गीता-प्रबंध

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Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) Essays On The Gita Vol. 13 576 pages 1970 Edition
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Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo गीता-प्रबंध 629 pages 1984 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

 

 

गीता-प्रबंध

 

 

भाग १

 

 

 

 

 


गीता से हमारी आवश्यकता और माँग

 

संसार में कितने ही सद्ग्रंथ हैं, वैदिक और लौकिक भी, कितने ही आगम-निगम और स्मृति-पुराण हैं, कितने ही धर्म और दर्शन-शास्त्र है, कितने ही मत, पथ और संप्रदाय हैं । अधकचरे ज्ञानी अथवा सर्वथा अज्ञानी मनुष्यों के विविध मन इन सबमें ऐसी अनन्य-बुद्धि और आवेश से अपने-आपको बाँधे हुए है कि जो कोई जिस ग्रंथ या मत को मानता है उसी को सब कुछ जानता है, यह देख भी नहीं पाता कि उसके परे और भी कुछ है । वह अपने चित्त में ऐसा हट पकड़े रहता है कि बस यही या वही ग्रंथ भगवान् का सनातन वचन है और बाकी सब ग्रंथ या तो केवल ढोंग हैं या यदि उनमें कहीं कोई भगवत्प्रेरणा या भाव है तो वह अधूरा है, और इसी तरह से ऐसा हठ कि हमारा अमुक दर्शन ही बुद्धि की पराकाष्ठा हैबाकी सब दर्शन या तो केवल भ्रम हैं अथवा उनमें यदि कही आंशिक सत्य है भी तो उतना ही है जो उनके एकमात्र सच्चे दार्शनिक संप्रदाय के अनुकूल है । भौतिक विज्ञान के आविष्कारों का भी एक संप्रदाय-सा बन गया है और उसके नाम पर धर्म और अध्यात्म को अज्ञान और अंधविश्वास तथा दर्शन-शास्त्रों को कूड़ा-करकट और खयाली पुलाव कहकर उड़ा दिया गया है । और, बड़े मजे की बात तो यह है कि बडे-बडे बुद्धिमान लोग भी प्राय: इन पक्षपातपूर्ण आग्रहों और व्यर्थ के झगड़ों में पड़कर इन्हें पुष्टि देते रहे हैं, कोई तमोभाव ही उनके निर्मल सात्विक ज्ञान के प्रकाश में मिलकर, उसे बौद्धिक अहंकार या आध्यात्मिक अभिमान से ढककर उन्हें इस प्रकार भटकाता रहा है । अब अवश्य ही मनुष्य-जाति पहले की अपेक्षा कुछ अधिक विनयशील और समझदार होती हुई दीख पड़ती है; अब हम लोग अपने भाइयों को ईश्वरीय सत्य के नाम पर कत्ल नहीं करते, न इसलिये मार ही डालते हैं कि उनके अंतःकरणों की शिक्षा-दीक्षा हम लोगों की शिक्षा-दीक्षा से भिन्न है या उन अंतःकरणों का साँचा-ढाँचा कुछ और ही प्रकार का है, अब हम लोग अपने पड़ोसियों को, अपनी राय से भिन्न राय रखने की हिमाकत या जुर्रत करने पर, कोसते या भला-बुरा कहते कुछ सकुचाते है, अब तो हम लोग यह भी स्वीकार करने लगे हैं कि सत्य

 


सर्वत्र है, केवल हम ही उसके ठेकेदार नहीं, अब हम दूसरे धर्मों और दर्शनों को भी देखने लगे हैं, इसलिए नहीं कि उन्हें केवल झूठा साबित करके बदनाम करें, बल्कि इसलिए कि देखें उनमें कहाँ क्या सदुपदेश है और उससे हमें क्या सहायता मिल सकती है । परन्तु फिर भी हमें यह कहने का अभ्यास अभी तक बना हुआ है कि हम जिसे सत्य कहते और मानते हैं वही वह परम ज्ञान है जो अन्य धर्मों या दर्शनों को नहीं मिला और यदि मिला भी है तो अंशमात्र और अधूरे तौर पर, अर्थात् उनमें सत्य के केवल उन गौण और निम्नतर अंगों का ही निरूपण है जो कम विकसित लोगों के लिये ही उपयोगी हैं या उन्हें हमारी ऊँचाइयों तक उठाने के लिये निम्न साधनमात्र हैं । और, अभी तक हम लोगों की प्रवृत्ति ऐसी ही बनी हुई है कि जिस किसी सद्ग्रंथ या सदुपदेश का हम लोग आदर करते हैं उसी को सर्वांग रूप से सर्वथा ब्रह्मवाक्य मानते और सिर-आँखों पर रखते हैं तथा इसी रूप में उसे दूसरों पर भी जबर्दस्ती इस आग्रह के साथ लादना चाहते हैं कि यह सारे-का-सारा इसी रूप में स्वतःप्रमाण सनातन सत्य है, इसके एक अक्षर या माला को भी इधर-से-उधर नहीं किया जा सकता, क्योंकि ये सभी उसी एक अपरिमेय प्रेरणा के अंश हैं ।

इसलिए वेद, उपनिषद् अथवा गीता जैसे प्राचीन सद्ग्रंथ का विचार करने में प्रवृत्त होते हुए, आरम्भ में ही यह बतला देना बहुत अच्छा होगा कि हम किस विशिष्ट भाव से इस कार्य में लग रहे हैं और हमारी समझ में इससे मानव-जाति तथा उसकी भावी संतति का क्या वास्तविक लाभ होगा । सबसे पहली बात है कि हम निश्चय ही उस परम सत्य को ढूंढ रहे हैं जो एक और सनातन है, जिससे अन्य सब सत्य पैदा होते हैं, जिसके प्रकाश में ही अन्य सब परम ज्ञान की योजना में अपना ठीक स्थान, व्याख्या और सम्बन्ध पाते हैं । परन्तु इसी कारण वह परम सत्य किसी एक पैने सूत्र के अन्दर बंद नहीं किया जा सकता अर्थात् यह संभव नहीं है कि वह परम सत्य पूरी तरह और पूर्ण रूप में किसी एक दर्शन-शास्त्र या किसी एक सद्ग्रंथ में प्राप्त हो जाय, न यही संभव है कि किसी एक गुरु, मनीषी, पैगंबर या अवतार के मुख से वह सदा के लिये सर्वांश में निकला हो । और यदि उस परम सत्य के विषय में हमारी कल्पना या भावना कुछ ऐसी हो जिससे अपनेसे इतर संप्रदायों के आधारभूत सत्यों के प्रति असहिष्णु होकर हमें उनका बहिष्कार करना पड़े तो यह समझना चाहिए कि हमें उस परम सत्य का पूरा पता नहीं चला; कारण जब हम इस प्रकार अंध आवेश में आकर किसी सिद्धांत का बहिष्कार करने पर तुल जाते हैं तब इसका मतलब केवल इतना ही होता है कि हम उसको समझने या समझाने के पात्र नहीं हैं । दूसरी बात यह है कि

 


वह परम सत्य यद्यपि एक और सनातन है, पर वह अपने-आपको काल में और मनुष्य की मन-बुद्धि में से होकर प्रकट करता है, और इसलिए प्रत्येक सद्ग्रंथ में दो तरह की बातें हुआ करती हैं, एक सामयिक, नश्वर, देश-विशेष और काल-विशेष से संबंध रखनेवाली, और दूसरी शाश्वत, अविनश्वर, सब कालों और देशों के लिये समान रूप से उपयोगी और व्यवहार्य । फिर यह भी बात है कि परम सत्य के विषय में जब जो कुछ कहा जाता है वह जिस रूप में, जिस विचार- पद्धति और अनुक्रम से, जिस आध्यात्मिक और बौद्धिक साँचे में ढालकर कहा जाता है, उसके लिये जिन विशेष शब्दों का प्रयोग किया जाता है वे सब अधिकांश में काल की परिवर्तनशील गति के अधीन होते हैं और उनकी शक्ति सदा एक-सी नहीं रहती, क्योंकि मानव-बुद्धि सदा बदलती रहती है; यह सदा ही विविध तथ्यों को एक-दूसरे से पृथक् करके देखती और फिर उन्हें एक साथ जुटाती हुई अपने विभाजन और समन्वयों का क्रम सदा बदला करती है । वह सदा प्राचीन शब्द-प्रयोगों और संकेतों को पीछे छोड़ती और नये शब्द और संकेत गढ़ा करती है, यदि प्राचीन प्रयोगों का फिर से उपयोग करती भी है तो उनके अर्थ या कम-से-कम उनके गूढ़ आशय या अर्थ-संगति को बहुत कुछ बदल देती है । हम आज किसी प्राचीन सद्ग्रंथ को समझना चाहें तो पूर्ण निश्चय से नहीं कहा जा सकता कि जिस समय का वह ग्रंथ है उस समय के लोगों ने उसे जिस भाव से देखा या उससे जो अर्थ ग्रहण किया ठीक उसी भाव और अर्थ को हम भी ग्रहण कर रहे है । इसलिए ऐसे सद्ग्रंथों में संपूर्ण रूप से चिरंतन महत्व का विषय वही है जो सर्वदेशीय होने के अतिरिक्त अनुभव किया हुआ हो, जो अपने जीवन में आ गया हो और बुद्धि की अपेक्षा किसी परे की दृष्टि से देखा गया हो ।

यदि किसी प्रकार यह जानना संभव भी हो कि गीता की किस शास्त्रीय परिभाषा से उस समय के लोग कौन-सा अर्थ ग्रहण करते थे तो भी मेरे विचार में, इसका कोई विशेष महत्व नहीं है । आजतक जो भाष्य लिखे गये हैं और लिखे जा रहे हैं उनके परस्पर-मतभेद से स्पष्ट ही है कि यह जानना किसी तरह से संभव भी नहीं है; ये सेब-के-सब एक दूसरे से भिन्न होने में ही एकमत हैं, प्रत्येक भाष्य को गीता में अपनी ही आध्यात्मिक रीति और धार्मिक विचारधारा दिखायी देती है । इस विषय में चाहे कोई कितना ही अधिक प्रयास करे, कितना भी तटस्थ होकर देखे और भारतीय तत्वज्ञान के विकासक्रम के संबंध में चाहे जैसे उद्बोधक सिद्धांत स्थापित करने का प्रयत्न करे, पर यह विषय ही ऐसा है कि इसमें भूल होना अनिवार्य है । इसलिए गीता के विषय में हम यह कर सकते हैं, जिससे कुछ लाभ हो सकता है, की इसके तत्वदर्शन से अलग जो प्रकृत जीते-

 


जागते तथ्य हैं उन्हें ढूंढे, हम गीता से वह चीज लें जो हमें या संसार को सहायता पहुँचा सके और जहांतक हो सके उसे ऐसी स्वाभाविक और जीती-जागती भाषा में प्रकट करें जो वर्तमान मानव-जाति की मनोवृत्ति के अनुकूल हो और जिससे उसकी पारमार्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति में मदद मिले । इस प्रयास में हो सकता है कि हम बहुत-सी ऐसी भूलों को मिला दें जो हमारे व्यक्तित्व और इस समय के विशिष्ट संस्कारों से उत्पन्न हुई हों, इससे हमसे बड़े हमारे पूर्वाचार्य भी नहीं बच पाये हैं; परन्तु यदि हम इस महत् सद्ग्रंथ के भाव में अपने-आपको तल्लीन कर दें, और सबसे बड़ी बात यह है कि यदि हम उस भाव को अपने जीवन में चरितार्थ करने का प्रयत्न करते हों, तो इसमें संदेह नहीं कि हम इस सद्ग्रंथ में से उतनी सद्वस्तु तो ग्रहण कर ही सकेंगे जितनी के हम पात्र या अधिकारी हैं और साथ ही हमें इससे वह पारमार्थिक प्रभाव और वास्तविक सहायता भी प्राप्त हो सकेगी जो व्यक्तिगत रूप से हम इससे प्राप्त करना चाहते थे । और, इसी को देने के लिये सद्ग्रंथों की रचना हुई थी; बाकी जो कुछ है वह शास्त्रीय बाद-विवाद या धार्मिक मान्यता है । केवल ऐसे ही सद्ग्रंथ, धर्मशास्त्र और दर्शन मनुष्य-जाति के काम के बने रहते हैं जो इस प्रकार नित नये होते रहे हों, जो पुनः-पुन: जीवन में चरितार्थ किये जाते हों, जिनका आधारभूत शाश्वत तत्व निरंतर नया रूप लेता और विकसनशील मनुष्य-जाति की अंतर्बिचारधारा और आध्यात्मिक अनुभूति से विकसित होता हो । इसके सिवाय जो कुछ है वह भूतकाल का भव्य स्मारक तो है, पर उसमें भविष्य के लिये कोई यथार्थ शक्ति या सजीव प्रेरणा नहीं है ।

गीता में ऐसा विषय बहुत ही कम है जो केवल एकदेशीय और सामयिक हो और जो है भी उसका आशय इतना उदार, गंभीर और व्यापक है कि उसे बिना किसी विशेष आयास के, और इसकी शिक्षा का जरा भी ह्रास या अतिक्रम किये बिना व्यापक रूप दिया जा सकता है; इतना ही नहीं, बल्कि ऐसा व्यापक रूप देने से उसकी गहराई, उसके सत्य और उसकी शक्ति में वृद्धि होती है । स्वयं गीता में ही बारंबार उस व्यापक रूप का संकेत किया गया है जो इस प्रकार देशकालमर्यादित भावना या संस्कार-विशेष को दिया जा सकता है । उदाहरण के लिये "यज्ञ" संबंधी प्राचीन भारतीय विधि और भावना को गीता ने देवताओं और मनुष्यों का पारस्परिक आदान-प्रदान कहा है । यज्ञ की यह विधि और भावना स्वयं भारतवर्ष में ही बहुत काल से लुप्तप्राय हो गयी है और सर्वसाधारण मानव-मन को इसमें कुछ भी तथ्य नहीं प्रतीत होता 1 परन्तु गीता में यह "यज्ञ" शब्द इतना आलंकारिक, सांकेतिक और सूक्ष्म तत्व का परिचायक है तथा

 


देवता-विषयक भावना देशकालमर्यादा और किंवदंती से इतनी मुक्त और इतने पूर्ण रूप से सार्वभौम और दार्शनिक है कि हम यज्ञ और देवता दोनों को मनोविज्ञान और प्रकृति के साधारण विधान के व्यावहारिक तथ्य के रूप में सहज ही ग्रहण कर सकते हैं और इन्हें, प्राणियों में परस्पर होनेवाले आदान-प्रदान, एक-दूसरे के हितार्थ होनेवाले बलिदान और आत्मदान के विषय में जो आधुनिक विचार हैं, उनपर, इस तरह घटा सकते हैं कि इनके अर्थ और भी उदार और गंभीर हो जायँ, ये अधिक सच्चे आध्यात्मिक और गंभीरतर अत्यधिक विस्तीर्ण सत्य के प्रकाश से प्रकाशित हो जायँ । इसी प्रकार शास्त्र-विधान के अनुसार कर्म, चातुर्वर्ण्य, विभिन्न वर्णों की स्थिति में तारतम्य, या अध्यात्म-विषय में शूद्रों और स्त्रियों के अनधिकार, ये सब बातें पहली नजर में तो देश-विशेष या काल-विशेष से ही संबंध रखनेवाली प्रतीत होती हैं और इनका यदि एकमात्र शाब्दिक अर्थ ही लिया जाय तो गीता की शिक्षा उतने अंश में अनुदार ही हो जाती है और उससे गीता के उपदेश की व्यापकता और आध्यात्मिक गंभीरता नष्ट हो जाती है और फिर समस्त मनुष्य-जाति के लिये उसका उतना उपयोग नहीं रह जाता 1 परन्तु यदि हम इसके आन्तरिक भाव और अर्थ को देखें, केवल देश-विशिष्ट नाम और काल-विशिष्ट रूप को नहीं, तो यह दिखायी देगा कि यहाँ भी अर्थ गूढ़, गंभीर और तथ्यपूर्ण है और इसका आंतरिक भाव दार्शनिक, आध्यात्मिक और सार्वजनीन है । मालूम होता है कि शास्त्र शब्द से गीता में उस विधान से मतलब है जिसे मनुष्य-जाति ने असंस्कृत प्राकृत मनुष्य के केवल अहंभाव से प्रेरित कर्म के स्थान पर अपने ऊपर लगाया है, इस विधान का हेतु अहंकार को हटाना है, और मनुष्य की जो स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह अपनी वासनाओं की तृप्ति को ही अपने जीवन का मानक और उद्देश्य बना लेना चाहता है, उस प्रवृत्ति का नियमन करना है । ऐसे ही चातुर्वर्ण्य भी एक आध्यात्मिक तथ्य का ही एक स्थूल रूप है, जो स्वयं उस स्थूल रूप से स्वतन्त्र है । उसका अभिप्राय यह है कि कर्म, कर्त्ता के स्वभाव के अनुसार सम्यक् रूप से संपादित हो और वह स्वभाव सहज गुण और अपने-आपको प्रकट करनेवाली वृत्ति के अनुसार उसके जीवन की धारा और क्षेत्र को निर्धारित करे । इसलिए जब गीता में आये हुए स्थानिक और सामयिक उदाहरण इसी गभीर और उदार भाव से प्रयुक्त हुए हैं तो हमारा इसी सिद्धांत का अनुसरण करना और स्थानिक और सामयिक दीखनेवाली बातों में छिपे गंभीरतर सामान्य सत्य को ढूँढना समुचित ही होगा । कारण, यह बात पद-पद पर मिलेगी कि यह गंभीरतर तथ्य और तत्व गीता की विवेचन-पद्धति में बीज-रूप से वहाँ भी छिपा है जहाँ वह स्पष्ट शब्दों में व्यक्त नहीं किया गया है ।

 


गीता में तत्कालीन दार्शनिक परिभाषाओं और धार्मिक संकेतों के प्रयुक्त होने से जो दार्शनिक सिद्धान्त या धार्मिक मत आ गये हैं या किसी प्रकार संग हो लिये हैं उनका विवेचन भी हम इसी भाव से करेंगे । गीता में जहाँ सांख्य और योग की बात आती है वहाँ हम गीता के एक पुरुष का प्रतिपादन करनेवाले वेदांत के साँचे में ढले हुए सांख्य का, प्रकृति और अनेक पुरुषों का प्रतिपादन करनेवाले अनीश्वरवादी सांख्य के साथ उतना ही तुलनात्मक विवेचन करेंगे जितना कि हमारी व्याख्या के लिये आवश्यक होगा । इसी प्रकार गीता के बहुविध, सुसमृद्ध, सूक्ष्म और सरल स्वाभाविक योग के साथ पातंजल योग के शास्त्रीय, सूत्रबद्ध और क्रमबद्ध मार्ग का भी उतना ही विवेचन करेंगे, उससे अधिक नहीं । गीता में सांख्य और योग एक ही वेदान्त के परम तात्पर्य की ओर ले जानेवाले दो मार्ग हैं, बल्कि यह कहिये कि वैदांतिक सत्य की सिद्धि की ओर ले जानेवाले दो परस्पर-सहकारी साधन हैं, एक दार्शनिक, बौद्धिक और वैश्लेषणिक और दूसरा अंत:स्फुरित, भक्तिभावमय, व्यावहारिक, नैतिक और समन्वयात्मक है, जो अनुभूति द्वारा ज्ञान तक पहुँचाता है । गीता की दृष्टि में इन दोनों शिक्षाओं में कोई वास्तविक भेद नहीं है । बहुत से लोग जो यह मानते हैं कि गीता किसी धार्मिक संप्रदाय या परंपरा-विशेष का फल है उसके बारे में विचार करने की भी हमें कोई आवश्यकता नहीं है । गीता का उपदेश सबके लिये है, उसका मूल भले ही कुछ भी रहा हो ।

गीता की दार्शनिक पद्धति, इसमें जो सत्य है उसका व्यवस्थापनक्रम इसके उपदेश का वह भाग नहीं है जो अत्यंत मुख्य और चिरस्थायी कहा जाय, किन्तु इसकी रचना का अधिकांश विषय, इसके उद्बोधक और मर्मस्पर्शी प्रधान विचार जो इस ग्रंथ के जटिल सामंजस्य में पिरोये गये हैं उनका महत्व चिरंतन है, उनका मूल्य सदा बना रहेगा । कारण, ये केवल दार्शनिक बुद्धि की कल्पना की चमक या चकित करनेवाली युक्ति नहीं हैं, बल्कि आध्यात्मिक अनुभव के चिरस्थायी सत्य हैं, ये हमारी उच्चतम आध्यात्मिक संभावनाओं के प्रमाणयोग्य तथ्य हैं और जो कोई इस जगत् के रहस्य की तहतक पहुँचना चाहता है वह इनकी उपेक्षा कदापि नहीं कर सकता । इसकी विवेचन-पद्धति कुछ भी हो, इसका हेतु किसी खास दार्शनिक मत का समर्थन करना या किसी विशिष्ट योग की पुष्टि करना नहीं है, जैसा कि भाष्यकार प्रमाणित करने की चेष्टा करते हैं । गीता की भाषा, इसके विचारों की रचना, विविध भावनाओं का इसमें संयोग और उनका संतुलन ये सब बातें ऐसी हैं जो किसी सांप्रदायिक आचार्य के मिजाज में नहीं हुआ करतीं, न एक-एक पद को कसौटी पर कसकर देखनेवाली नैयायिक

 


बुद्धि में ही आया करती हैं, क्योंकि उसे तो सत्य के किसी एक पहलू को ग्रहण कर बाकी सबको छाँटकर अलग कर देने की पड़ी रहती है । परन्तु गीता की विचारधारा व्यापक है, उसकी गति तरंगों की तरह चढाव-उतारवाली और नानाविध भावों का आलिंगन करनेवाली है जो किसी विशाल समन्वयात्मक बुद्धि और सुसंपन्न समन्वयात्मक अनुभूति का प्रत्यक्ष प्रमाण है । यह उन महान् समन्वयों में से है जिनकी सृष्टि करने में भारत की आध्यात्मिकता उतनी ही समृद्ध है जितनी कि वह ज्ञान की उन अत्यंत प्रगाढ़ और अनन्यसाधारण क्रियाओं तथा धार्मिक साक्षात्कारों की सृष्टि करने में समृद्ध है, जो किसी एक ही साधनसूत्र पर केन्द्रित होते हैं और एक ही मार्ग की पराकाष्ठा तक पहुँचते हैं । गीता की यह विचारधारा एक को दूसरे से अलग करनेवाली नहीं, बल्कि मिलाने-वाली और एक करनेवाली है ।

गीता का सिद्धांत केवल अद्वैत नहीं है यद्यपि इसके मत से एक ही अव्यय, विशुद्ध, सनातन आत्मतत्व अखिल ब्रह्मांड की स्थिति का आश्रय है; गीता का सिद्धांत मायावाद भी नहीं है यद्यपि इसके मत से सृष्ट जगत् में त्रिगुणात्मिका प्रकृति की माया सर्वत्र फैली हुई है; गीता का सिद्धांत विशिष्टाद्वैत भी नहीं है यद्यपि इसके मत से उसी एकमेवाद्वितीय परब्रह्म में उसकी सनातन परा प्रकृति भी मौजूद है और वह इस बात पर जोर देता है कि उस परब्रह्म में लय नहीं, बल्कि निवास ही आध्यात्मिक चेतना की परा स्थिति है; गीता का सिद्धान्त सांख्य भी नहीं है यद्यपि इसके मत से यह सृष्ट जगत् प्रकृति-पुरुष के संयोग से ही बना है; गीता का सिद्धान्त वैष्णवों का ईश्वरवाद भी नहीं है यद्यपि पुराणों के प्रतिपाद्य श्रीविष्णु के अवतार श्रीकृष्ण ही इसके परमाराध्य देवाधिदेव हैं और इनमें और अनिर्देश्य निर्विशेष ब्रह्म में कोई तात्विक भेद नहीं है, ब्रह्म का दर्जा किसी प्रकार से भी इन ''प्राणिनां ईश्वर:'' से ऊँचा ही है । गीता के पूर्व उपनिषदों में जैसा समन्वय हुआ है वैसा ही गीता का समन्वय है जो आध्यात्मिक होने के साथ-साथ बौद्धिक भी है और इसलिए इसमें कोई ऐसा अनुदार सिद्धान्त नहीं आने पाता जो इसकी सार्वलौकिक व्यापकता में बाधक हो । वेदान्त के सबसे अधिक प्रामाणिक तीन ग्रंथों में से एक होने के कारण वाद-विवादप्रिय भाष्यकारों ने इस ग्रंथ का उपयोग स्वमत के मंडन तथा अन्य मतों और संप्रदायों के खण्डन में ढाल और तलवार के तौर पर किया है; परन्तु गीता का हेतु यह नहीं है; गीता का उद्देश्य ठीक इसके विपरीत है । गीता तर्क की लड़ाई का हथियार नहीं है; यह वह महाद्वार है जिससे समस्त आध्यात्मिक सत्य और अनुभूति के जगत् की झाँकी मिलती है और इस झाँकी में उस परम दिव्य धाम के

 


सभी ठाम यथास्थान देख पड़ते हैं । गीता में इन स्थानों का विभाग या वर्गी-करण तो है, पर कहीं भी एक स्थान दूसरे स्थान से विच्छिन्न नहीं है न किसी चहारदीवारी या बेड़े से घिरा है कि हमारी दृष्टि आर-पार कुछ न देख सके ।

भारतीय तत्वज्ञान के बृहद् इतिहास में और भी अनेक समन्वय हुए हैं । सबसे पहले वैदिक समन्वय देखिये । वेद में मनुष्य का मनोमय पुरुष दिव्य ज्ञान, शक्ति, आनन्द, जीवन और महिमा में ऊँची-से-ऊँची उड़ान लेता हुआ और विशालतम क्षेत्रों में विहार करता हुआ देवताओं की विश्वव्यापी स्थिति के साथ समन्वित हुआ है, इन देवताओं को उसने जड़प्राकृतिक जगत् के प्रतीकों का अनुसरण करते हुए उन श्रेष्ठतम लोकों में पाया है जो भौतिक इन्द्रियों और स्थूल मन-बुद्धि से छिपे हुए हैं । इस समन्वय की चरम शोभा वैदिक ऋषियों के उस अनुभव में है जिसमें वे उस देवाधिदेव का, उस परात्पर पुरुष का, उस आनंदमय का साक्षात्कार करते हैं जिसकी एकता में मनुष्य की विकसित होती हुई आत्मा तथा विश्वव्यापी देवताओं की पूर्णता पूर्णतया मिलते और एक-दूसरे को चरितार्थ करते हैं । उपनिषदें पूर्व ऋषियों की इस चरम अनुभूति को ग्रहण कर इससे आध्यात्मिक ज्ञान का एक महान् और गभीर समन्वय साधने का उपक्रम करती हैं; सनातन पुरुष से प्रेरणा पानेवाले मुक्त ज्ञानियों ने  आध्यात्मिक अनुसंधान के दीर्घ और सफल काल में जो कुछ दर्शन और अनुभव किया उस सबको उपनिषदों ने एकत्र करके एक महान् समन्वय के अन्दर ला रखा । इस वेदांत-समन्वय से गीता का आरम्भ होता है और इसके मूलभूत सिद्धान्तों के आधार पर गीता ने प्रेम, ज्ञान और कर्म, इन तीन महान् साधनों और शक्तियों का एक समन्वय साधित किया है । इसके बाद वह तांत्रिक समन्वय है जो सूक्ष्मदर्शिता और आध्यात्मिक गंभीरता में किसी कदर कम होने पर भी साहसिकता और बल में गीता के समन्वय से भी आगे बढ़ा हुआ है, कारण, आध्यात्मिक जीवन में जो बाधाएँ हैं उनको भी इसमें पकड़ लिया जाता है और उनसे और भी अधिक सुसमृद्ध आध्यात्मिक विजय के साधन का काम लिया जाता है; इससे सारे का सारा जीवन ही भगवान् की लीला के रूप में हमारे लिये दिव्य जीवन की प्राप्ति कराने का क्षेत्र बन जाता है । कुछ बातों में यह समन्वय अधिक समृद्ध और फलदायी है, क्योंकि यह दिव्य कर्म और दिव्य प्रेमयुक्त सुसमृद्ध सरस भक्ति के साथ-साथ हठयोग और राजयोग के गुह्य रहस्यों को भी सामने ले आता है । वह दिव्य जीवन को उसके सभी क्षेत्रों में उद्घाटित

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१ यह बात स्मरण रहे कि समस्त पौराणिक ऐतिह्य में जो विशिष्ट श्रीशोभासम्पन्नता है वह तंत्रों से आयी हुई है ।

 


कराने के लिये शरीर तथा मानस तप का उपयोग करता है, और यह बात गीता में केवल प्रासंगिक रूप से किसी कदर अन्यमनस्कता के साथ ही कही गयी है । इसके अतिरिक्त इस समन्वय में मनुष्य के भागवत पूर्णता को प्राप्त कर सकने की उस भावना को अपनाने की चेष्टा की गयी है जिसपर वैदिक ऋषि तो अधिकार रखते थे पर पीछे से, मध्य काल में जिसकी उपेक्षा ही होती गयी । अब उत्तर काल में मानव विचार, अनुभव और अभीप्सा का जो समन्वय होगा उसमें निश्चय ही इस भावना का बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण स्थान होगा ।

उत्तर काल के हम लोग उस बिकासोन्नति के नवीन युग के पुरोभाग में उपस्थित हैं जिसकी परिणति इस प्रकार के नूतन और महत्तर समन्वय में होनेवाली है । हमारा यह काम नहीं है कि वेदान्त के तीन प्रधान संप्रदायों में से किसी एक संप्रदाय के या किसी एक तांत्रिक मत के कट्टर अनुयायी बनें या किसी प्राचीन आस्तिक संप्रदाय की लकीर-के-फकीर बनें अथवा गीता की शिक्षा की चहारदीवारी के अन्दर ही अपने-आपको बन्द कर लें । ऐसा करना अपने आपको एक सीमा में बाँध लेना होगा, अपनी आत्मसत्ता और आत्मसंभावना के बदले दूसरों की, प्राचीन लोगों की सत्ता, ज्ञान और स्वभाव में से अपना आध्यात्मिक जीवन निर्मित करने का प्रयास करना होगा । हम बीते हुए उष:काल के नहीं, बल्कि आनेवाले मध्याह्न के व्यक्ति हैं । नवीन साधन सामग्री का एक पुंज हम लोगों के अन्दर प्रवाहित होता हुआ चला आ रहा है, हमें केवल भारतवर्ष के और समस्त संसार के महान् आस्तिक संप्रदायों के प्रभाव को तथा बौद्ध-मत के पुनरुज्जीवित अभिप्राय को ही नहीं अपनाना होगा, बल्कि आधुनिक ज्ञान और अनुसंधान के फलस्वरूप जो कुछ, मर्यादित रूप में ही क्यों न हो पर विशेष क्षमता लिये हुए, प्रत्यक्ष हुआ है उसका भी पूरा ख्याल रखना होगा । इसके अतिरिक्त सुदूर और तिथि-मिति-रहित भूतकाल, जो मृत जैसा दिखायी देता था, अब हमारे समीप आ रहा है और उसके साथ उन ज्योतिर्मय गुह्य रहस्यों का तीव्र प्रकाश है जो मनुष्य की चेतना से एक जमाना हुआ लुप्त हो गये थे, किन्तु अब परदे को चीरकर फिर से बाहर निकल रहे हैं । यह बात भविष्य में होनेवाले एक नवीन, सुसमृद्ध और अति महत् समन्वय की ओर इशारा कर रही है; भविष्य की यह बौद्धिक और आध्यात्मिक आवश्यकता है कि हमारे इन सब प्राप्त अर्थों का फिर से एक नवीन और अति उदार, सबको समा लेनेवाला सामंजस्य सिद्ध हो । पर जिस प्रकार पहले के समन्वयों का उपक्रम और पहले के समन्वयों से ही हुआ, उसी प्रकार भावी समन्वय को भी, वैसा ही स्थिर और सुप्रतिष्ठ होने के लिए, वहीं से आरम्भ करना चाहिए जहाँ हमको

 


प्राचीन आध्यात्मिक तत्वविचार और अनुभवों के वृहत् संस्थानों ने लाकर छोड़ा है । ऐसे संस्थानों में गीता का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है ।

अस्तु ! गीता के इस अध्ययन में हमारा हेतु इसके विचारों का पांडित्यपूर्ण या शास्त्रीय आलोचना करना अथवा इसके दार्शनिक सिद्धांत को आध्यात्मिक अनुसन्धान के इतिहास के अन्दर ले आना न होगा, न हम इसके प्रतिपाद्य विषय को तर्क की कसौटी पर रखकर नैयायिकों के ढंग से ही अध्ययन करेंगे । हम इसके पास साहाय्य और प्रकाश पाने के लिये आते हैं और इसलिये इसमें हमारा हेतु यही होना चाहिए कि हमें इसमें से इसका सच्चा अभिप्राय और जीता-जागता संदेश मिले, वह असली चीज मिले जिसे मनुष्य-जाति अपनी पूर्णता का और अपनी उच्चतम आध्यात्मिक भवितव्यता का आधार बना सके ।

 

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