गीता-प्रबंध

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Sri Aurobindo

Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) Essays On The Gita Vol. 13 576 pages 1970 Edition
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Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo गीता-प्रबंध 629 pages 1984 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

गीता का सारमर्म

 

गीता को लिखे गये तो सुदीर्घ काल व्यतीत हो चुका है और इस बीच मनुष्य की विचारधारा एवं अनुभूति में विपुल परिवर्तन आ गया है । तब फिर आज के मानव-मन के लिए गीता का संदेश क्या है, इसका क्रियात्मक महत्त्व एवं आध्या- त्मिक उपयोगिता क्या है ? मानव-मन सदा आगे की ही ओर बढ़ता है, अपने दृष्टि-कोण को बदलता तथा अपने विचार के विषयों को विस्तृत करता है, और इन परि-वर्तनों का परिणाम यह होता है कि चिंतन की पुरातन प्रणालियाँ विलुप्त हो जाती हैं अथवा, जब उन्हें सुरक्षित रखा भी जाता है तब भी, उन्हें विस्तृत और संशोधित कर दिया जाता है तथा, सूक्ष्म या प्रत्यक्ष रूप में उनका मूल्य बदल दिया जाता है । कोई प्राचीन सिद्धांत उसी हद तक सजीव होता है जिस हद तक वह ऐसे परिवर्तन के लिए स्वाभाविक रूप से अपने-आपको सौंप देता है; क्योंकि उसका मतलब यह होता है कि उसके विचार के रूप की सीमाएँ या अव्यवहार्यताएँ कोई भी क्यों न रही हों, फिर भी सारतत्त्व का जो सत्य, जीवंत दृष्टि एवं अनुभूति का जो सत्य उसकी पद्धति का आधार था वह अबतक भी अक्षुण्ण है और एक स्थायी सत्यता एवं सार्थकता रखता है । गीता एक ऐसी पुस्तक है जो असाधारणतया दीर्घ काल से जीवित चली आ रही है और यह आज भी प्रायः उतनी ही ताजी है और अपने वास्तविक सार-तत्त्व में अभी भी बिलकुल उतनी ही नयी है जितनी कि यह तब थी जब यह पहले-पहल महाभारत में प्रकाशित हुई थी या उसके ढाँचे के अंदर प्रक्षिप्त की गयी थी । इसके इस प्रकार ताजी होने का कारण यह है कि इसे अनुभव में सदैव फिर-फिर ताजा किया जा सकता है । भारत में अभीतक भी इसका इस रूप में आदर किया जाता है कि यह उन महान् शास्त्रों में से एक है जो अत्यंत प्रामाणिक रूप में धार्मिक चिंतन को नियंत्रित करते हैं और इसकी शिक्षा को भी परम मूल्यवान् माना जाता है भले ही उसे धार्मिक मत-विश्वास के लगभग सभी संप्रदाय पूर्ण रूप से स्वीकार न भी करते हों । इसका प्रभाव केवल दर्शन या विद्याध्ययन के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि प्रत्यक्ष और जीवंत भी है, चिंतन और कर्म दोनों पर इसका प्रभाव देखने में आता है, और सचमुच ही इसके विचार एक

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जाति और संस्कृति के पुनरुज्जीवन एवं नव-जागरण में एक प्रबल निर्माणकारी शक्ति के रूप में कार्य कर रहे हैं । हाल ही में एक प्रभावशाली व्यक्ति ने यहाँ-तक कह डाला है कि आध्यात्मिक जीवन के लिए हमें जिन किन्हीं भी आध्यात्मिक सत्यों की जरूरत है वे सभी गीता में उपलब्ध हो सकते हैं । इस उक्ति को अत्यन्त शाब्दिक अर्थ में लेने से इस ग्रंथ के विषय में अंध-विश्वास को प्रोत्साहन मिलेगा । आत्मा का सत्य असीम है और उसे इस प्रकार से किसी परिधि के अंदर बंद नहीं किया जा सकता । तथापि यह कहा जा सकता है कि अधिकतर प्रधान सूत्र इसमें विद्यमान हैं और आध्यात्मिक अनुभूति एवं उपलब्धि के समस्त परवर्ती विकास के होते हुए भी हम एक विशाल अनुप्रेरणा एवं मार्गदर्शन के लिए इसकी ओर मुड़ सकते हैं । भारत के बाहर भी इसे सर्वत्र विश्व का एक अन्यतम महान् धर्मग्रन्य स्वीकार किया जाता है, यद्यपि यूरोप में इसके अध्यात्म- साधना-संबंधी रहस्य की अपेक्षा इसकी विचारधारा को अधिक अच्छे रूप में हृदयंगम किया गया है । तो भला वह कौनसी चीज है जो गीता के विचार और सत्य को यह प्राणशक्ति प्रदान करती है ?

 

गीता के दर्शन तथा योग का केंद्रीय ध्येय है आंतर आध्यात्मिक सत्य की पूर्णतम एवं समग्रतम उपलब्धि के साथ मनुष्य के जीवन एवं कर्म की बाह्य यथार्थ-ताओं का सामञ्जस्य साधित करना, यहाँतक कि एक प्रकार का ऐक्य स्थापित करना । गीता के अंदर अथ से इति तक यही विचार ओत-प्रोत है । वैसे इन दोनों में समझौता करने की प्रथा तो काफी प्रचलित है, पर समझौता अंतिम एवं संतोषजनक समाधान कदापि नहीं हो सकता । आध्यात्मिकता को नैतिक रूप देने की प्रथा का भी अत्यधिक प्रचलन देखा जाता है और सदाचार के एक विधान की दृष्टि से उसका महत्व भी है; पर वह एक मानसिक समाधान है, उससे जीवन के समस्त सत्य के साथ आत्मा के समस्त सत्य की पूर्ण क्रियात्मक सुसंगति साधित नहीं होती, और साथ ही वह जितनी समस्याएँ हल करता है उतनी ही और पैदा कर देता है । निःसंदेह, उन्हीं में से एक समस्या गीता का प्रारंभ-सूत्र है; गीता का सूतपात एक संघर्षजनित नैतिक समस्या से हुआ है । हम देखते हैं कि उस संघर्ष में एक ओर तो है कर्मी पुरुष का धर्म, राजपुत्र, वीर एवं जननेता का धर्म, महासंकट एवं संग्राम के मुख्य नायक का धर्म, भौतिक क्षेत्र में, वास्तविक जीवन के क्षेत्र में धर्म तथा न्याय की शक्तियों और अधर्म तथा अन्याय की शक्तियों के पारस्परिक संग्राम के प्रधान नायक का धर्म; इस धर्म की दृष्टि से जाति की भवितव्यता की उस नेता से यह मांग है कि वह अवश्यमेव प्रतिरोध करे, शत्रुपर आक्रमण करे और सत्य, धर्म एवं न्याय का नवीन युग और राज्य स्थापित करे

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भले ही उसे इसके लिये कैसा भी भीषण स्थूल संग्राम एवं घोर संहार क्यों न करना पड़े; परंतु इसके दूसरी ओर है नैतिक बुद्धि जो इस उपाय तथा कर्म को पाप कहकर दूषित ठहराती है, वैयक्तिक क्लेश, सामाजिक कलह, अव्यवस्था एवं उपद्रव-रूपी मूल्य चुकाने से पीछे हटती है और ऐसा समझती है कि हिंसा तथा युद्ध से उपरति ही एकमात्र मार्ग है तथा यही शुद्ध नैतिक वृत्ति है । अध्यात्म-भावापन्न नीतिशास्त्र आध्यात्मिक आचार के सर्वोच्च नियम के रूप में अहिंसा पर किसी को पीड़ा न पहुँचाने एवं किसी की हत्या न करने पर ही बल देता है |  वह कहता है कि यदि युद्ध करना भी पड़े तो वह आध्यात्मिक स्तर पर तथा एक प्रकार के अप्रतिरोध के द्वारा या उसमें भाग लेने से इन्कार करके या केवल आत्मिक प्रतिरोध के द्वारा ही करना चाहिए और चाहे वह बाह्य क्षेत्र में सफल न भी हो, चाहे अन्याय की शक्ति जीत भी जाय पर व्यक्ति तो अपने धर्म की रक्षा कर सकेगा और अपने दृष्टांत से सर्वोच्च आदर्श को सच्चा सिद्ध कर देगा । इसके विपरीत आभ्यंतरिक अध्यात्म-पथ, जो अधिक आग्रहपूर्ण छोर को पकड़े हुए है,  सामाजिक कर्त्तव्य तथा चरम नैतिक आदर्श के इस संघर्ष को पार करके वैराग्य की ओर झुक सकता है और जीवन तथा इसके सब लक्ष्यों एवं कर्मसंबंधी आदर्शों से परे एक अन्य तथा दिव्य या विश्वातीत अवस्था की ओर अंगुलि-निर्देश कर सकता है,  कारण, केवल उसी अवस्था में मनुष्यजन्म, जीवन और मरण की जटिल नि:-सारता तथा भ्रम से अतीत विशुद्ध आध्यात्मिक जीवन संभव है । गीता इन समाधानों में से प्रत्येक को उसके अपने स्थान पर स्वीकार करती है,--क्योंकि वह आग्रह करती है कि जिस मनुष्य को सार्वजनीन कर्म में भाग लेना है उसे सामाजिक कर्त्तव्य का अनुष्ठान एवं धर्म का अनुसरण करना ही होगा, वह अहिंसा को सर्वोच्च अध्यात्म-नैतिक आदर्श के अंग के रूप में और वैराग्यपूर्ण त्याग को आध्या- त्मिक मुक्ति के मार्ग के रूप में स्वीकार करती है । तथापि वह निर्भय होकर इन सब विरोधी स्थितियों के परे भी जातीं है; वह महान् साहस के साथ आत्मा के समक्ष समस्त जीवन को इस रूप में सत्य सिद्ध करती है कि यह एकमेव पुरुषोत्तम भगवान् की एक महत्त्वपूर्ण अभिव्यक्ति है; साथ ही, जो पूर्ण आध्यात्मिक जीवन अनंत के सायुज्य में बिताया जाता है और परम आत्मा के साथ समस्वर तथा परिपूर्ण देवाधिदेव का प्रकाक्षक होता है उसमें तथा संपूर्ण मानवीय कर्म में वह सामंजस्य की प्रस्थापना करती है ।

 

मानवजीवन की सभी समस्याओं का मूल कारण यह है कि हमारी सत्ता एक जटिल वस्तु है, उसका मूल तत्त्व दुर्बोध है और जो अंतरतम शक्ति उसके सब रूपों का निर्धारण करती है तथा उसके उद्देश्य एवं प्रक्रियाओं का नियमन करती

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है वह एक गुह्य शक्ति है । यदि हमारी सत्ता एक अखंड वस्तु होती, केवल भौतिक-प्राणिक या केवल मानसिक या केवल आध्यात्मिक तत्त्व होती, अथवा यदि इतना ही होता कि अन्य तत्त्व उनमें से किसी एक ही में पूर्णत: या प्रधानत: अंतर्भूत होते या हमारे अवचेतन या अति-चेतन भागों में सर्वथा प्रसुप्त पड़े होते तो इसमें कुछ भी परेशानी की बात न होती; तब भौतिक एवं प्राणिक नियम अपरिहार्य होता अथवा मानसिक नियम अपने शुद्ध एवं निर्बाध तत्त्व के प्रति सुस्पष्ट होता या आध्यात्मिक नियम आत्मा के लिये स्वयं-स्थित एवं स्वतःपर्याप्त होता । पशुओं को समस्याओं का कुछ भी ज्ञान नहीं; शुद्ध मानसिकता के लोक में रहनेवाला एक मानसिक देवता किसी भी समस्या को अपने यहाँ प्रवेश नहीं करने देगा या फिर वह किसी मानसिक नियम की विशुद्धता या बौद्धिक सामंजस्य की संतुष्टि के द्वारा उन सबका समाधान कर लेगा; शुद्ध आत्मा इन सबसे ऊपर तथा अनंत के अंदर स्वयंतृप्त होगा । परंतु मनुष्य की सत्ता एक त्रिविध जाल है, एक ऐसी चीज है जो एक ही साथ गुण रूप से भौतिक-प्राणिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक है, और मनुष्य नहीं जानता कि इन चीजों के वास्तविक संबंध क्या हैं, उसके जीवन तथा उसकी प्रकृति का वास्तविक सत्य कौन-सा है, उसके भाग्य का आकर्षण किस ओर है और उसकी पूर्णता का क्षेत्र कहां है ।

 

ड़तत्त्वके एवं प्राण उसका वास्तविक आधार हैं, इसी से वह यात्रा आरंभ करता है और इसी के सहारे स्थित रहता है और यदि वह इस भूतलपर तथा इस देह में जीवित रहना चाहता है तो उसे इस आधार की आवश्यकता को पूरा करना होगा, इसके विधान का पालन करना होगा । जड़ और प्राणका विधान है उत्तर-जीवन (survival) का नियम, संघर्ष का तथा कामना और स्वत्व का नियम, शरीर, प्राण और अहंभाव की स्व-प्रतिष्ठा एवं तृप्ति का नियम । जगत् का समस्त बौद्धिक तर्क-वितर्क, समस्त नैतिक आदर्शवाद तथा आध्यात्मिक निरपेक्षतावाद, जो मनुष्य की उच्चतर क्षमताओं की पहुँच के भीतर हैं,  हमारे प्राणिक एवं भौतिक आधार की सत्यता और माँग को निर्मूल नहीं कर सकते, न वे मानव-जाति को प्रकृति की अलंध्य प्रेरणा के वश इसके उद्देश्यों का तथा इसकी आवश्यकताओं की पूर्त्ति का अनुसरण करने से रोक सकते हैं, और न वे उसे इसकी आवश्यक समस्याओं को मानव-भवितव्यता, मानवहित एवं प्रयास का एक महान् एवं उपयुक्त भाग बनाने से ही मना कर सकते है । यहाँतक कि आध्यात्मिक या आदर्श समाधान और प्रत्येक बात का तो हल कर देते हैं पर मानव के यथार्थ जीवन की अपरिहार्य समस्याओं का हल नहीं कर पाते, अतएव मनुष्य की बुद्धि उनमें कोई तृप्ति न पाकर प्रायः ही उनसे विमुख हो जाती है और अनन्यभाव से प्राण एवं देह के जीवन

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को ही अंगीकार करती है और युक्तिपूर्वक या सहजात प्रेरणा के वश इसी की अधिकतम संभव क्षमता, स्वस्ति और सुव्यवस्थित तृप्ति का अनुसरण करती है । जीवनेच्छा का सिद्धांत या प्राण एवं देह की बुद्धि-समन्वित पूर्णता की शक्ति प्राप्त करने का सिद्धांत मानवजाति का एक माना हुआ धर्म. बन जाता है और अन्य सब चीजों को या तो दंभपूर्ण असत्य समझा जाता है या एक सर्वथा गौण वस्तु किंवा स्वल्पतर एवं सापेक्ष महत्त्व रखनेवाला एक अवांतर विषय ।

 

परंतु जड़तत्व और प्राण, अपने आग्रहपूर्ण दावे तथा गुरुतर महत्त्व के होते हुए भी, मनुष्य की सत्ता का संपूर्ण स्वरूप नहीं हैं न कोई व्यक्ति पूर्ण रूप से यह मान सकता है कि मन तो प्राण और शरीर के एक ऐसे दास के सिवा और कुछ नहीं जिसे अपनी सेवा के एक प्रकार के पुरस्कार के रूप में अपने कुछ शुद्ध भोगों के लिए स्वीकृति प्राप्त हो जाती है, न ही वह यह समझ सकता है कि मन प्राणिक आवेग का एक विस्तार एवं विकास मात्र है, दैहिक जीवन की तृप्ति पर आश्रित एक आदर्श विलास मात्र है । शरीर और प्राण की भी अपेक्षा अत्यधिक घनिष्ठ रूप से मन ही मनुष्य है, और यह मन जैसे-जैसे विकसित होता है वैसे-वैसे यह शरीर और प्राण को अपनी ही विशिष्ट तृप्ति और स्व-चरितार्थता के लिए एक यंत्र बनाने का अधिकाधिक आग्रह करता है, शरीर एवं प्राण एक अपरिहार्य यंत्र अवश्य हैं पर फिर भी वे एक बड़ी बाधा हैं, अन्यथा कोई समस्या ही न होती । मनुष्य का मन केवल प्राणगत एवं देहगत बुद्धि ही नहीं है बल्कि वह तर्कशील, सौंदर्यलक्षी, नैतिक, आतरात्मिक, भाविक और क्रियाशील बुद्धि भी है, और अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति के क्षेत्र में उसका उच्चतम एवं प्रबलतम स्वभाव उनके किसी चरम रूप की उपलब्धि के लिए उत्कट प्रयास करने का है । पर जीवन का ढांचा उसे चरम रूप को पूर्णतया अधिकृत नहीं करने देता, उसे इहलोक में मूर्तिमंत करके पूर्णरूपेण वास्तविक नहीं बनाने देता । हमारी अभीप्सा का मानसिक चरम रूप एक समुज्ज्वल या तेजोमय आदर्श ही बना रहता है, जिसे हम केवल अंशत: ही समझते होते हैं, उसे मन आंतरिक तौर पर अपने सम्मुख अत्यंत प्रत्यक्ष बना सकता है, उसके लिए प्रयत्न करने पर उसे अपने लिए आंतरिक तौर पर अनिवार्य बना सकता है, और यहाँतक कि उसे कुछ अंश में कार्यान्वित भी कर सकता है, किंतु जीवन के सभी तथ्यों को उसी के रूप में ढलने के लिये बाध्य नहीं कर सकता । इस प्रकार बौद्धिक सत्य एवं तर्क का एक चरम रूप एवं एक उच्च, अलंध्य विधान है, हमारी बौद्धिक सत्ता  उसी की खोज करती है; धर्म और आचरण का एक चरम रूप एवं अलंध्य विधान है, वही हमारी सदसद्विवेक-बुद्धि का लक्ष्य है; प्रेम, समवेदना, करुणा, एकता का एक चरम रूप एवं अलंध्य विधान है,

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हमारी भाविक एवं आंतरात्मिक प्रकृति उसके लिये ललकती है; आनंद और सौन्दर्य का एक चरम रूप एवं अलंध्य विधान है, हमारी सौंदर्यग्राही सत्ता उसीके लिए स्पंदित होती है; आभ्यंतरिक आत्मप्रभुत्व और जीवन-संयम का एक चरम रूप एवं अलंध्य विधान है, हमारा क्रियाशील संकल्प उसी के लिए प्रयास करता है; ये सभी वहाँ एक साथ विद्यमान हैं और हमारा प्राणगत एवं देहगत मन स्वाधिकार, सुख एवं सुरक्षित दैहिक जीवन के जिस चरम रूप एवं अलंध्य विधान के लिए आग्रह करते हैं उसपर ये आघात करते हैं । मानव-बुद्धि इनमें से किसी भी चीज को पूर्ण रूप से उपलब्ध करने में समर्थ नहीं, इन सबको एक साथ उपलब्ध करने का तो कहना ही क्या । यही कारण है कि वह प्रत्येक क्षेत्र में अनेक आदर्शों और धर्मों (विधानों ) की स्थापना करती है, सत्य और तर्क, न्याय और आचरण, आनंद और सौंदर्य, प्रेम, सहानुभूति और एकता, आत्म-प्रभुत्व और संयम, स्व-रक्षा, स्वाधिकार, प्राणिक क्षमता और सुख-भोग के मानदंड उत्तोलित करती है और उन्हें जीवन पर थोपने की चेष्टा करती है । चरम, उज्ज्वल आदर्श बहुत ही ऊपर, हमारी सामर्थ्य के परे अवस्थित हैं और विरले ही व्यक्ति अपनी पूरी शक्ति भर उनके निकट पहुँचते हैं; जनसाधारण किसी कम भव्य आदर्श, किसी प्रचलित व्यवहार्य एवं सापेक्ष मान-दंड का अनुसरण करते हैं या अनुसरण करने का दावा करते हैं । समष्टिगत मानवजीवन उस आकर्षण से अभिभूत हो जाता है और फिर भी वह उस आदर्श का परित्याग कर देता है । प्राण अपनी ही किसी अस्पष्ट अनंत सत्ता के बल पर प्रत्येक प्रचलित मानसिक एवं नैतिक व्यवस्था का प्रतिरोध करता है और उसे विध्वस्त या छिन्न-भिन्न कर देता है । और ऐसा होना निश्चित ही है, कारण यह कि या तो मन और प्राण परस्पर-संयोगी और परस्पर-क्रियाकारी तत्त्व होते हुए भी एक-दूसरेसे सर्वथा विभिन्न एवं विषम हैं या फिर मन को प्राण के संपूर्ण सत्य का सूत्र ही हाथ नहीं लगा है । वह सूत्र किसी महत्तर वस्तु में, मानव- प्राणी के मन एवं नैतिकता के ऊपर अवस्थित किसी अज्ञात वस्तु में ही ढूँढ़ना होगा ।

 

स्वयं मन को भी इस प्रकार के किसी उर्ध्वस्थित तत्त्व की अस्पष्ट अनुभूति है और अपने चरम आदर्शों के अनुसरण में वह बहुधा ही इसका संस्पर्श लाभ करता है । उसे एक अवस्था, एक शक्ति एवं एक उपस्थिति की झाँकी प्राप्त होती है जो उसके निकट और भीतर है तथा उसके प्रति अत्यंत अंतरंग है और फिर भी उसकी अपेक्षा अमित रूप से महान् तथा अपूर्व रूप से दूरस्थ और उसके ऊपर अवस्थित है; उसे एक ऐसी वस्तु के अंतर्दर्शन होते हैं जो उसके अपने चरम आदर्शों से अधिक तात्त्विक, अधिक निरपेक्ष है, अंतरतम, अनंत और अद्वितीय

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है और उसी को हम ईश्वर, आत्मा या ब्रह्म कहते हैं । अतएव, हमारा मन उसी को पूर्ण रूप से जानने, उसीमें प्रवेश करने, उसी को स्पर्श एवं अधिकृत करने, उसी के पास पहुँचने या वही बन जाने, उसी आश्चर्यमय सत्ता, 'आश्चर्यम्' के साथ किसी प्रकार का एकत्व प्राप्त करने या उसके साथ पूर्ण तादात्म्य में अपनेको खो देने का यत्न करता है । समस्या यह है कि यह आत्मा अपनी शुद्धावस्था में एक ऐसी चीज प्रतीत होती है जो जीवन की यथार्थताओं से मानसिक चरमादर्शों की अपेक्षा भी अधिक दूर है, जिसे मन अपने निजी रूपों में परिणत नहीं कर सकता, जीवन और कर्म के रूपों में परिणत करना तो दूर रहा । अतएव हम देखते हैं कि चरम निरपेक्ष-अध्यात्मवादी मानसिक सत्ता का खंडन करते हैं तथा भौतिक सत्ता की निंदा करते हैं और अपने प्राण और मन में हम जो कुछ हैं उस सबके विलय अर्थात् 'निर्वाण'  के फलस्वरूप जिस शुद्ध अध्यात्म-सत्ता की सुखद उपलब्धि होती है उसके लिए वे अत्यंत उत्कंठित होते हैं । इसे छोड़कर और जो भी आध्यात्मिक पुरुषार्थ किया जाता है वह सब निरपेक्ष तत्त्व के इन कट्टर अनुयायियों की दृष्टि में एक मानसिक तैयारी या समझौता मात्र है, प्राण और मन को यथासंभव अध्यात्म-मय बनाने की एक साधना है । और व्यवहार में जो समस्या मनुष्य के मन पर नित्य-निरंतर अत्यधिक दबाव डालती है वह उसकी प्राणिक सत्ता की मांगों, उसके जीवन, आचार और कर्म की समस्या है, अतएव इस तैयार करनेवाली साधना की मुख्य प्रवृत्ति चैत्य मन की सहायता से नैतिक मन को अध्यात्ममय बनाने की होती है--अथवा यूं कहें कि यह इनके चरम आदर्श की प्रतिष्ठा में इनकी सहायता करने के लिए और आचार-संबंधी धर्म एवं सत्य के नैतिक आदर्श को या प्रेम, सहानुभूति और एकत्व के आंतरात्मिक आदर्श को हमारा जीवन जितनी प्रामाणिकता प्रदान करता है उसकी अपेक्षा अधिक प्रामाणिकता प्रदान करने के लिए आध्यात्मिक शक्ति और पवित्रता ले आती है । आत्मा की पूर्ण एकता के आधारभूत सत्य को और अतएव समस्त जीवधारी प्राणियों के मूल एकत्व को जब हमारी बुद्धि एवं संकल्प स्वीकार कर लेते हैं तो उससे इन चीजों को अपनी एक प्रकार की उच्चतम अभिव्यक्ति में सहायता मिलती है, अपना विशालतम ज्योतिर्मय आधार प्राप्त हो जाता है । इस प्रकार की आध्यात्मिकता को किसी तरह मनुष्य के साधारण मन की माँगों के साथ संबद्ध करना होता है, प्रयोजनीय सामाजिक कर्त्तव्य को तथा सामाजिक आचार के प्रचलित विधान को स्वीकार करने के लिए प्रेरित करना होता है, मतवाद, संस्कार और रूपक के द्वारा लोकप्रिय बनाना होता है, इस रूप में परिणत यह आध्यात्मिकता ही संसार के बड़े- बड़े धर्मों का बाल तत्त्व है । ये धर्म अपनी-अपनी पृथक् विजय प्राप्त करते

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हैं, उच्चतर ज्योति की एक रश्मि ले आते हैं, एक विशालतर आध्यात्मिक या अर्द्ध-आध्यात्मिक विधान के किसी प्रतिरूप की प्रतिष्ठा करते हैं, किंतु पूर्ण विजय उपलब्ध नहीं कर सकते, अंत में पूरी तरह से एक समझौते में ही परिणत हो जाते हैं और उस समझौते की क्रिया में जीवन के द्वारा पराजित हो जाते हैं । जीवन की समस्याएँ बनी ही रहती हैं और यहाँतक कि अपने उग्रतम रूपों में फिर-फिर सामने आती हैं--कुरुक्षेत्न की इस भीषण समस्या जैसे रूपों में भी उपस्थित होती हैं । आदर्शों की  सृष्टि करनेवाली बुद्धि और नैतिक मन सदैव इनका उन्मूलन करने को आशा करते हैं, वे अपनी ही अभीप्सा से उत्पन्न एक सुखद उपाय का आविष्कार करने की आशा करते हैं और उसे अपने अटल आग्रह के द्वारा क्रियान्वित करना चाहते हैं, वे आशा करते हैं कि वह जीवन के इस निम्न-मुख कुत्सित रूप को विनष्ट कर देगा, परंतु यह रूप स्थायी बना रहता है तथा नष्ट नहीं होता । इसमें संदेह नहीं कि दूसरी ओर, अध्यात्मभावापन्न बुद्धि धर्म की वाणी के द्वारा भविष्य में किसी विजयशाली रामराज्य का प्रतिज्ञापूर्ण आश्वासन देती है, किंतु इस बीच पार्थिव जीवन की अक्षमता के बारे में काफी कुछ असंदिग्ध होकर, इस बात से प्रेरित होकर कि जीव इस भूतल पर एक परदेशी के समान है और यहां वह बिना बुलाये जोर-जबर्दस्ती से आ घुसा है, वह घोषणा करती है कि आखिरकार स्वर्ग या निर्वाण यहाँ शारीरिक जीवन में या मरणशील मानव के सामूहिक जीवन में नहीं, बल्कि इस जगत् के परे विद्यमान किसी अमर लोक में ही है और सच्चा आध्यात्मिक जीवन केवल वहीं उपलब्ध हो सकता है ।

 

इसी स्थल पर गीता आत्मा और परमात्मा के विषय में, ईश्वर, जगत् और प्रकृति के विषय में सत्य की एक नयी स्थापना लेकर उपस्थित होती है । जिस सत्य को एक परवर्ती विचारधारा ने प्राचीन उपनिषदों से लेकर विकसित किया था उसे यह विस्तृत करती तथा नये साँचे में ढालती है और उसकी समाधान-कारक शक्ति को जीवन तथा कर्म की समस्या पर प्रयुक्त करने के प्रयास की ओर सुनिश्चित पगों से अग्रसर होती है । वर्तमान मनुष्य-जाति के सामने वह समस्या जिस रूप में उपस्थित होती है, गीतोक्त समाधान उसे उस रूप में पूर्णतया हल नहीं करता; यहाँ वह अधिक प्राचीन मनोवृत्ति के लिए प्रस्तुत किया गया है, अतः सामूहिक प्रगति के लिए मनुष्य के आधुनिक मन की जो आग्रहपूर्ण प्रबल माँग है उसे वह पूरी नहीं करता, मानव-मन एक ऐसे सामूहिक जीवन के लिए पुकार मचा रहा है जो अंत में महत्तर बौद्धिक एवं नैतिक आदर्श को और यथासंभव क्रियाशील आध्यात्मिक आदर्श को भी मूर्त्तिमंत करे, पर यह समाधान

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 उसका प्रत्युत्तर नहीं देता । गीता का आह्वान उस व्यक्ति के प्रति है जो पूर्ण आध्यात्मिक जीवन के योग्य बन चुका है; किंतु शेष मानवजाति के लिए तो यह केवल एक क्रमिक उन्नति का ही निर्देश करती है, वह उन्नति निष्ठापूर्वक एवं अधिकाधिक बुद्धिपूर्वक, नैतिक उद्देश्य को सामने रखकर एवं अध्यात्म की ओर अंतिम रूप से अभिमुख होकर अपनी-अपनी प्रकृति के धर्म का पालन करते हुए ज्ञानपूर्वक संपन्न करनी होती है । इसका संदेश अन्य कम महत्वपूर्ण समाधानों का भी उल्केख करता है, पर जब यह उन्हें अंशत: स्वीकार करती भी है तब भी उन्हें उनसे परे के एक उच्चतर तथा समग्रतर रहस्य की ओर .मार्ग- निर्देश करने के लिए ही स्वीकार करती है, उस रहस्य में प्रवेश पाने के लिए अबतक केवल गिने-चुने व्यक्तियों ने ही अपनेको योग्य सिद्ध किया है ।

 

जो मन प्राणिक तथा दैहिक जीवन का पीछा करता है उसके लिए गीता का संदेश यह है कि निश्चय ही जीवनमात्र व्यक्ति के अंदर विश्व-शक्ति का प्राकटय है, यह आत्मा से ही उद्भूत हुआ है तथा भगवान् की एक रश्मि है, पर वास्तव में यह आत्मा और भगवान् का वह रूप है जिसमें वे आवरणकारी माया के अंदर छुपे हुए हैं, और निम्न जीवन का उसके निज के लिए अनुसरण करने का मतलब है एक भ्रांतिपूर्ण पथ पर डटे रहना और अपनी प्रकृति के तमसाच्छन्न अज्ञान को सत्ताधिरूढ़ कर देना, पर इससे जीवन का वास्तविक सत्य एवं पूर्ण विधान कदापि उपलब्ध नहीं होता । जीवनेच्छा, शक्ति-प्राप्ति की इच्छा, वासना की पूर्ति, केवल बल-पौरुष का ही गुण-गान, अहं की पूजा और उसकी उग्र स्वेच्छापूर्ण अर्जन-प्रवृत्ति एवं अश्रांत स्वार्थदर्शी बुद्धि की उपासना--यह असुर का गुण-धर्म है और केवल किसी घोर विनाश एवं सर्वनाश की ओर ही ले जा सकता है । प्राणप्रधान एवं देहपरायण मनुष्य को अपने ऊपर नियंत्रण स्थापित करने के लिए किसी धार्मिक, सामाजिक एवं आदर्शवादी विधान (धर्म ) को स्वीकार करना होगा जिसके द्वारा वह, कुछ समुचित मर्यादाओं के अधीन अपनी कामना एवं स्वार्थ की पूर्ति करता हुआ भी, अपने निम्न व्यक्तित्व को शिक्षित एवं संयत कर सके तथा इसे व्यक्तिगत जीवन एवं सामाजिक जीवन दोनों के उच्चतर धर्म के साथ सूक्ष्म रूप से समस्वर कर सके ।

 

जो मन बौद्धिक, नैतिक और सामाजिक आदर्शों के अनुसरण में लगा हुआ है, जो मन प्रचलित धर्मों ( विधानों ) और नैतिक नियम, सामाजिक कर्त्तव्य कर्म के पालन या मुक्त प्रज्ञा के समाधानों के अनुसरण के द्वारा मोक्ष प्राप्त करने का आग्रह करता है उसके लिए गीता का संदेश यह है कि निःसंदेह यह एक अत्या-वश्यक अवस्था है, धर्म का अनुष्ठान करना निश्चय ही आवश्यक है और यथावत्

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अनुष्ठान करने से वह अंतरात्मा की स्थिति को ऊँचा उठा सकता है तथा उसे अध्यात्म-जीवन के लिए तैयार कर सकता एवं इसमें सहायक हो सकता है, परंतु फिर भी वह जीवन का पूर्ण एवं अंतिम सत्य नहीं है । मनुष्य की अंतरात्मा को इससे भी परे मानव की आध्यात्मिक एवं अविनश्वर प्रकृति के किसी पूर्णतर धर्म तक पहुँचना होगा । और, यह केवल तभी किया जा सकता है यदि हम निम्नतर मानसिक तत्त्वों की अज्ञ रचनाओं को तथा अहमात्मक व्यक्तित्व के मिथ्यात्व को दबा दें तथा उनसे मुक्त हो जायँ, बुद्धि और संकल्प की क्रिया को निर्वेयक्तिक रूप दे दें, सर्वगत एकमेव आत्मा के तादात्म्य में निवास करें, अहं के सभी साँचों को तोड़कर निर्व्यक्तिक आत्मा में प्रविष्ट हो जायें । मन त्रिविध निम्नतर प्रकृति की सीमाबद्धकारी प्रेरणा के अधीन होकर क्रिया करता है; तामसिक, राजसिक या अधिक-से-अधिक सात्त्विक गुण के अनुसार अपने मान-दंड स्थापित करता है; परंतु आत्मा की भवितव्यता है दिव्य पूर्णता एवं मुक्ति और इसका आधार केवल अपनी उच्चतम आत्मा की स्वाधीनता में ही स्थापित किया जा सकता है, मन से परे उस आत्मा की विशाल निर्व्यक्तिकता एवं विश्व-मयता में से गुजरते हुए सर्वधर्मातीत, अपरिमेय भगवान् एवं परमोच्च 'अनंत'  की समग्र ज्योति में प्रवेश करके ही इसे प्राप्त किया जा सकता है ।

 

अनंत के जो चरम-पंथी उपासक निर्व्यक्तिकता को चरम ऐकांतिक छोरतक ले जाते है, जीवन और कर्म का विलोप करने के लिए अपने अंदर एक अनुदार आवेग का पोषण करते हैं और अनिर्वचनीय ब्रह्म की विशुद्ध नीरवता में समस्त व्यक्तिगत सत्ता का लय करने के प्रयत्न को एकमात्र चरम लक्ष्य एवं आदर्श बनाना चाहते हैं उनके लिए गीता का संदेश यह है कि यह अनंत की ओर यात्रा करने तथा उसमें प्रवेश करने का एक मार्ग अवश्य है, पर है सबसे कठिन, एक उपदेश या दृष्टांत के द्वारा निष्क्रियता का आदर्श जगत् के सामने रखना एक भयावह वस्तु है, यह पथ यद्यपि महान् है पर फिर भी यह मनुष्य के लिए सर्वोत्तम पथ नहीं है, और यह ज्ञान यद्यपि सत्य है तो भी यह समग्र ज्ञान नहीं है । परमोच्च सत्ता, सर्व-चेतन आत्मा, परमेश्वर, अनंत भगवान् केवल दूरस्थ एवं अनिर्वचनीय अध्यात्म-सत्ता ही नहीं हैं; वे यहाँ जगत् में एक ही साथ गुप्त और प्रकट दोनों रूपों में विराजमान हैं, मनुष्य के द्वारा, देवताओं एवं सर्वभूतों के द्वारा वे प्रकटी-भूत हैं, और साथ ही यहाँ जो कुछ भी है उस सबमें वे गुप्त रूप से भी विद्यमान हैं । अपि च, उन्हें किसी निर्विकार नीरवता में ही नहीं, बल्कि जगत् तथा इसके जीवों में और समस्त सत्ता एवं समस्त प्रकृति में भी ढूँढ़ करके, बुद्धि, हृदय, संकल्प और प्राण के सभी कार्यों को उनके साथ समग्र एवं उच्चतम एकत्व में उठा ले

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जाकर मनुष्य एक ही संग आत्मा और ईश्वर के संबंध में अपनी आंतरिक समस्या तथा अपने क्रियाशील मानवजीवन की बाह्य समस्या को हल कर सकता है । भगवान् के समान बनकर, भगवान् के साथ साधर्म्य लाभ करके वह उस परम अध्यात्म-चेतना के अनंत विस्तार का आनंद ले सकता है जो प्रेम और ज्ञान की भाँति कर्मों के द्वारा भी उपलब्ध हो सकती है । अमर एवं मुक्त होकर वह उस उच्चतम स्तर से अपना मानवीय कर्म करता रह सकता है और उसे एक परम एवं सर्वतोमुख दिव्य प्रेम में परिणत कर सकता है,--निसंदेह यहाँ समस्त कर्म-कलाप, जीवन और यज्ञ का एवं जगत् के समस्त प्रयास का अंतिम शिखर एवं मर्म यही है ।

 

यह सर्वोच्च संदेश सर्वप्रथम उनके लिए है जिनमें इसका अनुसरण करने की शक्ति विद्यमान है, उन श्रेष्ठ पुरुषों, महात्माओं, ईश्वर-ज्ञानी, ईश्वर-कर्मी, ईश्वर-प्रेमी लोगों के लिए है जो ईश्वर के अंदर तथा ईश्वर के लिए जीवन यापन कर सकते हैं और जगत् में उन्हींके हित आनंदपूर्वक अपना कर्म कर सकते हैं, वह कर्म मानव-मन के अशांतिमय अंधकार से तथा अहं की मिथ्या सीमाओं से ऊपर उठा हुआ एक दिव्य कर्म होता है । इसके साथ ही, गीता घोषणा करती है कि सभी लोग, नीच-से-नीच तथा पापी-से-पापी भी, यदि चाहें तो, इस योग के मार्ग पर आरूढ़ हो सकते हैं, और यहाँ हमें एक व्यापकतर आशा की किरण दिखाई देती है जिसे हम इस आशा तक विस्तारित कर सकते है कि समाज भी पूर्णता की ओर अग्रसर हो सकता है,-क्योंकि यदि मनुष्य के लिए आशा है तो मानवजाति के लिए भी आशा क्यों नहीं होनी चाहिए ? और यदि सच्चा आत्म-समर्पण तथा अंतर्वासी भगवान् के प्रति पूर्ण अहंरहित श्रद्धा विद्यमान हो तो इस मार्ग में सफलता अवश्यमेव प्राप्त होगी । भगवान् की ओर सुनिश्चित रूप से मुड़ना आवश्यक है; अध्यात्म-सत्ता में सुदृढ़ विश्वास, भगवान् में निवास करने का, सत्ता एवं प्रकृति में उनके साथ एकमय होने का सच्चा एवं प्रबल संकल्प आवश्यक है-क्योंकि प्रकृति में भी हम उनकी सत्ता के शाश्वत अंश हैं; उनकी महत्तर आध्यात्मिक प्रकृति के साथ एक होना, अपने सभी अंगों में भगवदधिकृत और भगवत्तुल्य होने का सच्चा एवं दृढ़ संकल्प करना परमावश्यक है ।

 

अपने विचार को पल्लवित करती हुई गीता अनेक प्रश्न उपस्थित करती है, जैसे, प्रकृति का नियंतृत्व, विश्व-अभिव्यक्ति का गूढ़ार्थ और मुक्त जीव की चरम स्थिति; ये ऐसे प्रश्न हैं जो सदा से ही अंतहीन एवं अनिर्णायक वाद-विवाद के विषय रहे हैं । हमारी इस निंबंधमाला का उद्देश्य है गीता के सार-तत्व की छानबीन तथा सुस्पष्ट व्याख्या, मानवजाति की चिरंतन आध्यात्मिक

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विचारधारा को गीता की जो देन है उसकी तथा गीता की जीवंत साधना के सार-मर्म की विशद चर्चा । अतएव, इस निबंधमाला में इन विवादों के अन्दर गहरे उतरना या यह विचार करना आवश्यक नहीं कि कहाँ-कहाँ इसके दृष्टिकोण या सिद्धांतों से हमारा मतभेद हो सकता है, कहाँ हम अपनी सहमति में किसी प्रकार की ननुनच प्रकट कर सकते हैं अथवा यहाँतक कि अपने परवर्ती अनुभव पर दृढ़ रहते हुए इसकी दार्शनिक शिक्षा या इसके योग से परे जा सकते हैं । फिर भी, चिरंतन अन्वेषक एवं आविष्कारक मानव को उसके वर्तमान चक्रों के बीच तथा उसकी आत्मा के ज्योतिर्मय शिखरों तक उसके जीवन को ऊँचा उठाने की जो संभावना है उस संभवनीय पर दुष्करतर आरोहण के बीच मार्ग दिखाने के लिए गीता जो जीवन्त संदेश लायी है उसका निरूपण करके इस ग्रंथ का उपसंहार करना ही पर्याप्त होगा ।

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