गीता-प्रबंध

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Sri Aurobindo

Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) Essays On The Gita Vol. 13 576 pages 1970 Edition
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Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo गीता-प्रबंध 629 pages 1984 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

कर्मक्ति और ज्ञान

 

     अतएव, यही संपूर्ण सत्य, परमोच्च और विशालतम ज्ञान है । भगवान् विश्वातीत सनातन परब्रह्म हैं, वे अपनी देशकालातीत सत्ता से, अपनी सत्ता और प्रकृति के इस सारे विश्वरूप आविर्भाव को देश और काल के अन्दर धारण करते हैं । वे परमात्मा हैं जो जगत् के रूपों और गतियों के अंतरीय आत्मा हैं । वे पुरुषोत्तम हैं जिनका सब जीवात्मा और प्रकृति, सारा आत्मभाव और इस जगत् का या किसी भी जगत् का सारा भूतभाव आत्माधान और आत्म-शक्ति-चालन है । वे सब भूतों के अनिर्वचनीय परमेश्वर हैं, वे प्रकृति में व्यक्तीभूत अपनी ही शक्ति को अपने आत्मभाव के वश मे रखे हुए जगत् के चक्र और उन चक्रों में प्राणियों का प्राकृत विकास उद्घाटित करते रहते हैं । जीव, व्यष्टि पुरुष, प्रकृतिस्थ आत्मा, जो उन्हींकी सत्ता से सत् है, जो उन्हींकी चेतना के प्रकाश से सचेतन है, उन्हींके संकल्प और शक्ति से जिसमें ज्ञान-शक्ति, इच्छाशक्ति और क्रियाशक्ति है, उन्हींके दिव्य विश्वभोग से जो जीवन में आनन्द अनुभव करता है, उन्हींसे इन भवचक्रों में आया है ।

 

     मनुष्य की अंतरात्मा यहाँ भगवान् का ही आंशिक आत्मप्राकटय है, जगत् में भगवान् की प्रकृति के कर्मों के लिये स्वतः सीमित हुई है, भगवान् की प्रकृति जीव बनी है, ''प्रकृति: जीवभूता ।''  आत्मतत्व से व्यष्टि पुरुष का भगवान् के साथ अभेद है । भागवत प्रकृति के कर्मों में वह भगवान् से अभिन्न है, तथापि व्यावहारिक भेद है और प्रकृतिस्थ भगवान् और विश्व-प्रकृति के परे स्थित भगवान् के साथ उसके बहुत से गहरे संबंध हैं । प्रकृति के निम्न दृश्य प्रपंचों में यह व्यष्टि जीव एक प्रकार के अज्ञान और अहंभाव-प्रयुक्त पार्थक्य के कारण एकमेव भगवान् से सर्वथा अलग देख पड़ता है और ऐसा मालूम होता है कि वह इस पृथकात्मिका चेतना के अन्दर रहता हुआ अपने आहंकारिक सुख और जगत् में अपने व्यष्टिगत जीवन की तथा जगत् में रहनेवाले अन्य प्राणियों के मन-बुद्धि-प्राणों के साथ अपने बाह्य संबंधों की बातें सोचता, चाहत, करता और भोगता है । परन्तु वास्तव में उसकी सारी सत्ता, उसका सारा चिंतन, उसका चाहना, करना और भोगना

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भगवान् के विचार, संकल्प, कर्म और प्रकृतिभोग का ही एक प्रतिबिम्ब मात्र होता है--यह प्रतिबिम्ब अवश्य ही जबतक वह अज्ञान में है, अहंभावप्रयुक्त और उलटा होता है । व्यष्टि पुरुष के मूल में जो सत्तत्व है उसे पीछे फिरकर पुन: प्राप्त कर लेना ही उसकी मुक्ति का सीधा उपाय है, उसके लिए अज्ञान की दासता से निकलने का यही सबसे चौड़ा और सबसे नजदीक दरवाजा है । है तो वह आत्मा ही, वह जीव जो बुद्धि और विचारशक्ति से युक्त है, जिसमें संकल्प और कर्म करने की शक्ति है, जिसमें भावना, वेदना और जीवन का आनन्द पाने की कामना है, ये सब शक्तियाँ उसमें हैं और इसलिए इन्हीं सब शक्तियों को भगवान् की ओर फेर देने से मनुष्य का अपने परम सत्य को पुन: प्राप्त होना पूर्णतया संभव हो सकता है । उसे परमात्मा और ब्रह्म को ज्ञान से जानना होगा; उसे अपनी भक्ति-पूजा परम पुरुष को चढ़ानी होगी; उसे अपने संकल्प और कर्म अखिल ब्रह्माण्ड के परम अधीश्वर के अधीन करने होंगे । इससे वह निम्न प्रकृति से भागवत प्रकृति में जाता है; वह अज्ञान के विचार, संकल्प और कर्म अपनी प्रकृति से निकाल फेंकता है और अपने भागवत स्वरूप के बोध से, उस परमात्मा के अंश के नाते, उसकी एक शक्ति और ज्योति के नाते सोचता, संकल्प और कर्म करता है; वह केवल इन बाह्य स्पर्शों, आवरणों और दिखावों को ही नहीं बल्कि भगवान् की समग्र आंतरिक अनन्तता को भोगता है । इस प्रकार भागवत भाव से रहता हुआ, इस प्रकार अपने संपूर्ण आत्मभाव और प्रकृति को भगवान् की ओर लगाता हुआ वह परम ब्रह्म के सत्यतम सत्य के अन्दर उठा लिया जाता है ।

 

    वासुदेव को सब कुछ जानना और उसी ज्ञान में रहना ही असली रहस्य की चीज है । मानव जीव उन्हें आत्मा जानता है, वह आत्मा जो अक्षर है, जिसके अन्दर सब कुछ है और जो सब का अंतर्यामी है । वह निम्न प्रकृति के उलझे और अस्तव्यस्त जंजाल से निकल आता और स्वतःसिद्ध आत्मा की सुस्थिर और अचला शान्ति और प्रकाश में निवास करता है । वहाँ वह भगवान् की इस आत्मा के साथ सतत एकत्व को अनुभव करता है जो सब भूतों में स्थित है और समस्त चराचर जगत् की सारी प्रवृत्ति और कर्म तथा दृश्य को धारण करती है । विकारी जगत् के इस सनातन अविकारी आधारभूत आत्मा में स्थित होकर वहाँ से वह उससे भी महान् सनातन, विश्वातीत, परम सत् की ओर देखता है । वह उन्हें सब पदार्थों में निवास करनेवाले आत्मदेव, मानव-हृदय के स्वामी, निगूढ़ ईश्वर जानता है और उस परदे को हटा देता है जो उसके प्राकृत जीवभाव और उसकी सत्ता के इन अंतर्यामी आत्मस्वरूप स्वामी के बीच में है । वह अपने संकल्प, विचार और आचार को ज्ञानपूर्वक ईश्वर के संकल्प, विचार और आचार के साथ

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एक कर देता है, उसका चित्त अन्त:स्थित भगवान् के साथ-सदा अपने अन्दर होने की भावना के साथ एक प्रकार की सतत अनुभूति के द्वारा-सुसंगत बना रहता है और वह सबके अन्दर उन्हींको देखता और उन्हींकी पूजा करता है और समूचे मानव-कर्म को भागवत प्रकृति के परम अभिप्राय में परिणत कर देता है । वह जानता है कि उसके चारों ओर सारे जगत् में जो कुछ है उसके मूल और सार-स्वरूप वे ही हैं । जितने भी पदार्थ हैं उनके बाह्य रूपों को वह ऐसे देखता है मानों वे आवरण हों, इसके साथ ही वह उनके भीतरी अभिप्राय को भी देखता है, देखता है कि ये सब पदार्थ उसी एक अचिंत्य सत्तत्व के स्वत: प्रकट होने के साधन और लक्षण हैं, इसी तरह बाह्य रूप और आंतर अभिप्राय, दोनों को ही एक साथ देखता हुआ वह सर्वत्र उसी एकत्व, उसी ब्रह्म, पुरुष, आत्मा, वासुदेव, उसी वस्तुतत्व को ढूँढ़ता है जो ये सब प्राणी और पदार्थ बना है । इसलिए भी उसका सारा आंतरिक जीवन उस अनन्त के साथ समस्वर और सुसंगत हो जाता है जो अब, यह जो कुछ जीवन-रूप से है या इसके अन्दर और चारों ओर है, इस सबके रूप में स्वतप्रादुर्भूत है और इस तरह उसका समस्त बाह्य जीवन अखिल ब्रह्माण्ड के जीवनोद्देश्य का एक समुचित साधक यंत्न बन जाता है । अपनी आत्मा के द्वारा वह उस परब्रह्म की ओर ताकता है जो परब्रह्म ही यहाँ, वहाँ, सर्वत्र एकमेवाद्वितीय सत् है । अपने अंतःस्थ ईश्वर के द्वारा वह उन परम पुरुष की ओर देखता है जो अपने परम रूप में सब वासस्थानों के परे हैं । विश्व में व्यक्त हुए प्रभु के द्वारा वह उन परम की ओर देखता है जो अपने सब व्यक्त भावों के परे रहकर उनका नियमन करते हैं । इस प्रकार वह ज्ञान के असीम उद्घाटन और ऊर्ध्वदर्शन और अभीप्सा के द्वारा आरोहण कर उस वस्तु को प्राप्त होता है जिसकी ओर उसने अपने-आपको अनन्य और सर्वभाव से फेर लिया है ।

 

     जीव का भगवान् की ओर सर्वभाव से यह फिरना ही मुख्यतया गीता के ज्ञान, कर्म और भक्ति के समन्वय का आधार है । इस प्रकार से भगवान् को सर्वभावेन जानना यह जानना है कि वे ही एक भगवान् आत्मा में हैं, व्यक्तीभूत सारे चराचर जगत् में हैं और समस्त व्यक्त के परे हैं--और यह सब एकीभाव से और एक साथ हैं । परन्तु उन्हें इस प्रकार जानना भी पर्याप्त नहीं होता जबतक कि उसके साथ हृदय और अंत:करण भगवान् की ओर प्रगाढ़ता के साथ ऊपर न उठे, जब-तक कि मनुष्य के अन्दर वह ज्ञान एकमुखी और साथ ही सर्वग्राही प्रेम, भक्ति और अभीप्सा को प्रज्वलित न कर दे । निश्चय ही वह ज्ञान जिसके संग अभीप्सा नहीं होती, जो उन्नयन से उद्दीप्त नहीं होता कोई सच्चा ज्ञान नहीं है, क्योंकि ऐसा ज्ञान केवल बौद्धिक रूप से देखने की क्रिया और नीरस ज्ञान-प्रयास मात्र हो

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सकता है । भगवान् की झांकी पा लेने के बाद तो भगवान् की भक्ति और उन्हें ढूँढ़ने की सच्ची लगन प्राप्त हो ही जाती है-वह लगन हो जाती है जो केवल उन भगवान् को ही नहीं जो अपने कैवल्य रूप में हैं, बल्कि उन भगवान् को भी जो हम लोगों के अन्दर हैं और उन भगवान् को भी जो यह सब जो कुछ है उसके अन्दर हैं, ढूँढ़ती फिरती है । बुद्धि से जानना केवल समझना है और आरंभ के लिये यह एक प्रभावशाली साधन हो सकता है--और यदि उस ज्ञान में कोई दिली सच्चाई न हो तो नहीं भी हो सकता और न होगा ही । यदि चित्त में आंतरिक अनुभूति की कोई प्रवृत्ति न हो, जीव पर छायी हुई कोई शक्ति न हो, आत्मा के अन्दर कोई पुकार न हो, तो उसका अर्थ इतना ही होगा कि मस्तिष्क ने बहिर्भाव से समझा है, पर अन्दर जीव ने कुछ देखा नहीं है । सच्चा ज्ञान अंत:स्थ जीवभाव से जानना है, और जब अंत:स्थ जीव को उस प्रकाश का स्पर्श होता है तब जिस चीज को उसने देखा है उसे गले लगाने के लिए वह उठ खड़ा होता है, उसे आयत्त करने के लिए वह लालायित होता है, उसे अपने अन्दर और अपने-आपको उसके अन्दर रूपान्वित करने के लिए साधन-संग्राम में उतरता है, उसने जो दर्शन किया है उसके तेज के साथ वह एक होने का प्रयास करता है । इस अर्थ में ज्ञान अभेद-भाव को प्राप्त होने के लिये जाग उठता है, और चूँकि अंत:स्थ जीव चैतन्य और आनन्द के द्वारा, प्रेम के द्वारा, आत्मभाव का जो कुछ आभास उसने पा लिया है उसकी प्राप्ति और उसके साथ एकत्व के द्वारा आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त होता है, ज्ञान का अन्दर जाग उठना अपने-आप ही इस सच्चे और एकमात्र पूर्ण साक्षात्कार की एक ऐसी लगन पैदा कर देता है जो सब विध्न-बाधाओं को कुचलकर आगे बढ़ती है । इस तरह जो कुछ जाना जाता है, वह कोई बहिर्भूत विषय नहीं होता बल्कि वह भागवत पुरुष, हम जो कुछ भी हैं उसकी आत्मा और प्रभु का स्वानुभूत ज्ञान होता है । इसके अटल परिणाम-स्वरूप भगवान् के प्रति एक सर्वजित् आनन्दमयी वृत्ति प्रवाहित होने लगती है और एक प्रगाढ़ और भावमय प्रेम और भक्ति की धाराएँ बहने लगती हैं और यही ज्ञान की आत्मा है । और यह भक्ति हृदय की कोई एकांगी वृत्ति नहीं, बल्कि जीवन का सर्वांग समर्पण है । इसलिए यह यज्ञ भी है, क्योंकि इसमें सब कर्म ईश्वरार्पण करने की क्रिया होती है, अपनी सारी क्रियाशील अंतर्बाह्य प्रकृति अपनी प्रत्येक मानसिक और प्रत्येक विषयगत क्रिया में अपने भजनीय भगवान् को समर्पित की जाती है । हमारी सारी मानसिक क्रियाएँ उन्हींके अन्दर होती हैं और वे ढूँढ़ती हैं अपनी सारी शक्ति और प्रयास के मूल और गंतव्य स्थल के तौर पर उन्हींको, उन्हीं आत्मा और प्रभु को । हमारी सब बाह्य क्रियाएँ जगत् में उन्हींकी ओर गतिमान् होतीं और उन्हींको अपना

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लक्ष्य बनाती हैं, भगबत्सेवाकार्य का नवारंभ कराती हैं उस जगत् में जिसकी नियामक शक्ति हमारे वे अंतःस्थ भगवान् हैं जिनके अन्दर ही हम सब विश्व और उसके समस्त जीवों के साथ सर्वभूतस्थित एकात्मा है । क्योंकि, जगत् और आत्मा, प्रकृति और प्रकृतिस्थ पुरुष दोनों उसी एक के चैतन्य से प्रकाशमान हैं और दोनों ही उन्हीं एक परम पुरुष पुरुषोत्तम के ही आन्तर और बाह्य विग्रह हैं । इस प्रकार आत्मा के अन्दर बुद्धि, हृदय और संकल्पक मन का समन्वय होता है और उसके साथ इस पूर्ण मिलन में, इस सर्वांगीण भगवत्साक्षात्कार में, इस भागवत योग में ज्ञान, भक्ति और कर्म का समन्वय होता है ।

 

     परन्तु किसी भी रूप से इस स्थिति को प्राप्त होना अहंबद्ध प्रकृति के लिये कठिन है । और इस स्थिति की विजयशालिनी और सर्वांगीण और सुसंगत पूर्णता को प्राप्त करना तो, तब भी सुगम नहीं होता जब हम अन्तत:एकमेव निश्चय के साथ तथा सदा के लिये इस मार्ग पर पैर रखते हैं । मर्त्य मानस अज्ञानवश आवरणों और बाहरी दिखावों का जो भरोसा किया करता है उससे मूढ़ बन जाता है; वह केवल बाह्य मानव शरीर, मानव अंतःकरण, मानव जीवन-पद्धति ही देखता है और उन भगवान् की, जो प्रत्येक प्राणी में निवास करते हैं, कोई ऐसी झलक नहीं पाता जिससे वह इस अज्ञान और मोह से मुक्त हो सके । उसके अपने अन्दर जो भगवत्तत्व है उसीकी वह उपेक्षा, अवज्ञा करता है और दूसरों के अन्दर उसे नहीं देख पाता, और मनुष्य में अवतार और विभूति के रूप से भगवान् के आविर्भूत होते हुए भी वह अंध ही बना रहता और छिपे हुए भगवान् की अवहेलना या तिरस्कार करता है--''अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।" और, जब वह जीवित प्राणी के अन्दर भगवान् की ऐसी उपेक्षा करता है तब उस बाह्य जगत् में तो वह उन्हें क्या देखेगा जिसे वह अपने पृथक्कर अहंकार की कैद के कारण परिसीमित मन-बुद्धि के बन्द झरोखों से देखा करता है । वह ईश्वर को जगत् में नहीं देखता; उन परमेश्वर को वह कुछ भी नहीं जानता जो इन सब विविध प्राणियों और पदार्थों से परिपूर्ण नानाविध लोकों के स्वामी हैं और इन सब लोकों के सब भूतों में निवास करते हैं; उसकी अंधी आँखें उस प्रकाश को नहीं देख पातीं जिससे संसार में जो कुछ है सब भगवद्धाव की ओर उन्नत होता है और पुरुष स्वयं अपनी अंतःस्थ भगवत्ता में जाग उठता और भगवदीय तथा भगवत्सदृश होता है । जिस चीज को वह जैसे ही देखता, उसी पर लपक कर उसमें आसक्त होता है, वही चीज है अहंभाव का जीवन-सांत वस्तुओंका पीछा, उन्हीं विषयोंकी प्राप्ति के लिये और मन-बुद्धि शरीर तथा इन्द्रियों की पार्थिव लालसामय तृप्ति के लिए । जो लोग मन के इस बहिर्मुखी प्रवाह में अपने-आपको बेतरह

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झोंक देते हैं वे निम्न प्रकृति के हाथों में जा गिरते, उसीसे चिपके रहते और उसीको अपनी आधारभूमि बना लेते हैं । मनुष्य के अन्दर जो राक्षसी प्रकृति है वे उसके शिकार होते हैं । इस प्रकृति के वश में रहनेवाला मनुष्य हर चीजको अपने पृथक् प्राणमय अहंकार की अत्युग्र और अदम्य भोग-लालसा पर न्योछावर कर देता है और उस राक्षस को ही अपने मन, बुद्धि, कर्म और भोग का तमोमय ईश्वर बना लेता है । अथवा वे आसुरी प्रकृति की अहंमन्य स्वेच्छा, स्वत:संतुष्ट विचार, स्वार्थांध कर्म स्वत:-संतुष्ट पर फिर भी सदा असंतुष्ट रहनेवाली बौद्धिकभावापन्न भोग-तृष्णा के द्वारा व्यर्थ के चक्कर में झोंक दिये जाते हैं । परन्तु इस पृथक्कर अहं-चेतना में सतत बने रहना और इसी को अपने सारे कर्मों को केन्द्र बना लेना अपने सत्स्वरूप ज्ञान से सर्वथा वंचित होना है । इससे आत्मा के पथभ्रष्ट करणों पर मोह का जो परदा पड़ता है वह एक ऐसा जादू है जो जीवन को एक निरर्थक चक्कर से बांध देता है । जब भगवदीय और सनातन नाप से नापा जाता है, तो उसकी सारी आशा, कर्म, ज्ञान व्यर्थ देख पड़ते है क्योंकि इससे महद् आशा का द्वार बन्द होता, मुक्तिदायक कर्म छूट जाता, प्रकाश देनेवाला ज्ञान हवा हो जाता है । यह वह मिथ्याज्ञान है जो दृश्य जगत् को देखता है पर उस दृश्य जगत् के सत्तत्व को नहीं देख पाता, यह वही अंधी आशा है जो क्षणभंगुर पदार्थों का पीछा करती पर सनातन को नहीं देख पाती, यह वह निष्फल कर्म है जिसके प्रत्येक लाभ को उससे होनेवाली हानि लुप्त कर देती है ।  सिसिफस की भांति अनन्त कालतक केवल परिश्रम ही हाथ लगता है ।

 

     जो लोग महात्मा हैं, जो अपने आपको उस दैवी प्रकृति के प्रकाश और उदारता की ओर खोल देते हैं जिसे प्राप्त होना मनुष्य की सामर्थ्य के अन्दर है, वे ही उस मार्ग पर हैं जो आरंभ में बहुत ही संकरा पर अंतमें अत्यंत विशाल होता हुआ मुक्ति और पूर्णता की ओर ले जाता है । मनुष्य के अन्दर जो देवत्व है उसकी वृद्धि करना मनुष्य का समुचित कर्म है; उसके अन्दर की निम्न आसुरी और राक्षसी प्रकृति को निरंतर दृढ़तापूर्वक दैवी प्रकृति में परिणत करना ही मानव जीवन का दक्षतापूर्वकनिहित मर्म है । जैसे-जैसे यह वृद्धि होती जाती है, वैसे-वैसे आवरण हटता जाता है और जीव कर्मके उत्तरोत्तर महान् अभिप्राय को तथा जीवन के वास्तविक तथ्य को समझने लगता है । आख खुल

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१. अ० ९, ११-१२

२. सिसिफस को यह शाप था कि उसे हमेशा एक चट्टान की चोटी पर बहुत बहा पत्थर चढ़ाते रहना पड़ेगा । जब-जद पत्थर चोटी के पास पहुंचता तो लुढ़क जाता था, और फिर से वही क्रम शुरू से करना पड़ता था । -अनु०

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जाती है उन भगवान्की ओर जो मनुष्य के अन्दर हैं उन भगवान् की ओर जो जगत् के अन्दर हैं'; वह अन्तर्मुखी होकर उस अनन्त आत्माको उस अविनाशी को देखता है जिससे सारे भूत उत्पन्न होते हैं और जो सब भूतों के अन्दर रहता है और जिसके द्वारा और जिसके अन्दर यह सब कुछ बना रहता है, और उसी को बाहर की ओर जानने लगता है । अत:जब यह प्रत्यक्ष आभास और यह ज्ञान जीव को अधिकृत कर लेता है तब उसकी सारी जीवनाकांक्षा भगवान् और अनन्त के प्रति परम प्रेम और अथाह भक्ति बन जाती है । मन तब केवल एक सनातन, परमात्मीय, चिर-जीवी, विश्वव्यापक, सत्तत्व में ही युक्त होकर रहता है, उसके लिये किसी भी चीजका मूल्य उसी के नाते होता है और उसे केवल उस एक सर्वानन्दमय पुरुष में ही आनन्द आता है । उसकी वाणीका सारा प्रयास और उसकी मन-बुद्धिका सारा चिंतन एक अखण्ड कीर्तन होता है उस विश्वव्यापक महत्ता, प्रकाश, सौन्दर्य, शक्ति और सत्य का जो अपने तेज-प्रताप के साथ उस मानव-आत्मा के हृदय पर प्रकट हुआ है और यही उसकी उन एकमेव परम आत्मा और अनन्त पुरुष की उपासना होती है । अंतरात्मा के अन्दर व्यक्त होने की जो एक छटपटाहट दीर्घकाल से चली आयी है वह अब अपने-आपमें भगवान् को प्राप्त करने और प्रकृति में उन्हें अनुभव करने की एक आध्यात्मिक चेष्टा और अभीप्सा का रूप धारण करती है । सारा जीवन उन भगवान् और इस मानव-आत्मा का निरंतर योग और एकीभाव बन जाता है । यही परिपूर्ण भक्ति की रीति है; हमारे समस्त आधार और प्रकृति को यह सनातन पुरुषोत्तम में लगे हुए हृदय से होनेवाले यज्ञ के द्वारा एक साथ ऊपर उठा ले जाती है ।

 

    जो लोग ज्ञान पर ही अधिक जोर देकर चलते हैं वे भी अंतरात्मा और प्रकृति पर होनेवाले भगवान् के दर्शन की निरंतर बढ़नेवाली, अपने अन्दर लीन करनेवाली और अपने रास्ते पर चलानेवाली शक्ति के सहारे उसी जगह पहुँचते हैं । उनका यज्ञ है ज्ञान-यज्ञ और ज्ञान के ही एक अनिर्वचनीय परम भाव और आनन्द से वे पुरुषोत्तम की भक्ति करने लगते हैं, ''ज्ञानयज्ञेन यजन्तो मामुपासते ।''  यह वह ज्ञान है जो भक्ति से भरा हुआ है, क्योंकि यह अपने करणों में पूर्ण है, अपने लक्ष्य में पूर्ण है । यह परम तत्व को केवल एक तात्विक एकत्व अथवा अबुद्धिग्राह्य निरपेक्ष सत्य के तौर पर मान कर उसका पीछा करना नहीं है । यह परम को और विश्वरूप परमात्मा को हृदय की अनुभूति के साथ ढूँढ़ना और अधिकृत करना है; यह अनन्त का पीछा करना है उनकी अनन्तता में, और अनन्त को ही ढूँढ़ना है उन सब पदार्थों में जो सांत हैं; यह उन एक को उनके एकत्व में और

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. अ० ९, १३-१४;

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उन्हीं एक को उनके अनेकविध तत्वों में, उनकी असंख्य छवियों, शक्तियों और रूपों में, यहाँ, वहाँ, सर्वत्र, कालातीतता में और काल में, गुणन में, विभाजन में, उनके एक ईश्वरभाब के अनन्त पहलुओं में, असंख्य जीवों में, उनके उन करोड़ों विश्वरूपों में जो जगत् और उसके प्राणियों के रूप में हमारे सामने हैं--''एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्'' , देखना और आलिंगन करना है । यह ज्ञान अनायास ही एक भजन-पूजन, एक विशाल भाव-भक्ति, एक महान् आत्मदान, एक पूर्ण आत्मोत्सर्ग हो जाता है;  कारण यह उस आत्मा का ज्ञान है, उस आत्म-स्वरूप का संस्पर्श है, उस परम और विश्वरूपविराट् पुरुष का आलिंगन है जो हमें, हम जो कुछ भी हैं, अपना बना लेता है और जब हम उसके समीप पहुँचते हैं तो हमारे ऊपर अपने सत्स्वरूप के अनन्त आनन्द की निधियाँ बरसाता है ।

 

     कर्म का मार्ग भी आत्मनिवेदनरूपी उपासना और भक्ति में परिणत हो जाता है; क्योंकि यह हमारे चित्त और उसकी सारी वृत्तियों और व्यापारों का उस एक श्री पुरुषोत्तम के चरणों में पूर्ण समर्पण होता है । बाह्य वैदिक यज्ञविधि एक शक्तिशाली रूपक है, उससे जो लाभ होता है वह अल्प है पर है स्वर्गमुखी; वास्तविक यज्ञ तो वह आंतरिक होम है जिसमें समग्र भगवान् स्वयं ही यज्ञ-क्रिया, यज्ञ और यज्ञ की प्रत्येक वस्तु और घटना बनते हैं । इस आंतर यज्ञविधि की सारी क्रियाएँ और सामग्रियाँ हमारे अन्दर रहनेवाली उन्हीं की शक्ति की अपनी विधि और अपनी ही अभिव्यक्ति होती हैं । यह शक्ति हमारी अभीप्सा से अपनी प्रवृत्तियों के मूल की ओर ऊपर चढ़ती जाती है । अंतःस्थ भगवान् ही यज्ञ की अग्नि और हवि बनते हैं, कारण यह अग्नि वही भगवन्मुखी इच्छा है और यह इच्छा ही हमारे अन्दर भगवान् की अपनी सत्ता है । और, हवि भी हमारी प्रकृति तथा पुरुष दोनों ही भावों के स्वान्तःस्थ भगवान् का ही रूप और शक्ति है; जो कुछ उनसे प्राप्त हुआ है वह उन्हीं के सत्तत्व, उन्हींके परम सत्य और मूल स्वरूप की सेवा और पूजा में भेंट चढ़ाया जाता है । भगवत्स्वरूप मनीषी स्वयं ही पावन मंत्र बनता है; यह उन्हींकी सत्ता की ज्योति है जो भगवन्मुखी विचार के रूप में व्यक्त होती है और उस विचार के निगूढ़ आशय को मंडित किये रहनेवाले तेज के स्वानुभूत ज्ञान का उदय करनेवाले मंत्र में तथा उसके उस छन्द में जो सनातन पुरुष के छन्दों की झनकार मनुष्य को सुनाता है, यह ज्योति ही काम करती है । ज्योतिर्मय भगवान् स्वयं ही वेद हैं और वेदों के प्रतिपाद्य भी । वे ही ज्ञान हैं और ज्ञेय भी । ऋक्, यजुः,  साम अर्थात् वे ज्योतिर्मय मंत्र जो बुद्धि को ज्ञान की किरणों से प्रकाशमय करते हैं, वे शक्तिमय मंत्र जो .कर्म का सही

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१. अ० , १५;

३४१ 


 विधान करते हैं, वे शान्तिमय और सामंजस्यमय मंत्र जो आत्मा की भगवदीय इच्छा का उदगान करते हैं,  स्वयं ही ब्रह्म हैं,  अधीश्वर हैं । भागवत चेतना का मंत्र ज्ञानोदय करानेवाला अपना प्रकाश ले आता है, भागवत शक्ति का मंत्र कार्य-सिद्धि करानेवाला संकल्प और भागवत आनन्द का मंत्र आत्मसत्ता के आत्मानन्द की समत्व-सिद्ध पूर्णता ले आता है । सब मंत्र-शब्द और अर्थ-महामंत्र ॐ अक्षर बह्य ॐ का ही पुष्पित रूप हैं । जो ॐ इन्द्रियग्राह्य विषयों के रूपों में व्यक्त है, जो जगदुत्पादक आत्म-गर्भाधान की उस चिन्मयी लीला के रूप में व्यक्त है जिसके रूप और विषय प्रतीक हैं, जो अनन्त को आत्मनिहित परम चिन्मयी शक्ति में व्यक्त है वह ॐ-पद और अर्थ, रूप और नाम का परम मूल, बीज और गर्भाशय है-वह स्वयं ही, अपने पूर्ण रूप में, इन्द्रियातीत परम भाव है, मूलभूत एकत्व है, वह कालातीत रहस्य है जो परम पुरुष में संपूर्ण व्यक्त के ऊर्ध्व में स्थित और स्वत:सिद्ध है ।  अत: यह यज्ञ एक साथ ही कर्म, ज्ञान और भक्ति तीनों है ।

 

    जो जीव इस प्रकार जानता, भक्ति करता और अपने सारे कर्म अपनी सारी सत्ता की महती शरणागति के भाव से सनातन पुरुष को अर्पण करता है उसके लिये ईश्वर सब कुछ है और सब कुछ ईश्वर है । वह ईश्वर को इस जगत् का वह पिता जानता है जो अपने बच्चों को पालता, पोसता और उनपर अपनी दृष्टि रखता है । वह ईश्वर को वह भगवती माता जानता है जो हमें अपनी गोद में उठाये रहती है, हम लोगों पर अपने प्रेम के माधुर्य की वर्षा करती और इस विश्व को अपने सौन्दर्य के रूपों से परिपूर्ण कर देती है । वह ईश्वर को वह आदि स्रष्टा जानता है जो उस सबका उत्पादक है, जिससे देश, काल और संबंध के अन्दर उत्पत्ति और सृष्टि होती है । वह ईश्वर को समष्टि जगत् और व्यष्टि मात्र के भाग्य का स्वामी और विधाता जानता है । जिस मनुष्य ने अपने-आपको भगवान् को समर्पित कर दिया है उसे जगत्, दैव और अनिश्चित् घटना-चक्र डरा नहीं सकता और न इसका दु:ख और दुराचार उसे व्याकुल ही कर सकता है । आत्मा की दृष्टि में ईश्वर ही मार्ग हैं और ईश्वर ही उसकी यात्रा का गंतव्य स्थान है, यह वह मार्ग है जिसमें कोई अपने कोनहीं खोता और यह वह गंतव्य स्थान है जिसके समीप वह प्रतिक्षण ईश्वर के ही दिखाये रास्ते से निश्चय ही जा रहा है । वह ईश्वर को अपनी और सारी सत्ता का स्वामी, अपनी प्रकृति का धारणकर्ता,

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१. अ ऊ म्--अ स्थलू और बाह्य जगत् का आत्मा 'विराट्' है, ऊ सूक्ष्म और आन्तर जगत् क आत्मा 'तैजस' है, भू गुप्त  परमचैतन्य सर्बशक्तिमत्ता का आत्मा 'प्राज्ञ' है, निरपेक्ष, तुरीय है--माण्डूक्य उपनिषद ।

२. अ० ६, १६-१७

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प्रकृतिस्थ आत्मा का पति, उसका प्रेमी और पोषक, अपने सब विचारों और कर्मों का अंतस्साक्षी जानता है । ईश्वर ही उसका घर और देश है, उसकी सब वासना-कामनाओं का आश्रय-स्थान है, सब प्राणियों का अतिधनिष्ट तथा मंगलकारी ज्ञानी सुहृद् है । दृश्य जगत् के सारे रूपों की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय उसकी दृष्टि और अनुभूति में वही एकमेव ईश्वर है जो अपने कालगत आत्माविर्भाव को उसकी सतत पुनरावर्तन-पद्धति से बाहर ले आता, बना रखता और फिर अपने अन्दर खींच लेता है । जो कुछ भी संसार में उत्पन्न होता और नष्ट होता दीखता है उसका अविनश्वर बीज और भूल वही है और वही उस सबके अव्यक्त भाव का चिरंतन विश्रांति-स्थान है । वही है जो सूर्य और अग्नि की उष्णता में दाहक सत्ता है; वही है अत्यधिक वर्षा और वर्षा का अभाव भी, वही यह सारी भौतिक प्रकृति और उसका समस्त व्यापार है । मृत्यु उसका मुखौटा  (नकाब ) है और अमरत्व उसका आत्मप्रकाश । वह सब जिसे हम लोग ''है'' कहते हैं वही है और वह सब जिसे अभी लोग ''नहीं है'' कहते हैं वह भी अनन्त  के अन्दर छिपा हुआ है और उस अकथ की रहस्यमयी सत्ता का एक भाग है ।

 

    एकमात्र परम ज्ञान और भक्ति के कोई भी चीज, बिना समग्र आत्म-निवेदन और समर्पण के कोई भी मार्ग हमें उन परम तक नहीं ले जायगा, जो कि सब कुछ हैं । अन्य धर्म, अन्य भजन-पूजन, अन्य ज्ञान, और साधन भी अवश्य ही अपने-अपने फल देनेवाले हैं पर वे फल अल्पकालीन होते हैं और केवल दैवी संकेतों और रूपों के भोग देकर ही समाप्त हो जाते हैं । हमारे लिए, हमारी मनोभूमि की समतोल के अनुसार, बाह्य और आन्तर ज्ञान और साधन खुले रहते हैं । बाह्य धर्म बाह्य देवता का पूजन है और बाह्य सुख का साधन है : इसके साधक अपने पाप धोकर शुद्ध होते और शास्त्रों के बाह्य विधान का पूर्ण पालन करने के लिए प्रवृत्ति-प्रधान नैतिक सदाचारिता को प्राप्त होते हैं; वे बाह्य योग के विधिबद्ध प्रयोग करते हैं । परन्तु उनका लक्ष्य इस पार्थिव जीवन के नश्वर सुख-दुःख के पश्चात् स्वर्ग के भोग प्राप्त करना होता है, वे वह महान् सुख चाहते हैं जो इहलोक में नहीं मिलते, पर वह सुख इस संकुचित और दुःख-प्रधान जगत् से विशालतर लोक का सुख होते हुए भी है वैयक्तिक और लौकिक ही । और, जो कुछ वे प्राप्त करना चाहते हैं, उसे श्रद्धा और विधिपूर्वक प्रयत्न से प्राप्त करते हैं । जड़ जीवन और पार्थिव कर्म ही हमारे वैयक्तिक जीवन का सारा क्षेत्र नहीं है, न ही यह ब्रह्माण्ड का एकमात्र जीवन-प्रकार है । अन्य लोक भी हैं 'स्वर्गलोकं विशालम्' और उनमें यहाँ की अपेक्षा अधिक आनन्द है । इसलिए प्राचीन समय के श्रौती वेदत्नयी का

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. अ० , १७-१६

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बाह्यार्थ सीखते, पापों को धोकर पवित्र होते, देवताओं के दर्शन-स्पर्शन की सुधा का पान करते और यज्ञ-यागादि तथा पुण्य कर्मों द्वारा स्वर्ग के भोग पाने का प्रयत्न करते थे । जगत् के परे कोई परम वस्तु है इसमें यह जो दृढ़ विश्वास है और, इससे भी अधिक, दिव्य लोक को प्राप्त होने का यह जो प्रयास है इससे जीव को अपने मार्गक्रमण में वह बल प्राप्त होता है जिससे स्वर्ग के उन सुखों को वह प्राप्त कर ले जिनपर उसकी श्रद्धा और प्रयास केन्द्रीभूत हुए हों । परन्तु वहाँ से जीव को फिर से मर्त्यलोक में आना पड़ता है, क्योंकि उस लोक के जीवन के वास्तविक उद्देश्य का उसे कोई पता नहीं चला, उसकी कोई उपलब्धि नहीं हुई । इसी लोक में, अन्यत्र कहीं नहीं, परम पुरुष परमेश्वर को जानना होता है, जीव की सदोष भौतिक मानव-प्रकृति में से उसकी दैवी प्रकृति का विकास कराना होता है और ईश्वर, मनुष्य और जगत् के साथ एकत्व के द्वारा जीवन का समग्र विशाल सत्य ढूँढ़ निकालना, उस सत्य में जीना और उससे जीवन को प्रत्यक्ष रूप से विलक्षण और अदभुत बनाना होता है । उसीसे जनन-मरण का लंबा चक्कर पूरा होकर परम फल पाने का अधिकार प्राप्त होता है । मानव जन्म से जीव को मिलनेवाला यही शुभ अवसर है और जबतक इसका प्रयोजन पूर्ण नहीं होता तबतक जन्म-मरण का चक्कर बन्द नहीं होता । ईश्वर-भक्त इस विश्वब्रह्माण्ड में मानव-जन्म के इस परम प्रयोजन की ओर अनन्य प्रेम और भक्ति के द्वारा सतत आगे बढ़ता रहता है, इस प्रेम और भक्ति से वह परम पुरुष परमेश्वर और जगदात्मा जगदीश्वर को अपने जीवन का लक्ष्य बना लेता है--अपनी अहंता की ऐहिक या पारलौकिक भोगों की तृप्ति को नहीं । उसके सारे चिंतन और दर्शन का भी वही एक उद्देश्य हो जाता है |  एकमात्र भगवान् को ही देखना, प्रतिक्षण उन्हींके साथ एकत्व में रहना, सब प्राणियों में उन्हींसे प्रेम करना और सब पदार्थों में उन्हींका आनन्द लेना-यही उसके आध्यात्मिक जीवन की संपूर्ण स्थिति होती है । उसका भगवद्दर्शन उसे जीवन से अलग नहीं करता, न जीवन की पूर्णता का कोई भाग उससे छूटता है;  क्योंकि भगवान् स्वयं ही उसका सर्वविध कल्याण करते और उसका अंतर्बाह्य सारा योग और क्षेम वहन करते हैं 'योगक्षेमं वहाम्यहम्' स्वर्ग-सुख और ऐहिक सुख उसकी सम्पदा की केवल एक अल्प-सी छाया है; क्योंकि ज्यों-ज्यों वह भगवान् में विकसित होता जाता है, त्यों-त्यों भगवान् भी अपनी अनन्त सत्ता की सारी ज्योति, शक्ति और आनन्द के साथ उसके ऊपर प्रवाहित होने लगते हैं ।

 

     साधारण लोक-धर्म समग्र भगवान् से इतर अंशदेवताओं का यजन है ।

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१. अ० , २०-२२

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गीता प्राचीन वैदिक धर्म के ही तत्कालीन विकसित बहिरंग से प्रत्यक्ष उदाहरण लेती है; इस बाह्य पूजन को गीता ने अन्य देवताओं का या वसु-रुद्रादित्यरूप पितरों का अथवा भौतिक शक्तियों और भूत-प्रेतों का पूजन कहकर बखाना है । मनुष्य साधारणत: अपना जीवन और कर्म भागवती सत्ता की अपनी समझ या दृष्टि में जँचनेवाली अंश-शक्तियों और अंशस्वरूपों को, विशेषत: ऐसी शक्तियों और स्वरूपों को अर्पित करते हैं जो उनके निकट प्रकृति और मनुष्य के अन्दर की मुख्य-मुख्य चीजों के प्रतिरूपक होते हैं अथवा जो उनके सामने उनकी अपनी मानवता को ही अतिदैव-रूप में प्रतिभासित करते हैं । यदि मनुष्य इस प्रकार का भजन-पूजन श्रद्धा के साथ करते हैं तो उनकी श्रद्धा अन्यथा नहीं होती; क्योंकि भक्त भगवान् के जिस किसी प्रतीक, रूप या भाव में उन्हें भजता है, ''यां यां तनुं श्रद्धया अर्चति"   जैसा कि अन्यत्न कहा है भगवान् उसे स्वीकार करते हैं और जैसी उसकी श्रद्धा होती है वैसे ही बनकर उससे मिलते हैं । सब सच्चे धार्मिक विश्वास और साधन यथार्थ में एकमेव परमेश्वर और जगदीश्वर की खोज हैं; क्योंकि भगवान् ही मनुष्य के सारे यज्ञों और तपों के एकमात्र स्वामी हैं और उसके सारे यत्न और अभीप्सा के अनन्त भोक्ता हैं । पूजा-अर्चा का प्रकार चाहे कितना ही छोटा या नीचा हो, परमेश्वर की कल्पना चाहे कितनी ही सीमित हो, आत्मोत्सर्ग का भाव, श्रद्धा-विश्वास, अपने ही अहंकार की पूजा के और जड़ प्रकृति की परिच्छिन्नता के परे पहुँचने का प्रयास चाहे कितना ही संकुचित हो, फिर भी मनुष्य की आत्मा और सर्वात्मा के बीच संबंध का कोई-न-कोई धागा बन ही जाता है और प्रत्युत्तर मिलता ही है । तथापि यह मिलना, पूजा से मिलनेवाला यह फल ज्ञान, श्रद्धा और कर्म के अनुसार ही होता है, इनकी मर्यादाओं का वह अतिक्रम नहीं कर सकता, और इसलिए उस महत्तर ईश्वर-ज्ञान की दृष्टि से, जिसके द्वारा ही आत्म-सत्ता और भूतभाव के असली स्वरूप का पता चलता है, यह निम्न कोटि का आत्मोत्सर्ग आत्मोत्सर्ग के सच्चे और परम विधान के अनुसार नहीं होता । ऐसी पूजा परम पुरुष परमेश्वर के समग्र स्वरूप और उनके आत्मा-विर्भाव के तत्वों के ज्ञान पर प्रतिष्ठित नहीं होती, बल्कि बाह्य और आंशिक रूपों में ही इसकी आसक्ति होती है, 'न माम् अभिजानन्ति तत्येन' । अतः इसके द्वारा होनेवाला आत्मदान भी अपने लक्ष्य में मर्यादित, हेतु में अहंभावयुक्त, कर्म और दान-क्रिया में आंशिक और अयथार्थ होता है । 'यजन्ति अविधिपूर्वकम्' । भगवान् को समग्र रूप में देखने से समग्र चैतन्ययुक्त आत्मसमर्पण बनता है; बाकी जो कुछ है वह उन चीजों को प्राप्त होता है जो चीजें अपूर्ण और आंशिक है और उसे फिर उन चीजों से हटकर महत्तर आत्मानुसंधान और विशालतर

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परमात्मानुभव से अपने-आपको अधिक विशाल बनाने के लिए लौट आना पड़ता है । परन्तु परम पुरुष और विश्वात्मपुरुष को ही केवल और सर्वथा प्राप्त करने का यत्न करना उस समग्र ज्ञान और सुफल को प्राप्त होना है जिसे अन्य मार्ग प्राप्त कराते हैं जब कि साधक किसी एक पहलू से ही सीमित हुआ नहीं रहता यद्यपि सब पहलुओं में उन्हीं एक भगवान् की ही सत्ता को अनुभव करता है । इस प्रकार का यत्न पुरुषोत्तम की ओर आगे बढ़ता हुआ सभी भगवदीय रूपों का समालिंगन करता है ।

 

     यह पूर्ण आत्मसमर्पण, यह अनन्य शरणागति ही वह भक्ति है जिसे गीता ने अपने समन्वय का मुकुट बनाया है । सारा कर्म और साधन-प्रयास इस भक्ति के द्वारा उस परमपुरुष विश्वात्मा जगदीश्वर के प्रति समर्पण में परिणत होता है । भगवान् कहते हैं ''जो कुछ तुम करते हो, जो कुछ सुख भोगते हो, जो कुछ होमते हो, जो कुछ दान करते हो, जो कुछ मनसा कर्मणा तप करते हो, उसे मुझे अर्पण करो ।''  यहाँ छोटी-से-छोटी चीज, जीवन की सामान्य-से-सामान्य घटना, हम जो कुछ हैं या हमारे पास जो कुछ है उसमें से किंचित् भी जो दान किया हो वह दान, छोटे-से-छोटा काम भगवदीय सम्बन्ध धारण करता और भगवान् के ग्रहण करने योग्य समर्पण होता है और भगवान् उसे अपने भक्त की जीवसत्ता और जीवन को अधिकृत करने का साधन बना लेते हैं । तब कामकृत और अहंकारकृत के भेद मिट जाते हैं । अपने कर्म का फल अच्छा ही हो इस तरह की कोई विकलता मन को नहीं होती, असुखद परिणाम का कोई तिरस्कार नहीं होता, बल्कि सारा कर्म और फल उन परमेश्वर को अर्पित कर दिया जाता है जिनके कि जगत् के सारे कर्म और फल सदा से हैं ही । इस तरह कर्म करनेवाले भक्त को कर्म का कोई बन्धन नहीं होता । क्योंकि अनन्य भाव से आत्मसमर्पण करने से सारी अहंभाव-प्रयुक्त कामना हृदय से निकल जाती है और भगवान् और व्यष्टिजीव के बीच, जीव के पृथक् जीवन के आन्तरिक संन्यास के द्वारा पूर्ण एकत्व सिद्ध होता है । सम्पूर्ण चित्त, सम्पूर्ण कर्म, सम्पूर्ण फल भगवान् के अपने होते हैं, इनका सारा व्यापार दिव्य रूप से विशुद्ध और प्रबुद्ध प्रकृति से होता है, ये सीमित परिच्छिन्न व्यष्टिभूत अहंकार की कोई चीज नहीं रह जाते । परिच्छिन्न प्रकृति इस प्रकार से समर्पित होने पर अनन्त का एक मुक्त द्वार बन जाती है; जीव अपनी आध्यात्मिक सत्ता में, अज्ञान और बन्धन से ऊपर निकलकर सनातन पुरुष के साथ अपने एकत्व में लौट आता है । सनातन पुरुष भगवान् का सब भूतों में अधिवास है; सबमें वे सम हैं और सब प्राणियों के समभाव से मित्र, पिता, माता,

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. अ० ९, २३-२५.         २अ. ९, २९.

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विधाता, प्रेमी और भर्ता हैं । वे किसी के शत्रु नहीं, किसी के पक्षपाती प्रेमी नहीं; किसी को उन्होंने निकाल बाहर नहीं किया है, किसी को सदा के लिए नीच करार नहीं दिया है, किसी को उन्होंने अपनी स्वेच्छाचारिता से भाग्यवान नहीं बनाया है, सब अज्ञान में अपने-अपने चक्कर काटकर अन्त में उन्हीं के पास आते हैं । पर भगवान् का यह निवास मनुष्य में और मनुष्य का भगवान् में इस अनन्य भक्ति द्वारा ही स्वानुभूत होता और यह एकत्व सर्वांग में तथा पूर्ण रूप से सिद्ध होता है । परम का प्रेम और पूर्ण आत्मसमर्पण, ये ही दो चीजें हैं इस भगवदीय एकत्व का सीधा और तेज मार्ग ।

 

     हम सबके अन्दर समरूप से जो भागवती सत्ता है वह कोई अन्य प्राथमिक माँग नहीं करती यदि एक बार इस प्रकार से श्रद्धा और हृदय की सच्चाई के साथ तथा मूलतः पूर्णता के साथ सम्पूर्ण आत्मसमर्पण कर दिया जाय । सब इस द्वार-तक पहुँच सकते हैं, सब इस मंदिर के अन्दर प्रवेश कर सकते हैं, सर्वप्रेमी के इस प्रासाद में हमारे सारे सांसारिक भेद हवा हो जाते हैं । यहाँ पुण्यात्मा का न कोई खास आदर है, न पापात्मा का तिरस्कार; पवित्रात्मा और शास्त्रविधि का ठीक-ठीक पालन करनेवाला सदाचारी ब्राह्मण और पाप और दुःख के गर्भ से उत्पन्न तथा मनुष्यों द्वारा तिरस्कृत-बहिष्कृत चाण्डाल दोनों ही एक साथ इस रास्ते पर चल सकते हैं और समान रूप से परा मुक्ति और सनातन के अन्दर परम निवास का मुक्त द्वार पा सकते हैं । पुरुष और स्त्री दोनों का ही भगवान् के सामने समान अधिकार है; क्योंकि भागवत आत्मा मनुष्यों को देख-देखकर या उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा या मर्यादा को सोच-सोचकर उसके अनुसार आदर नहीं देती; सब बिना किसी मध्यवर्ती या बाधक शर्त के सीधे उसके पास जा सकते हैं । भगवान् कहते हैं कि, ''यदि कोई महान् दुराचारी भी हो और वह अनन्य और सम्पूर्ण प्रेम के साथ मेरी ओर देखे तो उसे साधु ही समझना चाहिए, उसकी प्रवृत्तिशील संकल्पशक्ति स्थिरभाव से और पूर्ण रूप से ठीक रास्ते पर आ गयी है । वह जल्द धर्मात्मा बन जाता और शाश्वती शान्ति लाभ करता है'' अर्थात् पूर्ण आत्मसमर्पण करनेवाला मन आत्मा के सब द्वार पूरे खोल देता है और आत्मसमर्पण के जवाब में मनुष्य के अन्दर भगवान् का अवतरण और आत्मदान ले आता है और इससे निम्न प्रकृति के परा आत्म-प्रकृति में अति शीघ्र रूपान्तर-साधन के द्वारा हमारे अन्दर जो कुछ है वह भागवती सत्ता के विधान के अनुरूप और तद्रूप हो जाता है । आत्मसमर्पण का संकल्प अपनी शक्ति से ईश्वर और मनुष्य के बीच के परदे को हटा देता है; प्रत्येक भूल को मिटा देता और

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१. अ० ९, २६-२६.               २. ९, ३०-३१.

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प्रत्येक विघ्न को नष्ट कर डालता है । जो लोग अपनी मानवी शक्ति के भरोसे ज्ञान-साधन या पुण्यकर्म अथवा कठोर तप के द्वारा उस महत्पद को लाभ करने की इच्छा करते हैं वे बड़े कष्ट से अपने रास्ते पर आगे बढ़ पाते हैं; परन्तु जीव जब अपने अहंकार और कर्मों को भगवान् को समर्पित कर देता है तब भगवान् स्वयं चले आते हैं और हमारा बोझ उठा लेते हैं । अज्ञानी को वे दिव्य ज्ञान का आलोक, दुर्बल को दिव्य संकल्प का बल, पापात्मा को दिव्यपवित्रता की मुक्ति-दायिनी स्थिति, दुःखी को अनन्त आत्मसुख और आनन्द ला देते हैं । जीव की दुर्बलता और उसके मानवी बल का लड़खड़ाना उनकी इस कृपा में कोई फर्क नहीं लाता । ''यही मेरी प्रतिज्ञा है'', अर्जुन से भगवान् स्वयं कहते हैं कि, ''जो कोई मेरी भक्ति करता है उसका नाश नहीं होता ।''  पहले का प्रयास और तैयारी, जैसे ब्राह्मण की शुचिता और पवित्रता, कर्म और ज्ञान में श्रेष्ठ राजर्षि का प्रबुद्ध बल इत्यादि का इसलिए महत्व है कि इनसे प्राकृत मानवजीव के लिए यह विशाल दर्शन पाना और आत्मसमर्पण करना सरल होता है; परन्तु इस प्रकार की तैयारी के बिना भी जो कोई इन मनुष्य-प्रेमी भगवान् की शरण लेते हैं वे चाहे वैश्य हों जो किसी समय धनोपार्जन तथा उत्पादन-श्रम के तंग दायरे के अन्दर फंसे रहा करते थे या शूद्र हों जो सहस्रों कठोर प्रतिबन्धों में आबद्ध रहते थे या स्त्री-जाति हों जिसके आत्मविस्तार के चारों ओर समाज ने एक संकुचित घेरा खींच रखा है और इस कारण जिसकी उन्नति का मार्ग बराबर रुद्ध और प्रतिहत रहा है, ये ही क्यों बल्कि वे पापयोनि भी जिनके ऊपर पूर्व-कर्म ने खराब-से-खराब जन्म लाद दिया है, जो जातिबहिष्कृत हैं, परिया-चाण्डाल है वे भी अपने सामने भगवान् के पट खुले हुए पाते हैं । आध्यात्मिक जीवन में वे सब बाह्य भेद जिन्हें मनुष्य इतना अधिक मानते हैं, क्योंकि वे बहिर्मुख मन को बरबस अपनी ओर खींचते हैं, भागवत ज्योति की समता और पक्षपातरहित शक्ति की सर्वशक्तिमत्ता के सामने बिलकुल हवा हो जाते हैं ।

 

      यह पार्थिव जगत् जो द्वन्द्वमय है और जो पल-प्रतिपल के सद्य:जात क्षणिक सम्बन्धों से बंधा हुआ है, मनुष्य के लिए तबतक संग्राम, दु:ख और शोक का ही स्थान है जबतक कि वह इन सब चीजों में अटका हुआ रहता है और इन्हीं के द्वारा लादे जानेवाले विधान को अपने जीवन का विधान मानता है । इससे मुक्त होने का मार्ग बाह्य से हटकर अन्दर की ओर मुड़ना है; मन को अपने बोझ के नीचे दबानेवाले और प्राण और शरीर की क्यारियों में उसे कैद करनेवाले भौतिक जीवन में बाहरी दिखावे से हटकर उस भागवत सत्य की ओर चलना है जो भागवत सत्तत्व

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१. ९, ३१.               २. अ० ९, ३०-३२.

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आत्मा की मुक्त स्थिति में से होकर अपने-आपको व्यक्त करने की प्रतीक्षा कर रहा हैं । संसार का प्रेम, यह आवरण भगवान् के प्रेम में, जो कि एकमात्न सत्य है, अवश्य रूपान्तरित होना चाहिए । जब इस गुप्त और अंत:स्थित ईश्वर का पता लगता और उसका समालिंगन किया जाता है तब हमारी सारी आत्मसत्ता और सारा जीवन ऊपर उठ जाता और एक विलक्षण रूपान्तर साधित होता है । जो निम्न प्रकृति अपने बाह्य कर्मों और दृश्यों में निमग्न रहती है उसकी अज्ञानमयता में फँसे रहने के स्थान में वह आँख खुल जायेगी जो सर्वत्र ईश्वर को देखने लगेगी, सर्वत्र आत्मा की एकता और सार्वत्रिकता को अनुभव करने लगेगी |  संसार का दुःख-दर्द सर्वानन्द के आनन्द में अपने-आपको खो देगा; हमारा दौर्बल्य, प्रमाद और पाप सर्वग्राही और सर्व-रूपान्तरकारी शक्ति में, सनातन की सत्यता और शुचिता में परिवर्तित हो जायगा । भागवत चैतन्य के साथ अपने अंत:करण को एक करना, अपनी सम्पूर्ण भागवत प्रकृति को सर्वत्र स्थित भगवान् के प्रति प्रेमरूप बना देना अपने सब कर्मों को त्रिभुवननाथ के प्रीत्यर्थ यज्ञ बना देना और अपनी सारी उपासना और अभीप्सा को उनकी भक्ति तथा आत्मसमर्पण बना देना, सम्पूर्ण आत्मभाव को सम्पूर्ण अभेदभाव के साथ भगवान् की ओर लगा देना-- यही एक रास्ता है जिससे मनुष्य इस सांसारिक जीवन से ऊपर उठकर भागवत जीवन को प्राप्त हो सकता है । भागवत प्रेम और भक्ति के सम्बन्ध में गीता की यही शिक्षा है, इस प्रेम और भक्ति में ज्ञान, कर्म और हृदय की चाह सब एक परम एकत्व में एक हो जाते हैं,  उनकी सारी विभिन्नताएँ घुलमिल जाती हैं, सब तंतु एक पट के ताने-बाने बन जाते हैं,  एक महान् एकीकरण होता है, एक विशाल अभेदभाव विस्तृत होता है ।

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१. अ० ९, ३३-३४,

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