Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita.
Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.
दिव्य कर्म का सिद्धांत
सो गीता की यज्ञविषयक शिक्षा का अभिप्राय यही है । इसका पूर्ण मर्म पुरुषोत्तम-तत्व की भावना पर निर्भर है, जिसका विवेचन अभी तक अच्छी तरह नहीं हुआ है-गीता के १८ अध्यायों के शेष भाग में ही इस तत्व का वर्णन स्पष्ट रूप से आया है-और इसीलिए हमें गीता की प्रगतिशील वर्णन-शैली की मर्यादा का अतिक्रम करके भी इस केन्द्रीभूत शिक्षा की चर्चा पहले से ही करनी पड़ी । अभी भगवान् गुरु ने पुरुषोत्तम की परम सत्ता का अक्षर ब्रह्म के साथ-जिनमें ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त कर पूर्ण शान्ति और समता की अवस्था में अपने-आपको स्थिर करना पहला काम है और हमारी अति आवश्यक आध्यात्मिक माँग है--क्या संबंध है इसका एक संकेतमात्र दिया है, एक हलकी-सी झलक भर दिखायी है । अभी वे पुरुषोत्तम-भाव की स्पष्ट भाषा में नहीं बोल रहे, बल्कि ''मैं'' कृष्ण, नारायण, अवतार-रूप से बोल रहे हैं-वह अवतार, जो नर में नारायण हैं, इस विश्व में भी परम प्रभु हैं और कुरुक्षेत्र के सारथी के रूप में अवतरित हुए है । 'पहले आत्मा में पीछे मुझमें (आत्ममि अथो मयि ), वे यहां यही सूत्र बतलाते हैं जिसका अभिप्राय यह है कि व्यष्टिबद्ध पुरुष-भाव को स्वत:स्थित नैर्व्यक्तिक ब्रह्य-भाव का ही एक 'भूतभाव' जानकर इस व्यष्टिबंधन से मुक्त होकर इसके परे पहुँचना उन गुह्यतम नैर्व्यक्तिक परम पुरुष को प्राप्त होने का एक साधनमाव है जो निश्चल, स्थिर और प्रकृति के परे, नैर्व्यक्तिक ब्रह्म में आसीन हैं, पर इसके साथ ही इन असंख्य भूतभावों की प्रकृति में भी विद्यमान और क्रियाशील हैं । अपने निम्नतर व्यष्टिबद्ध पुरुष-भाव का नैर्व्यक्तिक ब्रह्म में लय करके हम अंत में उन परम पुरुष के साथ एकत्व लाभ करते हैं जो पृथक् व्यक्ति या व्यष्टिभाव न होते हुए भी सब व्यष्टियों का अभिनय करते हैं । त्रिगुणात्मिका अपरा प्रकृति को पार कर और अंतरात्मा को त्रिगुणातीत अक्षर पुरुष में स्थित करके हम अंत में उन अनंत परमेश्वर की परा प्रकृति में पहुँच सकते हैं जो प्रकृति द्वारा कर्म करते हुए भी त्रिगुण में आबद्ध नहीं होते । शांत पुरुष के आंतर नैष्कर्म्य को प्राप्त होकर और प्रकृति को अपना काम करने
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के लिए स्वतंव छोड्कर हम कर्मों के परे उस परम पद को, उस दिव्य प्रभुत्व को प्राप्त कर सकते हैं जिसमें सब कर्म किये जा सकते हैं पर वंधन किसी का नहीं होता । इसलिए पुरुषोत्तमकी भावना ही, जो पुरुषोत्तम यहाँ अवतीर्ण नारायण, कृष्णरूप में दिखायी देते हैं इसकी कुंजी है । इस कुंजी के बिना निम्न प्रकृति से निवृत्त होकर ब्राह्मी स्थिति में चले जाने का अर्थ होगा मुक्त पुरुष का निष्क्रिय, और जगत् के कर्मों से उदासीन हो जाना; और इस कुंजी के होने से यही अलग होना, यही निवृत्ति एक ऐसी प्रगति हो जाती है जिससे जगत् के कर्म भगवान् के स्वभाव के साथ, भगवान् की स्वतंत्र सत्ता में, आत्मा के अन्दर ले लिये जाते हैं । शान्त ब्रह्य को अपना लक्ष्य बनाओ तो संसार और उसके समस्त कर्मों का त्याग करना ही होगा; और उन ईश्वर, भगवान्, पुरुषोत्तम को अपना लक्ष्य बनाओ, जो कर्म के परे होने पर भी कर्म के आंतरिक आध्या-त्मिक कारण और ध्येय तथा मूल संकल्प हैं, तो संसार अपने सारे कर्मों के साथ जीत लिया जाता और पुरुष अपने जगत् से परे दिव्य स्वरूप में स्थित होकर उसपर अधिकार रखता है । संसार तब कारागार नहीं रहता बल्कि 'समृद्ध राज्य' बन जाता है जिसे हमने दैत्यराट् अहंकार की सीमा का नाश कर, कामनारूपी जेलर के बंधन को काटकर और अपनी वैयक्तिक संपत्ति और भोग के कैदखाने को तोड़कर, आध्यात्मिक जीवन के लिये जीता है । तब बंधनों से मुक्त विश्वात्मभूत अंतरात्मा ही स्वरट्f-सम्राट् हो जाती है ।
इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि यज्ञ-कर्म मुक्ति और पूर्ण संसिद्धि के साधक हैं । ''उस महान् प्राचीन योग के करनेवाले जनक और अन्य बड़े-बड़े कर्मयोगी बिना किसी अहंता-ममता के सम और निष्काम कर्म को यज्ञरूप से करके संसिद्धि को प्राप्त हुए (कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय: ) ।'' उसी प्रकार और उसी निष्कामता के साथ, मुक्ति और संसिद्धि प्राप्त होने के पश्चात् भी हम विशाल भागवत भाव से तथा आध्यात्मिक प्रभुत्व से युक्त शान्त प्रकृति से कर्म कर सकते हैं । ''लोकसंग्रहार्थ, अर्थात् जनता को एक साथ रखने के लिये भी तुझे कर्म करना चाहिये (लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन् कर्तुमर्हसि ) । श्रेष्ठ पुरुष जो कुछ करते हैं उसीका इतर लोग अनुसरण करते हैं; उन्हींके निर्माण किये हुए प्रमाण को मानकर सर्वसाधारण लोग चलते हैं । हे पार्थ, इस त्रिलोक में मेरे लिए कुछ भी ऐसा काम नहीं है जिसे करना मेरे लिए जरूरी हो, कोई चीज ऐसी नहीं है जो मुझे प्राप्त न हो और जिसे प्राप्त करना बाकी हो, फिर भी मैं कर्म करता ही हूँ (वर्त्त एव च कर्मणि ) । '' 'एव' पद का फलितार्थ यह है कि मैं कर्म करता ही रहता हूँ और उन संन्यासियों की तरह् कर्म को छोड़ नहीं देता
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जो यह समझते हैं कि कर्मों का त्याग तो हमें करना ही पड़ेगा ।. ''यदि मैं कर्म-मार्ग में तंद्रारहित होकर लगा न रहूं तो लोग-वे हर तरह से मेरे ही पीछे चलते हैं--मेरे कर्म न करने पर ध्वंस को प्राप्त हो जायेंगे और मैं संकर का कारण और इन प्राणियों का हंता बनूंगा । जो जानते नहीं, वे कर्म में आसक्त होकर कर्म करते हैं पर जो जानता है उसे लोकसंग्रह का हेतु रखकर अनासक्त होकर कर्म करना चाहिए । कर्म में आसक्त रहनेवाले अज्ञानियों का वह बुद्धिभेद न करे, बल्कि स्वयं ज्ञानयुक्त और योगस्थ होकर कर्म करके उन्हें सब कर्मों में लगावे ।''१ इन सात श्लोकों से अधिक महत्वपूर्ण श्लोक गीता में कम ही हैं । परन्तु हम इस बात को अच्छी तरह समझ लें कि इन श्लोकों का आधुनिक व्यवहारवादी वृत्तिवालों की तरह अर्थ लगाने का प्रयास न करना चाहिए, क्योंकि वे किसी उच्च और दूरस्थ आध्यात्मिक संभावना की अपेक्षा जगत् की वर्तमान अवस्था से ही मतलब रखते हैं--और इन श्लोकों का उपयोग समाज-सेवा, देश-सेवा, जगत्-सेवा, मानव-सेवा तथा आधुनिक बुद्धि को आकर्षित करनेवाली सैकड़ों प्रकार .की समाज-सुधार की योजनाओं और स्वप्नों का दार्शनिक और धार्मिक समर्थन करने में करते हैं । यहाँ इन श्लोकों में जिस विधान की घोषणा की गयी है वह किसी व्यापक नैतिक और बौद्धिक परोपकार-निष्ठा का नियम नहीं, बल्कि ईश्वर के साथ और जो ईश्वर में रहते तथा जिनमें ईश्वर रहता है उन प्राणियों के इस जगत् के साथ आध्यात्मिक एकता का विधान है । यह विधान व्यक्ति को समाज और मानव-जाति के अधीन बना देने या मानव-समष्टि की वेदी पर व्यक्ति के अहंकार की बलि देने का आदेश नहीं है, बल्कि ईश्वर में व्यक्ति को परिपूर्ण करने और अहंकार को सर्वग्राही भागवत सत्ता की एकमात्र सच्ची वेदी पर बलि चढ़ाने की आज्ञा है । गीता भावनाओं और अनुभूतियों की एक ऐसी भूमिका पर विचरण करती है जो आधुनिक मन की भावनाओं और अनुभूतियों की भूमिका से ऊँची है । आधुनिक मन वस्तुत : अभी अहंकार के फंदों को काटने के लिए संघर्ष करने की अवस्था में है; परन्तु अब भी उसकी दृष्टि लौकिक है और उसका भाव आध्यात्मिक नहीं, बौद्धिक और नैतिक है । देश-प्रेम, विश्वबंधुत्व, समाज-सेवा, समष्टि-सेवा, मानव-सेवा, मानव-जाति का आदर्श या धर्म, ये सब व्यष्टिगत, पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय अहंकाररूपी पहली अवस्था से निकलकर दूसरी अवस्था में जाने के लिए सराहनीय साधन हैं, इस अवस्था में पहुँचकर व्यष्टि, जहाँतक कि बौद्धिक, नैतिक और भावावेगभय भूमिकाओं पर संभव है, यह अनुभव करता है कि मेरा
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अस्तित्व दूसरे सब प्राणियों के अस्तित्व के साथ एक है । यहाँ यह जान लेना चाहिए कि इन भूमिकाओं पर वह इस अनुभव को पूरे तौर पर और ठीक-ठीक तथा अपनी सत्ता के पूर्ण सत्य के अनुसार नहीं प्राप्त कर सकता । परन्तु गीता के विचार इस दूसरी अवस्था के भी परे जाकर हमारी विकसनशील आत्म-चेतना की एक तीसरी अवस्था का दिग्दर्शन कराते हैं जिसमें पहुँचने के लिये दूसरी अवस्था केवल आंशिक प्रगति है ।
भारत का सामाजिक झुकाव व्यक्ति को समाज के दावों के अधीन रखने की ओर रहा है, किन्तु भारत के धार्मिक चिंतन और आध्यात्मिक अनुसंधान का लक्ष्य सदा ही उदात्त रूप से वैयक्तिक रहा है । गीता जैसा भारतीय दर्शनशास्त्र व्यक्ति के विकास को, उसकी उच्चतम आवश्यकता को, अपनी विशालतम आध्यात्मिक स्वतंत्रता, महानता, गौरव और प्रभुत्व का विकास कर उन्हें उप-योग में लाने के दावे को और आध्यात्मिक अर्थ में जिसको द्रष्टा और स्वराट् कहा जाता है वैसे प्रकाशमान द्रष्टा और स्वराट्पद में विकसित होने के लक्ष्य को--और यही प्राचीन वैदिक ऋषियों की आदर्श मानव-जाति के सम्बन्ध में पहला महान् अधिकारपत्र था-सबसे पहला स्थान दिये बिना नहीं रह सकता । व्यक्ति के लिए वैदिक ऋषियों का यही लक्ष्य था कि वह जो कुछ है उसके आगे बढ़े, अपने वैयक्तिक उद्देश्यों को किसी सुसंगठित मनुष्य-समाज के उद्देश्य में खोकर नहीं, बल्कि ईश्वर की चेतना में अपने-आपको फैलाके, ऊँचा करके और बढाके । गीता यहाँ जिस नियम का विधान कर रही् है् वह नियम मानव-श्रेष्ठ के लिए, अतिमानव के लिए, दिव्यकृत मानव-सत्ता के लिए है । गीता का अतिमानव या मानवश्रेष्ठ एकांगी नहीं है, बेढंगा नहीं है, यह अतिमानवता नीत्शेकी अतिमानवता नहीं है, यह अतिमानवता यूनानी ओलिम्पस,१ अपोलो २ या डायो-नीसियस३ जैसी अथवा देवदूत और दैत्य के जैसी अतिमानवता नहीं है । गीता का अतिमानव वह मनुष्य है जिसका सारा व्यक्तित्व एकमेवाद्वितीय परात्पर विश्वव्यापी भगवान् की सत्ता, प्रकृति और चेतना पर उत्सर्ग हो गया है और जिसने अपने क्षुद्र भाव को खोकर अपनी महत्तर आत्मा को, अपने दिव्य स्वरूप को पा लिया है ।
निम्नतर अपूर्ण प्रकृति से, त्रैगुण्यमयी माया से अपने-आपको ऊपर उठाना
१. . एक यूनानी पर्व व जो हिमालय की तरह देबताओं की बासभूमि माना जाता है ।
२. प्राचीन यूनानी पुराणों में वर्णित एक देवता जो काव्य, संगीत, आयुर्वेद, धनुर्वेद और शकुन-शात्र का अधिष्टाता माना गया है ।
३. यनूानी सुरा-देवता, कोई-कोई इस देवता को नहुष और परशुराम के समान मानते हैं ।
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और भागवत सत्ता, चेतना और प्रकृति के साथ१ एक हो जाना 'मद्भावमागता:' --यही योग का लक्ष्य है । परन्तु जब यह लक्ष्य प्राप्त हो जाता है, जब मनुष्य ब्राह्मी स्थिति में पहुँच जाता है और अपने-आपको तथा जगत् को मिथ्या अहंकार की दृष्टि से नहीं देखता, बल्कि प्राणिमात्र को आत्मा में, ईश्वर में देखता है और आत्मा को, ईश्वर को प्राणिमात्र में देखता है तब उसका कर्म कैसा होगा--क्योंकि कर्म तो फिर भी रहेगा ही--जो उसके ब्राह्मी स्थिति के ज्ञान से उद्भूत होता है, और फिर उसके कर्मों में विश्वगत या व्यक्तिगत हेतु क्या होगा ? यही अर्जुन का प्रश्न२ है, किन्तु अर्जुन ने जिस दृष्टिबिन्दु से प्रश्न किया था उससे अलग ही दृष्टि-बिन्दु से उत्तर दिया गया । अब बौद्धिक, नैतिक, भावावेगमय स्तर की कोई वैयक्तिक कामना उसके कर्म का हेतु नहीं हो सकती, क्योंकि वह तो छोड़ी जा चुकी,--नैतिक हेतु भी छोड़ा जा चुका, क्योंकि मुक्त पुरुष पाप-पुण्य के भेद से ऊपर उठकर, उस महिमान्वित पवित्रता में रहता है जो शुभ और अशुभ के परे है । निष्काम कर्म के द्वारा पूर्ण आत्मविकास करने के लिए आध्यात्मिक आवाहन भी अब उसके कर्म का हेतु नहीं हो सकता, क्योंकि इस आवाहन का तो उत्तर मिल चुका, उसका आत्म-विकास सिद्ध और पूर्ण हो चुका । तब उसके कर्मों का एकमात्र हेतु लोकसंग्रह ही हो सकता है (चिकीर्षुलोकसंग्रहम् ) । ये सब लोग जो किसी अतिदूरस्थ भागवत आदर्श की ओर जा रहे हैं, उन्हें एक साथ रखना होगा, उन्हें मोह में गिरने से, बुद्धि-भेद और बुद्धिभ्रंश में जा गिरने से बचाना होगा; नहीं तो ये किंकर्तव्यविमूढ़ और नष्ट-भ्रष्ट हो जायँगे-दुनिया जो अपने अज्ञान की अंधेरी रात या अंधेरे अर्धप्रकाश में आगे बढ़ती जा रही है उसे यदि श्रेष्ठ पुरुषों के ज्ञानालोक, बल, आचरण, उदाहरण और दृश्य मानक तथा अदृश्य प्रभाव के द्वारा एक साथ न रखा जायगा, इसे वह रास्ता न दिखाया जायगा जिसपर चलने में ही इसका कल्याण है तो वह विघटन और विनाश की ओर सह्जरूप से प्रवृत्त होगी । श्रेष्ठ पुरुष अर्थात् वे व्यक्ति जो जनसमूह की सर्वसाधारण पंक्ति और सर्वसाधारण भूमिका से आगे बढ़े हुए हैं, वे ही मनुष्य-जाति के स्वभावसिद्ध नेता हैं, क्योंकि वे ही जाति को उसके चलने का रास्ता दिखा सकते हैं और वह पैमाना या आदर्श उसके सामने रख सकते हैं जिसके अनुसार वह अपना जीवन बनावे । परन्तु देवमनुष्य की यह श्रेष्ठता ऐसी-वैसी नहीं है; इसका प्रभाव, इसका उदाहरण इतना सामर्थ्यवान् होता है कि सामान्यत : हम
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१. सायुज्य, सालोक्य और सादृश्य या साधर्म्य । भगवान् के स्वरूप और कर्म के साथ एक होना साधर्म्य है ।
२. किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत् किम् ?
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जिसे श्रेष्ठ कहते हैं उसमें वह प्रभाव या बल नहीं हो सकता । तब वह जिस उदाहरण को लोगों के सामने रखेगा, वह क्या होगा ? वह किस विधान या प्रमाण को मानकर चलेगा ?
अपने आशय को और भी अच्छी तरह स्पष्ट करने के लिए भगवान् गुरु, अवतार, अपना ही उदाहरण, अपना ही मानक अर्जुन के सामने रखते हैं । वे कहते हैं, ''मैं कर्ममार्ग पर चलता हूँ, उस मार्ग पर जिसका सब मनुष्य अनुसरण करते हैं; तुझे भी कर्ममार्ग पर चलना होगा । जिस प्रकार मैं कर्म करता हूँ उसी प्रकार तुझे भी कर्म करना होगा । मैं कर्मों की आवश्यकता से परे हूँ क्योंकि मुझे उनसे कुछ नहीं पाना है; मैं भगवान् हूँ, जगत् के सारे पदार्थ और प्राणी मेरे ही हैं, मैं स्वयं जगत् के परे और जगत् के अन्दर भी हूँ, किसी भी अर्थ की प्राप्ति के लिये मैं इस त्रिलोक में किसी भी पदार्थ या प्राणी का आश्रित नहीं हूँ; तथापि मैं कर्म करता हूँ । कर्म करने का यही तरीका और यही भाव तुझे भी ग्रहण करना होगा । मैं परमेश्वर ही नियम और मानक हूँ; मैं ही वह मार्ग बनाता हूँ जिसपर लोग चलते हैं; मैं ही मार्ग हूँ और मैं ही गंतव्य स्थान । पर मैं यह सब उदार और व्यापक रूप से करता हूँ जिसका केवल अंश दिखायी देता है और उससे कहीं अधिक अदृष्ट रहता है; मनुष्य यथार्थ रूप से मेरे कर्म की रीति को नहीं जानते । जब तू जान और देख सकेगा, जब तू देवमनुष्य बनेगा तब तू ईश्वर की ही एक व्यष्टि-शक्ति हो जायगा, मनुष्य के लिये मनुष्य-रूप में एक दिव्य दृष्टांत बन जायगा, वैसे ही जैसे मैं अवतार-रूप में हूँ । अधिकांश मनुष्य अज्ञान में रहते है ईश्वर-द्रष्टा ज्ञान में रहता है; पर उसे अपनी श्रेष्ठता के वश संसार के कर्मों का त्याग करके मनुष्यों के सामने ऐसा खतरनाक उदाहरण न रखना चाहिये जिससे उनमें बुद्धिभेद हो; कर्म के सूत को पूरा कात लेने से पहले उसे बीच में ही न काटना चाहिये । जिन मार्गों को मैंने बनाया है उनकी चढ़ती-उतरती अवस्थाओं और श्रेणियों में उलझनें डालकर उन्हें अयथार्थ न बनाना चाहिए । इस सारे मानव कर्म-क्षेत्र की व्यवस्था मैंने इसलिए की है कि मनुष्य अपरा प्रकृति से परा प्रकृति में पहुँच जाय और अपने बाह्म अभागवत रूप से सचेतन भागवत स्वरूप को प्राप्त हो । ईश्वरवेत्ता मानव-कर्मों के सारे क्षेत्र में विचरण करता रहेगा । उसकी सारी व्यक्तिगत और सामाजिक क्रिया, उसकी बुद्धि, हृदय और शरीर के सारे कर्म अब भी उसी के होंगे, पर अपने पृथक् व्यक्तित्व के लिए नहीं बल्कि संसार में स्थित उन ईश्वर के लिए जो सब प्राणियों में विराज रहे हैं, और इसलिए कि वे सब प्राणी, स्वयं उसकी तरह ही, कर्ममार्ग पर चलकर उन्नत हों और अपने अन्दर भगवान् को खोज लें । हो सकता है कि बाह्यत:
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उसके और अन्य मनुष्यों के कर्मों में कोई मौलिक अन्तर न हो.; युद्ध, शासन, शिक्षादान, और ज्ञानचर्चा, मनुष्य के साथ मनुष्य के जितने विभिन्न प्रकार के आदान-प्रदान हो सकते हैं वे सभी उसके हिस्से पड़ सकते हैं । पर जिस भाव से वह इन कर्मों को करेगा वह अवश्य भिन्न होगा और उसीका यह प्रभाव होगा कि लोग उसकी ऊँची स्थिति की ओर खिंचे चले आवेंगे, वह मानवसमूह के आरोहण में एक बड़े उत्तोलक-यंत्र का काम देगा ।''
मुक्त मनुष्य के लिये भगवान् ने जो अपना दृष्टांत रखा वह गंभीर-अर्थपूर्ण है; क्योंकि इस दृष्टांत से दिव्य कर्मों के सम्बन्ध में गीता का आधार सम्पूर्ण रूप से प्रकट हो जाता है । मुक्त पुरुष वही है जिसने अपने-आपको भागवत प्रकृति में उठा लिया है और उसी भागवत प्रकृति के अनुसार सब कर्म करता है । पर यह भागवत प्रकृति है क्या ? वह पूरी तरह अपने-आपमें केवल अचल, अकर्ता, नैर्व्यक्तिक अक्षर ब्रह्म की ही प्रकृति नहीं है; क्योंकि यह भाव मुक्त पुरुष को निष्क्रिय निश्चलता की ओर के जायगा । यह केवल विविध, व्यष्टिगत, प्रकृतिबद्ध क्षर पुरुष की प्रकृति भी नहीं है, क्योंकि ऐसा ही हो तो मुक्त पुरुष फिर से अपने व्यष्टित्व के तथा अपरा प्रकृति और उसके गुणों के अधीन हो जायगा । यह भागवत प्रकृति उन पुरुषोत्तम की प्रकृति है जो अक्षर भाव और क्षर भाव दोनों को एक साथ धारण करते और अपनी परम दिव्यता के द्वारा एक भागवत सामंजस्य में इनका समन्वय करते हैं । यही भगवत्सत्ता का परम रहस्य है, ''रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।'' प्रकृति से बंधे हुए लोग जिस व्यष्टिगत भाव से कर्म किया करते हैं उस अर्थ में भगवान् कर्मों के कर्ता नहीं हैं; क्योंकि भगवान् अपनी शक्ति, माया, प्रकृति के द्वारा कर्म करते है फिर भी उससे ऊपर रहते हैं, उसमें फंसते नहीं, उसके अधीन नहीं होते, ऐसे नहीं हैं कि उसके बनाये हुए नियमों, कार्य-प्रणालियों और कर्म-संस्कारों से ऊपर न उठ सकें और उन्हीं में आसक्त या बंधे रहें तथा हम लोगों की तरह मन-प्राण-शरीर की क्रियाओं से अपने-आपको अलग न कर सकें । वे कर्मों के ऐसे कर्ता हैं जिन्हें अकर्ता समझना चाहिए--''कर्त्तारम् अकर्त्तारम् ।'' भगवान् कहते हैं कि ''चातुर्वर्ण्य का कर्ता मैं हूँ पर मुझे अविनाशी अकर्त्ता जान । कर्म मुझे लिप्त नहीं करते, न कर्मफलों की मुझे कोई स्पृहा है ।'' फिर भी भगवान् निष्क्रिय, उदासीन और निर्बल साक्षिमात्र नहीं हैं; क्योंकि वे ही अपनी शक्ति के पदक्षेपों और मानदंडों में कर्म करते हैं; प्रकृति की प्रत्येक गति में, प्राणिजगत् के प्रत्येक, अणुरेणु में उन्हीं की उपस्थिति व्याप्त है, उन्हीं की चेतना भरी हुई है, उन्हीं का संकल्प काम कर रहा है, उन्हीं का ज्ञान रूपान्वित कर रहा है ।
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फिर वे ऐसे निर्गुणी हैं जिनमें सब गुण हैं । उपनिषदें उन्हें 'निर्गुणो' गुणी हैं कहती हैं । वे प्रकृति के किसी गुण या कर्म से बंधे नहीं हैं, न वे हमारे व्यक्तित्व की तरह प्रकृति के गुणधर्मों के समूहों से तथा मानसिक, नैतिक, भावावेगमय, प्राणमय और भौतिक सत्ता की लाक्षणिक क्रियाओं से बने हैं । वे तो समस्त धर्मों और गुणों के मूल हैं और किसी भी गुण या धर्म को अपनी इच्छा के अनुसार जब चाहें, जितना चाहें, जिस प्रकार चाहें विकसित करने की क्षमता रखते हैं, वे वह अनन्त सत्ता हैं जिसके ये सब भूतभाव हैं । वह सत्ता अपरिमेय राशि और असीम अनिवर्चनीय तत्त्व है जिसके ये सब परिमाण, संख्या और प्रतीक हैं और जिसको ये विश्व के मानदंड के अनुसार छंदोबद्ध और संख्याबद्ध करते हैं । फिर भी वे कोई नैर्व्यक्तिक अनिर्दिष्ट सत्ता ही नहीं हैं, न केवल ऐसी सचेतन सत्ता हैं जहाँ से समस्त निर्देश और व्यष्टिभाव अपना उपादान प्राप्त करते रहें, बल्कि वे परम सत्ता हैं, अद्वितीय मूल चिन्मय सत् हैं पूर्ण पुरुष हैं जिनके साथ अत्यंत स्थूल और घनिष्ठ सभी प्रकार के मानव-सम्बन्ध स्थापित किये जा सकते हैं; क्योंकि वे सुहृत्, सखा, प्रेमी, खेल के संगी, पथ के दिखानेवाले, गुरु, प्रभु, ज्ञानदाता, आनन्ददाता हैं और इन सब सम्बन्धों में रहते हुए भी इनसे अलिप्त, मुक्त और निरपेक्ष हैं । देवनर भी, अपनी यथाप्राप्त सिद्धि के अनुसार व्यक्तिभाव में रहते हुए नैर्व्यक्तिक ही, सांसारिक जनों के साथ सब प्रकार के अत्यंत वैयक्तिक और घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हुए भी गुण या कर्म से सर्वथा अलिप्त, धर्म का बाह्यत: आचरण करते हुए उससे अनासक्त ही, रहता है । न तो कर्मप्रधान मनुष्य की कर्मण्यता और न संन्यासी, वैरागी या निवृत्तिमार्गी की कर्मविहीन ज्योति, न तो कर्मी मनुष्य का प्रचंड व्यक्तित्व और न तत्वज्ञानी ऋषि का उदा-सीन नैर्व्यक्तित्व, इनमें से कोई भी संपूर्ण भागवत आदर्श नहीं है । ये संसारी जनों के तथा संन्यासी, वैरागी या निवृत्तिमार्गी के .दो परस्पर-विरोधी सर्वथा भिन्न मानदण्ड हैं । इनमें से एक क्षर के कर्म में डूबे रहते हैं और दूसरे सर्वथा अक्षर की शान्ति में निवास करने का प्रयास करते हैं; परन्तु समग्र भागवत आदर्श पुरुषोत्तम की उस प्रकृति की चीज है जो इस परस्पर-विरोध के परे है और जिसमें सभी भागवत संभावनाओं का समन्वय होता है ।
कर्मी मनुष्य किसी ऐसे आदर्श से संतुष्ट नहीं होता जो इस विश्वप्रकृति की, इसकी इस त्रिगुणक्रीड़ा की, मन-बुद्धि-हृदय-शरीर के इस मानव-कर्म की परि-पूर्णता पर अवलम्बित न हो । वह कह सकता है कि इस कर्म की चरम परि-पूर्णता ही मेरी समझ में मनुष्य की परम सिद्धि है, मनुष्य की भागवत सम्भावना से मैं जो कुछ समझता हूँ वह यही है; जिस आदर्श से मानव-प्राणी को सन्तोष
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हो सकता है वह ऐसा आदर्श होना चाहिए जो मनुष्य की बुद्धि को, उसके हृदय को, उसकी नैतिक सत्ता को सन्तुष्ट कर सके, वह ऐसा आदर्श होना चाहिए जो कर्मरत मानव-प्रकृति का हो; वह कह सकता है कि मेरे सामने तो कोई ऐसी चीज होनी चाहिए जिसे मैं अपने मन, प्राण और शरीर की क्रिया में पा सकूं । क्योंकि यही उसकी प्रकृति और उसका धर्म है और जो चीज उसकी प्रकृति के बाहर की हो उसमें वह अपने-आपको कैसे परिपूर्ण कर सकता है ? क्योंकि प्रत्येक जीव अपनी प्रकृति से बंधा है और उसे अपनी सिद्धि को इस दायरे के अन्दर ढूंढ़ना होगा । हमारी मानव-प्रकृति के अनुसार ही हमारी मानव-सिद्धि हो सकती है और इसलिए प्रत्येक मनुष्य को उसके लिए अपने व्यष्टिधर्म अर्थात् स्वधर्म के अनुसार अपने जीवन और कर्म में यत्न करना चाहिए, जीवन और कर्म के बाहर नहीं । इस बात का गीता यह उत्तर देती है कि हाँ, इसमें भी एक सत्य है; मनुष्य के अन्दर ईश्वर की पूर्ण अभिव्यक्ति, जीवन में भगवान् की लीला अवश्य ही आदर्श सिद्धि का एक अंग है । परन्तु यदि तुम उसे केवल बाहर ही ढूँढो, जीवन में और कर्म के सिद्धान्त में ही उसकी खोज करते रहो तो तुम उसे कभी नहीं पा सकते; क्योंकि तब तुम केवल इतना ही नहीं करोगे कि अपनी प्रकृति के अनुसार ही कर्म करो,--जो अपने-आपमें सिद्धि का ही एक विधान है--बल्कि सदा उसके गुणों के अधीन रहोगे (और यह असिद्धि का एक लक्षण है ), सदा राग-द्वेष और सुख-दुख के द्वंद्वों में धक्के खाते रहोगे, विशेषत: प्रकृति की उस राजसी प्रवृत्ति के वश हो जाओगे जो कामका चंचल सर्वग्रासी तत्व है और क्रोध, शोक और लालसा जिसके जाल हैं, जो कभी सन्तुष्ट न होनेवाली आग है जिससे तुम्हारा सारा सांसारिक कर्म घिरा रहता है, जो ज्ञान का चिरशतृ है जिससे तुम्हारे स्वभाव के अन्दर ज्ञान वैसे ही ढका रहता है, जैसे आग धुएँ से या दर्पण धूल से । यदि तुम आत्मस्वरूप के शान्त, स्वच्छ और प्रकाशमय सत्य में रहना चाहते हो तो इस काम को मार ही डालना होगा । इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि अपूर्णता के इस अनादि कारण के अधिष्ठान हैं और इसपर भी तुम इनमें, निम्न प्रकृति की क्रीड़ा में ही सिद्धि की खोज करना चाहते हो । यह प्रयास व्यर्थ है । तुम्हारी प्रकृति का जो कर्म-पार्श्व है उसे पहले निवृत्ति की शान्ति को अपने अन्दर ले आना चाहिए; तुम्हें अपने-आपको निम्न प्रकृति से ऊपर उठाकर उस प्रकृति में लाना होगा जो त्रिगुण के ऊपर है, जो परमतत्व में, आत्मतत्व में प्रतिष्ठित है । जब तुम्हें वह आात्मप्रसाद लाभ होगा तभी तुम मुक्त भागवत कर्म करने में समर्थ होगे ।
इसके विपरीत शान्तिप्रार्थी, वैरागी या संन्यासी किसी ऐसी सिद्धि की सम्भावना नहीं देखते जिसमें जीवन और कर्म का प्रवेश हो सके । वे कहते हैं, क्या
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जीवन और कर्म ही अपूर्णता और बंधन के घर नहीं हैं ? क्या अपूर्णता कर्म के साथ वैसे ही नहीं लगी रहती जैसे अग्नि के साथ धुआं ? क्या कर्म का धर्म ही राजसिक नहीं है ? इस रजोगुण से ही तो कामना पैदा होती है और इसका फल होता है ज्ञान को ढक देना, कामना तथा असफलता और विफलता के अन्दर चक्कर काटते रहना, हर्ष और शोक में डोलते रहना, पुष्य और पाप के द्वन्द्व में फंसे रहना । परमेश्वर संसार में हो सकते हैं, पर वे संसार के नहीं हैं; वे त्याग के ईश्वर हैं, हमारे कर्मों के प्रभु या कारण नहीं । हमारे कर्मों का स्वामी काम है और उनका कारण अज्ञान । यदि यह जगत्, यह क्षर सृष्टि किसी प्रकार भगवान् की अभिव्यक्ति या लीला कही भी जाय तो यह अज्ञ मूढ़ प्रकृति के साथ उनकी असिद्ध क्रीड़ा है, यह उनकी अभिव्यक्ति नहीं बल्कि उनका ढंकाव ही है । संसार की प्रकृति के प्रथम दर्शन में ही यह बात स्पष्ट हो जाती है और जगत् के पूर्ण अनुभव से भी क्या इसी सत्य की शिक्षा नहीं मिलती ? क्या यह अज्ञान का वह चक्र नहीं है जो जीव को कामना और कर्म की प्रेरणा के द्वारा बार-बार जन्म लेने के लिये विवश करता है और क्या यह जन्म लेना तभी बन्द न होगा जब अंत में इस प्रेरणा का क्षय हो जाय या फिर इसे त्याग दिया जाय ? केवल कामना ही नहीं, किन्तु कर्म भी छोड़ देना आवश्यक है, तभी तो निश्चल आत्मा में प्रतिष्ठित होकर जीव गतिहीन, कर्महीन, क्षोभहीन, केवल ब्रह्म में जा सकेगा । गीता ने संसारी मनुष्य की, कर्मी व्यक्ति की आपत्तियों की अपेक्षा निगुर्णब्रह्मवादी, शान्तिप्रार्थी की आपत्तियों का उत्तर देने पर ज्यादा ध्यान दिया है । इसका कारण यह है कि निवृत्तिमार्ण एक उच्चतर और बलवत्तर सत्य का आश्रय लिये हुए है--अवश्य ही यह सत्य भी अभी समग्र या परम सत्य नहीं है--और यदि इस धर्म को मनुष्यजीवन का विश्वव्यापी, पूर्ण और उच्चतम आदर्श कहकर फैलाया जाय तो इसका परिणाम मानव-जाति के लक्ष्य की ओर आगे बढ़ने में मात्र कर्मवाद की भूल की अपेक्षा कहीं अधिक बुद्धिभेद और अनिष्ट करनेवाला हो सकता है । जब कोई भी बलवान् एकांगी सत्य पूर्ण सत्य के रूप में सामने रखा जाता है तो उसका प्रकाश बहुत तीव्र होता है, पर साथ ही उससे बहुत तीव्र संकर भी होता है; क्योंकि उसमें जो सत्यांश है उसकी तीब्रता ही उसके प्रमादवाले अंश को बढ़ानेवाली होती है । कर्मवादियों के आदर्श में जो भूल है उससे केवल अज्ञान में पड़े रहने की अवधि लंबी हो जाती है और मानव-उन्नति का क्रम रुक जाता है, क्योंकि यह कर्मवाद मनुष्यों को पूर्णता या सिद्धि का अनुसंधान करने के लिए ऐसे मार्ग में प्रवृत्त करता है जहाँ सिद्धि या पूर्णता है ही नहीं; परन्तु निवृत्ति-मार्ग के आदर्श में जो भूल है उसमें तो संसार के नाश का बीज है । श्रीकृष्ण
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कहते हैं कि यदि इस आदर्श को सामने रखकर मैं कर्म करूँ तो मैं इन सब प्राणियों का खातमा कर दूँगा और संकर का कर्ता बनूंगा । यद्यपि किसी व्यष्टि-पुरुष की भूल से, चाहे वह देवतुल्य पुरुष ही क्यों न हो, सारी मानवजाति नष्ट नहीं हो सकती तथापि उससे कोई ऐसी विस्तृत विश्रुंखला पैदा हो सकती है जो मानव-जीवन के मूल तत्व को ही काटनेवाली और उसकी उन्नति के सुनिश्चित क्रम को बिगाड़नेवाली हो ।
इसलिए मनुष्य के अन्दर जो निवृत्ति का झुकाव है उसे अपनी अपूर्णता को जान लेना चाहिए और प्रवृत्ति के झुकाव के पीछे जो सत्य है, अर्थात् मनुष्य के अन्दर भगवान् की पूर्णता और मानवजाति के कर्मों में भगवान् की उपस्थिति, उसको भी अपनी बराबरी का स्थान देना होगा । भगवान् केवल नीरवता में ही नहीं हैं, कर्म में भी हैं । जिसपर प्रकृति का कोई असर नहीं पड़ता ऐसे निष्कर्म पुरुष की निवृत्ति, और जो. अपने-आपको इसलिए प्रकृति के हवाले कर देता है कि यह महान् विश्व-यज्ञ, पुरुष-यज्ञ संपन्न हो ऐसे कर्मी पुरुष की प्रवृत्ति, ये दोनों बातें--निवृत्ति और प्रवृत्ति-कोई ऐसी चीजें नहीं हैं जिनमें से एक सच्ची हो और दूसरी झूठी और इन दोनों का सदा से संग्राम चला आया हो, अथवा यह भी नहीं है कि ये एक-दूसरेकी विरोधी हैं, एक श्रेष्ठ और दूसरी कनिष्ठ है और दोनों एक-दूसरे के लिये घातक हैं; बल्कि भागवत प्राकटय का यह द्विविध भाव है । अक्षर अकेला ही इनकी परिपूर्णता की कुंजी या परम रहस्य नहीं है । इन दोनों की परिपूर्णता को, इनके समन्वय को पुरु- षोत्तम-भाव में खोजना होगा जो यहाँ श्रीकृष्णरूप से उपस्थित हैं । देवनर उन्हीं की दिव्य प्रकृति में प्रवेश करके उसी तरह कर्म करेगा जैसे वे करते हैं; वह अकर्म की शरण नहीं लेगा । अज्ञानी और ज्ञानी दोनों ही मनुष्यों में भगवान् कार्य कर रहे हैं । उन भगवान् का ज्ञान हो, यही जीव का परम कल्याण और उसकी सिद्धि की शर्त्त है, किन्तु उन्हें विश्वातीत शान्ति और निश्चल-नीरवता के रूप में जानना और उपलब्ध करना ही सब कुछ नहीं है । जिस रहस्य को जानना है वह तो अज अव्यय परमात्मा और उनके दिव्य जन्म-कर्म का रहस्य है (जन्म कर्म च मे दिव्यम् ) । इस ज्ञान से जो कर्म नि:सृत होता है वह सब बंधनों से मुक्त होता है, ''इस प्रकार जो मुझे जानता है,'' भगवान् कहते हैं कि, ''वह कर्मों से नहीं बंधता ।'' यदि कर्म और वासना के बंधन से और पुनर्जन्म के चक्र से छूटना उद्देश्य और आदर्श हो तो ऐसे ज्ञान को ही सच्चा ज्ञान, मुक्ति का प्रशस्त पथ जानना होगा; कारण गीता का कथन है कि, ''हे अर्जुन, जो तत्वत: मेरे दिव्य जत्म-कर्म को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर, पुनर्जन्म
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को नहीं बल्कि, मुझे प्राप्त होता है ।'' दिव्य जन्म को जानकर और अधिकृत करके वह अज अव्यय भगवान् को, जो सकलांतरात्मा हैं, प्राप्त होता है; और दिव्य कर्मों के ज्ञान और आचरण से कर्मों के अधीश्वर को, जो 'भूतानां ईश्वर:' है, प्राप्त होता है । तब वह अज अविनाशी सत्ता में ही रहता है; उसके कर्म उस सर्व-लोकमहेश्वर के कर्म होते हैं ।
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