गीता-प्रबंध

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Sri Aurobindo

Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) Essays On The Gita Vol. 13 576 pages 1970 Edition
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Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo गीता-प्रबंध 629 pages 1984 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

कर्मयोग का सारतत्व

 

    गीता के प्रथम छ : अध्याय एक प्रकार से गीता की शिक्षा का प्रारम्भिक खण्ड है । बाकी बारह अध्यायों में इस प्रथम षटक् में जो संकेत रूप से, अधूरे तौर पर कहा गया है उसीको विशद् किया गया है, ये संकेत अपने-आपमें इतने अधिक महत्वपूर्ण है कि इनका खुलासा बाकी के दो षटकों में करना पड़ा है । गीता यदि एक ऐसा लिखित शास्त्र होती जिसे संपूर्ण करना आवश्यक होता, यदि यह ग्रंथ वास्तव में किसी शिष्य को दिया हुआ किसी ऐहिक गुरु का उपदेश होता, जिस उपदेश को, शिष्य जब आगे के सत्य को ग्रहण करने के लिए तैयार हो जाय तब, यथासमय फिर से आरंभ किया जा सकता, तो यह धारणा बाँधी जा सकती थी कि इस छठे अध्याय के अंत में गुरु रुक जाते और शिष्य से कहते,  ''पहले इसे अपने आचरण में ले आ, यहाँतक जो कुछ कहा गया है उसे अनुभव करने के लिए तुझे अभी बहुत कुछ करना है और तुझे इसके लिए अत्यंत विशाल आधार-क्षेत्न दे दिया गया है, आगे जैसे-जैसे कठिनाइयाँ उत्पन्न होंगी वे आप ही हल होती जायँगी या मैं उन्हें तेरे लिए हल कर दूँगा । अभी-अभी तो मैने जो कुछ कहा है इसीको अपने जीवन में ले आ; इसी भाव में स्थित होकर कर्म कर ।''  वास्तव में इसमें बहुत-सी ऐसी बातें हैं जिन्हें आगे चलकर डाले गए प्रकाश की सहायता के बिना ठीक तरह नहीं समझा जा सकता । प्रथम षटक् में ही उपस्थित होनेवाली कुछ शंकाओं का समाधान करने के लिए तथा सम्भावित भ्रमों को दूर करने के लिए, स्वयं मुझे भी बहुत-सी बातें पहले ही कह देनी पड़ी हैं,  उदाहरणार्थ, पुरुषोत्तम-तत्व की भावना को पहले ही बार-बार कहना पड़ा है, क्योंकि इसके बिना आत्मा और कर्म और कर्म के अधीश्वर भगवान् के बारे में जो कुछ अस्पष्टता है वह दूर नहीं हो सकती । गीता ने इन बातों को जान-बूझकर ही प्रथम षटक् में विशद् इसलिए नहीं किया है कि जो बातें मानव-शिष्य की वर्तमान बुद्धि के लिए बहुत बड़ी हैं उन्हें उसकी अपरिपक्व दशा में पहले ही कह देना उसकी प्राथमिक साधना की दृढ़ता को विचलित कर सकता है ।

    गुरु यदि अपना उपदेश यहिं समाप्त कर देते तो स्वयं अर्जुन यह आपत्ति

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कर सकता था कि ''आपने कामना और आसक्ति का नाश, समत्व, इन्द्रियों का दमन और मन का शमन, निष्काम निरहंकार कर्म, कर्मों का यज्ञ-रूप से उत्सर्ग, बाह्य संन्यास से आतर संन्यास का श्रेष्टत्व, इन सबके बारे में बहुत कुछ कहा, मैं इन सब बातों को विचार से तो समझता हूँ, चाहे इन्हें आचरण में लाना कितना ही कठिन मालूम होता हो; परन्तु आपने कर्म करते हुए गुणों से ऊपर उठने की बात भी कही है, और यह नहीं बताया कि गुण कैसे कार्य करते हैं, और जबतक मैं यह न जान लूं, तबतक गुणों का पता लगाना और उनसे ऊपर उठना मेरे लिए कठिन होगा । इसके अतिरिक्त आपने यह भी कहा है कि योग का सबसे प्रधान अंग भक्ति है, फिर भी आपने कर्म और ज्ञान के बारे में तो बहुत कुछ कहा है, पर भक्ति के बारे में प्रायः कुछ भी नहीं कहा । और, फिर यह भक्ति, जो सबसे बड़ी चीज है, किसे अर्पण की जायगी ?  अवश्य ही शान्त निर्गुण ब्रह्म को नहीं, बल्कि आपको, ईश्वर को । इसलिए अब आप मुझे यह बताइए कि आप क्या हैं, कौन हैं, क्योंकि जैसे भक्ति आत्मज्ञान से भी बड़ी चीज है वैसे ही आप उस अक्षर ब्रह्य से बड़े हैं जो क्षर प्रकृति और कर्ममय संसार से उसी तरह बड़ा है जैसे ज्ञान कर्म से बड़ा है । इन तीनों वस्तुओं में परस्पर क्या संबंध है ?  कर्म, ज्ञान और भगवद्धक्ति में परस्पर क्या संबंध है ? प्रकृतिस्थ पुरुष, अक्षर पुरुष और वह जो सबका अव्यय आत्मा होने के साथ-साथ समस्त ज्ञान, भक्ति और कर्म का प्रभु, परमेश्वर है, जो यहाँ इस महायुद्ध और भीषण रक्तपात में मेरे साथ है, इस घोर भयानक कर्म के रथ में मेरा सारथी है इन तीनों में परस्पर क्या संबंध है ?''  इन्हीं प्रश्नोंका उत्तर देने के लिए गीता के शेष अध्याय लिखे गए हैं और विचार द्वारा पूर्ण मीमांसा प्रस्तुत करते समय इनकाविचार और समाधानतुरत करना जरूरी है । वास्तविक साधन क्षेत्र में क्रम: आगे बढ़ना होता है और बहुत-सी बातों को, यहाँतक कि बड़ी-सें-बड़ी बातों को भी समय आने पर अपने-आप उठने और आध्यात्मिक अनुभव से आप ही सुलझने के लिए छो रखना पड़ता है । एक हद तक गीता ने अनुभव की इस वर्तुल गति का अनुसरण किया है और पहले कर्म और ज्ञान की एक विशाल प्राथमिक भित्ति का निर्माण कर उसमें एक ऐसी चीज रख दी है जो भक्ति तक और महत्तर ज्ञान की ओर ले जाती है, पर अभी वहाँतक पहुँची नहीं है । प्रथम छ : अध्याय हमें इसी भित्ति पर ला छोड़ते हैं ।

      अब हम जरा रुककर इस बात पर विचार करें कि जिस मूल प्रश्न को लेकर गीता का उपक्रम हुआ, उसका समाधान इन अध्यायों में कहाँतक हुआ है । यहाँ फिर यह कह देना अच्छा रहेगा कि स्वयं उस प्रश्न में कोई ऐसी बात नहीं थी जिसके लिए संपूर्ण विश्व के स्वरूप का और सामान्य जीवन के स्थान पर आध्यात्मिक

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जीवन की प्रतिष्ठा का विचार आवश्यक होता । उपस्थित प्रश्न का विचार व्यावहारिक या नैतिक रूप से या बौद्धिक दृष्टि से अथवा आदर्शवाद की दृष्टि से या इन सब दृष्टियों से एक साथ ही किया जा सकता था; और यह वस्तुत: कठिनाई को हल करने की आधुनिक पद्धति होती । यहाँ यह अपने-आपमें सबसे पहले यही सवाल उपस्थित करता है कि अर्जुन किस विधान के द्वारा अपने कर्तव्याकर्तव्य का निर्द्धारण करे ?  क्या वह इस नैतिक भावना के अनुसार चले और समझे कि जन-संहार तो पाप है अथवा सार्वजनिक और सामाजिक कर्तव्य की वैसी ही नैतिक भावना के अनुसार चले और न्याय की रक्षा करे जैसा कि सभी महान् स्वभाववाले मनुष्यों से उनकी विवेक-बुद्धि आशा रखती है, अर्थात् अन्याय और अत्याचार का पक्ष लेनेवाली सशस्त्र शक्तियों का विरोध करे ? यही प्रश्न इस समय, इस घडी हमारे सामने भी उठा है और इसका समाधान हम अनेकानेक प्रकार से कर सकते हैं, और कर ही रहे हैं किन्तु ये सब समाधान हमारे साधारण जीवन और हमारे साधारण मानव मन के दृष्टि-बिन्दु से ही होंगे । समाधान करते समय प्रश्न का यह रूप हो सकता है कि क्या यह विवेक-बुद्धि और समाज तथा राज्य के प्रति अपने कर्तव्य के बीच, किसी आदर्श तथा व्यावहारिक नीति के बीच चुनाव का प्रश्न है;  क्या हम आत्मबल पर विश्वास करें या इस कड्वी बात को मानें कि जीवन अभी संपूर्ण आत्मरूप नहीं हुआ है और न्याय का पक्ष लेकर भौतिक संघर्ष में अस्त्र धारण करना कभी-कभी अनिवार्य हो जाता है ? जो भी हो, ये सब समाधान अपनी-अपनी बुद्धि, स्वभाव और हृदय के अनुरूप होंगे । ये हमारे वैयक्तिक दृष्टिकोण पर निर्भर होंगे और इनका अधिक-से-अधिक यही लाभ होगा कि हम अपने ही तरीके से अपने सामने आयी हुई कठिनाई का मुकाबला करें, अपने ही तरीके से इसलिए कि ये हमारे स्वभाव के तथा हमारे नैतिक और बौद्धिक विकास की अवस्था के, हमें जो प्रकाश अभी प्राप्त है उससे हम अच्छे-से-अच्छे रूप में जो कुछ देख सकते और कर सकते हैं उसके अनुरूप होंगे; पर इससे अन्तिम समाधान नहीं होगा । इसका कारण यह है कि यह सब हमारे साधारण मन का ही समाधान होगा, उस मन का जो हमारी सत्ता की विविध वृत्तियों का गोरखधंधा है और जो इन विविध वृत्तियों में से किसी-किसी को चुन लेता या उन सबको मिला-जुलाकर अपना काम चला भर लेता है; यह हमारी युक्ति, हमारी नैतिक सत्ता, हमारी सक्रियि प्रकृति की आवश्यकताओं, हमारी सहज प्राणवृत्तियों, हमारी भावावेगमय सत्ता और उन विरली वृत्तियों में भी, जिन्हें हम अंतरात्मा की सहज-स्फुरणा या ह्रुतपूरुष की अभिरुचि कह सकते हैं, कामचलाऊ मेल बैठा सकता है । गीता की यह मान्यता है कि इस तरह से

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कोई परम निरपेक्ष समाधान नहीं, बल्कि तात्कालिक, व्यावहारिक समाधान ही हो सकता है । अर्जुन के सामने उस काल के उच्चतम आदर्श के अनुसार ऐसा ही एक व्यावहारिक समाधान पेश किया गया, पर उसकी चित्त-वृत्ति उसे स्वीकार करने के अनुकूल नहीं थी और वास्तव में भगवान् भी नहीं चाहते थे कि वह उसे स्वीकार कर ले । अत: गीता इस प्रश्न का समाधान बिलकुल दूसरे ही दृष्टिकोण से करती है और इसका बिलकुल दूसरा ही हल निकालती है ।

      गीता का समाधान यही है कि अपनी प्राकृत सत्ता और साधारण मनोभाव से ऊपर, अपने बौद्धिक और नैतिक भ्रमजालों के ऊपर उस चिदभाव में उठो जहाँ का जीवन-विधान कुछ और ही है और इसलिए वहाँ कर्म का विचार भी एक और ही दृष्टि से किया जाता है; वहाँ कर्म के चालक वैयक्तिक कामना और भावावेग नहीं होते; द्वन्द्व दूर हो जाते हैं; कर्म हमारे अपने नहीं रह जाते; और इसलिए हम वैयक्तिक पाप और पुष्य को अतिक्रम कर जाते हैं । वहाँ विराट् नैर्व्यक्तिक भागवत सत्ता हमारे द्वारा जगत् में अपने हेतु को क्रियान्वित करती है; हम स्वयं एक दिव्य नवजन्म के द्वारा उसी सत् के सत्, उसी चित् के चित्, उसी आनन्द के आनन्द हो जाते हैं और तब हम अपनी इस निम्न प्रकृति में नहीं रहते, हमारे लिए कोई अपना कर्म नहीं रहता, कोई अपना वैयक्तिक हेतु नहीं रह जाता और यदि हम कर्म करते ही हैं--और यही तो एकमात्र वास्तविक समस्या और कठिनाई रह जाती है--तो वह केवल भागवत कर्म होता है जिसमें बाह्य प्रकृति कर्म का कारण या प्रेरक नहीं, केवल एक अबाध शान्त उपकरण मात्र होती है, क्योंकि प्रेरक-शक्ति तो हमारे कर्मों के अधीश्वर की इच्छा में हमारे ऊपर रहती है । गीता ने इसीको सच्चे समाधान के रूप में सामने रखा है, क्योंकि यह हमें सत्ता के वास्तविक सत्य में ले जाता है और अपनी सत्ता के वास्तविक सत्य के अनुसार जीना ही स्पष्टतया जीवन के प्रश्नों का संपूर्णत: सर्वोत्कृष्ट  और एकमात्र सत्य समाधान है । हमारा मनोमय और प्राणमय व्यक्तित्व हमारे प्राकृत जीवन का सत्य है, पर यह सत्य अज्ञानगत सत्य है और जो कुछ उससे संबद्ध है वह उसी कोटि का सत्य है जो अज्ञानगत कर्मों के लिए व्यवहारतः मान्य है, पर जब हम अपनी सत्ता के यथार्थ सत्य में लौट आते हैं तब यह सत्य मान्य नहीं रहता । परन्तु हमें इस बात का पूर्ण निश्चय कैसे हो कि यही सत्य है ? पूर्ण निश्चय तबतक नहीं हो सकता जबतक हम अपने मन के सामान्य अनुभवों से ही संतुष्ट हैं; कारण हमारे सामान्य मानस अनुभव सर्वथा निम्न प्रकृति के हैं जो अज्ञान से भरी पड़ी है । हम उस महत् सत्य को उसमें निवास करके अर्थात् योग के द्वारा मन-बुद्धि को पार करके आध्यात्मिक अनुभव में पहुँचने पर ही जान

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सकते हैं । कारण, आध्यात्मिक अनुभूति के बाह्य में तबतक निवास करना जबतक कि हम मानसभाव से छूटकर आत्मभाव में प्रतिष्ठित न हो जाएँ, जबतक अपनी वर्तमान प्रकृति के दोषों से मुक्त होकर अपनी यथार्थ और भागवत सत्ता में पूर्ण रूप से रहने न लग जायँ, वह अंतिम भाव है जिसे हम योग कहते हैं ।

     हमारी सत्ता के केन्द्र का इस तरह ऊर्ध्व में उठना और परिणामत: संपूर्ण जीवन तथा चेतना का रूपान्तरित होना और फल-स्वरूप कर्म के बाह्य रूपोंके बहुधा वैसे ही बने रहने पर भी उसके सारे आंतरिक भाव और हेतु का परिवर्तित हो जाना ही गीता के कर्मयोग का सारतत्व है । अपनी सत्ता को रूपान्तरित करो, आत्मस्वरूप में नया जन्म लो और उस नवीन जन्म से उस कर्म में लगो जिसके लिए तुम्हारी अंत:स्थित आत्मा ने तुम्हें नियुक्त किया है, यही गीता के संदेश का मर्म कहा जा सकता है । अथवा दूसरी तरह से, अधिक गंभीर और अधिक आध्यात्मिक आशय के साथ यों कहें कि, जो कर्म तुम्हें यहाँ करना पड़ता है उसे अपने आन्तर आध्यात्मिक नवजन्म का साधन बना लो, अपने दिव्य जन्म का साधन बना लो, और फिर दिव्य होकर, भगवान् के उपकरण बनकर लोकसंग्रह के लिए दिव्य कर्म करो । यहाँ दो बातें हैं जिन्हें स्पष्ट रूप से सामने रखना और समझना होगा, एक है इस परिवर्तन का मार्ग, अपनी सत्ता के केन्द्र को ऊर्ध्व में उठा ले जाने का मार्ग, यह दिव्य जन्म-ग्रहण, और दूसरी बात है कर्म के बाह्य रूप का कोई महत्व नहीं और उसे बदलना जरूरी नहीं, यद्यपि उसके हेतु और परिधि बिलकुल बदल जायँगे । परन्तु ये दोनों बातें कार्यत: एक ही हैं, क्योंकि एक को समझने से दूसरी समझ में आ ही जाती है । हमारे कर्म के भाव का उदय हमारी सत्ता के स्वभाव तथा उसकी आंतरिक प्रतिष्ठा से होता है; परन्तु स्वयं यह स्वभाव भी हमारे कर्म की धारा और उसके आध्यात्मिक प्रभाव से प्रभावित होता है; कर्म के भाव में बहुत बड़ा परिवर्तन हमारी सत्ता के स्वभाव में और उसकी आंतरिक प्रतिष्ठा में परिवर्तन लाता है; यह सचेतन शक्ति के उस केन्द्र को बदल देता है जिससे हम कर्म करते हैं । यदि जीवन और कर्म केवल मिथ्या-माया होते, जैसा कि कुछ लोग कहा करते हैं, यदि आत्मा का कर्म या जीवन के साथ कोई सरोकार न होता तो यह बात न होती; पर हमारे अन्दर जो देही जीव है वह जीवन और कर्मों से अपने-आपको विकसित किया करता है और स्वयं कर्म तो उतना नहीं, पर जीव की कर्म करने की अंत:शक्ति की क्रिया का रूप ही उसकी आत्मसत्ता के साथ उसका संबंध निर्द्धारित किया करता है । यही आत्मज्ञान के व्यावहारिक साधन-स्वरूप कर्मयोग की सार्थकता है ।

     हम इस आधार को मानकर चलते हैं कि मनुष्य का वर्तमान आंतर जीवन जो

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लगभग पूरी तरह उसकी प्राण-प्रकृति और शरीर-प्रकृति पुर निर्भर है और मानसी शक्ति की मर्यादित क्रीड़ा के सहारे कुछ ही ऊपर उठा रहता है, उसका संपूर्ण संभाव्य जीवन नहीं है, न यह उसके वर्तमान वास्तविक जीवन का ही सब कुछ है । उसके अन्दर एक आत्मा छिपी हुई है और उसकी वर्तमान प्रकृति या तो उस आत्मा का केवल बाह्य रूप है या उसकी कर्म-शक्ति का एक आंशिक फल । गीता में सर्वत्र इस कर्म-शक्ति की वास्तविकता की बात स्वीकृत है, कहीं भी ऐसा नहीं मालूम होता कि उसने चरमपंथी वेदांतियो का यह कठोर मत स्वीकार किया हो कि यह सत्ता केवल प्रातिभासिक है, यह मत तो सारे कर्म और क्रिया-शक्ति की जड़ पर ही कुठाराघात करता है । गीता ने अपनी दार्शनिक विवेचना में इस पहलू को जिस रूप में सामने रखा है (यह दूसरे रूप में भी रखा जा सकता था ) वह यही है कि उसने सांख्यों का प्रकृति-पुरुषभेद मान लिया है--पुरुष अर्थात् वह ज्ञान-शक्ति जो जानती, धारण करती और पदार्थ मात्र को अनु-प्राणित करती है और प्रकृति अर्थात् वह क्रिया-शक्ति जो कर्म करती और नानाविध उपकरणों, माध्यमों और प्रक्रियाओं को जुटाती रहती है । फर्क इतना ही है कि गीता ने सांख्यों के मुक्त अक्षर पुरुष को ग्रहण तो किया है, किन्तु उसे वेदान्त की भाषा में 'एक' अक्षर सर्वव्यापक आत्मा या ब्रह्म कहा है, और दूसर प्रकृतिबद्ध पुरुष से उसका पार्थक्य दिखाया है । यह प्रकृतिबद्ध पुरुष ही हमारा क्षर कर्मशील पुरुष है, यही बहुपुरुष है जो समस्त वस्तुओं में है और जो विभिन्नता और व्यक्तित्व का आधार है । परन्तु तब प्रकृति का कर्म क्या है ?

      यह प्रक्रिया-शक्ति है, इसीका नाम प्रकृति है और यह तीनों गुणों की एक-दूसरेपर क्रिया-रूप क्रीड़ा है । और, माध्यम क्या है ? यह प्रकृति के उपकरणों के क्रम-विकास से सृष्ट जीवन की जटिल प्रणाली है और जैसे-जैसे ये उपकरण प्रकृति की क्रिया में जीव की अनुभूति के अन्दर प्रतिभासित होते हैं वैसे-वैसे हम इन्हें यथाक्रम बुद्धि, अहंकार, मन, इन्द्रियाँ और पंचमहाभूत कह सकते हैं, और ये पंचमहाभूत ही प्रकृति के रूपों के आधार हैं । ये सब यांत्रिक हैं, ये प्रकृति का एक ऐसा यंत्न हैं जिसके अनेकों कल-पुर्जे हैं और आधुनिक दृष्टिकोण से हम कह सकते हैं कि ये सब-के-सब जड़ प्राकृतिक शक्ति में समाए हुए हैं और प्रकृतिस्थ जीव जैसे-जैसे प्रत्येक यंत्न के ऊर्ध्वगामी विकास के द्वारा अपने-आपको जानता है वैसे-वैसे ये प्रकृति में प्रकट होते हैं, किन्तु जिस क्रम से हम इन्हें ऊपर गिना आये हैं, उससे इनके प्रकटीकरण का क्रम उलटा होता है, अर्थात् पहले जड़ सृष्टि प्रकट होती है, तब इन्द्रिय-समूह, उसके बाद क्रम से मन और बुद्धि और अंत में आत्म-चैतन्य । बुद्धि जो पहले प्रकृति के कार्यों में ही लगी रहती है, पीछे इन कार्यों के

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यथार्थ स्वरूप को जान सकती है, यह देख सकती है कि यह केवल त्रिगुण का खेल है जिसमें जीव फँसा हुआ है, वह जीव को तथा त्निगुण के इन कार्यों को अलग-अलग देख सकती है; और ऐसा होने पर जीव को यह मौका मिलता है कि वह इस बंधन से अपने-आपको छुड़ा ले और अपने मूल मुक्त स्वरूप और अक्षर सत्ता में लौट आये । तब वेदान्त की परिभाषा में जीव आत्मा को, सत्ता को देखता हे;  प्रकृति के उपकरणों और कार्यों से, उसके भूतभाव से अपना तादात्म्य बन्द कर देता है; अपनी सदात्मा के साथ, अपने सत्स्वरूप के साथ तदात्म होता और अपनी स्वत: सिद्ध अक्षर आत्मसत्ता को फिर से पा लेता है । गीता के अनुसार इसी आत्मस्थिति से वह मुक्त भाव से तथा अपनी सत्ता के ईश्वररूप से अपने भूतभाव के कर्म का आश्रय बन सकता है ।

      केवल उन मनोवैज्ञानिक तत्वों को देखते हुए, जिनपर ये दार्शनिक प्रभेद प्रतिष्ठित हैं--और दर्शनशास्त्र उस शास्त्र को कहते हैं जो जीवन के मनोवैज्ञानिक तथा भौतिक तथ्यों के तथा परम सद्वस्तु के साथ इनका क्या संबंध है इसके सारमर्म को हमें बौद्धिक रूप में दिखा देता है--हम यह कह सकते हैं कि हम दो तरह के जीवन बिता सकते हैं एक हैं,  अपनी सक्रिय प्रकृति के कार्यों में लीन जीव का जीवन, जिसमें जीव अपने आंतरिक और बाह्य उपकरणों के साथ तदाकार, उनसे परिच्छिन्न, अपने व्यक्तित्व से बँधा, प्रकृति के अधीन होता है; और दूसरा है आत्मा का जीवन जो इन सब चीजों से श्रेष्ठ, विशाल, नैर्व्यक्तिक, विश्व-व्यापी, मुक्त, अपरिच्छिन्न, अतिवर्ती है और अपने असीम समत्व से अपनी प्राकृत सत्ता और कर्म को धारण करता पर अपनी मुक्त स्थिति और अनन्त सत्ता से इनके परे रहता है । हम चाहें तो अपनी वर्तमान प्राकृत सत्ता में या अपनी महत्तर आत्मसत्ता में रह सकते हैं । यही वह पहला महान् प्रभेद है जिसपर गीता का कर्मयोग प्रतिष्ठित है ।

       इसलिए अब सारा प्रश्न और उपाय यही है कि अंतरात्मा को अपनी वर्तमान प्राकृत सत्ता की परिच्छिन्नताओ से मुक्त किया जाय । हमारे प्राकृत जीवन में सर्वप्रधान बात है हमारा जड़ प्रकृति के रूपों में, पदार्थों के बाह्य स्पर्शों के अधीन होना । ये रूप, ये स्पर्श इन्द्रियों के द्वारा हमारे प्राण के सामने आते हैं और प्राण तुरत इन्द्रियों के द्वारा इन्हें पकड़ने के लिए दौड पड़ता और इनसे संबंध जोड़ता है, इनकी कामना करता, इनसे आसक्त होता और फलकी इच्छा करता है । मनमें होनेवाली सब सुखदु:ख-वेदनाएँ, उसकी सब प्रतिक्रियाएँ और तरंगें, उसके ग्रहण, चिंतन और अनुभव के अभ्यस्त तरीके सभी इन्द्रियों के कर्म का ही अनुगमन करते हैं; बुद्धि भी मन के प्रवाह में आकर अपने-आपको इन्द्रियों के इस जीवन

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को सौंप देती है, जिस जीवन में आंतर सत्ता वस्तुओं के बाह्य रूपों में ही फंसी रहती है और एक क्षणके लिए भी उनसे ऊपर नहीं उठ सकती, वह हमारे ऊपर होनेवाले अपने कर्म के घेरे से अथवा हमारे अन्दर होनेवाले उसके मानस-परिणामों और प्रतिक्रियाओं के चक्कर से बाहर नहीं निकल सकती । इसका कारण है अहंकार, प्रकृति का वह तत्त्व जिससे बुद्धि हमारे मन, इच्छा, इन्द्रियसमूह और शरीर पर होनेवाले प्रकृति के संपूर्ण कार्य को अन्यान्य मनों, इच्छाओं और शरीरों पर होनेवाले कार्यों से पृथक् बोध करती है; और हमारे लिए हमारा जीवन उतना-सा ही रह जाता है जितना हमारे अहंकार पर प्रकृति का असर पड़ता और हमारा अहंकार उसके स्पर्शों का प्रत्युत्तर देता है, इसके सिवाय हम और कुछ नहीं जानते, हमें लगता है कि हम और कुछ हैं ही नहीं । और ऐसा लगता है मानों आत्मा भी मन, इच्छा, भावावेगमय और स्नायवीय प्रतिग्रह और प्रतिक्रिया का ही कोई पृथक् स्तूप है । हम अपने अहंकार को विशाल बना सकते हैं, अपने-आपको कुल, जाति, वर्ग, देश, राष्ट्र, मनुष्यजाति तक के साथ एक कर सकते हैं; परन्तु फिर भी इन सब छद्मरूपों में अहंकार ही हमारे सब कर्मों की जड़ बना रहता है, केवल बाह्य पदार्थों के साथ अपने इन उदार व्यवहारों से उसे अपनी पृथक् सत्ता का एक विशेष संतोष प्राप्त होता है ।

      इस अवस्था में भी हमारे अन्दर प्राकृत सत्ता की इच्छा ही काम करती है जो अपने व्यक्तित्व के विभिन्न रूपों को तृप्त करने के लिए ही बाह्य जगत् के स्पर्शों को ग्रहण करती है, और इस प्रकार विषयों को ग्रहण करनेवाला संकल्प सदा ही कर्म और कर्मफल के प्रति कामना, आवेश और आसक्तिमय होता है; यह हमारी प्रकृति की ही इच्छा होती है; इसे हम अपनी इच्छा कहते हैं, पर हमारा अहंभावापन्न व्यक्तित्व तो प्रकृति की ही एक रचना है, यह हमारी मुक्त आत्मा, हमारी स्वाधीन सत्ता नहीं है और न हो सकता है । यह सारा प्रकृति के गुणों का कर्म है । यह कर्म तामसिक हो सकता है और तब हमारा व्यक्तित्व जड़वत्, वस्तुओं की यांत्रिक धारा के वशवर्त्ती और उसीसे संतुष्ट, किसी अधिक स्वाधीन कर्म और प्रभुत्व का कोई प्रबल प्रयास करने में सर्वथा असमर्थ होता है । अथवा यह कर्म राजसिक हो सकता है और तब हमारा व्यक्तित्व अशांत और कर्मप्रवण होता है, जो अपने-आपको प्रकृति पर लादना और उससे अपनी आवश्यकताएँ और इच्छाएँ पूरी कराना चाहता है, पर यह नहीं देख पाता कि उसका यह प्रभुत्वा-भास भी एक दासत्व ही है, क्योंकि उसकी आवश्यकताएँ और इच्छाएँ वे ही हैं जो प्रकृति की आवश्यकताएँ और इच्छाएँ हैं, और जबतक हम उनके वशमें हैं तबतक हमें मुक्ति नहीं मिल सकती । अथवा यह कर्म सात्विक हो सकता है

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और तब हमारा व्यक्तित्व प्रबुद्ध होता है, जो बुद्धि के द्वारा अपना जीवन बिताने और किसी शुभ, सत्य या सुन्दर के ईप्सित आदर्श को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है; पर अब भी यह बुद्धि प्रकृति के रूपों के ही वश में होती है और ये आदर्श हमारे अपने ही व्यष्टिस्वरूप के परिवर्तनशील भाव होते हैं जिनमें अंततों-गत्वा कोई ध्रुव नियम नहीं मिलता न सदा के लिए संतोष ही मिलता है । यहाँ भी हम परिवर्तन के चक्कर पर ही घूमते रहते हैं और उस शक्ति के अधीन रहते हैं जो हमारे अन्दर और इस सबके अन्दर है और जो अहंकार के द्वारा इस तरह चक्कर लगवाती है, पर हम स्वयं वह शक्ति नहीं होते न उसके साथ हमारा योग या मेल ही होता है । यहाँ भी कोई मुक्तावस्था या यथार्थ प्रभुत्व नहीं होता ।

    फिर भी मुक्तावस्था संभव है । उसके लिए पहले हमें अपनी इन्द्रियों पर होनेवाली बाह्य संसार की क्रियाओं से अलग हटकर अपने-आपमें आना होगा; अर्थात् हमें अंतर्मुख होकर रहना होगा और इन्द्रियाँ जो अपने बाह्य विषयों की ओर स्वभावतः दौड़ पड़ती हैं, उन्हें रोक रखने में समर्थ होना होगा । इन्द्रियों को अपने वशमें रखना और इन्द्रियाँ जिन चीजों के लिए तरसा करती हैं उनके बिना सुखपूर्वक रहने में समर्थ होना, सच्चे आध्यात्मिक जीवन की पहली शर्त है; जब यह हो जाता है केवल तभी हम यह अनुभव करने लगते हैं कि हमारे अन्दर कोई आत्मा है जो बाह्य स्पर्शों से उत्पन्न होनेवाले मन के विकारों से सर्वथा भिन्न वस्तु है, वह आत्मा जो अपनी गभीरतर सत्ता में स्वयंभू, अक्षर, शांत, आत्मवान्, भव्य, स्थिर, गंभीर और महान् है, स्वयं ही अपना प्रभु है और बाह्य प्रकृति की व्यग्रताभरी दौड़-धूपसे सर्वथा अलिप्त है । परन्तु यह तबतक नहीं हो सकता जबतक हम काम के वश में हैं । क्योंकि कामना हमारे सारे बाह्य जीवन का मूल-तत्त्व है, इसे इन्द्रियगत जीवन से तृप्ति मिलती है और यह षड्रिपुओं के खेल में ही मस्त रहता है । इसलिए हमें इस कामना से छुटकारा पाना होगा और प्राकृत सत्ता की इस प्रवृत्ति के नष्ट होने पर हमारे मनोविकार, जो काम की तरंगों के परिणाम होते हैं, आप ही शान्त हो जायंगे; क्योंकि लाभ और हानि से, सफलता और विफलता से, प्रिय और अप्रिय के स्पर्शों से जो सुखदुःख हुआ करते हैं, जो इन मनोविकारों का स्वागत और सत्कार करते हैं,  हमारी आत्माओं के अन्दर से निकल जायंगे । तब प्रशान्त समता प्राप्त होगी । और चूंकि हमें इस जगत् में रहना और कर्म करना है और हमारा स्वभाव कर्म के फलकी आकांक्षा करनेवाला है, अत: हमारा यह कर्तव्य है कि हम इस स्वभाव को बदलें और फला--सक्ति को छोड़कर कर्म करें, यदि ऐसा न करेंगे तो कामना और उसके सारे परिणाम बने रहेंगे । परन्तु हममें कर्म के कर्ता का जो स्व-भाव है उसे कैसे बदल सकते

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हैं ? बदल सकते हैं अहंकार और व्यक्तित्व से अपने कर्मों को अलग करके, विवेक-बुद्धि से यह देखकर कि यह सब कुछ केवल प्रकृति के गुणों का ही खेल है, और अपनी आत्मा को इस खेलसे अलग करके, सबसे पहले अपनी आत्मा को प्रकृति के कर्मों का साक्षी बनाके तथा उन कार्यों को उस शक्ति के हवाले करके जो वास्तव में उनके पीछे है; यह शक्ति प्रकृति के अन्दर रहनेवाली वह वस्तु है जो हमसे बड़ी है, यह हमारा व्यक्तित्व नहीं बल्कि वह शक्ति है जो विश्व की स्वामिनी है । परन्तु मन यह सब न होने देगा; क्योंकि उसका स्वभाव इन्द्रियों के पीछे भागना और बुद्धि और इच्छाशक्ति को अपने साथ घसीट ले जाना है । इसलिए हमें मन को स्थिर करना सीखना होगा । हमें वह निरपेक्ष शान्ति और स्थिरता प्राप्त करनी होगी जिसमें पहुँचकर हम उस अंत:स्थित स्थिर, अचल, आनन्द-मय आत्मा को जान सकें जो सदा बाह्य पदार्थों के स्पर्शों से अक्षत, अक्षुब्ध रहती है, जो अपने-आपमें पूर्ण रहती और चिरंतन तृप्ति लाभ करती है ।

    यह आत्मा ही हमारा स्वत:सिद्ध स्वरूप है । यह हमारे वैयक्तिक जीवन से बद्ध नहीं है । यह सब भूतों में एक, सबमें व्यापक, सबमें सम, अपनी अनन्त सत्ता से अखिल विश्वकर्म को धारण करनेवाली है, यह देशकाल की परिच्छिन्नता से परिच्छिन्न होनेवाली नहीं है । प्रकृति और व्यष्टि के परिवर्तनों से परिवर्तित  होनेवाली नहीं है । जब हमें अपने अन्दर इस आत्मा के दर्शन होते हैं, जब हमें इसकी शान्ति और नीरवता का अनुभव होता है, तब हम इसमें संवर्द्धित हो सकते ह; हमारा अंत:पुरुष जो अभी प्रकृति में निमज्जित होकर निम्नतर अवस्था में है उसे आत्मा में पुन: प्रतिष्ठित कर सकते हैं । हम यह उन वस्तुओं की शक्ति से कर सकते हैं जो हमें प्राप्त हुई हैं--स्थिरता, समता, निर्विकार नैर्व्यक्तिकता । क्योंकि ज्यों-ज्यों हम इन चीजों में विकसित होते हैं, उन्हें अपनी पूर्णता तक पहुँचाते हैं और अपनी सारी प्रकृति को इनके अधीन कर देते हैं, त्यों-त्यों हम इस स्थिर, सम, निर्विकार, नैर्व्यक्तिक, सर्वव्यापक आत्मा के स्वरूप में विकसित होते जाते हैं । हमारी इन्द्रियाँ उसी नीरवता में जा पहुँचती हैं और जगत् के स्पर्शों को महती शान्ति के साथ ग्रहण करती हैं; हमारा मन उसी नीरवता को प्राप्त होकर शान्त, विराट् साक्षी बन जाता है; और हमारा अहंकार इसी नैर्व्यक्तिक सत्ता में विलीन हो जाता है । तब हम सभी चीजें उसी आत्मा में देखते हैं जो हम स्वयं बन चुके हैं; और हम इस आत्मा को सबके अन्दर देखते हैं; हम सब भूतों के साथ उनकी आत्मसत्ता में एकीभूत हो जाते हैं । इस अहंभावशून्य शान्ति और नैर्व्यक्तिकता में रहते हुए हम जो कर्म करते हैं वे हमारे कर्म नहीं रह जाते, वे अब अपनी प्रतिक्रियाओं से हमें किसी भी प्रकार से न तो बाँध सकते

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हैं न कोई पीड़ा ही पहुँचा सकते हैं । प्रकृति और उसके गुण अब भी अपने कर्म का जाल बुना करते है, पर उनसे हमारी  दु:खरहित स्वतः सिद्ध शान्ति भंग नहीं होती । सब कुछ उसी एक सम विराट् ब्रह्म में समर्पित होता है ।

      परन्तु यहाँ दो कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं । एक यह कि इस शान्त अक्षर आत्मा और प्रकृति के कर्म में एक विरोध प्रतीत होता है । जब हम इस अक्षर आत्मसत्ता में एक बार प्रवेश कर चुके तब फिर कर्म का अस्तित्व ही कैसे रह सकता है और वह जारी कैसे रह सकता है ? उसमें कर्म करने की वह इच्छा ही कहाँ है जिससे हमारी प्रकृति का कर्म संभव हो सके ? यदि हम सांख्य मतके अनुसार यह कहें कि इच्छा प्रकृति में होती है, पुरुषमें नहीं, तब भी प्रकृति में कर्म के पीछे कोई-न-कोई प्रेरकभाव तो होना ही चाहिए और उसमें वह शक्ति भी होनी चाहिए जिससे वह आत्मा को रस, अहंकार और आसक्ति के द्वारा अपने कर्मों में खींच सके, और जब इन चीजों का आत्मचैतन्य में प्रतिबिंबित होना ही बन्द हो गया तो प्रकृति की वह शक्ति भी जाती रही, और उसके साथ-साथ कर्म करने का प्रेरकभाव भी जाता रहा । परन्तु गीता इस मत को स्वीकार नहीं करती, जो एक विराट् पुरुष के बजाय अनेक पुरुषों का होना आवश्यक ठहराता है, क्योंकि यदि ऐसा न माना जाय तो यह बात समझ में न आ सकेगी कि किसी पुरुष की पृथक् आत्मानुभूति और मोक्ष कैसे संभव है जब कि अन्य लाखों-करोड़ों पुरुष बद्ध ही पड़े हैं । प्रकृति कोई पृथक् तत्त्व नहीं बल्कि परमेश्वर की ही शक्ति है जो विश्वरचना में प्रवृत्त होती है । परन्तु परमेश्वर यदि केवल यही अक्षर पुरुष हैं और व्यष्टि-पुरुष केवल कोई ऐसी चीज है जो उसमें से निकलकर उस शक्ति के साथ इस सृष्टि में आया है, तो जिस क्षण व्यष्टि-पुरुष लौटकर आत्मा में स्थित होगा उसी क्षण सारी सृष्टिक्रिया बन्द हो जायगी और रह जायगी केवल परम एकता और परम निस्तब्धता । दूसरी बात यह है कि यदि अब भी किसी अचिंत्य रूपसे कर्म जारी रहे तो भी आत्मा जब सब पदार्थों के लिए सम है तब कर्म हों या न हों और हों तो चाहे जैसे हों, इसका कोई महत्व नहीं । ऐसी अवस्था में यह भयंकर सत्यानासी कर्म क्यों, यह रथ, यह युद्ध, यह योद्धा, यह भगवान् सारथी किसलिए ?

      गीता इसका उत्तर यह बतलाकर देती है कि परमेश्वर अक्षर पुरुष से भी महान् हैं, अधिक व्यापक हैं, वे साथ-साथ यह आत्मा भी हैं और प्रकृति में होनेवाले कर्म के अधीश्वर भी । परन्तु वे अक्षर ब्रह्म की सनातनी अचलता, समता, कर्म और व्यष्टिभाव से अतीत श्रेष्ठता में स्थित रहते हुए प्रकृति के कर्मों का संचालन करते हैं । हम कह सकते हैं कि यही उनकी सत्ता की वह स्थिति है,

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जिसमें से वे कर्मसंचालन करते हैं, और जैसे-जैसे हम इस. स्थिति में संवर्द्धित होते हैं वैसे-वैसे हम उन्हीं की सत्ता और दिव्य कर्मों की स्थिति को प्राप्त होते हैं । इसी स्थिति से वे अपनी सत्ता की प्रकृतिगत इच्छा और शक्ति के रूप में निकल आते हैं अपने-आपको सब भूतों में प्रकट करते हैं, जगत् में मनुष्यरूप से जन्म लेते हैं, सब मनुष्यों के हृदयों में निवास करते हैं, अवताररूप से अपने-आपको अभिव्यक्त करते हैं (यही मनुष्य के अन्दर उनका दिव्य जन्म है ); और मनुष्य ज्यों-ज्यों उनकी सत्ता में संवर्द्धित होता है, त्यों-त्यों वह भी इस दिव्य जन्म को प्राप्त होता है । इन्हीं प्रभुके लिये जो हमारे कर्मों के अधीश्वर हैं, यज्ञके तौर पर कर्म करने होंगे और अपने-आपको आत्मस्वरूप में उन्नत करते हुए हमें अपनी सत्तामें उनके साथ एकत्व लाभ करना होगा और अपने व्यष्टि-भाव को इस तरह देखना होगा कि यह उन्हीं का प्रकृति में आशिक प्राकटय है । सत्ता में उनके साथ ऐक्य लाभ करने से हम जगत् के सब प्राणियों के साथ एक हो जाते हैं और दिव्य कर्म करने लगते हैं, अपने कर्म के तौर पर नहीं बल्कि लोक-संरक्षण और लोकसंग्रह के लिये हमारे द्वारा होनेवाली उन्हीं की क्रिया के तौर पर ।

      असल में यही अत्यन्त आवश्यक बात है और इसे करते ही अर्जुन के आगे आनेवाली सब कठिनाइयाँ लुप्त हो जायँगी । प्रश्न तब हमारे वैयक्तिक कर्म का नहीं रह जाता, क्योंकि हमारा व्यक्तित्व जिससे बनता है वह तो केवल इस लौकिक जीवन से संबंध रखनेवाली और इसलिए गौण चीज रह जाती है फिर जगत् में हमारे द्वारा भगवदिच्छा के कार्यान्वित होने का प्रश्न ही रह जाता है । उसे समझने के लिए हमें यह जानना होगा कि ये परमेश्वर स्वयं क्या हैं और प्रकृति के अन्दर इनका क्या स्वरूप है, प्रकृति की कर्मपरंपरा क्या है और उसका लक्ष्य क्या है और प्रकृतिस्थ पुरुष और इन परमेश्वर के बीच आंतरिक संबंध कैसा है, इसे समझने के लिए ज्ञानयुक्त भक्ति ही आधार है । इन्हीं बातों का स्पष्टीकरण गीता के शेष अध्यायों का विषय है ।

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