Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita.
Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.
मनुष्य और जीवन संग्राम
इस प्रकार, जब हम गीता की शिक्षा को उसके व्यापक, उदार रूप में समझते हैं तब हमें जगत् के व्यक्त रूप और क्रम के सम्बन्ध में बौद्धिक स्तर पर गीता के आधारबिन्दु और साहसपूर्ण दृष्टि को स्वीकार करना ही होगा । कुरुक्षेत्र के सारथी भगवान् एक ओर तो सर्वलोकमहेश्वर, सब प्राणियों के मित्र और सर्वज्ञ गुरु हैं, दूसरी ओर संहारक काल हैं जो ''यहाँ इन सब लोगों का संहार करने में प्रवृत्त हुए हैं--लोकान् समाहर्त्तु मिह प्रवृत्त : ।'' गीता ने उदार हिंदूधर्म के सार-भाव का ही अनुसरण करके इस काल-रूप को भी भगवान् कहा है; गीता जगत् की पहेली को टालने के लिये जगत् में से किसी बगल के दरवाजे से निकल भागने की चेष्टा नहीं करती । और यदि सचमुच ही संसार को हम किसी असंस्कृत विवेकशून्य जड़प्राकृतिक शक्ति की ही कोई यांत्रिक क्रियामात्र नहीं समझते अथवा दूसरी ओर किसी अनादि शून्य से उत्पन्न हुई भावनाओं और शक्तियों की वैसी ही यांत्रिक क्रीड़ामात्र नहीं मानते या यह भी नहीं मानते कि यह अक्रिय आत्मा में होनेवाला केवल एक आभास है या अलिप्त, अचल, अक्षर परब्रम्ह के ऊपरी तल के चैतन्य में होनेवाला मिथ्या दुःस्वप्न मात्र या स्वप्न का ही क्रम-विकास है और स्वयं परब्रम्ह उससे विचलित नहीं होता न उसमें वस्तुत : उसका कोई हाथ ही है, अर्थात् यदि हम इस बात को जरा भी मानते हैं, जैसा कि गीता मानती है कि, भगवान् हैं और वे सर्वव्यापी, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् हैं और फिर भी सबके परे रहनेवाले परमपुरुष हैं जो जगत् को प्रकट करके स्वयं भी उसमें प्रकट होते हैं, जो अपनी माया, प्रकृति या शक्ति के दास नहीं, प्रभु हैं, जिनकी जगत्-परिकल्पना या योजना को उनका बनाया हुआ कोई भी जीवजंतु, मानव-दानव इधर-उधर या उलट-पलट नहीं कर सकता, जो अपनी सृष्टि या अभिव्यक्ति के किसी भाग के उत्तरदायित्व को अपने सृष्ट या अभिव्यक्त प्राणियों के ऊपर लादकर स्वयं उससे बरी होने की कोई जरूरत नहीं रखते--यदि हम ऐसा मानते हैं--तब तो आरम्भ से ही मानव-प्राणी को एक महान् और महाकठिन श्रद्धा धारण करके ही आगे बढ़ना होगा । मानव अपने-आपको एक ऐसे जगत में
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पाता है जहां ऊपर से देखने में ऐसा लगता है कि लड़ाकू शक्तियों ने एक भीषण विशृंखला कर रखी है, बड़ी-बड़ी अंधकार की शक्तियों का संग्राम छिड़ा हुआ है, जहाँका जीवन सतत परिवर्तन और मृत्यु के द्वारा ही टिका हुआ है, और व्यथा, यंत्रणा, अमंगल और विनाश की विभीषिका द्वारा चारों ओर से घिरा हुआ है । ऐसे जगत् के अन्दर उसे सर्वव्यापी ईश्वर को देखना होगा और इस बात से सचेतन होना होगा कि इस पहेली का कोई हल अवश्य है और यह कि जिस अज्ञान में वह इस समय वास करता है उसके परे कोई ऐसा ज्ञान है जो इन विरोधों को मिटाता है । उसे इस श्रद्धा और विश्वास के आधार पर खड़ा होना होगा कि, ''तू मुझे मार भी डाले, तो भी मैं तेरा भरोसा न छोड़ूंगा ।'' सभी प्रकार की कार्यरत निष्ठा में चाहे वह आस्तिक की हो, नास्तिक की हो या सर्वेश्वरवादी की--न्यूनाधिक स्पष्टता और पूर्णता के साथ इस प्रकार का भाव पाया जाता है । इसमें स्वीकृति है और विश्वास भी । स्वीकृति इस बात की कि संसार में सर्वत्र अनबन है और विश्वास इस बात का कि कोई भागवत तत्व भी है--विश्वपुरुष अथवा प्रकृति जो भी कहिये--जिसके बल से हम इन परस्पर-विरोधों को पार कर सकते हैं, जीत सकते हैं या समन्वित कर सकते हैं, कदाचित् एक साथ तीनों ही बातें कर सकते हैं, इनको जीतकर और इनको पार करके हम इन्हें समन्वित कर सकते, हैं ।
तब, मनुष्यजीवन की वग्स्तविकता का जहांतक सम्बन्ध है, हमें उसके संघर्ष और युद्ध के पहलू को मानना होगा जिसकी भीषणता बढ़ते-बढ़ते कुरुक्षेत्र के जैसे महासंकट तक जा पहुँचती है । गीता, जैसा कि हम देख आये हैं, परिवर्तन और संकट के एक ऐसे काल को अपना आधार बनाती है जो मानवजाति के इतिहास में पुन:-पुन: आया करता है और इस काल में बड़ी-बड़ी शक्तियाँ किसी भीषण बौद्धिक, सामाजिक, नैतिक, धार्मिक, राजनीतिक ध्वंस और पुनर्निर्माण के लिये एक-दूसरेसे टकराती हैं और मनुष्य की वास्तविक मनोवैज्ञानिक और सामाजिक अवस्था में साधारणतया ये शक्तियाँ संघर्ष, युद्ध और क्रान्ति के भीषण भौतिक आंदोलनों में अपनी पराकाष्ठा को पहुंचती हैं । गीता का प्रारम्भ ही इस मान्यता से होता है कि ऐसे भीषण क्रान्तिकारक प्रसंग प्रकृति में आवश्यक होते हैं, केवल उनका नैतिक पहलू ही नहीं अर्थात् धर्म और अधर्म में, शुभ के स्थापित होते हुए विधान और उसकी प्रगति को रोकनेवाली शक्तियों में जो युद्ध होता है वही नहीं, बल्कि उनका भौतिक अंग भी अर्थात् शुभाशुभ शक्तियों के प्रतिनिधिस्वरूप जो मनुष्य हैं उनके बीच सशस्त्र संग्राम अथवा अन्य किसी प्रकार का प्रचण्ड शारीरिक युद्ध भी आवश्यक होता है । यहाँ हमें स्मरण रखना होगा
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कि गीता की रचना ऐसे समय में हुई थी जब युद्ध मानव गतिविधि का आज से भी अधिक आवश्यक अंग था और उसके बहिष्कार का विचार तक आकाश-कुसुम जैसा होता । मनुष्यों में विश्वव्यापी शांति और सद्भाव को स्थापित करने का उपदेश-क्योंकि विश्वव्यापी शांति और पूर्ण सद्भाव के बिना सच्ची और स्थायी शान्ति नहीं हो सकती--हमारी उन्नति के एतिहासिक काल में एक क्षण के लिये भी मानवजीवन को अधिकृत नहीं कर सका है, क्योंकि जाति की नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक अवस्था इसके लिये तैयार नहीं थी और विकासात्मक प्रकृति की अभी तक जो हालत थी उसके कारण बह इस बात की इजाजत नहीं दे सकती थी कि मानव-जाति ऐसी उच्चतर स्थिति के लिये एकाएक तैयार कर ली जाय । आज भी हम लोग, सिवाय इसके कि परस्पर-विरोधी स्वार्थों के बीच यथासंभव कोई ऐसा समझौता कर लिया करें जिससे अतिभीषण और बीभत्स संघर्ष-संग्राम कुछ कम हो जायें, जरा भी आगे नहीं बढ़ पाये हैं । और इसके लिए मनुष्यजाति को अपनी ही प्रकृति के वश जिस उपाय और जिस ढंग का अवलंबन करना पड़ता है वह है एक ऐसा महाभयंकर रक्तपात जिसका इतिहास में जोड़ नहीं ! अर्थात् आधुनिक मनुष्य को जगद्व्यापी शान्ति की स्थापना का जो सीधा और सफल मार्ग मिला है वह है कटुता और दुर्दमनीय द्वेष से परिपूर्ण विश्वव्यापी महायुद्ध ! इस शान्ति की स्थापना के मूल में भी कोई ऐसा भाव नहीं है जो मनुष्य-स्वभाव के आमूल परिवर्तन से उत्पन्न हुआ हो, बल्कि मनुष्यों की जैसी बौद्धिक धारणाएं हैं, आर्थिक सुविधा का जो ख्याल है, प्राणहानि के भय से उनके प्राण और उनकी भावुकता जो कांप उठती है, युद्ध से उनको जो असुविधा और घबराहट होती है उसीसे ऐसी शान्ति की इच्छा की जाती है और राजनीतिक अधिकार आदि ले-देकर ही इस शान्ति की रक्षा का प्रयत्न किया जाता है । इस प्रकार से जो शान्ति स्थापित की जाती है उसकी नींव दृढ़ हो और वह बहुत काल तक स्थिर रहे ऐसा भरोसा नहीं होता । एक दिन आ सकता है, बल्कि हम कहेंगे कि निश्चय ही आयेगा, जब मनुष्य-जाति आध्यात्मिक, नैतिक और सामाजिक रूप से इस बात के लिये तैयार होगी कि सर्वत्र शांति का राज्य हो; लेकिन तबतक किसी व्यावहारिक तत्वज्ञान और धर्मशास्त्र को यह मानकर चलना होगा कि युद्ध जीवन का अंग है, और लड़ना मनुष्य का स्वभाव और कर्म है और मनुष्य के योद्धा-रूप के स्वभाव और कर्तव्य को मानकर उसका लेखा-जोखा करना होगा । किसी सुदूर भविष्य में मानव-जीवन किस प्रकार का होगा, केवल इसी का विचार न करके, उसके वर्तमान रूप को देखती हुई, गीता यह प्रश्न उपस्थित करती है कि मनुष्य-जीवन के इस पहलू और कर्तव्य का, जो
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वास्तव में मनुष्य की सर्वसाधारण गतिविधि का ही एक अंग और स्वभाव है, उसकी आत्मिक स्थिति के साथ कैसे मेल बैठाया जाय?
इसीलिए गीता एक योद्धा से कही गयी है जो कर्मठ है; उसके जीवन का कर्तव्य है युद्ध और संरक्षण । युद्ध उसके प्रजापालनधर्म का एक अंग है, उन लोगों की रक्षा के लिये जो युद्ध-कर्म से बरी हैं, जो अपनी रक्षा आप करने से वंचित कर दिये गये हैं और इसलिए बलवान् और आततायी मनुष्यों से अपनेको नहीं बचा सकते । और फिर युद्ध का एक और नैतिक और वीरोचित भाव है, अर्थात् दीन-दुर्बलों और पीड़ितों की रक्षा और जगत् में धर्म और न्याय की स्थापना । ये सभी सामाजिक और व्यावहारिक, नैतिक और वीरोचित भावनाएँ क्षत्रिय शब्द के भारतीय भाव के अंतर्गत आ जाती हैं, क्षत्रिय कर्म से योद्धा और शासक होता है और स्वभाव से शूर-वीर और राजा । यद्यपि हमारे लिये गीता के सर्व सामान्य और व्यापक सिद्धान्त ही सबसे अधिक महत्व रखते हैं तथापि ये सिद्धान्त जिस विशिष्ट भारतीय संस्कृति और समाज-व्यवस्था के समय में प्रादुर्भूत हुए और इस कारण इन सिद्धांतों पर उस संस्कृति और व्यवस्था का जो रंग चढ़ा है और जिस ओर इनका रुख है उनका कोई विचार न करके योंही छोड़ देना ठीक न होगा । उस समाजव्यवस्था की धारणा आधुनिक समाजव्यवस्था की धारणा से भिन्न थी । आधुनिकों की बुद्धि में एक ही मनुष्य विचारक, योद्धा, कृषक, व्यवसायी और सेवक सब कुछ है और आजकल की सामाजिक व्यवस्था का रुख इस ओर है कि इन सब कर्मों को मिला-जुला दिया जाय और प्रत्येक व्यक्ति से समाज के बौद्धिक, सामरिक और आर्थिक जीवन और जरूरत के लिये उसका अपना हिस्सा माँगा जाय और इस बात में उसकी अपनी प्रकृति और उसके स्वभाव की मांग पर कोई ध्यान न दिया जाय । प्राचीन भारतीय संस्कृति में व्यक्तिगत सहज गुण, कर्म, स्वभाव का बहुत अधिक ध्यान रखा जाता था और इसी गुण-कर्म-स्वभाव से व्यक्तिमात्र का विशेष धर्म, कर्म और समाज में उसका स्थान नियत करने का प्रयत्न किया जाता था । उस काल में मनुष्य को मूलत : एक सामाजिक प्राणी नहीं समझा जाता था, न उसकी सामाजिक स्थिति की पूर्ण संपन्नता ही सर्वोच्च आदर्श मानी जाती थी, बल्कि यह मान्यता थी कि मनुष्य एक आध्यात्मिक जीव है जो क्रमश : गठित और विकसित हो रहा है और उसका सामाजिक जीवन, उसका विशेष धर्म, उसके स्वभाव की क्रिया और उसके कर्म का उपयोग, ये सब उसके आध्यात्मिक गठन के साधन और अवस्थामात्र हैं । चिंतन और ज्ञान, युद्ध और राज्य-प्रबंध, शिल्प, कृषि और वाणिज्य, मजदूरी और सेवा, ये सब समाज के विधिपूर्वक बँटे हुए कर्म थे, जो सहज भाव
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से जिस कर्म के योग्य होते उन्हीं को वह काम सौंपा जाता था और वही कर्म उनका वह उचित साधन होता था जिसके द्वारा वे व्यक्तिश: अपनी आध्यात्मिक उन्नति और आत्मसिद्धि की ओर आगे बढ़ सकते थे ।
आधुनिकों की जो यह भावना है कि अखिल मानव-कर्म के सभी मुख्य-मुख्य विभागों में सब मनुष्यों को ही समान रूप से योगदान करना चाहिये, इस भावना के अपने कुछ लाभ हैं; और जहाँ भारतीय वर्णव्यवस्था का अन्त में यह परिणाम हुआ कि व्यक्ति के अनगिनत विभाजन हो गये, उसमें अतिविशेषीकरण की भरमार हो गयी तथा उसका जीवन संकुचित और कृत्रिम बंधनों से बंध गया, वहां आधुनिक व्यवस्था समाज के जीवन को अधिक संघटित, एकत्रित और पूर्ण बनाने में तथा संपूर्ण मानव-सत्ता का सर्वांगीण विकास करने में सहायता देती है । परन्तु आधुनिक व्यवस्था के भी अपने दोष हैं और इसके कतिपय व्यावहारिक प्रयोगों में इस व्यवस्था का बहुत अधिक कठोरतापूर्वक उपयोग किये जाने के कारण इसका परिणाम बेढंगा और अनर्थकारी हुआ है । आधुनिक युद्ध का स्वरूप देखने से ही यह बात स्पष्ट हो जायगी । आज जिस समाज में मनुष्य रहता और पलता है उसकी रक्षा करना और उसके लिये लड़ना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है और इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अपना क्षात्र कर्म करने के लिये बंधा है । इस आधुनिक व्यवस्था का परिणाम यह हुआ है कि राष्ट्र का सारा-का-सारा पुरुषत्व रक्तरंजित खाइयों में मरने और मारने के लिये ढकेल दिया जाता है, विचारक, कलाकार, दार्शनिक, पुजारी, व्यवसायी और कारीगर, सब-के-सब अपने स्वाभाविक कर्म से अलग कर दिये जाते हैं, समाज का सारा जीवन अव्यवस्थित हो जाता है, विचार और धर्माधर्मविवेक का भाव क्षात्र धर्म के नीचे दब जाता है, यहाँतक होता है कि जिस पुरोहित को राज्य की ओर से शान्ति और प्रेम के भाव का प्रचार करने के लिये वृत्ति मिलती है या यह काम उसका सहज कर्म होता है उसे भी अपना धर्म त्याग देना पड़ता है और अपने भाइयों का कत्ल करने के लिये कसाई बन जाना पड़ता है ! इस प्रकार के लड़ाकू राज्य के आदेश द्वारा धर्माधर्मविवेक और मनुष्य के विशिष्ट स्वभाव का ही उल्लंघन होता हो सो नहीं, बल्कि राष्ट्र-संरक्षण का भाव बढ़ते-बढ़ते उन्माद की हदतक पहुँच जाता है और उसका वह राष्ट्र-संरक्षण राष्ट्रीय आत्महत्या में बदल जाने का उत्कट प्रयास होता है ।
इसके विपरीत भारतीय संस्कृति का यह मुख्य लक्ष्य था कि युद्ध और उससे होनेवाला अनर्थ और विनाश, जहाँतक हो सके, कम-से-कम हो । इस उद्देश्य को पूरा करने के लिये भारतीय समाज-व्यवस्था में क्षात्र-धर्म समाज के एक ऐसे छोटे-से
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वर्ग के लोगों में ही परिसीमित कर दिया गया था जो अपने जन्म, स्वभाव और परंपरा से इस कर्म के लिये विशेष उपयुक्त थे और इस कर्म में उनके साहस, उनकी अनुशासित शक्ति, उनकी परोपकार-परायणता, उनकी वीरतापूर्ण महानता आदि गुणों को वृद्धि होकर उनका आत्म-प्रस्फुटन होता था और फलत: वह जीवन उनके आत्मविकास का एक साधन होता था, क्योंकि किसी उच्च आदर्श को सामने रखकर जो लोग योद्धा-जीवन बिताते हैं उनके आत्मविकास के लिये यह जीवन एक क्षेत्र और अवसर बन जाता है । इस प्रकार के कर्म के जो अधिकारी थे उन्हीं के जिम्मे यह युद्ध-कर्म कर दिया गया था; अन्य लोग इससे बरी थे, मारकाट और लूटमार से उनकी हर तरह से रक्षा की जाती थी, उनका जीवन और जीविका यथासंभव इससे अलग ही रखे जाते थे । मानव-स्वभाव में युद्ध और संहार करने की जो प्रवृत्तियां होती हैं उनका क्षेत्र मर्यादित कर दिया गया था, उनकी एक जातिविशेष के अन्दर ही हद बांध दी गयी थी और इस तरह युद्ध से होनेवाली राष्ट्र के सर्वसाधारण जीवन की हानि की संभावना यथासंभव कम कर दी गयी थी । इसके साथ ही युद्ध का जैसा उच्च नैतिक आदर्श था और धर्मयुद्ध के जो मनुष्योचित वीर और उदात्त नियम थे उनसे युद्ध योद्धाओं को क्रूर नरपशु बनाने का निमित्त नहीं बल्कि उन्नत और उदार बनाने का कारण होता था । यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि गीता जो युद्ध करने को कहती है वह ऐसा ही युद्ध था और इन्हीं अवस्थाओं के अंतर्गत लड़ा जाता था, वह युद्ध जो मानव-जीवन का एक अपरिहार्य अंग माना जाता था, पर वह इतना मर्यादित और संयमित था कि अन्य कर्मों के समान यह कर्म भी मनुष्य के नैतिक और आध्यात्मिक विकास में सहायक होता था । और यह नैतिक और आत्मिक विकास ही उस काल में जीवन का एकमात्र और वास्तविक लक्ष्य था, वह युद्ध कतिपय छोटे से दायरों के अन्दर ही व्यक्तियों के जीवन का संहार-कार्य करता था किन्तु इस प्रकार के युद्ध द्वारा योद्धा के आंतरिक जीवन का गठन होता था और जाति की नैतिक उन्नति भी । पूर्वकाल में उस उच्च आदर्श को सामने रखकर जो युद्ध किये जाते थे उनसे उत्कर्ष ही साधित होता था । यह बात चाहे चरमपंथी दुराग्रही शांतिवादी न स्वीकार करें, पर शौर्य और वीरता को युद्ध ने ही विकसित किया है, भारत का क्षात्र-धर्म और जापान का सामुराई-धर्म युद्ध के ही फल हैं । हा्, अपना काम कर चुकने के बाद भले ही युद्ध संसार से बिदा हो जाय; कारण इसकी उपयोगिता समाप्त हो जाने पर भी यदि यह बना रहना चाहे तो यह हिंसा को एक अप्रशमित कूरता के रूपमें ही प्रकट होगा और क्योंकि इसमें युद्ध का आदर्श और संगठनात्मक पहलू होगा ही नहीं, इसलिए मनुष्य का प्रगतिझील मन इसको
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त्याग देगा । परन्तु विकास के इतिहास को यदि विवेकपूर्बक देखें तो पूर्वकाल में युद्ध ने मनुष्यजाति की जो सेवा की है उसे स्वीकार करना ही होगा ।
युद्ध का भौतिक तत्व जीवन के एक सर्वसामान्य तत्व की विशेष और बाह्य अभिव्यक्तिमात्र है और मानव-जीवन को पूर्णता के लिये जिस वैशिष्टय की आवश्यकता है क्षत्रिय उसकी एक बाह्य अभिव्यक्ति और नमूना है । हम लोगों के क्या आंतरिक और क्या बाह्य, दोनों ही प्रकार के जीवन में, संघर्ष का जो पहलू है वही एक विशिष्ट भौतिक आकार धारण करके युद्ध के रूप में प्रकट होता है । यह संसार संघर्ष का क्षेत्र है, यहाँका तरीका है कि विभिन्न शक्तियाँ एक-दूसरेसे टकराती और भिड़ती हैं और इस तरह परस्पर संहार के द्वारा एक ऐसे सतत परिवर्तनशील सामंजस्य की ओर आगे बढ्ती हैं जो स्वयं किसी प्रगतिशील सुसंगति-साधन का द्योतक है तथा पूर्ण समन्वय की आशा दिलाता है, और इसका आधार है एकता की एक ऐसी निहित संभावना जो अभी तक पकड़ में नहीं आयी है । क्षत्रिय, मनुष्य में विद्यमान योद्धा का प्रतीक और मूर्त रूप है । वह इसे अपने जीवन का सिद्धान्त बना लेता है और योद्धा के नाते युद्ध का सामना करता हुआ विजय के लिये यत्न करता है, मानव शरीरों और रूपों का संहार करने में तो वह नहीं हिचकता पर इस संहार-कर्म में उसका लक्ष्य होता है किसी ऐसे सत्य, न्याय और धर्म के सिद्धान्त की उपलब्धि जो उस सामंजस्य की बुनियाद हो सके जिसकी ओर यह सारा संघर्ष प्रवाहित हो रहा है । गीता विश्व-ऊर्जा के इस पहलू को तथा युद्ध के भौतिक तथ्य को--जो इस पहलू का मूर्तरूप है--स्वीकार करती है और एक क्षत्रिय को सम्बोधित करती है अर्थात् उस मनुष्य को जो कर्मशील, उद्योगी और योद्धा है--यह युद्ध अन्दर शान्ति और बाहर अहिंसा रखने की अंतरात्मा की उच्च अभीप्सा से एकदम विपरीत है और जिस योद्धा को गीता उपदेश देती है उसके कार्य और संघर्ष की आवश्यक हलचल अंतरात्मा के शान्त प्रभुत्व और आत्म-अधिकृति जैसे आदर्शों के सर्वथा विपरीत मालूम होती है । ऐसी परस्पर-विरोधी अवस्थाओं में से गीता एक रास्ता निकालने और एक ऐसे स्थल पर पहुँचाने का प्रयास करती है जहाँ दोनों बातें बराबर होकर मिल जायँ और वह संतुलित अवस्था हो जाय जो सामंजस्य और परा-स्थिति का मूल और पहला आधार हो ।
मनुष्य जीवन-संग्राम का सामना अपनी प्रकृति के सर्वोपरि मूलभूत गुण के अनुरूप ही किया करता है; सांख्य सिद्धांत के अनुसार--जो इस प्रसंग में गीता को भी मान्य है--विश्व-ऊर्जा के और इसालिए मानव-स्वभाव के भी, तीन मूलभूत तत्व या गुण हैं । सत्व संतुलित अवस्था, ज्ञान और संतोष का
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गुण है; रज प्राणावेग, कर्म एवं द्वन्द्वमय भावावेग का और तम अज्ञान तथा जड़ता का । मनुष्य में जब तमोगुण की प्रधानता होती है तब वह अपने चारों ओर चक्कर काटनेवाली और अपने ऊपर आ धमकनेवाली जगत्-शक्तियों के वेगों और धक्कों का उतना सामना नहीं करता, क्योंकि उनके सामने वह हिम्मत हार जाता, उनके प्रभाव में आ जाता, शोकाकुल हो जाता और उनकी अधीनता स्वीकार कर लेता है; अथवा अधिक-सें-अधिक अपने अन्य गुणों से मदद पाकर किसी तरह बचे रहना भर चाहता है, जबतक टिक सके तबतक टिका रहना चाहता है, किसी ऐसे आचार-विचार से बँधे जीवनक्रम के गढ़ में छिपकर अपनी जान बचाना चाहता है जिसमें पहुँचकर वह अपने-आपको किसी अंश में इस संग्राम से बचा हुआ समझे और यह समझे कि उसकी उच्चतर प्रकृति उससे जो कुछ माँग रही है उसे वह अस्वीकार कर सकेगा तथा इस संघर्ष को और आगे बढ़ाने और एक वर्धमान प्रयास एवं प्रभुत्व के आदर्श को चरितार्थ करने की मेहनत से मुक्त हो सकेगा । रजोगुण की जब प्रधानता होती है तो मनुष्य अपने -आपको युद्ध में झोंक देता है और शक्तियों के संघर्ष का उपयोग अपने ही अहंकार के लाभ के लिए अर्थात् विरोधी को मारने-काटने, जीतने, उसपर प्रभुत्व पाने और जीवन का भोग करने के लिए करता है; अथवा अपने सत्वगुण से कुछ मदद पाकर इस संघर्ष को अपनी आतरिक प्रभुता, अंत:सुख-शक्ति-संपत्ति बढ़ाने का साधन बना लेता है । जीवन-संग्राम उसके आनन्द और नशे की चीज बन जाता है, इसका कारण कुछ तो यह होता है कि संघर्ष करना उसका स्वभाव होता है, इस तरह कर्मण्यता में उसे सुख मिलता है और उसको अपनी शक्ति का अनुभव होता है और कुछ अंश में यह उसकी वृद्धि और स्वाभाविक आत्मविकास का साधन होता है । जब सत्वगुण की प्रधानता होती है तब मनुष्य संघर्ष के बीच धर्म, सत्य, संतुलित अवस्था, समन्वय, शान्ति, संतोष का कोई तत्व ढूंढा करता है । विशुद्ध सात्विक मनुष्य इसीका अनुसंधान अपने अन्दर करता रहता है, चाहे केवल अपने लिए ही करे अथवा यह भाव चित्त में रखे कि जब चीज हासिल होगी तब वह दूसरों को भी दी जायगी, किन्तु यह काम साधारणतया सक्रिय जगत्- शक्ति के झगड़े और कोलाहल से निर्लिप्त होकर अथवा बाह्यत: उनका त्याग करके किया जाता है; पर सात्विक मनुष्य जब अंशत : राजसी वृत्ति स्वीकार करता है तो वह इसको संघर्ष और बाहरी गड़बड़झाले के ऊपर संतुलित अवस्था और सामंजस्य को लादने के लिए, युद्ध, अनबन और संघर्ष पर शान्ति, प्रेम और सामंजस्य को विजय दिलाने के लिए करता है । जीवन-समस्या को हल करने के लिए मनुष्य का मन जो-जो ढंग अख्तियार करता है वे सब ढंग इन्हीं गुणों में से
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किसी एक गुण की प्रधानता से या इन गुणों के बीच सन्तुलन और सामंजस्य स्थापित करने के प्रयत्न से ही उत्पन्न होते हैं ।
परन्तु एक ऐसी अवस्था आती है जब मन इस सारी समस्या से ही फिर जाता है और प्रकृति की तीन अवस्थाओं या त्रैगुण्य से प्राप्त होनेवाले उपायों से असन्तुष्ट होकर किसी ऐसे हल को ढूंढने लगता है जो त्रैगुण्य से परे या ऊपर हो । मन किसी ऐसी चीज में भाग जाना चाहता है जो गुणों के बाहर हो या जो समस्त गुणों से सर्वथा रहित और इसलिए कर्मरहित हो, अथवा किसी ऐसी चीज में जाना चाहता है जो इन तीनों गुणों से श्रेष्ठ हो और ये गुण जिसके वश में हों, इसलिए वहाँ पहुँचकर वह कर्म भी कर सके और उससे अलिप्त और अप्रभावित भी रह सके, यानी निर्गुण या त्रिगुणातीत अवस्था में पहुंचना चाहता है, निर--पेक्ष शान्ति और निरुपाधि स्थिति के लिये अथवा प्रबल स्थिरता और श्रेष्ठतर स्थिति के लिये अभीप्सा करता है । इनमें से पहले भाव की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है संन्यास की ओर और दूसरे भाव की प्रवृत्ति होती है प्रकृति की माँगों तथा उसकी क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के चक्कर पर प्रभुत्व प्राप्त करने की ओर, और इसका सिद्धांत होता है समता की स्थापना तथा आवेशों और कामना का आंतरिक त्याग । अर्जुन के चित्त में पहले वही पहला आवेग हुआ था जिसके कारण कुरुक्षेत्र में, अर्थात् युद्ध और हत्याकांड के घोर सहार-क्षेत्र में अपने वीर कर्म की दुःखद पराकाष्ठा से उसका मन फिर गया, अबतक उसका जो कर्म-सम्बन्धी सिद्धान्त था वह लुप्त हो गया और उसको ऐसा बोध होने लगा कि अकर्म अर्थात् जीवन और जीवन की माँगों का त्याग ही एकमात्र उपाय है । परन्तु भगवान् गुरु की वाणी उसे जो कुछ करने को कहती है वह जीवन और कर्म का बाह्य संन्यास नहीं है, बल्कि उनपर आंतरिक प्रभुता की स्थापना है ।
अर्जुन क्षत्रिय है, एक ऐसा रजोगुणी पुरुष है जो अपना राजसिक कर्म एक उच्च सात्विक आदर्श से नियत करता है । इस भीषण संग्राम में, कुरुक्षेत्र के इस महासमर में वह युद्ध का हौसला लेकर, रणरंग में मस्त होकर आया है, उसे अपने पक्ष के न्यायपूर्ण होने का साभिमान विश्वास भी है, वह अपने तेज रथपर बैठकर शत्रुओं के हृदयों को अपने युद्धशंख के विजयनिनाद से दहलाता हुआ आगे बढ़ता है; क्योंकि वह देखना चाहता है कि उसके विरुद्ध खड़े होकर अधर्म का बल बढ़ाने और धर्म, न्याय और सत्य को कुचलकर उनके स्थान में स्वार्थी और उद्दंड अहंकार की प्रभुता स्थापित करने कौन-कौन राजा आये है । पर उसका यह विश्वास चूर-चूर हो गया और वह अपने सहज-स्वभाव से तथा जीवन-सम्बन्धी अपने मानसिक आधार से एक भीषण आघात खाकर गिर पड़ा; इसका कारण
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यह हुआ कि राजसिक अर्जुन में तमोगुण की एक बाढ़ आ गयी और इसने उसको आश्चर्य, शोक, भय, निरुत्साह, विषाद, मन की व्याकुलता और अपने ही तर्कों के परस्पर-संग्राम द्वारा व्यथित कर इस कार्य से मुंह मोड़ने के लिए उकसाया और वह अज्ञान और जड़ता में डूब गया । परिणाम यह हुआ कि वह संन्यास की ओर मुड़ा । वह सोचने लगा कि इस क्षात्र-धर्म से जिसका फल अविवेकपूर्ण संहार है, प्रभुता, यश और अधिकार के सिद्धान्त से होनेवाले नाश और रक्त-पात से, रक्तरंजित सुखभोग से, न्याय और धर्मविरोधी उपायों से सत्य और न्याय की स्थापना करने से, और एक ऐसे युद्ध के द्वारा सामाजिक विधान की रक्षा करने से जो समाज की प्रक्रिया और परिणाम का विरोधी हो--इन सबकी अपेक्षा तो भीख माँगकर जीनेवाले भिक्षुक का जीवन भी अच्छा है ।
संन्यास का अर्थ है जीवन और कर्म तथा प्रकृति के त्रिगुण का त्याग, किन्तु इस त्रिगुण में से किसी एक गुण के द्वारा ही संन्यास की ओर जाना होता है । संन्यास की ओर जाने का आवेग तामसिक हो सकता है, अर्थात् क्लीवता, भय, विद्वेष, जुगुप्सा, जगत् और जीवन से त्रास अनुभव होता हो; अथवा हो सकता है कि यह तमकी ओर झुका हुआ राजसिक गुण हो, अर्थात् संघर्ष से थकावट मालूम पड़ने लगी हो, शोक छा गया हो, निराशा उत्पन्न हो गयी हो और कष्ट तथा अनन्त असंतोष से भरे हुए कर्म के इस व्यर्थ के हुल्लड़ को स्वीकार करने से जी ऊब गया हो; अथवा हो सकता है कि यह सत्य की ओर झुका राजसिक आवेग हो, अर्थात् यह जीवन जो कुछ दे सकता है उससे किसी श्रेष्ठ वस्तु तक पहुँचने, किसी उच्चतर अवस्था पर विजय प्राप्त करने, समस्त बंधनों को तोड़नेवाली और समस्त सीमाओं को पार करनेवाली किसी आंतरिक शक्ति के पैरों तले स्वयं जीवन को ही कुचल डालने का आवेग उठा हो; अथवा हो सकता है कि यह सात्विक हो अर्थात् जीवन की निस्सारता का और इस जगत्-जीवन के, किसी सच्चे लक्ष्य या औचित्य के बिना ही, निरंतर चक्कर काटते रहने का एक बौद्धिक आभास हुआ हो या फिर उस सनातन, अनन्त, निश्चल-नीरव, नाम-रूप-रहित परात्पर शान्ति का कोई आध्यात्मिक अनुभव हुआ हो और इसलिए जगत्-जीवन और कर्म से संन्यास ले लेने का आवेग उठा हो । अर्जुन को जो विराग हुआ है वह सत्य की ओर प्रवृत्त रजोगुणी पुरुष का कर्म से तामस विराग है । गुरु चाहें तो उसे इसी रास्ते पर स्थिर कर सकते हैं, इसी अंधेरे दरवाजे से विरक्त जीवन की शुद्धता और शान्ति में उसे प्रविष्ट करा सकते हैं; अथवा इस वृत्ति को तुरन्त शुद्ध करके वे उसे संन्यास की सात्विक प्रवृत्ति के अत्युच्च शिखरों पर चढ़ा सकते हैं । पर वास्तव में वे इन दोनों में से एक भी नहीं करते । गुरु उसके तामस
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विराग और संन्यास ग्रहण करने की प्रवृत्ति से उसका चित्त फेरते हैं और कर्म को ही जारी रखने के लिये कहते हैं और वह भी उसी भीषण और घोर कर्म को । परन्तु इसके साथ ही उसे एक दूसरे और ऐसे आंतरिक वैराग्य का निर्देश करते हैं जो उसके संकट का सच्चा निराकरण है, और जो विश्वप्रकृति पर जीवन की श्रेष्ठता स्थापित करने का रास्ता है और यह होते हुए भी मनुष्यों को स्थिर और आत्म-अधिकृत कर्म में प्रवृत्त रखता है । शारीरिक नहीं, बल्कि आंतरिक तपस्या ही गीता में अभिप्रेत है ।
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