Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita.
Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.
दिव्य जन्म और दिव्य कर्म
भगवान् के जन्म की तरह उस कर्म का भी, जिसके लिये अवतार हुआ करता है, द्विविध भाव और द्विविध रूप होता है । क्रिया और प्रतिक्रिया के जिस विधान के द्वारा, उत्थान और पतनरूपी जिस सहज व्यवस्था के द्वारा प्रकृति अग्रसर होती है, उस विधान और व्यवस्था के होते हुए भागवत धर्म की रक्षा और पुनर्गठन के लिए इस बाह्म जगत् पर भागवत शक्ति की जो क्रिया होती है, वही दिव्य कर्म का बाह्म पहलू है, और यह भागवत धर्म ही मानव-जाति के भगवन्मुख प्रयास को समस्त विध्न-बाधाओं से उबारकर निश्चित रूप से आगे बढ़ाता है । इसका आंतर पहलू यह है कि भगवन्मुख चैतन्य की दिव्य शक्ति व्यक्ति और जाति की आत्मा पर क्रिया करती है ताकि वह मानवरूप में अवतरित भगवान् के नये-नये प्रकाश को ग्रहण कर सके और अपने ऊर्ध्वमुखी आत्म-विकास की शक्ति को बनाये रख सके, उसमें एक नवजीवन ला सके और उसे समृद्ध कर सके । अवतार का अवतरण केवल किसी महान् बाह्य कर्म के लिए नहीं होता जैसा कि मनुष्य की कर्म-प्रवण बुद्धि समझा करती है । कर्म और बाह्म घटना का अपने-आपमें कोई मूल्य नहीं होता, उनका मूल्य उस शक्ति पर आश्रित है जिसकी ओर से वे होते हैं और उस भाव पर आश्रित है जिसके वे प्रतीक होते हैं और जिसे सिद्ध करना ही उस शक्ति का काम होता है ।
जिस संकट की अवस्था में अवतार का आविर्भाव होता है वह बाहरी नजर को महज घटनाओं और जड़ जगत् के महत् परिवर्तनों का नाजुक काल प्रतीत होता है । परन्तु उसके स्रोत और वास्तविक अर्थ को देखें तो यह संकट मानव- चेतना में तब आता है जब उसका कोई महान् परिवर्तन, कोई नवीन विकास होनेवाला हो । इस परिवर्तन के लिये किसी दिव्य शक्ति की आवश्यकता होती है, किन्तु शक्ति जिस चेतना में काम करती है उसके बल के अनुसार बदलती है; इसलिए मानव-मन और अंतरात्मा में भागवत चैतन्य का आविर्भाव आवश्यक होता है । जहां मुख्यत: बौद्धिक और लौकिक परिवर्तन करना हो वहाँ अवतार के हस्त-क्षेप की आवश्यकता नहीं होती; मानव-चेतना का उत्थान होता है, शक्ति की महान्
१७६
अभिव्यक्ति होती है जिसके फलस्वरूप सामयिक तौर पर मनुष्य अपनी साधारण अवस्था से ऊपर उठ जाते हैं और चेतना और शक्ति की यह लहर कुछ असाधारण व्यक्तियों में तरंग-श्रुंग बन जाती है और इन्हीं असाधारण व्यक्तियों को विभूति कहते हैं; इन विभूतियों का काम सर्वसाधारण मानव-जाति के कर्म का नेतृत्व करना है और यह उद्दिष्ट परिवर्तन के लिये पर्याप्त होता है । यूरोपीय पुनर्निर्माण और फ्रांस की राज्य-क्रांति इसी प्रकार के संकट थे; ये महान् आध्यात्मिक घटनाएँ, बल्कि बौद्धिक और लौकिक परिवर्तन थे । एक में धार्मिक तथा दूसरे में सामाजिक और राजनीतिक भावनाओं, रूपों और प्रेरक-भावों का परिवर्तन हुआ और इसके फलस्वरूप जनसाधारण की चेतना में जो फेरफार हुआ वह बौद्धिक और लौकिक था, आध्यात्मिक नहीं । पर जब किसी संकट के मूल में कोई आध्यात्मिक बीज या हेतु होता है तब मानव-मन और आत्मा में प्रवर्तक और नेता के रूप से भागवत चैतन्य का पूर्ण या आंशिक प्रादुर्भाव होता है । यही अवतार है ।
अवतार के बाह्य कर्म का वर्णन गीता में ''धर्मसंस्थापनार्याय'' कहकर किया गया है; जब-जब धर्म की ग्लानि या ह्रास होता है, उसका बल क्षीण हो जाता है और अधर्म सिर उठाता, प्रबल होता और अत्याचार करता है तब-तब अवतार आते और धर्म को फिर से शक्तिशाली बनाते हैं । जो बातें विचार के अंतर्गत होती हैं वे कर्म के द्वारा तथा विचारों की प्रेरणा का अनुगमन करनेवाले मानव-प्राणी के द्वारा प्रकट होती हैं, इसलिए अत्यंत मानव और लौकिक भाषा में अवतार का काम है प्रतिगामी अंधकार के राज्य द्वारा सताये गये धर्म के अन्वेषकों की रक्षा करना (परित्राणाय साधनूां ) और अधर्म को बनाये रखने की इच्छा करनेवाले दुष्टों का नाश करना । परन्तु इस बात को कहने में गीता ने जिन शब्दों का प्रयोग किया है उनकी ऐसी संकीर्ण और अधूरी व्याख्या भी की जा सकती है जिससे अवतार का आध्यात्मिक गंभीर अर्थ जाता रहे । धर्म एक ऐसा शब्द है जिसका नैतिक और व्यावहारिक, प्राकृतिक और दार्शनिक, धार्मिक और आध्यात्मिक, सभी प्रकार का अर्थ होता है और इनमें से किसी भी अर्थ में इस शब्द का इस तरह से प्रयोग किया जा सकता है कि उसमें अन्य अर्थों की गुंजायश न रहे, उदहरणार्थ, इसका केवल नैतिक अथवा केवल दार्शनिक या केवल धार्मिक अर्थ किया जा सकता है । नैतिक रूप से सदाचार के नियम को, जीवनचर्या-संबंधी नैतिक विधान को अथवा और भी बाह्य और व्यावहारिक अर्थ में सामाजिक और राजनीतिक न्याय को या केवल सामाजिक नियमों के पालन को धर्म कहा जाता है । यदि हम इस शब्द को इसी अर्थ में ग्रहण करें,
१७७
तो इसका यही अभिप्राय हुआ कि जब अनाचार, अन्याय और दुराचार का प्राबल्य होता है तब भगवान् अवतार लेकर सदाचारियों को बचाते और दुराचारियों को नष्ट करते हैं, अन्याय और अत्याचार को रौंद डालते और न्याय और सद्व्यवहार को स्थापित करते हैं ।
कृष्णावतार का प्रसिद्ध पौराणिक वर्णन इसी प्रकार का है--कौरवों का अत्याचार--दुर्योधनादि जिसके मूर्त रूप हैं--इतना बढ़ा कि पृथ्वी के लिए उसका भार असह्म हो उठा और पृथिवी को भगवान् से अवतार लेने और भार हल्का करने की प्रार्थना करनी पड़ी; तदनुसार विष्णु कृष्णरूप में अवतीर्ण हुए, उन्होंने अत्याचार-पीड़ित पांडवों का उद्धार और अन्यायी कौरवों का संहार किया । इसके पूर्व अन्यायी-अत्याचारी रावण का वध करने के लिए जो विष्णु का रामावतार अथवा क्षत्रियों की उद्दंडता को नष्ट करने के लिए परशुरामावतार या दैत्यराज बलि के राज्य को मिटाने के लिए वामनावतार हुआ उसका भी ऐसा ही वर्णन है । परन्तु यह प्रत्यक्ष है कि पुराणों के इस प्रसिद्ध वर्णन से कि अबतार इस प्रकार के किसी सर्वथा व्यावहारिक, नैतिक, सामाजिक और राजनीतिक कर्म को करने के लिए आते हैं, अवतार के कार्य का सच्चा विवरण नहीं मिलता । इस वर्णन में अवतार के आने का आध्यात्मिक हेतु छूट जाता है; और यदि इस बाह्म प्रयोजन को ही हम सब कुछ मान लें तो बुद्ध और ईसा को हमें अवतारों की कक्षा से अलग कर देना होगा, क्योंकि इनका काम तो दुष्टों को नष्ट करने और शिष्टों को बचाने का नहीं, बल्कि अखिल मानव-समाज को एक नया आध्यात्मिक संदेश सुनाना तथा दिव्य विकास और आध्यात्भिक सिद्धि का एक नया विधान देना था । धर्म शब्द को यदि हम केवल धार्मिक अर्थ में ही ग्रहण करें अर्थात् इसे धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन का एक विधान माने तो हम इस विषय के मूल में तो जरूर पहुँचेंगे, किन्तु इसमें भय है कि हम अवतार के एक अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य को कहीं दृष्टि की ओट न कर दें । भगवदवतारों के इतिहास में सर्वत्र ही यह दिखायी देता है कि उनका कार्य द्विविध होता है और यह अपरिहार्य है, द्विविध होने का कारण यह है कि अवतीर्ण भगवान् मानव-जीवन में होनेवाले भगवत्-कार्य को ही अपने हाथ में उठा लेते हैं, जगत् में जो भगवत्-इच्छा और भगवत्-ज्ञान काम कर रहे हैं, उन्हींका अनुसरण कर अपना कार्य करते हैं और यह कार्य सदा आंतर और बाह्म दो प्रकार से सिद्ध होता है--आत्मा में आंतरिक उन्नति के द्वारा और जागतिक जीवन में बाह्य परिवर्तन द्वारा ।
हो सकता है कि भगवान् का अवतार, किसी महान् आध्यात्मिक गुरु या त्राता के रूप में हो, जैसे बुद्ध और ईसा, किन्तु सदा ही उनकी पार्थिव अभिव्यक्ति
१७८
की समाप्ति के बाद भी उनके कर्म के फलस्वरूप जाति के केवल नैतिक जीवन में ही नहीं बल्कि उसके सामाजिक और बाह्म जीवन और आदर्शों में भी एक गंभीर और शक्तिशाली परिवर्तन हो जाता है । दूसरी ओर, हो सकता है कि वे दिव्य जीवन, दिव्य व्यक्तित्व और दिव्य शक्ति के अवतार होकर आवें, अपने दिव्य कर्म को करने के लिए, जिसका उद्देश्य बाहर से सामाजिक, नैतिक और राजनीतिक ही दिखायी देता हो; जैसा कि राम और कृष्ण को कथाओं में बताया गया है, फिर भी सदा ही यह अवतरण जाति की आत्मा में उसके आंतरिक जीवन के लिए और उसके आध्यात्मिक नवजन्म के लिए एक स्थायी शक्ति का काम करता है । यह एक अनोखी बात है कि बौद्ध और ईसाई धर्मों का स्थायी, जीवंत तथा विश्वव्यापक फल यह हुआ कि जिन मनुष्यों तथा कालों ने इनके धार्मिक और आध्यात्मिक मतों, रूपों और साधनाओं का परित्याग कर दिया, उनपर भी इन धर्मों के नैतिक, सामाजिक और व्यावहारिक आदर्शों का शक्ति-शाली प्रभाव पड़ा । पीछे के हिन्दुओं ने बुद्ध, उनके संघ और धर्म को अमान्य कर दिया, पर बुद्धधर्म के सामाजिक और नैतिक प्रभाव की अमिट छाप उनपर पड़ी हुई है और हिन्दुजाति का जीवन और आचार-विचार उससे प्रभावित है । आधुनिक यूरोप नाममात्र को ईसाई है, पर इसमें जो मानवदया का भाव है वह ईसाई-धर्म के आध्यात्मिक सत्य का सामाजिक और राजनीतिक रूपान्तर है; और स्वाधीनता, समता और विश्वबंधुता की यह अभीप्सा मुख्यत: उन लोगों ने की है जिन्होंने ईसाई-धर्म और आध्यात्मिक साधना को व्यर्थ तथा हानिकर बतलाकर त्याग दिया था और यह काम उस युग में हुआ जिसने स्वतंत्रता के बौद्धिक प्रयास में ईसाई-धर्म को धर्म मानना छोड़ देने की पूरी कोशिश की । राम और कृष्ण की जीवनलीला ऐतिहासिक काल के पूर्व की है, काव्य और आख्यायिका के रूप में हमें प्राप्त हुई है और इसे हम चाहें तो केवल काल्पनिक कहानी भी कह सकते हैं; पर चाहे काल्पनिक कहानी कहिये या ऐतिहासिक तथ्य, इसका कुछ महत्व नहीं; क्योंकि उनके चरित्रों का जो शाश्वत सत्य और महत्व है वह तो इस बात में है कि ये चरित्र जाति की आंतरिक चेतना और मानव-जीव के जीवन में सदा के लिए एक आध्यात्मिक रूप, सत्ता और प्रभाव के रूप में अमर हो गये हैं । अवतार दिव्य जीवन और चैतन्य के तथ्य हैं; वे किसी बाह्य कर्म में भी उतर सकते हैं, पर उस कर्म के हो चुकने और उनका कार्य पूर्ण होने के बाद भी उस कर्म का आध्यात्मिक प्रभाव बना रहता है; अथवा वे किसी आध्यात्मिक प्रभाव को प्रकटाने और किसी धार्मिक शिक्षा को देने के लिए भी प्रकट हो सकते हैं, किन्तु उस हालत में भी, उस नये धर्म या साधना के क्षीण हो चुकने पर भी,
१७९
मानवजाति के विचार, उसकी मनोवृत्ति और उसके बाह्म जीवन पर उनका स्थायी प्रभाव बना रहता है ।
इसलिए अवतार-कार्य के गीतोक्त वर्णन को ठीक तरह से समझने के लिए आवश्यक है कि हम धर्म शब्द के अत्यंत पूर्ण, अत्यंत गंभीर और अत्यंत व्यापक अर्थ को ग्रहण करें, धर्म को वह आंतर और बाह्म विधान समझें जिसके द्वारा भागवत संकल्प और भागवत ज्ञान मानवजाति का आध्यात्मिक विकास साधन करते और जाति के जीवन में उसकी विशिष्ट .परिस्थितियाँ और उनके परिणाम निर्मित करते हैं । भारतीय धारणा के हिसाब से धर्म केवल शुभ, उचित, सदाचार, न्याय और आचारनीति ही नहीं है, बल्कि अन्य प्राणियों के साथ, प्रकृति और ईश्वर के साथ मनुष्यों के जितने भी सम्बन्ध हैं उन सबका सम्पूर्ण नियमन है और यह नियामक तत्व ही वह दिव्य धर्मतत्व है जो जगत् के सब रूपों और कर्मों के द्वारा, आंतर और बाह्य जीवन के विविध आकारों के द्वारा तथा जगत् में जितने प्रकार के परस्पर-सम्बन्ध हैं उनकी व्यवस्था के द्वारा अपने-आपको सिद्ध करता रहता है । धर्म १ वह है जिसे हम धारण करते हैं और वह भी जो हमारी सब आंतर और बाह्य क्रियाओं को एक .साथ धारण किये रहता है । धर्म शब्द का प्राथमिक अर्थ हमारी प्रकृति का वह मूल विधान है जो गुप्त रूप से हमारे कर्मों को नियत करता है और इसलिए इस दृष्टि से प्रत्येक जीव, प्रत्येक वर्ण, प्रत्येक जाति, प्रत्येक व्यक्ति और समूह का अपना-अपना विशिष्ट धर्म होता है । दूसरी बात यह है कि हमारे अन्दर जो भागवत प्रकृति है उसे भी तो हमारे अन्दर विकसित और व्यक्त होना है, और इस दृष्टि से धर्म अंत:-क्रियाओं का वह विधान है जिसके द्वारा भागवत प्रकृति हमारी सत्ता में विकसित होती है । फिर एक तीसरी दृष्टि से धर्म वह विधान है जिससे हम अपने बहिर्मखी विचार, कर्म और पारस्परिक सम्बन्धों का नियंत्रण करते हैं ताकि भागवत आदर्श की ओर उन्नत होने में हमारी और मानवजाति की अधिक-से-अधिक सहायता हो ।
धर्म को साधारणतया सनातन और अपरिवर्तनीय कहा जाता है, और इसका मूल तत्व और आदर्श है भी ऐसा ही; पर इसके रूप निरंतर बदला करते हैं, उनका विकास होता रहता है; कारण मनुष्य ने अभी उस आदर्श को प्राप्त नहीं किया है या यह कहिए कि उसमें अभी उसकी स्थिति नहीं है; अभी तो इतना ही है कि मनुष्य उसे प्राप्त करने की अधूरी या पूरी इच्छा कर रहा है, उसके ज्ञान और अभ्यास की ओर आगे बढ़ रहा है । और इस विकास में धर्म वही है जिससे भागवत पवित्रता, विशालता, ज्योति, स्वतंत्रता, शक्ति, बल, आनन्द,
_____________
१. धर्न शब्द 'धृ' धातु से बनता है जिसका अर्थ है धारण करना ।
१८०
प्रेम, शुभ, एकता, सौन्दर्य हमें अधिकाधिक प्राप्त हों । इसके विरुद्ध इसकी परछाईं और इनकार खड़ा है, अर्थात् वह सब जो इसकी वृद्धि का विरोध करता है, जो इसके विधान के अनुगत नहीं है, वह जो भागवत' संपदा के रहस्य को न तो समर्पण करता है न समर्पण करने की इच्छा रखता है, बल्कि जिन बातों को मनुष्य को अपनी प्रगति के मार्ग में पीछे छोड़ देना चाहिए, जैसे अशुचिता, संकी-र्णता, बंधन, अंधकार, दुर्बलता, नीचता, असामंजस्य, दुःख, पार्थक्य, बीभ-त्सता और असंकृति आदि, एक शब्द में, जो कुछ धर्म का विकार और प्रत्या-ख्यान है उस सबका मोरचा बनाकर सामने डट जाता है । यही अधर्म है जो धर्म से लड़ता और उसे जीतना चाहता है, जो उसे पीछे और नीचे की ओर खींचना चाहता है, यही वह प्रतिगामी शक्ति है जो अशुभ, अज्ञान और अंधकार का रास्ता साफ करती है । एन दोनों में सतत संग्राम और संघर्ष चल रहा है; कभी इस पक्ष की विजय होती है; कभी उस पक्ष की; कभी ऊपर की ओर ले जानेवाली शक्तियों की जीत होती है तो कभी नीचे की ओर खींचनेवाली शक्तियों की । मानवजीवन और मानव-आत्मा पर अधिकार जमाने के लिए जो संग्राम होता है उसे वेदों ने देवासुर-संग्राम कहा है (देवता अर्थात् प्रकाश और अविभाजित अनन्तता के पुत्र, असुर अर्थात् अंधकार और भेद की संतान ); जरथुस्त्र के मत में यही अहुर्मज्व-अहिर्मन-संग्राम है और पीछे के धर्मसंप्रदायों में इसी को मानव जीवन और आत्मा पर अधिकार करने के लिए ईश्वर और उनके फरिश्तों के साथ शैतान या इबलीस और उनके दानवों का संग्राम कहा गया है ।
यही बात अवतार के कर्म का स्वरूप निश्चित और निर्द्धारित करती है । बौद्धमतालंबी साधक अपनी मुक्ति के विरोधी तत्वों से बचने के लिए धर्म, संघ और बुद्ध, इन तीन शक्तियों की शरण लेते हैं । ईसाई मत में भी ईसाई जीवन-चर्या, गिरिजाघर और स्वयं ईसा हैं । अवतार के कार्य में ये तीन बातें अवश्य होती हैं । अवतार एक धर्म बतलाते हैं, आत्म-अनुशासन का एक विधान बतलाते हैं, जिससे मनुष्य निम्नतर जीवन से निकलकर उच्चतर जीवन में संवर्द्वित हों । धर्म में, सदा ही, कर्म के विषय में तथा दूसरे मनुष्यों और प्राणियों के साथ साधक का क्या सम्बन्ध होना चाहिए इस विषय में एक विधान भी रहता है, जैसे कि अष्टांग-मार्ग अथवा श्रद्धा, प्रेम और पविव्रता का धर्म अथवा इसी प्रकार का और कोई धर्म जो अवतार के भागवत स्वभाव में प्रकट हुआ हो । इसके बाद, चूंकि मनुष्य की प्रवृत्ति के सामूहिक और वैयक्तिक पहलू होते हैं, जो लोग एक ही मार्ग का अनुसरण करते हैं उनमें स्वभावत: एक आध्यात्मिक साहचर्य और एकता स्थापित हो जाती है, इसलिए अवतार एक संघकी स्थापना करते
१८१
हैं, संघ अर्थात् उन लोगों का सख्य और एकत्व जो अवतार के व्यक्तित्व और शिक्षा के कारण एक सूत्र में बंध जाते हैं । यही त्रिक '' भागवत, भक्त और भगवान्'' के रूप से वैष्णव धर्म में भी है । वैष्णव-धर्मसम्मत उपासना और प्रेम का धर्म ही भागवत है, उस धर्म का जिन लोगों में प्रादुर्भाव होता है उन्हीं का संघ-समुदाय भक्त कहाता है, और जिन प्रेमी और प्रेमास्पद की सत्ता और स्वभाव में यह प्रेममय भागवत धर्म प्रतिष्ठित है और जिनमें इसकी पूर्णता होती है वही भगवान् हैं । अवतार त्रिक के इस तृतीय तत्व के प्रतीक हैं, वह भागवत व्यक्तित्व, स्वभाव और सत्ता हैं जो इस धर्म और संघ की आत्मा हैं, और वे इस धर्म और संघ को अपने द्वारा अनुप्राणित करते हैं, उसे सजीव बनाये रखते हैं तथा मनुष्यों को आनन्द और मुक्ति की ओर आकर्षित करते हैं ।
गीता की शिक्षा में, जो अन्य विशिष्ट शिक्षाओं और साधनाओं की अपेक्षा अधिक उदार और बहुमुखी है, ये तीन बातें भी बहुत व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुई हैं । यहाँ की एकता सबको अपने साथ मिला लेनेवाली वह वैदांतिक एकता है जिसके द्वारा जीव सबको अपने अन्दर और अपने-आपको सबके अन्दर देखता और सब प्राणियों के साथ अपने-आपको एक कर लेता है । इसलिए सब मानव-सम्बन्धों को उच्चतर दिव्य अभिप्राय में ऊपर उठाना ही धर्म है । यह धर्म भगवान् की खोज करनेवाला साधक जिस समाज में रहता है, उस समग्र मानव-समाज को एक सूत्र में बाँधनेवाले नैतिक, सामाजिक और धार्मिक विधान से आरम्भ होता है और उसे ब्राह्मी चेतनाद्वारा अनुप्राणित करके ऊपर उठा देता है; वह एकता, समता और मुक्त निष्काम भगवत्परिचालित कर्म का विधान देता है,. ईश्वर-ज्ञान और आत्म-ज्ञान का वह विधान देता है जो समस्त प्रकृति और समस्त कर्म को अपनी ओर खींचता और आलोकित करता है, मानव-समाज को भागवत सत्ता और भागवत चेतना की ओर आकर्षित करता है, तथा भागवत प्रेम का वह विधान देता है जो ज्ञान और कर्म की शक्ति है, चरम सिद्धि है । गीता में जहां प्रेम और भक्ति के द्वारा भगवान् को पाने की साधना बतलायी गयी है वहीं संघ और भागवत भक्तों के भगवत्प्रेम और भगवदनुसंधान में सख्य और परस्पर-साहाय्य का मौलिक भाव आ गया है, पर गीता की शिक्षा का असली संघ तो समग्र मानव-जाति है । सारा जगत् और अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार प्रत्येक मनुष्य इसी धर्म की ओर जा रहा है । ''यह मेरा ही तो मार्ग है जिसपर सब मनुष्य चले आ रहे हैं (मम वर्त्मानुवर्त्तन्ते मनुष्या : पार्थ सर्वशः ) ।'' और वह भगवदन्वेषक जो सबके साथ एक हो जाता, सबके सुख-दु:ख तथा समस्त जीवन को अपना सुख-दु:ख और जीवन बना लेता है, वह मुक्त पुरुष जो सब
१८२
भूतों के साथ एकात्मभाव को प्राप्त हो चुका है, वह समय मानव-जाति के जीवन में ही वास करता है, मानव-जाति के अखिलांतरात्मा के लिए, सर्वभूतांतरात्मा भगवान् के लिए ही जीता है, वह लोक-संग्रह के लिए अर्थात् सबको अपने-अपने विशिष्ट धर्म में और सार्वभौम धर्म में स्थित रखने के लिए, उन्हें सब अवस्थाओं और सब मार्गों से भगवान् की ओर ले जाने के लिए कर्म करता है । क्योंकि यद्यपि इस स्थलपर अवतार श्रीकृष्ण के नाम और रूप में प्रकट हैं पर वे अपने मानव-जन्म के इस एक रूप पर ही जोर नहीं दे रहे; बल्कि उन भगवान् पुरुषोत्तम की बात कह रहे हैं जिनका यह एक रूप है, समस्त अवतार जिनके मानव-जन्म हैं और मनुष्य जिन-जिन देवताओं के नाम और रूप की पूजा करते हैं, वे सब भी उन्हीं के रूप हैं । श्रीकृष्ण ने जिस मार्ग का वर्णन किया है उसके बारे में यद्यपि यह घोषित किया गया है कि यही वह मार्ग है जिसपर चलकर मनुष्य सच्चे ज्ञान और सच्ची मुक्ति को प्राप्त कर सकता है, किन्तु यह वह मार्ग है जिसमें अन्य सब मार्ग समाये हुए हैं, उनका इसमें बहिष्कार नहीं है । भगवान् अपनी विश्वव्यापकता में समस्त अवतारों, समस्त शिक्षाओं और समस्त धर्मों को लिए हुए हैं ।
यह जगत् जिस युद्ध की रंगभूमि है गीता उसके दो पहलुओं पर जोर देती है, एक आंतरिक संघर्ष, दूसरा बाह्य युद्ध । आंतरिक संघर्ष में शत्रुओं का दल अन्दर, व्यक्ति के अपने अन्दर है, और इसमें कामना, अज्ञान और अहंकार को मारना ही विजय है । पर मानव-समूह के अन्दर धर्म और अधर्म की शक्तियों के बीच एक बाह्य युद्ध भी चल रहा है । भगवान्, मनुष्य की देवोपम प्रकृति और उसे मानवजीवन में सिद्ध करने का प्रयास करनेवाली शक्तियां धर्म की सहायता करती हैं । उद्दण्ड अहंकार ही जिनका अग्रभाग है ऐसी आसुरी या राक्षसी प्रकृति, अहंकार के प्रतिनिधि और उसे सन्तुष्ट करने का प्रयास करने- वालों को साथ लेकर अधर्म की सहायता करती है । यही देवासुरसंग्राम है जो प्रतीक-रूप से प्राचीन भारतीय साहित्य में भरा है । महाभारत के महायुद्ध को, जिसमें मुख्य सूत्रधार श्रीकृष्ण हैं, प्रायः इसी देवासुरसंग्राम का एक रूपक कहा जाता है; पांडव, जो धर्मराज्य की स्थापना के लिए लड़ रहे हैं, देवपुत्र हैं, मानवरूप में देवताओं की शक्तियाँ हैं और उनके शत्रु आसुरी शक्ति के अवतार हैं, असुर है इस बाह्म संग्राम में भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहायता करने, असुरों अर्थात् दुष्टों का राज्य नष्ट करने, उन्हें चलानेवाली आसुरी शक्ति का दमन करने और धर्म के पीड़ित आदर्शों को पुन: स्थापित करने के लिए भगवान् अवतार लिया करते हैं । व्यष्टिगत मानव-पुरुष में स्वर्गराज्य का निर्माण करना
१८३
जैसे भगवदवतार का उद्देश्य होता है वैसे ही मानव-समष्टि के लिए भी स्वर्गराज्य को पृथ्वी के निकटतर ले आना उनका उद्देश्य होता है ।
भगवदवतार के आने का आंतरिक फल उन लोगों को प्राप्त होता है जो भगवान् की इस क्रिया से दिव्य जन्म और दिव्य कर्म के वास्तविक मर्म को जान लेते और अपनी चेतना में भगवन्मय होकर, सर्वथा भगवदाश्रित होकर रहते (मन्मया मामुपाश्रिता: ) और अपने ज्ञान की तप शक्ति से पूत होकर (ज्ञान- तपसा पूता: ) अपरा प्रकृति से मुक्त होकर भगवान् के स्वरूप और स्वभाव को प्राप्त होते हैं (मद्भावमागता: ) । मनुष्य के अन्दर इस अपरा प्रकृति के ऊपर जो दिव्य प्रकृति है उसे प्रकटाने के लिए तथा बंधरहित, निरहंकार, निष्काम, नैर्व्यक्तिक, विश्वव्यापक, भागवत ज्योति शक्ति और प्रेम से परिपूर्ण दिव्य कर्म दिखाने के लिए भगवान् का अवतार हुआ करता है । भगवान् आते हैं दिव्य व्यक्तित्व के रूप में, वह व्यक्तित्व जो मनुष्य की चेतना में बस जायगा और उसके अहंभावापन्न परिसीमित व्यक्तित्व की जगह ले लेगा जिससे कि मनुष्य अहंकार से मुक्त होकर अनन्तता और विश्वव्यापकता में फैल जाय, जन्म के पचड़े से निकलकर अमर हो जाय । भगवान् भागवत शक्ति और प्रेम के रूप में आते हैं, जो मनुष्यों को अपनी ओर बुलाते हैं ताकि मनुष्य उन्हीं का आश्रय लें और अपने मानवसंकल्पों को त्याग दें, अपने काम-क्रोध और भयजनित द्वन्द्वों से छूट जायं और इस महात् दु:ख और अशांति से मुक्त होकर भागवत शान्ति और आनन्द में निवास करें ।१ अवतार किस रूप में, किस नाम से आवेंगे और भगवान् के किस पहलू को सामने रखेंगे, इसका विशेष महत्व नहीं है; क्योंकि मनुष्यों की भिन्न-भिन्न प्रकृति के अनुसार जितने भी विभिन्न मार्ग हैं उन सभी में मनुष्य भागवान् के द्वारा अपने लिए नियत मार्ग पर चल रहे हैं, जो अन्त में उन्हें भगवान् के समीप ले जायगा । भगवान् का वही पहलू मनुष्यों की प्रकृति के अनुकूल होता है जिसका वे उस समय अच्छी तरह से अनुसरण करें जब भगवान् नेतृत्व करने आवें, मनुष्य चाहे जिस तरह भगवान् को अपनाते, उनसे प्रेम करते और आनन्दित होते हों, भगवान् उन्हें उसी तरह से अपनाते, उनसे प्रेम करते और आनन्दित होते हैं, ''ये यथा मां प्रपद्यंते तांस्तयैव भजाम्यहम् ।''२
१. जन्म कर्म च मे दिव्यं एवं यो वेत्ति तत्बत: ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामत्ति सोऽर्जुन |। ४--६
बीतरागमयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिता: ।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्ववमागता ।। ४- १०
२. ४-११
१८४
Home
Sri Aurobindo
Books
SABCL
Hindi
Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.