गीता-प्रबंध

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Sri Aurobindo

Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) Essays On The Gita Vol. 13 576 pages 1970 Edition
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Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo गीता-प्रबंध 629 pages 1984 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

देव और असुर

 

 

तीन गुणों की बद्ध और व्यामूढ़ क्रिया से छुटकारा पाकर गुणातीत मुक्त पुरुष की नि:सीम एवं बंधनहीन क्रिया में प्रवेश किस प्रकार साधित किया जा सकता है, इस प्रश्न पर यदि हम अपने अन्दर अधिक सूक्ष्मता के साथ विचार करें तो यह स्पष्ट हो जायगा कि मनुष्य की अज्ञ एवं बंधनग्रस्त सामान्य प्रकृति को दिव्य आध्यात्मिक सत्ता की क्रियाशील मुक्त स्थिति में परिवर्तित करने में क्रियात्मक कठिनाई क्या है । यह परिवर्तन किंवा त्रिगुण का अतिक्रमण परमावश्यक है; क्योंकि यह स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया है कि उसे त्रिगुणा-तीत या निस्त्रैगुण्य होना होगा, अर्थात् तीनों गुणों से ऊपर या फिर उनसे रहित होना होगा । दूसरी ओर, इतने ही स्पष्ट रूप में, इतने ही बलपूर्ण शब्दों में यह भी कहा गया है कि इस भूतल पर प्रत्येक प्राकृत सत्ता में तीनों गुण एक- दूसरेके साथ अविच्छेद्य रूप से युक्त रहकर क्रिया कर रहे हैं और यह भी कहा गया है कि किसी मनुष्य या प्राणी या शक्ति की समस्त क्रिया केवल इन तीन गुणों की एक-दूसरेपर होनेवाली क्रिया ही है, वह एक ऐसी क्रिया है जिसमें कोई एक या दूसरा गुण प्रबल होता है तथा शेष दोनों उसकी क्रिया एवं परिणामों को थोड़ा-बहुत प्रभावित करते हैं, 'गुणा गुणेषु वर्तन्ते ।' तब भला और कोई सक्रिय एवं गतिशील प्रकृति या किसी और प्रकार के कर्म हो ही कैसे सकते हैं ? कर्म करने का अर्थ प्रकृति के तीन गुणों के अधीन होना है; उसकी क्रिया की इन अवस्थाओं के ऊपर उठने का अर्थ आत्मा में नीरव होकर स्थित रहना है । ईश्वर, पुरुषोत्तम, जो प्रकृति के सब कर्मों के स्वामी हैं तथा अपने दिव्य संकल्प के द्वारा उन सबका परिचालन, निर्देशन और निर्धारण करते हैं, निःसंदेह गुणों की इस यांत्निक क्रिया से परे हैं; वे प्रकृति के गुणों से प्रभावित या आबद्ध नहीं होते । परन्तु फिर भी ऐसा जान पड़ता है कि वे सदा इन्हीं के द्वारा कार्य करते हैं,  सदा स्वभाव की शक्ति से तथा गुणों के मनोवैज्ञानिक यंत्र के द्वारा ही गठन करते हैं । ये तीन प्रकृति के मूलभूत गुण हैं, यहाँ हमारे अन्दर जो कार्यवाहिका प्रकृति-शक्ति

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१. गीता, अध्याय १६

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गठित हो रही है उसकी ये आवश्यक क्रियाएँ हैं, और स्वयं जीव भी इस प्रकृति के अन्दर भगवान् का एक अंश मात्र है । अतएव यदि मुक्त व्यक्ति मुक्ति के बाद भी कर्म करता रहता है, कर्म-प्रपंच में विचरण करता है, तो वह प्रकृति के अन्दर रहता हुआ तथा उसके गुणों के द्वारा सीमाबद्ध एवं उनकी प्रतिक्रियाओं के अधीन होकर ही कर्म कर सकता तथा इस प्रकार विचरण कर सकता है, और जबतक उसकी सत्ता का प्राकृत भाग विद्यमान है तबतक वह भगवान् की मुक्तावस्था में कर्म नहीं कर सकता । परन्तु गीता ने इससे ठीक उलटी बात कही है, वह यह कि मुक्त योगी गुणों की प्रतिक्रियाओं से छुटकारा पा लेता है और वह चाहे जो भी कर्म करे, चाहे जिस प्रकार भी रहे, पर वह सदा ईश्वर में ही, उनके स्वातंत्र और अमृतत्व की शक्ति में ही, परमोच्च शाश्वत अनंत के विधान में ही रहता-सहता है, उसी में चलता-फिरता तथा सब काम-काज करता है, 'सर्वथा वर्तमानोडपि स योगी मयि वर्तते ।'  ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ एक परस्परविरोध एवं गहन समस्या विद्यमान है ।

 

परन्तु ऐसा तभी दिखायी देता है जब हम विश्लेषक मन के कठोर तार्किक विरोधों के साथ गठबंधन कर लेते हैं, तब नहीं जब हम आत्मा के स्वरूप, तथा प्रकृति के अन्दर विद्यमान अध्यात्म-सत्ता पर मुक्त एवं सूक्ष्म रूप से दृष्टिपात करते हैं । जो शक्ति जगत् को चला रही है वह वास्तव में प्रकृति के गुण नहीं है,--ये गुण तो हमारी साधारण प्रकृति का केवल निम्न पक्ष हैं, उसका एक यंत्र मात्र हैं । जगत् की वास्तविक चालक-शक्ति एक आध्यात्मिक भगवत्संकल्प है जो इस समय इन निम्न अवस्थाओं का प्रयोग कर रहा है, पर जो स्वयं मानवीय संकल्प की भाँति गुणों के द्वारा सीमाबद्ध एवं नियंत्रित नहीं होता, उनका यंत्न नहीं बन जाता । निःसंदेह, क्योंकि इन गुणों की क्रिया इतनी सार्वभौम है, इनका मूल परमात्मा की शक्ति के भीतर निहित किसी तत्व में ही होना चाहिए; दिव्य संकल्प-बल में ऐसी शक्तियाँ अवश्य होनी चाहिएँ जिनसे प्रकृति के ये गुण उद्भूत होते हैं । कारण, निम्नतर सामान्य प्रकृति की प्रत्येक वस्तु पुरुषोत्तम की सत्ता की उच्चतर अध्यात्म-शक्ति से ही नि:सृत हुई है, 'मत्त: प्रवर्तते;' वह आध्यात्मिक मूल से रहित एक सर्वथा नवीन वस्तु के रूप में उद्भूत नहीं होती । आत्मा की मूल शक्ति में कोई ऐसी चीज अवश्य है जिससे हमारी प्रकृति का सात्त्विक प्रकाश एवं सुख, उसकी राजसिक गति तथा तामसिक जड़ता निःसृत हुई हैं और जिसके ये अपूर्ण या हीन रूप हैं । किन्तु इन स्रोतों के जिस अपूर्ण एवं विकृत रूप के अन्दर हम निवास करते हैं उसके परे जब हम एक बार इनके विशुद्ध रूपतक पहुँचते हैं तो हमें पता चलता है कि, ज्योंही हम आत्मा कई अन्दर निवास करने

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लगते हैं त्योंही, ये गतियाँ एक सर्वथा भिन्न रूप धारण कर लेती हैं । सत्ता और कर्म तथा इन दोनों की त्रिगुणात्मक अवस्थाएँ अपने वर्तमान सीमित रूप से अत्यंत परतर एवं सर्वथा विभिन्न वस्तुएँ बन जाती हैं ।

 

इस द्वंद्वमय एवं संघर्षमय जगत् की इस विक्षुब्ध गति के पीछे क्या चीज है ? वह कौन-सी चीज है जो मन को छूते ही, मानसिक रूप धारण करते ही कामना, चेष्टा, आयास, भ्रांत संकल्प, पाप और दु:ख-दर्द की प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करती है ? वह गति में प्रवृत्त आत्मा का संकल्प है, कर्मरत विराट् भगवत्-संकल्प है जिसे ये वस्तुएँ स्पर्श नहीं करतीं; वह मुक्त एवं अनंत चिन्मय परमेश्वर की शक्ति  है जिसके अन्दर कोई कामना नहीं, क्योंकि वह विश्व की समस्त संपदा की स्वामिनी है और अपनी गति के सहज-स्फूर्त आनन्द की भोक्त्री है । किसी प्रकार के आयास-प्रयास से श्रान्त न होती हुई वह अपने साधनों तथा उद्देश्यों के निर्बाध प्रभुत्व का उपभोग करती है; किसी भ्रांत संकल्प के कारण पथभ्रष्ट न होती हुई वह आत्मा और वस्तुओं के उस ज्ञान को अपने अन्दर धारण किये हुए है जो उसके प्रभुत्व और आनंद का मूल स्रोत है:  दुःख, पाप या वेदना से अभिभूत न होती हुई वह अपनी सत्ता तथा शक्ति दोनों के आनंद और पवित्रता से नित्ययुक्त है । जो जीव ईश्वर में निवास करता है वह इस आध्यात्मिक संकल्प के द्वारा कार्य करता है, न कि बंधनग्रस्त मन के सामान्य संकल्प के द्वारा : उसकी समस्त क्रिया-प्रवृत्ति इस आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा प्रवाहित होती है, प्रकृति के रजोगुण के द्वारा नहीं, इसका कारण ठीक यही है कि वह अब और उस निम्नतर गति में निवास नहीं करता, जिसके साथ यह विकृति सम्बन्ध रखती है, बल्कि दिव्य प्रकृति में गति के विशुद्ध और पूर्ण मर्म पर पहुँच गया है ।

 

और फिर प्रकृति की यह जड़ता, यह तम पराकाष्ठा को पहुँचने पर उसकी क्रिया को मशीन के अंध परिचालन-जैसा रूप दे देता है, एक ऐसे यांत्रिक वेग का रूप दे देता है जो उस गरारी के सिवा और किसी चीज से सचेतन नहीं होता जिसमें इसकी गति शुरू करा दी जाती है, और यहाँतक कि जो गति का नियम तक नहीं जानता, --यह तमस अभ्यस्त क्रिया के विलोप को मृत्यु एवं विघटन में परिणत कर देता है तथा मन के अन्दर निष्क्रियता एवं अज्ञान को शक्ति बन जाता है,--इस प्रकार के इस तमस्  के पीछे क्या चीज है ? यह तमस् एक प्रकार का अज्ञानान्धकार है जो, यह कहा जा सकता है कि, आत्मा के शांति और विश्रांतिरूपी शाश्वत तत्त्व को विकृत करके उसे शक्ति एवं ज्ञानसम्बन्धी निष्क्रियता में परिणत कर देता है । पर भगवान् की वह विश्रांति एक ऐसी विश्रांति है जिसे वे कभी नहीं

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१. तपस, चित्-शक्ति

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खोते, तब भी नहीं जब कि वे कर्म करते हैं, वह एक ऐसी शाश्वत विश्रांति है जो उनके ज्ञान के समग्र व्यापार को तथा उनके सर्जन-संकल्प की शक्ति को वहाँ और यहां दोनों जगह धारण करती है, वहां उसकी अपनी अनंतताओं में तथा यहाँ उसकी क्रिया और आत्म-संवित् की प्रतीयमान अपूर्णता में । भगवान् की शांति न तो शक्ति का विघटन है और न ही शून्य निष्क्रियता ; चाहे 'शक्ति' यत्न-यत्न-सर्वत्र कुछ समय के लिए सक्रिय रूप से जानना तथा सृजन करना बन्द कर दे तो भी भगवान् की यह शांति उस सबको, जिसे 'अनंत' ने जाना तथा किया है, एक सर्वसमर्थ नीरवता में संगृहीत तथा चिद्घन रूप में सुरक्षित रखेगी । सनातन को सोने या विश्राम करने की आवश्यकता नहीं होती; वे न तो श्रांत होते हैं और न शिथिल; उन्हें अपनी क्लांत शक्तियों को फिर से नया और ताजा करने के लिए विराम की जरूरत नहीं; क्योंकि उनकी शक्ति अक्षय रूप में एक-रस है, कभी श्रांत न होनेवाली तथा असीम है । परमेश्वर अपने कर्म के बीच भी शान्त और सुस्थिर रहते हैं; और दूसरी ओर उनकी कर्म से विरति उनकी गति की सम्पूर्ण शक्ति तथा समस्त सम्भाव्यताओं को अपने अन्दर सुरक्षित रखती है । मुक्त जीव इस स्थिर शांति में प्रवेश करता है तथा आत्मा की शाश्वत विश्रांति में भाग लेता है । जिस किसी को भी मुक्ति के आनन्द का यत्किंचित् रसास्वाद प्राप्त हुआ है वह इस बात को जानता है कि इसमें शांति की शाश्वत शक्ति विद्यमान है । और वह गभीर शांति कर्म के ठेठ अंतस्तल में भी रह सकती है, शक्तियों की अतीव प्रचंड गति में भी सुरक्षित रह सकती है । विचार, कर्म, संकल्प एवं प्रवृत्ति का अदम्य प्रवाह, प्रेम का उद्दाम आवेग, स्वयंसत् आध्यात्मिक आनंद का तीव्रतम उल्लास उपस्थित हो सकता है और वह जगत् में तथा प्रकृति की गतिविधियों में वस्तुओं और सत्ताओं के तेजोमय एवं शक्ति-पूर्ण आध्यात्मिक उपभोग की हद तक पहुँच सकता है, और फिर भी यह शांति एवं स्थिरता उस आवेग के पीछे तथा उसके अन्दर उपस्थित रहेगी-अपनी गहराइयों से नित्य-सचेतन, सदा एकरस । मुक्त व्यक्ति की शांति आलस्य, अक्षमता, असंवेदनशीलता एवं जड़ता-रूप नहीं होती; वह तो होती है अमर शक्ति से परिपूर्ण, समस्त कर्म करने में सक्षम, प्रगाढ़तम हर्ष के साथ समस्वरित, गभीरतम प्रेम एवं करुणा तथा सब प्रकार के तीव्रतम आनंद की ओर अभिमुख ।

 

इसी प्रकार, प्रकृति का यह शुद्धतम गुण अर्थात् सत्त्वगुण या सत्त्वशक्ति जो सात्म्य एवं समरसता, यथार्थ ज्ञान एवं यथार्थ व्यवहार सुन्दर सामंजस्य, दृढ़ संतुलन, यथार्थ कर्म-विधान तथा यथार्थ प्रभुत्व को अधिगत करने में सहायक होती है और मन को इतनी पूर्ण तृप्ति प्रदान करती है, यह सत्त्वगुण जो अपने-

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आपमें, अपनी सीमाओं के भीतर तथा अपने स्थिति-काल में तो अवश्य सराहनीय है पर फिर भी जिसकी स्थिति अनिश्चित है और जो अपनी सीमाओं के द्वारा सुरक्षित है तथा विधि-विधान पर आश्रित है, इस प्रकार के इस सत्त्वगुण के अवर प्रकाश एवं सुख के परे, साधारण प्रकृति की इस उच्चतम वस्तु के परे इसके ऊर्ध्व और सुदूर उद्गम में मुक्त आत्मा की एक मुक्त महत्तर ज्योति एवं आनन्द विद्यमान है । वह ज्योति एवं आनन्द सीमाबद्ध नहीं है, वह नियम-मर्यादा या विधि-विधान पर अवलंबित नहीं है, बल्कि स्वयं-स्थित और अपरिवर्तनीय है, वह हमारी प्रकृति के वैषम्य-विरोधों के बीच इस या उस सामंजस्य का परिणाम नहीं है बल्कि सामंजस्य मात्र का मूल स्रोत है और चाहे जिस किसी भी सामंजस्य की सृष्टि कर सकता है । वह ज्ञान की एक ज्योतिर्मय आध्यात्मिक शक्ति है और अपनी सहज-स्वाभाविक क्रिया में ज्ञान की साक्षात् अतिमानसिक शक्ति है, 'ज्योति:' है, वह हमारा विकृत और परोक्ष मानसिक प्रकाश नहीं है । वह विशालतम स्वयंस्थित सत्ता की, सहजस्फूर्त आत्मज्ञान, घनिष्ठ विश्वगत तादात्म्य तथा गभीरतम आत्म-विनिमय को ज्योति एवं आनन्द है, न कि अर्जन,  आत्मसात्करण, सामंजस्य-साधन तथा कष्टसाध्य साम्य-स्थापन की । वह ज्योति भास्वर अध्यात्म-संकल्प से परिपूर्ण है और उसके ज्ञान तथा कर्म में कोई खाई या विषमता नहीं है । वह आनंद हमारा क्षीणतर मानसिक सुख नहीं है, बल्कि गभीर, तीव्र, प्रगाढ़, स्वयंसत् आनंद है; हमारी सत्ता जो कुछ भी करती है, जिस भी वस्तु की परिकल्पना एवं सृष्टि करती है उस सबमें वह आनन्द व्याप्त रहता है, वह एक स्थिर दिव्य आनंद है । मुक्त जीव इस ज्योति और आनन्द में अधिकाधिक गभीर रूप से भाग लेता है, जितना ही अधिक पूर्ण रूप में वह इसके अन्दर वर्धित होता है, उतना ही अधिक समग्र रूप में वह भगवान् के साथ युक्त होता है । निम्न प्रकृति के गुणों में, अनिवार्य रूप से, एक असंतुलन रहता है, उनमें मात्र की परिवर्तनशील अस्थिरता, तथा प्रभुत्व के लिए सतत संघर्ष पाया जाता है; पर इसके विपरीत, अध्यात्म-सत्ता की महत्तर ज्योति एवं आनन्द, स्थिरता और गति-संकल्प एक-दूसरेका बहिष्कार नहीं करते, परस्पर संघर्ष नहीं करते, यहाँतक कि ये केवल संतुलित ही नहीं रहते वरन् इनमें से प्रत्येक शेष दो का एक अंग है और अपनी पूर्णता में ये सब एक एवं अविभाज्य हैं । हमारा मन जब भगवान् के निकट पहुँचता है तो ऐसा प्रतीत हो सकता है कि वह इनमें से एक का वर्जन कर दूसरे में प्रवेश कर रहा है, उदाहरणार्थ, ऐसा दिखायी दे सकता है कि वह कर्म की प्रवृत्ति को त्यागकर शांति उपलब्ध करना चाहता है, पर इसका कारण यह है कि पहले-पहल हम अपने

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मन की चुनाव करने की वृत्ति के द्वारा ही उनकी ओर अग्रसर होते हैं । बाद में जब हम आध्यात्मिक मन से भी ऊपर उठने में समर्थ हो जाते हैं तो हम देखते हैं कि इन दिव्य शक्तियों में से प्रत्येक के अन्दर शेष सब भी विद्यमान हैं और तब हम इस प्रारम्भिक भूल से छुटकारा पा सकते हैं

 

इस प्रकार हम देखते हैं कि जीव प्रकृति के गुणों की सामान्य हीन क्रिया के अधीन हुए बिना भी कर्म कर सकता है । मन-प्राण-शरीररूपी जिस सीमित साँचे में हम ढले हुए हैं उसी के ऊपर यह हीन क्रिया निर्भर करती है; यह एक विकृति है, एक अक्षमता एवं अयथार्थ या हीन अवस्था है जिसे देहबद्ध मन और प्राण हमपर लादते हैं । जब हम आत्मा में अभिवर्द्धित होते हैं तो प्रकृति के इस धर्म या निम्न विधान का स्थान आत्मा का अमर धर्म ले लेता है; तब मुक्त अमर कर्म, दिव्य असीम ज्ञान, परात्पर शक्ति और अपार शांति का अनुभव हमें प्राप्त होता है । पर फिर भी यह प्रश्न शेष रह जाता है कि यह संक्रमण किन अवस्थाओं के द्वारा संपन्न होगा; क्योंकि मध्यवर्ती अवस्थाओं किंवा प्रगति के क्रमों का रहना आवश्यक है; कारण, इस संसार में ईश्वर की कार्यपरंपरा में कोई भी चीज बिना किसी प्रक्रिया या आधार के किसी आकस्मिक क्रिया के द्वारा नहीं होती । जिस चीज की हम खोज कर रहे हैं वह हमारे अपने ही अन्दर है । पर, क्रियात्मक दृष्टि से, हमें अपनी प्रकृति के निम्नतर रूपों में से उसका विकास करना है । अतएव स्वयं गुणों की क्रिया में भी किसी ऐसे उपाय या सुविधाजनक साधन एवं आधार-बिन्दु का होना आवश्यक है जिसके द्वारा हम

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१. उच्चतम प्रकृति की क्रिया के ये परम आध्यत्मिक एवं अतिमानसिक रूप निम्न प्रकृति के तीन गुणों के अनुरूप हैं । इनका जो वर्णन न यहां किय गया है वह गीता से नहीं लिया गया है बल्कि वह आध्यात्मिक अनुभूति के आधार पर प्रस्तुत किया गया है । गीता उच्चतम प्रकृति की क्रिया का, 'रहस्यम् उत्तममू', का किंचित् भी वर्णन नहीं करती; वह इसे जिज्ञासु पर छोड़ देती है ताकि वह स्वयं अपनी आध्यात्मिक अनुभूति के द्वारा इसे उपलब्ध करे । बह केवल उच्च सात्त्विक स्वमाव और कर्मवाली प्रकृति का निर्देश मर कर देती है जिसके द्वारा यह परम रहस्य प्राप्त किया जा सकता है, और साथ ही वह सत्त्व के भी ऊपर उठने तथा तीनों गुणों को पार करने के लिए आग्रह करती है ।

. यह इस दष्टिकोण से कहा गया है कि हमारी प्रकृति आत्म-विजय, पुरुषार्थ ओर साधना के द्वारा ही ऊपर की ओर आरोहण करती है | पर इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि हमारी सत्ता का रूपांतर करने के लिए इसके अंदर दिव्य ज्योति, उपस्थिति और शक्ति अवतरित हों तथा अधिकाधिक अपना हस्तक्षेप करें; अन्यथा सिद्धि के चरम बिंदु पर तथा उसके परे रूपांतर साधित नहीं हो सकता |  इसी  कारण साधना की अंतिम क्रिया के रूपमें पूर्ण आत्म-समर्पण करना आवश्यक होता है ।

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यह रुपांतर साधित कर सकें । गीता को यह उपाय सत्त्वगुण में उपलब्ध हुआ है, वह कहती है कि हमें सत्त्वगुण का पूर्ण विकास करना होगा ताकि वह अपने शक्ति- शाली विस्तार में एक ऐसे स्थल पर पहुँच जाय जहाँ वह अपनेको अतिक्रम कर सके तथा अपने उद्गम में विलीन हो सके । इसका कारण स्पष्ट ही है, क्योंकि सत्त्व प्रकाश और सुख की शक्ति है, एक ऐसी शक्ति है जो शांति और ज्ञान की प्राप्ति में सहायक है, और अपने सर्वोच्च शिखर तक पहुँचने पर यह, जिस आध्यात्मिक ज्योति एवं आनंद से यह उत्पन्न हुआ है, उसे कुछ-न-कुछ प्रतिभासित कर सकता है, यहाँतक कि उसके साथ लगभग एक मानसिक तादात्म्य प्राप्त कर सकता है । शेष दो गुण प्रकृति की सत्त्वगुण की शक्ति के हस्तक्षेप के बिना इस प्रकार का रूपांतर लाभ नहीं कर सकते, अर्थात् सत्व के बिना न तो रज दिव्य क्रियाशील संकल्प में रूपांतरित हो सकता है और न ही तम दिव्य शम और विश्रांति में । जड़ता का तत्त्व सदा शक्ति की जड़ निष्क्रियता या ज्ञान की अक्षमता ही बना रहेगा जबतक कि उसका अज्ञान प्रकाश में विलीन नहीं हो जाता और उसकी जड़ अक्षमता शांतिमय सर्वशक्तिमान् दिव्य संकल्प की ज्योति एवं शक्ति में विलुप्त नहीं हो जाती । उसके बिना हम परम शान्ति एवं स्थिरता कभी नहीं प्राप्त कर सकते । अतएव तमस्  को सत्व के वश में लाना आवश्यक है |  इसी प्रकार, रज का तत्त्व सदैव एक चंचल, विक्षुब्ध, ज्वराकुल या उद्विग्न व्यापार ही रहेगा, क्योंकि उसके अन्दर यथार्थ ज्ञान का अभाव है; उसकी स्वभावसिद्ध गति एक अयुक्त एवं विकृत क्रिया है जिसके विकृत होने का कारण है अज्ञान । हमें अपने संकल्प को ज्ञान के द्वारा शुद्ध करना होगा; उसे उत्तरोत्तर एक युक्त तथा ज्ञानदीप्त क्रिया का अभ्यासी बनाना होगा; तब कहीं हम उसे दिव्य गतिशील संकल्प में परिणत कर सकते हैं । इसका भी यही अर्थ हुआ कि सत्त्व का हस्तक्षेप आवश्यक है । सत्त्वगुण परा और अपरा प्रकृति के बीच प्रथम मध्यस्थ है । नि:संदेह एक विशेष बिंदु तक पहुँचकर इसे रूपांतरित हो जाना होगा या फिर इसे अपनेको अतिक्रम करना होगा एवं खण्डित होकर अपने उद्गम में विलीन हो जाना होगा; इसके परिच्छिन्न, अन्यलब्ध एवं अन्वेषण-तत्पर प्रकाश तथा सावधानतापूर्वक आयोजित कार्य को आत्मा की मुक्त साक्षात् कर्मशक्ति तथा स्वयंस्फूर्त ज्योति में रूपांतरित होना होगा । परन्तु इस बीच सत्त्वगुण की अपरिमित वृद्धि हमें तामसिक एवं राजसिक अक्षमता से बहुत हद तक मुक्त कर देती है; और एक बार जब ऐसी स्थिति आ जाती है कि रज और तम हमें बहुत अधिक नीचे नहीं खींच सकते तब स्वयं सत्त्वगुण की अपनी अक्षमता भी अतीव सुगमता से पार की जा सकती है ।

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 जबतक सत्त्वगुण आध्यात्मिक ज्योति, शान्ति और प्रसाद से परिपूर्ण नहीं हो जाता, तबतक उसे विकसित करते जाना ही प्रकृति की इस प्रारम्भिक साधना की पहली शर्त है ।

 

हम देखेंसे कि गीता के शेष अध्यायों का संपूर्ण आशय यही है । परंतु इस ज्ञानप्रद प्रक्रिया को विवेचना करने से पहले इसकी भूमिका के रूप में वह दो प्रकार की सत्ताओं, देव और असुर के बीच भेद दिखलाती है; क्योंकि देव ही अपने-आपको रूपांतरित करने का उच्च सात्त्विक कार्य कर सकता है, असुर नहीं । हमें यह देखना होगा कि इस भूमिका का उद्देश्य तथा इस भेद की यथार्थ उपयोगिता क्या है । मनुष्य मात्र की सामान्य प्रकृति एक-सी है; वह तीन गुणों के मिश्रण से बनी हुई है । अतएव, ऐसा प्रतीत होगा कि सत्त्वगुण को विकसित और परिपुष्ट करने तथा उसे दिव्य रूपांतर की ऊँचाइयों की ओर उन्मुख कर देने की क्षमता सबके अंदर है । परंतु हमारी यह साधारण प्रवृत्ति है कि व्यवहार में हम अपनी बुद्धि और संकल्प को अपने राजसिक या तामसिक अहंभाव के दास बनाने के साथ-साथ अपनी चंचल एवं असंतुलित कर्मैषणा या स्व-विलासी अकर्मण्यता और निष्क्रिय जड़ता के सहायक भी बना देते हैं । इस प्रवृत्ति के संबंध में हम यह मान ले सकते हैं कि यह हमारी अविकसित आध्यात्मिक सत्ता की एक अस्थायी प्रवृत्ति एवं इसके अपूर्ण विकास की अपरिपक्व अवस्था ही हो सकती है, और जब हमारी चेतना का आध्यात्मिक स्तर ऊँचा हो जायगा तब यह अवश्य दूर हो जायगी । परंतु कार्यत: हम यह देखते हैं कि मनुष्य, कम-से-कम एक स्तर-विशेष से ऊपर  के मनुष्य, अधिकतर दो श्रेणियों के अंदर आते हैं, एक तो वे लोग होते हैं जिनमें सात्त्वीक प्रकृति अत्यंत प्रबल होती है जो कि स्वभावत: ही ज्ञान, आत्म-संयम, परोपकार तथा पूर्णता की ओर मुड़ी रहती है और दूसरे वे जिनमें राजसिक प्रकृति अति प्रबल होती है जो अहम्मय महत्ता एवं कामना-पूर्त्ति की ओर तथा अपने निजी दृढ़ संकल्प एवं व्यक्तित्व में आसक्ति-पूर्ण रति की ओर मुड़ी रहती है; अपने उस दृढ़ संकल्प और व्यक्तित्व को वे मनुष्य भगवान् की सेवा के लिए नहीं, बल्कि अपने अभिमान, यश और सुख के लिए जगत् पर लादना चाहते हैं । ये देवों और दानवों या असुरों के मानवीय प्रतिनिधि हैं । यह भेद भारतीय धार्मिक प्रतीकवाद में अत्यंत प्राचीन है । ऋग्वेद का मूल विचार देवताओं और उनके अंधकारमय विरोधियों के बीच, ज्योति के अधिपतियों एवं अनंतता के पुत्रों और अंधकार एवं विभाजन की संतानों के बीच होनेवाला संग्राम ही है, वह एक ऐसा संग्राम है जिसमें मनुष्य भाग लेता है और जो उसके समस्त आंतर जीवन और कर्म में प्रतिबिंबित होता है ।

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जरदुश्त के धर्म का भी मूलतत्त्व यही था । परवर्ती साहित्य में भी इसी विचार की प्रधानता पायी जाती है । रामायण, अपने भूल नैतिक भाव में, मानव-रूपधारी देव तथा मूर्त्तिमंत राक्षस के बीच, उच्च संस्कृति एवं धर्म के प्रतिनिधि तथा अतिरंजित अहं की विराट् असंयत शक्ति एवं राक्षसी सभ्यता के बीच होनेवाले घनघोर संघर्ष का रूपक है । महाभारत,-गीता जिसका एक अंश है,-मानवरूप देवों और असुरों के जीवनव्यापी संघर्ष को अपना विषय बनाती है; देव वे शक्तिशाली मनुष्य हैं, देवताओं के पुत्र हैं जो उच्च नैतिक धर्म के प्रकाश के द्वारा परिचालित होते हैं और असुर वे मूर्तिमंत दानव हैं, वे शक्तिशाली मनुष्य हैं जो अपने बौद्धिक, प्राणिक एवं भौतिक अहं की सेवा में रत हैं । प्राचीन मानव का मन भौतिक आवरण के पीछे छिपे हुए वस्तुओं के सत्य की ओर हमारी अपेक्षा अधिक खुला हुआ था; वह मनुष्य-जीवन के पीछे उन महान् वैश्व शक्तियों या सत्ताओं को देखता था जो विश्व-शक्ति की कुछ एक प्रवृत्तियों या कोटियों की, दैवी, आसुरी, राक्षसी और पैशाची प्रवृत्तियों या कोटियों की प्रतिनिधि हैं; और जो लोग अपने अंदर प्रकृति की इन विशिष्ट प्रवृत्तियों का प्रबल रूप से प्रतिनिधित्व करते थे वे स्वयं भी देव, असुर, राक्षस और पिशाच समझे जाते थे । गीता अपने प्रयोजनों के लिए इस भेद को स्वीकार करती है और इन दो प्रकार की सत्ताओं के विभेद को विशद रूप से पल्लवित करती है, 'द्वौ भूतसर्गौ '  ईश्वर-ज्ञान, मुक्ति और पूर्णता का प्रतिरोध करनेवाली आसुरी और राक्षसी प्रकृति का वर्णन वह पहले कर चुकी है; अब वह इन चीजों की ओर मुड़ी हुई दैवी प्रकृति के साथ इसकी तुलना करती है ।

 

भगवान् गुरु कहते हैं कि अर्जुन देव-प्रकृति का मनुष्य है । उसे यह विचार कर शोक करना उचित नहीं कि युद्ध और वध को अंगीकार करने से वह आसुरी आवेगों का दास बन जायगा । जिस कार्य पर सब कुछ निर्भर करता है, जो युद्ध अर्जुन को करना है, जिसमें देहधारी ईश्वर उसके सारथि हैं और जगत् के प्रभु ने काल-पुरुष के रूप में प्रकट होकर जिसके लिए आदेश दिया है, वह धर्म के राज्य, सत्य, सदाचार और न्याय के साम्राज्य की स्थापना का संघर्ष है । वह स्वयं देवजाति में उत्पन्न हुआ है; उसने अपने अंदर सात्त्विक स्वभाव का विकास किया है, यहाँतक कि अब वह उस अवस्था में पहुँच गया है जहाँ वह उच्च रूपांतर के योग्य है तथा त्रैगुण्य से और इसलिए सात्त्विक प्रकृति से भी मुक्ति लाभ करने में समर्थ है । देव और असुर का यह विभाग सारी-की-सारी मनुष्यजाति में व्याप्त नहीं है, यह न तो इसके सभी व्यक्तियों पर कठोर रूप से लागू हो सकता है और न ही मनुष्यजाति के नैतिक या आध्यात्मिक इतिहास की सब अवस्थाओं

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में अथवा वैयक्तिक विकास के सब पक्षों में तीव्र और सुनिश्चित रूप से पाया जाता है । तामसिक मनुष्य, जो संपूर्ण जाति का कितना ही बड़ा भाग है, गीता में वर्णित श्रेणियों में से किसी के भी अंदर नहीं आता, यद्यपि उसके अंदर अल्प मात्रा में दोनों ही तत्त्व हो सकते हैं और यद्यपि अधिकांश में वह डरते-डरते निम्नतर गुणों की ही सेवा करता है । सामान्य मनुष्य साधारणत: एक मिश्रण होता है; परंतु कोई एक या दूसरी प्रवृत्ति अधिक सुनिश्चित होती है, वह उसे प्रधान रूप से राजस-तामसिक या सात्त्विक-राजसिक बनाती चली जाती है और ऐसा कहा जा सकता है कि वह उसे दैवी निर्मलता या दानवी विक्षुब्धता में से किसी एक परिणति के लिए तैयार कर रही होती है । क्योंकि, यहाँ गुणात्मिका प्रकृति के विकास में एक प्रकार की विशेष परिणति ही गीता का लक्ष्य है, जैसा कि मूल में किये गये वर्णनों से स्पष्ट पता लग जायगा । एक ओर तो सत्त्वगुण का उन्नयन, अजात देवता का उत्कर्ष या आविर्भाव हो सकता है, दूसरी ओर प्रकृतिगत जीव के रजोगुण का उन्नयन एवं असुर का पूर्ण प्रादुर्भाव हो सकता है । इनमें से एक तो मोक्ष के उस पुरुषार्थ की ओर ले जाता है जिसपर गीता अब बल देनेवाली है; इसके द्वारा सत्त्वगुण से बहुत ऊपर उठ जाना तथा भागवत सत्ता के साधर्म्य में रूपांतरित होना संभव हो जाता है, 'विमोक्षाय ।'  दूसरा हमें इस विश्वगत संभावना से दूर ले जाता है तथा हमारे अहं-बंधन को बड़ी तेजी से बढ़ाता है । दैवासुर-संपद्-विभाग का मर्म यही है ।

 

दैवी प्रकृति का लक्षण है सात्त्विक अभ्यासों एवं गुणों का चरमोत्कर्ष; आत्म-संयम, आत्मत्याग, धार्मिक प्रवृत्ति, शुद्धता और पवित्रता, ऋजुता और सरलता, सत्य, शांति और स्वार्थत्याग, भूतदया, शालीनता, मृदुता, क्षमा, धीरता और स्थिरता; समस्त चंचलता, लघुता और अस्थिरता से गंभीर, मधुर और यथार्थ मुक्ति इसकी स्वाभाविक विशेषताएँ हैं । आसुरी गुण क्रोध, लोभ, धूर्तता, छल-कपट, परद्रोह, दर्प, अभिमान और अति आत्मादर का इसकी गठन में कोई स्थान नहीं । परंतु इसकी मृदुता, आत्म-त्याग और आत्म-संयम में भी दुर्बलता का नाम-निशान नहीं होता; इसमें होता है तेज और आत्मबल, धृति या दृढ़ संकल्प, न्याय के अनुसार तथा सत्य और अहिंसा के अनुसार जीवन-यापन करनेवाली आत्मा की निर्भयता, 'तेज:, अभयम्, धृति:, अहिंसा, सत्यम् ।'  दैवी संपदा से संपन्न मनुष्य की समस्त सत्ता एवं समस्त प्रकृति पूर्ण रूप से शुद्ध होती है; उसके अंदर होती है ज्ञान-पिपासा और ज्ञानयोग में दृढ़ एवं स्थिर प्रतिष्ठा, 'ज्ञानयोग- व्यवस्थिति: ।'  दैवी प्रकृति में उत्पन्न मनुष्य की संपदा, उसकी समृद्धि यही होती है ।

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आसुरी प्रकृति की भी अपनी संपदा एवं बल-समृद्धि होती है, पर वह अत्यंत भिन्न प्रकार की, शक्तिशाली तथा अशुभ होती है । आसुरी मनुष्यों को प्रवृत्ति-मार्ग या निवृत्तिमार्ग के संबंध में, प्रकृति को बाह्य रूप से चरितार्थ करने या उसे अंतर्मुख करने के संबंध में सच्चा ज्ञान नहीं होता । उनके अंदर न तो सत्य होता है, न शुद्ध कर्म, न सत्याचरण । स्वभावत: ही वे इस जगत् में स्वतुष्टि की विशाल क्रीड़ा के सिवा और कुछ नहीं देखते; उनका जगत् एक ऐसा जगत् है जिसका मूल, बीज, नियामक शक्ति एवं विधान है 'कामना', उनका जगत् 'आकस्मिकता' का जगत् है जो युक्तिसंगत संबंध या कर्मशृंखला से रहित है, ईश्वर-विहीन है, असत्य है तथा सत्य-रूप आधार से वियुक्त है । वे चाहे कोई भी इससे अच्छा बौद्धिक या उच्चतर धार्मिक सिद्धांत क्यों न मानते हों, फिर भी कार्य-क्षेत्र में उनकी मन-बुद्धि का वास्तविक सिद्धांत यही होता है; वे सदैव कामना तथा अहं की उपासना करते हैं । वास्तव में वे जीवन को देखने की इसी दृष्टि का आश्रय लेते हैं और इसके मिथ्यात्व के द्वारा अपनी आत्मा और बुद्धि का सर्वनाश करते हैं । आसुरी मनुष्य एक भयानक, दानवीय, उग्र कर्म का केंद्र या यंत्न, जगत् में एक संहारकारी शक्ति, अहित और अनिष्ट का मूल स्रोत बन जाता है । दंभ और मान से परिपूर्ण, अभिमान के नशे में चूर ये पथभ्रष्ट जीव अज्ञान से विमूढ़ हो जाते हैं, मिथ्या और आग्रहपूर्ण उद्देश्यों पर अड़े रहते हैं तथा अपनी लालसाओं के अपवित्र संकल्प का दृढ़तापूर्वक अनुसरण करते हैं । वे समझते हैं कि कामना एवं उपभोग ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य है और इस दुष्पूरणीय लक्ष्य का बेहद पीछा करते हुए वे मृत्युकाल-पर्यन्त एक सर्वग्रासी, अनंत-अपरिमेय चिंता और उधेड़-बुन, आयास और आतुरता के शिकार रहते हैं । सैकड़ों पाशों से बद्ध, काम और क्रोध से ग्रस्त, दिन-रात अपने कामोपभोग तथा तृष्णा की पूर्ति के लिए अन्यायपूर्वक अर्थ-संचय करने में निरत वे सदा यही सोचते हैं कि, ''आज मेरा यह मनोरथ पूरा हो गया है, कल वह दूसरा पूरा हो जायगा; आज मुझे इतना धन प्राप्त हो गया है, कल और प्राप्त हो जायगा, अपने अमुक शत्रु का मैंने वध कर दिया है, बाकियों का भी वध कर डालूंगा । मैं मनुष्यों का ईश्वर और राजा हूँ, मैं पूर्ण, सिद्ध, बलवान्, सुखी और भाग्यशाली हूँ, मैं ही जगत् के सब भोगों का अधिकारी हूँ; मैं धनवान् हूँ, मैं कुलीन हूँ; मेरे समान यहाँ और कौन ह ? मैं यज्ञ करूँगा, मैं दान दूंगा, मैं मौज करूँगा ।'' सुतरां, अनेक अहंभावपूर्ण विचारों  से अभिभूत, अज्ञान से विमोहित, कार्यों को करते हुए पर गलत ढंग से करते हुए, शक्तिशाली रूप से कर्म करते हुए पर अपने-

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में तथा मनुष्य में विद्यमान भगवान् के लिए नहीं, वरन् अपने लिए, कामना तथा उपभोग के लिए ही कर्म करते हुए वे अपने ही दुष्कृत के मलिन नरक में पतित होते हैं । वे यज्ञ और दान करते हैं सही, पर आत्माभिमानपूर्ण प्रदर्शन के साथ, गर्व तथा कठोर एवं जड़तापूर्ण मद के साथ । अपने बल-सामर्थ्य के अहंकार में, दर्प और क्रोध के आवेश में आकर वे अपने अंदर छिपे हुए तथा मनुष्य मात्र में विद्यमान परमेश्वर को घृणा, तुच्छता और अवहेलना की दृष्टि से देखते हैं । और, क्योंकि वे शुभ से और भगवान् से इस प्रकार अभिमानपूर्वक घृणा और द्वेष करते हैं, क्योंकि वे क्रूर और दुष्ट होते हैं, अतएव, भगवान् उन्हें निरंतर अधिकाधिक आसुरी योनियों में डालते रहते हैं । उनकी खोज न करने के कारण वे उन्हें नहीं पाते, और अंत में उनकी प्राप्ति के मार्ग को सर्वथा खोकर वे जीव-प्रकृति की निम्नतम स्थिति में जा गिरते हैं, 'अधमां गतिम् ।'

 

यह जो जीवंत वर्णन है इसके द्वारा द्योतित भेद का पूरा महत्त्व स्वीकार करते हुए भी, इसका जितना अर्थ है उससे अधिक इसमें से खींचतानकर निकालना उचित नहीं । जब यह कहा जाता है कि इस जड़ जगत् में देव और असुर--दो प्रकार की जीव-सृष्टि पायी जाती है,  तो इसका यह अर्थ नहीं होता कि परमेश्वर ने आरंभ से ही मानव-जीवों को इसी प्रकार का बनाया है और अतएव, प्रकृति के अंदर प्रत्येक की जीवनधारा अटल रूप से निश्चित है । न ही इसका यह अर्थ होता है कि सबकी आध्यात्मिक नियति पहलेसे ही कठोरतापूर्वक नियत है और जिन लोगों को भगवान् ने आरंभ से ही त्याग रखा है उन्हें वे अंध बना देते हैं, ताकि उन्हें शाश्वत विनाश तथा नरक की अशुचि में धकेला जा सके । सभी जीव भगवान् के सनातन अंश हैं, जैसे देवता वैसे ही असुर भी; सभी मोक्ष लाभ कर सकते हैं; यहाँतक कि घोर-से-घोर पापी भी भगवान् की ओर मुड़ सकता है । परंतु प्रकृति के अंदर जीव का विकास एक साहसपूर्ण कर्म है जिसमें स्वभाव तथा स्वभावनियत कर्म सदा ही मुख्य शक्तियाँ होते हैं और यदि जीव

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१. इन दो प्रकार के सृष्ट जीवों के भेद का पूर्ण सत्य उन अतिभौतिक स्वरों में दृष्टिचर होता है जहां की गति-धारा आध्यात्मिक क्रमविकास के नियम के द्वारा नियंत्रित नहीं |  जैसे देवताओं के लोक हैं, वैसे असुरों के भी लोक हैं, और हमारे पीछे अवसस्थित इन लोकों में जो जीव रहते हैं उनके रूप अपरिवर्तनीय हैं । वे विश्व को प्रगति के लिए आवश्यक पूर्ण ढ़िव्य सृष्टि-लीला को सहारा देते हैं और सत्ता के इस भौतिक स्तर में भूतल पर तथा मनुष्य के जीवन और उसकी प्रकृति पर अपना प्रभाव भी डालते हैं  ।

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के स्वभाव की अभिव्यक्ति में कोई अति, उसकी क्रीड़ा में कोई अव्यवस्था सत्ता के धर्म को कुटिल पथ की ओर फेर दे, यदि राजसिक गुणों को प्रधानता दी जाय, सत्त्व का ह्रास करके उनका विकास किया जाय, तो निश्चय ही, कर्म-प्रवृत्ति तथा उसके परिणाम उस सत्त्वगुण के उत्कर्ष में पर्यवसित नहीं होते जो मोक्ष के लिए पुरुषार्थ करने में समर्थ है, बल्कि वे निम्न प्रकृति के विकारों की पराकाष्ठा में ही परिसमाप्त होते हैं । यदि मनुष्य इस भ्रांत पथ पर चलना बंद नहीं करता एवं इसे तिलांजलि नहीं दे देता तो अंततः उसके अंदर असुर पूर्णरूपेण जन्म ले लेता है, और जब एक बार वह ज्योति एवं सत्य से प्रबल रूप से पराङमुख हो जाता है, तो अपने अंदर दिव्य शक्ति का अत्यधिक दुरुपयोग होने के कारण ही वह फिर अपने पतन की घातक गति को तबतक नहीं उलट सकता जबतक वह उन गहरे गर्तों की थाह नहीं ले लेता जिनमें कि वह पतित हुआ है, जबतक वह उनके तल तक नहीं पहुँच जाता और यह नहीं देख लेता कि यह मार्ग उसे कहाँ ले आया है, कैसे इसने उसकी शक्ति को समाप्त कर दिया है तथा व्यर्थ में गँवा दिया है और कैसे वह स्वयं भी जीव-प्रकृति की निम्नतम अवस्था में, अर्थात् नरक में जा गिरा है । जब वह यह सब समझकर ज्योति की ओर मुड़ जाता है केवल तभी गीता का यह दूसरा सत्य उसके सामने आता है कि अधम से अधम पापी भी, अत्यंत अपवित्न एवं घोर दुराचारी भी ज्योंही अपने अंत:स्थ परमेश्वर का भजन और अनुसरण करने की ओर झुकता है त्योंही उसका उद्धार आरंभ हो जाता है । तब केवल उस झुकाव के द्वारा ही वह अत्यंत शीघ्र सात्त्विक मार्ग पर पहुँच जाता है जो पूर्णता और मुक्ति की ओर ले जाता है ।

 

आसुरिक प्रकृति राजसिक प्रकृति की ही चरम सीमा है; वह प्रकृति के अंदर जीव की दासता की ओर तथा राजसिक अहंकार की तीन शक्तियों, काम, क्रोध और लोभ की ओर ले जाती है, और ये नरक का त्रिविध द्वार हैं । जब प्राकृत जीव अपनी निम्नतर या विकृत अंधप्रेरणाओं की अपवित्रता, दुष्टता एवं भ्रांति में आसक्त होता है तब वह इस तीन द्वारोंवाले नरक में जा गिरता है । और, फिर, ये तीनों महान् अंधकार के द्वार हैं, ये मूल अविद्या की विशिष्ट शक्ति, तमस् की ओर ले जाते हैं क्योंकि राजसी प्रकृति की उद्दाम शक्ति जब समाप्त होती है तो वह जीव की निकृष्टतम तामसिक अवस्था की दुर्बलता, अधोगति, अंधकार एवं अक्षमता में जा गिरती है । इस पतन से बचने के लिए मनुष्य को इन तीन अशुभ शक्तियों से छुटकारा पाना होगा और सत्त्वगुण के प्रकाश की ओर मुड़ना होगा, यथातथ रीति से, यथार्थ संबंधों के अनुसार, सत्य और धर्म के

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अनुसार जीवन यापन करना होगा; तभी वह अपने उच्चतर श्रेय का अनुसरण कर सकता है तथा उच्चतम आत्म-पद उपलब्ध कर सकता है । कामना के नियम का अनुसरण करना हमारी प्रकृति का सच्चा विधान नही है; इसके कर्मों का एक अधिक उच्च और न्यायसंगत आदर्श भी है । परंतु वह कहाँ निहित है या उसे कैसे प्राप्त किया जाय ? पहली बात यह है कि मनुष्यजाति इस न्याय्य और उच्च विधान को खोज सदा ही करती आयी है और जो कुछ उसने उपलब्ध किया है वह उसके शास्त्र में लिपिबद्ध है, वह शास्त्र है ज्ञान और विज्ञान का विधान, नैतिकता, धर्म तथा श्रेष्ठ सामाजिक जीवन का विधान, मनुष्य, ईश्वर और प्रकृति के साथ हमारे यथार्थ संबंधों का विधान । शास्त्र का अभिप्राय उन रीति-रिवाजों का समूह नहीं जिनमें से कुछ अच्छे होते हैं तो कुछ खराब, और जिनका अनुसरण तामसिक मनुष्य का अभ्यास-परवश रूढ़िबद्ध मन बिना समझे-बूझे ही करता है । शास्त्र का मतलब है अंतर्बोध, अनुभव और प्रज्ञा के द्वारा प्रस्थापित ज्ञान एवं शिक्षा, शास्त्र है जीवन की विद्या, कला और आचारनीति, और साथ ही जो श्रेष्ठ आदर्श मनुष्यजाति को उपलब्ध हैं वे सभी शास्त्र हैं । जो अर्द्ध-प्रबुद्ध मनुष्य शास्त्र के नियमों का पालन करना छोड़कर अपनी अंध-प्रेरणाओं एवं कामनाओं के मार्गनिर्देश का अनुसरण करता है वह इन्द्रिय-तृप्ति तो प्राप्त कर सकता है, पर सुख नहीं, क्योंकि आंतरिक सुख की प्राप्ति तो केवल ठीक ढंग से जीवन यापन करने से ही हो सकती है । वह पूर्णता की ओर नहीं बढ़ सकता, सर्वोच्च आध्यात्मिक स्थिति नहीं प्राप्त कर सकता । पशु-जगत् में सहज-प्रवृत्ति और कामना का विधान प्रमुख नियम प्रतीत होता है, परंतु मनुष्य का मनुष्यत्व सत्य, धर्म, ज्ञान और यथातथ जीवन-धारा  का अनुसरण करने से ही विकसित होता है । इसलिए पहले उसे उस शास्त्र के अनुसार, लोकसंमत सत्य-विधान के अनुसार आचरण करना होगा जिसे उसने अपने निम्नतर अंगों को अपनी बुद्धि तथा ज्ञानपूर्ण संकल्प के द्वारा नियंत्रित करने के लिए निर्मित किया है, उसीको उसे अपने आचार-व्यवहार, कार्य-कलाप तथा कर्तव्य-अकर्तव्य का निर्णय करने के लिए प्रमाणरूप मानना होगा । और यह उसे तबतक करना होगा जबतक अंधप्रेरित कामनात्मक प्रकृति आत्म-संयम के अभ्यास के द्वारा शिक्षित नहीं हो जाती, क्षीण होकर दब नहीं जाती और जबतक मनुष्य पहले तो मुक्ततर ज्ञानपूर्ण मार्ग-दर्शन के लिए और फिर आध्यात्मिक प्रकृति के परमोच्च विधान एवं परम स्वातंत्र्य के लिए तैयार नहीं हो जाता ।

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कारण, शास्त्र अपने साधारण रूप में ऐसा अध्यात्म-विधान नहीं है, यद्यपि अपने सर्वोच्च शिखर पर आध्यात्मिक जीवन का विज्ञान एवं शिल्प अर्थात् अध्यात्म-शास्त्र बन जाता है,--स्वयं गीता भी अपनी शिक्षा को एक उच्चतम और परम-गुह्य शास्त्र कहती है । अपने सर्वोच्च शिखर पर शास्त्र सात्त्विक प्रकृति के अतिक्रमण की विधि का निरूपण कर देता है और आध्यात्मिक रूपांतर की साधना का विकास करता है । तो भी समस्त शास्त्र कुछ एक प्रारंभिक धर्मों के आधार पर निर्मित होते हैं; वे साधन होते हैं, लक्ष्य नहीं । परम लक्ष्य तो है आत्मा का स्वातंत्र्य जिसमें जीव सब धर्मों का परित्याग कर कर्म के अपने एकमात्र विधान के लिए परमेश्वर की ओर मुड़ता है, सीधे भागवत संकल्प के द्वारा कर्म करता है और दिव्य प्रकृति के स्वातंत्र्य में निवास करता है, धर्म में नहीं, बल्कि आत्मा में निवास करता है । अर्जुन का अगला प्रश्न गीता की शिक्षा के इसी प्रकार के विकास का सूत्रपात करता है ।

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