Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita.
Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.
दिव्य कर्मी
दिव्य जन्म को प्राप्त होना--अर्थात् जीव का किसी उच्चतर चेतना में उठकर दिव्य अवस्था को प्राप्त करानेवाले नवजन्म को प्राप्त होना--और दिव्य कर्म करना, सिद्धि से पहले साधन के तौर पर और पीछे उस दिव्य जन्म की अभिव्यक्ति के तौर पर, यही गीता का संपूर्ण कर्मयोग है । गीता दिव्य कर्म के ऐसे बाख लक्षण नहीं बतलाती जिनसे बाह्म दृष्टि से उसकी पहचान की जा सके या लौकिक आलोचना-दृष्टि से उसकी जाँच की जा सके; सामान्य नीति-धर्म के जो लक्षण हैं जिनसे मनुष्य अपनी बुद्धि के अनुसार कर्तव्याकर्तव्य निश्चित करते हैं उन लक्षणों को भी गीता ने जान-बूझकर त्याग दिया है । गीता जिन लक्षणों से दिव्य कर्म की पहचान कराती है वे अत्यंत निगूढ़ और अंत:स्थ हैं; जिस मुहर से दिव्य कर्म पहचाने जाते हैं वह अलक्ष्य, आध्यात्मिक और नीतिधर्म से परे है ।
दिव्य कर्म आत्मा से उद्भूत होते हैं और केवल आत्मा के प्रकाश से ही पहचाने जा सकते हैं । ''बड़े-बड़े ज्ञानी मुनि भी, ' कर्म क्या है और अकर्म क्या है', इसका निश्चय करने में मोहित हो जाते हैं'',१ क्योंकि व्यावहारिक, सामाजिक, नैतिक और बौद्धिक मानदण्ड से वे इनके बाह्म लक्षणों को ही पहचान पाते हैं, इनकी जड़ तक नहीं पहुँच पाते; ''मैं तुझे वह कर्म बतलाऊँगा जिसे जानकर तू अशुभ से मुक्त हो जायगा । कर्म क्या है इसको जानना होगा, विकर्म क्या है इसको भी जानना होगा और अकर्म क्या है यह भी जान लेना होगा; कर्म की गति गहन है ।''२ संसार में कर्म जंगल-सा है, जिसमें मनुष्य अपने काल की विचार-धारा, अपने व्यक्तित्व के मानदण्ड और अपनी परिस्थिति के अनुसार लुढ़कता- पुढ़कता चलता है; और ये विचार और मान उसके एक ही काल या एक ही व्यक्तित्व को नहीं, बल्कि अनेक कालों और व्यक्तित्वों को लिये हुए होते हैं, अनेक सामाजिक अवस्थाओं के विचार और नीति-धर्म तह-पर-तह जमकर आपस में
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बिंधे होते हैं और यद्यपि इनका दावा होता है कि ये निरपेक्ष और अविनाशी हैं फिर भी तात्कालिक और रूढ़िगत ही होते हैं, यद्यपि ये अपनेको सद्युक्ति की तरह दिखाने का ढोंग करते हैं पर होते हैं अशास्त्रीय और अयौक्तिक ही । इस सबके बीच सुनिश्चित कर्म-विधान के किसी महत्तम आधार और मूल सत्य को ढूंढ़ता हुआ ज्ञानी अंत में ऐसी जगह जा पहुँचता है जहाँ यही अंतिम प्रश्न उसके सामने आता है कि यह सारा कर्म और जीवन केवल एक भ्रमजाल तो नहीं है और कर्म को सर्वथा परित्याग कर अकर्म को प्राप्त होना ही क्या इस थके हुए, भ्रान्ति-युक्त मानव-जीव के लिये अंतिम आश्रय नहीं है । परन्तु श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस बारे में ज्ञानी भी भ्रम में पड़ते और मोहित हो जाते हैं । क्योंकि ज्ञान और मोक्ष कर्म से मिलते हैं, अकर्म से नहीं ।
तब हल क्या है ? वह किस प्रफार का कर्म है जिससे हम जीवन के अशुभ से छूट सकें, इस संशय, प्रमाद और शोक से, अपने विशुद्ध सद्हेतु-प्रेरित कर्मों के भी अच्छे-बुरे, अशुद्ध और भरमानेवाले परिणाम से, इन सहस्रों प्रकार की बुराइयों और दुःखों से, मुक्त हो सकें ? उत्तर मिलता है कि कोई बाह्म प्रभेद करने की आवश्यकता नहीं; संसार में जो कर्म आवश्यक हैं उनसे बचने की आवश्यकता नहीं; हमारी मानव-कर्मण्यताओं की हदबन्दी की जरूरत नहीं, बल्कि सब कर्म किये जायँ अंतरात्मा को भगवान् के साथ योग में स्थित करके, ''युक्त: कृत्स्नकर्मकृत्" । अकर्म मुक्ति का मार्ग नहीं है; जिसकी उच्चतम बुद्धि की अंतर्दृष्टि खुल गयी है वह देख सकता है कि इस प्रकार का अकर्म स्वयं ही सतत होनेवाला एक कर्म है, एक ऐसी अवस्था है जो प्रकृति और उसके गुणों की क्रियाओं के अधीन है । शारीरिक अकर्मण्यता की शरण लेनेवाला मन अभी इसी भ्रम में पड़ा है कि वह स्वयं कर्मों का कर्ता है, प्रकृति नहीं; उसने जड़ता को मोक्ष समझ लिया होता है, वह यह नहीं देख पाता कि जो इँट-पत्थर से भी अधिक जड़ दिखायी देता है उसमें भी प्रकृति की क्रिया हो रही होती है, उसपर भी प्रकृति अपना अधिकार अक्षुण्ण रखती है । इसके विपरीत, कर्म के पूर्ण प्लावन में भी आत्मा अपने कर्मों से मुक्त है, वह कर्ता नहीं है, जो कुछ किया जा रहा है उससे बद्ध नहीं है । जो आत्मा की इस मुक्तावस्था में रहता है और प्रकृति के गुणों में बँधा नहीं है, वही कर्मों से मुक्त रहता है । गीता के इस वाक्य का कि ''जो कर्म में अकर्म को और अकर्म में कर्म को देखता है वही मनुष्यों में विवेकी और बुद्धिमान है,'' १ स्पष्ट रूप से यही अभिप्राय है । गीता का यह वाक्य सांख्य ने पुरुष और प्रकृति के बीच जो भेद किया है उसपर प्रतिष्ठित है--
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वह भेद यह है कि पुरुष नित्य मुक्त, अकर्ता, चिरशान्त, शुद्ध तथा कर्मों के अन्दर भी अविचल है और प्रकृति चिरीक्रियाशीला है जो जड़ता और अकर्म की अवस्था में भी उतनी ही कर्मरत है जितनी कि दृश्य कर्मस्रोत के कोलाहल में । यही वह उच्चतम ज्ञान है जो बुद्धि के उच्चतम प्रयास से प्राप्त होता है, इसलिए जिसने इस ज्ञान को प्राप्त कर लिया है वही यथार्थ में बुद्धिमान् है, 'स बुद्धिमान् मनुष्येषु', वह भ्रान्त मोहित बुद्धिवाला मनुष्य नहीं जो जीवन और कर्म को निम्नतर बुद्धि के बाह्य, अनिश्चित और अस्थायी लक्षणों से समझना चाहता है । इसलिए मुक्त पुरुष कर्म से भीत नहीं होता, वह संपूर्ण कर्मों का करनेवाला विशाल विराट् कर्मी होता है (कृत्स्नकर्मकृत् ) । वह औरों की तरह प्रकृति के वश में रहकर कर्म नहीं करता, वह आत्मा की नीरव स्थिरता में प्रतिष्ठित होकर, भगवान् के साथ योगयुक्त होकर कर्म करता है । उसके कर्मों के स्वामी भगवान् होते हैं, वह उन कर्मों का निमित्तमात्र होता है जो उसकी प्रकृति अपने स्वामी को जानते हुए, उन्हींके वश में रहते हुए करती है । इस ज्ञान की धधकती हुई प्रबलता और पवित्रता में उसके कर्म अग्नि में ईंधन की तरह जलकर भस्म हो जाते हैं और इनका उसके मन पर कोई लेप या दाग नहीं लगता, वह स्थिर, शान्त, अचल, निर्मल, शुभ और पवित्र बना रहता है । कर्तृत्व-अभिमान से शून्य इस मोक्षदायक ज्ञान में स्थित होकर, समस्त कर्मों को करना ही दिव्य कर्मी का प्रथम लक्षण है ।
दूसरा लक्षण है कामना से मुक्ति; क्योंकि जहाँ कर्ता का व्यक्तिगत अहंकार नहीं होता वहाँ कामना का रहना असंभव हो जाता है, वहाँ कामना निराहार हो जाती है, निराश्रय हो जाने के कारण अवसन्न होकर क्षीण और नष्ट हो जाती है । बाह्यत:, मुक्त पुरुष भी दूसरे लोगों की तरह ही समस्त कर्मों को करता हुआ दिखायी देता है, शायद वह कर्मों को बड़े पैमाने पर और अधिक शक्तिशाली संकल्प और वेगवती शक्ति के साथ करता है, क्योंकि उसकी सक्रिय प्रकृति में भगवान् के संकल्प का बल काम करता है; परन्तु उसके समस्त उपक्रमों और उद्योगों में कामना के हीनतर भाव और निम्नतर इच्छा का अभाव होता है, 'सर्वे सभारम्भा: कामसंकल्पवर्जिता:' । उसको अपने कर्मों के फल के लिए आसक्ति नहीं होती, और जहाँ फल के लिए कर्म नहीं किया जाता बल्कि सब कर्मों के स्वामी का नैर्व्यक्तिक यंत्न बनकर ही सारा कर्म किया जाता है वहां कामना-वासना के लिए कोई स्थान ही नही होता--वहाँ मालिक के काम को सफलतापूर्वक करने की कोई इच्छा भी नहीं होती, क्योंकि फल तो भगवान् का है और उन्हींके द्वारा विहित है, किसी व्यक्तिगत इच्छा या प्रयत्न के द्वारा नहीं, वहाँ यह इच्छा भी नहीं होती कि मालिक के काम को गौरव के साथ करूँ या इस
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प्रकार करूँ जिससे मालिक संतुष्ट हों, क्योंकि यथार्थ में कर्मी तो स्वयं भगवान् हैं और सारी महिमा है उनकी शक्ति के उस रूप-विशेष की जिसके जिम्मे प्रकृति में उस कर्म का भार सौंपा गया है, न कि किसी परिच्छिन्न मानव-व्यक्तित्व की । मुक्त पुरुष का अंत:करण और अंतरात्मा कुछ भी नहीं करता, 'नैव किंचित् करोति स:'; यद्यपि वह अपनी प्रकृति के अन्दर से कर्म में नियुक्त तो होता है, पर कर्म करती है वह प्रकृति, वह कर्त्री शक्ति, वह चिन्मयी भगवती जो अंतर्यामी भगवान के द्वारा नियंर्त्री त होती है ।
इसका यह मतलब नहीं कि कर्म पूर्ण कौशल के साथ, सफलता के साथ, उपयुक्त साधनों का ठीक-ठीक उपयोग करके न किया जाय । बल्कि, योगस्थ होकर शान्ति के साथ कर्म करने से कुशल कर्म करना जितना अधिक सुलभ होता है उतना आशा और भय से अंधे होकर या लुढ़कती-पुढ़कती बुद्धि के निर्णयों द्वारा लँगड़े बने हुए कर्मों को, या फिर अधीर मानव-इच्छा की उत्सुकतापूर्ण घबराहट के साथ दौड़-धूप करके कर्म करने से नहीं होता । गीता ने अन्यत्र कहा है, 'योग: कर्मसु कौशलम्' । योग ही है कर्म का सच्चा कौशल । पर यह सब होता है नैर्व्यक्तिक भाव से एक महती विश्व-ज्योति और शक्ति के द्वारा जो व्यष्टि-पुरुष की प्रकृति में से अपना कर्म करती है । कर्मयोगी इस बात को जानता है की उसे जो शक्ति दी गयी है वह भगवत्-निर्दिष्ट फल को प्राप्त करने के उपयुक्त होगी, उसे जो कर्म करना है वह कर्म के पीछे जो भागवत चिंता है उसके अनुकूल होगा और उसका संकल्प, उसकी गतिशक्ति और दिशा गुप्त रूप से भागवत प्रज्ञा के द्वारा नियंत्रित होती रहेगी--अवश्य ही उसका संकल्प न तो इच्छा होगी न वासना, बल्कि वह सचेतन शक्ति का किसी ऐसे लक्ष्य की ओर नैर्व्यक्तिक प्रवाह होगा जो उसका अपना नहीं है । कर्म का फल वैसा भी हो सकता है जिसे सामान्य मनुष्य सफलता समझते हैं अथवा ऐसा भी हो सकता है जो उन्हें विफलता जान पड़े पर कर्मयोगी इन दोनों में अभीष्ट की सिद्धि ही देखता है, और वह अभीष्ट उसका अपना नहीं, बल्कि उन सर्वज्ञ का होता है जो कर्म और फल, दोनों के संचालक हैं । कर्मयोगी विजय की खोज नहीं करता, वह तो यही इच्छा करता है कि भगवत्संकल्प और भगवदभिप्राय पूर्ण हो और यह पूर्णता आपातदृश्य पराजय के द्वारा भी उतनी ही साधित होती है जितनी जय के द्वारा और प्राय: जय की अपेक्षा पराजय के द्वारा ही यह कार्य विशेष बल के साथ संपन्न होता है । अर्जुन को युद्ध के आदेश के साथ-साथ विजय का आश्वासन भी प्राप्त है; पर यदि उसकी हार होनी होती तो भी उसका कर्तव्य युद्ध ही होता; क्योंकि जिन क्रियाशक्तियों के समूह के द्वारा भगवान् का संकल्प
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सफल होता है उसमें तात्कालिक भाग के तौर पर अर्जुन को उपस्थित काल में यह युद्ध-कर्म ही सौंपा गया है ।
मुक्त पुरुष की व्यक्तिगत आशा-आकांक्षा नहीं होती; वह चीजों को अपनी वैयक्तिक संपत्ति जानकर पकड़े नहीं रहता; भगवत्संकल्प जो ला देता है वह उसे ग्रहण करता है, वह किसी वस्तु का लोभ नहीं करता, किसी से डाह नहीं करता; जो कुछ प्राप्त होता है उसे वह राग-द्वेषरहित होकर ग्रहण करता है; जो कुछ चला जाता है उसे संसार-चक्र में जाने देता है और उसके लिये दुःख या शोक नहीं करता, उसे हानि नहीं मानता । उसका हृदय और आत्मा पूर्णतया उसके वश में होते हैं वे समस्त प्रतिक्रिया या आवेश से मुक्त होते हैं, वे बाह्य विषयों के स्पर्श से विक्षुब्ध नहीं होते । उसका कर्म मात्र शारीरिक कर्म होता है (शारीरं केवलं कर्म ), क्योंकि बाकी सब कुछ तो ऊपर से आता है, मानव-स्तर पर पैदा नहीं होता, भगवान् पुरुषोत्तम के संकल्प, ज्ञान और आनन्द का प्रतिबिंब-मात्र होता है; इसलिए वह कर्म और उसके उद्देश्यों पर जोर देकर अपने मन और हृदयों में वे प्रतिक्रियाएँ नहीं होने देता जिन्हें हम षड्रीपु और पाप कहते हैं । क्योंकि बाह्य कर्म पाप नहीं है, बल्कि वैयक्तिक संकल्प, मन और हृदय की जो अशुद्ध प्रतिक्रिया कर्म के साथ लगी रहती और कर्म कराती है उसीका नाम पाप है; नैर्व्यक्तिक आध्यात्मिक मनुष्य तो सदा ही शुद्ध ''अपापविद्ध'' होता है और उसके द्वारा होनेवाले कार्य में उसकी सहज शुद्धता आ जाती है । यह आध्यात्मिक नैर्व्यक्तित्व दिव्य कर्मी का तीसरा लक्षण है । किसी प्रकार को महत्ता या विशालता को प्राप्त सभी मनुष्य यह अनुभव करते हैं कि कोई नैर्व्यक्तिक शक्ति या प्रेम या संकल्प और ज्ञान उनके अन्दर काम कर रहा है, पर वे अपने मानव-व्यक्तित्व की अहंभावापन्न प्रतिक्रियाओं से मुक्त नहीं हो पाते, और कभी-कभी तो ये प्रतिक्रियाएँ अत्यंत प्रचंड होती हैं । परन्तु मुक्त पुरुष इन प्रति-क्रियाओं से सर्वथा मुक्त होता है; क्योंकि वह अपने व्यक्तित्व को नैर्व्यक्तिक पुरुष में निक्षेप कर देता है और अब उसका व्यक्तित्व उसका अपना नहीं रह जाता, उन भगवान् पुरुषोत्तम के हाथों में चला जाता है जो सब सांत गुणों का अनन्त और मुक्त भाव से व्यवहार करते हैं पर किसी के द्वारा बद्ध नहीं होते । मुक्त पुरुष आत्मा हो जाता है और प्रकृति के गुणों का पुंज-सा नहीं बना रहता; और प्रकृति के कर्म के लिए उसके व्यक्तित्व का जो कुछ आभास बाकी रह जाता है वह एक ऐसी चीज होती है जो बंधमुक्त, उदार, नमनीय और विश्वव्यापक है; वह भगवान् की अनन्त सत्ता का एक विशुद्ध पात्र बन जाता है, पुरुषोत्तम का एक जीवंत छद्मरूप हो जाता है ।
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इस ज्ञान, निष्कामता और नैर्व्यक्तिकता का फल है पुरुष और प्रकृति में पूर्ण समत्व । समत्व दिव्य कर्मी का चौथा लक्षण है । गीता कहती ह कि वह 'द्वन्द्वातीत' हो जाता है, वह सफलता और विफलता, जय और पराजय को अविचल भाव से और समदृष्टि से देखता है, इतना ही नहीं वह सभी द्वन्द्वों के परे उस स्थिति में पहुँच जाता है जहाँ द्वन्द्वों का सामंजस्य होता है । जिन बाह्य लक्षणों से मनुष्य जगत् की घटनाओं के प्रति अपनी मनोवृत्ति का रुख निश्चित करते हैं वे उसकी दृष्टि में गौण और यांत्रिक होते हैं । वह उनकी उपेक्षा नहीं करता, पर उनसे परे रहता है । शुभ और अशुभ का भेद कामना के अधीन मनुष्य के लिए सबसे बड़ी चीज है, पर निष्काम आत्मवान् पुरुष के लिए शुभ और अशुभ दोनों ही एक से ग्राह्य हैं, क्योंकि इन दोनों के संमिश्रण से ही शाश्वत श्रेय के विकासशील रूप निर्मित होते हैं । उसकी हार तो हो ही नहीं सकती, क्योंकि उसकी दृष्टि के अनुसार प्रकृति के कुरुक्षेत्र अर्थात् धर्मक्षेत्र में सब कुछ भगवान् को विजय की ओर जा रहा है, इस कर्मक्षेत्र में जो विकसनशील धर्म का क्षेत्र है ( धर्मक्षेत्रे करूक्षेत्रे ), युद्ध के प्रत्येक मोड़ का नक्शा युद्ध के अधिनायक कर्मों के स्वामी, धर्म के नेता की पूर्वदृष्टि से पहले ही खींचकर तैयार किया जा चुका है । मनुष्यों से मिलनेवाले मान-अपमान या निन्दा-स्तुति का उसपर कुछ भी असर नहीं पड़ सकता, क्योंकि उसके कार्य का निर्णायक अधिक विमल दृष्टिवाला कोई और ही है और उसके कार्य का पैमाना भी अलग है और उसका प्रेरक-भाव सांसारिक पुरस्कार पर जरा भी निर्भर नहीं है । क्षत्रिय अर्जुन की दृष्टि में मान और कीर्ति का बहुत बड़ा मूल्य होना स्वाभाविक ही है, उसका अपयश तथा कापुरुषता के अपवाद से बचना, उन्हें मृत्यु से भी बुरा मानना ठीक ही है, क्योंकि संसारमें मानकी रक्षा करना और साहस की मर्यादा को बनाये रखना उसके धर्म का अंग है, किन्तु मुक्त अर्जुन को इनमें से किसी बात की परवाह करने की आवश्यकता नहीं, उसे तो केवल अपना ''कर्तव्य कर्म'' जानना है, उस कर्म को जानना है जिसकी मांग उसकी परम आत्मा उससे कर रही है, उसे वही करना है और फल को अपने कर्मों के ईश्वर के हाथों में छोड़ देना है । पापपुण्य के भेद से भी वह ऊपर उठ चुका है । मानव-जीव जब अपने अहंकार की पकड़ को ढीला करने के लिए और अपने प्राणावेगों के भारी और प्रचण्ड जूए के बोझ को हलका करने के लिए संघर्ष करता है तब पाप और पुण्य में विवेक का बहुत अधिक महत्व होता है, पर मुक्त पुरुष तो इसके भी परे चला जाता है, वह इन संघर्षों के ऊपर उठ जाता है तथा साक्षिस्वरूप ज्ञानमय आत्मा की पवित्रता में सुप्रतिष्ठित हो जाता है । अब पाप झड़कर गिर गया है और उसे अच्छे कर्मों से न पुण्य मिलता
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है न उसके पुष्य की वृद्धि होती है, और इसी तरह किसी बुरे कर्म से पुष्य की हानि या नाश भी नहीं होता, वह दिव्य और निरहं प्रकृति की अविच्छेद्य और अपरिवर्तनीय पवित्रता के शिखर पर चढ़ गया है और वहीं आसन जमाकर बैठा है । उसके कर्मों का आरम्भ पाप-पुण्य के बोध से नहीं होता, न ये उसपर लागू होते हैं ।
अर्जुन अभी अज्ञान में है । वह अपने हृदय में सत्य और न्याय की कोई पुकार अनुभव कर सकता है और मन-ही-मन सोच सकता है कि युद्ध से हटना पाप होगा, क्योंकि अधर्म की विजय होने से अन्याय, अत्याचार और अशुभ कर्म छा जाते हैं और इससे मनुष्य और राष्ट्र पीड़ित होते हैं और इस अवसर पर यह जिम्मेवारी उसी के सिर आ पड़ेगी । अथवा उसके हृदय में हिंसा और मारकाट के प्रति घृणा पैदा हो सकती है और वह मन-ही-मन यह सोच सकता है कि खून बहाना तो हर हालत में पाप है और रक्तपात का समर्थन किसी अवस्थामें नहीं किया जा सकता । धर्म और युक्ति की दृष्टि से ये दोनों मनोभाव ही एक-से मालूम होंगे; इनमें से कौन-सा मनोभाव किसके मन पर हावी होगा या दुनिया की दृष्टि में जँचेगा यह बात तो देश, काल, पात्र और परिस्थिति पर निर्भर है । अथवा यह भी हो सकता है कि अपने शत्रुओंके मुकाबले अपने मित्रों की सहायता करने के लिए, अशुभ और अत्याचार के मुकाबले में धर्म और न्याय का पक्ष समर्थन करने के लिए उसका हृदय और उसकी कुलमर्यादा उसे विवश करें । परन्तु मुक्त पुरुष की दृष्टि इन परस्पर-विरोधी मानदण्डों के परे जाकर केवल यह देखती है कि विकासशील धर्म की रक्षा या अभ्युदय के लिए आवश्यक वह कौन-सा कर्म है जो परमात्मा मुझसे कराना चाहते हैं । उसका अपना निजी मतलब तो कुछ है ही नहीं, उसको किसी से कोई व्यक्तिगत रागाद्वेष तो है ही नहीं, उसके पास कर्म-विषयक कसकर बंधा हुआ मानदण्ड तो है ही नहीं जो मनुष्यजाति की उन्नति की ओर बढ़ती हुई सुनम्य गति में रोड़ा अटका दे या अनन्त की पुकार के विरुद्ध खड़ा, हो जाय । उसके कोई व्यक्तिगत शत्रु नहीं जिन्हें वह जीतना या मारना चाहे, वह सिर्फ ऐसे लोगों को देखता है जिन्हें परिस्थिति ने और पदार्थमात्र में निहित संकल्प ने उसके विरुद्ध लाकर इसलिए खड़ा कर दिया है कि वे प्रतिरोध के द्वारा भवितव्यता की गति की सहायता करें । इन लोगों के प्रति उसके मन में क्रोध या घृणा नहीं हो सकती क्योंकि दिव्य प्रकृति के लिये क्रोध और घृणा विजातीय चीजें हैं । असुर की अपने विरोधी को चूर-चूर करने और उसका सिर उतार लेने की इच्छा, राक्षस की संहार करने की निर्दयतापूर्ण लिप्सा का मुक्त पुरुष की स्थिरता, शान्ति, विश्वव्यापी सहानुभूति और समझ में होना असम्भव हैं । उसमें किसी को चोट पहुँचाने की इच्छा नहीं होती अपितु सारे संसार के लिए मैत्री और
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करुणा का भाव होता है (मैत्र : करुण एव च ); पर यह करुणा उस दिव्य आत्मा की करुणा है जो मनुष्यों को अपने उच्च स्थान से करुणाभरी दृष्टि से देखता है, सब जीवों को अपने अन्दर प्रेम से ग्रहण करता है, यह सामान्य मनुष्य की वह दीनता भरी कृपा नहीं है जो हृदय, स्नायु और मांस का दुर्बल कैपनमात्न होती है । वह शरीर से जीवित रहने को भी उतनी बड़ी चीज नहीं मानता, बल्कि शरीर के परे जो आत्म-जीवन है उसे जीवन मानता और शरीर को केवल एक उपकरण समझता है । वह सहसा संग्राम और संहार में प्रवृत्त न होगा, पर यदि धर्म के प्रवाह में युद्ध करना ही पड़े तो वह उसे स्वीकार करेगा और उसे जिनके बल और प्रभुत्व को चूर्ण करना है और जिनके विजयी जीवन के उल्लास को नष्ट करना है उनके साथ भी उसकी सहानुभूति होगी और वह उदार समबुद्धि और विशुद्ध बोध के साथ ही युद्ध में प्रवृत्त होगा ।
कारण मुक्त पुरुष सबमें दो बातों को देखता है, एक यह कि भगवान् घट-घट में समरूप में वास करते हैं और दूसरी यह कि यह जो नानाविध प्राकटय है वह अपनी क्षणथायी परिस्थिति में ही विषम है । पशु में, मनुष्य में, अशुचि-अंत्यज में, विद्वान् और पुण्यात्मा ब्राह्मण में, महात्मा और पापात्मा में, मित्र, शत्रु और तटस्थ में, जो उसे प्यार करते और उसका उपकार करते हैं उनमें और जो उससे घृणा करते और उसे पीड़ा पहुँचाते हैं उनमें, वह अपने-आपको देखता है, ईश्वर को देखता है और उसके हृदय में सबके लिए एक-सी दिव्य करुणा और दिव्य प्रीति होती है । परिस्थिति के अनुसार बाह्यत: वह किसी को अपनी छाती से लगा सकता है अथवा किसी से युद्ध कर सकता है, पर किसी हालत में उसकी समदृष्टि में कोई अन्तर नहीं पड़ता, उसका हृदय सबके लिए खुला रहता है, उसका अंतर सबको गले लगाये रहता है । और उसके सब कर्मोमें एक ही अध्यात्मतत्व अर्थात् पूर्ण समत्व काम करता है और एक ही कर्मतत्व काम करता है अर्थात् वह भगवत्-संकल्प जो भगवान् की ओर क्रमश: अग्रसर होती हुई मानव-जाति की सहायता के लिए उसके अन्दर से क्रियाशील है ।
फिर दिव्य कर्मी का लक्षण वह है जो स्वयं भागवत चेतना का कैन्द्रिक लक्षण है, अर्थात् पूर्ण आन्तर आनन्द और शान्ति । ये निर्विषय होते हैं, इनकी उत्पत्ति या स्थिति जगत् के किसी पदार्थ पर निर्भर नहीं, ये स्वाभाविक होते हैं, अंतरात्मा के उपादान और दिव्य सत्ता के स्वरूप होते हैं । सामान्य मनुष्य अपने सुख के लिए बाह्य पदार्थों पर निर्भर है; इसीसे उसके वासनाकामना होती है, इसीसे उसमें क्रोध-क्षोभ, सुख-दु:ख, हर्ष-शोक होते हैं, इसीलिए वह सब वस्तुओं को शुभा-शुभ के कांटे से तौलता है । परन्तु दिव्य आत्मा पर इनमें से किसी का कोई
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असर नहीं पड़ सकता; वह किसी प्रकार की निर्भरता के बिना सदा तृप्त रहता है, 'नित्यतृप्तो निराश्रय:', क्योंकि उसका आनन्द, उसकी दिव्य तृप्ति, उसका सुख, उसकी सुप्रसन्न ज्योति सदा उसके अन्दर वर्तमान हैं, उसके रोम-रोम में व्याप्त हैं, ''आत्मरतिः, अन्त: सुखोइन्तरारामस्तयान्तर्ज्योतिरेव य: ।'' वह बाह्य पदार्थों में जो सुख लेता है वह उनके कारण नहीं होता, उस रस के लिए नहीं जिसे वह उनमें ढूँढता और खो भी सकता है, बल्कि उनमें स्थित आत्मा के लिए, उनके द्वारा भगवान् की अभिव्यक्ति के लिए, उनमें स्थित शाश्वत तत्व के लिए होता है, जिसे वह कभी नहीं खो सकता । इन पदार्थों के बाह्य स्पर्शों में उसकी आसक्ति नहीं होती, बल्कि अपने अन्दर मिलने वाला आनन्द ही उसे सर्वत्र मिलता है; क्योंकि उसकी आत्मा ही उनकी आत्मा है, वह चराचर प्राणियों की आत्मा के साथ एक हो गया है--उनके विभिन्न नामरूपों के होते हुए भी उनके अन्दर जो समब्रह्म है उसके साथ वह एक हो गया है ''ब्रह्मयोगयुक्तात्मा, सर्वभूतात्मभूतात्मा ।'' प्रिय पदार्थ के स्पर्श से उसे हर्ष नहीं होता, अप्रिय से उसे शोक नहीं होता; पदार्थों के, मित्नों के या शत्नुओं के घाव उसकी दृष्टि की स्थिरता भंग नहीं कर सकते न उसके हृदय को मोहित कर सकते हैं; उपनिषद् के शब्दों में यह आत्मा अपने स्वरूप से ' अव्रणम्' होता है, उसपर कोई घाव, कोई क्षत नहीं होता । वह सब पदार्थों में वही अक्षय आनन्द भोग करता है, ''दुखमक्षयमस्नुते'' वह समत्व, नैर्व्यक्तित्व, शांति, मुक्ति और आनन्द कर्म के करने न करने जैसी किसी बाहरी चीजपर अवलंबित नहीं है । गीता ने बार-बार त्याग और संन्यास अर्थात् आंतर संन्यास और बाह्य संन्यास के भेद पर जोर दिया है । त्याग के बिना संन्यास का कोई मूल्य नहीं है; त्याग के बिना संन्यास हो भी नहीं सकता और जहाँ आन्तरिक मुक्ति है वहाँ बाह्य संन्यास की कोई आवश्यकता भी नहीं होती । यथार्थ में त्याग ही सच्चा और पूर्ण संन्यास है । '' उसे नित्य संन्यासी जानना चाहिए जो न द्वेष करता है न आकांक्षा, इस प्रकार का द्वन्द्वमुक्त व्यक्ति अनायास ही समस्त बंधनों से मुक्त हो जाता है ।''१ बाह्य संन्यास का कष्टकर मार्ग ( दु:खमाप्तुं ) अनावश्यक है । यह सर्वथा सत्य है कि सब कर्मों और फलों को अर्पण करना होता है, उनका त्याग करना होता है, पर यह अर्पण, यह त्याग आंतरिक है, बाह्य नहीं; यह प्रकृति की जड़ता में नहीं किया जाता, बल्कि यज्ञ के उन अधीश्वर को किया जाता है, उस नैर्व्य क्तिक ब्रह्म की शान्ति और आनन्द में किया जाता है जिसमें से बिना उसकी शान्ति को भंग किये सारा कर्म प्रवाहित होता है । कर्म का सच्चा संन्यास ब्रह्म में कर्मों का आधान करना ही है । ''जो
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संग का त्याग करके, ब्रह्म में कर्मों का आधान करके (या ब्रह्म को कर्मों का आधार बनाके ) कर्म करता है (चह्यष्याधाय कर्माणि ) उसे पापका लेप नहीं लगता जैसे कमल के पत्ते पर पानी नहीं ठहरता ।''१ इसलिए योगी पहले शरीर से, मन से, बुद्धि से अथवा केवल कर्मेंद्रयों से ही आसक्ति को छोड़कर आत्मशुद्धि के लिए कर्म करते हैं । कर्मफलों की आसक्ति को छोड़ने से ब्रह्म के साथ युक्त होकर अंतरात्मा ब्राह्मी स्थिति की ऐकान्तिक शान्ति लाभ करता है, किन्तु जो ब्रह्म के साथ इस प्रकार युक्त नहीं है वह फल में आसक्त और काम-संभूत कर्म से बंधा रहता है । यह स्थिति, यह पवित्रता, यह शान्ति जहाँ एक बार प्राप्त हो जाती है वहाँ देही आत्मा अपनी प्रकृति को पूर्ण रूप से वश में किये हुए, सब कर्मों का 'मनसा' ( मन से, बाहर से नहीं ). संन्यास करके ''नवद्वारा पुरी में बैठा रहता है, वह न कुछ करता है न कुछ कराता है ।'' कारण यह आत्मा ही सबके अन्दर रहनेवाली नैर्व्यक्तिक आत्मा है, परब्रह्म है, प्रभु है, विभु है जो नैर्व्यक्तिक होने के नाते न तो जगत् के किसी कर्म की सृष्टि करता है न अपनेको कर्ता समझने- वाले मानसिक विचार की ( न कर्तृत्वं न कर्माणि), और न ही कर्मफल-संयोगरूप कार्यकारणसम्बन्ध की । इस सबकी सृष्टि मनुष्य में प्रकृति के द्वारा या स्वभाव द्वारा होती है, स्वभाव का अर्थ है आत्म-संभूतिका मूल तत्व । सर्वव्यापी नैर्व्यक्तिक आत्मा न पाप ग्रहण करती है न पुण्य । पाप-पुण्य की सृष्टि जीव के अज्ञान से, उसके कर्तृत्व के अहंकार से, श्रेष्ठ आत्मभाव की उसकी अनभिज्ञता से, प्रकृति के कर्मों के साथ अपना तादात्म्य कर लेने से होती है, और जब उसका अन्त:स्थित आत्म-ज्ञान इस अंधकारमय आवरण से मुक्त हो जाता है तब उसका वह ज्ञान उसकी अन्त:स्थ सदात्मा को सूर्य के सदृश प्रकाशित कर देता है; तब वह अपने-आपको प्रकृति के करण-समूह के ऊपर रहनेवाली आत्मा जानने लगता है । उस विशुद्ध, अनन्त, अविकार्य अव्यय स्थिति में आकर वह फिर विचलित नहीं होता, क्योंकि वह इस भ्रम में नहीं रहता कि प्रकृति की क्रिया उसमें कुछ हेर-फेर कर सकती है, नैर्व्यक्तिक ब्रह्म के साथ पूर्ण तादात्म्य लाभ करके वह फिर से जन्म लेकर प्रकृति की क्रिया में वापस आने की आवश्यकता से अपने-आपको मुक्त कर सकता है ।
फिर भी यह मुक्ति उसे कर्म करने से जरा भी नहीं रोकती । हाँ, अब कर्म करते हुए भी वह यह जानता है कि कर्म मैं नहीं कर रहा, कर्म करनेवाले हैं प्रकृति के त्रिगुण । ''तत्ववित् व्यक्ति ( निष्क्यि नैर्व्यक्तिक ब्रह्म के साथ ) युक्त होकर यही सोचता है कि कर्म मैं नहीं करता; देखते, सुनते, चखते, सूंघते, खाते, चलते, सोते, सांस लेते, बोलते, देते, लेते, आँख खोलते-बंद करते वह यही धारणा
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करता है कि इन्द्रियाँ विषयों पर क्रिया कर रही हैं ।'' वह स्वयं अक्षर अविकार्य आत्मा में सुप्रतिष्ठित होने के कारण त्रिगुणातीत हो जाता है; वह न सात्विक है न राजसिक न तामसी; उसके कर्मों में प्राकृतिक गुणों और धर्मों के जो परिवर्तन होते रहते हैं, प्रकाश और सुख, कर्मण्यता और शक्ति, विश्राम और जड़ता-रूपी इनका जो छन्दोबद्ध खेल होता रहता है उन्हें वह निर्मल और शान्त भाव से देखता है । अपने कर्म को इस प्रकार शान्त आत्मा के उच्चासन से देखना और उसमें लिप्त न होना, यह त्नैगुणातीत्य भी दिव्य कर्मी का एक महान् लक्षण है । यदि इसी विचार को सब कुछ मान लिया जाय तो इसका यह परिणाम निकलेगा कि सब कुछ प्रकृति की ही यांत्रिक नियति है और आत्मा इस सबसे सर्वथा अलग है, उसपर कोई जिम्मेदारी नहीं, पर गीता पुरुषोत्तम-तत्व की प्रकाशमान और परमेश्वरवादी भावना के द्वारा इस अपूर्ण विचार की भूल का निवारण करती है । गीता इस बात को स्पष्ट रूप से कहती है कि सब कुछ के मूल में प्रकृति ही नहीं है जो अपने कर्मों का यंत्रवत् निर्णय करती हो, बल्कि प्रकृति को प्रेरित करता है उन पुरुषोत्तम का संकल्प, जिन्होंने धार्तराष्ट्रों को पहलेसे ही मार रखा है, अर्जुन जिनका मानव-यत्न मात्न है । वे विश्वात्मा परात्पर परमेश्वर ही प्रकृति के समस्त कर्मों के स्वामी हैं । नैर्व्यक्तिक ब्रह्म में कर्मों का आधान करना तो कर्तृत्व-अभिमान से छुटकारा पाने का एक साधन मात्र है, पर हमारा लक्ष्य तो है अपने समस्त कर्मों को सर्वभूतमहेश्वर के अर्पण करना । '' आत्मा के साथ अपनी चेतना का तादात्म्य करके, मुझमें सब कर्मों का संन्यास करके ( मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्या-ष्यात्मचेतसा ), अपनी वैयक्तिक आशाओं और कामनाओं से तथा 'मैं' और ' मेरा' से मुक्त तथा विगतज्वर होकर युद्ध कर,''१ कर्म कर, जगत् में मेरे संकल्प को कार्यान्वित कर । भगवान् ही अखिल कर्म का आरम्भण, प्रेरण और निर्द्धारण करते हैं; मानव-आत्मा ब्रह्म में नैर्व्यक्तिक भाव को प्राप्त होकर उनकी शक्ति का विशुद्ध और नीरव स्रोतमार्ग बनती है; यही शक्ति प्रकृति में आकर दिव्य कर्म संपादन करती है । केवल ऐसे कर्म ही मुक्त पुरुष के कर्म हैं; क्योंकि किसी कर्म में मुक्त पुरुष की कोई अपनी प्रवृत्ति नहीं होती; केवल ऐसे कर्म ही सिद्ध कर्मयोगी के कर्म हैं । इन कर्मों का उदय मुक्त आत्मा से होता और आत्मा में कोई विकार या संस्कार उत्पन्न किये बिना ही इनका लय हो जाता है, जैसे, अक्षर अगाध चित्-समुद्र में लहरें ऊपर-ही-ऊपर उठती हैं और फिर विलीन हो जाती हैं ।
गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतस: ।
यज्ञायाचरत: कर्म समग्रं प्रविलीयते ।।२
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