Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita.
Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.
गीता का संदेश
गीता का संदेश, इसके दिव्य गुरु का उपदेश हम सार-रूप से इन शब्दों में प्रतिपादित कर सकते हैं, ''कर्म का रहस्य भी वही है जो कि समस्त जीवन एवं जगत् का रहस्य है । जगत् केवल प्रकृति का एक ऐसा यंत्र नहीं है, नियम का एक ऐसा चक्र नहीं है जिसमें जीव अल्प काल के लिए या युगों के लिए फंसा हुआ है; यह तो परमात्मा की एक अनवरत अभिव्यक्ति है । जीवन केवल जीवन के लिए नहीं वरन् परमेश्वर के लिए है, और मनुष्य का जीवात्मा भगवान् का सनातन अंश है । कर्म का प्रयोजन है आत्म-उपलब्धि, आत्मपूर्णता एवं आत्म-चरितार्थता न कि केवल उससे वर्तमान काल में या भविष्य में उत्पन्न होनेवाले बाह्य एवं प्रत्यक्ष फलों की प्राप्ति । सभी वस्तुओं का एक आभ्यंतरिक विधान एवं प्रयोजन है जो अध्यात्मसत्ता की अव्यक्त परमा प्रकृति तथा व्यक्त प्रकृति पर अवलंबित है; कर्मों का वास्तविक सत्य उसी के अन्दर निहित है और मन तथा उसके कर्म के बाह्य आकारों में तो उस सत्य को केवल गौण, अपूर्ण एवं अज्ञाना-च्छन्न रूप में ही प्रकट किया जा सकता है । अतएव कर्म का परमोच्च, निर्दोष एवं व्यापकतम विधान है किसी बाह्य आदर्श एवं धर्म का अनुसरण न करके अपनी उच्चतम तथा अंतरतम सत्ता का सत्य ढूँढ़ निकालना और उसमें निवास करना । जबतक ऐसा नहीं हो जाता तबतक समस्त जीवन एवं कर्म एक अपूर्णता, एक कठिनाई, संघर्ष एवं समस्या ही बना रहेगा । अपनी सच्ची आत्मा को ढूँढ़ने तथा उसके सच्चे सत्य एवं वास्तविक स्वरूप के अनुसार जीवन बिताने से ही उस समस्या को अंतिम रूप से हल किया जा सकता है, उस कठिनाई एवं संघर्ष को पार किया जा सकता है और तुम्हारे कर्म उपलब्ध आत्मा एवं अध्यात्मसत्ता की सुरक्षित स्थिति में पूर्णता को प्राप्त होकर वास्तविक दिव्य कर्म में परिणत हो सकते हैं । अतएव अपनी आत्मा को जानो; अपनी वास्तविक आत्मा को ईश्वर समझो और उसे अन्य सबकी आत्मा के साथ एक जानो; अपनी अंतरात्मा को परमेश्वर का एक अंश जानो । और फिर जो जानते हो उसी ज्ञान में निवास करो; अपनी आत्मा में स्थित रहो, अपनी परा आध्यात्मिक प्रकृति
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में निवास करो, भगवान् के साथ योगयुक्त होओ और भगवत्तुल्य बनो । सर्व-प्रथम, अपने सभी कर्म यज्ञ-रूप में उत्सर्ग कर दो, उनके प्रति जो तुम्हारे अन्दर और इस जगत् के अन्दर परमोच्च और एकमेव सत्ता के रूप में विराजमान हैं; अन्त में, जो कुछ तुम हो और जो कुछ तुम करते हो वह सब उन्हीं के हाथों में सौंप दो जिससे कि वे परम और विश्वगत भगवान् इस जगत् में तुम्हारे द्वारा अपने संकल्प और अपने कर्मों को संपन्न करें । तुम्हारे सामने मैं जो समाधान रखता हूँ वह यही है और अन्त में तुम देखोगे कि इसके सिवा और कोई समाधान है ही नहीं ।''
समस्त भारतीय शिक्षा की भांति गीता भी जिस मूलभूत विरोध को अपना आधार बनाती है उसके विषय में इसके विचार का यहाँ प्रतिपादन करना आवश्यक है । वास्तविक आत्मा की यह उपलब्धि, अपने अन्दर तथा सबके अन्दर अव-स्थित परमेश्वर का यह ज्ञान कोई सुलभ वस्तु नहीं है; और चाहे मन इसे प्रत्यक्ष कर भी ले तथापि इसे अपनी चेतना का उपादान तथा अपने कर्म का संपूर्ण नियम-धर्म बनाना भी कोई सरल काम नहीं है । कर्म मात्र हमारी चेतना की एक कार्य-करी अवस्था के द्वारा निर्धारित होता है, और हमारी सत्ता की कार्यकरी अवस्था निर्धारित होती है हमारे अखंड आत्मदर्शी संकल्प एवं सक्रिय चैतन्य की अवस्था के द्वारा तथा उसकी कर्म-प्रवृत्ति के मूल हेतु के द्वारा । हमारा अपना स्वरूप क्या है, जगत् के साथ हमारे संबंधों का अर्थ क्या है इस विषय में हम अपनी संपूर्ण सक्रिय प्रकृति के द्वारा जो कुछ देखते और मानते हैं, हमारी वह मान्यता किंवा श्रद्धा ही हमारे उस स्वरूप को, हम जो कुछ हैं उसे, गठित करती है । परन्तु मनुष्य की चेतना द्विविध है और वह सत्ता के द्विविध सत्य से संबंध रखती है; क्योंकि एक है आभ्यंतरिक सद्वस्तु का सत्य और दूसरा है बाह्य रूप का सत्य । वह इन दोनों में से जिस एक या दूसरे में निवास करेगा उसके अनुसार ही या तो मानव-अज्ञान में रहनेवाला एक मनोमय प्राणी होगा या दिव्य ज्ञान पर प्रतिष्ठित एक अध्यात्म-सत्ता ।
अपने बाह्य रूप में जगत् का सत्य केवल वही है जिसे हम प्रकृति कहते हैं, प्रकृति वह शक्ति है जो सत्ता के संपूर्ण नियम एवं यंत्र के रूप मे कार्य करती है, हमारे मन और इंद्रियों के विषयभूत इस जगत् की रचना करती है, और साथ ही जिस बाह्य जगत् में जीव निवास करता है उसके साथ जीव का संपर्क स्थापित करने के साधन के रूप में मन और इंद्रियों की भी सृष्टि करती है । इस बाह्य दृश्यमान जगत् में अपनी अंतरात्मा, मन, प्राण और शरीर को लिए हुए मनुष्य प्रकृति का एक प्राणी प्रतीत होता है, अपने शरीर, प्राण एवं मन के पार्थक्य के
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कारण और विशेषकर अपनी अहंबुद्धि के कारण ही वह दूसरों से .भिन्न है-अहं-बुद्धि का यह सूक्ष्म यंत्र उसके लिए इस कारण रचा गया है कि वह इस समस्त तीव्र पार्थक्य एवं विभेद-संबंधी अपनी चेतना को संपुष्ट और केंद्रीभूत कर सके । यह अत्यंत स्पष्ट है कि उसके अन्दर जो कुछ भी है वह सब, उसका मनोमय पुरुष तथा इसका कर्म और उसके प्राण एवं शरीर का व्यापार उसके 'स्वधर्म' के द्वारा निर्धारित होता है, इसके घेरे से बाहर नहीं निकल सकता, किसी अन्य प्रकार से क्रिया नहीं कर सकता । निःसंदेह वह यह मानता है कि उसकी व्यक्तिगत इच्छा, उसके अहं की इच्छा को एक प्रकार की स्वाधीनता प्राप्त है ही; पर वास्तव में वह नहीं के बराबर है, क्योंकि उसका अहं तो केवल एक बोध है जिसके कारण वह अपने प्रकृति-रचित स्वरूप के साथ, प्रकृति के बनाये हुए परिवर्तनशील मन, प्राण और शरीर के साथ अपने-आपको तदाकार समझता है । उसका अहं भी अपने-आपमें प्रकृति की क्रियाओं की उपज है, और जैसा उसके अहं का स्वरूप होगा, वैसा ही अहं के संकल्प का स्वरूप होगा और निश्चय ही उसी के अनुसार वह कर्म करेगा और उसके सिवा वह और कुछ कर भी नहीं सकता ।
सुतरां, अपने विषय मे मनुष्य की साधारण चेतना यही है एवं अपनी सत्ता में उसका विश्वास भी यही है कि वह प्रकृति का एक प्राणी है, एक पृथक् अहं है, वह दूसरों के साथ तथा जगत् के साथ अपने वही संबंध स्थापित करता है, अपना वही विकास साधित करता है, अपने मन के उसी संकल्प, कामना अथवा कल्पना की परितृप्ति करता है जिसके लिए प्रकृति उसे अपने क्षेत्र में अनुमति देती है और जो प्रकृति के मानवजीवन-संबंधी मूल आशय या विधान के साथ सुसंगत होता है ।
परन्तु, मनुष्य की चेतना में एक ऐसी चीज भी है जिसे इस नियम की चौखट के अन्दर नहीं कसा जा सकता; जगत् के एक अन्य तत्त्व, एक आभ्यंतरिक सत्तत्व पर भी उसकी श्रद्धा है जो उसकी अंतरात्मा के विकास के साथ-साथ अधि-काधिक बढ़ती जाती है । इस आभ्यंतरिक सत्तत्व में सत्ता का सत्य प्रकृति नहीं, आत्मा है, इसमें प्रकृति की अपेक्षा पुरुष ही अधिक सत्य है । स्वयं प्रकृति आत्मा की शक्ति के सिवा और कुछ नहीं, वह पुरुष की ही एक शक्ति है । एक आत्मा, एक पुरुष, एक सत्, जो सबके अन्दर एक ही है, इस जगत् का स्वामी है; यह जगत् उसकी एक आंशिक अभिव्यक्ति मात्र है । वह पुरुष ही प्रकृति तथा इसके कर्म का भर्ता है, वही अनुमंता है, उसकी अनुमति से ही प्रकृति का कानून चलता है तथा इसकी शक्ति अपनी नाना प्रणालियों के द्वारा कार्य करती है । इसके अन्दर अवस्थित वह परम पुरुष ही ज्ञाता है जो इसे आलोकित करता तथा हमारे अन्दर चेतन बनाता है; उसीका अंतर्यामी और अतिचेतन संकल्प इसकी
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क्रिया-प्रवृत्ति को प्रेरित और परिचालित करता है । मनुष्य की अंतरात्मा इन्हीं भगवान् का एक अंश है और अतएव वह अपनी प्रकृति में भी इन्हीं के समान है । हमारी प्रकृति हमारी अंतरात्मा की ही अभिव्यक्ति है, इसी की अनुमति से कार्य करती है और अपनी क्रियाओं, अपने रूपों एवं परिवर्तनों में वह इसके गूढ़ आत्म-ज्ञान, आत्म-चैतन्य और जीवन-संकल्प को ही मूर्तिमंत करती है ।
हमारी वास्तविक सत्ता एवं आत्मा हमारी बुद्धि से छूपी हुई है, क्योंकि हमारी बुद्धि अंतर्जगत् से अनभिज्ञ है, वह एक मिथ्या ज्ञान के साथ तदाकार हो गयी है, हमारे मन-प्राण-शरीर-रूपी बाह्य यंत्न में ही तल्लीन है । परन्तु यदि मनुष्य की सक्रिय आत्म-सत्ता एक बार अपने प्राकृत करणों के साथ अपने इस तादात्म्य से पीछे हटकर अंतर्मुख हो जाय, यदि वह अपने आभ्यंतरिक सत्स्वरूप को देख सके तथा उसपर परिपूर्ण श्रद्धा रखते हुए जीवन यापन कर सके, तो उसके लिए सभी कुछ बदल जायगा, जीवन और जगत् एक अन्य ही रूप धारण कर लेंगे, कर्म एक और ही अर्थ एवं स्वरूप ग्रहण कर लेगा । तब हमारी सत्ता पहले की तरह प्रकृति की यह क्षुद्र अहंमय रचना नहीं रहेगी, बल्कि दिव्य, अवि-नाशी और आध्यात्मिक शक्ति को बृहत्ता को प्राप्त कर लेगी । हमारी चेतना तब इस सीमित और संघर्षरत मानसिक एवं प्राणिक जीव की चेतना नहीं रहेगी, बल्कि एक अनंत, दिव्य एवं आध्यात्मिक चेतना बन जायगी । हमारा संकल्प एवं कर्म भी इस सीमाबद्ध व्यक्तित्व और इसके अहंकार का संकल्प और कर्म नहीं रहेंगे, बल्कि दिव्य एवं आध्यात्मिक संकल्प और कर्म बन जायेंगे, तब विश्वगत एवं परमोच्च सत्ता, सर्वात्मा एवं परमात्मा का संकल्प एवं शक्ति ही मानव-देह के द्वारा निर्बाध रूप से कार्य करेगी ।
इसके आगे मनुष्य के अंतरस्थित भगवान्, अवतार, दिव्य गुरु का संदेश यह है कि ''यही वह महान् परिवर्तन एवं रूपांतर है जिसके लिए मैं चुने हुए लोगों का अह्वान करता हूँ, और चुने हुए वे सभी हैं, जो अपने संकल्प को प्राकृत करणों के अज्ञान से हटाकर अंतःपुरुष के गभीरतम अनुभव की ओर, आभ्यंतरिक सत्ता एवं आत्मा के सम्बन्ध में उसके ज्ञान की ओर, भगवान् के साथ उसके संपर्क तथा उनमें प्रवेश करने की उसकी शक्ति की ओर फेर सकते हैं । चुने हुए वे सभी हैं जो इस श्रद्धा एवं इस महत्तर विधान को स्वीकार कर सकते हैं । निःसंदेह, इसे स्वीकार करना मानव-बुद्धि के लिए एक कठिन कार्य है क्योंकि वह सदैव अपनी ही अज्ञानजन्य धूमिल रचनाओं एवं अपूर्ण आलोकों में तथा मनुष्य के मानसिक, स्नायविक एवं भौतिक भागों के और भी तमसाच्छन्न अभ्यासों में आसक्त रहती है; परन्तु एक बार यदि इसे ग्रहण कर लिया जाय तो यह एक महान्, सुनिश्चित
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एवं उद्धारक मार्ग है, क्योंकि यह मनुष्य की सत्ता के वास्तविक सत्य के साथ एक और अभिन्न है और उसकी अंतरतम एवं परमोच्च प्रकृति की यथार्थ प्रेरणा है ।
''परन्तु यह एक अति महान् परिवर्तन है, एक बड़ा भारी रूपांतर है और इसे तुम अपनी समस्त सत्ता और प्रकृति को पूर्ण रूप से मोड़े तथा बदले बिना संपन्न नहीं कर सकते । इसके लिए तुम्हें अपनी सत्ता अपनी प्रकृति और अपने जीवन को, पूर्ण रूप से, केवल परम देव के प्रति समर्पित करना होगा, उनके सिवा और किसी के भी प्रति नहीं, क्योंकि तुम्हें सभी कुछ केवल परम देव ही के लिए रखना होगा; किसी भी वस्तु को केवल उसी रूप में ग्रहण करना होगा जिस रूप में वह भगवान् के अन्दर है, उसे केवल भगवान् के एक आकार के रूप में तथा उन्हीं के निमित्त स्वीकार करना होगा । एक नूतन सत्य को ग्रहण करना होगा; अपने और दूसरों के संबंध में, जगत् और परमेश्वर तथा जीव और प्रकृति के संबंध में एक नये ज्ञान की ओर, एकत्व के ज्ञान की ओर, विश्वगत भगवत्सत्ता के ज्ञान की ओर तुम्हें अपने मन को पूर्ण रूप से मोड़ना होगा, अर्पित कर देना होगा । प्रारम्भ में तो वह ज्ञान एक बौद्धिक स्वीकृति ही होगा, पर अंत में वह अवश्य ही एक अंतर्दर्शन, एक चैतन्य आत्मा की एक स्थायी अवस्था तथा उसकी क्रियाओं का आधार बन जायगा ।
''एक ऐसे संकल्प की आवश्यकता होगी जो इस नये ज्ञान, अंतर्दर्शन एवं चैतन्य को कर्म का प्रेरक, एकमात्र प्रेरक बना दे । और इसे केवल एक ऐसे कर्म का ही प्रेरक नहीं बनना होगा जो कुंठित एवं सीमाबद्ध हो, प्रकृति की कुछ एक आवश्यक क्रियाओं तक या एक प्रथानुगत में सहायक प्रतीत होनेवाले कुछ एक कार्यों तक ही सीमित हो, धार्मिक प्रवृत्ति या वैयक्तिक मोक्ष के साथ संगत हो, बल्कि इसे मानवजीवन के समस्त कर्मों का प्रेरक बनना होगा, जीवन के सभी कर्मों को तब समत्व-भावना के साथ अपनाकर भगवान् के लिए तथा सर्व-भूतों के हित के लिए संपन्न करना होगा । इसी प्रकार हृदय को भी परम देव के प्रति एक अनन्य अभीप्सा के रूप में, अनन्य भगवत्प्रेम एवं अनन्य भगवद्धक्ति के रूप में ऊपर उठाना होगा । और साथ ही उसे प्रशांत एवं आलोकित करके विशाल भी बनाना होगा जिससे वह सर्वभूतों में परमेश्वर का आलिंगन कर सके । मनुष्य की सामान्य अभ्यस्त प्रकृति को, जिसमें वह आज निवास करता है, परम और दिव्य आध्यात्मिक प्रकृति में परिणत करना होगा । एक शब्द में, एक ऐसे योग की आवश्यकता होगी जो एक ही साथ पूर्ण ज्ञान का योग, पूर्ण संकल्प एवं उसके कर्मों का योग, पूर्ण प्रेम, भक्ति और आराधना का योग और समस्त
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सत्ता तथा उसके सभी भागों, अवस्थाओं, शक्तियों एवं गतियों की पूर्ण आध्यात्मिक सिद्धि का योग होगा ।
''तो फिर वह ज्ञान कौन-सा है जिसे बुद्धि के द्वारा स्वीकार करना होगा, अंतरात्मा की श्रद्धा के द्वारा परिपुष्ट करना होगा और मन, हृदय एवं प्राण के प्रति सत्य और जीवंत-जाग्रत् बनाना होगा ? वह परम पुरुष एवं परमात्मा को उनके एकत्वमय और समग्र रूप में जानना है । वह उन एकमेव का ज्ञान है जो नित्य-सनातन हैं, देशकाल, नाम-रूप और जगत्-प्रपंच से परे हैं, अपने वैयक्तिक और निर्व्यक्तिक. स्तरों से बहुत ही ऊपर स्थित हैं और फिर भी वे ऐसे हैं जिनसे यह सब उद्भूत होता है, वह एकमेव हैं जिन्हें वह सब कुछ नानाविध प्रकृति तथा इसके अनगिनत आकारों में अभिव्यक्त करता है । वह उन्हें इस रूप में जानना है कि वे निर्व्यक्तिक, नित्य, अक्षर अध्यात्मसत्ता हैं, वह शांत नि:सीम वस्तु हैं जिसे हम आत्मा कहते हैं, अनंत सम और सदा एकरस हैं, इस सब अनवरत परिवर्तन के बीच, इन अनेकानेक व्यष्टि-सत्ताओं, अध्यात्म-शक्तियों एवं प्रकृति-शक्तियों के बीच और इस दृश्यमान अनित्य जगत् के रूपों, शक्तियों एवं घटनाओं के बीच अप्रभावित, अविकृत एवं अपरिवर्तित ही रहते हैं । साथ ही वह उन्हें इस रूप में जानना है कि वे एक शक्तिमय पुरुष हैं जो प्रकृति में नित्य परिवर्तनशील प्रतीत होते हैं, एक घटघटवासी पुरुष है जो हर प्रकार का रूप ग्रहण करते हैं और अपनी शक्ति के प्रत्येक स्तर, उसकी प्रत्येक मात्रा एवं क्रिया के अनुरूप अपनेको परिवर्तित करते हैं, एक ऐसे पुरुष हैं जो, यहाँ जो कुछ भी है उस सबसे सदा अनंतगुना अधिक होते हुए भी इन सब वस्तुओं का रूप धारण किए हुए हैं तथा मनुष्य और पशु में, प्रत्येक पदार्थ में, विषय और विषयी में, आत्मा, मन, प्राण और देह में, प्रत्येक सत्ता, प्रत्येक शक्ति और प्रत्येक प्राणी में विराजमान हैं ।
''सत्य के किसी एक या दूसरे पहलू पर ही बल देते हुए तुम इस योग की साधना नहीं कर सकते । जिन भगवान् को तुम प्राप्त करना चाहते हो, जिस आत्मा को तुम ढूँढ़नाढ चाहते हो, जिन परम पुरुष का सनातन अंश ही तुम्हारी अंतरात्मा है, वे एक ही साथ ये तीनों हैं; इन सबको तुम्हें इनके परम एकत्व में एक ही साथ जानना होगा, इन सबमें एक ही साथ प्रवेश करना होगा तथा सभी अवस्थाओं एवं सभी वस्तुओं में एकमात्र उन्हीं को देखना होगा । यदि वे केवल प्रकृतिगत क्षर पुरुष ही हों तो केवल एक शाश्वत विश्वव्यापी संभूति ही संभव होगी । यदि तुम अपनी श्रद्धा और ज्ञान इस एक ही रूप तक सीमित रखो, तो तुम अपने व्यक्तित्व तथा इसके नित्य-परिवर्तनशील रूपों से परे कभी नहीं जा सकोगे; ऐसे आधार
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पर स्थित रहते हुए तो तुम पूरी तरह से प्रकृति के चक्रों में ही फँसे रहोगे । परंतु तुम कालचक्र में क्षणिक चैतन्य-परंपरा मात्र नहीं हो । तुम्हारे अंदर एक निर्व्यक्तिक आत्मा है जो तुम्हारे व्यष्टि-जीवन के प्रवाह को धारण करता है और परमेश्वर की विशाल एवं निर्व्यक्तिक सत्ता के साथ एकमय है । और फिर इस निर्व्यक्तिक और सव्यक्तिक भाव से परे तुम अपरिमेय हो, अपनी ऐहिक सत्ता के इन दो चिरंतन ध्रुवों पर प्रभुत्व रखते हुए तुम एक शाश्वत परात्पर सत्ता में शाश्वत और परात्पर हो ।
''और फिर यदि केवल एक ऐसा सनातन निर्व्यक्तिक आत्मा ही सत्य हो जो न तो कर्म करता है और न सृष्टि, तब तो जगत् और तुम्हारी अंतरात्मा केवल भ्रम ही होंगे जिनका कोई वास्तविक आधार नहीं रहेगा । यदि तुम अपनी श्रद्धा और ज्ञान को केवल इसी रूप तक सीमित रखो तो जीवन और कर्म का त्याग ही तुम्हारी एकमात्र शरण होगा । परन्तु इस जगत् में भगवान् भी वास्तविक सत्य हैं और तुम भी वास्तविक सत्य हो; जगत् और तुम उन पुरुषोत्तम भगवान् की सच्ची और वास्तविक शक्तियाँ एवं अभिव्यक्तियाँ हो । अतएव जीवन और कर्म को अपनाओ, इनका त्याग मत करो । अपने निर्व्यक्तिक आत्मा एवं सत्स्वरूप में भगवान् के साथ एक होकर, तुम्हारी व्यष्टिभूत अध्यात्मसत्ता का अपने 'अनंत' के प्रति जो प्रेम एवं भक्तिभाव है उसके द्वारा अपनी इस अध्यात्म-सत्ता को, भगवान् के इस सनातन अंश को, भगवान् की ही ओर मोड़कर, अपनी प्राकृत सत्ता को वह चीज बना दो जो बनने के लिए यह अभिप्रेत है, अर्थात् इसे तुम भगवान् के कर्मो का एक यंत्र, उनकी एक प्रणालिका एवं शक्ति बना दो । अपने सच्चे स्वरूप में यह सदा ही एक ऐसा यंत्र है, पर इस समय यह अचेतन एवं अपूर्ण रूप में तथा निम्न प्रकृति के द्वारा ही अपना कार्य करता है, इस समय इसे तुम्हारे अहंभाव के द्वारा भगवद्भाव को विकृत करने का अभिशाप प्राप्त है । इसे सचेतन एवं पूर्ण रूप से, अहं के द्वारा किसी भी प्रकार विकृत किए बिना, भगवान् की परा अध्यात्म-प्रकृति की एक शक्ति बनाओ, उनके संकल्प तथा कर्मों का वाहन बनाओ । इस प्रकार तुम अपनी सत्ता के समग्र सत्य में निवास करोगे और पूर्ण भगवन्मिलन लाभ करोगे, समग्र एवं अविकल योग (सायुज्य ) लाभ करोगे |
'' परमोच्च देव हैं पुरुषोत्तम, वे समस्त अभिव्यक्ति से परे एक सनातन सत्ता हैं, वे एक नि:सीम सत् हैं-देश-काल या निमित्त के द्वारा अथवा अपने असंख्य गुणों एवं लक्षणों में से किसी के द्वारा किसी भी प्रकार सीमाबद्ध नहीं होते । परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि अपनी परम शाश्वत सत्ता में वे इहलोक में घटन-
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वाली किसी भी घटना से संबद्ध नहीं जगत् तथा प्रकृति से विच्छिन्न हैं, इन सब भूतों से अलग-थलग हैं । वे परम अनिर्वचनीय ब्रह्म हैं, वे निर्व्यक्तिक आत्मा हैं, और वही ये सब व्यष्टिभूत सत्ताएँ भी हैं । विश्वगत आत्मा, प्राण और जड़तत्त्व, जीव और प्रकृति तथा प्रकृति के कर्म उनकी अनंत एवं सनातन सत्ता के विभिन्न रूप और व्यापार है । वे परमोच्च परात्पर परमात्मा हैं और सब कुछ उन्हीं से अभिव्यक्त होता है, सभी उन्हीं के रूप एवं उन्हीं की आत्म-शक्तियाँ हैं । एकमेव आत्मा के रूप में वे यहाँ सर्वव्यापक हैं; मनुष्य और पशु में, वस्तु और विषय में तथा प्रकृति की प्रत्येक शक्ति में सम और निर्व्यक्तिक रूप से विद्यमान हैं । वे परम पुरुष हैं और सभी पुरुष उन एक पुरुष की अनिर्वाण स्फुलिंग हैं । सभी प्राणी अपनी व्यष्टिभूत अध्यात्म-सत्ता में एक ही पुरुष के अविनाशी अंश हैं । वे समस्त व्यक्त जगत् के शाश्वत प्रभु हैं, सब लोकों तथा उनके सब प्राणियों के ईश हैं । वे सभी कर्मों के सर्वशक्तिमान् प्रवर्त्तक हैं, ऐसे प्रवर्त्तक जो अपने कर्मों से बंधते नहीं, और साथ ही समस्त कर्म, तप और यज्ञ उन्हीं को पहुँचते हैं । वे सबमें है और सब उनमें हैं; वही यह सब कुछ बने हैं और फिर भी वे इस सबसे ऊपर हैं और अपनी बनाई सृष्टि से बँधे हुए नहीं । वे विश्वातीत भगवान् हैं; वे अवतार के रूप में अवतरित होते हैं; अपनी शक्ति के द्वारा वे विभूति में प्रकट हुए हैं; वे प्रत्येक मानव-जीव में गुप्त रूप से विराजमान परमेश्वर हैं । जिन देवताओं को मनुष्य पूजते हैं वे सभी उन्हीं एक भगवान् के व्यष्टि-भाव, विभिन्न नाम और रूप एवं मनोमय शरीर मात्र हैं ।
''पुरुषोत्तम भगवान् ने अपने मूल आत्म-तत्त्व से तथा अपनी अनंत सत्ता में इस जगत् को व्यक्त किया है और इस जगत् में अपने-आपको भी नाना प्रकार से प्रकट किया है । सभी चीजें उनकी शक्तियाँ एवं आकृतियाँ हैं और उनकी शक्तियों एवं आकृतियों का कोई अंत नहीं, क्योंकि वे स्वयं अनंत हैं । एक सर्वव्यापक एवं सर्वाधार निर्व्यक्तिक स्वयंभू सत्ता के रूप में वे इस कालगत अनंत अभिव्यक्ति को एवं इस विश्व को समभाव के साथ धारण करते और अनुप्राणित करते हैं, किसी व्यक्ति, वस्तु, घटना या आकृति के प्रति किसी प्रकार का पक्ष-पात, अनुराग या आसक्ति रखे बिना सभी को एक समान धारण करते और अनु-प्राणित करते हैं । यह शुद्ध और सम आत्मा कर्म नहीं करता, बल्कि केवल जगत् के समस्त कर्म को निष्पक्ष भाव से धारण किए रहता है । और फिर भी वे परम आत्मा ही विश्व-पुरुष और काल-पुरुष के रूप में जगत्-कर्म का संकल्प करते हैं और वही अपनी बहुविध सर्जनशक्ति के द्वारा, अपनी प्रकृति-नामक शक्ति के द्वारा, उस कर्म का निर्धारण और परिचालन करते हैं । वे ही अपनी
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रची हुई इस सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के कर्त्ता हैं । वे प्रत्येक प्राणी के हृदय में भी विराजमान हैं और वहाँसे वे व्यक्ति के अन्दर विद्यमान एक गुप्त शक्ति के रूप में उसी प्रकार कार्य करते हैं जिस प्रकार वे समस्त विश्व की अंतर्यामी सत्ता के रूप में कार्य करते हैं वहीं से वे प्रकृति को शक्ति के द्वारा सब कुछ का प्रवर्तन करते हैं, प्रकृति के गुण में और उसकी कर्मशक्ति में अपने रहस्य की कोई धारा प्रकट करते हैं, प्रत्येक पदार्थ एवं प्राणी को पृथक्-पृथक् उसकी विशिष्ट जाति के अनुसार गठित करते हैं और समस्त कर्म का सूत्रपात करते एवं उसे धारण करते हैं । इस प्रकार, वे परमात्मा ही इस जगत् के विश्वातीत आदि प्रवर्तक है और वही वस्तुओं तथा प्राणियों में समष्टिगत तथा व्यष्टिगत रूप से अपने-आपको निरन्तर प्रकट करते रहते हैं, ठीक यही तथ्य जगत् के स्वरूप की जटिलता का कारण है ।
''परम पुरुष भगवान् की ये तीन नित्य और शाश्वत अवस्थाएँ हैं । प्रथम, सदा और सर्वकाल में उनकी यह एकमेव, नित्य, अक्षर, स्व-प्रतिष्ठ सत्ता विद्यमान रहती है जो सभी सत् पदार्थों का आधार एवं आश्रय है । दूसरे, सदा और सर्वकाल में यह प्रकृतिस्थ क्षर पुरुष भी विद्यमान रहता है जिसे प्रकृति इन सब भूतों के रूप में प्रकट करती है । तीसरे, सदा और सर्वकाल में ये विश्वातीत पुरुषोत्तम भी विद्यमान रहते हैं जो एक ही साथ शेष दोनों-क्षर और अक्षर-रूप धारण कर सकते हैं, शुद्ध और नीरव पुरुष भी बन सकते हैं और सृष्टि-चक्रों के क्रियाशील आत्मा और प्राण भी, क्योंकि वे इन दोनों से इतर और अधिक 'कुछ' हैं, भले ही इन्हें पृथक् रूप में लिया जाय या एक साथ । हमारे अंदर है जीव जो इन परमात्मा की अंशभूत आत्मा है, पुरुषोत्तम की एक चेतन शक्ति है । यह जीव वह पुरुष है जो अपनी गभीरतम सत्ता में अंतर्यामी भगवान् को समग्र रूप से वहन करता है और जो प्रकृति के अन्दर विश्वमय भगवान् में निवास करता है, --यह कोई क्षणस्थायी रचना नहीं है बल्कि एक शाश्वत आत्मा है जो सनातन परमात्मा में, सनातन अनंत में कर्म करती और विचरण करती है ।
''हमारे अन्दर रहनेवाला यह चेतन जीव परम पुरुष की इन तीन अवस्थाओं में से किसी को भी ग्रहण कर सकता है । मनुष्य चाहे तो यहाँ प्रकृति के क्षर-भाव में और केवल क्षरभाव में ही निवास कर सकता है । तब वह अपनी वास्तविक आत्मा से, अपने अंत:स्थ भगवान् से अनभिज्ञ रहता हुआ केवल प्रकृति को ही जानता है : वह देखता है कि प्रकृति एक यंत्रवत् कार्य करनेवाली सर्जन-शील शक्ति है और मैं तथा अन्य सभी इसी की रचनाएँ हैं,--इसी के बनाये जगत् में भिन्न-भिन्न अहं हैं, पृथक्-पृथक् सत्ताएँ हैं । इस प्रकार एक स्थूल दृष्टि के
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साथ ही वह आज जीवन यापन करता है और जबतक स्थिति ऐसी ही रहेगी एवं जबतक वह इस बाह्य चेतना को अतिक्रम करके अपने अन्दर की सत्ता को नहीं जानेगा, तबतक उसका सब चिंतन एवं विज्ञान पर्दों और ऊपरी सतहों पर पड़ने-वाली प्रकाश की एक छाया ही हो सकते हैं । इस प्रकार का अज्ञान संभव हुआ है, यहाँतक कि यह हमपर लद गया है, क्योंकि अंतरस्थ भगवान् अपनी ही माया-शक्ति के आवरण के द्वारा प्रच्छन्न हैं । उनका महत्तर सत्स्वरूप हमारी दृष्टि से छुपा रहता है, क्योंकि उन्होंने अपनी आंशिक अभिव्यक्ति में अपने ही रचे हुए पदार्थों एवं रूपों के साथ अपने-आपको पूर्ण रूप से तदाकार कर रखा है तथा अपने रचे हुए मन को अपनी ही प्रकृति की प्रतारक क्रियाओं में पूर्णत: निमग्न कर रखा है । और यह अज्ञान इसलिए भी सम्भव हुआ है कि जो वास्तविक, सनातन अध्यात्म-प्रकृति वस्तुओं के निज स्वरूप का निगूढ़ रहस्य है वह उनके बाह्य रूपों में प्रकटित नहीं है । जो प्रकृति हमें बाहर की ओर दृष्टि डालने पर दिखलाई देती है, जो प्रकृति हमारे मन, देह और इंद्रियों में कार्य करती है, वह एक निम्न शक्ति है, किसी अन्य शक्ति से उत्पन्न हुई है, वह एक जादूगरनी है जो आत्मा के आकारों की सृष्टि करती है किन्तु उसे उसके अपने ही आकारों में छिपाए रखती है, सत्य को छुपाए रखकर लोगों को केवल आवरण ही दिखलाती है । वह एक ऐसी शक्ति है जो भगवान् की अभिव्यक्ति के गौण एवं हीन रूपों का ही प्रदर्शन कर सकती है, उसकी पूर्ण शक्ति, महिमा, मधुरिमा और उन्मादना का नहीं । हममें यह जो प्रकृति है वह अहंभाव की एक माया है, द्वंद्वों का एक गोरखधंधा है, अविद्या और त्निगुण का एक जाल है । और जबतक मनुष्य का अंत:पुरुष मन, प्राण और देहरूपी बाह्य सत्ता में ही निवास करता है, अपनी आत्मा एवं अध्यात्म-सत्ता में नहीं, तबतक वह परमेश्वर, अपने-आप और जगत् के वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार नहीं कर सकता, इस माया को पार नहीं कर सकता, बल्कि तबतक तो उसे वही करना पड़ेगा जो कुछ कि वह इस माया की अवस्थाओं एवं इसके रूपों के द्वारा कर सकता है ।
''अपनी प्रकृति की जिस निम्न गति में मनुष्य आज निवास करता है उससे पीछे हटकर यदि वह अंतर्मुख हो जाय तो वह प्रकाश के रूप में दिखाई देनेवाले इस अंधकार से जाग उठ सकता है और नित्य एवं अक्षर स्वयंस्थित सत्ता के ज्योति- र्मय सत्य में निवास कर सकता है । तबसे वह अपने व्यक्तित्व की संकीर्ण कारा में नहीं बंधा रहता, तबसे वह अपनेको यह क्षुद्र अहं नहीं समझता जो विचार, कर्म और वेदन करता है तथा जरा-सी चीज के लिए इतना संघर्ष और प्रयास करता है । वह शुद्ध आत्मा की मुक्त एवं विशाल निर्व्यक्तिकता में निमज्जित हो जाता
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है; वह ब्रह्म बन जाता है; वह अपनेको सर्वभूतस्थित एकमेव आत्मा के साथ एक जान लेता है । तब फिर उसे अपने अहं का ज्ञान नहीं रहता, तबसे वह द्वंद्वों से व्यथित नहीं होता, दुःख की टीस या हर्ष की हलचल अनुभव नहीं करता, कामना से चलायमान नहीं होता, पाप से परितृप्त या पुण्य से परिसीमित नहीं होता । अथवा यदि इन चीजों की कुछ झलक बची भी रहती है तो इन्हें वह यों देखता और समझता है कि ये केवल प्रकृति हैं जो अपने गुणों के द्वारा कार्य कर रही है, इन्हें वह अपना वह सत्य स्वरूप नहीं अनुभव करता जिसमें कि वह अब निवास करता है । केवल प्रकृति ही कार्य करती है तथा अपनी यंत्रसम आकृतियों का निर्माण करती हे : किन्तु शुद्ध आत्मा निश्चल-नीरव है, निष्क्रिय और मुक्त है । अविचल और उसके कर्मों से अलिप्त रहती हुई वह उन्हें पूर्ण समता के साथ देखती है और अपने-आपको इन चीजों से भिन्न जानती है । यह आध्यात्मिक स्थिति अपने साथ अविचल शान्ति और मुक्ति तो लाती है किन्तु सक्रिय दिव्यता नहीं, सर्वांगीण पूर्णता नहीं; यह एक महान् पग अवश्य है किन्तु यह समग्र ईश्वर-ज्ञान एवं समग्र आत्म-ज्ञान नहीं है ।
' 'सर्वांगीण पूर्णता तो परम और समग्र भगवान् में निवास करने से ही प्राप्त हो' सकती है । तब मनुष्य की अंतरात्मा भगवान् के साथ, जिनका वह एक अंश है, एक हो जाती है; तब वह आत्मा एवं अध्यात्मसत्ता में सब भूतों के साथ एक हो जाती है, ईश्वर और प्रकृति दोनों में उनके साथ एक हो जाती है; तब वह केवल मुक्त ही नहीं बल्कि पूर्ण भी होती है, परम आनंद में निमग्न तथा अपनी चरम पूर्णता के लिए प्रस्तुत होती है । तब भी मनुष्य आत्मा को इस रूप में देखता है कि यह एक नित्य और निर्विकार पुरुष है जो सभी वस्तुओं को शांत भाव से धारण करता है; साथ ही वह प्रकृति को भी इस रूप में देखता है कि यह अब और केवल एक ऐसी यांत्रिक शक्ति नहीं है जो त्रिगुण की मशीनरी ही के अनुसार सब कार्य करती हो, बल्कि यह आत्मा की ही एक शक्ति है, अभिव्यक्तिगत भगवान् की एक शक्ति है । वह देखता है कि अपरा प्रकृति आत्मा के कर्म का अंतरतम सत्य नहीं है; वह भगवान् की परा अध्यात्म-प्रकृति को जान जाता है, वह देखता है कि जो कुछ आज मन, प्राण और शरीर में अपूर्ण रीति से रूपायित है उस सबका उद्गम उस भगवती प्रकृति में निहित है और साथ ही उस सबका वह महत्तर सत्य भी जो अभी हमें उपलब्ध करना है, वहीं है । निम्न मानसिक प्रकृति से इस परम अध्यात्म-प्रकृति में उठकर वह समस्त अहंकार से मुक्त हो जाता है । वह जान जाता है कि मैं एक आध्यात्मिक सत्ता हूँ, अपने मूल स्व-रूप में सर्वभूतों के साथ एक हूँ और अपनी सक्रिय प्रकृति में एकमेव भगवान् की
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एक शक्ति तथा विश्वातीत अनंत का अंशभूत एक सनातन जीव हूँ । वह सबको ईश्वर में और ईश्वर को सबमें देखता है; वह सभी वस्तुओं को वासुदेव के रूप में देखता है । वह हर्ष-शोक, प्रिय-अप्रिय, आशा-निराशा तथा पाप-पुण्य के द्वंद्वों से मुक्त हो जाता है । उसके बाद से उसकी चैतन्यमय दृष्टि एवं अनुभूति के निकट सभी कुछ भगवान् की इच्छा और क्रिया ही बन जाता है । वह विश्व-चेतना और विश्व-शक्ति के एक स्फुलिंग और अंश के रूप में जीवन यापन करता तथा कर्म करता है; वह लोकोत्तर दिव्य आनंद किंवा आध्यात्मिक आनंद से परिपूरित हो उठता है । उसका कर्म दिव्य कर्म और उसका पद उच्चतम अध्यात्म-पद बन जाता है ।
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''यही है समाधान, यही है मुक्ति और यही है सिद्धि, जो लोग अपने अन्तर में दिव्य वाणी श्रवण कर सकते हैं तथा इस श्रद्धा और ज्ञान को उपलब्धि में समर्थ हैं उन सबको मैं जो कुछ प्रदान करता हूँ वह यही है । परन्तु इस सर्वोच्च अवस्था तक आरोहण करने के लिए सर्वप्रथम आवश्यक शर्त, आदि और मूल सोपान यह है कि जो चीजें तुम्हारी निम्न प्रकृति से संबंध रखती हैं उन सबसे पीठ फेर लो और अपनी बुद्धि एवं संकल्पशक्ति की एकाग्रता के द्वारा अपने-आपको उस वस्तु पर स्थिर करो जो संकल्प और बुद्धि दोनों से उच्च है तथा मन, हृदय, इंद्रिय-गण और शरीर से भी उच्च है । और सबसे पहले तुम्हें अपने नित्य और अक्षर आत्मा की ओर मुड़ना होगा जो निर्व्यक्तिक है तथा सभी प्राणियों में एक ही है । जबतक तुम अहं तथा मानसिक व्यक्तित्व में निवास करते हो तबतक तुम सदा अंतहीन रूप से एक ही जगह चक्कर काटते रहोगे और तबतक कोई वास्तविक निस्तार संभव नहीं । अपने संकल्प को हृदय तथा उसकी कामनाओं और इंद्रियों तथा उनके आकर्षणों से परे अंदर की ओर फेर ले जाओ; इसे मन तथा उसके संस्कारों एवं आसक्तियों से तथा उसकी सीमाबद्ध इच्छा, विचार एवं आवेग से परे ऊपर की ओर उठा ले जाओ । अपने अंदर एक ऐसी वस्तु प्राप्त कर लो जो सनातन है, नित्य-अपरिवर्तनीय, शांत, अविचल और सम है, सब वस्तुओं, व्यक्तियों और घटनाओं के प्रति पक्षपातशून्य है, किसी कर्म से प्रभावित नहीं होती, प्रकृति के रूपों के द्वारा परिवर्तित नहीं होती । वही वस्तु बन जाओ, सनातन आत्मा बनो, ब्रह्म बनो । यदि तुम एक स्थायी आध्यात्मिक अनुभूति के द्वारा वही वस्तु बन सको तो तुम्हें एक विश्वस्त आधार मिल जायगा जिसपर स्थित होकर तुम अपने मनोनिर्मित व्यक्तित्व की सीमाओं से मुक्त रह सकोगे,
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वहाँ शान्ति और ज्ञान से च्युत होने का कोई खतरा नहीं रहेगा, अहं का कोई बंधन नहीं रहेगा ।
''जबतक तुम अपने अहंकार को या उससे संबंध रखनेवाली किसी भी चीज को पालते-पोसते रहोगे तथा उससे चिपके रहोगे तबतक तुमसे अपनी सत्ता को इस प्रकार निर्व्यक्तिक नहीं बना सकते । कामना तथा इससे उत्पन्न होनेवाले आवेग अहंकार की मुख्य निशानी और गाँठ हैं । यह कामना ही तुमसे 'मैं' और 'मेरा' कहलाती रहती है और एक दृढ़मूल अहंभाव के द्वारा तुम्हें तृप्ति और अतृप्ति, रुचि और अरुचि, आशा और निराशा, हर्ष और शोक के वश में कर देती है, क्षुद्र राग और द्वेष, क्रोध और क्षोभ, सफलता तथा अप्रिय वस्तुओं के प्रति आसक्ति, विफलता तथा अप्रिय वस्तुओं से उत्पन्न शोक-संताप-इन सब विकारों के अधीन कर देती है । कामना सदा ही मन में भ्रांति और संकल्प मै संकीर्णता लाती है, वह हमें पदार्थ मात्र का अहंमूलक और विकृत रूप ही दिखलाती है, ज्ञान को विफल और आच्छन्न कर देती है । कामना और उसके सहचारी राग और द्वेष पाप तथा प्रमाद का प्रथम मूल बीज हैं । जबतक तुम कामना को पालते-पोसते रहोगे तबतक कोई ध्रुव निष्कलुष शांति एवं स्थिर ज्योति नहीं प्राप्त हो सकती, कोई शांत एवं विशुद्ध ज्ञान प्रतिष्ठित नहीं हो सकती; तबतक सत्ता की यथार्थ अवस्था प्राप्त नहीं हो सकती-क्योंकि कामना मूलसत्ता की एक विकृति है-और साथ ही तबतक यथार्थ विचार, कर्म और अनुभव का दृढ़ आधार भी स्थापित नहीं हो सकता । कामना को चाहे किसी भी वेश में क्यों न रहने दिया जाय, वह बड़े-से-बड़े ज्ञानी के लिए भी एक सतत भय का कारण होती है और किसी भी क्षण वह सूक्ष्म या उग्र रूप में मन को उसकी दृढ़तम एवं निश्चिततम उपलब्ध भूमिका से भी नीचे ढकेल सकती है । कामना अध्यात्म-सिद्धि का प्रधान शत्रु है ।
''इसलिए, कामना का वध कर डालो; पदार्थों के बाह्य रूपों की प्राप्ति एवं उपभोग के प्रति आसक्ति का त्याग कर दो । जो कुछ भी बाह्य स्पर्शों एवं प्रलोभनों के रूप में, मन और इंद्रियों के विषयों के रूप में तुम्हारे पास आता है उस सबसे अपनेको जुदा करो । षड्रिपुओं के संपूर्ण वेग को सहना और त्यागना सीखो और जब वे तुम्हारे अंगों में प्रकुपित हो उठे तब भी अपनी अंतरात्मा में सुरक्षित रूप से स्थित रहने का अभ्यास करो; ऐसा तबतक करते चलो जबतक कि अंत में वे तुम्हारी प्रकृति के किसी भी भाग पर प्रभाव डालने में असमर्थ न हो जायें । इसी प्रकार हर्ष और शोक के प्रबल आक्रमणों को भी और उनके चुपके घुसनेवाले क्षुद्रतम स्पर्शों को भी सहन करो और दूर हटाओ । रुचि
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और अरुचि को परे फेंक दो, राग और द्वेष का विनाश कर डालो, संकोच और घृणा को जड़ से उखाड़ फेंकों । इन चीजों के प्रति तथा सभी काम्य वस्तुओं के प्रति तुम्हारी संपूर्ण प्रकृति में शांत उदासीनता का भाव होना चाहिए । इन सबको निर्व्यक्तिक आत्मा की शांत और नीरव दृष्टि से ही देखो ।
''इसका परिणाम होगा वह पूर्ण समता तथा अचल शांति की शक्ति जिसे विश्वात्मा अपने सृष्टिचक्र के सम्मुख सुरक्षित रखते हैं और जिसे वे सदैव प्रकृति के नानाविध कर्मप्रपंच के सामने रहते हुए भी अटूट बनाये रखते हैं । सम दृष्टि से देखो; जो कुछ भी तुम्हें प्राप्त हो उस सबको, सफलता और विफलता को, मान और अपमान को, मनुष्यों की प्रशंसा एवं प्रीति को और उनके घृणा-द्वेष तथा अत्याचार को, ऐसी प्रत्येक घटना को जो दूसरों के लिए हर्ष-जनक होती है और ऐसी प्रत्येक घटना को भी जो दूसरों के लिए शोकजनक होती है, समचित्त और समबुद्धि होकर ग्रहण करो । सभी मनुष्यों को, सज्जन और दुर्जन, ज्ञानी और मूढ़ एवं ब्राह्मण और चंडाल को, ऊँचे-से-ऊँचे मनुष्य को और क्षुद्र-से-क्षुद्र जीव-जंतु को सम दृष्टि से देखो । सब मनुष्यों से समभाव के साथ मिलो, भले ही तुम्हारे साथ उनके संबंध कैसे भी क्यों न हों, भले ही वे सुह्रत्, मित्र, तटस्थ और उदासीन हों या विरोधी और वैरी, स्नेही हों या द्वेषी । ये चीजें अहं को स्पर्श करती हैं किंतु तुम्हारे लिये आदेश यह है कि तुम अहंकार से मुक्त होओ । ये सब वैयक्तिक संबंध हैं किंतु तुम्हें सब कुछ निर्व्यक्तिक आत्मा की गभीर दृष्टि से देखना होगा । ये सब कालगत और व्यक्तिगत भेद हैं, इनपर तुम्हें दृष्टिपात तो करना होगा पर इनसे प्रभावित नहीं होना होगा; क्योंकि तुम्हें अपनी दृष्टि इन भेदों पर नहीं बल्कि उस वस्तु पर स्थिर करनी होगी जो सबमें एक ही है, उस एकमेव आत्मा पर जो ही सब कोई है, उन भगवान् पर जो प्रत्येक जीव में विराजमान हैं; तुम्हें अपनी दृष्टि प्रकृति की उस एक क्रिया पर स्थिर करनी होगी जो मनुष्यों और पदार्थों में, शक्तियों और घटनाओं में, समस्त प्रयत्न और फल में तथा जगत्-प्रयास के प्रत्येक परिणाम में भगवान् की ही एक सम इच्छा की अभि-व्यक्ति है ।
''कर्म तुम्हारे अंदर फिर भी चलता रहेगा, क्योंकि प्रकृति सदा ही कार्य करती रहती है; परंतु तुम्हें यह जानना और अनुभव करना होगा कि तुम्हारी आत्मा कर्म की कर्त्री नहीं है । केवल देखते जाओ, बिना विचलित हुए देखते रहो प्रकृति की कार्यावलि, उसके गुणों का खेल, उनका जादू । अपने अंदर इस क्रिया को अविचलित भाव सै देखो; तुम्हारे चारों ओर जो कुछ किया जा रहा है उस सबका निरीक्षण करो और देखो कि दूसरों के अंदर भी यही एक क्रिया
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चल रही है । देखो कि तुम्हारे और उनके कर्मों का परिणाम तुम्हारी या उनकी इच्छा या विचार से सदा ही भिन्न होता है, यह उनकी और तुम्हारी इच्छा से निर्धारित नहीं होता, बल्कि जो महत्तर शक्ति यहाँ विश्व-प्रकृति में संकल्प और कर्म करती है वही इसे सर्वसमर्थ शक्ति के साथ निर्धारित करती है । यह भी ध्यानपूर्वक देखो कि तुम्हारे कर्मों का संकल्प भी तुम्हारा नहीं, प्रकृति का है ।, वह तुम्हारी अहंबुद्धि का संकल्प है और तुम्हारी प्राकृत गठन के प्रधान गुण के द्वारा निर्धारित होता है; प्रकृति ही वह गुण तुम्हारे अंदर अतीत काल से विकसित करती आयी है अथवा उसे इस क्षण सामने लायी है । तुम्हारा वह संकल्प तुम्हारे प्राकृत व्यक्तित्व के खेल पर निर्भर करता है और तुम्हारा यह प्रकृति-रचित व्यक्तित्व तुम्हारा सच्चा स्वरूप नहीं है । इस बाह्य रचना से पीछे हटकर अपनी आंतरिक नीरव आत्मा में प्रवेश करो; तुम देखोगे कि तुम, अर्थात् पुरुष, निष्क्रिय हो; किंतु प्रकृति अपने गुणों के अनुसार सदैव अपने कार्य करती रहती है । अपने-आपको इस आंतरिक निष्क्रियता एवं निश्चलता में स्थिर करो : आगे से अपने-आपको कर्ता मत समझो । प्रकृति के इस खेल के ऊपर, गुणों की विक्षुब्ध क्रिया से मुक्त, अपने अंदर स्थित रहो । निर्व्यक्तिक आत्मा की विशुद्ध स्थिति में सुरक्षित रहो, अपने अंगों में बारंबार उठनेवाली मर्त्य जीवन की .तरंगों से क्षुब्ध मत होओ ।
''यदि तुम ऐसा कर सको तो तुम अपनेको एक महान् विमुक्ति, विशाल स्वाधीनता और गभीर शांति में उन्नीत पाओगे । तब तुम भगवान् को जान जाओगे और अमर हो जाओगे; अपनी अनाद्यनंत स्वयंभू सत्ता को प्राप्त कर लोगे, मन, प्राण और शरीर की अधीनता से मुक्त हो जाओगे, तब तुम्हें अपनी अध्यात्म-सत्ता के संबंध में निश्चय हो जायगा, प्रकृति की प्रतिक्यिाएँ तुम्हें छू तक नहीं सकेंगी, षड्रिपुओं के आवेग का, पाप और शोक-संताप का कोई भी दाग तुमपर नहीं लगेगा । तब तुम अपने सुख और कामना-पूर्त्ति के लिए किसी नश्वर या बाह्य या सांसारिक पदार्थ पर निर्भर नहीं करोगे, बल्कि तब तुम्हें शांत और शाश्वत आत्मा का स्वयं-पूर्ण आनंद अविच्छेद्य रूप में प्राप्त रहेगा । तब तुम एक मनोमय जीव नहीं रह जाओगे, बल्कि तुम होगे एक नि:सीम आत्मा, अनंत ब्रह्म । और, अपने मन में से विचार का समस्त बीज तथा कामना का समस्त मूल निकालकर, देहजन्म-रूपी प्रतीक का त्यागकर तुम प्रयाणकाल में शुद्ध सनातन सत्ता के एकाग्र ध्यान के द्वारा तथा अनंत एवं 'केवल' ब्रह्म में अपनी चेतना के एक महत् संक्रमण के द्वारा प्रशांत आत्मा की इस नित्य सत्ता में प्रवेश कर सकोगे ।
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''परंतु यह योग का संपूर्ण सत्य नहीं है और यह लक्ष्य तथा प्रयाण का यह पथ यद्यपि एक महान् लक्ष्य तथा महान् पथ है तथापि यह वह चीज नहीं है जो मैं तुम्हारे सामने प्रस्तावित करना चाहता हूँ । क्योंकि मैं तुम्हारे अंदर शाश्वत कर्मी हूँ और तुमसे कर्मों की मांग करता हूँ । मैं यह नहीं चाहता कि तुम प्रकृति की यांत्रिक क्रिया के प्रति अपनी निष्क्रिय सहमति दे दो और अपनी आत्मा में उस क्रिया से पूर्णत: पृथक्, उदासीन और अनासक्त रहो, बल्कि मैं चाहता हूँ एक सर्वांगपूर्ण और दिव्य कर्म, जो भगवान् के एक यंत्न के रूप में स्वेच्छापूर्वक और ज्ञान के साथ किया जाय, अपनेमें तथा दूसरों में विराजमान परमेश्वर के लिए तथा जगत् के मंगल के लिए किया जाय । इसमें संदेह नहीं कि यह कर्म मैं प्रथम तो परा अध्यात्म-प्रकृति में सिद्धि लाभ करने के एक साधन के रूप में ही तुम्हारे सामने प्रस्तावित करता हूँ पर साथ ही उस सिद्धि के एक अंग के रूप में भी इसे प्रस्तावित करता हूँ । कर्म भगवान् के समय ज्ञान और उनके महत्तर गुह्य सत्य का अंग है, पूर्ण भागवत जीवन का अंग है; सिद्धि और मुक्ति प्राप्त होने के बाद भी कर्म किया जा सकता है और करते ही रहना चाहिए । मैं तुमसे जीवन्मुक्त के कर्म, सिद्ध पुरुष के कर्म की मांग करता हूँ । जिस योग का वर्णन किया जा चुका है उसमें कुछ और बात जोड़ने की आवश्यकता है--क्योंकि वह केवल प्राथमिक ज्ञान-योग था । एक ऐसा कर्मयोग भी है जिसमें कर्म ईश्वरानुभूति के प्रकाश मे किये जाते हैं; कर्मों को ज्ञान के साथ एकमय किया जा सकता है । कारण, जो कर्म पूर्ण आत्म-दर्शन और पूर्ण भगवद्दर्शन की स्थिति में किये जाते हैं, जो कर्म जगत् में भगवान् को और भगवान् में जगत् को देखते हुए किये जाते हैं वे अपने-आपमें ज्ञान की ही एक क्रिया हैं, ज्ञान-ज्योति का ही प्रवाह हैं, अध्यात्म-सिद्धि का एक अपरिहार्य साधन एवं अंतरीय अंग हैं ।
''अतएव अब उच्च निर्व्यक्तिक स्थिति की अनुभूति में यह ज्ञान भी जोड़ लो कि जिन परम पुरुष को हम शुद्ध नीरव आत्मा के रूप में प्राप्त करते हैं उन्हें हम उन विराट् क्रियाशील पुरुष के रूप में भी प्राप्त कर सकते हैं जो सब कर्मों के प्रवर्तक और सब लोकों के स्वामी हैं, मनुष्य के कर्म, पुरुषार्थ और यज्ञ के अधीश्वर हैं । यह जो प्रकृति-रूपी यंत्न आप-से-आप कार्य करता हुआ दीख पड़ता है उसके अंदर एक अंतर्वासी भगवत्संकल्प छिपा हुआ है और यह संकल्प ही उसे प्रेरित और परिचालित करता है तथा उसके उद्देश्यों का रूप निर्धारित करता है । परंतु जबतक तुम अपने व्यक्तित्व की तंग कोठरी में बंद हो, अपने अहं और उसकी कामनाओं के दृष्टिबिंदुसे अंध और बद्ध हो तबतक तुम इस संकल्पको अनुभव नहीं कर सकते और न इसे जान ही सकते हो । क्योंकि, जब तुम ज्ञान के द्वारा
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निर्व्यक्तिक स्थिति लाभ कर लेते हो और इतने विशालात्मा हो जाते हो कि सब वस्तुओं को आत्मा एवं ईश्वर में और आत्मा एवं ईश्वर को सब वस्तुओं में देखने लगते हो, केवल तभी तुम पूर्ण रूप से इस भागवत इच्छाशक्ति को प्रत्युत्तर दे सकते हो । यहाँ सब कुछ परमात्मा की शक्ति के ही द्वारा प्रकट होता है; यहाँ सभी अपने-अपने कर्म इस कारण करते हैं कि जगत् में ईश्वर अंतर्यामी रूप से उपस्थित हैं और वे प्रत्येक जीव के हृदय में भी विराजमान है । लोक-लोकांतर का स्रष्टा अपनी सृष्टि से परिसीमित नहीं होता; कर्मों का स्वामी अपने कर्मों से नहीं बंधता; भगवत्संकल्प अपने प्रयत्न तथा इसके परिणामों में आसक्त नहीं होता : क्योंकि वह सर्वशक्तिमान्, आप्तकाम और आनंदधाम है । तो भी वे जगदीश्वर अपने परात्पर पद से इस सृष्टि पर दृ ष्टिपात करते हैं; वे अवतार लेते हैं; वे यहाँ तुम्हारे अंदर भी हैं; वे अंदर से ही सब वस्तुओं पर उनकी अपनी प्रकृति की धारा के अनुसार शासन करते हैं । तुम्हें भी उन भगवान् में निवास करते हुए कर्म करने होंगे, भागवत प्रकृति की पद्धति और क्रमधारा के अनुसार, संकीर्णता, आसक्ति किंवा बंधन से विमुक्त रहते हुए कर्म करने होंगे । सबके परम मंगल के लिए कर्म करो, जगत् की प्रगति को जारी रखने के लिये कर्म करो, लोगों की सहायता या मार्गदर्शन के लिये, लोक-संग्रह के लिए कर्म करो । तुमसे मैं जो कर्म चाहता हूँ वह है मुक्त योगीका कर्म; वह भगवत्परिचालित स्वतंत्र शक्ति का स्वत:स्फूर्त प्रवाह है, समत्वयुक्त मन की गति है, नि:स्वार्थ और निष्काम कर्म है ।
''इस मुक्त, समत्वयुक्त एवं दिव्य कर्ममार्ग का प्रथम सोपान यह है कि तुम अपने अंदर से फल और पुरस्कार की आसक्ति निकाल फेंको और केवल कर्तव्य कर्म ही के लिए कर्म करो । क्योंकि, तुम्हें गहराई के साथ अनुभव करना होगा कि फल तुम्हरे नहीं बल्कि जगत्प्रभु के हैं । अपना श्रम उत्सर्ग कर दो और उसका फलाफल उन परमात्मा पर छोड़ दो जो जगद्वचापार में अपने-आपको प्रकट और चरितार्थ करते है । तुम्हारे कर्म का परिणाम एकमात्र उन्हीं की इच्छा के द्वारा निर्धारित होता है और वह चाहे जो भी हो, सौभाग्य हो या दुर्भाग्य, सफलता हो या विफलता, वह उनके द्वारा अपने जागतिक उद्देश्य की सिद्धि में सहायक बना लिया जाता है । व्यक्तिगत इच्छाशक्ति तथा संपूर्ण यंत्ररूप प्रकृति की एक पूर्णत: नि:स्वार्थ एवं निष्काम क्रिया कर्मयोग का पहला नियम है । कोई भी फल मत मांगो, जो भी फल तुम्हें दिया जाय उसे स्वीकार करो; समता और शांत प्रस- न्नता के साथ उसे ग्रहण करो : सफलता मिले या विफलता, संपत्ति आये या विपत्ति, धूम दिव्य कर्म के ढालू पथ पर निर्भीक, अक्षुव्ध, अविचलित भाव से बढ़ते जाओ ।
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''यह मार्ग के पहले कदम से अधिक कुछ नहीं । क्योंकि, तुम्हें, केवल फलों के प्रति ही अनासक्त नहीं होना होगा अपितु अपने श्रम के प्रति भी अनासक्त बनना होगा । अपने कर्मों को अपना समझना छोड़ दो; जैसे तुमने अपने कर्मों के फल उत्सर्ग कर दिये हैं, वैसे ही तुम्हें कर्म भी कर्म और यज्ञ के ईश्वर को समर्पित करना होगा । यह बात जान लो कि तुम्हारी प्रकृति ही तुम्हारा कर्म निर्धारित करती है; तुम्हारी प्रकृति ही तुम्हारे 'स्वभाव' की क्षण-क्षण की गति का नियमन करती है और वही विश्व-प्रकृति की कार्य-वाहक शक्ति के मार्गों पर तुम्हारी आत्मा की अभिव्यक्ति की प्रवृत्ति और विकास-धारा भी निश्चित करती है । किसी प्रकार की स्वेच्छा को अब और अपने अंदर स्थान मत दो, ताकि भगवन्मुख मार्ग के अनुसरण में तुम्हारा मन भ्रान्त होकर लड़खड़ाये नहीं । जो कर्म तुम्हारी प्रकृति के लिए उपयुक्त हो उसे ग्रहण करो । जो कुछ भी तुम करो उस सबको बड़े-से-बड़े तथा अत्यंत असाधारण प्रयत्न से लेकर छोटे-से-छोटे दैनिक कार्य तक को यज्ञ और तप मात्र के भोक्ता के प्रति यज्ञ का रूप दे दो, अपने मन की प्रत्येक क्रिया को, अपने हृदय की प्रत्येक गति को, अपने शरीर की प्रत्येक चेष्टा को, अंदर और बाहर की प्रत्येक प्रवृत्ति को, प्रत्येक विचार, संकल्प एवं वेदन को, प्रत्येक पग, विराम और गति को उन्हीं सर्वकर्ममहेश्वर के प्रति यज्ञ के रूप में परिणत कर दो ।
''इसके आगे यह जानो कि तुम 'सनातन' के सनातन अंश हो और तुम्हारी प्रकृति की शक्तियाँ उनके बिना कुछ नहीं हैं, उनकी आंशिक आत्म-अभिव्यक्ति के सिवा ये और कुछ भी नहीं हैं । वे अनंत भगवान् ही तुम्हारी प्रकृति में उत्तरोत्तर पूर्ण रूप से अभिव्यक्त हो रहे हैं । उन परमेश्वर की शक्ति, उनकी परम संभूति-शक्ति ही तुम्हारा स्वभाव गठित करती है और इसमें रूपायित होती है । अतएव यह भाव पूर्ण रूप से त्याग दो कि तुम कर्ता हो; यह देखो कि एकमात्र 'सनातन' ही कर्म के कर्ता हैं । अपनी प्राकृत सत्ता को शक्ति का एक निमित्त, यंत्न एवं प्रणालिका तथा अभिव्यक्ति का एक साधन बनने दो । अपनी इच्छाशक्ति उन्हें अर्पित कर दो और इसे उनकी सनातन इच्छाशक्ति के साथ एक कर दो : अपनी आत्मा एवं अध्यात्मसत्ता की नीरवता में अपने सब कर्म अपनी प्रकृति के विश्वातीत प्रभु को समर्पण कर दो । जबतक तुम्हारे अंदर किसी भी प्रकार का अहंभाव है या कोई भी मानसिक दावा या प्राणिक कोलाहल है तबतक यह सब वास्तविक रूप में संपन्न नहीं हो सकता या, कम-से-कम, पूर्ण रूप से संपन्न नहीं किया जा सकता । जो कर्म किंचित् भी मात्रा में अहं के लिए किया जाता है या जो लेश मात्र भी अहं की कामना तथा उसकी स्वेच्छा से रंगा होता है वह पूर्ण यज्ञ नहीं होता । जबतक हमारी सत्ता में कहीं भी समता का अभाव है या कहीं भी
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अज्ञानयुक्त राग-द्वेष की कोई छाप है तबतक यह महत् कार्य सम्यक्तया एवं सच्चे रूप में संपन्न नहीं हो सकता । किंतु जब तुममें सभी कर्मों, परिणामों, वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति पूर्ण समता होती है, कामना या अहं के प्रति नहीं बल्कि परम प्रभु के प्रति समर्पण होता है, तब भगवदिच्छा तुम्हारी रूपांतरित प्रकृति की पवित्न एवं सुरक्षित अवस्था में तुम्हारे सब कर्मों को बिना भूल-चूक या त्रुटि-विच्युति के निर्धारित कर देती है और साथ ही भागवत शक्ति उन्हें किसी निम्न हस्तक्षेप या बाधक प्रतिक्रिया के बिना स्वतंत्रतापूर्वक संपन्न करती है । अपने प्रत्येक कर्म को निष्कलुष, सर्वशक्तिमय भगवदिच्छा के द्वारा निर्धारित एवं संपादित होने देना ही कर्म-योग की सिद्धि की पराकाष्ठा है । यह सिद्धि प्राप्त हो जाने पर तुम्हारी प्रकृति पुरुषोत्तम के साथ पूर्ण एवं सतत सायुज्य में अपने विश्वमार्ग का अनुसरण करेगी, परम पुरुष को अभिव्यक्त करेगी, ईश्वर की आज्ञा का पालन करेगी ।
''दिव्य कर्मों का यह मार्ग जीवन और कर्मों के बाह्य त्याग की अपेक्षा कहीं अधिक श्रेष्ठ मुक्ति एवं पूर्णतर मार्ग और समाधान है । बाह्य त्याग करना पूर्ण रूप से संभव नहीं और जहाँतक यह किया भी जा सकता है वहाँतक भी यह आत्मा के स्वातंत्र्य-लाभ के लिए अनिवार्य नहीं; इसके अतिरिक्त यह एक भयानक दृष्टांत है, क्योंकि यह जनसाधारण पर एक भ्रामक प्रभाव डालता है । श्रेष्ठ मनुष्य, महापुरुष एक आदर्श स्थापित करते हैं और शेष सारी मानवजाति उस आदर्श का अनुसरण करने का यत्न करती है । अतएव, कर्म करना जब देहधारी जीव का स्वभाव ही है, कर्म जब सनातन कर्मी की ही इच्छा की अभिव्यक्ति है, तब महान् आत्माओं एवं महान् मनीषियों को ऐसा ही दृष्टांत सामने रखना चाहिये । उन्हें होना चाहिए विश्व-कर्मी, ऐसे विश्वकर्मी जो बिना किसी सोच-संकोच के जगत् के सभी कर्म संपन्न करें,--उन्हें होना चाहिये मुक्त, प्रसन्न एवं निष्काम भगवत्कर्मी, मुक्तात्मा और मुक्तप्रकृति ।
''ज्ञानसाधक मन और कर्मसाधिका संकल्पशक्ति ही सब कुछ नहीं हैं, तुम्हारे अंदर एक हृदय भी है जिसे आनंद की चाह है । यहाँ, हृदय की शक्ति और ज्योति में भी, इसकी आनंद की चाह में भी, इसकी आत्मिक तृप्ति की अभिलाषा में भी, तुम्हें अपनी प्रकृति को भगवान् की ओर फेरना होगा, उसे रूपांतरित करके भगवन्मिलन के चिन्मय परानंद में उठा ले जाना होगा । निर्व्यक्तिक आत्मा का ज्ञान अपना एक विशिष्ट आनंद प्रदान करता है; निर्व्यक्तिकता का भी एक आनंद है, शुद्ध आत्मा के कैवल्य का भी एक आनंद है । परंतु समग्र ज्ञान
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तीन प्रकार के महत्तर आनंद को अपने संग लाता हे । वह विश्वातीत के आनंद के द्वार खोल देता है; वह विश्वगत निर्व्यक्तिकता के असीम आनंद की ओर उन्मुक्त कर देता है; इस संपूर्ण नानारूप अभिव्यक्ति में जो हर्षातिरेक विद्यमान है उसे भी वह प्राप्त कर लेता है : क्योंकि प्रकृतिस्थ सनातन पुरुष का भी अपना एक आनंद है । भगवान् के अंशभूत जीव में यह आनंद एक परम हर्ष का रूप ग्रहण करता है जो भगवान् पर आधारित होता है, वह होता है जीव को अपने उद्दगमस्वरूप भगवान् में मिलनेवाला आनंद, अपने परम आत्मा में, अपनी सत्ता के स्वामी में मिलनेवाला आनंद । पूर्ण भगवत्प्रेम एवं भगवदर्चन विस्तृत होकर जगत् तथा इसके सब दृश्य पदार्थों, शक्तियों और प्राणियों के प्रति प्रेम में परिणत हो जाता है; सबमें भगवान् दिखायी देते हैं, सबमें वही उपलब्ध होते हैं, सबमें उन्हीं की पूजा-सेवा होती है अथवा उन्हीं के साथ एकत्व की अनुभूति होती है । अतः ज्ञान और कर्म को सनातन त्रिवृत् आनंद का यह मुकुट पहरा दो; इस प्रेम को अंगीकार करो, यह उपासना सीख लो; इसे कर्म और ज्ञान के साथ एक कर दो । यह सर्वांगपूर्णता की चरम सीमा है ।
''यह प्रेमयोग तुम्हें आध्यात्मिक विशालता, एकता और स्वाधीनता के लिए उच्चतम गुप्त शक्ति प्रदान करेगा । परंतु यह प्रेम ईश्वर-ज्ञान के साथ एकमय होना चाहिये । एक प्रकार का प्रेम या भक्ति ऐसी होती है जो दुःख में सांत्वना, सहायता और उद्धार के लिये भगवान् को खोजती है : एक भक्ति ऐसी होती है जो उन्हें सकल-अभीष्ट-प्रदाता कल्पतरु-स्वरूप मानती हुई उनके उपहारों के लिए, उनका दिव्य साहाय्य एवं संरक्षण पाने के लिए उनकी खोज करती है : फिर एक ऐसी भक्ति भी होती है जो अभी अज्ञानयुक्त होती हुई भी प्रकाश और ज्ञान के लिए उनकी ओर मुड़ती है और जबतक मनुष्य भक्ति के इन रूपों में आबद्ध रहता है तबतक इनके उच्चतम एवं श्रेष्ठतम भगवन्मुख-भाव में भी त्रिगुण की क्रिया निरंतर जारी रह सकती है । परंतु जब ईश्वरप्रेमी ईश्वरज्ञानी भी होता है तब प्रेमी अपने प्रेमपात्र के साथ एकात्म हो जाता है, क्योंकि वह परमोच्च देव का वरण किया हुआ और परमात्मा का परम प्रिय भक्त होता है । अपने अंदर इस भगवन्मग्न भक्ति का विकास करो; तब तुम्हारी हृदय अध्यात्म-भावित होकर तथा अपनी निम्न प्रकृति की सीमाओं के ऊपर उठकर परमेश्वर की अपरिमेय सत्ता के रहस्य तुम्हारे सामने अत्यंत अंतरंग रूप में प्रकाशित कर देगा, उनकी भागवती शक्ति का पूर्ण संस्पर्श, प्रवाह और माहात्म्य तुम्हारे अंदर ले आयगा और एक शाश्वत परमोल्लास के गुह्म रहस्य तुम्हारे सामने खोल देगा । पूर्ण प्रेम ही पूर्ण ज्ञान की कुंजी है ।
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"यह समग्र भगवत्प्रेम तुम्हारे और सब जीवों के अंदर अवस्थित भगवान् के लिए सर्वांगीण कर्म की भी मांग करता है । साधारण मनुष्य जो भी कर्म करता है उन्हें वह या तो किसी पापमय वा पुण्यमय वासना के अनुसार करता है अथवा किसी निम्न या उच्च प्राणावेग के अनुसार या तो किसी सामान्य वा उदात्त मानसिक अभिरुचि के वश करता है अथवा मन और प्राण की किसी मिश्रित प्रेरणा के वश । परंतु तुम जो कर्म करो वह मुक्त और निष्काम होना चाहिये : निष्कामभाव से किय हुआ कर्म कोई प्रतिक्रिया नहीं पैदा करता, कोई बंधन नहीं लादता । जो कर्म पूर्ण समता और अविचल स्थिरता एवं शांति के साथ पर किसी भगवन्मुख संवेग के बिना किया जाता है वह पहले-पहल एक आध्यात्मिक कर्तव्य का, 'कर्तव्यं कर्म' का सूक्ष्म बंधन होता है, फिर वह दिव्य यज्ञ के आरोहण में परिणत हो जाता है; अपने उच्चतम स्तर पर वह भगवान् के साथ सक्रिय एकत्व की शांत और प्रसन्न स्वीकृति का बाह्य प्रकाश हो सकता है । प्रेममूलक एकत्व और भी बहुत कुछ करेगा : प्रारंभिक निर्विकार शांति के स्थान पर यह तीव्र और प्रगाढ़ हर्षोल्लास को प्रतिष्ठित करेगा जो अहंमय कामना का क्षुद्र हर्षावेग नहीं वरन् अनंत आनंद का सागर होगा । यह तुम्हारे कर्मों में प्रियतम की उपस्थिति की हृदयस्पर्शी अनुभूति एवं विशुद्ध और दिव्य उन्मादना ले आयगा; अपने तथा सर्वभूतों के अंदर अवस्थित भगवान् के लिए श्रम करने का अविच्छिन्न आनंद तुम्हें अनुभूत होगा । प्रेम कर्मों का भी मुकुट है और ज्ञान का भी ।
''यह प्रेम जो कि ज्ञान है, यह प्रेम जो तुम्हारे कर्म का गभीर अंतर्मर्म बन सकता है, समय आत्म-निवेदन और परिपूर्ण सिद्धि के लिये तुम्हारा एक अमोघ शक्तिशाली साधन होगा । भगवान् के साथ जीव का समग्र एकत्व पूर्ण आध्यात्मिक जीवन की शर्त है । अतएव, पूर्ण रूप से भगवान् की ओर मुड़ जाओ; अपनी संपूर्ण प्रकृति को ज्ञान, प्रेम और कर्म के द्वारा उनके साथ एक कर दो । सर्वभावेन उनकी ओर फिर जाओ और अपना मन, ह्रदय एवं इच्छाशक्ति, अपनी सारी-की-सारी चेतना, यहाँतक कि अपनी इंद्रियां और शरीर भी बिना संकोच के उन्हीं के हाथों में सौंप दो । अपनी चेतना को उनकी सर्वोच्च शक्ति के द्वारा उनकी दिव्य चेतना के विशुद्ध साँचे में ढल जाने दो । अपने हृदय को भगवान् का शुभ्र प्रज्वलन्त हृदय बनने दो । तुम्हारी इच्छा उनकी इच्छा की निष्कलुष क्रिया बन जाय । तुम्हारी इंद्रियां और देह तक भगवान् की उल्लासमय इंद्रियवृत्ति और देह बन जाय । अपनी संपूर्ण सत्ता के साथ उन्हीं का यजन-पूजन करो; प्रत्येक विचार और अनुभव में, प्रत्येक क्रिया और प्रवृत्ति में उन्हीं का स्मरण करो । जबतक ये सब चीजें पूर्ण रूप से उन्हीं की न हो जायाँ और वे तुम्हारी आत्मा के अंतरतम पवित्र
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मंदिर की तरह ही तुम्हारी सत्ता की अत्यंत सामान्य और बाह्यातिबाह्य क्रियाओं में भी अपनी उपस्थिति को सदा के लिए प्रतिष्ठित न कर दें तथा सब कुछ को रूपांतरित कर डालें तबतक तुम निरंतर लगे रही ।
''यह त्रिविध मार्ग वह साधन है जिसके द्वारा तुम अपनी अपरा प्रकृति से सर्वथा ऊपर उठकर अपनी परा-अध्यात्म-प्रकृति में पहुँच सकते हो । वह एक गुप्त अतिचेतन प्रकृति है; उसमें पहुँचकर जीव-परम पुरुष और अनंत भगवान् का अंशस्वरूप और अपनी सत्ता के धर्म में उनके साथ घनिष्ठ रूप से एकाकार जीव--अपने सत्य में निवास करता है, बहिर्भूत माया में नहीं । इस सिद्धि का, इस एकत्व का रसास्वादन इसके अपने निज धाम में, परम विश्वातीत सत्ता में एकाकी रूप से भी किया जा सकता है; परंतु यहाँ भी, यहाँ इस नरतन में तथा स्थूल जगत् में भी, तुम इसे प्राप्त कर सकते हो और तुम्हें प्राप्त करना भी चाहिए । इस लक्ष्य के लिए इतना ही काफी नहीं है कि तुम अपनी अंत:- सत्ता में शांत, निष्क्रिय और त्निगुणातीत रहो तथा अपने बाह्य अंगों में त्रिगुण की यांत्रिक क्रिया को उदासीन भाव से देखते और अनुमति देते रहो । क्योंकि अंतरात्मा ही के समान सक्रिय प्रकृति को भी भगवान् को दे देना होगा, उसे भी दिव्य बनाना होगा । तुम जो कुछ हो उस सबको पुरुषोत्तम के साथ 'साधर्म्य' लाभ करना होगा; सब कुछ को मेरे चेतन अध्यात्म-भाव में, 'मद्धाव' मे रूपांतरित करना होगा । आवश्यकता है एक पूर्णतम रूपांतर की । अपनी प्रकृति के नानाविध सभी भावों से एवं उसकी सब जीवनधाराओ के साथ मेरी शरण लो; क्योंकि एकमात्र इसीसे यह महान् रूपांतर एवं सिद्धि संपन्न होगी ।
''योग की यह उच्च परिणति कर्म की समस्या को तुरंत हल कर देगी, वरंच, यूँ कहना चाहिए कि यह उसे पूर्ण रूप से दूर कर देगी किंवा जड़-मूल से मिटा देगी । मानव-कर्म एक ऐसी चीज है जो कठिनाइयों और परेशानियों से भरी हुई है, यह एक ऐसे बीहड़ वन के समान गहन और दुर्गम है जिसमें कुछ एक कम या अधिक अस्पष्ट रास्ते बने हुए हैं पर वे हमें जंगल से पार कराने के बजाय उसके अंदर ही भटकाते रहते है; परंतु यह सब कठिनाई एवं उलझन एकमात्र इस तथ्य के कारण उत्पन्न होती है कि मनुष्य अपनी मानसिक, प्राणिक और शारीरिक प्रकृति के अज्ञान में कैद हुआ रहता है । वह इसके गुणों के द्वारा विवश रूप से चालित होता है, किंतु फिर भी वह अपने चित्त में अपने दायित्व के बोध से पीड़ित होता रहता है, क्योंकि उसके अंदर कोई ऐसी चीज है जो उसे
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यह अनुभव कराती है कि वह एक आत्मा है और उसे वह होना चाहिए जो वह इस समय बिलकुल नहीं है या बहुत ही कम है, अर्थात् उसे अपनी प्रकृति का स्वामी और शासक होना चाहिए । इन वर्तमान अवस्थाओं में उसके जीवन-यापन के सभी नियम, उसके सभी धर्म अपूर्ण, सामयिक और कामचलाऊ ही रहेंगे, अधिक-से-अधिक वे केवल अंशत: ही ठीक या सच्चे होंगे । उसकी अपूर्णताएँ केवल तभी दूर हो सकेंगी जब वह अपने-आपको जान लेगा, जिस जगत् में वह रहता है उसका वास्तविक स्वरूप जान लेगा और, सबसे बढ़कर, उन सनातन को जान लेगा जिनसे वह इस जगत् में आया है और जिनमें तथा जिनके सहारे वह जीता है । जब एक बार वह सच्ची चेतना एवं ज्ञान लाभ कर लेता है, तब फिर कोई भी समस्या शेष नहीं रह जाती; क्योंकि तब वह अपने ही अंदर से स्वतंत्र रूप में कार्य करता है और अपनी आत्मा तथा उच्चतम प्रकृति के सत्य के अनुसार सहज-स्फूर्त रूप में जीवन यापन करता है । इस ज्ञान की पूर्णतम अवस्था में, इसके उच्चात्युच्च शिखर पर कर्म का कर्ता वह स्वयं नहीं होता, वरन् भगवान् होते हैं, वहाँ एकमेव सनातन एवं अनंत ही उसकी मुक्त प्रज्ञा, शक्ति और पूर्णता में उसके अंदर तथा उसके द्वारा कर्म करते हैं ।
'' अपनी प्राकृत सत्ता में मनुष्य प्रकृति का सात्त्विक, राजसिक किंवा तामसिक प्राणी होता है । इसका जो कोई भी गुण उसमें प्रधान होता है उसके अनुसार वह अपने जीवन और कर्म का यह या वह विधान बना लेता है और उसका अनुसरण करता है । उसका तामसिक, स्थूल-भौतिक, इंद्रियप्रवण मन तम, भय और अज्ञान के वश कुछ तो अपनी परिस्थिति के दबाव के अनुसार चलता है और कुछ अपनी कामनाओं के आकस्मिक आवेगों के अनुसार, या फिर वह जड़ रूढ़िग्रस्त बुद्धि की अभ्यस्त दिनचर्या का ही आश्रय ग्रहण करता है । कामना का पुतला राजसिक मन इस जगत् के साथ, जिसमें वह रहता है, संघर्ष करता रहता है और नित नयी-नयी चीजें प्राप्त करने की चेष्टा करता है, नेतृत्व करने, युद्ध करने, विजय पाने, निर्माण करने, विनाश करने और संग्रह करने का यत्न करता रहता है । वह सदा सिद्धि और असिद्धि, हर्ष और शोक, आशा और निराशा के बीच धक्के खाता हुआ आगे बढ़ा करता है । वह चाहे जो भी नियम स्वीकार करता हुआ दिखायी दे, पर असल में बहु सभी चीजों में निम्न 'स्व' और अहं के नियम का, अर्थात् आसुरी और राक्षसी प्रकृति के चंचल, अश्रांत, स्व-भक्षी और सर्व-भक्षी मन के नियम का ही अनुसरण करता है । सात्त्विक बुद्धि इस अवस्था को कुछ पार कर जाती है, वह देखती है कि कामना और अहं के विधान से श्रेष्ठ किसी अन्य विधान का अनुसरण करना चाहिए और वह एक सामाजिक, नैतिक,
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धार्मिक नियम की, एक धर्म एवं शास्त्र की स्थापना करती है तथा उसे अपने ऊपर लागू करती है । मनुष्य का साधारण मन बस इतनी ऊँचाई तक ही जा सकता है, अर्थात् वह मन और इच्छाशक्ति के मार्ग-निर्देश के लिए एक आदर्श की या एक व्यावहारिक नियम की स्थापना कर सकता है और फिर जीवन और कार्य-व्यवहार में यथासंभव सच्चाई के साथ उसका पालन भी कर सकता है । इस सात्त्विक बुद्धि का विकास इसके चरम बिंदु तक करना चाहिए जहाँ यह अहमात्मक प्रेरणा के मिश्रण का पूर्णतया परित्याग करने में सफल हो जाती है और धर्म का पालन धर्म ही के लिए, एक निर्व्यक्तिक, सामाजिक, नैतिक या धार्मिक आदर्श के रूप में करती है, केवल उसके औचित्य ही के कारण एक निष्कामभाव से करने योग्य कर्म के रूप में, 'कर्तव्यं कर्म' के रूप में, उसका अनुसरण करती है ।
''परंतु, प्रकृति के इस समस्त कर्म का वास्तविक सत्य बहुत ही कम अंश में एक बाह्य मानसिक सत्य है, अधिकांश में तो वह एक आभ्यंतरिक एवं विषयिगत सत्य ही है । वह यह है कि मनुष्य एक देहधारी जीव है जो भौतिक और मानसिक प्रकृति में आबद्ध है और इसमें वह अपने विकास के एक प्रगतिशील नियम का अनुसरण करता है, यह नियम उसकी सत्ता के आंतरिक विधान से ही निर्धारित होता है; उसकी अंतरात्मा का स्वरूप ही उसके मन और प्राण के स्वरूप का, अर्थात् उसके स्वभाव का गठन करता है । प्रत्येक मनुष्य का अपना स्वधर्म होता है, अर्थात् उसकी अंत:सत्ता का एक विधान होता है जिसका उसे पालन करना चाहिए, अनुसंधान और अनुसरण करना चाहिए । उसकी आभ्यंतरिक प्रकृति के द्वारा निर्धारित कर्म ही उसका वास्तविक धर्म है । उसके अनुसार चलना ही उसके विकास का सच्चा नियम है; उससे च्युत होने का मतलब है संकर, गतिरोध और प्रमाद को उत्पन्न करना । उसके लिए सदा ही वही सामाजिक, नैतिक, धार्मिक या कोई अन्य विधान एवं आदर्श सर्वश्रेष्ठ है जो उसे स्वधर्म का पालन और अनुसरण करने में सहायता पहुँचाये ।
''तथापि यह समस्त कर्म अपने अच्छे-से-अच्छे रूप में भी मन के अज्ञान और त्निगुण के खेल के अधीन है । जब मनुष्य अपनी अंतरात्मा को पा लेता है केवल तभी वह अज्ञान को तथा गुणों के संकर को पार कर सकता तथा अपनी चेतना में से मिटा सकता है । यह सच है कि जब तुम अपने-आपको प्राप्त कर लोगे तथा अपनी आत्मा में निवास करने लगोगे, तब भी तुम्हारी प्रकृति अपनी पुरानी लीक पर ही चलती रहेगी और कुछ काल तक अपने निम्नतर गुणों के अनुसार ही कार्य करेगी । परंतु तब तुम उस कर्म का अनुष्ठान पूर्ण आत्म-ज्ञान के साथ कर सकोगे । और उसे अपनी सत्ता के स्वामी के प्रति एक
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यज्ञ के रूप में परिणत कर सकोगे । अतएव, अपने स्वधर्म के विधान का पालन करो, तुम्हारा स्वभाव तुमसे जिस कर्म की माँग करे वही तुम करो, वह फिर चाहे कोई भी क्यों न हो । अहंभाव की समस्त प्रेरणा का, स्वेच्छा के द्वारा प्रवर्तित समस्त आरंभ, और कामना के समस्त नियम-शासन का परित्याग कर दो जिससे कि अंत में तुम अपने-आपको पूर्ण रूप से, अपनी सत्ता के सब भावों के साथ परम देव के प्रति अर्पित कर सको ।
''और जब एक बार तुम सच्चे भाव से ऐसा समर्पण करने में समर्थ हो जाओगे तो उस क्षण तुम बिना किसी अपवाद के अपने सभी कर्मों की बागडोर अपने अंतरस्थ परमेश्वर के हाथों में सौंप सकोगे । तब तुम आचार-व्यवहार के सब नियमों से छुटकारा पा जाओगे, समस्त धर्मों से मुक्त हो जाओगे । तुम्हारे अंदर अवस्थित भागवती शक्ति एवं उपस्थिति तुम्हें पाप और अशुभ से मुक्त कर देगी और पुण्य के मानवीय मापदंडों से बहुत ऊपर उठा ले जायगी । कारण, तब तुम आध्यात्मिक सत्ता और दैवी प्रकृति के पूर्ण और स्वत:स्फूर्त ऋत और पावित्र्य में निवास करोगे और उसी में रहते हुए अपने कर्म करोगे । तब तुम नहीं वरन् भगवान् ही तुम्हारे द्वारा अपना संकल्प और अपने कर्म संपन्न करेंगे, ऐसा वे तुम्हारे निम्न व्यक्तिगत सुख और कामना के लिए नहीं, बल्कि जागतिक उद्देश्य के लिए तथा तुम्हारे दिव्य मंगल और सबके प्रकट या प्रच्छन्न मंगल के लिए करेंगे । प्रकाश से परिप्लावित होकर तुम जगत् में और काल-पुरुष के कार्यों में भगवान् का ही रूप देखोगे, उनका प्रयोजन जान जाओगे और उनका आदेश श्रवण करोगे । तुम्हारी प्रकृति एक यंत्न के रूप में केवल उन्हीं को इच्छा को ग्रहण करेगी, वह चाहे कुछ भी हो, और फिर उसी को यह बिना ननुनच के पूरा भी करेगी, क्योंकि तुम्हें अपनी प्रत्येक कर्म-प्रेरणा के साथ अपने उपर और अंदर से एक अटल ज्ञान प्राप्त होगा और उसके साथ ही प्राप्त होगी उस दिव्य प्रज्ञा और उसके मर्म के प्रति सज्ञान सहमति । युद्ध उन्हीं का होगा, विजय भी उन्हीं की और साम्राज्य भी उन्हीं का ।
''यही इस जगत् में और इस देह में तुम्हारी परम सिद्धि होगी, इन नश्वर जन्मवाले लोकों के परे तुम्हें परमोच्च शाश्वत अतिचेतना उपलब्ध होगी और तुम सदा-सर्वदा परमात्मा के परम पद में निवास करोगे । पुनर्जन्म का चक्र और मृत्यु का भय तुम्हें नहीं सतायेंगे; क्योंकि यहीं, इसी जीवन में, तुम भगवान् की अभिव्यक्ति करने का कार्य पूरा कर चुके होगे, और यद्यपि तुम्हारी अंतरात्मा मन और शरीर में उतरी हुई है फिर भी तब वह परमात्मा की विशाल सनातन सत्ता में ही निवास कर रही होगी ।
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''अतएव, यही परम साधना है, यही तुम्हारी समस्त सत्ता एवं प्रकृति की पूर्ण शरणागति है, यही अपने परम-आत्मस्वरूप भगवान् में सब धर्मों का संन्यास है, यही परम अध्यात्म-प्रकृति के प्रति तुम्हारे सभी अंगों की अनन्य अभीप्सा है । यदि एक बार तुम इसे प्राप्त कर सको, चाहे मार्ग के आरंभ में ही या बहुत दूर जाकर, तो अपनी बाह्य प्रकृति में तुम जो कुछ भी हो या जो कुछ भी थे, तुम्हारा पथ सुनिश्चित है और तुम्हारी सिद्धि अवश्यंभावी । तुम्हारे अंदर जो परम पुरुष विराजमान हैं वे तुम्हारी योग-साधना अपने हाथ में ले लेंगे और उसे तुम्हारे स्वभाव के अनुकूल मार्गों से वेगपूर्वक चरम परिपूर्णता की ओर ले जायँगे । उसके बाद तुम्हारी जीवनधारा और कर्म-पद्धति कुछ भी क्यों न हो, तुम सचेतन रूप से उन्हीं में निवास, कर्म और विचरण कर रहे होगे और तब तुम्हारी अंदर और बाहर की प्रत्येक चेष्टा में भागवती शक्ति ही तुम्हारे द्वारा कार्य करेगी । यह परमोत्तम पथ है, क्योंकि यह सर्वोच्च गुह्य और रहस्य है और फिर भी यह एक आंतरिक साधना है जिसे सब कोई उत्तरोत्तर संपन्न कर सकते हैं । यही तुम्हारी वास्तविक सत्ता का, तुम्हारी आध्यात्मिक सत्ता का गभीरतम और अंतरतम सत्य है ।''
इति शम्
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