् को ही अनुभव कर पाते हैं जो कर्म-फल देनेवाले होते हैं । पर जो प्रकृति से अतीत समग्र भगवान् को पूजते हैं वे यह सब भी ग्रहण करते और इसे दिव्य बना लेते हैं, देवताओं को उनके परम स्वरूप तक, प्रकृति को उसके शिखर तक चढ़ा ले जाते हैं और उनके परे परमेश्वर तक जा पहुँचते हैं, परम पुरुष भगवान् का साक्षात्कार करते और उन्हें प्राप्त होते हैं, ''देवान् देवयजो यान्ति भद्धफ्ता यान्ति मामपि ।''१
तथापि उन भक्तों की दृष्टि अपूर्ण होने के कारण भगवान् उनका कभी परित्याग नहीं करते । क्योंकि भगवान् अपने परात्पर परम स्वरूप में अज, अव्यय और इन सब अंशभूत रूपों से श्रेष्ठ होने के कारण अनायास किसी प्राणी की समझ में नहीं आ सकते । वे माया के इस घने पटल से, अपनी उस योगमाया से अपने-आपको ढँके हुए हैं जिसके द्वारा वे जगत् के साथ एक, और फिर भी उसके परे हैं, अंतर्यामी हैं पर छिपे हुए, सबके हृदयों में अवस्थित हैं, पर हर किसीपर प्रकट नहीं । प्रकृति में स्थित मनुष्य समझता है कि प्रकृति में दृश्यमान ये सब पदार्थ भगवान् ही हैं जब कि यथार्थ में ये सब केवल उनके कार्य, शक्तियाँ और आवरण मात्र है । भगवान् भूत, वर्तमान और भविष्य की सभी वस्तुओं को जानते हैं पर उन्हें कोई नहीं जानता । इस कारण यदि प्रकृति में अपनी क्रिया के द्वारा सब प्राणियों को इस प्रकार भरमाकर वे इन सब पदार्थों के अन्दर उन्हें दर्शन न दें तो माया में बद्ध किसी मनुष्य या जीव के लिए कोई दिव्य आशा न
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रह जायगी । इसीलिए इन भक्तों को प्रकृति के अनुसार, जैसे भी ये भगवान् की ओर चलते हैं वैसे ही, भगवान् इनकी भक्ति को ग्रहण करते हैं और भागवत प्रेम और करुणा बरसाकर उनकी पुकार का उत्तर देते हैं । ये रूप हैं भी तो आखिर उन्हीं का एक ऐसा आविर्भाव जिसमें से होकर अपूर्ण मानवी बुद्धि उनका स्पर्श पा सकती है, ये कामनाएँ ही वह प्रथम साधन बन जाती हैं जिससे हमारे हृदय उनकी ओर फिरते हैं । और, फिर किसी प्रकार की भक्ति, चाहे वह कितनी ही संकुचित और मर्यादित क्यों न हो, बेकार नहीं होती । इसकी एकमात्र महती आवश्यकता है श्रद्धा-विश्वास । भगवान् कहते हैं, ''श्रद्धा के साथ जो कोई भक्त मेरे जिस किसी रूप को पूजना चाहता है, मैं उसकी वह श्रद्धा उसीमें अचल बना देता हूँ ।''१ वह अपने मतवाद और उपासना की उस श्रद्धा के बल पर अपनी इच्छा पूर्ण करा लेता और उस आध्यात्मिक अनुभूति को लाभ करता है जिसका वह उस समय अधिकारी होता है । भगवान् से अपना सर्वविध कल्याण माँगते-माँगते वह अंत में भगवान् को ही अपना सर्वविध कल्याण जानने लगता है । अपने सब सुखों के लिए भगवान् पर निर्भर होकर वह अपने सब सुखों को भगवान् पर ही केन्द्रीभूत करना सीख लेता है । भगवान् को उनके रूपों और गुणों से जानकर वह उन्हें उस समग्र और परम रूप में जानने लगता है जो सबका मूल है ।२
इस प्रकार आध्यात्मिक उन्नति के साथ-साथ भक्ति ज्ञान के साथ एक हो जाती है । जीव भगवान् में आनन्द लाभ करता है, उन्हें अखिल सत्, चित् और आनन्द-स्वरूप जानता है, सब पदार्थों, प्राणियों और घटनाओं में उन्हींको अनुभव करता है, प्रकृति में, पुरुष में, उन्हींको देखता और प्रकृति और पुरुष के परे उन्हीं को जानता है । वह ''नित्ययुक्त'' है, सतत भगवान् के साथ युक्त है; उसका संपूर्ण जीवन और उसकी सत्ता उन परम के साथ सनातन योग से युक्त है जिनके परे, जिनसे श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं है, उन विश्वात्मा के साथ युक्त है जिनके अतिरिक्त और कोई नहीं, कुछ भी नहीं । वह ''एकभक्ति:" है, उसकी सारी भक्ति उन्हीं एक पर केन्द्रित है, किसी आंशिक देवता, विधि-विधान या संप्रदाय पर नहीं । उसके जीवन का संपूर्ण और एकमात्र
१. नियम १. ७,२१
२. परम की प्राप्ति के पश्चात् भी आर्त्त आदि त्रिविध कनिष्ठ भक्तिभावों के लिये अवकाश रहता है, अवश्य ही तब ये भाव संकीर्ण और वैयक्तिक नहीं होते, बल्कि दिव्यता में परिणत हो जाते हैं; क्योंकि परम की प्राप्ति के बाद भी यह प्रबल इच्छा बनी रह सकती है कि इस प्राकृत जगत् से दुःख, दुष्कर्म और अज्ञान दूर हों और परम कल्याण, शक्ति, आनन्द और ज्ञान का इसमें उत्तरोत्तर अधिकाधिक विकास और पूर्ण प्राकटय हो |
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अनन्य भक्ति है, वह सब धार्मिक मत-मतांतरों, आचारों और जीवन के वैयक्तिक उद्देश्यों को पार कर चुका है । उसे कोई दुःख नहीं है जो दूर करने हों, क्योंकि वह सर्वानन्दमय परमात्मा को पा चुका है । उसकी कोई इच्छाऐं नहीं हैं जिनके पीछे वह भटकता फिरे, क्योंकि वह उसे पा चुका है जो सबसे ऊँची चीज है, जो सब कुछ है, और सदा उस सर्व-शक्ति के समीप है जो संपूर्णता की देनेवाली है । उसमें कोई शंका या चकरानेवाली खोज नहीं बची, क्योंकि उसपर सारा ज्ञान उस ज्योति से प्रवाहित हुआ करता है जिसमें वह निवास करता है । वह पूरी तरह भगवान् से प्रेम करता और भगवान् का प्यारा होता है; क्योंकि जैसे उसे भगवान् से आनन्द मिलता है वैसे ही भगवान् भी उससे आनन्द लाभ करते हैं । यही वह भगवत्प्रेमी है जो ज्ञान से युक्त है, ज्ञानी भक्त है । और, यह ''ज्ञानी-भक्त'' गीतामें भगवान् कहते हैं कि, ''मेरी आत्मा है'' अन्य भक्त भगवान् के केवल प्रकृति-गत भाव और स्वरूप ग्रहण करते हैं और वह उन पुरुषोत्तम के निज स्वरूप और समग्र स्वरूप को ही ग्रहण करता है जिनके साथ वह एक हो जाता है । उसीका पराप्रकृति में दिव्य जन्म होता है-स्वरूप से समग्र, संकल्प में पूर्ण, प्रेम में अनन्य, ज्ञान में सिद्ध । उसीमें जीव का वैश्व जीवन चरितार्थ होता है, कारण वह अपने-आपको ही पार कर जाता और इस तरह अपने ही संपूर्ण और परम सत्य-स्वरूप को प्राप्त होता है ।
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