Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita.
Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.
कुरुक्षेत्र
अब गीता के उपदेशक गुरु के इस विशाल सोपान-क्रम का अनुसरण करते हुए हम आगे बढ़ें और मनुष्य के इस त्रिविध मार्ग का उन्होंने जिस प्रकार अंकन किया है उसका निरीक्षण करें । यह वही मार्ग है जिसपर चलनेवाले मनुष्य के मन, हृदय और बुद्धि उन्नत होकर उन परम को प्राप्त होते और उनकी सत्ता में निवास करते हैं जो समस्त कर्म, भक्ति और ज्ञान के परम ध्येय हैं । परन्तु इसके पूर्व फिर एक बार उस परिस्थिति का विचार करना होगा जिसके कारण गीता का प्रादुर्भाव हुआ है और इस बार इसे इसके अत्यंत व्यापक रूप में अर्थात् इसे मनुष्य-जीवन का और समस्त संसार का भी प्रतीक मानकर देखना होगा । यद्यपि अर्जुन को केवल अपनी ही परिस्थिति से, अपने ही आंतरिक संघर्ष और कर्म-विधान से मतलब है, तथापि जैसा कि हम लोग देख चुके हैं, जो विशेष प्रश्न अर्जुन ने उठाया है और जिस ढंग से उसे उठाया है उससे वास्तव में मनुष्य-जीवन और कर्म का ही सारा सवाल उपस्थित होता है । यह संसार क्या है और क्यों है और यह जैसा है उसमें इस सांसारिक जीवन का आत्मजीवन के साथ कैसे मेल बैठे ? इस गहरे, कठिन विषय को श्रीगुरु हल करना चाहते हैं क्योंकि उसी की बुनियाद पर वे उस कर्म का आदेश देते हैं जिसे सत्ता की एक नवीन सन्तुलित अवस्था से मोक्षप्रद ज्ञान के प्रकाश में करना होगा ।
तब फिर वह कौन-सी चीज है जो उस मनुष्य के लिए कठिनाई उपस्थित करती है जिसे इस संसार को, जैसा यह है, स्वीकार करना है और इसमें कर्म करना है और साथ ही अपने अन्दर की सत्ता में, आध्यात्मिक जीवन में निवास करना है । संसार का वह कौन-सा पहलू है जो उसके जागृत मन को व्याकुल कर देता है और उसकी ऐसी अवस्था हो जाती है जिसके कारण गीता के प्रथम अध्याय का नाम सार्थक शब्दों में 'अर्जुन-विषादयोग' पडा--वह विषाद और निरुत्साह जो मानव-जीव को तब अनुभूत होता है जब यह संसार जैसा है ठीक वैसा ही, अपने असली रूप में उसके सामने आता है, और उसे इसका सामना करना पड़ता है, जब न्याय-नीति और नेकी के भ्रम का परदा उसकी आँखों के सामने
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से, और किसी बडी चीज के साथ मेल होने से पहले ही, फट जाता है ? यह वही पहलू है जिसने बाह्यत: कुरुक्षेत्र के नर-संहार और रक्तपात के रूप में आकार ग्रहण किया है और अध्यात्मत: समस्त वस्तुओं के स्वामी के कालरूप-दर्शन में जो अपने सृष्ट प्राणियों को निगलने, चबा जाने और नष्ट करने के लिये प्रकट हुए हैं । यह दर्शन अखिल विश्व के उन प्रभु का दर्शन है जो विश्व के स्रष्टा हैं, पर साथ ही विश्व के संहारकर्ता भी, जिनका वर्णन प्राचीन शास्त्रकारों ने बडे ही कठोर रूपक में यों किया है कि, '' ऋषि-मुनि और रथी-महारथी इनके भोज्य हैं और मृत्यु इनके जेवनार का मसाला है ।'' दोनों एक ही सत्य के रूप हैं, वही सत्य पहले जीवन के तथ्यों में अप्रत्यक्ष और अस्पष्ट रूप से देखा गया, फिर वही सत्य अंतरात्मा की दृष्टि से प्रत्यक्ष और स्पष्ट रूप में उस तत्व के रूप में देखा गया जो अपने-आपको जीवन में व्यक्त किया करता है । इसका बाह्य पहलू जगत्-जीवन और मानव-जीवन है जो लड़ते-भिड़ते और मारते-काटते हुए आगे बढ़ते हैं; अंतरंग पहलू है विराट् पुरुष जो विराट् सर्जन और विराट् संहार के द्वारा अपने-आपको पूर्ण करते हैं । जीवन एक युद्ध है, संहार-क्षेत्र है, यही कुरुक्षेत्र है; ये भगवान् महारुद्र हैं, यही दर्शन अर्जुन को उस समर-भूमि में हुआ था ।
हेराक्लिटस का कहना है कि, युद्ध सब वस्तुओं का जनक है, युद्ध सबका राजा है । इस ग्रीक तत्ववेत्ता के अन्य सूत्र-वचनों के समान यह सूत्र-वचन भी एक बड़े गंभीर सत्य का सूचक है । जड़-प्राकृतिक या अन्य शक्तियों के संघर्ष के द्वारा ही इस जगत् की प्रत्येक वस्तु जनमती हुई प्रतीत होती है; शक्तियों, प्रवृत्तियों, सिद्धांतों और प्राणियों के परस्पर-संघर्ष से यह जगत् आगे बढ्ता दीखता है, सदा नये पदार्थ उत्पन्न करते हुए और पुराने नष्ट करते हुए यह आगे बढ़ा चला जा रहा है--किधर जा रहा है, किसी को ठीक पता नहीं; कोई कहते हैं यह अपने संपूर्ण नाश की ओर जा रहा है; और कोई कहते हैं यह व्यर्थ के चक्कर काट रहा है और इन चक्करों का कोई अंत नहीं; आशावाद का सबसे बड़ा सिद्धांत यह है कि ये चक्कर प्रगतिशील हैं और हर चक्कर के साथ जगत् अधिकाधिक उन्नति को प्राप्त होता है, रास्ते में चाहे जो कष्ट और गड़बड़ दीख पड़े, पर यह जगत् बराबर किसी दिव्य अभीष्ट-सिद्धि के अधिकाधिक समीप जा रहा है । यह चाहे जैसा हो, पर इसमें संदेह नहीं कि यहाँ संहार के बिना कोई निर्माण-कार्य नहीं होता, अनेकविध वास्तव और संभावित बेसुरेपन को जीतकर परस्पर--विरोधी शक्तियों का संतुलन किये बिना कोई सामंजस्य नहीं होता; इतना ही नहीं, बल्कि जबतक हम निरंतर अपने-आपको ही न खाते रहें और दूसरों के
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जीवन को न निगलते रहें तबतक इस जीवन का निरवच्छिन्न अस्तित्व भी नहीं रहता । हमारा शारीरिक जीवन भी ऐसा ही है जिसमें हमें बराबर मरना और मर--कर जीना पड़ता है, हमारा अपना शरीर भी फौजों से घिरे हुए एक नगर जैसा है, आक्रमणकारी फौजें इसपर आक्रमण करतीं और संरक्षणकारी इसका संरक्षण करती हैं और इन फौजों का काम एक-दूसरेको खा जाना है और यह तो हमारे सारे जीवन का केवल एक नमूना ही है । सृष्टि के आरंभ से ही मानो यह आदेश चला आया है कि, ' ''तू तबतक विजयी नहीं हो सकता जबतक अपने साथियों से और अपनी परिस्थिति से युद्ध न करेगा; बिना युद्ध किये, बिना संघर्ष किये और बिना दूसरों को अपने अन्दर हजम किये तू जी भी नहीं सकता । इस जगत् का जो पहला नियम मैने बनाया वह संहार के द्वारा ही सर्जन और सरक्षण का नियम है |''
प्राचीन शास्त्रकारों ने जगत् का सूक्ष्म निरीक्षण कर जो कुछ देखा उसके फलस्वरूप उन्होंने इस आरंभिक विचार को स्वीकार किया । अति प्राचीन उपनिषदों ने इस बात को बहुत ही स्पष्ट रूप से देखा और इसका बड़े साफ और जोरदार शब्दों में वर्णन किया । ये उपनिषदें सत्य के संबंध में किसी चिकनी--चुपड़ी बात को या किसी आशावादी मतमतांतर को सुनना भी नहीं पसंद करतीं । उपनिषदों ने कहा, भूख जो मृत्यु है, वही इस जगत् का स्रष्टा और स्वामी है, और प्राणमय जीवन को इन्होंने यज्ञ के अश्व का रूपक दिया । जड़-तत्व को इन्होंने अन्न कहा है, इनका कहना है कि हम इसे अन्न इसलिये कहते हैं कि यह स्वयं खाया जाता है और साथ ही प्राणियों को निगल जाता है । भक्षक भक्षण कर भक्ष्य होता है, यही इस जड़-प्राकृतिक जगत् का मूल सूत्र है, और डारविन--मतवादियो ने इसी बात का फिरसे आविष्कार किया जब उन्होंने कहा कि जीवन--संग्राम विकसनशील सृष्टि का विधान है । आधुनिक सायंस ने उन्हीं सत्यों को केवल नवीन शब्दों में ढालकर प्रकट किया है जो उपनिषदों के वर्णित रूपकों में या हिराक्लिटस के वचनों में बहुत अधिक जोरदार, व्यापक और ठीक-ठीक अर्थ देनेवाले सूत्रों के रूप में बहुत पहले ही कहे जा चुके थे ।
नीत्शे का आग्रहपूर्वक कहना है कि युद्ध जीवन का एक पहलू है और आदर्श मनुष्य वही है जो योद्धा है । आरंभ में वह ऊँट-प्रकृतिवाला हो सकता है और उसके बाद शिशु-प्रकृतिवाला बन सकता है, पर यदि उसे पूर्णत्व प्राप्त करना है, तो मध्य में सिंह-प्रकृति वाला मनुष्य होना पड़ेगा । नीत्शे ने अपने इन मतों से लोकाचार और व्यवहार के लिये जो सिद्धांत निकाले उनसे हमारा मतभेद चाहे जितना क्यों न हो, पर उसके इन लोकनिंदित मतों में कोई ऐसा तथ्य भी है जो अस्वीकार नहीं किया जा सकता, बल्कि उससे एक ऐसे सत्य का स्मरण
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होता है जिसे हम लोग सामान्यतः अपनी दृष्टि की ओट रखना पसंद करते हैं । यह अच्छा है कि हम लोगों को उस सत्य की याद दिलायी जाय; क्योंकि एक तो, प्रत्येक बलवान् आत्मा पर इसको देख लेने का बड़ा बलबर्द्धक परिणाम होता है; खूब मीठी-मीठी दार्शनिक, धार्मिक या नैतिक भावुकताओं के कारण हमपर जो सुस्ती छा जाती है उससे हम बच जाते हैं; इस प्रकार की भावुकता का यह परिणाम होता है कि लोग प्रकृति को प्रेम, सौन्दर्य और कल्याण-स्वरूप ही देखना पसंद करते हैं और उसके कराल-काल-रूप से भागते हैं, ईश्वर को शिवरूप से तो पूजते हैं, पर उसके रुद्र-रूप की पूजा करने से इनकार करते हैं; दूसरे यह कि जीवन जैसा है उसको वैसा ही देखने की सच्चाई और साहस यदि हममें न हो तो इसमें जो विविध द्वंद्व और परस्पर-विरोध हैं उनका समाधान करनेवाला कोई अमोघ उपाय हमें कभी प्राप्त नहीं हो सकता । पहले हमें यह देखना होगा कि यह जीवन क्या है और यह जगत् क्या है; तब इस बात को ढूंढने चलना अधिक अच्छा होगा कि इस जीवन और जगत् को, जैसे ये होने चाहियें उस रूप में रूपांतरित करने का ठीक रास्ता कौन-सा है । यदि संसार के इस अप्रिय लगनेवाले पहलू में कोई ऐसा रहस्य हो जो इसके अंतिम सामंजस्य को ले आनेवाला हो, तो इसकी उपेक्षा या अवहेलना करने से हम उस रहस्य को नहीं पा सकेंगे और इस प्रश्न को हल करने के हमारे सारे प्रयास, प्रश्न के वास्तविक तत्वों की मनमानी उपेक्षा करने के दोष के कारण, विफल हो जायेंगे | इसके विपरीत, यदि वह ऐसा शत्रु हो जिसे मारना, कुचल डालना, जड़ से उखाड़ फेंकना या नष्ट करना जरूरी हो तो भी जीवन पर उसका जो प्रभाव या दखल है उसे एक मामूली--सी बात समझने अथवा इस बात को देखने से इनकार करने से कि प्रभावकारी भूतकाल में तथा जीवन के यथार्थत : कार्यकारी सिद्धांतों में इसकी जड़ें कितनी मजबूती के साथ जमी हुई हैं, हमें कुछ भी लाभ नहीं है ।
युद्ध और संहार का विश्वव्यापी सिद्धांत हमारे इस ऐहिक जीवन के निरे स्थूल पहलू से ही नहीं, बल्कि हमारे मानसिक और नैतिक जीवन से भी संबंध रखता है । यह तो स्वत:सिद्ध है कि मनुष्य का जो वास्तविक जीवन है, चाहे वह बौद्धिक हो या सामाजिक, राजनीतिक हो या नैतिक, उसमें बिना संघर्ष के--अर्थात् जो कुछ है और जो कुछ होना चाहता है इन दोनों के बीच तथा इन दोनों के पीछे के तत्वों में जबतक परस्पर-य्रुद्ध न हो तबतक--हम एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते । जबतक मनुष्य और संसार वर्तमान अवस्था में हैं कम-से-कम तबतक के लिये तो आगे बढ़ना, उन्नत होना और पूर्णावस्था को प्राप्त करना और साथ ही हमारे सामने जिस अहिंसा के सिद्धांत को मनुष्य का उच्चतम और
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सर्वोत्तम धर्म कहकर उपस्थित किया जाता है, उसका यथार्थतः और संपूर्णत: पालन करना असंभव है । केवल आत्मबल का प्रयोग करेंगे, युद्ध करके या भौतिक बलप्रयोग से अपनी रक्षा का उपाय करके हम किसी का नाश नहीं करेंगे ? अच्छी बात है, और जबतक आत्मबल अमोघ न हो उठे तबतक मनुष्यों और राष्ट्रों में जो आसुरी बल है वह चाहे हमें रौंदता रहे, हमारे टुकड़े-टुकड़े करता रहे, हमें जबह करता रहे, हमें जलाता रहे, भ्रष्ट करता रहे, जैसा करते हुए आज हम उसे देख रहे हैं, तब तो वह इस काम को और भी मौज से और बिना किसी बाधा-विध्न के करेगा । और, आपने अपने अप्रतीकार के द्वारा उतनी ही जानें गँवाइँ होतीं जितनी कि दूसरे हिंसा का सहारा लेकर गँवाते; फिर भी आपने एक ऐसा आदर्श तो रखा है जो कभी अच्छी दशा ला सकता है या कम-से-कम जिसे अच्छी दशा लानी चाहिये । परन्तु आत्मबल भी, जब वह अमोघ हो उठता है तब, नाश करता है । जिन्होंने आँखें खोलकर आत्मबल का प्रयोग किया है वही जानते हैं कि यह तलवार और तोप-बंदूक से कितना अधिक भयंकर और नाशकारी होता है । और, जो अपनी दृष्टि को किसी विशिष्ट कर्म और उसके सध:फल तक ही सीमित नहीं रखते वे ही यह भी देख सकते हैं कि आत्मबल के प्रयोग के बाद उसके परिणाम कितने प्रचंड होते हैं, उनसे कितना नाश होता है और जो जीवन उस विनष्ट क्षेत्र पर आश्रित रहता था या पलता था उसकी भी कितनी बरबादी होती है । बूराई अकेले नहीं मरती, उसके साथ वे सब चीजें भी विनाश को प्राप्त होती हैं जो उससे पलती है; चाहे हम हिंसा के सनसनीदार कर्म की पीड़ा से बच जायें, पर इससे नाश का परिणाम कुछ कम नहीं होता ।
फिर, जब-जब हम आत्मबल का प्रयोग करते हैं तब-तब हम अपने शत्रु के विरुद्ध एक ऐसी प्रचण्ड कर्मशक्ति खड़ी कर देते हैं, जिसके उपरांत की क्रियाओं को अपने बस में रखना हमारे सामर्थ्य के बाहर होता है । विश्वामित्र के क्षात्र बल के मुकाबले वसिष्ठ आत्मबल का प्रयोग करते हैं और परिणाम यह होता है कि हूण, शक और पल्लव सेनाएँ आक्रामक पर घहराकर टूट पड़ती हैं । आक्रमण और हिंसा की अवस्था में आध्यात्मिक पुरुष का शांत और निष्क्रिय रहना संसार की प्रचण्ड शक्तियों को बदला लेने के लिये जगा देता है । जो अशुभ और दुष्टता के प्रतिनिधि हैं उन्हें यदि रौंदने और कुचलने के लिये खुला छोड़ दिया जाय तो वे अपने ऊपर इतनी बड़ी तबाही बूला लेंगे जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते । अत : उन्हें रोकना और इसके लिये बल प्रयोग करना भी दया का काम होगा । हमारे अपने हाथ पाक और साफ रहें, हमारी आत्मा में कोई दाग न लगे, इतने-
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से ही संसार से संघर्ष और विनाश का विधान मिट नहीं जाता; इसकी जो जड़ है उसे पहले मानव-जाति में से उखड़ जाना चाहिए । केवल हाथ-पर-हाथ धरके बैठे रहने से या जड़तावश बुराई का प्रतीकार करने की अनिच्छा या अक्षमता से यह विधान नष्ट नहीं होगा; वास्तव में संघर्ष करने की राजसिक वृत्ति से उतनी हानि नहीं होती जितनी जड़ता और तमस् से होती है, क्योंकि राजसिक संघर्ष जितना नाश करता है उससे अधिक सर्जन करता है । इसलिए वैयक्तिक कर्म की मीमांसा का जहाँतक सम्बन्ध है, व्यक्ति संघर्ष एवं संग्राम से तथा उसके फलस्वरूप होनेवाले नाश से स्थूल और भौतिक रूप में बचने के अपने नैतिक भाव की सहायता तो कर सकता है, पर इससे प्राणियों का संहारक ज्यों-का-त्यों बना रहता है ।
बाकी के लिए मानव-इतिहास साक्षी है कि यह संहार-तत्व जगत् में निर्मम प्राणशक्ति के साथ लगातार अस्तित्व रखता आया है । यह हमारे लिए स्वाभाविक ही है कि हम इसकी उग्रता को ढांकने और दूसरे पहलुओं पर अधिक जोर देने का प्रयास करते हैं । युद्ध और विनाश ही सब कुछ नहीं है; विच्छेद और परस्पर-संघर्ष की संहारक शक्ति की तरह परस्पर-संघ और साहाय्य की संरक्षक शक्ति भी है । प्रेम की शक्ति अपनी धाक जमानेवाली अहंकारभरी शक्ति से कम नहीं है । दूसरों के लिये अपनी बलि चढ़ाने के आवेग की तरह अपने लिये दूसरों को बलि चढ़ाने का आवेग भी होता है । यदि हम यह देखें कि इन्होंने किस तरह काम किया है तो इनके विरोधी तत्वों की ताकत पर मुलम्मा चढ़ाने या उनकी उपेक्षा करने के लिये प्रेरित न होंगे । संघशक्ति का उपयोग केवल पारस्परिक सहायता के लिये ही नहीं, बल्कि साथ-ही-साथ रक्षण और आक्रमण के लिये भी हुआ है । इस जीवनसंग्राम में जो कोई हमारे ऊपर आक्रमण करता या हमारा प्रतिरोध करता है उसके विरुद्ध अपने-आपको चलवान् बनाने में भी इसका उपयोग हुआ है । संघशक्ति स्वयं युद्ध की, अहंकार की, एक प्राणी के द्वारा दूसरेपर स्वत्व स्थापित करनेवाली वृत्ति की दासी रही है । स्वयं प्रेम सदा मृत्यु की शक्ति रहा है । विशेषत: शुभ के प्रेम को और भगवान् के प्रेम को मानव-अहंकार ने जिस रूप में गले लगाया उसके कारण बहुत-सी लड़ाई-भिड़ाई, मार-काट और तबाही-बरबादी हुई है । आत्मबलिदान बहुत बड़ी और उदात्त चीज है, पर बड़े-से-बड़े आत्मबलिदान का यही अर्थ होता है कि हम मृत्यु के द्वारा जीवन के सिद्धान्त को ही सकारते हैं और इस भेंट को हम अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिये उस शक्ति की वेदी पर चढ़ाते हैं जो बलि चाहती है । चिड़िया अपने बच्चों की रक्षा के लिये घातक पशु का सामना करती है, देशभक्त अपने देश की
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स्वतंतता के लिये अपने शरीर की आहुति देता है, धर्मात्मा अपनेको धर्म पर न्योछावर करता है और भावुक अपनी भावनापर, ये सब प्राणी-जीवन की नीची से लेकर ऊँची श्रेणियों तक में, आत्म-बलिदान के सर्वोत्कृष्ट दृष्टांत हैं, और यह स्पष्ट है कि ये किस बात के साक्षी हैं ।
लेकिन अगर हम आनेवाले परिणामों को देखें तो सहज-आशावाद और भी कम सम्भव रह जाता है । देशभक्त को देश की स्वाधीनता के लिये मरते हुए देखिये । और जब कर्म का अधिष्ठाता रक्त और कष्टों का मूल्य चुका दे तो उसके कुछ ही दशकों के बाद उस देश को देखिये । वह अपनी बारी में अत्याचारी, शोषक और उपनिवेशों और अधीन देशों का विजेता बन जाता है और आक्रामक के रूप में जीने और सफल होने के लिये दूसरों को हड़पता है । ईसाई शहीद साम्राज्य-शक्ति के मुकाबले आत्मशक्ति को लगाकर हजारों की संख्या में मर मिटे, ताकि ईसा की जय हो, ईसाई-धर्म की धाक जमे । आत्मबल विजयी हुआ, ईसाई-धर्म की धाक जमी, पर ईसा की नहीं; विजयी धर्म लड़ाकू और हुकूमत करनेवाला संप्रदाय बन गया, जिस मत और संप्रदाय को हटाकर इसने अपना प्रभुत्व जमाया था उससे भी अधिक यह आततायी और अत्याचारी बन बैठा । धर्म भी आपस में लड़नेवाली शक्तियों में संगठित हो जाते हैं और संसार में रहने, बढ़ने और उसपर अपनी धाक जमाने के लिये परस्पर भीषण संग्राम करते हैं ।
इन सब बातों से यही प्रकट होता है कि इस जगत् के जीवन में कोई ऐसा तत्व है, कदाचित् वह आदि तत्व ही हो, जिसपर विजय प्राप्त करने का ढंग हम नहीं जानते और इसका कारण या तो यह है कि वह जीता ही नहीं जा सकता अथवा यह कि हमने उसे ऐसी बलवान् और पक्षपातरहित दृष्टि से देखा ही नहीं कि शान्त-स्थिर और निष्पक्ष होकर उसे पहचान सकें और यह जान लें कि वह क्या चीज है । यदि वास्तविक समाधान पाना हमारा उद्देश्य है, वह समाधान चाहे जैसा भी क्यों न हो, तो हमें जीवन का पूरी तरह सामना करना होगा और जीवन का सामना करने का अर्थ है भगवान् का सामना करना क्योंकि दोनों को एक-दूसरे-से अलग नहीं किया जा सकता और जिसने जगत्-जीवन को बनाया है, और जो उसमें व्याप्त है उससे जगत् के विधानों की जिम्मेदारी को हटाया नहीं जा सकता । इस सम्बन्ध में भी हम वास्तविकता को मृदु, मधुर और भ्रामक रूप देकर दिखाना पसन्द करते हैं । हम प्रेम और दया के ईश्वर को गढ़ लेते हैं जो हमारी धारणा के अनुसार शुभ, न्याय, सद्गुण और सदाचार का देवता, न्यायकर्ता, सद्गुणी और सदाचारी है, और बाकी जो कुछ है उसके सम्बन्ध में हम झट कह देते हैं कि वह ईश्वर नहीं है न ईश्वर का उससे कुछ वास्ता है, वह
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किसी शैतान की सृष्टि है जिसे किसी कारणवश ईश्वर ने उसकी दुष्ट इच्छा पूरी करने दी अथवा वह अंधकार के स्वामी अहिर्मन की सृष्टि है जो शिवस्वरूप अहु-र्मज्द की मंगलमय कृति को धूल में मिलाना चाहता है, अथवा यह स्वार्थी और पापी मनुष्य का ही काम है कि उसने ईश्वर की मूल निर्दोष सृष्टि को बिगाड़ डाला । मानो प्राणिजगत् में मृत्यु और निगलने का विधान मनुष्य का बनाया हुआ हो और यहाँ जो भीषण प्रक्यिा कार्य कर रही है जिसके द्वारा प्रकृति सृष्टि करती है, उसकी स्थिति रखती है, और अपने उसी गहन कर्म से संहार भी करती है, ─ मनुष्य की रची हुई हो । संसार में कुछ ही धर्म ऐसे हैं जिन्होंने भारत के आर्य-धर्म के समान निःसंकोच यह कहने का साहस किया है कि यह रहस्यमय विश्व-शक्ति एक ही भगवत्तत्व है, एक ही त्रिमूर्ति है; यही धर्म यह कह सका है कि जो शक्ति इस जगत्-कर्म में व्याप्त है वह केवल परोपकारी दुर्गा ही नहीं बल्कि रक्तरंजित संहार-नृत्य करनेवाली, करालवदना काली भी है और 'यह भी माता हैं; इन्हें भी परमेश्वरी जानो और सामर्थ्य हो तो इनका भी पूजन करो ।' यह बड़े मार्के की बात है कि जिस धर्म में ऐसी अचल सत्यनिष्ठा और ऐसा प्रचण्ड साहस था वही ऐसी गंभीर और व्यापक आध्यात्मिकता का निर्माण कर सका, जिसकी कोई बराबरी नहीं कर सकता । क्योंकि सत्य ही वास्तविक आध्या- त्मिकता का आधार है और साहस उसकी आत्मा । ''तस्यै सत्यमायतनम् ।''
इन सब बातों का यह अभिप्राय नहीं कि संग्राम और विनाश ही जीवन का अथ और इति है या सामंजस्य संग्राम से बड़ी चीज नहीं है और प्रेम मृत्यु की अपेक्षा भगवान् का अधिक अभिव्यक्त रूप नहीं है, या हमें भौतिक बल का स्थान आत्म-बल को, युद्ध का स्थान शान्ति को, फूट का स्थान एकत्व को, निगलने का स्थान प्रेम को, अहंभाव का स्थान विश्वभाव को, मृत्यु का स्थान अमर जीवन को नहीं देना चाहिये । भगवान् केवल संहारकर्ता ही नहीं बल्कि सब प्राणियों के सुहृद् हैं; केवल विश्व के त्रिदेव ही नहीं बल्कि परात्पर पुरुष हैं; करालवदना काली स्नेहमयी मंगलकारिणी माता भी हैं; कुरुक्षेत्र के स्वामी दिव्य सखा और सारथी हैं, सब प्राणियों के मनमोहन हैं, अवतार श्रीकृष्ण हैं । वे इस संग्राम, संघर्ष और विश्रुंखला में से होकर हमें चाहे जहाँ ले जा रहे हों, इसमें संदेह नहीं कि वे हमें उन सब पहलुओं के परे ले जा रहे हैं जिनपर हम दृढ़ता के साथ आग्रह कर रहे थे । पर कहाँ, कैसे, किस प्रकार की परात्परता से, किन साधनों से--यह हमें ढूंढना होगा, और इसे ढूंढने के लिये पहली आवश्यक बात यह है कि हम इस जगत् को जैसा यह है वैसा देखें, और उनकी क्रिया आरम्भ में और अब जैसे-जैसे दिखायी देती जाय वैसे-वैसे उसको देखते जायँ और उसका ठीक-ठीक
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मूल्य आँकते जायँ, इसके बाद उनका मार्ग और लक्ष्य स्वयं प्रत्यक्ष हो जायेंगे । हमें कुरुक्षेत्र को मानना होगा, मृत्यु के द्वारा जीवन का जो विधान है उसे स्वीकार करना होगा, तभी हम अमर जीवन के पथ का अनुसन्धान कर सकेंगे । हमें अपनी आँखें खोलकर-अर्जुन की अपेक्षा कम व्यथित दृष्टि से-ईश्वर के कालरूप का दर्शन करना होगा और इस विश्व-संहार को अस्वीकार करने, इससे घृणा करने या इससे भय खाकर भागने की वृत्ति को छोड़ देना होगा ।
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